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Hindi Story : पंछी बन कर उड़ जाने दो – निशा को मौसी से क्या शिकायत थी ?

Hindi Story : कालेज में वार्षिक उत्सव की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. कार्यक्रम के आयोजन का जिम्मा मेरा था. मैं वहां व्याख्याता के तौर पर कार्यरत थी. कालेज में एक छात्र था राज, बड़ा ही मेधावी, हर क्षेत्र में अव्वल. पढ़ाईलिखाई के अलावा खेलकूद और संगीत में भी विशेष रुचि थी उस की. तबला, हारमोनियम, माउथ और्गन सभी तो कितना अच्छा बजाता था वह. सुर को बखूबी समझता था. सो, मैं ने अपना कार्यभार कम करने हेतु उस से मदद मांगते हुए कहा, ‘‘राज, यदि तुम जूनियर ग्रुप को थोड़ा गाना तैयार करवा दोगे तो मेरी बड़ी मदद होगी.’’

‘‘जी मैम, जरूर सिखाऊंगा और मुझे बहुत अच्छा लगेगा. बहुत अच्छे से सिखाऊंगा.’’

‘‘मुझे पूरी उम्मीद थी कि तुम से मुझे यही जवाब मिलेगा,’’ मैं ने कहा.

वह जीजान से जुट गया था अपने काम में. उस जूनियर गु्रप में मेरी अपनी भांजी निशा भी थी. मैं उस की मौसी होते हुए भी उस की सहेली से बढ़ कर थी. वह मुझ से अपनी सारी बातें साझा किया करती थी.

एक दिन निशा मेरे घर आईर् और बोली, ‘‘मौसी, यदि आप गलत न समझें तो एक बात कहूं?’’

मैं ने कहा ‘‘हां, कहो.’’

वह कहने लगी, ‘‘मौसी, मालूम है राज और पद्मजा के बीच प्रेमप्रसंग शुरू हो गया है.’’

मैं ने कहा, ‘‘कब से चल रहा है?’’

वह कहने लगी, ‘‘जब से राज ने जूनियर गु्रप को वह गाना सिखाया तब से.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम से किस ने कहा यह सब? क्या पद्मजा ने बताया?’’

निशा कहने लगी, ‘‘नहीं मौसी, उस ने तो नहीं बताया लेकिन अब तो उन दोनों की आंखों में ही नजर आता है, और सारे कालेज को पता है.’’

मैं ने कहा, ‘‘चल, अब बातें न बना.’’

उस के बाद से मैं देखती कि कई बार राज व पद्मजा साथसाथ होते और सच पूछो तो मुझे उन की जोड़ी बहुत अच्छी लगती. अच्छी बात यह थी कि राज और पद्मजा ने इस प्रेमप्रसंग के चलते कभी कोई अभद्रता नहीं दिखाई थी. मैं तो देख रही थी कि दोनों ही अपनीअपनी पढ़ाई में और ज्यादा जुट गए थे.

फिर एक दिन निशा आई और कहने लगी, ‘‘मौसी, वैलेंटाइन डे पर मालूम है क्या हुआ?’’

मैं ने कहा, ‘‘तू फिर से राज और पद्मजा के बारे में तो कुछ नहीं बताने वाली?’’

निशा बोली, ‘‘वही तो, मौसी, हम ने वैलेंटाइन डे पार्टी रखी थी. उस में राज और पद्मजा भी थे. सब लोग डांस कर रहे थे और सभी दोस्तों ने उन से बालरूम डांस करने के लिए कहा. राज शरमा गया था जबकि पद्मजा कहने लगी, ‘मैं क्यों करूं इस के साथ डांस. इस ने तो अभी तक मुझ से प्यार का इजहार भी नहीं किया.’

‘‘फिर क्या था मौसी, सब कहने लगे, राज, कह डाल, राज, कह डाल. और राज पद्मजा की आंखों में आंखें डाल कर कहने लगा, ‘आई लव यू, पद्मजा.’ उस के बाद उस ने एक ही नहीं, 7 अलगअलग भाषाओं में अपने प्यार का इजहार किया.’’

जब निशा मुझे उन की बातें बताती तो उस के चेहरे पर अलग ही चमक होती थी. खैर, वह चमक वाजिब भी थी, उस की उम्र ही ऐसी थी.

और एक बार निशा बताने लगी, ‘‘मौसी, मालूम है, पद्मजा राज को बहुत प्रेरित करती रहती है पढ़ाई के लिए और प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए. आप को बताऊं, पद्मजा क्या कहती है उस से?’’

मैं ने कहा, ‘‘जब इतना बता दिया तो यह भी बता दे, वरना तेरा तो पेट दुख जाएगा न.’’ सच पूछो तो मैं स्वयं भी जानना चाहती थी कि दोनों के बीच चल क्या रहा है.

वह कहने लगी, ‘‘मौसी, पद्मजा ने कहा, ‘राज, तुम इस बार वादविवाद प्रतियोगिता में जरूर भाग लोगे. जीतोगे भी मेरे लिए.’ फिर मौसी, राज ने प्रतियोगिता में भाग लिया और जीत भी गया और उस के बाद दोनों साथ में घूमने गए और पता है मौसी, राज अवार्ड के पैसों से उसे शौपिंग भी करवा के लाया.

‘‘पता है क्या लिया पद्मजा ने? चूडि़यां. मौसी, वह दक्षिण भारत से है न, वहां लड़कियां चूडि़यां जरूर पहनती हैं. तो राज ने उसे चूडि़यां दिलवाई हैं.’’

और राज की यह बात मेरे दिल को बहुत छू गई थी. मैं सोच रही थी कितना निर्मल और सच्चा प्यार है दोनों का. दोनों शायद एकदूसरे को आगे बढ़ाने में बड़े प्रेरक थे. ऐसा चलते 2 साल बीत गए और फेयरवैल का दिन आ गया. सभी छात्रछात्राएं एकदूसरे से विदा ले रहे थे.

राज मेरे पास आया, कहने लगा, ‘‘मैम, आप से विदा चाहते हैं, आप ने इन वर्षों में इतना लिखाया, पढ़ाया, आप को बहुतबहुत धन्यवाद.’’ वैसे तो मैं राज की अध्यापिका थी किंतु उस से पहले एक इंसान भी तो थी, सो, मैं ने कहा, ‘‘राज, तुम जैसे छात्र बहुत कम होते हैं. तुम अब सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गए हो. सदा आगे बढ़ो. एक दिल की बात कहूं?’’

राज बोला, ‘‘जी, कहिए, मैम.’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी और पद्मजा की जोड़ी बहुत ही अच्छी है. मुझे शादी में बुलाना न भूलना.’’ राज मुंह नीचे किए मुसकरा कर बोला, ‘‘जी मैम, जरूर.’’ और फिर वह चला गया.

यह सब हुए पूरे 8 वर्ष बीत गए और मैं अपने पति के साथ मसूरी घूमने आई हुई थी. वहां मैं ने होर्डिंग्स पर राज की तसवीरें देखीं, पता लगा कि उस का एक स्टेजशो है. मैं ने अपने पति से कह कर शो के टिकट मंगवा लिए और पहुंच गई हौल में शो देखने.

जैसे ही राज स्टेज पर आया, हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. वह देखने में बहुत ही अच्छा लग रहा था. कुदरत ने उसे रंगरूप, कदकाठी तो दी ही थी, उस पर उस का आकर्षक व्यक्तित्व जैसे सोने पे सुहागा. उस के पहले गीत, ‘‘फिर वही शाम, वही गम, वही तनहाई है…’’ के साथ हौल में समां बंध गया था और जैसे ही शो खत्म हुआ, सभी लड़कियां उस का औटोग्राफ लेने पहुंच गईं. उन के साथ मैं भी स्टेज के पास जा पहुंची.

जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह झट से पहचान गया और उसी अदब के साथ उस ने मुझे अभिवादन किया. अपने छात्र राज को इस मुकाम पर देख मेरी आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे.

फिर राज और मैं कौफी पीने होटल के लाउंज में चले गए और सब से पहले मैं ने शिकायतभरे लहजे में कहा, ‘‘राज, बहुत नाराज हूं तुम से, तुम ने मुझे शादी में क्यों नहीं बुलाया? कहां है पद्मजा, कैसी है वह?’’

इतना सुनते ही राज की मुसकराती आंखों के किनारे नम हो गए थे. अपने आंसुओं को अपनी मुसकराहट के पीछे छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरी शादी नहीं हुई, मैम, पद्मजा मेरी नहीं हो सकी. उस की शादी कहीं और हो गई है.’’

मुझ से रहा न गया तो पूछ बैठी, ‘‘क्यों नहीं हुई तुम्हारी दोनों की शादी.’’ वह कहने लगा, ‘‘मैम, मैं उत्तर भारत से हूं और वह दक्षिण भारतीय. हमारी जाति भी एक नहीं, इसीलिए.’’

‘‘लेकिन कौन आजकल जातपांत मानता है, राज?’’ मैं ने कहा, ‘‘और फिर तुम दोनों तो इतने पढ़ेलिखे हो.’’

राज ने कहा, ‘‘मैम, मेरे मातापिता इस रिश्ते को ले कर बहुत खुश थे. मेरी मां ने तो बहू लाने की पूरी तैयारी भी कर ली थी. लेकिन पद्मजा के मातापिता इस रिश्ते को ले कर खुश नहीं थे और उन्होंने इनकार कर दिया था. मैं पद्मजा के मातापिता से बात करने भी गया था. उन से बात करने पर वे कहने लगे, ‘देखो राज, तुम एक समझदार और नेक इंसान लगते हो. हमें तुम्हारे में कोई कमी नजर नहीं आती. लेकिन हम अगर अपनी बेटी पद्मजा की शादी तुम से कर दें तो हमारी बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी. और वैसे भी हम ने अपनी ही बिरादरी का दक्षिण भारतीय लड़का ढूंढ़ रखा है. इसीलिए अच्छा होगा कि अब तुम पद्मजा को भूल ही जाओ.’ मैं ने उन से इतना भी कहा कि ‘क्या पद्मजा मुझे भुला पाएगी?’ तो वे कहने लगे, ‘वह हमारी बेटी है, हम उसे समझा लेंगे.’

‘‘मैं ने पद्मजा की तरफ देखा, वह बहुत रो रही थी. उस ने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए कहा, ‘जाओ राज, मैं अपने मातापिता की मरजी के खिलाफ तुम से शादी नहीं कर सकती.’ मैं क्या करता, मैम. बस, तब से ही इस दुनिया से जैसे दिल भर गया. किंतु क्या करूं मेरे भी तो अपने मातापिता के प्रति कुछ फर्ज हैं, बस, इसीलिए जिंदा हूं. बहुत मुश्किल से संभाला है मैं ने अपनेआप को.’’

वह कहता जा रहा था और उस के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उस का हाल सुन मेरी आंखों से भी आंसुओं की धारा बह चली थी.

राज का यह हाल देख मुझे बड़ा ही दुख हुआ. मैं मन ही मन सोच रही थी कि राज और पद्मजा का प्यार कोई कच्ची उम्र का प्यार नहीं था, न ही मात्र आकर्षण. दोनों ही परिपक्व थे. राज उस से शादी को ले कर सीरियस भी था. तभी तो वह पद्मजा के मातापिता से मिलने गया था. पद्मजा न जाने किस हाल में होगी.

खैर, मैं उस के लिए तो कुछ नहीं कह सकती. किंतु उस के मातापिता, क्यों उन्होंने अपनी बेटी से बढ़ कर जात, समाज, धर्म, प्रांत की चिंता की. यदि राज और पद्मजा 7 वर्ष एकसाथ एक ख्वाब को बुनते रहे तो क्या अपना परिवार नहीं बसा सकते थे. हम अपने बच्चों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं, उन्हीं बच्चों की खुशियों को क्यों जात, बिरादरी, समाज की भेंट चढ़ा देते हैं? क्यों हम यह नहीं समझते कि प्यार और आकर्षण में बहुत फर्क होता है? यह 16 वर्ष की उम्र वाला मात्र आकर्षण नहीं था, यह सच्चा प्यार था जो आज राज की आंखों से आंसू बन कर बह निकला था. हम क्यों नहीं समझते कि समाज के नियम इंसान ने ही बनाए हैं और वे उस के हित में होने चाहिए न कि जाति, धर्म, भाषा की आड़ में इंसानों के बीच दीवार खड़ी करने के लिए.

बहरहाल, अब हो भी क्या सकता था. लेकिन, मैं इतना तो जरूर कहना चाहूंगी कि जिस तरह राज और पद्मजा का प्यार अधूरा रह गया सिर्फ इंसानों के बनाए झूठे नियम, समाज के कारण, उस तरह किन्हीं 2 प्यार करने वालों को अब कभी जुदा न कीजिए.

मैं यह भी कहना चाहूंगी कि कभी देखा है पंछियोें को? वे किस तरह अपने बच्चों को उड़ना सिखा कर स्वतंत्र छोड़ देते हैं. ताकि वे खुले आसमान में अपने पंख पसार सकें. और कितना सुंदर होता है वह दृश्य जब खुले आसमान में बादलों के संग पंछी उन्मुक्त उड़ान भरते हैं. तो हम इंसान क्यों प्रकृति के नियमों को ठुकरा अपने नियम बना अपने ही बच्चों को मजबूर कर देते हैं राज व पद्मजा की तरह आंसुओं संग जीने को क्यों न हम तोड़ दें वे नियम जो आज के युग में सिर्फ ढकोसले मात्र हैं? क्यों न हम उड़ जाने दें अपने बच्चों को उन्मुक्त आकाश में पंछियों की तरह?

Recycle : जीरो वेस्ट, बातें हवा हवाई

Recycle : किचन और घर से निकलने वाले वेस्ट यानि कचरा को उपयोगी बनाने के लिए जो प्रयास घर और सरकार दोनों के ही द्वारा किए जा रहे हैं वह हवा हवाई दावे साबित हो रहे हैं.

आज के दौर में अखबार और पत्रिकाओं से अधिक सोशल मीडिया पर दिखाई जाने वाली एक मिनट वाली रील का बड़ा क्रेज है. जिस में ऐसेऐसे टिप्स दिए जाते हैं जिस में मिनटों का काम सेकेंडों में हो जाता है. मुहावरों की भाषा में कहें तो हाथ पर सरसों उगाने का काम होता है. इस में जिस तरह के टिप्स दिए जातें हैं वह कई प्रकार के होते हैं. आज बात करेंगे किचन के कचरे का. रील में जिस तरह से इस को दिखाया जाता है वह कितना सही है और कितना गलत ?

सोशल मीडिया की रील में किचन के कचरे के बाद उस के कंपोस्ट खाद बनने से ले कर घरों में लगी सब्जी और पौधों में डालने से ले कर उन में फल फूल आने की यह रील बहुत अच्छी लगती है. इस को देख कर कई लोग इस को करने का काम करते हैं. कुछ ही दिनों में उन को यह पता चल जाता है कि यह काम उतना सरल नहीं होता जितना रील में दिखाया जाता है. जीरो वेस्ट की सच्चाई क्या है ? यह कितना व्यवहारिक है ?

क्या है जीरो वेस्ट ?

