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Anupamaa Spolier Alert: अपकमिंग एपिसोड में होगा बड़ा एक्सीडेंट, अनुपमा या माया किसकी होगी मौत?

Anupamaa Spolier Alert : छोटे पर्दे के मोस्ट पॉपुलर सीरियल ‘अनुपमा’ में रोजाना कुछ न कुछ ऐसा होता है जिससे दर्शकों का एंटरटेनमेंट बना रहता है. बीते एपिसोड में दिखाया गया था कि माया अनुपमा से सबके सामने बदसलूकी करती है. हालांकि इस बीच कांताबेन माया को चांटा मारती है और उसे खूब खरी-खोटी सुनाती है. इसके बाद अनुज अनुपमा से माफी मांगता है और उसे रोते हुए विदा करता है. इसके अलावा आज के एपिसोड (Anupamaa Spolier Alert) में दिखाया जाएगा कि माया अनुपमा को गाड़ी से उड़ाने का प्लान बनाती है लेकिन इसमें उसकी ही मौत हो जाएगी.

माया का शातिर प्लॉन

आगामी एपिसोड (Anupamaa Spolier Alert) में दिखाया जाएगा कि माया मन-मन में सोचती है कि वह अनुपमा को गाड़ी से उड़ा देगी. वह एक सपना देखती है जिसमें वह एक गाड़ी लेकर अनुपमा का पीछा करती है और मौका मिलते ही उसे उड़ा देती है. इसके बाद दिखाया जाएगा कि माया अपने कमरे में तोड़फोड़ कर रही होती है कि उसे अपनी आंखों के सामने अनुपमा दिखती है. फिर माया अनुपमा से कहती है तुम क्यों वापस आई हो? इसके बाद अनुपमा माया को पकड़ कर बैठाती है और उससे कहती है कि उसे कुछ बात करनी है.

माया को समझाएगी अनुपमा

आगे दिखाया जाता है कि बाहर अनुज और कांताबेन को माया की काफी चिंता हो रही होती है, जिसके बाद अनुज कहता है कि यहां अनुपमा को वापस नहीं आना चाहिए था. फिर कांताबेन कहती है पहले माया अपने मन का कर रही थी. अब अनुपमा को करने दो, तुम चिंता मत करों.

दूसरी तरफ अनुपमा माया से कहती है कि, ‘मैं तुम्हारी परेशानी हूं, लेकिन मैं तो अब जा रही हूं. इसलिए अब तुम अपने मन में मेरे लिए नफरत मत पालो और न ही मैं और अनुज तुम्हारे साथ कोई खेल खेल रहे हैं. वैसे भी अगर हमें साथ रहना होगा तो हम रह सकते हैं क्योंकि हम विवाहित है. इसके अलावा कानून भी हमें साथ रहने की इजाजत देता है, तो अपने मन से ये भ्रम निकाल दो कि हम किसी और की वजह से साथ नहीं रह रहे हैं.’

अनुपमा- अनुज सात जन्मों तक मेरे ही रहेंगे

इसके आगे अनुपमा (Anupamaa Spolier Alert) माया को समझाते हुए कहती है, ‘और अगर रही बात अनुज की तो वह मेरे थे, मेरे हैं, और हमेशा मेरे ही रहेंगे. सात जन्मों तक रहेंगे. मैंने अनुज को केवल और केवल अपनी बेटी के लिए छोड़ा है. जिंदगी काफी छोटी है इसलिए इसे खुलकर और खुशी से जियो.’

इसके आगे आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि माया अनुपमा से माफी मांगती है. जब दोनों बात कर रहे होते है तो वहां एक ट्रक आ जाता है और अनुपमा की जान बचाने के लिए माया अपनी जान दे देती है.

उप मुख्यमंत्री : पावर कम झुनझुना ज्यादा

छत्तीसगढ़ में त्रिभुवन शरण सिंह और अब महाराष्ट्र में अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए हैं जबकि सभी जानते हैं कि उप मुख्यमंत्री पद का संविधान में न तो कोई स्थान है और न ही कोई अतिरिक्त पावर। इन सब के बावजूद उप मुख्यमंत्री पद महत्त्वाकांक्षी नेताओं के लिए एक ऐसा झुनझुना बन गया है, जिसे हर वह नेता बजाना चाहता है जो राजनीति में थोड़ा भी रसुख बना लेता है.

यक्ष प्रश्न यही है कि जब संविधान में उप मुख्यमंत्री पद का कोई उल्लेख नहीं है फिर कोई मुख्यमंत्री अपने मनमरजी से किसी को यह उप मुख्यमंत्री पद का झुनझुना कैसे दे सकता है?

लाख टके का सवाल

अगर देश में संविधान है, कानून है उच्चतम न्यायालय है तो इस पर संज्ञान लिया जाना चाहिए क्योंकि लाख टके का सवाल है कि अगर यह सब चलता रहा तो जो व्यक्ति सत्ता पावर में होगा वह आगे चल कर ऐसे भी निर्णय ले सकता है जिस से देश को बड़ी क्षति का सामना करना पड़े.

आजादी के बाद संविधान इसीलिए बनाया गया ताकि उस के संरक्षण में काम किया जा सके और देश को आगे ले जाने की भूमिका अदा की जा सके. मगर संविधान को दरकिनार कर के उप प्रधानमंत्री, उप मुख्यमंत्री, संसदीय सचिव जैसे पदों का निर्माण किया गया है जो चिंता का सबब होना चाहिए.

जवाब कौन देगा?

इस मसले पर कुछ ऐसे तथ्य आप के सामने हैं जो आप को सोचने पर मजबूर कर सकते हैं. देश के नेताओं से एक सवाल है कि क्या उप मुख्यमंत्री का पद संवैधानिक पद है? निस्संदेह इस का कोई जवाब सरकार के पास नहीं है. यह भी सच है कि संविधान में उप मुख्यमंत्री, उप प्रधानमंत्री और संसदीय सचिव पद को ले कर कोई व्याख्या नहीं की गई है.

नेताओं की महत्त्वकांक्षा में आज इसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के बाद दूसरे नंबर का सम्मानजनक पद बना दिया है. अब उप मुख्यमंत्री राजनीतिक हित साधने के लिए बनाया जाता है तो कभी गठबंधन धर्म निभाने के लिए.

राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिए कैबिनेट में उप मुख्यमंत्री को रखा जाता है. जैसे गत दिवस रातोंरात महाराष्ट्र में अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए. तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ 2 उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं, जिन में एक मुसलिम तो दूसरा दलित था. दरअसल, यह संविधानिक रूप से गलत है कि अपने विशेषाधिकार से अपनी कैबिनेट में उप मुख्यमंत्री को रखे.

इस वक्त अनेक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उप मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री के साथ काम कर रहे हैं. यह भी रोचक तथ्य है कि आंध्र प्रदेश में सब से ज्यादा 5 उप मुख्यमंत्रियों को रखा गया. इसी तरह दिल्ली में केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया को उप मुख्यमंत्री बनाया जो वर्तमान में जेल में हैं.

पहले उप मुख्यमंत्री बने थे एक पूर्व राष्ट्रपति

यह जान कर आप को हैरानी होगी कि देश के पहले उप मुख्यमंत्री बने थे नीलम संजीव रेड्डी जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने.

उप मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति की शुरुआत 1953 में हो गई थी. उस दौरान मद्रास प्रैसीडैंसी से तेलुगु भाषी क्षेत्र को अलग कर आंध्र प्रदेश राज्य का गठन किया गया था. इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने थे टी. प्रकाशम और उन्होंने नीलम संजीव रेड्‌डी को उप मुख्यमंत्री बनाया था.

इस महत्त्वपूर्ण विषय पर सुप्रीम कोर्ट में भी चर्चाएं होती रही हैं. उप मुख्यमंत्री या उप प्रधानमंत्री के अधिकारों पर बहस आज नहीं, बल्कि दशकों पूर्व हो चुकी है। देश के 2 बार उप प्रधानमंत्री रहे हरियाणा के दिग्गज नेता चौधरी देवी लाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी.

खत्म हो यह व्यवस्था

राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख रहे चौधरी देवी लाल 1989 से 1990 और 1990 से 1991 के बीच उप प्रधानमंत्री रहे. उन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि उप प्रधानमंत्री का पद संवैधानिक नहीं है. उप प्रधानमंत्री भी बाकी मंत्रियों की तरह मंत्रिमंडल के सदस्य हैं. मंत्रियों की तरह की उन के भी अधिकार हैं.

अब समय आ गया है कि उप प्रधानमंत्री हो या फिर उप मुख्यमंत्री पद, वह केंद्र सरकार या फिर देश का उच्चतम न्यायालय कानून बना कर नियंत्रित करें. हो सके तो आप चिंतन करें कि अगर यह उप प्रधानमंत्री, उप मुख्यमंत्री पद का झुनझुना नहीं होता तो कितना अच्छा होता.

इतिहास से छेड़छाड़

स्कूल व कालेजों की टैकस्ट बुक्स में बदलाव की फ़िराक में भारतीय जनता पार्टी सरकार उस दिन ही जुट गई जिस दिन वह सत्ता में आर्ई थी. यह मामला अब गहरा गया है क्योंकि योगेंद्र यादव व सुहात पलशिकर के एनसीईआरटी को नोटिस दिया है कि उन के नाम टैक्स्टबुक डैवलपमैंट कमेटी से हटा दिए जाएं क्योंकि इन किताबों को इतना बदल डाला गया है कि उन की असली शक्ल रह ही नहीं गई है. इतना ही नहीं, इन 2 के बाद 33 और विशेषज्ञों ने कह दिया है कि सलाहकार समिति से उन के नाम हटा दिए जाएं.

विश्व के कई देशों में वहां की सरकारों ने पाठ्यपुस्तकों को बदल कर झूठा इतिहास और झूठी संस्कृति फैलाई. वर्ष 1917 के बाद सोवियत संघ में लेनिन और स्टालिन ने यह काम रूस में जम कर किया और 1932 में सत्ता में आने के बाद एडोल्फ हिटलर ने जरमनी में किया.

इतिहास और संस्कृति की झूठी व्याख्या के जरिए आम जनता को बहकाने का काम राजा लोग हमेशा करते रहे हैं. वे अपने को बड़ा, और बड़ा, ईश्वर के निकट दिखाने की कोशिश करते रहे हैं और इजिप्ट में अबू सर के मंदिरों से ले कर राज्य के पिरामिडों तक किया गया. इस में दूसरे डरें या नहीं, देश की अपनी प्रजा जरूर प्रभावित हो व डर जाती है. इस प्रचार का शासक को सब से बड़ा लाभ यह होता है कि उस के लिए जनता पर टैक्स लगाना आसान हो जाता है और इस संस्कृति व इतिहास की रक्षा के नाम पर विरोध करने वालों को मारने के लिए सेना, पुलिस व देशभर में फैले सरकारी गुंडा तत्त्वों को एक बल मिल जाता है.

भारतीय जनता पार्टी को ये सब लाभ मिल रहे हैं. सरकार दनादन टैक्स बढ़ा रही है. बारबार नोटबंदी कर के पैसा लूट रही है. पंडितों की अच्छी कमाई होने लगी है और देशभर में भव्य मंदिर व पार्टी के विशाल कार्यालय बनने लगे हैं. धर्म, संस्कृति, इतिहास की झूठी कहानियों को सुना कर भक्तों की फौज को कभी कांवड़ यात्रा में धकेला जाता है, कभी कुंभ में लाया जाता है तो कभी तीर्थों के लिए पहाड़ों, जंगलों और मैदानों के मंदिरों में ले जाया जाता है जो हर रोज फैल रहे हैं और जिन में गुप्त कमरों में धर्म है, औरतें हैं और हथियार भी.

आम जनता इस ढोल को बजाने से सुखी हो रही है, इस की कोई गारंटी नहीं है. पिछले साल ही कम से कम 6,500 अरबपति लोगों ने भारत छोड़ कर दूसरे देशों की नागरिकता ले ली. अमेरिका में ऊंचे पदों पर नौकरियों के लिए भारतीय युवा सब से आगे हैं. छोटेछोटे देशों ने इंग्लिश मिडियम के मैडिकल व इंजीनियरिंग कालेज खोल लिए हैं जहां अपनी संस्कृति व इतिहास का झूठा ढोल पीटने वाले हर रोज प्लेन में बैठ कर जा रहे हैं.

