Politics : लोकतंत्र वोट देने और लेने तक सीमित रह गया है. जनता, जिसे कभी सत्ता का मुख्य बिंदु माना जाता था, अब सिर्फ एक दिन भूमिका निभाती है. वोटोक्रेसी व डैमोक्रेसी का फर्क धुंधलाता जा रहा है. आइए समझते हैं कि कैसे लोकतंत्र का रूप बदलते वक्त के साथ अपने माने खो रहा है.
दिल्ली विधानसभा के चुनाव हाल ही में हुए हैं. प्रधानमंत्री तक उस के चुनावी प्रचार में आखिर तक लगे रहे कि किसी तरह से 10 साल से मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे अरविंद केजरीवाल को बाहर निकाला जा सके. इन 10 सालों में उन के उपराज्यपाल ने अरविंद केजरीवाल को एक रात निश्चिंत रहने नहीं दिया. वे वोटों से जीत कर आए थे. पहली बार उन्होंने कांग्रेस के साथ सरकार बनाई. दूसरी और तीसरी बार वे भारी बहुमत से जीते. लेकिन वे आसानी से राज कभी न कर सके क्योंकि केंद्र के उपराज्यपाल का हंटर उन के सिर पर सभी कार्यकालों के दौरान हमेशा रहा.
यह साबित करता है कि देश में वोटतंत्र या वोटोक्रेसी है पर डैमोक्रेसी कितनी और कैसी है, इस का अंदाजा घटनाओं और मुद्दों को देख कर लगाया जा सकता है, गिना नहीं जा सकता. देश में 1952 से वोटोक्रेसी तो है पर जिसे डैमोक्रेसी कहा जाना चाहिए उस के बारे में पूरा संशय है. हर रोज लगता है कि देश में एक अघोषित तानाशाही, डिक्टेटरशिप चल रही है. जबकि, हर बार समय पर चुनाव हो रहे हैं. सो, वोटोक्रेसी तो पक्का है.
वोटोक्रेसी शब्द का इस्तेमाल कहींकहीं कोई करता है पर इस का अर्थ स्पष्ट है, ऐसी शासन पद्धति जिस में लोग वोट देते हैं पर क्या वोटोक्रेसी ही डैमोक्रेसी या लोकतंत्र है? नहीं, बिलकुल नहीं. वोट दे कर डैमोक्रेसी की पहली और सिर्फ पहली सीढ़ी चढ़ी जाती है. डैमोक्रेसी वह शासन पद्धति है जिस में जनता को लगे कि शासन में जो बैठे हैं वे उस के बलबूते पर, उस की सेवा के लिए, उस की आशाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उस के ही चुने हुए लोग हैं.
अब्राहम लिंकन आज होते तो लोकतंत्र की अपनी परिभाषा में मामूली फेरबदल करते कहते यही कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन अब शासन जनता द्वारा नहीं बल्कि उन के चुने हुए उन प्रतिनिधियों द्वारा होता है जो अपनी मनमरजी करते हैं, अपने लिए राज करते हैं. लोकतंत्र का सीधा सा मतलब अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में वोट लेना और वोट देना रह गया है.
जब कभी चुनाव आते हैं तब मतदाता ही नेताओं का मजाक उड़ाते हैं कि लो आ गए सिर झुकाए, नम्रता की प्रतिमूर्ति बने. जीतने के बाद इन के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. लेकिन वे क्या करें किसी को तो चुनना है. जो कम बेईमान और कम भ्रष्ट लगता है, जनता उसे ज्यादा बेईमान और ज्यादा भ्रष्ट होने का मौका देते पार्लियामैंट, असैंबली या स्थानीय निकायों में पहुंचा देती है. जो हारते हैं उन का भी कहीं अतापता नहीं चलता. अब जो है वह वोटोक्रेसी है.
विशुद्ध वोटोक्रेसी वैसे तो वह प्रणाली है जिस में हर काम वोट ले कर किया जाता है पर यहां वोटोक्रेसी का अर्थ लिया जा रहा है कि वोट डालने का हक होना और वोटों से चुन कर आए नेताओं को सत्ता दिलवाना. पश्चिम यूरोप, अमेरिका, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया में राज वे करते हैं जो जनता के वोटों से जीत कर आए पर इन देशों में चुने लोग सदा जनता के प्रति ज्यादा जिम्मेदार रहते हैं. अमेरिका में अब डर है कि डोनाल्ड ट्रंप, जो वोटों से ही जीत कर आए हैं, का डैमोक्रेसी से कोई लेनादेना नहीं है.
इस के अलावा बहुत से देश हैं जहां वोटों से नेता चुने जाते हैं, बदले भी जाते हैं पर चुने जाने के बाद अगले चुनावों तक वे निरंकुश तानाशाह बने रहते हैं. यह टूटी डैमोक्रेसी है क्योंकि हर चुना प्रतिनिधि छोटामोटा तानाशाह होता है और उस का सर्वोच्च नेता बड़ा तानाशाह. भारत कुछ इसी तरह का देश है.
भारत के संविधान ने अनुच्छेद 326 से हरेक को वोट देने का अधिकार तो दे दिया पर वोट का अधिकार अपनेआप में कुछ माने नहीं रखता अगर दूसरे अधिकार साथ न हों.
कम्युनिस्ट सोवियत संघ में हर थोड़े सालों में वोटिंग होती थी और लेनिन से ले कर गोर्बाचेव तक हर नेता 90-99 प्रतिशत वोट पाते रहे हैं पर श्रमिकों की कम्युनिस्ट सरकार में किसी नागरिक के पास कोई अधिकार न था. आज उत्तर कोरिया में भी चुनाव हो रहे हैं पर किम जोंग उन ही जीतते हैं, बिना विपक्ष के. 2019 के चुनावों में सभी नागरिकों ने जबरन वोट दे कर हर सीट के अकेले उम्मीदवार को चुनाव में किम जोंग उन की सुप्रीम पीपल्स असैंबली के 687 प्रतिनिधियों को चुना.
वोटोक्रेसी की धमक अमेरिका में भी
रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से टेस्ला और स्पेसएक्स के संस्थापक एलन मस्क को उन का हनुमान कहा जाने लगा है जो अमेरिका की सरकार में दखल दे रहे हैं और यूरोप व जरमनी में दक्षिणपंथी ताकतों को शह दे रहे हैं. यूरोप मस्क को ले कर बेहद बेचैन है. बीते दिनों एलन मस्क ने जम कर यूरोपीय नेताओं की आलोचना की. जरमनी की घोर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी यानी अल्टरनैटिव फौर जरमनी का समर्थन उन्होंने किया. एलन मस्क ने कोई चुनाव नहीं जीता. वे वोटोक्रेसी के बिना भी शक्तिशाली हैं. क्या यह डैमोक्रेसी है?
