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पीएम मोदी का भाषण और वास्तविकता

जिसे समूचा विपक्ष अहंकार कहता नजर आया, असल में वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लड़खड़ाता आत्मविश्वास है जो देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री सब्र खोने लगे हैं और अपनी कुरसी की ख्वाहिश को लालकिले के भाषण में जताने से भी नहीं चूके.

‘‘मैं अगले साल झंडा फहराने और उपलब्धियां गिनाने फिर आऊंगा…’’ यह वाक्य नरेंद्र मोदी के अंदर गहराते डर को बयां करता है. यह डर 12 अगस्त को मध्य प्रदेश के सागर में भी व्यक्त हुआ था जब उन्होंने दलित समाज सुधारक रविदास के स्मारक स्थल का भूमिपूजन किया था. तब भी उन्होंने कहा था कि जिस स्मारक की आज आधारशिला रख कर जा रहा हूं उस का लोकार्पण करने मैं ही सालडेढ़साल बाद आऊंगा.

अब जबकि लोकसभा चुनाव में 9 महीने ही बचे हैं तब यह बेहद जरूरी हो जाता है कि नरेंद्र मोदी के भाषणों का तथ्यों, राजनीति व मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए. राजनीतिक विश्लेषण करने की जिम्मेदारी तो विपक्ष और मीडिया का एक, छोटा सा ही सही, हिस्सा निभा ही रहा है. लालकिले से प्रधानमंत्री का 15 अगस्त का भाषण महज भाषण नहीं होता बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी होता है. इस बार नरेंद्र मोदी ने इस दस्तावेज पर प्रमुख रूप से जो लिखा उस पर एक नजर डालें तो उस में उन का कुरसी प्रेम और सत्ता खो देने का भय ही नजर आता है.

यह अहंकार क्यों?

सागर में उन्होंने यह नहीं कहा था कि डेढ़ साल बाद जब मैं आऊंगा तो आप लोगों यानी जनता के आशीर्वाद से राज्य में भाजपा की ही सरकार होगी और भाई शिवराज सिंह चौहान ही मुख्यमंत्री होंगे. इसी तरह 15 अगस्त के उन के भाषण में वे ही वे यानी मोदी ही मोदी या मैं ही मैं शामिल था. उन्होंने यह भी नहीं कहा कि अगर संयोग रहा तो यही राजनाथ सिंह रक्षा मंत्री होंगे, अमित शाह गृह मंत्री रहेंगे और वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण ही होंगी. यानी मोदी इन दिनों सिर्फ और सिर्फ अपने प्रधानमंत्री बने रहने की बात सोच और कर रहे हैं. इतना आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध हो जाना देश के सभी 140 करोड़ परिवारजनों के लिए किसी भी लिहाज से शुभ नहीं कहा जा सकता.

क्या कहा मोदी ने?

लालकिले के प्रांगण में बैठे तमाम आम और खास लोगों के चेहरों पर भी बेफिक्री के भाव प्रधानमंत्री के भाषण को ले कर थे, मसलन :

‘‘1947 में हजार साल की गुलामी में संजोए हुए हमारे सपने पूरे हुए. मैं पिछले एक हजार वर्षों की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं देख रहा हूं कि देश के पास एक बार फिर अवसर है. मेरे शब्द लिख कर रख लीजिए. अभी हम जिस युग में जी रहे हैं, इस युग में हम जो करेंगे, जो कदम उठाएंगे और एक के बाद जो निर्णय लेंगे वे स्वर्णिम इतिहास को जन्म देंगे.

‘‘आज भारत पुरानी सोच, पुराने ढर्रे को छोड़ कर कर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए चल रहा है, जिस का शिलान्यास हमारी सरकार करती है. उस का उद्घाटन हम अपने कालखंड में ही करते हैं. इन दिनों जो शिलान्यास मेरे द्वारा किए जा रहे हैं, आप लिख कर रख लीजिए कि उन का उद्घाटन भी आप लोगों ने मेरे नसीब में छोड़ा हुआ है…’’

भाग्यवाद की हद ही इसे कहा जाएगा कि अगली बार भी, बकौल नरेंद्र मोदी, नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री होंगे, हालांकि इस बात को मौजूद लोगों ने लिखा नहीं क्योंकि किसी के पास पेनकौपी या डायरी नहीं थे.

सभी को मान लेना चाहिए कि विधि ने उन के नसीब में अभी और हजारों शिलान्यास, उद्घाटन, भूमिपूजन वगैरह लिख छोड़े हैं जिन को सच साबित करना अब उन के 140 करोड़ परिवारजनों की जिम्मेदारी है जिन में से 5-6 करोड़ सवर्ण तो इसे उठाएंगे ही, बाकी दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों का ठिकाना नहीं.

प्रधानमंत्री या भविष्यवक्ता

नरेंद्र मोदी की भविष्यवाणी से देश एक भारीभरकम चुनावी खर्चे से भी बच जाएगा, फिर भले ही वे और 5 साल ‘वंदे भारत’ टाइप महंगी और रईसों की लग्जरी ट्रेनों को रेलवे गार्ड जैसे हरी ?ांडी दिखाते गुजार दें.

गौरतलब है कि इन ट्रेनों के बारे में भी उन्होंने बड़े फख्र से कहा कि रेल आधुनिक हो रही है तो वंदे भारत ट्रेन भी आज देश में चल रही है. गांवगांव पक्की सड़कें बन रही हैं तो इलैक्ट्रिक बसें, मैट्रो की रचना भी आज देश में हो रही है. आज गांवगांव तक इंटरनैट पहुंच रहा है.

हकीकत यह रही

वंदे भारत ट्रेनों की हालत यह है कि वे खाली चल रही हैं. प्रधानमंत्री की ही दिखाई हरी ?ांडी से 7 जुलाई से शुरू हुई लखनऊ-गोरखपुर रूट की वंदे भारत ट्रेन को शुरू के 4-5 दिन तो ठीकठाक मुसाफिर मिले लेकिन जुलाई के तीसरे सप्ताह में ही यह ट्रेन 80 फीसदी खाली चलने लगी. यानी शुरू में लोग शौकिया तौर पर सवार हुए थे और अब मजबूरी में इस महंगी ट्रेन में यात्रा कर रहे हैं और जो मजबूरी में भी नहीं कर रहे वे वाकई रईस हैं जो इतना महंगा किराया अफोर्ड कर पा रहे हैं. इस ट्रेन की चेयरकार का किराया 890 और ऐग्जिक्यूटिव क्लास का किराया 1,700 रुपए है. जबकि इंटरसिटी में यही किराया 475 रुपए है.

भोपाल-इंदौर वंदे भारत ट्रेन तो तीसरे ही दिन 29 जून को टैं बोल गई थी जब 15 फीसदी ही यात्री इसे मिले थे. भोपाल से इंदौर का किराया 810 और 1,500 रुपए अफोर्ड करने में तो रईसों को भी पसीने आ रहे हैं क्योंकि इस रूट पर लग्जरी बस का किराया 400 रुपए है और ऐक्सप्रैस ट्रेनों का 200 रुपए. एकाध घंटे की बचत के लिए कोई सम?ादार आदमी ज्यादा पैसे खर्च नहीं कर रहा, जिस से रेलवे लगातार घाटे में जा रही है और इस घाटे की भरपाई गरीब ही करेंगे, यह भी तय ही है.

गरीबों के लिए झुनझुना

ये वही गरीब हैं जो भव्य रेलवे स्टेशनों में दाखिल होने से भी डरने लगे हैं क्योंकि वहां हर चीज या सुविधा का जरूरत से ज्यादा पैसा देना पड़ता है. 2014 तक स्टेशनों पर शौच जाने के 50 पैसे लगते थे, अब 10 रुपए देने पड़ते हैं. प्लेटफौर्म टिकट भी 1 से बढ़ कर 10 रुपए का हो गया है. पार्किंग प्राइवेट हाथों में है, जिस का न्यूनतम शुल्क ही 20 रुपए प्रति 2 घंटे का है. इस के बाद यह प्रति घंटे के हिसाब से बढ़ता जाता है. जिन गरीबों को मोदीजी झुनझुना दिखाते रहते हैं उन्हें तो 10 से कम में 30 मिलीग्राम की पतली चाय पीने के पहले भी हजार बार सोचना पड़ता है.

सड़कों के भी यही हाल हैं. अच्छी वे हैं जो अमीरों के लिए हैं, जिन की चमचमाती बड़ीबड़ी कारों के लिए अरबों रुपए खर्च कर एहसान गरीबों पर थोपा जाता है कि देखो, हम ने इतने किलोमीटर सड़कें बना दीं. अब हमें वोट दो जिस से मोदीजी फिर से प्रधानमंत्री बनें और तुम्हारी बचीखुची दरिद्रता दूर कर सकें क्योंकि उन का तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश से सीधा कनैक्शन है.