यह बदलाव अगर काम का होता तो भारत से बाहर बसे 3 करोड़ से ज्यादा मूल भारतीय भारत लौटते. इस महान इतिहास के बावजूद, भाजपाभक्ति के बावजूद भारतीय भाग रहे हैं तो इसलिए क्योंकि इस झूठ की सचाई जो सामने है.

युवा मुसलमान प्रशासनिक सेवाओं में क्यों नहीं आते?

23 मई, 2023 को सिविल सर्विसेस एग्जामिनेशन 2022 का रिजल्ट आउट हुआ. पहले 4 स्थानों पर लड़कियों का कब्जा था. 7वें स्थान पर कश्मीरी मुसलिम वसीम अहमद भट और इस के बाद पूरी लिस्ट पर नजर दौड़ाई तो मालूम चला कि कुल 933 उम्मीदवारों में सिर्फ 30 मुसलिम उम्मीदवार देश की प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हुए हैं.

प्रशासनिक सेवा में चुने गए इन युवाओं में 20 लड़के हैं और 10 लडकियां. आज देश की कुल आबादी में मुसलमानों की तादाद लगभग 14 प्रतिशत है. इस को देखते हुए प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए मुसलिम उम्मीदवारों की यह संख्या बेहद कम है. यानी, कुल उम्मीदवार का सिर्फ 3.45 प्रतिशत. अगर अपनी आबादी के मुताबिक मुसलिम उम्मीदवार इस परीक्षा में कामयाब होते तो उन की संख्या लगभग 130 होनी चाहिए थी. ऐसा क्यों नहीं हुआ?

भारतीय मुसलिम युवाओं का प्रशासनिक सेवा और सेना में ही नहीं, बल्कि हर सरकारी क्षेत्र में बहुत कम प्रतिनिधित्व है. एमबीबीएस, इंजीनियरिंग, राजनीति, कानून किसी भी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या मुसलिम आबादी के अनुपात में ऐसी नहीं है जिसे अच्छा कहा जा सके. ऐसा नहीं है कि मुसलमान बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में कम आयवर्ग के मुसलमान परिवार भी अब अपने बच्चों को मदरसे में न भेज कर स्कूलों में भेज रहे हैं.

मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं तो वहीं पैसेवाले घरों के युवा अच्छे और महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूलकालेजों में हैं. बावजूद इस के, सरकारी क्षेत्रों में ऊंचे पदों पर उन की संख्या उंगली पर गिनने लायक है. न सेना में उन की संख्या दिख रही है और न पुलिस में. आखिर इस की क्या वजहें हैं?

सरिता ने इस की पड़ताल की तो कई तरह की वजहें सामने आईं. दिल्ली के कुछ उच्च आयवर्गीय मुसलमानों, जो काफी पढ़ेलिखे हैं, पैसे वाले हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा रहे हैं, में से अधिकांश का कहना है कि चाहे यूपीएससी की परीक्षा हो, केंद्रीय सेवा की हो अथवा सेना या पुलिस में जाने का मौक़ा हो, लिखित परीक्षा तक तो कोई भेदभाव नजर नहीं आता. बच्चे लिखित परीक्षा निकाल भी लेते हैं. मगर इंटरव्यू में या फिटनैस टैस्ट में फेल हो जाते हैं. फिर भी मुसलमानों को कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए. उन्हें प्रशासनिक सेवा में आने के लिए भरपूर मेहनत करनी चाहिए.

एडवोकेट जुल्फिकार रजा कहते हैं, “हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी अधिकारी बनें, राजनेता बनें, डाक्टर, इंजीनियर बनें, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. इस के पीछे कुछ कारण हैं. कहीं न कहीं मुसलिम बच्चों में आत्मविश्वास की कमी है, मेहनत की कमी है, कहीं उन का घरेलू परिवेश उन को रोकता है तो कहीं यह डर उन के अंदर है कि चाहे जितनी मेहनत कर लें और कितना भी पैसा पढ़ाई पर खर्च कर दें, लिखित परीक्षा भी पास कर लें, मगर इंटरव्यू में बाहर कर दिए जाएंगे.”

लखनऊ बास्केट बौल एसोसिएशन के सीनियर वाइस प्रैसिडैंट नियाज अहमद कहते हैं,“देश में सरकारी नौकरी के लिए आमराय यह है कि यह तो मिलने वाली नहीं है. आम मुसलमान युवा की यह सोच है कि वह कितनी भी मेहनत से पढ़ ले, मांबाप का कितना ही पैसा अपनी पढ़ाई पर लगवा ले, मगर लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब इंटरव्यू होगा तो उस में उस की छंटनी हो जाएगी. फिर सरकारी सेवा में जाने की कोशिश ही क्यों करना.”

प्रशासनिक सेवा या अन्य सरकारी विभागों में मुसलिम अधिकारियों-कर्मचारियों की कम संख्या की एक और वजह नियाज अहमद यह बताते हैं कि मुसलमान पढ़ाई और नौकरी को ले कर उतना ज्यादा दृढ संकल्पित और जुझारू नहीं है जितना ब्राह्मण, क्षत्रिय या कायस्थ हैं. आज ओबीसी और दलित युवा भी प्रशासनिक सेवाओं में आने के लिए खूब मेहनत कर रहे हैं, अपने कोटे का फायदा भी वे उठा रहे हैं ताकि अपनी सामाजिक हैसियत सुधार सकें. मगरमुसलमान लड़का लापरवाह है.

नियाज कहते हैं, “आप किसी पान या चाय की गुमटी पर दस मिनट खड़े हो कर देख लें, 90
फ़ीसदी मुसलमान लड़कों के झुंड आप को दिखेंगे. रात 12 बजे भी यहां हंसीठट्ठा चल रहा है.
जिंदगी और कैरियर को ले कर गंभीरता नहीं है. ‘जो होगा देखा जाएगा’ जैसा इन का रवैया है.

ऐसा नहीं है कि ये पढ़ नहीं रहे हैं. ये बेशक कालेज के लड़के हैं, मगर कैरियर के प्रति उन में कोई गंभीरता नहीं है, कोई लक्ष्य तय नहीं है.

“कुछ थोड़ी सी संख्या को छोड़ दें तो उच्च शिक्षा पा रहे ज्यादातर मुसलिम नौजवानों की सोच यह है कि कुछ नहीं होगा तो बाप का बिजनैस संभाल लेंगे या कुछ और कामधंधा कर लेंगे. वे भविष्य को ले कर डांवांडोल हैं.”

सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की कम भागीदारी के लिए केंद्रीय स्कूल में शिक्षण कार्य कर रहे सीनियर टीचर अल्ताफ बेग सत्ता को दोष देते हैं. उन का कहना है कि चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या बीजेपी की, दोनों ही राजनीतिक दलों में सलाहकारों और निर्णय लेने वाले पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. मुसलमान युवा की भागीदारी सरकारी नौकरी में ज्यादा न हो सके, इस के लिए इन के द्वारा जगहजगह अघोषित फिल्टर लगा दिए गए हैं. जहांजहां लिखित परीक्षा के बाद इंटरव्यू होते हैं चाहे प्रशासनिक सेवा में हो, सेना में हो या अन्य नौकरियों में, हर जगह यह पहले से तय होता है कि कितने प्रतिशत मुसलमान लिए जाएंगे. ऐसे में शासनप्रशासन या सत्ता में उन की संख्या कैसे बढ़ सकती है?

अल्ताफ आगे कहते हैं, “आप सीडीएस (सैंट्रल डिफैंस सर्विस) का पिछले 10 साल का डेटा देख लें, उस के रिजल्ट को एनालाइज कर लें, आप देखेंगे कि अगर 100 मुसलिम युवा लिखित और फिटनैस टैस्ट में पास हो कर आए हैं तो उन में से सिर्फ 4 या 5 ही सेना में भरती हुए हैं. मुसलमानों के लिए इस तरह का फ़िल्टर हर जगह लगा हुआ है. वकील से जज बनने वाले मुसलमानों की संख्या और अन्य जाति व धर्म के उम्मीदवारों की संख्या देखें, वहां भी मुसलमान उम्मीदवार का चयन नहीं होता है. जजों के लिए जो रेकमेंडेशन होती हैं वे पंडित, ठाकुर, कायस्थ के लिए तो खूब होती हैं लेकिन मुसलमान को कोई रेकमंड नहीं करता. भले ही वे ज्यादा काबिल हों.

“”यही हाल बड़े शिक्षा संस्थानों, केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों के टीचर्स के अपौइंटमैंट में भी देखने को मिलता है. केंद्रीय विद्यालयों में तो टीचर्स का अपौइंटमैंट ही नहीं, बच्चों के एडमिशन का भी क्राइटेरिया बना हुआ है. सब से पहले उन बच्चों के एडमिशन को वरीयता दी जाती है जिन के अभिभावक केंद्र की सरकारी नौकरी में हैं. दूसरे स्तर पर स्टेट गवर्मेंट के तहत नौकरी करने वालों के बच्चों को रखा जाता है. सरकारी नौकरियां ज्यादातर ठाकुरों, ब्राह्मणों, लालाओं के पास हैं तो मुसलमान बच्चों के लिए यहीं फिल्टर लग जाता है.

“”चौथे या 5वें स्तर पर उन बच्चों को लिया जाता है जिन के मातापिता बिजनैस में हैं या प्राइवेट नौकरी में हैं. इन के पास इतना पैसा तो होता है कि वे स्कूल की फीस भर सकें मगर इतना ज्यादा नहीं होता कि बच्चों को किसी कंपीटिशन की तैयारी करवाने के लिए भारीभरकम प्राइवेट ट्यूशन फीस भर सकें. इस वर्ग के बच्चे, जिन में मुसलमान भी होते हैं, पढ़लिख कर अपने खानदानी धंधे में ही लग जाते हैं. बहुतेरे मुसलिम बच्चे 8वीं या 10वीं तक पढ़ाई कर स्कूल छोड़ देते हैं. कुछ तो इस से पहले ही पैसे की तंगी के चलते शिक्षा से दूर हो जाते हैं. यही वजह है कि स्कूल ड्रौपआउट्स में मुसलमानों की संख्या ज्यादा होती है.””

अल्ताफ बेग एक और रहस्योद्घाटन करते हैं. वे बताते हैं कि हर स्कूल में कमजोर वर्ग के बच्चों के एडमिशन के लिए कुछ हिस्सा रिजर्व है. 20 फ़ीसदी बच्चे उन्हें कमजोर वर्ग के लेने होते हैं. इन बच्चों का एडमिशन बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड के आधार पर होता है. गांकसबों में जहां प्रधान ही सब का मालिक होता है, अगर वह हिंदू है तो वहां के अधिकांश मुसलमान वाशिंदे अपना बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड नहीं बनवा पाते हैं.

प्रधान उन का कार्ड बनाने में टालमटोल करता है. उन को बारबार दौड़ाता है या पैसे की मांग करता है. जबकि उन हिंदुओं के अंत्योदय कार्ड बन जाते हैं जो स्कौर्पियो से चलते हैं. अंत्योदय कार्ड न होने से, या वोटरकार्ड न होने से इन मुसलमानों के बच्चों को न तो स्कूलों में प्रवेश मिलता है, न सरकारी योजनाओं, जैसे फ्रीशिक्षा या फ्रीस्वास्थ्य सेवा का फायदा उन को प्राप्त होता है. यही वजह है कि गरीब मुसलमान अपने बच्चों की तालीम के लिए मदरसों का रुख करता है जहां दीनी तालीम के साथ वह हिंदी, इंग्लिश, विज्ञान और कंप्यूटर की शिक्षा ले सकता है और साथ ही उस को वहां कुछ खाने को भी मिल जाता है.

मगर बीजेपी की सरकार अब इन मदरसों पर भी गिद्ध नजर गड़ाए बैठी है. ज्यादातर मदरसे बंद कर दिए गए हैं जो आम मुसलमान जनता द्वारा की जा रही चैरिटी पर चल रहे थे. यह समाज के एक बड़े वर्ग को बौद्धिक रूप से दबाए और डराए रखने की बीजेपी की साजिश है. अल्ताफ कहते हैं, ““मुसलमानों के लिए कहीं कोई रिजर्वेशन भी नहीं है. दलित और ओबीसी अपने रिजर्वेशन कोटे से सरकारी नौकरियों में जगह पा जाते हैं, मगर मुसलमान पिछड़ जाता है.”

