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दीवारें बोल उठीं: भाग 3

‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं. जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन बाद में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था.

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की जरूरतें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं. बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से. मेरे मन में यह सोच बर्फ की तरह जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है. कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया.

‘‘मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बो?ा अपने ऊपर लादना शुरू किया. घर में कुछ, बाहर और कुछ. लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी. मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है. दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा इनसान हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही वजह से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले.

‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से ज्यादा दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे. घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो. तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था.

‘‘छोटे रहते तुम मेरा हुक्म बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था. यारदोस्तों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता. पर जैसेजैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को  व्यक्त करने लगे.

‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा. धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए. बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और सख्ती करने लगा. धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते. मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर सम?ाता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते.

‘‘लेकिन आज मैं सम?ा रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रिंसिपल घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया.

‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक तरफ पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी तरफ बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी.’’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं. कम से कम मु?ो तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था. जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे दिमाग में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है. हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन खुद ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी नजरों से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं.

‘‘हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी तारीफ करती हैं. यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की तरह तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ इतिहास खोल कर रख दिया.

‘‘यानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस ?ाठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक जरूरत बन गई है. जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए. इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला.

‘‘अच्छा, अगर तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का जवाब देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, पिं्रसिपल की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े.

मेरी खुशी का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था.

अवगुण चित न धरो : भाग 3

जैसे ही शराब का दौर चला वह पार्टी से हट कर एक कोने में चली गई ताकि कोई उसे मजबूर न करे एक पैग लेने को. मयंक वहीं पहुंच गया और बोला, ‘‘क्या हुआ? यहां क्यों आ गईं?’’

‘‘कुछ नहीं, मयंक, शराब से मुझे घबराहट हो रही है.’’

‘‘ठीक है. कुछ देर आराम कर लो,’’ कह कर वह प्रसन्नचित्त पार्टी में सम्मिलित हो गया.

विराट के आफिस की एक महिला कर्मचारी के साथ वह फ्लोर पर नृत्य करने लगा. उस कर्मचारी का पति शराब का गिलास थाम कर साक्षी की बगल में आ बैठा और बोला, ‘‘आप डांस नहीं करतीं?’’

‘‘मुझे इस का खास शौक नहीं है,’’ साक्षी ने जवाब में कहा.

‘‘मेरी पत्नी तो ऐसी पार्टीज की बहुत शौकीन है. देखिए, कैसे वह मयंकजी के साथ डांस कर रही है.’’

प्रतिउत्तर में साक्षी केवल मुसकरा दी.

‘‘आप ने कुछ लिया नहीं. यह गिलास मैं आप के लिए ही लाया हूं.’’

‘‘अगर यह सब मुझे पसंद होता तो मयंक सब से पहले मेरा गिलास ले आते,’’ साक्षी को कुछ गुस्सा सा आने लगा.

‘‘लेकिन भाभीजी, यह तो काकटेल पार्टी का चलन है. यहां आ कर आप इन चीजों से बच नहीं सकतीं,’’ वह जबरन साक्षी को शराब पिलाने की कोशिश करने लगा.

साक्षी निरंतर बच रही थी. मयंक ने दूर से देख लिया और पलक ?ापकते ही उस व्यक्ति के गाल पर एक ?झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया.

‘‘अरे, वाह, ऐसा क्या किया मैं ने. अकेली बैठी थीं आप की मंगेतर तो उन्हें कंपनी दे रहा था.’’

‘‘अगर उसे साथ चाहिए होगा तो वह स्वयं मेरे पास आ जाएगी,’’ मयंक क्रोध से बोला.

‘‘वाह साहब, खुद दूसरों की पत्नी के साथ डांस कर रहे हैं. मैं जरा पास में बैठ गया तो आप को इतना बुरा लग गया. कैसे दोगले इनसान हैं आप.’’

‘‘चुप रहिए श्रीमान,’’ अचानक साक्षी उठ कर चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरे मयंक को मुसीबतों से मु?ो बचाना अच्छी तरह आता है और अपनी पत्नी से मेरी तुलना करने की कोशिश भी मत करिएगा.’’

वह तुरंत हौल से बाहर निकल गई. पार्टी में सन्नाटा छा गया था.

मयंक भी स्तब्ध हो उठा था. धीरेधीरे उसे खोजते हुए बाहर गया तो साक्षी गाड़ी में बैठी उस की प्रतीक्षा कर रही थी. वह चुपचाप उस की बगल में बैठ गया तो साक्षी ने उस के कंधे पर सिर टिका दिया. उस की हिचकी ने अचानक मयंक को बहुत द्रवित कर दिया था. उस का सिर थपकते हुए बोला, ‘‘चलें.’’

साक्षी ने आंसू पोंछ अपनी गरदन हिला दी. कार स्टार्ट करते मयंक ने सोचा, ‘शुक्र है, साक्षी मु?ो सम?ा गई है.’

बिट्टू : भाग 3, अनिता को अपने फैसले पर क्यों हो रहा था पछतावा?

‘‘नहीं, मुझे अच्छा नहीं लगता. मैं वहां नहीं जाऊंगा. आया डांटती रहती है. कल मेरी निकर खराब हो गई थी. मैं ने जानबूझ कर थोड़े ही खराब की थी.’’

‘‘हम आया को डांट देंगे. चलो, जल्दी उठो. देर हो रही है. जूतेमोजे पहनो.’’

‘‘मैं यहीं लेटा रहूंगा?’’ बिट्टू जमीन पर फैल गया.

अनिता को अब खीझ सी होती जा रही थी, ‘‘बिट्टू, जल्दी से उठ जा, वरना पिताजी बहुत गुस्सा होंगे. दफ्तर को भी देर हो रही है.’’

‘‘होने दो,’’ बिट्टू ने चीख कर कहा और दूसरी तरफ पलट गया. अनिता बारबार घड़ी देख रही थी. उसे गुस्सा आ रहा था, पर वह गुस्से को दबा कर बिट्टू को समझाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘अरे भई, क्या बात है, कितनी देर लगाओगी?’’ बाहर से अजय ने पुकारा.

