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Gold Price : सोना तो सोना है

Gold Price : मई 2024 से मई 2025 तक सोने के दामों में हुई 35 प्रतिशत वृद्धि से उन लोगों को तो खुशी हुई जिन्होंने पहले से सोना खरीद रखा था लेकिन उन्हें गम हुआ जो कुछ गहने बनवाना चाहते थे. विश्व की सरकारों द्वारा गोल्ड रिजर्व बढ़ाने के कारण डौलर पर भरोसा कम होना इस वृद्धि का मुख्य कारण है. गोल्ड लोन ले कर समय पर न चुका पाने वालों को बड़ा नुकसान होने वाला है. दरअसल, बैंक वाले पीठपीछे निर्णय ले कर लोन लेने वाले के सोने की मनमरजी से नीलामी कर उस से मिली रकम बना देंगे. लोन लेने वाले दोतीन लाख रुपए के लिए कहीं शिकायत भी नहीं कर पाएंगे.

School Fees : फीस में मनमानी

School Fees : पूरे देश में प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल हर साल फीस बढ़ा रहे हैं. इस बीच, दिल्ली सरकार ने एक कानून बनाने का वादा किया है कि वह इन स्कूलों की फीस को कंट्रोल करेगी. इंग्लिश मीडियम वाले ये स्कूल आमतौर पर सरकार से सस्ती जमीन हासिल कर बनाए गए हैं. ये कई तरीकों से दान भी वसूलते हैं. फिर भी, चूंकि मांग ज्यादा है, ये अकड़ में रहते हैं और फीस बढ़ाने से हिचकते नहीं. इस में दोष स्कूलों का ही नहीं, अभिभावकों का भी है कि वे बच्चों को सस्ते स्कूलों में क्यों नहीं भेजते.

Best Hindi Poem : साझेदार…!

Best Hindi Poem : जो नहीं थे,
मेरे सुख के साझेदार,
जिनके लिए मेरी खुशियों का
कोई मोल ही न था…
जो मेरे होकर भी मेरे ना थे…
उन तमाम लोगों को आज
अपने दुख से बेदखल करती हूँ
कि न आये वो, दुख में मेरा हाथ थामने!

जानना जरूरी होगा, सभी को
कि अकेला पड़ जाना
और अकेले छोड़ देने की
महीन रेखा को,
उससे उठते दर्द की परिभाषा कहीं लिखा नहीं जाता,
पर मैं लिखूंगी, इसकी परिभाषा
अपने वसीयत में!

जरूरत को पूरा करना
हर बार जरूरी नहीं होता
कभी वक्त वेवक्त प्रेम/परवाह जताना भी अपनेपन की निशानी है….
ये निशानियां अब नजर नहीं आती…
मुझे! तुम में तुम नजर नहीं आते
इसलिए भी मैं, तुम्हें अपने दुख से बेखल करती हूँ।

मुझे कोई रोग कोई पीड़ा
है की नहीं, नहीं जानती
फिर भी चेहरे का पीला पड़ना
मन खाली होना और दिल का भारी होना
यह सब क्यूँ हो रहा है…
आँसू आँख में अटके रहते.
कि कभी कोई आयेगा….पोछने
इस इंतजार में मन मकड़ी के जालों की तरह उलझा रहता..
जो नहीं देता मेरे मन पर दस्तक…क्या करूँ मैं
ऐसे अपनों का…

जो नहीं बैठा, मुझे अपना समझकर
मेरे साथ, उन सभी को
मैं अपने दुख से बेदखल करती हूँ..

कि मत आना राम नाम सत्य कहने भी,
कि उस समय भी तुम दुख का कारण बनोगे…
तुम दुख में भी, दुख का कारण बनो,
ऐसा मैं हरगिज नहीं चाहती
इसलिए भी
जो नहीं थे मेरे सुख के साझेदार
उन तमाम लोगों को
अपने दुख से बेदखल कर रही हूँ…

लेखिका : प्रतिभा श्रीवास्तव अंश

Hindi Poem : नारी आदि है अनंत है

Hindi Poem : मैं कब घर आंगन सम्भालने लगी गुड़िया से हो गयी मां
मां शब्द जब सुना मैं हो गयी सम्पूर्ण नारी
अब मां की ज़िम्मेदारी निभाती
अपनी गुड़िया को अपने आंगन में लाड लाडती
और मन में सोच रही
पता नहीं चलेगा, समय दौड़ जायेगा
मैं मां बन जाउंगी
मन ही मन मैं कहती मैं भी मां की तरह
हो जाउंगी सम्पूर्ण नारी
नारी तुम शाक्ति हो
नारी तुम आदि अनंत हो

लेखिका : रमा सेठी

Best Hindi Satire : तोंद की महिमा

Best Hindi Satire : अरे वाह, तोंद की महिमा तो कुछ और ही है. पेट का आकार बढ़तेबढ़ते मानो सफलता की निशानी बन गया हो. पहले कहते थे, ‘पतले रहो, स्वस्थ रहो,’ अब तो आलम है कि ‘जितना बड़ा पेट, उतनी बड़ी शान.’

हिंदू शास्त्रों में समय को 4 युगों, यथा सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में बांटा गया है. विद्वानों के अनुसार, अभी कलियुग चल रहा है. लेकिन मौजूदा समय को ‘तोंदुल युग’ कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा. हालांकि इन्हें किसी कालखंड में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि तोंदुलों का अस्तित्व अनादिकाल से बना हुआ है. मामले में ये कौकरोचों को भी पीछे छोड़ चुके हैं. आज ये बहुसंख्यक हैं और देश को चलाने में इन की अहम भूमिका है. इतना ही नहीं, ऊर्जावान और क्षमतावान होने की वजह से दुनियाभर में इन की तूती बोल रही है.

तोंद की महिमा हर युग में बनी हुई रही है और तोंदुलों को ईसा पूर्व से मानसम्मान मिलता रहा है. उस जमाने में गणमान्य व्यक्ति यानी नगर सेठ, पुरोहित, राज पुरोहित आदि तोंदुल ही हुआ करते थे, लेकिन वे अर्थव्यवस्था और धर्म के आधार थे. इन के सहयोग के बिना राजा कुछ भी नहीं कर सकता था. वे इतने ताकतवर होते थे कि कभी भी राजा का तख्ता पलट सकते थे. आज भी तोंदुल आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दिशानिर्देशों व नियमकायदों को तय करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.

तोंदुल की श्रेष्ठता से जलनेभुनने वाले इन की महिमामंडन करने से बचते रहे हैं पर आज जरूरत इस बात की है कि तोंदुलों के एहसान को माना जाए, उन की अहमियत को सम झा जाए, बेवजह उन की लानतमलामत न की जाए, हमेशा श्रद्धाभाव से उन का इस्तकबाल किया जाए आदि.

