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पढ़ें पसंदीदा or रोमांचक छोटी कहानियाँ हिंदी में | Very Short Stories In Hindi

Top 10 very short stories in hindi : सरिता डिजिटल लाया है लेटेस्ट बहुत छोटी कहानियां. तो पढ़िए वो छोटी-छोटी कहानियां. जिन्हें पढ़ने के बाद आपको अच्छा तो महसूस होगा ही. साथ ही आपको बहुत कुछ सीखने को भी मिलेगा. दरअसल ‘सरिता पत्रिका’ मनुष्य जीवन की हर एक परेशानी को भली भांति समझती व महसूस करती हैं. इसलिए इसमें लिखित कहानियों को पढ़ने के बाद आप अपनी हर समस्या का हल निकाल सकते हैं.

Special short stories in hindi : जीवन की परेशानियों के किस्से

1. रिश्ते की बूआ : दिल से जुड़े रिश्तों की मार्मिक कहानी

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इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी. पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

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2. आंधी से बवंडर की ओर : क्या सोनिया अपनी बेटी को मशीनी सिस्टम से निजात दिला पाई ?

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फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’ ‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’ ‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’ मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’ सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

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3. पश्चात्ताप की आग

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बरसों पहले वह अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन व पति नरेश को ले कर भारत से अमेरिका चली गई थी. नरेश पास ही बैठे धीरेधीरे निशा के हाथों को सहला रहे थे. सीट से सिर टिका कर निशा ने आंखें बंद कर लीं. जेहन में बादलों की तरह यह सवाल उमड़घुमड़ रहा था कि आखिर क्यों पलट कर वह वापस भारत जा रही थी. जिस ममत्व, प्यार, अपनेपन को वह महज दिखावा व ढकोसला मानती थी, उन्हीं मानवीय भावनाओं की कद्र अब उसे क्यों महसूस हुई? वह भी तब, जब वह अमेरिका के एक प्रतिष्ठित फर्म में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर थी.

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4. संकट की घड़ी : डॉक्टरों की परेशानियां कौन समझेगा ?

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उस ने घड़ी देखी. 7 बजने को थे. मतलब, वह पूरे 12 घंटों से यहां लगा हुआ था. परिस्थिति ही कुछ ऐसी बन गई थी कि उसे कुछ सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं मिला था. जब से वह यहां इस अस्पताल में है, मरीज और उस के परिजनों से घिरा शोरगुल सुनता रहा है. किसी को बेड नहीं मिल रहा, तो किसी को दवा नहीं मिल रही. औक्सीजन का अलग अकाल है. बात तो सही है. जिस के परिजन यहां हैं या जिस मरीज को जो तकलीफ होगी, यहां नहीं बोलेगा, तो कहां बोलेगा. मगर वह भी किस को देखे, किस को न देखे. यहां किसी को अनदेखा भी तो नहीं किया जा सकता. बस किसी तरह अपनी झल्लाहट को दबा सभी को आश्वासन देना होता है.

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5. रूदन : नताशा क्यों परेशान थी ?

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नतालिया इग्नातोवा या संक्षेप में नताशा मास्को विश्वविद्यालय में हिंदी की रीडर थी. उस के पति वहीं भारत विद्या विभाग के अध्यक्ष थे. पतिपत्नी दोनों मिलनसार, मेहनती और खुशमिजाज थे. नताशा से अकसर फोन पर मेरी बात हो जाती थी. कभीकभी हमारी मुलाकात भी होती थी. वह हमेशा हिंदी की कोई न कोई दूभर समस्या मेरे पास ले कर आती जो विदेशी होने के कारण उसे पहाड़ जैसी लगती और मेरी मातृभाषा होने के कारण मुझे स्वाभाविक सी बात लगती. जैसे एक दिन उस ने पूछा कि रेलवे स्टेशन पर मैं उस से मिला या उस को मिला, क्या ठीक है और क्यों? आप बताइए जरा.

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6. जीवन की डाटा एंट्री : जिंदगी से हताश युवक की दिल छूती कहानी

छोटी कहानियाँ हिंदी में

इधरउधर नजरें घुमा कर अनंत देसाई ने आफिस का मुआयना किया. उन्होंने आज ही अखबार के आधे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन देखा था. डेल्टा इन्फोसिस प्राइवेट लिमिटेड का नाम इस विज्ञापन में देख कर और उस की बारीकियां पढ़ कर देसाईजी ने चैन की सांस ली थी कि चलो, बेटे रोहित का कहीं तो ठिकाना हो सकता है. नौकरियां नहीं हैं तो क्या इस एम.एन.सी. (मल्टीनेशनल कंपनी) कल्चर ने रोजीरोटी के कुछ और रास्ते निकाल ही दिए हैं. उन से बेटे का हताशनिराश चेहरा अब और नहीं देखा जा रहा था.

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7. न्याय : बेकसूर को न्याय दिलाने वाले व्यक्ति की दिलचस्प कहानी

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पिछले वर्ष अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी के कहने पर वे दोनों दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले थे. जब चेन्नई पहुंचे तो कन्याकुमारी जाने का भी मन बन गया. विवेकानंद स्मारक तक कई पर्यटक जाते थे और अब तो यह एक तरह का तीर्थस्थान हो गया था. घंटों तक ऊंची चट्टान पर बैठे लहरों का आनंद लेते रहे ेऔर आंतरिक शांति की प्रेरणा पाते रहे. इस तीर्थस्थल पर जब तक बैठे रहो एक सुखद आनंद का अनुभव होता है जो कई महीने तक साथ रहता है.

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8. आजादी : पतिपत्नी के बीच अनचाहे बोझ की कहानी

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फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था. ‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

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9. घोंसला : वृद्धावस्था के संवेगों को उकेरती मर्मस्पर्शी कहानी

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सुबह होतेहोते महल्ले में खबर फैल  गई थी कि कोने के मकान में  रहने वाले कपिल कुमार संसार छोड़ कर चले गए. सभी हैरान थे. सुबह से ही उन के घर से रोने की आवाजें आ रही थीं. पड़ोस में रहने वाले उन के हमउम्र दोस्त बहुत दुखी थे. वास्तव में वे मन से भयभीत थे.

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10. मजबूत औरत : आत्मसम्मान के साथ जीती एक मां की कहानी

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ऊषा ने जैसे ही बस में चढ़ कर अपनी सीट पर बैग रखा, मुश्किल से एकदो मिनट लगे और बस रवाना हो गई. चालक के ठीक पीछे वाली सीट पर ऊषा बैठी थी. यह मजेदार खिड़की वाली सीट, अकेली ऊषा और पीहर जाने वाली बस. यों तो इतना ही बहुत था कि उस का मन आनंदित होता रहता पर अचानक उस की गोद मे एक फूल आ कर गिरा. खिड़की से फूल यहां कैसे आया, वह इतना सोचती या न सोचती, उस ने गौर से फूल देखा तो बुदबुदाई, ‘ओह, चंपा का फूल’.

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मेरे पति का दूसरी औरत से संबंध है, बताएं मैं क्या करूं?

सवाल

मैं विदेश में रह रही 25 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरी शादी को 3 महीने हुए हैं. मेरे पति के बिजनैस पार्टनर, जो 55 वर्षीया है, उससे अवैध संबंध हैं. यह बात सोचसोच कर मेरा बुरा हाल हो रहा है. वे न तो मुझ पर खर्च करते हैं, न कहीं मुझे घुमाने ले जाते हैं और न ही मेरे साथ सैक्स करते हैं.  मेरे पेरैंट्स भी इस कारण बहुत परेशान हैं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मन करता है खुदकुशी कर लूं.

जवाब

अकसर धोखे की उम्मीद वहीं ज्यादा होती है जहां शादी से पहले अच्छी तरह से खोजबीन नहीं की जाती है. लेकिन आप परेशान न हों क्योंकि आप के पति का बड़ी उम्र की महिला से शारीरिक संबंध ज्यादा दिनों तक  नहीं चल पाएगा. दरअसल, अंगरेज औरतें इतनी खुले विचारों की होती हैं कि अकसर भारतीय युवक उन के चुंगल में आ ही जाते हैं. आप के पति के मामले में भी ऐसा ही हुआ है. इसलिए आप आक्रोशित होने के बजाय उन्हें अपनी ओर आकर्षित करें वरना आप का रूखा व्यवहार उन्हें और ढीठ बना देगा.

साथ ही, आप वहां की भाषा सीखने के साथसाथ खुद को उस माहौल के हिसाब से ढालें ताकि वे आप के पास आने को मजबूर हो जाएं. भूल कर भी खुदकुशी के बारे में न सोचें, यह तो कायरता है. खुद को ऐसा मजबूत बनाएं कि आप के पति बजाय उस उम्रदराज औरत के, आप के दीवाने बन जाएं. वैसे, आप की प्रौब्लम लाइफटाइम प्रौब्लम नहीं है.

 

कशमकश : दो जिगरी दोस्त क्यों मजबूर हुए गोलियां बरसाने के लिए ?

मई 1948, कश्मीर घाटी, शाम का समय था. सूरज पहाड़ों के पीछे धीरेधीरे अस्त हो रहा था और ठंड बढ़ रही थी. मेजर वरुण चाय का मग खत्म कर ही रहा था कि नायक सुरजीत उस के सामने आया, और उस ने सैल्यूट मारा.

 ‘‘सर, हमें सामने वाले दुश्मन के बारे में पता चल गया है. हम ने उन की रेडियो फ्रीक्वैंसी पकड़ ली है और उन के संदेश डीकोड कर रहे हैं. हमारे सामने वाले मोरचे पर 18 पंजाब पलटन की कंपनी है और उस का कमांडर है मेजर जमील महमूद.’’

नायक सुरजीत की बात सुनते ही वरुण को जोर का धक्का लगा और चंद सैकंड के लिए वह कुछ बोल नहीं सका. फिर उस ने अपनेआप को संभाला और बोला, ‘‘शाबाश सुरजीत, आप की टीम ने बहुत अच्छा काम किया. आप की दी हुई खबर बहुत काम आएगी. आप जा सकते हैं.’’

सुरजीत ने सैल्यूट मारा और चला गया. उस के जाने के बाद वरुण सोचने लगा, ‘18 पंजाब-मेरी पलटन. मेजर जमील महमूद-मेरा जिगरी दोस्त. क्या मैं उस की जान ले लूं जिस ने कभी मेरी जान बचाई थी. यह कहां का इंसाफ होगा?’

वरुण अतीत में खो गया…

देश के बंटवारे के पहले, लाहौर में उन दोनों के घर आसपास थे. दोनों खानदानों में अच्छा मेलमिलाप था. उन दोनों के पिता एक ही दफ्तर में काम करते थे.

दोनों तरफ के सब बच्चों में दोस्ती थी पर जमील और वरुण के बीच खास लगाव था. दोनों लंगोटिया यार थे. इस की वजह थी कि दोनों न सिर्फ हमउम्र थे, दोनों महाबदमाश भी थे. शैतानी करने में माहिर थे, पर साथसाथ पढ़ाई करने में भी काफी तेज थे. क्लास में दोनों बहुत अच्छे नंबर पाते थे, इसलिए शैतानी करने पर आमतौर पर उन्हें केवल डांट ही पड़ती थी.

स्कूली शिक्षा हासिल कर लेने के बाद दोनों एक ही कालेज में पढ़ने लगे. तब तक दूसरा महायुद्ध शुरू हो गया था. कालेज की पढ़ाई पूरी होने पर दोनों ने तय किया कि वे सेना में अफसर बनेंगे. जमील के अब्बा को उस का इरादा काफी नेक लगा और उन्होंने फौरन अपनी रजामंदी दे दी. उस की मां ने कुछ नहीं कहा, पर सब देख सकते थे कि वे खुश नहीं थीं. वरुण के मातापिता दोनों ही उस के फौजी बनने के खिलाफ थे. वे कहते थे, ‘यह तो अंगरेजों की सेना है. हमारा बेटा क्यों उन की लड़ाई में लड़े और उन के लिए अपनी जान खतरे में डाले.’

बड़ी मुश्किल से वरुण ने उन को मनाया. फिर दोनों दोस्तों ने अफसर बनने के लिए इंटरव्यू दिए. दोनों चुन लिए गए. अफसर ट्रेनिंग स्कूल में 6 महीने की शिक्षा पा कर उन को कमीशन मिल गया, और वे अफसर बन गए. वह समय था दिसंबर, 1943. जमील और वरुण दोनों की पोस्टिंग एक ही पलटन में हुई- ‘18 पंजाब’. उन की पलटन उस समय देश की पूर्वी सीमा पर थी. वह जापानी सेना का सामना कर रही थी. जब जमील और वरुण पलटन में पहुंचे तो पता चला कि उन पर हमला होने की आशंका थी. वैसे तो पिछले 18 महीने से जापानी सेना शांत बैठी थी. पूरे बर्मा पर कब्जा करने के बाद लगता था कि अब वह आगे नहीं बढ़ेंगी. पर जासूसों ने बताया कि वह किसी बड़े हमले की तैयारी कर रही है. 18 पंजाब पलटन को कोहिमा का मोरचा मिला था.

