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Bangladesh : शेख हसीना के लिए क्यों बेचैन है ढाका

Bangladesh :  शेख हसीना पर आरोप हैं कि भ्रष्टाचार के अलावा उन्होंने छात्रों के विरोध प्रदर्शन को कुचलने के लिए ‘मानवता के विरुद्ध अपराध किए’. ढाका ने हसीना को वापस भेजने के लिए दिल्ली पर दबाव बना रखा है, लेकिन भारत की मोदी सरकार ढाका की ख्वाहिश पूरी करने के मूड में कतई नहीं है. इस के कई कारण हैं.

शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग

Bangladesh में शेख हसीना की सत्ता खत्म होने और भारत द्वारा शेख हसीना को शरण देने के बाद भारत और बंगलादेश के बीच संबंध काफी तल्ख हो चुके हैं. 5 अगस्त, 2024 को तख्तापलट के बाद बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना अपनी जान बचा कर भागीं तो भारत ने उन को पनाह दी. लेकिन अब भारत के सामने बड़ी डिप्लोमैटिक समस्या उठ खड़ी हुई है. बंगलादेश में मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार ने भारत से आधिकारिक तौर पर शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है.
गौरतलब है कि Bangladesh हो या पाकिस्तान, लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद इन देशों में जब भी किसी एक पार्टी की सरकार गिरी, उस के प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति को देश छोड़ कर भागना पड़ा. नवाज शरीफ, जनरल परवेज मुशर्रफ सत्ता से हटने के बाद अपनी जान बचा कर दूसरे देशों में भागे. यही बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के साथ भी हुआ है. यदि वे सत्ता छोड़ने के बाद बंगलादेश में रुकतीं तो जीवित न बचतीं.

5 अरब डौलर के भ्रष्टाचार का आरोप

इस से उलट भारत में कभी किसी प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति को सत्ता से हटने के बाद देश छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. इंदिरा गांधी की सरकार गिरी. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरी. मनमोहन सिंह की सरकार गिरी मगर देश छोड़ने की जरूरत किसी को नहीं पड़ी. राजीव गांधी के निधन के बाद जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो विपक्षी पार्टियों ने उन का जीना हराम कर दिया.
भाजपा जब सरकार में आई तो उस ने सोनिया, प्रियंका, रौबर्ट वाड्रा और राहुल गांधी को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने व जेल भिजवाने की सारी तरकीबें अपना लीं, फिर भी गांधी-वाड्रा परिवार ने कभी देश छोड़ने की बात नहीं सोची क्योंकि उन्हें यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था व संविधान पर भरोसा था. यह भारत के लोकतंत्र की मजबूती और खूबी है.
दूसरी बात यह कि भारत में किसी भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप नहीं लगा. जबकि इन मुसलिम देशों के प्रधानमंत्रियों पर घोर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं. शेख हसीना पर भी 5 अरब डौलर के भ्रष्टाचार का आरोप है और इसलिए यूनुस सरकार हसीना का प्रत्यर्पण चाहती है.

आधिकारिक प्रत्यर्पण आग्रह

शेख हसीना के आधिकारिक प्रत्यर्पण आग्रह से पहले बंगलादेश में उन के खिलाफ बाकायदा गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ है. उन पर आरोप है कि भ्रष्टाचार के अलावा उन्होंने छात्रों के विरोधप्रदर्शन को कुचलने के लिए ‘मानवता के विरुद्ध अपराध किए’.
ढाका ने हसीना को वापस भेजने के लिए दिल्ली पर दबाव बना रखा है. भारत और बंगलादेश के बीच 2013 से प्रत्यर्पण समझौता भी मौजूद है. लेकिन भारत की मोदी सरकार ढाका की ख्वाहिश पूरी करने के मूड में कतई नहीं है. इस के कई कारण हैं.
शेख हसीना के भारत के साथ संबंध हमेशा बहुत अच्छे रहे हैं. उन की वजह से ही भारत और Bangladesh के रिश्ते भी काफी मजबूत हुए और दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ा. दोनों देशों के बीच लंबे समय से जो सीमा विवाद और जल विवाद थे, उन का समाधान भी शेख हसीना के कार्यकाल में ही निकला. शेख हसीना भारत की भरोसेमंद दोस्त रही हैं. वे आगे भी भारत के बहुत काम आ सकती हैं.
इसलिए नई दिल्ली की यह जिम्मेदारी भी है कि वह उन की सुरक्षा करे क्योंकि हसीना को यूनुस सरकार के हाथों सौंपने का अर्थ होगा उन को फांसी के तख्ते पर पहुंचा देना. बंगलादेश इस वक्त शेख हसीना के खून का प्यासा हो रहा है.

ढाका के सुपुर्द करने का मतलब

ऐसे में भारत का कर्तव्य है कि वह अपनी पुरानी दोस्त की सुरक्षा करे. एक बड़ी शक्ति बनने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले देश के लिए यह उचित भी नहीं है कि वह अपने उस साथी से पीठ फेर ले जिस ने लंबे समय तक उस के हितों को साधा हो. भारत को शेख हसीना की हिफाजत के साथ पड़ोसी देश में बढ़ रही कट्टरपंथी ताकतों पर भी नकेल कसनी है.
शेख हसीना को ढाका के सुपुर्द करने का मतलब है वहां हिंसा की आग में घी डालना. क्योंकि हसीना को यदि फांसी पर चढ़ाया जाता है तो उन के समर्थकों में भारी रोष और विद्रोह पैदा होगा और कट्टरपंथी सरकार से दोदो हाथ करने के इरादे से सड़कों पर उतर पड़ेंगे. भारत के लिए आवश्यक है कि वह बंगलादेश में उदारवादी व्यवस्था को सुरक्षित रखने का प्रयास करे जिसे Bangladesh के कट्टरपंथी तहसनहस कर के बंगलादेश को संकट और बरबादी में झोंकना चाहते हैं.इस के लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी आवाज पंहुचानी होगी. बंगलादेश में कट्टरपंथी ताकतों का बढ़ना भारत के लिए खतरे की घंटी है.

पाकिस्‍तान का इरादा

पाकिस्तान इस फिराक में है कि वह बंगलादेश की कट्टरपंथी ताकतों से हाथ मिला कर भारत को दोनों तरफ से घेर ले. चीन की नजर भी बंगलादेश पर है. इसलिए भारत की विदेश नीति, जो जर्जर अवस्था में पहुंच चुकी है, को दुरुस्त करना होगा और उदारवादी ताकतों से संपर्क साध कर बंगलादेश में लोकतंत्र की बहाली की दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देना होगा ताकि भारत की सीमाएं सुरक्षित रहें और यहां शांति बनी रहे.
इस के अलावा भारत का दायित्व है कि बंगलादेश के अल्पसंख्यकों, जिन में हिंदुओं की संख्या अधिक है, की जानमाल की हिफाजत सुनिश्चित करे. कट्टरपंथी ताकतें किसी भी देश में हों, उन के निशाने पर सब से पहले अल्पसंख्यक ही होते हैं. भारत में भी यही हाल है. यहां भी दक्षिणपंथी कट्टर ताकतें लंबे समय से मुसलमानों पर जुल्म ढा रही हैं. हमें अगर बंगलादेश के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की चिंता है तो अपने देश के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? यह मोदी सरकार और उन के मंत्रियों-अधिकारियों को सोचना चाहिए.

वर्तमान स्थिति अराजक

दोनों देशों में शांति व्यवस्था और वास्तविक लोकतंत्र स्थापित हो, इस सोच के तहत ही भारत के 400 से अधिक प्रमुख नागरिकों, जिन में पूर्व डिप्लोमैट्स भी शामिल हैं, ने नई दिल्ली में बंगलादेश के उच्चायुक्त के माध्यम से बंगलादेश के नागरिकों को खुलापत्र लिख कर वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बढ़ती हिंसा पर गहरी चिंता व्यक्त की है और इस बात पर बल दिया है कि बंगलादेश को स्थिर, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश बनाए रखने में ही दोनों देशों के साझा हित सुरक्षित रह सकते हैं
अंतरिम प्रशासन में अतिवादी तत्त्वों के प्रभाव के विरुद्ध भी पत्र में चेताया गया है कि इन की वजह से बंगलादेश के संस्थापक मूल्य बदल सकते हैं. Bangladesh के अधिकांश नागरिक भी इस पक्ष में हैं कि उन का देश उदार व धर्मनिरपेक्ष बना रहे, जिस में धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित सभी नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें.
इस में शक नहीं कि बंगलादेश की वर्तमान स्थिति अराजक है. सरकार पर भीड़ का राज हावी है. भीड़ जो चाहती है वह करती है और सरकार मूकदर्शक बनी हुई है. एक निश्चित पैटर्न के तहत लगभग सभी क्षेत्रों- न्यायपालिका, कार्यकारिणी, शिक्षा संस्थानों, मीडिया- से जबरन इस्तीफे दिलवाए जा रहे हैं, जिस से कानून लागू नहीं हो पा रहा है, जनव्यवस्था चरमरा गई है और हर तरफ अफरातफरी का वातावरण है. हालांकि सेना को पुलिस शक्तियां भी दी गई हैं, लेकिन स्थिति सामान्य नहीं हुई है. जाहिर है कि इस सब पर अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं भी हैं.

अंतरिम सरकार पर दबाव

इस का एक ही समाधान है कि बंगलादेश की जनता अपनी अंतरिम सरकार पर दबाव बनाए कि वह लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के संवैधानिक सिद्धांतों का सख्ती से पालन करे, हिंसा पर तुरंत विराम लगाए ताकि जनता की अपनी सरकार सत्ता संभाल सके. शेख हसीना के प्रत्यर्पण से कुछ हासिल नहीं होने जा रहा है, सिवा इस के कि उन के कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के अहंकार को संतोष मिलेगा.
Bangladesh को जरूरत है कि उस की अर्थव्यवस्था पटरी पर आए. यह देश में शांति, राजनीतिक स्थिरता और पड़ोसी मुल्कों, विशेष कर भारत, से अच्छे व सहयोगी संबंध स्थापित करने से ही मुमकिन है. लेकिन अभी तो ऐसा लग रहा है कि वहां की अंतरिम सरकार भारत के साथ टकराव की स्थिति बनाना चाहती है. हसीना के प्रत्यर्पण की मांग का यही अर्थ है. हालांकि, शेख हसीना अपने प्रत्यर्पण और अपने ऊपर लगे आरोपों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अदालत का दरवाजा खटखटा सकती हैं. आने वाले समय में वे ऐसा करेंगी भी.
Bangladesh का पूरा मामला यह भी साबित करता है कि भारत सरकार जो बांह मरोड़ने की बुलडोजरी नीति देश में अपनाती है वह सीमापार कहीं नहीं चलती, न Bangladesh में चली, न श्रीलंका में चली, न मालदीव में चली. नेपाल और भूटान तक आधेअधूरे भारत सहयोगी हैं. जो तानाशाही में यकीन रखते हैं, उन की सब सुनें, यह संभव नहीं.
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Pushpa 2 : अल्लु का फिल्म इंडस्ट्री के अर्जुन बनने की कहानी

Pushpa 2 की सक्सैस ने अल्लु अर्जुन को पैन इंडियन स्टार बना दिया है. अल्लु को मास ऐक्टर के रूप में पहचान मिली है जो शाहरूख, सलमान, प्रभास, रजनीकांत जितनी कहीं है.
17 नवंबर को जब पटना, बिहार के गांधी मैदान में अल्लु अर्जुन अभिनीत तेलुगु भाषा की फिल्म ‘Pushpa 2 : द रूल’ का हिंदी में डब संस्करण का ट्रेलर लौंच कार्यक्रम संपन्न हुआ था तो इस कार्यक्रम में अपेक्षा के विपरीत 2 लाख से अधिक आम लोग पहुंच गए थे. उत्साह को देखते मंच से अल्लु अर्जुन ने झुकते हुए कहा था, ‘‘पुष्पा हरगिज नहीं झुकेगा साला… लेकिन आज आप के प्यार के सामने वह झुक गया.  मंच से अपनी फिल्म का ही संवाद दोहराते हुए अल्लु अर्जुन ने कहा था, ‘‘पुष्पा को फायर समझा है, फायर नहीं वाइल्ड फायर है…’’

फायर नहीं वाइल्ड फायर

 5 दिसंबर को भारत सहित पूरे विश्व के साढ़े 13 हजार स्क्रीन्स में तेलुगु के अलावा हिंदी, बंगला, तमिल, मलयालम व कन्नड़ भाषा में डब हो कर व विदेशों में इंगलिश सबटाइटल के साथ रिलीज होते ही ‘Pushpa 2’ की ऐसी आंधी चली कि इस ने अबतक फिल्मों की कमाई के सारे रिकौर्ड तोड़ दिए.
मजेदार बात यह है कि इस से पूरा बौलीवुड संकट में दिखाई दे रहा है. बौलीवुड के किसी भी कलाकार ने अबतक ‘Pushpa 2: द रूल’ या अल्लु अर्जुन को ले कर कुछ कहने की बजाए अपने मुंह पर ताला लगा रखा है.
फिल्म ‘Pushpa 2 : द रूल’ की इस सफलता का श्रेय अल्लु अर्जुन को ही दिया जा रहा है. यूं बहुत कम लोगों को याद होगा कि अल्लु अर्जुन और फिल्म के निर्देशक सुकुमार का संबंध 20 साल पुराना है. अल्लु अर्जुन ने 2004 में सुकुमार के निर्देशन में अपने कैरियर की दूसरी फिल्म ‘आर्या’ की थी.
उस के बाद से अबतक अल्लु अर्जुन ने सुकुमार के निर्देशन में कई फिल्में की हैं. वह अबतक अपनी झोली में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के अलावा 6 फिल्मफेयर पुरस्कार और 3 नंदी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों को डाल चुके हैं. उन की गिनती भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ नर्तकों/डांसरों में होती है. उन्हें ‘स्टाइलिश स्टार’ और ‘आइकन स्टार’ की पदवियां भी मिल चुकी हैं.
आज अल्लु अर्जुन की गिनती भारतीय सिनेमा में सब से अधिक कमाई करने वाले अभिनेताओं में होती है. 2014 में ही ‘फोर्ब्स इंडिया की सैलिब्रिटी 100 सूची में अल्लु अर्जुन का नाम जुड़ गया था.

फिल्मी माहौल में हुई परवरिश

फिल्म ‘Pushpa 2 : द रूल’ में अभिनय करने के लिए 300 करोड़ रूपए फीस लेने वाले 42 वर्षीय अभिनेता अल्लु अर्जुन का जन्म फिल्मी परिवार में ही हुआ था. तेलुगु सुपरस्टार चिरंजीवी, अल्लु के फूफा और तेलुगु अभिनेता तथा वर्तमान में आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण अल्लु के फुफेरे भाई हैं. हालांकि वंशवाद का ठप्पा सिर्फ बौलीवुड पर ही लगाया जाता है मगर साउथ में सभी कलाकार वंशवादी हैं.
अल्लु अर्जुन अपने मातापिता की 3 संतानों में दूसरे नंबर पर हैं. उन के बड़े भाई वेंकटेश उद्योगपति हैं. जब कि उन का छोटा भाई सिरीश भी अभिनेता है. अल्लु, अभिनेता राम चरण के चचेरे भाई हैं.
8 अप्रैल 1982 को चेन्नई में जन्मे अल्लु अर्जुन मशहूर तेलुगु फिल्म निर्माता अल्लु अरविंद के बेटे हैं, उन की मां निर्मला गृहिणी है. अल्लु के दादा प्रसिद्ध हास्य अभिनेता अल्लु रामलिंगैया थे, जिन्होंने 1000 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया.
वैसे उन के पूर्वज आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के पलाकोल्लू के निवासी हैं पर अल्लु का परिवार वहां से चेन्नई आ गया था और 1990 के दशक से उन का परिवार हैदराबाद में रह रहा है. अल्लु अर्जुन की प्रारंभिक शिक्षा चेन्नई के सेंट पैट्रिक स्कूल में हुई. उस के बाद उन्होंने एमएसआर कालेज, हैदराबाद से बैचलर औफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में डिग्री प्राप्त की.

चार साल की उम्र में किया अभिनय

यूं तो बौलीवुड के कई नेपोकिड की तरह अल्लु अर्जुन भी दक्षिण के नेपोकिड ही हैं, मगर जिस समय उन्होंने फिल्मों में एंट्री ली उस दौरान नेपोटिज्म नाम की बहस ही नहीं थी, बल्कि फिल्मों में स्टार्स के बच्चों की भरी डिमांड थी और फिल्में रिलीज से पहले ही चर्चा बटोर लेती थीं.
हालांकि फिल्मों में उन के अभिनय की शुरुआत उन्होंने महज 4 साल की उम्र में अपने पिता अल्लु अरविंद द्वारा स्वनिर्मित फिल्म ‘‘विजेता’ से बाल कलाकार के रूप में हो गई थी, जिस में अल्लु अर्जुन के फूफा चिरंजीवी हीरो थे. फिर 19 वर्ष की उम्र में उन के पिता अल्लु अरविंद ने ही स्वनिर्मित फिल्म ‘‘डैडी’’ में डांसर के रूप में अल्लु अर्जुन को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का अवसर दिया, इस फिल्म में भी उन के फूफा चिरंजीवी ही हीरो थे. यानी उन की झोली में फिल्में बिना संघर्ष के आती रहीं.