गौरतलब है कि जरमनी में फरवरी में आम चुनाव होना है. सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में एलन मस्क ने लिखा है कि जरमनी आर्थिक और सांस्कृतिक पतन की कगार पर है. डोनाल्ड ट्रंप को वोट देते समय लोगों ने उन्हें दुनियाभर से बैर लेने का हक नहीं दिया था. वोट राष्ट्रपति के चुनाव का था, किसी देश पर हमले का नहीं, इसलिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर पर ट्रंप के तीखे हमले से उन्हें ‘दुष्ट तानाशाह’ करार दिया गया.
ट्रंप की हरकतों में छिपे हमले से पूरा यूरोप चिंतित है. स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज ने मस्क का नाम लिए बिना कहा, ‘दुनिया का सब से अमीर आदमी हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों पर हमला कर रहा है और नफरत फैला रहा है.’ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के मुताबिक, ‘ट्रंप की छत्रछाया में पल रहे टैक अरबपतियों का दखल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.’
संक्षेप में अगर कहें तो एलन मस्क ट्रंप के दक्षिणपंथी एजेंडे के विस्तार को मुहिम की शक्ल देने में लगे हैं. दिक्कत तो यह है कि अमेरिकी वोटरों के साथसाथ वहां के डैमोक्रेट्स पार्टी के नेता भी खामोशी से सब देख रहे हैं. कोई यह नहीं कह पा रहा कि पहले अपने देश के लोकतंत्र को तो संभाल लो, फिर गैरों की चिंता करना. हार के बाद कमला हैरिस ने बोलना बंद सा कर दिया है, शायद उन्हें एहसास है कि अब दौर डैमोक्रेसी का नहीं, सिर्फ वोटोक्रेसी का है.
संविधान से मिला वोटोक्रेसी का हक
भारत में जनता को वोटोक्रेसी का हक बड़ी आसानी से मिला. 1947 से पहले जनता की मांग गोरे ब्रिटिश, हुकूमत करने वालों को हटाने की तो थी पर वोट से ही अगले शासक चुने जाएंगे, यह पक्का नहीं था. संविधान में वोट का अधिकार अनुच्छेद 326 में दिया गया है जिस की भाषा निम्न है-
‘‘लोकसभा और हरेक राज्य की विधानसभा के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे, यानी हर व्यक्ति, जो भारत का नागरिक है और जिस की आयु 18 वर्ष से कम नहीं है, को ऐसे किसी भी चुनाव में मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का अधिकार होगा.’’
रोचक बात यह है कि 1948 में संविधान सभा ने जो कच्चा प्रारूप पेश किया था उस में यह प्रस्ताव ही नहीं था. डा. भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू ने इसे डलवाया और जून 1949 में हुई संविधान सभा की बैठक में उपरोक्त अनुच्छेद वर्तमान संविधान का हिस्सा बना.
यह एक अकस्मात मिलने वाला वरदान था जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने भी कभी देश की जनता को नहीं दिया था. उन्होंने जो दिया वह या तो राजाओं को दिया या ऋषियोंमुनियों को अगर आप को लगता है कि पुराण कोरे किस्सेकहानियां नहीं हैं तो. इसी देश में नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों में बलशाली लुटेरे ही राजा बनते रहते थे और एक बार यदि कोई येनकेन कर के 10-20 हजार को मार कर राजा बना नहीं कि 5-7 पीढि़यों तक उस की संतानें राजगद्दी पर बैठी रहतीं. जनता सिर्फ चढ़ावा देती, सेना में भरती होती, राजा को भगवान कहलाने वाले पुजारियों को दानदक्षिणा देती. वोट से राजा चुना जाता है, यह कल्पना मन में थी ही नहीं.
भारत में 1952 में हुए पहले आम चुनावों से वोटोक्रेसी की शुरुआत हुई पर उस से पहले 26 जनवरी, 1950 में संविधान को देश चलाने का दर्शन व कानून मान कर लागू कर दिया गया. संविधान ने ही डैमोक्रेसी का वादा किया और यह मानना पड़ेगा कि चाहे जैसा भी शासन आज हमें मिल रहा है, संविधान से शिकायत के कम ही अवसर मिल रहे हैं. संविधान के अनुच्छेदों ने डैमोक्रेसी की भावना को घरघर तक पहुंचा दिया और गरीबों, अछूतों व हर धर्म के लोगों को डैमोक्रेसी का हकदार बना दिया.
1947 में जब भारत आजाद हुआ उस से पहले ब्रिटिश सरकार हर मनमानी कर ही सकती थी जिस की भर्त्सना हमारे ऊंची जातियों के लेखक, विचारक, इतिहासकार जम कर करते रहे हैं पर हिंदू अंगरेजों के अंगूठों के नीचे पनपती रियासतों में जो अनाचार होता था उस पर बहुत कम लोगों को बताया जाता है. परोक्ष रूप में सिद्ध करने की कोशिश रही है कि हिंदूमुसलिम राजा उदार व न्यायप्रिय ही थे. हालत उलटी थी. रियासतों में राजाओं की मनमानी चलती थी और वहां 1919, 1935 और 1945 के चुनावों में या नगर निकायों में भी चुनाव नहीं हुए.
अंगरेजों ने बहुत पहले से छिटपुट इलाकों में भद्रजनों से वोट डलवाना शुरू किया था. यह जनता के लिए एकदम नया अनुभव था वरना तो लोग यही समझते थे कि राजा ही नहीं, शहर को चलाने वाला एडमिनिस्ट्रेटर और कोतवाल भी या तो जन्मना होता है या राजा की कृपा पर निर्भर रहता है. अंगरेजों के जाने के साथ ही राजशाही खत्म हो गई. सब को बिना भेदभाव के वोट डाल कर लोकतांत्रिक राजा चुनने का हक मिल गया.
