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Social Story : सही रास्ता – मुन्ना अपने पापा से पिकनिक जानें के लिए क्या मांग रहा था?

Social Story : जैसे ही जेब में रुपयों को निकालने के लिए हाथ डाला तो उसे अनुभव हुआ, जेब में कुछ भी नहीं है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था. अभी महीना पूरा होने में 15 दिनों का समय शेष था.उस ने पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘मुन्ना की अम्मा, जरा इधर आओ.’’

मुन्ना की मम्मी सुबह काम में व्यस्त थी, लेकिन हाथ का काम छोड़ कर आ कर बोली, ‘‘क्या बात हो गई?’’

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए गायब हैं,’’ उस ने क्रोध से कहा.

‘‘कहीं रख कर भूल गए होंगे, देखो, मिल जाएंगे,’’ मुन्ना की मम्मी ने उत्तर दिया.

‘‘मेरा मतलब है तुम ने तो नहीं लिए?’’

‘‘मैं क्यों लेने लगी? अगर मुझे चाहिए होते तो क्या मैं तुम्हें बताती नहीं?’’ मुन्ना की मम्मी ने कहा, फिर आगे कह उठी, ‘‘तुम्हीं ने खर्च कर दिए होंगे और यहां खोज रहे हो.’’

‘‘तुम समझने की कोशिश करो, मैं ने ऐसा कोई खर्च नहीं किया, और करता भी तो क्या मुझे याद नहीं होता?’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘मैं ने तुम्हारे रुपए नहीं निकाले,’’ कहते हुए मुन्ना की मम्मी नाश्ता बनाने के लिए अंदर चली गई.

वह परेशान हो गया. आखिर रुपए, वह भी हजारों में थे, कैसे और कहां चले गए? परिवार में केवल एक बेटा मुन्ना ही है और वह जानता है कि मुन्ना को किसी भी प्रकार की कोई गंदी या नशे की आदत नहीं है कि वह चोरी करे या जेब से रुपए निकाले. पचासों बार उसे जब भी आवश्यकता रही, मुन्ना ने कहा था, ‘पापा, मुझे 50 रुपए चाहिए, पिकनिक पर जाना है.’

उस ने उस से कहा था, ‘जा कर पैंट की जेब में से निकाल लो.’ मुन्ना ने 50 ही रुपए लिए थे. कभी भी एक रुपए के लेनदेन में गड़बड़ी नहीं की थी. कभी बाजार से सौदा लाने को भेजते तो लौटने के बाद 2 रुपए भी बचते तो वह लौटा देता था. आज तक मुन्ना ने कभी बिना पूछे रुपए नहीं लिए. अब क्यों लेगा? यदि मुन्ना को रुपए लेने ही थे तो वह इतने रुपयों को क्यों लेता? इतने रुपयों का वह करेगा भी क्या?

पिछले दिनों उस ने मोबाइल खरीदने की मांग जरूर की थी, लेकिन उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘मुन्ना, तुम्हारी बर्थडे पर हम गिफ्ट कर देंगे. इन दिनों तंगी है.’

‘जी पापा,’ मुन्ना ने कहा था.

वह बहुत परेशान हो गया था. अभी महीना भी पूरा नहीं हो पाया था, इस पर आजकल कितनी महंगाई है और आमदनी कितनी कम है. दिनभर आटोरिक्शा चलाने के बाद 2-3 सौ रुपयों की बचत हो पाती है. पत्नी से तो उस ने पूछ लिया, यदि मुन्ना से पूछ लें तो क्या हर्ज है? लेकिन बेटा क्या सोचेगा? उस को पूरे महीने की चिंता थी. उस ने मुन्ना को आवाज दी, जो अभी सो कर उठा था और बाथरूम में जाने की तैयारी में था. मुन्ना आ कर खड़ा हो गया.

‘‘मुन्ना, तुम ने कुछ रुपए निकाले?’’

‘‘कहां से?’’

‘‘मेरी जेब से.’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ घबराए स्वर में मुन्ना ने कहा.

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए निकल गए बेटा, पता नहीं चल पा रहा कहां गए,’’ परेशानी भरे स्वर में उस ने कहा.

‘‘मैं जाऊं पापा?’’ मुन्ना का स्वर अभी तक घबराया सा था, मानो उसी ने चोरी की हो. लेकिन वह क्यों और किस काम के लिए रुपए निकालेगा? बारबार उस का शक मुन्ना पर जा कर पत्नी तक जाता और फिर वह पैंट की दूसरी जेबों में देखने लगता. अकसर इधरउधर वह जहां भी रुपयों को रख देता था, सब जगह उस ने रुपयों को देखा, लेकिन रुपयों को नहीं मिलना था, सो नहीं मिले.

हाथ से खर्च किए या किसी को दिए जाने पर रुपए कम पड़ जाने का दुख नहीं होता है, क्योंकि उस की जानकारी हमें होती है लेकिन अनायास जेब कट जाए या चोरी हो जाए या रुपए गिर जाएं तो सच में बहुत पीड़ा होती है.

आटोरिक्शा में न जाने कितनी बार किसी का मोबाइल या पर्स या थैला रह जाता तो वह यात्री को खोज कर उसे दे देता था या थाने में जा कर उस का सामान जमा करा देता था. लेकिन उस के साथ यह पहली बार ऐसी घटना घटी थी जिस की उसे कोईर् उम्मीद न थी. वह किस पर अविश्वास करे? फिर घर में कोई आयागया भी नहीं जो चोरी होती. हो सकता है कोई आया हो और उसे न पता हो. फिर उस ने पत्नी को आवाज दी. वह फिर आई.

‘‘क्या कल शाम को कोई मिलने वाली सहेली या मुन्ना के दोस्त आए थे?’’

‘‘कोई नहीं आया, तुम ही किसी को दे कर भूल गए होगे,’’ उस ने फिर पति को ही उलाहना दिया.

आखिर रुपए गए तो कहां? वह बारबार सोच रहा था. जितना सोचता उतना ही दुखी हो रहा था. बड़ी मेहनत से कमाए गए रुपए थे. उसे दुखी देख कर मुन्ना की मम्मी ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मिल जाएंगे. मैं चाय लाती हूं,’’ कह कर वह चली गई. मुन्ना भी बाथरूम से निकल कर टैलीविजन के सामने बैठ कर फिल्म देखने लगा था. वह चायनाश्ता टैलीविजन के सामने बैठ कर ही करता रहा था.

यह सच था कि बहुत अधिक भौतिक वस्तुएं वह नहीं खरीद पाता था, अधिक खर्च भी नहीं कर पाता था. मुन्ना कभी आइसक्रीम या चौकलेट लेने की जिद करता तो वह खिला जरूर देता, लेकिन खिलाने के बाद उसे बता भी देता था, ‘बेटा, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि फालतू खानेपीने पर 100-200 रुपए खर्च कर सकें.’ मुन्ना कभी नाराज नहीं होता था. वह भी जानता था कि वह एक गरीब परिवार का बेटा है. एकदो बार उस ने अपनी मां से कहा भी था, ‘मम्मी, स्कूल से छूटने के बाद

मैं किसी दुकान पर काम करने चले जाया करूं?’

‘क्यों?’

‘हम गरीब हैं न, पापा को कुछ मदद मिल जाएगी. उस की मां ने उसे सीने से लगा लिया और बालों में हाथ फेरते हुए कह उठी, ‘अभी इस की जरूरत नहीं है, पहले पढ़लिख ले, फिर ये

सब बातें बाद में करना.’ रात में उस ने अपने पति से भी यह बात बताई थी कि मुन्ना काम करने के लिए कह रहा था.

‘मैं जिंदा हूं अभी, खबरदार जो काम करने भेजा तो.’

‘मैं ने कब कहा भेजने को?’

‘उस से कहो, पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाए.’ बात आईगई, हो गई, लेकिन आखिर रुपए कहां गए होंगे? वह जितना सोचता उतना ही उलझता जाता था. आखिर उस ने तय कर लिया कि एकएक घंटे अतिरिक्त आटोरिक्शा चला कर कर वह इस घाटे को पूरा कर लेगा.

2-3 सप्ताह में वह रुपयों की चोरी की बात को लगभग भूल ही गया था. जीवन शांति के साथ बीत रहा था. एक शाम वह घर लौट रहा था तो रास्ते में उन के महल्ले का पोस्टमैन मिल गया. अभिवादन के बाद उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज दिल्ली से पार्सल आया था, क्या था उस में?’’

‘‘दिल्ली से पार्सल, मतलब?’’ वह कुछ समझा नहीं, उस के कोई रिश्तेदार भी दिल्ली में नहीं थे, फिर किस ने पार्सल भेजा होगा और कैसा पार्सल? पोस्टमैन ने फिर कहा, ‘‘एक वीपीआर से पार्सल आया था तुम्हारे बेटे के नाम.’’

‘‘कितने का था?’’

‘‘2 हजार रुपयों का.’’

‘‘किस ने छुड़वाया?’’

‘‘तुम्हारे बेटे ने, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

मुन्ना के पापा ने सब सूत्रों को जोड़ा तो बात समझ में आई कि मुन्ना ने कोई पार्सल मंगवाया था, रुपए भी निश्चित रूप से उस ने ही निकाले थे. उन्होंने पोस्टमैन से कहा, ‘‘वैसे ही पूछ लिया, मुन्ना बता तो रहा था पार्सल आने वाला है, लेकिन आज आया, यह मालूम नहीं था.’’

‘‘अच्छा, चलता हूं,’’ कह कर पोस्टमैन अपने घर की ओर मुड़ गया.

मुन्ना के पापा को अत्यधिक क्रोध हो आया, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मुन्ना इस तरह चोरी करेगा. आखिर, उस ने ऐसा क्यों किया? क्रोध और दुख के मिलेजुले भाव से घर पर पहुंच कर उस ने मुन्ना को जोर से आवाज दी, ‘‘मुन्ना.’’

मुन्ना की मम्मी बाहर निकल आई, ‘‘क्या बात हो गई? इतने नाराज हो?’’

‘‘कहां है मुन्ना? 2 हजार रुपए उसी ने मेरी जेब से निकाले थे,’’ क्रोध में मुन्ना के पापा ने कहा. तब तक मुन्ना भी सामने आ गया था.

‘‘क्यों, तूने ही जेब से रुपए निकाले थे न?’’ मुन्ना ने नजरें नीची कर लीं.

‘‘क्यों चोरी किए थे तूने?’’ पापा ने क्रोध में मुन्ना से पूछा.

‘‘पार्सल में क्या आया? हम से कहता, हम तुझे बाजार से दिलवा देते,’’ पापा अभी भी चिल्ला रहे थे. मुन्ना की मम्मी बहुत आश्चर्य से सबकुछ देख रही थी.

‘‘पापा, वह यहां बाजार में नहीं मिलता,’’ मुन्ना ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘क्या मंगवाया था, बता मुझे,’’ पापा ने क्रोध में प्रश्न किया.

मुन्ना अंदर गया, एक छोटी सी पैकिंग ले आया और पापा की ओर बढ़ा दी.

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘पापा, इस में अमीर होने का तावीज है जिस पर लक्ष्मीजी का मंत्र है, इसे धारण करने से घर में खूब रुपया आएगा. पापा, यह मैं ने आप के लिए लिया था ताकि हमारी गरीबी दूर हो सके,’’ मुन्ना ने भोलेपन से पापा के हाथों में वह तावीज देते हुए कहा.

वह एक पेंडुलम था जिस की कुल कीमत 100 रुपए होगी लेकिन तुरंत वह अपने बेटे की भावनाओं को समझ गया और पलभर बाद ही उसे गले से लगा लिया और कहा, ‘‘बेटा, ऐसा हार पहनने से या पूजापाठ करने से कोई अमीर नहीं बनता, ईमानदारी से परिश्रम किए बिना हम कभी भी धनवान नहीं बन सकते. बेटा, यह सब तो व्यापार और पाखंड है.’’

मुन्ना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे समझ आ गया कि पाखंड का प्रचार कितना प्रभावशाली होता है कि पढ़ेलिखे, तर्क की भाषा जानने वाली, कौम भी ‘एक बार अपना कर देख लो’ की सोच का शिकार हो जाती है. मुन्ना तो कुछ अबोध था पर उस के पापा ने क्यों नहीं पाठ पढ़ाया कि यह पाखंड है. शायद इसलिए कि भक्ति का भय उस पर भी मन के कोने में छिपा था.

Hindi Kahani : ऐसा कैसे होगा – बढ़ती उम्र और जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे सपनों की कहानी

Hindi Kahani : बड़े बाबू के पूछने पर मैं ने अपनी उम्र 38 वर्ष बताई, सहज रूप में ही कह दिया था, ‘38…’

हालांकि बड़े बाबू अच्छी तरह जानते थे कि मेरी जन्मतिथि क्या है, शायद उन्होंने उस पर इतना ध्यान भी नहीं दिया. लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी उम्र कम बता रही हूं. यह बात शायद बड़े बाबू जान गए थे और अपनी नाक पर टिके चश्मे से ऊपर आंखें चमका कर मुझे उपहासभरी दृष्टि से देख रहे थे. वैसे मैं 39 वर्ष 7 महीने 11 दिन की हो गई हूं. सामान्यरूप से इसे 40 वर्ष की उम्र कहा जा सकता है. किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? 40 वर्ष तक तो व्यक्ति प्रौढ़ हो जाता है. लेकिन मैं तो अभी जवान हूं, सुंदर हूं, आकर्षक हूं.

नौजवान सहयोगी हसरतभरी निगाहों से मुझे देखते हैं. लोगों की आंखों को मैं पढ़ सकती हूं, भले ही उन में वासना के कलुषित डोरे रहते हैं, कामातुर विकारों से ग्रस्त रहती हैं उन की आंखें, फिर भी मुझे अच्छा लगता है. मुझ से बातें करने की उन की ललक, मेरी यों ही अनावश्यक तारीफ, मेरे कपड़ों के रंग, मेरा मुसकराना, बोलने का लहजा, काम करने का तरीका आदि अनेक चीजें हैं, जो काबिलेतारीफ कही जाती हैं. दूसरों की आंखों में आंखें डाल कर बात करने का मेरा सलीका लोगों को प्रभावित करता है. ये बातें मैं उन तमाम निकटस्थ सहयोगियों के क्रियाकलापों से जान जाती हूं.

मेरा मन चाहता है कि लोग मुझे घूरें, मेरे मांसल शरीर के ईदगिर्द अपनी निगाहें डालें, मेरा सामीप्य पाने के लिए बहाने ढूंढ़ें, मुझ से बातें करें व प्रेम करने की हद तक भाव प्रदर्शित करें. किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? अभी तो मैं ने कौमार्यवय की अठखेलियों में भाग ही नहीं लिया, जवानी के उफनते वेग में पागल भी नहीं हुई. किसी के प्रणय में मदांध होना तो दूर, स्वच्छंद रतिविलासों का अनुभव भी नहीं किया. किसी के लौह बंधन में बंध कर चरमरा कर बिखर जाने की कामना अभी पूरी कहां हुई है? नारीत्व के समर्पित सुख का अनुभव कहां लिया है? मैं अभी 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

मैं ने जब से इस बढ़ती उम्र के गणित को सोचना प्रारंभ किया है, घबरा गई हूं, मन बेचैन सा हो गया है. शरीर में अचानक शिथिलता आ गई है. गालों पर कसी हुई त्वचा जैसे अपने कसाव कम कर रही है. ऐसा लग रहा है जैसे नदी उतर रही है, उस में आई बाढ़ जैसे घट रही है. आंखों के नीचे हलके निशान उभर आए हैं. हलकी सी श्यामलता चेहरे पर छा रही है.