21 साल की उम्र में बने हीरो

फिल्मों में बतौर हीरो 21 साल की उम्र में उन के कैरियर की शुरूआत 2003 में उन के पिता अल्लू अरविंद और सी. अश्विनी दत्त निर्मित फिल्म ‘‘गंगोत्री’ से हुई, जिस का निर्देशन के राघवेंद्र राव ने किया था. फिल्म ‘गंगोत्री’ के रिलीज होने के बाद उन के अभिनय की प्रशंसा हुई मगर उन के लुक की आलोचना करते हुए आइडलब्रेन के जीवी ने कहा था, ‘‘अर्जुन को ऐसी भूमिकाएं चुननी चाहिए जो उन की ताकत को बढ़ाए और उन की कमजोरियों को खत्म करे.’’

लेकिन फिल्म ‘गंगोत्री’ में अल्लु अर्जुन के अभिनय से प्रभावित हो कर निर्देशक सुकुमार ने दिल राजू निर्मित रोमांटिक एक्शन प्रधान तेलुगु फिल्म ‘आर्या’ में शीर्ष भूमिका निभाने का अवसर दिया. फिल्म आर्या में आर्या, एक मिलनसार और स्वतंत्र विचारों वाला लड़का है, जिसे गीता (अनु मेहता) से प्यार हो जाता है, जो एक अंतर्मुखी लड़की है, जो एक अन्य व्यक्ति अजय (शिव बालाजी) की ढाल पर है. हालांकि यह टौक्सिक रिलेशनशिप वाली फिल्म थी, जिस में आर्या का किरदार टौक्सिक टावर जैसी थी.

‘आर्या’ की सफलता

फिल्म ‘आर्या’ की सफलता ने अल्लु अर्जुन को स्टार बनाया, साथ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, तेलुगु के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए पहला नामांकन अर्जित किया और नंदी स्पैशल जूरी पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (आलोचकों) के लिए सिनेमा पुरस्कार जीता. फिल्म आलोचनात्मक और व्यावसायिक रूप से सफल रही.
2004 में 4 करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म ने 30 करोड़ रूपए से अधिक की कमाई कर दिया था. 2006 में इस फिल्म को मलयालम भाषा में डब कर केरला में रिलीज किया गया, जहां सफलता के झंडे गाड़ने के साथ ही अल्लु अर्जुन ने पूरे मलयाली समाज में अपनी पैठ बना ली.
इस के बाद अल्लु अर्जुन ने वी. वी. विनायक के निर्देशन में अपने पिता द्वारा सहनिर्मित तेलुगु फिल्म ‘‘बन्नी’’ में एक कालेज छात्र बन्नी का किरदार निभाया. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर सफलता दर्ज कराने के साथ ही आलोचकों को भी अल्लु अर्जुन की कार्यशैली, अभिनय व डांस की प्रशंसा करने पर मजबूर कर दिया. 2006 में वह ए. करुणाकरन की संगीतमय प्रेम कहानी ‘हैप्पी’ में नजर आए, जिस ने भारतीय बौक्स औफिस के साथ ही विदेशों में जम कर कमाई की.

शैलियों का प्रयोग

फिल्मी परिवार का सदस्य होने का फायदा अल्लू अर्जुन को शुरू में खूब मिला. इस के बाद अल्लु अर्जुन ने अपने अभिनय कैरियर को संवारने के लिए अपने पिता पर निर्भर छोड़ने में सफलता पाई. जिस चलते उन्होंने 2007 से अलगअलग शैलियों में प्रयोग करना शुरू कर दिया. 2007 में उन्होंने पुरी जगन्नाध की एक्शन फिल्म ‘देसमुदुरु’ में अभिनय किया. इस फिल्म में अल्लु अर्जुन एक निडर पत्रकार बाला गोविंदम की भूमिका में नजर आए, जो एक अंधेरे अतीत वाली महिला के प्यार में पड़ जाता है.
इस फिल्म के लिए संतोषम फिल्म पुरस्कार, सिनेमा पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता- तेलुगु के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए दूसरा नामांकन हासिल किया. 2007 में ही वह पहली बार अपने फूफा चिरंजीवी के साथ फिल्म ‘शंकर दादा जिंदाबाद’ के गीत ‘जगदेका वीरुदिकि’ में कैमियो किया.
2008 में लेखक व निर्देशक भास्कर की रोमांटिक एक्शन तेलुगु फिल्म ‘परुगु’ की, जिस में वह हैदराबाद के ऐसे खुशमिजाज इंसान कृष्णा की भूमिका में नजर आए, जो अपने दोस्त को उस की प्रेमिका के साथ भागने में मदद करता है, लेकिन उसे महिला के पिता के क्रोध और भावनात्मक संघर्ष का अनुभव करना पड़ता है.

पहला फिल्मफेयर पुरस्कार

इस फिल्म के लिए अल्लू अर्जुन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता- तेलुगु के लिए अपना पहला फिल्मफेयर पुरस्कार और अपना दूसरा नंदी स्पैशल जूरी पुरस्कार अपने नाम किया. 2009 में निर्देशक सुकुमार ने अल्लू अर्जुन को एक्शन कौमेडी ‘आर्या’ के सीक्वअल ‘आर्या 2’ का हिस्सा बनाया. यह फिल्म प्रेमघृणा संबंधों और प्रेम त्रिकोण की जटिलताओं के इर्दगिर्द घूमती है.
इस फिल्म में उन के अभिनय के साथ ही डांस को काफी सराहा गया. इस फिल्म के लिए अल्लु अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ तेलुगु अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए चौथा नामांकन मिला.
फिर 2010 में उन की दो फिल्में रिलीज हुईं, जिन में से पहली गुणशेखर निर्देशित ‘वरूदु’ बौक्स औफिस पर बम साबित हुई, तो वहीं दूसरी हाइपरलिंक एंथोलौजी फिल्म ‘वेदम’ थी. कृश निर्देशित यह अल्लु के कैरियर की पहली ‘ए’ प्रमाणपत्र वाली पहली फिल्म थी, जिस की कहानी के केंद्र में मुंबई के ताजमहल पैलेस होटल में 26/11 के वक्त हुए मुंबई विस्फोट रहे.
इस फिल्म में अल्लु अर्जुन जुबली हिल्स (हैदराबाद) स्लम के रहने वाले एक केबल औपरेटर आनंद ‘केबल’ राजू की भूमिका में नजर आए. इस फिल्म में उन के साथ अनुष्का शेट्टी, मांचू मनोज और बौलीवुड कलाकार मनोज बाजपेयी भी थे. सब से बड़ी बात यह है कि इस फिल्म के एक गाने का अल्लु अर्जुन ने नृत्य निर्देशन भी किया था. इस फिल्म में उत्कृष्ट अभिनय के लिए उस ने सर्वश्रेष्ठ तेलुगु अभिनेता का अपना दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल किया.

मार्शल आर्ट सीखने वियतनाम जाना

2011 में उन के कैरियर में एक बदलाव आया. उन्हें वी. वी. विनायक निर्देशित फिल्म ‘बद्रीनाथ’ में अभिनय करने से पहले वियतनाम जा कर मार्शल आर्ट और तलवारबाजी का प्रशिक्षण हासिल करना पड़ा. इतना ही नहीं उन्हें अपनी दाढ़ी भी बढ़ानी पड़ी थी. वी. वी. विनायक की एक्शन फिल्म ‘बद्रीनाथ’ में उन्होंने बद्री की भूमिका निभाई थी, जो एक आधुनिक भारतीय समुराई है, जिसे उस के गुरु (प्रकाश राज) द्वारा बद्रीनाथ मंदिर की रक्षा करने का काम सौंपा गया है, जिस के प्रति वह बहुत वफादार है. इस में पहली बार अल्लु अर्जुन ने तमन्ना के साथ अभिनय किया था. यह फिल्म 187 सिनेमाघरों में 50 दिन तक दिखाई गई थी.

आलोचना का जवाब: अपने अंदर सुधार करना

आमतौर पर कलाकार अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता. मगर अल्लु अर्जुन की खासियत यह है कि वह आलोचना पर ध्यान दे कर अपने अंदर सुधार लाते हैं. जब कि बौलीवुड के कलाकारों को अपने अभिनय की आलोचना सुनना पसंद ही नहीं है. फिल्म ‘बद्रीनाथ’ के लिए उन की आलोचना हुई थी कि वह केवल एक्शन ही कर सकते हैं, इमोशनल सीन करना उन के बस की बात नहीं है.
इस के बाद अल्लु अर्जुन 2012 में रिलीज हुई निर्देशक त्रिविक्रम श्रीनिवास की एक्शन कौमेडी फिल्म: ‘जुलायी’ में नजर आए थे. इस फिल्म में उन्होंने एक स्ट्रीट- स्मार्ट, लेकिन बिगड़ैल युवा रवींद्र नारायण की भूमिका निभाई थी, जिस की जिंदगी एक बड़ी बैंक डकैती का गवाह बनने के बाद एक बड़ा मोड़ लेती है.
2013 में वह पुरी जगन्नाध निर्देशित एक्शन थ्रिलर ‘इद्दारममयिलाथो’ में अमला पौल और कैथरीन ट्रेसा के साथ एक अंधेरे अतीत वाले गिटारवादक संजू रेड्डी की भूमिका में नजर आए. फिर भी 2014 में अभिनेत्री काजल अग्रवाल के साथ वामसी पेडिपल्ली निर्देशित एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘येवडु’ में कैमियो भूमिका में दिखाई दिए.

खुद बने निर्माता

बतौर अभिनेता पहचान बनाने के साथ कई पुरस्कार हासिल करने के बाद अल्लु अर्जुन ने मई 2013 में फिल्म के निर्माण के क्षेत्र में कदम रखते हुए लघु फिल्म ‘आई एम दैट चेंज’ का निर्माण व उस में अभिनय भी किया. सुकुमार निर्देशित यह फिल्म अगस्त 2014 में रिलीज हुई थी.
फिर वह सुरेंदर रेड्डी की फिल्म ‘रेस गुर्रम’ में अल्लू लक्ष्मण नामक एक लापरवाह इंसान के किरदार में नजर आए. यह फिल्म अल्लू की पहली 100 करोड़ रुपए कमाने वाली फिल्म बनी. तो वहीं सर्वश्रेष्ठ अभिनेता तेलुगु के लिए उन्हें तीसरी बार फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया.
फिर 9 अप्रैल 2015 को रिलीज हुई त्रिविक्रम श्रीनिवास की फिल्म ‘एस/ओ सत्यमूर्ति’ में नजर आए. इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए सातवां नामांकन मिला. 2015 में ही वह गुना शेखर की जीवनी एक्शन फिल्म ‘रुद्रमादेवी’ में गोना गन्ना रेड्डी की भूमिका में नजर आए. जो कि उन के कैरियर की पहली ऐतिहासिक व थ्रीडी फिल्म रही.
इस फिल्म के किरदार के साथ न्याय करने के लिए अल्लु अर्जन ने तेलंगाना में बोली जाने वाली तेलुगु भाषा सीखी. गोना गन्ना रेड्डी को मिली शोहरत के बाद फिल्म के निर्देशक गुना शेखर ने 2021 में ऐलान किया था कि वह ‘शाकुंतलम’ के बाद पूरी तरह से चरित्र पर आधारित एक फिल्म का निर्देशन करेंगे, जिस में अल्लु अर्जुन मुख्य भूमिका में होंगे.

कैरियर की एक ‘ऐतिहासिक फिल्म’

2016 में, उन्होंने बोयापति श्रीनु द्वारा निर्देशित फिल्म ‘सर्रेनोडु’ में अभिनय किया. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 128 करोड़ रूपए कमाते हुए अच्छी सफलता पाई थी. जब कि आलोचकों ने इस फिल्म की कहानी व पटकथा की आलोचना की थी.
उस वक्त अल्लू अर्जुन ने इसे अपने कैरियर की एक ‘ऐतिहासिक फिल्म’ की संज्ञा दी थी, तो वहीं इस फिल्म में उन के अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता- तेलुगु के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवार्ड से नवाजा गया तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता- तेलुगु के लिए फिल्मफेयर अवार्ड के लिए उन्हें आठवां नामांकन मिला.
2017 में वह निर्माता दिल राजू की फिल्म ‘‘डीजे दुव्वदा जगन्नाधम’ में नजर आए. हरीश शंकर निर्देशित इस फिल्म में अल्लु अर्जुन के साथ पूजा हेगड़े, राव रमेश और सुब्बाराजू भी हैं. इस फिल्म को बोरिंग बताते हुए काफी आलोचना हुई थी.
इस के बाद लेखक से निर्देशक बने वक्कनथम वामसी के निर्देशन में अल्लु अर्जन ने फिल्म ‘न पेरू सूर्या’ में नजर आए. जिस में उन्होंने भारतीय सेना के एक सिपाही सूर्या का अति चुनौतीपूर्ण किरदार निभाया. इस फिल्म की शूटिंग से पहले अल्लू अर्जुन ने पेशेवरों से ट्रिक्स और स्टंट सीक्वेंस सीखने में काफी समय बिताया. अब तक उन्हें लोगों ने स्टाइलिस्ट स्टार कहना शुरू कर दिया था.

15 साल बाद पिता की फिल्म

पूरे 15 साल बाद अल्लु अर्जुन ने अपने पिता अल्लु अरविंद व एस राधाकृष्ण निर्मित व त्रिविक्रम श्रीनिवास निर्देशित फिल्म ‘‘अला वैकुंठपूर्मुलु’’ में नजर आए. यह फिल्म जनवरी 2020 में रिलीज हुई थी. यह फिल्म उन के कैरियर की सब से ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म के साथ ही सब से ज्यादा कमाई करने वाली तेलुगु फिल्मों में से एक बन गई.

पैन इंडिया स्टार बनने की तरफ बढ़ाया कदम

अब तक स्टाइलिस्ट स्टार के साथ ही आइकन स्टार की पदवी हासिल कर चुके अल्लु अर्जुन ने खुद को पैन स्टार बनाने की दिशा में काम करना शुरू किया. इस के लिए उन्होंने अपने पसंदीदा व अति विश्व्सनीय निर्देशक सुकुमार को चुना. उन के निर्देशन में अल्लु अर्जुन ने ‘पुष्पा द राइज’ की, जो कि दिसंबर 2021 में रिलीज हुई.
आंध्र प्रदेश के शेषचलम पहाड़ियों में लाल चंदन की तस्करी पर आधारित इस फिल्म में अल्लु अर्जुन ने फहाद फासिल और रश्मिका मंदाना के साथ मजदूर से चंदन तस्कर बने पुष्पा राज की भूमिका निभाई. इस फिल्म को मिलीजुली समीक्षा मिली, लेकिन उन के अभिनय की प्रशंसा हुई. जब इसे हिंदी में डब कर के रिलीज किया गया तो पहले दिन इसे कम स्क्रीन्स और कम दर्शक मिले, लेकिन दूसरे दिन से इस ने हंगामा बरपा दिया और इस फिल्म ने सिर्फ हिंदी में 100 करोड़ रूपए कमा लिए और वह भी तब जब कोविड का दौर लगभग चल ही रहा था.
इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चौथा फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. इसी के साथ पहली बार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी नवाजा गया. राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के बाद अल्लु अर्जुन ने कहा था कि अब उन के कंधे पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई है.
इस फिल्म का संवाद ‘झुकेगा नहीं साला’ तो छोटे बच्चे से बड़ेबूढ़ों की जुबान पर छा गया था और पूरे 3 साल बाद जब ‘पुष्पा द राइज’ का सीक्वअल ‘पुष्पा 2: द रूल’ ले कर निर्देशक सुकुमार व अभिनेता अल्लु अर्जुन आए, तो इस फिल्म की आंधी में दक्षिण की फिल्म इंडस्ट्री के साथ ही बौलीवुड भी संकट में आ गया.

अल्लु अर्जुन की लोकप्रियता का आलम

अल्लु अर्जुन को जीक्यू में 2020 के सब से प्रभावशाली युवा भारतीयों की सूची में शामिल किया जा चुका है. 2020 में ‘याहू’ पर सर्वाधिक खोजे जाने वाले पुरुष सेलिब्रिटी हैं. 2022 के मध्य में गूगल पर सर्वाधिक खोजे जाने वालों में वह 19वे एशियाई बन गए.
केरल में 2006 से उन्हें ‘मल्लू अर्जुन’ कहा जाता है. 2021 में, केरल पुलिस ने एसओएस के बारे में जागरूकता बढ़ाने और अपने नए लौंच किए गए ऐप को बढ़ावा देने के लिए, अपने विज्ञापन में अल्लु अर्जुन की 2014 में रिलीज फिल्म ‘रेस गुर्रम’ से उन के कुछ दृश्यों का इस्तेमाल किया.