‘‘बस, 2 मिनट में आ रही हूं,’’ अनिता ने चीख कर अंदर से जवाब दिया और बिट्टू से बोली, ‘‘देख, अब जल्दी से उठ जा, नहीं तो मैं तुझे थप्पड़ मार दूंगी.’’

‘‘नहीं उठूंगा,’’ बिट्टू चिल्लाया.

‘‘नहीं उठेगा?’’

‘‘नहीं…नहीं…नहीं जाऊंगा…तुम जाओ…मैं यहीं रहूंगा.’’

‘तड़ाक.’ अनिता ने गुस्से से एक जोरदार तमाचा उस के गाल पर दे मारा, ‘‘अब उठता है कि नहीं, या लगाऊं दोचार और…’’

अनिता का गुस्से से भरा चेहरा देख कर और थप्पड़ खा कर बिट्टू सहम गया.

वह धीरे से उठ कर बैठ गया और डबडबाई आंखों से अनिता की ओर देखने लगा. फिर चुपचाप उठ कर जूतेमोजे पहनने लगा. अनिता उस का हाथ पकड़ कर करीबकरीब घसीटते हुए बाहर आई. दरवाजे पर ताला लगाया और स्कूटर पर पीछे बैठ गई. हमेशा की तरह बिट्टू आगे खड़ा हो गया.

शिशुसदन में छोड़ते वक्त अनिता ने बिट्टू को प्यार किया और अपना गाल उस की तरफ बढ़ा दिया पर बिट्टू ने अपना मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया और आगे बढ़ गया.

‘‘अच्छा बिट्टू,’’ अनिता ने हाथ हिलाया पर बिट्टू ने मुड़ कर भी नहीं देखा.

अनिता को आघात लगा, ‘‘बिट्टू,’’ उस ने फिर पुकारा.

‘‘अब चलो भी. पहले ही इतनी देर हो गई है,’’ अजय ने अनिता का हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा कोई भी काम समय से नहीं होता,’’ स्कूटर स्टार्ट करते हुए उस ने अनिता की ओर देखा.

वह अभी भी बिट्टू को जाते हुए देख रही थी.

‘‘अब बैठो न, खड़ीखड़ी क्या देख रही हो. तुम औरतों में तो बस यही खराबी होती है. जराजरा सी बात पर परेशान हो जाती हो,’’ अजय ने झल्लाते हुए कहा.

पर अनिता अब भी वैसे ही खड़ी थी, मानो उस ने अजय की आवाज को सुना ही न हो.

‘‘तुम चलती हो या मैं अकेला चला जाऊं?’’ अजय दांत पीसते हुए बोला.

लेकिन अनिता जैसे वहां हो कर भी नहीं थी. उस की आंखों में बिट्टू का सहमा हुआ चेहरा और उस की निरीह खामोशी तैर रही थी. वह सोच रही थी, बिट्टू छोटा है, हमारे वश में है. क्या इसी लिए हमें यह अधिकार मिल जाता है कि हम उस के जायज हक को भी इस तरह ठुकरा दें.

‘‘सुना नहीं…मैं ने क्या कहा?’’ अजय ने चिल्लाते हुए कहा तो अनिता चौंक गई.

‘‘नहीं…मैं कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अनिता ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘क्या? तुम्हारा दिमाग तो सही है.’’

‘‘हां, बिलकुल सही है,’’ अनिता ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘सुनो, हम ने उसे पैदा कर के उस पर कोई एहसान नहीं किया है. अपने सुख और अपनी खुशियों के लिए उसे जन्म दिया है. क्या हमारा यह फर्ज नहीं बनता कि हम भी उस की खुशियों और उस के सुख का ध्यान रखें?

‘‘अजय, मैं घर पर ही रहूंगी. मैं नहीं चाहती कि अभी से उस के दिल में मांबाप के प्रति नफरत की चिंगारी पैदा हो जाए और फिर मांबाप का प्यार पाना उस का हक है. मैं नहीं चाहती कि उस के कोमल मनमस्तिष्क पर कोई गांठ पड़े. मैं उतने पैसे में ही काम चला लूंगी जितना तुम्हें मिलता है पर बिट्टू को उस के अधिकार मिलने ही चाहिए.’’

‘‘तो तुम्हें नहीं जाना?’’

‘‘नहीं,’’ अनिता ने दृढ़ स्वर में कहा.

अजय ने स्कूटर स्टार्ट किया और तेजी के साथ दूर निकल गया. अनिता धीमे कदमों से वापस लौट गई. उस का मन अब बेहद शांत था. उसे अपने निर्णय पर कोई दुख नहीं था.

अपने हुए पराए : भाग 3

‘‘अजय ऐसा नहीं है कि मैं खुश रहना नहीं चाहती. भाईबहन, रिश्तेदार, अपनों का प्यार किसे अच्छा नहीं लगता और फिर अकेली औरत को तो भाईबहन का ही सहारा होता है न. यह अलग बात है, वह सब की बूआ, सब की मौसी तो होती है लेकिन उस का कोई नहीं होता. ऐसा कोई नहीं होता जिस पर वह अधिकार से हाथ रख कर यह कह सके कि वह उस का है.’’

चाय बना लाई श्वेता और पास में बैठ कर बताने लगी :

‘‘मेरी छोटी बहन के पति मेरी जम कर तारीफ करते हैं और इस में बहन भी उन का साथ देती है. लेकिन वह जब भी जाते हैं, मेरा बैंक अकाउंट कुछ कम कर के जाते हैं. बच्चों की महंगी फीस का रोना कभी बहन रोती है और कभी भाभी. घर पर पड़ी नापसंद की गई साडि़यां मुझे उपहार में दे कर वे समझते हैं, मुझ पर एहसान कर रहे हैं. उन्हें क्या लगता है, मैं समझती नहीं हूं. अजय, मेरी बहन का पति वही इनसान है जो रिश्ते के लिए मुझे देखने आया था, मैं काली लगी सो छोटी को पसंद कर गया. तब मैं काली थी और आज मैं उस के लिए संसार की सब से सुंदर औरत हूं.’’