वे आगे कहते हैं, ““सरकार के प्राइमरी स्कूलों की हालत कितनी लचर है, यह किसी से छिपा नहीं है. भवन जर्जर हैं, किताबें नहीं हैं, टीचर नहीं हैं. हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल में मुश्किल से 15 बच्चे आते हैं, मगर रजिस्टर में 90 बच्चों के नाम दर्ज हैं. प्रधान की मिलीभगत से यह होता है क्योंकि मिड डे मील के पैसों में, किताबों, यूनिफौर्म, फर्नीचर और भवन के लिए आने वाले सरकारी पैसों में उस का बड़ा हिस्सा होता है. प्राइमरी स्कूलों में मुसलिम बच्चों की संख्या बहुत कम है तो वहीं मुसलिम टीचर भी सिर्फ 3 फीसदी हैं.

“आप केंद्रीय जांच एजेंसियों रौ, सीबीआई, ईडी को देख लें, या स्टेट लैवल पर पुलिस विभाग को देख लें, वहां मुसलमानों की संख्या नगण्य है. सेना या रौ में तो पहली और दूसरी पंक्ति में मुसलमान है ही नहीं. उस को वहां तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है. देशभर के पुलिस थानों में सबइंस्पैक्टर लैवल पर भी आप पाएंगे कि अगर एक थाने में 25 का स्टाफ है तो उस में एक या दो एसआई ही मुसलमान होंगे. कांस्टेबल भरती के लिए तो कोई लिखित परीक्षा भी नहीं होती मगर वहां भी मुसलमान की संख्या बहुत कम है, वहां भी भूमिहार और यादवों की भरमार है, तो क्या मुसलमान लड़का दौड़ भी नहीं पा रहा है? ऐसा नहीं है.

“मुसलिम युवा जिम्मेदारी वाले पद पर न पहुंच सकें या डिसीजनमेकर न बन जाएं, इस के लिए आजादी के बाद से ही एक साजिश के तहत कई स्तरों पर ऐसे फ़िल्टर लगे हैं जिन की वजह से वह हतोत्साहित हो चुका है. जो मुट्ठीभर मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं, वे तमाम तरह की परेशानियों का सामना करते हैं. उन को दूरदराज ट्रांसफर कर दिया जाता है. उन के प्रमोशन रोके जाते हैं. मुसलमान बढ़ने की कोशिश तो करता है मगर चारों तरफ से दबाव इतना ज्यादा है कि वह हिम्मत हार जाता है. आज कुछ बच्चे अपने जुझारूपन से आगे आए हैं, आईएएस/आईपीएस के लिए सिलैक्ट हुए हैं, यह तारीफ की बात है, लेकिन उन की इतनी कम तादाद चिंता पैदा करती है.”

एक नामी स्कूल में फिजिक्स के लैक्चरर सैयद कमर आलम इस विषय में अपनी राय साझा करते हुए इस के लिए पहले मुसलमानों को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, “आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी मुसलमानों में शिक्षा के प्रति चाहत और विवेक की कमी है. यही वजह है कि स्कूलों में उन का एडमिशन रेट कम है. इस के साथ ही मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा छोटे कामों, जैसे मोची का काम, चमड़े का काम, मवेशी पालन, कपड़ा बुनाईसिलाई, बूचड़खाने का काम, बिरयानी शौप, गोश्त के दुकान, साईकिल की दुकान, मोटर मकैनिक, मजदूरी, किसानी, किराने का काम, जरदोजी का काम, चिकेनकारी, कार्पेट उद्योग, नकली जेवर बनाना, चूड़ी उद्योग, फूल का धंधा, कारपेंटर, बावर्ची, प्लंबर, इलैक्ट्रिक के काम आदि में लगा है. इन के बच्चे प्राइमरी शिक्षा के लिए स्कूल में दाखिला जरूर लेते हैं
मगर साथसाथ वे अपने पिता या दूसरे रिश्तेदारों से हाथ का हुनर भी सीखते हैं. या यों कहें कि उन को यह पैतृक हुनर जबरन सिखाया जाता है.

“प्राइमरी की शिक्षा पूरी होते ही वे पिता के साथ उन के धंधे में लग जाते हैं. यह तबका उच्च शिक्षा या सरकारी नौकरी की चाहत ही नहीं रखता और यह मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है. जो बच्चे किसी तरह बाप से जिद कर इंटरमीडिएट तक पहुंचते हैं, वे भी उस के बाद वोकैशनल ट्रेनिंग ले कर रोजगार की ओर बढ़ जाते हैं. इसी वजह से उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुसलिम बच्चों का प्रतिशत बहुत कम है. जिन के आर्थिक हालात थोड़े ठीक हैं और जो उच्च शिक्षा, जैसे बीए, बीएससी, बीकौम या मास्टर्स कर लेते हैं, उन में से अधिकांश ऐसे हैं जो किसी कंपीटिशन की तैयारी के लिए ट्यूशन की फीस नहीं दे सकते. अच्छे इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं ले सकते. तो उस दशा में वे कहीं टीचर लग जाते हैं या अपनी
कोचिंग क्लास खोल लेते हैं, या किसी प्राइवेट कंपनी में काम शुरू कर देते हैं.

“मुसलिम समाज की लड़कियों के लिए देश में माईनौरिटी स्कूल-कालेज न के बराबर हैं. धार्मिक और परिवार व समाज के दबाव में जो लड़कियां जवानी की दहलीज पर पहुंचते ही बुर्का पहनने लगती हैं, वे को-एजुकेशन वाले कालेज में खुद को एडजस्ट नहीं कर पातीं. देखा जाता है कि हायर एजुकेशन के लिए दाखिला मिलने के बाद कालेज का माहौल उन्हें रास नहीं आता और वे पढ़ाई ड्रौप कर देती हैं.

“कर्नाटक में जब लड़कियों के हिजाब को ले कर बवाल हुआ तब कितनी ही लड़कियों के घरवालों के दिल में बच्चियों की सेफ्टी को ले कर खौफ बैठ गया होगा. कितने ही लोगों ने अपनी बच्चियों के कालेज जाने पर प्रतिबंध लगा दिया होगा, ये आंकड़े कभी सामने नहीं आएंगे.”

कमर आलम कहते हैं कि अधिकांश मुसलिम बच्चे उच्च शिक्षा ले कर जल्दी से जल्दी जौब शुरू करना चाहते हैं ताकि घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकें. उन के लिए अधिकार पाने से ज्यादा जरूरी पैसा कमाना है. फिर यूपीएससी या इस के समकक्ष प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए कम से कम चारपांच साल लगते हैं और बहुत ज्यादा पैसा भी खर्च होता है. इतना समय और पैसा वो इसलिए नहीं देना चाहते क्योंकि उन को सिलैक्शन करने वालों की नीयत पर भी भरोसा नहीं है.

इन के अलावा भी कई कारण हैं, जैसे मोटिवेशन की कमी, निरंतर प्रयास की कमी, आत्मविश्वास की कमी, हीनभावना, शासन सत्ता पर भरोसा न होना भी हैं जो मुसलमान युवा को प्रशासनिक अधिकारी बनने की राह में रोड़ा अटकाते हैं. उक्त सभी बातें यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमानों की कम होती संख्या की वजहें हैं.

लखनऊ के एक नामी इंग्लिश मीडियम स्कूल में बायोलौजी के टीचर आरिफ अली, जो एमएससी-एमएड हैं और कई प्रतियोगी परीक्षाएं दे चुके हैं, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमान बच्चों का चयन न होने के सवाल पर कहते हैं, “यूपीएससी पहले यह बताए कि कितने मुसलिम अभ्यर्थियों ने यूपीएससी का मेन एग्जामिनेशन पास किया और इंटरव्यू तक पहुंचे? और इंटरव्यू में किन कारणों से उन का सिलेक्शन नहीं हुआ?”

फिर अपने सवाल का खुद ही जवाब देते हुए आरिफ कहते हैं, “वे कभी नहीं बताएंगे. उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे मुसलमान बच्चे कंपीटिशन की तैयारी भी करते हैं. परीक्षाएं भी देते हैं और पास भी होते हैं, बस, इंटरव्यू में रह जाते हैं. यह बहुत लंबे समय से मुसलमानों के साथ हो रहा है. इसलिए अब पढ़ालिखा मुसलिम युवा व्यवसाय की ओर मुड़ गया है. बहुतेरे बच्चे हायर स्टडीज के बाद अपने पिता की दुकान चला रहे हैं या पैतृक व्यवसाय संभाल रहे हैं. चौक चले जाइए, चिकन वर्क, ज्वैलरी शौप या खानेपीने का व्यवसाय चलाते जो युवा आप को मिलेंगे, उन से आप उन की शिक्षा के बारे में पूछेंगी तो अधिकांश ग्रेजुएट मिलेंगे.

“”बहुतेरों के पास मास्टर्स डिग्री होगी. उन के आगे, बस, एक ही लक्ष्य है वह है पैसा कमाना. और वे कमा रहे हैं. तो बीजेपी अगर यह सोच रही है कि वह मुसलमानों को सरकारी नौकरी में नहीं आने देगी, उन को आर्थिक रूप से कमजोर बना देगी, तो यह उस की खामखयाली है. बीजेपी और उस के नेता अगर यह सोचते हैं कि मुसलमानों को इग्नोर कर के बहुत बड़ा तीर मार रहे हैं तो उन की यह मानसिकता देश की प्रोडक्टिविटी ही घटाएगी.”

रुखसाना के दोनों लड़के इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा सैकंड डिवीजन में पास कर गए. दोनों जुड़वां हैं. रुखसाना चाहती है कि अब वे 12वीं भी कर लें मगर उन के पति चाहते हैं कि अब दोनों उस बिरयानी-कोरमे की दुकान में उन का हाथ बंटाएं जिस दुकान को वे अकेले बड़ी मेहनत से चला रहे हैं. उन का कहना है कि अभी दोनों लड़के शाम के कुछ घंटे अपनी दुकान को देते हैं. इतनी ही देर में उन को बहुत हलका महसूस होता है और ग्राहक भी खुशीखुशी खा कर जाता है. अगर दोनों पूरा वक्त दुकान को देने लगेंगे तो उन की आमदनी बढ़ जाएगी.

मेरे पूछने पर कि क्या आप नहीं चाहते कि वे आगे पढ़ें और किसी सरकारी नौकरी में जाएं या कोई कंपीटिशन निकाल कर अधिकारी बन जाएं. इस पर रफीक हंसते हुए बोले,“ “क्यों फालतू के ख्वाब दिखा रही हैं. सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का हाल आप जानती हैं. हम न तो इतने पढ़ेलिखे हैं और न हमारे पास इतना पैसा है कि कि अपने बच्चों को बता सकें कि किस परीक्षा की तैयारी करो, कैसे करो, कहां जा कर पढ़ो, किस से पढ़ो. हम अनपढ़ होते हुए जो कामधंधा कर रहे हैं, हमारे बच्चे पढ़लिख कर उस को संभाल लेंगे तो किसी बड़े अधिकारी की महीने की तनख्वाह से ज्यादा ही कमा लेंगे.”

यह मानसिकता ज्यादातर मुसलमान अभिभावकों की है. उन्हें व्यवसाय में ज्यादा फायदा नजर आता है और यह सच भी है. एक स्नातक या परास्नातक हिंदू लड़का अगर किसी सरकारी नौकरी में महीने का 40 हजार रुपया कमा रहा है तो वहीं बिरयानी का ठेला लगाने वाला मुसलमान लड़का 3 दिनों में 40 हजार रुपए बना लेता है. गांवों और कसबों की मुसलिम आबादी के ज्यादातर बच्चे, जो मदरसों में शिक्षा पा रहे हैं और कभी उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते हैं, वे मेहनतमजदूरी के काम में लग जाते हैं, साइकिल पंचर की दुकान खोल ली, दरजी बन गए या इसी तरह के छोटे कहे जाने वाले काम करने लगे, मगर इस में भी अब
अच्छी आमदनी है.