दुनिया में तोंदुलों के महत्त्व को या उन की महिमा को सिर्फ इथोपिया जैसा देश ही सम झ सका है, जहां निवास करने वाले बोदी जनजाति में जिस पुरुष की तोंद सब से ज्यादा बढ़ी हुई होती है, उसे सब से सुंदर या हैंडसम माना जाता है. वहां सभी पुरुष हमेशा तोंद बढ़ाने की जुगत में रहते हैं. बड़े व बढ़े तोंद पर लड़कियां मरती हैं, जान छिड़कती हैं. मोटे पुरुषों के लिए सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है और सब से मोटे पुरुष को विजेता घोषित कर के उस का मानसम्मान किया जाता है, साथ ही साथ, उसे पुरस्कार के रूप में एक मोटी राशि दी जाती है.

वर्तमान में तसवीर थोड़ी बदल गई है. राजा अर्थात नेता यानी सांसद, विधायक, मंत्री आदि तोंदुल बन गए हैं. देश यही चला रहे हैं. नेता को मामले से अलग कर दें तो भी रोजगार सृजन का कार्यभार तोंदुलों ने अपने कंधों पर ले रखा है.

डाक्टर और दवाखाना वाले तो पूरी तरह से तोंदुलों के रहमोकरम पर जिंदा हैं. मिठाई, पिज्जाबर्गर, गोलगप्पे व समोसाचाट, जलेबी, पूरीकचौड़ी व घूघनी, बकरामुर्गा, मोमौजचाउमीन आदि बेचने वालों की दुकानें भी तोंदुल ही चला रहे हैं. कपड़े बेचने वाले, दर्जी आदि के मुनाफे को बढ़ाने में भी इस प्रजाति की अहम भूमिका है.

वीएलसीसी, जिम चलाने वाले, स्लिमिंग मशीन का कारोबार करने वाले कारोबारी तोंदुलों की वजह से ही चांदी काट रहे हैं. करोड़ोंअरबों रुपयों के वारेन्यारे कर रहे हैं ये लोग. सिर्फ एकदो किलोग्राम वजन कम करने के लिए तोंदुल डाक्टरों और कारोबारियों की मोटी रकम से जेब गरम कर रहे हैं.

बड़ी संख्या में महिलाएं तोंदुल पति की वजह से ही आज चैन की नींद सो पा रही हैं. पति की जासूसी करवाने का भी टैंशन उन्हें नहीं रहता है. पति की सेक्रेटरी सुंदर कन्या के रहने पर उन्हें डर नहीं लगता है. कभी बुरे सपने नहीं आते हैं. तोंदुल पति इधरउधर मुंह नहीं मारेगा और चरबीदार और गुब्बारे जैसे फूले पेट वाले पति को कोई भी कन्या घास नहीं डालेगी, इस का भरोसा पत्नी के मन में सर्वदा बना रहता है. हां, एकाध प्रतिशत कोई चंट या मक्कार लड़की पैसों के चक्कर में तोंदुल पति पर डोरे डालने की कोशिश करती भी है तो आसानी से पत्नी बेलन से या गालियों की बौछार से उस की छीछालेदर कर सकती है.

इश्क के चक्कर से बचे रहना, लड़की के चक्कर में पत्नी से लड़ाई नहीं होना, काम पर फोकस बना रहना, हमेशा मनपसंद भोजन करना, कसरत करने या मौर्निंग वौक करने में समय बरबाद नहीं करना, फिजिकल खेलकूद में व्यर्थ के पैसे खर्च करने से बचे रहना, हमेशा खुश रहना आदि तोंदुल होने के ही तो फायदे हैं.

देखा जाए तो आज दुनिया तोंदुलों के रहमोकरम की वजह से ही चल रही है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखेंगे तो इन का भारतीय अर्थव्यवस्था में कम से कम 25-30 प्रतिशत का योगदान जरूर होगा. सो, अब वक्त आ गया है कि हम इन्हें हिकारत की नजरों से देखना बंद करें और तोंदुल महाराज का सोतेजागते अविरल जयकारा लगाएं.

सचमुच, तोंद की महिमा अपरंपार है.

Love Story : अब आओ न मीता

Love Story : ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी. मीता भीड़ के बीच खड़ी अपना टिकट कनफर्म करवाने के लिए टी.टी.ई. का इंतजार कर रही थी. इतनी सारी भीड़ को निबटातेनिबटाते टी.टी.ई. ने मीता का टिकट देख कर कहा, ‘‘आप एस-2 कोच में 12 नंबर सीट पर बैठिए, मैं वहीं आऊंगा.’’

5 दिन हो गए उसे घर छोड़े. आशा दी से मिलने को मन बहुत छटपटा रहा था. बड़ी मुश्किल से फैक्टरी से एक हफ्ते की छुट्टी मिल पाई थी. अब वापसी में लग रहा है कि ट्रेन के पंख लग जाएं और वह जल्दी से घर पहुंच जाए. दोनों बेटों से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था उस का मन…और सागर? सोच कर धीरे से मुसकरा उठी वह.

यह टे्रन उसे सागर तक ही तो ले जा रही है. कितना बेचैन होगा सागर उस के बिना. एकएक पल भारी होगा उस पर. लेकिन 5 युगों की तरह बीते 5 दिन. उस की जबान नहीं बल्कि उस की गहरीगहरी बोलती सी आंखें कहेंगी…वह है ही ऐसा.

मीता अतीत में विचरण करने लगी.

‘परसों दीदी के पास कटनी जा रही हूं. 4-5 दिन में आ जाऊंगी. दोनों बच्चों को देख लेना, सागर.’

‘ठीक है पर आप जल्दी आ जाना,’ फिर थोड़ा रुक कर सागर बोला, ‘और यदि जरूरी न हो तो…’

‘जरूरी है तभी तो जा रही हूं.’

‘मुझ से भी ज्यादा जरूरी है?’

‘नहीं, तुम से ज्यादा जरूरी नहीं, पर बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई है एक हफ्ते की. फिर अगले माह बच्चों के फाइनल एग्जाम्स हैं, अगले हफ्ते होली भी है. सोचा, अभी दीदी से मिल आऊं.’

‘तो एग्जाम्स के बाद चली जाना.’

‘सागर, हर चीज का अपना समय होता है. थोड़ा तो समझो. मेरी दीदी बहुत चाहती हैं मुझे, जानते हो न? मेरी तहसनहस जिंदगी का बुरा असर पड़ा है उन पर. वह टूट गई हैं भीतर से. मुझे देख लेंगी, दोचार दिन साथ रह लेंगी तो शांति हो जाएगी उन्हें.’

