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मुक्ति

अपने जैसे लोग : भाग 3

मैं भी जरा क्रोध में बोलती हुई धोती को उठा कर बाहर डाल आई थी. बहुत दुख हुआ था नीरज के सोचने के ढंग पर. फिल्म देखते हुए भी दिल उखड़ाउखड़ा रहा. परंतु मैं ने भी हिम्मत न हारी.

तीसरे दिन शाम को 6 नंबर वाली रमा हमारे यहां आईं तो मुझे आश्चर्य हुआ. पर वे बड़े प्रेम से अभिवादन कर के बैठते हुए बोलीं, ‘‘शीलाजी, आप कलम चलाने के साथसाथ कढ़ाई में भी अत्यंत निपुण हैं, यह तो हमें अभी सप्ताहभर पहले ही सौदामिनीजी ने बताया है. सच, परसों दोपहर आप ने बरामदे में जो धोती सुखाने के लिए डाल रखी थी, उस पर कढ़े हुए बूटे इतने सुंदर लग रहे थे कि मैं तो उसी समय आने वाली थी लेकिन आप उस दिन फिल्म देखने चली गईं.’’

नीरज उस समय वहीं बैठा था. रमा अपनी बात कह रही थीं और हम एकदूसरे के चेहरों को देख रहे थे. मैं अपनी खुशी को बड़ी मुश्किल से रोक पा रही थी और नीरज अपनी झेंप को किसी तरह भी छिपाने में समर्थ नहीं हो रहा था. आखिर उठ कर चल दिया. रमा जब चली गईं तो मैं ने उस से कहा, ‘‘अब बताओ कि वे मेरी धोती के सस्तेपन पर हंस रही थीं या उस पर कढ़े हुए बेलबूटों की सराहना कर रही थीं.’’

‘‘हां, भई, चलो तुम्हीं ठीक हो. मान गए हम तुम्हें.’’ पहली बार उस ने अपनी गलती स्वीकारी. उस के बाद एक आत्मसंतोष का भाव उस के चेहरे पर दिखाई देने लगा.

इस कालोनी में रहने का एक बड़ा लाभ मुझे यह हुआ कि मध्यम और उच्च वर्ग, दोनों ही प्रकार के लोगों के जीवन का अध्ययन करने का अवसर मिला. मैं ने अनुभव किया बड़ीबड़ी कोठियों में रहने वाले व धन की अपार राशि के मालिक होते हुए भी अमीर लोग कितनी ही समस्याओं व जटिलताओं से जकड़े हुए हैं. उधर अपने जैसे मध्यम वर्ग के लोगों की भी कुछ अपनी परेशानियां व उलझनें थीं.

मेरे लिए खुशी की बात तो यह थी कि प्रत्येक महिला बड़ी ही आत्मीयता से अपना सुखदुख मेरे सम्मुख कह देती थी क्योंकि मैं समस्याओं के सुझाव मौखिक ही बता देती थी या फिर अपनी लेखनी द्वारा पत्रिकाओं में प्रस्तुत कर देती थी. परिणामस्वरूप, कई परिवारों के जीवन सुधर गए थे.

मेरे घर के द्वार हर समय हरेक के लिए खुले रहते. अकसर महिलाएं हंस कर कहतीं, ‘‘आप का समय बरबाद हो रहा होगा. हम ने तो सुना है कि लेखक लोग किसी से बोलना तक पसंद नहीं करते, एकांत चाहते हैं. इधर हम तो हर समय आप को घेरे रहती हैं…’’

‘‘यह आप का गलत विचार है. लेखक का कर्तव्य जनजीवन से भागने का नहीं होता, बल्कि प्रत्येक के जीवन में स्वयं घुस कर खुली आंखों से देखने का होता है. तभी तो मैं आप के यहां किसी भी समय चली आती हूं.’’ मैं बड़ी नम्रता से उत्तर देती तो महिलाएं हृदय से मेरे निकट होती चली गईं.

धीरेधीरे उन के साथ उन के पति भी हमारे यहां आने लगे. नीरज को भी उन का व्यवहार अच्छा लगा और वह भी मेरे साथ प्रत्येक के यहां जाने लगा. मुझे लगने लगा वास्तव में सभी लोग अपने जैसे हैं…न कोई छोटा न बड़ा है. बस, दिल में स्थान होना चाहिए, फिर छोटे या बड़े निवासस्थान का कोई महत्त्व नहीं रहता.