जीरो वेस्ट का अर्थ है कचरे को कम से कम करना. इस के लिए रीसाइकल करना और उस को कंपोस्ट खाद में बदलना सब से उपयोगी होता है. किचन से निकलने वाले सब्जी के छिलके और बचे हुए खराब खाने का प्रयोग सब से ज्यादा होता है. इस के अलावा आजकल चाय का प्रयोग घरों में बहुत होता है. बची हुई चाय की पत्ती को फेंकने से अच्छा होता है कि उस का उपयोग कर लिया जाए.

किचन जीरो वेस्ट का अर्थ है अपनी रसोई में भोजन और अन्य वस्तुओं की बरबादी को कम से कम करना, या पूरी तरह से खत्म करना. इस का मतलब है कि खाने के बचे हुए हिस्से, पैकेजिंग और अन्य कचरे का पुनः उपयोग, कंपोस्ट या रीसाइकिल करना होता है. इस के लिए जरूरी है कि भोजन की बरबादी को कम करें. खरीदारी केवल उतनी ही करें जितनी आप को जरूरत हो. बचे हुए खाने को दोबारा इस्तेमाल करें. भोजन को उचित रूप से स्टोर करें ताकि वह खराब न हो. खाने के बचे हुए हिस्सों को कंपोस्ट करें.

घर के अलावा सरकारों ने भी कचरा प्रबंधन का काम शुरू किया है. शहर से ले कर गांव तक यह काम हो रहा है. यह बात और है कि यह बातें हवा हवाई ज्यादा हैं. अधिकतर बड़े शहरों में हर घर में दो तरह के कचरे के डिब्बे रखे जाने लगे हैं. पहला नीले रंग के डिब्बे का उपयोग सूखे कचरे जैसे प्लास्टिक, कागज, धातु आदि के लिए होता है. दूसरे हरे रंग के डिब्बे का प्रयोग गीले कचरे जैसे फल सब्जी के छिलके, बचा हुआ खाना आदि के लिए होता है.

शहरों में कचरा उठाने वाली गाड़ी आती है. इस के अलावा सफाई कर्मचारी ठेले ले कर आते हैं. अब घर में तो कचरा दो रंग वाले डिब्बे में रखा जाता है. जैसे यह कचरा कचरा रखने वाली गाड़ी में पहुंचता है यह एक में ही हो जाता है. इस का एक बड़ा कारण है कि कभी सूखा कचरा ज्यादा हो जाता है तो कभी गीला. ऐेसे में अतिरिक्त कचरा उसी में भर दिया जाता है जिस में कचरा रखने की जगह होती है.

सरकार दावा करती है कि कचरा प्रबंधन करने वाली मशीन इस का रीसाइकिल कर के उपयोगी पदार्थ बना लेगी. अपार्टमेंट और कालोनी में रहने वालों को कचरा उठाने के एवज में एक तय रकम हर माह देनी होती है. इस के बाद भी शहरों में कचरा जगहजगह दिखता है. इसी तरह से गांवों में कचरा से खाद बनाने के लिए सरकार पंचायत के माध्यम से एक जगह बना रही है. जिस की लगात करीब 5 लाख आ रही है. टीनशेड के नीचे गांव के किनारे एक तरह का खाद बनाने का काम किया जा रहा है.

जिन गांवों में यह बन गया है वहां कभी कचरा न जाता है और न खाद बनती है. केवल उत्तर प्रदेश में 57 हजार 691 ग्राम पंचायते हैं. यहां हर गांव में 2-2 सफाई कर्मचारी हैं. नाली और खंडजा है. लेकिन इन में सफाई नहीं होती. पानी की निकासी सही नहीं है. गांव वालों ने अपने घर के आगे नाली रोक ली है. महीने में दो चार बार सफाई कर्मचारी आता है इधरउधर हाथपांव चला कर चला जाता है. पहले गांव में हर घर के पीछे एक कूड़ा भरने का गढ्ढा होता था जिस को घूर कहते थे. उस समय न पानी भरता था न रास्ते में गंदगी रहती थी. गलियां कच्ची होती थी तो धूल होती थी. जीरो वेस्ट में अब वापस घरों में खाद बनाने के प्रयोग शहरों में किए जा रहे हैं.

अस्पतालों में कचरा प्रबंधन

अस्पतालों में कचरा प्रबंधन के लिए लाल और पीले रंग के डिब्बे भी इस्तेमाल किए जाते हैं. लाल डिब्बा रंग के डिब्बे में खतरनाक कचरा और पीले रंग के डिब्बे में संक्रमणकारी कचरा रखा जाता है. हर अस्पताल में एक कचरा प्रबंधन रजिस्टर बना होता है. इस में यह लिखा जाता है किस दिन नगर निगम का कौन सा कर्मचारी आया, कितना कचरा किस रंग के डिब्बे में दिया गया. इस में नगर निगम कर्मचारी को भी अपने हस्ताक्षर करने होते हैं. अगर कभी नगर निगम अचानक जांच करता है और उस को रजिस्टर सही से पूरा भरा नहीं मिलता तो अस्पताल पर फाइन लगाया जाता है. अगर गलती बारबार हो तो नगर निगम अस्पताल का लाइसैंस रद्द करने की कार्रवाई भी कर सकता है.

कई निजी अस्पताल भी मैडिकल वेस्ट को निस्तारित नहीं करते हैं. दवाईयां, इंजेक्शन जैसी हानिकारक चीजों को जला देते हैं. कुछ दिन पहले इब्राहीमपुर वार्ड में निरीक्षण के दौरान खाद्य एवं सफाई निरीक्षक आकांक्षा गोस्वामी ने पाया कि एक अस्पताल का मैडिकल कचरा जलाया जा रहा है. यहां मैडिकल कचरा को अलगअलग रखने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी. सफाई निरीक्षक ने अस्पताल संचालक पर एक हजार रुपये का जुर्माना लगाया.

पीजीआइ रोड पर गंदगी फैलाने वाले होटल कॉसमोस पर 5000 रुपए का जुर्माना लगाया गया. इस इलाके में कूड़ा प्रबंधन का काम देख रही मेसर्स ईको कंपनी की तरफ से कूड़ा न लेने की शिकायत की गई. कूड़ा प्रबंधन की निगरानी नगर निगम करता है. हवा हवाई व्यवस्था का उदाहरण यह है कि नगर निगम अस्पताल, होटल और घरों से एकत्र कूडे का खुद सही निस्तारण नहीं करता है. चाहे कितना भी कूडा अलगअलग एकत्र किया जाए पर शहर के बाहर वह एक ही जगह कूड़े के ढेर में बदल जाता है.

ऐसे में जीरो वेस्ट की धारणा धरी की धरी रह जाती है. जीरो वेस्ट एक अवधारणा है जो कचरे के प्रबंधन को एक ऐसा तरीका है जो सभी संसाधनों का संरक्षण करें और कचरे को न जलाएं या दफनाएं. इस का लक्ष्य कचरे को कम करना, फिर रीसाइकल करना, और फिर पुन उपयोग करना होता है. सरकार बहुत सारे प्रयासों और दावों के बाद भी इस काम को नहीं कर पा रही है. पंचायत से ले कर नगर निगम तक सब का हाल एक जैसा ही है.

जीरो वेस्ट में करें योगदान

आम लोग जीरो वेस्ट में कैसे योगदान दे सकते हैं ? किसी इस तरह की वस्तु को न खरीदें तो रिसाइकिल न हो सकती हो. कुछ को आप दोबारा सावधानी पूर्वक इस्तेमाल कर सकते हैं. जैसे कि प्लास्टिक की बोतलों को पानी की बोतल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. आप प्लास्टिक, कागज, और धातु जैसी वस्तुओं को रीसाइकल कर सकते हैं ताकि उन्हें नए उत्पादों में फिर से इस्तेमाल किया जा सके. कम्पोस्ट खाद के रूप में भोजन और बागवानी के कचरे को खाद में बदल सकते हैं. जो पौधों के लिए एक प्राकृतिक खाद है.

जीरो वेस्ट पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है. यह कचरे की मात्रा को कम करता है, जो प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण में योगदान करता है. यह कचरे से होने वाले खर्च को कम करता है और संसाधनों को बचाने में मदद करता है. इस से जीवन पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

रसोई के वेस्ट से खाद कैसे बनाएं?

रसोई के वेस्ट को खाद के रूप में बदलने का काम कैसे करें ? सब से पुराना तरीका है कि जमीन की मिट्टी खोद कर उस में कचरा दबा दीजिए. गोबर आदि मिल जाय तो उसे भी उस खचरें में शामिल कर दें. मिट्टी में नमी होगी और अच्छी धूप मिलेगी तो जल्दी खाद बन जाएगी. जीवित केंचुआ भी उस मिट्टी में डाल सकें तो और अचछा होता है. हर घर में आज के समय में कच्ची जमीन बची नहीं है. ऐसे में यह काम किसी गमले या प्लास्टिक के डिब्बे में कर सकते हैं. इस को समयसमय पर मिलाते भी रहें. इस से अच्छी खाद तैयार हो जाती है.

आजकल लोग घरों में पेड़ पौधे लगाना पसंद करते हैं. अब इन पौधों के लिए यदि घर पर ही खाद तैयार हो जाए तो अपने आसपास सफाई भी रख सकेंगे और कहीं न कहीं अपने पर्यावरण को भी साफ और बचा कर भी रख पाएंगे. असल में जीरो वेस्ट तभी सफल होगा जब इस तरह की मशीनें बने जो घर में किचन वेस्ट को सही कर सकें. जिस तरह से कपड़े और बरतन धोने की मशीनें बनी हैं उसी तरह से वेस्ट को ठीक से नया रूप दिया जा सके. तभी जीरो वेस्ट का सपना साकार हो सकेगा. बिना इस के सारा मामला हवा हवाई रहेगा.

Paramedical Courses : जमाना है हाफ डाक्टरों का

Paramedical Courses : वर्तमान में स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत लगातार बढ़ रही है. हर कोई पैसों की तंगी की वजह से डाक्टर तो नहीं बन सकता. लेकिन जिसे मैडिकल लाइन में अपना कैरियर बनाना है तो इस का एक बहुत अच्छा विकल्प यूथ के लिए जरूर उपलब्ध है. जानें क्या है डाक्टर बनने का दूसरा सस्ता विकल्प.

सृजन काफी परेशान थे. उन के बेटे प्रखर ने इस वर्ष 12वीं की परीक्षा पास की थी. सातवीं कक्षा से ही वह डाक्टर बनने के सपने देख रहा था. बचपन से ही स्थेटेस्कोप कानों में लगा कर अपने दादाजी का बुखार नापता रहता था. दरअसल प्रखर के मामाजी डाक्टर थे. मामाजी से वह काफी हिलामिला था. मामाभांजे में प्यार भी बहुत था और प्रखर को कभी कोई तकलीफ हुई तो उस के मामाजी ही उस का इलाज करते थे.

प्रखर ने बचपन से ही मामाजी जैसा डाक्टर बनने का सपना पाल रखा था, मगर 12वीं में उस के मार्क्स सिर्फ 79% ही आए थे, ऐसे में सृजन को उम्मीद नहीं थी कि प्रखर मैडिकल के टफ कम्पटीशन को निकाल पाएगा. अगर कम्पटीशन निकाल भी लिया तो सरकारी मैडिकल कालेज में यदि उस को स्थान नहीं मिला तो किसी निजी मैडिकल कालेज में बेटे को पढ़ाने की हैसियत सृजन की नहीं थी.

नीट क्लियर करने के बाद डाक्टरी की पढ़ाई वैसे भी 7-8 साल मांगती है और निजी संस्थान में पढ़ो तो खर्चा 90 लाख से 1.5 करोड़ रुपए तक होता है. वहीं सरकारी मैडिकल कालेज में औसत एमबीबीएस कोर्स की फीस 10,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए प्रति वर्ष है.

प्रखर उन का इकलौता बेटा था और शादी के 14 साल बाद पैदा हुआ था. इसलिए उस को ले कर सृजन और उन की पत्नी क्रांति बहुत इमोशनल थे. बचपन से उस की हर ख्वाहिश पूरी करते आए थे. मगर सृजन चाहते थे कि प्रखर जल्दी से जल्दी कमाने लगे, ताकि वे जल्दी ही घर में बहू ला सकें. यदि डाक्टर बनने के चक्कर में प्रखर के 10-12 साल लग गए तो कब वह कमाना शुरू करेगा और कब सेटल होगा?

सृजन ने जब अपनी चिंता अपने साले यानी प्रखर के मामाजी के सामने रखी तो वे तपाक से बोले, ‘कोई जरूरत नहीं है डाक्टर बनाने की. 8-10 साल में डाक्टर बन भी गया तो सरकारी अस्पताल में उस को 30-50 हजार रुपए सैलरी मिलेगी और किसी बड़े प्राइवेट अस्पताल में लगा तो ज्यादा से ज्यादा अस्सी हजार महीना कमा लेगा. अपना खुद का क्लिनिक खोलने और स्थापित डाक्टर बनने के लिए कम से कम 15 साल का तजुर्बा हो तब कहीं जा कर अच्छी कमाई होती है.

फिर क्या करें? प्रखर तो जिद पर अड़ा है कि उसे डाक्टर ही बनाना है. सृजन ने परेशानी व्यक्त की. मामाजी बोले, उस से कहो पैरामैडिकल का कोई कोर्स कर ले. चाहे डिग्री कोर्स कर ले या डिप्लोमा या सर्टिफिकेट पैरामैडिकल कोर्स. डिग्री कोर्स चार साल में हो जाएगा और डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स दो साल में पूरा हो जाएगा.

इस के बाद अगर किसी सरकारी अस्पताल में नौकरी लगती है तो दोतीन साल में उस की सैलरी लगभग उतनी ही होगी जितनी एक नए डाक्टर की होती है. कुछ साल के एक्सपीरियंस के बाद वह अपना पैथलैब खोल ले. कमाई ही कमाई है.

सृजन तो मैडिकल की इस क्षेत्र के बारे में सुन कर उछल पड़े. उन्होंने पैरामैडिकल के बारे में इंटरनेट पर सर्च किया तो करीब 8 ऐसे डिग्री कोर्स सामने आ गए जिस को करने के बाद दौलत और शोहरत दोनों उन के बेटे के कदम चूमें.

बीएससी (नर्सिंग) – बैचलर औफ साइंस (नर्सिंग), बीऔप्टोम – (बैचलर औफ औप्टोम), बीओटी – (बैचलर औफ औक्यूपेशनल थैरेपी), बीपीटी – (बैचलर औफ फिजियोथैरेपी), बीएससी – (विभिन्न विशेषज्ञता), बीफार्मा – (बैचलर औफ फार्मेसी), फार्मा.डी. – (डाक्टर औफ फार्मेसी), बीफार्मा आयुर्वेद – (बैचलर औफ फार्मेसी-आयुर्वेद) जैसे अनेक कोर्सेज जो चार साल में कम्पलीट हो सकते थे, उन के सामने थे.

ये सभी कोर्सेज ऐसे थे जिन को करने के बाद उन के बेटे को तुरंत जौब मिल सकती थी. और इस कोर्स को करने के लिए 12वीं में बहुत हाई परसेंटेज की जरूरत भी नहीं थी. आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों के लिए तो 10+2 में 40% अंक ही काफी थे.