अवाक् रह गया था मैं. ‘‘मेरी तारीफ का अर्थ है मुझे लूटना.’’

‘‘तुम समझती हो तो लुटती क्यों हो?’’

‘‘जिस दिन लुटने से मना कर दिया उसी दिन शीशा दिख जाएगा मुझे…जिस दिन मैं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की, उसी दिन उन का अपमान हो जाएगा. मैं अकेली जान…भला मेरी क्या जरूरतें, जो मैं ने उन की मदद करने से मना कर दिया. मुझे कुछ हो गया तो मेरा घर, मेरा रुपयापैसा भला किस काम आएगा.’’

‘‘तुम्हें कुछ हो गया…इस का क्या मतलब? तुम्हें क्या होने वाला है, मैं समझा नहीं…’’

‘‘मेरी 40 साल की उम्र है. अब मेरी शादी करने की उम्र तो रही नहीं. किस के लिए है, जो सब मैं कमाती हूं. मैं जब मरूंगी तो सब उन का ही होगा न.’’

‘‘जब मरोगी तब मरोगी न. कौन कब जाने वाला है, इस का समय निश्चित है क्या? कौन पहले जाने वाला है कौन बाद में, इस का भी क्या पता… बुरा मत मानना श्वेता, अगर मैं तुम्हारी मौत की कामना कर तुम्हारी धनसंपदा पर नजर रखूं तो क्या मुझे अपनी मृत्यु का पता है कि वह कब आने वाली है. अपना भी खा सकूंगा इस की भी क्या गारंटी, जो तुम्हारा भी छीन लेने की आस पालूं. तुम्हारे भाई व बहन 100 साल जिएं लेकिन उन्हें तुम्हें लूटने का कोई अधिकार नहीं है.’’

पलकें भीग गईं श्वेता की. कमरे में देर तक सन्नाटा छाया रहा. चश्मा उतार कर आंखें पोंछीं श्वेता ने.

‘‘अजय, वक्त सब सिखा देता है. यह संसार और दुनियादारी बहुत बड़ा स्कूल है, जहां हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है. बहुत अच्छा बनने की कोशिश भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती. मानव से महामानव बनना आसान है लेकिन महामानव से मानव बनना आसान नहीं. किसी को सदा देने वाले हाथ मांगते हुए अच्छे नहीं लगते. मैं सदा देती हूं, जिस दिन इनकार करूंगी…’’

‘‘तुम्हें महामानव होने का प्रमाणपत्र किस ने दिया है? …तुम्हारे भाईबहन ने ही न. वे लोग कितने स्वार्थी हैं क्या तुम्हें दिखता नहीं. इस उम्र में क्या तुम्हारा घर नहीं बस सकता, मरने की बातें करती हो…अभी तुम ने जीवन जिया कहां है… तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं. इस काम में तुम चाहो तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं.’’

अवाक् रह गई थी श्वेता. इस तरह हैरान मानो जो सुना वह कभी हो ही नहीं सकता.

‘‘शायद तुम यह नहीं जानतीं कि हमारे घर में तुम्हारी चर्चा इसलिए भी है क्योंकि मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी सांवले रंग की हैं. पलपल स्वयं को दूसरों से कम समझना उन का भी स्वभाव बनता जा रहा है. तुम्हारी चर्चा कर के उन्हें यह समझाना चाहता हूं कि देखो, हमारी श्वेताजी कितनी सुंदर हैं और मैं सदा चाहूंगा कि मेरी दोनों बेटियां तुम जैसी बनें.’’

स्वर भर्रा गया था मेरा. श्वेता के अति व्यक्तिगत पहलू को इस तरह छू लूंगा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

चुप थी श्वेता. आंखें टपकने लगी थीं. पास जा कर कंधा थपथपा दिया मैं ने.

‘‘हम आफिस के सहयोगी हैं… अगर भाई बन कर तुम्हारा घर बसा पाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी. क्या हमारे साथ रिश्ता बांधना चाहोगी? देखो, हमारा खून का रिश्ता तो नहीं होगा लेकिन जैसा भी होगा निस्वार्थ होगा.’’

रोतेरोते हंसने लगी थी श्वेता. देर तक हंसती रही. चुपचाप निहारता रहा मैं. जब सब थमा तब ऐसा लगा मानो नई श्वेता से मिल रहा हूं. मेरा हाथ पकड़ देर तक सहलाती रही श्वेता. सर पर हाथ रखा मैं ने. शायद उसी से कुछ कहने की हिम्मत मिली उसे.

‘‘अजय, क्या पिता बन कर मेरा कन्यादान करोगे? मैं शादी करना चाहती हूं पर यह समझ नहीं पा रही कि सही कर रही हूं या गलत. कोई ऐसा अपना नहीं मिल रहा था जिस से बात कर पाती. ऐसा लग रहा था, कोई पाप कर रही हूं क्योंकि मेरे अपनों ने तो मुझे वहां ला कर खड़ा कर दिया है जहां अपने लिए सोचना भी बचकाना सा लगता है.’’

मैं सहसा चौंक सा गया. मैं तो बस सहज बात कर रहा था और वह बात एक निर्णय पर चली आएगी, शायद श्वेता ने भी नहीं सोचा होगा.

‘‘सच कह रही हो क्या?’’

‘‘हां. मेरे साथ ही पढ़ते थे वह. एम.ए. तक हम साथ थे. 15 साल पहले उन की शादी हो गई थी. मेरे पिताजी के गुजर जाने के बाद मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए मेरी मां ने भी मेरा घर बसा देना जरूरी नहीं समझा. भाईबहनों को ही पालतेब्याहते मैं बड़ी होती गई…ऊपर से मेरा रंग भी काला. सोने पर सुहागा.