अभी 3 दिनों पहले ही पंकज का जन्मदिन था. हमारी इच्छा नहीं थी कि धूमधाम से मनाया जाए, परंतु एक बार जरा सी बात मेरे मुंह से निकल गई तो सब पीछे पड़ गए, ‘‘नहीं, भई, एक ही तो बच्चा है, उस का जन्मदिन तो मनाना ही चाहिए.’’

हम दोनों यही सोच रहे थे कि जानपहचान वाले लोग कम से कम डेढ़ सौ तो हो ही जाएंगे. कैसे होगा सब? इतने सारे लोगों को बुलाया जाएगा तो पार्टी भी अच्छी होनी चाहिए.

‘‘इतने बड़े लोगों को मुझे तो अपने यहां बुलाने में भी शर्म आ रही है और ये सब पीछे पड़े हैं. कैसे होगा?’’ नीरज बोला.

‘‘फिर वही बड़ेछोटे की बात कही आप ने. कोई किसी के यहां खाने नहीं आता. यह तो एक प्रेमभाव होता है. मैं सब कर लूंगी.’’ मैं ने अवसर देखते हुए बड़े धैर्य से काम लिया. सुबह ही मैं ने पूरी योजना बना ली.

आशा देवी की आया व कमलाजी के यहां से 2 नौकर बुला लिए. लिस्ट बना कर उन्हें सहकारी बाजार से सामान लाने को भेज दिया और मैं तैयारी में जुट गई. घंटेभर बाद ही सामान आ गया. मैं ने घर में समोसे, पकोड़े, छोले व आलू की टिकिया आदि तैयार कर लीं. मिठाई बाजार से आ गई.

बैठने का इंतजाम बाहर लौन में कर लिया गया. फर्नीचर आसपास की कोठियों से आ गया. सभी बच्चे अत्यंत उत्साह से कार्य कर रहे थे. गांगुली साहब ने अपनी फर्म के बिजली वाले को बुला कर बिजली के नन्हें, रंगबिरंगे बल्बों की फिटिंग पार्क में करवा दी. मैं नहीं समझ पा रही थी कि सब कार्य स्वयं ही कैसे हो गया.

रात के 12 बजे तक जश्न होता रहा. सौदामिनीजी के स्टीरियो की मीठी धुनों से सारा वातावरण आनंदमय हो गया. पंकज तो इतना खुश था जैसे परियों के देश में उतर आया हो. इतने उपहार लोगों ने उसे दिए कि वह देखदेख कर उलझता रहा, गाता रहा. सब से अधिक खुशी की बात तो यह थी कि जिस ने भी उपहार दिया उस ने हार्दिक इच्छा से दिया, भार समझ कर नहीं. मैं यदि इनकार भी करती तो आगे से उत्तर मिलता, ‘‘वाह, पंकज आप का बेटा थोड़े ही है, वह तो हम सब का बेटा है.’’ यह सुन कर मेरा हृदय गदगद हो उठता.

रात के 2 बज गए. बिस्तर पर लेटते ही नीरज बोला, ‘‘आज सचमुच मुझे पता चल गया है कि व्यक्ति के अंदर योग्यता और गुण हों तो वह कहीं भी अपना स्थान बना सकता है. तुम ने तो यहां बिलकुल ऐसा वातावरण बना दिया है जैसे सब लोग अपने जैसे ही नहीं, बल्कि अपने ही हैं, कहीं कोई अंतर ही नहीं, असमानता नहीं.’’

‘‘अब मान गए न मेरी बात?’’ मैं ने विजयी भाव से कहा तो वह प्रसन्नता से बोला, ‘‘हां, भई, मान गए. अब तो सारी आयु भी इन लोगों को छोड़ने का मन में विचार तक नहीं आएगा और छोड़ना भी पड़ा तो अत्यंत दुख होगा.’’

‘‘तब इन लोगों की याद हम साथ ले जाएंगे,’’ कह कर मैं निश्ंिचत हो कर बिस्तर पर लेट गई.