दरअसल पैरामैडिकल का क्षेत्र कोई नया नहीं है मगर इस के बारे में बहुत जानकारी लोगों को नहीं है. जब कि पैरामेडिक्स के बिना आज न तो कोई अस्पताल चल सकता है और न कोई डाक्टर.

12वीं के बाद पैरामैडिकल कोर्स कर के अनेक क्षेत्रों में कार्य कुशलता प्राप्त की जा सकती है. जैसे नर्सिंग, फार्मेसी, फिजियोथेरेपी, औप्टोमेट्री औक्यूपेशन, थेरेपी, मैडिकल लैब टैक्नोलौजी, ओप्थाल्मिक टैक्नोलौजी, रेडियोग्राफिक टैक्नोलौजी, रेडियोथेरैपी, कार्डियोलौजी, न्यूरोलौजी, ब्लड ट्रांसफ्यूजन टैक्नोलौजी, प्लास्टर, एनेस्थीसिया टैक्नोलौजी, परफ्यूजनिस्ट, औपरेशन थिएटर टैक्नोलौजी, मैडिकल ट्रांसक्रिप्शन/मैडिकल रिकार्ड टैक्नोलौजी, साइटोलौजी, हिस्टोपैथोलौजी, ट्रांसफ्यूजन मैडिसिन, क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट, एंडोस्कोपी, कम्युनिटी चिकित्सा, स्वास्थ्य निरीक्षक, आपातकालीन और फोरेंसिक चिकित्सा प्रौद्योगिकी, डायलिसिस प्रौद्योगिकी, एक्स-रे प्रौद्योगिकी, चिकित्सा इमेजिंग प्रौद्योगिकी, नेत्र प्रौद्योगिकी, एक्यूपंक्चर और मालिश चिकित्सा आदि.

प्रखर भी इतने सारे औप्शन देख कर खुश हो गया. जौब अपार्चुनिटी भी काफी थीं. 4 साल के डिग्री कोर्स के बाद काम करने के लिए उस के आगे अनेक क्षेत्र खुले थे. वह फार्मास्युटिकल ड्रग मैन्युफैक्चरिंग, सरकारी अस्पताल में विशेषज्ञ सलाहकार के तौर पर, निजी अस्पताल या क्लीनिक में सहायक के रूप में, चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में, क्लीनिकल रिसर्च, भारतीय सशस्त्र बल, तकनीकी लेखन, कौरपोरेट अस्पताल में विशेष सलाहकार, अनुसंधान और शिक्षाविद् के रूप में, चिकित्सा पत्रकारिता के क्षेत्र में, केन्द्रीय सिविल चिकित्सा सेवा में, फार्मेसी अथवा चिकित्सा उपकरण निर्माण के क्षेत्र में अच्छा काम कर सकता था.

इस कोर्स में ज्यादा पैसा भी नहीं लगना था. प्रखर के मामाजी ने भी उस को समझाया तो वह समझ गया कि मैडिकल का क्षेत्र अब इतना विस्तृत हो चुका है कि उस में डाक्टर तो एक छोटी सी इकाई के रूप में ही बचा है.

पैरामैडिकल में टौप कोर्सेज भी हैं जैसे औपरेशन थिएटर टैक्नोलौजी- जैसा कि नाम से पता चलता है, इस के अंतर्गत औपरेशन थिएटर के भीतर मरीज को औपरेशन के लिए तैयार करना, डाक्टर्स को औपरेशन में मदद देना, मशीनों को औपरेट करना, ब्लड सैंपल एवं अन्य प्रकार के टेस्ट के सैंपल आदि लेना, औपरेशन में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों की जानकारी और औपरेशन टेबल पर सर्जिकल परफारमेंस में डाक्टर की हेल्प करने तक सभी कार्य होते हैं.

बीएससी रेडियोलौजी का कोर्स भी बहुत बच्चे कर रहे हैं. यह रेडियोलौजी चिकित्सा की एक शाखा है. एक्स-रे रेडियोग्राफी, अल्ट्रासाउंड, कम्प्यूटेड टोमोग्राफी, पौजिट्रान एमिशन टोमोग्राफी, फ्लोरोस्कोपी और चुम्बकीय अनुनाद इमेजिंग सहित विभिन्न प्रकार की इमेजिंग तकनीकों का उपयोग रोगों के उपचार और निदान के लिए किया जाता है.

रेडियोग्राफर, जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा जैसे कुछ देशों में ‘रेडियोलौजिक टेक्नोलौजिस्टस’ कहा जाता है, इस कार्य में विशेष रूप से प्रशिक्षित होते हैं. इस क्षेत्र को दो भागों में विभाजित किया गया है- डायग्नोसिस रेडियोलौजी और इंटरवैंशनल रेडियोलौजी.

सब से पहले एक्स-रे का उपयोग रोगियों की चोटों के उपचार और निदान के लिए किया जाता है, जब कि बाद में, रोगों के उपचार और निदान के लिए अल्ट्रासाउंड, एमआरआई, सीटी स्कैन जैसी न्यूनतम इनवेसिव प्रक्रिया की जाती है.

असंख्य कैरियर के अवसरों और आकर्षक वेतन के साथ, रेडियोलौजी कोर्स एक लोकप्रिय विकल्प बन चुका है. यह कोर्स हास्पिटल में मशीनरी कैसे काम करती है, इस के टैक्निकल आस्पेक्ट को देखता है. इस कोर्स के पूरा होने पर एमआरआई और सीटी स्कैन जैसी औपरेटिंग मशीन को संचालित करने का कौशल प्राप्त हो जाता है.

औडियोलौजी और स्पीच थेरेपी में बीएससी- यह कोर्स कम्युनिकेशन डिसऔर्डर में स्पेशलाइज बनाता है. औडिओलौजिस्ट, हियरिंग डिसऔर्डर को पहचानना, उस को मापना और उस को ठीक करने में स्पेशलाइज बनाता है. स्पीच थेरेपिस्ट्स और स्पीचलैंग्वेज पैथोलौजिस्ट एक साथ काम करते हैं.

औडियोलौजिस्ट और स्पीच थेरैपिस्ट के रूप में कैरियर न केवल सफलता बल्कि नौकरी में सम्मान भी देता है. मैडिकल के क्षेत्र में यह विशेष शाखा वर्तमान समय में बहुत ही आशाजनक करियर विकल्प के रूप में देखी जा रही है. स्पीच थेरैपिस्ट को स्पीच पैथोलौजिस्ट भी कहा जाता है.

भाषण और श्रवण संबंधी विकारों के इलाज के लिए लोगों में बढ़ती जागरूकता के कारण स्पीच थेरैपी विशेषज्ञों की मांग बहुत बढ़ गई है. एक स्पीच थेरैपिस्ट उन लोगों के लिए काम करता है जिन्हें बोलने, शब्द बनाने और ध्वनियों को सुनने में कठिनाई होती है.

किसी चोट, बीमारी या आघात से जिन की संवाद क्षमता प्रभावित हुई हो अथवा गंभीर बीमारियों या दुर्घटना/स्ट्रोक अथवा कैंसर के कारण जिन के स्वरयंत्र को हटा दिया गया हो, जिस के कारण उन्हें बोलने में कठिनाई हो, ऐसे लोगों को सांकेतिक भाषा सिखाने का काम भी स्पीच थेरैपिस्ट करते हैं.

बीएससी औडियोलौजी और स्पीच लैंग्वेज पैथोलौजी तीन साल का पूर्णकालिक स्नातक कोर्स है. यह पाठ्यक्रम सार्वजनिक स्वास्थ्य, औषधि निर्माण, श्रवण सहायता प्रत्यारोपण उद्योग, चिकित्सा अस्पतालों और क्लीनिकों, शैक्षणिक विश्वविद्यालयों, उद्योगों में श्रवण संरक्षण कार्यक्रम जैसे क्षेत्रों में नौकरी के पर्याप्त अवसर प्रदान करता है.

आज पैरामैडिकल क्षेत्र हैल्थ केयर में तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र है. पैरामैडिकल कोर्स प्रीहौस्पिटल, आपात स्थितियों और गैर सर्जिकल मामलों से संबंधित क्षेत्र है. साधारण शब्दों में समझें तो पैरामैडिकल उन्हें बोलते हैं जो एक्सरे करते हैं, अल्ट्रासाउंड करते हैं, सोनोग्राफी करते हैं या फिजियोथेरैपी आदि करते हैं. ये एमबीबीएस डाक्टर नहीं होते मगर आपात स्थिति में रोगी को संभालने वाला सब से पहला व्यक्ति पैरामेडिक होता है.

किसी रोगी की चिकित्सा के लिए डाक्टर इन की सेवाओं पर ही आश्रित होते हैं क्योंकि अपने मरीज के सही उपचार के लिए डाक्टर जो टेस्ट, एक्स रे, अल्ट्रासाउंड, मालिश, एक्सरसाइज आदि लिखता है, वह सारा काम पैरामैडिकल स्टाफ ही संपन्न करता है.

पैरामैडिकल स्टाफ द्वारा मरीज के संबंध में दी जाने वाली रिपोर्ट्स के बिना डाक्टर का काम अधूरा है. उस के बिना वह न तो सही निर्णय पर पहुंच सकता है और न ही सही इलाज कर सकता है.

आज पैरामैडिकल स्वास्थ्य सेवा उद्योग की रीढ़ है. अस्पतालों, क्लिनिक, नर्सिंग होम, पैथ लैब और निजी क्षेत्रों में पैरामैडिकल स्टाफ की मांग बहुत ज्यादा है. कोविड महामारी ने परिदृश्य बदल दिया है. इस वैश्विक महामारी ने विशेष रूप से टियर-2 शहरों में योग्य पैरामेडिक्स की मांग बढ़ा दी है.

कोविड के बाद फिजियोथेरपी, लैब परीक्षण और स्कैनिंग सेवाओं की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी है. सरकार की योजना भी अगले कुछ वर्षों में भारत के प्रत्येक जिले में कम से कम एक मैडिकल कालेज बनाने की है. इस के साथ ही एम्स जैसे संस्थान भी बड़ी तेजी से बनाए जा रहे हैं.

ऐसे में स्पष्ट है कि पैरामैडिकल स्टाफ की जरूरत आने वाले समय में बहुत तेजी से बढ़ेगी और साइंस के विद्यार्थी के लिए इस क्षेत्र में करियर बनाना एक बहुत अच्छा विकल्प साबित होगा.

वैसे भी मैडिकल की पढ़ाई काफी महंगी पढ़ाई है. कई लाख रुपए और कई साल की मेहनत के बाद लोग डाक्टर बनते हैं. बहुत से ऐसे छात्र होते हैं जो विज्ञान विषयों में रुचि रखते हैं और साइंस स्ट्रीम से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं. हालांकि साइंस विषय ले कर पढ़ने वाले हर बच्चे की आंखों में डाक्टर बनने का सपना होता है, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति कई बार ऐसी नहीं होती कि मैडिकल की पढ़ाई पर बहुत सारा पैसा निवेश किया जा सके.

कई बार मैडिकल में जाने के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में छात्र उत्तीर्ण नहीं हो पाते हैं. ऐसे में हताश होने की आवश्यकता नहीं है. पैरामैडिकल का बहुत बड़ा क्षेत्र ऐसे बच्चों को कैरियर के बेहतरीन विकल्प उपलब्ध कराता है. पैरामैडिकल का कोर्स मैडिकल कोर्स के मुकाबले कम खर्च वाला और कम समय में होने वाला है. सच पूछिए तो पैरामैडिक अग्रिम पंक्ति के योद्धा हैं, जो मरीजों के स्वस्थ होने को सुनिश्चित करते हैं.

पैरामैडिकल कोर्स की शुरुआत

इस बात की कोई ठोस जानकारी नहीं है कि पैरामैडिकल की शुरुआत दुनिया में कहां, कब और कैसे हुई. पहले निजी प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों की क्लिनिक में डाक्टर के अलावा उस का एक कंपाउंडर और ज्यादा हुआ तो एक नर्स होती थी. जो डाक्टर के निर्देशानुसार मरीज को दवा और इंजैक्शन देते थे. लेकिन विज्ञान की तरक्की और बाजारवाद के बढ़ने से रोगी को अनेक टेस्ट और थेरेपीज से भी गुजरना पड़ता है. ऐसे में दुनिया भर में पैरामैडिकल स्टाफ की जरूरत पड़ने लगी, जो तकनीकी काम में दक्ष होते हैं.

इस के अलावा अचानक होने वाली दुर्घटनाएं, युद्ध, बमधमाके आदि के दौरान घायल होने वाले रोगियों को तत्काल मदद पहुंचाने के लिए भी ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हुई जो मेडिकली प्रशिक्षित हों. इस जरूरत को देखते हुए दुनिया के अलगअलग हिस्सों में अलगअलग समय पर ऐसे लोगों को प्रशिक्षित किया जाने लगा जो डाक्टर के पहुंचने तक मरीज को कुछ उपचार के जरिए ऐसी राहत दे सकें कि उस की जान बचाई जा सके.

अमेरिकी लेखक केविन हैजर्ड द्वारा लिखी एक किताब ‘अमेरिकन सायरन: द इन्क्रेडिबल स्टोरी औफ द ब्लैक मैन हू बिकम अमेरिकाज फर्स्ट पैरामेडिक्स’ से पता चलता है कि विश्व में सर्वप्रथम पैरामैडिकल सेवाओं को शुरू करने वाले व्यक्ति एक अश्वेत अमेरिकी थे, जिन का नाम पीटर साफर था.

केविन लिखते हैं कि साफर ने 1966 में अपनी लाड़ली बेटी को सिर्फ इस कारण से खो दिया क्योंकि उस को अस्थमा का अटैक पड़ा तो घर से हास्पिटल तक ले जाने के दौरान उस को कोई फर्स्ट एड नहीं मिल पाई और हौस्पिटल पहुंचने तक उन की बेटी ने दम तोड़ दिया. इस घटना ने पीटर साफर को बहुत व्यथित कर दिया. उन को महसूस हुआ कि कुछ ऐसे लोग होने चाहिए जो समय रहते मरीज की इतनी मदद कर सकें कि वह डाक्टर तक पहुंच जाए.

अपनों को असमय खोने के दर्द से दूसरों को बचाने के लिए पीटर साफर ने एक आधुनिक एम्बुलेंस डिजाइन की. जिस में मरीज को फर्स्ट एड देने के लिए कई मैडिकल उपकरण लगाए गए थे.

लेखक केविन हैजर्ड के अनुसार पीटर साफर ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पैरामेडिक्स को प्रशिक्षित करने के लिए दुनिया का पहला पाठ्यक्रम डिजाइन किया था. उन्होंने अस्पताल में गहन देखभाल इकाई – आईसीयू को विकसित करने में भी अहम भूमिका निभाई. औस्ट्रिया में जन्मे पीटर साफर स्वयं एक एनेस्थेसियोलौजिस्ट और सीपीआर के जानकार थे.

1967 में पीटर साफर द्वारा डिजाइन किया गया पैरामैडिकल पाठ्यक्रम ज्वाइन करने वाला पहला ग्रुप काले लोगों का ही था. उन्होंने ‘फ्रीडम हाउस’ नामक अपना एक संगठन बनाया, जिस का शुरुआती उद्देश्य था जरूरतमंद काले अमेरिकियों को सब्जियां और भोजन पहुंचाने के साथसाथ मैडिकल सुविधाएं भी मुहैया कराना.

