Download App

आई किल्ड बापू : हत्यारा गोडसे को महान बताने की गाथा

रेटिंग : 5 में से 1 स्टार

महात्मा गांधी की जीवनी पर अब तक कई फिल्में, डौक्यूमैंट्री बन चुकी हैं जबकि पिछले 3-4 सालों के दौरान महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम विनायक गोडसे पर कुछ फिल्में भी बनी हैं. अब फिल्मकार हैदर काजमी फिल्म ‘आई किल्ड बापू’ ले कर आए हैं, जिस में नाथूराम विनायक गोडसे अदालत के अंदर महात्मा गांधी की हत्या करने की बात कुबूल करते हुए इस की वजह बताते हैं.

गोडसे के अनुसार, महात्मा गांधी ने उन के ‘अखंड भारत’ यानि ‘अविभाजित भारत’ और हिंदू राष्ट्र के सपने को तोड़ दिया. यह फिल्म महात्मा गांधी की हत्या के बाद गिरफ्तार नाथूराम गोडसे के परिप्रेक्ष्य की पड़ताल करती है. फिल्म गोडसे की मानसिकता पर रोशनी डालते हुए राष्ट्रपिता की हत्या के पीछे गोडसे के उद्देश्यों की जांच करती है.

फिल्म शुरू होने से पहले ही डिस्क्लैमर में कहा गया है कि फिल्म उन घटनाओं से प्रेरित है, जो सार्वजनिक डोमेन में है और इस का उद्देश्य उन घटनाओं को सटीक रूप से प्रतिबिंबित करना नहीं है जो घटित हो सकती हैं.

कहानी : नाथूराम गोडसे की किताब ‘मैं ने गांधी का वध क्यों किया’ पर आधारित इस फिल्म की शुरुआत में वायस ओवर से भारत में मुसलिम कट्टरपंथियों के आगमन, फिर अंगरेजों के शासन, आजादी की लड़ाई व देश के विभाजन की बात को 10 मिनट में कहती है. उस के बाद नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या करने और घातक गोलियां चलाने से पहले अपना पक्ष समझाने के लिए उन के साथ एक संक्षिप्त बातचीत से होती है.

हत्या के बाद कहानी सीधे अदालत के अंदर चली जाती है, जहां गोडसे को अपना बचाव पेश करने का मौका दिया जाता है. इस के बाद नाथूराम विनायक गोडसे एक लंबे मोनोलौग में समझाने का प्रयास करता है कि गांधी से उन की निजी दुश्मनी नहीं थी. वह तो खुद गांधीजी के प्रशंसक हैं मगर देश के विभाजन के बाद सामने आई घटनाओं के चलते गांधी की हत्या जरूरी थी.

अपने बचाव में वह खिलाफत आंदोलन से ले कर भारत सरकार के रुपए देने के प्रस्ताव तक की घटनाओं का हवाला देते हैं. विभाजन के बाद पाकिस्तान को ₹55 करोड़ की सहायता देने को गांधी का गलत निर्णय बताते हैं. इन घटनाओं ने सामूहिक रूप से आबादी के एक निश्चित वर्ग के बीच असंतोष को बढ़ावा दिया, जिस से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गांधी ‘अखंड भारत‘ के विचार की प्राप्ति में प्राथमिक बाधा बन गए थे और जिस के चलते उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए.

देश की आजादी के बाद से अब तक महात्मा गांधी की हत्या और अदालत द्वारा गोडसे को दी गई मौत की सजा सब से अधिक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है.

इसी मुद्दे पर फिल्मकार हैदर काजमी की फिल्म ‘आई किल्ड बापू‘ पूरी तरह से महात्मा गांधी की हत्या के लिए नाथूराम गोडसे के विचारों और प्रेरणाओं पर केंद्रित है, जिसे उन की गिरफ्तारी और अदालत में पेशी के बाद एक लंबे एकालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है.

निर्देशन : सिनेमाई नजरों से कथाकथन का यह तरीका काफी बोर करने वाला है. फिल्म में मनोरंजन के क्षण नहीं हैं. कम से कम 1 घंटा लगातार नाथूराम गोडसे अदालत के सामने अपने विचार रखते हैं. पूरी फिल्म देख कर एक ही बात उभरती है कि यह सिनेमा नहीं बल्कि हत्या को सही ठहराने का मंच मात्र है जबकि हत्या तो हत्या ही है, भले ही उस का मकसद कुछ भी हो.

कमजोर पटकथा के चलते फिल्म अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती. अदालत के अंदर गोडसे लगातार अपने विचार रखते जाते हैं, बीच में कहीं कोई प्रतिवाद नहीं है. अदालत के अंदर जज भी गोडसे की बात एकटक सुनते रहते हैं, जिस से यह आभास होता है कि वह गोडसे की बातों से प्रभावित हैं पर अंत में वह गोड़से को मौत की सजा सुनाते हैं जो कि आभास देता है कि वह ऐसा किसी मजबूरी में कर रहे हैं.

