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अरबों की जमीन पर भगवान का कब्जा

उत्तर प्रदेश में सरकार मंदिरों को सरकारी कब्जों में लेने की कोशिश कर रही है क्योंकि ये आमदनी और विवादों की बड़ी जड़ हैं. एक सुझाव है कि मंदिर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अधीन हों. निजी पुरोहितों द्वारा किरानों की दुकान की तरह चलाए जा रहे मंदिर भाजपा के लिए आय का सब से बड़ा स्रोत बन सकते हैं. इसी तरह अवैध धार्मिक स्थलों के मामले में मध्यप्रदेश में भी हैं. धार्मिक स्थल वोट की राजनीति की वजह और पंडेपुजारियों की मुफ्त की कमाई के लालच में बनते गए.

भारी संख्या में धार्मिक स्थलों से किसे लाभ हो रहा है? इनकी आम व्यक्ति के जीवन में क्या कोई उपयोगिता है या फिर केवल लूट, अपराध और अंधविश्वास के प्रचारप्रसार के लिए हैं ये? किसी भी शहर में जितने स्कूल, अस्पताल और बगीचे नहीं है, उस से कई गुना धार्मिक स्थल हैं, ऐसा क्यों?

सहज समझा जा सकता है कि मध्य प्रदेश के शहर मंदसौर की आजादी को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि यहां के प्रशासन ने अवैध तरीके से बनने वाले मंदिरों को रोकने की दिशा में कभी कोई कदम उठाया होगा. इसलिए कि यहां प्रदेश में सब से अधिक मंदिर हैं. सरकारी रिकौर्ड में 6,844 मंदिर हैं. मध्य प्रदेश के ही मंदसौर के पशुपतिनाथ मंदिर में नए निर्माणों के बाद दान और चढ़ावा 80-85 लाख रुपए हुआ करता था जो अब तकरीबन 3 करोड़ रुपए हो गया है. लोग औनलाइन चढ़ावा भी दे रहे हैं.

शिवपुरी में इस समय 4,500 से ज्यादा मंदिर हैं. जाहिर है कि जिला प्रशासन ने और नगरीय प्रशासन ने मंदिर निर्माण पर किसी तरहकी रोक नहीं लगाई. जिस से,जिसे जहां मन आया वहां चंदा एकत्र कर मंदिर बना दिया.

दरअसल, होता यह है कि मंदिर निर्माण में भारतीय जनता पार्टी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है ताकि उस का वोटबैंक बना व बढ़ता रहे. चौंकाने वाली बात यह है कि ये सभी सरकारी जनता के उपयोग की जमीन पर बने हैं. सरकार से ले कर जिला प्रशासन भी मंदिर निर्माण में भारतीय जनता पार्टी के साथ बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.

स्थिति यह है कि आज भी जगहजगह मंदिरों का निर्माण हो रहा है. कभी शिव का मंदिर बनाने की होड़ थी, तो कभी बजरंग बली, फिर साईं बाबा का मंदिर बनने की होड़ लगी. अब हर जाति अपना मंदिर बना रही है.

हर प्रदेश की अरबों रुपए की सरकारी जमीन भगवानों के भरोसे है. यह जमीन कहने के लिए तो सार्वजनिक हैलेकिन है भगवान के पुरोहितों के कब्जे में. इन जमीनों से कब्जा हटाने की मुहिम चलाना या चलाने की दिशा में सोचना बर्रे की छत्ते पर हाथ मारने जैसा है. सरकार भी इन‘बर्रे केछत्तों’ पर हाथ मारने से हिचकती है.

सुप्रीम कोर्ट कभीकभी सख्त आदेश देता है, पर राम मंदिर के मामले में उस के अतार्किक फैसले ने साबित कर दिया है कि जज भी मंदिरों को बनाने के पक्ष में हैं. मंदिरों को हटाने या तोड़ने की दिशा में कोई निर्णय नहीं लिया है. चाहे वे अवैध हों या कब्जाई जमीन पर. जो मंदिर सार्वजनिक स्थानों पर हैं उन से आवागमन बाधित होता है. शासन ऐसे मंदिरों को भी हटाने के संबंध में ढीला रहता है.

सुप्रीम कोर्ट में कई राज्य सरकारों ने हलफनामा दिए हैं कि उन के प्रदेश में धार्मिक स्थलों का सरकारी जमीन पर कब्जा है. इन में से हरेक काबिज जमीन की कीमत करोड़ों में है. यदि औसतन एक धार्मिक स्थल की कुल काबिज जमीन का मूल्य लगभग 2 करोड़ रुपए माना जाए तो अकेले मध्य प्रदेश में 500 अरब से अधिक मूल्य की सरकारी जमीन पर धर्म के नाम पर अवैध कब्जा है.

धार्मिक स्थलों को बेवजह लाखों की जमीन फोकट में देने से देश का विकास प्रभावित हो रहा है. सार्वजनिक परिवहन की राह में रोड़ा बने हुए हैं धार्मिक स्थल. चौंकाने वाली बात यह भी है कि ऐसे कई मंदिर हैं जहां दिनरात अखंड रामायण होता रहता है. माइक फुल साउंड में बजते रहते हैं. जिस से रात में सोना मुश्किल होता है. पढ़ने वाले विद्यार्थियों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. जबकि, जिला प्रशासन से अखंड रामायण कराने वाले मंदिरों के पुजारी कभी अनुमति भी नहीं लेते.

कोई व्यक्ति एतराज करता है तो मंदिर से जिन का घर परिवार चलता है वे कहते हैं, ‘राम, राम…कैसा व्यक्ति है. पूजापाठ पर भी अड़चन डालता है. नास्तिक है. पाप का भागी बनना चाहता है क्या.’ अजान और नमाज पर हल्ला मचाने वाले इन मामलों में चुप रहते हैं.

एक बार छिंदवाड़ा में हनुमान मंदिर में 7 दिनों का अखंड रामायण चल रहा था. 50 वर्षीय सुरजन सो नहीं पाते थे इसलिए कि माइक की आवाज इतनी तेज रहती है थी कि नींद में खलल पड़ताथा. मंदिर के संचालकों से उन के घरवालों ने कहा भी माइक की आवाज कम कर दें. लेकिन किसी ने उन की बातों को नहीं सुना. नतीजा, 6वें दिन नींद से बेहाल सुरजन ने सल्फास की गोली खाकर जान दे दी.

चिकित्सकों का कहना था कि यदि उन्हें नींद नहीं आई तो उन का बीपी कंट्रोल नहीं होगा. सुरजन ब्लडप्रैशर के मरीज थे. सुरजन जैसे लोग हर राज्य में लाखों लोग हैं जो मंदिर से आने वाली माइक और घंटे की आवाज से परेशान रहते हैं. कुछ जगह तो महीनों अखंड रामायण और प्रवचन चलता है. ऐसे स्थानों में जूतेचप्पल की चोरी तो होती ही है, साथ ही, जेबकटी और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के अपराध भी ज्यादा होते हैं. इन स्थलों पर चैन खींचने की घटनाएं सब से अधिक होती हैं. हर मंदिर में बैच लगा होता है किजेबकतरों से सावधान रहें. सो, जो अपनी जगह, जेब सुरक्षित नहीं कर सकते वे कैसे भक्तों की रक्षा करेंगे.

एक मंदिर में प्रसाद चढ़ा कर निकल रही सुनीता से बाइक पर सवार 2लड़कों ने कहा, ‘माताजी, इतने सारे गहने पहन कर मंदिर मत आया करो. कभी कुछ हो गया तो पुलिस वालों को तंग करोगी कि कोई मेरा गहना छीन ले गया. हम पुलिस वाले हैं, सिविल ड्रैस में पता करने आए हैं कि वे कौन अपराधी हैं जो महिलाओं की चैन खींच कर भाग जातेहैं. आप अपने गहने इस रूमाल में रख लो’. सुनीता उन लड़कों की मीठीमीठी बातों से प्रभावित हो कर कहने लगी, ‘हां बेटा, सही कह रहे हो. मंदिर में बड़ी भीड़ हो जाती है.’

जूतेचप्पल के साथ महिलाओं की चैन खींचने की वारदातें अधिक होने लगी हैं. मंदिर बने 6 माह ही हुए हैं, लेकिन पद्मधर धर्म के सांई बाबा बहुत लोकप्रिय हो गए. सब की मान्यता को पूरी कर देते हैं. सुनीता अपने कान का टौप्स, अंगूठी और सोने की चूड़ियां उतार कर रूमाल में रखते गई. उस ने ध्यान नहीं दिया कि उसे जो रूमाल दिया गया वह वही है कि दूसरा. घर पहुंच कर जब रूमाल खोल कर देखा तो उस के गहने की जगह प्लास्टिक के गहने थे. जब तक वह पुलिस को सूचित करती, अपराधी नौ दो ग्यारह हो चुके थे.

भीड़भाड़ वाले मंदिरों में छोटे बच्चों का अपहरण और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ अब कुछ अधिक होते हैं. मंदिर आस्था का स्थान नहीं हैं. जिस मंदिर में अधिक भीड़ होती है वहां फूलमाला बेचने वाले, नारियल बेचने वाले और चुनरी बेचने वालों की दुकान चल पड़ती है. यहींपौकेटमार, चोर और अन्य अपराधीबैठते हैं जो आनेजाने वालों पर नजर रखते हैं. आदमी देख कर भांप जाते हैं कि किस पर हाथ डालना चाहिए. पुष्कर में दुकानों पर बड़े बोर्ड लगे हैं- यहां चप्पल जूते मुफ्त रखे जाते हैं. कहने को मुफ्त है पर भक्त को 300-400रुपए का सामान उस की दुकान से खरीदना पड़ता है चढ़ावे के लिए वरना जूतेचप्पल नहीं रखे जाते.

सरकारी जमीन पर धर्मस्थलों का निर्माण पूजा के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक, आपराधिक एवं व्यापारिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए हो रहा है. समाज में कुछ गिनेचुने लोगों को इन से फायदा होता है.सब से बड़ाफायदा भाजपा का होता है जिसे मुफ्त के वर्कर इन मंदिरों में मिलते हैं. लेकिन इसका खमियाजा हजारों लोगों को कई प्रकार से भुगतना पड़ता है. पार्क में मंदिरमसजिद का निर्माण होता है तो बच्चे खेलने से वंचित हो जाते हैं. सड़कों के किनारे मंदिर, मसजिद या फिर गिरजाघर बनने से आवागमन प्रभावित होता है, जामकी समस्या आएदिन बनी रहती है.

घर के पास पेड़ के नीचे बने धार्मिक स्थल में पुजारी का पूरा का पूरा खानदान डेरा डाल देता है. रातदिन ऊंची आवाज में चलता है भजन कीर्तन. मंदिर के पास बढ़ता है अवैध कब्जा. वहां रहने वाले निवासियों के लिए ये नए सिरदर्द पैदा करते हैं. कई धार्मिक स्थलों का निर्माण ही आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए होता है. रात के समय खुलेआम वहां शराबखोरी का दौर चलता है. पुलिस प्रशासन सबकुछ जानकर भी अनजान बना रहता है. ढोंगी साधुसंत बने लोग ऐसे ही अवैध स्थलों की आड़ ले कर भोलीभाली जनता का शोषण करते हैं.

धार्मिक स्थल धर्म की जगह अधर्म फैला रहे हैं. यह सब सरकारी लापरवाही की वजह से हो रहा है. लोग अब समझ गए हैं कि सरकारी जमीन पर बनाई गई दुकान, झुग्गी, या अन्य कोई इमारत बुलडोजर से तोड़ी जा सकती है पर मंदिर नहीं. यह अलग बात है कि भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में कुछ मंदिर तोड़े गए हैं, विरोध के बाद भी. मूर्ति की स्थापना से धर्मस्थल का निर्माण शुरू होता है और वह अवैध निर्माण धीरेधीरे एक विशाल रूप ले लेता है.