और भी बहुत कुछ

2024 में उन्हें 55वें ‘इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल औफ इंडिया’ में भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए आईएफएफआई विशेष मान्यता से सम्मानित किया गया. अल्लू अर्जुन हीरो मोटोकौर्प,  रेडबस, हौटस्टार, ओएलएक्स, कोलगेट, 7 अप, कोकाकोला, जोयालुक्कास सहित कई ब्रांडों और उत्पादों के सैलिब्रिटी एंडोर्स करते हैं. वह भारत की प्रमुख कबड्डी टूर्नामेंट ‘प्रो कबड्डी लीग’ के सैलिब्रिटी एंबेसडर भी रहे हैं.
वह अपने पिता अल्लु अरविंद द्वारा स्थापित शीर्ष मीडिया सेवा, अहा के एक सक्रिय प्रमोटर और एक सैलिब्रिटी ब्रांड एंबेसडर हैं. उन्होंने रैपिडो के लिए ड्रीम वौल्ट मीडियानिर्मित विज्ञापन अभियान वीडियो में गुरु की भूमिका निभाई.
विज्ञापन फिल्म का हिस्सा बनने पर, अल्लु अर्जुन ने कहा था, ‘‘मैं खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखना पसंद करता हूं जो जानता है कि सर्वोत्तम संभव समाधान के साथ किसी स्थिति से कैसे निपटना है. यही कारण है कि जब मुझ से गुरु की भूमिका के लिए संपर्क किया गया, तो मैं उत्साहित हो गया, जो मेरे जैसा दिखता है.’’
विज्ञापन फिल्म की रिलीज के बाद, तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम ने टीएसआरटीसी की गलत तस्वीर पेश करने के लिए अल्लु अर्जन के साथ ही रैपिडो कंपनी को कानूनी नोटिस भेजा था, तब इस विज्ञापन को एडिट किया गया था.

तंबाकू के खिलाफ चलाया अभियान

बौलीवुड कलाकार शाहरुख खान, अक्षय कुमार व अजय देवगन की तरह तंबाकू पदार्थों का विज्ञापन करने की बनिस्बत अल्लु अर्जुन एक चारकोल कलाकार भी हैं. 2021 में अल्लु अर्जन ने तंबाकू व धूम्रपान के खिलाफ अभियान शुरू करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं लोगों का ध्यान धूम्रपान के दुष्प्रभावों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं.
हम ने बहुत गलत धारणा बना ली है कि क्या अच्छा है और क्या बेकार है. मैं एक बदलाव लाना चाहता हूं. चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो.’’ इतना ही नहीं वह ‘श्री चैतन्य शैक्षणिक संस्थानों’ के ब्रांड एंबेसडर बने.

एक बेटे व एक बेटी के पिता

फिल्म ‘वेदम’ को मिली अपार सफलता व सर्वश्रेष्ठ अभिनेता दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार जीतने के बाद 6 मार्च 2011 को, अल्लु अर्जुन ने हैदराबाद में स्नेहा रेड्डी से विवाह किया था और अब वह बेटे अयान तथा बेटी अरहा के पिता हैं.
अल्लु अर्जुन अपनी कला की विरासत को आगे बढ़ाते हुए उन की बेटी अल्लू अरहा ने फिल्म ‘शाकुंतलम’ में बाल कलाकार के तौर पर राजकुमार भरत की भूमिका निभाई. अल्लु अर्जुन व्यवसायी भी हैं. 2016 में उन्होंने एम किचन और बफेलो वाइल्ड विंग्स के सहयोग से ‘800 जुबली’ नामक एक नाइट क्लब शुरू किया था.

सामाजिक कार्य

दक्षिण के अभिनेताओं की ही तरह अल्लु अर्जुन भी सामाजिक कार्यो में अपना योगदान देते रहते हैं. 2019 में अल्लु अर्जुन ने अपने पैतृक शहर पलाकोल्लू, आंध्र प्रदेश में संक्रांति मनाई और 5 पंचराम क्षेत्रों में से एक, क्षीर रामलिंगेश्वर मंदिर के विकास और नवीकरण कार्यों के लिए 20 लाख रूपए दिए थे. इस रकम से मंदिर प्रबंधन ने रथशाला, वाहनशाला, गौशाला का निर्माण तथा मंदिर के रथ का जीर्णोद्धार किया.
फिल्म ‘पुष्पा 2 द रूल’ का 4 दिसंबर को हैदराबाद के संध्या थिएटर में प्रीमियर शो के दौरान मची भगदड़ में एक महिला की मृत्यु हो गई थी, उस महिला के परिवार को अल्लु अर्जुन ने 25 लाख रूपए देते हुए परिवार की हर संभव मदद करने की बात कही है.

राजनीति

अल्लु अर्जुन के फूफा चिरंजीवी व फुफेरे भाई पवन कल्याण राजनीति से जुड़े हुए हैं इसलिए अल्लु अर्जुन भी राजनीति से जुड़े नजर आते हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्होने पलाकोल्लू में पवन कल्याण की जनसेना पार्टी के लिए भी प्रचार किया था. मगर 2024 में उन्होने ऐसा नहीं किया. कहा जाता है कि तभी से चिरंजीवी व पवन कल्याण के पिरवार से अल्लु अर्जुन के परिवार के संबंधों में खटास आ गई है.

‘Puspha 2: द रूल’ के बाद

‘पुष्पा 2: द रूल’ के बाद अल्लु अर्जुन इस फिल्म के अगले सीक्वअल ‘पुष्पा 3: द रैम्पेज’ में अभिनय कर रहे हैं पर इस फिल्म की शूटिंग कब होगी और यह फिल्म कब रिलीज होगी, इस की स्पष्ट जानकारी देने के लिए कोई तैयार नहीं है. मगर सूत्र बताते हैं कि इस फिल्म की आधी शूटिंग संपन्न हो चुकी है. और यह फिल्म 2025 के अंत तक रिलीज हो सकती है.

Hindi Cinema : पीएम मोदी को खुला पत्र लिखकर विवादों में आए थे फिल्ममेकर श्‍याम बेनेगल

Hindi Cinema : ‘अंकुर’ और ‘मंथन’ जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाले मशहूर फिल्मसर्जक श्याम बेनेगल का गंभीर बीमारी के चलते 23 दिसंबर निधन हो गया. श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में समाज के कई अनुछुए मुद्दों व सचाई को उजागर किया था.

ढह गया नेहरूवियन युग का अंतिम किला

23 दिसंबर की शाम साढ़े छह बजे मुंबई में 90 वर्ष की उम्र में मशहूर फिल्मसर्जक श्याम बेनेगल का निधन हो गया. इसी के साथ नेहरूवियन युग का अंतिम किला ढह गया. राजकपूर की ही तरह श्याम बेनेगल ने भी साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखते हुए भी समाजवाद को ही अपनी फिल्मों में परोसा. सब से बड़ा सच यह है कि श्याम बेनेगल गरीबों, वंचितों व सर्वहारा वर्ग के लोगों के फिल्मकार रहे हैं. उन्होंने हमेशा गरीबी, गैरबराबरी जैसे मुद्दों के साथ तमाम दूसरी सामाजिक समस्याओं पर फिल्में बनाईं.
उन्होंने सरकार की आलोचना करने से कभी भी परहेज नहीं किया. इस के बावजूद उन्हें सब से अधिक सरकारी डौक्यूमैंट्री आदि बनाने के अवसर मिले. उन्हें सरकार की कई कमेटियों में रखा जाता रहा. श्याम बेनेगल के कृतित्व की बात की जाए तो उन्होंने वह सिनेमा बनाया जिसे लोगों ने कला या समानांतर सिनेमा का नाम दिया, मगर जिस दौर में अमिताभ बच्चन की ऐक्शन फिल्में बौक्सऔफिस पर धन कमा रही थीं, उन्हीं दिनों श्याम बेनेगल की फिल्में भी बौक्सऔफिस पर धन कमा रही थीं.
यह श्याम बेनेगल के सिनेमा का ही जादू था कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बार उन की तारीफ करते हुए कहा था कि उन की फिल्में इंसानियत को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं. सत्यजीत रे के गुजर जाने के बाद श्याम ने उन की विरासत को संभाला.

नेहरूवियन बनाम साम्यवादी

एक तरफ कुछ लोग उन्हें नेहरूवियन फिल्मकार की संज्ञा देते रहे तो वहीं उन पर साम्यवादी होने के भी आरोप लगे. इस के बावजूद वे विचलित नहीं हुए. कहा जाता है कि श्याम बेनेगल को फिल्में बनाने के लिए पश्चिम बंगाल के तमाम उद्योगपति तब तक पैसा देते रहे जब तक पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा और तभी तक ‘इप्टा’ भी जीवंत रूप में रहा. उस के बाद ‘इप्टा’ भी मरणासन्न हो चुका है.

उद्योगपतियों व संस्थाओं ने दिए पैसे

श्याम बेनेगल समय के बलवान थे कि उन्हें अपनी फिल्मों के निर्माण के लिए पश्चिम बंगाल के उद्योगपतियों का निजी समर्थन हासिल होने के साथ ही कुछ संस्थागत निगमों का साथ मिला. मसलन, फिल्म ‘मंथन’ के लिए गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ और 1987 में ‘सुस्मान’ के लिए हथकरघा सहकारी समितियां का सहयोग मिला.
‘इप्टा’ से जुड़े कलाकार व फिल्मकार भी अब तो पूरी तरह से व्यावसायिक फिल्मों के ही रंग में रंगे हुए हैं. मगर श्याम बेनेगल के अपने अंतिम वक्त तक, ‘अंकुर’ से मुजीब: द मेकिंग औफ अ नैशन’ तक, के सिनेमा में विचारों के स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ.
लेकिन पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार के अंत के साथ ही श्याम बेनेगल के फिल्म निर्माण पर अंकुश सा लग गया. उन्होंने अंतिम फिल्म ‘मुजीबः द मेकिंग औफ अ नैशन’ बनाई, जिसे राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) और बंगलादेश फिल्म विकास निगम (बीएफडीसी) ने मिल कर बनाया था.
फिल्म ‘मुजीबः मेकिंग औफ अ नैशन’ बंगलादेश के निर्माता बंगलादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता की जीवनी है. बंगाली के साथसाथ हिंदी भाषा में बनाई गई इस फिल्म में अभिनेता अरिफिन शुवो ने मुजीब का किरदार निभाया है.

स्टार कलाकारों की नहीं रही दरकार

श्याम बेनेगल उन फिल्मकारों में से रहे जिन्हें कभी भी स्टार कलाकारों या व्यावसायिक सिनेमा के सफलतम कलाकारों की जरूरत नहीं पड़ी. कलाकार उन के साथ काम करने के लिए उन के पीछे भागते रहे. वे कभी भी कलाकारों के पीछे नहीं भागे. श्याम बेनेगल ने कभी भी अपनी किसी भी फिल्म के लिए कलाकारों का चयन करते समय कलाकार का औडिशन या स्क्रीनटैस्ट नहीं लिया. उन की पारखी नजरें तो कलाकार से मिलते ही समझ जाती थीं कि इस के अंदर प्रतिभा है और फिर वे उस प्रतिभा को तराशकर स्टार बना देते थे. फिर चाहे वह नसीरुद्दीन शाह हों या शबाना आजमी या कोई अन्य.

सर्वहारा, ग्रामीण, गरीबी व उत्पीड़न की बात करने वाला सिनेमा

श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में हमेशा गरीब, गैरबराबरी, सर्वहारा, वंचितों के उत्पीड़न की बात की. जी हां, पहली फिल्म ‘अंकुर (द सीडलिंग) में श्याम बेनेगल के गृह राज्य तेलंगाना में आर्थिक और यौन शोषण का यथार्थवादी चित्रण था, जिस ने उन्हें रातोंरात जबरदस्त शोहरत दिलाई.
इस फिल्म ने अभिनेत्री शबाना आजमी और अभिनेता अनंत नाग को पेश किया और बेनेगल ने 1975 में दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. शबाना ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. जबकि 1980 के दशक की शुरुआत में न्यू इंडिया सिनेमा को जो सफलता मिली, उस का श्रेय काफी हद तक श्याम बेनेगल की चौकड़ी को दिया जा सकता है- ‘अंकुर’ (1973), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976) और ‘भूमिका’ (1977).
बेनेगल ने कई नए अभिनेताओं का प्रयोग किया, मुख्य रूप से एफटीआईआई और एनएसडी से, जैसे नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबंदा और अमरीश पुरी. बेनेगल की अगली फिल्म ‘निशांत’ (नाइट्स एंड) (1975) में एक शिक्षक की पत्नी का 4 जमींदारों द्वारा अपहरण और सामूहिक बलात्कार किया जाता है; अधिकारी परेशान पति की मदद की गुहार को अनसुना कर देते हैं.
‘मंथन’ (द मंथन) (1976) ग्रामीण सशक्तीकरण पर एक फिल्म है और यह गुजरात के उभरते डेयरी उद्योग की पृष्ठभूमि पर आधारित है. पहली बार गुजरात में 5 लाख से अधिक ग्रामीण किसानों ने दोदो रुपए का योगदान इस फिल्म के निर्माण के लिए किया था. इस तरह वे इस फिल्म के निर्माता बने थे.
जब यह फिल्म रिलीज हुई तो ट्रकों में भरकर किसान इसे देखने आए, जिस से यह बौक्सऔफिस पर सफल रही. ग्रामीण उत्पीड़न पर इस त्रयी के बाद बेनेगल ने एक बायोपिक भूमिका (द रोल) (1977) बनाई, जो मोटेतौर पर 1940 के दशक की प्रसिद्ध मराठी मंच और फिल्म अभिनेत्री हंसा वाडकर (स्मिता पाटिल द्वारा अभिनीत) के जीवन पर आधारित थी, जिन्होंने चमकदार और अपरंपरागत जीवन मुख्य पात्र पहचान और आत्मसंतुष्टि के लिए व्यक्तिगत खोज पर निकलता है, साथ ही पुरुषों द्वारा शोषण से भी वह जूझता है.

सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार

1970 के दशक की शुरुआत में श्याम ने यूनिसेफ द्वारा प्रायोजित सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टैलीविजन एक्सपैरिमैंट के लिए 21 फिल्म मौड्यूल बनाए. इस से उन्हें सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टैलीविजन एक्सपैरिमैंट के बच्चों और कई लोक कलाकारों के साथ बातचीत करने का मौका मिला.
इस अनुभव के आधार पर श्याम बाबू ने 1975 में क्लासिक लोककथा ‘चरणदास चोर’ (चरणदास द थीफ) की अपनी फीचर लंबाई प्रस्तुति में इन में से कई बच्चों का उपयोग किया. उन्होंने इसे चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी, भारत के लिए बनाया था. इस फिल्म में श्याम बेनेगल ने एक प्रतिभाशाली सक्षम महिला यानी कि राज कुमारी (स्मिता पाटिल) की पीड़ा और दुर्दशा के प्रति संवेदनशील हो कर उस की सुरक्षा की आवश्यकता पर भी बल दिया.
श्याम बेनेगल की प्रतिभा के आगे झुक कर व्यावसायिक सिनेमा के मशहूर स्टार कलाकार शशि कपूर ने 1978 में फिल्म ‘जनून’ और 1981 में ‘कलियुग’ के निर्देशन की जिम्मेदारी श्याम बेनेगल को सौंपी. फिल्म ‘जनून’ 1857 की आजादी की क्रांति के अशांत काल के बीच स्थापित एक अंतरजातीय प्रेम कहानी थी जब कि ‘कलियुग’ महाभारत पर आधारित थी. जिस में व्यवसाय को ले कर 2 परिवारों के बीच हुए मतभेद को दर्शाया गया है. इस फिल्म में राज बब्बर, शशि कपूर, सुप्रिया पाठक, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा सेठ जैसे दिग्गज कलाकार मुख्य भूमिकाओं में नजर आए थे. इन दोनों फिल्मों ने फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीता था.
1983 में राजनीति और वेश्यावृत्ति पर व्यंग्यपूर्ण कौमेडी फिल्म ‘मंडी’ में श्याम बेनेगल ने दिखाया कि किस तरह राजनेता बस्ती को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए कोठे को शहर से दूर वीरान जगह पर भेज देते हैं. तो वहीं एक उद्योगपति का बेटा उस सुंदर वेश्या लड़की से शादी करना चाहता है जो कि उस के पिता व एक वेश्या की ही संतान है.

जुबैदा के साथ मुख्यधारा की बौलीवुड में प्रवेश

इस फिल्म में शबाना आजमी और स्मिता पाटिल का शानदार अभिनय है. 1985 में प्रदर्शित फिल्म ‘त्रिकाल’ में श्याम बेनेगल ने 1960 के दशक की शुरुआत में गोवा में पुर्तगालियों के आखिरी दिनों पर आधारित कहानी में मानवीय रिश्तों की खोज की. 1990 के दशक में श्याम बेनेगल ने भारतीय मुसलिम महिलाओं पर एक त्रयी बनाई, जिस की शुरुआत ‘मम्मो’ (1994), ‘सरदारी बेगम’ (1996) और ‘जुबैदा’ (2001) से हुई.
जुबैदा के साथ उन्होंने मुख्यधारा की बौलीवुड में प्रवेश किया, क्योंकि इस में शीर्ष बौलीवुड स्टार करिश्मा कपूर थीं और ए आर रहमान का संगीत था. पर इस के लिए करिश्मा कपूर को जोड़ने का काम फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद ने किया था.
1992 में उन्होंने धर्मवीर भारती के साहित्यिक उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ बनाई, जिस ने 1993 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. 1996 में उन्होंने फातिमा मीर की पुस्तक ‘द मेकिंग औफ द महात्मा’ पर आधारित एक और फिल्म, ‘द अप्रेंटिसशिप औफ अ महात्मा’ बनाई.
2005 में इंग्लिश भाषा में फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोसः द फौरगौटन हीरो’ बनाई. लेकिन एक बार फिर वे अपने पुराने दौर में लौटे, जब 1999 में फिल्म ‘समर’ के माध्यम से सिनेमा जगत में फैली जाति व्यवस्था के साथ ही भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना की, जिस ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता.