बेचारे गरीब यह भी नहीं पूछ पाते कि माईबाप, इन सड़कों पर हमारी बचीखुची बैलगाडि़यां, ट्रैक्टर और बाइकें तो न के बराबर चलती हैं, इसलिए हमारे सिर मढ़ा जा रहा एहसान इलजाम ज्यादा लगता है.

आप को रईसों को जो सहूलतें देनी हों, दो लेकिन उस की वसूली हम से तो मत करो. कच्ची बस्तियों को जोड़ने वाली और उन के अंदर की संकरी गलियों की सड़कों को बना डालने का कोई वायदा नहीं किया गया.

यही हाल गांवगांव की इंटरनैट सेवा का है. इस में कोई शक नहीं कि गांवों में इंटरनैट का चलन बढ़ा है लेकिन उतना नहीं जितना कि 15 अगस्त के भाषण में प्रधानमंत्री ने बताया.

यह कैसा तर्क

‘इंटरनैट इन इंडिया रिपोर्ट 2022’ के मुताबिक भारत में कोई 75 करोड़ 90 लाख इंटरनैट यूजर्स हैं, जिन में से 39 करोड़ 99 लाख ग्रामीण हैं. एक अनुमान के मुताबिक कोई 85 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं. अब उन में से आधे से भी कम इंटरनैट इस्तेमाल करते हैं तो यह कोई गिनाने लायक उपलब्धि तो नहीं.

इन 75 करोड़ 90 लाख में से एक सर्वे रिपोर्ट की मानें तो 76.7 फीसदी को डौक्यूमैंट को कौपी पेस्ट करना नहीं आता. 87.5 फीसदी को कंप्यूटर में नया सौफ्टवेयर इंसटौल करना नहीं आता, 92.5 फीसदी को एक डिवाइस से दूसरी डिवाइस कनैक्ट करना नहीं आता, इस से 2 और फीसदी ज्यादा को प्रेजैंटेशन बनाना नहीं आता और इस से भी 2 फीसदी ज्यादा कंप्यूटर प्रोग्राम बनाना नहीं जानते.

जाहिर है, इन में 96 फीसदी लोग ग्रामीण हैं जिन के लिए इंटरनैट का मतलब भजन और गाने सुनना सहित पोर्न फिल्में देखना है.

अब भला ऐसी डिजिटल क्रांति का राग अलापने का फायदा क्या जिस में अब, एक ताजे आंकड़े के मुताबिक, 51 करोड़ यूजर्स शहरों के और 34 करोड़ गांवों के बचे हैं. डिजिटल लिटरैसी के अभाव में हालत घर के कोने में पड़े उज्ज्वला योजना के मुंह चिढ़ाते गैस सिलैंडरों जैसी हो गई है कि पैसा हो तो डाटा की सहूलियत है, नहीं तो एक बार इंटरनैट इस्तेमाल कर आंकड़ा बढ़ाते चलते बनो और जब कोई काम पड़े तो कियोस्क सैंटर वालों की जेब भरते रहो.

सामर्थ्य अर्थव्यवस्था और परिवारवाद

नरेंद्र मोदी के पूरे भाषण में सामर्थ्य और तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था की चाशनी भी खुली रही जिस की बखिया विपक्षियों ने तुरंत भी उधेड़ कर रख दी कि 2014 में देश पर कुल इतना कर्ज था और 10 साल में बढ़ कर इतना हो गया. सामर्थ्य से नरेंद्र मोदी का अभिप्राय तो विपक्षियों को भी नहीं सम?ा आया कि आखिर संस्कृतनुमा इस शब्द को 45 बार ढाल बना कर वे कहना क्या चाह रहे हैं? क्या यह ताकत की किसी नई दवाई का नाम है? अगर देश सामर्थ्यवान हो ही गया है तो फिर लोचा क्या है और तीसरी बार प्रधानमंत्री बन कर वे कितनी सामर्थ्य और देना चाहते हैं? यानी देश में अभी भी असमर्थता है जिसे जड़ से मिटाने के लिए भाजपा को चुनते रहने और मोदी को स्थायी प्रधानमंत्री बनाने की सख्त जरूरत है, नहीं तो हम फिर से गुलाम हो जाएंगे. तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था की पोल खुल जाती है जब पता चलता है कि प्रतिव्यक्ति आय के अनुसार रैंक 123वीं विश्व में और 38वीं एशिया में है.

दुर्दशा और बदहाली

इस सब के पीछे जो आशय था वह यह कि इस गुलामी की वजह हर कोई जानता है कि कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार है जिस ने 65 साल में देश पर राज किया. देश में जो दुर्दशा और बदहाली दिखती है उस की जिम्मेदार पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हैं जिन्होंने करपात्री महाराज जैसों सहित सवर्ण और सनातनियों के दबाव के बाद भी देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने दिया. इसे बारबार तुष्टिकरण की बात कह कर नरेंद्र मोदी ने 4-5 फीसदी सवर्णों को खुश करने की कोशिश की है.

क्या नेहरू ने कारखानों, फैक्टरियों, रेलों, बांधों और टैक्नोलौजी को प्राथमिकता दे कर देश की संस्कृति और गौरव नष्ट कर दिया. क्यों उन्होंने दलितों, आदिवासियों और औरतों के हक में कानून बनाए. 50 और 60 के दशक में भी आधुनिक विचारधारा क्यों अपनाई जिस से हिंदू पिछड़ गए.

मणिपुर और हरियाणा जैसी हिंसा व औरतों की बेइज्जती की चर्चा उन्होंने न जाने किस धुन में कर दी. नहीं तो ऐसे क्षुद्र विषयों पर बोलना उन की शान के खिलाफ है.

बेबस या खीझ

इधर मोदीजी ने परिवारवाद और भ्रष्टाचार को कोसा और उधर विपक्ष ने देर न लगाते भाजपा के परिवारवाद और भ्रष्टाचार के 100 से भी ज्यादा उदाहरण उंगलियों पर गिनाए.

नरेंद्र मोदी की बेचैनी की असल और मूल वजह राहुल गांधी हैं जिन्हें वे 2014 के चुनाव प्रचार में युवराज कह कर तंज कसते रहते थे. तब वे सोनिया गांधी को राजमाता और रौबर्ट वाड्रा को दामाद एक खास व्यंगात्मक लहजे में कहते थे ठीक वैसे ही जैसे पश्चिम बंगाल में उन्होंने ममता बनर्जी को ‘दीदी ओ दीदी…’ कहते मजाक बनाया था जिसे वहां की जनता ने पंचायत चुनाव तक में नकारा ही नहीं, बल्कि एक तरह से दुत्कार दिया.

मैं तलाकशुदा महिला से प्यार करता हूं, क्या ये सही हैं?

सवाल

मैं 42 वर्षीय विधुर हूं. शादी देर से हुई थी. मेरा 5 साल का बेटा है. पत्नी की पिछले साल डैथ हो गई. मैं अपने बेटे और मां के साथ खुश हूं. रिश्तेदार कहते हैं कि शादी कर ले. लेकिन अब मैं शादी नहीं करना चाहता. इस की एक वजह यह भी है कि औनलाइन मेरी एक तलाकशुदा महिला से दोस्ती हुई और अब हम दोनों अकसर मिलते हैं. हमारी आपस में अच्छी अंडरस्टैंडिंग हो गई है.

दिक्कत बस यह है कि उस के बच्चे बड़े हैं, समझदार हैं. वह मुझ से जब मरजी तब मिलने नहीं आ पाती. फोन पर भी बहुत सोचसमझ कर, टाइम देख कर बात कर पाते हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारे रिलेशन के बारे में घरवालों को पता चले.

मैं भी अपनी मां को कुछ नहीं बता सकता उन को बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. जो भी है, मैं अपने इस नए रिलेशन से बहुत खुश हूं. बस, इस बात का कोई हल निकल नहीं पा रहा कि हम जल्दीजल्दी कैसे मिला करें और घरवालों को भी पता न चले. वे भी खुश और हम भी खुश रहें.

जवाब

ऐसी रिलेशनशिप में इस तरह की दिक्कतें तो आती ही हैं. जैसे कि आप ने बताया कि आप की महिला दोस्त के बच्चे अच्छेबड़े सम?ादार हैं तो जाहिर सी बात है कि वह बच्चों के सामने अपनी इमेज आइडियल रखना चाहती है जैसे कि अब तक रखती आई है. वह जो कुछ कर रही है, सिर्फ अपनी खुशी के लिए कर रही है और आप भी अपनी मैंटल और फिजिकल सैटिस्फैक्शन के लिए उस से मिलते हैं.

घरवालों को इस रिलेशनशिप के बारे में अभी न ही पता चले तो ठीक है. यही कारण है कि आप की महिला दोस्त जल्दीजल्दी आप से मिलने नहीं आ पाती ताकि बच्चों को किसी बात का शक न हो. फिलहाल तो अभी आप का रिलेशन जैसा चल रहा, चलाते रहिए.

मुखौटा : कमला देवी से मिलना जरूरी क्यों था?