लेकिन 8 महीने के अंदर ही उन्हें मिर्गी, प्रसव या दम घुटने जैसी आपात स्थितियों से निपटने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया. उन की पहली कौल 1968 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या के बाद हुए विद्रोह के दौरान हुई, जिस में उन्होंने दंगों में घायल हुए लोगों के तुरंत उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इस से पहले आपात स्थितियों से निपटने के लिए या तो पुलिस और सेना के जवान लगाए जाते थे या फिर स्वयंसेवी अग्निशमक के जवान, जो लड़ाई या दंगा होने पर हताहतों को गाड़ियों में डाल कर अस्पताल पहुंचा देते थे. लेकिन वे स्वयं मरीज की जान बचाने में कोई मदद नहीं कर पाते थे क्योंकि वे आपातकालीन देखभाल प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित नहीं थे.

उस समय के एम्बुलैंस भी ज्यादातर शव वाहन ही थे, जो अस्पताल और कब्रिस्तान के बीच चलते थे. दो देशों के बीच युद्ध के वक्त अनेक सैनिक रणक्षेत्र में सिर्फ इसलिए मर जाते थे क्योंकि उन को तुरंत कोई चिकित्सकीय मदद नहीं मिल पाती थी. ऐसे वक्त में पैरामैडिकल प्रशिक्षण काम आया और इस का तीव्रता से विस्तार हुआ.

1972 में ‘फ्रीडम हाउस’ द्वारा मात्र दो महीने में अस्पताल पहुंचाए गए 1400 रोगियों में से 89% की जान समय रहते बच गई क्योंकि उन्हें तुरंत मैडिकल सपोर्ट और सही देखभाल मिल गई थी.

‘फ्रीडम हाउस’ की इतनी सफलता के बावजूद 1975 में नस्लवादी सोच रखने वाले पिट्सबर्ग के मेयर पीटर फ्लेहर्टी ने ‘फ्रीडम हाउस’ संगठन को बैन कर दिया और उस के स्थान पर एक पूर्ण श्वेत पैरामैडिकल कोर स्थापित किया.

लेखक केविन हैजर्ड अपनी किताब में लिखते हैं – ‘फ्रीडम हाउस बहुत सफल संगठन था. यह उच्च शिक्षित लोगों का संगठन था, जिन में से कई लोगों ने आगे जा कर मास्टर डिग्री, पीएचडी या मैडिकल डिग्री प्राप्त की अथवा राजनीति, पुलिस और अग्निशमन विभाग में उच्च पदों पर नियुक्त हुए.

वे वास्तव में सफल लोग थे, जो कहीं बाहर से नहीं आए थे, बल्कि सेवाभाव ले कर आम अमेरिकी लोगों के बीच से ही निकले थे. लेकिन नस्लवाद के कारण वे नकार दिये गए, परंतु उन का काम इतिहास में दर्ज है.

Online Hindi Story : नया जमाना – क्या था नए जमाने की सुरभि का बदला रूप

Online Hindi Story : डरबन की चमचमाती सड़कों पर सरपट दौड़ती इम्पाला तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी. कुलवंत गाड़ी ड्राइविंग करते हिंदी फिल्म का एक गीत गुनगुनाने में मस्त थे. सुरभि उन के पास वाली सीट पर चुपचाप बैठी कनखियों से उन्हें निहारे जा रही थी. इम्पाला जब शहर के भीड़भाड़ वाले बाजार से गुजरने लगी तो सुरभि ने एक चुभती नजर कुलवंत पर डाली और बोली, ‘‘अंकल, कहीं मैडिकल की शौप नजर आए तो गाड़ी साइड में कर के रोक देना, मुझे दवा लेनी है.’’

कुलवंत के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए. सुरभि की तरफ देख कर बोले, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, तबीयत तो ठीक है.’’

‘‘फिर दवा किस के लिए लेनी है?’’

‘‘आप के लिए.’’

‘‘मेरे लिए, क्यों? मुझे क्या हुआ है? एकदम भलाचंगा तो हूं.’’

‘‘आप बड़े नादान हैं. नहीं समझेंगे. अब आप अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाना बंद कीजिए. मैडिकल शौप नजर आए तो वहां गाड़ी रोक देना. मैं 1 मिनट में वापस आ जाऊंगी.’’

कुलवंत को बात समझ में नहीं आई तो चुप्पी साध ली. उन की नजरें स्क्रीन विंडो से हो कर बाजार के दोनों तरफ दौड़ने लगीं. कुछ देर बाद एक मैडिकल शौप नजर आई, तो गाड़ी को साइड में ले कर शौप के आगे रोक दी.

‘‘लो, दवाइयों की दुकान आ गई. जल्दी से दवा ले कर आओ.’’

सुरभि ने फुरती से दरवाजा खोला और मैडिकल शौप पर पहुंच गई. कुलवंत गाड़ी में बैठेबैठे ही सुरभि को देखते रहे. उस ने क्या दवा ली, वे चाह कर भी नहीं जान पाए. सुरभि ने दवा को पर्स में डाला और पैसे दे कर फौरन वापस आ कर गाड़ी में बैठ गई. वह कुलवंत की तरफ देख कर बोली, ‘‘हो गया काम, घर चलिए.’’

कुलवंत को कुछ भी समझ में न आया. उन्होंने गाड़ी को गियर में डाला और ऐक्सिलरेटर पर दबाव बढ़ा दिया. गाड़ी अगले ही पल हवा से बातें करने लगी. ड्राइविंग करतेकरते उन्होंने सुरभि पर एक नजर डाली. न जाने क्यों आज उन्हें सुरभि में एक बदलाव सा नजर आ रहा था.

1 महीने पहले जब वे डरबन आए थे, तब की सुरभि और आज की सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. पिछले 2 दिनों में तो उस का हावभाव एकदम बदल सा गया था. यह सब सोचतेसोचते वे विचारों में खो गए.

कल सुबह वे धड़धड़ाते हुए स्नानघर में घुसे तो उन के पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई थी. वहां पर सुरभि पहले से ही स्नान कर रही थी. उस के तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. कुलवंत फौरन बाहर आ गए. सुरभि की पीठ दरवाजे की तरफ थी. शायद उस ने कुलवंत को नहीं देखा था. कुलवंत की सांसें धोंकनी की तरह चलने लगीं. वे सोफे पर गिर पड़े. सोचने लगे कि अच्छा हुआ जो सुरभि को कुछ भी मालूम नहीं चला. मगर इस में गलती तो सुरभि की ही थी. सुरभि को अंदर से दरवाजा बंद करना चाहिए था.

उस घटना को गुजरे 24 घंटे से ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर कुलवंत की आंखों में स्नानघर वाला दृश्य बारबार घूम जाता था. यौवन की दहलीज पर खड़ी सुरभि के उस रूप ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था. उन्हें खुद से ज्यादा गुस्सा सुरभि पर आ रहा था. उस ने भीतर से दरवाजा बंद क्यों नहीं किया? यह लापरवाही थी या जानबूझ कर की गई कारस्तानी. नहीं, नहीं, यह लापरवाही नहीं हो सकती, यह सब सुरभि ने जानबूझ कर किया है. अच्छा होगा कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए.

इन विचारों के साथ वे बचपन की यादों में खो गए. कुलवंत और निशांत बचपन के मित्र थे. दोनों के घर आसपास ही थे. साथ ही खेलतेकूदते बचपन गुजरा. एक ही स्कूल में शिक्षा पाई. यूनिवर्सिटी में साथ ही दाखिला लिया. बाद में निशांत ने सीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर के चार्टर्ड अकाउंटैंट का कार्य शुरू कर दिया.

कुलवंत ने अपने पिता का खेतीबाड़ी का काम संभाल लिया. एक दिन अच्छा रिश्ता आया तो प्रभुदयालजी ने अपने बेटे निशांत का विवाह सृजना के साथ धूमधाम से कर दिया. कुलवंत ब्याह के कार्यों में 1 महीने तक जुटा रहा. निशांत के सभी सूट उस ने अपनी पसंद से सिलवाए. बरातियों की लिस्ट बनाने से ले कर प्रीतिभोज का मेन्यू तय करने तक में उस ने प्रभुदयालजी की मदद की. लोग भी कहने लगे कि निशांत और कुलवंत दोस्त नहीं, बल्कि भाई हैं.

कुछ समय बाद कुलवंत की भी शादी हो गई. उस की शादी में निशांत तो आया, मगर उस की पत्नी सृजना नहीं आई थी. कुलवंत को बुरा लगा. उस ने अपने दोस्त को खूब खरीखोटी सुनाईं. निशांत उस दिन कुछ भी नहीं बोला. कुलवंत की हर बात को उस ने सहजता से लिया. घरगृहस्थी में बंधने के बाद दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. कभीकभार दोनों दोस्त मिलते तो एकदूसरे से शिकवाशिकायत करने में ही समय गंवा देते. कुलवंत को कई बार लगा कि निशांत की गृहस्थी में सबकुछ ठीक नहीं है. उन्हीं दिनों खबर लगी कि निशांत के लड़की हुई है. मिठाई और उपहार दे कर दोनों पतिपत्नी वापस आ गए.

कुछ दिनों बाद एक अन्य मित्र के द्वारा मालूम पड़ा कि निशांत और सृजना की आपस में नहीं बनती. दोनों में रोज ही झगड़े होते रहते हैं. पुत्र और बहू के झगड़ों से दुखी प्रभुदयालजी की एक दिन हार्ट अटैक से मौत हो गई. उन की मौत के बाद तो निशांत और सृजना का मामला बिगड़ता ही चला गया.

मित्र के घर के बुरे समाचारों के बाद कुलवंत भी चिंतित हो उठा. एक दिन वह अपनी निशा को ले कर निशांत के घर गया. वहां दोनों को खूब समझाया. यहां कुलवंत को पहली बार लगा कि सृजना बहुत ही आक्रामक स्वभाव की थी. निशांत ने तो उन की बात को धैर्य के साथ सुना, मगर सृजना ने उन्हें दोटूक शब्दों में कह दिया, ‘देखिए, कुलवंतजी, आप अपने घर को संभालें. हमारे घर के मामलों में आप को पंचायत करने की जरूरत नहीं है.’

उस दिन कुलवंत भारी मन से वापस घर आया तो रो पड़ा था. आज उस के मित्र का घर बिखराव पर है अैर वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था. कुछ समय बाद समाचार मिला कि निशांत और सृजना में तलाक हो गया. कोर्ट के आदेश से सुरभि निशांत को मिल गई थी. एक दिन निशांत ने कुलवंत और निशा को अपने घर बुलाया और बताया कि वह सुरभि को ले कर डरबन जा रहा है. वहां एक मल्टीनैशनल कंपनी में अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई है. उस ने कुलवंत को अपने घर की चाबी देते हुए कहा कि मकान किराए पर उठा देना या जैसा तुम्हें उचित लगे, करना. समयसमय पर सफाई जरूर करवा देना. उस समय सुरभि मात्र 8 वर्ष की थी.

वक्त की रफ्तार धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. कुलवंत की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. लेकिन एक दिन निशा ने स्तन में दर्द होने की बात बताई. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच के बाद बताया कि उस को कैंसर है. बीमारी लास्ट स्टेज पर थी. कैंसर ने ऐसी जड़ें जमाईं कि निशा कभी ठीक ही नहीं हो पाई. कुलवंत को घर का चिराग दिए बिना ही निशा चल बसी. मातापिता का तो पहले ही देहांत हो गया था. वह दुनिया में अकेला हो गया. कभीकभी उस का मिलना सृजना भाभी से हो जाता था. वह अपने किए पर बहुत रोती थी. देखतेदेखते 12 वर्ष बीत गए. एक दिन निशांत ने वीजा व हवाई जहाज का टिकट भेज कर कुलवंत को डरबन बुला लिया.

मित्र के बुलावे पर वह 1 महीने पहले डरबन आया था. जब उस ने डरबन की धरती पर पांव रखा तो निशांत खुद गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आया था. वर्षों बाद एकदूसरे को देख कर दोनों के आंसू निकल आए थे. घर पहुंचे तो सुरभि को देख कर कुलवंत का मुंह खुला का खुला रह गया. 12 वर्ष पूर्व जिस सुरभि को उस ने भारत से विदा किया था, उस में व इस सुरभि में जमीनआसमान का फर्क था. आज तो वह बिलकुल अपनी मां जैसी लग रही थी. उस के  नैननक्श बिलकुल सृजना के जैसे थे.

निशांत और सुरभि के साथ रहने से कुलवंत में जीने की तमन्ना जाग उठी थी. उन दोनों के साथ रहते 1 महीना कब बीता, पता ही नहीं चला.

2 दिन पहले निशांत को किसी जरूरी कार्य से दुबई जाना पड़ा. उस ने रवाना होते समय कुलवंत से कहा था, ‘मैं 1 हफ्ते के बाद ही आ पाऊंगा. तुम्हारी देखभाल

के लिए सुरभि को कह दिया है. कोई विशेष कार्य हो तो मोबाइल पर बता देना.’

अचानक विचारतंद्रा टूटी तो कुलवंत ने देखा कि बंगला आ गया है. उन्होंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की. दोनों दरवाजे के पास पहुंचे तो यह देख कर दंग रह गए कि दरवाजा खुला हुआ है. दोनों ने एकदूसरे की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा. सुरभि ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं ने जाते वक्त ताला लगाया था. पीछे से यह दरवाजा किस ने खोला?’’

दोनों तेजी से दौड़ते हुए भीतर गए तो वहां के हालात देख कर भौचक्के रह गए. पूरे बंगले का सामान इधरउधर बिखरा पड़ा था. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘लगता है चोरों ने यहां अपना हाथ दिखा दिया है. मैं पुलिस को फोन करती हूं.’’

सूचना मिलते ही पुलिस की टीम वहां जा पहुंची. अधिकारी पूछताछ के बाद छानबीन में लग गए. लूट की रिपोर्ट लिखने के बाद पुलिस वापस लौट गई. सुरभि ने कुलवंत की तरफ देख कर कहा, ‘‘यार अंकल, यों मुंह लटकाए क्यों बैठे हो? यहां तो यह आम बात है. यह तो अच्छा हुआ हम दोनों घर पर नहीं थे, वरना लुटेरे हमें जान से मार भी सकते थे. मैं पापा को फोन कर के बता देती हूं. आप चाय तो बना कर पिला दीजिए.’’

कुलवंत सुरभि की बेतकल्लुफी पर हैरान था. वह चुपचाप उठा और रसोईघर की तरफ चल दिया. सुरभि ने मोबाइल फोन से घर में हुई लूट की बात अपने पापा को बता दी. उस ने यह भी बता दिया कि चिंता की बात नहीं है. कुलवंत अंकल और वह कुशलमंगल से हैं. कुलवंत ने तब तक चाय बना ली.

रात को दोनों ने मिल कर खाना बना लिया. खाना खाते समय दोनों चुपचुप रहे. खापी कर दोनों फ्री हुए तो कुलवंत अपने कमरे में आ कर पलंग पर लेट गए. उन्हें नींद नहीं आ रही थी. टीवी चालू कर के वे चैनल बदलने लगे. एक चैनल पर कोई संत कथा का वाचन कर रहे थे. उन्होंने मन में विचार किया कि चलो, आज कथा का ही आनंद ले लिया जाए.