श्याम बेनेगल एक परिचय

14 दिसंबर, 1934 को हैदराबाद मे कोंकणीभाषी चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में श्याम बेनेगल के पिता श्रीधर बी बेनेगल मूलतया कर्नाटक निवासी फोटोग्राफर थे. बचपन से ही कुछ अलग करने की धुन के चलते महज 12 साल की उम्र में श्याम ने अपने पिता द्वारा उपहार में दिए गए कैमरे का उपयोग कर पहली फिल्म बनाई थी.
उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री हासिल की, जहां उन्होंने हैदराबाद फिल्म सोसाइटी की स्थापना की, जो सिनेमा में उन के शानदार सफर की शुरुआत थी.

पुरस्कार

कला के क्षेत्र में उन के अद्भुत योगदान को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्हें कुल 18 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले. इस के अलावा श्याम को 1976 में पद्मश्री और 1991 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया. 2007 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया.
श्याम बेनेगल की फिल्मों को 7 बार बेस्ट हिंदी फीचर फिल्म के लिए नैशनल अवार्ड मिला है, जिन में ‘अंकुर’ (1974), ‘निशांत’ (1975), ‘मंथन’ (1976), ‘भूमिका’ (1977), ‘मम्मो’ (1994), ‘सरदारी बेगम’ (1996), ‘जुबैदा’ (2001) शामिल हैं.

पीएम को खुला पत्र लिख कर आए थे विवादों में

श्याम बेनेगल 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे गए एक खुलेपत्र की वजह से विवादों में आ गए थे और उन के खिलाफ राजद्रोह की एफआईआर भी दर्ज की गई थी. उस वक्त बेनेगल ने यह कहा था कि यह खुलापत्र है, एक अपील है प्रधानमंत्री से न कि कोई धमकी. हम सिर्फ यह मांग कर रहे थे कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा रुके और जय श्रीराम नारे को भड़काऊ नारे में न बदलने दिया जाए.
श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में समाज के कई अनुछुए मुद्दों व सचाई को उजागर किया था, समाज में व्याप्त जातिवाद, अंधविश्वास और स्त्रीपुरुष के संबंधों को उन्होंने बखूबी अपनी फिल्मों में दिखाया, जिन्हें दूसरे फिल्मकार उठाने से डरते हैं.

Emotional Story : मां की डायरी

Emotional Story : ‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी.

‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी.

2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया.

सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था.

थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया.

‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई.

‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था.

सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था.

उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की.

मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था.

उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं.

‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई.

‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा.

‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था.

बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों.

फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई.

बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी.

सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था.

सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं.

शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी.

अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया.

अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी.

अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’

पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे.

‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

तब तक वेटर चाय रख गया.

‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं.

‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा.

‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा.

‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए.

दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई.

अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले.

‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही.

‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था.

थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई.

‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए.

‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए.

‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी.

इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’

इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’

‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे.

चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं.

थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी.

मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

Love Story : तुम कैसी हो

Love Story :एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स, म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं. आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है.

50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का. मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है. औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट.

कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’ आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है. दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो. ‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली. मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई. आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की.

वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का. ‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था. महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की.

जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत. घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं. शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी.

मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’ यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने.

Hindi Kahani : यह दूसरी औरत

Hindi Kahani : मेरे दिमाग ने मेरे साथ खेल किया और पुरानी यादें किसी चलचित्र की भांति सामने चलने लगीं. लेकिन यह क्या, स्मृति कुछ उलट थी और मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही थीं. एयरपोर्ट से निकलते ही चारों तरफ बिखरी बर्फ ने मन मोह लेने वाला स्वागत किया.
यदि मेरी जगह कोई और होता तो जरूर उस के मुख से विस्मय की चीख निकलती और वह इन नजारों को देख हतप्रभ रह जाता. लेकिन अफसोस, मेरी जगह मैं ही था और मेरे लिए इस जगह के माने कुछ और ही थे. मैं ने पहले ही हर विस्मित करने वाले दृश्य को सिरे से नकारने का फैसला कर लिया था.

कुछ जगहों की अप्रतिम सुंदरता भी वहां हुई दुर्घटनाओं को कभी ढक नहीं सकती.  हालांकि निश्चय तो मैं ने यह भी किया था कि कभी दोबारा कश्मीर नहीं आऊंगा पर मां की इच्छा थी कि फिर से कश्मीर देखना है. उन्होंने जब पहली बार यह बात कही तो मैं चौंक गया था और देर तक उन के चेहरे को पढ़ता रहा था. मुझे यकीन था कि इस बात का जिक्र करते वक्त मैं ने उन की आंखों में एक क्षणिक चमक देखी थी, ऐसी चमक जो अवश्य किसी ऐसे कैदी की आंखों में होती होगी जिसे बीते कई बरसों से कोई बंधन जकड़े हो और बहुत जद्दोजेहद के बाद वह कैदी अपनी बेडि़यां तोड़ आजाद होने को तैयार हुआ हो.

जिस जगह के नाम से हम इतने सालों बचते रहे और जिस का कोई जिक्र भी करे तो हम सब कांप जाते, उस जगह का नाम यों बेबाकी से, बिना विचलित हुए उन्हें लेते देख पूरे शरीर में एक बिजली सी कौंध गई थी, पर मां के सामने विरोध करने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया पाया था. वजह शायद यह कि इसे हम बीते काफी समय में मां द्वारा प्रकट की गई पहली इच्छा कहें तो गलत नहीं होगा क्योंकि मां ने पिताजी की मौत के बाद अपनी डिमांड रखना बंद कर दिया था, जोकि पहले उन की क्षमता का मानक और पिताजी के लिए उन का पूर्ण समर्पित प्रेम लगता था, पर समय के साथसाथ पहले यह उन को पहुंचे सदमे का संघर्ष और फिर हम 5 भाईबहनों को अपनी विफलता नजर आने लगी.

सब से बड़ा बेटा होने के कारण मेरी जिम्मेदारियों का चोगा कुछ अधिक लंबा था, इसलिए मेरी नजर में यह भी था कि धीरेधीरे मां इंसान से अधिक हाड़मांस का बना एक व्यवस्थित और संतुलित पुतला नजर आने लगी हैं. उन के सारे भाव सतही होने लगे थे जिस बात से केवल मैं ही अनभिज्ञ नहीं था. घर के बाकी सभी सदस्य अब इस बाबत खुश थे कि मां ने आखिरकार अपनी कोई दिली ख्वाहिश जाहिर की थी और क्योंकि मां की यह भी शर्त थी कि सफर में सिर्फ वह और मैं जाएंगे, इसलिए सभी

मुझे बहलाफुसला कर मां के साथ जाने के लिए तैयार कर रहे थे. कौनकौन सी जगहें हैं जिन्हें हम देखेंगे, यह सब मां ने पहले ही तय कर लिया था.

हम एयरपोर्ट से सीधे पहलगाम गए, फिर वहां से सोनमर्ग. दिसंबर का महीना था. हर जगह ताजी बर्फ बिखरी थी. सफेदी में नहाए कश्मीर के जादू से मंत्रमुग्ध न होने वाले मेरे जैसे कोई बिरले ही होते होंगे.

हम ने दोनों ही जगहों पर केवल 2 काम किए थे- पहला, एक बैंच ढूंढ़ना और उस पर बैठ कर पूरे दिन पहाड़ों को देखना हालांकि जैसे ही

मुझे लगता कि नजारों की खूबसूरती मुझे  चकाचौंध कर रही है, मैं अपने जेहन में पुरानी घटना को ताजा कर लेता. दूसरा, अपने आसपास तरहतरह के सैलानियों के झुुुुरमुमुमट को, घोड़े वालों को, स्लेज वालों से भावतोल करते देखना और उन की जिंदगियों के बारे में अनुमान लगाना. हां, मैं ने एक तीसरा काम भी किया था, दूर पहाड़ों के शून्य में देखतेदेखते कभी मैं यह भी अनुमान लगाने की कोशिश करता कि मां इस वक्त क्या सोच रही होंगी, क्या वजह होगी कि वह कश्मीर आना चाहती थीं, कहीं वह पिताजी की याद में यहां से…

नहीं, मैं ने खुद को झकझोड़ा, मां यों हम सब को छोड़ कर थोड़ी… तीसरा और आखिरी दिन गुलमर्ग जाने का था. मैं ने तय किया कि मन में कुलबुला रहे सवाल को आज आवाज दी जानी चाहिए. सोनमर्ग से गुलमर्ग जाने का रास्ता लगभग साढ़े 3 घंटे का था. बीते दिनों की तरह गाड़ी में बैठ पहला आधा घंटा मां और मैं तरहतरह की बातें करते रहे. मां अपने बचपन के, परिवार के, पिताजी के कई किस्से सुनातीं और फिर जब थक जाती तो खिड़की से बाहर चलते नजारों को देखने लगतीं. आज भी यही हुआ.

पर मैं सवाल करने के लिए सही मौके की तलाश में था. जरा हिम्मत होती तो शब्द जैसे भीतर ही जमे रह जाते. मैं मां को देखता तो अचानक एक रुलाई अंदर उमड़ती, बिना किसी कारणवश.

मैं सोचता रहा और हम गुलमर्ग पहुंच गए.

‘‘यहां हम केवल बैंच पर नहीं बैठेंगे, फेज टू तक का गोंडोला भी करेंगे,’’ मां ने कहा.

मैं आतंकित हो उठा. शायदमुझे  जिस बात का संदेह था… मैं मां से इनकार करता कि मां ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो.’’

जैसे मां जानती थीं मैं क्या सोच रहा हूं. वह सबकुछ जो मेरे भीतर चल रहा था, सारी ऊहापोह वह मेरे आरपार देख सकती थीं जैसे मैं पारदर्शी था.

मां की इच्छा रखनी थी और अगले ही क्षण मैं ने खुद को गोंडोला में पाया.

फेज 2 तक का सफर बहुत हसीं था. स्वर्ग (जिस की कल्पना हम सब करते हैं) का नूर यहां बरसता था. मगर मेरे लिए नहीं.

नहीं, मैं ने नजारों को ललकारा- देखो, मैं तुम से प्रभावित नहीं हूं. मेरे लिए तुम स्वर्ग नहीं, नरक (जिस की कल्पना हम सब जैसी भी करते हैं) हो.

फेज 2 पर उतर कर अब मैं और मां फिर उस गहरी घाटी के आमनेसामने थे. इतना साहस मु?ा में नहीं था कि मैं फिर वहीं कदम रखूं. वहीं जहां वह हृदयविदारक घटना हुई थी.

पर मां मेरा हाथ पकड़ मुझे  वहां ले गईं और कुछ पन्ने मुझे  देने लगीं. मां की आंखों में फिर वह चमक थी.

‘‘ये कमलजीत की अस्थियां हैं. इन्हें यहीं से घाटी की फिजाओं के सुपुर्द कर दो.’’

मैं नहीं समझा, मां का क्या मतलब था और इस से पहले कि मैं कोई सवाल करता, उन के फिर कहने पर मैं ने उन पन्नों को पढ़ना शुरू किया…

‘मैं नहीं जानता तुम्हें यह खत कब मिलेगा, पर जब भी तुम इसे ढूंढ़ लो तो पढ़ने के बाद इस का क्या करना है, यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ता हूं.

‘कोई खास तनाव नहीं है. वही रोजमर्रा की परेशानियां जो अमूमन सभी कोझेलनी पड़ती हैं पर एक बोझ है जिस का वजन इतने सालों उठा कर मेरे कंधे उकता गए हैं. हां, लेकिन खुशियां बहुत हैं. गिनूं तो शायद उंगलियां कम पड़ जाएं. शायद तुम हंसो कि यह कैसा सिरफिरापन है, कोई अनगिनत खुशियों के कारण थोड़ी अपनी इच्छा से दुनिया छोड़ता है पर तुम जानती हो मुझे हमेशा से इस बात से नफरत रही कि आत्महत्या को केवल दुनिया से हारे गए लोगों से जोड़ा जाता है. देखो, मैं यह बात बदलने वाला हूं, ऐसा व्यक्ति और जी कर क्या करेगा जिस ने वह सब पा लिया हो जितना वह पा सकता है.

‘और कहूंगा कि दुनिया में मुझ से बड़े सनकी भरे हैं. हां, चलो, तुम इसलिए तो मुसकराईं कि मैं ने यह माना कि मैं सनकी हूं.

‘जब जिंदगी इतनी भरीपूरी रही हो, कामयाबी के उच्चतम शिखर पर मां ने मुझे  देखा हो, कदम से कदम मिला कर चलने वाली पत्नी हो, 5 ऊंचे ओहदों पर पहुंची औलादें हों, उन की अपनी स्वस्थ औलादें हों तो दुनिया को हराने का पागलपन तो भीतर आ ही जाएगा.

‘देखो, मैं ने फिर फुजूल बातें शुरू कर दीं. तुम्हारे सामने ये सब बातें दोहराना फुजूल ही तो है. तुम ने तो ये सारे दिन मेरे साथ देखे हैं, जिए हैं.

‘पर अब जो मैं चला जाऊंगा, एक बात है जो मैं कन्फैस करना चाहता हूं. मुझे  पता है, तुम्हें कई बार शक हुआ और शायद वह शक यकीन में भी बदला हो पर तुम ने मुझ से कोई सवाल नहीं किया. मैं ने कई दफा सोचा था कि यदि तुम मुझसे पूछोगी तो मैं क्या जवाब दूंगा, कैसे अपनी मजबूरियां गिनाऊंगा, गिड़गिड़ाऊंगा, कितनी मिन्नतें करूंगा पर तुम ने मुझे यह मौका नहीं दिया. मुझे  इस बात का अंदाजा था कि तुम्हें लगता रहा कि सवाल के जवाब में मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. पर नहीं, तुम मु इस से बेहतर जानती हो. मैं तुम्हें जीतेजी कभी नहीं छोड़ सकता था. पत्नी का दर्जा प्रेमिका से ऊंचा रहता है.

‘और अब तुम्हारे सवाल न करने के बावजूद मैं तुम्हें जवाब देना चाहता हूं. परिवार, बच्चों, घरबार से परे केवल हम दोनों के हिस्से का जवाब. तुम में कोई कमी नहीं है. कोई ऐसी बात नहीं जिस पर मैं उंगली रख सकूं और कहूं कि इस कारण मैं किसी दूसरी औरत के चक्कर में पड़ा. तुम ने मुझे  अपना परमेश्वर माना और मुझसे बेइंतहा निश्च्छल प्रेम किया. यहां तक कि मुझे हैरत होती है कि मेरी जिंदगी में तुम कैसे लिखी गईं. सब हमें देखते और रश्क करते कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है. और मुझे लगता, मैं भी उन देखने वालों का हिस्सा हूं और सिर्फ तुम से कह रहा हूं कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है.

‘पर तुम जानती हो कि हम इतने सालों एक झूठ जीते रहे. मेरा झूठ. जिस ने तुम्हारे सच को भी मैला कर दिया. इस बोझ ने मेरे अंदर इतनी ग्लानि भर दी है कि मैं इस घाव को रोज कुरेदता रहा हूं और इस का खुरंट खुद पर मलता रहा.

‘लेकिन अब मैं तुम्हें खुद से आजादी देना चाहता हूं, यह भी शायद मेरा ही स्वार्थ है और मैं तुम्हें नहीं, खुद को एक अपराधबोध से आजाद कर रहा हूं.

‘पत्नी के रूप में मैं ने हमेशा तुम से प्रेम किया और मैं हर जन्म में तुम सी पत्नी मांगा करता था पर यह तुम्हारे साथ अन्याय है.

‘इसलिए अब मैं अपनी आखिरी इच्छा में मांगता हूं. हर जन्म में तुम्हारे लिए ऐसा हमसफर जो तुम से इतना ही प्यार करे जितना तुम मुझ से करती हो और सिर्फ तुम से ही प्यार करे.’

‘‘मां, यह खत आप को कब और कहां मिला?

‘‘आप और पिताजी तो एकसाथ हमेशा इतने खुश थे.’’

‘‘यह दूसरी औरत?’’

एक के बाद एक ये सवाल बेमानी लगते हुए मेरे भीतर ही घुट गए और अचानक सबकुछ खुदबखुद सैंस बनाने लगा.

मेरे दिमाग ने मेरे साथ खेल किया और पुरानी यादें किसी चलचित्र की भांति सामने चलने लगीं.

लेकिन यह क्या? स्मृति कुछ उलट थी और मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही थीं. पिताजी मेरे साथ बैठे थे पर मां कहीं नहीं थी जबकि आसपास के लोग चिल्ला रहे थे.

‘अरे, मैडम का पैर फिसल गया. बचाओ मैडम को. अरे, मैडम खाई में गिर रही है.’

मैं ने डर के कारण अपनी आंखें भींच लीं. ओफ, मैं यह क्या सोच रहा था और ? हकीकत में मैं ने मां को अपना हाथ पकड़ते महसूस किया.

लेखिका – जूही 

 

Romantic Story : पार्क में प्‍यार

Romantic Story :  हमसफर के बिना जिंदगी का सूनापन क्या होता है, अब दिवाकरजी को महसूस हो रहा था वसुधा के बिना. वे अब जिंदगी सिर्फ जी रहे थे, जिंदा नहीं थे.