एक बात और ध्यान देने वाली है. कोई मुसलिम लीडर, कोई मौलाना, कोई विचारक अपने आम संबोधन में दीन की बात तो करता है मगर कभी मुसलिम बच्चों की शिक्षा की बात नहीं करता. वे अपनी कौम के लोगों पर इस बात का दबाव नहीं बनाते कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें. यह भी शायद इसी वजह से है क्योंकि वे जानते हैं कि तमाम दबाव और डर के बावजूद मुसलमान कमा-खा रहा है.

 

प्यार या संस्कार : अदिती के सपनों को कैसे लगे पंख?

अदिति ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद बेंगलुरु महानगर के एक नामीगिरमी कालेज में मैनेजमैंट कोर्स में ऐडमिशन लिया तो मानो उस के सपनों को पंख लग गए. उस के जीवन की सोच से ले कर संस्कार तथा सपनो से ले कर लाइफस्टाइल सभी तेजी से बदल गए.

अदिति के जीवन में कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अचानक उस के जीवन में उस के ही कालेज के एक छात्र प्रतीक की दस्तक के कारण जो मोड़ आया वह उस पहले प्यार के बवंडर से खुद को सुरक्षित नहीं रख पाई. अदिति बहुत जल्दी प्रतीक के प्यार के मोहपाश में इस तरह जकड़ गई मानो वह पहले कभी उस से अलग और अनजान नहीं थी.

जवानी की दहलीज पर पहले प्यार की अनूठी कशिश में अदिति अपने जीवन के बीते दिनों तथा परिवार की चाहतों को पूरी तरह से विस्मृत कर चुकी थी. प्रतीक के प्यार में सुधबुध खो बैठी अदिति अपने सब से खूबसूरत ख्वाब के जिस रास्ते पर चल पड़ी वहां से पीछे मुड़ने का कोईर् रास्ता न तो उसे सूझा और न ही वह उस के लिए तैयार थी.

गरमी की छुट्टी में जब अदिति अपने घर वापस आई तो उस के बदले हावभाव देख कर उस की अनुभवी मां को बेटी के बहके पांवों की चाल समझते देर नहीं लगी. जल्दी ही छिपे प्यार की कहानी किसी आईने की तरह बिलकुल साफ हो गई और मां को पहली बार अपनी गुडि़या सरीखी मासूम बेटी अचानक ही बहुत बड़ी लगने लगी.

अदिति ने अपनी मां से प्रतीक से शादी के लिए शुरू में तो काफी विनती की, लेकिन मां के इनकार को देखते हुए वह जिद पर अड़ गई. अदिति के पिता तो उसी वक्त गुजर गए थे जब अदिति ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी. मां और बेटी के अलावा उस छोटे से संसार में प्रतीक के प्रवेश की तैयारी के लिए एक बड़ा द्वंद्व और दुविधा का जो माहौल तैयार हो गया था वह सब के लिए दुखदायी था, जिस की मद्घिम लौ में मां को अपनी बेटी के चिरपोषित सपनों की दुनिया जल जाने का मंजर साफ नजर आ रहा था.

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो? मैं प्रतीक से सच्चा प्यार करती हूं. वह ऐसावैसा लड़का नहीं है. वह अच्छे घर से है और निहायत शरीफ है. क्या बुरा है, यदि मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’’ अदिति ने बड़े साफ लहजे में अपनी मां को अपने विचारों से अवगत कराया.

मां  अपनी बेटी के इस कठोर निर्णय से    काफी आहत हुईं लेकिन खुद को संयमित करते हुए अदिति को अपने सांस्कारिक मूल्यों तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों का एहसास कराने की काफी कोशिश करती हुई बोलीं, ‘‘बेटी, मैं सबकुछ समझती हूं, लेकिन अपने भी कुछ संस्कार होते हैं. तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिए क्या सपने संजो रखे थे लेकिन तुम उन सपनों का इतनी जल्दी गला घोंट दोगी, इस बारे में तो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी जिद छोड़ो और अभी अपने भविष्य को संवारो. प्यारमुहब्बत और शादी के लिए अभी बहुत वक्त पड़ा है.’’

‘‘मां, आप समझती नहीं हैं, प्यार संस्कार नहीं देखता, यह तो जीवन में देखे गए सपनों का प्रश्न होता है. मैं ने प्रतीक के साथ जीवन के न जाने कितने खूबसूरत सपने देखे हैं, लेकिन मैं यह भूल गई थी कि मेरे इंद्रधनुषी सपनों के पंख इतनी बेरहमी से कुतर दिए जाएंगे. आखिर, तुम्हें मेरे सपनों के टूटने से क्या?’’

‘‘बेटी, सच पूछो तो प्रतीक के साथ तुम्हारा प्यार केवल तुम्हारे जीवन के लिए नहीं है. जीवन के रंगीन सपनों के दिलकश पंख पर बेतहाशा उड़ने की जिद में अपनों को लगे जख्म और दर्द के बारे में क्या तुम ने कभी सोचा है? प्यार का नाम केवल अपने सपनों को साकार होते देखनाभर नहीं है. वह सपना सपना ही क्या जो अपनों के दर्द की दास्तान की सीढ़ी पर चढ़ कर साकार किया गया हो.

‘‘आज तुम्हें मेरी बातें बचकानी लगती होंगी, लेकिन मेरी मानो जब कल तुम भी मेरी जगह पर आओगी और तुम्हारे अपने ही इस तरह की नासमझी की बातों को मनवाने के लिए तुम से जिद करेंगे तो तुम्हें पता चलेगा कि दिल में कितनी पीड़ा होती है. मन में अपनों द्वारा दिए गए क्लेश का शूल कितना चुभता है.’’

अदिति अपनी मां के मुंह से इस कड़वी सचाई को सुन कर थोड़ी देर के लिए सन्न रह गई. उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर अनजाने ही हाथ रख दिया हो. उस के जेहन में अनायास ही बचपन से ले कर अब तक अपनी मां द्वारा उस के लालनपालन के साथसाथ पढ़ाई के खर्चे के लिए संघर्ष करने की कहानी का हर दृश्य किसी सिनेमा की रील की भांति दौड़ता चला गया.

अनायास ही उस की आंखें भर आईं. मन पर भ्रम और दुविधा की लंबे अरसे से पड़ी धूल की परत साफ हो चुकी थी और सबकुछ किसी शीशे की तरह साफसाफ प्रतीत होने लगा था. लेकिन बीते हुए कल के उस दर्र्द के आंसू को अपनी मां से छिपाते हुए वह भाग कर अपने कमरे में चली गई. अपनी मां की दिल को छू लेने वाली बातों ने अदिति को मानो एक गहरी नींद से जगा दिया हो.

छुट्टियों के बाद अदिति अपने कालेज वापस आ गई और जीवन फिर परिवर्तन के एक नए दौर से गुजरने लगा. कालेज वापस लौटने के बाद अदिति गुमसुम रहने लगी. प्रतीक से भी वह कम ही बातें करती थी, बल्कि उस ने उसे शादी के बारे में अपनी मां की मरजी से भी अवगत करा दिया और इस तरह मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दोनों की राहें अलगअलग हो गईं.

कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस सिलैक्शन में प्रतीक को किसी मल्टीनैशनल कंपनी में ट्रेनी मैनेजर के रूप में यूरोप का असाइनमैंट मिला और अदिति ने किसी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनी में क्वालिटी कंट्रोल ऐग्जीक्यूटिव के रूप में अपनी प्लेसमैंट की जगह बेंगलुरु को ही चुन लिया.

अदिति अपनी मां के साथ इस मैट्रोपोलिटन सिटी में रह कर जीवन गुजारने लगी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. इसी बीच कंपनी ने अदिति को 1 वर्ष के फौरेन असाइनमैंट पर आस्ट्रेलिया भेजने का निर्णय लिया. अदिति अपनी मां के साथ जब आस्टे्रलिया के सिडनी शहर आई तो संयोग से वहीं पर एक दिन किसी शौपिंग मौल में उस की प्रतीक से मुलाकात हो गई. अदिति के लिए यह एक सुखद लमहा था, जिस की नरम कशिश में वर्षों पूर्व के संबंधों की यादें बड़ी तेजी से ताजी हो गईं. लेकिन भविष्य में इस संबंध के मुकम्मल न होने के भय ने उस के पैर वापस खींच लिए.

प्रतीक अपने क्वार्टर में अकेला रहता था और अकसर हर रोज शाम के वक्त वह अदिति के घर पर आ जाया करता था. मां को भी अपने घर में अपने देश के एक परिचित के रूप में प्रतीक का आनाजाना अच्छा लगता था, क्योंकि परदेश में उस के अलावा सुखदुख बांटने वाला और कोई भी तो नहीं था.

अचानक एक दिन औफिस से घर लौटते वक्त अदिति की औफिस कार की किसी प्राइवेट कार के साथ टक्कर हो गई और अदिति को सिर में काफी चोट आई. महीनेभर तक अदिति  हौस्पिटल में ऐडमिट रही और इस दौरान उस का और उस की मां का ध्यान रखने वाला प्रतीक के अलावा और कोई नहीं था. प्रतीक ने मुसीबत की इस घड़ी में अदिति और उस की मां का भरपूर ध्यान रखा और इसी बीच अदिति और प्रतीक फिर से कब एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि उन्हें इस का पता ही नहीं चला.

अदिति का यूरोप असाइनमैंट खत्म होने वाला था और उसे अब अपने देश वापस आना था. अदिति और उस की मां को छोड़ने के लिए प्रतीक भी बेंगलुरु आया था. प्रतीक के सेवाभाव से अदिति की मां अभिभूत हो गई थीं. प्रतीक सिडनी वापस जाने की पूर्व संध्या पर अपने मम्मीडैडी के साथ अदिति से मुलाकात करने आया था. अदिति का व्यवहार तथा शालीनता देख कर प्रतीक के पेरैंट्स काफी खुश हुए.

प्रतीक की अगले दिन फ्लाइट थी. एयरपोर्ट पर बोर्डिंग के समय जब अदिति का फोन आया तो उस के दिलोदिमाग में एक अजीब हलचल मच गई. पुराने प्यार की सुखद और नरम बयार में प्रतीक के मन का कोनाकोना सिहर उठा. प्रतीक ने अपनी फ्लाइट कैंसिल करवा ली. उस ने अपनी कंपनी को बेंगलुरु में ही उसे शिफ्ट करने के लिए रिक्वैस्ट भेज दी जो कुछ दिनों में अपू्रव भी हो गई. अदिति की मां प्रतीक के इस फैसले से काफी प्रभावित हुईं.

अदिति हमेशा के लिए अब प्रतीक की हो गई थी और वह मां के साथ ही बेंगलुरु में रहने लगी थी. प्रतीक अपनी खुली आंखों से अपने सपने को अपनी बांहों में पा कर खुशी से फूले नहीं समा रहा था. अदिति के पांव भी जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. उसे आज जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि धरती की तरह सपनों की दुनिया भी गोल होती है और सितारे भले ही टूटते हों, लेकिन यदि विश्वास मजबूत हो तो सपने कभी नहीं टूटते.

थोड़ी सी बेवफाई

‘हाय, पहचाना.’ व्हाट्सऐप पर एक नए नंबर से मैसेज आया देख मैं ने उत्सुकता से प्रोफाइल पिक देखी. एक खूबसूरत चेहरा हाथों से ढका सा और साथ ही स्टेटस भी शानदार…

जरूरी तो नहीं हर चाहत का मतलब इश्क हो… कभीकभी अनजान रिश्तों के लिए भी दिल बेचैन हो जाता है. मैं ने तुरंत पूछा, ‘‘हू आर यू? क्या मैं आप को जानता हूं?’’

‘‘जानते नहीं तो जान लीजिए, वैसे भी मैं आप की जिंदगी में हलचल मचाने आई हूं…’’

‘‘यानी आप कहना चाहती हैं कि आप मेरी जिंदगी में आ चुकी हैं? ऐसा कब हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अभी, इसी पल. जब आप ने मेरे बारे में पूछा…’’

मैं समझ गया था, युवती काफी स्मार्ट है और तेज भी. मैं ने चुप रहना ही बेहतर समझा, तभी फिर मैसेज आया देख कर मैं इग्नोर नहीं कर सका.