अप्रैल 1944 के पहले हफ्ते में जापानी सेना ने धावा बोल दिया. पूरी ताकत से जापानी सेना कोहिमा और उस के आसपास के इलाके पर टूट पड़ी. उस का जोश इतना था कि 18 पंजाब पलटन और उन की साथी पलटनों को पीछे हटना पड़ा. पर उन्होंने जल्द ही स्थिति पर काबू पा लिया. उन को मालूम था कि उन के पीछे बहुत ही कम सेना थी. सो, अगर जापानी उन का मोरचा तोड़ कर आगे निकल गए तो पूरे भारत को खतरा हो जाएगा.

कई दिनों तक घमासान युद्ध चलता रहा. एक मोरचे पर दोनों जमील और वरुण तकरीबन साथसाथ ही लड़ रहे थे. वरुण की नजर सामने आते जापानी सैनिकों पर थी. जमील ने देखा कि दाहिनी ओर से कुछ और जापानी उन की तरफ बढ़ रहे थे जिन में से एक सैनिक वरुण को निशाना बना रहा था.

‘वरुण बच के,’ जमील चिल्लाया और कूद कर उस ने वरुण को धक्का दे दिया. वरुण नीचे गिरा और जापानी सिपाही की गोली जमील के कंधे में लगी. फिर जापानी सिपाही उन तक पहुंच गए और दोनों गुटों में हाथापाई होने लगी. आखिर 18 पंजाब पलटन के बहादुर सैनिकों ने जापानियों को खदेड़ दिया. उस के बाद ही वे जमील को डाक्टर के पास ले जा सके.

जमील का समय अच्छा था कि गोली केवल मांस को छू कर निकल गई थी. हड्डी बच गई थी. इसलिए वह जल्दी ही ठीक हो गया.

वरुण उस से मिलने डाक्टरी तंबू में गया. उस ने कहा, ‘यार जमील, तू ने मेरी जान बचाई है.’

‘उल्लू के पट्ठे,’ (दोनों दोस्त एकदूसरे को ऐसे प्यारभरे शब्दों में अकसर बुलाया करते थे), ‘अगर तुझे नहीं बचाता तो किस को बचाता, दुश्मनों को,’ जमील ने जवाब दिया.

आखिर लड़ाई समाप्त हुई. जापानी हार गए. 18 पंजाब पलटन मेरठ छावनी में वापस आई.

समय बीता और 15 अगस्त, 1947 का महत्त्वपूर्ण दिन आया. हिंदुस्तान को आजादी मिल गई पर देश का बंटवारा हो गया. जमीन बंटी, आजादी बंटी, सामान बंटा और फौज भी बंटी.

18 पंजाब पलटन पाकिस्तान के हिस्से में आई. वरुण की पोस्टिंग किसी और पलटन में हो गई. जाने से पहले वह जा कर जमील से गले मिला.

‘अब हम अलगअलग मुल्कों के बाशिंदे हो गए हैं,’ जमील ने कहा.

‘पर फिर भी हम दोस्त रहेंगे, हमेशाहमेशा के लिए,’ वरुण ने जवाब दिया.

तभी वरुण की तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौट आया. वरुण कशमकश में फंसा हुआ था कि महज 8 महीने बाद ही दोनों दुश्मन बन कर, एकदूसरे का सामना कर रहे थे.

उस रात वरुण को नींद नहीं आई. वैसे तो जब लड़ाई में विराम होता, जैसे अब था, वरुण रात को 2 बार उठ कर संत्रियों को जांचता था. उस रात वह केवल एक बार गया. बाकी समय वह इस सोच में डूबा था कि कैसे वह जमील से मिले.

देर रात उस के दिमाग में एक खयाल आया और वरुण ने उस पर अमल करने का पक्का इरादा तय किया. खतरनाक तरीका था पर वरुण को कोई और रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था.

सुबह होते ही उस ने नायक सुरजीत को बुलवाया. सुरजीत उस के सामने आया, सैल्यूट मारा और उस ने पूछा, ‘‘जी सर?’’

‘‘सुरजीत, क्या तुम हमारे सामने वाले दुश्मन की टोली से रेडियो द्वारा संपर्क कर सकते हो?’’ वरुण ने उस से पूछा.

सुरजीत थोड़ा चौंका, फिर बोला, ‘‘कर सकते हैं, सर. हमें उन की रेडियो की फ्रीक्वैंसी मालूम है.’’

‘‘तो अभी जा कर उन को यह संदेश भेजो,’’ वरुण ने एक कागज पर लिखा-

‘‘मेजर जमील महमूद, मैं तुम से थोड़ी देर के लिए मिलना चाहता हूं. अगर तुम्हें मंजूर है तो आज दोपहर 3 बजे दोनों मोरचों के बीच चिनार के पेड़ के नीचे मिलो. पौने 3 बजे से 2 घंटे के लिए मैं अपनी तरफ से गोली चलाना बंद करवा दूंगा.’’

सुरजीत ने संदेश पढ़ा. यह स्पष्ट था कि वह कुछ पूछना चाह रहा था, पर फौज के सीनियर अफसर से कोई भी सवाल नहीं करता है. उस ने सैल्यूट मारा और आज्ञा का पालन करने के लिए वहां से चला गया.

2 घंटे बाद वह वरुण के पास वापस आया, ‘‘सर, मेजर जमील आप की बात मान गए गए हैं. वे 3 बजे आप को चिनार के पेड़ के पास मिलेंगे. उन की तरफ से भी 2 घंटे के लिए गोलाबारी बंद रहेगी,’’ उस ने बताया.

ठीक 3 बजे वरुण चिनार के पेड़ के पास पहुंचा. जमील उस का इंतजार कर रहा था. वरुण को देखते ही वह बोल उठा, ‘‘अबे उल्लू के…सौरी मेजर वरुण, मैं भूल गया कि अब हम दुश्मन हैं.’’

‘‘हां यार,’’ वरुण ने जवाब दिया. ‘‘दो दोस्त, बिना चाहे, एकदूसरे पर गोलियां बरसाने जा रहे हैं. हाय रे इंसान की मजबूरियां.’’

‘‘यह दुनिया है कठोर, बेरहम और मतलबी,’’ जमील बोला, ‘‘अगर हमें इस दुनिया में रहना है तो सबकुछ सहना पड़ेगा. पर अब बातें खत्म करो. अगर हमारे सीनियर अफसरों को पता चलेगा कि हम मिले हैं, तो हम दोनों के कोर्ट मार्शल हो जाएंगे. दुश्मन से संपर्क करना गद्दारी मानी जाती है. वैसे, मैं कोशिश करूंगा कि लड़ाई के दौरान तुम मेरे सामने न आओ.’’

‘‘मैं भी ऐसा ही चाहता हूं कि हम दोनों को एकदूसरे पर गोलियां न बरसानी पड़े,’’ वरुण ने जवाब दिया.

‘‘पर जाने से पहले मेरी तुम से एक विनती है,’’ जमील ने आगे कहा, ‘‘अगर मैं तुम से पहले मर जाऊं और हमारे मुल्कों के बीच सुलह हो जाए, तो तुम मेरी कब्र पर आ कर मुझे बता देना कि मुबारक हो जमील, अब हम फिर दोस्त बन सकते हैं.’’

‘‘मैं जरूर ऐसा ही करूंगा,’’ वरुण ने वादा किया, ‘‘काश, मैं भी तुम से ऐसा करने को कह सकता, पर मेरी तो कब्र ही नहीं होगी. अलविदा मेरे दोस्त.’’

‘‘अलविदा मेरे भाई,’’ जमील ने जवाब दिया. और दोनों मेजर घूम कर, बिना पीछे देखे, अपने अपने मोरचे को लौट गए.

राधेश्याम नाई : आखिर क्यों खास था राधेश्याम नाई ?

‘‘अरे भाई, यह तो राधेश्याम नाई का सैलून है. लोग इस की दिलचस्प बातें सुनने के लिए ही इस की छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने या दाढ़ी बनवाने आते हैं. ये बड़ा जीनियस व्यक्ति है. इस की दुकान रसिक एवं कलाप्रेमी ग्राहकों से लबालब होती है, जबकि यहां आसपास के सैलून ज्यादा नहीं चलते. राधेश्याम का रेट भी सारे शहर के सैलूनों से सस्ता है. राधेश्याम के बारे में यहां के अखबारों में काफी कुछ छप चुका है.’’

राजेश तो राधेश्याम का गुण गाए जा रहा था और मुझे उस का यह राग जरा भी पसंद नहीं आ रहा था क्योंकि गगन टायर कंपनी वालों ने मुझे राधेश्याम का परिचय कुछ अलग ही अंदाज से दिया था.

गगन टायर का शोरूम राधेश्याम की दुकान के ठीक सामने सड़क पार कर के था. मैं उन के यहां 5 दिनों से बतौर चार्टर्ड अकाउंटेंट बहीखातों का निरीक्षण अपने सहयोगियों के साथ कर रहा था. कंपनी के अधिकारियों ने इस नाई के बारे में कहा था कि यह दिमाग से जरा खिसका हुआ है. अपनी ऊलजलूल हरकतों से यह बाजार का माहौल खराब करता है. चीखचिल्ला कर ड्रामा करता है और टोकने पर पड़ोसियों से लड़ता है.

इन 5 दिनों में राधेश्याम मुझे किसी से लड़ते हुए तो दिखा नहीं, पर लंच के समय मैं अपने कमरे की खिड़की से उस की हरकतें जरूर देख रहा था. उस की दुकान से लोगों की जोरदार हंसी और ठहाकों की आवाज मेरे लंच रूम तक पहुंचती थी.

इस कंपनी में मेरे निरीक्षण कार्य का अंतिम दिन था. मैं ने अपनी फाइनल रिपोर्ट तैयार कर के स्टेनो को दे दी थी. फोन कर के राजेश को बुलाया था. मुझे राजेश के साथ उस के घर लंच के लिए जाना था. राजेश मेरा मित्र था और मैं उस के  यहां ही ठहरा था.

राजेश मुझे लेने आया तो रिपोर्ट टाइप हो रही थी. अत: वह मेरे पास बैठ गया. राधेश्याम के बारे में राजेश के विचार सुन कर लगा जैसे मैं आसमान से नीचे गिरा हूं. तो क्या मैं अपनी आंखों से 5 दिनों तक जो कुछ देख रहा था वह भ्रम था.

पिछले दिनों काम करते हुए मेरा ध्यान नाई की दुकान की ओर बंट जाता तो मैं लावणी की तर्ज पर चलने वाले तमाशे को देखने लगता. तब एक दिन भल्ला साहब बोले थे, ‘साहब, मसखर नाई की एक्ंिटग क्या देख रहे हो, अपना जरूरी काम निबटा लो. यहां तो मटरगश्ती करने वाले लोग दिन भर बैठे रहते हैं.’

‘ऐसे लोगों के अड्डे की शिकायत पुलिस से करो,’ मैं ने सुझाव दिया.

‘हम ने सब प्रयास कर लिए,’ भल्ला साहब बोले, ‘इस की शिकायत पुलिस और यहां तक कि स्थानीय प्रशासन और मंत्री तक से कर दी है, पर इस उस्तरे वाले का बाल भी बांका नहीं होता. मीडिया के लोगों और स्थानीय नेताओं ने इस को सिर पर बैठा रखा है.’

अब राजेश ने तो मानो पासा ही पलट दिया था. रास्ते में राजेश को मैं ने टायर कंपनी के अधिकारियों की राय राधेश्याम के बारे में बताई. राजेश हंस कर बोला, ‘‘तुम इस शहर में नए हो न, इसलिए ये लोग बात को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे थे. दरअसल, राधेश्याम की चलती दुकान से उस के कई पड़ोसी दुकानदारों को ईर्ष्या है. वे राधेश्याम की दुकान हथिया कर वहां शोरूम खोलना चाहते हैं. अरे भई, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह कहावत तो तुम ने सुन रखी है न?’’