‘तो उन्हें यहीं बुला लीजिए…’

‘हां, जाऊंगी तभी तो साथ लाऊंगी. एक बार तो जाने दो मुझे. मेरे जाने का मकसद तुम ही तो हो. दीदी को बताने दो कि अब अकेली नहीं हूं मैं.’

इतने में नीलेश और यश आ गए, अपनी तूफानी चाल से. अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने की दोनों में होड़ लगी थी. मीता ने दोनों की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी. टेस्ट में दोनों ही फर्स्ट थे. दोनों को गले लगा कर मीता ने आशीर्वाद दिया…पर उस की आंखें नम थीं…कितने अभागे हैं राजन. बच्चों की कामयाबी का यह गौरव उन्हें मिलता पर…

दोनों बच्चों ने अपने कार्ड उठाए. वापस जाने को पीछे मुड़ते इस के पहले ही दोनों सागर के पैरों पर झुक गए, ‘…और आप का आशीर्वाद?’

‘वह तो सदा तुम दोनों के साथ है,’ कहते हुए सागर ने दोनों को उठा कर सीने से लगा लिया और कहा, ‘तुम दोनों को इंजीनियर बनना है. याद है न?’

‘हां, अंकल, याद है पर शाम की आइसक्रीम पक्की हो तो…’

‘शाम की आइसक्रीम भी पक्की और कल की एग्जीबिशन भी. वहां झूला झूलेंगे, खिलौने खरीदेंगे, आइसक्रीम भी खाएंगे और जितने भी गेम्स हैं वे सब खेलेंगे हम तीनों.

‘हम तीनों मीन्स?’ यश बोला.

‘मीन्स मैं, तुम और नीलेश.’

‘और मम्मी?’

‘वह तो बेटे, कल तुम्हारी आशा मौसी के पास कटनी जा रही हैं. 4-5 दिन में लौटेंगी. मैं हूं ना. हम तीनों धूम मचाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे और मम्मी को बिलकुल भी याद नहीं करेंगे. ठीक?’

दोनों बच्चे खुश हो कर बाहर चल दिए.

मीता आश्चर्यचकित थी. पहले बच्चों के उस व्यवहार पर जो उन्होंने सागर से आशीर्वाद पाने के लिए किया, फिर सागर के उस व्यवहार पर जो उस ने बच्चों के संग दोहराया. सागर की गहराई को अब तक महसूस किया था आज उस की ऊंचाई भी देख चुकी वह.

किस मिट्टी का बना है सागर. चुप रह कर सहना. हंस कर खुद के दुखदर्द को छिपा लेना. कहां से आती है इतनी ताकत? मीता शर्मिंदा हो उठी.

‘नहीं, सागर, तुम्हें इस तरह अकेला कर के नहीं जा सकती मैं. एक हफ्ता हम घर पर ही रहेंगे. माफ कर दो मुझे. तुम्हारा मन दुखा कर मुझे कोई भी खुशी नहीं चाहिए. मैं बाद में हो आऊंगी.’

‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मुझ से पहले तो आप पर आप के परिवार का हक है. फिर रोकने का हक भी तो नहीं है मुझे…आप की अपनी जिम्मेदारियां हैं जो मुझ से ज्यादा जरूरी हैं. फिर आशा दी को यहां बुलाना भी तो है…’

एकाएक झटके से ट्रेन रुक गई. आसपास फिर वही शोर. पैसेंजरों का चढ़नाउतरना, सब की रेलपेल जारी थी.

मीता पर सीधी धूप आ रही थी. हलकी सी भूख भी उसे महसूस होने लगी. एक कप कौफी खरीद कर वह सिप लेने लगी. सामने की सीट पर बैठे 3-4 पुलिस अफसर यों तो अपनी बातों में मशगूल लग रहे थे लेकिन हरेक की नजरें उसे अपने शरीर पर चुभती महसूस हो रही थीं.

सागर और मीता का परिचय भी एक संयोग ही था. कभी- कभी किसी डूबते को तिनका बन कर कोई सहारा मिल जाता है और अपने हिस्से का मजबूत किनारा तेज बहाव में कहीं खो जाता है. यही हुआ था मीता के संग. अपने बेमेल विवाह की त्रासदी ढोतेढोते थक गई थी वह. पूरे 11 सालों का यातनापूर्ण जीवन जिया था उस ने. जिंदगी बोझ बनने लगी थी पर हारी नहीं थी वह. आत्महत्या कायरता की निशानी थी. उस ने वक्त के सामने घुटने टेकना तो सीखा ही न था. एक मजबूत औरत जो है वह.

मगर 11 सालों में पति रूपी दीमक ने उस के वजूद को ही चाटना शुरू कर दिया था.

तानाशाह, गैरजिम्मेदार और क्रूर पति का साथ उस की सांसें रोकने लगा था. प्रेम विवाह किया था मीता ने, लेकिन प्रेम एक धोखा और विवाह एक फांसी साबित हुआ आगे जा कर. पति को पूजा था बरसों उस ने, उस की एकएक भावना की कद्र की थी. उसे अपनी पलकों पर बैठाया, उसे क्लास वन अफसर की सीट तक पहुंचाने में भावनात्मक संबल दिया उस ने. यह प्रेम की पराकाष्ठा ही तो थी कि मीता ने अपनी शिक्षा, प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षाओं को परे हटा कर सिर्फ  पति के वजूद को ही सराहा. सांसें राजन की चलतीं पर उन सांसों से जिंदा मीता रहती, वह खुश होता तो दुनिया भर की दौलत मीता को मिल जाती.

पुरुष प्रधान समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राय: हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई महिला होती है, लेकिन सफल होते ही वही पुरुष किसी और मरीचिका के पीछे भागने लगता है. प्रेम विवाह करने वाला प्रेम की नई परिभाषाएं तलाशने लगा. एक के बाद दूसरे की तलाश में भटकने लगा.

पद के साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है यह भूल ही गया था राजन. यहां तो पद के साथसाथ शराब, ऐयाशी और ज्यादतियां आ जुड़ी थीं. प्रतिष्ठा को ताख पर रख कर राजन एक तानाशाह इनसान बनने लगा था, मीता का जीवन नरक से भी बदतर हो गया था. पतिपत्नी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मीता की सारी कोशिशें बेकार हो गईं. उस का स्वाभिमान उसे उकसाने लगा. दोनों बेटों की परवरिश, उन का भविष्य और ममता से भारी न था यह नरक. नतीजा यह हुआ कि शहर छूटा, कड़वा अतीत छूटा और नरक सा घर भी छूट गया. धीरेधीरे आत्मनिर्भर होने लगी मीता. नई धरती, नए आसमान, नई बुलंदियों ने दिल से स्वागत किया था उस का. फैशन डिजाइनिंग का डिप्लोमा काम आ गया सो एक एक्सपोर्ट गारमेंट फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. दोनों बच्चों की परवरिश और चैन से जीने के लिए पर्याप्त था इतना कुछ. ज्ंिदगी एक ढर्रे पर आ गई थी.