‘‘क्या बात है, हम से बातें करना आप को अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’

‘‘यह तो मैं ने नहीं कहा…’’ मैं ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘तो फिर ठीक है, मैं समझूं कि आप को मुझ से बात करना अच्छा लग रहा है?’’

‘‘हूं… यही समझ लो. मगर मुझे भी तो पता चले कि आप हैं कौन?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है? आराम से बताऊंगी.’’

युवती ने स्माइली भेजी, तो मेरा दिल हौले से धड़कने लगा. मैं सोच में डूब गया कि यह युवती अजनबी है या उसे पहले से जानती है. कहीं कोई कालेज की पुरानी दोस्त तो नहीं, जो मजे लेने के लिए मुझे मैसेज भेज रही है. मुश्किल यह थी कि फोटो में चेहरा भी पूरा नजर नहीं आ रहा था. तभी मेरा मोबाइल बज उठा. कहीं वही तो नहीं, मैं ने लपक कर फोन उठाया. लेकिन बीवी का नंबर देख कर मेरा मुंह बन गया और तुरंत मैं ने फोन काट दिया. 10 सैकंड भी नहीं गुजरे थे कि फिर से फोन आ गया. झल्लाते हुए मैं ने फोन उठाया, ‘‘यार 10 मिनट बाद करना अभी मैं मीटिंग में हूं. ऐसी क्या आफत आ गई जो कौल पर कौल किए जा रही हो?’’

बीवी यानी साधना हमेशा की तरह चिढ़ गई, ‘‘यह क्या तरीका है बीवी से बात करने का? अगर पहली कौल ही उठा लेते तो दूसरी बार कौल करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’’ ‘‘पर आधे घंटे पहले भी तो फोन किया था न तुम ने, और मैं ने बात भी कर ली थी. अब फिर से डिस्टर्ब क्यों कर रही हो?’’

‘‘देख रही हूं, अब तुम्हें मेरा फोन उठाना भी भारी लगने लगा है. एक समय था जब मेरी एक कौल के इंतजार में तुम खानापीना भी भूल जाते थे…’’ ‘‘प्लीज साधना, समझा करो. मैं यहां काम करने आया हूं, तुम्हारा लैक्चर सुनने नहीं…’’

उधर से फोन कट चुका था. मैं सिर पकड़ कर बैठ गया. कभीकभी रिश्ते भी भार बन जाते हैं, जिन्हें ढोना मजबूरी का सबब बन जाता है और कुछ नए रिश्ते अजनबी हो कर भी अपनों से प्यारे लगने लगते हैं. जब अपनों की बातें मन को परेशान करने लगती हैं, उस वक्त मरहम की तरह किसी अजनबी का साथ जिंदगी में नया उत्साह और जीने की नई वजह बन जाता है. ऐसा नहीं है कि मैं अपनी बीवी से प्यार नहीं करता. मगर कई बार रिश्तों में ऐसे मोड़ आते हैं, जब जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी बुरी लगने लगती है. प्यार अच्छा है, मगर पजेसिवनैस नहीं. हद से ज्यादा पजेसिवनैस बंधन लगने लगता है, तब रिश्ते भार बन जाते हैं और मन में खालीपन घर कर जाता है. मेरी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही दौर आया था और इस खालीपन को भरने के लिहाज से उस अनजान युवती का दखल मुझे भाने लगा था. जिंदगी में एक नया अध्याय जुड़ने लगा था. नई ख्वाहिशों की आंच मन में अजीब सी बेचैनी पैदा कर रही थी. एक बार फिर से जिंदगी के प्रति मेरा रुझान बढ़ने लगा. दिलोदिमाग में बारबार उसी लड़की का खयाल उमड़ता कि कब उस का मैसेज आए और मेरी धड़कनों को बहकने का मौका मिले.

‘‘हाय, क्या सोच रहे हो?’’ अचानक फिर से आए उस युवती के मैसेज ने मेरे होंठों पर मुसकान बिखेर दी, ‘‘बस, तुम्हें ही याद कर रहा था.’’

‘‘हां, वह तो मैं जानती हूं. मैं हूं ही ऐसी बला जो एक बार जिंदगी में आ जाए तो फिर दिल से नहीं जाती.’’

मैं यह सुन कर हंस पड़ा था. कितनी सहज और मजेदार बातें करती है यह युवती. मैं ने फिर पूछा, ‘‘इस बला का कोई नाम तो होगा?’’

‘‘हां, मेरा नाम कल्पना है.’’

नाम बताने के साथ ही उस ने एक खूबसूरत सी शायरी भेजी. हसीं जज्बातों से लबरेज वह शायरी मैं ने कई दफा पढ़ी और फिर शायरी का जवाब शायरी से ही देने लगा.सालों पहले मैं शायरी लिखा करता था. कल्पना की वजह से आज फिर से मेरा यह पैशन जिंदा हो गया था. देर तक हम दोनों चैटिंग करते रहे. ऐसा लगा जैसे मेरा मन बिलकुल हलका हो गया हो. उस युवती की बातें मेरे मन को छूने लगी थीं. वह ब ड़े बिंदास अंदाज में बातें करती थी. समय के साथ मेरी जिंदगी में उस युवती का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला गया. रोज मेरी सुबह की शुरुआत उस के एक प्यारे से मैसेज से होती. कभीकभी वह बहुत अजीब सेमैसेज भेजती. कभी कहती, ‘‘आप ने अपनी जिंदगी में मेरी जगह क्या सोची है, तो कभी कहती कि क्या हमारा चंद पलों का ही साथ रहेगा या फिर जन्मों का?’’

एक बात जो मैं आसानी से महसूस कर सकता था, वह यह कि मेरी बीवी साधना की खोजी निगाहें अब शायद मुझ पर ज्यादा गहरी रहने लगी थीं. मेरे अंदर चल रही भावनात्मक उथलपुथल और संवर रही अनकही दास्तान का जैसे उसे एहसास हो चला था. यहां तक कि यदाकदा वह मेरे मोबाइल भी चैक करने लगी थी. देर से आता तो सवाल करती. जाहिर है, मेरे अंदर गुस्सा उबल पड़ता. एक दिन मैं ने झल्ला कर कहा, ‘‘मैं ने तो कभी तुम्हारे 1-1 मिनट का हिसाब नहीं रखा कि कहां जाती हो, किस से मिलती हो?’’

‘‘तो पता रखो न अतुल… मैं यही तो चाहती हूं,’’ वह भड़क कर बोल पड़ी थी. ‘‘पर यह सिर्फ पजेसिवनैस है और कुछ नहीं.’’

‘‘प्यार में पजेसिवनैस ही जरूरी है अतुल, तभी तो पता चलता है कि कोई आप से कितना प्यार करता है और बंटता हुआ नहीं देख सकता.’’

‘‘यह तो सिर्फ बेवकूफी है. मैं इसे सही नहीं मानता साधना, देख लेना यदि तुम ने अपना यह रवैया नहीं बदला तो शायद एक दिन मुझ से हाथ धो बैठोगी.’’

मैं ने कह तो दिया, मगर बाद में स्वयं अफसोस हुआ. पूरे दिन साधना भी रोती रही और मैं लैपटौप ले कर परेशान चुपचाप बैठा रहा. उस दिन के बाद मैं ने कभी भी साधना से इस संदर्भ में कोई बात नहीं की. न ही साधना ने कुछ कहा. मगर उस की शक करने और मुझ पर नजर रखने की आदत बरकरार रही. उधर मेरी जिंदगी में नए प्यार की बगिया बखूबी खिलने लगी थी. कल्पना मैसेज व शायरी के साथसाथ अब रोमांटिक वीडियोज और चटपटे जोक्स भी शेयर करने लगी थी. कभीकभी मुझे कोफ्त होती कि मैं इन्हें देखते वक्त इतना घबराया हुआ सा क्यों रहता हूं? निश्चिंत हो कर इन का आनंद क्यों नहीं उठा पाता? जाहिर है, चोरीछिपे कुछ किया जाए तो मन में घबराहट तो होती ही है और वही मेरे साथ भी होता था. आखिर कहीं न कहीं मैं अपनी बीवी से धोखा ही तो कर रहा था. इस बात का अपराधबोध तो मुझे था ही. एक दिन कल्पना ने मुझे एक रोमांटिक सा वीडियो शेयर किया और तभी साधना भी बड़े गौर से मुझे देखती हुई गुजरी. मैं चुपके से अपना टैबलेट ले कर बाहर बालकनी में आ गया. वीडियो डाउनलोड कर इधरउधर देखने लगा कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा. जब निश्चिंत हो गया कि साधना आसपास नहीं है, तो वीडियो का आनंद लेने लगा. उस वक्त मुझे अंदर से एक अजीब सा रोमांटिक एहसास हुआ. उस अजनबी युवती को बांहों में भरने की तमन्ना भी हुई मगर तुरंत स्वयं को संयमित करता हुआ अंदर आ गया.

साधना की अनुभवी निगाहें मुझ पर टिकी थीं. निगाहें चुराता हुआ मैं लैपटौप खोल कर बैठ गया. मुझे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा कैसे हो गया? एक समय था जब साधना मेरी जिंदगी थी और आज किसी और के आकर्षण ने मुझे इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया था. उधर समय के साथ कल्पना की हिमाकतें भी बढ़ने लगी थीं. मैं भी बहता जा रहा था. एक अजीब सा जनून था जिंदगी में. वैसे कभीकभी मुझे ऐसा लगता जैसे यह सब बिलकुल सही नहीं. इधर साधना को धोखा देने का अपराधबोध तो दूसरी तरफ अनजान लड़की का बढ़ता आकर्षण. मैं न चाहते हुए भी स्वयं को रोक नहीं पा रहा था और फिर एक दिन उस के एक मैसेज ने मुझे और भी ज्यादा बेचैन कर दिया.

कल्पना ने लिखा था, ‘‘क्या अब हमारे रिश्ते के लिए जरूरी नहीं है कि हम दोनों को एकदूसरे को मिल कर करीब से एकदूसरे का एहसास करना चाहिए.’’

‘‘जरूर, जब तुम कहो…’’ मैं ने उसे स्वीकृति तो दे दी मगर मन में एक कसक सी उठी. मन का एक कोना एक अनजान से अपराधबोध से घिर गया. क्या मैं यह ठीक कर रहा हूं?  मैं ने साधना की तरफ देखा.

साधना सामने उदास सी बैठी थी, जैसे उसे मेरे मन में चल रही उथलपुथल का एहसास हो गया था. अचानक वह पास आ कर बोली, ‘‘मां को देखे महीनों गुजर गए. जरा मेरा रिजर्वेशन करा देना. इस बार 1-2 महीने वहां रह कर आऊंगी.’’ उस की उदासी व दूर होने का एहसास मुझे अंदर तक द्रवित कर गया. ऐसा लगा जैसे साधना के साथ मैं बहुत गलत कर रहा हूं और मैं ही उस का दोषी हूं. मगर कल्पना से मिलने और उस के साथ वक्त बिताने का लोभ संवरण करना भी आसान न था. अजीब सी कशमकश में घिरा मैं सो गया. सुबह उठा तो मन शांत था मेरा. देर रात मैं कल्पना को एक मैसेज भेज कर सोया था. सुबह उस का जवाब पढ़ा तो होंठों पर मुसकान खेल गई. थोड़े गरम कपड़े पहन कर मैं मौर्निंग वाक पर निकल गया. लौट कर कमरे में आया तो देखा, साधना बिस्तर पर नहीं है. घर में कहीं भी नजर नहीं आई. थोड़ा परेशान सा मैं साधना को छत पर देखने गया तो पाया, एक कोने में चुपचाप खड़ी वह उगते सूरज की तरफ एकटक देख रही है.

मैं ने उसे पीछे से बांहों में भर लिया. उस ने मेरी तरफ चेहरा किया तो मैं यह देख कर विचलित हो उठा कि उस की आंखों से आंसू निकल रहे थे. मैं ने प्रश्नवाचक नजरों से उस की तरफ देखा तो वह सीने से लग गई, ‘‘आई लव यू…’’

‘‘आई नो डियर, बट क्या हुआ तुम्हें?’’

अचानक रोतीरोती वह हंस पड़ी, ‘‘तुम्हें तो ठीक से बेवफाई करनी भी नहीं आती.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘अपनी महबूबा को भला ऐसे मैसेज किए जाते हैं? कल रात क्या मैसेज भेजा था तुम ने?’’