दिवाकरजी ने एक बार फिर करवट बदली और सोने की कोशिश की लेकिन उन की कोशिश नाकाम रही, हालांकि देखा जाए तो बिस्तर पर लेटेलेटे वे पूरी रात करवटें ही तो बदलते रहे थे.

नींद उन से किसी जिद्दी बच्चे की तरह रूठी हुई थी. सम  झ नहीं पा रहे थे कि नींद न आने का कारण स्थान परिवर्तन है या मन में उठता पत्नी मानसी की यादों का रेला.

मन खुद ही अतीत के गलियारे की तरफ निकल गया जब बरेली में अपने घर में थे तो पत्नी मानसी से बोलतेबतियाते कब नींद की आगोश में चले जाते उन्हें पता न चलता. नींद भी इतनी गहरी आती कि मानसी कभीकभी तो प्यार से उन को कुंभकरण तक की उपाधि दे डालती.

सुबह होने पर भी नींद मानसी की मीठी सी  ि झड़की से ही खुलती क्योंकि मानसी द्वारा बनाई अदरक-इलायची वाली चाय की सुगंध जब उन के नथुनों में भर जाती तो वे   झटपट फ्रैश हो कर पलंग पर ही बैठ जाते और फिर वहीं पर बैठ कर ही वे दोनों चाय का आनंद लेते. पीतेपीते वे मानसी की तरफ ऐसी मंत्रमुग्ध नजरों से देखते मानो कह रहे हों कि तुम्हारे हाथ की बनाई सुगंधित चाय का कोई जवाब नहीं.

मानसी उन्हें अपनी ओर इस तरह ताकते देख कर लजा कर लाल हो जाती, जानती थी कि संकोची स्वभाव के दिवाकरजी शब्दों का प्रयोग करने में पूरी तरह अनाड़ी हैं, उन की इन प्यारभरी निगाहों का मतलब वह बखूबी सम  झने लगी थी.

वे दोनों एकदूसरे के प्यार में पगे जीवन का भरपूर आनंद उठा रहे थे.

बेटे नमन की शादी कर वे अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे. उन को रिटायर हो कर 6 महीने हो रहे थे, दिवाकरजी मानसी के साथ भारतभ्रमण का प्रोग्राम मन ही मन बना चुके थे. मानसी को अपने इस प्लान की बाबत बता कर वे सरप्राइज देना चाहते थे क्योंकि नौकरी की आपाधापी, फिर बेटे नमन को उच्चशिक्षा दिला कर सैटल करने में ही उन की आय का अधिकांश भाग खर्च हो जाता था.

वह तो मानसी इतनी संतुष्ट प्रवृत्ति की थी कि उस ने कभी भी दिवाकरजी से किसी चीज की कोई मांग व किसी तरह की कोई शिकायत नहीं की. परिवार के सुख को ही अपना सुख माना. इसी कारण दिवाकरजी का मन कभीकभी अपराधबोध से भर उठता कि 30 साल के वैवाहिक जीवन में वे मानसी के मन की खुशी के लिए कुछ क्यों नहीं सोच पाए. चलो देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत सोच कर खुद ही मुसकरा दिए.

कहते हैं कि इंसान का भविष्य उस के जन्म के समय ही लिख दिया जाता है. इंसान सोचता कुछ और है, होता कुछ और है. मानसी एक रात को सोई तो सुबह उस के लाख   झक  झोरने के बाद भी न उठी तो अचानक लगे इस आघात से दिवाकरजी हतप्रभ रह गए थे. किसी तरह हिम्मत बटोर कर बेटे नमन को फोन कर के इस अप्रत्याशित घटना की सूचना दी. दोनों बेटा व बहू फ्लाइट ले कर पहुंच गए थे. कुछेक दिन इस अप्रत्याशित घटना से उबरने में लगे, फिर आगे के बारे में उन के बहूबेटे ने आपस में विचारविमर्श किया कि अब पापाजी को यहां अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं रहेगा.

 

सारे जरूरी क्रियाकलापों से निबटने के बाद नमन व नीरा दिवाकरजी के काफी नानुकुर करने के बाद भी उन का अकेलापन दूर करने के लिए उन्हें अपने साथ मुंबई ले आए थे. दिवाकरजी अपने बच्चों के साथ मुंबई आ जरूर गए थे लेकिन उन का मन यहां रम नहीं पा रहा था. अकेलेपन से पीछा यहां भी नहीं छूटा था. वहां बरेली में तो फिर भी उन के कुछ पहचान वाले व यारदोस्त थे. यहां तो उन की किसी से जानपहचान नहीं थी और नमन व नीरा सुबह 8 बजे घर से निकल कर रात 8 बजे तक ही घर लौट पाते थे.

उन दोनों के औफिस जाने के बाद खाली घर उन को एकदम खाने को दौड़ता. कामवाली बाई आ कर घर की साफसफाई कर जाती, साथ ही, उन को खाना बना कर खिला देती.

एकाएक गला सूखने का एहसास होते ही उन्होंने पानी पीने के लिए पलंग के पास रखी साइड टेबल की ओर हाथ बढ़ाया. टेबल पर रखा जग खाली था. शायद नीरा जग में पानी भरना भूल गई होगी, यह सोच कर दबेपांव उठ रसोई में जा कर फिल्टर से पानी भरा और अपने कमरे में आ कर पलंग पर बैठ कर पानी पिया.

नींद तो आ नहीं रही थी, सो अब उन को चाय की तलब लगने लगी थी. वैसे, चाय बनानी तो उन को आती थी लेकिन रसोईघर में होती खटरपटर से कहीं नमन व नीरा की नींद न टूट जाए, इस ऊहापोह में उल  झे कुछ देर पलंग पर ही बैठे रहे.

सिर में कुछ भारीपन सा महसूस होने पर सोचा, कुछ देर खुली हवा में ही घूम आएं. वैसे भी इन 10-15 दिनों में वे केवल 2 बार ही घर से निकले थे. एक बार बहू नीरा उन को कपड़े दिलाने मार्केट ले गई थी. दूसरी बार बेटा नमन घर के पास बनी लाइब्रेरी दिखा लाया था ताकि मन न लगने पर वे लाइब्रेरी में जा कर मनपसंद किताबें पढ़ कर अपना मन बहला सकें. लाइब्रेरी के पास ही एक पार्क भी था, नमन ने पापाजी को पार्क का भी एक चक्कर लगवा दिया था, जबकि नमन जानता था कि उन को घूमने का कोई खास शौक नहीं है.

 

उन्होंने सोचा कि पार्क में जा कर कुछ देर ठंडी हवा का आनंद लिया जाए और पार्क की तरफ कदम बढ़ा दिए. घर से बाहर निकलने पर पाया, धुंधलका कुछकुछ छंटने लगा था, सूरज आसमान में अपनी लालिमा बिखेरने की तैयारी में था. पार्क में इक्कादुक्का लोग घूम रहे थे, कुछेक जौगिंग भी कर रहे थे.

एक खाली बैंच देख कर दिवाकरजी उस पर जा कर बैठ गए. एक तो रातभर की उचटती नींद, दूसरे पार्क में बहती ठंडी बयार ने जल्दी ही उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया. अभी उन को सोते हुए कुछ ही समय हुआ होगा कि उन को महसूस हुआ जैसे उन को कोई   झक  झोर रहा है. आंखें खोलीं तो पाया कि एक महिला, जिस की उम्र लगभग 50-55 वर्ष के आसपास की होगी, उन के ऊपर   झुकी हुई थी. दिवाकरजी उसे देख कर एकदम सकपका गए और एकदम सीधे खड़े हो गए. ‘‘अरे, यह कैसा मजाक है?’’

उन के आंखें खोलते ही वह महिला भी हड़बड़ा गई और पीछे हट गई, ‘‘आप ठीक तो हैं न, मैं ने सम  झा आप लंबी यात्रा पर निकल गए,’’ कह कर खिलखिला कर हंसने लगी, ‘‘अब जब आप ठीक हैं तो प्लीज मेरा यह बैग देखते रहिएगा,’’ कह कर दिवाकरजी की सहमति व असहमति जाने बिना दौड़ गई.

दिवाकरजी सोचने लगे, बड़ी अजीब महिला है, जान न पहचान बड़े मियां सलाम और उन्हें यों सोते देख कर इतना खिलखिला कर हंसने की क्या बात थी.

दिवाकरजी ने ध्यान से देखा, व्हीलचेयर पर बैठी वह महिला सैर करने को निकल गई.

दूसरे दिन दिवाकरजी ने नोट किया कि वही महिला आज अपनी मेड को साथ ले कर आई थी. उस की मेड व्हीलचेयर धकेल कर उन को सैर करवा रही थी. किसीकिसी दिन वह महिला एक युवक के साथ भी आती जो उस के बेटे जैसा लगता था. एक दिन वही महिला खुद ही अपनी व्हीलचेयर चला कर आ रही थी कि अचानक किसी गड्ढे के आ जाने से व्हीलचेयर फंस गई. दिवाकरजी ने देखा तो उस की व्हीलचेयर को बाहर निकालने में उस की मदद की.

इस के बाद से दोनों की बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. उस ने बताया, तकरीबन 5-6 महीने पहले चोट लगने के कारण उस की हिपबोन सर्जरी हुई थी, इसी कारण व्हीलचेयर की जरूरत हुई.

तकरीबन 15-20 मिनट के बाद वही महिला अपने रूमाल से पसीना पोंछती हुई  दिवाकरजी की बगल में आ कर बैठ गई. उन से अपना बैग लिया. उस में से फ्लास्क निकाला और एक कप में चाय उड़ेल कर दिवाकरजी की ओर बढ़ा दिया, साथ ही पूछा, ‘‘वैसे, चाय तो पीते हैं न आप?’’ चाय की तलब तो उन को कब से हो रही थी, सो सारा संकोच एक तरफ रख चाय का कप ले लिया और चाय पीने लगे, साथ ही, कनखियों से उस महिला की ओर भी देखते जा रहे थे.

फ्लास्क के ढक्कन में चाय डाल कर वह खुद भी वहीं बैठ कर चाय पीने लगी.

दिवाकरजी ने उस महिला की तरफ उचटती सी नजर डाली, वह ट्रैक सूट पहने हुए थी, कसी हुई काठी और खिलता हुआ गेहुंआ रंग, चमकीली आंखें, एकदम चुस्तदुरुस्त लग रही थी. इस से पहले उन्होंने किसी महिला को बरेली में ऐसी ड्रैस पहने नहीं देखा था. अपनी पत्नी मानसी को सदैव साड़ी पहने ही देखा था.

चाय पीतेपीते वह बोली, ‘‘मेरा नाम वसुधा है, यहीं पास की उमंग सोसाइटी में रहती हूं, पास के ही एक स्कूल में पढ़ाती हूं. हर रोज इस पार्क में सैर करना मेरा नियम है. पार्क के 3-4 चक्कर लगाती हूं, फिर बैठ कर चाय पीती हूं और घर चली जाती हूं.

मानसी के अलावा दिवाकरजी ने कभी किसी महिला से बातचीत नहीं की थी, सो पहले वसुधा से बात करने में उन्हें संकोच सा अनुभव हो रहा था.

‘‘लगता है आप यहां नए आए हैं, वरना मैं ने आज तक पार्क में किसी को इस तरह सोते नहीं देखा?’’

दिवाकरजी यह सुन कर कुछ   झेंप से गए, ‘‘वह क्या है कि घुटनों के दर्द के कारण अधिक घूम नहीं पाता,’’ उन्होंने जैसे बैंच पर बैठ कर सोने के लिए सफाई सी दी.

किसी अपरिचित महिला से बातचीत का यह उन का पहला मौका था. मानसी के अलावा किसी और महिला से बातचीत उन्होंने कभी न की थी. और तो और, बहू नीरा से भी वे अभी तक कहां खुल पाए थे. लेकिन वसुधा की जिंदादिली व साफगोई ने उन को अधिक देर तक अजनबी नहीं रहने दिया.

‘‘अब जब मैं आप का नाम जान ही चुकी हूं तो आप को आप के नाम से ही पुकारूंगी. वह क्या है कि भाईसाहब का संबोधन मु  झे बहुत औपचारिक सा लगता है,’’ कह कर वह एक बार फिर से खिलखिला कर हंस पड़ी. इस बार उन को वसुधा की खनकती हंसी बहुत प्यारी लगी, प्रतिउत्तर में वे भी हलका सा मुसकरा दिए. फिर मन ही मन सोचा, पत्नी मानसी के जाने के बाद शायद आज ही मुसकराए हैं, यह कमाल शायद वसुधा के बिंदास स्वभाव का ही था.

 

वे आश्चर्यचकित थे, वसुधा की तरफ देख रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि कितनी जिंदादिल है यह. वे भी अब वसुधा से कुछकुछ खुलने लगे थे.

‘‘अच्छा, आप के घर में कौनकौन है,’’ उन्होंने वसुधा से पूछा.

‘‘कोई नहीं, मै अकेली हूं. पति का निधन हुए 8 साल हो चुके हैं.’’

‘‘फिर आप इतनी खुश व जिंदादिल कैसे रहती हैं?’’

‘‘अरे, मैं खुद हूं न अपने लिए, मैं सिर्फ जीना ही नहीं चाहती, जिंदा रहना चाहती हूं. जिंदगी हर समय पुरानी यादों के बारे में सोच कर मन को मलिन करने का नाम नहीं है. जीना है तो जिंदगी में आगे बढ़ना ही पड़ता है. वर्तमान में जीना ही जीवन का असली आनंद है. वैसे भी जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए. कितना जिएं, इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि किस तरह जिएं.

‘‘खुश रहने के लिए मैं ने ढेर सारे शौक पाल रखे हैं. कभी मार्केट जा कर ढेर सारा ऊन खरीद कर ले आती हूं, उस से स्वेटर, मोजे, टोपे बनाबना कर घर के सामने बनी   झुग्गियों में बांट देती हूं. इस से उन लोगों की आंखों में खुशी की जो चमक आती है, मेरा मन खुश हो जाता है. व्यस्त रहने से समय अच्छी तरह बीत जाता है और मन भी खुश रहता है.

‘‘अच्छा, अब आप अपने बारे में कुछ बताइए,’’ वसुधा ने कहा.

‘‘हां, मैं यहां पास ही की सनशाइन सोसाइटी के फ्लैट नंबर 703 में अपने बहूबेटे के साथ रहता हूं. पत्नी मानसी मेरा साथ छोड़ कर लंबी यात्रा पर चली गई है.

बहूबेटे मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत हैं. सुबह 8 बजे घर से निकलते हैं, फिर रात 8 बजे तक ही लौट पाते हैं. मेड आ कर घर की साफसफाई करती है, मु  झे खाना खिला कर चली जाती है. टीवी देखना मु  झे अधिक पसंद नहीं है, खाली घर सारा दिन काटने को दौड़ता है.’’

‘‘मेरा कहा मानिए, हर रोज सुबह सैर करने की आदत बना लीजिए. सैर करने से तन स्वस्थ व मन प्रफुल्लित रहता है. रोज यहां आने से आप के कुछेक मित्र भी बन जाएंगे, फिर टाइम का पता ही नहीं चलेगा.’’ यह कह कर वसुधा अपने घर की ओर निकल गई. वसुधा के जाने के बाद दिवाकरजी काफी देर तक उस की कही बातों को मन ही मन दोहराते रहे. वैसे कह तो ठीक ही रही थी, बीती यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. वसुधा पार्क से चली जरूर गई थी लेकिन दिवाकर के दिलदिमाग पर अपने विचारों की गहरी छाप छोड़ गई थी.

 

घर पहुंचने पर दरवाजे की घंटी बजाई, सकुचाती हुई बहू नीरा ने दरवाजा खोल दिया, ‘‘इतनी सुबहसुबह आप कहां चले गए थे, पापाजी?’’ नीरा ने पूछा.

‘‘पास के पार्क में चक्कर लगाने चला गया था.’’

‘‘अच्छा, अब आप फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘अरे नहीं बहू, तुम अपने औफिस जाने की तैयारी करो, आज चाय मैं बनाता हूं.’’

नीरा ने आश्चर्यचकित हो कर उन की तरफ देखा क्योंकि पिछले 10-15 दिनों से जब से यहां आए हैं, उन के मुंह से सिर्फ हां या हूं शब्द ही सुने थे. आज वे उन दोनों के लिए चाय बनाने की कह रहे थे, कुछ बात तो जरूर है वरना एकदम चुपचाप रहने वाले पापाजी आज उन दोनों के लिए चाय बनाने की जिद ठान कर बैठे हैं. शायद पार्क में कोई हमजोली मिल गया हो. चाय पी कर बहूबेटे दोनों अपने औफिस के लिए निकल गए. हां, जातेजाते इतनी अच्छी चाय बना कर पिलाने के लिए उन का धन्यवाद करना नहीं भूले.

दिवाकरजी का मन आज बहुत खुश था. आज उन को घर काटने को नहीं दौड़ रहा था. अपना बिस्तर ठीक किया. तब तक मेड आ चुकी थी. अच्छी तरह घर की साफसफाई करवाई. अपनी पसंद का खाना बनवाया. खा कर थोड़ी देर आराम किया. फिर अपना चश्मा ठीक करवाने मार्केट निकल गए.