लेकिन यह कैसे हो सकता है? बाबूजी की मृत्यु को 4 बरस हो गए. छोटू का इस बार एमबीबीएस कोर्स पूरा हो जाएगा, लेकिन उसे एमडी बनना है, 2-3 साल अभी लगेंगे. विभा इस वर्ष स्नातिका हो जाएगी. मामाजी ने उस के लिए एक रिश्ते की बात की है. अगले मार्च में उस की शादी कर देंगे. छोटू का भी कुछ प्रेमप्रसंग जोरशोर से चल रहा है, लड़की पंजाबी है साथ पढ़ती है, इस में बुराई भी क्या है. लेकिन, मैं अब क्या करूंगी? सोचती थी कि इन 4 सालों में विभा की पढ़ाई पूरी हो जाएगी और छोटू घर संभाल लेगा, तब मैं आजाद हो जाऊंगी. मेरे चाहने वाले बहुत हैं, ढेर सारे उम्मीदवार हैं, तब अपने विषय में सोचूंगी एकदम निश्चिंत हो कर. लेकिन, इस अवधि में मैं 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

घर वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं है. बाबूजी कई रिश्ते लाए थे. जातिबिरादरी के, ऊंचे खानदान वाले, बड़ीबड़ी मांगों, दहेज की आकांक्षा वाले लोग. बाबूजी मेरा विवाह कर भी सकते थे. लेकिन तब छोटू एमबीबीएस न कर पाता, विभा बीए की पढ़ाई भी न कर पाती. सारी जमा पूंजी समाप्त हो जाती. मैं बड़ी बेटी हूं न, सारी समस्याएं जानती हूं. शादी का नाम लेते ही मैं चिढ़ जाती थी, काटने दौड़ती थी. लोग मेरे सामने शादी की बात करने से डरते थे. वे मेरी आलोचना भी करते थे. भलाबुरा भी कहते थे.

कोई कहता, ‘गोल्ड मैडलिस्ट है न, इसीलिए दिमाग आसमान पर चढ़ा है.’ दूसरा कहता, ‘रूपगर्विता है, अपने सौंदर्य का बड़ा अभिमान है.’

शादी के नाम पर जैसे मुझे सचमुच चिढ़ थी. किसी की ताबेदारी में रहना मुझे स्वीकार न था. अच्छी कंपनी में इज्जत की नौकरी है, अच्छीखासी तनख्वाह है, प्रतिष्ठा है. औफिस में रोबदाब है, घर में भी लोग डरते हैं. छोटू और विभा भी सामने आने से कतराते हैं. मां भी जैसे खुशामद सी करती हैं. सबकुछ असहज और अस्वाभाविक लगता है. मन करता है कि विभा मेरे गले में बांहें डाल कर लिपट जाए, छोटू मेरी चोटी खींच कर भाग जाए. मां मुझे डांटें, धमकाएं, लेकिन वह सब कतई बंद है. मां की बीमारी बढ़ गई है, उन्हें अस्पताल में भरती कराना ही पड़ेगा. डाक्टर ने साफ कह दिया है कि अब ज्यादा दिन नहीं जिएंगी. अंतिम अवस्था है.

लकिन मेरी अंतिम अवस्था नहीं है. मैं घुलघुल कर नहीं मरूंगी, अपने वजूद को बचा कर रखूंगी. मुझे अभी प्रौढ़ा नहीं बनना है. अपना राजपाल है न, मुझ पर जान देता है. हमउम्र और हमपेशा भी है. बेचारा विधुर है, 10 साल से एकाकी है. मेरे खयाल से उस से मिलना चाहिए. वह वासना और प्रेम का अंतर जानता है, उस में गहरी समझदारी है. एक बार समझदारी के साथ ही उस ने शादी का अप्रत्यक्ष प्रस्ताव भी रखा था और मैं उस के प्रस्ताव से प्रभावित भी थी. वह बोला था, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों इस मुद्दे पर एक लंबी वार्त्ता करें, जिस में अनेक सत्र हों, जो दिनों, महीनों, वर्षों तक चले. अब हमारेतुम्हारे पास विषय तो बहुत से हैं न, उन सभी विषयों पर सलीके से बातें करें. उन पर सोचें, व्यवहार करें, तुम मेरे विचारों की प्रयोगशाला बन जाओ और मैं तुम्हारे खयालों की ठोस जमीन. हम दोनों एकदूसरे से अपने प्रश्नों का समाधान कराएं. क्या तुम अपनी बकाया जिंदगी मेरे ऊलजलूल प्रश्नों को सुलझाने के लिए मेरे नाम कर सकती हो? क्या मैं तुम्हें समझने की कोशिश में तमाम उम्र बिता सकता हूं? सच कहता हूं, मैं तुम्हारी अनंत जिज्ञासाओं का एकमात्र समाधान हूं. मेरे अंतर्मन के पृष्ठों को पलट कर तो देखो.’

मैं कई दिनों से राजपाल के विषय में ही सोच रही हूं. वह एक परिपक्व व्यक्तित्व की गरिमा से युक्त है, संवेदनशील है. उस में कोई छिछोरापन नहीं है. प्रणय प्रस्ताव रखने में भी समझदारी से काम लेता है. एक दिन कहने लगा, ‘आभा, तुम्हारे होंठों पर लगी लिपस्टिक और मेरे पैन की स्याही एकजैसी है, हलकी मैरून. यह रंग मन की अनुराग भावना को व्यक्त करता है, क्यों?’ मैं ने हलकी सी मुसकराहट फेंकी और आगे बढ़ गई. उस की बात बहुत दिनों तक मेरा पीछा करती रही. वह एक सभ्य और जिम्मेदार अफसर है. उस के साथ उठाबैठा जा सकता है.

कल मां को अस्पताल में भरती करा दूंगी. छोटू को स्कौलरशिप मिलती है. विभा की शादी के लिए बाबू की एफडी तो है. मामाजी सब संभाल लेंगे. मैं आज शाम को राजपाल के बंगले पर जाऊंगी, साफसाफ बात करूंगी और आजकल में ही निर्णय ले लूंगी. मुझे अभी 40 साल की प्रौढ़ा नहीं बनना. 40 साल में अभी 5 महीने बाकी हैं. इन 5 महीनों में मैं अपना कौमार्य अनुभव करूंगी, नाचूंगी, गाऊंगी, आकाश में उड़ूंगी, सितारों से बातें करूंगी, चांद को छू कर देखूंगी. अभी मुझे 40 साल की नहीं होना, सबकुछ व्यवस्थित हो गया है, सबकुछ ठीकठाक है. स्नान करने के बाद मैं ने हलका सा मेकअप किया व नीली साड़ी पहनी. होंठों पर हलके मैरून रंग की लिपस्टिक लगाई. फिर विदेशी इत्र की सुगंध से सराबोर हो कर चल दी अपना अंतिम निर्णय लेने, अपने निश्चित गंतव्य के लिए.

Best Hindi Story : बातों बातों में – क्या अवनी को सुसाइड करने से रोक पाया अमन

Best Hindi Story : उस गहरी घाटी के एकदम किनारे पहुंच कर अवनी पलभर के लिए ठिठकी, पर अब आगेपीछे सोचना व्यर्थ था. मन कड़ा कर के वह छलांग लगाने ही जा रही थी कि किसी ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया. देखा वह एक युवक था.

युवक की इस हरकत पर अवनी को गुस्सा आ गया. उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘कौन हो तुम, मेरा हाथ क्यों पकड़ा? छोड़ो मेरा हाथ. मुझे बचाने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है. यह मेरी जिंदगी है, इस का जो भी करना होगा, मैं करूंगी. हां प्लीज, किसी भी तरह का कोई उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’’

जवाब देने के बजाय युवक जोर से हंसा. उस की इस ढिठाई पर अवनी तिलमिला उठी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘न तो मैं ने इस समय हंसने वाली कोई बात कही, न ही मैं ने कोई जोक सुनाया, फिर तुम हंसे क्यों? और हां, तुम अपना नाम तो बता दो कि कौन हो तुम?’’

‘‘एक मिनट मेरी बात तो सुनो. जिंदगी के आखिरी क्षणों में मेरा नाम जान कर क्या करोगी. लेकिन अब तुम ने पूछ ही लिया है तो बताए देता हूं. मेरा नाम अमन है.’’

‘‘मुझे अब किसी की कोई बात नहीं सुननी. तुम यह बताओ कि हंसे क्यों?’’

‘‘तुम्हें जब किसी की कोई बात सुननी ही नहीं है तो मैं कैसे बताऊं कि हंसा क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं यह कह रही थी कि…’’ अवनी थोड़ा सकपकाई.

इसके बाद थोड़ी चुप्पी के बाद कहा, ‘‘इसलिए कि अगर तुम्हें आत्महत्या न करने के बारे में कुछ सीखसलाह देनी हो तो वह सब

मुझे नहीं सुनना. मैं कह रही थी कि… मुझे नहीं लगता कि इस में कोई हंसने जैसी बात थी. वैसे भी मेरा हाथ पकड़ने का तुम्हें कोई अधिकार

नहीं है.’’

‘‘ओह सौरी… रियली सौरी.’’ अमन ने अवनी का हाथ छोड़ दिया.

‘‘इट्स ओके… अब बताइए क्यों हंसे?’’

‘‘अब जब तुम मरने ही जा रही हो तो अंतिम पलों में कुछ भी जानने से क्या फायदा?’’

‘‘मात्र एक छोटा सा कुतूहल… नथिंग एल्स…’’

‘‘ओके… लेकिन मरने वाले की अंतिम इच्छा पूरी होनी चाहिए, वरना आत्मा भूत बन भटकती रहेगी और भूत मुझे जरा भी पसंद नहीं हैं.’’

‘‘यह जो तुम घुमाफिरा कर कह रहे हो, इस के बजाय सीधेसीधे कह दो न. क्योंकि अब मुझे देर हो रही है.’’

‘‘आज ही तो मुझे हंसी आई है, वह भी तुम्हारे भ्रम पर. कुछ भ्रम भी कितने मजेदार होते हैं. पर सभी का जानना जरूरी नहीं है.’’

‘‘भ्रम… मेरा? कैसा, किस चीज का और कैसा भ्रम?’’

‘‘बाप रे, एक साथ इतने सारे सवाल?’’

‘‘तुम इसी तरह बातें करते हुए मूल बात को खत्म करना चाहते हो.’’

‘‘बात खत्म करना चाहता हूं, वह भी तुम्हारी. नहीं जी, सुंदर लड़कियों की बात खत्म करने की बेवकूफी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘बस… बस, मस्का लगाने की कोई जरूरत नहीं है. लड़कियों को फंसाने का यह बहुत सरल उपाय है. पर यहां तुम्हारी दाल गलने वाली नहीं है. तुम्हें सीधीसीधी बात करनी है या नहीं?’’ अवनी की बातों में गुस्सा झलक रहा था. चेहरा भी गुस्से से थोड़ा लाल था.

‘‘अरे बाबा, एकदम सीधीसादी बात है. तुम ने कहा कि मुझे बचाने की कोई जरूरत नहीं है. मुझे तुम्हारे इसी भ्रम पर हंसी आ गई थी. वैसे भी हंसने की मेरी आदत नहीं है.’’

‘‘इस में भ्रम कैसा, फिर तुम ने मेरा हाथ क्यों पकड़ा?’’

‘‘तुम्हें बचाने के लिए नहीं, कुछ बताने के लिए.’’

‘‘क्या बताने के लिए?’’

‘‘यही कि अगर तुम्हारा इरादा सचमुच मरने का है तो इस के लिए यह जगह ठीक नहीं है. हां, हाथपैर तुड़वाने हों तो अलग बात है.’’

‘‘मतलब’’

‘‘मतलब साफ है. जरा ध्यान से नीचे देखो. यह खाई गहरी तो है, पर इस में गिर कर मौत हो जाएगी, इस की कोई गारंटी नहीं है.’’

‘‘इस गहरी खाई में कोई इतनी ऊंचाई से कूदेगा तो मरेगा नहीं तो क्या होगा.’’

‘‘आई एम सौरी टू से… पर तुम्हारा आब्जर्वेशन पावर यानी निरीक्षण शक्ति बहुत कमजोर है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘देख नहीं रही हो खाई में नीचे कितने पेड़ हैं. कहीं जमीन दिखाई दे रही है? अगर तुम यहां से कूदती हो तो गारंटी नहीं कि जमीन पर ही गिरो. किसी पेड़ पर गिरोगी तो हाथपैर तो टूट जाएगा, पर जान नहीं जाएगी. पेड़ में फंस गई तो न मर सकती हो न जी सकती हो. न नीचे जा सकती हो, न ऊपर आ सकती हो. त्रिशंकु की तरह लटकी रहोगी.

‘‘बस, उसी दृश्य की कल्पना कर के हंस पड़ा था. तुम पेड़ पर लटकी रहोगी तो देखने में कैसा लगेगा? बचाने के लिए भी चिल्लाओगी तो कोई बचाने के लिए भी नहीं पहुंच सकेगा. क्योंकि तुम्हारी आवाज किसी तक पहुंचेगी ही नहीं.’’

अवनी ने नीचे देखा. अमन की बात सच थी. नीचे घाटी पेड़ों से भरी थी. कहीं भी जमीन नहीं दिख रही थी. उस में फंस जाने की संभावना से नकारा नहीं जा सकता था. पर अभी उस का गुस्सा वैसा ही था. उस ने कहा, ‘‘लगता है, तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है. पेड़ में भी फंस गई तो नीचे गिर ही जाऊंगी. पेड़ मुझे पकड़ तो नहीं लेगा.’’

‘‘ओह यस, यू आर राइट. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं, यू आर जीनियस.’’

‘‘फिर खुशामद, मैं ने पहले ही कह दिया है कि इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘यस, यह तो मुझे पता है कि अब तुम्हारी खुशमद करने की मुझे कोई जरूरत नहीं है. यह सीधीसादी बात मैं सोच ही नहीं सका. जबकि तुम ने आगे तक सोच लिया. इसीलिए मैं ने कहा. तुम्हारी परफेक्ट प्लानिंग, अब तुम कूद सकती हो. गो अहेड…’’

अवनी ने अमन को गौर से देखा, वह उस का मजाक तो नहीं उड़ा रहा? पर अमन गंभीर दिखाई दिया. वह खाई में गौर से झांक रहा था. न चाहते हुए अवनी के मुंह से निकल गया, ‘‘तुम भी नीचे जाना चाहते हो क्या?’’

‘‘नहीं…नहीं.’’ उसी तरह खाई में झांकते हुए अमन ने कहा.

‘‘लग तो ऐसा रहा है, जैसे खाई के पेड़ गिन रहे हो?’’ अवनी ने व्यंग्य किया.

‘‘नहीं जी, इस तरह पेड़ गिनने में मेरी कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘तो इस तरह गिद्ध की तरह नीचे…’’

अवनी को बीच में ही रोक कर अमन ने कहा, ‘‘थैंक्स फार कौम्पलीमैंट्स, पर जरा नीचे देखिए.’’

‘‘क्या है वहां?’’

‘‘नीचे, एकदम नीचे तक पेड़ हैं. साफ दिखाई दे रहे हैं.’’

‘‘हां, तो क्या हुआ इन का?’’

‘‘इन्हें देख कर तुम्हारे मन में कोई विचार नहीं आया?’’

‘‘इस में विचार क्या करना है?’’

‘‘कोई महान विचार नहीं, एकदम सीधासादा, सिंपल, शुद्ध विचार.’’

अवनी की नाक फूलने पिचकने लगी. रंग भी लाल गुड़हल की तरह हो गया. किसी के मरते वक्त भला कोई इस तरह का मजाक करता है. लड़के बड़े होशियार होते हैं. इस पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता. अवनी का मन हुआ उसे ठीक से सुना दे.

‘‘इस में इतना उत्तेजित मत होइए. मैं तुम्हें समझाता हूं. तुम जो कह रही हो सच है, सौ प्रतिशत सच. कोई पेड़ तुम्हें पकड़ नहीं लेगा. चलो मान लेते हैं वह छोड़ देगा. पर मेरी बात भी एकदम झुठलाई नहीं जा सकती. छलांग लगाने के बाद तुम किसी पर गिरी तो उस में फंस जाओगी.

‘‘कहां फंसोगी, यह कोई निश्चित नहीं है. क्योंकि पेड़ पर फंसने के बाद जमीन और पेड़ में ज्यादा अंतर नहीं रह जाएगा. पेड़ पर और फिर जमीन पर गिरने पर हाथ पैर जरूर टूट जाएंगे. उस के बाद तो परेशानी और बढ़ जाएगी. इसलिए चलो मैं इस की अपेक्षा अच्छी जगह बताता हूं, जहां पर मर जाना निश्चित है. एक छलांग और खेल खत्म, पूरी गारंटी के साथ.’’ अमन ने कहा.

‘‘तुम मरने की जगह खोजने के एक्सपर्ट हो क्या?’’

‘‘नहीं दरअसल, हम दोनों एक ही गाड़ी की सवारी हैं, इसलिए…’’

‘‘यानी कि तुम भी मेरी तरह…’’

‘‘हां, मैं भी तुम्हारी तरह यहां मरने के भव्य इरादे के साथ आया हूं. इसीलिए अच्छी और गारंटेड जगह की तलाश कर रहा था. काफी शोध के बाद मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि संदेह वाला कोई भी काम करना ठीक नहीं है. जो भी काम करो, पक्का करो.’’