‘‘तुम ने लिखा था, डियर कल्पना, जिंदगी हमें बहुत से मौके देती है, नई खुशियां पाने के, जीवन में नए रंग भरने के… मगर वह खुशियां तभी तक जायज हैं, जब तक उन्हें किसी और के आंसुओं के रास्ते न गुजरना पड़े. किसी को दर्द दे कर पाई गई खुशी की कोई अहमियत नहीं. प्यार पाने का नहीं बस महसूस करने का नाम है. मैं ने तुम्हारे लिए प्यार महसूस किया. मगर उसे पाने की जिद नहीं कर सकता, क्योंकि मैं अपनी बीवी को धोखा नहीं दे सकता. तुम मेरे हृदय में खुशी बन कर रहोगी, मगर तुम्हें अपने अंतस की पीड़ा नहीं बनने दूंगा. तुम से मिलने का फैसला मैं ने प्यार के आवेग में लिया था मगर अब दिल की सुन कर तुम से सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि रिश्तों में सीमा समझना जरूरी है.

‘‘हम कभी नहीं मिलेंगे… आई थिंक, तुम मेरी मजबूरी समझोगी और खुद भी मेरी वजह से कभी दुखी नहीं रहोगी… कीप स्माइलिंग…’’

मैं ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘पर यह सब तुम्हें कैसे पता…?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारी कल्पना भी मैं हूं और साधना भी…’’ कह कर साधना मुसकराते हुए मेरे हृदय से लग गई और मैं ने भी पूरी मजबूती के साथ उसे बांहों में भर लिया.

आज मुझे अपना मन बहुत हलका महसूस हो रहा था. बेवफाई के इलजाम से आजाद जो हो गया था मैं.

मैं 21 साल का नौजवान हूं और मेरे 2 सालों से मेरी भाभी के साथ शारीरिक संबंध है, क्या मैं सही कर रहा हूं?

सवाल
मैं 21 साल का नौजवान हूं और 2 सालों से भाभी के साथ सैक्स कर रहा हूं. भाई शहर से आता है, तो भी हम लोग छिप कर मिलते हैं. भाई के वापस जाने के बाद जब मैं उन से बात नहीं करता, तो भाभी कहती हैं कि वे अपनी जान दे देंगी. मैं क्या करूं?

जवाब
आप भाभी का पूरापूरा फायदा उठा रहे हैं. फिर भाई के जाने के बाद नौटंकी क्यों करते हैं? मरने की बात करना भाभी की अदा है. ऐसी औरतें जान नहीं देतीं. वैसे, आप का यह खेल खतरनाक है. किसी को पता चलेगा, तो बवाल हो सकता है. बेहतर होगा कि आप शादी कर लें और भाभी को पूरी तरह भूल जाएं.

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रविवार को छुट्टी होने की वजह से फैक्ट्रियों में काम करने वाले अधिकांश कामगार अपने घरों की साफ सफाई और कपड़े आदि धोने का काम करते हैं. 25 साल का सागर और उस का छोटा भाई सरवन भी घर की साफसफाई में लगे थे. दोनों भाई एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करते थे. शाम 5 बजे के करीब सारा काम निपटा कर सरवन कमरे में लेट कर आराम करने लगा तो सागर छत पर हवा खाने चला गया.

7 बजे सागर आया और नीचे सरवन से खाना बनाने को कहा. छोटेमोटे काम करा कर वह फिर छत पर चला गया. सरवन खाना बना रहा था. दोनों भाई लुधियाना के फतेहगढ़ मोहल्ले में पाली की बिल्डिंग में तीसरी मंजिल पर किराए का कमरा ले कर रहते थे.

इस बिल्डिंग में 30 कमरे थे, जिसे मकान मालिक ने प्रवासी कामगारों को किराए पर दे रखे थे. पास ही मकान मालिक की राशन की दुकान थी. सभी किराएदार उसी की दुकान से सामान खरीदते थे. इस तरह उस की अतिरिक्त आमदनी हो जाया करती थी. साढ़े 7 बजे के करीब पड़ोस में रहने वाले संजय ने आ कर सरवन को बताया कि सागर खून से लथपथ ऊपर के जीने में पड़ा है.

संजय का इतना कहना था कि सरवन खाना छोड़ कर छत की ओर भागा. ऊपर जा कर उस ने देखा सागर के शरीर पर कई घाव थे, जिन से खून बह रहा था. हैरानी की बात यह थी कि छत पर दूसरा कोई नहीं था. वह सोच में पड़ गया कि सागर को इस तरह किस ने घायल किया?

लेकिन यह वक्त ऐसी बातें सोचने का नहीं था. संजय व और अन्य लोगों की मदद से सरवन अपने घायल भाई को पास के राम चैरिटेबल अस्पताल ले गया, जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. इस बीच किसी ने पुलिस को इस मामले की सूचना भी दे दी. यह 9 अप्रैल, 2017 की घटना है.

सूचना मिलते ही थाना डिवीजन-4 के थानाप्रभारी मोहनलाल अपनी टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए थे. उन्होंने वहां रहने वाले किराएदारों से पूछताछ शुरू कर दी. दूसरी ओर अस्पताल द्वारा भी पुलिस को सूचित कर दिया गया था. 2 पुलिसकर्मियों को घटनास्थल पर छोड़ कर थानाप्रभारी राम चैरिटेबल अस्पताल पहुंच गए.

उन्होंने सागर की लाश का मुआयना किया तो पता चला कि किसी नुकीले और धारदार हथियार से उस पर कई वार किए गए थे. जरूरी काररवाई कर के पुलिस ने लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. घटना की सूचना उच्चाधिकारियों को भी दे दी गई थी.

अस्पताल से फारिग होने के बाद थाना प्रभारी सरवन को साथ ले कर घटनास्थल पर पहुंचे. अब तक सूचना पा कर एसीपी सचिन गुप्ता व क्राइम टीम भी घटनास्थल पर पहुंच गई थी. घटनास्थल का गौर से निरीक्षण किया गया. बिल्डिंग के बाहर मुख्य दरवाजे के पास गली में खून सने जूतों के हलके से निशान दिखाई दिए थे.

छत और जीने में भी काफी मात्रा में खून फैला था. बिल्डिंग के बाहर गली में करीब 2 दरजन साइकिलें खड़ी थीं, जो वहां रहने वाले किराएदारों की थीं. काफी तलाश करने पर भी वहां से कोई खास सुराग नहीं मिल सका.

लुधियाना में ऐसे कामगार मजदूरों के मामलों में अकसर 2 बातें सामने आती हैं. ऐसी हत्याएं या तो रुपएपैसे के लेनदेन में होती हैं या फिर अवैध संबंधों की वजह से. सब से पहले थानाप्रभारी मोहनलाल ने रुपयों के लेनदेन वाली थ्यौरी पर काम शुरू किया. पता चला कि मृतक सीधासादा इंसान था. उस का किसी से कोई लेनदेन या दुश्मनी नहीं थी.

इस के बाद थानाप्रभारी ने इस मामले की जांच एएसआई जसविंदर सिंह को करने के निर्देश दिए. उन्होंने मामले की जांच शुरू की तो उन्हें पता चला कि मृतक के कई रिश्तेदारों के लड़के यहां रह कर काम करते हैं, जिन में एक अशोक मंडल है, जो मृतक के ताऊ का बेटा है.

अशोक मंडल टिब्बा रोड की किसी सिलाई फैक्ट्री में काम करता था और उस का मृतक के घर काफी आनाजाना था. इसी के साथ यह भी पता चला कि अशोक का किसी बात को ले कर मृतक से 2-3 बार झगड़ा भी हुआ था.

एएसआई जसविंदर सिंह ने हवलदार अमरीक सिंह को अशोक मंडल के बारे में जानकारी जुटाने का काम सौंप दिया. थानाप्रभारी अपने औफिस में बैठ कर जसविंदर सिंह से इसी केस के बारे में चर्चा कर रहे थे, तभी उन्हें चाबी का ध्यान आया.

दरअसल घटनास्थल का निरीक्षण करने के दौरान बिल्डिंग के बाहर खड़ी साइकिलों के पास उन्हें एक चाबी मिली. वह चाबी वहां खड़ी किसी साइकिल के ताले की थी.

थानाप्रभारी ने उस समय उसे फालतू की चीज समझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन अब न जाने क्यों उन्हें वह चाबी कुछ महत्त्वपूर्ण लगने लगी. वह एएसआई जसविंदर सिंह और कुछ पुलिसकर्मियों को साथ ले कर उसी समय पाली की बिल्डिंग पहुंचे. साइकिलें अब भी वहीं खड़ी थीं.

उन्होंने बिल्डिंग में रहने वाले सभी किराएदारों को बुलवा कर कहा कि अपनीअपनी साइकिलों के ताले खोल कर इन्हें एक तरफ हटा लो.

सभी किराएदार अपनीअपनी साइकिलों का ताला खोल कर उन्हें हटाने लगे. सभी ने अपनी साइकिलें हटा लीं, फिर भी एक साइकिल वहां खड़ी रह गई.

‘‘यह किस की साइकिल है?’’ एएसआई जसविंदर सिंह ने पूछा. सभी ने अपनी गरदन इंकार में हिलाते हुए एक स्वर में कहा, ‘‘साहब, यह हमारी साइकिल नहीं है.’’

इस के बाद थानाप्रभारी मोहनलाल ने अपनी जेब से चाबी निकाल कर जसविंदर को देते हुए कहा, ‘‘जरा देखो तो यह चाबी इस साइकिल के ताले में लगती है या नहीं?’’

जसविंदर सिंह ने वह चाबी उस साइकिल के ताले में लगाई तो ताला झट से खुल गया. यह देख कर मोहनलाल की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने उस साइकिल के बारे में सब से पूछा. पर उस के बारे में कोई कुछ नहीं बता सका.

इसी पूछताछ के दौरान पुलिस की नजर सामने की दुकान पर लगे सीसीटीवी कैमरे पर पड़ी. पुलिस कैमरे की फुटेज निकलवा कर चैक की तो पता चला कि घटना वाले दिन शाम को करीब पौने 7 बजे एक युवक वहां साइकिल खड़ी कर के पाली की बिल्डिंग में गया था. इस के लगभग 25 मिनट बाद वही युवक घबराया हुआ तेजी से बिल्डिंग के बाहर आया और साइकिलों से टकरा कर नीचे गिर पड़ा. फिर झट से उठ कर अपनी साइकिल लिए बगैर ही चला गया.

पुलिस ने वह फुटेज मृतक के भाई सरवन को दिखाई तो सरवन ने उस युवक को पहचानते हुए कहा, ‘‘यह तो मेरे ताऊ का बेटा अशोक मंडल है.’’

‘‘अशोक मंडल कल शाम तुम्हारे कमरे पर आया था क्या?’’ थानाप्रभारी ने पूछा.

‘‘नहीं साहब, जब से भैया (मृतक) से इन का झगड़ा हुआ है, तब से यह हमारे कमरे पर नहीं आते हैं और न ही हम दोनों भाई इन के कमरे पर जाते थे.’’ सरवन ने कहा.

इस के बाद जसविंदर ने मुखबिरों द्वारा अशोक मंडल के बारे में पता कराया तो उन का संदेह विश्वास में बदल गया. उन्होंने सिपाही को भेज कर अशोक मंडल को थाने बुलवा लिया. थाने में उस से पूछताछ की गई तो हर अपराधी की तरह उस ने भी खुद को बेगुनाह बताया. उस ने कहा कि घटना वाले दिन वह शहर में ही नहीं था. लेकिन थानाप्रभारी मोहनलाल ने उसे सीसीटीवी कैमरे की फुटेज दिखाई तो वह बगलें झांकने लगा.

आखिर उस ने सागर की हत्या का अपना अपराध स्वीकार कर लिया. उस का बयान ले कर पुलिस ने उसे सक्षम न्यायालय में पेश कर 2 दिनों के पुलिस रिमांड पर ले लिया. पुलिस रिमांड के दौरान अशोक मंडल से पूछताछ में सागर की हत्या की जो कहानी प्रकाश में आई, वह अवैध संबंधों पर रचीबसी थी—

अशोक मंडल मूलरूप से बिहार के अररिया का रहने वाला था. कई सालों पहले वह काम की तलाश में लुधियाना आया. जल्दी से लुधियाना में उस का काम जम गया था. वह एक्सपोर्ट की फैक्ट्रियों में ठेके ले कर सिलाई का काम करवाता था. उसे कारीगरों की जरूरत पड़ी तो गांव से अपने बेरोजगार चचेरे भाइयों व अन्य को ले आया. सभी सिलाई का काम जानते थे, इसलिए सभी को उस ने काम पर लगा दिया.