मुक्ति- भाग 2 : श्यामसुंदर को किस बात की पीड़ा थी

लेखिका- गायत्री ठाकुर

समधी-समधन के बीच उठे इस विवाद को बढ़ता देख अपनेआप को संयमित करते हुए श्यामसुंदर दास ने बड़े ही शांत भाव से कहा, “मैं आप की बातों से पूर्णतया सहमत हूं समधन जी. मैं आप के विचारों का आदर करता हूं. मैं भी नहीं चाहूंगा कि आप की बेटी विधवा जीवन के कष्टों को भोगते हुए सिर्फ मेरी सेवा के लिए यहां पूरी जिंदगी पड़ी रहे. आप बड़े सम्मान के साथ अपनी बेटी को अपने साथ ले जाएं. उसे अपनी जिंदगी जीने का पूरा हक है.”

इतना कहते हुए उन्होंने अपने दोनों हाथ समधीसमधन के आगे जोड़ दिए. और उस के बाद श्यामसुंदर दास अपने बेटे के कमरे में चुपचाप आ कर बैठ गए. सामने बेटे की तसवीर के आगे दीपक जल रहा था और उस दीप के प्रकाश में उन के बेटे का मुसकराता चेहरा मानो उन्हें ही देख रहा था…और कह रहा था… ‘पापा. मैं आप के साथ हूं.’

सारी रात श्यामसुंदर जी बेटे की तसवीर के पास ही बैठे रह गए. वहीं बैठेबैठे जाने कब उन की आंख लग गई. सुबह उन की आंखें खुलीं तो नंदा उन के सामने चाय की प्याली लिए खड़ी थी. उन्होंने अपनी बहू की ओर भीगी पलकों से एक नजरभर देखा और उस के सिर पर बड़े ही प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “जाओ, जहां भी रहना सदा ही खुश रहना.” और उन की आंखें छलक पड़ीं.

तभी उन की बहू के पीछे खड़ी उन की समधन आगे बढ़ कर अपनी बेटी के हाथों से चाय की प्याली ले कर श्यामसुंदर जी को पकड़ाते हुए बोली, “हम मांबाप का क्या है, हम ने तो अपनी जिंदगी जी ली है. हमारे बच्चे खुश रहने चाहिए. आप की पीड़ा मैं अच्छे से समझती हूं. आप ने  तो अपना  जवान बेटा खोया है. परंतु हमारी भी लाचारी है. आखिर, मैं भी तो एक बेटी की मां हूं. मेरे लिए भी उस की खुशी सब से बढ़ कर है. परंतु उस के जीवन निर्वाह में…, मेरा मतलब है उस के भविष्य को संवारने के लिए पैसों की भी तो जरूरत पड़ेगी ही.” समधन अपनी धुन में बस अपनी ही कहे जा रही थी, कि अचानक श्यामसुंदर जी गहने और कुछ रुपयों से भरा एक बक्सा तथा एक बैग, जिस में बैंक के कुछ कागजात थे, पकडा़ते हुए उन्होंने  अपनी समधन से  कहा, “यह मेरे बेटे की पूरी कमाई है. अब मेरा बेटा ही नहीं रहा, तो मैं इन सब का क्या करूंगा.” और इतना कह कर वे कमरे से बाहर निकल गए.

जाने से पहले नंदा अपने पीछे श्यामसुंदर जी की देखरेख के लिए अपनी चाची सास से पूछती है तो श्यामसुंदर जी के छोटे भाई की पत्नी यानी नंदा की चाची सास उसे भरोसा दिलाते हुए कहतीं है कि, “तुम इस बात की फ़िक्र मत करो. भले ही हम बंटवारे के बाद अलग रह रहे हैं परंतु जहां इतने लोगों का खाना बनेगा वहां भाईजी के लिए  दो रोटी बनाना कोई मुश्किल काम नहीं. तुम  इस बात की चिंता मत करो,  हम सब यहां उन का खयाल रखेंगे.”

नंदा अपनी चाची सास की इस बात पर भरोसा कर के कि उस के पीछे उस के ससुर जी का ख़याल रखने के लिए उन के छोटे भाई का भरापूरा परिवार है, अपनी मां की जिद्द पर उन के साथ जाने के लिए राजी हो जाती है. “मम्मी, पापा, यहां आओ.”

“क्यों, क्या है, क्यों आवाज लगा रहा है और  आज सुबहसुबह कहां चला गया था?” “अरे मम्मी, ये सारी बातें मैं बाद में बताऊंगा, पहले बताओ, पापा कहां हैं?” “क्या हुआ, क्यों खोज रहे हो  मुझे?” “आप दोनों अब अपनी अपनी आंखें बंद करें. कोई शरारत नहीं, पापा, नो चीटिंग.”