भारत में वोट डालना तो 19वीं सदी में कुछ शहरों में शुरू हो गया था पर उन में थोड़े से लोग वोट डाल पाते थे और यह केवल उन इलाकों में हुआ जो ब्रिटिश गवर्नर जनरल के कंट्रोल में थे. 1909 में इंडियन काउंसिल्स एक्ट के तहत मिंटो-मोर्ले सुधारों के नतीजे में कुछ प्रोविसैंस और म्युनिसिपल बौडीज में चुनाव हुए. कलकत्ता, मद्रास, बंबई, दिल्ली, अहमदाबाद में चुनाव हुए पर वोट का अधिकार सिर्फ शिक्षित, संपत्तिधारी मालिकों या गोरों को था. सुभाषचंद्र बोस और सरदार वल्लभाई पटेल इन चुनावों में उतरे और वहीं से नेता बने पर वे पूरे देश में वोटों से चुनी जाने वाली सरकार चाहते थे लेकिन ऐसी कोई बड़ी मांग नहीं उठ रही थी.
वोटों से डैमोक्रेसी लाने में शिक्षा बहुत जरूरी थी पर भारत के तब के ऊंची जातियों के कांग्रेसी नेता औरतों और शूद्रों व अछूतों को शिक्षा देने के सख्त खिलाफ थे. 1880 के दशक में बाल गंगाधर तिलक ने अंगरेज शासकों की म्युनिसिपल निकायों द्वारा स्कूल खोलने और उन के दरवाजे हरेक के लिए खोलने पर गहरी आपत्ति बारबार जताई. उन का कहना था कि म्युनिसिपल कमेटी रोड बनवाए, शहरों के संभ्रांतों के इलाकों को साफ रखे, फौआरे लगवाए, ट्राम चलवाए. नीची जातियों के सभी लोगों और ऊंची जातियों की औरतों को शिक्षा दिए जाने के खिलाफ मांग को अंगरेज प्रबंधकों ने नहीं माना.
आज फिर यह स्पष्ट दिख रहा है कि सीधे नहीं तो परोक्ष रूप से वोट की ताकत पर हमला हो रहा है. जिन नगर निकायों से बड़े नेता ब्रिटिश काल में निकल कर आए थे उन के चुनाव भी लोकसभा व विधानसभा के चुनावों के साथ कराने की भारतीय जनता पार्टी की जिद यही साबित कर रही है कि वह सारा पैसा एक चुनाव में झोंक कर थोक में लोकसभा, विधानसभा, नगर निकाय, जिला परिषद, पंचायतों के चुनाव करा कर जनता को बहकाना चाहती है. ‘एक देश एक चुनाव’ असल में एक देश, ‘एक बार’ चुनाव, एक पार्टी का चुनाव का रास्ता बनाने की साजिश है.
चुनावों में लालच : कीमत लो पर वोट दो
चुनाव कानून स्पष्टतया कहता है कि वोट के लिए पैसा नहीं दिया जा सकता और 1971 के रायबरेली से राजनारायण के खिलाफ लड़े चुनाव में कुछ साडि़यां बंटवाने के आरोप में 1975 में उच्च न्यायालय के जज जगमोहन लाल सिंह ने भारत और पाकिस्तान युद्ध में जीतीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था जिस के परिणाम में तत्कालीन सरकार ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था, जो आज भी कांग्रेस के गले में मरे व बदबूदार सांप की तरह लटक रहा है.
अब हर विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियां मुफ्त का माल बांटने का वादा कर रही हैं. इस में भी उन का फोकस महिलाओं पर ज्यादा रहता है. किसी न किसी योजना के नाम पर उन्हें हर महीने नकद राशि देने की घोषणा अब सभी पार्टियां करने लगी हैं. इस का असर यह हो रहा है कि महिलाएं अब पुरुषों से ज्यादा वोट डाल रही हैं. आर्थिक सहायता कमजोर वर्गों और महिलाओं को मिले, यह एतराज की बात नहीं, एतराज की बात है उन्हें लालच दे कर वोटों की भीड़ बना देना.
इस की बेहतर मिसाल मध्य प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव है जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘लाड़ली लक्ष्मी योजना’ की शुरुआत कर हारा हुआ चुनाव जीत लिया था. यह मदद अगर सामाजिक बदलाव के मद्देनजर दी जाती तो जरूर इसे लोकतंत्र का बढ़ता कदम कहा जा सकता. यहां उद्देश्य सिर्फ वोट पाना था. यही महाराष्ट्र में हुआ, दिल्ली में हुआ.
अपनेआप में यह वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी की तरफ का रास्ता है, उलटा नहीं जैसा कि एक वर्ग समझता है. औरतों को सक्षम और स्वतंत्र बनाने का यह एक अच्छा कदम है चाहे इस के पीछे एक गलत स्वार्थ छिपा हो. औरतों को फुसलाने के लिए एक के बाद एक जो होड़ लगी है, वह काले बादलों में चमक है, काले बादल नहीं हैं.
यह नहीं भूलना चाहिए कि जो भी सरकारें, नरेंद्र मोदी के शब्दों में रेवड़ी कही जाने वाली, आर्थिक सहायता गरीबों को दे रही हैं वे लोगों से जबरन लूटे टैक्स में से कुछ पैसा वापस कर रही हैं. सरकारें जो पैसा औरतों को दे रही हैं वह देशवासियों द्वारा खरीदे गए सामान पर लगे जीएसटी, पैट्रोल, टैक्स, इनकम टैक्स के जरिए पहले ही वसूल लिया जाता है.
वोटोक्रेसी से अलग है डैमोक्रेसी
75 सालों में यह साबित हो गया कि वोट बहुत कीमती वस्तु है और इसे थोक में झटकने के लिए लोकतंत्र की नहीं बल्कि वोटतंत्र की जरूरत है. भूख मिटाने के नाम से ले कर मोक्ष दिलाने के नाम तक पर वोट झटके गए और हर बार लोगों को छले जाने के बाद एहसास हुआ कि वोट लेने के लिए जिस लोकतंत्र की दुहाई चुनावप्रचार के दौरान दी जाती है उस लोकतंत्र की हत्या तो उस के जन्म के कुछ सालों बाद ही कर दी गई थी.