गाड़ी चलाते हुए राजेश ने एक पल को मुझे देखा फिर कहने लगा, ‘‘टायर कंपनी वालों ने पहले तो उसे रुपयों का भारी लालच दिया. जब वह उन की बातों में नहीं आया तो उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर सरकारी महकमों और पुलिस में उस की शिकायत की और इस पर भी बात न बनी तो अब उस के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह नाई बहुत बड़ी तोप है?’’

‘‘नहीं…नहीं…पर नगर का बुद्धिजीवी वर्ग उस के साथ है.’’

‘‘परंतु राजेश, मुझे उस अनपढ़ नाई की हरकतें बिलकुल भी अच्छी नहीं लगीं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम तो अभी इस शहर में 2 महीने और ठहरोगे. किसी दिन उस की दुकान पर ग्राहक बन कर जाना और स्वयं उस के स्वभाव को परखना,’’ राजेश ने चुनौती भरे स्वर में कहा.

मैं चुप हो गया. राजेश को क्या जवाब देता? मैं कभी ऐसी छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने के लिए नहीं गया. दिल्ली के मशहूर सैलून में जा कर मैं अपने बाल कटवाता था.

राजेश ने मुझे अपनी कार घूमनेफिरने और काम पर जाने के लिए सौंपी हुई थी. मैं भी राजेश की कंपनी का लेखा कार्य निशुल्क करता था. एक दिन मैं कार से नेहरू मार्ग से गुजर रहा था कि अचानक ही कार झटके लेने लगी और थोड़ी दूर तक चलने के बाद आखिरी झटका ले कर बंद हो गई. मैं ने खिड़की के बाहर झांक कर देखा तो गगन टायर कंपनी का शोरूम ठीक सामने था. मैं ने इस कंपनी का काम किया था, सोचा मदद मिलेगी. उन के दफ्तर में पहुंचा तो जी.एम. साहब नहीं थे. दूसरे कर्मचारी अपने कार्य में व्यस्त थे. एक कर्मचारी से मैं ने पूछा, ‘‘यहां पर कार मैकेनिक की दुकान कहां है?’’ उस ने बताया कि मैकेनिक की दुकान आधा किलोमीटर दूर है. मैं ने उस से कहा, ‘‘2-3 लड़के कार में धक्का लगाने के लिए चाहिए.’’

‘‘लेकिन सर, अभी तो लंच का समय चल रहा है. 1 घंटे बाद लड़के मिलेंगे. मैं भी लंच पर जा रहा हूं,’’ कह कर वह रफूचक्कर हो गया.

सड़क पर जाम लगता देख कर मैं ने किसी तरह अकेले ही गाड़ी को ठेल कर किनारे लगा दिया. इस के बाद पसीना सुखाने के लिए खड़ा हुआ तो देखता हूं कि राधेश्याम नाई की दुकान के आगे खड़ा हूं.

दुकान के ऊपर बड़े से बोर्ड पर लिखा था, ‘राधेश्याम नाई.’ इस के बाद नीचे 2 पंक्तियों का शेर था :

‘जाते हो कहां को, देखते हो किधर,

राधेश्याम की दुकान, प्यारे है इधर.’

मेरी निगाहें बरबस दुकान के अंदर चली गईं. 3-4 ग्राहक बेंच पर बैठे थे और बड़े से आईने के सामने रखी कुरसी पर बैठे एक ग्राहक की दाढ़ी राधेश्याम बना रहा था. आपस में हमारी आंखें मिलीं तो राधेश्याम एकदम से बोल पड़ा, ‘‘सेवा बताइए साहब, कोई काम है हम से क्या? यदि कटिंग करवानी है तो 1 घंटा इंतजार करना पड़ेगा.’’

‘‘कटिंग तो फिर कभी करवाएंगे, राधेश्यामजी. अभी तो मेरी कार खराब हो गई है और मैकेनिक की दुकान तक इसे पहुंचाना है, क्या करें,’’ मैं परेशान सा बोला.

‘‘गाड़ी कहां है?’’ राधेश्याम बोले.

‘‘वो रही,’’ मैं ने उंगली के इशारे से बताया.

‘‘आप जरा ठहर जाओ,’’ फिर दुकान से नीचे कूद कर, आसपास के लड़कों को नाम ले कर राधेश्याम ने आवाज लगाई तो 3-4 लड़के वहां जमा हो गए.

उन की ओर मुखातिब हो कर राधेश्याम गायक किशोर कुमार वाले अंदाज में बोला, ‘‘छोरां, मेरा 6 रुपैया 12 आना मत देना पर इन साहब की गाड़ी को धक्का मारते हुए इस्माइल मिस्त्री के पास ले जाओ. उस से कहना, राधेश्याम ने गाड़ी भेजी है, ज्यादा पैसे चार्ज न करे. और हां, गाड़ी पहुंचा कर वापस आओगे तो गरमागरम समोसे खिलाऊंगा.’’

राधेश्याम का अंदाज और संवाद मुझे पसंद आया. मैं ने 50 का नोट राधेश्याम के आगे बढ़ाया, ‘‘धन्यवाद, राधेश्यामजी… लड़कों के लिए समोसे मेरी तरफ से.’’

‘‘ये लड़के मेरे हैं साहब…समोसे भी मैं ही खिलाऊंगा. इन पैसों को रख लीजिए और अभी तो इस्माइल मैकेनिक के पास पहुंचिए. फिर कभी दाढ़ी बनवाने आएंगे तब हिसाब बराबर करेंगे,’’ राधेश्याम गंवई अंदाज में मुसकराते हुए बोला.

मेरी एक न चली. मैं मैकेनिक के पास पहुंचा. बोनट खोलने पर मालूम हुआ कि बैटरी से तार का कनेक्शन टूट गया था. उस ने तार जोड़ दिया पर पैसे नहीं लिए.

राधेश्याम से यह मेरी पहली मुलाकात थी जो मेरे हृदय पर छाप छोड़ गई थी. मैं ने शाम को राजेश से यह घटना बताई तो वह भी खूब हंसा और बोला, ‘‘राधेश्याम वक्त पर काम आने वाला व्यक्ति है.’’

मेरे मन का अहम कुछ छंटने लगा था इसलिए मैं ने मन में तय किया कि राधेश्याम की दुकान पर दाढ़ी बनवाने जरूर जाऊंगा.

रविवार के दिन राधेश्याम की दुकान पर मैं सुबह ही पहुंच गया. उस समय दुकान पर संयोग से कोई ग्राहक नहीं था. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया, ‘‘आइए साहब, लगता है कि आप दाढ़ी बनवाने आए हैं.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ मैं ने परीक्षा लेने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘क्योंकि हर बार तो आप की कार खराब नहीं हो सकती न,’’ वह हंसने लगा.

‘‘राधेश्यामजी, पिछले दिनों मेरी कार में धक्का लगवाने के लिए शुक्रिया, पर मैं ने भी आप के यहां दाढ़ी बनवाने का अपना वादा निभाया,’’ मैं ने बात शुरू की.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, हुजूर. खाकसार की दालरोटी आप जैसे कद्रदानों की बदौलत ही चल रही है. हुजूर, देखना, मैं आप की दाढ़ी कितनी मुलायम बनाता हूं. आप के गाल इतने चिकने हो जाएंगे कि इन गालों का बोसा आप की घरवाली बारबार लेना चाहेगी.’’

‘‘अरे, राधेश्यामजी अभी तो मेरी शादी ही नहीं हुई. घरवाली बोसा कैसे लेगी.’’

‘‘हुजूर, राधेश्याम से दाढ़ी बनवाते रहोगे तो इन गालों पर फिसलने वाली कोई दिलरुबा जल्दी ही मिल जाएगी.’’

‘‘हुजूर, खाकसार जानना चाहता है कि आप कहां रहते हैं, जिंसी, अनाज मंडी, छावनी या ग्वाल टोला…’’ राधेश्याम लगातार बोले जा रहा था.

‘‘मैं जूता फैक्टरी के मालिक राजेश वर्मा का मित्र हूं और उन्हीं के यहां ठहरा हूं.’’

‘‘तब तो आप इस खाकसार के भी मेहमान हुए हुजूर. राजेश बाबूजी ने आप को बताया नहीं कि मुझ से आप अपने सिर की चंपी जरूर करवाएं. दिलीप कुमार और देव आनंद तो जवानी में मुझ से ही चंपी करवाते थे,’’ यह बताते हुए राधेश्याम ने मेरे गालों पर झागदार क्रीम मलनी शुरू कर दी थी.

फिर राधेश्याम बोला, ‘‘किशोर दा, अहा, क्या गाते थे. आज भी उन की यादों को भुलाना मुश्किल है. मैं ने किशोर कुमार और अशोक कुमार की भी चंपी की है.’’

‘‘आप शायद मेरी बात को झूठ समझ रहे हैं. मैं ने फिल्मी दुनिया की बड़ी खाक छानी है और गुनगुनाना भी वहीं से सीखा है,’’ कहते हए वह ऊंचे स्वर में गाने लगा :

‘ओ मेरे मांझी, ले चल पार,

मैं इस पार, तू उस पार ओ मेरे मांझी, अब की बार ले चल पार…’

मुझे लगा कि मेरे गालों पर लगाया साबुन सूख जाएगा अगर यह आदमी इसी तरह से गाता रहा. आखिर मैं ने उसे टोका, ‘‘राधेश्याम, पहले दाढ़ी बनाओ.’’

‘‘हां…हां… हुजूर साहब,’’ और इसी के साथ वह मेरे गालों पर उस्तरा चलाने लगा. पर अधिक देर तक चुप न रह सका. बोल ही पड़ा, ‘‘सर, आप को पता है कि आप की दाढ़ी में कितने बाल हैं?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने इनकार में सिर हिला दिया.

‘‘इसी तरह इस देश में कितनी कारें होंगी. किसी भी आम आदमी को नहीं पता. सड़कों पर चाहे पैदल चलने के लिए जगह न हो पर कर्ज ले कर लोग प्रतिदिन हजारों कारें खरीद रहे हैं और वातावरण को खराब कर रहे हैं,’’ राधेश्याम ने पहेली बूझी और मैं हंस पड़ा.

इस के बाद राधेश्याम अपने हाथ का उस्तरा मुझे दिखा कर बोला, ‘‘ये उस्तरा नाई के अलावा किसकिस के हाथ में है, पता है?’’

‘‘नहीं…’’ मैं अब की बार मुसकरा कर बोला.

‘‘सब से तेज धार वाला उस्तरा हमारी सरकार के हाथ में है. नित नए टैक्स लगा कर आम आदमी की जेब काटने में लगी हुई है,’’ राधेश्याम बोला.

अब तक राधेश्याम मेरी शेव एक बार बना चुका था. दूसरी बार क्रीम वाला साबुन मेरे गालों पर लगाते हुए बोला, ‘‘यह क्रीम जो आप की दाढ़ी पर लगा रहे हैं, इस का मतलब समझे हैं आप?’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला.

‘‘लोग आजकल बहुत चालाक और चापलूस हो गए हैं. जब अपना मतलब होता है तो इस क्रीम की तरह चिकना मस्का लगा कर दूसरों को खुश कर देते हैं किंतु जब मतलब निकल जाता है तो पहचानते भी नहीं,’’ राधेश्याम अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगाने लगा.

मुझे राधेश्याम की इस तरह की उपमाएं बहुत पसंद आईं. वह एक खुशदिल इनसान लगा. मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर राधेश्याम चालू रहा और बताने लगा कि उस के घर में उस की बूढ़ी मां, पत्नी, 2 पुत्र और 1 पुत्री हैं.

पुत्री की वह शादी कर चुका था. उस का बड़ा बेटा एम.काम. कर चुका था और छोटा बी.ए. सेकंड ईयर में था. पर राधेश्याम को दुख इस बात का था कि उस का बड़ा बेटा एम.काम. करने के बाद भी पिछले 2 वर्षों से बेरोजगार था. वह सरकारी नौकरी का इच्छुक था पर उसे सरकारी नौकरी बेहद प्रयासों के बावजूद भी नहीं मिली.

अपनी दुकान से 5-6 हजार रुपए महीना राधेश्याम कमा रहा था. उस ने बेटे को सलाह दी थी कि वह दुकान में काम करे तो अभी जो दुकान 7 घंटे के लिए खुलती है उस का समय बढ़ाया जा सकता है. परंतु बेटे का तर्क था कि जब नाईगिरी ही करनी है तो एम.काम. करने का फायदा क्या था. पर राधेश्याम का कहना था कि नाईगिरी करो या कुछ और… पर काम करने की कला आनी चाहिए.

