एमेजौन, फ्लिपकार्ट और जियो के जमाने में पढ़ेलिखे सफेदपोश युवाओं के लिए कुछ ही काम बचाने वाले हैं. वे या तो इन महाकंपनियों में पैकिंग कर रहे होंगे या इन का माल गरमी, सर्दी, बरसात में घरघर डिलीवर कर रहे होंगे. इन्हें कामचलाऊ इंग्लिश आती होगी पर ये हर समय घंटों के हिसाब से काम करेंगे. उन के मातापिता के पास चाहे जमीन का छोटा टुकड़ा था या किसी बाजार में अपनी 5 बाई 5 की दुकान क्यों न थी, पर अपनी थी. लेकिन, उन की यानी आज के युवा ग्राहक और उत्पादक के बीच अनजाने पैकर या डिलीवरीमैन बन कर रहे जाएंगे.

इस स्थिति के लिए जहां सरकार जिम्मेदार है, वहीं देश का समझदार इंटैलिजैंसिया भी है जो आज अपने सर्वाइवल के लिए इन बड़ी कंपनियों को सपोर्ट करने को मजबूर है. शिक्षा एक बड़ा वर्ग भेद पैदा कर रहा है. जो कोचिंग पर पैसा खर्च कर सकते है, जिन के मांबाप किसी तरह कंप्यूटर, मोबाइल, लैपटौप, बैटरी बैकअप, वाईफाई का इंतजाम कर सकते हैं वे फटेहालों से आगे,  बहुत आगे निकल जाएंगे.

गरीबीअमीरी का भेद हमेशा रहा है, रहेगा. पर पहले गरीब पैदल चल कर जो रास्ता 10 दिनों में पूरा करता था, वह बग्घी में सवार 7-8 दिन से कम में नहीं करता था. दोनों को एक ही कुएं से पानी पीना होता था, एक ही खेत के गन्ने खाने पड़ते थे.

नई टैक्नोलौजी ने वर्गभेद गहरा कर दिया है. आज के युवा इस के बेहद शिकार हो रहे हैं. आज पढ़ाई में थोड़े पिछड़े युवा के लिए काम के अवसर मिलने बंद हो गए हैं. देश में सरकारी नौकरियां मिलनी बंद हो गई हैं. ये चाहे जनता को लूटने का काम रही थीं पर कम से कम पढ़ेलिखे युवाओं की एक पीढ़ी तो पैदा कर रही थीं. अब सरकारी दफ्तरों में सफाई से ले कर सारे काम ठेके पर होने लगे हैं जिस में बेहद कम पैसे मिलते हैं क्योंकि मोटा पैसा तो टैंडर लेने वाला खा जाता है जिसे पूंजी लगानी होती है चाहे कार्य सफाई का हो या कंप्यूटर प्रोग्राम बनाने का.

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