मसलन, लोकतंत्र के लिए पहली अनिवार्य शर्त यह है कि चुनाव निष्पक्ष हों जोकि अब नहीं होते. लोग अपनी मरजी से वोट नहीं डाल पा रहे. वे राजनेताओं सहित धर्मगुरुओं, उद्योपतियों और कारोबारियों व समाजसेवियों के कहने पर वोट डालते हैं. लोकतंत्र की दूसरी अनिवार्य शर्त यह है कि लोग किसी लालच या डर के चलते वोट न डालें बल्कि निर्भीक हो कर वोट डालें. यह चलन भी कभी का खत्म हो चुका है. लोग कंबल, बरतन, दारू की बोतल और नकदी के एवज में वोट डालने लगे. उन्हें दीर्घकालिक से ज्यादा तात्कालिक फायदा पसंद आने लगा. लेकिन हद तो पिछले 2 सालों से हो रही है.
कुछ अपवादों को छोड़ कर डैमोक्रेसी को पछाड़ते वोटोक्रेसी इसी तरह परवान चढ़ रही है. अब लोग वोट के जरिए चुनते तो नेता हैं लेकिन वह देखते ही देखते भगवान हो जाता है जो किसी की नहीं सुनता. उस भक्त की तो बिलकुल नहीं सुनता जिस ने बड़ी उम्मीदों और श्रद्धा से उसे वोट की दक्षिणा दी थी.
लोकतंत्र की मूल अवधारणा की वाट तो ऐसी लगी है कि ‘जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा’ में जनता की जगह जाति शब्द चिपक गया. उदाहरणार्थ यादवों का, यादवों के लिए, यादवों द्वारा या कि मुसलमानों द्वारा, मुसलमानों के लिए, मुसलमानों का या फिर कुर्मियों का, कुर्मियों के लिए, कुर्मियों द्वारा शासन ही लोकतंत्र कहलाता है.
यह झंझट दुनियाभर का है कि डैमोक्रेसी की जगह वोटोक्रेसी ले चुकी है. अमेरिका में चुनावी प्रक्रिया जटिल होने के बाद भी वहां अब गोरे ईसाइयों का, गोरे ईसाइयों के लिए, गोरे ईसाइयों द्वारा शासन है जिस के गोरे, कट्टर और झक्की राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी को शपथ ली है.
चुने जाने के बाद ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि 6 जनवरी, 2021 को हुए अमेरिकी संसद पर हमले के दोषियों को बख्श दिया जाएगा. डोनाल्ड ट्रंप अब बड़े शान से कह रहे हैं कि उन का रिजौर्ट (मार-ए-लागो) ब्रह्मांड का केंद्र है. ऐलान बहुत साफ है कि वहां लोकतंत्र कैद है. उन के साथ डिनर लेने वाले लाइन में लग कर 8-8 करोड़ की चढ़ोतरी चढ़ा रहे हैं. अब यह तो समझने वाले ही समझ पा रहे हैं कि ट्रंप न केवल अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा बन गए हैं.
वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते का नक्शा तो हमारी संविधान सभा ने सही ढंग से समझ कर 1950 में लिख दिया पर शायद संविधान निर्माता भलीभांति जानते थे कि जिसे जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन प्रणाली कहा जाता है, वह इस देश में आना आसान नहीं है.
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी तक पहुंचने के रास्ते को बनाने के लिए बहुत सी कोशिशें कानूनों के जरिए की थीं.
नेहरू ने भांप लिया था कि देश को लोकतंत्र देना है तो दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और औरतों को भी वोट डालने का कानूनी अधिकार दिलाना होगा, तभी स्वतंत्रता का उद्देश्य पूरा होगा, साथ ही, कांग्रेस सत्ता में रहेगी. कई चुनावों तक गैरसवर्ण कांग्रेस के शुक्रगुजार होते उसे वोट देते रहे. इस के एवज में उन्हें जो मिला वह भी अकल्पनीय था. वह था अपने अस्तित्व का एहसास, आत्मविश्वास और स्वाभिमान जो पहले राजशाही के दौरान महलों में गिरवी रखे रहते थे या अंगरेजों के गवर्नरहाउसों में गिरवी थे.
1947 से 1975 तक देश में वोटोक्रेसी जमती चली गई पर डैमोक्रेसी भी अपने कदम बढ़ाती रही. जगहजगह स्कूल खुल गए. अछूतों को नौकरियों में आरक्षण मिलने लगा, सरकारी नौकरियां भरभर के मिलने लगीं. जमींदारी का खात्मा हुआ. रियासतों के राजाओं की आन, बान व शान फीकी पड़ने लगी थी. प्रैस आजाद था. कांग्रेस की आलोचना करने वाले अखबार निकल रहे थे. टीवी अभी न के बराबर था पर रेडियो सरकारी भोंपू था जिसे डैमोक्रेसी से कोई मतलब न था.
वोट डालने के बाद डैमोक्रेसी तक पहुंचने का रास्ता संसद और विधानसभाओं से जाता है जहां जनता के वोटों से चुने प्रतिनिधि सरकारों के जनता को प्रभावित करने वाले फैसलों, कानूनों, नीतियों पर अपना यानी जनता का पक्ष रखते हैं और सरकार को निरंकुश व राजशाही बनने से रोकते हैं. जनप्रतिनिधियों की इस मंडली को अपार अधिकार संविधान ने दिए हैं और संसद व विधानसभाओं की सहमति के बिना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री एक भी कानून नहीं बना सकते.
संसद और विधानसभाएं जनता के सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व करती हैं. जब एक पार्टी का बहुमत बहुत अधिक हो, संविधान को संशोधन करने तक का भी हो तो भी संसद में बिना बहस और बिना संसद की अनुमति के प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल या राष्ट्रपति अकेले कोई कानून नहीं बना सकते, कोई फैसला नहीं ले सकते. चुने हुए प्रतिनिधि जनता के डैमाक्रेटिक अधिकारों के रक्षक माने गए हैं. यह बात दूसरी है कि पिछले 75 सालों में वे जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं उतर सके और कितनी ही बार संसद व विधानसभाएं प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की मोहरा बन कर रह गईं.
संसद या विधानसभाएं अपनी सीमा पार न कर सकें, इस के लिए संविधान ने बहुत से प्रावधान रखे और संविधान संशोधन के बिना जनता का अधिकार छीनने वाले कानून नहीं बन सकते. 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के दिए डैमोक्रेसी के बहुत से अधिकारों को संसद के संविधान को संशोधित करने के अधिकार से भी ऊपर रख दिया. जजों ने फैसला किया कि संविधान का मूलभूत ढांचा कोई संसद संविधान में संशोधन कर के बदल नहीं सकती.
लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं ने जनता की डैमोक्रेसी की चाहत को पूरी तरह नहीं समझा. आज डैमोक्रेसी जिंदा है क्या, जैसे सवाल किए जा रहे हैं तो इसलिए कि न संविधान, न सुप्रीम कोर्ट बल्कि संसद ने अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं किया. सांसदों और विधायकों ने वोट जनता से लिए पर अपना जमीर अपनी पार्टी के मुखिया को सौंप दिया. जनता की डैमोक्रेसी की संपत्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के हाथों में गिरवी रख दी गई.
आज सांसद और विधायक की इज्जत जनता के मन में इतनी कम है कि वह इसी संसद के बनाए कानूनों से नियुक्त अफसरों पर कई बार ज्यादा विश्वास करती है. इस की संक्षिप्त चर्चा आगे होगी पर यह डैमोक्रेसी के आदर्श को हासिल करने में सब से बड़ी अड़चन साबित हुआ है कि जनता उन्हीं पर विश्वास नहीं करती जिन्हें वोट दे कर जिताती है.
वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते का सब से कमजोर हिस्सा लेजिसलेचर साबित हुए हैं. विधायिकाएं जनता के मन में कभी भी आदर का स्थान नहीं पा सकीं और अखबारों व टीवी चैनलों ने संसद या विधानसभाओं की बहसों को जनता तक पहुंचाना तक बंद कर दिया. विधायिकाओं में जनता के अनुसार केवल शोरशराबा होता है, मेजें थपथपाई जाती हैं, गालीगलौच होती है, सरकार के पहले से तय कानूनों पर महज औपचारिक मोहर लगती है.
जनता का पक्ष इन विधानमंडलों में आता है और उस के अनुसार ही काम होता है, यह गलतफहमी डैमोक्रेसी के सब से प्रबल समर्थकों को भी नहीं है.
सांसदों और विधायकों के दलबदल ने डैमोक्रेसी को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. सांसद और विधायक जनता की वोटों की खरीदफरोख्त कर सकें, यह तो वोटरों ने उस समय नहीं सोचा था जब वे वोट दे रहे थे. उन्होंने किसी पार्टी या उस के मनोनीत नेता को वोट दिया पर वह अपने कार्यकाल में पाला बदल ले, यह अधिकार उस वोट में कहीं से शामिल नहीं है. मतदाताओं के पास अपने चुने प्रतिनिधि को बुलाने का हक नहीं है लेकिन यह डैमोक्रेसी की अतिरिक्त भावना है कि चुना हुआ प्रतिनिधि उन वोटों, उन नीतियों, उन भाषणों पर कायम रहेगा जिन के आधार पर उस ने वोट पाए थे.
डैमोक्रेसी की सुरक्षा का जिम्मा जनता वोटों से अपने प्रतिनिधियों को देती है और न उन्हें दलदबल की इजाजत देती है और न डैमोक्रेसी को किसी तरह से चोट पहुंचाने का. अगर 76 सालों का इतिहास देखें तो साफ लगेगा कि चुने हुए प्रतिनिधियों ने, सांसदों ने, विधायकों ने जनता का विश्वास पूरी तरह तोड़ा है. इस के बावजूद अगर देश में डैमोक्रेसी का थोड़ा सा टूटा ही सही भक्त खड़ा है तो इस का श्रेय उस संविधान की नींव की मजबूती को जाता है जिस पर डैमोक्रेसी का ढांचा खड़ा है.
संविधान, सांसद, सुप्रीम कोर्ट और डैमोक्रेसी
यह राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने वह काम किया जो जनता के चुने प्रतिनिधियों को करना चाहिए. सैकड़ों जज, सुप्रीम कोर्ट में आए और गए, ने संविधान की दी गई डैमोक्रेसी को जिंदा रखा है.
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति केंद्र सरकार ही करती है. पहले तो यह अधिकार सिर्फ मंत्रिमंडल के सहारे प्रधानमंत्री का होता था पर फिर धीरेधीरे सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मौलिक ढांचे को बचाने के नाम पर यह अपने हाथ में लिया और अब सुप्रीम कोर्ट में कौलेजियम की सिफारिशों पर जज नियुक्त होते हैं. यह कदम डैमोक्रेसी की सुरक्षा का एक बड़ा कदम साबित हुआ है और इस मामले में हमारी न्यायपालिका दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों से अधिक सही फैसले ले पाई है.
भारत के संविधान में कानूनों का राज है. जिस से हरेक नागरिक को बराबर का सम्मान, बराबर के अवसर और बराबर का व्यवहार गारंटेड है. सरकारें अगर ऐसा कानून बना रही हैं जिन में किसी एक वर्ग को किसी तरह की छूट दी जा रही हो या किसी तरह का गलत आचरण हो रहा हो तो सुप्रीम कोर्ट उस कानून को रद्द करने का साहस रखती है. अभी तक किसी सरकार की सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवहेलना का साहस नहीं किया है. हां, सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में ध्यान रखा जाता है कि वे सत्ता पक्ष का खयाल रखें.
संविधान से हटने के हर प्रयास को सुप्रीम कोट ने रोका है. कई बार जजों की अपनी निजी निष्ठा या अवकाशप्राप्ति के बाद सुखों की अपेक्षा के कारण डैमोक्रेसी को सीमित करने वाले जो कानून बने हैं उन्होंने उन्हें स्वीकार कर लिया पर देरसबेर उन्हें पलट दिया गया. 2023 में इलैक्टोरल बौंड्स पर दिया सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण फैसला था. उस ने भारतीय जनता पार्टी के चंदे लेने के तौरतरीके पर पूरी तरह फुलस्टौप लगा दिया.
संविधान का विशाल वृक्ष डैमोक्रेसी की उपजाऊ जमीन में खड़ा रहे और शासक इस पेड़ के तने काट कर अपने महल न बना लें, इस के लिए शुरू से ही सुप्रीम कोर्ट ज्यादा सतर्क रहा है.
जज वी एन खरे ने 2004 के एक निर्णय में कहा कि संविधान की खूबसूरती इसी में है कि पूरे देश का ढांचा इस पर टिका है. यह वह स्तंभ है जिस पर देश की डैमोक्रेसी टिकी है. जज एस पी अरुणा ने कहा कि संविधान, सरकार को संविधान को कुचलने का हक नहीं देता.
अदालत है जो आज की कथित डैमोक्रेसी में आम आदमी का आखिरी सहारा बचा है. लेकिन उस के साथ भी दिक्कत यह है कि वहां सालोंसाल लग जाते हैं. न्याय पाने के लिए जेब में पैसा न हो, जो देश की 90 फीसदी जनता के पास नहीं है तो लोग अपना रोना रोने या इंसाफ मांगने कहां जाएं.