‘‘इस का मतलब तुम भी यहां आत्महत्या करने आए हो?’’

‘‘शंका का कोई समाधान नहीं है. इस सुनसान जगह पर घूमने नहीं आया, वह भी अकेले. तुम्हारी जैसी सुंदर लड़की साथ हो, तब इस सुनसान जगह पर आने में फायदा है.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहिएगा.’’

अवनी चुपचाप खड़ी अमन को ताक रही थी. उस ने अचानक कहा. ‘‘छोड़ो इस अंतहीन चर्चा को. पर तुम तो पुरुष हो. तुम्हें मरने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘क्यों, दुखी होने का अधिकार केवल औरतों का है क्या? तुम्हारा मानना है कि हम दुखी नहीं हो सकते?’’

‘‘पुरुष प्रधान समाज में सहन करने वाला काम ज्यादातर महिलाओं के हिस्से में आता है. इस से…’’

‘‘यह तुम्हारी व्यक्तिगत मान्यता है. इस अंतिम समय में मेरी इच्छा किसी तरह का वादविवाद करने की नहीं है. चलिए, मैं तुम्हें मरने की परफेक्ट जगह बताता हूं. अगर तुम्हारा मन हो तो चलो मेरे साथ. एक से दो भले.

‘‘जीवन में कोई अच्छा साथी नहीं मिला तो कोई बात नहीं, कम से कम मरते समय तो अच्छा साथी मिल गया. जीवन में हमसफर तो सभी को मिलते हैं, मौत का हमसफर किसे मिलता है. अकेले मरने में उतना मजा नहीं आता, अब तो तुम्हारे जैसा साथी पा कर मरने में भी मजा आ जाएगा.’’

‘‘तुम पर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा, जो तुम मरने आ गए?’’ अवनी ने पूछा. उस की हैरानी अभी खत्म नहीं हुई थी. भला पुरुष को कौन सा दुख हो सकता है, जो इस तरह मरने आ जाएगा. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह लड़का भी उस की तरह आत्महत्या करने आया है.’’

‘‘छोड़ो न अब इस बात को. मैं ने कहा न, मुझे अब चर्चा में कोई रूचि नहीं है. दुख का नगाड़ा बजाने से क्या फायदा. मुझे पता है, मेरे मरने से मांबाप को बहुत तकलीफ होगी. वे बहुत रोएंगे. पर अब क्या, मर जाने के बाद मैं तो देखूंगा नहीं. मर जाने के बाद कौन देखता है, जिस को जो करना होगा, करता रहेगा.’’

इस के बाद अमन ने जेब से च्यूइंगम निकाल कर अवनी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो च्यूइंगम खाओगी? अपनी इस अंतिम मुलाकात की सहयात्री के रूप में अंतिम भेंट.’’

‘‘एक नंबर के स्वार्थी हो. तुम्हें मम्मीपापा के रोने की जरा भी चिंता नहीं. तुम्हें उन से कोई मतलब नहीं.’’

‘‘यह तुम कह रही हो, तुम भी तो…?’’

अवनी चुप हो गई. वह सोच में पड़ गई. उसे सोच में डूबा देख कर अमन ने कहा. ‘‘छोड़ो इन फालतू के विचारों को. अगर इस तरह सब के बारे में सोचने लगे तो मर नहीं पाएंगे. लो यह च्युंगम खाओ.’’

‘‘मरते समय यह च्युंगम तुम भी न…’’

‘‘च्युंगम मुझे बहुत प्रिय है. तुम इसे एक तरह से आदत कह सकती हो. मरने से पहले अपनी अंतिम इच्छा खुद ही पूरी करनी है.’’ मुंह में च्युंगम डालते हुए अमन ने लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘आज की यह अंतिम च्युंगम तुम भी ले लो… लेनी है या नहीं?’’

अवनी सोच में डूबी थी. उसे इस तरह सोच में डूबी देख कर अमन ने कहा, ‘‘च्युंगम ही है, कोई जहर नहीं. फिर जहर ही होगा, अब मुझ पर या तुम पर कौन सा फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद तो हमें खाई में छलांग लगाने की भी जरूरत नहीं पडे़गी.’’

अवनी ने च्युंगम ले कर मुंह में रख लिया.

‘‘छलांग लगाने के लिए ज्यादा हिम्मत की जरूरत नहीं है, पर थोड़ा डर जरूर लगता है. तुम्हें डर नहीं लग रहा? अमन ने पूछा’’

‘‘जब मरना है तो डर किस बात का.’’

‘‘पर मुझे तो डर लग रहा है. नीचे गिरने पर कितना लगेगा, कहां लगेगा, गिरते ही जान निकल जाएगी, यह निश्चित तो नहीं. गिरने के बाद थोड़ी देर भी जीवित रहे तो… बाप रे कितनी तकलीफ होगी. मरने से पहले वह पीड़ा सहन करनी पड़ेगी. मरना कोई आसान काम नहीं है. ‘मरने के एक हजार सरल उपाय’ नाम की एक किताब के बारे में सुना था. तुम ने इस किताब के बारे में सुना है कि नहीं?’’

अवनी ने ‘न’ में सिर हिला दिया.

‘‘मैं ने भी खाली सुना है देखा नहीं है. अगर पढ़ने को मिल जाती तो बहुत अच्छा होता. मरने का कोई सरल उपाय सूझ जाता. पर वह किताब यहां मिलती ही नहीं है. इस तरह की किताब न तो यहां मिलती है, न यहां के लेखक लिखते हैं. इस तरह का काम विदेशी लेखक ही करते हैं. छोड़ो इस बात को, अब इस सब के लिए /बहुत देर हो चुकी है. चलो, अब उठो, जो करना है, करते हैं.’’

कोई जवाब देने के बजाय अवनी चुपचाप अमन को ताकती रही. जबकि अमन की नजरें सामने दिखाई दे रहे सूरज पर टिकी थीं. अवनी की ओर नजर घुमा कर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘पांच मिनट और बैठ कर इंतजार कर सकते हैं?’’

‘‘किस का इंतजार?’’

‘‘सूर्य के अंतर्ध्यान होने की, देखो न उधर. अस्त होने की तैयारी में है. कल का उगता सूरज तो अब हम देख नहीं पाएंगे, चलो आज का अस्त होता सूरज ही देख लें. पर एक तरह से यह हमारा भ्रम ही है. यह सूरज यहां अस्त हो रहा है तो कहीं उग रहा होगा. यही नहीं, सूरज तो एक ही है, पर सवेरा रोजरोज अलग होता है.

‘‘कब, कौन सवेरा क्या रंग लाता है, कौन जानता है? अस्त होता सूरज मनुष्य को दार्शनिक बना देता है. देखो न, जातेजाते सूरज कैसा रंग वैभव फैला रहा है.’’ अमन ने सूरज की ओर ऊंगली उठा कर इशारा किया तो अवनी उसी ओर देखने लगी. आकाश में संध्या की लालिमा फैल रही थी. पहाड़ के उस पार का दृश्य बड़ा अद्भुत था.

‘‘चलो, अब अपने इरादे को अंतिम अंजाम देते हैं, तैयार हो जाओ.’’ अमन ने कहा, पर अवनी ने कोई जवाब नहीं दिया. थोड़ी देर दोनों मौन का आवरण ओढ़े च्यूइंगम चबाते रहे.

सूरज धीरेधीरे क्षितिज से ओझल हो रहा था. पक्षी पेड़ों पर कलरव कर रहे थे. इस तरह घाटी में अनजाना शोर फैल रहा था. अचानक अवनी ने धीमे से कहा, ‘‘मुझे बचाने के लिए आप को बहुतबहुत धन्यवाद… क्षणिक आवेश से उबारने के लिए…’’

‘‘मैं कोई तुम्हें बचाने के लिए थोड़े ही…मैं तो खुद…’’

अमन अपनी बात पूरी कर पाता, उस के पहले ही अवनी ने कहा, ‘‘आई एम श्योर, तुम यहां आत्महत्या करने नहीं आए थे.’’

शाम के धुंधलके में अमन के चेहरे पर हलकी मुसकराहट फैल गई तो अवनी की आंखों में नए जीवन की चमक थी. पेड़ और घाटी पक्षियों के कोलाहल से गूंज रही थी.+-*

Love Story : 8 नवंबर की शाम – उस शाम न जाने कितनी जिंदगियां बदल गई

Love Story : आज 8 नवंबर, 2017 है. मुग्धा औफिस नहीं गई. मन नहीं हुआ. बस, यों ही. अपने फ्लैट की बालकनी से बाहर देखते हुए एक जनसैलाब सा दिखता है मुग्धा को. पर उस के मन में तो एक स्थायी सा अकेलापन बस गया है जिसे मुंबई की दिनभर की चहलपहल, रोशनीभरी रातें भी खत्म नहीं कर पातीं. कहने के लिए तो मुंबई रोमांच, ग्लैमर, फैशन, हमेशा शान वाली जगह समझी जाती है पर मुग्धा को यहां बहुत अकेलापन महसूस होता है.

जनवरी में मुग्धा लखनऊ से यहां मुंबई नई नौकरी पर आई थी. यह वन बैडरूम फ्लैट उसे औफिस की तरफ से ही मिला है. आने के समय वह इस नई दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए, जीवन फिर से जीने के लिए जितनी उत्साहित थी, अब उतनी ही स्वयं को अकेला महसूस करने लगी है. बिल्ंिडग में किसी को किसी से लेनादेना है नहीं. अपने फ्लोर पर बाकी 3 फ्लैट्स के निवासी उसे लिफ्ट में ही आतेजाते दिखते हैं. किसी ने कभी पूछा ही नहीं कि नई हो? अकेली हो? कोई जरूरत तो नहीं? मुग्धा ने फिर स्वयं को अलमारी पर बने शीशे में देखा.

वह 40 साल की है, पर लगती नहीं है, वह यह जानती है. वह सुंदर, स्मार्ट, उच्च पद पर आसीन है. पिछली 8 नवंबर का सच सामने आने पर, सबकुछ भूलने के लिए उस ने यह जौब जौइन किया है. मुग्धा को लगा, उसे आज औफिस चले ही जाना चाहिए था. क्या करेगी पूरा दिन घर पर रह कर, औफिस में काम में सब भूली रहती, अच्छा होता.

वह फिर बालकनी में रखी चेयर पर आ कर बैठ गई. राधा बाई सुबह आती थी, खाना भी बना कर रख जाती थी. आज उस का मन नहीं हुआ है कुछ खाने का, सब ज्यों का त्यों रखा है. थकीथकी सी आंखों को बंद कर के उसे राहत तो मिली पर बंद आंखों में बीते 15 साल किसी फिल्म की तरह घूम गए.

सरकारी अधिकारी संजय से विवाह कर, बेटे शाश्वत की मां बन वह अपने सुखी, वैवाहिक जीवन का पूर्णरूप से आनंद उठा रही थी. वह खुद भी लखनऊ में अच्छे जौब पर थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर पिछले साल की नोटबंदी की घोषणा ने उस के घरौंदे को तहसनहस कर दिया था.

नोटबंदी की घोषणा होते ही उस के सामने कितने कड़वे सच के परदे उठते चले गए थे. उसे याद है, 8 नवंबर, 2016 की शाम वह संजय और शाश्वत के साथ डिनर कर रही थी. टीवी चल रहा था. नोटबंदी की खबर से संजय के चेहरे का रंग उड़ गया था. शाश्वत देहरादून में बोर्डिंग में रहता था. 2 दिनों पहले ही वह घर आया था. खबर चौंकाने वाली थी.

आर्थिकरूप से घर की स्थिति खासी मजबूत थी, पर संजय की बेचैनी मुग्धा को बहुत खटकी थी. संजय ने जल्दी से कार की चाबी उठाई थी, कहा था, ‘कुछ काम है, अभी आ रहा हूं.’

‘तुम्हें क्या हुआ, इतने परेशान क्यों हो?’

‘बस, कुछ काम है.’

मुग्धा को सारी सचाई बाद में पता चली थी. संजय के सलोनी नाम की युवती से अवैध संबंध थे. सलोनी के रहने, बाकी खर्चों का प्रबंध संजय ही करता था. संजय के पास काफी कालाधन था जो उस ने सलोनी के फ्लैट में ही छिपाया हुआ था. उस ने ईमानदार, सिद्धांतप्रिय मुग्धा को कभी अपने इस कालेधन की जानकारी नहीं दी थी. वह जानता था कि मुग्धा यह बरदाश्त नहीं करेगी.

उस दिन संजय सीधे सलोनी के पास पहुंचा था. सलोनी को उस पैसे को खर्च करने के लिए मना किया था. सलोनी सिर्फ दौलत, ऐशोआराम के लिए संजय से चिपकी हुई थी. संजय का पैसा वह अपने घर भी भेजती रहती थी. संजय कालेधन को ठिकाने लगाने में व्यस्त हो गया.

सलोनी को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी. उस ने संजय से छिपा कर 2-3 एजेंट्स से बात भी कर ली थी जो कमीशन ले कर रुपए जमा करवाने और बदलवाने के लिए तैयार हो गए थे. उन में से एक सीबीआई का एजेंट था. सलोनी की मूर्खता से संजय और सलोनी को गिरफ्तार कर लिया गया था.

दोनों का प्रेमसंबंध मुगधा के सामने आ चुका था. इस पूरी घटना से मुग्धा शारीरिक और मानसिक रूप से इतनी आहत हुई थी कि वह सब से रिश्ता तोड़ कर यहां मुंबई में नई नौकरी ढूंढ़ कर शिफ्ट हो गई थी. उस के मातापिता थे नहीं, भाईभाभी और सासससुर ने जब पतिपत्नी संबंधों और पत्नीधर्म पर उपदेश दिए तो उसे बड़ी कोफ्त हुई थी.

एक तो भ्रष्ट पति, उस पर धोखेबाज, बेवफा भी, नहीं सहन कर पा रही थी वह. शाश्वत समझदार था, सब समझ गया था. मुग्धा बेटे के संपर्क में रहती थी. संजय से तलाक लेने के लिए उस ने अपने वकील से पेपर्स तैयार करवाने के लिए कह दिया था.

वह आज की औरत थी, पति के प्रति पूरी तरह समर्पित रहने पर भी उस का दिल टूटा था. वह बेईमान, धोखेबाज पति के साथ जीवन नहीं बिता सकती थी. आज नोटबंदी की शाम को एक साल हो गया है. नोटबंदी की शाम उस के जीवन में बड़ा तूफान ले कर आई थी. पर अब वह दुखी नहीं होगी. बहुत रो चुकी, बहुत तड़प चुकी. अब वह परिवार बिखरने का दुख ही नहीं मनाती रहेगी.

नई जगह है, नया जीवन, नए दोस्त बनाएगी. दोस्त? औफिस में तो या बहुत यंग सहयोगी हैं या बहुत सीनियर. मेरी उम्र के जो लोग हैं वे अपने काम के बाद घर भागने के लिए उत्साहित रहते हैं. मुंबई में अधिकांश लोगों को औफिस से घर आनेजाने में 2-3 घंटे तो लगते ही हैं. उस के साथ कौन और क्यों, कब समय बिताए. पुराने दोस्तों से फोन पर बात करती है तो जब जिक्र संजय और सलोनी पर पहुंच जाए तब वह फोन रख देती है. नए दोस्त बनाने हैं, जीवन फिर से जीना है. वह पुरानी यादों से चिपके रह कर अपना जीवन खराब करने वालों में से नहीं है.

आज फिर 8 नवंबर की शाम है लेकिन वर्ष है 2017. संजय से मिले धोखे को एक साल हुआ है. आज से ही कोई दोस्त क्यों न ढूंढ़ा जाए. वह अपने फोन पर कभी कुछ, कभी कुछ करती रही. अचानक उंगलियां ठिठक गईं. मन में एक शरारती सा खयाल आया तो होंठों पर एक मुसकान उभर आई. वह टिंडर ऐप डाउनलोड करने लगी, एक डेटिंग ऐप. यह सही रहेगा, उस ने स्वयं में नवयौवना सा उत्साह महसूस किया. यह ऐप 2012 में लौंच हुई थी. उसे याद आया उस ने संजय के मुंह से भी सुना था, संजय ने मजाक किया था, ‘बढि़या ऐप शुरू हुई है. अकेले लोगों के लिए अच्छी है. आजकल कोई किसी भी बात के लिए परेशान नहीं हो सकता. टैक्नोलौजी के पास हर बात का इलाज है.’