इतने में सुरभि दूध का गिलास ले आई. कुलवंत को धार्मिक चैनल पर कथा सुनते देख आश्चर्यचकित हो उठी. उस ने दूध का गिलास टेबल पर रखते हुए कनखियों से कुलवंत की तरफ देखा और बोली, ‘‘वाह, आप को भी कथाओं का शौक है?’’

सुरभि की बात पर कुलवंत की  हंसी छूट गई. वे सुरभि की  तरफ देखे बगैर ही बोल पड़े, ‘‘सब अपनी रोजीरोटी के लिए दौड़ रहे हैं. अपने भारत में तो आजकल कथाकारों की बाढ़ आई हुई है. इन कथाओं में धन बरस रहा है. धर्म के नाम पर न तो लूटने वालों की कमी है और न ही लुटाने वालों की. मैं भी कभीकभी सोचता हूं कि सबकुछ छोड़ कर कथावाचक बन जाऊं. धन और शोहरत के साथ सुंदरसुंदर चेहरे वाली हसीनाओं के दर्शन का लाभ भी मिलता रहेगा.’’

‘‘अरे, रहने भी दो. हसीनाओं को देखना आप को आता ही कहां है? हां, साधु बन कर माला फेरनी हो तो बात दूसरी है.’’

कुलवंत सुरभि की बात सुन कर सन्न रह गए. वे समझ गए कि सुरभि का मूड आज बड़ा रोमांटिक है. उस की द्विअर्थी बातों में कुछ छिपा है. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ यहां से, रात काफी हो गई है, मैं सोना चाहता हूं. तुम भी अब अपने कमरे में जा कर सो जाओ.’’ सुरभि अपने कमरे में चली गई. उस के चेहरे पर मदमस्त कर देने वाली मुसकान थी. कुलवंत ने दूध के गिलास की तरफ देखा. आज दूध पीने की इच्छा नहीं हो रही थी. मन में विचार किया कि निशांत जल्दी से वापस आ जाए. वे टीवी का स्विच बंद कर के सो गए. कुछ देर बाद नींद ने डेरा डालना शुरू कर दिया. अभी पूरी आंख लगी भी नहीं थी कि अचानक चौंक कर उठ बैठे. आंखें खुलीं तो देखा पलंग के पास कोई खड़ा है.

‘‘कौन है?’’ घबराहट में मुंह से निकल गया.

‘‘मैं हूं.’’

‘‘मैं कौन?’’

‘‘सुरभि.’’

‘‘इस समय यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही. अपने कमरे में डर लग रहा है, मैं अकेली वहां नहीं सो सकती.’’

‘‘पागल मत बनो. जाओ, अपने कमरे में. अपनेआप नींद आ जाएगी.’’

‘‘नहीं, डर लगता है. मैं तो यहीं पर सोऊंगी.’’

‘‘समझा करो. तुम अब छोटी बच्ची नहीं रहीं.’’

‘‘इसीलिए तो यहां सोने आई हूं.’’

इतना कहते ही सुरभि कुलवंत के पास लेट गई. कुलवंत की सांसें एकाएक फूलने लगीं. वे पलंग पर एक कोने पर सरक गए. घबराहट के मारे बुरा हाल हो रहा था. उन्होंने सुरभि की तरफ देख कर कहा, ‘‘प्लीज, यह गलत है. हमारी संस्कृति इस की इजाजत नहीं देती. कम से कम हम दोनों की उम्र का फर्क तो देखो. मैं तुम्हारे पापा की उम्र का हूं.’’

सुरभि ने भी करवट बदली और कुलवंत से एकदम सट कर बोली, ‘‘मुझे बेकार की बातें मत समझाइए. आप को समझ में नहीं आता तो मैं बता देती हूं. अब जमाना बदल गया है. जो भूख लगने पर भोजन नहीं करता वह पागल है.’’

‘‘प्लीज, कहना मानो. कल तुम्हारे पापा को मालूम होगा तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा.’’

‘‘डरिए मत, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा. हो जाने दीजिए, जो कुछ होता है. जहां प्यार पनपता है वहां उम्र का हिसाब गौण हो जाता है. आजकल जमाना बदल गया है. प्यासी तृप्त होगी तो उस का परिणाम मिलेगा. यह व्यभिचार नहीं, उपकार होगा.’’

अचानक उस ने अपनी बंद मुट्ठी कुलवंत की तरफ बढ़ा दी.

‘‘क्या है?’’

‘‘तुम्हारी दवा. आज सुबह मैडिकल शौप से खरीदी थी.’’

इतना कहते हुए उस ने अपनी बंद मुट्ठी खोली. उस में एक ‘पैकेट’ था. यह देख कुलवंत की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं. वह समझ गया कि वास्तव में जमाना बदल गया है. नए जमाने के सामने उस ने घुटने टेक दिए. अगले ही पल उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

Love Story : मिनी, एडजस्ट करो प्लीज – क्या एडजस्ट करना आसान था मिनी के लिए

Love Story : देखते ही देखते गुबार उठा और आंधी चलने लगी. भाभी ने ड्राइंगरूम से आवाज दी, ‘मिनी, दरवाजेखिड़कियां बंद कर लेना, नहीं तो गर्द अंदर आ जाएगी.’ उस ने कहना चाहा, भाभी, तूफानी अंधड़ ने तो पहले ही से मेरे मन के दरवाजेखिड़कियों को बंद कर रखा है और मुझे अंधेरे कमरे में कैद कर रखा है.

कुछ देर बाद बारिश शुरू हो गई, तो बाहर का तूफान थम गया पर उस के मन के तूफान की रफ्तार वैसी ही थी. वह जानती थी, भैयाभाभी ड्राइंगरूम में मैट्रोमोनियल के जवाब में आई चिट्ठियां पढ़ रहे होंगे. 6 माह पहले जब भैया ने मैट्रोमोनियल विज्ञापन की बात कही थी तो मैं पत्थर हो गईर् थी. मैं दोबारा किसी के साथ जुड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी. पर भैया ने कहा था, ‘मिनी, सोच कर जवाब देना, सारी जिंदगी पड़ी है आगे.’

भैया ने तो ठीक ही कहा था पर अगले दिन जब उन्होंने मुझे अपनी डिगरियां निकालते देखा तो वे खामोश हो गए.2 कमरों के इस फ्लैट में मैं, भैया और भाभी 3 लोग ही थे पर वक्त ने जैसे हमें अजनबी बना दिया था.

यह अजनबियत पहले नहीं थी. मात्र एक साल ही तो गुजारा था नरेश के घर में. फिर मैं अपनी सूनी मांग ले कर भैया के घर वापस आ गई. नरेश के बाद किसी दूसरे के साथ जुड़ने का खयाल भी मन को झकझोर देता था.

फिर मैं अपनी डिगरियों के सहारे नौकरी की तलाश में लग गई. पर एक विधवा के प्रति लोगों का रुख देख कर मन कांप उठता था. एक विधवा, जवान और खूबसूरत कितने अवगुण थे मुझ में. आखिर, मैं ने हथियार डाल दिए. भैया ठीक ही कहते हैं. अकेले सारी जिंदगी गुजारना सचमुच मुश्किल था.

भैया ने फिर विज्ञापन देखने शुरू कर दिए. चिट्ठियां फिर से आने लगीं. मैं समझ गईर् कि एक न एक दिन मुझे इस घर से जाना ही होगा. इसी बीच एक दिन एक शख्स का पत्र आया. कोठी, कार, अच्छी नौकरी, अकेला घर सबकुछ था उस के पास, और क्या चाहिए किसी औरत को. हां, खलने वाली एक ही बात थी, कि उस की पत्नी जीवित थी और उस के साथ उस का बाकायदा तलाक अभी तक नहीं हुआ था. पर इस से क्या होता है, पत्नी का उस से कोई सरोकार नहीं था.

भैया ने उस शख्स को फोन कर घर आने को कह दिया. वह आया. भैया ने अपनी शंकाएं उस से जाहिर कीं. बदले में उस ने आश्वासनों का ढेर लगा दिया. भैया उस की बातों से संतुष्ट हुए और मुझे उस के हवाले कर दिया.

उस के गंभीर और गरिमामय व्यक्तित्व ने मुझे भी प्रभावित किया था. मुझे मालूम था कि किसी न किसी के गले बांध दी ही जाऊंगी, तो फिर तुम ही सही.

वह मुझे अपने घर ले गया. घर क्या था, पूरी हवेली थी. इस हवेलीनुमा घर के वैभव को छोड़ कर उस की पत्नी क्यों चली गई होगी, यह खयाल मेरे दिल में रहा. मेरे साथ रहते हुए तुम्हें अरसा बीत गया. अब तक तुम मुझे क्यों तड़पाती रहीं, ऐसा क्यों किया तुम ने?

उस के यह पूछने के जवाब में मैं ने पूरी कहानी सुना दी. ‘‘दरअसल, अपने हवेलीनुमा घर में ला कर तुम ने कहा, ‘अपना घर तुम्हें कैसा लगा, मिनी?’ इस के साथ तुम ने मुझे अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया. मैं ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, तो तुम ने कहा, ‘क्यों, क्या बात है, अब तो तुम मेरी हो, मेरी पत्नी, यह घर तुम्हारा ही है?’

‘‘‘बिना किसी संस्कार के मैं तुम्हारी पत्नी कैसे हो गई,’ मैं ने प्रतिरोध करते हुए कहा. तुम्हारी बांहों का घेरा कुछ और तंग हो गया और तुम ने हंसते हुए कहा, ‘ओह, तो तुम उस औपचारिकता की बात करती हो, उस की कोई वैल्यू नहीं है, तुम्हारे भी बच्चे होगें, उन्हें मेरा नाम मिलेगा, प्यार मिलेगा, जायदाद में पूरा हिस्सा मिलेगा.’

‘‘कितनी आसानी से तुम ने मुझे सारा कुछ समझा दिया था पर तुम जिसे औपचारिकता कहते हो वही तो एक सूत्र होता है जिस के दम पर एक औरत रानी बन कर राज करती है मर्द के घर और उस के दिल पर.

‘‘महाराज चाय बना कर ले आया था. चाय के साथ उस ने ढेर सारी प्लेटें मेज पर लगा दी थीं. चाय पीने के बाद तुम औफिस के लिए तैयार हुए और जातेजाते मुझे बांहों में भरा. तुम्हारी बांहों में मैं मछली सी तड़प उठी. तुम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे और औफिस चले गए. पर मैं अपने औरत होने की शर्मिंदगी में टूटतीबिखरती रही.

‘‘मैं क्या कहती, मुझे तो यह भी नहीं पता था कि तुम्हें क्याक्या पसंद था. मैं ने यह कह कर मुक्ति पा ली, ‘कुछ भी बना लो.’ तभी वीरो आ गई, घर की मेडसर्वेंट. महाराज ने चुपके से उसे मेरे बारे में बताया. वीरो ने कहा, ‘अच्छा तो ये हैं,’ और काम में लग गई. बीचबीच में वह मुझे कनखियों से तोलती रही.

‘‘शाम को तुम औफिस से लौटे तो काफी खुश थे. महाराज तुम्हारी गाड़ी में से कई बैग निकाल कर लाया और सोफे पर रख दिया. तुम ने कई खूबसूरत साडि़यां मेरे सामने फैला दीं, ‘मिनी, ये सब तुम्हारे लिए हैं.’ पर तुम्हारे स्वर का अपनत्व मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ को पिघला नहीं सका. तुम्हारी इच्छा से मैं ने आसमानी रंग की साड़ी पहन ली. फिर तुम महाराज और वीरो के जाने का इंतजार करने लगे. उन के जाते ही तुम बेसब्रे हो गए और मुझे बिस्तर पर खींच लिया. तुम्हारे बिस्तर पर बैठते ही मुझे लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने मुझे डंक मार दिया हो. मैं तड़पने लगी. फिर कुछ समझते हुए तुम मेरी पीठ सहलाने लगे.

‘‘‘मिनी, नरेश को क्या हुआ था?’ तुम ने पहली बार इतने प्यार से पूछा कि तुम मुझे आत्मीय से लगने लगे. पिछले

6 महीनों से जो गुबार मन में रुका हुआ था वह अचानक फूट पड़ा. मैं तुम्हारे कंधे पर झुक गई. तुम मेरे आसुंओं से भीगते रहे. फिर मैं ने तुम्हें बताया कि नरेश के साथ मैं ने कितने खुशहाल दिन बिताए थे. लेकिन सुख के दिन ज्यादा देर न रहे और एक दिन औफिस से लौटते समय नरेश का ऐक्सिडैंट हो गया. उस की रीढ़ की हड्डी टूट गई जो इलाज के बावजूद ठीक से जुड़ नहीं पाई.

‘‘नरेश ने जो एक बार बिस्तर पकड़ा तो उठ नहीं पाया. जबजब वह मेरी ओर हाथ बढ़ाता तो उस की हड्डी में कसक उठती. कभीकभी तो वह दर्द से चीखने लगता.

‘‘नरेश अब बिस्तर पर पड़ापड़ा मुझे दयनीय नजरों से देखता रहता और मैं आहत हो जाती. नरेश के इलाज पर बहुत पैसा खर्च हो गया था. धीरेधीरे नरेश को लगने लगा कि उस के कारण मेरी जवान उमंगों का खून हो रहा है. यह अपराधबोझ उस के दिल में घर करने लगा. मैं ने हालात को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था पर नरेश ने नहीं किया.

‘‘नरेश को अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी. हम उसे घर ले आए थे. पर अब हालात काफी बदल चुके थे. परिवार वालों की नजर में मैं अपशकुनी थी. नरेश अपने मन की हलचलों से ज्यादा लड़ नहीं सका और न ही अपनी शारीरिक तकलीफ को झेल सका. एक दिन उस ने अपनी कलाई की नस काट ली और चला गया मुझे अकेला छोड़ कर.

‘‘नरेश के परिवार वालों को अब मैं कांटे सी खटकने लगी और एक दिन भैया मुझे घर ले आए.‘‘तुम ने ठंडी सांस ली और कहा, ‘मिनी, ऐडजस्ट करने का प्रयास करो.’ मैं तुम्हारे सीने पर फफक पड़ी. कैसे भूलूं उस सब को. नरेश की आंखें मेरा पीछा करती हैं. मैं ने उसे तिलतिल कर मरते हुए देखा है. उस की आंखों में छलकती प्यास मुझे जीने नहीं देती.

‘‘तुम देर तक मेरी पीठ सहलाते रहे. फिर बत्ती बुझाई और सो गए. पर मैं रातभर जागती रही. मुझे लगा जैसे मैं अंगारों पर लेटी हुई हूं. अगले दिन तुम एक पिंजड़ा ले आए. उस में एक तोता था. तुम ने हंसते हुए कहा, ‘मिनी, इस तोते को बातें करना सिखाना, तुम्हारा मन लगा रहेगा.’ महाराज ने तोते के लिए कटोरी में पानी और हरीमिर्च रख दी.