मारने से मन नहीं मरता न? मीता का भी नहीं मरा था. बेचैन मीता रात भर न सो पाती. नैतिकता की लड़ाई में जीत कर भी औरत के रूप में हार गई थी वह. लेकिन जीवन तो कार्यक्षेत्र है जहां दिल नहीं दिमाग का राज चलता है. मीता फिर अपनी दिनचर्या से जूझने को कमर कस कर खड़ी हो जाती, चेहरे पर झूठा मुखौटा लगा कर दुनियादारी की भीड़ में शामिल हो जाती.

लेकिन पति से अलग हो कर जीने वाली अकेली औरत को तो कांटों भरा ताज पहनाना समाज अपना धर्म समझता है. अपने अस्तित्व, स्वाभिमान और आत्मविश्वास की रक्षा करना यदि किसी नारी का गुनाह है तो बेशक समाज की दोषी थी वह…

नीलेश अब चौथी और यश दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था. उस दिन पेरेंट्सटीचर्स  मीटिंग में जाना था मीता को. जाहिर है छुट्टी लेनी पड़ती. सागर दूसरे डिपार्टमेंट में उसी पद पर था. मीता ने जा कर उसे अपनी स्थिति बताई और न आने का कारण बता कर अपना डिपार्टमेंट संभालने की रिक्वेस्ट भी की. सागर ने मीता को आश्वासन दिया और मीता निश्ंिचत हो कर मीटिंग में चली गई.

पिछले 3 साल से सागर इसी फैक्टरी में सुपरवाइजर था…अंतर्मुखी और गंभीर किस्म का व्यक्तित्व था सागर का… सब से अलग था, अपनेआप में सिमटा सा.

दूसरे दिन मीता सब से पहले सागर से मिली. पिछले दिन की रिपोर्ट जो लेनी थी और धन्यवाद भी देना था. पता चला, सागर आया जरूर है लेकिन कल से वायरल फीवर है उसे.

‘तो आप न आते कल… जब इतनी ज्यादा तबीयत खराब थी तो एप्लीकेशन भिजवा देते,’ मीता ने कहा.

‘तो आप की दी जिम्मेदारी का क्या होता?’

‘अरे, जान से बढ़ कर थी क्या यह जिम्मेदारी.’

‘हां, शायद मेरे लिए थी,’ जाने किस रौ में सागर के मुंह से निकल गया. फिर मुसकरा कर बात बदलते हुए बोला, ‘आप सुनाइए, कल पेरेंट्सटीचर्स मीटिंग में क्या हुआ?’ फिर सागर खुद ही नीलेश और यश की तारीफों के पुल बांधने लगा.

आश्चर्यचकित थी मीता. सागर को यह सब कैसे पता?

‘हैरान मत होइए, क्योंकि जब मां आइडियल होती है तो बच्चे जहीन ही होते हैं.’

फिर वह बीते दिन की रिपोर्ट देने लगा. थोड़ी देर बाद मीता अपने डिपार्ट- मेंट में चली गई. सारे दिन उस के भीतर एक अजीब सी हलचल होती रही थी. सागर का अप्रत्याशित व्यवहार उसे आंदोलित किए हुए था. 30-32 साल की उम्र होगी सागर की, लेकिन इस उम्र का सहज सामान्य व्यक्तित्व न था उस का. जो गंभीरता और सौम्यता 36-37 वर्ष में मीता को खुद में महसूस होती, वही कुछ सागर को देख कर महसूस होता था. उसे न जाने क्यों वह किसी भीतरी मंथन में उलझा सा लगता. वह किसी और की व्यक्तिगत जिंदगी में न दखल देना पसंद करती न ही इस में उस की रुचि थी. पर सागर की आज की बातों ने उसे अंदर से झकझोर दिया था.

रात बड़ी देर तक वह बेचैन रही. सागर सर के शब्द कानों में गूंजते रहे. सच तो यह है कि मीता सिर्फ शब्दों पर ही विश्वास नहीं करती, क्योंकि शब्द जाल तो किसी अर्थ विशेष से जुड़े होते हैं.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी. मीता सोच रही थी, ‘मेरे जैसा इनसान जिस ने खुद को समेटतेसमेटते अब किसी से एक इंच भी फासले के लायक न रखा वह किसी भावनात्मक संबंध के लिए सोचेगा तो सब से बड़ी सजा देगा खुद को. मेरी जिंदगी तो खुला पन्ना है जिस के हाशिए, कौमा, मात्राएं सबकुछ उजागर हैं. बस, नहीं है तो पूर्णविराम. होता भी कैसे? जब जिंदगी खुद ही कटापिटा वाक्य हो तो पूर्णविराम के लिए जगह ही कहां होगी?’

आज अचानक सागर सर की गहरी आंखों ने दर्द की हदों को हौले से छू दिया तो भरभरा कर सारे छाले फूट गए. मजाक करने के लिए किस्मत हर बार मुझी को क्यों चुनती है. सोचतेसोचते करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगी थी मीता.

दूसरे दिन सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी कि कालबेल बज उठी. दरवाजा खोला तो सागर सर खड़े थे…

‘अरे, सागर सर, आप? भीतर आइए न?’

बीमार, परेशान सागर ने कहा, ‘माफ कीजिए, मीताजी, मैं आप को परेशान कर रहा हूं. मैं 3-4 दिन फैक्टरी न जा सकूंगा. प्लीज, यह एप्लीकेशन आफिस पहुंचा दीजिएगा.’

‘हांहां, ठीक है. पहुंचा दूंगी. आप अंदर तो आइए, सर.’

‘नहीं, बस ठीक है.’

शायद चक्कर आ रहे थे सागर को. लड़खड़ाते हुए दीवार से सिर टकरातेटकराते बचा. मीता ने उन्हें जबरदस्ती बिठाया और जल्दी से चायबिस्कुट टे्र में रख कर ले आई.

‘डाक्टर को दिखाया, सर, आप ने?’

‘नहीं. ठीक हो जाऊंगा एकाध दिन में.’

‘बिना दवा के कोई चमत्कार हो जाएगा?’

‘चमत्कार तो हो जाएगा… शायद…दवा के बिना ही हो.’