आज जरूरत है इस बात की कि धर्म स्थल ज्यादा जरूरी हैं या फिर अपने बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए स्कूल,कालेज और बेहतर स्वास्थ्य के लिए अस्पताल. हर जिले में जितने धार्मिक स्थल हैं उस के आधे भी अस्पताल नहीं हैं, सरकारी मुफ्त शिक्षा देने वाले स्कूल नहीं हैं.

मेरी सासू मां मुझे बहुत परेशान करती है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 25 वर्षीय महिला हूं. हाल ही में शादी हुई है. पति घर की इकलौती संतान हैं और सरकारी बैंक में कार्यरत हैं. घर साधनसंपन्न है. पर सब से बड़ी दिक्कत सासूमां को ले कर है. उन्हें मेरा आधुनिक कपड़े पहनना, टीवी देखना, मोबाइल पर बातें करना और यहां तक कि सोने तक पर पाबंदियां लगाना मुझे बहुत अखरता है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

आप घर की इकलौती बहू हैं तो जाहिर है आगे चल कर आप को बड़ी जिम्मेदारियां निभानी होंगी. यह बात आप की सासूमां समझती होंगी, इसलिए वे चाहती होंगी कि आप जल्दी अपनी जिम्मेदारी समझ कर घर संभाल लें. बेहतर होगा कि ससुराल में सब को विश्वास में लेने की कोशिश की जाए. सासूमां को मां समान समझेंगी, इज्जत देंगी तो

जल्द ही वे भी आप से घुलमिल जाएंगी और तब वे खुद ही आप को आधुनिक कपड़े पहनने को प्रेरित कर सकती हैं.

घर का कामकाज निबटा कर टीवी देखने पर सासूमां को भी आपत्ति नहीं होगी. बेहतर यही होगा कि आप सासूमां के साथ अधिक से अधिक रहें, साथ शौपिंग करने जाएं, घर की जिम्मेदारियों को समझें, फिर देखिएगा आप दोनों एकदूसरे की पर्याय बन जाएंगी.

8 साल के कृष का व्यवहार कहीं से भी उस के हमउम्र दोस्तों सा नहीं है. खेलते समय अकसर अपने साथी दोस्तों को डरानाधमकाना और उन्हें मार बैठना उस की आदतों में शामिल है. इस बात के लिए उस के स्कूल और पासपड़ोस से कई बार शिकायतें भी आ चुकी थीं. उस के मम्मीपापा ने प्यार से, डांट कर समझाया पर वह उन की एक भी नहीं सुनता, बल्कि उन्हें भी आंखें दिखाने लगता है. जब डांट फटकार ज्यादा लगती है, तो घर की चीजें उठाउठा कर फेंकने लगता है.

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दरअसल, कृष के मम्मीपापा दोनों कामकाजी हैं. तनावभरी जिंदगी में अकसर दोनों के बीच कहासुनी हो जाती है. कभीकभी तो लड़ाई इतनी बढ़ जाती है कि दोनों चीखनेचिल्लाने लगते हैं. कोई किसी की बात सुननेसमझने को तैयार नहीं होता. कई बार कृष अपने पापा को अपनी मम्मी पर हाथ उठाते भी देखता जिसे देख कर वह सहम उठता. धीरेधीरे फिर वह भी उसी प्रकार आचरण करने लगा. अपने मां, पापा से कोई भी बात वह चीखचिल्ला कर बोलता. गुस्से में घर की चीजें पटकता और वही सब फिर अपने दोस्तों के साथ करने लगा.

इस के लिए उस के मां, पापा जिम्मेदार हैं, क्योंकि कितनी बार कभी रो कर, कभी खामोश रह कर कृष ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, लेकिन उस के मां, पापा ने कभी उस की बातों को नहीं समझा और उस के सामने ही आपस में लड़तेझगड़ते रहे. नतीजा, आज कृष एक जिद्दी और गुस्सैल बच्चा बन चुका है.

13 साल की तन्वी स्कूल में एकदम चुपचाप रहती है. किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करती और न ही स्कूल की किसी ऐक्टिविटी में भाग लेती है. कारण, 2 साल पहले उस के मां,पापा का तलाक हो गया. दोनों में इतनी लड़ाई होती थी कि आखिरकार दोनों ने अलग होने का फैसला कर लिया. तन्वी रहती तो अपनी मां के साथ है, लेकिन छुट्टियों में अपने पापा के पास भी जाती रहती है. लेकिन अब उस का हंसनाखिलखिलाना सब खत्म हो चुका है. पढ़ाई में भी वह पहले जैसी होशियार नहीं रही. दोस्त भी उस के कम हो गए हैं.

फिर भी उस के मातापिता को समझ नहीं आ रहा है कि ये सब उन के कारण ही हुआ है. उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि उन के खराब रवैए का उन की बेटी पर क्या असर हो रहा है. बस, दोनों ने अपनाअपना स्वार्थ देखा और अलग हो गए.

हर बच्चे के लिए उस के मां, पापा उस के रोल मौडल होते हैं. उन की नजरों में वे सब से बेहतरीन इंसान होते हैं. ऐसे में जब मातापिता बच्चों के सामने ही लड़नेझगड़ने लगते हैं, तो बच्चा ठगा सा महसूस करने लगता है. उस ने अपने दिल में अपने मांपापा की जो छवि बनाई होती है वह टूटनेबिखरने लगती है और फिर या तो वह चुप रहने लगता है या फिर अपने मातापिता की तरह ही बन जाता है.

साइकोलौजी की इमिटेशन थ्योरी से यह साबित भी होता है कि बच्चे सामाजिक व्यवहार अपने मातापिता से ही सीखते हैं. वैसे तो हर मातापिता की यही कोशिश होती है कि वे कुछ भी ऐसा न करें, जिस का बच्चे पर गलत असर हो. लेकिन कई बार उन से बच्चों के सामने ही कुछ ऐसा व्यवहार हो जाता है, जिस का असर बच्चों पर पड़ने लगता है और फिर बच्चे भी वैसा ही करने लगते हैं.

पटना के हाई कोर्ट के एक वकील का कहना है कि पतिपत्नी झगड़ा करने के बाद बच्चों की नजरों में खुद को सही साबित करने के लिए एकदूसरे के खिलाफ जहर भरने लगते हैं. दोनों एकदूसरे पर दोषारोपण करने लगते हैं, जिस से बच्चे दुविधा में पड़ जाते हैं.

लड़ाई-झगड़े का बच्चों पर असर

जो बच्चे अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते देख  कर बड़े होते हैं उन में डिप्रैशन की समस्या हो जाती है, क्योंकि उन्हें खुशनुमा माहौला नहीं मिलता है, जिस के कारण वे डिप्रैशन का शिकार हो जाते हैं.

डरासहमा रहना

बच्चों के सामने लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, मारपीट करते वक्त मातापिता यह भूल जाते हैं कि उन की इन हरकतों का बच्चों पर क्या असर हो रहा है. अकसर अपने मांपापा को लड़तेझगड़ते देख बच्चों में डर पैदा होने लगता है.

मानसिक रूप से परेशान: बहुत ज्यादा तंग माहौल में रहने से बच्चों में मानसिक समस्या हो जाती है. उन की मासूमियत खोने लगती है और वे जिद्दी और चिड़चिड़े होने लगते हैं. लेकिन मातापिता नहीं समझ पाते कि ये सब उन के ही कारण हो रहा है. जब तक उन्हें समझ आती है बहुत देर हो चुकी होती है.

जिंदगी में बहुत कुछ खो देना

जिन बच्चों के घर में हमेशा कलह, अशांति का वातावरण बना रहता है उन का मानसिक विकास सही नहीं हो पाता है और वे दूसरे बच्चों के मुकाबले खेलकूद, पढ़नेलिखने में भी पीछे रह जाते हैं.

खुद को जिम्मेदार समझना

मातापिता की लड़ाई  जब रोज होने लगती है तब बच्चे को लगता है वही इस लड़ाई की वजह है और फिर वह गुमसुम सा रहने लगता है. कई बच्चे तो आत्मघाती कदम तक उठा लेते हैं.

भरोसा टूटने लगता है

लड़तेझगड़ते मांबाप को देख कर बच्चा अपनी जिंदगी से निराश होने लगता है. उसे कुछ भी अच्छा लगना बंद हो जाता है. वह किसी पर जल्दी भरोसा नहीं कर पाता. हर किसी का प्यार उसे झूठा लगता है.

कम आयु के बच्चों पर लड़ाईझगड़े का असर

बाल विशेषज्ञ के अनुसार छोटे बच्चे जहां मातापिता की बातों को समझ नहीं सकते, वहीं वे उन की भावनाओं को भलीभांति समझते हैं. इसलिए देखा गया है कि जिन परिवारों में मातापिता में लड़ाईझगड़े होते हैं, उन के  बच्चे सहम से जाते हैं. उन्हें लगने लगता है अब उन के मम्मीपापा अलग हो जाएंगे और उन के साथ नहीं रहेंगे. वे खुद को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. यहां तक कि वे लोगों से मिलनेजुलने और कहीं आनेजाने से भी कतराने लगते हैं.

बड़ी उम्र के बच्चों पर लड़ाईझगड़े का असर

बड़ी उम्र के बच्चों से अकसर मातापिता लड़ाई में उन का पक्ष लेने की उम्मीद रखते हैं. लेकिन ऐसी स्थिति में बच्चे खुद को फंसा महसूस करते हैं. कई बार बच्चे ग्लानि से भी भर जाते हैं और मांपिता की लड़ाई के लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगते हैं.

अमेरिका में हुई एक रिसर्च के अनुसार, शरीर के इम्यून सिस्टम पर लड़ाईझगड़ों का गहरा असर होता है और उन की बीमारियों से लड़ने की क्षमता कमजोर पड़ जाती है. अगर बचपन में मातापिता के बीच लड़ाईझगड़े हुए हों, वे एकदूसरे से बोलते न हों, तलाक का केस लंबे समय तक चलता रहे, तो इस का असर बच्चों के कोमल मन पर बहुत बुरा पड़ता है और सिर्फ बचपन में ही नहीं, इस का नकारात्मक असर उन के पूरे जीवन पर रहता है.

मातापिता के झगड़ों का असर बच्चों की पढ़ाई पर भी पड़ने लगता है, जिस की वजह से वे स्कूल में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते. रोवेस्टर, सिरैफ्यूज और नोट्रेडम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 3 साल की अवधि के दौरान 216 बच्चों, उन के अभिभावकों और शिक्षकों के बीच अध्ययन किया. मातापिता के संबंधों को ले कर बच्चों की चिंता पर हुए इस अध्ययन में पाया गया कि मातापिता के तनावभरे संबंधों का बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है.

पतिपत्नी के बीच लड़ाईझगड़ा होना स्वाभाविक बात है, क्योंकि दोनों अलगअलग पृष्ठभूमियों से होते हैं, सो ऐसे में दोनों के विचारों में मतभेद होना लाजिम है. लेकिन विवाद बढ़ कर मारपीट तक पहुंच जाना और फिर तलाक होना सही नहीं है. कहने को तो यह पतिपत्नी के बीच का मामला है, लेकिन इस से बच्चों की जिंदगी बिखरने लगती है.

