हमारा परिवार उन्नाव में रहता था. मैं बीएससी की पढ़ाई कानपुर से कर रहा था. मेरे आवागमन का साधन ट्रेन थी. जनवरी का महीना था, कालेज में क्लास खत्म होने के बाद वापसी के लिए शाम की ट्रेन पकड़ी. भीड़ अधिक थी. मैं अभी दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खड़ा ही हुआ था कि ट्रेन चल दी. दरवाजे के पास खड़े लोगों ने जानबूझ कर दरवाजा बंद कर लिया और हंसने लगे. मैं जोर से आवाजें दे रहा था. मेरे हाथ सर्दी से सुन्न हुए जा रहे थे. पलपल भारी लग रहा था. अगले स्टेशन के आने का इंतजार कर रहा था. तभी एक व्यक्ति ने दरवाजा खोल दिया. उस समय कुछ न बोल पाने की स्थिति में मानो उसे दिल से धन्यवाद दे रहा था, जिस ने मेरे चेहरे पर इस विषम स्थिति में मुसकान ला दी.

प्रमोद चंद्र, कानपुर (उ.प्र.)

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शिक्षिका होने के कारण मुझे अकसर बच्चों के अभिभावकों से मिलने का मौका प्राप्त होता है. इन में अधिकतर बच्चों के मातापिता अनपढ़ होते हैं, दिनभर घरों में काम कर अपनी जीविका चलाते हैं. एक दिन शिक्षकअभिभावक सम्मेलन में मुझे नया अनुभव प्राप्त हुआ. एक बच्चा, जो लगातार हर महीने मासिक परीक्षा में असफल होता था, अचानक अच्छे नंबरों से पास होने लगा. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, लगा कि इस ने जरूर कोई गड़बड़ की होगी. लेकिन जब उस के अभिभावकों से बात की तो उन्होंने बताया कि जिन घरों में वे काम करते हैं, उन घरों के बुजुर्ग खाली समय में इसे पढ़ाते हैं. मुझे यह सुन कर बहुत खुशी हुई. घर के बुजुर्ग सदस्य अपना काफी समय पूजापाठ, सत्संग आदि में बिताते हैं, इस के बजाय वे अपना समय गरीब बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत करें तो इस से अच्छा काम क्या होगा. साथ ही अन्य बच्चों की तरह भविष्य में उन्हें भी सफलता मिल सकेगी.

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