‘आप की फैमिली को भी तो च्ंिता होगी?’

‘मां और भाई गांव में हैं. भाई वहीं पास के मेडिकल कालिज में है.’

‘और यहां?’

‘यहां कोई नहीं है.’

‘आप की फैमिली…यानी वाइफ, बच्चे?’

‘जब कोई है ही नहीं तो कौन रहेगा,’ सागर का अकेलापन उस की आवाज पर भारी हो रहा था.

‘यहां आप कहां रहते हैं, सर?’

‘यहीं, आप के मकान की पिछली लाइन में.’

‘और मुझे पता ही नहीं अब तक?’

‘हां, आप बिजी जो रहती हैं.’

फिर आश्चर्यचकित थी मीता. सागर उस के रोजमर्रा के कामों की पूरी जानकारी रखता था.

चाय पी कर सागर जाने के लिए खड़ा हुआ. दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि वापस पलट कर बोला, ‘एक रिक्वेस्ट है आप से.’

‘कहिए.’

‘प्लीज, बुरा मत मानिए… मुझे आप सर न कहिए. एक बार और रिक्वेस्ट करता हूं.’

‘अरे, इतने सालों की आदत बन गई है, सर.’

‘अचानक कभी कुछ नहीं होता. बस, धीरेधीरे ही तो सबकुछ बदलता है.’

जवाब सुने बिना ही वह वापस लौट गया. हाथ में टे्र पकड़े मीता खड़ी की खड़ी रह गई. सागर की पहेलियां उस की समझ से परे थीं.

धीरेधीरे 4-5 दिन बीत गए. सागर का कोई पता, कोई खबर न थी. छुट्टियां खत्म हुए भी 2 दिन बीत चुके थे. मैनेजर ने मीता को बुलवा कर सागर की तबीयत पता करने की जिम्मेदारी सौंपी.

घर आने से पहले उस ने पीछे की रो में जा कर सागर का घर ढूंढ़ने की कोशिश की तो उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई.

बहुत देर तक बेल बजाती रही लेकिन दरवाजा न खुला. किसी आशंका से कांप उठी वह. दरवाजे को एक हलका सा धक्का दिया तो वह खुल गया. मीता भीतर गई तो सारे घर में अंधेरा ही अंधेरा था. टटोलते हुए वह स्विच तक पहुंची. लाइट आन की. रोशनी हुई तो भीतर के कमरे में बेसुध सागर को पड़े देखा.

3-4 आवाजें दीं उस ने, पर जवाब नदारद था, सागर को होश होता तब तो जवाब मिलता.

उलटे पैर दरवाजा भेड़ कर मीता अपने घर आ गई. सागर का पता बता कर नीलेश को सागर के पास बैठने भेजा और खाना बनाने में जुट गई. खिचड़ी और टमाटर का सूप टिफिन में डाल कर छोटे बेटे यश को साथ ले कर वह सागर के यहां पहुंची. इनसानियत के नाते तो फर्ज था मीता का. आम सामाजिक संबंध ऐसे ही निभाए जाते हैं.

घर पहुंच कर देखा, शाम को जो घर अंधेरे में डूबा, वीरान था अब वही नीलेश और सागर की आवाज से गुलजार था. मीता को देखते ही नीलेश उत्साहित हो कर बोला, ‘मम्मी, अंकल को तो बहुत तेज फीवर था. फ्रिज से आइस निकाल कर मैं ने ठंडी पट्टियां सिर पर रखीं, तब कहीं जा कर फीवर डाउन हुआ है.’

प्रशंसा भरी नजरों से उसे देख कर वह बोली, ‘मुझे पता था, बेटे कि तुम्हारे जाने से अंकल को अच्छा लगेगा.’

‘और अब मैं डाक्टर बन कर अंकल को दवा देता हूं,’ यश कहां पीछे रहने वाला था. मम्मी के बैग से क्रोसिन और काम्बीफ्लेम की स्ट्रिप वह पहले ही निकाल चुका था.

‘चलिए अंकल, खाना खाइए. फिर मैं दवा खिलाऊंगा आप को.’

यश का आग्रह न टाल सका सागर. आज पहली बार उसे अपना घर, घर महसूस हो रहा था… सच तो यह था कि आज पहली बार उसे भूख लगी थी. काश, हर हफ्ते वह यों ही बीमार होता रहे. घर ही नहीं उसे अपने भीतर भी कुछ भराभरा सा महसूस हो रहा था.

खाना खातेखाते मीता से उस की नजरें मिलीं तो आंखों में छिपी कृतज्ञता को पहचान लिया मीता ने. इन्हीं आंखों ने तो बहुत बेचैन किया है उसे. मीता की आंखों में क्या था सागर न पढ़ सका. शायद पत्थर की भावनाएं उजागर नहीं होतीं.

सागर धीरेधीरे ठीक होने लगा. नीलेश और यश का साथ और मीता की देखभाल से यह संभव हो सका था. उस की भीतरी दुनिया भी व्यवस्थित हो चली थी. अंतर्मुखी और गंभीर सागर अब मुसकराने लगा था. नीलेश और यश ने भी अब तक मां की सुरक्षा और छांव ही जानी थी. पापा के अस्तित्व को तो जाना ही न था उन्होंने. सागर ने उस रिश्ते से न सही लेकिन किसी बेनाम रिश्ते से जोड़ लिया था खुद को. और मीता? एक अनजान सी दीवार थी अब भी दोनों के बीच. फैक्टरी में वही औपचारिकताएं थीं. घर में नीलेश और यश ही सागर के इर्दगिर्द होते. मीता चुप रह कर भी सामान्य थी, लेकिन सागर को न जाने क्यों अपने करीब महसूस करती थी.

दिनोंदिन घर का सूनापन भरने लगा था. मीता ने इस बदलाव पर आशा दी को पत्र लिखा. तुरंत उन का जवाब आया, ‘शायद कुदरत अपनी गलती पर पछता रही हो…मीता, जो होगा, अच्छा होगा.’

सागर के रूप में उसे अपना एक हमदर्द मिला तो जीवन जीना सहज होने लगा, फिर भी हर वक्त एक आशंका और डर छाया रहता…सब कुछ वक्त के हवाले कर के आंखें मूंद ली थीं मीता ने.

‘‘आंटी, आप का पर्स नीचे गिरा है बहुत देर से,’’ आवाज से स्मृतियों की यात्रा में पड़ाव आ गया. सामने की सीट पर बैठी एक युवती मीता को जगा रही थी. उसे लगा मीता सो रही है. मीता ने पर्स उठाया और उसे थैंक्यू बोला.