“ओके, ओके, चलो  ठीक है.” “आराम से, पापा सामने सीढ़ी है. अब राइट मुड़ कर चार कदम. अब लेफ्ट… अब, बस, रुक जाइए. आप दोनों अब अपनेअपने हाथ मुझे  पकड़ा दीजिए  और अब छू कर  ‘गेस’ कीजिए और बताइए कि क्या है?”

“ड्रामेबाज कहीं का, सीधेसीधे नहीं बता सकता कि क्या है?” “अरे, इतनी महंगी कार! इस की जरूरत क्या थी? यह  फुजूलखर्ची  है.” “जरूरत कैसे नहीं थी पापा. यह तो आप का सपना था न. जाने कब से आप खरीदना चाह रहे थे इसे. मेरी तरफ से आप दोनों को शादी की सालगिरह पर गिफ्ट है. मैं ने आप दोनों के लिए होटल में टेबल बुक करा दी है. और पापा, आज आप मम्मी को डेट पर ले कर जाओगे.”

“श्यामसुंदर जी कैसे हैं आप?” “मैं इधर से निकल रहा था, तो सोचा आप से मिल कर आप का हालचाल पूछता चलूं,” शास्त्रीजी ने कार के पास चुपचाप खड़े श्यामसुंदर जी के कंधे पर धीरे से अपना हाथ रखते हुए कहा. “आइए चलिए, अंदर चल कर बातें करते हैं,” श्यामसुंदर जी ने धीरे से कहा.

अंदर आ कर दोनों ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गए. श्यामसुंदर जी ने आवाज लगा कर किसी को पानी लाने के लिए कहा तो उन के छोटे भाई की पत्नी कुसुम उन दोनों के लिए पानी ले कर आ जाती है और पानी का गिलास उन दोनों को थमा देने के बाद वहां से निकल कर  ड्राइंगरूम के दरवाजे के पीछे छिप कर उन की बातें सुनने के लिए खड़ी रह जाती है.

“जो कुछ हुआ, मुझे उस का सच में बहुत अफसोस है. आप की बहू को अभी इतनी जल्दी घर छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था. आप के बेटे की मृत्यु का शोक भी ढंग से मना नहीं सकी और उन के मांबाप उसे विदा करा ले गए. लेकिन हम सब कर भी क्या सकते हैं. हमारे जीवन में जो कुछ भी होता है सब कुदरत की मरजी से ही होता है. आप इसे भी कुदरत की मरजी समझिए. शायद इस में ही सब का भला हो,” शास्त्रीजी ने ढाढस बांधने के अंदाज में कहा.

मैं दो बेटियों की मां हूं, मेरी बेटियां इन दिनों मेरा बात नहीं मानती हैं क्या करना चाहिए?

सवाल

मैं अपनी 2 बेटियों के साथ रहती हूं, सिंगल मदर हूं, दोनों बेटियों की जिम्मेदारी मुझ पर ही है. मैं सरकारी नौकरी में हूं, दोनों बेटियों को मैं ने अच्छी शिक्षा देने की कोशिश की है. मेरी छोटी बेटी 17 साल की है और बड़ी 22 की. छोटी बेटी अकसर टिकटौक पर वीडियो बनाया करती थी. अपना सारा समय वह टिकटौक पर वीडियो बनाने या बाकी लोगों की वीडियो देखने में बरबाद करती है. मैं उस से कुछ कहती हूं या बड़ी बेटी कुछ कहने की कोशिश करती है तो वह सुन कर भी अनसुना कर देती है. क्या करूं, समझ नहीं आता.

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जवाब

आप अपनी बेटी को समझाइए कि यह उम्र पढ़ने या किसी स्किल को डैवलप करने की है. स्किल डैवलपमैंट ही उसे आगे कैरियर में मदद करेगी. टिकटौक टाइमपास के लिए तो अच्छा है लेकिन सारा समय उसी में व्यर्थ करना ठीक नहीं है. हो सकता है वह यह बात अभी न समझे लेकिन एक मां के रूप में यह आप का कर्तव्य है कि आप उसे समझने पर मजबूर करें.

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आप उसे कोई क्लास या कोर्स जौइन करा दीजिए जिस से उस का ध्यान बेकार की चीजों से खुदबखुद बंट जाएगा. जरूरी नहीं कि वह कोर्स पढ़ाई से ही संबंधित हो. आप उसे उस की पसंद की किसी एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटी की क्लास में भी डलवा सकती हैं. इस के अलावा उस के इंटरनैट यूसेज पर रोक लगा सकती हैं. बच्चे सोशल मीडिया पर ही सारा समय न लगे रहें, इस का ध्यान रखना भी जरूरी
है.