एक अध्ययन से पता चला है कि पतिपत्नी के बीच होने वाले झगड़े न केवल बच्चों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, बल्कि उन के मानसिक विकास पर भी बहुत बुरा असर डालते हैं. इस से बच्चों में कई तरह के मानसिक विकार उत्पन्न हो सकते हैं. वे या तो डरपोक बन जाते हैं या फिर जीवन की सही दिशा से भटक कर बिगड़ने लगते हैं. इसलिए मांबाप भले लड़ेंझगड़ें, पर इतना खयाल रखें कि उन की लड़ाई का असर उन के बच्चों पर न पड़े. अपने बच्चों का वे उसी प्रकार पालनपोषण करें जैसे हर मांबाप करते हैं.

माता-पिता के लिए टिप्स

– अपने अहम को दरकिनार करते हुए बच्चों के बारे में सोचें.

– लड़ाईझगड़ा हर पतिपत्नी के बीच होता है, लेकिन जब एक गुस्से में हो, तो दूसरे को चुप हो जाना चाहिए. इस से बात नहीं बढ़ती.

– बच्चों को अपनी लड़ाई का हिस्सा न बनाएं.

– अगर पतिपत्नी किसी बात पर सहमत नहीं हैं, तो बच्चों के सामने ही एकदूसरे की बेइज्जती न करें.

– बच्चों के सामने गलत और नकारात्मक प्रभाव वाली भाषा का इस्तेमाल न करें.

– बच्चों के सामने चिल्लाचिल्ला कर गालीगलौज से बात न करें.

– इस बात का ध्यान रखें कि जो बातें आप को कष्ट पहुंचा सकती हैं वे बालमन पर भी बुरा असर डालेंगी.

– अगर पतिपत्नी के बीच विवाद रुक नहीं रहा है, तो किसी काउंसर से संपर्क करें.

मुलाकात का एक घंटा

एक ही साथ वे दोनों मेरे कमरे में दाखिल हुए. अस्पताल के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा हुआ मैं उस घड़ी को मन ही मन कोस रहा था, जब मेरी मोटर बाइक के सामने अचानक गाय के आ जाने से यह दुर्घटना घटी. अचानक ब्रेक लगाने की कोशिश करते हुए मेरी बाइक फिसल गई और बाएं पैर की हड्डी टूटने के कारण मुझे यहां अस्पताल में भरती होना पड़ा.

‘‘कहिए, अब कैसे हैं?’’ उन में से एक ने मुझ से रुटीन प्रश्न किया.

‘‘अस्पताल में बिस्तर पर लेटा व्यक्ति भला कैसा हो सकता है? समय काटना है तो यहां पड़ा हूं. मैं तो बस यहां से निकलने की प्रतीक्षा कर रहा हूं,’’ मैं ने दर्दभरी हंसी से उन का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘आप को भी थोड़ी सावधानी रखनी चाहिए थी. अब देखिए, हो गई न परेशानी. नगरनिगम तो अपनी जिम्मेदारी निभाता नहीं है, आवारा जानवरों को यों ही सड़कों पर दुर्घटना करने के लिए खुला छोड़ देता है. लेकिन हम तो थोड़ी सी सावधानी रख कर खुद को इन मुसीबतों से बचा सकते हैं,’’ दूसरे ने अपनी जिम्मेदारी निभाई.

‘‘अब किसे दोष दें? फिर अनहोनी को भला टाल भी कौन सकता है,’’ पहले ने तुरंत जड़ दिया.

लेकिन मेरी बात सुनने की उन दोनों में से किसी के पास भी फुर्सत नहीं थी. अब तक शायद वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके थे और अब शायद उन के पास मेरे लिए वक्त नहीं था. वे आपस में बतियाने लगे थे.

‘‘और सुनाइए गुप्ताजी, बहुत दिनों में आप से मुलाकात हो रही है. यार, कहां गायब रहते हो? बिजनेस में से थोड़ा समय हम लोगों के लिए भी निकाल लिया करो. पर्सनली नहीं मिल सकते तो कम से कम फोन से तो बात कर ही सकते हो,’’ पहले ने दूसरे से कहा.

‘‘वर्माजी, फोन तो आप भी कर सकते हैं पर जहां तक मुझे याद है, पिछली बार शायद मैं ने ही आप को फोन किया था,’’ पहले की इस बात पर दूसरा भला क्यों चुप रहता.

‘‘हांहां, याद आया, आप को शायद इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में कुछ काम था. कह तो दिया था मैं ने सिंह को देख लेने के लिए. फिर क्या आप का काम हो गया था?’’ पहले ने अपनी याददाश्त पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, वह काम तो खैर हो गया था. उस के बाद यही बात बताने के लिए मैं ने आप को फोन भी किया था, पर आप शायद उस वक्त बाथरूम में थे,’’ गुप्ता ने सफाई दी.

‘‘लैंडलाइन पर किया होगा. बाद में वाइफ शायद बताना भूल गई होंगी. वही तो मैं सोच रहा था कि उस के बाद से आप का कोई फोन ही नहीं आया. पता नहीं आप के काम का क्या हुआ? अब यदि आज यहां नहीं मिलते तो मैं आप को फोन लगाने ही वाला था,’’ पहले ने दरियादिली दिखाते हुए कहा.

‘‘और सुनाइए, घर में सब कैसे हैं? भाभीजी, बच्चे? कभी समय निकाल कर आइए न हमारे यहां. वाइफ भी कह रही थीं कि बहुत दिन हुए भाभीजी से मुलाकात नहीं हुई,’’ अब की बार दूसरे ने पहले को आमंत्रित कर के अपना कर्ज उतारा, वह शायद उस से अपनी घनिष्ठता बढ़ाने को उत्सुक था.

‘‘सब मजे में हैं. सब अपनीअपनी जिंदगी जी रहे हैं. बेटा इंजीनियरिंग के लिए इंदौर चला गया. बिटिया को अपनी पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं है. अब बच गए हम दोनों. तो सच बताऊं गुप्ताजी, आजकल काम इतना बढ़ गया है कि समझ ही नहीं आता कि किस तरह समय निकालें. फिर भी हम लोग शीघ्र ही आप के घर आएंगे. इसी बहाने फैमिली गैदरिंग भी हो जाएगी,’’ पहले ने दूसरे के घर आने पर स्वीकृति दे कर मानो उस पर अपना एहसान जताया.

‘‘जरूर, जरूर, हम इंतजार करेंगे आप के आने का, मेरे परिवार को भी अच्छा लगेगा वरना तो अब ऐसा लगने लगा है कि लाइफ में काम के अलावा कुछ बाकी ही नहीं बचा है,’’ दूसरे ने पहले के कथन का समर्थन किया.

मैं चुपचाप उन की बातें सुन रहा था.

‘‘और सुनाइए, तिवारी मिलता है क्या? सुना है इन दिनों उस ने भी बहुत तरक्की कर  ली है,’’ पहले ने दूसरे से जानकारी लेनी चाही.

‘‘सुना तो मैं ने भी है लेकिन बहुत दिन हुए, कोई मुलाकात नहीं हुई. फोन पर अवश्य बातें होती हैं. हां, अभी पिछले दिनों स्टेशन पर जोशी मिला था. मैं अपनी यू.एस. वाली कजिन को छोड़ने के लिए वहां गया हुआ था. वह भी उसी ट्रेन से इंदौर जा रहा था. किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर बता रहा था. इन दिनों उस ने अपने वजन को कुछ ज्यादा ही बढ़ा लिया है,’’ दूसरे ने भी अपनी तरफ से बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाया.

‘‘आजकल तो मल्टीनेशनल्स का ही जमाना है,’’ पहले ने अपनी ओर से जोड़ते हुए कहा.

‘‘पैकेज भी तो अच्छा दे रही हैं ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां,’’ दूसरे ने अपनी राय व्यक्त की.

‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसे तो देती हैं लेकिन काम भी खूब डट कर लेती हैं. आदमी चकरघिन्नी बन कर रह जाता है. उन में काम करने वाला आदमी मशीन बन कर रह जाता है. उस की अपनी तो जैसे कोई लाइफ ही नहीं रह जाती. एकएक सेकंड कंपनी के नाम समर्पित हो जाता है. सारे समय, चाहे वह परिवार के साथ आउटिंग पर हो या किसी सोशल फंक्शन में, कंपनी और टार्गेट उस के दिमाग में घूमते रहते हैं.’’

जाने कितनी देर तक वे कितनी और कितने लोगों की बातें करते रहे. अभी वे जाने और कितनी देर बातें करते तभी अचानक मुझे उन में से एक की आवाज सुनाई दी.

‘‘अरे, साढ़े 4 हो गए.’’

‘‘इस का मतलब हमें यहां आए 1 घंटे से अधिक का समय हो रहा है,’’ यह दूसरे की आवाज थी.

‘‘अब हमें चलना चाहिए,’’ पहले ने निर्णयात्मक स्वर में कहा.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, घर में वाइफ इंतजार कर रही होंगी,’’ दूसरे ने सहमति जताते हुए कहा.

आम सहमति होने के बाद दोनों एक साथ उठे, मुझ से विदा मांगी और दरवाजे की ओर बढ़ गए.

मैं ने भी राहत की सांस ली.

अब मेरे कमरे में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था. मुझे ऐसा लगा जैसे अब कमरे में उस पोस्टर की कतई आवश्यकता नहीं है जिस के नीचे लिखा था, ‘‘कृपया शांति बनाए रखें.’’

एक और बात, वे एक घंटे बैठे, लेकिन मुझे कतई नहीं लगा कि वे मेरा हालचाल पूछने आए हों. लेकिन दूसरों के साथ दर्द बांटने में जरूर माहिर थे. जातेजाते दर्द बढ़ाते गए. उन की फालतू की बातें सोचसोच कर मैं अब उन के हिस्से का दर्द भी झेल रहा था.

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सनातन की पुख्ता जंजीरें

यह समझ लें कि हर धर्म वालों की तरह हिंदू सतातन धर्म के दुकानदार भी इतने सक्षम और पैसे वाले हैं कि तमिलनाडू से आ रही आवाजों से उन को कोई हानि न होगी और वे इन आवाजों को इग्नोर कर देंगे. हर धर्म अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों का इस तरह से आसानी से मुकाबला करता रहा है.

तमिलनाडू में द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी के तेवर कुछ दिनों से हिंदू सनातन धर्म के बारे में पेरियारवादी होते जा रहे हैं. 4 दशकों तक उन्होंने बीच का रास्ता अपनाया था, शायद इसलिए, द्रमुक की जगह पहले अन्ना डीएमके के फिल्मी नायक एमजी रामचंद्रन ने ले ली थी,फिर उन की चहेती हीरोइन जयललिता ने. ये दोनों ही द्रमुक आंदोलन के ऊपरी तौर पर हिस्सेदार थे पर अंदर से ब्राह्मणवादी सनातन हिंदू धर्म को मानते थे.

अब द्रमुक ने औलइंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्रकषगमको लगभग समाप्त कर दिया है और जो बचीखुची पार्टी थी वह भारतीय जनता पार्टी के कारण बिखर गईक्योंकि भाजपा कभी एक धड़े के साथ होती तो कभी दूसरी के.

द्रमुक आंदोलन मंदिरों के प्रदेश तमिलनाडू में सब से ज्यादा मुखर हुआ और पेरियार ने हिंदू देवीदेवताओं के बारे में बहुतकुछ कहा जो कट्टरपंथियों को बुरा लगे, पर है वह सत्य. हर धर्म की यह खासीयत रही है कि उस की मुख्य किताब या विचारधारा का प्रकाशन करने वाले, ग्रंथों को लिखने वाले बहुत से अतार्किकऔर आसानी से न पचाए जाने वाले तर्क जोड़ते रहे. अपने देवीदेवता के गुणगान में वे उस समय की प्रचलित कहानियों को उन में जोड़ते रहे ताकि ग्रंथ में भारतीयता बनी रहे.