कितनी अजीब होती हैं सफर की स्थितियां. या तो हम अतीत में होते हैं या भविष्य में. गाड़ी के  पहिए आगे बढ़ते और यादें पीछे लौटती हैं. पीछे छूटे लोगों की गंध और चेहरे साथ चलते महसूस होते हैं.

चलते वक्त आशा दी की आंखें रोरो कर लाल हो गई थीं. फिर किसी तरह स्वयं को संयत कर बोली थीं, ‘आज पहली बार लग रहा है मीता कि मैं अपनी बहन नहीं, बेटी को बिदा कर रही हूं. अब जब आएगी तो अपने परिवार के संग आएगी…तेरा सुख देखने को आंखें तरस गईं, मीता. सागर तो फरिश्ता बन कर आया है मेरे लिए वरना राजन ने तो…’

‘छोड़ो न आशा दी… मत याद करो वह सब. मत दिल दुखाओ.’ मीता रो उठी. दोनों बहनें एकदूसरे के गले लग कर बहुत देर तक रोती रहीं.

‘आशा दी, आप एक बार आ कर सागर से मिलो तो. अब कुछ पा कर भी खो देने का डर बारबार मन में समा जाता है. अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं रहा अब.’

‘पगली, ज्ंिदगी में सच्ची चाहत सब को नसीब नहीं होती. चाहत की, चाहने वाले की कद्र करनी चाहिए. उम्र के फासले को भूल जा, क्योंकि  प्यार उम्र को नहीं दिल को जानता है…सच के सामने सिर झुका दे मेरी बहन…नीलेश और यश के लिए भी सागर से बेहतर और कोई नहीं हो सकता.’

सागर को डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले जाना था. मीता फैक्टरी से सीधी सागर के घर चली आई. आज फिर घर में अंधेरा था…भीतर वाले कमरे में सागर सोफे पर लेटे थे. टेप रिकार्डर आन था :

‘तुझ बिन जोगन मेरी रातें,

तुझ बिन मेरे दिन बंजारे…’

अंधेरे में गूंजता अकेलापन मीता की बरदाश्त से बाहर था. लाइट आन की तो सागर की पलकों की कोरें गीली थीं. मीता को देखा तो उठ कर बैठ गए.

‘यह गाना क्यों सुन रहे हो?’

‘हमेशा यही तो सुनता रहा हूं.’

‘जो चीज रुलाए उसे दूर कर देना चाहिए कि उसे और गले लगा कर रोना चाहिए?’

‘लेकिन जो चीज आंसू के साथ शांति भी दे उस के लिए क्या करे कोई?’

‘क्या मतलब?’

‘अच्छा छोडि़ए, डाक्टर के यहां चलना है न? मैं तैयार होता हूं…’

‘नहीं, पहले बात पूरी कीजिए.’

‘पिछले 3 सालों से…’ सागर की गहरी आंखें मीता पर टिकी थीं.

‘आगे बोलिए.’

‘मुझे आप के आकर्षण ने बांध रखा है… मैं ने पागलों की तरह आप के बारे में सोचा है. आप के अतीत को जान कर, आप के संघर्ष, आप के ज्ंिदगी जीने के अंदाज को मन ही मन सराहा है. पिछले 3 सालों का हर पल आप के पास आने की ख्वाहिश में बीता है…ये गीत मेरे दर्द का हिस्सा हैं…’

‘यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में आप से बड़ी, 2 बच्चों की मां और एक शादीशुदा औरत हूं. मेरी शादी सफल नहीं हो पाई. मैं ने अकेले ही अपने बच्चों के भविष्य को संभाला है और किसी सहारे की दूरदूर तक गुंजाइश नहीं मेरे जीवन में. अपने बच्चों की नजरों में मैं अपना सम्मान नहीं खोना चाहती. हमारे बीच जो कुछ भी है, वह जो कुछ भी हो पर प्यार नहीं हो सकता.’

‘मैं ने कब कहा कि आप की चाहत चाहिए मुझे…प्यार का बदला प्यार ही हो यह जरूरी नहीं…यश, नीलेश और आप का साथ जो मुझे अपनी बीमारी के दौरान मिला, उस ने मेरा जीवन बदल दिया है. आप मेरे करीब, मेरे सामने हों. मैं जी लूंगा इसी सहारे से.’

‘मेरे साथ आप का कोई भविष्य नहीं. आप की ज्ंिदगी में अच्छी से अच्छी लड़कियां आ सकती हैं. अपना घर बसाइए…मेरी ज्ंिदगी जैसे चल रही है चलने दीजिए, सागर. ओह, सौरी.’

‘नहीं, सौरी नहीं. आप ने मेरा नाम लिया. इस के लिए शुक्रिया.’

फिर सागर तैयार होने भीतर चला गया और मीता वहीं सोफे पर बैठी कुछ सोचती रही.

सागर को सिविल इंजीनियर बनाना चाहते थे उस के डाक्टर पापा. असमय ही सिर से पिता का साया क्या उठा सागर रातोंरात बड़प्पन की चादर ओढ़ घर का बड़ा और जिम्मेदार सदस्य हो गया. 2-3 साल तक इंजीनियरिंग की डिगरी का इंतजार, फिर नौकरी की तलाश करना उस के लिए नामुमकिन था, इसलिए अपनी मंजिल को गुमनामी में धकेल कर सब से पहले फाइनल में पढ़ रही छोटी बहन सोनल के हाथ पीले किए उस ने…पापा के अधूरे कामों को पूरा करने का बीड़ा उठाया था सागर ने. सारी जमीनजायदाद का हिसाब कर के सारा पैसा बैंक में जमा कर रोहित का मेडिकल में एडमीशन करा कर वह यहां आ गया. मां को सारा उत्तरदायित्व सौंप कर वह निश्ंिचत था. अपने लिए कुछ सोचना उस की फितरत में न था. बहन अपने घर में खुश थी राहुल का कैरियर बनना निश्चित था. मां को आर्थिक सुरक्षा दे वह अकेला हो कर ज्ंिदगी जीने लगा.

बिल्ंिडग, पुल और सड़क बनाने वाली आंखें यहां शर्ट बनते देखने लगी थीं. मशीनों के शोर में वह सबकुछ भूल जाना चाहता था. कपड़ों की कतरनों में उसे अपने ध्वस्त सपनों के अक्स नजर आते. किनारे पर आ कर जहाज डूबा था उस का… बड़ा जानलेवा दर्द होता है किनारे पर डूबने का…

फिर यहां मीता को देखा. उस की समझौते भरी ज्ंिदगी का हश्र देखा तो ठगा सा रह गया वह. एक अकेली औरत का साहस देख कर कायल हो गया उस का मन. उस की प्रतिभा, शिक्षा और संस्कार का एहसास हर मिलने वाले को पहली नजर में ही हो जाता. दूसरों के मन को समझने वाली पारखी नजर मीता की विशेषता थी, न होती तो सागर के भीतर बसा खालीपन वह कैसे महसूस कर पाती भला?