‘‘पिछली बार जब मैं दिल्ली में होने वाले सेमिनार में गई थी तब सहायजी से वहां मुलाकात हुई थी.’’

‘‘सहायजी, वही जो दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रसायन विभाग में हैं. हां, मैं उन्हें जानता हूं. 2 साल पहले कार एक्सीडेंट में उन की पत्नी और बेटे का देहांत हो गया था. उन की बेटी यहीं लुधियाना में है.’’

‘‘और मैं उस बच्ची की स्थानीय अभिभावक हूं,’’ धीरे से कहा श्वेता ने. एक हलकी सी चमक आ गई उस की नजरों में. मैं समझ सकता हूं उस बच्ची की वजह से श्वेता के मन में ममता का अंकुर फूटा होगा. सहाय भी बहुत अच्छे इनसान हैं. बहुत सम्मान है उन का दिल्ली में.

‘‘क्या सहाय ने खुद तुम्हारा हाथ मांगा है?’’

‘‘वह और उन की बेटी दोनों ही चाहते हैं. मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूं. मैं क्या करूं, अजय. कहीं इस में उन का भी कोई स्वार्थ तो नहीं है.’’

‘‘जरा सा स्वार्थी तो हर किसी को होना ही चाहिए न. उन्हें पत्नी चाहिए, तुम्हें पति और बच्ची को मां. श्वेता, 3 अधूरे लोग मिल कर एक सुखी घर की स्थापना कर सकते हैं. जरूरतें इनसानों को जोड़ती हैं और जुड़ने के बाद प्यार भी पनपता है. मुझे 2 दिन का समय दो. मैं अपने तरीके से सहाय के बारे में छानबीन कर के तुम्हें बताता हूं.’’

शायद श्वेता के शब्दों का ही प्रभाव होगा, एक पिता जैसी भावना मन को भिगोने लगी. माथा सहला दिया मैं ने श्वेता का.

‘‘मैं और तुम्हारी भाभी सदा तुम्हारे साथ हैं, श्वेता. तुम अपना घर बसाओ और खुश रहो.’’

श्वेता की आंखों में रुका पानी झिलमिलाने लगा था. पसंद तो मैं उस को सदा से करता था, उस से एक रिश्ता भी बंध जाएगा पता न था. उस का मेरा हाथ अपने माथे से लगा कर सम्मान सहित चूम लेना मैं आज भी भूला नहीं हूं. रिश्ता तो वह होता है न जो मन का हो, रक्त के रिश्ते और उन का सत्य अब सत्य कहां रह गया है. किसी चिंतक ने सही कहा है, जो रक्त पिए वही रक्त का रिश्तेदार.

सहाय, श्वेता और वह बच्ची मृदुला, तीनों आज मेरे परिवार का हिस्सा हैं. श्वेता के भाईबहन उस से मिलतेजुलते नहीं हैं. नाराज हैं, क्या फर्क पड़ता है, आज रूठे हैं, कल मान भी जाएंगे. आज का सत्य यही है कि श्वेता के माथे की सिंदूरी आभा बहुत सुंदर लगती है. अपनी गृहस्थी में वह बहुत खुश है. मेरा घर उस का मायका है. एक प्यारी सी बेटी की तरह वह चली आती है मेरी पत्नी के पास. दोनों का प्यार देख कभीकभी सोचता हूं लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते हैं. दाहसंस्कार करने के अलावा भला यह काम कहां आता है.

 

सोने का घाव : भाग 3, मलीहा और अलीना के बीच क्या थी गलतफहमी?

2-4 दिनों में छुट्टी कर देगें. पर दवा और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो जिस से उन्हें स्ट्रैस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना बाजी आ गईं. मुझ से सिर्फ सलामदुआ हुई. वे मम्मी के पास रुकीं, मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद मम्मी भी घर आ गईं. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की ही कोशिश करते. एक हफ्ता तो मम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया. मैं ने भी औफिस जौइन कर लिया. मम्मी के बहुत कहने पर बाजी ज्यादा रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब मम्मी भी हलकेफुलके काम कर लेती थीं.

अलीना बाजी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक रहती. उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. मम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गावतकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं, एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’ अन्नामां तकिए उठा लाईं. उन्हें खोलने लगी. फिर मैं और अन्नामां रुई तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगी, मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गई. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘देखिए मम्मी, ये रहे कर्णफूल.’’

बाजी ने कर्णफूल उठा लिए और मम्मी के हाथ पर रख दिए. मम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो बाजी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

मम्मी सोच में पड़ गईं, फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आता है अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रही थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख रहे थे जब ही घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डब्बी में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डब्बी के बजाय रुई में रख दिए और डब्बी तकिए के पीछे रख दी थी. कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शौल वाले के जाने के बाद डब्बी मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई में दब कर रुई के साथ तकिए के अंदर चले गए और मलीहा ने तकिए सिल कर कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे, कर्णफूल डब्बी में अलमारी में सेफ रखे हैं.

‘‘जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल नहीं हैं और अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’ मम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक दुखभरी सांस छोड़ी.

अलीना के चेहरे पर पछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उस की आंखें भर आईं. वे दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खड़ी हो गईं. रूंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन, मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के मरूस्थल में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं बाजी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं में दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

बाजी शर्मिंदगी से बोलीं, ‘‘मम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटीक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमत एंटीक पीस हैं. मुझे मिलना चाहिए थे पर आप ने मलीहा को दे दिया. मुझे लगा, मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी. यह माना कि  ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल को मलीहा को ही देती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से बाजी से लिपट गईर् और बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से जो खुशी मुझे होगी वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

मम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा, जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ. मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए.’’

‘‘रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है. फिर ये टूट कर बिखर जाते हैं,’’ यह कहते हुए मैं ने बाजी के कानों में कर्णफूल पहना दिए.

पांव पड़ी जंजीर- भाग 3

‘‘सौरी, यह मुझ से नहीं होगा,’’ उन्होंने साफ मना कर दिया.

‘‘तो फिर वाशिंग मशीन ला दो, कुछ काम तो आसान हो जाएगा,’’ मैं ने उठते हुए कहा.