मार्केट में घूमतेघूमते याद आया कि कितने दिनों से उन्होंने हेयरकटिंग नहीं करवाई है. हेयरकटिंग करवा कर लौटे तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट थी. उन्हें याद आया कि मानसी को उन के बड़े बालों से कितनी चिढ़ थी. घर लौटते समय उन का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा दिए और सोचा वे अब से सिर्फ जिएंगे ही नहीं, जिंदा रहेंगे. मानसी के जाने के बाद आज कितने दिनों बाद वे मुसकराए थे.

 

अब हर रोज सुबह पार्क जाने का नियम बना लिया. पार्क में वसुधा से रोज मुलाकात होती लेकिन अब पार्क में जा कर बैंच पर बैठने के बजाय वे धीरेधीरे पार्क के 2-3 चक्कर लगाने लगे, फिर बैंच पर बैठ कर वसुधा का इंतजार करते. वसुधा दौड़ लगा कर आती, फ्लास्क से कप में चाय उड़ेल कर उन की ओर बढ़ा देती. चाय पीतेपीते वे दोनों थोड़ी देर गपशप करते, फिर अपनेअपने घर की तरफ निकल लेते.

दिवाकर ने महसूस किया कि उन्हें वसुधा के साथ की आदत पड़ती जा रही है. वसुधा को भी उन के साथ समय बिताना अच्छा लगता. पिछले कई महीनों से यही सिलसिला चल रहा था.

एक दिन दिवाकर सो कर उठे तो सिर में भारीपन सा महसूस हुआ, चैक किया तो पता चला कि उन को तेज बुखार है. ऐसे में पार्क जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. औफिस जाने से पहले नमन ने डाक्टर को दिखा कर दवा दिलवा दी थी. उन दोनों के औफिस में औडिट चल रहा था, सो, छुट्टी लेना मुमकिन न था.

पूरे 2 दिन हो गए थे उन को बिस्तर पर पड़े हुए, बुखार तो उतर गया था लेकिन कमजोरी अभी बाकी थी.

तीसरे दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. इस समय कौन होगा, सोचते हुए उठे और दरवाजा खोला. सामने वसुधा खड़ी थी. वसुधा को यों अचानक अपने घर पर देख वे हैरान रह गए. फिर ध्यान आया कि परिचय देते समय खुद उन्होंने ही तो अपना फ्लैट नंबर वसुधा को बताया था.

‘‘मु  झे लग ही रहा था कि तुम्हारी तबीयत खराब होगी,’’ वसुधा आते ही बोली, ‘‘डाक्टर को दिखाया, नहीं दिखाया होगा, आदतन खुद ही प्रश्न कर खुद ही जवाब भी दे दिया. पूरे दिन वह दिवाकर के साथ ही रही. इस बीच दिवाकर ने कई बार वसुधा से उस के घर जाने को कहा लेकिन मन ही मन वसुधा का उन की इस तरह चिंता करना बहुत अच्छा लग रहा था.

2-3 दिन आराम करने के बाद दिवाकर ने ठीक महसूस होने पर पार्क जाना शुरू कर दिया. उन्हें देख कर वसुधा के चेहरे पर उजली सी मुसकान खिल गई.

धीरेधीरे वसुधा व दिवाकर की पार्क में समय बिताने की अवधि बढ़ती गई. सैर करते, फिर बैंच पर बैठ कर कई बार चाय पीतेपीते एकदूसरे के जीवन जीने के नजरिए के बारे में अपनीअपनी राय एकदूसरे के सामने रखते. जब से वे वसुधा से जुडे़ थे उन के स्वभाव में काफी परिवर्तन आ गया था. अब उन्हें वसुधा की बातें अच्छी लगने लगी थीं.

एक दिन दिवाकरजी जैसे ही पार्क से घर लौटे, बेटे नमन ने टोका,

‘‘पापा, आजकल आप पार्क में कुछ ज्यादा समय नहीं बिताने लगे हैं. जहां तक मु झे मालूम है, आप को घूमने का इतना अधिक शौक तो है नहीं.’’

‘‘हां तो, पार्क में ठंडी हवा चल रही होती है, लोग घूम रहे होते हैं, फिर मैं पेपर भी वहीं बैठ कर पढ़ लेता हूं,’’ दिवाकरजी ने जवाब दिया.

‘‘नहीं, पापा, वह बात नहीं है. मेरा दोस्त बता रहा था कि आजकल आप किसी औरत के साथ…’’ आगे की बात नमन ने बिना कहे ही छोड़ दी.

दिवाकरजी ने आग्नेय नेत्रों से नमन की ओर देखा, फिर लगभग चिल्लाते हुए बोले, ‘‘तुम्हें अपने दोस्त के कहे पर विश्वास है पर अपने पापा पर नहीं. अब इस उम्र में क्या यही सब करने को रह गया है,’’ कह कर तेजी से अपने कमरे की तरफ जा कर दरवाजा बंद कर लिया.

मन बहुत खिन्न था. पूरे दिन मन में विचारों का घमासान चलता रहा. क्या वे व वसुधा सिर्फ अच्छे दोस्त हैं, क्या उन को वसुधा के साथ जीवन की नई शुरुआत करनी चाहिए, परंतु वसुधा के मन में क्या है, कैसे पता करें आदिआदि.

दूसरे दिन पार्क पहुंचे तो चेहरे पर परेशानी साफ नजर आ रही थी.

‘‘क्या बात है, कुछ परेशान लग रहे हो?’’ वसुधा ने पूछा.

‘‘कल मेरा बेटा हमारे, तुम्हारे रिश्ते पर सवाल उठा रहा था.’’

‘‘तो तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मु  झे क्या कहना चाहिए था?’’ दिवाकर ने वसुधा की तरफ प्रश्नउछाल दिया.

‘‘मु  झे नहीं पता, आज मु झे घर पर कुछ काम है, सो जल्दी जाना है,’’ कह कर वसुधा अपने घर जल्दी ही चली गई.

दिवाकरजी ने सोचा, कहीं इस तरह का प्रश्न पूछ कर उन्होंने कोई गलती तो नहीं कर दी वरना रोज तो घंटों बैठ कर दुनियाजहान की बातें करती थी. पता नहीं वह उन के बारे में न जाने क्या सोच रही होगी. कहीं वसुधा ने उन से बातचीत करना बंद कर दिया तो?

वे घर तो आ गए थे लेकिन मन में उठ रहे विचारों की उठकपटक से बहुत परेशान थे. वे सम  झ नहीं पा रहे थे कि किसी औरत से मिलने पर नमन को एतराज क्यों है? क्या एक स्त्री, पुरुष सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं हो सकते? परंतु अगले ही पल विचार आया कि इस में उन के बेटे का भी क्या दोष है. इस तथाकथित समाज में इस तरह के रिश्तों को सदैव शक की निगाह से ही देखा जाता है तो क्या उन्हें अपने व वसुधा के रिश्ते को कोई नाम दे कर इस उल  झन को दूर कर देना चाहिए.

कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे. मन में ऊहापोह की स्थिति निरंतर बढ़ती जा रही थी क्योंकि वे वसुधा जैसी जिंदादिल व बेबाक बात करने वाली दोस्त को खोना नहीं चाहते थे. एक दिन औफिस से आ कर नमन ने कहा, ‘‘पापा, आप से कुछ बात करनी थी?’’

‘‘हां, हां, कहो क्या बात है?’’

‘‘पापा, मेरा प्रमोशन हो गया है.’’

‘‘अरे, यह तो बड़ी खुशी की बात है परंतु यह सब बताते हुए तुम इतना सकुचा क्यों रहे हो?’’

‘‘पापा, असल में बात यह है कि मेरी कंपनी किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में

3-4 साल के लिए मु  झे विदेश भेज रही है और नीरा भी मेरे साथ जा रही है. ऐसे में आप का यहां अकेले रहना व इतने बड़े फ्लैट का किराया देना मुश्किल हो जाएगा. सो, आप का बरेली वापस जाना ही ठीक रहेगा.’’

‘‘तुम अपनी लाइफ का फैसला करो, मेरा मैं खुद देख लूंगा,’’ दिवाकरजी ने तुनक कर कहा.

दूसरे दिन पार्क जाते समय मन ही मन एक फैसला कर लिया, आज वसुधा से वे क्लीयर बात कर ही लेंगे कि वह उन के बारे में क्या सोचती है. आखिर मालूम तो करना ही पड़ेगा कि उस के मन में क्या चल रहा है.

 

बेटे के विदेश जाने के समय तक उन दोनों में परस्पर कुछ लगाव सा हो गया था, लेकिन सिलसिला अभी तक सिर्फ बातचीत तक ही सीमित था. दोनों ने आपस में इस पर खुल कर कोई बातचीत नहीं की थी. दिवाकरजी अपने इस रिश्ते को ले कर सीरियस थे. बेटे के जाने से पहले ही वे इस बात को अंजाम देना चाहते थे, इसीलिए आज उन्होंने वसुधा से बात करने की ठानी ताकि कोई फैसला लिया जा सके.

जैसे ही वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन की बगल में आ कर बैठी, बिना किसी लागलपेट के वसुधा की तरफ देख कर कहा, ‘‘वसुधा, शादी करोगी मु  झ से?’’

‘‘शादी और तुम से, वह भी इस

उम्र में,’’ वसुधा ने चौंकते हुए उन की तरफ देखा.

‘‘उम्र की बात छोड़ो, तुम तो सिर्फ यह बताओ कि शादी करोगी या नहीं मु  झ से?’’

वसुधा कोई जवाब न दे कर चुपचाप उन को देखती रही.

इस के बाद उन दोनों के बीच चुप्पी छा गई. 5 दिन हो गए थे, वे दोनों पार्क आते, वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन के पास बैठती, चाय पिलाती लेकिन पहले की तरह गपशप व बातचीत का आदानप्रदान बंद था, क्योंकि दोनों के मन में ही विचारों की जंग छिड़ी हुई थी.

एक दिन दिवाकर पार्क पहुंचे, 2-3 चक्कर लगा कर बैंच पर आ बैठे. उन की दृष्टि बारबार पार्क के गेट की तरफ जाती क्योंकि वसुधा आज अभी तक पार्क में नहीं आई थी. उन को वसुधा की कमी बहुत ज्यादा खल रही थी क्योंकि आज उन का बर्थडे था और इस खुशी को वे वसुधा के साथ बांटना चाहते थे. बहूबेटे को तो शायद याद भी नहीं था कि आज उन का बर्थडे है. पत्नी मानसी उन के इस दिन को बहुत खास बना देती थी. उन की पसंद का खाना बना कर और भी न जाने बहुत सी ऐसी गतिविधियां कर के वह उन को खुश कर देती. तभी उन की नजर पार्क के गेट की तरफ पड़ी, देखा, सामने से वसुधा चली आ रही थी. उस के हाथ में आज एक गिफ्ट पैक था.

रोज की तरह वसुधा ने अपना बैग व गिफ्ट पैकेट उन को थमाया और बिना कुछ बोले, सैर करने निकल गई. जब लौट कर आई, उन की बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘हैपी बर्थडे टू यू. हां, यह गिफ्ट पैकेट तुम्हारे लिए है.’’

‘‘तो तुम्हें याद था कि आज मेरा बर्थडे है?’’

‘‘लो, उस दिन तुम ने ही तो बताया था कि मानसी मेरा जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाती थी. गिफ्ट देख कर उन के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई.

दिवाकर ने गिफ्ट को खोलने की बहुत कोशिश की परंतु गिफ्ट पैकिंग पर लगा टेप खोल ही नहीं पा रहे थे.

वसुधा ने उन के हाथ से पैकेट लिया और मुसकराते हुए बोली, ‘‘एक गिफ्ट पैक तो खुलता नहीं और ख्वाब देख रहे हैं शादी करने के.

‘‘इस में तुम्हारे लिए शर्टपैंट है और सैर करने के लिए ट्रैक सूट. कुरतापाजामा पहनने वाले आदमी मु  झे कतई पसंद नहीं और पार्क में आ कर बैंच पर बैठ कर सोने वाले तो बिलकुल नहीं. मु  झे स्मार्ट पति पसंद है,’’ कह कर आदतन खिलखिला कर हंस दी, ‘‘सो, यह ट्रैक सूट पहन कर पार्क के 3-4 चक्कर लगाने पड़ेंगे हर रोज. घूमने का शौक तो है नहीं और मन में लड्डू फूट रहे हैं शादी करने के,’’ वसुधा ने मुसकराते हुए कहा.

वसुधा उन की बगल में आ कर बैठ गई. दिवाकर ने कुछ नहीं कहा. कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. लेकिन कनखियों से दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. एकाएक दोनों की नजरें मिलीं तो दोनों ठहाका मार कर हंस दिए. इस हंसी ने सारे सवालों के जवाब दे दिए थे. वे दोनों ही जिंदगी की एक नई शुरुआत करने को मन ही मन तैयार थे. अपने बच्चों से इस बाबत बात की तो उन को खुशी हुई सुन कर कि कैसे 2 बुजुर्ग अपनी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हैं.

लेखिका – माधुरी 

Stories 2025 : रजनीगंधा मुरझा गया

Stories 2025 : रजनीगंधा मुरझा गया : तिनकातिनका जोड़ कर घोंसला बनता है. आदित्य ने भी अपनी जमापूंजी घर खरीदने में लगा दी थी लेकिन क्या पता था कि उन्हें बेघर होने पर मजबूर होना पड़ेगा.

‘‘पापा लाइट नहीं है, मेरी औनलाइन क्लासेज कैसे होंगी? कुछ दिनों में मेरे सैकंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं. कुछ दिनों तक तो मैं ने अपनी दोस्त नेहा के घर जा कर पावरबैंक चार्ज कर के काम चलाया लेकिन अब रोजरोज किसी से पावरबैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता. आखिर, कब आएगी हमारे घर बिजली?’’ संध्या अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाती हुई बोली.

‘‘आ जाएगी, बेटा, बहुत जल्दी आ जाएगी,’’ आदित्य बोला, लेकिन जानता था कि वह संध्या को केवल दिलासा दे रहा है. सच तो यह है कि अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आएगी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बिजली विभाग ने यहां के घरों की बिजली काट रखी है. पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरेधीरे हटा दी जाएगी और धीरेधीरे मखदूमपुर से तमाम  मौलिक नागरिक सुविधाएं खुद ही खत्म  हो जाएंगी और, सिर से छत छिन जाएगी. तब वह सुलेखा, संध्या, सुषमा और परी को ले कर कहां जाएगा? बहुत मुश्किल से वह अपने एलआईसी के फंड और अपने पिता बद्रीप्रसाद के रिटायरमैंट से मिले 20 लाख रुपए से एक अपार्टमैंट खरीद पाया था, तिनकातिनका जोड़ कर. जैसे गोरैया अपना घर बनाती है. उस ने सोचा था कि अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वह आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगा. बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के नीचे काटेगा. लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा. उसे यह घर खाली करना होगा वरना नगरनिगम वाले आ कर जेसीबी से तोड़ देंगे.

 

वह दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गांव में रहता है. पिछले 20-22 सालों से मखदूमपुर में 3 कमरों के अपार्टमैंट में वह रह रहा है. बिल्डर संतोष तिवारी  ने घर बेचते वक्त यह बात साफतौर पर नहीं बताई थी कि यह जमीन अधिकृत नहीं है. यानी, वह निशावली के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काट कर बनाया गया एक छोटा सा कसबा जैसा था जहां आदित्य रहता आ रहा था, हालांकि अपार्टमैंट लेते वक्त उस के पिता बद्रीप्रसाद और उस की पत्नी सुलेखा ने मना किया था- ‘मु?ो तो डर लग रहा है, कहीं यह जो तुम्हारा फैसला है वह हमारे लिए बाद में सिरदर्द न बन जाए.’

तब उसी क्षेत्र के एक नामीगिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्रीप्रसाद को आश्वस्त किया था, ‘अरे, कुछ नहीं होगा. आप लोग आंख मूंद कर लीजिए. मैं ने खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाए हैं यहां अपार्टमैंट. मैं पिछले 15-20 सालों से यहां का विधायक हूं. चिंता करने की कोई बात नहीं है.’ रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्डर संतोष तिवारी.

यह बात आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थी. रंकुल नारायण ने उस साल के विधानसभा चुनाव में सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है. आप लोग मु?ो इस विधानसभा चुनाव में जितवा दीजिए, फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूं, कि नहीं, आप खुद ही देखिएगा. कोई नहीं खाली करवा सकता यह मखदूमपुर का इलाका. हम ने आप के राशनकार्ड बनवाए. हम ने आप के घरों में बिजली के मीटर लगवाए. यहां कुछ नहीं था, जंगल था जंगल. लेकिन हम ने जंगलों को कटवा कर पाइपलाइन बिछवाई, आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया.

कोई बहुत बड़ी बात नहीं है अनधिकृत को अधिकृत करवाना. असैंबली में चर्चा की जाएगी और कुछ उपाय कर लिया जाएगा. इस मखदूमपुर वाले प्रोजैक्ट में मेरे बहनोई का कई 100 करोड़ रुपया लगा हुआ है. इसे हम किसी भी कीमत पर अधिकृत करवा कर ही रहेंगे. आखिरकार रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे भारी मतों से जितवा दिया था. और रंकुल नारायण के विधानसभा चुनाव जीतने के सालभर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया था कि मखदूमपुर कसबा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा है. लिहाजा, जो अनधिकृत कसबा मखदूमपुर बसाया गया है उसे अविलंब तोड़ा जाए. डेढ़दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरेधीरे उड़ रहा था.

