बिहार में हुई जातीय जनगणना सर्वे का पहला हिस्सा सब के सामने रख दिया गया है जिस में यह बताया गया है कि किस जाति की कितनी भागीदारी है. इस के बाद यह बहस तेज हो गई है कि किस जाति को कितनी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी.
जातीय जनगणना सर्वे रिपोर्ट के दूसरे हिस्से में यह बताया जाएगा कि किस जाति की सामाजिक व आर्थिक हालत क्या है? तब यह बहस और तेज होगी.
मंडल कमीशन लागू होने के बाद पिछड़ों में अगड़ों को अधिकार मिल गया था, अब जातीय जनगणना से बहुत पिछड़ी जातियों को हक मिल सकेगा. इस कारण ही जातीय जनगणना को मंडल पार्ट -2 भी कहा जा सकता है.
जब दलित पिछड़ा कोई काम करता है तो उसे खराब नजरों से देखा जाता है. इस की वजह यह है कि यह मापदंड सवर्णों ने ही बनाया है. जो काम और धंधे सवर्ण करते हैं उन को अच्छा और सम्मानजनक बताया जाता है. जो काम दलित और पिछड़े अच्छी तरह से करते हैं उन को गलत और धर्म विरोधी ठहरा दिया जाता है. यह काम सदियों से चला आ रहा है. शूद्र देवदासियों को तो नफरत से देखा जाता है, लेकिन सचाई यह है कि उन्होंने ही नृत्य और संगीत को बचाया. एक समय में दलित आदिवासी गांव की खुली चौपाल में नाचगाना करते थे. उस समय उन्हें हेय समझा जाता था.
पहले नृत्य, संगीत, गायन, नाटक और चित्रकला आदि पर दलितों और पिछड़ों का वर्चस्व हुआ करता था. तब इन कला और इन के कलाकारों को कमतर समझा जाता था. इन कलाकारों को नचनिया, गवैया, भांड, ढोलबाज, नट आदि कहा जाता था. जब शहरी सभ्यता विकसित हुई तब इन्हीं कलाओं को सवर्णों ने भी अपनाया तब इन को कला बता कर वाहवाही लूटी. अब इन कलाओं को सिखाने के लिए बड़ेबड़े शहरों में संस्थान, सांस्कृतिक केंद्र, कला मंडल और अकादमी स्थापित हो गए हैं, जिन पर सवर्णों का कब्जा हो गया है.