ये कहानियां असल में जीवन जीने के उपदेशों में ज्यादा रोमांचक और रोचक होती है. और आज भी हर धर्म एक अहम हिस्सा हैं. इन्हीं का सहारा ले कर धर्मगुरु अपने भक्तों के साथ मनमानी करते रहे हैं. हर धर्म में भक्तों को पूरा पैकेज एकसाथ लेना पड़ता रहा है. जहां वे जीवन के कुछ गुरों, चमत्कारों से सुख की वर्षा,ईश्वरकृपा से दुखों को भूलना सीखते रहे हैं, वहीं इन कथाओं को ऊपरवाले के दिए समय को मान कर चुपचाप सहन और स्वीकार करते रहेहैं.

भारत में हिंदू धर्म ने जातिव्यवस्था इसी तरह थोपी और उस समय के कमजोर आज कितनी ही सदियां बीत जाने के बाद भी कमजोर, अछूत या अछूत जैसे, गैरबराबर, भेदभाव के जन्म से शिकार रहे हैं. शक्तिशाली, समर्थ, पैसे वाले,लिखनेपढऩे में योग्य अपनी चालबाजियों से धर्म में सफल रहे हैं.

अमेरिका में अफ्रीका से ले जाए गए काले हबशी गुलाम चर्च के कहे अनुसार ईसाई बन गए लेकिन उन्हें यह समझा दिया गया कि उन की गुलामी और मालिक के अत्याचार उन के हिस्से में ईश्वर ने दिएहैं और वह कयामत के दिन न्याय करेगा जब सब मरे लोगों की आत्माएं जाएंगी और ईश्वर उन्हें स्वर्ग तक भेजेगा.

हिंदू धर्म की जन्म से ही भेदभाव वाली पद्धति के खिलाफ द्रमुक ने मोरचा खोल दिया है. पहले करुणानिधि के पौत्र उदयनिधि ने टिप्पणी की, फिर पिता एम के स्टालिन ने उस का खूब समर्थन दिया और अब एक और सांसद ए राजा ने उदयनिधि का समर्थन किया. दबाव इतना बढ़ गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंचालक मोहन भागवत को मानना पड़ा है कि हिंदू धर्म ने 200 साल तक अन्याय किया है और इसे सुधारना जरूरी है.असल में यह टैक्टिकल विदड्रा यानी दिखावटी पीछे हटना है और इतिहास में ऐसा कितनी ही बार हुआ है. और हर धर्म में हुआ है.दरअसल, ऊंची जातियों की बराबरी शासकीय, शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक बराबरी पिछड़ी निचली जातियां कभी नहीं कर पाएंगी. ऊंची जातियों के पास अब नई टैक्नोलौजी के नए अस्त्र आ गए हैं जिन के माध्यम से वे पूरी कौम की सोच और उन से मिलने वाली सूचनाओं को मनमाने ढंग से फिल्टर कर सकते हैं.

धर्म के शिखंडी की खासीयत यह है कि यह व्यक्ति को एक जंजीर से नहीं, सैकड़ों जंजीरों से बांधता है ताकि किसी जंजीर की कोई कड़ी टूट भी जाए तो भी व्यक्ति आजाद न हो पाए और उस दौरान धर्म के ठेकेदार उस जंजीर पर फिर वैल्डिंग कर देते हैं. उदयनिधि और ए राजा जैसे हमले बहुत बार हुए हैं पर ब्राह्मणवादी सनातन धर्म टस से मस नहीं हुआ जैसे कैथोलिक चर्च या सुन्नी इसलाम नहीं हुआ.

हर धर्म आज फिर फलफूल रहा है क्योंकि अब अमीर भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है. अमेरिका के सभी अमीर चर्चों को खूब पैसा देते हैं और खाड़ी के तेल उत्पादक इसलाम के हर धड़े को हिंदू अमीर अब पैसे नहीं, लाखों रुपए के सोना, मोती चढ़ाते हैं. द्रमुक आंदोलन पैसे की ही कमी से ठंडा पड़ जाएगा क्योंकि सत्य से नास्तिकता से पैसे नहीं मिलते.

YRKKH: अक्षरा-अभिमन्यु फिर लेंगे सात फेरे, अक्षु बनेगी अभिनव के बच्चे की मां

YRKKH Spolier alert : प्रणाली राठौड़ और हर्षद चोपड़ा स्टारर सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में दर्शकों को इस समय खूब सारा ड्रामा देखने को मिल रहा है. हालांकि अब सीरियल में जल्द ही कुछ ऐसा होगा, जिसे देखने के बाद लोग हैरान हो जाएंगे. दरअसल, बीते दिनों शो का नया प्रोमो जारी किया गया, जिसमें दिखाया गया है कि अक्षरा-अभिमन्यु ने एक बार फिर शादी करने का फैसला किया है.

कहानी में आएगा धमाकेदार ट्विस्ट

आपको बता दें कि स्टार प्लस (Yeh Rishta Kya Kehlata Hai New Promo) के आधिकारिक इंस्टाग्राम अकाउंट पर शो का नया प्रोमो जारी किया गया है. इसमें दिखाया गया है कि अबीर के कहने पर अक्षरा और अभिमन्यु ने फिर से शादी करने का फैसला किया हैं और वो अपने इस नए रिश्ते की शूरुआत दोस्ती से करते हैं. वहीं इसी बीच अक्षरा के पास डॉक्टर का फोन आता है. डॉक्टर अक्षु को बताती है कि वो प्रेग्नेंट है. ये सुन अक्षरा के होश उड़ जाते हैं.

अभिनव के बच्चे की मां बनने वाली है अक्षु

आपको बताते चलें कि डॉक्टर का फोन कटने के बाद अक्षरा को याद आता है कि ये बच्चा अभिमन्यु का नहीं बल्कि अभिनव का है. इसी के साथ शो (Yeh Rishta Kya Kehlata Hai) की कहानी में धमाकेदार ट्विस्ट देखने को मिलेगा.

कृष्णिमा : बाबूजी को किस बात का संदेह था ?

‘‘आखिर इस में बुराई क्या है बाबूजी?’’ केदार ने विनीत भाव से बात को आगे बढ़ाया.

‘‘पूछते हो बुराई क्या है? अरे, तुम्हारा तो यह फैसला ही बेहूदा है. अस्पतालों के दरवाजे क्या बंद हो गए हैं जो तुम ने अनाथालय का रुख कर लिया? और मैं तो कहता हूं कि यदि इलाज करने से डाक्टर हार जाएं तब भी अनाथालय से बच्चा गोद लेना किसी भी नजरिए से जायज नहीं है. न जाने किसकिस के पापों के नतीजे पलते हैं वहां पर जिन की न जाति का पता न कुल का…’’

‘‘बाबूजी, यह आप कह रहे हैं. आप ने तो हमेशा मुझे दया का पाठ पढ़ाया, परोपकार की सीख दी और फिर बच्चे किसी के पाप में भागीदार भी तो नहीं होते…इस संसार में जन्म लेना किसी जीव के हाथों में है? आप ही तो कहते हैं कि जीवनमरण सब विधि के हाथों होता है, यह इनसान के वश की बात नहीं तो फिर वह मासूम किस दशा में पापी हुए? इस संसार में आना तो उन का दोष नहीं?’’

‘‘अब नीति की बातें तुम मुझे सिखाओगे?’’ सोमेश्वर ने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया, ‘‘माना वे बच्चे निष्पाप हैं पर उन के वंश और कुल के बारे में तुम क्या जानते हो? जवानी में जब बच्चे के खून का रंग सिर चढ़ कर बोलेगा तब क्या करोगे? रक्त में बसे गुणसूत्र क्या अपना असर नहीं दिखाएंगे? बच्चे का अनाथालय में पहुंचना ही उन के मांबाप की अनैतिक करतूतों का सुबूत है. ऐसी संतान से तुम किस भविष्य की कामना कर रहे हो?’’

‘‘बाबूजी, आप का भय व संदेह जायज है पर बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में केवल खून के गुण ही नहीं बल्कि पारिवारिक संस्कार ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं,’’ केदार बाबूजी को समझाने का भरसक प्रयास कर रहा था और बगल में खामोश बैठी केतकी निराशा के गर्त में डूबती जा रही थी.

केतकी को संतान होने के बारे में डाक्टरों को उम्मीद थी कि वह आधुनिक तकनीक से बच्चा प्राप्त कर सकती है और केदार काफी सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था कि लाखों रुपए क्या केवल इसलिए खर्च किए जाएं कि हम अपने जने बच्चे के मांबाप कहला सकें. यह तो केवल आत्मसंतुष्टि तक सोचने वाली बात होगी. इस से बेहतर है कि किसी अनाथ बच्चे को अपना कर यह पैसा उस के भविष्य पर लगा दें. इस से मांबाप बनने का गौरव भी प्राप्त होगा व रुपए का सार्थक प्रयोग भी होगा.

‘केतकी, बस जरूरत केवल बच्चे को पूरे मन से अपनाने की है. फर्क वास्तव में खून का नहीं बल्कि अपनी नजरों का होता है,’ केदार ने जिस दिन यह कह कर केतकी को अपने मन के भावों से परिचित कराया था वह बेहद खुश हुई थी और खुशी के मारे उस की आंखों से आंसू बह निकले थे पर अगले ही क्षण मां और बाबूजी का खयाल आते ही वह चुप हो गई थी.

केदार का अनाथालय से बच्चा गोद लेने का फैसला उसे बारबार आशंकित कर रहा था क्योंकि मांबाबूजी की सहमति की उसे उम्मीद नहीं थी और उन्हें नाराज कर के वह कोई कार्य करना नहीं चाहती थी. केतकी ने केदार से कहा था, ‘बाबूजी से पहले सलाह कर लो उस के बाद ही हम इस कार्य को करेंगे.’

लेकिन केदार नहीं माना और कहने लगा, ‘अभी तो अनाथालय की कई औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी, अभी से बात क्यों छेड़ी जाए. उचित समय आने पर मांबाबूजी को बता देंगे.’

केदार और केतकी ने आखिर अनाथालय जा कर बच्चे के लिए आवेदनपत्र भर दिया था.

लगभग 2 माह के बाद आज केदार ने शाम को आफिस से लौट कर केतकी को यह खुशखबरी दी कि अनाथालय से बच्चे के मिलने की पूर्ण सहमति प्राप्त हो चुकी है. अब कभी भी जा कर हम अपना बच्चा अपने साथ घर ला सकते हैं.

भावविभोर केतकी की आंखें मारे खुशी के बारबार डबडबाती और वह आंचल से उन्हें पोंछ लेती. उसे लगा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद उस के ममत्व की धारा में एक नन्ही जान की नौका प्रवाहित हुई है जिसे तूफान के हर थपेडे़ से बचा कर पार लगाएगी. उस नन्ही जान को अपने स्नेह और वात्सल्य की छांव में सहेजेगी….संवारेगी.

केदार की धड़कनें भी तो यही कह रही हैं कि इस सुकोमल कोंपल को फूलनेफलने में वह तनिक भी कमी नहीं आने देगा. आने वाली सुखद घड़ी की कल्पना में खोए केतकी व केदार ने सुनहरे सपनों के अनेक तानेबाने बुन लिए थे.

आज बाबूजी के हाथ से एक तार खिंचते ही सपनों का वह तानाबाना कितना उलझ गया.

केतकी अनिश्चितता के भंवर में उलझी यही सोच रही थी कि मांजी को मुझ से कितना स्नेह है. क्या वह नहीं समझ सकतीं मेरे हृदय की पीड़ा? आज बाबूजी की बातों पर मां का इस तरह से चुप्पी साधे रहना केतकी के दिल को तीर की तरह बेध रहा था.