सुबह के सारे काम प्रियदर्शिनी बड़ी फुरती से निबटाती जा रही थी. उस दिन उसे नगर की प्रतिष्ठित महिला एवं बहुचर्चित समाजसेविका कमला देवी से मिलने के लिए समय दिया गया था. काम के दौरान वह बराबर समय का हिसाब लगा रही थी. मन ही मन कमला देवी से होने वाली संभावित चर्चा की रूपरेखा तैयार कर रही थी.

आज तक उस का समाज के ऐसे उच्चवर्ग के लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन काम ही ऐसा था कि कमला देवी से मिलना जरूरी हो गया था. वह समाज कल्याण समिति की सदस्य थीं और एक प्रसिद्ध उद्योग समूह की मालकिन. उन के पास, अपार वैभव था.

कितनी ही संस्थाओं के लिए वह काम करती थीं. किसी संस्था की अध्यक्ष थीं तो किसी की सचिव. समाजसेवी संस्थाओं के आयोजनों में उन की तसवीरें अकसर अखबारों में छपा करती थीं. उन की भारी- भरकम आवाज के बिना महिला संस्थाओं की बैठकें सूनीसूनी सी लगती थीं.

ये सारी सुनीसुनाई बातें प्रियदर्शिनी को याद आ रही थीं. लगभग 3 साल पहले उस ने अपने घर पर ही बच्चों के लिए एक स्कूल और झूलाघर की शुरुआत की थी. उस का घर शहर के एक छोर पर था और आगे झोंपड़पट्टी.

उस बस्ती के अधिकांश स्त्रीपुरुष सुबह होते ही कामधंधे के सिलसिले में बाहर निकल जाते थे. हर झोंपड़ी में 4-5 बच्चे होते ही थे. घर का जिम्मा सब से बडे़ बच्चे पर सौंप कर मांबाप निकल जाते थे. 8-9 बरस का बच्चा सीधे होटल में कपप्लेट धोने या गन्ने की चरखी में गिलास भरने के काम में लग जाता था.

जीवन चक्र की इस रफ्तार में शिक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, न समय ही था. दो जून की रोटी का जुगाड़ जहां दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कई बार संभव नहीं हो पाता था वहां इस तरह के अनुत्पादक श्रम के लिए सोचा भी नहीं जा सकता था. 10 साल पढ़ाई के लिए बरबाद करने के बाद शायद कोई नौकरी मिल भी जाए लेकिन जब कल की चिंता सिर पर हो तो 10 साल बाद की कौन सोचे?

फिर भी प्रियदर्शिनी की यह निश्चित धारणा थी कि ये बच्चे बुद्धिमान हैं, उन में काम करने की शक्ति है, कुछ नया सीखने की उमंग भी है. इन्हें अगर अच्छा वातावरण और सुविधाएं मिल जाएं तो उन के जीवन का ढर्रा बदल सकता है. अभाव और उपेक्षा के वातावरण में पलतेबढ़ते ये बच्चे गुनहगार बन जाते हैं. चोरी करने, जेब कतरने जैसी बातें सीख जाते हैं. मेहनतमजदूरी करतेकरते गलत सोहबत में पड़ कर उन्हें जुआ, शराब आदि की लत पड़ जाती है और अगर बच्चे बहुत छोटे हों तो कुपोषण का शिकार हो कर उन की अकाल मृत्यु हो जाती है.

उस का खयाल था कि थोड़ी देखभाल करने से उन में काफी परिवर्तन आ सकता है. इसी उद्देश्य से उस ने अपनी एक सहेली के सहयोग से छोटे बच्चों के खेलने के लिए झूलाघर और कुछ बडे़ बच्चों के लिए दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए बालबाड़ी की स्थापना की थी.

रात के समय वह झोंपडि़यों में जा कर उन में रहने वाली महिलाओं को परिवार नियोजन और परिवार कल्याण की बातें समझाती, घरेलू दवाइयों की जानकारी देती, साफसुथरा रहने की सीख देती.

पूरी बस्ती उस का सम्मान करती थी. अधिकाधिक संख्या में बच्चे झूलाघर और बालबाड़ी में आने लगे थे. इसी सिलसिले में वह कमला देवी से मिलना चाहती थी. अपना काम सौ फीसदी हो जाएगा ऐसा उसे विश्वास था.

किसी राजप्रासाद की याद दिलाने वाले उस विशाल बंगले के फाटक में प्रवेश करते ही दरबान सामने आया और बोला, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘बाई साहब हैं? उन्होंने मुझे 11 बजे का समय दिया था.’’

‘‘अंदर बैठिए.’’

हाल में एक विशाल अल्सेशियन कुत्ता बैठा था. दरबान उसे बाहर ले गया. इतने में सफेद ऊन के गोले जैसा झबरीला छोटा सा पिल्ला हाथों में लिए कमला देवी हाल में प्रविष्ट हुईं.

भारीभरकम काया, प्रयत्नपूर्वक प्रसाधन कर के अपने को कम उम्र दिखाने की ललक, कीमती साड़ी, चमचमाते स्वर्ण आभूषण, रंगी हुई बालों की कटी कृत्रिम लटें, नाक की लौंग में कौंधता हीरा, चेहरे पर किसी हद तक लापरवाही और गर्व का मिलाजुला मिश्रण.

पल भर के निरीक्षण में ही प्रियदर्शिनी को लगा कि इस रंगेसजे चेहरे पर अहंकार के साथसाथ मूर्खता का भाव भी है जो किसी भी जानेमाने व्यक्ति के चेहरे पर आमतौर पर पाया जाता है.

उठ कर नमस्ते करते हुए उस ने सहजता से मुसकराते हुए अपना परिचय  दिया, ‘‘मेरा नाम प्रियदर्शिनी है. आप ने आज मुझे मिलने का समय दिया था.’’

‘‘अच्छा अच्छा…तो आप हैं प्रियदर्शिनी. वाह भई, जैसा नाम वैसा ही रंगरूप पाया है आप ने.’’

अपनी प्रशंसा से प्रियदर्शिनी सकुचा गई. उस ने कुछ संकोच से पूछा, ‘‘मेरे आने से आप के काम में कोई हर्ज तो नहीं हुआ?’’

‘‘अजी, छोडि़ए, कामकाज का क्या? घर के और बाहर के भी सारे काम अपने को ही करने होते हैं. और बाहर का काम? मेरा मतलब है समाजसेवा करने का मतलब घर की जिम्मेदारियों से मुकरना तो नहीं होता? गरीबों की सेवा को मैं सर्वप्रथम मानती हूं, प्रियदर्शिनीजी.’’

कमला देवी की इस सादगी और सेवाभावना से प्रियदर्शिनी अभिभूत हो उठी.

‘‘प्रियदर्शिनी, आप बालबाड़ी चलाती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कितने बच्चे हैं बालबाड़ी में?’’

‘‘जी, 25.’’

‘‘और झूलाघर में?’’

‘‘झूलाघर में 10 बच्चे हैं.’’

‘‘फीस कितनी लेती हैं?’’

‘‘जी, फीस तो नाममात्र की लेती हूं.’’

‘‘फीस तो लेनी ही चाहिए. मांबाप जितनी फीस दे सकें उतनी तो लेनी ही चाहिए. इतनी मेहनत करते हैं हम फिर पैसा तो हमें मिलना ही चाहिए.’’

‘‘जी, पैसे की बात सोच कर मैं ने यह काम शुरू नहीं किया.’’

‘‘तो फिर क्या समय नहीं कटता था, इसलिए?’’

‘‘जी, नहीं. यह कारण भी नहीं है.’’

कंधे उचका कर आंखों को मटका कर हंस दी कमला देवी, ‘‘तो फिर लगता है आप को बच्चों से बड़ा लगाव है.’’

‘‘जी, वह तो है ही लेकिन सच बात तो यह है कि उस इलाके में ऐसे काम की बहुत जरूरत है.’’

‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘सिंधी बस्ती से अगली बस्ती में.’’

‘‘वहां तो आगे सारी झोंपड़पट्टी ही है न?’’

‘‘जी. होता यह है कि झोंपड़पट्टी वाले सुबह से ही काम पर निकल जाते हैं. घर संभालने का सारा जिम्मा स्वभावत: बड़े बच्चे पर आ जाता है. मांबाप की अज्ञानता और मजबूरी का असर इन बच्चों के भविष्य पर पड़ता है. इसी विचार से मैं बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई के लिए बालबाड़ी और छोटे बच्चों की देखभाल के लिए झूलाघर चला रही हूं.’’

‘‘तो इन छोटे बच्चों की सफाई, उन के कपडे़ बदलने और उन्हें दूध, पानी आदि देने के लिए आया भी रखी होगी?’’

‘‘जी नहीं. ये सब काम मैं स्वयं ही करती हूं.’’

‘‘आप,’’ कमला देवी के मुख से एकाएक आश्चर्यमिश्रित चीख निकल गई.

‘‘जी, हां.’’

‘‘सच कहती हैं आप? घिन नहीं आती आप को?’’