अन्य लोगों को रहने के लिए अशोक ने अलगअलग कमरे किराए पर ले कर दे दिए थे, लेकिन सागर को उस ने अपने कमरे पर ही रखा. अशोक शादीशुदा था. कुछ महीने बाद जब रोटीपानी की दिक्कत हुई तो अशोक गांव से अपनी पत्नी राधा को लुधियाना ले आया.

राधा एक बच्चे की मां थी. उस के आने से खाना बनाने की दिक्कत खत्म हो गई. सभी भाई डट कर काम में लग गए थे. इस बीच सागर ने अपने छोटे भाई सरवन को भी लुधियाना बुला लिया था.

देवरभाभी होने के नाते सागर और राधा के बीच हंसीमजाक होती रहती थी, जिस का अशोक ने कभी बुरा नहीं माना. पर देवरभाभी का हंसीमजाक कब सीमाएं लांघ गया, इस की भनक अशोक को नहीं लग सकी, दोनों के बीच अवैध संबंध बन गए थे.

सागर कभी बीमारी के बहाने तो कभी किसी और बहाने से घर पर रुकने लगा. चूंकि अशोक ठेकेदार था, इसलिए उसे अपने सभी कारीगरों और फैक्ट्रियों को संभालना होता था. इस की वजह से वह कभीकभी रात को भी कमरे पर नहीं आ पाता था. ऐसे में देवरभाभी की मौज थी.

लेकिन इस तरह के काम ज्यादा दिनों तक छिपे नहीं रहते. अशोक ने एक दिन दोनों को आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया. उस समय उसे गुस्सा तो बहुत आया, पर इज्जत की खातिर वह खामोश रहा. सागर और राधा ने भी उस से माफी मांग ली. अशोक ने उन्हें आगे से मर्यादा में रहने की हिदायत दे कर छोड़ दिया.

अशोक ने पत्नी और चचेरे भाई पर विश्वास कर लिया कि अब वे इस गलती को नहीं दोहराएंगे. पर यह उस की भूल थी. इस घटना के कुछ दिनों बाद ही उस ने दोनों को फिर से रंगेहाथों पकड़ लिया. इस बार भी सागर और राधा ने उस से माफी मांग ली. अशोक ने भी यह सोच कर माफ कर दिया कि गांव तक इस बात के चर्चे होंगे तो उस के परिवार की बदनामी होगी.

लेकिन जब तीसरी बार उस ने दोनों को एकदूजे की बांहों में देखा तो उस के सब्र का बांध टूट गया. इस बार अशोक ने पहले तो दोनों की जम कर पिटाई की, उस के बाद उस ने सागर को घर से निकाल दिया. अगले दिन उस ने पत्नी को गांव पहुंचा दिया. यह अक्तूबर, 2016 की बात है.

अशोक से अलग होने के बाद सागर ने अपने छोटे भाई सरवन के साथ पाली की बिल्डिंग में किराए पर कमरा ले लिया. वह गांधीनगर स्थित एक फैक्ट्री में काम करता था. बाद में उस ने उसी फैक्ट्री में सिलाई का ठेका ले लिया. वहीं पर उस का छोटा भाई सरवन भी काम करने लगा.

सागर को घर से निकाल कर और पत्नी को गांव पहुंचा कर अशोक ने सोचा कि बात खत्म हो गई, पर बात अभी भी वहीं की वहीं थी. शरीर से भले ही देवरभाभी एकदूसरे से दूर हो गए थे, पर मोबाइल से वे संपर्क में थे.

अशोक को जब इस बात का पता चला तो उसे बहुत गुस्सा आया. समझदारी से काम लेते हुए उस ने सागर को समझाया पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया.

अब तक गांव में भी उन के संबंधों की खबर फैल गई थी. लोग चटखारे लेले कर उन के संबंधों की बातें करते थे. गांव में अशोक के घर वालों की बदनामी हो रही थी. इस से अशोक बहुत परेशान था. वह सागर को एक बार फिर समझाना चाहता था.

9 अप्रैल, 2017 की शाम को फोन कर के उस ने सागर से पूछा कि वह कहां है? सागर ने उसे बताया कि वह छत पर है. अशोक अपने कमरे से साइकिल ले कर सागर को समझाने के लिए निकल पड़ा. नीचे स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर उस में ताला लगा कर वह सीधे छत पर पहुंचा.

इत्तफाक से उस समय सागर फोन से अशोक की बीवी से ही बातें कर रहा था. उस की पीठ अशोक की तरफ थी. सागर राधा से अश्लील बातें करने में इतना लीन था कि उसे अशोक के आने का पता ही नहीं चला.

अशोक गया तो था सागर को समझाने, पर अपनी पत्नी से फोन पर अश्लील बातें करते सुन उस का खून खौल उठा. वह चुपचाप नीचे आया और बाजार से सब्जी काटने वाला चाकू खरीद कर सागर के पास पहुंच गया. कुछ करने से पहले वह एक बार सागर से बात कर लेना चाहता था.

उस ने सागर को समझाने की कोशिश की तो वह उस की बीवी के बारे में उलटासीधा बोलने लगा. फिर तो अशोक की बरदाश्त करने की क्षमता खत्म हो गई. उस ने सारे रिश्तेनाते भुला कर अपने साथ लाए चाकू से सागर पर ताबड़तोड़ वार करने शुरू कर दिए. वार इतने घातक थे कि सागर लहूलुहान हो कर जीने पर गिर पड़ा.

सागर के गिरते ही अशोक घबरा गया, क्योंकि वह कोई पेशेवर अपराधी तो था नहीं. उसी घबराहट में वह अपनी साइकिल उठाए बिना ही भाग गया.

रिमांड अवधि के दौरान पुलिस ने अशोक से वह चाकू बरामद कर लिया था, जिस से उस ने सागर की हत्या की थी. रिमांड अवधि खत्म होने पर अशोक को पुन: अदालत में पेश किया गया, जहां से उसे न्यायिक हिरासत में जिला जेल भेज दिया गया.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

नया क्षितिज- भाग 4: जानें क्या हुआ जब फिर आमने सामने आए वसुधा-नागेश?

मृगेंद्र ने जब अपनी आंखें बंद कीं तब वह निराश हो उठी. उस के मन में एक आक्रोश जागा, यदि नागेश ने धोखा न दिया होता तो वह असमय वैरागिनी न बनी होती और उस की चाहत नागेश के लिए, नफरत में बदल गई. उसे सामने पा कर वह नफरत ज्वालीमुखी बन गई. नहीं, मुझे उस से नहीं मिलना है, किसी भी दशा में नहीं मिलना है. वह निर्मोही पाषाण हृदय, नफरत का ही हकदार है. यदि वह आएगा भी, तो उस से नहीं मिलेगी, मन ही मन में सोच रही थी.

लेकिन फिर, विरोधी विचार मन में पनपने लगे. आखिर एक बार तो मिलना ही होगा, देखें, क्या मजबूरी बताता है और इस प्रकार आशानिराशा के बीच झूलते हुए रात्रि कब बीत गई, पता ही नहीं चला.

खिड़की का परदा थोड़ा खिसका हुआ था. धूप की तीव्र किरण उस के मुख पर आ कर ठहर गई थी. धूप की तीव्रता से वह जाग गई, देखा, दिन के 11 बजे थे. ओहो, कितनी देर हो गई. नित्यक्रिया का समय बीत जाएगा.

जल्दी से नहाधो कर उस ने मृगेंद्र की तसवीर के आगे दीया जला कर, हाथ जोड़ कर उन को प्रणाम करते हुए बोली, मानो उन का आह्वान कर रही हो, ‘‘बताइए, मैं क्या करूं, क्या नागेश से मिलना उचित होगा? मैं हांना के दोराहे पर खड़ी हूं. एक मन आता है कि मिलना चाहिए, तुरंत ही विरोधी विचार मन में पनपने लगते हैं, नहीं, अब और क्या मिलनामिलाना, विगत पर जो चादर पड़ गई है समय की, उस को न हटाना ही ठीक होगा. मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.’’

अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी. और फिर मैं तुम्हें कोई भी कदम उठाने से रोकूंगा नहीं. तुम एक बार नागेश से मिल लो. शायद, तुम्हारी जीवननौका को एक साहिल मिल ही जाए.’ हां, यही ठीक होगा, उस ने मन में सोचा.

दूसरे दिन सायंकाल वह जल्दी से तैयार हुई अपनी मनपसंद रंग की साड़ी, मैंचिंग ब्लाउज पहना, बालों का ढीलाढाला जूड़ा बनाया, अनजाने में ही उस ने नागेश के पसंददीदा रंग के वस्त्र पहन लिए थे. आईने में वह खुद को देख कर चौंक उठी, ‘‘क्यों? यह क्या किया मैं ने, क्यों उसी रंग की साड़ी पहनी जो नागेश को पसंद थी. क्या इस प्रकार वह अपने सुप्त प्यार का इजहार कर बैठी? नहीं, नहीं, यह तो इत्तफाक है, उस ने खुद को आश्वस्त किया.

जब वह पार्क में पहुंची तो नागेश कहीं नजर नहीं आया. वह चारों ओर देख रही थी लेकिन बेकार. क्या उस ने गलती की है यहां आ कर? क्या वह नागेश को अपनी कमजोरी का एहसास कराना चाहती थी. नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. वह तो नागेश के इसरार करने पर ही यहां आई थी. आखिर उन की बात भी तो सुननी ही चाहिए न.

नागेश को पार्क में न देख कर वह लौट पड़ी. तभी ‘‘वसु,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया. वह ठिठक गई, शरीर में एक सिहरन सी हुई. कैसे सामना करे वह उस का. कल तो झिड़क दिया था और आज मिलने आ पहुंची. भला वह क्या सोचेगा. पर वह अचल खड़ी ही रही.

नागेश सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘मिलने आई हो न? मैं जानता था कि तुम आओगी अवश्य ही,’’ नागेश ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चलो बैंच पर बैठते हैं.’’ और वह निशब्द नागेश के साथ बैंच पर जा कर बैठ गई. मन में तरहतरह के विचार आ रहे थे. कल और आज में कितना अंतर था. कल वह एक चोट खाई नागिन सी बल खा रही थी और आज नागेश के सम्मोहन में बंधी बैठी थी.

दोनों के बीच कुछ पलों का मौन पसरा रहा. फिर, नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘वसु, मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना चाहता, बस, यही चाहता हूं कि तुम्हारे मन में अपने लिए बसी नफरत को यदि किसी प्रकार दूर कर सकूं तो शायद चैन मिल जाए. 35 वर्ष बीत चुके हैं पर चैन नहीं है. तुम्हें तलाशता रहा कि शायद जीवन के किसी मोड़ पर तुम्हारा साथ मिल जाए पर असफलता ही हाथ लगी.’’

अब वसुधा चुप नहीं रह सकी, ‘‘क्यों आप ने विवाह किया होगा, आप के भी बालबच्चे होंगे, तो फिर चैन क्यों नहीं? और उस दिन आप ने यह क्यों कहा था कि मैं अकेला रह गया हूं. आप का परिवार तो होगा ही.’’

नागेश ने कातर दृष्टि से उसे देखा, ‘‘नहीं वसु, विवाह नहीं किया. मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा किसी के लिए कोई भी स्थान नहीं था.’’

‘‘फिर क्यों आप ने धोखा दिया,’’ वसु ने भरे गले से पूछा.

‘‘धोखा, हां, तुम सही कह रही हो. तुम्हारी नजर में ही नहीं, तुम्हारे परिवार की नजरों में भी मैं धोखेबाज ही हूं पर यदि तुम विश्वास कर सको तो मैं तुम्हें बता दूं कि मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया.’’