मुग्धा ने तब इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. वह अपने परिवार, काम में खुश थी. डेटिंग ऐप के बारे में जानने की उसे कहां जरूरत थी. अब तो अकेलापन दूर करना है, यही सही. अब वह देख रही थी, पहला स्वाइपिंग ऐप जहां उसे दूसरे यूजर्स के फोटो में चुनाव के लिए स्वाइपिंग मोशन यूज करना है. अच्छे लग रहे मैच के लिए राइट स्वाइप, आगे बढ़ने के लिए लैफ्ट.

मुग्धा के चेहरे पर एक अरसे बार मुसकराहट थी. वह एक के बाद एक फोटो देखती गई. एक फोटो पर उंगली ठहर गई, चेहरे पर कुछ था जो उस की नजरें ठहर गईं. उसी की उम्र का अभय, यह मेरा दोस्त बनेगा? बात कर के देखती हूं, नुकसान तो कुछ है नहीं. मुग्धा ने ही संपर्क किया. बात आगे बढ़ी. दोनों ने एकदूसरे में रुचि दिखाई. फोन नंबर का आदानप्रदान भी हो गया.

अभय का फोन भी आ गया. उस ने अपना पूरा परिचय बहुत ही शालीनता से मुग्धा को दोबारा दिया, बताया कि वह भी तलाकशुदा है, परेल में उस का औफिस है, अकेला रहता है. अभय के सुझाव पर दोनों ने मिलने की जगह तय कर ली.

बौंबे कैंटीन जाने का यह मुग्धा का पहला मौका था. शनिवार की शाम वह अच्छी तरह से तैयार हुई. ढीला सा व्हाइट टौप पर छोटा प्रिंट, ब्लैक जींस में वह काफी स्मार्ट लग रही थी. बौंबे कैंटीन के बाहर ही हाथ में फूल लिए अभय खड़ा था. दोनों ने बहुत ही शालीनता से, मुसकराते हुए एकदूसरे को ‘हाय’ कहा.

मुग्धा की आकर्षक मुसकराहट अभय के दिल में अपनी खास जगह बनाती चली गई. अब तक वे दोनों फोन पर काफी बातें कर चुके थे, बौंबे कैंटीन के इंटीरियर पर नजर डालते हुए मुग्धा ने कहा, ‘‘काफी अलग सी जगह है न.’’

‘‘मैं यहां अकसर आता हूं, मेरे औफिस से पास ही है,’’ अभय ने कहा. उसी समय एक वेटर मैन्यू कार्ड दे गया तो मुग्धा बोली, ‘‘फिर तो आज आप ही और्डर कीजिए क्योंकि यहां के खाने में आप को अंदाजा भी होगा.’’

‘‘ठीक है, फिर आज मेरी पसंद का खाना खाना.’’

मुग्धा को अंदाजा हो गया था, वहां के वेटर्स अभय को अच्छी तरह पहचानते थे. अभय का सहज, सरल व्यक्तित्व मुग्धा को प्रभावित कर गया था. अभय उसे बहुत अच्छा लगा था. खाना सचमुच जायकेदार था. मुग्धा ने दिल से अभय की पसंद के खाने की तारीफ की. दोनों फिर इस टिंडर ऐप की बात पर हंसने लगे थे.

अभय ने कहा, ‘‘जानती हो, मुग्धा, पहले मैं ऐसी ऐप्स को मूर्खतापूर्ण चीजें समझता था. उस दिन मैं पहली बार ही यह ऐप देख रहा था और पहली बार ही तुम से बात हो गई,’’ फिर उस के स्वर में अचानक उदासी का पुट आ गया, ‘‘जीवन में अकेलापन तो बहुत अखरता है. देखने में तो मुंबई में खूब चहलपहल है, कोई कोना खाली नहीं, भीड़ ही भीड़, पर मन इस भीड़ में भी कितना तनहा रहता है.’’

‘‘हां, सही कह रहे हो,’’ मुग्धा ने भी गंभीरतापूर्वक कहा.

उस के बाद दोनों अपने जीवन के अनुभव एकदूसरे से बांटते चले गए. अभय की पत्नी नीला विदेश में पलीबढ़ी थी. विदेश में ही एक फंक्शन में दोनों मिले थे. पर नीला भारतीय माहौल में स्वयं को जरा भी ढाल नहीं पाई. अभय अपने मातापिता की इकलौती संतान था. वह उन्हें छोड़ कर विदेश में नहीं बसना चाहता था. अभय और नीला की बेटी थी, रिनी. नीला उसे भी अपने साथ ले गई थी. अभय के मातापिता का अब देहांत हो चुका था. वह अब अकेला था.

मुग्धा की कहानी सुन कर अभय ने माहौल को हलका करते हुए कहा, ‘‘मतलब, पिछले साल नोटबंदी ने सिर्फ आर्थिकरूप से ही नहीं, भावनात्मक, पारिवारिक रूप से भी लोगों के जीवन को प्रभावित किया था. वैसे अच्छा ही हुआ न, नोटबंदी का तमाशा न होता तो तुम्हें संजय की बेवफाई का पता भी न चलता.’’

‘‘हां, यह तो है,’’ मुग्धा मुसकरा दी.

‘‘पहले मुझे भी नोटबंदी के नाटक पर बहुत गुस्सा आया था पर अब तुम से मिलने के बाद सारा गुस्सा खत्म हो गया है. एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि हम आज यों मिले. वरना तुम लखनऊ में ही रह रही होतीं, मैं यहां अकेला घूम रहा होता.’’

मुग्धा हंस पड़ी, ‘‘एक नोटबंदी कारण हो गया और दूसरी यह डेटिंग ऐप. कभी सोचा भी नहीं था कि किसी से कभी ऐसे मिलूंगी और दिल खुशी से भर उठेगा. कई महीनों की उदासी जैसे आज दूर हुई है.’’ बिल मुग्धा ने देने की जिद की, जिसे अभय ने बिलकुल नहीं माना. मुग्धा ने कहा, ‘‘ठीक है, अगली बार नहीं मानूंगी.’’

‘‘देखते हैं,’’ अभय मुसकरा दिया, फिर पूछा, ‘‘कोई मूवी देखें?’’

‘‘हां, ठीक है.’’ मुग्धा का तनमन आज बहुत दिनों बाद खिलाखिला सा था. दोनों का दिल इस ताजीताजी खुशबू से भरी दोस्ती को सहर्ष स्वीकार कर चुका था. अभय ने अपनी कार स्टार्ट कर गाना लगा दिया था, ‘‘अजनबी तुम जानेपहचाने से लगते हो, यह बड़ी अजीब सी बात है, फिर भी जाने क्यों, अजनबी…’’ मुग्धा ने सीट बैल्ट बांध, सिर सीट पर टिका लिया था.

मुग्धा गाने के बोल में खोई सोच रही थी, इतने दिनों की मानसिक यंत्रणा, अकेलेपन के बाद वह जो आज आगे बढ़ रही थी, उसे लेशमात्र भी संकोच नहीं है. अभय के साथ जीवन का सफर कहां तक होगा, यह तो अभी नहीं पता, वक्त ही बताएगा. पर आशा है कि अच्छा ही होगा. और अगर नहीं भी होगा, तो कोई बात नहीं. वह किसी बात का शोक नहीं मनाएगी. उसे खुश रहना है. वह आज के बारे में सोचना चाहती है, बस. और आज नए बने सौम्य, सहज दोस्त का साथ मन को सुकून पहुंचा रहा था. वह खुश थी. अभय को अपनी तरफ देखते पाया तो दोनों ने एकसाथ कहा, ‘‘यह गाना अच्छा है न.’’ दोनों हंस पड़े थे.

Hindi Story : स्वरूपिनी और वो चीज – निहारिका को रानी कहकर कौन बुला रहा था

Hindi Story : मैं यानी निहारिका दिल्ली में रहती हूं और यहां एक कंपनी में काम करती हूं. 2 साल ही हुए हैं मुझे नौकरी मिले हुए. पहले का एक साल तो कोरोना के चलते मैं वर्क फ्रोम होम ही कर रही थी, पर अब एक साल से मुझे रोजाना ही औफिस आना पड़ता है.

यों तो मुझे अपना काम बहुत पसंद है, पर आजकल इस में मेरा मन नहीं लग रहा. आज भी बड़े बेमन से औफिस आई और अपनी सीट पर बैठ गई. मन तो लग नहीं रहा था, तो बस ऐसे ही थोड़ाबहुत काम कर के लंच टाइम तक का वक्त गुजारा.

लंच होते ही मैं खुश हो गई कि चलो आधा दिन तो निकल गया, तभी मेरे भईया का फोन आ गया. वे नोएडा में रहते हैं.

वैसे तो वे मेरे सगे भाई नहीं हैं. मेरी मौसी के बेटे हैं, पर प्यार मुझ से सगी बहन से भी ज्यादा करते थे. मैं ने जैसे ही फोन उठाया, तो बस बातें करतेकरते पूरा लंच ब्रेक ही खत्म होने को आया.

फोन रखते हुए भईया ने पूछा कि सुन छोटी, मैं अगले हफ्ते चेन्नई जा रहा हूं. वहां कुछ काम है. तो तू अगर इतनी बोर हो रही है, तो चल मेरे साथ. काम खत्म होने के बाद मैं तुझे चेन्नई घुमा दूंगा. वैसे भी अगले हफ्ते वीकेंड के साथ फ्राईडे का भी औफ है. पहले दिल्ली आ कर तुझे ले लूंगा, फिर साथ में चलेंगे. फ्राईडे मौर्निंग जाएंगे, सनडे इवनिंग तुझे घर पर छोड़ दूंगा.

“भईया, चलना तो मैं भी चाहती हूं, पर मम्मीपापा पता नहीं मानेंगे या नहीं. यहीं आसपास की बात होती तो कोई बात नहीं, पर चेन्नई थोड़ी दूर है. और आप तो जानते ही हैं कि वो मेरी कितनी ज्यादा चिंता करते हैं. उन से तो मैं ने पहले ही बात कर ली है छोटी. वे मान गए हैं.

“थैंक्यू सौ मच भईया. तो फिर अगले हफ्ते चलते हैं.”

उस रात को जब मैं अपने घर की बालकनी में खड़ी थी, तब ही उस का ध्यान आया. वह भी तो चेन्नई से ही थी मेरी सब से अच्छी दोस्त, पर एक दिन बस इस चीज को मुझे पकड़ा कर यों अचानक ही चली गई. कितनी याद आती है आज भी, जब उस के बारे में सोचती हूं. तभी तो आज तक इसे अपने बैग से लगाए घूम रही हूं.

आज चेन्नई के बारे में बात होते ही उस से जुड़ी सारी यादें ताजा कर दीं. जब वहां जाऊंगी तो उस की कितनी याद आएगी. बस यह सब सोचते हुए और उस चीज को पकड़े हुए कब बालकनी के सोफे पर सो गई, पता ही नहीं चला.

अगले हफ्ते बुधवार को ही भईया आ गए और शुक्रवार की सुबह हम चेन्नई के लिए रवाना हो गए. करीब 12 बजे हम चेन्नई पहुंच गए. एयरपोर्ट पर ही भईया के नाम की नेम प्लेट लिए एक शख्स खड़ा था. वह हमें एक बहुत ही सुंदर से रिसोर्ट में ले गया.

रिसोर्ट आते वक्त मैं ने समंदर और बीच देखे थे. मैं ने तभी भैया से कहा था कि यहां हम जरूर आएंगे.

रिसोर्ट में आते ही भईया के औफिस से फोन आया और मुझे वहां छोड़ कर वे अपने काम पर चले गए.

मैं ने उस के बाद रिसोर्ट घूमा और शाम तक वहां पास में ही एक बुक कैफे में बुक्स पढ़ती रही, तभी भईया का फोन आया कि उन का काम खत्म हो गया है और वे मेरा रिसोर्ट के गेट पर इंतजार कर रहे हैं.

मैं थोड़ी देर में ही वहां पहुंच गई और हम उस बीच पर जाने के लिए निकल पड़े, जो सुबह यहां आते समय देखा था.

उस बीच के पास ही बहुत सुंदर मेला भी लगा हुआ था. मैं वहां से कुछ सामान ले रही थी, तभी पीछे से एक आवाज आई. ‘रानी… रानी, सुनो. वहीं रहो, मैं आ रही हूं.

यह सुन कर मैं हैरान हो गई कि मुझे कौन इस नाम से बुला रहा है. यह नाम तो मेरा कोई भी नहीं जानता और दादी के अलावा तो कोई भी इस नाम से मुझे बुलाता भी नहीं है.

यह नाम तो भईया को भी शायद ही पता होगा. मैं अभी सोच ही रही थी कि वही आवाज फिर पीछे से आई.

मैं ने पीछे की ओर मुड़ कर देखा, तो एक थोड़ी हेल्दी सी लड़की मेरी तरफ जल्दीजल्दी चलती हुई आ रही है और मुझे रुकने को कह रही है.

जैसे ही वह मेरे पास आई, तो मैं ने पूछा कि आप कौन हैं?

“मुझे पहचान नहीं पाई हो क्या तुम…?”

मैं ने कहा, “नहीं.”

“देखो, तुम्हारे बैग पर जो चीज लगी है, वैसी ही मेरे पास भी है.”

यह देख कर तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, क्योंकि वह कोई आम चीज तो है नहीं कि सब के पास हो या किसी भी दुकान पर आसानी से मिल जाए. यह तो केवल दो ही हैं. एक, उस के पास और एक मेरे पास.

अभी मैं सोच ही रही थी कि उस ने पूछा, “क्या सोच रही हो?”

“कुछ नहीं,” और कहा, “स्वरूपिनी, तुम इतने सालों बाद…”

“हां, मैं तुम्हारी दोस्त स्वरूपिनी. अब पहचान गई न मुझे. विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम इतने सालों बाद कैसे? और तुम ने मुझे पहचान कैसे लिया?”

“बस, इस चीज के ही कारण. मैं ने तुम्हें भीड़ में भी पहचान लिया. मैं बहुत बार दिल्ली में वहां पर गई थी, जहां हम पहले रहते थे. पर, पता चला कि तुम भी कहीं और चली गई हो.

“हां, तुम्हारे वहां से अचानक जाने के बाद मेरे मम्मीपापा ने भी कहीं और घर ले लिया था.”

तभी स्वरूपिनी बोली, “याद है तुम्हें कि हम बचपन में साथ में कितना खेलते थे?”

“हां, पर तुम्हारे पापा ने अचानक ट्रांसफर ले लिया था, क्योंकि तुम्हारे दादा की तबीयत ठीक नहीं रहती थी और तुम्हें जाना पड़ा था.

“हां, इस वजह से अप्पा ने अपना ट्रांसफर हमारे होमटाउन चेन्नई में लिया था.

“देखो, उस के बाद आज मिलना हुआ है,” तभी स्वरूपिनी ने पूछा, “वैसे, तुम बताओ रानी कि तुम यहां चेन्नई में क्या कर रही हो?”

तभी मैं ने उसे भईया से मिलवाया. बस इन के साथ इन के काम के लिए और थोड़ा घूमने के लिए आई थी.

स्वरूपिनी ने तभी वक्त देखा और कहा कि देख रानी, मुझे अभी जाना होगा. पर, कल ऐसा कर तू घर आ जा. पूरा दिन वहां आराम से बात करेंगे.

मैं ने कहा कि नहीं, तुम ही रिसोर्ट आ जाना. मुझे यहां की भाषा नहीं आती. तो तुम्हारे घर आने में दिक्कत होगी. और भईया को भी अपने काम से जाना है. इसलिए तुम रिसोर्ट आ जाना.

उसे मैं ने रिसोर्ट का पता दिया और कहा कि चलो, कल मिलते हैं.

मुझे तो अभी भी यह यकीन नहीं हो रहा था कि मुझे अपनी सब से अच्छी दोस्त से वापस मिलना हो पाया है.

अगले दिन वक्त से पहले ही स्वरूपिनी रिसोर्ट पहुंच गई. आते ही उस ने सब से पहले मेरी उस के अम्माअप्पा से वीडियो काल पर बात करवाई, फिर तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया. पिछले 15 वर्षों की बातें सब आज एकदूसरे को बता जो रहे थे.

बातों ही बातों में स्वरूपिनी ने पूछा कि इतने सालों में तुम ने मुझे फोन क्यों नहीं किया?

मैं ने कहा कि तुम्हारा नंबर ही कहां था.

उस सुबह जब मैं स्कूल बस का इंतजार कर रही थी, मेरे पास तुम भागीभागी आई थी. मुझे यह टाय कार थमा कर और इतना ही कह कर चली गई कि तुम्हारे अप्पा ने तुम्हारे शहर चेन्नई में ही ट्रांसफर ले लिया है और तुम्हें अभी जाना पड़ रहा है.