राधेश्याम की यह बात खत्म होतेहोते मेरी दाढ़ी बन चुकी थी. अब उस को अपनी असली कला मुझे दिखानी थी. उस ने अपनी बोतल से मेरे सिर पर पानी की फुहार मारी. फिर थोड़ी देर चंपी कर के सिर में कोई तेल डाला और मस्ती में अपने दोनों हाथों से मेरे सिर पर बड़ी देर तक उंगलियों से कलाबाजी दिखाता रहा.

मुझे पता नहीं सिर की कौनकौन सी नसों की मालिश हुई पर सच में आनंद आ गया. सारी थकान दूर हो गई. शरीर बेहद हलका हो गया था.

मैं राधेश्याम नाई को दिल से धन्यवाद देने लगा. उस का मेहनताना पूछा तो बोला, ‘‘कुल 20 रुपए, सरकार… यदि कटिंग भी बनवाते तो सब मिला कर 35 रुपए ले लेता.’’

मैं ने 100 का नोट निकाल कर कहा, ‘‘राधेश्याम, 20 रुपए तुम्हारी मेहनत के और शेष बख्शीश.’’

वह कुछ जवाब में कहता इस से पहले ही मैं बोल पड़ा, ‘‘देखो राधेश्याम, पहली बार तुम्हारी दुकान पर आया हूं… अनेक यादें ले कर जा रहा हूं इसलिए इसे रखना होगा. बाद में मिलने पर तुम्हारे फिल्मी दुनिया के अनुभव सुनूंगा.’’

अगले दिन ही मुझे दिल्ली लौटना पड़ा. इस के 6 माह बाद एक दिन राजेश का फोन आया कि उसे मेरी जरूरत पड़ गई है. मैं दिल्ली से राजेश के शहर में पहुंचा. 2 दिन में सारा काम निबटाया. इस के बाद दिल्ली लौटने से पहले सोचा कि राधेश्याम की दुकान पर 10 मिनट के लिए चल कर उस से मिल लूं, वह खुश हो जाएगा.

दुकान पर राधेश्याम का बड़ा लड़का मिला. वह कटिंग कर रहा था. मैं ने बड़ी व्याकुलता से पूछा, ‘‘राधेश्यामजी कहां हैं?’’

जवाब में वह फूटफूट कर रोने लगा. बोला, ‘‘पापा का पिछले महीने हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया.’’

उस के रोते हुए बेटे को मैं ने अपने सीने से लगा कर दिलासा दी. जब वह थोड़ा शांत हुआ तो मैं ने उसे अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते देख आश्चर्य प्रकट किया. कहा, ‘‘बेटे, तुम तो यह काम करना नहीं चाहते थे? क्या तुम्हारे लिए मैं नौकरी ढूंढूं. कामर्स पढ़े हो, मेरी किसी क्लाइंट की कंपनी में नौकरी लग जाएगी.’’

‘‘नहीं, अंकल, अब नौकरी नहीं करनी. पापा ठीक कहते थे कि पढ़ाई- लिखाई से आदमी का बौद्धिक विकास होता है पर सच्ची सफलता तो अपने काम को ही आगे बढ़ाने से मिलती है. नाई का काम करने से मैं छोटा नहीं बन जाऊंगा. छोटा बनूंगा, गलत काम करने से.’’

राधेश्याम के बेटे की आवाज में आत्मविश्वास झलक रहा था.

बलि : नरसिंह ने खिड़की से क्या देखा था ?

दिसंबर का महीना था. दोपहर के 2 बजे थे. सूरज चमक रहा था. अकसर 4 बजे खेतों पर आने वाला नरसिंह उस दिन 2 बजे ही आ गया था. खेत सुनसान पड़ा था. वहां सिंचाई का नामोनिशान नहीं दिखाई दे रहा था. ट्यूबवैल के चलने की भी आवाज नहीं आ रही थी. शायद बिजली नहीं थी. लेकिन उस समय तो कभी भी बिजली नहीं जाती थी. फिर क्या हुआ था? नरसिंह को कुछ समझ नहीं आया. नरसिंह ने एक बार फिर पूरे खेत पर अपनी नजर दौड़ाई. नौकर दुर्गा कहीं नहीं दिखाई दिया. बिजली नहीं होने की वजह से शायद वह अपने घर चला गया होगा.

बिजली का जायजा लेने के लिए नरसिंह ट्यूबवैल के कमरे की ओर बढ़ा. वहां दरवाजे पर ताला नहीं था, केवल सांकल लगाई जाती थी. हैरत की बात थी कि सांकल खुली हुई थी. नरसिंह कमरे का दरवाजा खोलने ही जा रहा था कि भीतर से किसी औरत और मर्द की हंसीठिठौली की आवाज सुनाई दी. नरसिंह ने अपना हाथ पीछे खींच लिया और दीवार में बने एक बड़े सूराख से भीतर देखने लगा. भीतर का नजारा देखते ही नरसिंह आगबबूला हो गया. उस का पूरा बदन पसीने से तरबतर हो गया. दरअसल, भीतर बिछी खाट पर उस की बेटी मालती और नौकर दुर्गा एकदूसरे से चिपके पड़े थे. उन के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था. नरसिंह को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मालती कालेज जाने के बहाने यहां नौकर दुर्गा के साथ कब से गुल खिला रही है. इसी उधेड़बुन में वह चुपके से वापस हो लिया और घर की तरफ चल दिया.

इधर दुर्गा मालती से कह रहा था, ‘‘मालकिन, आप बड़े घर की बेटी हैं. ऐसी गलती करना हम दोनों के लिए ठीक नहीं है.’’

‘‘दुर्गा, मैं तुम से प्यार करती हूं. मैं जानती हूं कि हमारी शादी कभी नहीं हो सकती. मेरे घर वाले नहीं मानेंगे. तुम्हारी बिरादरी के लोग भी नहीं मानेंगे. अगर हम घर से भी भागे, तो वे लोग हमें ढूंढ़ कर मार डालेंगे,’’ मालती अपने कपड़े पहनते हुए बोली.

‘‘तो भी मालकिन, ऐसा चोरीछिपे कब तक चलता रहेगा. आप रोज मेरे साथ यहां कमरे में समय बिताती हैं. अगर किसी को पता चलेगा तो…’’

‘‘तो क्या होगा…?’’ मालती बोली.

‘‘मुझे अपनी जान की परवाह नहीं है, पर आप का क्या होगा…’’ नौकर दुर्गा ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं होगा. और कुछ होगा भी तो तब देखा जाएगा. तब तक तो ऐसे ही चलने दो,’’ इतना कह कर मालती ने दुर्गा के होंठ चूम लिए. इस के बाद उस ने अपनी किताबें उठाईं और वहां से चली गई. दुर्गा ने पानी की मोटर चालू कर दी. खेतों में पानी चलने लगा था. वह फावड़ा ले कर कमरे से बाहर आ गया. दुर्गा और मालती का यह रिश्ता पिछले 6 महीने से गाढ़े से और गाढ़ा होता जा रहा था. नरसिंह के गांव के लोग हर साल अपने ग्राम देवता ‘अम्मोरू’ का उत्सव धूमधाम से मनाते थे. उस दिन गांव के सभी लोग गांव से बाहर बने देवी के मंदिर में ही रहते थे. उस मंदिर के चारों ओर नीम, पीपल, इमली वगैरह के बड़ेबड़े पेड़ लगे हुए थे. उत्सव वाले दिन गांव के हर घर की औरतें सुबहसवेरे नहा लेती थीं. वे नएनए कपड़े पहनती थीं. बड़ीबड़ी टोकरियों में देवी के भोग ‘बोनम’ का सामान रखती थीं. मंदिर के पेड़ों के नीचे 3 ईंटों से चूल्हा बनाया जाता था. मिट्टी के नए बरतनों में चावल, दाल, गुड़, नमक, हलदी वगैरह से देवी के लिए ‘बोनम’ पकाया जाता था.

नए घड़ों को धो कर उन्हें कुमकुम, हलदी और फूलों से सजाया जाता था. पकाए गए ‘बोनम’ को उन घड़ों में भरा जाता था. इस के बाद 3 या 5 के हिसाब से औरतें उन घड़ों को अपने सिर पर रखती थीं. ऐसा करने वाली औरतें सुबह से व्रत रखती थीं. उन के नए कपड़ों पर सोने चांदी के गहने भी होते थे. वे गले में फूलों के हार पहनती थीं. कुछ औरतें पैरों में घुंघरू भी बांधती थीं. हर औरत के हाथ में नीम की डंडी होती थी. इन औरतों के साथ इन के परिवार वाले भी होते थे. जुलूस में ढोलक और शहनाई बजाने वाले भी होते थे. लोग उन की धुन पर नाचते थे. कुछ औरतों में तो खुद ‘अम्मोरू’ आ जाता था. पुजारी ‘अम्मोरू’ को उतारने के लिए उन औरतों पर हलदी, कुमकुम, पवित्र पानी छिड़कता था और नीम की डंडी से हौलेहौले मारता था. पूरा जुलूस देवी के मंदिर की परिक्रमा करता था. मंदिर के बाहर चटाइयां बिछाई जाती थीं. पुजारी घड़ों में से निकाल कर आधा ‘बोनम’ चटाई पर निकाल कर रख देता था. फिर लोग जहां ‘बोनम’ पकाते थे, वहां जमा होते थे. वे पुजारी द्वारा वापस किए गए ‘बोनम’ को देवी का प्रसाद समझ कर खाते थे.

हर घर से एक मर्द नहाधो कर, नए कपड़े पहन कर सिर पर पगड़ी बांधता था. वह माथे पर कुमकुम का तिलक लगाता था. वह गले में नीम और फूलों की माला पहनता था. हाथ में नीम की डंडी पकड़ता था और देवी पर बलि चढ़ाने के लिए मुरगे, बकरी और शराब ले जाता था. तब तक देवी के मंदिर के सामने 2 पुजारी अपने हाथ में तलवार ले कर तैयार रहते थे. वहां नीम के पेड़ के नीचे ‘बलिवेदी’ थी. बलि चढ़ाने वाले जानवर का गला ‘बलिवेदी’ पर रख दिया जाता था और जानवर को मजबूती से पकड़ लिया जाता था. पुजारी अपनी तलवार से जानवर का गला काटता था. जानवर की कटी मुंडी देवी की तरफ गिरती थी और वह आदमी जानवर का धड़ वाला हिस्सा ले जाता था. यह सब सिलसिलेवार चलता रहता था. उस समय पुजारी और उन के हाथ की तलवार खून से लथपथ हो जाती थी. मंदिर के सामने खून की धारा बहती रहती थी. वहां का नजारा एकदम डरावना होता था.

उस दिन दुर्गा भी रगड़रगड़ कर नहाया था. उस ने नए कपड़े पहने थे. सिर पर पगड़ी बंधी थी. माथे पर तिलक लगाया था. उस ने 6 महीने से पाले एक बड़े से मुरगे को भी हलदी और कुमकुम लगाया था. उस के हाथ में शराब की एक बोतल भी थी. मंदिर में देवी की जयजयकार हो रही थी. लोग नाचगा रहे थे. शराब का सेवन भी हो रहा था. सुबह से शराब पीतेपीते पुजारी भी नशे में धुत्त थे. उन को सिर्फ ‘बलिवेदी’ पर रखे जानवर के सिर ही दिखाई दे रहे थे. दुर्गा लाइन में खड़ा था. जब उस की बारी आई, तो उस ने मुरगे को ‘बलिवेदी’ पर रखा. पुजारी ने तलवार उठाई. लेकिन यह क्या… मुरगे की गरदन के साथसाथ दुर्गा की गरदन भी काट दी गई. उस का जिस्म कुछ देर तड़प कर शांत हो गया. दुर्गा की ऐसी दर्दनाक मौत देख कर मंदिर में शोर मच गया. पुजारियों का शराब का नशा उतर गया. तलवारें नीचे गिर गईं. वे डर से थरथर कांप रहे थे.

गांव का मुखिया नरसिंह वहां आया. पुलिस बुलाई गई. पंचनामा हुआ. अफसरों की जेबें भर गईं. ‘ऐसा नहीं होना चाहिए था, पर देवी की यही इच्छा थी. हम कुछ नहीं कर सकते. दुर्गा धन्य था, जो देवी की बलि चढ़ गया,’ पंचनामे में ऐसा लिखा गया. नरसिंह ने दस्तखत कर दिए. इस घटना के कुछ दिन बाद नरसिंह ने पुजारी को अपने खेत पर बुलाया और उसे एक महीने के भीतर नया पक्का मकान बना कर दिए. 2 महीने के बाद नरसिंह ने अपनी बेटी मालती की धूमधाम से शादी की. पूरा गांव शादी में आया था. नरसिंह ने अपनी बेटी की शादी में उस पुजारी की पत्नी को 10 तोले सोने का हार दिया और एक चमचमाती कार भी. शादी के समय मालती 3 महीने के पेट से थी. उस के पेट में दुर्गा का अंश पल रहा था. पर चिंता किसे थी, जब देवी की कृपा थी न.