‘‘मैं कहां से ला दूं,’’ बड़बड़ाते हुए नीरज बोले, ‘‘तुम भी तो कमाती हो. खुद ही खरीद लो.’’

‘‘मेरी तनख्वाह क्या तुम से छिपी है. सबकुछ तो तुम्हारे सामने है. जितना कमाती हूं उस का आधा तो क्रेच और आया में चला जाता है. आनेजाने और खुद का खर्च निकाल कर बड़ी मुश्किल से हजार भी नहीं बच पाता.’’

‘‘कमाल है,’’ नीरज नरम होते हुए बोले, ‘‘तो फिर यह सब पहले मां के घर पर कैसे चलता था.’’

‘‘वहां काम करने वाली आया थी. बाबूजी का सहारा था. कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था और उन सब से ऊपर मांजी की सुलझी हुई नजर. वह घर जो सुचारु रूप से चल रहा था उस के पीछे सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. पर यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा क्योंकि सहज से प्राप्त हुई वस्तु का कोई मोल नहीं होता,’’ मैं ने झट से बालटी उठाई और पानी लेने चली गई.

पानी ले कर वापस आई तो नीरज वहीं गुमसुम बैठे थे. उन के चेहरे के बदलते रंग को देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे.’’

‘‘चलो, मां से मिल आते हैं,’’ उन की आंखें नम हो गईं.

अभावों में पलीबढ़ी जिंदगी ने वे सारे सुख भुला दिए जिन के लिए नीरज ने घर छोड़ा था. चिकनआमलेट तो छोड़ उन का दोस्तों के साथ आनाजाना भी कम होता गया. मांजी कभीकभी मिलने चली आतीं और शाम तक लौट जातीं. बस, बंटी हुई जिंदगी जी रही थी मैं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया. बोले, ‘‘2 दिन के लिए लंदन वाले चाचा आए हैं. खाना रखा है तुम्हारी मां ने….ठीक समय से पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है, बाबूजी, मैं पूरी कोशिश करूंगी,’’ मैं ने औपचारिकतावश कह दिया.

‘‘कोशिश,’’ वे थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘क्यों, कहीं जाना है क्या?’’

‘‘नहीं, बाबूजी,’’ मैं सुबक पड़ी. मेरे सारे शब्द बर्फ बन कर गले में अटक गए. मैं ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘हफ्ते भर से इन की तबीयत ठीक नहीं है. दस्त और उलटियां लगी हुई हैं. डाक्टर की दवा से भी आराम नहीं आया.’’

‘‘अरे, तो हमें फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘मना किया था इन्होंने,’’ मैं बोली.

‘‘नालायक,’’ बाबूजी भारीभरकम आवाज में बोले, ‘‘चिंता न करो, मैं अभी आता हूं.’’

थोड़ी देर में मां और बाबूजी भी पहुंच गए. नीरज एक तरफ सिमट कर पड़े हुए थे. मां को देखते ही उन की रुलाई फूट पड़ी. बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अरे, किसी से कहलवा दिया होता. देख तो क्या हालत बना रखी है. थोड़ा सा भी उलटासीधा खा लेता है तो हजम नहीं होता.’’

बाबूजी भी पास ही बैठे रहे. मैं चाय बना कर ले आई.

मांजी बोलीं, ‘‘चल, घर चल, अब बहुत हो चुका. अब तेरी एक न सुनूंगी. परीक्षा की घडि़यां तो जीवन में आती ही रहती हैं. चंचल मन इधरउधर भटक ही जाता है. कोई इस तरह मां को छोड़ कर भी चला आता है क्या. चल, बहुत मनमानी कर ली.’’

वात्सल्यमयी मां के स्वर सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मांजी मेरी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इस तरह की जिद बहू करती तो समझ में आता. उस ने तो स्वयं को घर के वातावरण के अनुसार ढाल लिया था पर तुझ से तो ऐसी उम्मीद ही नहीं थी. तुझ से तो मेरी बहू ही अच्छी है.’’

‘‘मां, मुझे माफ कर दो,’’ नीरज रो पड़े. उन का रोना मां और बाबूजी दोनों को रुला गया.

‘‘मैं ने दवाई के लिए नीरज को सहारा दे कर उठाया तो बड़े ही आत्मविश्वास से बोले, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. मां आ गई हैं, अब मैं जल्दी ही अच्छा हो जाऊंगा.’’

मैं मुन्ने को उठा कर सामान समेटने में लग गई.

एक छोटी सी अंगूठी : भाग 3, कथा दो चाहने वालों की

पिताजी रिटायर हो चले थे. सो, सुचेता को 3 लोगों का खर्च उठाने के लिए सोचना था, इसलिए उस ने कलम उठाई और लिखना शुरू किया, आर्टिकल्स, कहानियां प्रकाशित भी हुए, पर जितना पेमेंट मिला, उतना इस महंगाई के दौर में बहुत कम साबित हुआ और फिर बेटी के पालनपोषण का बोझ. सो, सुचेता एक कोचिंग सैंटर में जा कर पढ़ाने लगी. जब वहां से समय मिलता, तो घर जाजा कर ट्यूशन भी देती.

बेटी अमाया का स्कूल में दाखिले का समय आ गया था. उस का अच्छे स्कूल में दाखिला और उसके पालनपोषण की जिम्मेदारी बखूबी निभाए जा रही थी सुचेता.

अब सुचेता के जीवन में भयानक लहरें तो न थीं, पर उन में एक खामोशी थी. पर एक अज्ञात भय हमेशा बना ही रहता था और इस भय के साथ ही तो अब सुचेता को जीना था. वह भय एक दिन जीवंत रूप में फिर से सुचेता के सामने आ खड़ा होगा, यह उस ने नहीं सोचा था, वह कोई और नहीं, बल्कि एकलव्य ही था, जो सुचेता की सूनी मांग देख कर चकित रह गया था. बहुतकुछ कहना चाहा, पर कह न सका.