इस के बाद भी अच्छी और सुखद बात यह है कि अदालतें सरकार के गलत फैसलों और नीतियों से इत्तफाक नहीं रखतीं क्योंकि एक तरह से वे सरकार की अभिभावक हैं. बुलडोजर पर अदालत ने अपना रुख साफ कर दिया कि यह गैरकानूनी है तो लाखोंकरोड़ों ने चैन की सांस ली कि कोई तो है जो सरकार की मनमानी पर लगाम कस सकता है.
मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि उन का चयन एक समिति करेगी जिस में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता सहित सीजेआई यानी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करेंगे. लेकिन सरकार ने इस में भी टांग अड़ा कर इसे पेचीदा बना दिया. सरकार ने कानून बना कर सीजेआई की जगह एक केंद्रीय मंत्री को समिति में शामिल कर दिया. मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है जिस की सुनवाई होनी है. ऐसी दर्जनों नियुक्तियों में सरकार की मनमानी चलती है. आम लोगों की राय के कोई माने नहीं होते.
यहां यह दलील बहुत खोखली साबित होती है कि हम ने तो सांसद चुन कर भेज दिया जो अहम मामलों और नियुक्तियों में हमारा प्रतिनिधित्व करेगा. इस दलील की हकीकत यह है कि एक सांसद बहुत मामूली वोटों से भी जीतता है. मान लें कि उसे 100 में से 35 ही वोट मिले जबकि बाकी 65 दूसरे उम्मीदवारों में बंट गए. ऐसे में यह बात दावे से नहीं कही जा सकती कि बाकी 65 भी उस से सहमत हैं. यह एक बड़ी खामी है जो डैमोक्रेसी को वोटोक्रेसी में तबदील करती है. इस का हल निकाला जाना जरूरी है.
बड़े तो बड़े, बहुत छोटे दिखने वाले मामलों, जो एक नागरिक के लिए बेहद अहम होते हैं, में भी अदालतें सरकार के अलावा ब्यूरोक्रेट्स को उन की ड्यूटी व जिम्मेदारी का एहसास कराने से नहीं चूकतीं. ऐसा ही एक वाकेआ मध्य प्रदेश से 10 जनवरी को सामने आया. रीवां जिले के एक किसान राकेश तिवारी की सवा एकड़ जमीन का अधिग्रहण जिला प्रशासन ने 32 साल पहले जबरन कर लिया था.
इस में दूसरी अलोकतांत्रिक बात यह थी कि उन्हें इस जमीन का कोई मुआवजा ही नहीं दिया गया. राकेश सालों तक नेताओं और अधिकारियों के चक्कर काटते रहे लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. थकहार कर उन्होंने जबलपुर हाईकोर्ट की शरण ली. उन का मुकदमा साल 2015 से ले कर 2023 तक चला. हाईकोर्ट ने राकेश के पक्ष में फैसला देते कहा, ‘मामले की अंतिम सुनवाई तक उन्हें इस जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता.’ राजस्व विभाग ने अदालत के मुआवजा संबंधी जानकारी के नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया.
रीवां कलैक्टर जब यह जानकारी देने में असमर्थ रहे तो कोर्ट ने तत्कालीन कलैक्टर पर 10 हजार रुपए का जुर्माना लगा दिया. 6 जनवरी की सुनवाई में भी प्रशासन की ढील कायम रही तो झल्लाई अदालत ने मौजूदा कलैक्टर प्रतिभा सिंह को मामले से जुड़े कागजात साथ ले कर आने को तलब किया. कलैक्टर साहिबा ने एक आवेदन दिया कि चूंकि उन के पति बीमार हैं इसलिए वे कोर्ट नहीं आ सकतीं.
इस आवेदन को खारिज करते हुए जस्टिस विवेक अग्रवाल ने उन्हें यह फटकार लगाई कि ‘आप का काम गैरजिम्मेदाराना है. आप को अधिकार जनता की सेवा करने के लिए दिए गए हैं.’ इस फटकार के बाद प्रतिभा सिंह 8 जनवरी को मय कागजात अदालत में हाजिर हुईं. जब वे कोर्ट के सवालों का जवाब देने में नाकाम रहीं तो जस्टिस महोदय ने फैसला दिया कि राकेश तिवारी को उन की जमीन वापस की जाए. कोर्ट ने प्रतिभा सिंह पर 25 हजार रुपए का जुर्माना भी ठोका क्योंकि वे इस मामले की सही तरीके से जानकारी नहीं दे पाई थीं और न ही मुआवजे की बाबत कोई ठोस कार्रवाई उन्होंने की थी.
इस मामले से साबित यही हुआ कि न्यायपालिका ही आम नागरिक की आस है जो यहांवहां भटकने के बाद न्याय के लिए कोर्ट पहुंचता है. राकेश तिवारी जैसे लोगों की परेशानी यह है कि ऐसे किसी मामले में फंस जाने पर वे कहां जाएं?
डैमोक्रेसी को बचाने या मारने वाली नौकरशाही
वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते में संविधान एक मुख्य सड़क है. यह बात दूसरी है कि इस सड़क पर सैकड़ों अतिक्रमण हो चुके हैं. सब से ज्यादा अतिक्रमण सरकार की नौकरशाही ने किए हैं. नौकरशाही ने संविधान की भावना का आदर कभी नहीं किया. उस ने हमेशा मनमानी की है.
2025 में आई ऐक्टर रामचरण की फिल्म ‘गेमचेंजर’ में नेता और सरकारी अफसर का द्वंद्व दिखाया गया है. इस में जनता के वोटों को निरीह दिखाया गया है, निरर्थक बताया गया है. यह दर्शाया गया है कि जनता का हित न संविधान करता है, न वोट करते हैं. हित तो एक कर्मठ-ईमानदार अफसर के हाथों में सुरक्षित हैं. यह संदेश जनता को बहकाने वाला है, वोटोक्रेसी को बदनाम करने वाला है.
इसी तरह ‘पुष्पा 2’ में अल्लू अर्जुन रौबिनहुड की तरह संविधान की दी गई वोटोक्रेसी और डैमोक्रेसी को कुचलता हुआ चंदन की लकडि़यों की स्मगलिंग करता हीरो बना फिरता है और दर्शक तालियां पीटते हैं.