प्रेग्नेंसी में नींद नहीं आती ? इन 6 तरीकों से दूर करें परेशानी

प्रेग्नेंसी किसी भी महिला के लिए एक खास समय होता है. इस दौरान महिलाओं को खास देखभाल की जरूरत होती है. बच्चे की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि गर्भवती महिला को पूरी नींद, अच्छा खानपान और स्ट्रेस फ्री माहौल मिले. इस दौरान गर्भवती महिला के हार्मोंस में बहुत से बदलाव होते हैं जिससे उन्हें स्वास्थ संबंधी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इन परेशानियों से उनकी नींद भी प्रभावित होती है. प्रेग्नेंसी के समय गर्भवती महिलाओं को कई बार घबराहट महसूस होती है. ऐसे में ठीक तरह से नींद न आने से गर्भवती महिलाओं के साथ उनके बच्चे की सेहत पर भी बुरा असर पड़ सकता है. हम आपको कुछ टिप्स बता रहे हैं, जिन्हें फौलो कर महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भी सुकून भरी नींद ले सकेंगी.

  • रात में हल्के खाने का सेवन करें. हार्टबर्न की परेशानी से बचने के लिए मसालेदार और तली हुई चीजों से दूर रहें.
  • दिन भर कुछ ना कुछ खाते रहें. खाली पेट रहने से जी मिचलता है.
  • प्रेग्नेंसी के तीसरे महीने से कमर के बल सोने से बचें. थोड़ी थोड़ी देर पर करवट बदलती रहें. कोशिश करें कि बाईं करवट अधिक सोएं. ऐसे सोने से ब्लड सर्कुलेशन ठीक रहता है.
  • सोने से पहले हल्का म्यूजिक सुनें, इससे मन शांत रहेगा और अच्छी नींद आएगी.
  • सोने से पहले गुनगुने पानी से जरूर नहाएं. ऐसा करने से बौडी रिलैक्स होती है और नींद अच्छी आती है.
  • गर्भवती महिलाओं के लिए जरूरी है कि सोते वक्त बिस्तर के दोनों ओर तकिया जरूर लगाएं.

तपस्या : शादी के बाद भी वह उससे दूरदूर क्यों रहता था ?

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जातीय जनगणना से बदलेगा सामाजिक ढांचा

बिहार में हुई जातीय जनगणना सर्वे का पहला हिस्सा सब के सामने रख दिया गया है जिस में यह बताया गया है कि किस जाति की कितनी भागीदारी है. इस के बाद यह बहस तेज हो गई है कि किस जाति को कितनी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी.

जातीय जनगणना सर्वे रिपोर्ट के दूसरे हिस्से में यह बताया जाएगा कि किस जाति की सामाजिक व आर्थिक हालत क्या है? तब यह बहस और तेज होगी.

मंडल कमीशन लागू होने के बाद पिछड़ों में अगड़ों को अधिकार मिल गया था, अब जातीय जनगणना से बहुत पिछड़ी जातियों को हक मिल सकेगा. इस कारण ही जातीय जनगणना को मंडल पार्ट -2 भी कहा जा सकता है.

जब दलित पिछड़ा कोई काम करता है तो उसे खराब नजरों से देखा जाता है. इस की वजह यह है कि यह मापदंड सवर्णों ने ही बनाया है. जो काम और धंधे सवर्ण करते हैं उन को अच्छा और सम्मानजनक बताया जाता है. जो काम दलित और पिछड़े अच्छी तरह से करते हैं उन को गलत और धर्म विरोधी ठहरा दिया जाता है. यह काम सदियों से चला आ रहा है. शूद्र देवदासियों को तो नफरत से देखा जाता है, लेकिन सचाई यह है कि उन्होंने ही नृत्य और संगीत को बचाया. एक समय में दलित आदिवासी गांव की खुली चौपाल में नाचगाना करते थे. उस समय उन्हें हेय समझा जाता था.

पहले नृत्य, संगीत, गायन, नाटक और चित्रकला आदि पर दलितों और पिछड़ों का वर्चस्व हुआ करता था. तब इन कला और इन के कलाकारों को कमतर समझा जाता था. इन कलाकारों को नचनिया, गवैया, भांड, ढोलबाज, नट आदि कहा जाता था. जब शहरी सभ्यता विकसित हुई तब इन्हीं कलाओं को सवर्णों ने भी अपनाया तब इन को कला बता कर वाहवाही लूटी. अब इन कलाओं को सिखाने के लिए बड़ेबड़े शहरों में संस्थान, सांस्कृतिक केंद्र, कला मंडल और अकादमी स्थापित हो गए हैं, जिन पर सवर्णों का कब्जा हो गया है.

आजादी के बाद लगभग 3 दशकों तक दलितों एवं पिछड़ों की भागीदारी राजनीति में न के बराबर रही है. यदि आरक्षण की वजह से लोग चुन कर आए भी तो उन में से ज्यादातर को अलगथलग रखा गया. जब तक राजनीति पर अगड़ी जातियों का प्रभाव था, इस क्षेत्र सब से अच्छा माना जाता था. मंडल कमीशन के बाद ज्यादातर प्रांतों में सत्ता पिछड़ों के हाथ में आई है तो राजनीति को ही गंदा कहा जाने लगा.

सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वजह से दलितों एवं पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी है तो सारा सरकारी कामकाज ही भ्रष्ट और निकम्मा दिखने लगा है. हर तरफ से आवाज उठती है कि सरकारी विभाग भ्रष्ट और निकम्मे हो गए हैं और निजीकरण ही एक उपाय है. निजीकरण होने से सवर्णों का दबदबा फिर से हो जाएगा. शिक्षा का निजीकरण हुआ, जिस में आधिपत्य सवर्णों का है.

सवर्ण तादाद में कम होने के बावजूद इस तरह का प्रभाव डालते व बनाते हैं कि वह संख्या में अधिक लगें. मंडल कमीशन में यह तो बताया कि पिछड़ों की हालत क्या है? पिछड़ों की संख्या नहीं बताई. जातीय जनगणना में पिछड़ों की संख्या सामने आ गई है. ऐेसे में अब पिछड़ों के कामों को कमतर कर के देखना कठिन हो जाएगा. अब पिछड़ों को भी अपनी ताकत का अहसास हो जाएगा, जिस के बाद वह सवर्णो से दबेंगे नहीं. स्कूल और कालेजों में यह बदलाव तेजी से देखा जा सकेगा.

दूसरे राज्यों की हालत भी बिहार जैसी

बिहार में जातीय जनगणना के नतीजे प्रदेश सरकार ने जारी कर दिए हैं. इस में में अति पिछड़े सब से ज्यादा 36.01 फीसदी, अन्य पिछड़ा वर्ग 27.13 फीसदी, 19.65 फीसदी अनुसूचित जाति, सामान्य वर्ग 15.52 फीसदी और 1.68 फीसदी अनुसूचित जनजाति है.

बिहार की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ है. जातीय सर्वे के आंकड़े जारी करने वाला बिहार पहला राज्य है. इस से पहले वर्ष 1931 में जातीय सर्वे के आंकडे जारी हुए थे. धार्मिक आधार पर जब इस को देखते हैं, तो 81.99 फीसदी हिंदू और 17.70 फीसदी मुसलिम हैं.

अति पिछड़ा वर्ग की 112 जातियों की संख्या बिहार में 4 करोड़ 70 लाख है, जो कुल आबादी का 36.01 फीसदी है. पिछड़े वर्ग की 30 जातियों की कुल आबादी 3.54 करोड़ है, यह कुल आबादी का 27.12 फीसदी है. अनुसूचित जाति की कुल आबादी 2.56 करोड़ है. इस में कुल 22 जातियां शामिल हैं, यह कुल आबादी का 19.65 फीसदी है. सामान्य वर्ग की आबादी 2.02 करोड़ हैं. यह कुल आबादी का 15.52 फीसदी हैं. अनुसूचित जनजाति की 32 उपजातियों की कुल संख्या 21.99 लाख है. यह कुल आबादी का 1.68 फीसदी है. ओबीसी में यादव 14.26 फीसदी, कुशवाहा 4.27 फीसदी, कुर्मी 2.87 फीसदी और धानुक 2.13 फीसदी हैं.

वर्ष 1931 में जब जाति जनगणना हुई थी, उस समय बिहार, झारखंड और ओडिशा एकसाथ थे. वर्ष 1931 की जाति जनगणना में सब से ज्यादा आबादी यादव समुदाय की थी. जिसे उस समय ग्वाला कहा जाता था. यादवों की आबादी 34,55,000 थी.

वर्ष 2022 की जाति जनगणना में यादवों की बिहार में आबादी 14 फीसदी से ज्यादा है. नई जनगणना में ओबीसी की आबादी तकरीबन 10 फीसदी बढ़ी है. इस बार की जाति जनगणना में इस बिरादरी की कुल आबादी 1 करोड़, 86 लाख, 50 हजार, 119 है.

वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, ब्राह्मण 21 लाख, भूमिहार 9 लाख, राजपूत 14 लाख, अनुसूचित जाति 13 लाख, कुर्मी 14 लाख, बनिया 2 लाख, धोबी 4 लाख, दुसाध समुदाय 13 लाख, तेली समुदाय की आबादी 10 लाख के करीब थी.

धर्म के आधार पर पूरे भारत की 35 करोड आबादी में हिंदुओं की आबादी 22 करोड़, 44 लाख और मुसलिमों की संख्या 3 करोड़, 58 लाख थी. अभी तक जब भी जातीय आंकड़ों की बात होती थी, तो 1931 के आंकड़ों को ही सामने रखा जाता था. वर्ष 2023 में बिहार राज्य से जो आंकड़े आए, अब इन आंकड़ों के आधार पर ही बात होगी.

जिस तरह के जातीय जनगणना के नतीजे बिहार में सामने आए, कमोबेश उसी तरह के नतीजे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सामने आएंगे. उपजातियों के आंकड़ों में थोडा इधरउधर हो सकता है. ओबीसी, एससी और सामान्य वर्ग के आंकड़ों में बहुत बदलाव नहीं होगा. जब हिंदी बोली वाले 4 राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की बात करें, तो यहां सवर्ण जातियों का प्रभाव रहा है.

नए आंकड़े आने के बाद यह सामाजिक ढांचा बदलेगा. इन का प्रभाव घटेगा. ऐसे में दलित और पिछड़ों का मनोबल बढ़ेगा. यह स्कूल, कालेज, घर, सोसाइटी हर जगह पर दिखेगा.

समाज के बड़े हिस्से को मिलेगा न्याय

भारत में जातीयता स्वाभिमान के रूप में देखी जाती है. हर जाति के लोग अपना प्रभाव देखना चाहते हैं. 2023 की जनगणना के पहले ऊंची जातियों का समाज पर प्रभाव अधिक था. कम संख्या में होने के बाद भी यह पता नहीं चलता था कि ऊंची जातियों की संख्या कम है. अब यह पता चल गया है कि पूरी ऊंची जातियों को मिलाने के बाद यह तादाद केवल 15.52 फीसदी है, जबकि केवल ओबीसी की संख्या 63 फीसदी है. ऊंची जातियों में सब से प्रभावी ब्राहमण जाति की संख्या 3.66 फीसदी ही है, जबकि राजपूत बिरादरी 3.45 है.

राजनीति से ले कर सरकारी नौकरियों तक में 3.66 फीसदी ब्राहमणों की संख्या सब से अधिक है. अब घर से ले कर स्कूलकालेज और राजनीति तक में यह बात उठेगी.

लोकतंत्र में लोगों की संख्या का सब से बड़ा महत्व होता है. देश में एक मशहूर नारा है, ‘जिस की जितनी भागीदारी उस की उतनी हिस्सेदारी’. दलित और पिछड़ी जातियां इस के जरीए ही जातीय हिस्सेदारी की बात कर रही है.

जातीय जनगणना के बाद यह मांग और भी जोरशोर से उठाई जाएगी. देश में जातीय स्वाभिमान एक अलग मुददा रहा है. ऊंची जातियां कम होने के बाद भी प्रभावी रही है. वह जो भी काम करती है, उन को देखने का नजरिया अलग होता है. जातीय जनगणना को समाज को बांटने वाली बात कहना ठीक नहीं है. इस देश में जाति का महत्व हमेशा रहा है, इसलिए गणना के बाद यह बढ़ जाएगा, यह आरोप ठीक नहीं है.