केदार लगातार बाबूजी से जिरह कर रहा था, ‘‘बाबूजी, क्या आप भूल गए, जब मैं बचपन में निमोनिया होने से बहुत बीमार पड़ा था और मेरी जान पर बन आई थी, डाक्टरों ने तुरंत खून चढ़ाने के लिए कहा था पर मेरा खून न आप के खून से मेल खा रहा था न मां से, ऐसे में मुझे बचाने के लिए आप को ब्लड बैंक से खून लेना पड़ा था. यह सब आप ने ही तो मुझे बताया था. यदि आप तब भी अपनी इस जातिवंश की जिद पर अड़ जाते तो मुझे खो देते न?

‘‘शायद मेरे प्रति आप के पुत्रवत प्रेम ने आप को तब तर्कवितर्क का मौका ही नहीं दिया होगा. तभी तो आप ने हर शर्त पर मुझे बचा लिया.’’

‘‘केदार, जिरह करना और बात है और हकीकत की कठोर धरा पर कदम जमा कर चलना और बात. ज्यादा दूर की बात नहीं, केवल 4 मकान पार की ही बात है जिसे तुम भी जानते हो. त्रिवेदी साहब का क्या हश्र हुआ? बेटा लिया था न गोद. पालापोसा, बड़ा किया और 20 साल बाद बेटे को अपने असली मांबाप पर प्यार उमड़ आया तो चला गया न. बेचारा, त्रिवेदी. वह तो कहीं का नहीं रहा.’’

केदार बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘बाबूजी, हम सब यही तो गलती करते हैं, गोद ही लेना है तो उन्हें क्यों न लिया जाए जिन के सिर पर मांबाप का साया नहीं है कुलवंश, जातबिरादरी के चक्कर में हम इतने संकुचित हो जाते हैं कि अपने सीमित दायरे में ही सबकुछ पा लेना चाहते हैं. संसार में ऐसे बहुत कम त्यागी हैं जो कुछ दे कर भूल जाएं. अकसर लोग कुछ देने पर कुछ प्रतिदान पा लेने की अपेक्षाएं भी मन में पाल लेते हैं फिर चाहे उपहार की बात हो या दान की और फिर बच्चा तो बहुत बड़ी बात होती है. कोई किसी को अपना जाया बच्चा देदे और भूल जाए, ऐसा संभव ही नहीं है.

‘‘माना अनाथालय में पल रहे बच्चों के कुल व जात का हमें पता नहीं पर सब से पहले तो हम इनसान हैं न बाबूजी. यह बात तो आप ही ने हमें बचपन में सिखाई थी कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है. अब आप जैसी सोच के लोग ही अपनी बात भुला बैठेंगे तब इस समाज का क्या होगा?

‘‘आज मैं अमेरिका की आकर्षक नौकरी और वहां की लकदक करती जिंदगी छोड़ कर यहां आप के पास रहना चाहता हूं और आप दोनों की सेवा करना चाहता हूं तो यह क्या केवल मेरे रक्त के गुण हैं? नहीं बाबूजी, यह तो आप की सीख और संस्कार हैं. मैं ने बचपन में आप को व मांजी को जो करते देखा है वही आत्मसात किया है. आप ने दादादादी की अंतिम क्षणों तक सेवा की है. आप के सेवाभाव स्वत: मेरे अंदर रचबस गए, इस में रक्त की कोई भूमिका नहीं है और ऐसे उदाहरणों की क्या कमी है जहां अटूट रक्त संबंधों में पनपी कड़वाहट आखिर में इतनी विषाक्त हो गई कि भाई भाई की जान के दुश्मन बन गए.’’

‘‘देखो, मुझे तुम्हारे तर्कों में कोई दिलचस्पी नहीं है,’’ सोमेश्वर बोले, ‘‘मैं ने एक बार जो कह दिया सो कह दिया, बेवजह बहस से क्या लाभ? और हां, एक बात और कान खोल कर सुन लो, यदि तुम्हें अपनी अमेरिका की नौकरी पर लात मारने का अफसोस है तो आज भी तुम जा सकते हो. मैं ने तुम्हें न तब रोका था न अब रोक रहा हूं, समझे? पर अपने इस त्याग के एहसान को भुनाने की फिराक में हो तो तुम बहुत बड़ी भूल कर रहे हो.’’

इतना कह कर सोमेश्वर अपनी धोती संभालते हुए तेज कदमों से अपने कमरे में चले गए. मांजी भी चुपचाप आदर्श भारतीय पत्नी की तरह मुंह पर ताला लगाए बाबूजी के पीछेपीछे कमरे में चली गईं.

थकेहारे केदार व केतकी अपने कमरे में बिस्तर पर निढाल पड़ गए.

‘‘अब क्या होगा?’’ केतकी ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘होगा क्या, जो तय है वही होगा. सुबह हमें अपने बच्चे को लेने जाना है, और मैं नहीं चाहता कि इस तरह दुखी और उदास मन से हम उसे लेने जाएं,’’ अपने निश्चय पर अटल केदार ने कहा.

‘‘पर मांबाबूजी की इच्छा के खिलाफ हम बच्चे को घर लाएंगे तो क्या उन की उपेक्षा बच्चे को प्रभावित नहीं करेगी? कल को जब वह बड़ा व समझदार होगा तब क्या घर का माहौल सामान्य रह पाएगा?’’

अपने मन में उठ रही इन आशंकाओं को केतकी ने केदार के सामने रखा तो वह बोला, ‘‘सुनो, हमें जो कल करना है फिलहाल तुम केवल उस के बारे में ही सोचो.’’

सुबह केतकी की आंख जल्दी खुल गई और चाय बनाने के बाद ट्रे में रख कर मांबाबूजी को देने के लिए बाहर लौन में गई, मगर दोनों ही वहां रोज की तरह बैठे नहीं मिले. खाली कुरसियां देख केतकी ने सोचा शायद कल रात की बहसबाजी के बाद मां और बाबूजी आज सैर पर न गए हों लेकिन उन का कमरा भी खाली था. हो सकता है आज लंबी सैर पर निकल गए हों तभी देर हो गई. मन में यह सोचते हुए केतकी नहाने चली गई.

घंटे भर में दोनों तैयार हो गए पर अब तक मांबाबूजी का पता नहीं था. केदार और केतकी दोनों चिंतित थे कि आखिर वे बिना बताए गए तो कहां गए?

सहसा केतकी को मांजी की बात याद आई. पिछले ही महीने महल्ले में एक बच्चे के जन्मदिन के समय अपनी हमउम्र महिलाओं के बीच मांजी ने हंसी में ही सही पर कहा जरूर था कि जिस दिन हमारा इस सांसारिक जीवन से जी उचट जाएगा तो उसी दिन हम दोनों ही किसी छोटे शहर में चले जाएंगे और वहीं बुढ़ापा काट देंगे.

सशंकित केतकी ने केदार को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘नहीं, नहीं, केतकी, बाबूजी को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे मुझ पर क्रोधित हो सकते हैं पर इतने गैरजिम्मेदार कभी नहीं हो सकते कि बिना बताए कहीं चले जाएं. हो सकता है सैर पर कोई परिचित मिल गया हो तो बैठ गए होंगे कहीं. थोड़ी देर में आ जाएंगे. चलो, हम चलते हैं.’’

दोनों कार में बैठ कर नन्हे मेहमान को लेने चल दिए. रास्ते भर केतकी का मन बच्चा और मांबाबूजी के बीच में उलझा रहा. लेकिन केदार के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था. उमंग और उत्साह से भरपूर केदार के होंठों पर सीटी की गुनगुनाहट ही बता रही थी कि उसे अपने निर्णय पर जरा भी दुविधा नहीं है.

केतकी का उतरा हुआ चेहरा देख कर वह बोला, ‘‘यार, क्या मुंह लटकाए बैठी हो? चलो, मुसकराओ, तुम हंसोगी तभी तो तुम्हें देख कर हमारा नन्हा मेहमान भी हंसना सीखेगा.’’

नन्ही जान को आंचल में छिपाए केतकी व केदार दोनों ही कार से उतरे. घर का मुख्य दरवाजा बंद था पर बाहर ताला न देख वे समझ गए कि मां और बाबूजी घर के अंदर हैं. केदार ने ही दरवाजे की घंटी बजाई तो इसी के साथ केतकी की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. नन्ही जान को सीने से चिपटाए वह केदार को ढाल बना कर उस के पीछे हो गई.

दरवाजा खुला तो सामने मांजी और बाबूजी खडे़ थे. पूरा घर रंगबिरंगी पताकों, गुब्बारों तथा फूलों से सजा हुआ था. यह सबकुछ देख कर केदार और केतकी दोनों विस्मित रह गए.

‘‘आओ बहू, अंदर आओ, रुक क्यों गईं?’’ कहते हुए मांजी ने बडे़ प्रेम से नन्हे मेहमान को तिलक लगाया. बाबूजी ने आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में लिया.

‘‘अब तो दादादादी का बुढ़ापा इस नन्हे सांवलेसलौने बालकृष्ण की बाल लीलाओं को देखदेख कर सुकून से कटेगा, क्यों सौदामिनी?’’ कहते हुए बाबूजी ने बच्चे के माथे पर वात्सल्य चिह्न अंकित कर दिया.

बाबूजी के मुख से ‘बालकृष्ण’ शब्द सुनते ही केदार और केतकी ने एक दूसरे को प्रश्न भरी नजरों से देखा और अगले ही पल केतकी ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘लेकिन बाबूजी, यह बेटा नहीं बेटी है.’’

‘‘तो क्या हुआ? कृष्ण न सही कृष्णिमा ही सही. बच्चे तो प्रसाद की तरह हैं फिर प्रसाद चाहे लड्डू के रूप में मिले चाहे पेडे़ के, होगा तो मीठा ही न,’’ और इसी के साथ एक जोरदार ठहाका सोमेश्वर ने लगाया.

केदार अब भी आश्चर्यचकित सा बाबूजी के इस बदलाव के बारे में सोच रहा था कि तभी वह बोले, ‘‘क्यों बेटा, क्या सोच रहे हो? यही न कि कल राह का रोड़ा बने बाबूजी आज अचानक गाड़ी का पेट्रोल कैसे बन गए?’’

‘‘हां बाबूजी, सोच तो मैं यही रहा हूं,’’ केदार ने हंसते हुए कहा.

‘‘बेटा, सच कहूं तो आज मैं ने बहुत बड़ी जीत हासिल की है. मुझे तुझ पर गर्व है. यदि आज तुम अपने निश्चय से हिल जाते तो मैं टूट जाता. मैं तुम्हारे फैसले की दृढ़ता को परखना चाहता था और ठोकपीट कर उस की अटलता को निश्चित करना चाहता था क्योंकि ऐसे फैसले लेने वालों को सामाजिक जीवन में कई अग्नि परीक्षाएं देनी पड़ती हैं.’’

‘‘समाज में तो हर प्रकार के लोग होते हैं न. यदि 4 लोग तुम्हारे कार्य को सराहेंगे तो 8 टांग खींचने वाले भी मिलेंगे. तुम्हारे फैसले की तनिक भी कमजोरी भविष्य में तुम्हें पछतावे के दलदल में पटक सकती थी और तुम्हारे कदमों का डगमगाना केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बल्कि आने वाली नन्ही जान के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता था. बस, केवल इसीलिए मैं तुम्हें जांच रहा था.’’

‘‘देखा केतकी, मैं ने कहा था न तुम से कि बाबूजी ऐसे तो नहीं हैं. मेरा विश्वास गलत नहीं था,’’ केदार ने कहा.