‘‘तोते ने कुछ भी छुआ नहीं. वह अपनी दुम में ही सिमटा रहा. तुम ने कहा, ‘मिनी, नई जगह आया है न, एकदो दिन में ऐडजस्ट कर लेगा.’

‘‘सचमुच 2 दिनों बाद तोते ने खानापीना शुरू कर दिया. अब वह पिंजड़े में उछलकूद करने लगा था. बीचबीच में आवाजें भी निकालने लगा था. तुम औफिस से आते ही तोते से बातें करते, फिर मुझ से कहते, ‘देखा, तोता अब हम से हिलनेमिलने लगा है.’

‘‘मैं तुम्हें कैसे बताती कि इंसान और पंछी में फर्क होता है. इंसान की अपनी ही कुंठाएं उसे खाती रहती हैं. मैं भावनात्मक रूप से नरेश से जुड़ी हुई थी. मुझ में और तोते में फर्क है.

‘‘तुम ने मुझे गहरी नजर से देखा और गले से लगा लिया. फिर गंभीर स्वर में कहा, ‘मिनी, मैं सरकारी नौकरी में हूं. एक पत्नी के जिंदा रहते दूसरी शादी करना कानूनन जुर्म है. मुझे जेल भी हो सकती है. पर मैं भी इंसान हूं. तनहा नहीं रह सकता. मेरी भी कुछ जिस्मानी जरूरतें हैं. मैं ने कई लड़कियां देखीं, पर कोई पसंद नहीं आई. फिर तुम्हारे भैया का निमंत्रण आया. तुम मुझे बेहद मासूम लगीं. मुझे लगा कि तुम्हारे साथ जीवन आसान हो जाएगा. क्या मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती की है?’

‘नहींनहीं, तुम भला क्यों जबरदस्ती करते. पर मैं भैया के लिए एक भार ही थी न. बड़ी मुश्किल से उन्होंने मेरी शादी की थी. पर नरेश…’

‘‘‘उस सब को भूल जाओ, मिनी. गया वक्त कभी लौट कर नहीं आता. ऐडजस्ट करने की कोशिश करो.’

‘‘पर मैं क्या करूं, कुछ समझ नहीं आता. जानवर नहीं हूं, न ही पूंछी हूं, फिर भी जानती हूं आज नहीं तो कल, ऐडजस्ट करना ही होगा.

‘‘तुम्हारे साथ बिस्तर पर लेटते ही नींद आंखों से उड़ जाती. रातभर सोचती रहती, कितनी निष्ठुर होगी तुम्हारी पत्नी जो तुम्हें छोड़ कर चली गई. सोचतेसोचते जब ध्यान तुम्हारी ओर जाता तो लगता, तुम भी सोए नहीं हो. मेरे दिल और दिमाग में तूफानी कशमकश चलने लगती पर समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं.

‘‘अगले दिन तुम औफिस से आए तो काफी उदास थे. पर मैं तो अभी तक तुम्हारे साथ मन से जुड़ नहीं पाई थी. सो, कुछ पूछ नहीं पाई. खाना खा कर तुम पलंग पर लेट गए. तुम बहुत खामोश थे. मैं भी चुपचाप लेट गई. मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ अब तुम्हारे व्यवहार से कुछकुछ पिघलने लगी थी. मैं ने देखा, तुम सो नहीं पा रहे थे. अचानक तुम्हारे मुंह से एक गहरी सांस निकली. मैं ने तुम्हारे कंधे पर हाथ रख दिया. तुम ने आंखें खोल कर मेरी ओर देखा और हाथ बढ़ा कर मुझे अपने करीब खींच लिया. मैं ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने देखा, तुम्हारी आंखों में वही आदम भूख जाग उठी थी. तुम्हारी नजरों ने मुझे आहत कर दिया. मुझे लगा, मेरी नजदीकी ने बिस्तर पर लेटे नरेश को भी बहुत तड़पाया था और अब तुम्हें…

‘‘‘नहीं, मुझे कोई हक नहीं था तुम्हें तड़पाने का.’ मैं फफक पड़ी. तुम ने मुझे सहलाते हुए कहा, ‘क्या बात है मिनी, क्यों परेशान हो?’

‘‘मैं सरक कर तुम्हारे करीब आ गई. तुम्हारी सांसें अब मेरी सांसों से टकराने लगी थीं. मैं ने अपनी बांहें तुम्हारे गले में डाल दीं. तुम स्पर्श के इस भाव को समझ गए और तुम ने मुझे और अधिक कस कर सीने से लगा लिया और मैं ने अपने अंदर की औरत को समझाया कि आखिर कब तक एक पंछी और इंसान के फर्क में उलझी रहोगी. और मैं ने अपनेआप को तुम्हारे साथ ऐडजस्ट कर ही लिया.’’

Best Hindi Story : दो टकिया दी नौकरी – आखिर क्यों रूपेश ने नौकरी छोड़ दी?

Best Hindi Story : ‘‘हैलो,’’फोन पर विद्या की जानीपहचानी आवाज सुन कर स्नेहा चहक उठी.

‘‘क्या हालचाल हैं… और सुना सब कैसा चल रहा है…’’ कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों अपनेअपने पति की बुराई में लग गईं.

‘‘प्रखर को तो घर की कोई चिंता ही नहीं रहती. कल मैं ने बोला था कि शाम को जल्दी आ जाना. टिंकू के जूते खरीदने हैं. पर इतनी देर में आया कि क्या बताऊं,’’ विद्या बोली.

स्नेहा यह सुन कर क्या बोली

यह सुन कर स्नेहा भी बोल पड़ी, ‘‘यह रूपेश भी ऐसा ही करता है. जब जल्दी आने को बोलूं तो और भी देर से आता है. शुक्रवार की ही बात ले लो. नई फिल्म देखने का प्लान था हमारा… इतनी देर से आया कि आधी फिल्म छूट गई.’’

दोनों गृहिणियां थीं. दोनों के पति एक ही कंपनी में काम करते थे. बच्चे भी लगभग समान उम्र के थे. दोनों का अपने पति की औफिस की पार्टी के दौरान एकदूसरे से पहली बार मिलना हुआ था. दोनों के पति एक ही औफिस में काम करने के कारण लगभग एक ही तरह की समस्या से गुजरते थे. शुरुआत में दोनों अपनेअपने पति के औफिस के बारे में ही बातें किया करती थीं, लेकिन जल्दी ही उन की बातों का विषय अपनेअपने पति की बुराई करना बन गया.

तभी स्नेहा के घर की घंटी बजी तो वह बोली, ‘‘विद्या, शायद मेरी कामवाली आ गई है. चल, बाद में फोन करती हूं,’’ कह कर स्नेहा ने फोन काट दिया. दरवाजा खोलते ही रमाबाई अंदर आ गई और फिर जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी.

‘‘क्या बात है रमा… आज बड़ी जल्दी में लग रही हो?’’ स्नेहा ने पूछा तो वह रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ स्नेहा ने हैरान होते हुए पूछा.

तब रमा रोतेरोते बोली, ‘‘क्या बताएं बीबीजी, हमारा आदमी एक स्कूल बस के ड्राइवर की नौकरी करता था. कल गलती से स्कूल के एक बच्चे को स्कूल के लिए लेना भूल गया तो नाराज हो कर मालिक ने नौकरी से ही निकाल दिया.’’

‘‘उफ,’’ स्नेहा को सहानुभूति हुई.

फिर रमाबाई अपना काम कर के चली गई. तब स्नेहा को याद आया कि आज तो सब्जी भी नहीं है. लव और कुश भी स्कूल से आते ही होंगे. जल्दीजल्दी सब्जी की दुकान की तरफ चल दी. मन ही मन बड़बड़ा रही थी कि यह रूपेश सब्जी तक नहीं ले कर आता. सारा काम खुद ही करना पड़ता है.

स्नेहा घर आ कर खाना बनाने में जुट गई. बच्चों के स्कूल से आने के बाद उन्हें खाना खिलाना, पार्क ले जाना, होमवर्क करवाना आदि इन्हीं सब में शाम बीत जाती. रात के खाने की तैयारी के दौरान रूपेश भी घर आ जाता. बस खाना खा कर सो जाता. यही उस की दिनचर्या बन गई थी.

कभीकभी स्नेहा इस दिनचर्या से तंग आ जाती तो रूपेश के घर आते ही उस से झगड़ पड़ती, ‘‘तुम मेरे लिए तो छोड़ो, बच्चों तक के लिए समय नहीं देते.’’

जवाब में रूपेश भी गुस्सा करता, ‘‘तुम पूरा दिन घर में रहती हो. तुम्हें क्या पता मुझे दिन भर कितनी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. तुम विद्या से पूछना. प्रखर भी अभी तक रुका हुआ था… कंपनी की हालत ठीक नहीं चल रही है. जब से यह अशोका नामक नई कंपनी खुली है तब से हमारी कंपनी का बिजनैस काफी कम हो गया है.’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी कंपनी में रोज ही कोई न कोई समस्या होती है. अरे, इतनी ही बुरी हालत है तो कंपनी छोड़ ही क्यों नहीं देते?’’ स्नेहा गुस्से में बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई.

अगले दिन फिर सुबह फोन पर रूपेश और प्रखर की बुराई का सिलसिला चल पड़ता.

विद्या और स्नेहा ने एक रविवार को साथ पिकनिक का प्लान बनाया. हंसीमजाक, मौजमस्ती के बीच में भी प्रखर और रूपेश कंपनी की बातें करते जा रहे थे.

आखिरकार स्नेहा खीज कर बोली, ‘‘तुम लोग यह कंपनी छोड़ कर कोई बिजनैस क्यों नहीं शुरू करते?’’

‘‘बिजनैस?’’ सभी एकसाथ बोल पड़े.

‘‘हां, थोड़ा लोन ले लेंगे, कुछ गहने आदि बेच कर हम शुरुआत के लिए तो रकम जुटा ही लेंगे,’’ स्नेहा बोली.

स्नेहा की बात अच्छी तो सब को लगी, लेकिन बिजनैस करना कोई बच्चों का खेल नहीं. प्रखर ने तो साफ मना कर दिया, ‘‘बिजनैस करना जोखिम से भरा होता है. चले या न चले इस की कोई गारंटी नहीं रहती. न बाबा न, मैं नहीं करने वाला बिजनैस.’’

क्या बात विद्या को पसंद आई

लेकिन यह बात विद्या को बड़ी पसंद आई. बोली, ‘‘स्नेहा ठीक ही तो कह रही है, बिजनैस करो और मनचाही छुट्टियां कर लो, बौस की नाराजगी का कोई डर नहीं.’’

‘‘बिजनैस करना एक तरह से जुआ खेलने के समान है. सब कुछ दांव पर लगा कर भी जीत सुनिश्चित नहीं होती,’’ प्रखर के कहने पर बात आईगई हो गई.

रूपेश अपने परिवार को प्यार करता था. परिवार को अधिक समय दे पाने की ख्वाहिश उस की भी थी, लेकिन कई बार अपने बौस के गुस्से के डर से अपने घर की जिम्मेदारियां पूरी तरह से नहीं निभा पाता था. वह स्नेहा के सुझाव पर ध्यान से सोचने लगा.

अगले दिन जैसे ही स्नेहा ने विद्या से बात करने के लिए फोन हाथ में उठाया तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. ‘लगता है रमाबाई आ गई,’ मन ही मन सोचते हुए स्नेहा ने दरवाजा खोला, तो सामने रूपेश को देख कर चौंक उठी. बोली, ‘‘आप अभीअभी तो औफिस गए थे. इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘अब मैं औफिस जाऊंगा ही नहीं, नौकरी जो छोड़ आया हूं,’’ रूपेश ने मुसकराते हुए कहा.

स्नेहा सुन कर परेशान हो गई, ‘‘बौस से कहासुनी हो गई क्या? ऐसे कैसे नौकरी छोड़ दी?’’

‘‘अरे बाबा बिजनैस जो करना है.’’

रूपेश के जवाब पर स्नेहा मुसकराई तो जरूर पर मन ही मन घबरा भी गई. उस ने तो यह सोच कर कह दिया था बिजनैस करने को कि प्रखर और रूपेश मिल कर बिजनैस करेंगे. फायदा या नुकसान जो भी हो दोनों मिल कर झेल लेंगे और फिर एक और एक ग्यारह होते हैं. लेकिन जब प्रखर ने मना कर दिया तो उस ने आगे सोचा भी नहीं, पर यह रूपेश तो अपनी जौब ही छोड़ आया. स्नेहा कुछ बोल न पाई. तभी रमाबाई आ गई और स्नेहा घर के काम में लग गई.

‘‘रूपेश, मैं सब्जी ले कर आती हूं,’’ कह स्नेहा जाने लगी तो रूपेश भी उस के साथ हो लिया.

‘‘अरे बाबूजी आप?’’ सब्जी वाला जो

रोज स्नेहा के सब्जी खरीदने की वजह से उस

से काफी परिचित हो चुका था, रूपेश से बोल उठा, ‘‘आइएआइए बाबूजी… आज काम पर नहीं गए क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘क्यों?’’ पूछ सब्जी वाले ने यों देखा जैसे रमाबाई के पति की तरह रूपेश को भी नौकरी से निकाल दिया गया हो.

स्नेहा कुछ बोल न पाई. घर आ कर उस ने जल्दीजल्दी सब्जी बनाई. फिर रूपेश से बोली, ‘‘लवकुश के स्कूल से आने का समय हो गया है. मैं चावल चढ़ा कर जा रही हूं, तुम थोड़ी देर बाद आंच बंद कर देना.’’

‘‘ठहरो, मैं भी चलता हूं. चावल आ कर बना लेना,’’ कह रूपेश भी साथ चल दिया.

बसस्टौप पर बच्चे पापा को देख कर

हैरान थे.

‘‘पापा आज तो बारिश नहीं हुई. फिर आप के औफिस में रेनीडे की छुट्टी क्यों हो गई?’’ नन्हे कुश ने बोला तो सभी हंस पड़े.

घर आने पर जब तक स्नेहा से खाना नहीं बना तब तक बच्चों ने खानाखाना का राग अलाप कर दोनों की नाक में दम कर दिया.

खाना खा कर रूपेश ने स्नेहा से बोला, ‘‘आओ मिल कर बिजनैस की प्लानिंग करते हैं.’’

पर स्नेहा को फुरसत कहां?

‘‘रूपेश तुम बच्चों को होमवर्क करवा दो. तब तक मैं कपड़े धो लेती हूं. फिर आराम से बैठ कर बिजनैस की प्लानिंग करेंगे.’’

बच्चों को होमवर्क करवाना आसान नहीं था. लव ने जब पापा से पूछा कि कद्दू और बैगन में क्या फर्क है, तो रूपेश बोला, ‘‘लिख दो कि कद्दू हरा और बैगन बैगनी होता है,’’ पापा के जवाब पर लव जोरजोर से हंसने लगा तो कुश भी उस के साथ मिल कर तालियां बजाबजा कर हंसने लगा.

शोर सुन कर कपड़े धोना छोड़ कर स्नेहा भागीभागी आई, ‘‘क्या बात है, तुम दोनों पढ़ाई क्यों नहीं कर रहे? तब लव ने वही सवाल स्नेहा से भी पूछ लिया.

‘‘बैगन एक श्रब है और कद्दू क्रीपर.’’