मुक्ति- भाग 1 : श्यामसुंदर को किस बात की पीड़ा थी

लेखिका- गायत्री ठाकुर

‘पापा, मुझे अपने कंधे पल बिठा लो न. अब औल नहीं चला जाता…’ ‘अरे, थोड़ी देर और चल लो न, आगे की सड़क पार करते ही टैक्सी मिल जाएगी. क्यों पापा को तंग कर रहे हो?’ ‘नहीं, मुझे पापा के कंधे पल बैठना है.’

‘अरे जाने दो, सच में इस के पैर थक गए होंगे. आ जा, मैं अपने राजा बेटा को कंधे पर बिठा लेता हूं.’‘हाहाहा पापा, मम्मी समझतीं ही नहीं. देखो, मेरे पांव कितने छोटे हैं… पापा, आप के  कंधे पल बहुत मजा आता है, हाहाहा.’”श्यामसुंदर जी, श्यामसुंदर जी, अब और कितनी देर तक अर्थी ऐसे ही पड़ी रहेगी? मोह का त्याग करिए. चलिए उठिए, अर्थी को कंधा दीजिए.”

जवान बेटे के मृतशरीर के सामने बुत बने बैठे श्यामसुंदर जी अपने बेटे के मृतशरीर को पथराई आंखों से देखे जा रहे थे.  उन की आंखों के सामने उन के बेटे का बचपन, उस की शरारतें, उस का हंसना, उस की तोतली बोली, उस का उन के कंधे पर बैठने की जिद… सभी कुछ किसी सिनेमा के परदे के समान चल रहा था.

वह दुख की असीम अवस्था में मृतप्राय से अपने बेटे के चेहरे को बस देखे जा रहे थे. तभी किसी ने उन के कंधे को हाथों से हिलाते हुए यह बात कही-“क..क..कंधा..,” उन की जबान  कांप सी गई. “अ..अर्थी..” ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें किसी गहरी नींद से जगा दिया गया हो. वे इन्हीं शब्दों को कांपती हुई आवाज में दोहराए जा रहे थे.

” हां, हां अर्थी, आप का बेटा इस दुनिया में नहीं रहा. अब मोह का त्याग कीजिए. मृतशरीर को ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता. इस की अंतिमयात्रा के लिए आप को कंधा तो देना ही होगा,” शास्त्रीजी ने समझाते हुए कहा.

अपने जवान इकलौते बेटे की मौत के दुख ने श्यामसुंदर जी को इस कदर तोड़ दिया था कि खड़े होने की कोशिश में वे लड़खड़ा से गए.उन के पैर कांप रहे थे. पर अभी तो उन्हें खुद को मजबूत करना था. मृत बेटे की अर्थी को कंधा देना था. वह कंधा, जिस पर नन्हा कदम थक जाने पर  उस की सवारी के लिए  मनुहार  करता था. वह कंधा, जिस पर चढ़ कर वह खुशी से  मचलने लगता था. उसे पूरी दुनिया में अपने पापा की कंधे की सवारी भाती थी. मंदिर की घंटी छूनी हो तो पापा का कंधा, मम्मी की छिपाई चीजें उतारनी हों तो पापा का कंधा. और आज अंतिमयात्रा भी पापा के कंधे पर.  बेटे को कंधा देने के लिए श्यामसुंदर जी को खुद को मजबूत करना ही था. श्यामसुंदर जी पूरी ताकत के साथ अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालते हुए बेटे की अर्थी को कंधा देने के लिए उठ खड़े होते हैं.

प्रवीण, उन का बेटा. उस की उम्र ही अभी क्या थी. मात्र 29 वर्ष की ही तो थी. पिछले साल ही तो उस की शादी हुई थी. विवाहित जीवन का साल भी पूरा नहीं हुआ और उस की हार्टअटैक से मृत्यु हो गई. अच्छा पढ़ालिखा नौजवान था. अच्छी नौकरी थी. जिंदगी अच्छे से कट रही थी. परंतु अपनी मां की मृत्यु के बाद से ही प्रवीण चुपचाप रहने लगा था.  श्यामसुंदर जी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने बेटे प्रवीण की शादी करा दी थी. उन्हें लगा कि बेटे की शादी करा देने से घर की खोई हुई रौनक वापस लौट आएगी.