सुचेता का मन भी एकलव्य को देख कर पूरी तरह भीग गया था. मौल में कितनी गहमागहमी थी, पर वे दोनों भीड़ में भी एकदूसरे से मौन संवाद कर रहे थे और एकलव्य कब, कैसे, क्योंजैसे सवाल अपनेआप से ही किए जा रहा था.

“’वे एक रोड ऐक्सिडैंट में…’गला रुंध गया था सुचेता का. एकलव्य ने बेटी को पुचकारा. कुछ समझ न आता देख सुचेता मौल से बाहर जाने लगी, पर नन्ही अमाया अभी और घूमना चाहती थी. शायद एकलव्य भी यही चाह रहा था कि सुचेता से कुछ और बातें कर सके, पर सुचेता बाहर की ओर निकल गई.

एक विधवा के मन में किसी दूसरे पुरुष का ध्यान भी नहीं आना चाहिए. समाज की बनाई हुई इसी मान्यता के नाते अपनेआप को दोषी मान रही थी सुचेता, पर उस के मन ने तो एकलव्य को कभी अलग नहीं माना था, तो फिर उस का खयाल आने में भला क्या दोष.

मौल में हुई मुलाकात के ठीक 10 दिनों बाद एकलव्य सुचेता के घर आ पहुंचा. अमाया के लिए कुछ गिफ्ट्स और चौकलेट ले कर आया था वह, और सुचेता व उस के पिता के सामने ही सीधे तरीके से उस ने अपनी बात रख दी.

“’मैं ने भी अभी तक विवाह नहीं किया है. अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे साथ बाकी का जीवन जीने को तैयार हूं,’एकलव्य ने इतना कह कर लंबी सांस ली थी मानो कोई बोझ उतार दिया हो उस ने.

एक विधवा लड़की के पिता के लिए यह प्रस्ताव काफी सुकून देने वाला था, पर सुचेता ने किसी भी प्रकार के रिश्ते को अपनाने से इनकार कर दिया. उस के मुताबिक वह इतना आराम से कमा लेती है कि अपनी बेटी को पढ़ालिखा सके और अपने पिता का ध्यान रख सके.

एकलव्य ने सोचा था कि एक बच्चे वाली विधवा उस से शादी के लिए सहर्ष राजी हो जाएगी पर ऐसा नहीं हुआ.

एकलव्य इस बात से आहत नहीं हुआ, बल्कि सुचेता के लिए उस के मन में प्यार और गहरा हो गया.

“’कम से कम मेरी पुरानी दोस्ती को ध्यान में रखते हुए अपना मोबाइल नंबर ही दे दो, कभीकभी बात कर लूंगा,’सकुचाते हुए सुचेता से नंबर मांग लिया था एकलव्य ने.

4 दिनों बाद ही सुचेता के मोबाइल पर एकलव्य का फोन आया. एकलव्य ने कहा कि उस के एक दोस्त, जो थिएटर में नाटकों का मंचन करते हैं, उन्हें हमेशा ही नई स्क्रिप्ट्स की आवश्यकता होती है. अगर सुचेता कुछ अच्छी कहानियां लिख दिया करे, तो उस के बदले में उसे अच्छे पैसे मिल जाया करेंगे.

एकलव्य का उस के जीवन में इस तरह से बहुत ज्यादा दखल सुचेता को थोड़ा असहज जरूर कर रहा था, पर स्क्रिप्ट लिखने में उसे कुछ बुराई नजर नहीं आई, इसलिए उस ने हां कर दी और नए ढंग की कहानियां लिखने पर काम शुरू कर दिया.

धीरेधीरे आर्थिक हालात अब अच्छे हो चले थे. इस बीच एकलव्य अप्रत्यक्ष रूप से हर संभव मदद करने की कोशिश करता. मसलन, सुचेता के मकान के निचले तल को किराए पर देने में उस का योगदान रहा था और अमाया की पढ़ाई संबंधी हर सहायता करता.

अमाया भी एकलव्य से खूब लगाव रखती थी.

अमाया अब इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर चुकी थी और यूपीएससी की तैयारी करने के लिए कोचिंग करना चाहती थी. एकलव्य ने अपने पैसों से ही अमाया का दाखिला सबसे अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में करा दिया और जब सुचेता ने फीस लेने से मना किया, तो एकलव्य ने झूठ बोल दिया कि फीस की कोई बात नहीं, अपने एक दोस्त का ही कोचिंग इंस्टिट्यूट है.

एकलव्य का एक विधवा के घर आनाजाना महल्ले वालों को अखर तो रहा था, कानाफूसी भी जारी थी, पर अब सुचेता और एकलव्य को इन लोगों से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, क्योंकि वे जानते थे कि उन दोनों के बीच युवावस्था का प्रेम अब और भी प्रौढ़ हो चुका है, जिस में शारीरिक आकर्षण से ज्यादा मन की सुंदरता को महत्त्व दिया जाता है.

अतीत को सोचतेसोचते सुचेता कब सो गई, वह जान नहीं सकी. अगले दिन थोड़ी देर से जागी तो अमाया घर में नहीं थी.

“’शायद, पापा के साथ घूमने गई होगी,’बुदबुदाई थी सुचेता.

“”मम्मा, राजश्री के घर आई हूं. कुछ ही समय में घर पहुंचती हूं,” फोन कर दिया था अमाया ने.

घर के कामकाज में व्यस्त हो गई थी सुचेता. ठीक 9 बजे कौलबेल बजी, तो सुचेता ने दरवाजा खोला, देखा तो सामने उस के पापा, एकलव्य और अमाया खड़े थे.

दोनों के चेहरे पर मुसकान थी. वे तीनों अंदर आकर सोफे पर बैठ गए.

एकलव्य के हाथ में एक मूर्ति थी. एकलव्य ने उस पर ओढ़ाया हुआ कपड़ा हटाया, तो सुचेता ने देखा कि वह एक स्त्री की मूर्ति थी.

“”लो सुचेता, इस मूर्ति में पैर भी हैं, मुंह भी और चेहरे में नाक, कान, आंखें भी हैं.””