“हां रानी, उस से एक रात पहले दादा की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई थी. तभी अप्पा ने अचानक चन्नई ट्रांसफर होने का फैसला किया. बस हम तो जरूरत का सामान ले कर अगली सुबह चेन्नई के लिए निकल पड़े.

“अच्छा रानी, तुम ने इतने वर्षों में मुझे एक फोन भी नहीं किया. याद नहीं किया क्या मुझे?”

मैं नेकहा ना कि तुम्हारा नंबर नहीं था मेरे पास. क्या बात कर रही हो रानी? नंबर तो मैं तुम्हें दे कर गई थी. तुम मुझे बस यह टाय कार पकड़ा कर गई थी.

“हां तो… इसी में तो था न मेरा नंबर. इस छोटी सी टाय कार में…?”

“हां बाबा इस में. तुम ने इसे खोल कर कभी देखा नहीं क्या? क्या यह खुलती भी है? हां, तुम्हें याद होगा, जब मेरे अप्पा ने नई गाड़ी ली थी, तब उस शोरूम के मालिक ने उस गाड़ी की जैसी मुझे दो टाय कार भी दी थी. यह लाल वाली मैं ने तुम्हें दी थी और हरी वाली मेरे पास है. यह देखो.

“हां, यह तो मुझे पता है, पर यह खुलती है, यह मुझे पता नहीं है. हां, इसलिए तो इस में अपना नंबर मैं ने एक परची में लिख कर रख दिया था और तुम्हें इस को पकड़ा कर चली गई थी. सोचा कि तुम्हें जैसे ही मेरा नंबर मिल जाएगा तुम मुझे फोन कर लोगी रानी.

“मुझे तो इतने वर्षों में पता ही नहीं चला कि यह टाय कार खुलती भी है. लाओ, अपनी गाड़ी मुझे दो. मैं खोल कर दिखाती हूं.”

स्वरूपिनी ने जैसे ही उसे खोला. उस में से एक छोटी सी परची निकली, जिस पर उस ने अपना नंबर लिख रखा था.

उस ने कहा कि यह वही नंबर है, जो उस ने कल रात मुझे दिया था. पता है रानी, तुम्हारे फोन का मैं ने कितना इंतजार किया, इसलिए आज तक अपना नंबर मैं ने नहीं बदला.

“मुझे माफ करना स्वरूपिनी, मुझे नहीं पता था कि इस गाड़ी में ही तुम्हारा नंबर है, वरना मैं तो तुम्हें रोज ही याद करती.

“पता है, तुम्हारे जाने के बाद तो कोई दोस्त भी नहीं बना पाई. पता होता तो तुम्हारा नंबर इस में ही है, तो इतने वर्ष तुम्हारा इंतजार करने के बजाय तुम्हें रोज फोन कर के घंटों बात करती.”

“छोड़ो रानी, जो होना था हो गया. पर, अब हम कभी भी एकदूसरे से दूर नहीं जाएंगे. अब हम कहीं भी रहें, पर एकदूसरे के संपर्क में रहेंगे.”

“मेरा तो वैसे भी अपने पति के काम के सिलसिले में दिल्ली आनाजाना लगा ही रहता है. हम तब मिल भी लिया करेंगे.”

मैं स्वरूपिनी की ये सब बातें सुन कर रोने लग गई, तो वह कहने लगी कि चलो, अब जो हो गया उसे छोड़ दो. अब तो हम मिल ही गए ना. बस फिर हम यों ही और काफी देर तक बातें करते रहे.

आज इस बात को तीन वर्ष हो गए हैं. अब मैं और स्वरूपिनी रोज ही बात करते हैं. अब जब भी वह दिल्ली आती है, मुझ से मिले बिना नहीं जाती.

सच में मेरी चेन्नई की यह यात्रा तो बहुत ही यादगार रही. इस ने मुझे मेरी वर्षों पुरानी दोस्त से जो मिला दिया और मुझे अब यह भी तो समझ आ गया था कि क्यों उस सुबह वह मुझे टाय कार दे कर गई थी.

मैं आज भी भईया को धन्यवाद बोलती हूं कि वे मुझे अपने साथ चेन्नई ले गए, वरना मैं तो शायद कभी भी अपनी दोस्त से दोबारा मिल ही नहीं पाती.

लेखिका : अमृता परमार

Hindi Story : रोजी रोटी – लालाजी ने कैसे रिश्वतखोरी का विरोध किया?

Hindi Story : ‘‘मेरे यहां न तो कोई गलत माल बनता है न ही मैं मिलावट करता हूं. मैं किस बात का महीना दूं?’’ लाला कुंदन लाल ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘लालाजी, बात अकेली मिलावट की नहीं है…अब पुराने नियम और तरीके सब बदल चुके हैं. मिलावट के साथसाथ अब सफाई, रंग और कैलोरी आदि की भी जांच की जाती है,’’ स्वास्थ्य विभाग के चपरासी श्यामलाल ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘मगर मेरे यहां सफाई का स्तर ठीक है. आप सारे रेस्तरां में कहीं भी गंदगी दिखाएं, किचन में सबकुछ स्टैंडर्ड का है.’’

‘‘ये सब बातें कहने की हैं. अफसर लोग नहीं मानते.’’

‘‘मांग जायज हो तो मानें. पिछले 3 साल से महीने की दर बढ़तेबढ़ते 10 गुनी हो गई है…यह तो सरासर लूट है.’’

‘‘महीना सब का बढ़ाया है, अकेले आप ही का नहीं.’’

‘‘मगर मैं इतना नहीं दे सकता.’’

‘‘सोचविचार कर लीजिए. खामख्वाह पंगा पड़ जाएगा,’’ एक तरह से धमकी देता श्यामलाल चला गया.

चपरासी के जाते दोनों बेटे सुरेश और अशोक भी पिता के पास आ गए. कहां तो 100 रुपए महीना था, अब 3 हजार रुपए महीना मांगा जा रहा है. पहले मिलावट के मामले में सजा अधिकतम 6 महीने से 1 साल तक थी साथ में 1 से 2 हजार रुपए तक जुर्माना था.

नए प्रावधानों में अब न्यूनतम सजा 3 साल की तथा जुर्माना 25 हजार से 3 लाख रुपए तक हो गया था. जैसे ही कानून सख्त हुआ था वैसे ही रिश्वत की दर भी आसमान पर पहुंच गई. सफाई या हाईजिन स्तर के नाम पर किसी प्रतिष्ठान, दुकान को बंद करवाने का अधिकार भी खाद्य निरीक्षक को मिल गया था. इस से भी अब लूट बढ़ गई थी.

लालजी की गोलहट्टी के नाम से खानेपीने की दुकान सारे शहर में मशहूर थी. माल का स्तर शुरू से काफी अच्छा था. मिलावट वाली कोई वस्तु नहीं थी.  मिलावट तो नहीं थी मगर प्रयोग- शालाओं में कई अन्य आधारों पर नमूना फेल हो जाता था. नमूने को कभी स्तरहीन या अखाद्य या ‘एक्सपायर्ड’ भी करार दे दिया जाता था, जिस से मुकदमा दर्ज हो जाता था या फिर दुकान बंद हो जाती.

जितने ज्यादा नए कानून बनते उतने नए अपराधी बनते. जितना सख्त कानून होता उतना ज्यादा रिश्वत का रेट होता. अपराध तो कम नहीं होते थे, भ्रष्टाचार जरूर बढ़ जाता था.  लाला कुंदन लाल ने जीवनभर मिलावट नहीं की थी. वे ऐसा करना पसंद नहीं करते थे. ग्राहकों को साफसुथरा खाना देना अपना कर्तव्य समझते थे. किसी जमाने में मिलावट का नाम भी नहीं था. मिलावट क्या होती है…कोई नहीं जानता था.  तब खाद्य निरीक्षक का पद भी नहीं था. नगर परिषद का सैनेटरी इंस्पैक्टर कभीकभार बाजार का चक्कर लगा लेता था. किसीकिसी का सैंपल या नमूना ले कर प्रयोगशाला को भेज दिया करता था. सैंपल फेल कम आते थे. सैंपल फेल आने पर जुर्माना होता था जो 50 रुपए से 400-500 रुपए तक था. मगर ऐसा कम ही होता था. कोई सजा का मामला नहीं था.

अब वक्त बदल चुका था. आबादी बहुत बढ़ गई थी. साथ ही कानून और अपराधी भी. अब सैंपल या नमूना फेल ज्यादा आते थे, पास कम होते थे. गेहूं के साथ घुन भी पिसता है, के समान मिलावट न करने वाले भी फंस जाते थे.

लाला कुंदन लाल के साथ दोनों बेटे भी विचारमग्न थे. क्या करें? कभी रिश्वत मात्र 100  रुपए महीना थी अब 3 हजार रुपए मांगे जा रहे थे. कल को या भविष्य में 30 हजार रुपए महीना भी मांगे जा सकते थे. वे मिलावट नहीं करते थे मगर हर जगह बेईमानी थी. प्रयोगशालाओं में नमूने फेल, पास करवाए जाते थे.  अपने विरोधी या प्रतिद्वंद्वी को फंसाने के लिए कई व्यापारी उस का नमूना प्रयोगशाला में फेल करवा देते थे. बदले समय के साथ अब व्यापार में भी घटियापन बढ़ गया था.

‘‘फूड इंस्पैक्टर 3 हजार रुपए महीना मांग रहा है,’’ लालाजी ने दोनों बेटों को बताया.

‘‘पिताजी, दे दीजिए. सैंपल भर लिया, फेल करवा दिया तब परेशानी बढ़ जाएगी,’’ छोटे बेटे अशोक ने कहा.

‘‘मगर इन की मांग सुरसा के मुंह के समान बढ़ती जा रही है. कभी 100 रुपए महीना था. अब 3 हजार रुपए मांग रहे हैं, साथ ही आधा दर्जन लोग खाने आ जाते हैं,’’ लालाजी ने रोष भरे स्वर में कहा.

इस पर दोनों बेटे खामोश हो गए. क्या करें? पुराना फूड इंस्पैक्टर शरीफ था. 100 रुपए महीना लेने पर भी विनम्रता से पेश आता था. नए जमाने का खाद्य निरीक्षक 3 हजार ले कर भी रूखे और रोबीले अंदाज में बात करता था.  लालाजी मिलावट पहले नहीं करते थे, अब भी नहीं करते. बात सिर्फ इंसाफ की थी. इंसाफ कहां था? प्रयोगशालाओं में निष्पक्षता न थी यही सब से बड़ी समस्या थी.  2 दिन बाद, चपरासी श्यामलाल दोबारा आया.

‘‘लालाजी, क्या इरादा है?’’

‘‘मैं ने पहले भी कहा है, मैं मिलावट नहीं करता. मैं महीना किस बात का दूं?’’ दोटूक स्वर में लालाजी ने कहा.

‘‘लालाजी, सोच लीजिए,’’ यह बोल कर गुस्से से तमतमाता चपरासी वापस चला गया.

‘‘पिताजी, आप ने यह क्या किया? अब यह हमारा सैंपल भरवा देगा?’’ दोनों बेटों ने पिताजी के पास आ कर कहा.

‘‘जो होगा देखेंगे. जोरजबरदस्ती की भी एक सीमा है. जब हम मिलावट ही नहीं करते तब महीना किस बात का दें.’’

‘‘पिताजी, वे प्रयोगशाला से नमूना फेल करवा देंगे.’’

‘‘जो होगा देखेंगे. अब मैं 60 साल का हूं. मुकदमा हो भी जाता है तो भी परवा नहीं है,’’ लालाजी के स्वर में एक निश्चय और चेहरे पर आभा थी.

शाम से पहले एक बड़ी स्टेशनवैगन गोलहट्टी के सामने आ कर रुकी. चिरपरिचित खाद्य निरीक्षक सोम कुमार और स्वास्थ्य अधिकारी मैडम शकुंतला उतर कर दुकान में प्रवेश कर गए.

‘‘दुकान का मालिक कौन है?’’ फूड इंस्पैक्टर ने रौब से पूछा.  लालाजी सब माजरा समझ रहे थे. दर्जनों बार परिवार सहित खापी कर जाने वाला पूछ रहा है कि दुकान का मालिक कौन है.

‘‘मैं हूं जी, बात क्या है?’’

इस दबंग जवाब की उम्मीद फूड इंस्पैक्टर को न थी.

‘‘क्याक्या बनाते हैं आप?’’

‘‘सामने काउंटर में रखा है, देख लीजिए.’’

‘‘आप के पास इस काम का लाइसैंस है?’’

‘‘हां, है जी. यह देखिए,’’ लालाजी ने शीशे से मढ़ी तसवीर के समान फ्रेम में जड़ी म्यूनिसिपैलिटी के लाइसैंस की कापी सामने रखते हुए कहा.

‘‘आप के खिलाफ स्तरहीन खाद्य- पदार्थ बनाने और बेचने की शिकायत है, आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए, किस चीज का नमूना दें?’’इस बेबाक जवाब पर खाद्य निरीक्षक सकपका गया. काउंटर वातानुकूलित था. माल सब साफ था. दुकान में मक्खी, कीट, मच्छर का नामोनिशान तक न था. दुकान में सर्वत्र साफसफाई थी. रसोईघर साफसुथरा था.  गुलाबजामुन और रसगुल्लों का नमूना ले लिया. पहले कभी आने पर लालाजी ड्राईफू्रट से आवभगत करते थे मगर इस बार जानबूझ कर पानी भी नहीं पूछा. इस से इंस्पैक्टर चिढ़ गया.

नमूना ले सब चले गए.  ‘‘पिताजी, अगर नमूना फेल हो गया तो?’’ दोनों बेटों ने कहा, ‘‘पड़ोसी कहता है वह एक दलाल को जानता है जो प्रयोगशाला से नमूना पास करवा सकता है.’’

‘‘मगर हम तो मिलावट करते नहीं हैं, हौसला रखो, जो होगा देखेंगे.’’  शाम को चपरासी फिर आया. लालाजी ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरते हुए उस की तरफ देखा.

‘‘फूड इंस्पैक्टर कहता है अगर आप को मामला निबटाना है तो निबट सकता है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप चाहें तो नमूना यहीं खत्म कर देते हैं. प्रयोगशाला में नहीं भेजेंगे और आप चाहें तो नमूना प्रयोगशाला से पास भी करवा सकते हैं. हमारे पास दोनों इंतजाम हैं.’’

‘‘जब मैं मिलावट नहीं करता तब कैसा भी इंतजाम क्यों करूं?’’

चपरासी चुपचाप चला गया. डेढ़ माह बाद नतीजा आया. दोनों नमूने पास हो गए. लालाजी का मनोबल ऊंचा हो गया. दुकान की साख बढ़ गई. 2 माह गुजर गए.  दोपहर को स्वास्थ्य विभाग की वही पहली वाली जीप दुकान के सामने आ कर रुकी.

‘‘आप के खिलाफ शिकायत है. किसी ग्राहक को आप के यहां नाश्ता करने के बाद पेट में दर्द हुआ था,’’ फूड इंस्पैक्टर ने कहा.

‘‘वह कौन है?’’

‘‘प्रमुख चिकित्सा अधिकारी के पास लिखित शिकायत आई थी. आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए.’’

लालाजी के स्वर की दृढ़ता से स्वास्थ्य अधिकारी भी थोड़ा विचलित था. खाद्य निरीक्षक ने दुकान में नजर दौड़ाई. दुकान छोटीमोटी रेस्तरां थी. 4-5 मिठाइयां जैसे रसगुल्ले, गुलाबजामुन, रसमलाई, मिल्ककेक, पिस्ता बर्फी और पुलावचावल के साथ राजमा और छोलेभठूरे आदि प्लेट और पीस रेट के हिसाब से बेचे जाते थे.  दीवार पर रेट लिस्ट लगी थी. साथ  ही लिखा था, ‘यहां गाय का दूध प्रयोग होता है.’, ‘मिल्क नौट फौर सेल’, ‘दूध बेचने के लिए नहीं है.’  प्रावधानों के अनुसार जो वस्तु बेचने के लिए न हो उस का नमूना नहीं लिया जा सकता था. मिठाई का सैंपल पास हो चुका था. चावल, पुलाव, राजमा, छोलेभठूरे में क्या मिलावट हो सकती थी?

‘‘जरा छोले दिखाइए.’’