बेटे की शादी की बात शास्त्रीजी ने ही उठाई थी और उन्होंने ही रिश्ता तय करवाया था. श्यामसुंदर जी के घर में शास्त्रीजी का अकसर आनाजाना होता था. श्यामसुंदर जी के घर से हो कर जो रास्ता निकलता था, उस से थोड़ी सी ही दूरी पर  जा कर एक गली थी.  वहीं पर एक बड़ा सा धर्मशाला स्थित है. वही धर्मशाला शास्त्रीजी  का स्थाई निवासस्थान है.”हाय रे,, समय का लेखा. देखो,  नियति ने कैसा खेल रचा है. कहां तो बेटा बाप को कंधा देता, बाप को ही बेटे को कंधा देना पड़ रहा है,” भीड़ में से किसी ने धीमे स्वर में यह बात कही.तो किसी दूसरे ने कहा, “हां, सच में सब समय का लिखा है.”

तो किसी तीसरे ने कहा, “अरे, प्रकृति को ले ही जाना था तो इस बूढ़े  बेचारे  बाप को ले जाती. इस के जवान बेटे को ले जा कर उस ने किस तरह का न्याय किया.वहां पर एकत्रित भीड़ ने अपने अपने तरीके से अपनी संवेदनाएं प्रकट कीं. उन में से कुछ श्मशान घाट  की तरफ अर्थी के पीछेपीछे चल दिए और कुछ ने अपने घर का रास्ता नापा.बेटे का दाहसंस्कार करने के बाद देरशाम जब श्यामसुंदर जी घर वापस पहुंचे तो घर की दहलीज पर पैर रखते ही  उन के कानों में अपनी समधन की बातें सुनाई पड़ीं. वह अपनी  बेटी से कह रही थी, “तुम्हारी पूरी जिंदगी अभी पड़ी है. तुम इसे  अकेली कैसे काटोगी? जो होना था वह तो हो गया. अब तुम हमारे साथ वापस चलोगी. मैं तुम्हें यहां अकेली सिर्फ तुम्हारे ससुर की सेवा करने के लिए तो नहीं छोड़ सकती. अब तुम्हें केवल अपने भविष्य के विषय में सोचना चाहिए.”

“कैसी बातें कर रही हो, नंदा की मां? यह वक्त है ऐसी बातें करने का.. अभी तो उस के पति की चिता की अग्नि शांत भी नहीं हुई और तुम…”, समधी जी ने अपनी पत्नी को झिड़कते हुए कहा.”तो क्या, अपनी बेटी को जिंदगीभर यहां रोने के लिए तो नहीं छोड़ सकती. उस की पूरी जिंदगी पडी़ है. वह किस के सहारे यहां रहेगी. यहां लोगों ने तो अपनी जिंदगी जी ली है. अब यह  सिर्फ यहां किसी की सेवा के लिए तो नहीं पडी़ रहेगी,” समधन ने बड़ी ही कठोरता से ये बातें कहीं.

“ये सारी बातें तुम्हें अभी ही करनी हैं,” समधीजी क्रोधित होते हुए बोले. “हां तो, हमें कभी न कभी  यह निर्णय तो लेना ही है,” श्यामसुंदर दास जी के समधन ने अपने पति की बातों पर चिढ़ते हुए कहा.

मौन: एक नए रिश्ते की अनकही जबान

लेखिका- मनीषा अविनाश 

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

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अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

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इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

Bigg Boss 15 : Rakhi Sawant के पति पर तेजस्वी प्रकाश ने लगाया गंभीर आरोप, जानें क्या है मामला

बिग बॉस 15 में ड्रामा क्वीन राखी सावंत ने अपने पति रितेश के साथ एंट्री ले चुकी हैं. बता दें कि राखी के पति रितेश एक लंबे इंतजार के बाद उनसे मिलने बिग बॉस के घर में आएं है. राखी को इससे पहले हमेशा अपने पति के याद में पड़पते देखा गया था.

राखी को रितेश का हर वक्त इंतजार रहता था और वो अब जाकर पूरा हुआ है. हालांकि रितेश के घर में एंट्री के साथ ही ड्रामा भी होना शुरू हो गया है. राखी और रितेश एक -दूसरे के साथ काफी ज्यादा खुश नजर आ रहे हैं तो वहीं बाकी सभी कंटेस्टेंट काफी ज्यादा परेशान हो गए हैं.