‘‘जी, बिलकुल नहीं. क्या अपने बच्चों की टट्टीपेशाब साफ नहीं करते हम?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. लेकिन अपने बच्चे तो अपने ही होते हैं और दूसरों के दूसरे ही.’’

‘‘मेरे विचार में तो आज के बच्चे कल हमारे देश के नागरिक बनेंगे. अगर हम उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखना चाहें, उन से कुछ अपेक्षाएं रखें तो आज उन की जिम्मेदारी किसी को तो उठानी ही पड़ेगी न?’’

शांत और संयत स्वर में बोलतेबोलते प्रियदर्शिनी रुक गई. उस ने महसूस किया, कमला देवी का चेहरा कुछ स्याह पड़ गया है. उन्होंने पूछा, ‘‘लेकिन इन सब झंझटों से आप को लाभ क्या मिलता है?’’

‘‘लाभ?’’ प्रियदर्शिनी की उज्ज्वल हंसी से कमला देवी और भी बुझ सी गईं, ‘‘मेरा लाभ क्या होगा, कितना होगा, होगा भी या हानि ही होगी, आज मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकती लेकिन एक बात निश्चित है. मेरे इन प्रयत्नों से समाज के ये उपेक्षित बच्चे जरूर लाभान्वित होंगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है.’’

‘‘अद्भुत, बहुत बढि़या. आप के विचार बहुत ऊंचे हैं. आप का आचरण भी वैसा ही है. बड़ी खुशी की बात है. वाह भई वाह, अच्छा तो प्रियदर्शिनीजी, अब आप यह बताइए, आप मुझ से क्या चाहती हैं?’’

‘‘जी, बच्चों के बैठने के लिए दरियां स्लेटें, पुस्तकें और खिलौने. मदद के लिए मैं एक और महिला रखना चाहती हूं. उसे पगार देनी पड़ेगी. वर्षा और धूप से बचाव के लिए शेड बनवाना होगा. इस के साथ ही डाक्टरी सहायता और बच्चों के लिए नाश्ता.’’

‘‘तो आप अपनी बालबाड़ी को आधुनिक किंडर गार्टन स्कूल में बदल देना चाहती हैं?’’

‘‘बिलकुल आधुनिक नहीं बल्कि जरूरतों एवं सुविधाओं से परिपूर्ण स्कूल में.’’

‘‘तो साल भर के लिए आप को 10 हजार रुपए दिलवा दें?’’

‘‘जी.’’

‘‘मेरे ताऊजी मंत्रालय में हैं. आप 8 दिन के बाद आइए. तब तक आप का काम करवा दूंगी.’’

‘‘सच,’’ खुशी से खिल उठी प्रियदर्शिनी, ‘‘आप का किन शब्दों में धन्यवाद दूं? आप सचमुच महान हैं.’’

कमला देवी केवल मुसकरा भर दीं.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. आप की बहुत आभारी हूं.’’

‘‘चाय, शरबत कुछ तो पीती जाइए.’’

‘‘जी नहीं, इन औपचारिकताओं की कतई जरूरत नहीं है. आप के आश्वासन ने मुझे इतनी तसल्ली दी है…’’

‘‘अच्छा, प्रियदर्शिनीजी, आप का घर और हमारा समाज कल्याण कार्यालय शहर की एकदम विपरीत दिशाओं में है. आप ऐसा कीजिए, अपनी गाड़ी से यहां आ जाइए.’’

‘‘जी, मेरे पास गाड़ी नहीं है.’’

‘‘तो क्या हुआ, स्कूटर तो होगा?’’

‘‘जी नहीं, स्कूटर भी नहीं है.’’

‘‘मेरे पास फोन भी नहीं है.’’

‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप के पास गाड़ी नहीं, फोन नहीं, फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’’

उपहासमिश्रित उस हंसी से प्रियदर्शिनी कुछ  हद तक परेशान सी हो उठी. फिर भी वह अपने सहज भाव से बोली, ‘‘मेरा मन पक्का है. हर कठिनाई को सहने के लिए तत्पर हूं. तन और मन के संयुक्त प्रयास के बाद कुछ भी असंभव नहीं होता.’’

अब तो खुलेआम छद्मभाव छलक आया कमला देवी के मेकअप से सजेसंवरे चेहरे पर.

‘‘मैं तो आप को समझदार मान रही थी, प्रियदर्शिनीजी. मैं ने आप से कहीं अधिक दुनिया देखी है. आप मेरी बात मानिए, अपनी इस प्रियदर्शिनी छवि को दुनिया की रेलमपेल में मत सुलझाइए. खैर, आप का काम 8 दिन में हो जाएगा. अच्छा.’’ दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते कहते हुए प्रियदर्शिनी ने विदा ली.

‘‘दीदी, हमारे लिए नाश्ता आएगा?’’

‘‘दीदी, स्कूल के सब बच्चों के लिए एक से कपडे़ आएंगे?’’

‘‘दीदी, सफेद कमीज और लाल रंग की निकर ही चाहिए.’’

‘‘नए बस्ते भी मिलेंगे?’’

‘‘और नई स्लेट भी?’’

‘‘मैं तो नाचने वाला बंदर ले कर खेलूंगा.’’

‘‘दीदी, नाश्ते में केला और दूध भी मिलेगा?’’

‘‘अरे हट. दीदी, नाश्ते में मीठीमीठी जलेबियां आएंगी न?’’

बच्चों की जिज्ञासा और खुशी ने उसे और भी उत्साहित कर दिया.

8वें दिन कमला देवी की कार उसे लेने आई तो उस के मन में उन के लिए कृतज्ञता के भाव उमड़ आए. जो हो, जैसी भी हो, उन्होंने आखिर प्रियदर्शिनी का काम तो करवा दिया न.

उस की साड़ी देख कर कमला देवी ने मुंह बिचकाया और जोरजोर से हंस कर बोलीं, ‘‘अरे, प्रियदर्शिनीजी, कम से कम आज तो आप कोई सुंदर सी साड़ी पहन कर आतीं. फोटो में अच्छी लगनी चाहिए न. फोटोग्राफर का इंतजाम मैं ने करवा दिया है. कल के अखबारों में समाचार समेत फोटो आ जाएगी. अच्छा, चलिए, फोटो में आप थोड़ा मेरे पीछे हो जाइए तो फिर साड़ी की कोई समस्या नहीं रहेगी.’’

कार अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी तो धीमी आवाज में कमला देवी ने कहा, ‘‘देखिए, प्रियदर्शिनीजी, आप के नाम पर 5 हजार का चेक मिलेगा. वह आप मुझे दे देना. मैं आप को ढाई हजार रुपए उसी समय दे दूंगी.’’

प्रियदर्शिनी ने कुछ असमंजस में पड़ कर पूछा, ‘‘तो बाकी ढाई हजार आप कब तक देंगी?’’

‘‘कब का क्या मतलब? प्रिय- दर्शिनीजी, हमें समाजसेवा के लिए कितना कुछ खर्च करना पड़ता है. ऊपर से ले कर नीचे तक कितनों की इच्छाएं पूरी करनी पड़ती हैं और फिर हमें अपने शौक और जेबखर्च के लिए भी तो पैसा चाहिए.’’

प्रियदर्शिनी को लगा उस की संवेदनाएं पथरा रही हैं.

कमला देवी अभी तक बोले जा रही थीं, ‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप बुरा मत मानिए. लेकिन यह ढाई हजार रुपए क्या आप पूरा का पूरा स्कूल के लिए खर्च करेंगी? भई, एकआध हजार तो अपने लिए भी रखेंगी या नहीं, खुद के लिए?’’

समाज कल्याण कार्यालय के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं दोनों. तेजी के साथ प्रियदर्शिनी पलट गई. तेज चाल से चल कर वह सड़क पर आ गई. सामने खडे़ रिकशे वाले को घर का पता बता कर वह निढाल हो कर उस में बैठ गई. उस की आंखों के सामने बारबार कमला देवी का मेकअप उतर जाने के बाद दिखने वाला विद्रूप चेहरा उभर कर आने लगा. उन की छद्म हंसी सिर में हथौड़े मारती रही. उन का प्रश्न रहरह कर कानों में गूंजने लगा, ‘फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’

जाहिर था प्रियदर्शिनी के पास तथाकथित समाजसेवियों वाला कोई मुखौटा तो था ही नहीं.

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Archana Gautam ने Priyanka Chahar Choudhary पर निकाली भड़ास, ऐसे लिया बदला

Priyanka Chahar Choudhary Archana Gautam Fight : बॉलीवुड एक्टर सलमान खान के मोस्ट पॉपुलर रियलिटी शो ‘बिग बॉस’ सीजन 16 के हर कंटेस्टेंट ने दर्शकों के दिल में अपनी अलग जगह बनाई है. टीवी एक्ट्रेस प्रियंका चाहर चौधरी और अर्चना गौतम की दोस्ती ने भी खूब वाहवाही लूटी थी. दोनों की दोस्ती से लेकर लड़ाई का लोगों ने खूब मजा लिया था.