‘‘पापा, न हो तो आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर में छोड़ आइए. वहां मेरा पावरबैंक चार्ज हो जाएगा और मैं सुनैना से मिल भी लूंगी. मुझे कुछ नोट्स भी उस से लेने हैं.’’ आदित्य को सुनैना के घर जाने वाली यह बात बहुत अच्छी लगी. बच्ची का मन लग जाएगा. आदित्य ने स्कूटी निकाली, स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘आओ, बेटी, बैठो.’’

थोड़ी देर में स्कूटी सड़क पर दौड़ रही थी. संध्या को सुनैना के घर में छोड़ कर कुछ जरूरी काम निबटा कर वह राशन का सामान पहुंचाने घर आ गया था.

‘मैं, क्या करूं, सुलेखा? 3-3 जवान बच्चियों को ले कर कहां किराए के मकान में  मारामारा फिरूंगा. और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही है. आखिर बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर चाहिए ही. कुछ मेरे एलआईसी के फंड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमैंट का पैसा पड़ा हुआ है. जोड़जाड़ कर 20 लाख रुपए तो हो ही जाएंगे. कुछ संतोष तिवारी से मोलभाव भी कर लेंगे.’ और तब ही आदित्य ने बिल्डर संतोष तिवारी से 20 लाख रुपए में वह 3 कमरों वाला अपार्टमैंट खरीद लिया था.

लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- ‘पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मु?ो ठीक आदमी नहीं जान पड़ते. इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता.’

लेकिन आदित्य बहुत ही सीधासादा आदमी था, वह किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था.

 

तभी उस की नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गई. शायद 8वां महीना लगने को हो आया है. पेट कितना निकल गया है. उस ने देखा, सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिए चली आ रही है. साथ में उस की

2 छोटी बेटियां परी और सुषमा भी थीं. वह अपने से न उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी 2-2 बाल्टियों में भर कर नल से ले कर आ रही थीं. आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया और सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला, ‘‘पानी नहीं आ रहा है क्या?’’

तभी उस का ध्यान बिजली पर चला गया. बिजली तो कटी हुई है. आखिर पानी चढ़ेगा तो कैसे? मोटर तो बिजली से चलती है न.

‘‘नहीं. पानी कैसे आएगा? बिजली कहां है? एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे न. न हो तो मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा दो. जब यहां कुछ व्यवस्था हो जाएगी तो यहां वापस बुला लेना. बच्चा भी ठीक से हो जाएगा और मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगा. यहां इस हालत में मुझे बहुत तकलीफ हो रही है. पानी भी नहीं आ रहा है, बिजली भी नहीं आ रही है.’’ सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोली.

अभी तक सुलेखा और बेटियों को घर टूटने वाली बात आदित्य ने जानबूझ कर नहीं बताई है. खामखां वे परेशान हो जाएंगी.

‘‘हां पापा, घर में बहुत गरमी लगती है. पता नहीं बिजली कब आएगी. हमें नानू के घर पहुंचा दो न पापा,’’ परी बोली.

‘‘हां बेटा,’’ आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला.

‘‘तुम हाथमुंह धो लो, मैं चाय गरम करती हूं.’’ सुलेखा गैस पर चाय चढ़ाते

हुए बोली.

चाय पी कर वह टहलते हुए नीचे बालकनी में आ गया. कालोनी में, कालोनी को खाली करवाने की बात को ले कर ही चर्चा चल रही थी.

कुलविंदर सिंह बोले, ‘‘यहीं, वारे (महाराष्ट्र) के जंगलों को काट कर वहां मैट्रो बनाया गया. वहां सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कालोनी इन्हें अनधिकृत लग रही है. सब सरकार के चोंचले हैं. मैट्रो से कमाई है तो वहां वह पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगी. लेकिन हमारे यहां निशावली के जंगलों और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. हुंह, पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है सरकार? फिर ये हमारा राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड किसलिए बनाए गए हैं? केवल, वोट लेने के लिए. जब कोई बस्ती व कालोनी बस रही होती है, बिल्डर उसे लोगों को बेच रहा होता है तब सरकारों की नजर इस पर क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की मेहनत से बचाई पाईपाई जोड़ कर रखते हैं, अपने बालबच्चों के लिए. और कोई कौर्पोरेट या बिल्डर हमें ठग कर ले कर चला जाता है. तब बाद में सरकार की नींद खुलती है. हमें सरकार कोई दूसरा घर कोई व्यवस्था कर के दे वरना हम यहां से हटने वाले नहीं हैं.’’

घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले, ‘‘अरे छोडि़ए कुलविंदर सिंह. ये सारी चीजें सरकार और इन पूंजीपतियों की सांठगांठ से ही होती हैं. अगर अभी जांच करवा ली जाए तो आप देखेंगे कि हमारे कई मिनिस्टर, एमपी, एमएलए इन के रिश्तेदार इस फर्जीवाड़े में पकड़े जाएंगे. सरकार की नाक के नीचे इतना बड़ा कांड होता है. करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं और आप कहते हैं कि सरकार को कुछ पता नहीं होता. हैं, कोई मानेगा इस बात को. सब सैटिंग से होता है. नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख मांगता है और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ा कर ऐश करता है. यह आखिर कैसे होता है? सब जगह सैटिंग काम करती है.’’

उस का नीचे बालकनी में मन नहीं लगा, वह वापस अपने कमरे में गया और बिस्तर पर आ कर पीठ सीधी करने लगा.

तुम से मैं कई बार कह चुकी हूं लेकिन तुम मेरी कोई भी बात मानो तब न. अगर होटल लाइन का काम नहीं खुल रहा है तो कोई और कामधाम शुरू करो. आखिर और लोग भी अपना बिजनैस चेंज कर रहे हैं, लेकिन पता नहीं तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो?

कौन समझाए सुलेखा को कि बिजनैस चेंज करना इतना आसान नहीं होता है. एक बिजनैस को सैट करने में कईकई पीढि़यां निकल जाती हैं. फिर उस के दादापरदादा यह काम कई पीढि़यों से करते आ रहे थे. इधर नया बिजनैस शुरू करने के लिए नई पूंजी चाहिए. कहां से ले कर आएगा वह अब नई पूंजी? इधर होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया है. स्टाफ का 3 महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था ही. दुकान खोलतेखोलते दुकान का मालिक सिर पर सवार हो जाएगा दुकान के भाड़े के लिए.

आखिर कहां गलती हुई उस से. वह इस देश का नागरिक है. उसे वोट देने का अधिकार है. वह सरकार को टैक्स भी देता है. सारी चीजें उस के पास थीं. पैनकार्ड, राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड, लेकिन जिस घर में वह इधर 20-22 सालों से रहता आ रहा था वह घर ही अब उस का नहीं था. घर भी उस ने पैसे दे कर ही खरीदा था. उसे यह उस की कहानी नहीं लगती, बल्कि उस के जैसे 10 हजार लोगों की कहानी लगती है. मखदूमपुर 10 हजार की आबादी वाला कसबा था.

ऐसा शायद दुनिया के सभी देशों में होता है. नकली पासपोर्ट, नकली वीजा, वैधअवैध नागरिकता. सभी जगह इस तरह के दस्तावेज पैसे के बल पर बन जाते हैं. सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एकजैसी परेशानी है. यह केवल उस की समस्या नहीं है, बल्कि उस के जैसे सैकड़ोंलाखों व करोड़ों लोगों की समस्या है. बस, मुल्क और सियासतदां बदल जाते हैं. स्थितियां कमोबेश एकजैसी ही होती हैं. सब की एकजैसी लड़ाइयां, बस लड़ने वाले लोग अलगअलग होते हैं. जमीनजमीन का फर्क है, लेकिन सारी जगहों पर हालात एकजैसे ही हैं.

आदित्य का सिर भारी होने लगा और पता नहीं कब वह नींद की आगोश में चला गया.

इधर वह सुलेखा और अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहां लखनऊ पहुंचा आया था और बहुत धीरे से इन हालात के बारे में उस ने सुलेखा को बताया था.

वापस आ कर आदित्य ने किसी तरह एक किराए के मकान का जुगाड़ कर लिया. घर पर कोई न था तो सोचा कि कुछ देर सुस्ता लिया जाए.

‘‘अरे बाबूजी, अब इस रजनीगंधा के पौधे को छोड़ भी दीजिए. देखते नहीं, पत्तियां कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गई हैं. अब नहीं लगेगा रजनीगंधा. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. बाजार जा कर नया रजनीगंधा लेते आइएगा, मैं लगा दूंगा.’’

माली ने आ कर जब आवाज लगाई तब जा कर आदित्य की तंद्र्रा टूटी.

‘‘ऊं, क्या चाचा, आप कुछ कह रहे थे?’’ आदित्य ने रजनीगंधा के ऊपर से नजर हटाई.

करीबकरीब 20-25 दिन हो गए हैं उसे नए किराए के मकान में आए.

अगलबगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया है. शिवचरन, माली चाचा, कभीकभी उस के घर आ जाते हैं. इधरउधर की बातें करने लगते हैं, तो समय का जैसे पता ही नहीं चलता.

मखदूमपुर से लौटते हुए वह अपने अपार्टमैंट में से यह रजनीगंधा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ ले आया था. आखिर कोई तो निशानी उस अपार्टमैंट की होनी चाहिए जहां इतने साल निकाल दिए.

‘‘मैं कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगंधा का पौधा लेते आना. लगता है इस की जड़ें सूख गई हैं. नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटती. देखते नहीं कि कैसे मुरझा गई हैं पत्तियां. कुम्हला कर पीली पड़ गई हैं. लगता है. इन की जड़ें सूख गई हैं. बेकार में तुम इन्हें पानी दे रहे हो.’’

‘‘हां चाचा, पीला तो मैं भी पड़ गया हूं. जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता है. अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद बचता है क्या? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती है. पानी इसलिए दे रहा हूं कि कहीं ये फिर से हरीभरी हो जाएं. एक उम्मीद है, अभी भी जिंदा है… कहीं भीतर…’’

और आदित्य वहीं रजनीगंधा के पास बैठ कर फूटफूट कर रोने लगा. बहुत दिनों से जब्त की हुई ‘नदी’ अचानक से भरभरा कर टूट गई थी और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थे. उन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

BJP को पता है बातों को तोड़ना मरोड़ना

BJP : अपनी बात मनवाने का सब से अच्छा तरीका यह होता है कि बात को तोड़मोड़ दो. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बराबरी के हक के लिए जातीय जनगणना की बात करनी शुरू की तो भारतीय जनता पार्टी ने इस को तोड़मोड़ कर इसे हिंदूमुसलिम का नैरेटिव बनाते हुए कहना शुरू कर दिया- बंटेंगे तो कटेंगे.
जब इस बंटेंगे की व्याख्या शुरू होने लगी तो बजाय यह मानने के कि बांटने वाली तो ब्राह्मणी व्यवस्था है जो जातियों और वर्णों में जन्म के नाम पर बांटती है तो भाजपाइयों ने गालीगलौच शुरू कर दी और कहने वालों की पीढि़यों की कब्रें खोदनी शुरू कर दीं.
यह हर देश में हर जगह होता है, कहीं कम कहीं ज्यादा. शिवसेना के बाल ठाकरे के पुरखे मुंबई में पैदा तो नहीं हुए थे. मुंबई तो टापुओं की जगह थी, वीरान थी. यहां बस्तियां बाहर से आए अंगरेजों ने बसाईं जिन में भारत के दूसरे हिस्सों से आ कर लोग बसे. अब यह फर्क नहीं पड़ेगा कि पड़ोस के गुजरात से आए, दूर के तमिलनाडु से आए, वहीं बिलकुल पास के पूना, कोल्हापुर, शोलापुर से आए. सभी बाहरी थे. लेकिन शिवसेना ने बाहरी लोगों के नाम पर पहले दक्षिण भारतीयों की मौजूदगी पर सवाल उठाए, फिर कभी गुजराती सेठों पर उठाए तो कभी सिख टैक्सी ड्राइवरों पर तो कभी बिहारी मजदूरों पर.
आज मुंबई सैकड़ों तरह की भाषाएं बोलने वाले सैकड़ों गांवों से आए लोगों का शहर है मेक महाराष्ट्र ग्रेट अग्रेन का नारा लगा कर मराठी संस्कृति मुंबई पर नहीं थोपी जा सकती.
आज कोई देश अपनेआप में द्वीप नहीं है, कटा हुआ नहीं है. सब का हुलिया एक सा है, सब जुड़े हैं कहीं जमीन से, कहीं पानी से, कहीं तारों से और सब से बड़ी बात उसी सूरज से, उसी आसमान से जो हर जगह एकजैसा है. कोई देश बांट सकता ही नहीं है तो जोड़ने का सवाल कहां से पैदा होता है. मानव अधिकार सब जगह एकजैसे हैं.

 

Marriage Goal : इंटरस्टेट मैरिज है सुख की गारंटी

Marriage Goal : भले ही इंटरस्टेट मैरिज का विरोध होता हो लेकिन आज के दौर में ज्यादातर ऐसी शादियां सफल होते दिख रहीं हैं. यह समाज में आ रहा एक छोटा सा ही सही सुखद बदलाव है जिस के सामने कट्टरवाद और सामाजिक धार्मिक पूर्वाग्रह अपने घुटने टेकते नजर आ रहे हैं.

साल 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ वक्त से पहले बन गई फिल्म थी जिस ने एक संवेदनशील सामाजिक समस्या के प्रति आगाह किया था. आज के युवाओं ने सुना भर है कि हां ऐसी कोई फिल्म सालों पहले बनी थी जिस में एक दक्षिण भारतीय युवक और एक हिंदी भाषी युवती एकदूसरे से प्यार कर बैठते हैं. लेकिन उसे अपनी मंजिल तक पहुंचाने के पहले ही आत्महत्या कर लेते हैं.
उन की राह में परिवार, समाज और धर्म इतने जहरीले कांटे बो देता है कि नायिका सपना और नायक बासु रूढ़ियों, रीतिरिवाजों और अपनों की ही साजिश का मुकाबला नहीं कर पाते.मौजूदा दौर का युवा एकदूजे के लिए दुखद और अवसादपूर्ण द एंड से इत्तफाक नहीं रखता क्योंकि वह लड़ना और लड़ कर जीतना जानता है. अब हर साल लाखों शादियां ऐसी होने लगी हैं जिन्हें इंटरस्टेट कहा जाता है. इन शादियों में दूल्हा या दुल्हन में से कोई एक दक्षिण या उत्तर भारत का होता है. इन्हें छिप कर प्यार करने और मिलनेजुलने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही लंबे वक्त तक दुनिया या घर वालों से प्यार छिपाने की कोई मजबूरी होती.
यह समाज में आ रहा एक छोटा सा ही सही सुखद बदलाव है जिस के सामने कट्टरवाद और सामाजिक धार्मिक पूर्वाग्रह असहाय नजर आने लगे हैं. देश में पिछले 4 – 5 दशकों में जो भारी बदलाव आए हैं उन में से एक है युवाओं का रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जाना. अव्वल तो देश के कोनेकोने से युवा इधरउधर जा रहे हैं लेकिन दक्षिणी राज्यों में हिंदी भाषी राज्यों के युवाओं की भरमार है जो किसी न किसी सौफ्टवेयर या कम्प्यूटर से ताल्लुक रखती दूसरी कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.

एक कहानी आज के सपना और बासु की

बड़ीबड़ी आंखों वाली 26 वर्षीय रुक्मणी ( बदला हुआ नाम) सांवली लेकिन आकर्षक युवती है. तीखे नैननक्श वाली यह युवती कट्टर और परंपरावादी एक हद तक रूढ़िवादी तमिल ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती है. चैन्नई से करीब 250 किलोमीटर दूर एक कसबे की रुक्मणी को एमसीए का कोर्स करने के बाद ही एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई तो वह चैन्नई में किराए के मकान में सहेलियों के साथ रहने लगी.
यहां उस की मुलाकात अपनी ही कंपनी के अक्षत (बदला नाम) से हुई जो मध्य प्रदेश के इंदौर का रहने वाला है. खातेपीते कायस्थ परिवार का अक्षत भी मिलनसार स्मार्ट और हंसमुख है. उस का परिवार रुक्मणी के परिवार जितना रूढ़िवादी भले ही न हो लेकिन बहुत ज्यादा उदार भी नहीं कहा जा सकता.
दोनों हर कभी मिलने लगे और मिलतेमिलते ही कब प्यार में पड़ गए इस का एहसास उन्हें तब हुआ जब वे शादी के बारे में सोचने लगे. इस के पहले उन्होंने रोमांस के संविधान के पूरे सिलेबस पर अमल किया जिस में गिफ्ट्स का आदानप्रदान, सोशल मीडिया पर खतोकिताबत शेरों शायरी, आंहे, बाहें, सांसे, जुदाईमिलन और कसमें वादे जैसे चैप्टर शामिल थे.
2 साल एक दूसरे को डेट करतेकरते उन्हें समझ आ गया था कि वाकई में दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. लिहाजा उन्होंने तय कर लिया कि शादी कर लेते हैं. लेकिन यह चैन्नई के किसी कैफे में हौट चौकलेट पी लेने, डोसा खा लेने या एक्सप्रेस एवेन्यू मौल में घंटो हाथों में हाथ डाले घूमते रहने जैसा आसान काम नहीं था. इन्होंने इसे आसान बनाने के लिए क्याक्या नहीं किया और कैसे एक दूजे के सपना और बासु के दुखद अंत को धता बताते सुखद अंत में बदला इसे उन की जुबानी जाननेसुनने से पहले फिल्म एक दूजे का जिक्र अहम है जो यह बताता है कि 4 – 5 दशकों बाद युवा कितने आत्मविश्वासी और जुझारू हो गए हैं.