लालाजी के इशारे पर कारीगर ने एक कटोरी में गैस पर रखे गरम छोले डाल कर दे दिए. नाक के समीप ला उस को सूंघते हुए फूड इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘मसाले की गंध कुछ अजीब सी है. आप इस का नमूना दे दीजिए.’’  मसालाचना, राजमा व छोले की तरी का नमूना अलग से ले टीम चली गई. इस बार चपरासी ‘इंतजाम’ की बात करने नहीं आया. बेटों के सामने भी ‘दलाल’ की मार्फत नमूना पास करवाने की बात नहीं उठाई.  डेढ़ महीने बाद नतीजा आया. राजमा, मसालाचना का नमूना पास हो गया था. छोलेतरी का नमूना निर्धारित मात्रा से ज्यादा मसाला मिलाने पर तकनीकी आधार पर फेल हो गया था.  रजिस्टर्ड डाक से लालाजी को नोटिस मिला. ‘आप का नमूना प्रयोगशाला द्वारा फेल घोषित किया गया है. आप इस तारीख को मुख्य दंडाधिकारी के न्यायालय में हाजिर हों. यदि आप राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट से असहमत हैं तो केंद्रीय प्रयोगशाला में नमूने को दोबारा परीक्षण हेतु 10 दिन के अंदरअंदर भिजवा सकते हैं.’

लालाजी नोटिस की प्रति ले कर अपने परिचित वकील के पास पहुंचे.  ‘‘अरे, भाई, इस मामले को निचले स्तर पर निबटा देना था. जो मांग रहे थे दे देते,’’ वकील साहब ने नोटिस पढ़ कर कहा.

‘‘मांग जायज होती तो पूरी कर भी देता. कभी 100-200 रुपए महीना मांगते थे अब 3 हजार रुपए और ऊपर से कभी भी खानेपीने को आ जाते. साथ में रौब अलग से.’’  ‘‘मगर मुकदमा कई साल चल सकता है. पेशियों की परेशानी है. नमूना तकनीकी आधार पर फेल है इसलिए सजा का मामला नहीं है. सजा मिलावट के मामले में होती है,’’ वकील साहब ने कहा.  ‘‘और अगर इसे केंद्रीय प्रयोगशाला में दोबारा परीक्षण के लिए भेज दूं तो?’’

‘‘तब कई पहलू हैं. केंद्रीय प्रयोगशाला इसे पास कर सकती है. राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट के समान ही रिपोर्ट दे सकती है. विभिन्न रिपोर्ट दे सकती है. मिलावट घोषित कर सकती है.’’

‘‘यह तो एक किस्म का जुआ है. ठीक है, हम नमूना दोबारा परीक्षण के लिए केंद्रीय प्रयोगशाला में भेज देते हैं.’’  निर्धारित तिथि को लालाजी, एक पड़ोसी दुकानदार को बतौर जमानती, एक पूर्व नगर पार्षद को बतौर शिनाख्ती और नमूना दोबारा भिजवाने के लिए लकड़ी का खाली डब्बा, रुई का बंडल, सफेद कपड़े का टुकड़ा ले अदालत पहुंच गए.  पहले जमानत हुई. फिर नमूना भेजने की तारीख पड़ी. तारीख वाले दिन नमूना दोबारा सील कर केंद्रीय प्रयोगशाला में रजिस्टर्ड पार्सल द्वारा भेज दिया गया.  चपरासी अब फिर आया.

‘‘लालाजी, हमारे पास केंद्रीय प्रयोगशाला में इंतजाम है.’’

‘‘नहीं भाई, मुझे इंतजाम नहीं करवाना. नमूना फेल भी आ जाता है तो भी कोई बात नहीं. जब तक अदालत फैसला सुनाएगी मैं इस दुनिया से बहुत दूर जा चुका होऊंगा.’’  लालाजी के इस बेबाक जवाब पर चपरासी चला गया. दुकान में खापी रहे ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़े.

2 महीने बाद नतीजा आया. नमूना मिलावटी नहीं था. मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से कम थी जबकि राज्य प्रयोगशाला ने मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा बताई थी.  चार्ज की पेशी पर बहस हुई. माननीय न्यायाधीश ने दोनों प्रयोगशालाओं द्वारा दी गई अलगअलग परीक्षण रिपोर्टों के आधार पर लालाजी को संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया.  सारे सिलसिले में 7-8 महीने का समय लगा? और 12 हजार रुपए खर्च हुए. थोड़ी परेशानी तो हुई मगर लालाजी के नैतिक साहस और बेबाकी की सारे दुकानदारों और पड़ोसियों में चर्चा और प्रशंसा हुई.

Best Romantic Story : जीती तो मोहे पिया मिले हारी तो पिया संग

Best Romantic Story : सियाने टक बिजनैस स्कूल हैनोवर से एमबीए किया तो भारी पैकेज के साथ गूगल ने उसे अपने यहां नौकरी दे कर उस के वीजा को ऐक्सटैंड करवा दिया. अब कुछ दिनों के लिए वह इंडिया जा रही थी. मगर इतना कुछ हासिल करने के बावजूद सिया के चेहरे पर गमों के बादल मंडरा रहे थे. आंसुओं के बोझ से पलकें सूज गई थीं. यह भी इत्तफाक ही था कि ठीक 2 साल पहले ही दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनों से दूर होने का शोकाकुल मन इमिग्रेशन के लिए सिया के बढ़ते कदमों को बारबार पीछे खींच रहा था और आज वही मन उस से कितनी निर्दयता से आंखमिचौली करते हुए उसे आगे ही नहीं बढ़ने दे रहा था.

बोस्टन की गलियों में सैम की बांहों में बंधी वह अनमनी सी दिन भर घूमती रही. उस के मन में उमड़ रहे विरहवियोग के समंदर को शांत करता सैम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ले कर स्टैनफोर्ड के चप्पेचप्पे में उसे घुमाता रहा. सिया के दुबलेपतले नाजुक शरीर को अपनी बांहों में भरते हुए सैम भर्राए कंठ से बोला, ‘‘मुझे ऐसे छोड़ कर मत जाओ सिया, मैं तुम्हारे बिना किसी आईने की तरह टूट कर बिखर जाऊंगा… जिसे तुम जानती तक नहीं उसी की होने के लिए लौट रही हो और जिस ने तुम्हें प्राणों से बढ़ कर चाहा उसे छोड़ रही हो.’’

सैम का इतना कहना था कि सिया किसी लता की तरह उस से लिपट गई. दोनों की आंखों से सावनभादो बरस रहे थे. सैम ने बांहों में भरी सिया को ला कर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया. उसे आलिंगन में कसते हुए उस के अश्रुपूरित चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. सिया भी प्यार की इस बरसात में बिना किसी प्रतिवाद के भीगती रही. कभी न खत्म होने वाली जुदाई की घडि़यों से घबरा कर दोनों ने प्यार की मर्यादा की सरहद को पार कर लिया. दोनों को कहीं कोई पछतावा नहीं था. दोनों पूर्णता के एहसास में डूबउतरा रहे थे.

एकदूसरे को समर्पित हो कर दोनों का शोकाकुल मन ऊंची लहरों के जाने के बाद किसी समंदर की तरह शांत पड़ चुका था. परम संतुष्टि का एहसास संजोए अभीअभी शादी के बंधन में बंधे नए जोड़े की तरह दोनों घूमते रहे. मतवाला मन पंख लगा कर उड़ा जा रहा था. दोनों एकदूसरे में इतने खोए हुए थे कि हर बार उन की गाड़ी चारों ओर से घूम कर हाईवे पर आ कर रुक रही थी. यह बोस्टन शहर की अपनी विशेषता है.

सैम के गले में अपनी बांहों का हार पहनाते हुए सिया ने कहा, ‘‘सैम, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सारी जिंदगी इसी तरह गोलगोल घूमते रहें?’’ जवाब में सैम ने उसे बांहों में भर लिया. बड़ी जद्दोजहद के बाद दोनों ने अपने उतावलेपन पर काबू पाया. फिर सिया को बांहों में ही लिए भरे मन से सैम ने अपनी गाड़ी हवाईअड्डे की ओर मोड़ दी.

3 घंटे का रिपोर्टिंग टाइम बीत गया था. प्लेन के उड़ान भरने में घंटा भर रह गया था. सैम से गले मिल कर सिया सामान की ट्रौली के साथ झटके से आगे बढ़ तो गई मगर फिर उसी वेग से पीछे लौट कर सैम से लिपट गई. अश्रुपूरित नेत्रों से सिया ने सैम को बाय कहते हुए विदा ली. जब तक आंखों से वह ओझल नहीं हुई हाथ हिलाते हुए सैम उसे निहारता रहा. यह प्यार भी बड़ी खूबसूरत और अजीबोगरीब घटना होती है. जिस ने किया वह ठगा ही रह जाता है. कैसे प्यार के हजारों रंग मिल कर धनक बन कर, धड़कते दिलों में चुपके से उतर कर देश, जाति, धर्म, भाषा की सारी सरहदें चुटकियों में फांद जाते हैं.

‘उदास, बुझा हुआ सैम हैनोवर लौट रहा होगा,’ सोच सिया बेचैन हो उठी. 4 घंटे के सफर में उस के खयालों से शायद ही वह बाहर आ सकी. ‘यह भी बड़ा हसीन इत्तफाक है कि किसी दूसरे देश का वासी उस के सपनों का, अरे नहीं उस के जीवन का राजकुमार बन गया,’ सोच वह एक अजीब ठंड के एहसास से सिहर उठी. फिर शाल को ओढ़ते हुए सैम की छवि को कल्पना में साकार कर उठी कि काश, इस यात्रा में वह भी उस के साथ होता.

एक मीठी सी आह भर कर उस ने आंखें बंद कर लीं. सभी तरह से अनजान सैम चुपकेचुपके उस की धड़कन बन गया… 2 साल पहले के अतीत के सारे पन्ने 1-1 कर उस के समक्ष खुलते चले गए. डाइनिंगहौल में टेबल पर सजी केवल नौनवैज डिशेज को डबडबाई नजरों से देखती असहाय सी वैजिटेरियन सिया. सभी कितने आनंद से खाने का लुत्फ उठा रहे थे. सिया अपने कमरे में प्रवेश कर ही रही थी कि अचानक सैम वहां आ पहुंचा और फिर उसे डाइनिंगहौल में आने को विवश कर दिया.

बटर लगे ब्रैडपीस, दही और कुछ ताजे फलों के साथ सिया को प्लेट थमाई तो उस का मुरझाया चेहरा खिल उठा. दोनों के विषय एवं क्लासेज बिल्डिंग्स अलगअलग थीं फिर भी उस दिन के बाद से सैम उस की आवश्यकता बन कर उस की हर समस्या का समाधान बन गया. 1 साल बाद सभी स्टूडैंट्स होस्टल से बाहर कौटेज ले कर रहते हैं. 3 लड़कियों के साथ सिया के रहने की व्यवस्था सैम ने ही की. सिया के पैसे कम से कम खर्च हों, सैम को हर समय इस की चिंता रहती थी. उस भयानक रात को सिया कैसे भूल सकती है जब बर्फ का तूफान आया था. सारा हैनोवर अंटार्टिका बन गया था. बिजली के जाने से सब कुछ ठप हो गया था. आवागमन के सारे रास्ते बंद हो चुके थे.

इतनी ठंड और बर्फ की परवाह न करते हुए सैम सिया के खानेपीने के सामान के साथ उस के कौटेज आ गया था. उस तूफानी रात को सिया ने सैम को रोक लिया था. उस अंधेरी रात को दोनों ने टौर्च की रोशनी में बिताया था. बिजली की हर गरजना के साथ वह सहम कर सैम की हथेलियों को थाम लेती थी. ऐसा देश जहां सैक्स को भी और चीजों की तरह शारीरिक आवश्यकता समझा जाता है, उसी देश के एक फरिश्ते ने उसे आगोश में बांधे सारी रात गुजार दी पर कहीं असंयमित नहीं हुआ… मर्यादा की सीमा नहीं लांघी.

2 हफ्ते पहले सैम सिया को न्यूजर्सी ले गया था. ‘फारमर्स सन औफ गार्डन सिटी’ का कह कर स्वयं का परिचय देने वाले सैम के महल को सिया अपलक देखती रह गई. दरवाजे पर खड़ी चमचमाती 3-3 गाडि़यां, थोड़ी दूरी पर पार्क किया रिक्रीएशन व्हीकल, जो एक तरह से सारी सुविधाओं से सजा मोबाइल घर होता है, ट्रैक्टर, खेती करने के सारे औजार, स्टैबल में बंधे श्वेतश्याम रंग के तगड़े घोड़े, मुरगीखाना आदि को देख कर सिया को अपने देश के दीनहीन, भूखे किसान और उन के नंगधडं़ग बच्चे याद आ गए. कैसे लुटेरों के हाथों में देश चला गया है कि दिनोंदिन गरीबीबेकारी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है. सैम के मम्मीडैडी ने सिया को गले लगा कर प्यार किया. तीनों दिन तक उस की सुखसुविधा का खयाल अच्छी तरह रखने के लिए सैम को आगाह करते रहे. पर रात तक वे नीचे के लिविंग रूम में बैठ कर मूवी देखते रहते और फिर दोनों कितनी शालीनता से गुड नाइट कह अपनेअपने रूम में चले जाते. कोई ताकझांक नहीं.

राबर्ट वुड हौस्पिटल में मैडिसिन की पढ़ाई कर रही सैम की बहन एलिस भी मैमोरियल डे की छुट्टी पर घर आ गई थी. सिया और सैम को देख हंस कर उस ने परफैक्ट पेयर कहा. उस ने सिया को ढेर सारे परफ्यूम, लिपस्टिक और नेलपौलिश दी. सैम की मां ने भी फेयरी जैसे श्वेत परिधान के साथ धवल मोतियों का सैट मुसकराते हुए अंगरेजी में यह कहते हुए सिया को दिया, ‘‘सैम, तुम्हें बहुत चाहता है… हमेशा सुखी व खुश रहो.’’ सिया ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें देखा और फिर अपनी मिट्टी की परंपरा को निभाते हुए उन के पैरों को छू लिया. मैमोरियल डे के दिन सैम उसे न्यूयौर्क सिटी घुमाने ले गया. पूरा दिन दोनों एकदूसरे में बंधे घूमते रहे.

उस दिन हडसन नदी में अनगिनत बड़े जहाज आए थे. उन जहाजों पर कहीं विमान उतर रहे थे तो कहीं उड़ रहे थे जिन्हें देख कर सिया किसी बच्ची की तरह चहक उठी थी. सारे दर्शनीय स्थल देख कर दोनों थक गए थे. टाइम्स स्क्वायर में सड़क के किनारे बनी गैलरी में बैठ कर दोनों ने थिएटर का आनंद उठाया. वहीं पास के रेस्तरां में डिनर ले कर रौक फेलर सैंटर की विपरीत दिशा में बनी लोहे की बैंच पर बैठ गए.

रात को जब सिया को ठंड लगने लगी तो सैम ने उसे अपनी जैकेट के अंदर ले लिया. दोनों यों ही बैठे एकदूसरे के दिलों की धड़कनें सुनते रहे. सैम की उंगलियां जब सिया के बदन पर बिजली का करंट बन कर प्रवाहित होने लगीं तो वह जैकेट से बाहर आ गई. बड़ी मुश्किल से अपने बेताब मन को समझा सकी. ‘‘यू इंडियन बेबी,’’ कहते हुए सैम ने हंस कर उसे पास खींच लिया.

सड़क किनारे पार्किंग में लगी गाड़ी में दोनों ने सारी रात गुजारी थी. बहकते मन पर काबू पाना कितना मुश्किल लगा था.

मैसी मौल से सिया ने अपने मम्मीपापा, दिव्या व दिया के लिए ड्रैसेज लीं. उस के लाख मना करने के बावजूद सैम ने उन लोगों के लिए कितने उपहार खरीद दिए थे. सिया को तो उस ने अपनी पसंद की सारी चीजों से ढक दिया था.

आज जो भी घटित हुआ वह अचानक था, फिर भी कितना तसल्ली दे गया है मन को. जिसे मन से चाहा उस की समर्पिता भी हो गई. क्या हुआ जो अगर उस के म्ममीपापा अपनी सोच और पारिवारिक मर्यादा के लिए सैम को उस के जीवन में नहीं ला सके. वह अपने होंठों को सी लेगी. उफ तक नहीं करेगी. उन की इच्छा का मान रखते हुए वह राज से ब्याह कर लेगी. प्रीत की गली इतनी संकरी होती ही है कि जहां 2 दिल ही मुश्किल से समाते हैं तो तीसरे के समाने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है. इस तन पर राज का अधिकार क्यों न हो जाए दुलहनियां तो सैम की ही रहेगी. अपनी समस्त पीड़ा को, मीठी कसक को आंसुओं से नहला आनंद उगा लेगी. जिस ने भी सच्ची प्रेम पगी इस चुनर को ओढ़ा उस के अंतर में ‘एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए…’ के बोल प्रतिध्वनि हो उठे.