सुचेता के चेहरे से मिलताजुलता चेहरा था उस मूर्ति का. सुचेता को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी की मूर्ति है.

“”सुंदर तो लगी होगी यह?पर अभी इस मूर्ति में एक कमी है,” एकलव्य ने यह कहते हुए डब्बी से एक चुटकी सिंदूर निकाल कर मूर्ति के बालों के बीच की सूनी मांग में भर दिया. सुचेता ने पलकें झुका लीं. उस के चेहरे पर गुलाबी आभा थी.

अमाया खुशी से तालियां बजा रही थी. सुचेता के पापा के हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गए थे.

खोखली होती जड़ें : भाग 3, गलती पर पछतावा करते एक बेटे की कहानी

‘‘ठीक हो जाएगा सबकुछ, परेशान मत हो, सत्यम…मंदी कोई हमेशा थोड़े ही रहने वाली है…एक न एक दिन तुम दोबारा अमेरिका चले जाओगे…उसी तरह बड़ी कंपनी में नौकरी करोगे.’’मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर उन की स्वार्थपरता पर करारी चोट भी थी. मैं ने जता दिया था, जिस दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम पहले की ही तरह हमें हमारे हाल पर छोड़ कर चले जाओगे.

सत्यम कुछ नहीं बोला, निरीह नजरों से मु?ो देखने लगा. मानो कह रहा हो, कब तक नाराज रहोगी. बच्चों का दाखिला भी उस ने दौड़भाग कर अच्छे स्कूल में करा दिया.‘‘इस स्कूल की फीस तो काफी ज्यादा है सत्यम…इस नौकरी में तू कैसे कर पाएगा?’’‘‘बच्चों की पढ़ाई तो सब से ज्यादा जरूरी है मम्मी…उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं आना चाहिए. बच्चे पढ़ जाएंगे… अच्छे निकल जाएंगे तो बाकी सबकुछ तो हो ही जाएगा.’’वह आश्वस्त था…लगा सौरभ ही जैसे बोल रहे हैं. हर पिता बच्चों का पालनपोषण करते हुए शायद यही भाषा बोलता है…पर हर संतान यह भाषा नहीं बोलती, जो इतने कठिन समय में सत्यम ने हम से बोली थी. मेरा मन एकाएक कसैला हो गया. मैं उठ कर बालकनी में जा कर कुरसी पर बैठ गई.

भीषण गरमी के बाद बरसात होने को थी. कई दिनों से बादल आसमान में चहलकदमी कर रहे थे, लेकिन बरस नहीं रहे थे. लेकिन आज तो जैसे कमर कस कर बरसने को तैयार थे. मेरा मन भी पिछले कुछ दिनों से उमड़घुमड़ रहा था, पर बदरी थी कि बरसती नहीं थी.मन की कड़वाहट एकाएक बढ़ गई थी. 5 साल पुराना बहुत कुछ याद आ रहा था. सत्यम के आने से पहले सोचा था कि उस को यह ताना दूंगी…वह ताना दूंगी… सौरभ ने भी बहुत कुछ कहने को सोच रखा था पर क्या कर सकते हैं मातापिता ऐसा…वह भी जब बेटा अपनी जिंदगी के सब से कठिन दौर से गुजर रहा हो.एकाएक बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई. मैं ने अपनी आंखों को छुआ तो वहां भी गीलापन था. बारिश हलकीहलकी हो कर तेज होने लगी और मेरे आं

आंसू भी बेबाक हो कर बहने लगे. मैं चुपचाप बरसते पानी पर निगाहें टिकाए अपने आंसुओं को बहते हुए महसूस करती रही. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्यम खड़ा था… चेहरे पर कई भाव लिए हुए… जिन को शब्द दें तो शायद कई पन्ने भर जाएं. मैं ने चुपचाप वहां से नजरें हटा दीं. वह पास पड़े छोटे से मूढ़े को खिसका कर मेरे पैरों के पास बैठ गया.

कुछ देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे. मैं ने अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया.‘‘मम्मी, क्या मु?ो इस समय बच्चों को इतने बड़े स्कूल में नहीं डालना चाहिए था…मैं ने सोचा जो भी थोड़ीबहुत बचत है, उन की पढ़ाई का तब तक का खर्चा निकल जाएगा…हम तो जैसेतैसे गुजरबसर कर ही लेंगे, जब तक मंदी का समय निकलता है…क्या मैं ने ठीक नहीं किया, मम्मी?’’सत्यम ने शायद बातचीत का सूत्र यहीं से थामना चाहा, ‘‘आखिर, पापा ने भी तो हमेशा मेरी पढ़ाईलिखाई पर अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च किया.’’सत्यम के इन शब्दों में बहुत कुछ था. लज्जा, अफसोस…पिता के साथ किए व्यवहार से…व पिता के अथक प्रयासों व त्याग को महसूस करना आदि.‘‘तुम ने ठीक किया सत्यम, आखिर सभी पिता यही तो करते हैं, लेकिन अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए.

वह तो सभी पर आएगा. संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाएगी… मं?ाधार में छोड़ कर नया आसमान तलाशने के लिए उड़ जाएगी…तब कैसे लड़ोगे बुढ़ापे के अकेलेपन से. बीमारियों से, कदम दर कदम, नजदीक आती मृत्यु की आहट से…कैसे? सत्यम…आखिर कैसे…’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर व मेरी आंखें दोनों ही आद्र हो गए थे.मेरे इतना बोलने में कई सालों का मानसिक संघर्ष था. पति की बीमारी के समय जीवन से लड़ने की उन की बेचारगी की कशमकश थी. अपनी दोनों की बिलकुल अकेली सी बीती जा रही जिंदगी का अवसाद था और शायद वह सबकुछ भी जो मैं सत्यम को जताना चाहती थी…कि जो कुछ उस ने हमारे साथ किया अगर इन क्षणों में हम उस के साथ करें…हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है…लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है, बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है.सत्यम थोड़ी देर तक विचारशून्य सा बैठा रहा, फिर एकाएक प्रायश्चित करते हुए स्वर में बोला, ‘‘मम्मी, मु?ो माफ नहीं करोगी क्या?’’मैं ने सत्यम की तरफ देखा, वह हक से माफी भी नहीं मांग पा रहा था क्योंकि वह सम?ा रहा था कि वह माफी का भी हकदार नहीं है.