हालांकि शो के आखिरी दिनों में एक बार फिर दोनों की दोस्ती हो गई थी. दोनों की दोस्ती की ये झलक ‘बिग बॉस’ के बाद भी देखने को मिली थी. दरअसल दोनों को कई बार एक साथ देखा गया था, लेकिन अब कहा जा रहा है कि दोनों की दोस्ती में दरार आ गई है. बात इतनी बड़ गई है कि अर्चना (Archana Gautam) ने प्रियंका को सोशल मीडिया पर अनफॉलो तक कर दिया है.

अर्चना की पार्टी में नहीं गई थी प्रियंका 

आपको बता दें कि बीते दिनों अर्चना गौतम ने अपने बर्थडे पर शानदार पार्टी का आयोजन किया था. जिसमें उन्होंने इंडस्ट्री से जुड़े अपने हर एक दोस्त को बुलाया था. इसके अलावा पार्टी में ‘बिग बॉस’ सीजन 16 और ‘खतरों के खिलाड़ी 13’ के भी कई कंटेस्टेंट्स नजर आए थे. जहां सभी ने खूब मजा किया था. सोशल मीडिया पर इस पार्टी की कई तस्वीरें और वीडियो भी वायरल हुई थी. लेकिन जिस बात ने सबका ध्यान खीचा वो बात थी, पार्टी में उनकी बेस्ट फ्रेंड प्रियंका चाहर चौधरी (Priyanka Chahar Choudhary) का नहीं आना.

अर्चना ने प्रियंका को इसलिए किया अनफॉलो

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, अर्चना ने प्रियंका को पार्टी में खूद इनवाइट किया था, लेकिन प्रियंका पार्टी में नहीं आई. जिस कारण अर्चना गौतम उनसे काफी ज्यादा नाराज हैं. इसके अलावा अर्चना के करीबी दोस्तों ने बताया कि पार्टी में नहीं आने के बाद प्रियंका ने अर्चना से कोई कॉन्टैक्ट भी नहीं किया. इसलिए अर्चना, प्रियंका से नाराज हैं और इसी वजह से उन्होंने गुस्से में आकर अपनी पक्की दोस्त (Priyanka Chahar Choudhary) से दोस्ती तोड़ दी. इसी के साथ उन्होंने प्रियंका को इंस्टाग्राम पर भी अनफॉलो कर दिया है.

मीडिया से अर्चना ने कही ये बात

आपको बता दें कि जब मीडिया ने अर्चना गौतम से इस बारें में बात की तो उन्होंने इस मामले पर कोई बात करने से मना कर दिया. अर्चना गौतम ने कहा, वह इस वक्त काफी ज्यादा दुखी हैं और वो इस मामले पर अभी कुछ नहीं बोलना चाहती. वहीं दूसरी तरफ प्रियंका (Priyanka Chahar Choudhary) का इस मामले पर कोई रिएक्शन सामने नहीं आया है.

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पर्यटन और आप की पर्सनैलिटी

पर्यटन के लिए आप जिन जगहों का चयन करते हैं, उन से आप की पर्सनैलिटी का अंदाजा लगाना संभव है. हर व्यक्ति अपनी पर्सनैलिटी के आधार पर ही टूरिस्ट डैस्टिनेशन का चयन करता है. आखिर क्यों कुछ लोग छुट्टियों में पहाड़ों की ओर रुख करते हैं तो कई मैदानी इलाकों के शहरों के ऐतिहासिक स्थल पसंद करते हैं. कुछ लोगों को नदी, समंदर और ?ालें अपनी ओर खींचती हैं तो कुछ लोग जंगली इलाकों में सफारी और रोमांच का अनुभव करते हैं.

कोविड से पहले 2 लाख पर्यटकों से बातचीत करने और उन की आदतों व चयन प्रक्रिया पर 3 दशकों तक अध्ययन करने के बाद पाया गया कि अलगअलग पर्सनैलिटी वाले लोगों के मनोरंजन और रोमांच की जरूरतें भी अलग होती हैं.

पसंदीदा स्थान : पहाड़

व्यक्तित्व : अंतर्मुखी, शांत और कम बोलने वाले. पहाड़ों की यात्रा पसंद करने वाले रोमांचकारी अनुभवों के शौकीन होते हैं. इन्हें पहाड़ों के चौतरफा बिखरी हरियाली और ऊपर फैला नीला आसमान खूब लुभाता है. ये क्रिएटिव होते हैं. हवाएं, बादल और बर्फ इन्हें आकर्षित करती है. लेकिन ये शांत रहना पसंद करते हैं और आमतौर पर अंतर्मुखी होते हैं. इन्हें अस्मिट्रिकल पहाडि़यां, छोटेबड़े पेड़, ?ाडि़यां, जंगली फूल, ?ारने जो टेढ़ेमेढ़े बहते हैं, भाते हैं.

पसंदीदा स्थान : सी बीच

व्यक्तित्व : कुदरती उजाला पसंद करने वाले. समुद्र के किनारे दूरदूर तक बिखरी सुनहरी रेत, सूरज की धूप से चमकते बालू के कण और नीली आभा लिए समुद्र की लहरें इन लोगों को खूब लुभाती हैं. घर से दूर जा कर लहरों का शोर सुनना और अजनबी लोगों के साथ बैठना इन्हें खूब भाता है. इन्हें तेज रोशनी और खुली जगहें पसंद आती हैं. ये घंटों लहरों को देख सकते हैं और हर रोज सनराइज या सनसैट इन्हें लुभाता है.

पसंदीदा स्थान : क्रूज

व्यक्तित्व : खुल कर बोलने वाले और बहुर्मुखी. इन्हें जमीन से दूर सागर की लहरों पर सवार शिप क्रूज में बैठ कर दुनिया की सैर करने का शौक होता है. ये अधिक बोलना पसंद करते हैं और बहुर्मुखी होते हैं. ये लोग खतरों से डरते नहीं और जिंदगी में जोखिम उठाना पसंद करते हैं. नएनए प्रयोग करना और नई चीजों को आजमाना इन के व्यक्तित्व का प्रमुख गुण होता है. ये लोगों के बीच में रहना पसंद करते हैं और इधरउधर की सुनतेसुनाते हैं.

पसंदीदा स्थान : मैदानी इलाके

व्यक्तित्व : सेफजोन में रहने वाले और शांत स्वभावी. मैदानी इलाकों और ऐतिहासिक स्थलों को अपने पर्यटन स्थल के रूप में चुनने वाले अकसर शांत स्वभाव के होते हैं. इन्हें जोखिम वाले काम पसंद नहीं होते. ये इतिहास में विश्वास रखते हैं और नएनए प्रयोग करने से कतराते हैं.

पसंदीदा स्थान : स्मारक और शिल्पकला के नमूने

व्यक्तित्व : कलाप्रेमी और बुद्धिजीवी. ये पर्यटक स्मारकों और शिल्पकला के ठिकानों पर भ्रमण करना पसंद करते हैं. ये कलाप्रेमी और बुद्धिजीवी होते हैं. इन्हें कलात्मक भवन, शिल्पकला के नमूने और कला की बारीकियां देखना, सीखना और उन्हें सराहना अच्छा लगता है. इन के मन में परंपराओं के प्रति आदर होता है, इतिहास के प्रति जिज्ञासा होती है और कुछ नया सीखने की ललक भी होती है.

पसंदीदा स्थान : आरोग्य स्थल

व्यक्तित्व : सेहत के प्रति जागरूक. कई लोग छुट्टी मिलने पर या तो किसी ऐसे शहर या कसबे का चयन करते हैं जहां जलवायु परिवर्तन का लाभ मिले और कुदरती सौंदर्य बिखरा हो या फिर ऐसी जगह का जहां जानेमाने उपचार केंद्र हों. इन्हें साइट सीइंग और कलाकेंद्रों के बजाय ताजा फल, सब्जियां, स्वच्छ आबोहवा और दिनचर्या में परिवर्तन करना ज्यादा पसंद आता है. इन दिनों हैल्थ टूरिज्म की प्रवृत्ति बढ़ी है.

पसंदीदा स्थान : समाज सेवा के स्थान

व्यक्तित्व : दयालु और परोपकारी स्वभाव. कुछ लोग जब भी कहीं किसी प्राकृतिक आपदा, बड़ी दुर्घटना या महामारी जैसी आपत्तियों के बारे में सुनते हैं तो ?ाट अपना क्रैडिट कार्ड और बैग पैक कर के वहां के लिए रवाना हो जाते हैं और वहां हर जरूरतमंद को अपनी मदद देने की कोशिश करते हैं. ये वौलंटियर के रूप में काम करते हैं, रक्तदान करते हैं और आर्थिक मदद भी देते हैं. इन्हें समाज के लिए कुछ करने में अच्छा महसूस होता है. ये अनाथालय वगैरह में भी अपनी सेवाएं देना पसंद करते हैं.