अतीत को खंगालने में सारा समय सिया ने आंखों में ही बिता दिया. देह की सिहरन उसे आनंद की चरम सीमा पर ले आई थी. बीते पलों की खुमारी उसे खुल कर सांसें भी नहीं लेने दे रही थी. सैम तो नहीं पर उस के परिमल को अपने साथ ले कर आई थी जिसे महसूस कर के उस के प्रेम का मधु पी कर सच में बौरा उठा था सिया का कणकण. जहाज की लैंडिंग की घोषणा हो रही थी.

जैसे ही सिया हवाईअड्डे से बाहर आई दोनों छोटी बहनें दिव्या और दिया दौड़ कर उस से लिपट गईं. मम्मीपापा की छलक आई आंखों को देखते ही वे दौड़ कर दोनों से लिपट गई. ‘‘मां देखो न दीदी कितनी खिल गई है… राज जीजू कितने खुश होंगे दीदी को देख कर… दीदी की उपलब्धियों पर उन्हें कितना गर्व होगा,’’ दिव्या बोली.

‘‘अच्छा तो बड़ी बातें बनाने लगी है तू,’’ कहते हुए सिया बुदबुदाई, ‘‘अरे बावरी सैम जीजू कह.’’

दूसरे दिन ही राज अपने मम्मीपापा के साथ सिया के घर आ गया. उसे देख कर सिया खुश नहीं हुई तो उसे दुख भी नहीं हुआ. सब कुछ उस ने अपनी नियति पर छोड़ दिया था. उस के मम्मीपापा तो उन के समक्ष छिपे जा रहे थे. उन्होंने सिया की टक स्कूल की उपलब्धियों को उन्हें बताया जिन्हें सुन कर वे चुप हो गए. औपचरिकता के लिए भी उन्होंने सिया को बधाई नहीं दी. एकांत पाते ही राज ने सिया के समक्ष अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा, ‘‘सुना है अमेरिका में लोग खुलेआम कहीं भी, किसी से भी सैक्स ऐंजौय कर लेते हैं… इतने लंबे समय में तुम ने कभी इस का आनंद लिया या नहीं? अगर नहीं लिया तो तुम परले दर्जे की बेवकूफ हो.

‘‘और कुछ नहीं तो लिप किस तो अवश्य दिया होगा जिसे कोई भी गले लगाते समय अंकित कर के होंठों पर मुहर लगा ही देता है. मुझे नहीं लग रहा है कि तुम इन सब से स्वयं को बचा पाई होगी. क्यों ठीक कहा न? कोई बात नहीं, जब मैं वहां जाऊंगा तो सूद सहित इस की भरपाई कर लूंगा,’’ कहते हुए उस ने सिया की उंगलियों को भींच दिया. दर्द से सिया के मुंह से कराह निकल गई. राज की ओछी मानसिकता पर, उस की गिरी सोच पर घृणा से सिया उस से हाथ छुड़ा कर भागी. कितना फर्क है सैम और राज की छुअन में… एक की जरा सी छुअन सारी ऋतुओं को पल भर में ही पावस और वसंत बना कर रख देती है तो दूसरे के स्पर्श से अनगिनत बिलबिलाते कीड़े उस के शरीर पर रेंग गए… कैसे इस लिजलिजे व्यक्ति के साथ अपना जीवन बिता पाएगी…

इंगेजमैंट से ले कर शादी का सारा इंतजाम सिया के पापा को करना था और ये सब किसी पांचसितारा होटल में होने की बात कह कर उन लोगों ने विदा ली. फेसटाइम कर के सिया ने सारी बातें सैम को बता कर अपने मन को हलका कर लिया था. जैसेजैसे इंगेजमैंट के दिन निकट आ रहे थे, राज के यहां से फरमाइशों की लिस्ट में कोई न कोई नई आइटम जुड़ती जा रही थीं. सिया के पापामम्मी चिंतित से लग रहे थे. उन की खुशियों का दायरा सिमटता जा रहा था.

जब उन्होंने कार की मांग रखी तो सिया के पापा उबल पड़े, ‘‘नहीं करनी हमें सिया की शादी इन लालचियों के यहां. मेरी प्रतिभाशाली बेटी के समक्ष कुछ भी तो नहीं है राज… एक मामूली इंजीनियर जो मेरी बेटी के बल पर अमेरिका जाएगा, फिर इस की मेहरबानियों से एच4 वीजा पर नौकरी करेगा.’’ ‘‘सच पापा,’’ कह कर सिया उन के गले लग गई.

तभी खुसरो की पंक्तियां उस के कानों में रस घोल गईं. ‘‘खुसरो बाजी प्रेम की लागी पी के संग, जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग.’’

मारे खुशी के वह पूरी रात सैम से बातें करती प्रेम रस में भीगती रही. सैम से सभी आश्वासन पा कर सिया ने अगले दिन सैम के इतिहास से सभी घर वालों को अवगत करा दिया, जिसे सुन कर सभी सैम के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए. फिर क्या था, फेसटाइम पर सैम से सभी ने जी खोल कर बातें कीं. सैम के आकर्षक व्यक्तित्व और शालीनता ने सभी को मोह लिया.

बेटी के शानदार चयन पर गौरवान्वित हो पापा और मम्मी की आंखें भर आईं. दिव्या व दिया भी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करेंगी. सैम से आश्वासन पा कर सभी भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गए. सिया के लिए तो खुशियों की कायनात ही जमीं पर उतर आई थी. जो इश्क आसान नहीं था उसे सिया के धैर्य और अटल विश्वास ने प्राप्त कर लिया था. मीरा बन कर सैम की जोगिन तो हमेशा रहेगी तभी रुक्मिणी और सत्यभामा के जीवन को जी पाएगी.

3 हफ्ते के भीतर सैम अपने परिवार के साथ इंडिया आ गया. पहले रजिस्टर्ड मैरिज और फिर छेड़छाड़ वाली भारतीय परंपराओं वाली ऊटपटांग रस्मों व रिवाज से खूब धूमधाम से शादी हुई. भारतीय दूल्हा बना सैम सब का दुलारा बना हुआ था. उस की मम्मी, पापा और बहन की खुशियां सिया समेट नहीं पा रही थी. श्वेत परिधान और हीरेमोतियों के जेवरों से चमचमाती सिया और सैम के परिवार आपस में जुड़ गए. कहीं जाति, धर्म, देश का आडंबर नहीं था. एकदूसरे के घर के तौरतरीकों को मानसम्मान देते हुए दोनों परिवार खिल उठे थे.

फिर सैम और सिया ने अपना हनीमून अपने परिवार वालों के साथ भारत के सारे दर्शनीय स्थानों को घूमघूम कर मनाया. पंख लगा कर छुट्टी के दिन गुजर गए. अगले हफ्ते ही सिया और सैम को अपनी ड्यूटी जौइन करनी थी. हजारों खूबसूरत सपनों को पलकों में सजाए खुशी के आंसुओं को दामन में समेटे सिया वहां लौट गई जहां एक नया सूर्योदय उस के जीवन को आलोकित करने के लिए बेचैन था.

Box Office : मंजिल की तलाश में अजय देवगन की ‘रेड 2’

Box Office : अजय देवगन की फिल्म ‘रेड 2’ रिलीज हो गई है मगर जिस तरह की कमाई की उम्मीद की जा रही थी वह हुई नहीं है.

हम तो डूबेंगे,सनम तुम्हें भी लें डूबेंगे. यह बात किस ने किस से कही, पता नहीं. मगर 2025 में बौलीवुड के अंदर सभी एकदूसरे को डुबाने पर आमादा हैं. तो वहीं करा जोहर चिल्ला रहे हैं कि उन्हें किसी भी नेपोकिड को आगे बढ़ाने से कोई नहीं रोक सकता. उन के इस बयान पर लोग आगे जोड़ रहे हैं -भले ही फिल्म इंडस्ट्री का खात्मा हो जाए. इसी बीच अजय देवगन के 15 वर्षीय बेटे युग देवगन की भी इंट्री हो गई है और अपने बेटे को लौंच करने के लिए खुद अजय देवगन अपने बेटे युग के साथ एक मंच पर यानी कि फिल्म ‘कराटे किडः लीजेंड्स’ के हिंदी वर्जन के ट्रेलर लांच पर अवतरित हुए.

बौलीवुड के अंदर जब यह माहौल हो, तभी मई माह के पहले सप्ताह एक मई को अजय देवगन की फिल्म ‘रेड 2’ रिलीज हुई. जो कि 2018 की सफलतम फिल्म ‘रेड’ की सीक्वअल है. पहले सप्ताह रो धो कर इस फिल्म ने 96 करोड़ रुपए एकत्र किए थे.

दूसरे सप्ताह यानी कि 9 मई को कोई नई फिल्म रिलीज ही नहीं हुई. तो ‘रेड 2’ के खुला मैदान मिल गया. इस के बावजूद दूसरे सप्ताह में इस फिल्म ने पहले सप्ताह के मुकाबले 50 प्रतिशत भी एकत्र नहीं किए. सकनिल्क के अनुसार दोनों सप्ताह का मिला कर कुल 16 दिन में इस फिल्म ने केवल 136 करोड़ रुपए ही एकत्र किए. इस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 45 करोड़ रुपए ही जाएंगे. यह हालत तब है जब फिल्म की पीआर टीम के साथ ही खुद समोसा क्रिटिक्स व कई इन्फ्लुएंसर सोशल मीडिया पर ‘रेड 2’ की सफलता के हवाई किले बनाते रहे.

मजेदार बात तो यह है कि अजय देगवन के मालिकाना हक वाले सभी मल्टीप्लैक्स तो हाउस फुल दिखाए जाते रहे पर अंदर जा कर किसी को चेक करने की इजाजत नहीं मिली. निर्माता इतना डरे हुए हैं कि वह फिल्म ‘रेड 2’ का बजट बताने को तैयार नहीं हैं और तो और इसी बीच फिल्म ‘कराटे किड लीजेंड्स’ के हिंदी वर्जन के ट्रेलर लांच की प्रैस कौंफ्रैंस हुई, जहां अजय देवगन और उन के बेटे युग देवगन ने मीडिया के सामने एंकर के सवालों के जवाब दिए.

पत्रकारों को तो अब सवाल करने का हक नही रहा. जी हां! इस का फायदा ‘रेड 2’ को नहीं मिला. वैसे ‘कराटे किड लीजेंड्स’ अंग्रेजी, हिंदी, तमिल व तेलुगु भाषा में 30 मई को रिलीज होगी. इस फिल्म के हिंदी वर्जन में अजय देवगन और युग ने अलगअलग किरदारों के लिए वोयस ओवर किया है. तो एक और नेपोकिड की एंट्री हो गई है.

 

Emotional Story : मन बयार – हैरी की पुरानी तस्वीर को देखते हुए लोगों ने क्या कहा

Emotional Story : खिड़की के बाहर नए देवदार… लंबे और पूरी तरह विकसित… बराबर के घर को बाहरी दृष्टि से बचाते हुए… अभी हाल में रोपे गए हैं. अपने किसी पुराने ठांव से निकाल कर उन्हें काफी गहरा गड्ढा खोद कर यहां लगाया गया है. उन की जड़ों में पुरानी मिट्टी चिपकी रहने दी है, जिस का स्पर्श उन्हें सुरक्षा का आभास देता रहे कि वह पूरी तरह से बेघर नहीं हुए हैं.

कहीं बहुत दूर अंधेरी सड़क पर भागती गाड़ियों की बत्तियां, सड़क को रोशनी और अंधेरे के खेल में अपना भागीदार बना रही हैं. खिड़की के बाहर दिखती है एक छोटी झील… सर्दियों में जब पानी जम जाएगा… सफेद बर्फ जैसा तो बच्चे वहां स्केटिंग करने निकलेंगे और यह शांत बैकयार्ड उन के शोर से भर जाएगा.

दोपहर का सूरज बहुत चमकीला है. पेड़ों और पानी पर पड़ती उस की तीखी रोशनी हवा के साथ लगता है नाच रही हो. एक साफ धूप… नीले आसमान पर इक्कादुक्का बादलों के मुलायम रूई जैसे चकत्ते… भ्रम होता है कि मौसम सुहाना होगा… कुनकुनी गरमाहट से भरा. पर यह सब एक मरीचिका जैसा था… जादुई यथार्थ… बाहर मौसम 3-4 डिगरी सैंटीग्रेड होगा. चुभती ठंडी हवा एक मिनट में फेफड़ों को निष्क्रिय करने के लिए काफी थी. दरवाजे और खिड़कियां सभी बंद हैं. घर का तापमान बढ़ाया हुआ है… इस महीने बिजली का बिल जरूर बढ़ा हुआ आएगा.

घर के अंदर तो अकेलापन है ही, बाहर भी निष्क्रियता का सन्नाटा पसरा है. सामने की सड़क एकदम सूनी है. अब तो सड़क भी जान गई है कि कोई नहीं आएगा.

घर में दूध खत्म है. काली कौफी या चाय क्या पाऊं? हिम्मत नहीं थी कि महामारी के इन दिनों में, इस उम्र में गाड़ी निकालूं और एक मील दूर स्टोर से दूध ही ले आऊं. दूध के लिए जाऊंगी तो कुछ और भी याद आ जाएगा. क्याक्या लाना है. मन ही नहीं करता कुछ करने का…

याद आया, 15 दिन हो गए, कोई ग्रोसरी नहीं लाई हूं. बहुत लोग औनलाइन सामान मंगा रहे हैं… अब मुझे भी ऐसा ही करना होगा. ग्रोसरी के बहाने घर से बाहर तो निकलती हूं. अब तो वह सब भी नहीं हो रहा. अनमनी सी उठती हूं… ब्लैक कौफी ही सही. एक सैंडविच बनाऊं… कुछ चीज पड़ा है… एक डब्बे में मैं ने सलामी देखी थी 2 दिन पहले… याद नहीं कि मैं ने खाई हो. थोड़ा टमाटर तो होगा ही…. हेलीपिनो पेपर डाल कर बढ़िया सैंडविच बनेगा.

मैं उत्साहित हो उठी. सारा सामान मिल गया. कौन अवन में रखे, ऐसे ही ठीक रहेगा. किचन काउंटर पर इतना सामान बिखरा है… एक दिन सफाई करनी होगी. अभी तो अपनी प्लेट और कौफी मग के लिए जगह बनाती हूं. कई डब्बे तो खाली हैं फैंके तक नहीं मैं ने. कूड़ेदान भर गया है ऊपर तक… एक हफ्ते से पुराना कूड़ा… मैं बाहर निकलती तो फेंकती. बुधवार को कूड़े का ट्रक आ कर चला गया. सुबह मैं सोती रही और मंगलवार को गारबेज बाहर निकालना भूल गई… अब एक हफ्ते की छुट्टी. बाहर का बड़ा ड्रम भरा नहीं होगा. किचन का कूड़ा तो बाहर फेंक ही सकती हूं. कैसे आलस्य ने मेरे मनमस्तिष्क, शरीर सब को जकड़ लिया हो जैसे. खुद को धक्का दे कर उठाती हूं. कौफी के बड़ेबड़े घूंट और सैंडविच के छोटेछोटे बाइट के बीच मैं ने निर्णय लिया कि विंड चीटर पहनूं और रसोई का कूड़ा तो बाहर फेंक ही आऊं.

हैरी को गए हुए 6 महीने हो चले. जाना तो मुझे था. कैंसरमुक्त हूं तो क्या… पर इम्यूनिटी तो मेरी लो होनी चाहिए. नकारात्मकता और डर तो मेरे दिमाग में है. हैरी तो कितने खुशमिजाज जिंदगी से भरपूर थे… मौत के खयाल से कोसों दूर और मै तो हमेशा डरी रहती कि कहीं कैंसर दोबारा न आ जाए.

हैरी की यह फोटो मैं ने एक पुराने एलबम से निकाली है. मैरून टाई, सफेद शर्ट और तिरछी पहनी गई हलकी नीली कैप. घनी मूंछों के बीच एक नटखट मुसकान. कैसे आराम से चला गया हैरी. 5 दिन का बुखार और कोविड का हमला सीधे दिल पर. 20 साल पहले हार्ट अटैक के बाद बाईपास हुआ था… अब तक सबकुछ आराम से चल रहा था.