‘‘बेटा, तुम लोगों की खुशी में ही तो हमारी खुशी है. वह तो मैं तुम्हारे बाबूजी के कहने पर चुप्पी साधे बैठी रही, इन्हें परीक्षा जो लेनी थी तुम्हारी. मैं समझ सकती हूं कि कल रात तुम लोगों ने किस तरह काटी होगी,’’ इतना कह कर सौदामिनी ने पास बैठी केतकी को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘वह तो ठीक है मांजी, पर यह तो बताइए कि सुबह आप लोग कहां चले गए थे. मैं तो डर रही थी कि कहीं आप हरिद्वार….’’

‘‘अरे, पगली, हम दोनों तो कृष्णिमा के स्वागत की तैयारी करने गए थे,’’ केतकी की बातों को बीच में काटते हुए सौदामिनी बोली, ‘‘और अब तो हमारे चारों धाम यहीं हैं कृष्णिमा के आसपास.’’

सचमुच कृष्णिमा की किलकारियों में चारों धाम सिमट आए थे, जिस की धुन में पूरा परिवार मगन हो गया था.

टिकुली : पराई बच्ची को अपनाते दंपति की दिल छूती कहानी

आदिल ने कमरे में धीरे से झांका. उस की पत्नी बुशरा 7 साल की टिकुली को सीने से लगाए आंख बंद कर लेटी थी. वह बुशरा का थका सा चेहरा देर तक खड़ा देखता रहा. रात को 2 बज रहे थे, पता नहीं बुशरा की आंख लगी है या यों ही आंख बंद कर लेटी है. वह खुद कहां सो पा रहा है.

टिकुली तो अब उस की भी जान है. पीले बल्ब की मद्धिम सी रोशनी में भी उस ने देखा, नन्हा सा चेहरा बुखार की तपिश से कैसा लाल सा हो रहा है. 2 दिन हो गए हैं, टिकुली तेज़ बुखार से तप रही है. बस्ती के एक कामचलाऊ डाक्टर ने दवाई तो दी है, कहा भी है, ‘ज़्यादा परेशानी की बात नहीं है. तीनचार दिनों में ठीक हो जाएगी.’ इतने में बुशरा ने आंखें खोलीं, देखा आदिल गुमसुम खड़ा पता नहीं क्या सोच रहा है. उस ने टिकुली को अपने सीने से धीरे से हटाया, उठ कर बाहर आई. आदिल ने पूछा, “बुखार कम लग रहा है?”

“हां, थोड़ी तपिश कम है, पर अभी भी है. पहले तो बदन जैसे जल सा रहा था. हाय, पता नहीं कब पहले की तरह चहकेगी, चहकेगी भी या नहीं, आदिल? कहीं नन्हें से दिल को सब बता कर हम से गलती तो नहीं हुई?”

“नहीं, बुशरा. कोई और बताए, इस से अच्छा था कि हम ही साफ़साफ़ बता दें. दूसरे धर्म की बच्ची को पालपोस रहे हैं, कुछ भी हो सकता था. कभी भी किसी परेशानी में पड़ सकते थे.”

टिकुली अभी तक बुशरा के सीने से लगी सोई हुई थी. बुशरा का उठ कर जाना उस ने महसूस किया, ज़रा सा हिलीडुली तो बुशरा फिर उसे अपने से लिपटा कर लेट गई. आदिल भी नीचे बिछे बिस्तर पर लेट गया.

बुशरा की आंखों में दूरदूर तक नींद नहीं थी. टिकुली के मुंह से जैसे ही निकला, ‘मां, पानी.’ बुशरा को लगा जैसे उस के बदन में किसी ने जान फूंक दी हो. ‘हांहां, मेरी बच्ची, ले,’ कह कर पास रखा गिलास उस के मुंह से लगा दिया. टिकुली ने अब भी उस की उंगली पकड़ रखी थी. 2 दिनों बाद अपनेआप पानी मांगा था. उस ने पूरा गिलास पानी पी लिया.

बुशरा ने पूछा, “ठीक लग रहा है, कुछ खाएगी?”

‘न’ में सिर हिला कर टिकुली फिर उस से चिपट गई, फिर उस के माथे पर हाथ रख कर पूछा, “मां, आप की टिकुली कहां गई?”

बुशरा मुसकरा दी, उसे सीने से भींच लिया, “यह रही मेरी टिकुली.”

“टिकुली लगाओ न, मां.”

“हां, ये ले,’ कहती हुई उस ने अपने तकिए पर लगी बिंदी उठा कर अपने माथे पर लगा ली. टिकुली ने बिंदी को सीधा किया, फिर निढाल लेट गई. अब तक आदिल भी टिकुली की आवाज़ सुन कर आ गया था, “कैसी है हमारी बिटिया?”

टिकुली कुछ बोली नहीं. बस, आंखें बंद किए लेटी रही. बुशरा ने कहा, “कमज़ोरी बहुत होगी.” फिर छू कर दोबारा देखा, “अभी तो बुखार तेज़ ही लग रहा है. सुबह तक उतरना चाहिए.”

“हां, तुम अब थोड़ा सो लो. ठीक हो जाएगी.”

आदिल फिर लेट गया. बुशरा को अभी टिकुली का बिंदी ठीक करना याद आ गया. इसे अपनी मां की याद आती होगी. 7 साल की ही है, तो क्या हुआ. कुछ तो याद होगा ही. इसे सब सच बता कर कोई गलती तो नहीं हुई? जब से सब बताया है, तभी से बुखार में पड़ी है. टिकुली को देखतेदेखते उस के सामने अर्शी का चेहरा घूम गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी सी लग गई. रोतेरोते अचानक हिचकियां बंध गईं. टिकुली की नींद खुल गई. छोटेछोटे गरम हाथ बुशरा के गाल पर रख दिए, “मां, अर्शी याद आ गई?”

बुशरा ने हां में सिर हिला दिया, तुरंत अपने आंसू पोंछे, पूछा, “थोड़ा दूध पिएगी?”

टिकुली ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो बुशरा ने तुरंत बिस्तर छोड़ा और उस के लिए दूध ले आई. फिर दोनों चुपचाप एकदूसरे से लिपटी लेट गईं.

टिकुली फिर सो गई. बुशरा को लगा, पानी भी खुद मांग कर पिया है, थोड़ा दूध भी लिया, शायद टिकुली को अब थोड़ा आराम हो रहा है. अर्शी भी जबजब बीमार हुई, ऐसे ही थोड़ाथोड़ा खानापीना शुरू करती तो बुशरा समझ जाती थी कि अर्शी ठीक हो रही है. बुशरा के कलेजे में अपनी बेटी को याद कर फिर एक हूक सी उठी. उस की आंखों के सामने 3 साल पहले का कोरोना महामारी का भयावह मंज़र घूम गया जब अपनी जान बचाना ही लोगों का एकमात्र उद्देश्य रह गया था. पता नहीं कैसे अर्शी इस की चपेट में आ गई थी.

सरकारी अस्पताल में कैसे डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ा कर उस ने और आदिल ने अर्शी को एडमिट किया था. पूरे 4 दिन अस्पताल से दूर भूखेप्यासे खड़े रहते, बड़ी मुश्किल से एक बार अर्शी को देखने को किसी तरह घुस गए थे, तो वहीं एक कोने में फटेहाल से राधा और रमेश भी अपनी आखिरी सांसें ले रहे थे.

राधा समझ गई थी कि अर्शी के मातापिता बाहर ही खड़े रहते हैं. बड़ी मुश्किल से उस की बुशरा से थोड़ी बातचीत भी हुई थी. यह समय ऐसा था कि अपने भी अपने नहीं रहे थे या कह सकते हैं कि रह नहीं पा रहे थे. अपनों के लिए भी कोई कुछ चाहते हुए भी नहीं कर पा रहा था. जब राधा और रमेश को समझ आ गया कि वे नहीं बचेंगे तो राधा ने अपनी उखड़ती सांसों के साथ बुशरा के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘बहन, हम दानापुर, बिहार से यहां कामधंधे के लिए आए थे. अब सब छूट रहा है. मेरी 4 साल की टिकुली कमरे पर अकेली है, भूखीप्यासी. पता नहीं कोई उसे खाना भी दे रहा होगा या नहीं. उसे तुम अपने पास रख लोगी?’ कह कर राधा ने अपने कमरे की चाबी बुशरा को सौंप दी थी.

‘आप के कोई रिश्तेदार?’

‘नहीं, टिकुली के पिताजी अनाथालय में पले हैं. मेरे मायके में भी कोई इसे देखने वाला नहीं बचा. यह महामारी सब को ले गई.’

उसी दिन अर्शी ने भी अंतिम सांस ली. रोतेकलपते आदिल और बुशरा को अर्शी का शव भी नहीं दिया गया था. यह ऐसा भयानक समय था कि किसी को यह देखने की फुरसत नहीं थी कि कौन मर रहा है, कौन घर जा रहा है. अफरातफरी का माहौल था. अस्पतालों में डाक्टर्स को घर गए हुए कईकई दिन बीत रहे थे. रातदिन, बस, एंबुलैंस की आवाज़ सुनाई देती. सूनी सड़कें. हर तरफ मौत की चुप्पी. इंसान घर से निकलते हुए डरता था कहीं मौत घात लगाए न बैठी हो.

ऐसी बीमारी कभी किसी ने देखी नहीं थी. ऐसे में अर्शी का दिल ही दिल में मातम मनाते आदिल और बुशरा सीधे राधा के कमरे पर पहुंचे. वहां आसपास के किसी घर से कोई टिकुली को खानापीना दे जाता था. जैसे ही बुशरा ने अकेली रह रही डरीसहमी टिकुली को देखा, वह उसे सीने से लगा कर रो पड़ी. उस से कहा, ‘बेटा, तुम्हारी मां ने हमें भेजा है. तुम्हारे मां, बाबा दोनों बहुत बीमार हैं. उन्हें ठीक होने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम हमारे साथ रहोगी.’  यह कह कर उस ने आदिल की तरफ इशारा किया था. आदिल ने स्नेह से उस के सिर पर अपना हाथ रख दिया था, ‘अब टिकुली हमारे साथ रहेगी.’

इस समय लोगों के पास दूसरों के घरों में, जिंदगी में तांकझांक करने का समय नहीं था. बुशरा और आदिल ने चुपचाप धीरेधीरे राधा का कमरा खाली कर दिया और टिकुली को अपनी बेटी मान कर अपने घर ले आए. जब बसें चलनी शुरू हो गईं तो थोड़े दिनों बाद अपना कमरा भी खाली कर के बनारस की इस बस्ती से काफी दूर एक और जगह अपना नया ठिकाना बना लिया. टिकुली कई दिन गुमसुम रही. पर बालमन जल्दी ही नई जगह रमना जानता है.

आदिल और बुशरा उस पर अपना इतना लाड़ उड़ेलते कि वह अब जल्दी ही उन से घुलमिल गई थी. अर्शी की याद बुशरा और आदिल को तड़पाती. वे अकेले में बैठ कर रो भी लेते पर टिकुली को देख कर फिर जीने की कोशिश करने में लगे थे.

धीरेधीरे महाविनाश के बाद जद्दोजहेद के साथ जीवन पटरी पर लौट रहा था. इस महामारी में हर वर्ग पर कहर टूटा था. अमीरों का पैसा भी उन की जान नहीं बचा पाया था. गरीबों पर गरीबी और बीमारी की दोहरी मार पड़ी थी. अब आदिल ने फिर एक फैक्ट्री में काम पर जाना शुरू कर दिया था. बुशरा भी छोटेमोटे काम करने लगी थी.