सत्यम ने मेरे घुटनों पर सिर रख दिया, ‘‘मम्मी, मेरे किए की सजा मु?ो मिल रही है. मैं जानता हूं कि मु?ो माफ करना आप के व पापा के लिए इतना सरल नहीं है फिर भी धीरेधीरे कोशिश करो मम्मी…अपने बेटे को माफ कर दो. अब कभी आप दोनों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा…मु?ो यहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी…आप दोनों का बुढ़ापा अब अकेले नहीं बीतेगा…मैं हूं आप का सहारा…अपनी जड़ों को अब और खोखला नहीं होने दूंगा. जो बीत गया मैं उसे वापस तो नहीं लौटा सकता पर अब अपनी गलतियों को सुधारूंगा,’’ कह कर सत्यम ने अपनी बांहें मेरे इर्दगिर्द लपेट लीं जैसे वह बचपन में करता था.‘‘मु?ो भी माफ कर दो, मम्मी,’’ नीमा भी सत्यम की बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘हमें अपने किए पर बहुत पछतावा है…पापा से भी कहिए कि वह हम दोनों को माफ कर दें. हमारा कृत्य माफी के लायक तो नहीं पर फिर भी हमें अपनी गलतियां सुधारने का मौका दीजिए,’’ कह कर नीमा ने मेरे पैर पकड़ लिए. दोनों बच्चे इस तरह से मेरे पैरों के पास बैठे थे.

सोचा था अब तो जीवन यों ही अकेला व बेगाना सा निकल जाएगा… बच्चे हमें कभी नहीं सम?ा पाएंगे पर हमारा प्यार जो उन्हें नहीं सम?ा पाया वह कठिन परिस्थितियां सम?ा गईं.‘‘बस करो सत्यम, जो हो गया उसे हम तो भूल भी चुके थे. जब तुम सामने आए तो सबकुछ याद आ गया. पर माफी मु?ा से नहीं अपने पापा से मांगो, बेटा… मां का हृदय तो बच्चों के गलती करने से पहले ही उन्हें क्षमा कर देता है,’’ कह कर मैं स्नेह से दोनों का सिर सहलाने लगी.सत्यम अपनी भूल सुधारने के लिए मेरे पैरों से लिपटा हुआ था.‘‘जाओ सत्यम, पापा अपने कमरे में हैं.

दोनों उन के दोबारा खुरचे घावों पर मरहम लगा आओ…मु?ो विश्वास है कि उन की नाराजगी भी अधिक नहीं टिक पाएगी.’’सत्यम व नीमा हमारे कमरे की तरफ चले गए. अकस्मात मेरा मन जैसे परम संतोष से भर गया था. बाहर बारिश पूरी तरह रुक गई थी, हलकी शीतल लालिमा चारों तरफ फैल गई थी जिस में सबकुछ प्रकाशमय हो रहा था.

औरत एक पहेली : भाग 3

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.’

GHKKPM Spoiler alert : पहली मुलाकात में ईशान को क्यों हुई सवि से नफरत?

Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin New Twist : टीवी शो ‘गुम है किसी के प्यार में’ के मेकर्स ने नई कास्ट के चेहरों से पर्दा उठा दिया है. बीते एपिसोड में सवि और ईशान की मुलाकात दिखाई गई जो कि बेहद खराब रही. दरअसल ईशान और सवि की पहली मीटिंग से पहले सवि ने ईशान का नुकसान करवा दिया. वो भी रीवा के सामने जिससे ईशान सवि से नफरत करने लगा है.

किसने तोड़ा ईशान की कार का शीशा?

शो में आगे दिखाया जाता है कि कॉलेज जाने के लिए सवि लेट हो रही होती है, तभी ईशान और रीवा दोनों एक साथ कार में बैठ कर उसी रास्ते से गुजर रहे होते है. दोनों बात ही कर रहे होते हैं कि तभी उनकी कार का बैक वाला शीशा फूट जाता है. इसके बाद जल्दी से ईशान कार रोकता है और पीछे मुड़कर देखता है कि उसकी कार का शीशा कैसे टूटा. फिर दोनों कार से उतरते है और लोगों से पूछते है कि किसने ये हरकत की.

सवि को देख रीवा को क्यों आया गुस्सा?

आगे के एपिसोड में दिखाया जाएगा कि सवि एक पेड़ के पीछे से बाहर निकल कर आती है और कहती है कि उसने कुछ बच्चों को यहां से भागते हुए देखा है, जिन्होंने ही ये हरकत की है. फिर वह बिना किसी से पूछे रीवा की सीट पर बैठ जाती है, जिसकी वजह से रीवा को पीछे बैठना पड़ता है. ये देख रीवा को बहुत गुस्सा आता है. हालांकि ये सब इतनी जल्दबाजी में होता है कि ईशान और रीवा उस वक्त सवि से कुछ नहीं कहते.

इसके थोड़ी देर बाद ईशान कहता है, कहां हैं वो बच्चे? तभी सवि का कॉलेज आ जाएगा और वह कहती है, सॉरी मैंने आपसे झूठ कहा. मैं तो कॉलेज जाने के लिए लिफ्ट ढूंढ रही थी, क्योंकि कोई गाड़ी ही नहीं रोक रहा था. इसलिए गुलेल से मैंने आपकी कार का शीशा तोड़ दिया-सॉरी. ये सच जान कर ईशान और रीवा को बहुत गुस्सा आता है. वहीं आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि इन तीनों की जिंदगी में एक नया मोड़ आएगा. साथ ही रीवा को इंसिक्योरिटी ईशूज भी होने लगेंगे.

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