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इसी बीच राखी सावंत के पति रितेश पर तेजस्वी ने गंभीर आरोप लगाएं हैं. तेजस्वी ने रितेश पर आरोप लगाएं है कि राखी सावंत के पति रितेश उनके करीब आने की कोशिश कर रहे हैं. बीते एपिसोड़ में तेजस्वी इस बात को अपने बॉयफ्रेंड करण कुंद्रा को बताती नजर आईं है.

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तेजस्वी ने अपने बॉयफ्रेंड से कहा कि राखी सावंत का पति मुझे काफी ज्यादा अनकंफर्टेबल महसूस करवाता है. उसका बॉडी लेग्वेज बहुत ज्यादा खराब है और वह मुझे हमेशा छुने की कोशिश करता रहता है. तेजस्वी प्रकाश की इस बात को सुनकर करण कुंद्रा चौक गए . आगे तेजस्वी करण को बताती है कि राखी और उसके पति संस्कार की बात करते हैं लेकिन सामने से ऐसी हरकत करते हैं, जिससे लोग परेशान हो जाए.

जब रितेश मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश कर रहा था, उस वक्त प्रतीक सहजपाल ने सबकुछ देख लिया था. रितेश की इस गंदी हरकत को देखकर प्रतीक ने कहा कि जब जरुरत हो तो मुझे बुला लेना. आगे उसने कहा कि अभिजीत बिचकुले से भी मुझे डर लगता है. यही वजह है कि मैं इन लोगों से दूरी बनाकर रखती हूं.

The Railway Men: भोपाल गैस ट्रेजडी की अनकही कहानी में दिखेंगे इरफान खान के बेटे बाबिल

फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने प्रोडक्शन हाउस  यश राज फिल्मस ने कई सारी हिट फिल्में बॉलीवुड को दी है. जो पुरानी होने के बाद भी लोगों के दिलों में आज भी अपनी जगह बनाए हुए है. लेकिन आज का दौर वेब सीरीज का है जिसमें लोग अपना ज्यादा ध्यान वेब सीरीज के तरफ मोड़ने लगे हैं.

यश राज फिल्म ने कुछ वक्त पहले ही इस बात का खुलासा किया है कि वह भोपाल गैस ट्रेजडी पर एक फिल्म बना रहा है जो 1984 में हुई भोपाल गैस कांड पर अधारित होगी. बता दें कि साल 2021 में इस घटना को 37 साल पूरे हो गए है. आज ही के दिन यशराज ने वेब सीरीज के बारे में अनाउंस किया है.

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इस वेब सीरीज का नाम द रेलवे मेन रखा है. इस वेब सीरीज में एक नहीं दो नहीं बल्कि 4 एक्टर्स हैं. इस वेब सीरीज में दिवंगत अभिनेता इरफान खान के बेटे बाबिल खान भी है. सीरीज में बाबिल के अलावा आर माधवन, केके मेनन और दिव्युर्दु भी हैं. इस वेब सीरीज को एक साल बाद 2 दिसंबर 2022 को रिलीज किया जाएगा.

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इस फिल्म का डायरेक्शन डेब्यू  शिव रवैल करेंगे. खबर है कि इस वेब सीरीज को ग्रैंड स्तर पर बनाया जाएगा. इसमें गैस कांड के हिरोज को ट्रिब्यूट दिया जाएगा. इस खबर के सामने आते ही काफी ज्यादा लोग एक्साइटेड है.

आपके जानकारी के लिए बता दें कि इस वेब सीरीज में सन 1984 में हुए भोपाल गैस कांड को दिखाया जाएगा. इसमें करीब 15,000 लोगों की मौत हुई थी. आपको बता दें कि इस फिल्म के बारे में जानकर लोग काफी ज्यादा अभी से एक्साइटेड है.