डैमोक्रेसी के खिलाफ ये दोनों और इस से पहले बनी सैकड़ों फिल्में जनता को बहकाती रही हैं. आज जो मनमानी नेता कर पा रहे हैं उस का बहुत बड़ा कारण ये फिल्में भी हैं जिन्होंने संविधान निर्माताओं और संविधान की रक्षक सुप्रीम कोर्ट के काम को कमजोर किया. ‘शोले’ भी इसी गिनती में आएगी जिस में स्पष्ट दिखाया गया है कि देश का संविधान सम्मत कानून, जो वोटों से चुनी सरकार बनवाती है, गब्बर सिंह जैसे डाकू के हाथों हार जाता है और एक पुलिस अफसर को 2 अपराधियों को पैसे दे कर न्याय पाने के लिए हिंसा करने के लिए बुलाना पड़ता है.
वोटोक्रेसी को डैमोक्रेसी से अलग करने की साजिश में ये फिल्में ही नहीं, पूरा मीडिया भी लगा हुआ है. पहले मीडिया कांग्रेस भक्त था, आज वर्णव्यवस्था भक्त है. आज का वर्णव्यवस्था भक्त मीडिया नरेंद्र मोदी के बहाने वोटोक्रेसी के हरेक को मिले बराबर के स्तर, बराबर के हक, बराबर के अवसरों को छीन कर पंडोंपुजारियों की झोली में डालने में लिप्त है.
संविधान को जीवन का सूत्र मानने की भावना आज भी हम में पैदा नहीं हुई है. आज भी हमारे लिए पौराणिक कथाएं-कहानियां ज्यादा महत्त्व की हैं. संसद भवन के उद्घाटन के समय जो नाटक नरेंद्र मोदी ने किया वह यह दर्शाता है कि उन की संवैधानिक भावनाओं के प्रति क्या श्रद्धा है. उन की श्रद्धा तो मंदिरों, मठों के पुजारियों, संतों व महंतों में है जो न वोटोक्रेसी से कोई संबंध रखते हैं, न डैमोक्रेसी से.
पौराणिक स्मृतियों की तरह भारत का संविधान कोई ऐसा डौक्युमैंट नहीं जो ईश्वर (यदि हो) का दिया माना जाए. गीता में कृष्ण बारबार ‘मैं’ ‘मैं’ करते हुए अर्जुन को अपने भाइयों से युद्ध के लिए उकसाते हैं, उस युद्ध के लिए जो जनता के लिए नहीं हो रहा था बल्कि राजपुत्रों के अपने सुखों के लिए हो रहा था, साथ ही, वे वर्णव्यवस्था को ईश्वर की दी व्यवस्था बता जाते हैं. संविधान ने ऐसी कोई गलती नहीं की.
डैमोक्रेसी को वोटोक्रेसी ने खत्म किया या मीडिया ने
वोटोक्रेसी अभी शुक्र है कि डैमोक्रेसी को पूरा निगल नहीं पाई है और जितना निगल चुकी है उस की एक बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की भी है जिसे, कहने को ही सही, प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. मीडिया राजा की ज्यादा सुनता है, जनता की कम. इस की बहुत सी वजहों में से एक यह भी है कि अधिकतर मीडिया हाउस दूसरे कामधंधों और कारोबारों में जुट गए हैं. अधिकतर अखबार, न्यूज चैनल्स, मैगजींस वगैरह अपने दूसरे धंधों को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए चलाए जा रहे हैं.
दूसरे आम लोग भी मोबाइल फोन नाम के पिंजरे में कैद हो चले हैं. उन के पैरोंतले फेसबुक, व्हाट्सऐप, यूट्यूब और इंस्टाग्राम सरीखे दर्जनों सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स धनकुबेरों ने बिछा दिए हैं. जिन पर वे धार्मिक कार्यक्रम देखते हैं, पोर्न फिल्मों का सेवन करते हैं और रील बनाने सहित तमाम फुजूल के काम करते हैं जो उन्हें वोटोक्रेसी का हिस्सा बनाए रखते हैं. इस से होता यह है कि लोग किसी भी मुद्दे या घटना पर मौलिक तर्क और विश्लेषण नहीं कर पाते क्योंकि ये उन्हें रेडीमेड मिल जाते हैं और उपलब्ध कराने वाले वही लोग, दल (गिरोह) और संगठन होते हैं जो वोटोक्रेसी के पालकपोषक हैं.
जब से लोगों ने अखबार, किताबें और पत्रिकाएं पढ़ना छोड़ा है तब से उन के दिमाग पर, बुद्धि पर और जागरूकता पर इंटरनैट की जंग लगी है जिसे ले कर दुनियाभर के जानकार चिंतित हैं क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के मालिकों ने लोगों को मजबूर कर दिया है कि वे उन के दिमाग से सोचें, उन के सुझाए रास्ते पर चलें, उन के ही विचारों को अंतिम सत्य समझें और कट्टर दक्षिणपंथी शासकों के हर फैसले से इत्तफाक रखें.
ऐसे दौर में जरूरत लोकतंत्र को उस के सही शेप में लाने की है. लेकिन यह आसान काम नहीं है क्योंकि इसे कोई करना ही नहीं चाहता. लोग फौरीतौर पर अपने लोकतांत्रिक अधिकार जानते व समझते हैं और इन्हें भीख की तरह मांगने जाते उन्हीं के पास हैं जो इन के वोटों की ताकत पर राज करते खुद के रिजौर्ट को ब्रह्मांड का केंद्र बताते हैं और जो शासक इतनी हिम्मत या जुर्रत नहीं कर पाते वे मंदिर, मसजिद और चर्चों की शरण में जाने का इशारा करते यह कह देते हैं कि हम तो निमित्त मात्र हैं, सब से बड़ा तो वह है जो दुनिया का कर्ताधर्ता है.
डैमोक्रेसी को मंदिरक्रेसी में बदलने के प्रयास भी पिछले 50 वर्षों से हो रहे हैं और अगले 10 वर्षों तक तो चलेंगे, ऐसा लग रहा है. मंदिर बनवा दिए तो सरकार कैसा काम कर रही है, मत पूछो, मंदिर के नाम पर वोट दो, मंदिर में चंदा चढ़ाओ, धर्मकर्म में लगे रहो. यह डैमोक्रेसी नहीं है.