स्नेहा के जवाब पर लव और कुश फिर से पापा को देख कर हंस दिए.

होमवर्क के लिए पापा को तंग न करने का निर्देश दे कर स्नेहा फिर से कपड़े धोने चली गई. रूपेश आंखें बंद कर के चुपचाप लेट गया. थोड़ी देर बाद बच्चों ने फिर से कुछ पूछने की कोशिश की तो रूपेश ने सोने की ऐक्टिंग करने में ही भलाई समझी. थोड़ी देर बाद पापा को सोया देख दोनों खेलने भाग गए. काफी देर बाद आंख खुली तो देखा शाम हो आई है.

स्नेहा लवकुश को डांट रही थी, ‘‘शाम हो गई है और तुम दोनों अपना होमवर्क छोड़ कर खेल में ही लगे हो.’’

तभी रूपेश को जागा देख कर स्नेहा शांत हो कर चाय बनाने चली गई. चाय पी कर स्नेहा बच्चों को होमवर्क कराने लगी.

रूपेश सोच में पड़ गया कि स्नेहा को तो पूरा दिन चैन से बैठने की भी फुरसत नहीं मिली. बिजनैस में मेरा हाथ बंटाने का वक्त कहां से निकालेगी.

‘‘खाने में क्या बनाऊं?’’ तभी स्नेहा की आवाज से रूपेश की तंद्रा टूटी.

अगले दिन रूपेश औफिस नहीं गया. रमाबाई आ कर अपना काम करते हुए आज फिर से रो पड़ी, ‘‘बीबीजी, साहब को बोलो कि मेरे आदमी को अपने लिए ड्राइवर रख लें. जब तक उस की कहीं नौकरी नहीं लग रही तब तक उसे काम पर रख लो. नहीं तो मेरे बच्चों का स्कूल छूट जाएगा.’’

स्नेहा के कहने पर ही रमाबाई ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय

प्राइवेट स्कूल में डाला था. स्नेहा कैसे बताती कि खुद उस का पति ही नौकरी छोड़ आया है. वह उस के पति को काम पर कैसे रख सकता है?

स्नेहा अपने गहने निकालना. जरा देखूं तो बिजनैस के लिए कितने पैसों का इंतजाम हो जाएगा.

रूपेश के कहने पर स्नेहा ने अपने गहनों का डब्बा निकाला. कांपते हाथों से उसे रूपेश के हवाले कर के वह कुछ उदास सी हो गई.

तभी विद्या का फोन आ गया, ‘‘आज औफिस में पार्टी है. तू आ रही है न?’’

‘‘देखूंगी,’’ अनमने भाव से कह स्नेहा ने फोन काट दिया. फिर सोचने लगी कि बिना गहनों के अब वह पार्टी में कैसे जाएगी?

अत: रूपेश के पास जा कर बोली, ‘‘सुनो, क्या हम इन गहनों को 1-2 दिन के बाद नहीं बेच सकते?’’

‘‘ठीक है,’’ कह रूपेश ने गहनों का डब्बा वापस कर दिया.

स्नेहा को उन बेजान गहनों पर बेतहाशा प्यार उमड़ आया कि ये कंगन मेरी मां ने बनवाए थे. यह अंगूठी मेरी दीदी ने गिफ्ट की थी, यह सोने की चैन मेरी बूआ की आखिरी निशानी है और यह हार बड़े प्यार से रूपेश ने मेरे लिए बनवाया था. उस की आंखों भीगने लगीं.

1-1 कर वह गहनों को चूमने लगी.

तभी विद्या का फिर फोन आ गया. बोली, ‘‘तू ने बताया ही नहीं स्नेहा कि पार्टी में आ रही है या नहीं?’’

‘‘हांहां,’’ कह स्नेहा कुछ सामान्य हुई, ‘‘पर यह तो बता कि पार्टी है किस बात की?’’

‘‘बौस का जन्मदिन है न, तभी तो 2 दिन की छुट्टी है.’’

‘‘अच्छा ठीक है, मैं बाद में बात करती हूं,’’ कह स्नेहा ने फोन काट दिया. वह सीधे रूपेश के पास पहुंची, ‘‘मुझे बेवकूफ बनाया तुम ने, मुझ से कहा कि मैं नौकरी छोड़ आया हूं जबकि तुम्हारे औफिस में छुट्टी थी.’’

‘‘हां, औफिस में छुट्टी तो थी, लेकिन मैं सचमुच सोच रहा था कि नौकरी छोड़ दूं. आज बौस के जन्मदिन की पार्टी में ही मैं अपना त्यागपत्र देने वाला था. यह देखो मैं ने लिख भी रखा है.’’

2 दिन पहले का लिखा त्यागपत्र देख कर स्नेहा को विश्वास हो गया कि रूपेश सचमुच नौकरी छोड़ने वाला है.

शाम को पार्टी के लिए तैयार होते हुए स्नेहा की आंखें बारबार भीग रही थीं कि इन सारे गहनों को अब वह नहीं पहन पाएगी या फिर शायद 4-5 साल बाद जब उन का बिजनैस चल जाए तो फिर से खरीद लें… पर कम से कम 4-5 साल तो उसे इन के बिना ही रहना पड़ेगा.

पार्टी के लिए गाड़ी से जाते हुए स्नेहा सोच रही थी कि अगर रूपेश नौकरी न छोड़े तो वह रमाबाई के पति को ड्राइवर रख ले.

पूरा दिन स्नेहा कितना काम करती है, अगर वह बिजनैस में हाथ बंटाएगी तो घर और बच्चे कौन संभालेगा?’’ रूपेश भी चिंता में था.

पार्टी जोरशोर से चल रही थी. वहां पहुंचते ही प्रखर और विद्या उन्हें मिल गए. पार्टी के बाद बौस ने सब को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आज की पार्टी मेरे औफिस में काम करने वाले सभी दोस्तों की बीवियों के नाम… अगर वे घर की जिम्मेदारियों से अपने पतियों को मुक्त न रखतीं तो सारे कर्मचारी औफिस में मन लगा कर काम न कर पाते.’’

स्नेहा का दिल जोरों से धड़क रहा था कि अब रूपेश त्यागपत्र दे देगा और ये पार्टियां वगैरह बंद हो जाएंगी.

घर लौटते वक्त रूपेश ने कहा, ‘‘स्नेहा, तुम मेरे और बच्चों के लिए बहुत मेहनत करती हो. बौस ने सच ही कहा कि अगर तुम पूरी जिम्मेदारी से घर संभालती हो तो मैं पूरी जिम्मेदारी से औफिस का काम कर पाता हूं. मैं बेकार में तुम पर गुस्सा करता हूं. सौरी…’’

‘‘रूपेश, तुम्हारा काम भी तो कम महत्त्वपूर्ण नहीं. हमारे पास आज जो कुछ भी है वह तुम्हारी मेहनत का ही तो फल है. दरअसल, मैं इस सब की आदी हो चुकी हूं, इसलिए मैं बेकार की शिकायत करती रहती हूं. लेकिन कभी यह सब खो गया तो पता नहीं मैं कैसे सह पाऊंगी? अच्छा ही हुआ जो तुम ने त्यागपत्र नहीं दिया.’’

Writer- Bhawna Gaur

Hindi Story : याददाश्त – इंसान को कमजोरी का एहसास कब होता है

Hindi Story : कहते हैं आदमी की उम्र बढ़ने के साथसाथ याददाश्त भी कमजोर होने लगती है. शायद कुछ ऐसा ही हो रहा होगा मेरे साथ, तभी तो आजकल अकसर चीजें रख कर भूल जाता हूं. उस दिन चश्मा नहीं मिल रहा था. बस उस के ढूंढ़ने के पीछे क्याक्या हो गया, क्या बताऊं… याददाश्त इतनी कमजोर नहीं थी कि घर भूल जाऊं. पत्नीबच्चों को भूल जाऊं. जैसा कि लोग कहते थे कि यदि भूलने की आदत है तो खानापीना, सोना, घनिष्ठ संबंध क्यों नहीं भूल जाते. अब मैं क्या करूं यदि रोजमर्रा की चीजें भी दिमाग से निकल जाती थीं. तो वहीं ऐसी बहुत सारी छोटीछोटी बातें हैं जो मैं नहीं भूलता था और ऐसी भी बहुत सी चीजें, बातें थीं जो मैं भूल जाता था और बहुत कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आती थीं और याद करने की कोशिश में दिमाग लड़खड़ा जाता. खुद पर गुस्सा भी आता. तलाश में घर का कोनाकोना छान मारता. समय नष्ट होता.

खूब हलकान, परेशान होता और जब चीज मिलती तो ऐसी जगह मिलती कि लगता, अरे, यहां रखी थी. हां, यहीं तो रखी थी. पहले भी इस जगह तलाश लिया था, तब क्यों नजर नहीं आई? उफ, यह कैसी आदत है भूलने की. इसे जल्दबाजी कहें, लापरवाही कहें या क्या कहें? अभी इतनी भी उम्र नहीं हुई थी कि याद न रहे. कल बाजार में एक व्यक्ति मिला, जिस ने गर्मजोशी से मुझ से मुलाकात की और वह पिछली बहुत सी बातें करता रहा और मैं यही सोचता रहा कि कौन है यह? मैं उस की हां में हां मिला कर खिसकने का बहाना ढूंढ़ रहा था. मैं यह भी नहीं कह पा रहा था, उस का अपनापन देख कर कि भई माफ करना मैं ने आप को पहचाना नहीं. हालांकि, इतना मैं समझ रहा था कि इधर पांचसात सालों में मेरी इस व्यक्ति से मुलाकात नहीं हुई थी. उस के जाने के बाद मुझे अपनी याददाश्त पर बहुत गुस्सा आया. मैं सोचता रहा, दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर कौन था यह? लेकिन दिमाग कुछ भी नहीं पकड़ पा रहा था.

घर से जब बाहर निकलता तो कुछ न कुछ लाना भूल जाता था. यह भी समझ में आता था कि कुछ भूल रहा हूं लेकिन क्या? यह पकड़ में नहीं आता था. अब मैं कागज पर लिख कर ले जाने लगा था कि क्याक्या खरीदना है बाजार से. इस बार मैं तैयार हो कर घर से बाहर निकला और बाहर निकलते ही ध्यान आया कि चश्मा तो पहना ही नहीं है. घर के अंदर गया तो जहां चश्मा रखता था, वहां चश्मा नहीं था. तो कहां गया चश्मा? इस चक्कर में पूरा घर छान मारा. पत्नी को परेशान कर दिया. उसे उलाहना देते हुए कहा, ‘‘मेरी चीजें जगह पर क्यों नहीं मिलतीं? यहीं तो रखता था चश्मा. कहां गया?’’ पत्नी भी मेरे साथ चश्मा तलाश करने लगी और कहने भी लगी गुस्से में, ‘‘खुद ही कहीं रख कर भूल गए होगे. याद करो, कहां रखा था?’’ ‘‘वहीं रखा था जहां रखता हूं हमेशा.’’ ‘‘तो कहां गया?’’ ‘‘मुझे पता होता, तो तुम से क्यों पूछता?’’ फिर हमारी गरमागरम बहस के साथ हम दोनों ही पूरा घर छानने लगे चश्मे की तलाश में. काफी देर तलाशते रहे. लेकिन चश्मा कहीं नहीं मिल रहा था.

मैं याद करने की कोशिश भी कर रहा था कि मैं ने यदि चश्मे को उस के नियत स्थान से उठाया था तो फिर कहांकहां रख सकता था? जैसे कि मैं ने चश्मा उठाया. उस के कांच साफ किए. फिर गाड़ी की चाबी उठाई. इस बीच, मैं ने आईने के सामने जा कर कंघी की. फिर पानी पिया, फिर… तो मैं सभी संभावित स्थानों पर गया. जैसे ड्रैसिंग टेबल के पास, फ्रिज के पास वगैरह. लेकिन चश्मा नहीं मिला. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर चश्मा गया कहां? उसे जमीन खा गई या आसमान निगल गया. याद क्यों नहीं आ रहा है? चश्मे की आदत सी पड़ गई थी. न भी पहनूं तो जेब में रख लेता था बाजार जाते समय. जैसे घड़ी का पहनना होता था. मोबाइल रखना होता था. बहुत जरूरी न होते भी जरूरी होना. न रखने पर लगता था कि जैसे कुछ जरूरी सामान छूट गया हो. खालीखाली सा लगता. आदत की बात है. चश्मा तलाश रहा हूं. पत्नी अपने काम में लगी हुई है. उस ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि नहीं मिल रहा तो परेशान मत हो. घर में होगा, मिल जाएगा. बिना चश्मे के बाजार जा सकते हो.

मुझे उस की बात ठीक लगी. लेकिन दिमाग में यही चल रहा था कि आखिर चश्मा कहां रख कर भूल गया. तभी कोचिंग से बेटा घर आया. मेरा चेहरा देख कर समझ गया. उस ने पूछा, ‘‘क्या नहीं मिल रहा, अब?’’ उस की बात पर मुझे गुस्सा आ गया. ‘अब’ लगाने का क्या मतलब हुआ? यही कि मैं हमेशा कुछ न कुछ भूल जाता हूं. अकसर तो भूल जाता हूं, लेकिन हमेशा… यह तो हद हो गई. खुद तो कोचिंग के नाम पर व्यर्थ रुपया खर्च कर रहा है. कोचिंग ही जाना था तो स्कूल की क्या जरूरत थी? फैशन सा हो गया है आजकल कोचिंग जाना. कोचिंग जा कर छात्र साबित करते हैं कि वे बहुत पढ़ाकू हैं. दिनभर स्कूल, फिर कोचिंग. मैं इसे कमजोर दिमाग मानता हूं. जैसे पहले कमजोर को ट्यूशन दी जाती थी. लेकिन अब जमाना बदल गया है. कोचिंग जाने वालों को पढ़ाकू माना जाता है. मैं ने गुस्से से बेटे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘जा कर अपना काम करो.’’ बेटे तो फिर बेटे ही होते हैं. तुरंत मुंह घुमा कर अंदर चला गया और मैं बिना चश्मे के बाहर निकल गया.

किराना दुकानदार को सामान की लिस्ट दी. वह सामान निकालता रहा. मैं इधरउधर सड़कों पर नजर घुमाता रहा. दुकानदार आधा सामान दुकान के बाहर रखे हुए हैं. तंबाकू खाते हुए मुझे भी थूकने की इच्छा हुई. मैं ने काफी देर पीक को मुंह में रखा और नाली, सड़क का किनारा तलाशता रहा. अंत में मुझे भी सड़क पर ही थूकना पड़ा. दुकानदार ने बिल देते हुए कहा, ‘‘चैक कर लीजिए.’’ मैं ने कहा, ‘‘भाई, आज मैं अपना चश्मा लाना भूल गया.’’ उस ने मेरे चेहरे पर इस तरह दृष्टि डाली जैसे मैं ने शराब पी रखी हो. फिर कहा, ‘‘लगा तो है.’’ मेरा हाथ आंखों पर गया और… अरे, यह तो पहले से ही लगा हुआ था और मैं पूरे घर में तलाश रहा था. लेकिन मुझे समझ क्यों नहीं आया. शायद आदत पड़ जाने पर उस चीज का भार महसूस नहीं होता. पत्नी तो खैर मेरे कहने पर ढूंढ़ने लगी थी. उसे विश्वास था कि नहीं मिल रहा होगा. लेकिन बेटे को तो पता होगा कि चश्मा लगाया हुआ है मैं ने. लेकिन मैं ने कहां बताया था गुस्से में कि चश्मा नहीं मिल रहा है. बताता तो शायद वह बता देता और इतनी मानसिक यंत्रणा न झेलनी पड़ती. न ही दुकानदार के सामने शर्मिंदा होना पड़ता. बच्चों से प्रेम से ही बात करनी चाहिए. वह पूछता.