दिल्ली प्रैस के लिए संपादकीय इंटर्न

दिल्ली प्रैस की हिंदी पत्रिकाओं के लिए इंटर्नस के अवसर उपलब्ध हैं. आवेदक हिंदी माध्यम से हानर्स स्नातक हों और उनकी लेखन में क्षमता हो. दिल्ली, मुंबई, पटना, जयपुर, भोपाल, फरीदाबाद, गुड़गांव में अवसर. आवेदन में पूरा पता और मोबाइल नंबर देते हुए ईमेल करें: pn2@delhipress.biz

पोस्टल पता: दिल्ली प्रैस, ई 8, झंडेवाला एस्टेट, रानी झांसी रोड, नई दिल्ली 110055

युवा, युवा और युवा

एमेजौन, फ्लिपकार्ट और जियो के जमाने में पढ़ेलिखे सफेदपोश युवाओं के लिए कुछ ही काम बचाने वाले हैं. वे या तो इन महाकंपनियों में पैकिंग कर रहे होंगे या इन का माल गरमी, सर्दी, बरसात में घरघर डिलीवर कर रहे होंगे. इन्हें कामचलाऊ इंग्लिश आती होगी पर ये हर समय घंटों के हिसाब से काम करेंगे. उन के मातापिता के पास चाहे जमीन का छोटा टुकड़ा था या किसी बाजार में अपनी 5 बाई 5 की दुकान क्यों न थी, पर अपनी थी. लेकिन, उन की यानी आज के युवा ग्राहक और उत्पादक के बीच अनजाने पैकर या डिलीवरीमैन बन कर रहे जाएंगे.

इस स्थिति के लिए जहां सरकार जिम्मेदार है, वहीं देश का समझदार इंटैलिजैंसिया भी है जो आज अपने सर्वाइवल के लिए इन बड़ी कंपनियों को सपोर्ट करने को मजबूर है. शिक्षा एक बड़ा वर्ग भेद पैदा कर रहा है. जो कोचिंग पर पैसा खर्च कर सकते है, जिन के मांबाप किसी तरह कंप्यूटर, मोबाइल, लैपटौप, बैटरी बैकअप, वाईफाई का इंतजाम कर सकते हैं वे फटेहालों से आगे,  बहुत आगे निकल जाएंगे.

गरीबीअमीरी का भेद हमेशा रहा है, रहेगा. पर पहले गरीब पैदल चल कर जो रास्ता 10 दिनों में पूरा करता था, वह बग्घी में सवार 7-8 दिन से कम में नहीं करता था. दोनों को एक ही कुएं से पानी पीना होता था, एक ही खेत के गन्ने खाने पड़ते थे.

नई टैक्नोलौजी ने वर्गभेद गहरा कर दिया है. आज के युवा इस के बेहद शिकार हो रहे हैं. आज पढ़ाई में थोड़े पिछड़े युवा के लिए काम के अवसर मिलने बंद हो गए हैं. देश में सरकारी नौकरियां मिलनी बंद हो गई हैं. ये चाहे जनता को लूटने का काम रही थीं पर कम से कम पढ़ेलिखे युवाओं की एक पीढ़ी तो पैदा कर रही थीं. अब सरकारी दफ्तरों में सफाई से ले कर सारे काम ठेके पर होने लगे हैं जिस में बेहद कम पैसे मिलते हैं क्योंकि मोटा पैसा तो टैंडर लेने वाला खा जाता है जिसे पूंजी लगानी होती है चाहे कार्य सफाई का हो या कंप्यूटर प्रोग्राम बनाने का.

किराने की छोटी दुकानें ही नहीं बंद हो रहीं,  कैमिस्टों की दुकानें ही बंद नहीं हो रहीं, डाक्टर भी अब अपना छोटा क्लीनिक नहीं खोल पा रहे. वकील अकेले काम नहीं पा रहे, चार्टर्ड अकाउटैंट 10 जनों के लिए दफ्तर नहीं खोल पा रहे. सब काम बड़े अजगरों द्वारा निगले जा रहे हैं जो पड़ेपड़े खाखा कर मोटे हो रहे हैं और अपनी ताकत के बल पर छोटों को हड़प रहे हैं.

आज के युवा, लडक़े हों या लड़कियां, महाअजगरों के पेट में समाने में ही सफलता पा रहे हैं. उन्हें अपनी स्वतंत्रता कौर्पोरेट जाएंट्स को भेंट करनी पड़ रही है. युवाओं  के पास 2 रास्ते बचे हैं- या तो नशेड़ी बन कर गंदे बदबूदार डब्बों में घुस जाएं या इन विशाल कंपनियों के छोटे से हिस्से बन कर रह जाएं जहां कोई आजादी नहीं, सैनिक की तरह का डिसिपिलन है और बेहद इनस्क्यिोरिटी है.

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