अर्शी की तरह टिकुली को पढ़ानेलिखाने की जिम्मेदारी भी उठानी थी. अर्शी और टिकुली एक ही उम्र की थीं. अर्शी के कपड़े पहन कर जब टिकुली आदिल और बुशरा के सामने खड़ी हो कर हंसती, खिलखिलाती, दोनों के आंसू बहते चले जाते. टिकुली ने एक दिन खुद ही बताया था, ‘पता है, मां, मुझे टिकुली क्यों कहते हैं, मां कहती थीं कि मुझे उन के माथे की टिकुली बहुत अच्छी लगती थी, मैं वही छेड़ती रहती थी, और खुद भी लगाती थी इसलिए मेरा नाम ही टिकुली पड़ गया.’ वह अपने ही नाम पर हंसती रहती.

टिकुली कई बार सोतेसोते चौंक कर उठ बैठती. अपनी मां को ढूंढ़ती. बुशरा उसे बहला लेती. धीरेधीरे वह बुशरा और आदिल के नए ठिकाने में रमती गई. बुशरा पहले बिंदी नहीं लगाती थी पर टिकुली कहीं से भी कुछ ला कर उस के माथे पर लगा देती, कहती, ‘मेरी मां बहुत अच्छी टिकुली लगाती हैं.’

टिकुली को अपनी मां इसी बात पर अकसर याद आती. बुशरा उस की ख़ुशी के लिए अपने माथे पर एक छोटी सी बिंदी लगा लेती.

एक दिन बुशरा और आदिल टिकुली को अपनी गोद में लिटा कर आपस में बात कर रहे थे. टिकुली बहुत ध्यान से सुन रही थी, ‘हम टिकुली को न हिंदू, न मुसलमान बनाने पर ज़ोर देंगे, उसे अच्छा इंसान बनाएंगे. उसे पढ़ालिखा कर उस के पैरों पर खड़ा कर देंगे. हम उसे किसी भी धर्म की बातों में फंसने ही नहीं देंगे. इस महामारी में कौन सा धर्म किस के काम आया है? हिंदू, मुसलमान, ईसाई सब तो चले गए, किस को कौन बचा पाया? हर धर्म का इंसान तड़पता चला गया है. लाशों तक का तो कोई ठिकाना न रहा. सच पूछो, आदिल, मैं तो जैसे अब नास्तिक सी होती जा रही हूं. बस, अपनी अर्शी जैसी टिकुली को अब डाक्टर ही बनाना है चाहे इस के लिए रातदिन मेहनत करनी पड़े.’

और अब 2 दिनों पहले ही बुशरा और आदिल ने आपस में बात की थी. आदिल ने कहा था, ‘बुशरा, टिकुली को अब बता दो कि उस के मातापिता नहीं रहे. थोड़ी और बड़ी हो गई तो फिर से नई बातों से घबरा न जाए. अभी तो एडजस्ट कर भी लेगी. हम से थोड़ी मिलजुल गई है. ईमानदारी से अब उसे समझा देते हैं.’

बुशरा ने भी अपनी सहमति दे दी थी. दोनों ने उस दिन टिकुली को बता दिया था कि उस के मातापिता नहीं बचे. अब वह हमेशा उन के साथ ही रहेगी. टिकुली चुपचाप बैठी रही थी, फिर रोई और रोतेरोते ही उसे बुखार चढ़ता चला गया था. 7 साल की बच्ची के लिए अब यह सब सहना कैसा होगा, वह ठीक हो कर क्या कहेगी, उन के साथ ख़ुशीख़ुशी रह लेगी या दुखी हो कर मजबूरी में रहेगी, क्या उसे इतने दिन में हम से प्यार नहीं हो गया होगा? अर्शी और टिकुली में कोई फर्क तो हम ने कभी समझा नहीं. आदिल और बुशरा के मन में बस यही सब चलता रहता.

बुशरा ने एक ठंडी सी सांस भरी तो टिकुली जाग गई. उस की हथेलियां बुशरा के गरदन पर टिकी थीं. हथेलियां कुछ भीगी सी लगीं, तो बुशरा चौंकी, शायद टिकुली का बुखार टूटा था, पसीना आ रहा था. वह उठ कर बैठ गई. टिकुली का माथा छुआ, पसीने से तर था. उस ने फौरन आदिल को आवाज़ दी, “आदिल, देखो तो. टिकुली का बुखार उतर रहा है, शायद.”

आदिल उठ कर आया, थर्मामीटर टिकुली की बांह में रखा. बुशरा ने अपनी आंखें पोंछीं जिन में अर्शी की याद में एक बार फिर नमी उतर आई थी. ऐसे ही तो बीमारी में अर्शी उस के साथ लिपटी रहती थी. टिकुली कभी आदिल को देख रही थी, कभी बुशरा को. कुछ बोली नहीं, तो बुशरा ने पूछा, “क्या हुआ, टिकुली?”

“तो फिर मेरे मांपिताजी मर गए? अब कभी नहीं आएंगे?”

“वे नहीं आएंगें, पर हम हैं न. तू अब हमेशा मेरे पास रहेगी.”

बुशरा और आदिल का दिल ज़ोर से धड़क रहा था. अब पता नहीं टिकुली क्या सोच रही होगी, कहीं शोर सा न मचा दे. आसपास वाले तो उसे उन की बेटी ही समझते थे. कहीं वे किसी बड़ी मुसीबत में न फंस जाएं. दोनों मन ही मन बहुत डर रहे थे. टिकुली की एक हरकत उन्हें जेल भी पहुंचा सकती थी जबकि उन्होंने कोई चोरी नहीं की थी. टिकुली के मातापिता ने ही उन्हें टिकुली सौंपी थी. पर उन के पास इस बात का कोई सुबूत तो था नहीं. दोनों की निगाहें टिकुली पर टिकी थीं. कमज़ोर सी आवाज़ में टिकुली ने कहा, “पिताजी, थर्मामीटर देखो न. कितनी देर हो गई.”

“अरे, वाह, बुखार तो बहुत कम हो गया,” थर्मामीटर देखते हुए आदिल ने खुश होते हुए कहा, “चलो, अब टिकुली को कुछ खिलाओ, बुशरा. उस ने कब से कुछ नहीं खाया है.”

बुशरा ने फौरन उस के लिए पतलीपतली खिचड़ी चढ़ा दी. जब तक खिचड़ी बनी, उसे अपने हाथों से सेब काट कर खिलाती रही. फिर खिचड़ी अपने हाथों से खिलाई.

धीरेधीरे टिकुली ठीक हो रही थी. आदिल ने काम पर जाना शुरू कर दिया. बुशरा अभी टिकुली की देखरेख के लिए घर पर ही थी. वह देख रही थी कि टिकुली ठीक तो हो रही है पर थोड़ा चुप सी रहती है. अब स्कूल खुलने लगे थे. पिछले कई महीने तो बच्चे घर में बंद ही रहे थे. अब सड़कों पर स्कूलबसें एक लंबे समय बाद दिखतीं.

कोरोना महामारी बच्चों के बचपन का बहुत ज़रूरी समय खा गई थी. अभी टिकुली का एडमिशन करवाना था. उस में कोई अड़चन न आ जाए, यह चिंता भी थी. इन सब से अलग टिकुली का थोड़ा चुप रह जाना दोनों को अखर रहा था. वे दोनों अपनी तरफ से टिकुली को संभलने के लिए समय दे रहे थे.

एक दिन बुशरा ने टिकुली को अपने पास लिटा लिया, प्यार से पूछा, “टिकुली, क्या सोचती रहती है? अब तो ठीक हो गई न? अब स्कूल जाना है?” टिकुली बुशरा को देखती रही, फिर पूछा, “मां, आप लोग तो मर नहीं जाओगे न?”

“क्या?” बुशरा हैरान सी उठ कर बैठ गई.

“मां, मुझे आजकल बहुत डर लगता है.”

“ओह्ह, मेरी बच्ची. क्याक्या सोचती रहती है. अरे, हम कहीं नहीं जा रहे हैं. अभी तुझे बहुत पढ़ानालिखाना है.”

“हां, और मुझे डाक्टर भी बनाना है न,” कहते हुए टिकुली जोश से उठ कर बैठ गई, तकिए पर लगी बुशरा की बिंदी को ठीक करते हुए उस से फिर लिपट गई. कुछ दिनों से घर में पसरा सन्नाटा दुम दबा कर कहीं भाग गया था.

भारतीय संगीत भटक चुका है- बिक्रम घोष, संगीतकार व तबला वादक

‘जीमा’ और ‘ग्रेमी’ अवार्ड विजेता मशहूर तबला वादक व संगीतकार बिक्रम घोष को तबला वादन की शिक्षा उन के पिता व अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त तबला वादक शंकर घोष से मिली थी. शास्त्रीय संगीत, सूफी, पौप, रौक, फ्यूजन संगीत और फिल्म संगीत जैसी विधाओं में काम करने वाले बिक्रम घोष एकमात्र म्यूजीशियन हैं. फिल्म ‘जल’ में उन के संगीत को औस्कर में नौमीनेट किया गया था.

पंडित रविशंकर के साथ 12 साल तक तबला बजाने के अलावा फिल्म ‘ब्रेनवाश’ में जौर्ज हैरिसन, ‘पल्सेटिंग ड्रम्स’ में उस्ताद जाकिर हुसैन और तौफीक कुरैशी के साथ काम कर चुके हैं. वे अब तक 53 फिल्मों, 12 हिंदी और 41 बंगला फिल्मों को संगीत से संवार चुके हैं. उन का अपना म्यूजिक बैंड ‘रिदमस्कैप’ है, तो वहीं 2021 में उन्होंने अपने 3 दोस्तों के साथ मिल कर संगीत कंपनी ‘इंटरनल साउंड’ की शुरुआत की थी.

हाल ही में देश के 77वें स्वतंत्रता दिवस पर वे ‘यह देश’ नामक अलबम ले कर आए. प्रस्तुत हैं, बिक्रम घोष से हुई बातचीत के खास अंश :

अपने पिता मशहूर तबला वादक शंकर घोष की ही तरह तबला वादक बनने का विचार आप के दिमाग में कब आया था?

यों तो बचपन से ही मुझे अपने पिता से तबला बजाने की शिक्षा मिलती रही. मगर मेरे ननिहाल के सभी लोग शिक्षा में बहुत आगे हैं. वे मुझे हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित किया करते थे. वे लोग चाहते थे कि मैं अच्छी नौकरी करूं। तो मेरे सामने दोराहा यह था कि मैं अपने पिता की ही तरह तबला वादक बनूं या फिर नौकरी करूं। पर 1990 में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के बाद एक दिन मेरे पिता ने मुझ से सवाल किया कि अब आगे क्या करना है, तो मेेरे मुंह से तुरंत निकला कि मुझे तबला बजाना है क्योंकि बचपन से मैं अपने पिताजी को तबला वादक के रूप में मिल रही शोहरत, मानसम्मान, प्रशंसकों की भीड़ आदि देखता आ रहा था, जोकि कहीं न कहीं मेरे जेहन में था.

मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, वैसेवैसे मेरे मन में भी कभीकभी अपने पिताजी की तरह बनने की इच्छा होती थी. तो मैं ने उसी दिन से तबला वादन को अपना प्रोफैशन बना लिया. मगर 2 साल तक मैं ने 2 विश्वविद्यालयों में बतौर प्रोफैसर पार्टटाइम नौकरी भी की. पर 14 नवंबर, 1993 को पंडित रविशंकर ने मुझे एक छोटे से म्यूजिकल कंसर्ट में तबला बजाते देखा और मुझे वहां से उठा कर अपने साथ कर लिया और 16 नवंबर, 1993 में मुझे ब्रजैल्स में आयोजित कंसर्ट में अपने साथ तबला बजाने का अवसर दिया.