मैं बताता कि चश्मा नहीं मिल रहा है तो वह बता देता. मांबाप की डांट या गुस्से में बात करने से बच्चे और चिढ़ जाते हैं. नए खून नए मस्तिष्क पर भरोसा करना सीखना चाहिए. उन के बाप ही न बने रहना चाहिए. मित्र भी बन जाना चाहिए जवान होते बच्चों के पिता को. बेटे को पता तो चल ही गया होगा कि चश्मा तलाश रहा था मैं और अब तक उस ने अपनी मां को बता भी दिया होगा कि चश्मा पिताजी पहने हुए थे. दोनों मांबेटे हंस रहे होंगे मुझ पर. अब भविष्य में कोई चीज गुम होने पर शायद उतनी संजीदगी से तलाशने में मदद भी न करें. मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे समझ में क्यों नहीं आया कि मैं चश्मा लगाए हुए था. अब दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि नियत स्थान से चश्मा उठा कर मैं ने लगाया कब था? तैयार होने के बाद. गाड़ी की चाबी उठाने के बाद या पानी पीने के बाद या इस सब के पहले या उस से भी बहुत पहले. कहीं ऐसा तो नहीं कि सुबह समाचारपत्र पढ़ते समय. यह भी संभव है कि रात में पहन कर ही सो गया था. दिमाग पर काफी जोर डालने के बाद भी पक्का नहीं कर पाया कि चश्मा लगाया कब था और मैं अभी भी उसी सोच में डूबा हुआ था. और यह सोच तब तक नहीं निकलने वाली थी जब तक कोई दूसरी चीज न मिलने पर उस की खोज में दिमाग न उलझे.

Family Story : नया द्वार – जब सास ने बहू की गृहस्थी में डाली अड़चन

Family Story : एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं. बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैंने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

Best Hindi Story : बच्चे की चाह में – राजो क्या बचा पाई अपनी इज्जत

Best Hindi Story : भौंरा की शादी हुए 5 साल हो गए थे. उस की पत्नी राजो सेहतमंद और खूबसूरत देह की मालकिन थी, लेकिन अब तक उन्हें कोई औलाद नहीं हुई थी. भौंरा अपने बड़े भाई के साथ खेतीबारी करता था. दिनभर काम कर के शाम को जब घर लौटता, सूनासूना सा घर काटने को दौड़ता. भौंरा के बगल में ही उस का बड़ा भाई रहता था. उस की पत्नी रूपा के 3-3 बच्चे दिनभर घर में गदर मचाए रखते थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए राजो रूपा के बच्चों को बुला लेती और उन के साथ खुद भी बच्चा बन कर खेलने लगती. वह उन्हीं से अपना मन बहला लेती थी.

एक दिन राजो बच्चों को बुला कर उन के साथ खेल रही थी कि रूपा ने न जाने क्यों बच्चों को तुरंत वापस बुला लिया और उन्हें मारनेपीटने लगी. उस की आवाज जोरजोर से आ रही थी, ‘‘तुम बारबार वहां मत जाया करो. वहां भूतप्रेत रहते हैं. उन्होंने उस की कोख उजाड़ दी है. वह बांझ है. तुम अपने घर में ही खेला करो.’’

राजो यह बात सुन कर उदास हो गई. कौन सी मनौती नहीं मानी थी… तमाम मंदिरों और पीरफकीरों के यहां माथा रगड़ आई, बीकमपुर वाली काली माई मंदिर की पुजारिन ने उस से कई टिन सरसों के तेल के दीए में मंदिर में जलवा दिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. बीकमपुर वाला फकीर जबजब मंत्र फुंके हुए पानी में राख और पता नहीं कागज पर कुछ लिखा हुआ टुकड़ा घोल कर पीने को देता. बदले में उस से 100-100 के कई नोट ले लेता था. इतना सब करने के बाद भी उस की गोद सूनी ही रही… अब वह क्या करे?

राजो का जी चाहा कि वह खूब जोरजोर से रोए. उस में क्या कमी है जो उस की गोद खाली है? उस ने किसी का क्या बिगाड़ा है? रूपा जो कह रही थी, क्या सचमुच उस के घर में भूतप्रेत रहते हैं? लेकिन उस के साथ तो कभी ऐसी कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, तो फिर कैसे वह यकीन करे? राजो फिर से सोच में डूब गई, ‘लेकिन रूपा तो कह रही थी कि भूतप्रेत ही मेरी गोद नहीं भरने दे रहे हैं. हो सकता है कि रूपा सच कह रही हो. इस घर में कोई ऊपरी साया है, जो मुझे फलनेफूलने नहीं दे रहा है. नहीं तो रूपा की शादी मेरे साथ हुई थी. अब तक उस के 3-3 बच्चे हो गए हैं और मेरा एक भी नहीं. कुछ तो वजह है.’

भौंरा जब खेत से लौटा तो राजो ने उसे अपने मन की बात बताई. सुन कर भौंरा ने उसे गोद में उठा लिया और मुसकराते हुए कहा, ‘‘राजो, ये सब वाहियात बातें हैं. भूतप्रेत कुछ नहीं होता. रूपा भाभी अनपढ़गंवार हैं. वे आंख मूंद कर ऐसी बातों पर यकीन कर लेती हैं. तुम चिंता मत करो. हम कल ही अस्पताल चल कर तुम्हारा और अपना भी चैकअप करा लेते हैं.’’

भौंरा भी बच्चा नहीं होने से परेशान था. दूसरे दिन अस्पताल जाने के लिए भाई के घर गाड़ी मांगने गया. भौंरा के बड़े भाई ने जब सुना कि भौंरा राजो को अस्पताल ले जा रहा है तो उस ने भौंरा को खूब डांटा. वह कहने लगा, ‘‘अब यही बचा है. तुम्हारी औरत के शरीर से डाक्टर हाथ लगाएगा. उसे शर्म नहीं आएगी पराए मर्द से शरीर छुआने में. तुम भी बेशर्म हो गए हो.’’ ‘‘अरे भैया, वहां लेडी डाक्टर भी होती हैं, जो केवल बच्चा जनने वाली औरतों को ही देखती हैं,’’ भौंरा ने समझाया.

‘‘चुप रहो. जैसा मैं कहता हूं वैसा करो. गांव के ओझा से झाड़फूंक कराओ. सब ठीक हो जाएगा.’’ भौंरा चुपचाप खड़ा रहा.

‘‘आज ही मैं ओझा से बात करता हूं. वह दोपहर तक आ जाएगा. गांव की ढेरों औरतों को उस ने झाड़ा है. वे ठीक हो गईं और उन के बच्चे भी हुए.’’ ‘‘भैया, ओझा भूतप्रेत के नाम पर लोगों को ठगता है. झाड़फूंक से बच्चा नहीं होता. जिस्मानी कमजोरी के चलते भी बच्चा नहीं होता है. इसे केवल डाक्टर ही ठीक कर सकता है,’’ भौंरा ने फिर समझाया.

बड़ा भाई नहीं माना. दोपहर के समय ओझा आया. भौंरा का बड़ा भाई भी साथ था. भौंरा उस समय खेत पर गया था. राजो अकेली थी. वह राजो को ऊपर से नीचे तक घूरघूर कर देखने लगा. राजो को ओझा मदारी की तरह लग रहा था. उस की आंखों में शैतानी चमक देख कर वह थोड़ी देर के लिए घबरा सी गई. साथ में बड़े भैया थे, इसलिए उस का डर कुछ कम हुआ.

ओझा ने ‘हुं..अ..अ’ की एक आवाज अपने मुंह से निकाली और बड़े भैया की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘इस के ऊपर चुड़ैल का साया है. यह कभी बंसवारी में गई थी? पूछो इस से.‘‘ ‘‘हां बहू, तुम वहां गई थीं क्या?’’ बड़े भैया ने पूछा.

‘‘शाम के समय गई थी मैं,’’ राजो ने कहा.

‘‘वहीं इस ने एक लाल कपडे़ को लांघ दिया था. वह चुड़ैल का रूमाल था. वह चुड़ैल किसी जवान औरत को अपनी चेली बना कर चुड़ैल विद्या सिखाना चाहती है. इस ने लांघा है. अब वह इसे डायन विद्या सिखाना चाहती है. तभी से वह इस के पीछे पड़ी है. वह इस का बच्चा नहीं होने देगी.’’ राजो यह सुन कर थरथर कांपने लगी.

‘‘क्या करना होगा?’’ बड़े भैया ने हाथ जोड़ कर पूछा. ‘‘पैसा खर्च करना होगा. मंत्रजाप से चुड़ैल को भगाना होगा,’’ ओझा ने कहा.

मंत्रजाप के लिए ओझा ने दारू, मुरगा व हवन का सामान मंगवा लिया. दूसरे दिन से ही ओझा वहां आने लगा. जब वह राजो को झाड़ने के लिए आता, रूपा भी राजो के पास आ जाती.

एक दिन रूपा को कोई काम याद आ गया. वह आ न सकी. घर में राजो को अकेला देख ओझा ने पूछा, ‘‘रूपा नहीं आई?’’ राजो ने ‘न’ में गरदन हिला दी.

ओझा ने अपना काम शुरू कर दिया. राजो ओझा के सामने बैठी थी. ओझा मुंह में कुछ बुदबुदाता हुआ राजो के पूरे शरीर को ऊपर से नीचे तक हाथ से छू रहा था. ऐसा उस ने कई बार दोहराया, फिर वह उस के कोमल अंगों को बारबार दबाने की कोशिश करने लगा.

राजो को समझते देर नहीं लगी कि ओझा उस के बदन से खेल रहा है. उस ने आव देखा न ताव एक झटके से खड़ी हो गई. यह देख कर ओझा सकपका गया. वह कुछ बोलता, इस से पहले राजो ने दबी आवाज में उसे धमकाया, ‘‘तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ रही हूं. तुम्हारी भलाई अब इसी में है कि चुपचाप यहां से दफा हो जाओ, नहीं ंतो सचमुच मेरे ऊपर चुड़ैल सवार हो रही है.’’

ओझा ने चुपचाप अपना सामान उठाया और उलटे पैर भागा. उसी समय रूपा आ गई. उस ने सुन लिया कि राजो ने अभीअभी अपने ऊपर चुड़ैल सवार होने की बात कही है. वह नहीं चाहती थी कि राजो को बच्चा हो. रूपा के दिमाग में चल रहा था कि राजो और भौंरा के बच्चे नहीं होंगे तो सारी जमीनजायदाद के मालिक उस के बच्चे हो जाएंगे.

भौंरा के बड़े भाई के मन में खोट नहीं था. वह चाहता था कि भौंरा और राजो के बच्चे हों. राजो को चुड़ैल अपनी चेली बनाना चाहती है, यह बात गांव वालों से छिपा कर रखी थी लेकिन रूपा जानती थी. उस की जबान बहुत चलती थी. उस ने राज की यह बात गांव की औरतों के बीच खोल दी. धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैलने लगी कि राजो बच्चा होने के लिए रात के अंधेरे में चुड़ैल के पास जाती है. अब तो गांव की औरतें राजो से कतराने लगीं. उस के सामने आने से बचने लगीं. राजो उन से कुछ पूछती भी तो वे उस से

सीधे मुंह बात न कर के कन्नी काट कर निकल जातीं. पूरा गांव उसे शक की नजर से देखने लगा. राजो के बुलाने पर भी रूपा अपने बच्चों को उस के पास नहीं भेजती थी.

2-3 दिन से भौंरा का पड़ोसी रामदा का बेटा बीमार था. रामदा की पत्नी जानती थी कि राजो डायन विद्या सीख रही है. वह बेटे को गोद में उठा लाई और तेज आवाज में चिल्लाते हुए भौंरा के घर में घुसने लगी, ‘‘कहां है रे राजो डायन, तू डायन विद्या सीख रही है न… ले, मेरा बेटा बीमार हो गया है. इसे तू ने ही निशाना बनाया है. अगर अभी तू ने इसे ठीक नहीं किया तो मैं पूरे गांव में नंगा कर के नचाऊंगी.’’ शोर सुन कर लोगों की भीड़ जमा

हो गई. एक पड़ोसन फूलकली कह रही थी, ‘‘राजो ने ही बच्चे पर कुछ किया है, नहीं तो कल तक वह भलाचंगा खापी रहा था. यह सब इसी का कियाधरा है.’’

दूसरी पड़ोसन सुखिया कह रही थी, ‘‘राजो को सबक नहीं सिखाया गया तो वह गांव के सारे बच्चों को इसी तरह मार कर खा जाएगी.’’ राजो घर में अकेली थी. औरतों की बात सुन कर वह डर से रोने लगी. वह अपनेआप को कोसने लगी, ‘क्यों नहीं उन की बात मान कर अस्पताल चली गई. जेठजी के कहने में आ कर ओझा से इलाज कराना चाहा, मगर वह तो एक नंबर का घटिया इनसान था. अगर मैं उस की चाल में फंस गई होती तो भौंरा को मुंह दिखाने के लायक भी न रहती.’’

बाहर औरतें उसे घर से निकालने के लिए दरवाजा पीट रही थीं. तब तक भौंरा खेत से आ गया. अपने घर के बाहर जमा भीड़ देख कर वह डर गया, फिर हिम्मत कर के भौंरा ने पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, राजो को क्या हुआ है?’’ ‘‘तुम्हारी औरत डायन विद्या सीख रही है. ये देखो, किशुना को क्या हाल कर दिया है. 4 दिनों से कुछ खायापीया भी नहीं है इस ने,’’ रामधनी काकी

ने कहा. गुस्से से पागल भौंरा ने गांव वालों को ललकारा, ‘‘खबरदार, किसी ने राजो पर इलजाम लगाया तो… वह मेरी जीवनसंगिनी है. उसे बदनाम मत करो. मैं एकएक को सचमुच में मार डालूंगा. किसी में हिम्मत है तो राजो पर हाथ उठा करदेख ले,’’ इतना कह कर वह रूपा भाभी का हाथ पकड़ कर खींच लाया.

‘‘यह सब इसी का कियाधरा है. बोलो भाभी, तुम ने ही गांव की औरतों को यह सब बताया है… झूठ मत बोलना. सरोजन चाची ने मुझे सबकुछ बता दिया है.’’

सरोजन चाची भी वहां सामने ही खड़ी थीं. रूपा उन्हें देख कर अंदर तक कांप गई. उस ने अपनी गलती मान ली. भौंरा ओझा को भी पकड़ लाया, ‘‘मक्कार कहीं का, तुम्हारी सजा जेल में होगी.’’

दूर खड़े बड़े भैया की नजरें झुकी हुई थीं. वे अपनी भूल पर पछतावा कर रहे थे.

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