भारत में यह दूसरे तरीके से भी हो रहा है. विपक्ष यानी इंडिया गठबंधन ने संविधान सीने से लगा कर डैमोक्रेसी को जिंदा रखने के लिए वोटोक्रेसी को अपनाया तो भाजपा रामलला को कंधे से लगाए रही. जनता अब भ्रमित है कि हमारी सुनेगा कौन, ये भगवानवादी या वे संविधानवादी. असल में सुनता संविधानवादी विपक्ष ही है और कभीकभार वही मुद्दे की बातों पर हल्ला भी मचाता है. यह और बात है कि उस की आवाज घंटेघडि़यालों की आवाज तले दब कर रह जाती है. नोटबंदी के दौरान भी ऐसा ही हुआ था और जीएसटी कानून लागू होने के बाद भी और ऐसे कई मौकों व किसान आंदोलन के दौरान भी यही हुआ था.
लेकिन इस में इकलौती अच्छी बात यह हुई थी कि सरकार को किसानों के आगे झुकते हुए काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था. लगभग यही शाहीन बाग के धरनेप्रदर्शन में हुआ था. ये दोनों ही उदाहरण लोकतंत्र की धुंधलाती इबारत को थोड़ा गाढ़ा कर गए क्योंकि इन दोनों के साथ कोई नहीं था, वह मीडिया तो कतई नहीं था जिसे खुद के गोदी मीडिया कहे जाने पर शर्मिंदगी नहीं बल्कि फख्र महसूस होता है. इन दोनों आंदोलनों को कुचलने, दबाने और बदनाम करने में गोदी मीडिया सरकारी भाषा ही बोल रहा था.
सिर्फ वोटोक्रेसी बनी रहे, डैमोक्रेसी न पनपे, इस के लिए भाजपा ने जो और उपाय किए उन में विपक्षी दलों की खरीदफरोख्त और उन में तोड़फोड़ भी अहम है. मसलन, बसपा खत्म की गई तो दलित वोटों की भीड़ का बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ बढ़ा. महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के दोदो टुकड़े कर वोट के साथसाथ सत्ता हथिया लेने का दांव भी चला और संक्षेप में कहें कि इस से भी बात न बनी तो ईडी और आईटी जैसी सरकारी एजेंसियों का जम कर कु-इस्तेमाल किया गया. इंदिरा गांधी होतीं तो वे भी हैरान रह जातीं कि इन्होंने तो मुझे भी मात दे दी.
अब जीता और हारा हुआ दोनों ही दोषी हैं डैमोक्रेसी से बहुत दूर ले जाने के लिए. हारजीत के बाद वे जनता को ‘भगवान भरोसे’ छोड़ अपनेअपने काम में लग जाते हैं. आम लोग छोटेबड़े कामों के लिए यहां से वहां भटकते राजनीति और नेताओं को कोसते रहते हैं. वोट मंदिर में चढ़ाए दक्षिणा के पैसों की तरह रहता है जो एक बार दानपेटी में गया तो फिर वापस नहीं आता. जो मंदिर से चाहा था वह मिलेगा, इस की कोई गारंटी तो दूर, यह आश्वासन भी नहीं है कि कभी कुछ मिलेगा.
चुनाव आयोग भी जिम्मेदार
वहीं, निष्पक्षता भी कठघरे में खड़ी हुई और निष्पक्षता से वोट डलवाने की जिम्मेदारी निभाने वाला चुनाव आयोग भी कठघरे में है. अरबोंखरबों रुपए फूंकने के बाद भी देश में मुद्दत से निष्पक्ष चुनाव नहीं हो पा रहे. हर चुनाव में करोड़ों की नकदी पकड़ी जाती है जिसे कानून के तहत राजसात कर लिया जाता है. इस के बाद इस का क्या होता है, यह किसी को नहीं मालूम. धर्म और जाति के नाम पर वोट डालने का रोग जो फैला तो सिमटने का नाम नहीं ले रहा.
चुनाव आयोग चाहे तो भी बहुतकुछ नहीं कर सकता. वह 1 करोड़ लोगों को जैसेतैसे वोट करने का अवसर दे देता है, यही बहुत है. अगर चुनाव में लोग किसी पार्टी की तरफदारी करें तो आयोग वास्तव में कर्म ही कर सकता है. वोटोक्रेसी में चुनाव आयोग की नहीं, वोट डालने वालों की समझ की जरूरत है.
बीमारी के 2 ही इलाज बचते हैं, पहला यह है कि सभी जनप्रतिनिधियों के घरों के बाहर 60 घंटियों वाला घंटा लटकवा देना चाहिए जैसा कि मुगल शासक जहांगीर ने अपने महल के बाहर लगवा कर सुनिश्चित किया था कि कोई भी पीडि़त इस घंटे को बजा कर न्याय मांग सकता था, अपनी परेशानी दूर करने की गुहार लगा सकता था. यह घंटा जरूरी नहीं कि सोने का हो और 240 किलो का ही हो, वह लोहे का हो, तो भी चलेगा और बजेगा बशर्ते छोटेबड़े जनप्रतिनिधि अपनी कुंभकर्णी नींद और ऐशोआराम छोड़ते जहांगीर की तरह आधी रात को भी उठ कर बाहर आएं.
दूसरा रास्ता गलीमहल्लों, गांवदेहातों में संविधान जागरूकता केंद्र खोलने का है जिन में कुछ पढ़ेलिखे जागरूक लोग, जैसे वकील, टीचर, प्रोफैसर, पत्रकार, महिलाएं और हारे हुए उम्मीदवार भी शामिल हों. वे नियमित इन केंद्रों में बैठें और वोटोक्रेसी के नुकसान व डैमोक्रेसी के सही माने समझाएं और लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार न केवल बताएं बल्कि उन के लिए सड़कों पर आ कर लड़ें भी.
डैमोक्रेसी एक अद्भुत उपहार है जो पिछले कुछ शतकों में जनता को मिला और जिस के कारण मानव का अभूतपूर्व विकास हुआ. पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, मुसलिम देशों, लैटिन अमेरिका के देशों में भयंकर गरीबी का कारण यह है कि वहां नाम की डैमोक्रेसी है. ह्यूमन डैवलपमैंट डैमोक्रेसी में ही संभव है. विज्ञान की उन्नति का असल लाभ लोगों को डैमोक्रेसी में ही मिला. वोट मशीन से स्वतंत्रता भी निकलती है, जंजीरें भी. यह लोगों के विवेक पर निर्भर है कि वे क्या चाहते हैं.