बदलेगा सामाजिक ढांचा

जातीय जनगणना से सामाजिक ढांचा बदलेगा. अब यह बात सभी के सामने आ गई है कि कुल आबादी की एकचौथाई से कम जनसंख्या वाली जातियों ने नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थाओं की तीनचौथाई सीटों पर कब्जा जमाए हुए है. देश में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं, जो जातियों के ऊंचेनीचे होने से जुड़ी है. किसे कौन सी नौकरी मिलेगी और किस को किस स्कूल में दाखिला मिलेगा, इस मामले में अगड़ी मानी जाने वाली जातियों का हाल पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों से अच्छा है. जातियों के बीच असमानता का यह मसला अब मुद्दा बनेगा.

सरकार और समाज को इस असमानता को दूर करने का काम करना होगा. जातीय जनगणना इस का आधार बनेगी. ऐसे में अब बिहार के बाहर भी दूसरे राज्यों में जातीय जनगणना कराने पर जोर होगा. केंद्र सरकार ने कहा था कि जातीय जनगणना कराना प्रशासनिक रूप से मुश्किल होगा. केंद्र का यह तर्क अब काम नहीं आएगा. इस के लिए राजनीतिक दबाव पड़ेगा. 1951 से केंद्र सरकार एक नीतिगत फैसले के तहत जातीय जनगणना नहीं कराती थी.

वर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने इसी नीतिगत फैसले का हवाला देते हुए जातीय जनगणना न कराने की बात कही थी. नीतिगत फैसला यह था कि ‘जाति को आधिकारिक रूप से हतोत्साहित’ करने के लिए जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी. 70 सालों में इस नीतिगत फैसले के कारण देश और समाज में कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ा है. देश में हर स्तर पर जातिवाद कायम है. इसी तरह का बहाना बना कर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को भी दबाया गया था. इस बात के प्रमाण हैं कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के बाद पिछड़ों की हालत में सुधार हुआ है.

जातीय जनगणना से होगा अति पिछड़ों को लाभ

मंडल कमीशन का लाभ पिछड़ों में अगड़ी जातियों को मिला था. अब जातीय जनगणना के बाद यह लाभ अति पिछड़ी जातियों को भी मिल सकेगा जिस से पूरी पिछड़ी जातियों के समूह को बराबरी का हक मिल सकेगा. यह बात मंडल कमीशन के लागू करते समय भी चर्चा में आई थी. 1990 में मंडल आयोग में अनुसूचित जाति के अकेले सदस्य आरएल नाईक ने कहा था, ‘ओबीसी कैटेगरी को 2 हिस्सों में बांटा जाए. एक भाग उन जातियों का, जिन के पास अच्छीखासी जमीन है. दूसरा वर्ग उन जातियों का, जो कारीगर जातियां हैं.’

आरएल नाईक को इस बात का डर था कि अगर यह बंटवारा नहीं किया गया तो कारीगर जातियों को उन का हक नहीं मिलेगा. इसी वर्ग को बाद में अति पिछड़ा या ‘एमबीसी’ कहा गया.

बिहार की जनगणना में यह तसवीर साफ तरह से देखी जा सकती है. बिहार सरकार के जातीय जनगणना का दूसरा हिस्सा अभी सामने नहीं आया है. इस हिस्से में अलगअलग जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का विस्तार से विश्लेषण होगा. इस रिपोर्ट के बाद बहस और तेज होगी. मंडल कमीशन के बाद पिछड़ी जातियों में अगड़ों को लाभ मिला. जातीय जनगणना के बाद यह लाभ अति पिछड़ी जातियों तक पहुंचाने का काम होगा.

सरकार – कोचिंग मस्त और छात्र त्रस्त

भारत में जी-20 सम्मेलन का आयोजन हुआ. दिल्ली दुलहन की तरह सजाई गई पर दिल्ली वालों के लिए 8 से 10 सितंबर के बीच लौकडाउन जैसे हालात रहे. स्कूल, दफ्तर, मौल, बाजार सहित कई चीजें ऐसी हैं जो इन दिनों बंद रहीं. 8 सितंबर को सुबह 5 बजे से 10 सितंबर को रात 11:59 बजे तक नई दिल्ली का पूरा क्षेत्र ‘नियंत्रित क्षेत्र-ढ्ढ’ माना गया, एक तरह का कर्फ्यू एरिया.

चलो, बड़ा आयोजन था तो लोग यह सोच कर थोड़ीबहुत परेशानी झेल भी गए कि इस से नई पीढ़ी को रोजगार पाने के बेहतर अवसर मिलेंगे पर नई पीढ़ी किस हाल में है, यह जानने की फुरसत किस सत्ताधारी खादीधारी को है, यह नहीं दिखाई दिया. जी-20 सम्मेलन के ठाट से अंगड़ाई लेती दिल्ली से राजस्थान के कोटा की दूरी तकरीबन 500 किलोमीटर है और वहां जो कोचिंग संस्थानों के या दूसरे तमाम होस्टलों के कमरों की छत पर लटके लेटैस्ट तकनीक से बने ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ भी छात्रों को खुदकुशी करने से रोक नहीं पा रहे हैं, तो जान लीजिए कि दिल्ली के जी-20 सम्मेलन के सारे ताम झाम फुजूल हैं.

रविवार, 27 अगस्त, 2023 को कोटा में 2 बच्चों ने पढ़ाई के बोझ तले दब कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली. एक बिहार के रोहतास जिले का आदर्श राज था तो दूसरा महाराष्ट्र के पिछड़े जिले लातूर का रहने वाला अविष्कार संभाजी कासले. पहला महज 18 साल का था और दूसरा तो अभी 16 साल का ही हुआ था.

 

देश से विदेश पढ़ने जाने वालों की संख्या 7 लाख क्यों पार कर गई. शिक्षा मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार, 2022 में 7,70,000 से अधिक भारतीय छात्र अध्ययन के लिए विदेश गए, जो 6 साल का उच्चतम स्तर है.

 

चिट्ठी में छिपा दर्द

जान देने वाले एक छात्र की लिखी आखिरी चिट्ठी के अंश देखिए :

‘अभिनव मेरे भाई, तुम कभी कोटा न आना. मैं नहीं चाहता कि तुम भी मेरी तरह दिमागी रूप से परेशान हो जाओ. मैं यहां सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई करता हूं. अकेला हो गया हूं. मोबाइल है नहीं तो कई दिनों से यह लैटर लिख रहा हूं. जब मौका मिल पाया था तब भेजा.

‘अभिनव, तुम पेंटिंग बनाओ. सोशल मीडिया का इस्तेमाल करो. हो सकता है कि तुम को घर बैठे ही कहीं से और्डर आ जाएं. तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बन जाओ.

‘अंत में मम्मीपापा, एक बात आप से बताना भूल गया. भूला नहीं शायद हिम्मत नहीं जुटा पाया. पिछले हफ्ते एक टैस्ट हुआ था, पापा. 50 मार्क्स का था. मैं 35 नंबर ला पाया, जो क्लास में सब से कम थे. सब के नंबर अच्छे थे. कोचिंग वाले बोले कि मार्कशीट घर जाएगी. शायद अब तक पोस्ट भी हो गई होगी, लेकिन उस से पहले मैं आप सभी से माफी मांग रहा हूं. मम्मीपापा, आप का सपना अब अभिनव पूरा करेगा. मैं उस लायक नहीं बना.

‘अभिनव, तुम रोना नहीं. बस, यह सोच लेना भैया का सपना भी तुम को पूरा करना है.

‘अलविदा.’

राजस्थान के कोटा को आईआईटी और नीट के इम्तिहान को क्रैक करने का हब माना जाता है. यह अपनी पढ़ाई के लिए इतना ज्यादा मशहूर है कि ‘कोटा मौडल’ की चर्चा दुनियाभर में होती है. यही वजह है कि कोटा में हर साल उच्च शिक्षा की तैयारी करने के लिए आने वाले छात्रों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है.

साल 2021-22 में यहां 1,15,000 छात्र कोचिंग के लिए पहुंचे थे तो 2023-24 में यह आंकड़ा 2,05,000 तक पहुंच गया है. कोटा में कोचिंग इंडस्ट्री की कुल नैटवर्थ तकरीबन 5,000 करोड़ रुपए है. यहां 3,000 से ज्यादा होस्टल, 1,800 मैस और 25,000 पीजी कमरे हैं.

कहने का मतलब है कि कोटा में पढ़ाई के संसाधन इतने ज्यादा मजबूत हैं कि ‘कोटा मौडल’ अपनेआप में एक मिसाल बन गया है, जहां छात्रों के लिए शानदार कोचिंग सैंटर, पढ़ाने के लिए उम्दा टीचर, एक से बढ़ कर एक लाइब्रेरी, पढ़ने की लाजवाब सामग्री… और भी न जाने क्याक्या मुहैया है. इस सब से छात्रों को यह लगने लगता है कि जो कोटा से पढ़ लेगा वह डाक्टर या इंजीनियर तो बन ही जाएगा.

लेकिन इसी ‘कोटा मौडल’ का एक भयावह रूप भी है. इस साल वहां 24 छात्र पढ़ाई और मानसिक दबाव में अपनी जान दे चुके हैं. हालात इतने बदतर हो रहे हैं कि वहां कोचिंग संस्थानों और होस्टलों में ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ लगाने के आदेश जारी होने के बाद भी रविवार, 27 अगस्त, 2023 को 4 घंटे के भीतर 2 छात्रों ने अपनी जान दे दी थी.

आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2015 में 17 छात्रों ने सुसाइड किया, जबकि साल 2016 में 16, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 8, 2020 में 4 और 2022 में 15 छात्रों ने अपनी जान दे दी.

दरअसल, कोटा का एजुकेशन सिस्टम सारे देश में फैल चुका है और हर जगह अब हर तरह से फेल होता नजर आ रहा है. हर शहर में कोचिंग मैनेजमैंट चरमरा गया लगता है और छात्रों को इंसान कम, फीस भरने का एटीएम ज्यादा सम   झा जाने लगा है.

कोचिंग सिस्टम के अपने ही कायदे बने हुए हैं. वे 9वीं क्लास से ही आईआईटी और नीट के लिए कोर्स शुरू कर देते हैं. कोचिंग संस्थानों में एक साल में एक बच्चे के रहने का खर्च तकरीबन ढाई लाख रुपए के आसपास का है. एक से डेढ़ लाख रुपए कोचिंग की फीस है. इस के अलावा बच्चों के दूसरे तमाम खर्चे भी होते हैं. सबकुछ जोड़ कर देखें तो एक साल में एक बच्चे पर तकरीबन 4 लाख रुपए तक भी खर्च हो जाते हैं.

प्रतियोगिता के इस दौर में कोचिंग एक आवश्यक शर्त बन गई है. पिछले लगभग 25 सालों में तो इस क्षेत्र में बहुत उबाल आया है. कोचिंग की बढ़ती मांग को देखते हुए लोगों ने अपनी मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़ कर देशभर में कोचिंग सैंटरों शुरू कर दिए हैं. अनगिनत मातापिता के ख्वाब पलते हैं इन कोचिंग सैंटर के तले, क्योंकि ख्वाब, दरअसल बच्चों के नहीं मातापिता के होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाने का माध्यम बच्चे होते हैं. मगर उन का क्या जिन्होंने अपने पैसे लगाए और बच्चा भी खो दिया.

 

भारत लगभग 1,000 विश्वविघालयों और 40,000 कालेजों के साथ दुनिया की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करता है पर वास्तविकता यह है कि इतनी बड़ी चेन होते हुए भी अधिकतर छात्र उन कालेजों या कोर्सों में एडमिशन नहीं ले पाते जिन में वे लेना चाहते हैं और उन्हें अपने भविष्य व सपनों के साथ समझौता करना पड़ता है.

 

स्टूडैंट हो रहे तनाव का शिकार

मौत का गलियारा बने कोटा शहर को ही ले लीजिए. यहां कोचिंग सैंटरों की भरमार है. पूरा शहर तैयारी करने वाले छात्रों से अटा पड़ा है. छात्र अपने घर से दूर चाहेअनचाहे माहौल में रहने को मजबूर हो जाते हैं. अधिकांश 15-16 साल की उम्र यानी 10वीं के बाद ही वहां के स्कूलों में प्राइवेट एडमिशन ले लेते हैं, मगर समय कोचिंग संस्थान में बिताते हैं. बननेबिगड़ने की इस उम्र में छात्र भावनात्मक रूप से संवेदनशील होते हैं. महीनेमहीने में होने वाले टैस्ट में बेहतर करने का प्रैशर तो होता ही है, फोन पर मातापिता की हिदायतें भी, ‘हम इतने पैसे खर्च कर रहे हैं, तुम्हें अच्छी रैंक ले कर आनी है.’ इस जैसी ही कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बातें उन्हें सम   झनी होती हैं. यहां से शुरू होता है दबाव में आने का सिलसिला. हर तरह के छात्र यहां पर होते हैं, जिन का आर्थिक स्तर भी भिन्नभिन्न होता है. दूसरे से तुलना करने पर खुद को कमजोर पाना भी इस उम्र में कहीं न कहीं सालता है.