उस के बाद मैं ने नौकरी को अलविदा कह पंडित रविशंकर के साथ पूरे 12 साल तक तबला बजाया. जब तक पंडित रविशंकरजी जीवित थे, तब तक तबला वादन में उन से बेहतर साथ किसी का नहीं हो सकता था. उन के साथ मैं ने ग्रेमी अवार्ड में भी बजाया. उस के बाद मैं ने सभी इंटरनैशनल स्टार्स के साथ काम किया.

आप तबला वादक के साथ ही संगीतकार भी हैं. अब तक 53 फिल्मों व 70 संगीत अलबमों को संगीत दे चुके हैं। यहां तक का सफर कैसा रहा?

पूरी दुनिया घूमने और दुनिया का काफी संगीत सुनने के बाद मेरे अंदर एक ललक जगी, तो मैं ने शास्त्रीय संगीत से कुछ समय के लिए अवकाश ले कर बतौर संगीतकार अपना बैंड ‘रिदमस्कैप’ शुरू करने के साथ ही अपने पहले अलबम ‘रिदमस्कैप’ को संगीत से संवारा जोकि आइकौनिक अलबम साबित हुआ. इस अलबम को बहुत बड़ी सफलता मिली. अलबम की सफलता के साथ ही मेरा अपना फ्यूजन बैंड ‘रिदमस्कैप’ भी लोकप्रिय हो गया.

उस के बाद में मैं ने सूनी तारपोरवाला की फिल्म ‘लिटिल जिजुओ’ को संगीत से सजाया. उस के बाद 2013 में गिरीश मलिक की फिल्म ‘जल’ को मैं ने व सोनू निगम ने मिल कर संगीत से संवारा जिस का एक गाना औस्कर के लिए नौमीनेट हुआ था.

उस के बाद मैं ने बंगला फिल्मों में काम करना शुरू किया. बंगाल में मैं ने निर्देशक अरिंदम के साथ कई फिल्में कीं. आजकल उन के साथ हम लोग 21वीं फिल्म कर रहे हैं. अब तक मैं ने संगीतकार के रूप में 53 फिल्में की हैं, इन में से 12 हिंदी और 41 बंगला फिल्में हैं. कुछ माह पहले मेरे संगीत से संवरी फिल्म ‘तोरबाज’ आई थी. कुछ दिन पहले ही गिरीश मलिक की फिल्म ‘बैंड औफ महाराजास’ को संगीत देने का काम पूरा किया है. इस में मैं ने अभिनय भी किया है.

लेकिन आप ने फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ को संगीत देने से मना क्यों कर दिया था?

जी हां, मुझे इस बात का अफसोस भी है. वास्तव में ‘रिदमस्कैप’ को सफलता मिलने के बाद सब से पहले राजकुमार हिरानी ने मुझे फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में संगीत देने का औफर दिया था, जिसे मैं कर नहीं पाया था क्योंकि उन दिनों मैं अपने बैंड के साथ विदेश यात्राएं कर रहा था. यह 4 माह का टूर था.

आप का अपना ‘रिदमस्कैप’ बैंड होने के बावजूद आप ने अपना प्रोडक्शन हाउस ‘इंटरनल साउंड’ शुरू किया. इस के पीछे क्या सोच रही?

कोविड महामारी के दौरान मुझे एहसास हुआ कि अब वह संगीत नहीं रहा. मेरी जिस से भी चर्चाएं होती थीं, सभी एक ही रोना रोते कि 70 व 80 के दशक जैसा बेहतरीन संगीत अब नहीं बन रहा है. तो मुझे लगा कि कहीं न कहीं हम गुमराह हो रहे हैं. कुछ तो गड़बड़ हो रहा है. आज संगीत में मैलोडी क्यों नहीं है? हम हर बार क्यों सिर्फ बड़े स्तर पर प्रोडक्शन की सोचते हैं? आखिर इंसान सोचेगा कब? उस में प्यार कब होगा? आज भी हम और आप ही नहीं बल्कि बच्चे भी पुराने गीत सुनना पसंद करते हैं. मैं मैलोडियस गाना बनाना चाहता था, इसीलिए यह कंपनी शुरू की.

हम गुणवत्ता वाले और्गेनिक संगीत लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. गाने में कम से कम सितार तो बजे, बांसुरी तो बजे, सारंगी तो बजे. आज भी हम गाना सुन कर कहते हैं कि फिल्म ‘कश्मीर की कली’ के क्या गाने थे। इस फिल्म के गानों में सारंगी रामनारायणजी ने बजाई थी. हरिप्रसाद चौरसिया ने बांसुरी बजाई थी.

फोक या क्लासिकल संगीत के साथ हमारे यहां के साज/वाद्ययंत्रों की साउंड नहीं होगी, तो फिर भारतीय व अमेरिकी संगीत में अंतर कहां रह जाएगा? उन के पास वे वाद्ययंत्र नहीं हैं, जो हमारे पास हैं. वे वायलिन व गिटार का उपयोग करते हैं, अगर हम भी वही करते हैं तो अंतर कहां रहा.

भारतीय संगीत की पहचान बरकरार रहे, इसी सोच के साथ हम ने अपनी संगीत कंपनी ‘इंटरनल साउंड’ शुरू की. साउंड पर हम ज्यादा जोर दे रहे हैं. अपनी कंपनी बनाने के लिए हम ने 3 दोस्तों से संपर्क किया, जोकि उद्योग जगत से जुड़े हुए हैं. हम ने उन से कहा कि आप क्रिकेट, फुटबाल व फिल्म में पैसा लगाते हो तो संगीत में भी लगाइए. वे तैयार हो गए. इस तरह हमारी इस कंपनी ने काम करना शुरू किया. इस कंपनी के तहत हम ऐसा संगीत बना रहे हैं जोकि आज के दौर का अलग संगीत नजर आए और लोगों की जबान पर चढ़ जाए.

हमारे पास लता, किशोर कुमार, आशा भोसले, मो. रफी आदि के गाने व संगीत हैं, पर हम चाहते हैं कि आज के दौर में भी उसी तरह का मैलोडियस संगीत बने, जो पूरी तरह से भारतीय हो.

क्या संगीत में आई गिरावट की मूल वजह ‘की बोर्ड’ पर बढ़ी निर्भरता है?

की बोर्ड तो प्रोग्रामर संचालित करते हैं. हमारे देश में जितने भी प्रोग्रामर काम कर रहे हैं, वे काफी ज्ञानी व समझदार हैं. वे बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली हैं. हम सभी संगीतकारों के पास प्रोग्रामर होता है. पर समस्या कहां है, उस पर गौर करें.

देखिए, पियानो या गिटार या इलैक्ट्रोनिक की प्रोग्रामिंग हो जाएगी. मगर आप तबला व ढोलक की प्रोग्रामिंग नहीं कर सकते. जब इन की प्रोग्रामिंग करते हैं, तब वह इतना बेकार सुनने में लगता हैै कि लोग सुन कर भागते हैं. पहले लाइव म्यूजिक रिकौर्ड होता था, जिस में 80 लोगों का आर्केस्ट्रा, 10 ढोलक, 6 गिटार सहित 100 लोग एक गाना महबूब स्टूडियो में रिकौर्ड करते थे. ऐसा करने में बहुत बड़ा धन खर्च होता है. अब लोग सोचते हैं कि हम ‘की बोर्ड’ पर कर लेते हैं, जोकि ‘शौर्टकट’ है. लोग भूल जाते हैं कि कुछ चीजों का शौर्टकट नहीं होता.

यदि आप लोगों के दिल को छूने वाला संगीत बनाना चाहते हैं, तो आप को भारतीय वाद्ययंत्रों को लाइव रख कर ही संगीत बनाना पड़ेगा. पर हम वहां से हट गए. परिणामतया हमारे भारतीय संगीत से इंसानी टच चला गया. जब वादक ढोलक या तबला बजाता है, तो वह पसीने से तरबतर हो जाता है. उस का हाथ जब लगता है, तो स्किन से स्किन टच होती है. आप जानते हैं कि तबला व ढोलक में इंसानी स्किन लगी होती है.

हम ने एक गाना बनाया तो मेरे 10 साल के बेटे ने कहा कि पापा, यह कितना पुराना गाना है, यह तो बहुत अच्छा लग रहा है. मैं ने कहा कि यह 40 साल पुराना है, तो वह और अधिक खुश हो गया.

लोगों की सोच यह हो गई है कि तबला वादक या बांसुरी वादक या सारंगी वादक सिर्फ रंगमंच तक ही सीमित हैं. ऐसा क्यों?

ऐसा पहले से ही था. मैं ने तो इसे भी तोड़ने का प्रयास किया. मैं अपने तबले के साथ बीच में बैठता हूं। आप ने देखा होगा कि तबला वादक को किनारे बैठाया जाता है. यह मेरी तरफ से एक स्टेटमैंट भी है.

आज समय आ गया है कि तबला को चांद पर ले जाना है. यह काम आज मैं कर रहा हूं। मुझ से पहले मेरे पिताजी भी कर चुके हैं. बहुत बड़ा काम जाकिर भाई ने किया. शांताप्रसाद ने भी किया. बिरजू महाराज ने किया. तो मुझे साज के लिए जो सही लगता है, मैं वह करता हूं. मेरे हर काम में तबला जरूर होता है.

आप क्लासिकल, फ्यूजन और सूफी संगीत पर काम करते हैं. इन तीनों में काम करते समय किन बातों का खास ध्यान रखते हैं?

देखिए, क्लासिकल में आप को हर वक्त 2 चीजों का खयाल रखना होता है. आप को राग में ही काम करना है. राग से बाहर आप नहीं जा सकते. दूसरा, आप ताल से बाहर नहीं जा सकते. जब सूफियाना का काम करेंगे, तब लफ्ज पर ध्यान देना होता है. तभी वह सूफी कहलाएगा. फ्यूजन में आप किसी को भी किसी चीज के साथ जोड़ सकते हो. लेकिन ध्यान यह रखना है कि उस का स्टेथिक्स कहां मेल खाता है. अब फ्यूजन के लिए आप ने बिरयानी में रसगुल्ला डलवा दिया, तब बिरयानी व रसगुल्ला दोनों खत्म हो जाएगा. यह समझने के लिए आप को 20 साल तालीम लेनी पड़ेगी. सबकुछ समझना पड़ेगा, तभी आप समझ सकते हैं कि यह जंच रहा है या नहीं. फ्यूजन की सब से बड़ी चुनौती यही है कि क्या नहीं करना चाहिए.

स्टूडियो सिस्टम का संगीत पर कितना असर हुआ है?

मैं उन के साथ काम नहीं कर सकता जिन से संबंध न हो. जिन के साथ मेरी कैमिस्ट्री हो, उन के साथ ही काम कर पाता हूं. जहां बहुत ज्यादा प्रोफैशनलिज्म होता है, वहां काम कर पाना मुश्किल होता है. जब सारा काम आर्गैनिकली हो तभी वह काम अच्छा होता है. संगीत बनाना कोई कैलकुलेशन नहीं बल्कि इमोशनल यात्रा है. पश्चिम बंगाल में मैं स्टूडियो के साथ काम करता हूं.

आप खुद को कहां संतुष्ट पाते हैं?

तबला बजाने व संगीत देने में आनंद आता है. मैं खुद को अभिनेता नहीं मानता. मेरी पत्नी अभिनेत्री हैं. मैं ने 3 फिल्मों में म्यूजीशियन के रूप में अभिनय किया है जबकि 35 फिल्मों में अभिनय करने से मना कर चुका हूं क्योंकि उन में म्यूजीशियन का किरदार नहीं था. मेरा काम संगीत है. अगर मेरा अभिनय करना संगीत को मदद करता है, तो मैं अभिनय करता हूं.

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