पसंदीदा स्थानों, तीर्थस्थल, कमजोर, अंधविश्वासी, भाग्यवादी और चमत्कारों में विश्वास रखने वाले ये लोग हर तरह के तीर्थस्थल पर जाने को तैयार रहते हैं. उस के लिए ये रास्ते में पड़ने वाली समस्याओं की चिंता नहीं करते. ये ‘भगवान भला करेगा’ में विश्वास करते हैं. किसी मंदिर, मठ, चर्च को देखने को और वहां बैठ कर पूजा करना और भरपूर दान देना इन्हें बचपन से सिखा दिया जाता है. ये बेहद डरपोक किस्म के होते हैं पर साथ ही जुगाड़ू भी. नियमों में विश्वास नहीं रखते और पूजास्थल पर होने वाली हर दुर्व्यवस्था को भक्तिभाव से स्वीकार करते हैं. ये संख्या में बहुत हैं और जैसेजैसे धर्मप्रचार बढ़ रहा है, इन की गिनती भी बढ़ रही है.

कुछ पर्यटक ऐसे भी

हर पल का रखते हैं हिसाब : ये पर्यटक कहीं भी जाते हैं और अपनी डायरी या नोटबुक में पलपल का अनुभव संजोते हैं और साथ ही, डिजीकैम से वीडियो या फोटोग्राफी भी करते हैं. इतना ही नहीं, ये लोग फेसबुक और व्हाट्सऐप के माध्यम से अपने दोस्तों को भी अपनी यात्रा का ब्योरा देते रहते हैं.

ये जिंदादिल और शौकीन स्वभाव के होते हैं और यात्रा का एकएक पल पूरी तबीयत के साथ जीते हैं. ये किसी म्यूजियम या स्मारक में जाते हैं तो वहां के इतिहास को जानने की कोशिश भी करते हैं और फिर अपने यात्रा संस्मरण, अखबारों, पत्रिकाओं या सोशल मीडिया के माध्यम से सब के साथ बांटना चाहते हैं.

एकला चलो रे : ये पर्यटक कहीं भी मित्रों, रिश्तेदारों या परिवारों के साथ जाने के बजाय अकेले ही जाना पसंद करते हैं. ये आत्मविश्वासी होते हैं और स्वतंत्र विचारक होते हैं. इन्हें अनुभव करना पसंद होता है और सोचासम?ा जोखिम उठाना भी. ये अकसर बातूनी होते हैं और किसी भी दूसरे व्यक्ति से आसानी से घुलमिल जाते हैं. ये दोस्ताना स्वभाव के होते हैं. यात्रा करने का इन का मूल उद्देश्य खुद को अनजान परिस्थितियों में ढालना और किसी दूसरे के निर्णयों से दूर रहना होता है.

खतरों के खिलाड़ी : कुछ लोगों को सीधेसीधे घूमफिर कर लौट आने में मजा नहीं आता. ये लोग जिंदगी में कुछ रोमांचक और स्पाइसी चाहते हैं. ऐसे लोगों को कुछ इस तरह के पर्यटन स्थल भाते हैं जहां जरा मशक्कत करनी पड़े, भागदौड़ हो, उछलकूद हो या खतरों से दोदो हाथ करने का अवसर मिले.

ऐसे लोग उन पर्यटन स्थलों को चुनते हैं जहां वे बंजी जंपिंग का आनंद ले सकें. जहां सब से गरम स्थान या सब से ठंडा स्थान हो, जहां बर्फ जैसे ठंडे पानी में तैराकी का मौका मिले, ड्राइविंग का लुत्फ मिले या फिर घना जंगल हो. वहीं कुछ लोग पर्वतारोहण के लिए ही घर से निकलते हैं. ये खतरों के खिलाड़ी कहलाते हैं.

नूंह : हिंसा के बाद आर्थिक बहिष्कार की नौटंकी

‘रक्षाबंधन आ रहा है. सामान भाई से खरीदें, देश जलाने वाले भाईजान से नहीं,’ सोशल मीडिया पर यह अपील अब लगातार लेकिन रुकरुक कर चलेगी. अक्तूबर में कहा जाएगा, ‘दीवाली आ रही है, सामान देश को रोशन करने वाले भाइयों से खरीदें, देश जलाने वाले भाइजानों से नहीं.’ फिर कुछ दिनों बाद ऐसा ही कोई नया नारा बाजार में ला दिया जाएगा जिस से नफरत का माहौल आबाद रहे और यह भी साबित हो जाए कि धर्म के मूलभूत सिद्धांत सत्य, अहिंसा, शांति, समानता, सद्भाव वगैरह नहीं, बल्कि एकदूसरे से धर्म, जाति, लिंग और गोत्र तक के नाम पर घृणा करना है जिस से दुकानें फलतीफूलती रहें.

रही बात हरियाणा के नूंह और उस के आसपास हुए सांप्रदायिक दंगों, आगजनी, मौतों और तोड़फोड़ सहित मुसलमानों के आर्थिक व सामजिक बहिष्कार की तो ये बातें कतई नई नहीं हैं बल्कि सदियों से की जा रही हैं, जिन के पीछे एक वर्ग विशेष के स्वार्थ होते हैं. हैरानी तो तब होती है जब इस तरह की बातें न की जाती हों और तब जरूर देश देश जैसा नहीं लगता, कहीं कुछ खालीपन सा महसूस होता है.

मणिपुर के बाद इस खालीपन को 31 जुलाई से 3 अगस्त तक की हिंसा ने भरा. तरीका वही पुराना था. हिंदुओं की बृजमंडल जलाभिषेक यात्रा निकल रही थी कि अचानक माहौल बिगड़ गया. मुख्य सड़क से पहले पत्थरबाजी हुई, दोनों पक्षों की तरफ से भड़काऊ नारे लगे, देखतेदेखते ही दुकानें धड़ाधड़ बंद होने लगीं. लोग भागने लगे. इस मची अफरातफरी में डेढ़ सौ के लगभग वाहनों को आग के हवाले दंगाइयों ने कर दिया. पुलिस वाले, जो गिनेचुने थे, हमेशा की तरह तमाशा देखते रहे. इसी दौरान फायरिंग शुरू हो गई जिस में एक मुसलिम धर्मगुरु सहित होमगार्ड के 2 जवान मारे गए.

चंद घंटों बाद ही राज्य सरकार की मांग पर सुरक्षा बल की टुकडि़यां नूंह पहुंच गईं जिस से स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण वाली हो गई. धार्मिक हिंसा की इस आग की लपटें आसपास के इलाकों फरीदाबाद, पलवल और गुरुग्राम में भी दिखीं. इन शहरों में भी धारा 144 लगाते इंटरनैट सेवाएं बंद कर दी गईं. आरोपप्रत्यारोप लगाए जाने लगे जिन के शोर में सत्य दब कर रह गया.

हिंसा के गुनाहगार

गुरुग्राम से महज 63 किलोमीटर की दूरी पर बसे देश के पिछड़े जिलों में शुमार नूंह जिले में 2014 तक न तो गौरक्षकों के संगठन थे, न ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठनों का कोई खास दखल या वजूद था. लगभग 80 फीसदी मुसलमानों के इस शहर को मिनी पाकिस्तान भी कहा जाता है. लेकिन वहां कमोबेश लोग शांति और भाईचारे से गुजरबसर किया करते थे.

नूंह मेवात इलाके का अहम शहर है जहां के मुसलमानों को मेवाती कहा जाता है. इन के पूर्वज अब से कोई 800 साल पहले हिंदू ही हुआ करते थे जिन्होंने इसलाम अपना लिया था. अभी भी अधिकतर मेवाती कई हिंदू रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों को मनाते हैं. मेवातियों के पूर्वज भले ही हिंदू रहे हों लेकिन ये मन से मुसलमान हो चुके हैं जो बेहद स्वाभाविक बात भी है. अब यह और बात है कि हिंदू ही इन्हें हिंदू नहीं, बल्कि मुसलमान मानते हुए इन का तिरस्कार करते हैं. इस के बाद भी आमतौर पर नूंह शांत रहता था. जब ऊंची जाति वाले हिंदू निचली जातियों को सहन नहीं कर सके तो धर्मगुरुओं को कैसे सहेंगे.

लेकिन 2014 में केंद्र में भाजपा सरकार के बनते ही नूंह का माहौल बिगड़ने लगा. हिंदू राष्ट्र की धमक यहां भी सुनाई देने लगी. विहिप और बजरंगदल सक्रिय होने लगे पर नूंह को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तब मिली जब गौकशी के आरोप में 2 मुसलिम युवकों नासिर और जुनैद की सरेआम हत्या कर दी गई. तभी मोनू मानेसर का नाम चमका जो गौरक्षक गैंग का मुखिया था. 31 जुलाई की हिंसा की एक बड़ी वजह भी मोनू को ठहराया जा रहा है क्योंकि उस ने कुछ भड़काऊ वीडियो जारी करते कहा था, ‘मैं आ रहा हूं.’