मीता अपनी सीमा जानती थी. उस ने सबकुछ वक्त और हालात पर छोड़ दिया था. लेकिन मीता जानने लगी थी, सागर वह नहीं है जो नजर आता है, कई बार उस की गहरी आंखें कुछ सोचने पर विवश कर देतीं मीता को. मीता झटक देती जल्दी से अपना सिर…नहीं, उसे यह सब सोचने का हक नहीं. पर सिर झटकने से क्या सबकुछ छिटक जाता है. इनसान अकेलापन तो बरदाश्त कर लेता है लेकिन भीड़ के बीच अकेलापन बहुत भारी होता है.

पहले कम से कम उस का जीवन एक ढर्रे पर तो था. अपने बारे में उस ने सोचना ही बंद कर दिया था. लेकिन सागर का साथ पा कर कमजोर होने लगी थी वह. दूसरी ओर एक जिम्मेदार मां है वह…यह भी नहीं भूलती थी. अनिश्चय के झूले में झूल रही थी मीता. भावनाओं का चक्रवात उसे निगलने को आतुर था.

फैक्टरी की गोल्डन जुबली थी उस दिन. सुबह से ही कड़ाके की सर्दी थी. 6 बजने को थे. मीता जल्दीजल्दी तैयार हो कर फैक्टरी की ओर चल दी. घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर सागर उसी ओर आता दिखाई दिया.

‘अरे आप तो तैयार भी हो गईं…मैं आप ही को देखने आ रहा था.’

‘तुम तैयार नहीं हुए?’

‘धोबी को प्रेस के लिए कपड़े दिए हैं. बस, ला कर तैयार होना बाकी है. चलिए, आप को स्पेशल कौफी पिलाता हूं, फिर हम चलते हैं.’

दोनों सागर के घर आ गए. मीता ने कहा, ‘मैं जब तक कौफी बनाती हूं, तुम कपड़े ले आओ.’’

बसंती रंग की साड़ी में मीता की सादगी भरी सुंदरता को एकटक देखता रह गया सागर.

‘एक बात कहूं आप से?’

मीता ने हामी भरते हुए गरदन हिलाई…

‘बड़ा बदकिस्मत रहा आप का पति जो आप के साथ न रह पाया. पर बड़ा खुशनसीब भी रहा जिस ने आप का प्यार भी पाया और फिर आप को भी.’

‘और तुम, सागर?’

‘मुझ से तो आप को मिलना ही था.’

एक ठंडी सांस ली मीता ने.

उस दिन सागर के घर पर ही इतनी देर हो गई कि उन्हें फैक्टरी के फंक्शन में जाने का प्रोग्राम टालना पड़ा था. उफ, यह मुलाकात कितने सारे सवाल छोड़ गई थी.

दूसरे दिन सागर जब मीता से मिला तो एक नई मीता उस के सामने थी…सागर को देखते ही अपने बदन के हर कोने पर सागर का स्पर्श महसूस होने लगा उसे. भीतर ही भीतर सिहर उठी वह. आंखें खोलने का मन नहीं हो रहा था उस का, क्योंकि बीती रात का अध्याय जो समाया था उस में. इतने करीब आ कर, इतने करीब से छू कर जो शांति और सुकून सागर से मिला था वह शब्दों से परे था…ज्ंिदगी ने सूद सहित जो कुछ लौटाया वह अनमोल था मीता के लिए. सागर ने बांहें फैलाईं और मीता उन में जा समाई… दोनों ही मौन थे…लेकिन उन के भीतर कुछ भी मौन न था…जैसे रात की खामोशी में झील का सफर…कश्ती अपनी धीमीधीमी रफ्तार में है और चांदनी रात का नशा खुमारी में बदलता जाता है.

शाम का अंधेरा घिरने लगा था. जंगल, गांव, पेड़ और सड़क सब पीछे छूटते जा रहे थे. टे्रन अपनी गति में थी. अधिकांश यात्री बर्थ खोल कर सोने की तैयारी में थे. मीता ने भी बैग से कंबल निकाल कर उस की तहें खोलीं. एअर पिलो निकाल कर हवा भरी और आराम से लेट गई. अभी तो सारी रात का सफर है. सुबह 10 बजे के आसपास घर पहुंचेगी.

कंबल को कस कर लपेटे वह फिर पिछली बातों में खोई हुई थी. मन की अंधेरी सुरंग पर तो बरसों से ताला पड़ा था. पहले वह मानती थी कि यह जंग लगा ताला न कभी खुलेगा, न उसे कभी चाबी की जरूरत पड़ेगी. लेकिन ऐसा हुआ कि न सिर्फ ताला टूटा बल्कि बरसों बाद मन की अंधेरी सुरंग में ठंडी हवा का झोंका बन कर कोई आया और सबकुछ बदल गया.

सफर में एकएक पल मीता की आंखों से गुजर रहा था.

जिंदगी के पाताल में कहां क्या दबा है, क्या छुपा है, कब कौन उभर कर ऊपर आ जाएगा, कौन नीचे तल में जा कर खो जाएगा, पता नहीं. विश्वास नहीं होता इस अनहोनी पर, जो सपनों में भी हजारों किलोमीटर दूर था वह कभी इतना पास भी हो सकता है कि हम उसे छू सकें…और यदि न छू पाएं तो बेचैन हो जाएं. जिंदगी की अपनी गति है गाड़ी की तरह. कहीं रोशनी, कहीं अंधेरा, कहीं जंगल, कहीं खालीपन.

यहां आशा दी के पास आना था. होली भी आने वाली है. बच्चों के एग्जाम भी थे और इस बीच किराए का मकान भी शिफ्ट किया था. उसे सेट करना था. सागर 3-4 दिन से अस्पताल में दाखिल था.

पीलिया का अंदेशा था. वह सागर को भी संभाले हुए थी. एक ट्रिप सामान मेटाडोर में भेज कर दूसरी ट्रिप की तैयारी कर सामान पैक कर के रख दिया. सोचा, सामान लोड करवा कर अस्पताल जाएगी, सागर को देख कर खाना पहुंचा देगी फिर लौट कर सामान सेट होता रहेगा. लेकिन तभी सागर खुद वहां आ पहुंचा.

‘अरे, तुम यहां. मैं तो यहां से फ्री हो कर तुम्हारे ही पास आ रही थी. लेकिन तुम आए कैसे? क्या डिस्चार्ज हो गए?’