कुछ व्यवहार से इतने भावुक होते हैं कि वे मातापिता को शतप्रतिशत न दे पाने के बाद से तनावग्रस्त हो जाते हैं और कई बार मौत को गले लगा लेते हैं. मलाल के सिवा कुछ नहीं बचता पेरैंट्स के पास. कई मातापिता अपनी पूंजी, चलअचल संपत्ति को बंधक रख कर भी बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं.

आजकल कक्षा 7-8 से बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की कोचिंग, कोडिंग कराना एक शौक बन गया है. इस की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी हम सम   झते हैं.

विदेशों का उदाहरण लें तो वहां बच्चों को इन मामलों में स्वतंत्र छोड़ा जाता है. उस की अभिरुचि को परखने के बाद ही उसे किसी क्षेत्र विशेष में भेजा जाता है.

शहरशहर बनते कोचिंग हब

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून तो शुरू से ही एजुकेशन हब रही है. वहां अनेक कोचिंग सैंटर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं. उन कोचिंग सैंटरों में नोट्स तैयार करवाना, परीक्षा की तैयारी वाले वीडियो लैक्चर, फैकल्टी के साथ लाइव क्लासेज, चैट सुविधा भी उपलब्ध होती है. दैनिक टैस्ट सीरीज भी वहां पर करवाई जाती हैं. सिविल सेवा के अंतर्गत आईएएस, पीसीएस सेवाओं में इन संस्थानों के मार्गदर्शन में छात्रों का चयन भी हुआ है. लेकिन शिक्षा का व्यवसायीकरण पिछले कुछ सालों में बेहिसाब हुआ है. बैंकिंग, एसएससी, रेलवे, एनडीए, सीडीएस जैसी कई परीक्षाएं हैं, जिन के लिए कोचिंग का सहारा लिया जाता है. कई कोचिंग संस्थान ऐसे हैं जहां शिक्षक काबिल नहीं होते. छात्रों को कुछ सम   झ में नहीं आता. केवल समय बरबाद होता है. कुछ खास छात्रों पर खास ध्यान देना भी कमजोर छात्रों के साथ नाइंसाफी है. ज्यादातर संस्थाओं का उद्देश्य पैसा कमाना होता है.

उत्तराखंड लोक सेवा आयोग की ओर से आयोजित पटवारी भरती परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होने के बाद जांच से बचने के लिए कई कोचिंग सैंटर संचालक भूमिगत हो गए थे. इन आरोपियों के संबंध कोचिंग सैंटर संचालकों से होने की बात सामने आई.

हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में मोटी फीस ले कर चलने वाले कोचिंग सैंटर के संचालक घेरे में आए. ये संचालक बड़ीबड़ी संपत्तियों के मालिक हैं. 8 जनवरी को पटवारी परीक्षा हुई थी पर पेपर पहले ही लीक हो गया था.

 

एनईपी 2020 (नई शिक्षा नीति) कहती है, हमें अपनी जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. सरकार शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्माद का केवल 2.9 प्रतिशत ही खर्च कर रही है, जबकि, काफी समय से शिक्षाविदों की मांग रही है कि शिक्षा बजट को 10 प्रतिशत तक बढ़ाए जाने की जरूरत है.

 

गलाकाट प्रतियोगिता

सैल्फ स्टडी का महत्त्व आज भी बरकरार है. लेकिन एकदूसरे से आगे निकलने की होड़ ने कोचिंग के व्यापार को फलनेफूलने में मदद की है. इस से छात्रों का स्ट्रैस लैवल बढ़ता है, दिनचर्या बहुत कष्टकारी हो जाती है. बड़े शहरों के कई प्राइवेट स्कूल जो कोचिंग कराते हैं, उन का भी यही हाल है. स्कूल से छुट्टी के एक घंटे बाद फिर से कोचिंग की ओर कदम. दिमाग कितना ग्रहण कर पाएगा आखिरकार?

हर घर में एक या 2 बच्चे हैं. मातापिता का एकमात्र उद्देश्य कमाना और बच्चे को बेहतर एजुकेशन देना है. ऐसे बचपन को जब स्नेह, दुलार और संबल नहीं मिलता तो वह संवेदनशील हो जाता है. समय बीतने के साथ उन के लिए घर से बाहर भी एडजस्ट करना मुश्किल हो जाता है. बीती 12 फरवरी को गुजरात के रहने वाले इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के छात्र ने आईआईटी, मुंबई में आत्महत्या कर ली थी, जहां पर प्रवेश पाना ही बहुत बड़ी बात है.

ऐसे क्या कारण रहे होंगे, क्या तनाव रहा होगा इस बच्चे को. हमारी मौजूदा परीक्षा प्रणाली तनाव को बढ़ावा देने वाली है. आईएएस परीक्षा सब से कठिन परीक्षा मानी जाती है, उस के बाद आईआईटी विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आयोजित होने वाली परीक्षा. निर्धारित कटऔफ भी तनाव का कारण बनती है. 90 फीसदी से अधिक अंक न आ पाने पर भविष्य अंधकारमय लगता है.

समाज का नजरिया ही कुछ ऐसा है. छात्र अलगअलग कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं. भारत में हर एक घंटे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है. 130 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में महज 5,000 ही मनोचिकित्सक हैं. मानसिक बीमारी को हमारे देश में बीमारी ही नहीं सम   झा जाता है. वर्ष 2014 से 2016 तक 26,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की थी.

हैरानी तो यह कि सब से समृद्ध राज्य महाराष्ट्र इन में पहले स्थान पर था. मनचाहे कालेज में प्रवेश न मिलना भी एक बहुत बड़ा कारक है. मातापिता सम   झदारी से काम लें. अपनी उम्मीदों का बो   झ अपने बच्चों पर न लादें.

भारत में कोचिंग व्यवसाय के बारे में पुणे स्थित कंसलटैंसी फर्म इन्फिनियम रिसर्च की सूचना के अनुसार, भारत का मौजूदा कोचिंग बाजार राजस्व 58,000 करोड़ रुपए से अधिक है, जिस के आने वाले 5-6 वर्षों में बढ़ कर 1 लाख, 34 हजार करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.

अगर आज से 25-30 वर्ष पीछे जाएं तो देश में कोचिंग सैंटरों की संख्या काफी कम थी. धीरेधीरे गलाकाट प्रतिस्पर्धा होने लगी. कालेज में सीटें कम और अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ने लगी. ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति में इन कोचिंग सैंटरों ने कमान संभाली. बस, फिर समय के साथ यह हर छात्र की आवश्यकता बन गई.

इस की आड़ में छोटे कसबाई इलाकों में कुकुरमुत्ते की तरह कोचिंग सैंटर खुल गए, जहां पर गुणवत्ता नगण्य थी. लेकिन छात्र उन्हें भी मिल रहे हैं, क्योंकि अभिभावक आंख बंद किए हुए हैं या गुणवत्ता की उन्हें पहचान नहीं. दिल्ली में कई बस्तियां कोचिंग हब बन चुकी हैं. जगहजगह दुकानों की जगह कोचिंग सैंटर ले रहे हैं.

 

इस साल करीब 3,04,699 विद्यार्थियों ने डीयू के केंद्रीय विश्वविद्यालय सीयूईटी के माध्यम से डीयू की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया. यहां हम केवल स्नातक या बीए की बात कर रहे हैं जबकि डीयू में केवल 59,554 सीटें ही हैं. ऐसे में जिन छात्रों का एडमिशन नहीं हो पाएगा, वे कहां जाएंगे ?

 

जरूरत क्यों बने कोचिंग सैंटर

कई कोचिंग सैंटर तो छात्रों से भी सौदा कर लेते हैं. इश्तिहार में सफल छात्रों की तसवीर अपने पासआउट छात्रों के तौर पर लगा देते हैं ताकि दूसरे छात्र भी संस्थान से प्रभावित हो कर वहां प्रवेश ले लें. तरहतरह के हथकंडे कुछ संस्थानों द्वारा अपनाए जाते हैं.

मगर कोचिंग सैंटरों की इतनी आवश्यकता क्यों पड़ी? अगर इस बारे में गौर करें तो देखते हैं कि किसी भी परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम अहर्ता तो छात्र प्राप्त कर ही लेता है. उस के बावजूद उसे कोचिंग लेनी होती है. इस का एक स्पष्ट और साधारण कारण यही है कि छात्र स्कूली और विश्वविद्यालय शिक्षा में संपूर्ण और अपेक्षित ज्ञान अर्जित नहीं कर पाता है. हिंदी बैल्ट के छात्र इंग्लिश में पढ़ाई नहीं सम   झ पाते तो उन के मन में हीनभावना घर कर जाती है. शिक्षा के निजीकरण ने भी इस समस्या को काफी हद तक बढ़ाया है.

वैधअवैध हर तरह के सैंटर हैं, जहां सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जाती है और दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. बिजली उपकरणों को सुरक्षित और मानकों के अनुसार लगाने की आवश्यकता है पर कई जगह ये सैंटर बिना एनओसी पर चलते हैं, जब तक धरपकड़ न हो जाए. दुकानों, छोटे कमरों, बेसमैंट तक में कोचिंग का व्यवसाय फलफूल रहा है.

कोटा शहर में तो यह आलम है कि देश के अलगअलग हिस्सों से मांएं अपने बच्चों के साथ कमरा ले कर यहां रह रही हैं पर यह शिक्षा प्रणाली का दोष ही कहा जाएगा कि आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. वर्ष 2022 में 20 छात्रों की मौत हुई, जिन में से 18 ने आत्महत्या की थी. छात्रों में तनाव का होना एक गंभीर मुद्दा है. यह बात अलग है कि काउंसलिंग की नाममात्र की सुविधा हमारे छात्रों को प्राप्त है. वर्ष 2019 से 2022 तक 53 आत्महत्या के मामले आए हैं.

 

सरकार के अनुसाल, 2014 के बाद से भारत में 5709 कालेज, 320 नए विश्वविद्यालय खोले गए, अब देश में कुल 23 आईआईटी, 25 आईआईआईटी, 20 आईआईएम और 22 एम्स हैं. शिक्षा का बजट दोगुना कर दिया गया. ये सब कागजों में दिखाई पड़ते हैं, धरातल पर नहीं और कितने सरकारी कितने निजी इस का स्पष्ट आंकड़ा जारी नहीं किया जाता.

 

छात्रों की काउंसलिंग बहुत आवश्यक है. कोचिंग के मंथली टैस्ट में पिछड़ जाना, आत्मविश्वास की कमी, पढ़ाई संबंधित तनाव, आर्थिक तंगी या किसी तरह की भावनात्मक टूटन जैसे कई कारण हो सकते हैं, जो बच्चे को आत्मघाती कदम उठा लेने की ओर धकेलते हैं.

शारीरिक गतिविधियां, खेलकूद, योग, मनोरंजन इन होस्टलर्स के लिए जरूरी है. होम सिकनैस भी एक बहुत बड़ा कारण है. इस उम्र में छात्र अपनी परेशानी मांबाप से कह नहीं पाता. कई बार संस्थान में ब्रेक के दौरान भी वे घर नहीं जाते, क्योंकि उन्हें पढ़ाई में पिछड़ने का डर रहता है. लेकिन घर की याद मन ही मन उन का पीछा करती है. बच्चा घर से बाहर रह रहा हो तो उस के रैगुलर संपर्क में रहें. सम   झने की कोशिश करें कि उसे कोई समस्या तो नहीं है. उसे बताएं कि जीवन और स्वास्थ्य पहली जरूरत है. हर कोई पढ़ाई पर विशेष मुकाम हासिल नहीं कर सकता. सब की अपनीअपनी क्षमता है और समाज में हर तरह के लोगों की जरूरत है.

कोई लड़का या लड़की जितना भी कर रहा है, उसे प्रोत्साहित करें. अगर वह काबिल नहीं है तो उसे हतोत्साहित न करें. कोई न कोई काम उस के लिए अवश्य नियत है.