‘‘धोखा और क्या होता है, नागेश. तुम्हारा पत्र नहीं आया. तुम्हारे पिता ने एकतरफा फैसला सुना दिया बिना किसी कारण के. यदि विवाह करना ही नहीं था तो सगाई का ढोंग क्यों किया?’’ वसुधा ने तड़प कर कहा.

‘‘हां, तुम सही कह रही हो. कुछ तो अपराध मेरा भी था. मुझे ही तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. इस के पूर्व कि मेरे पिता का इनकार में पत्र आता. न जाने क्यों मैं कमजोर पड़ गया और पिता की हां में हां मिला बैठा. दरअसल, उन के पास पैसा नहीं था और उन्हें दहेज की आशा थी जो तुम्हारे घर से पूरी नहीं हो सकती थी.

‘‘उसी समय दिल्ली के एक धनवान परिवार ने जोर लगाया और पिताजी को मनमाना दहेज देने का आश्वासन दिया. पिताजी झुक गए. मैं भी उन की हां में हां मिला बैठा. लेकिन जब विवाह की तिथि निश्चित हुई और ऐसा लगा कि मेरेतुम्हारे बीच में विछोह का गहरा सागर आ गया है, हम कभी भी मिल नहीं सकेंगे, तो मैं तड़प उठा और तत्काल ही विवाह के लिए मना कर दिया. भला जो स्थान तुम्हारा था वह मैं किसी और को कैसे दे सकता था? तभी मुझे फ्रंट पर जाने का पैगाम आया और मैं सीमा पर चला गया.

‘‘मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था कि तुम्हारी शादी हो जाएगी. जब मैं लौटा तब तुम्हारे ही किसी परिचित से पता चला कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. मैं खामोश हो गया. और उसी दिन यह प्रतिज्ञा ली कि अब यह जीवन तुम्हारे ही नाम है. मैं विवाह नहीं करूंगा. समय का इतना लंबा अंतराल बीत चला कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने कभी तुम्हारे वैवाहिक जीवन में दखल न देने की सोच ली थी, इसलिए एकाकी जीवन बिताता रहा.

‘‘समय की आंधी में हम दोनों 2 तिनकों की तरह उड़ चले. मुझे तो तुम्हारे मिलने की कोई भी आशा नहीं थी. कर्नल की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं और यहां एक फ्लैट ले कर रहने आ गया. जीवन का इतना लंबा समय बीत चला कि अब जो कुछ पल बचे हैं उन्हें शांतिपूर्वक बिताना चाहता था कि समय देखो, अचानक तुम से मुलाकात हो गई.’’ नागेश चुप हो गया था.

वसुधा के नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे, दिल में फंसा हुआ जख्मों का गुबार आंखों की राह बाहर निकलना चाहता था और वह उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही थी.

रात्रि गहरा रही थी. ‘‘चलो वसु, अब घर चलें,’’ नागेश ने उठते हुए कहा. वसुधा चौंक कर उठी. अक्तूबर का महीना था. हलकीहलकी ठंड थी जो सिहरन पैदा कर रही थी. दोनों उठ खड़े हुए और अपनेअपने रास्ते हो लिए. घर आ कर वसुधा ने एक सैंडविच बनाया और एक कप चाय के साथ खा कर बैड पर लेटने का उपक्रम करने लगी. आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं.

अभिलाषा : शोक जवानी हुस्न का जादू

एक दिन रूपी मोहल्ले के ही रामू के साथ भाग गई. इस के बाद तो जितने लोग, उतनी तरह की बातें होने लगीं. अधिकतर लोग रूपी  के मातापिता को ही इस का दोष दे रहे थे. मामला लड़की के भागने का था, इसलिए रूपी के पिता ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी.

करीब एक महीना बीत गया. काफी दौड़धूप और खोजबीन के बाद भी उन दोनों का कुछ पता नहीं चला. सब हैरान थे. आश्चर्य की बात तो यह थी कि रामू शादीशुदा था, इस के बावजूद भी उस ने ऐसा काम किया था.

रामू और रूपी शहर से दूर चले गए थे. वे कहां चले गए, यह बात मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति नहीं जानता था. बेटी की हरकत से रूपी के मातापिता अपने संबंधियों, मोहल्ले वालों और समाज की दृष्टि में गिर चुके थे. वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं थे.

लोग उन के सामने ही उन्हें ताने देते थे. इस से उन का घर से निकलना दूभर हो गया था. ऐसे में वे बेचारे कर भी क्या सकते थे? लोगों की तरहतरह की बातें सुनने को वे लाचार थे.

अचानक एक दिन सुनने में आया कि रामू और रूपी जयपुर में पकड़े गए हैं. मोहल्ले के एक प्रोफेसर माथुर ने जयपुर में अपने रिश्तेदार भरत माथुर के घर रामू और रूपी को देख लिया था. फिर क्या था, उन्होंने इस बात की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने रामू और रूपी को पकड़ लिया था.

पुलिस ने रूपी को तो उस के मातापिता के घर पहुंचा दिया, जबकि रामू को हिरासत में ले लिया. रामू को उम्मीद थी कि रूपी कभी भी उस के खिलाफ बयान नहीं देगी, क्योंकि वह उस के साथ करीब 6 महीने पत्नी की तरह रही थी. पर बात एकदम इस के विपरीत निकली. रूपी ने अपने मातापिता की भावनाओं और दबाव में आ कर कोर्ट में अपने प्रेमी रामू के खिलाफ ही बयान दिया था. रूपी नाबालिग थी, इसलिए कोर्ट ने रामू को एक नाबालिग लड़की को भगाने के जुर्म में 3 साल की सजा सुनाई.

इस बीच रूपी की शादी एक आवारा लड़के से कर दी गई, क्योंकि समाज में कोई भी शरीफ लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं था. 3 साल की सजा काट कर रामू घर आया तो मेरे दिमाग में तरहतरह की शंकाओं के बीच वही प्रश्न बारबार आ रहा था कि शादीशुदा रामू ने ऐसा क्यों किया?

मुझे उस पर रहरह कर गुस्सा भी आ रहा था, क्योंकि रामू को मैं बचपन से जानता था. वह एक चरित्रवान और शरीफ लड़का था. सब उस का सम्मान करते थे. फिर उस ने ऐसा नीच कार्य क्यों किया? यह हकीकत जानने के लिए एक दिन मैं उस के घर चला गया.

‘‘कहो, भाई क्या हालचाल है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हाल तो ठीक है, पर चाल खराब हो गई है.’’ उस ने टूटे दिल से कहा, ‘‘तुम अपना हाल बताओ.’’

‘‘मेरा हाल तो ठीक है. तुम्हारा हाल जानने आया हूं.’’ मैं ने कहा.

‘‘मेरा हाल तो एक खुली किताब की तरह है, जिसे दुनिया ने पढ़ा है, तुम ने भी पढ़ा होगा.’’ एक मायूसी मिश्रित लंबी आह भर कर रामू ने कहा और शून्य में न जाने क्या खोजने लगा.

रामू की इस ‘आह’ में कितनी विवशता, कितनी कसक और कितनी दुखभरी वेदना थी, यह मैं खुद देख रहा था. वह आंखों में छलक आए आंसुओं को रूमाल से पोंछने लगा. उस के छलकते आंसू रूमाल के धागों में विलीन हो गए.

‘‘छोड़ो बीती बातों को.’’ मैं ने सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘यह भी एक संयोग है.’’ उस ने आगे कहा, ‘‘तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी हुए करीब 6 साल हो गए हैं, परंतु हम दोनों के जीवन में कोई फूल नहीं खिला. तुम्हारी भाभी के प्यार का साथ ही मेरे जीवन का सर्वस्व था. मैं सुखी था, प्रसन्न था, परंतु वह न जाने क्यों अंदर ही अंदर घुटती रहती थी. उस का सौंदर्य, उस का स्वास्थ्य धीरेधीरे उस से दामन छुड़ाने लगा था.

‘‘मैं ने इस राज को जानने का बहुत प्रयत्न किया. एक दिन तुम्हारी भाभी ने विनीत भाव से कहा, ‘कितना अच्छा होता कि हमारे आंगन में भी बच्चा होता.’

‘‘यह सुन कर उस दिन से मुझे भी अपने घर में बच्चे का अभाव अखरने लगा. डाक्टर ने तुम्हारी भाभी का परीक्षण करने के बाद बताया कि यह कभी मां नहीं बन सकती. इस बात से वह बड़ी दुखी हुई. उस ने मुझे दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया. लेकिन मैं ने शादी करने से साफ मना कर दिया.

‘‘उस दिन से मैं उसे और अधिक प्रेम करने लगा. जिस से वह इस मानसिक दुख से छुटकारा पा सके. लेकिन वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है. उन्हीं दिनों हमारे पड़ोस में रहने वाली रूपी तुम्हारी भाभी के पास आनेजाने लगी. दोनों एकांत में घंटों बैठी न जाने क्याक्या बातें करती रहतीं. एक दिन रात को सोने से पहले तुम्हारी भाभी ने मुझ से कहा, ‘रूपी कितनी सुशील और सुंदर लड़की है. तुम रूपी से शादी क्यों नहीं कर लेते.’

‘‘पागल हो गई हो क्या? ऐसा कभी हो सकता है?’’ मैं ने उसे बांहों में कसते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं, क्या आप एक बच्चे के लिए इतना भी नहीं कर सकते?’’ कह कर वह फूटफूट रोने लगी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भाभी को बहुत समझाया कि एक विवाहित व्यक्ति के साथ कोई भी पिता अपनी लड़की का विवाह नहीं करेगा. यह असंभव है. मैं तुम्हारी सौत नहीं ला सकता. पर वह अपनी जिद पर अड़ी रही. वह फफकफफक कर रोने लगी. दूसरे दिन जब रूपी हमारे घर आई तो मैं उसे निहारने लगा.

‘‘रूपी की शोख जवानी और सुंदरता ने मुझ पर ऐसा जादू किया कि तनमन से मैं उस की ओर खिंचता चला गया. तुम्हारी भाभी ने हमें संरक्षण दिया और हमारे प्रेम को पलने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया.’’

इतना कह कर रामू न जाने किन स्वप्नों में खो गया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर कहने लगा, ‘‘रूपी मुझ से शादी करने के लिए तैयार थी, लेकिन मैं उस के मातापिता से यह सब कहने का साहस नहीं कर सका. रूपी मुझ से जिद करती रही और मैं टालता रहा.

‘‘एक दिन शाम के समय रूपी जब हमारे घर आई तो उस ने कहा, ‘रामू, ऐसे कब तक चलेगा. चलो, हम कहीं भाग चलें.’ यह सुन कर मैं कांप उठा. रूपी मुझे देखती रही और हंसती रही.

‘‘उस ने फिर कहा, ‘बस, एक साल की बात है. एक बच्चा हो जाएगा तो हम लौट आएंगे. उस के बाद पिताजी भी मजबूर हो कर मेरी शादी तुम्हारे साथ कर देंगे.’ कह कर उस ने अपना चेहरा मेरे सीने पर रख दिया.’’

रामू न जाने किन खयालों में खो गया. मैं भी कहीं खो चुका था. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए रामू ने आगे कहा, ‘‘लेकिन स्वप्न साकार नहीं हुए. हम दोनों जोधपुर छोड़ कर जयपुर भाग गए और दोस्त भरत के यहां रहने लगे. 6 महीने बाद हम पुलिस द्वारा पकड़े गए. तुम्हारी भाभी की चिरपोषित अभिलाषा भी एक स्वप्न बन कर रह गई.’’ इतना कह कर वह चुप हो गया.

मैं ने भी इस से अधिक पूछताछ करनी उचित नहीं समझी और उस से विदा ले कर अपने घर की ओर चल पड़ा. रास्ते में सोचता रहा कि क्या रामू दोषी है, जो समाज के ताने सहन न कर सका और संतान की चाह ने उसे अंधा बना दिया. शादीशुदा होते हुए भी वह नाबालिग रूपी के साथ भाग गया.

क्या रामू की पत्नी दोषी है, जिस ने अपने पति को गलत राह पर चलने की सलाह दी? या फिर रूपी का पिता दोषी है, जिस ने 2 प्रेमियों को मिलने से रोक कर अपनी लड़की का किसी आवारा लड़के के साथ ब्याह रचा दिया? मैं अभी तक तय नहीं कर पाया हूं कि आखिर दोषी कौन है?

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