‘डिस्चार्ज नहीं हुआ पर जबरदस्ती आ गया हूं डिस्चार्ज हो कर.’

‘क्यों, जबरदस्ती क्यों?’

‘आप अकेली जो थीं. इतना सारा काम था और आप के साथ तो कोई नहीं है मदद के लिए…’

‘खानाबदोश ज्ंिदगी ने आदी बना दिया है, सागर. ये काम तो ज्ंिदगी भर के हैं, क्योंकि कोई भी मकान मालिक एक या डेढ़ साल से ज्यादा रहने ही नहीं देता है.’

‘नहीं, ज्ंिदगी भर नहीं. अब आप को एक ही मकान में रहना होगा. बहुत हो गया यह बंजारा जीवन.’

‘हां, सोच तो रही हूं… फ्लैट बुक कर लूंगी, साल के भीतर कहीं न कहीं.’

सागर खाली मकान में चुपचाप दीवार से टिका हुआ था. मीता को उस ने अपने पास बुलाया. मीता उस के करीब जा खड़ी हुई.

सागर पर एक अजीब सा जुनून सवार था. उस ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि इस घर से आप यों न जाएं, क्योंकि इस से हमारी बहुत सी यादें जुड़ी हैं.’

‘तो कैसे जाऊं, तुम्हीं बता दो.’

‘ऐेसे,’ सागर ने अपना पीछे वाला हाथ आगे किया और हाथ में रखे स्ंिदूर से मीता की मांग भर दी.

अचानक इस स्थिति के लिए तैयार न थी मीता. सागर की भावनाएं वह जानती थी…स्ंिदूर की लालिमा उस के लिए कालिख साबित हुई थी और अब सागर…उफ. निढाल हो गई वह. सागर ने संभाल लिया उसे. मीता की थरथराती और भरी आंखें छलकना चाह रही थीं.

ट्रेन की रफ्तार कम होने लगी थी. अतीत और भविष्य का अनोखा संगम है यह सफर. सागर और राजन. एक भविष्य एक अतीत. कल सागर से मिलूंगी

तो पूछूंगी, क्यों न मिल गए थे 14 साल पहले. मिल जाते तो 14 सालों

का बनवास तो न मिलता. ज्ंिदगी की बदरंग दीवारें अनारकली की तरह तो न चिनतीं मुझे.

मुसकरा उठी मीता. सागर से माफी मांग लूंगी दिल तोड़ कर जो आई थी उस का. सागर की याद आई तो उस की बोलती सी गहरी आंखें सामने आ गईं. 5 दिनों में 5 युगों का दर्द बसा होगा उन आंखों में.

टे्रन रुकी तो चायकौफी वालों की रेलपेल शुरू हो गई. मीता ने चाय पी और फिर कंबल ओढ़ कर लेट गई इस सपने के साथ कि सुबह 10 बजे जब टे्रन प्लेटफार्म पर रुकेगी…तो सागर उस के सामने होगा. नीलेश और यश उसे सरप्राइज देने आसपास कहीं छिपे होंगे.

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सुबह भी हुई, मीता की आंखें भी खुलीं, उस ने प्लेटफार्म पर कदम भी रखा, पर वहां न सागर, न नीलेश और न यश. थोड़ी देर उस ने इंतजार भी किया, लेकिन दूरदूर तक किसी का कोई पता न था. रोंआसी और निराश मीता ने अपना सामान उठाया और बाहर निकल कर आटो पकड़ा. क्या ज्ंिदगी ने फिर मजाक के लिए चुन लिया है उसे?

पूरे शहर में होली का हुड़दंग था. इन रंगों का वह क्या करे जब इंद्रधनुष के सारे रंग न जाने कहां गुम हो गए थे.

बहुत भीड़ थी रास्ते में. घर के सामने आटो रुका तो घर पर ताला लगा था. वह परेशान हो गई. अचानक घर के ऊपर नजर गई तो वहां ‘टुलेट’ का बोर्ड लगा था. उसी आटो वाले को सागर के घर का पता बता कर वापस बैठी मीता. अनेक आशंकाओं से घिरा मन रोनेरोने को हो गया.

सागर के घर के आगे बड़ी चहलपहल थी. टैंट लगा था. सजावट, वह भी फूलों की झालर और लाइटिंग से…गार्डन के सारे पेड़ों पर बल्बों की झालरें

लगी थीं…

खाने और मिठाइयों की सुगंध चारों ओर बिखरी थी. आटो के रुकते ही लगभग दौड़ती बदहवास मीता भीतर की ओर दौड़ी. भीतर पहुंचने से पहले ही जड़ हो कर वह जहां थी वहीं खड़ी रह गई.

दरवाजे पर आरती का थाल लिए सागर की मां और सुहाग जोड़ा, मंगलसूत्र और लाल चूडि़यों से भरा थाल पकड़े सागर की छोटी बहन खड़ी थी. नीचे की सीढ़ी पर हाथ जोड़ कर स्वागत करता सागर का छोटा भाई मुसकरा रहा था.

मीता ने देखा झकाझक सफेद कुरतापाजामा पहने, लाल टीका लगाए सागर उसी सोफे पर बैठा यश को तैयार कर रहा था जहां उस शाम दोनों की जिंदगी ने रुख बदला था.

रोहित मस्ती में झूमता मीता की ओर आने लगा…

सागर ने मीता को देखते ही आवाज लगाई, ‘‘नीलेश बेटे.’’

‘‘जी, पापा.’’

‘‘जाओ, आटो से मम्मी का सामान उतारो और आटो वाले को पैसे भी दे दो.’’

‘‘जी, पापा.’’

नीलेश बाहर आने लगा तो सागर ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुनो, आटो वाले को मिठाई जरूर देना…’’

‘‘जी, पापा.’’

मीता बुत बनी सागर को एकटक देख रही थी. सागर की गहरी आंखें कह रही थीं…इंजीनियर जरूर आधा हूं लेकिन घर पूरा बनाना जानता हूं. है न? अब आओ न मीता…

रीता श्रीवास्तव

Hindi Kahani : मसीहा – अपनी हिम्मत से कहां से कहां पहुंच गई शांति

Hindi Kahani : दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.

Best Hindi Story : दाग का सच – क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

Best Hindi Story : पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

VIDEO : समर स्पेशल कलर्स एंड पैटर्न्स विद द डिजिटल फैशन

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Romantic Story : लम्हे पराकाष्ठा के – रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

Romantic Story : लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’

Mother’s Day 2025 : अम्मां जैसा कोई नहीं – क्या अनु ने अम्मा का साथ निभाया

Mother’s Day 2025 : अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह किया

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Writer- Neelema Tikku

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