अन्य व्यवसायों की तरह कोचिंग भी एक व्यवसाय बन गया है और संस्थान के अधिकारी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना अपना उद्देश्य सम   झते हैं, जिस से बेवजह मातापिता की जेब कटती है. लेकिन इस प्रवृत्ति पर रोक लगा पाना तभी संभव होगा जब सरकार की स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा ठोस हो और 12वीं के बाद प्रवेश पाने की प्रक्रिया थोड़ी सरल बना दी जाए और छात्रों को बेवजह कोचिंग की सहायता की आवश्यकता न हो.

 

भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 और 2019 के बीच विदेश में पढ़ाई करने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीय छात्र घर लौटने पर रोजगार सुरक्षित करने में सफल रहे.

 

सरकार है कठघरे में

अभी हम ने जिस ‘कोटा मौडल’ का पोस्टमार्टम किया है, वहां सरकार से ज्यादा कोटा के कोचिंग संस्थान और छात्रछात्राओं के मांबाप ही कुसूरवार नजर आ रहे हैं पर इन हालात की जड़ में सरकार की वे योजनाएं हैं जो शिक्षा का व्यावसायीकरण करने की जिम्म्मेदार हैं. कोटा में युवाओं की मौत में गुनाहगार के तौर पर सरकार को कठघरे में खड़ा होना चाहिए था पर उसे तो कोचिंग संस्थानों और मांबाप ने बाइज्जत बरी कर दिया है.

ऐसा नहीं है कि पहले देश में प्राइवेट शिक्षा का चलन नहीं था पर अपने समय में कांग्रेस ने खूब सरकारी स्कूल और कालेज बनवाए थे. वहां शिक्षा का स्तर भी बहुत अच्छा था और अब भी है पर पिछले कुछ वर्षों से देश में शिक्षा का जो निजीकरण हुआ है, उस से देश में एक असंतुलन सा बढ़ गया है.

आप भगवाई चश्मा पहन कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नीतियों में कितनी भी कमियां निकाल दीजिए पर जिस तरह उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों और वहां की पढ़ाई का स्टैंडर्ड बढ़ाया है, वह तारीफ के काबिल है.

पर यह सफलता ऊंट के मुंह में जीरा है. कड़वी सचाई तो यह है कि शिक्षा अपनेआप में विभाजन पैदा करने का एक माध्यम बन गई है. एक अमीर मातापिता के बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलेगी और गरीब मातापिता का बच्चा बुनियादी शिक्षा भी नहीं पा सकता है.

कोढ़़ पर खाज यह है कि सरकार के बढ़ावे पर प्राइवेट स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटियों की देश में बाढ़ सी आ गई है और शिक्षण संस्थानों को चलाना एक लाभदायक व्यवसाय बन गया है. सरकारी शिक्षण संस्थानों में कम सीटें होती हैं तो मजबूरी के चलते छात्र प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेते हैं, जहां वे अपने लाभ के अनुसार छात्रों से फीस लेते हैं.

देश में हर साल 12वीं पास करने वाले छात्रों की तादाद 1 करोड़ से ज्यादा है. साल 2022 में 1 करोड़, 43 लाख बच्चे 12वीं के एग्जाम में बैठे थे और उन में से 1 करोड़, 24 लाख छात्र पास हो गए थे. अब सरकार के पास क्या इन 1 करोड़, 24 लाख छात्रों को आगे मुफ्त या कम खर्च के हिसाब से पढ़ाई जारी रखने का इंफ्रास्ट्रक्चर है? नहीं है.

सरकारें इन छात्रों की बातें ही नहीं करती हैं क्योंकि देश चलाने वाले अब बिलकुल नहीं चाहते कि ज्यादातर गरीब तबके के ये सब छात्र पढ़लिख कर अमीरों की बराबरी कर लें, इसलिए डाक्टरी की ऊंची पढ़ाई में सिर्फ 8,500 सीटें सरकारी मैडिकल कालेजों में हैं. प्राइवेट कालेजों में और 47,415 सीटें हैं, जिन में खर्च लाखों का है. मैडिकल पोस्ट ग्रेजुएशन की फीस तो करोड़ों में जा पहुंची है. इंजीनियरिंग कालेजों में सरकारी कालेजों की 15,53,809 सीटें हैं पर आईआईटी जैसे इंस्टिट्यूटों की सीटें मुश्किल से 10,000-12,000 हैं जहां फीस 10-15 लाख रुपए तक होती है.

आर्ट्स स्ट्रीम की बात करते हैं. मान लो किसी सरकारी कालेज में पूरे साल की फीस 15,000 रुपए है तो प्राइवेट कालेज में यह फीस एक लाख सालाना से भी ज्यादा हो सकती है. चूंकि ये संस्थान शहर से थोड़ा दूर होते हैं तो वहां होस्टल आदि में रहने का खर्च डेढ़ से 2 लाख रुपए सालाना तक पड़ जाता है. अगर कोई प्रोफैशनल कोर्स कर रहा है तो कम से कम 10 लाख से 15 लाख रुपए का खर्च आ सकता है पर वहां की समस्या ही दूसरी है. वहां के ज्यादातर छात्र हिंदी लिखने में तकरीबन सिफर होते हैं और इंगलिश भी उन की माशाअल्लाह होती है.

सस्ती शिक्षा क्यों नहीं

सरकार की गलत नीतियों का असर है कि हर राज्य में जितने भी प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं, वे ज्यादातर नेताओं या उन के नातेरिश्तेदारों के हैं. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कई साल पहले एक मुद्दा उठाते हुए कहा था कि जनता को पता चलना चाहिए कि पूरे देश में कितने प्राइवेट स्कूल नेताओं के हैं और किनकिन स्कूलों के बोर्ड में नेता और अफसर हैं.

जाहिर है सरकारी शिक्षा की क्वालिटी और उपलब्धता बेहतर कर दें तो शिक्षा का निजीकरण अपनेआप कम होने लगेगा, यानी सरकार को शिक्षा का स्तर बेहतर बनाने की जरूरत है. इस के लिए केंद्र व राज्यों की सभी सरकारों को जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी. स्कूल में, क्लास में क्वालिटी एजुकेशन का माहौल तैयार करना पड़ेगा.

सरकारी स्कूलों में एकएक क्लासरूम में 100-100 छात्रों को बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ती है. ऐसी व्यवस्था करने की जरूरत है जहां हर क्लासरूम में ज्यादा से ज्यादा 40 बच्चे हों, तभी लोगों का भरोसा सरकारी स्कूलों के प्रति बढ़ेगा. सरकारी स्कूलों के बच्चों के अंदर वही आत्मविश्वास भरने की जरूरत है जैसा आत्मविश्वास भरने का दावा प्राइवेट स्कूल वाले करते हैं, तब लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की जगह सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू करेंगे.

नीयत में खोट

अगर भारत के संविधान की बात करें तो अनुच्छेद 21-क सरकार को निर्देशित करता है कि शिक्षा मौलिक अधिकार है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य में 6 से 14 वर्ष के आयु समूह में सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करे, जिस के लिए सरकार ने सरकारी स्कूल खुलवाए भी हैं पर पिछले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बिगड़ गया है. शिक्षा माफिया ने राजनीतिक और सरकारी तंत्र से गठजोड़ कर नियोजित ढंग से सरकारी स्कूलों की कमर तोड़ दी है ताकि इन की दुकान चलती रहे.

वर्तमान सरकार दावा करती है कि पिछले 9 साल में देश में सड़कों का जाल बिछ गया है, हाईवे ही हाईवे दिखाई देने लगे हैं पर सवाल है कि उन पर चलेगा कौन? बड़ीबड़ी गाडि़यों वाले ही न? पर उन साइकिल वालों का क्या होगा जो देश की रीढ़ की हड्डी हैं? वे जो कारखानों, मिलों और बड़ीबड़ी इंडस्ट्री में मेहनतकश हैं, क्या वे इन सड़कों से कोई फायदा ले पाएंगे? एकदम न के बराबर. अगर वे और उन के होशियार युवा डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं तो इस में गलत क्या है? उन्हें सस्ती शिक्षा क्यों नहीं दे पाती है सरकार?

दरअसल सरकार की नीयत ही नहीं है कि गरीब का बेटाबेटी ऊंचे दर्जे का हाकिम बन जाए. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो एजेंडा ही यह है कि वंचित समाज ‘मंदिर बनाओ’ अभियान में ही बिजी रहे. वह उन का परमानैंट कारसेवक बन जाए, जिसे एक आवाज पर सड़क पर उतार दिया जाए बवाल मचाने के लिए. तभी तो जब जी-20 सम्मेलन हुआ, तब दिल्ली से आम आदमी नदारद हो गया और किसी नूंह दंगे जैसी साजिश रचने की जरूरत ही नहीं पड़ी.

– साथ में अमृता पांडे

Akshay kumar की फिल्म ‘मिशन रानीगंज’ के कौन हैं रियल लाइफ स्टार ‘जसवंत सिंह गिल’ ?

Akshay Kumar Movie Mission Raniganj : बॉलीवुड एक्टर ”अक्षय कुमार” की मोस्ट अवेटेड फिल्म ‘मिशन रानीगंज’ आखिरकार रिलीज हो गई है. बीते कई दिनों से खिलाड़ी कुमार इस फिल्म को लेकर सुर्खियों में बने हुए हैं. जब से फिल्म का ट्रेलर रिलीज किया गया है, तभी से लोग ‘मिशन रानीगंज’ की कहानी को देखने के लिए उत्सुक हैं.

लेकिन क्या आपको पता है कि अभिनेता ”अक्षय कुमार” और अभिनेत्री ”परिणीति चोपड़ा” स्टारर फिल्म ‘मिशन रानीगंज’की कहानी सच्ची घटना पर आधारित है ? फिल्म में अक्षय ने दिवंगत ‘सरदार जसवंत सिंह गिल’ (Jaswant Singh Gill) का किरदार निभाया है. तो आइए विस्तार से जानते हैं जसवंत सिंह गिल के बारे में.

जानें कौन हैं जसवन्त सिंह

जसवन्त सिंह का जन्म 22 नवंबर, 1939 में अमृतसर के सथियाला में हुआ था. उन्होंने खालसा स्कूल से अपनी पढ़ाई की व खालसा कॉलेज से ही ग्रेजुएशन किया था. ग्रेजुएशन करने के बाद फिर उन्होंने कोल इंडिया लिमिटेड में नौकरी करनी शुरू कर दी. कोल इंडिया लिमिटेड में नौकरी करने के दौरान उन्होंने (Jaswant Singh Gill) एक ऐसा काम किया जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है.

जानें कैसे और कब सिंह ने बचाई थी 65 लोगों की जान ?

दरअसल, 13 नंबवर 1989 को पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महाबीर कोयला खदान में 65 मजदूर फंस गए थे. खदान में लगातार पानी भर रहा था और मजदूरों की जान खतरे में थी. हालांकि सभी लोग अलग-अलग तरीकों से मजदूरों की जीन बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सभी तरीके असफल हो रहे थे. इस बीच 6 छह मजदूरों की मौत की खबर आई. फिर कोल इंडिया में काम करने वाले ”सरदार जसवन्त सिंह गिल” ने खदान में जाने का जोखिम भरा फैसला किया.

इसके लिए खदान में एक नया बोर ड्रिल किया गया. साथ ही स्टील का एक कैप्सूल बनाकर उसके साथ ”जसवंत सिंह” खदान में गए, जिसके जरिए मजदूरों को एक-एक करके बाहर निकाला गया. गौरतलब है कि अपनी बहादुरी से ‘जसवंत सिंह’ (Jaswant Singh Gill) ने महज 48 घंटों के अंदर ही 65 लोगों की जान बचाई थी, जिसके लिए उन्हें कई अवार्ड्स भी दिए जा चुके हैं. इसके अलावा उनकी बहादूरी के लिए उनका नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स’ के साथ-साथ ‘वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स’ में भी दर्ज किया गया है. वहीं 26 नवंबर, 2019 को उनका निधन हो गया.

जानें कब रिलीज हुई फिल्म ?

आपको बताते चलें कि पूजा एंटरटेनमेंट द्वारा निर्मित ‘मिशन रानीगंज’ (Mission Raniganj) एक सर्वाइवल थ्रिलर फिल्म है. जिसका निर्देशन टीनू सुरेश देसाई ने किया है और कहानी विपुल के रावल ने लिखी है. अक्षय की इस फिल्म में पश्चिम बंगाल के ‘रानीगंज कोलफील्ड्स’ के हादसे को ही दिखाया गया है. जो बड़े पर्दे पर आज यानी 6 अक्टूबर 2023 को रिलीज हो चुकी हैं.

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