31 जुलाई 2023 के पहले से ही हिंदुत्व के एक और पोस्टर बौय बिट्टू बजरंगी के भी भड़काऊ  वीडियो वायरल हुए थे जिसे मेवात इलाके में जिहादियों के जीजाजी के खिताब से नवाज दिया गया था. सोशल मीडिया पर अपनी प्रोफाइल में वह इस शब्द को ऐसे इस्तेमाल करता है मानो कोई पद्मश्री की उपाधि हो. भारीभरकम डीलडौल वाला बिट्टू सर से पांव तक भगवा रंग में रंगा रहता है.

बिट्टू लाखों उन आवारा नौजवानों में से एक है जिन्होंने धार्मिक हिंसा और आतंक को ही अपनी कमाई का जरिया बना लिया है क्योंकि आजकल ऐसे युवकों को नाम, दाम और इनाम तीनों इफरात से मिल रहे हैं.

बिट्टू बजरंगी का असली नाम राजकुमार है जो कभी फुटकर सब्जी बेचा करता था. उस पर बलवे और हिंसा सहित आगजनी के कई मामले फरीदाबाद के अलगअलग थानों में दर्ज हैं. मेवात इलाके में जब मोनू मानेसर का गौरक्षा का धंधा चल निकला तो बिट्टू ने इस में स्कोप देख अपना नया संगठन ही बना डाला जिस का नाम उस ने गौरक्षा बजरंग फोर्स रखा.

इस संगठन से हजारों लोग जुड़े हैं. खुद को सनातन का सिपाही कहने वाला बिट्टू लवजिहाद रोकने का काम भी करता है. अपने गृहनगर फरीदबाद में वह कई बार हिंदू एकता भगवा रैली निकाल चुका है. मुसलमानों को हड़काने और धमकाने का कोई मौका बिट्टू बजरंगी भी नहीं छोड़ता था.

16 अगस्त को बिट्टू बजरंगी को पुलिस ने फरीदाबाद स्थित उस के घर से गिरफ्तार किया तो वह डरा नहीं, बल्कि हवा में तलवार लहराते खुद को शिवाजी और राणा प्रताप सम?ाता रहा. उस के घर से 8 तलवारें जब्त हुईं. सहायक पुलिस अधीक्षक उशा कुंडू से भी उस ने बदतमीजी की थी. उन्हीं की शिकायत पर नूंह के सदर थाने में उस के खिलाफ आईपीसी की धाराओं 148, 149, 323, 353, 186 और 506 के तहत मामला दर्ज करते जेल भेज दिया गया.

फिर हुआ बहिष्कार का ड्रामा 

बिट्टू बजरंगी और मोनू मानेसर के आने की खबर भर से नूंह के मुसलमान घबराए भी थे और भड़क भी उठे थे. जलाभिषेक यात्रा का प्रचार जोरशोर से किया गया था. लिहाजा, दंगाफसाद शुरू हो गया. बात तब और बिगड़ी जब आग के थोड़ा ठंडा होने पर मुसलमानों के बहिष्कार की अपीलें शुरू होने लगीं. इस बार बहिष्कार की अपीलें चौंका देने वाली थीं क्योंकि कोई 50 पंचायतों ने सामूहिक रूप से ऐसा किया था. मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार की बात कोई नई या हैरानी की नहीं है लेकिन नूंह में इसे सामूहिक रूप से करने की कोशिश की गई.

हिंसा के बाद नूंह सहित फरीदाबाद, गुरुग्राम, पलवल और गाजियाबाद में पोस्टरों के जरिए पुलिस की मौजूदगी में कहा गया कि अगर आप मुसलमानों को नौकरी पर रखते हैं तो आप गद्दार कहलाएंगे. हिसार में वायरल हुए एक वीडियो में फरमान जारी किया गया कि ‘अगर आप ने किसी बाहरी मुसलमान को नौकरी पर रखा है तो उसे 2 दिनों में निकाल दें. अगर ऐसा नहीं किया गया तो उन दुकानदारों का बहिष्कार किया जाएगा.’

रेवाड़ी, झज्जर और महेंद्रगढ़ की 50 से भी ज्यादा पंचायतों में एक खत के जरिए गांवों में मुसलिम व्यापारियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई. इन पंचायतों के सरपंचों द्वारा जारी किए पत्र में तरहतरह की धौंसें दी गई थीं.

पुरानी है मानसिकता

सनातन धर्म में बहिष्कार कोई नया फंडा या आइडिया नहीं है. 1947 से पहले जब मुसलमान मजबूत थे तो दलितों को बहिष्कृत और प्रताडि़त किया जाता था. गांवों में दलितों की बस्तियां बाहर की तरफ होती थीं और आज भी होती हैं जब चंद्रमा और मंगल पर पैर रखे जा रहे हैं. सनातनियों के लिए मुसलमान और दलित अलग नहीं हैं, फर्क सछूत और अछूत भर का है. लेकिन अब वे मुसलमानों पर आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का कहर बरपा कर सनातन की शुद्धता और पवित्रता बनाए रखने का ढोंगपाखंड कर रहे हैं. देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जहां मुसलमानों के बहिष्कार का रोग न फैला हो.

नूंह की हिंसा के बाद जब इस बहिष्कार पर कानूनी लगाम कसने की कवायद शुरू हुई तो कुछ पंचायतों ने अपना फरमान वापस ले लिया. लेकिन नफरत की इंतहा तो एक बार फिर आम हो ही चुकी थी और यही धर्म के ठेकेदारों का असल मकसद था. मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी तो प्यादेभर हैं, वरना बहिष्कार का खेल बड़े पैमाने पर व्यापरियों द्वारा भी खेला जाता है. मेवात के अधिकतर मुसलमान भी गरीब, मेहनतकश मजदूर हैं. इन में कारीगरों की तादाद खासी है जो ज्यादातर बिहार, पश्चिम बंगाल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आ कर अपने हुनर से पैसा कमाते हैं. हिंसा के बाद नूंह से प्रवासी मुसलिमों का भागना शुरू हो गया.

सप्ताहभर में ही छोटे और म?ाले मुसलिम व्यापारी पाईपाई को मुहताज हो गए. अपनी यह तकलीफ उन्होंने मीडिया से सा?ा भी की. गुरुग्राम में सैलून सहित कपड़े और कबाड़ की सैकड़ों दुकानें चलाने वाले मुसलमान एक ?ाटके में पिछड़ गए हैं. यही हाल बाइक मरम्मत करने वाले छोटेबड़े वर्कशौपों का रहा और मीटमांस के व्यापारी भी अछूते नहीं रहे. इन लोगों ने बताया कि हिंसा और बहिष्कार के बाद हमारे कारोबार और दुकानें इतने ठप हो गए हैं कि हमे खानेपीने के लिए भी उधार लेना पड़ रहा है.

हालात 15 अगस्त के बाद थोड़े सुधरे लेकिन तब तक हजारों मुसलिम कारीगर और मजदूर अपने गृहराज्यों को पलायन कर चुके थे. अब इन्हें फिर से पनपने में सालों लग जाएंगे लेकिन इन की बदहाली के जिम्मेदार और गुनाहगार लोगों का कुछ बिगड़ेगा, इस में शक है क्योंकि नफरत की जड़ें चूंकि धर्म की देन हैं इसलिए गहरी भी बहुत हैं जो कानून की खुरपी से तो उखड़ने से रहीं.

हाल तो यह है कि दानदक्षिणा का करोबार भी बहिष्कार की बीमारी और साजिश का शिकार है. शिर्डी वाले साईं बाबा को मुसलिम और वेश्यापुत्र करार दे कर सनातनी धर्मगुरु अकसर यह उलाहना देते रहते हैं कि हिंदुओं के 33 करोड़ देवीदेवता हैं तो फिर क्यों तुम सनातनी पीरफकीरों की मजारों पर जा कर माथा टेकते व पैसा चढ़ाते हो जो मुसलिमों के पास जाते हैं और इसे वे तुम्हारे ही देश को तोड़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं.

साईं बाबा के खिलाफ यह मुहिम एक शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने शुरू की थी जिस की कमान अब बागेश्वर बाबा और देवकीनंदन ठाकुर जैसे ब्रैंडेड संतों ने थाम ली है. इन सब की तकलीफ वह करोड़ों का चढ़ावा है जो शिर्डी और अजमेर सहित छोटीमोटी मजारों पर हिंदू चढ़ाते हैं.

आप की इज्जत खतरे में है योर औनर

नूंह की हिंसा के बाद मुसलमानों के सामाजिक और खासतौर से आर्थिक बहिष्कार पर वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजवादी पार्टी के सांसद कपिल सिब्बल ने 8 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करते इस पर तुरंत कार्रवाई और दखल की गुहार लगाई थी. अपनी याचिका में उन्होंने कहा था कि गुरुग्राम में जो हो रहा है वह बेहद गंभीर मामला है.