कहते हैं, मौत कोई न कोई वजह ढूंढ़ लेती है… यह नई बीमारी हैरी की मौत का कारण बनी. मौत ने हैरी को चुना. मेरी बारी जब तक नहीं आती तब तक तो मुझे जीना ही है.

मैं ने जैकेट पहनी. किचन सिंक के नीचे सड़ांध मारते गारबेज बैग को निकाला और बड़े ड्रम में उछाल कर फेंक दिया. अच्छा हुआ कि ड्रम का ढक्कन मैं बंद करना भूल गई थी… मुझे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा.
अंदर आ कर फिर एक ब्लैक कौफी बनाई. फोन पर रिमाइंडर सैट किया. कूड़ा मंगलवार को बाहर रखने के लिए… मन में खत्म हुई चीजों की लिस्ट बनाने से अच्छा है फोन पर लिख लूं. फोन खोला तो व्हाट्सएप पर नजर गई… अरे, विली का मैसेज है. कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर मिला था. भला आदमी लगता है. काइंड और सैंसेटिव. हम दोनों की संगीत और किताबों की पसंद बहुत मिलती है. उसे पहाड़ पसंद हैं… मुझे भी… कितनी छोटीछोटी बातें हैं… जैसे बसंत में खिलते रंगबिरंगे डैफोडिल या पतझड़ के तांबई या गहरे पीले पत्ते… मीलों गाड़ी चला कर वह मिनेसोटा के फाल कलर्स देखने जाता. उसी ने बताया कि वह आजकल सिंगल है. तलाकशुदा या विधुर मैं ने जानने की कोशिश नहीं की. अपने रखरखाव को ले कर वह काफी सतर्क है. मुझे ढीलेढाले लोग कभी पसंद नहीं आए. हैरी की तरह विली भी अच्छी चीजों का शौकीन है. जीवन के हर पल को पूरी तरह जीने की चाहत से भरा. उस का उत्साह मुझे भी छूने लगा था और मैं कोशिश करती कि मैं भी जीवन को एक उत्सव समझूं और अपने अवसाद से बाहर निकलूं.

फिलहाल, विली की बातों में कितनी सचाई है, इन सब पचड़ों में मैं नहीं पड़ना चाहती, भले ही इस आभासी दुनिया का एक पात्र हो वह, पर अभी तो उस से बात करना मुझे अच्छा लगता है… उस की आवाज मेरे अकेलेपन में गूंजती मुझे एक नासमझ सी खुशी देती. चलो पहले उस के मैसेज का जवाब दूं. औनलाइन हुआ तो बातों का अंत नहीं.

मेरे पास भी तो पूरी दोपहर है… मेरा लंच हो ही गया है. कैथी का फोन शाम को आएगा… औफिस से लौटते समय, “कैसी हो मौम? ज्यादा बाहर तो नहीं निकलतीं?”

हर रोज फोन करती है कैथी. अब तो आरन भी हफ्ते में एक बार फोन करने लगा है. पर अभी तो विली का मैसेज देखती हूं. और यकायक मैं एक छोटी लड़की की तरह हंस रही थी विली के फौरवर्ड पर.

बाहर एक गाड़ी तेजी से सन्नाटे को चीरती निकल गई. मैं ने विली के लिए मैसेज टाइप कर दिया था और उस के उत्तर की प्रतीक्षा में थी.

लेखिका : शोभा नारायण

Social Story : खौफ के साए – अर्दली को किस चीज की जरुरत थी?

Social Story : मैं अपने चैंबर में जैसे ही दाखिल हुआ, तो वहां 2 अजनबी लोगों को इंतजार करते पाया. उन में से एक खद्दर के कपड़े और दूसरा पैंटशर्ट पहने हुए था.

मैं ने अर्दली से आंखों ही आंखों में सवाल किया कि ये कौन हैं?

‘‘सर, ये आप से मिलने आए हैं. इन्हें आप से कुछ जरूरी काम है,’’ अर्दली ने बताया.

‘‘मगर, मेरा तो आज इस समय किसी से मिलने का कोई कार्यक्रम तय नहीं था,’’ मैं ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘साहब, हमें मुलाकात करने के लिए किसी से समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती. आप जल्दी से हमारी बात सुन लें और हमारा काम कर दें,’’ खद्दर के कपड़े वाले आदमी ने रोब से कहा.

‘‘मगर, अभी मेरे पास समय नहीं है. अच्छा हो कि आप कल दोपहर 12 बजे का समय मेरे सैक्रेटरी से ले लें.’’

‘‘पर, हमारे लिए तो आप को समय निकालना ही होगा,’’ दूसरा आदमी जोर से बोला.

‘‘आप कौन हैं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘मैं अपनी पार्टी का मंत्री हूं. जनता की सेवा करना मेरा फर्ज है,’’ खद्दर वाले आदमी ने कहा.

‘‘और मैं इन का साथी हूं. समाज सेवा मेरा भी शौक है,’’ दूसरा बोला.

मैं ने उन्हें गौर से देखा और सोचने लगा, ‘अजीब लोग हैं… मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तरह बिना इजाजत लिए दफ्तर में घुस आए और अब मुझ पर रोब झाड़ रहे हैं. इन के तेवर काफी खतरनाक लग रहे हैं. ये आसानी से टलने वाले नहीं लग रहे हैं. क्या मुझे इन की बात सुन लेनी चाहिए?’

मुझे चुप देख कर पैंटशर्ट वाले आदमी ने कहा, ‘‘साहबजी, परेशान न हों. हमें आप से एक सर्टिफिकेट चाहिए. मेरी बहन को इस की सख्त जरूरत है. एक खाली जगह के लिए अर्जी देनी है. इस सर्टिफिकेट से उस की नौकरी पक्की हो जाएगी.’’

‘‘यह तो मुमकिन नहीं है. जब उस ने हमारे यहां काम ही नहीं किया है, तो मैं उसे सर्टिफिकेट कैसे दे सकता हूं? यह गलत काम मुझ से नहीं हो सकेगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘सर, आजकल कोई काम न तो गलत है और न सही. समाज में रह कर एकदूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है. कीमत ले कर सब मुमकिन हो जाता है. आप को जो चाहिए, वह हम हाजिर कर देंगे.

‘‘यह देखिए, टाइप किया हुआ सर्टिफिकेट हमारे पास है. बस, इस पर आप के दस्तखत और मुहर चाहिए,’’ नेता टाइप आदमी ने कहा.

‘‘मैं ने कभी किसी को इस तरह का झूठा सर्टिफिकेट नहीं दिया है. आप किसी और से ले लो,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मगर, हमें तो आप से ही यह सर्टिफिकेट लेना है और अभी लेना है. बुलाइए अपने सैक्रेटरी को.’’

‘‘यह कैसी जोरजबरदस्ती है. आप लोग मेरे दफ्तर में आ कर मुझे ही धमका रहे हैं. आप को यहां आने के लिए किस ने कहा.

‘‘बेहतर होगा, अगर आप यहां से चले जाएं और मुझे मेरा काम करने दें. अभी यहां एक जरूरी मीटिंग होने वाली है,’’ यह बोलते हुए मैं कांप रहा था.

‘‘सोच लो साहब, एक लड़की के कैरियर का सवाल है. हम भी कभी तुम्हारे काम आ सकते हैं. आजकल हर बड़े आदमी को सियासी लोगों के सहारे की जरूरत पड़ती है.

‘‘अगर तुम ने हमारी बात न मानी, तो फिर हम तुम्हें चैन से बैठने नहीं देंगे. हमें तुम्हारे घर से आनेजाने का समय मालूम है और बच्चों के स्कूल जाने के समय से भी हम अच्छी तरह वाकिफ हैं,’’ उन की ये धमकी भरी बातें मेरे कानों पर हथौड़े मार रही थीं. मेरा सिर बोझिल हो गया. बदतमीजी की हद हो गई. ये तो अब आप से तुम पर आ गए. क्या किया जाए? क्या पुलिस को खबर कर दूं, पर उस के आने में तो देर लगेगी. फिर कुछ देर बाद हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘तुम लोग मुझे धमका कर गैरकानूनी काम कराना चाहते हो. मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा,’’ मैं ने घंटी बजा कर सैक्रेटरी को बुलाना चाहा. इस पर उन में से एक गरजा, ‘‘शौक से कराओ रिपोर्ट, लेकिन तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. थानेचौकी में तो हमारी रोज ही हाजिरी होती है.’’

इन लोगों की ऊंची आवाजों से दफ्तर में भी खलबली मच गई थी.

‘‘सर, क्या सौ नंबर डायल कर के पुलिस को बुलवा लूं?’’ सैक्रेटरी ने आ कर धीमे से पूछा.

‘‘नहीं, अभी इस की जरूरत नहीं है. तुम मीटिंग की तैयारी करो. मैं इन्हें अभी टालता हूं.’’

मैं फिर पानी पी कर और अपनी सांस को काबू में कर के उन की तरफ मुड़ा. अब मुझ पर भी एक अनजाना खौफ हावी था कि क्या होगा? कमरे के बाहर मेरा अर्दली सारी बातें सुन कर मुसकरा रहा था. उस के मुंह से निकला, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. सिट्टीपिट्टी गुम हो गई साहब की. 2 गुंडों ने सारा रोब हवा कर दिया.’ फिर वे दोनों उठ कर खड़े हो गए और जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘अगर हमारा काम नहीं किया, तो पछताओगे. यहां से घर जाना मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए. निशान तक नहीं मिलेगा, समझे.’

‘‘तुम लोग जो चाहे कर लेना, मगर मैं गलत काम नहीं करूंगा,’’ मैं ने भी आखिरी बार हिम्मत कर के यह वाक्य कह ही दिया.

‘अच्छा तो ठीक है. अब हम तुम्हारे घर शाम के 6 बजे आएंगे. सर्टिफिकेट टाइप करा कर लेते आना और मुहर भी साथ में लेते आना, वरना अंजाम के तुम खुद जिम्मेदार होगे,’ वे जाते हुए जोर से बोले.

मेरे मुंह से मुश्किल से निकला, ‘‘देखा जाएगा.’’ वे कमरे से बाहर चले गए थे, मगर मैं अपनी कुरसी पर बैठा खौफ से कांप रहा था कि अब क्या होगा? बाहर मेरा स्टाफ हंसीमजाक में मस्त था.

‘‘कल साहब दफ्तर नहीं आएंगे. घर पर रह कर उन गुंडों से बचने की तरकीबें सोचेंगे और हम मौजमस्ती करेंगे,’’ एक क्लर्क ने कहा.

तभी अर्दली ने अंदर आ कर पानी का गिलास रखते हुए पूछा, ‘‘चाय लाऊं, साहब?’’

‘‘नहीं… अभी नहीं.’’

मैं ने घड़ी देखी, तो दोपहर का डेढ़ बजने वाला था यानी लंच का समय हो गया था. मैं ने सैक्रेटरी को बुला कर मीटिंग टलवा दी और अपनी हिफाजत की तरकीबें सोचने लगा, ‘जब तक बड़े साहब से बात न कर लूं, पुलिस में रिपोर्ट कैसे कराऊं. वे दौरे पर बाहर गए हैं, 2 दिन बाद आएंगे, तभी कोई कार्यवाही की जा सकती है.

‘अब सरकारी दफ्तरों में भी गुंडागर्दी फैलनी शुरू हो गई है. डराधमका कर गलत काम कराने, अफसरों को फंसाने और ब्लैकमेल करने की साजिशें हो रही हैं. हम जैसे उसूलपसंद लोगों के लिए तो अब काम करना मुश्किल हो गया है,’ सोचते हुए मेरी उंगलियां घर के फोन का नंबर डायल करने लगीं.

मैं ने बीवी से कहा, ‘‘सतर्क रहना और बच्चों को घर से बाहर न जाने देना. हो सकता है कि शाम को मेरे घर पहुंचने से पहले कोई घर पर आए. कह देना, साहब घर पर नहीं हैं.’’

‘‘पर, बात क्या है, बताइए तो सही?’’ बीवी ने मेरी आवाज में घबराहट महसूस कर के पूछा.

‘‘कुछ नहीं, तुम परेशान न हो. मैं समय पर घर आ जाऊंगा. गेट अंदर से बंद रखना.’’ फिर मैं ने अपने दोस्त धीर को फोन कर के सारी घटना उसे बता दी और उसे घर पर पूरी तैयारी से आने को कहा. ठीक साढ़े 5 बजे मैं दफ्तर से घर के लिए अपनी गाड़ी से चल दिया. मेरे साथ अर्दली और क्लर्क भी थे. वे लोग जिद कर के साथ हो लिए थे कि मुझे घर तक छोड़ कर आएंगे. उन की इच्छा को मैं टाल भी न सका. सच तो यह है कि उन की मौजूदगी ने ही मेरी हिम्मत बढ़ा दी. रास्ते भर मेरी नजरें इधरउधर उन बदमाशों को ही तलाशती रहीं कि कहीं किसी तरफ से वे निकल न आएं और मेरी गाड़ी रोक कर मेरे ऊपर हमला न कर दें.

मैं ठीक 6 बजे घर पहुंच गया. वहां सन्नाटा छाया था. मैं ने दरवाजे की घंटी बजाई.

अंदर से सहमी सी आवाज आई, ‘‘कौन है?’’

‘‘दरवाजा खोलो. मैं हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ देर बाद मेरी आवाज पहचान कर बीवी ने दरवाजा खोला.

‘‘तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आप के फोन ने मुझे चिंता में डाल दिया था. फिर 2 फोन और आए. कोई आप को पूछ रहा था कि क्या साहब दफ्तर से आ गए? आखिर माजरा क्या है?’’ बीवी ने पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं.’’

‘‘अगर कुछ नहीं है, तो आप के चेहरे पर खौफ क्यों नजर आ रहा है और आवाज क्यों बैठी हुई है?’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और बैग मेज पर रख कर अंदर सोफे पर लेट गया. कुछ ही देर में धीर भी आ गया. उस ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यार, घबराओ नहीं. मैं ने सब बंदोबस्त कर दिया है. अब वे तुम्हारे पास कभी नहीं आएंगे. हमारे होते हुए किस की हिम्मत है कि तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ सके.

‘‘रात में यहां 2 लोगों की ड्यूटी निगरानी के लिए लगा दी है. वे यहां का थोड़ीथोड़ी देर बाद जायजा लेते रहेंगे.’’

‘‘जरा तफसील से बताओ कि तुम ने क्या इंतजाम किया है?’’ मैं ने धीर से कान में फुसफुसा कर पूछा.

धीर ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं उस खद्दरधारी बाबूलाल के ठिकाने पर हो कर आ रहा हूं. उसी के इलाके का एक दादा रमेश भी मेरे साथ था.

‘‘रमेश ने बाबूलाल को देखते ही कहा, ‘हम तो साहब के घर पर तुम्हारा इंतजार कर रहे थे और तुम यहां मौजूद हो.’

‘‘बाबूलाल रमेश को देख कर ढेर हो गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. फिर माफी मांगते हुए वह बोला, ‘साहबजी, मुझ से गलती हो गई, जो मैं आप के दोस्त के दफ्तर चला गया और उन को धमका आया. उमेश ने मुझ पर ऐसा काम करने का दबाव डाला था. मैं उस की बातों में आ गया था. अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी.’

‘‘आज के जमाने में सेर पर सवा सेर न हो, तो कोई दबता ही नहीं है. जब उसे मेरी ताकत का अंदाजा हो गया, तो वह खुद डर गया, इसलिए वह अब कभी तुम्हारे पास नहीं आएगा.

‘‘तुम बेफिक्र रहो और कल से ही रोज की तरह दफ्तर जा कर अपना काम करो. कोई बात हो, तो मुझे फोन कर देना.’’ धीर की तसल्ली भरी बातों ने मेरा सारा खौफ मिटा दिया. अब मैं अपनेआप को पहले जैसा रोबदार अफसर महसूस कर रहा था.

मेरी बीवी और बच्चों के चेहरे भी खिल उठे थे. दूसरे दिन जब मैं घर से दफ्तर के लिए निकला, तो हर चीज हमेशा की तरह ही थी. डर की कोई परछाईं भी नजर नहीं आ रही थी. आज अपने चैंबर में बैठा हुआ मैं महसूस कर रहा था कि खौफ तो आदमी के अंदर ही पनपता है, बाहर तो केवल उस की परछाइयां ही फैलती हुई लगती हैं.

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