सक्‍सेसफुल इंटरस्‍टेट मैरिज

कहानी गोवा की है जहां एक तमिल और एक हिंदी भाषी परिवार पड़ोसी हैं. तमिल युवक बासु (कमल हासन) को हिंदी भाषी सपना (रति अग्निहोत्री) से प्यार हो जाता है और जैसा कि आमतौर पर होता है प्यार में पड़े युवा अकसर यह भूल जाते हैं कि उन की एक फैमिली और उस का एक बैकग्राउंड भी है जिस में पेरैंट्स को अपने बच्चों से ज्यादा प्रिय और प्यारे उन की सामाजिक प्रतिष्ठा, धर्म, जाति और रीति रिवाज होते हैं. इन खोखले उसूलों पर वे अपनी संतानों की बलि चढ़ाने से भी नहीं चूकते.
निर्देशक के बालाचंदर युवाओं का यह द्वंद उकरेने में बेहद कामयाब रहे थे कि जब दो अलगअलग प्रांतों के युवाओं को प्यार हो जाता है तो उन्हें कैसीकैसी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है. दोनों के परिवार जब विकट के पूजापाठी हों तो ये दुश्वारियां चुनौतियों और इम्तिहान में तब्दील हो जाती हैं.
क्षेत्र, भाषा, खानपान और पहनावे वगैरह के बैरियर तो कदमकदम पर अड़े ही रहते हैं लेकिन सगे मांबाप तक की कोशिश युवाओं को हताश करने की होती है. सपना और बासु इन के छलकपट और साजिशों के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं और आखिर में समुद्र किनारे की रेत पर अपने नाम और आई लव यू लिख कर खुदकुशी कर लेते हैं. समुद्र की लहरें उन का लिखा बहा कर अपने साथ ले जाती हैं. विषय अनूठा दिलचस्प और वास्तविकता के नजदीक होने के चलते 80 के दशक के युवाओं ने हालांकि बारबार यह फिल्म देखी थी. लेकिन इस का अंत उन्हें रास नहीं आया था. वे चाहते थे कि जैसे भी हो सपना और बासु की लव स्टोरी सक्सेसफुल दिखाई जाती तो यह एक बेहतर प्रोत्साहन युवाओं के नजरिए से होता. तब फिल्म में भले ही न हुआ हो लेकिन अब हकीकत में प्रेमी जोड़े कामयाब हो रहे हैं तो इस की अपनी वजहें भी हैं जिन्हें रुक्मणी और अक्षत की लव स्टोरी से आसानी से समझा जा सकता है.

इन दोनों की बातों से साफ लगता है कि अगर यह लड़ाई थी तो उतनी आसान भी नहीं थी जितनी कि आजकल का तथाकथित खुला और उदार माहौल देख कर लगती है. यह ठीक है कि अब चुनौतियां बाहर और बाहरी लोगों से कम खुद के अंदर से ज्यादा मिलती हैं.

प्यार से बड़ा कुछ नहीं

रुक्मणी बताती है कि हमें एक पल को लगता था कि मम्मीपापा आसानी से मान जाएंगे लेकिन दूसरे ही पल यह खटका भी दिमाग पर कब्जा कर लेता था कि वे आसानी तो क्या मुश्किल से भी नहीं मानने वाले. खासतौर से मेरे मम्मीपापा जिन के लिए उन का ब्राह्मणत्व किसी भी उपलब्धि से ज्यादा अहम था.
यही हाल अक्षत का भी था, लेकिन उस के मन में एक उम्मीद भी थी क्योंकि उन के खानदान में एक लव मैरिज हो चुकी थी. यह और बात है कि उस शादी को कोई 10 साल बाद भी पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है और शादी करने वाले अभी भी बहिष्कृत सा जीवन जी रहे हैं. फिर भी यह अंधेरे में टिमटिमाते दिए से रात काटने जैसी बात तो थी, अक्षत कहता है, ‘मैं भी बहुत श्योर नहीं था क्योंकि छोटी बहन की कालेज की पढ़ाई पूरी होने को थी और मेरे इस फैसले को उस की शादी में रोड़ा ही माना जाता.’

कई बार तो दिल में आया कि हम किसी को बताएं ही क्यों, चुपचाप कोर्ट मैरिज कर चैन और सुकून से क्यों न रहें बाद में जो होगा देखा जाएगा. घर वाले ज्यादा से ज्यादा हमें बहिष्कृत ही तो करेंगे. इस बाबत हम अपने आसपास के उदाहरणों को देखा करते थे कि देखो उन्होंने भी तो यही किया था और कुछ नहीं हुआ धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है.
लेकिन यह ख्याल ज्यादा नहीं टिक पाता था, दोनों एकसाथ बताते हैं, ‘क्योंकि हम पेरैंट्स और परिवार को उतना ही चाहते हैं जितना कि वे हमे चाहते हैं. अकसर हम सपना सा देखा करते थे कि पेरैंट्स राजीखुशी मान गए हैं और हमारी शादी चैन्नई या इंदौर में धूमधाम से हो रही है. जब यह सपना टूटता था तो लगता यह भी था कि छोड़ो ये प्यारव्यार जज्बात वगैरह और जैसे परिवार और समाज चाहे वैसे ही रहें.
‘इस में भी हर्ज क्या है आखिर कहीं और शादी कर लेने से हमारा प्यार मर तो नहीं जाएगा.’ इन क्षणों में दोनों यूट्यूब पर एक पुराना गाना भी अकसर सुनने लगे थे- ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए…प्यार से भी जरूरी कई काम हैं प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए.’
लेकिन कुछ दिनों के द्वंद और उलझन के बाद यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि प्यार ही सब कुछ है तो दोनों ने तय कर लिया कि पहले अपना पक्ष तो रखें फिर घर वालों का रिएक्शन देख आगे का तय करेंगे. दोनों ने अपनेअपने तरीके से मन की बात कही तो फिल्मों जितना भूचाल तो नहीं मचा लेकिन दोनों के घरवालों की त्योरियां जरुर चढ़ गईं. खासतौर से रुक्मणी उस वक्त दिक्कत और उलझन में पड़ गई जब पापा ने यह पूछ डाला कि क्या कायस्थ हम तमिल, ब्राह्मणों से बड़े और श्रेष्ठ होते हैं.
यह एक जटिल सवाल था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था रुक्मणी उत्साहपूर्वक बताती है ‘लेकिन मुझे जाने क्यों लगा था कि इस सवाल के बहाने पापा सहमति की तरफ बढ़ रहे हैं आखिर उन्हें भी तो अपने कट्टर और रूढ़िवादी समाज का सामना करने के लिए कोई प्वाइंट चाहिए था. मैं ने हिम्मत करते मम्मी के जरिए जवाब भेजा कि ब्राह्मण कायस्थ की श्रेष्ठता के पैरामीटर तो मुझे पता नहीं लेकिन मेरे लिए अक्षत से ज्यादा श्रेष्ठ कोई और लड़का नहीं. अनजाने में मुंह से निकले इस जवाब ने स्वयंवर जैसा काम किया और मम्मीपापा इंदौर जा कर अक्षत के पेरैंट्स से मिलने के लिए तैयार हो गए.’
‘उधर मेरे मम्मीपापा का भी यही हाल था’ अक्षत कहता है, ‘साउथ को ले कर वे आशंकित तो थे ही कि वे लोग अपने सिद्धांतों के प्रति बेहद कट्टर होते हैं लेकिन इस से भी ज्यादा दिक्कत वाली बात उन का यह सोचना था कि इन अन्ना लोगों ने हमारे सीधेसादे लड़के को फंसा लिया है. चूंकि शादी के बाद उसे चैन्नई में ही रहना है इसलिए कल को वह लुंगी कुर्ता में नजर न आने लगे. पोहे, समोसे, कचौरी और रोटीसब्जी छोड़ इडलीडोसा, बड़ासांभर और चावल ही न खाने लगे वह भी केले के पत्ते पर रख कर.’

ऐसे टूटी बेड़ियां

लेकिन यह असल बात नहीं थी. असल बात थी मन में बंधी सदियों पुरानी धार्मिक जकड़न और गठाने जिन्हें खोलने नई रोशनी की जरूरत थी. दोनों के पेरैंट्स मिले और अखाड़े के पहलवानों की तरह एकदूसरे को परखा. कई दौर मीटिंगों के चले जिन में कई बार ही बात बनतेबनते बिगड़ती नजर आती तो अक्षत और रुक्मणी की सांस हलक में ही रुकने लगती. मुद्दा रीतिरिवाज और विवाह स्थल का था लेकिन इस में परोक्ष रूप से लेनदेन और खर्चे भी शामिल थे कि कौन कितना करेगा. इन दोनों प्रेमियों को यह गलत नहीं लग रहा था कि वे धीरेधीरे ही सही जीत की तरफ बढ़ रहे हैं.
चार दौर की मीटिंगों में दोनों पक्ष खुद को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में जुटे रहे थे और इस के लिए वे तरहतरह के पौराणिक रिफरेन्स और सहीगलत दलीलें भी दे रहे थे. ऐसे मौकों पर माहौल तनावपूर्ण हो जाता था जबकि रुक्मणी और अक्षत की निगाह में ये बातें फिजूल थीं. रीतिरिवाजों, जातियों, धर्म और परंपराओं की जो दीवारें खड़ी करने की कोशिश उन के पेरैंट्स कर रहे थे उन्हें तोड़ कर ही तो वे प्यार कर पाए थे लेकिन यह बात उन के पेरैंट्स शायद समझते हुए भी समझना नहीं चाह रहे थे कि हरेक प्यार शारीरिक आकर्षण महज नहीं होता. उस के आगे भी बहुत कुछ है जिसे शब्दों तो दूर भावनाओं के जरिए भी व्यक्त नहीं किया जा सकता.
बहुत सी जगह दोनों पक्ष अड़े और झुके भी, लेकिन इस दौरान जो शंकाएं, धारणाएं और कुंठाएं भी उन के दिलोदिमाग में उत्तरदक्षिण को ले कर थीं वे एक हद तक दूर हो चली थीं. सब से बड़ी समस्या भाषा की थी जिसे अंगरेजी हल कर रही थी जिसे दोनों ही पक्ष जानतेसमझते और बोलते थे.
छहसात महीने में स्पष्ट हो गया था कि दोनों के पेरैंट्स लगभग राजी हो चुके हैं लेकिन आखिर में बात इस जिद पर आ कर अड़ गई कि शादी इंदौर में हो या चैन्नई में हो. अक्षत के मातापिता की जिद यह थी कि वे लोग इंदौर आ कर शादी करें जबकि रुक्मणी के मांबाप चाहते थे कि शादी उन के कसबे से हो. यानी बारात इंदौर से चैन्नई होते उन के कसबे में पहुंचे.
अपनीअपनी बात कह कर जो कि एक तरह से फैसला ही था दोनों के पेरैंट्स खामोश हो गए तो आफत फिर इन दोनों की हो आई कि अब क्या करें. दोनों ने कुछ कौमन दोस्तों को परेशानी बताई तो एक तजुर्बेकार ने हल भी बता दिया कि आमतौर पर शादी लड़की के घर से होती है लेकिन चूंकि इंदौर से चैन्नई की दूरी कोई 1444 किलोमीटर है और वहां से रुक्मणी का कस्बा 250 किलोमीटर दूर है.
इसलिए शादी चैन्नई में होना ही ठीक रहेगी और बारात के आनेजाने का खर्च रुक्मणी या फिर उस के पेरैंट्स उठाएंगे. हिंदी भाषी राज्यों में भी यही होता है. यानी असल मुद्दा इंदौर चैन्नई लगभग 45 लोगों के आनेजाने का किराया तकरीबन 3 लाख रुपए था जिसे रुक्मणी के पिता ने उठाना स्वीकार कर लिया क्योंकि उन से दहेज नहीं मांगा जा रहा था.

कुछ और हकीकतें

जाहिर है रुक्मणी के पिता तमिल ब्राह्मण समुदाय का वर खोजते तो उन्हें तगड़ा दहेज देना पड़ता. तब यह दलील कोई माने नहीं रखती कि हमारी बेटी भी डेढ़ लाख रुपए कमाती है जो शादी के बाद ससुराल का होने लगेगा. पूरा दक्षिण भारत कुछ सालों से एक अजीब सी परेशानी से जूझ रहा है जिस के बारे में न रुक्मणी ज्यादा जानती और न ही अक्षत जानता. समस्या यह है कि तमिल ब्राह्मणों में सजातीय वरवधू का मिलना अब काफी मुश्किल हो चला है.
एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 40 हजार ब्राह्मण युवक ब्राह्मण पत्नी को तरस रहे हैं. यही हाल शिक्षित और कमाऊ होती जा रही युवतियों का भी है जिन्हें आसानी से जाति में जीवनसाथी नहीं मिल रहीं और मिलती भी हैं तो दहेज के लिए सुरसा सा मुंह फाड़ते हैं. इस के बाद भी सुखी वैवाहिक जीवन की कोई गारंटी नहीं. हैरानी की बात यह कि लड़की जितनी ज्यादा पढ़ीलिखी होगी उसे उतना ही ज्यादा दहेज देना पड़ेगा.
ऐसे में अगर हिंदी भाषी राज्य का अपरकास्ट का लड़का सस्ते में मिल रहा है तो सौदा घाटे का नहीं इसलिए किसी रुक्मणी का पिता ज्यादा धरमकरम नहीं दिखाता. उस का मकसद सिर्फ अपनी जाति और खानदान का वैभवशाली अतीत बताना भर होता है. यही हाल हिंदी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली सहित बिहार आदि का है कि टैक्निकल पढ़ाई कर बाहर नौकरी करने युवकयुवतियों को अपनी जाति और क्षेत्र का उम्मीदवार जिसे वैवाहिक विज्ञापनों की भाषा में समकक्ष कहा जाता है नहीं मिलता तो वे दक्षिण में प्यार कर बैठते हैं.

कम लेकिन स्‍वागतयोग्‍य

ऐसी इंटरस्टेट शादियां अभी बहुत धड़ल्ले से भले ही न हो रही हों लेकिन होने लगी हैं जो आमतौर पर सफल ही रहती हैं. एक आंकड़े के मुताबिक इंटरस्टेट शादियों की संख्या तकरीबन 5 फीसदी ही है ये भी इसलिए हो रही हैं क्योंकि इन में युवा लंबा टाइम साथ गुजारते एकदूसरे को समझ चुके होते हैं. उन्हें एक सहूलियत भरी जिंदगी की गारंटी और वारंटी मिलती है तो वे धर्म, जाति, भाषा और रीतिरिवाज नहीं देखते और न ही पेरैंट्स को ज्यादा देखने देते जिन्हें बेहतर मालूम है कि अगर ज्यादा सख्ती करेंगे तो उन की रहीसही भूमिका भी खत्म हो जाएगी.
बच्चे आर्थिक रूप से सक्षम हैं और अब अपने कानूनी अधिकार भी जाननेसमझने लगे हैं. ऐसे में हम मना करेंगे तो स्पैशल मैरिज एक्ट के तहत वे शादी कर लेंगे फिर हमारे हाथ कुछ नहीं रह जाएगा. वह बदनामी ज्यादा बुरी और वास्तविक होगी इसलिए क्यों न बचने के लिए उसपर उदारता और बच्चों के समझदार और आधुनिक होने का ठप्पा लगा दिया जाए. वैसे भी यह सच तो है ही जो रोजरोज दिखता है. इसलिए अजी हमारा क्या है, हम तो अपनी जिंदगी जी चुके जमाना इन बच्चों का है ये अपने हिसाब से जिएं इसलिए हम ने हां कर दी.
यह और बात है कि जिंदगीभर यह बात दिल में कसकती रहेगी कि हम अपनी जाति में बच्चों की शादी नहीं कर पाए. लेकिन ये लोग शायद ही यह समझ पाएं कि क्षेत्र और भाषा की दीवार जो खासतौर से दक्षिण भारत में धर्म और राजनीति ने खड़ी कर रखी हैं उन्हें ये युवा ही तोड़ पाएंगे और तोड़ भी रहे हैं लेकिन इस के लिए जिस प्रोत्साहन की जरूरत है वह उम्मीद और जरूरत के मुताबिक नहीं मिल रहा है. इस के बाद भी अच्छा और सुखद यह है कि प्रेमियों का हश्र कम से कम सपना और बासु सरीखा तो नहीं हो रहा.
रही बात आने वाले वैवाहिक जीवन में टकराव की तो रुक्मणी और अक्षत पूरे आत्मविश्वास से कहते हैं, ‘भाषा, क्षेत्र, जाति वगैरह पर टकराव या विवाद की सारी वजहें हम पहले ही खत्म कर चुके हैं. पूजापाठ बेहद व्यक्तिगत मामला है जिसे जैसे करना हो करे और न करना हो तो न करे लेकिन हम इसे एकदूसरे पर थोपे जाने के खिलाफ हैं.’
बात इस लिहाज से सच भी लगती है कि बड़े शहरों में महंगे होते मकानों में भगवान की जगह दीवार के छोटे से हिस्से में सिमटती जा रही है. युवाओं के अपने रहने के लिए एकएक फुट के लाले पड़ रहे हैं तो वे भगवान का कमरा कहां से बनाएं.

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