शाहीन अब्दुल्ला नाम के मुवक्किल की तरफ से दायर इस याचिका में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने यह भी कहा था कि नूंह हिंसा के बाद कई राज्यों में ऐसे कार्यक्रम हुए हैं जिन में इस तरह की अपीलें की गई हैं. ये आपत्तिजनक हैं और कोर्ट को इस में दखल देना चाहिए. बतौर सुबूत, इस याचिका के साथ हिसार का वीडियो, गाजियाबाद के पोस्टर और मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक भाषण का भी जिक्र किया गया था जिस में विहिप के नेता कपिल स्वामी ने पुलिस वालों की मौजूदगी में मुसलिमों के बहिष्कार का ऐलान किया था.

जवाब में जस्टिस संजीव खन्ना वाली बैंच ने कहा कि महापंचायत में मुसलमानों के बहिष्कार की घोषणा किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है. भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, ऐसा मेकैनिज्म बनाना जरूरी है, इस समस्या का हल निकालना होगा. अदालत ने यह भी कहा कि हम राज्य के डीजीपी से कहेंगे कि वे एक कमेटी का गठन करें जो सभी हेट स्पीच को इकट्ठा कर उन पर गौर करें और कंटैंट की जांच करें.

इस के बाद 18 अगस्त की सुनवाई में यह साफ हो गया कि सुप्रीम कोर्ट भी कुछ खास नहीं कर पाएगा. एक और वकील ने दलील देते केरल के मामले का हवाला दिया जिस में एक रैली के दौरान इंडियन यूनियन मुसलिम लीग की युवा शाखा के सदस्य हिंदू मुरदाबाद के नारे लगाते दिखे थे. इस पर जस्टिस खन्ना ने कहा था कि हेट स्पीच के बारे में दोनों पक्षों से सामान व्यवहार किया जाएगा. दोषियों से कानून के मुताबिक निबटा जाएगा.

अब पेशियां लगती रहेंगी लेकिन हेट स्पीच और बहिष्कार में फर्क करना मुश्किल हो जाएगा. ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे जिन में हिंदुओं ने मुसलमानों के बहिष्कार का ऐलान किया लेकिन एक मामला भी ऐसा नहीं मिलेगा जिस में मुसलमानों ने हिंदुओं के बहिष्कार की बात की हो. इस का मतलब यह नहीं कि मुसलमान बहुत उदार हैं या उन में कट्टर लोग नहीं हैं, दरअसल असल ?ागड़ा धर्म के बाद व्यापार का है जिस में बहुसंख्यक हिंदू अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. रही बात बहिष्कार की तो यह समस्या आईपीसी की धाराओं से नहीं सुल?ाने वाली, इस के लिए तो न तो कानून काम करेगा, न पुलिस. यह सामाजिक व धार्मिक मसला है जिसे कोई हल नहीं करना चाहता क्योंकि हरेक के अपने पूर्वाग्रह भी हैं और इंटरेस्ट भी.

कितना कारगर बहिष्कार

नूंह के अफसोसजनक हादसे में इकलौती सुकून देने वाली बात यह है कि मुसलमानों का बहिष्कार सनातनियों का शिगूफा भर साबित हुआ. इस से तात्कालिक असर तो मुसलमानों की रोजीरोटी पर पड़ा पर लोग धीरेधीरे इसे भूल गए क्योंकि मुसलमानों से व्यापार और व्यवहार दोनों उन की मजबूरी हैं. देशभर में फैले 20 करोड़ से भी ज्यादा मुसलमानों का बहिष्कार एक असंभव सी बात है जो सिर्फ नफरत फैलाने और मुसलमानों को डराने के लिए की जाती है. कोरोनाकाल में देशभर में मुसलमानों के बहिष्कार की मुहिम सोशल मीडिया पर चली थी. तब वायरल पोस्टों में यह कहते नफरत फैलाई जाती थी कि मुसलमान गंदगी से रहते हैं, वे बेचे जाने वाले उत्पादों में थूकते व पेशाब करते हैं. हाल तो यह हो गया था कि लोग सब्जी बेचने वालों तक से आधारकार्ड मांगने लगे थे.

कर्नाटक के कुछ मंदिरों के बाहर बैनर लगाए गए थे कि जिन में हुक्म दिया गया था कि मंदिर परिसरों के बाहर की दुकानें मुसलमानों को आवंटित न की जाएं. विहिप सहित बजरंग दल और हिंदू जागरण वैदिके के कार्यकर्ताओं ने नगर परिषदों और नगर निगम अधिकारियों को इस आशय के ज्ञापन सौंपे थे कि मंदिरों के बाहर मुसलमानों की दुकानें बंद की जाएं. यह मार्च 2022 की बात है तब कर्नाटक में भाजपा की सरकार थी. बवाल मचने पर भाजपाई मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने राज्य कानून का हवाला देते स्पष्ट कह दिया था कि सरकार इस में दखल नहीं दे सकती. नतीजतन, जनता ने उन्हें ही चलता कर दिया.

जब वहां कांग्रेस सत्ता में आई तो बहिष्कार की काई और खाई दोनों छंट गईं. लोगों ने सेवा या सामान लेने से पहले यह नहीं पूछा कि भैया, तुम हिंदू हो या मुसलमान. जिसे जहां जैसी सहूलियत रही, वहां से उस ने लेनदेन किया और अभी भी कर रहे हैं जो सिर्फ सनातनी हुड़दंगियों को अखरता है.

लेकिन यह जरूर साबित हो गया कि मुसलमानों के बहिष्कार का टोटका भाजपाशासित राज्यों में ज्यादा फलताफूलता है क्योंकि वहां के मंटुओं और बिट्टुओं को सरकार सहित कट्टरवादियों की सरपरस्ती मिली होती है. नूंह और आसपास के इलाकों में अब शांति बहाल हो रही है. हालांकि बिट्टू बजरंगी की गिरफ्तारी के बाद मुसलमानों में पसरा खौफ कम हुआ है लेकिन अभी खत्म नहीं हुआ है.

हिंदुओं के सामने चुनौतियां तो खुद की हैं, बढ़ती बेरोजगारी है. बढ़ती रिश्वतखोरी है. बढ़ते शहरों का सड़ना है. औरतों के साथ रेप, दहेज, नौकरियों में भेदभाव है. हिंदू नेता इन सवालों को न उठाएं. इसलिए हर समय ध्यान बंटाने के लिए बहिष्कार, राम मंदिर, गौहत्या जैसे बहाने ढूंढ़ते रहते हैं. वहीं हिंदू औरतें ही जाग गईं और उन्होंने पुरुषों के बजाय पाखंडभरे रीतिरिवाजों, नियमों, कार्यप्रणाली नियमों को चुनौती दे दी तो क्या होगा?

तुम कैसी हो : आशा के पति को क्या उसकी चिंता थी?

एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स, म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं. आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है.

50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का. मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है. औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट.

कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’ आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है. दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो. ‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली. मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई. आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की.

वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का. ‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था. महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की.

जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत. घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं. शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी.

मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’ यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने.

मुझे मेरी दोस्त के साथ मेकअप प्रॉडक्ट शेयर करना अच्छा नहीं लगता, इसके लिए मैं उसे मना कैसे करूं?

सवाल 

मेरी एक काफी करीबी दोस्त है. बचपन से लेकर कालेज तक हम ने अपनी हर चीज शेयर की है. बाकी सब तो ठीक है लेकिन उस का मेरा मेकअप प्रोडक्ट शेयर करना मु?ो बिलकुल पसंद नहीं. मैं ने यह बात उसे बातों बातों में कई बार बोल भी दी है लेकिन वह नहीं मानती. साफ बोल दूं तो कहीं वह बुरा न मान जाए. क्या करूं, सलाह दें.

जवाब 

दोस्ती में अपने सीक्रेट्स और चीजें शेयर करना अच्छी बात है लेकिन मेकअप प्रोडक्ट शेयर करना स्किन को नुकसान पहुंचा सकता है. इस के अलावा मेकअप प्रोडक्ट शेयरिंग से जुड़ी अन्य बीमारियों में हर्पीस भी शामिल है, जो घावों और खुजली, चकत्ते और सूजन का कारण बनता है. जैसे, आंखों का काजल, आईलाइनर और मस्कारा शेयर करने से लाल आंखें, आंखों में खुजली, जलन, आंख से पानी आना आदि समस्याएं हो सकती हैं. वहीं, लिपस्टिक शेयर करने से हर्पीस समेत कई अन्य इन्फैक्शन हो सकते हैं.

मेकअप ब्रश और ऐप्लिकेटर आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे में बैक्टीरिया ले जा सकते हैं, आप अपनी दोस्त को साफसाफ शब्दों में यह बात सम?ाएं. सम?ादार होगी तो आप का कहना जरूर मानेगी. तब भी न माने तो कह दें कि आप को स्किन प्रौब्लम हो रही है, इसलिए मेकअप प्रोडक्ट्स शेयर नहीं कर सकती. तब वह बुरा माने या अच्छा, चिंता मत करिए. वैसे, सम?ादार फ्रैंड है, तो बुरा बिलकुल नहीं मानेगी.

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