अदालत के अदंर वादप्रतिवाद तो होना ही चाहिए था पर फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है. परिणामतया यह फिल्म इस बात की ओर इशारा करती है कि इसे किसी खास ऐजेंडे के तहत ही बनाई गई है.

फिल्मकार ने नाथूराम गोडसे को स्वतंत्रता सैनिक, देशभक्त, हिंदू राष्ट्र व ‘अखंड भारत’ के समर्थक और कट्टर राष्ट्रवादी के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है. फिल्म में बताया गया है कि वह जाति से ब्राह्मण और हिंदू धर्म के अनुयायी थे. उन्हें हिंदू होने पर गर्व था. इसी कारण नाथूराम गोडसे ने मौत से पहले अपनी अंतिम इच्छा के रूप में अपनी अस्थियों को सिंधू नदी में प्रवाहित करने की बात कही थी.

फिल्मकार ने इस फिल्म में नाथूराम विनायक गोडसे को धर्म के लिए खुद को बलिदान करने वाले के रूप मे ही चित्रित किया है. इस से कितने लोग सहमत होंगे, पता नहीं. फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू भी कमतर है. किरदार के अनुरूप कलाकारों का चयन नहीं किया गया.

स्वस्थ तन मन के लिए जरूरी है नींद

नींद हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी है. इस के बिना हम चुस्तदुरुस्त नहीं रह सकते. शोध में पाया गया है कि नींद जहां हमारे शरीर को आराम देती है, वहीं शरीर को स्वस्थ भी रखती है. नींद के अभाव में अल्जाइमर जैसी जानलेवा बीमारी के खतरे की आशंका बढ़ जाती है. इस खतरनाक बीमारी की जांच के लिए डेविड होल्ट्जमैन ने चूहों और मनुष्यों के शरीर पर शोध किया.

शोध में पाया गया कि नींद चूहों और मनुष्यों में बीटा एमिलायड के स्तर को प्रभावित कर शरीर में कंपन पैदा करती है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नींद पूरी न होने से शरीर की कुछ कोशिकाएं डैमेज हो जाती हैं, जिस की वजह से शरीर में कंपन शुरू हो जाता है. जिस से शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है. शोध में यह भी स्पष्ट हुआ है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 6-7 घंटे की नींद आवश्यक है. नींद पूरी न होने की वजह से उच्च रक्तचाप व दिल के रोग होने की आशंका बढ़ जाती है इसलिए पूरी नींद जरूर लें.

शोध के दौरान यह भी पाया गया कि चूहों में बीटा एमिलायड का स्तर उस समय अधिक होता है जब वे जागे होते हैं. जब हम जागते हैं तो हमारा मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय होता है और यह बीटा एमिलायड के स्राव का कारण हो सकता है. नींद ठीक से न आने की वजह से व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है इस के बावजूद डाक्टर नींद की दवा लेने की सलाह नहीं देते.

वैज्ञानिक शोधों में अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि नींद की दवा लेना जरूरी है या नहीं. कैंब्रिज विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी डोमेन क्रोपर के अनुसार, अगर भविष्य में नींद और अल्जाइमर का संबंध साबित हो जाता है तो लोगों को दवा खिलाने के बजाय सोने को प्रेरित करने के लिए अभ्यास कराना ज्यादा सही रहेगा.

नींद पर शोध कर रही अल्जाइमर्स सोसायटी लंदन भी स्पष्ट नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है कि नींद के लिए दवा लेना जरूरी है या नहीं. नींद अगर प्राकृतिक रूप से ली जाए तो इस के परिणाम सुखद होंगे? इस तर्क पर ही विशेषज्ञों के एकमत होने की संभावना है. सकारात्मक सोच के साथ यदि कोई कार्य किया जाए तो उस के परिणाम सुखद व अच्छे ही निकलते हैं.

नींद के मामले में भी कुछ ऐसा ही है.नींद हमारे शरीर के लिए क्यों आवश्यक है? यह एक वैज्ञानिक प्रश्न हो सकता है, पर प्रश्न के जवाब में तो यही स्पष्ट होता है कि नींद हमें मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाती है. पर्याप्त नींद लेने से हमारी निर्णय लेने की क्षमता भी बढ़ती है.

एक लड़की ने मुझे प्रपोज किया था पर मैंने उसे मना कर दिया है, फिर भी वो मान नहीं रही है, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 22 साल है. मैं एक सरकारी कर्मचारी हूं. कुछ दिनों पहले एक लड़की ने मुझे प्रपोज किया था लेकिन मैं ने उसे मना कर दिया. मैं ने उसे बता दिया कि मैं किसी और से प्यार करता हूं. फिर भी वह मानती नहीं है और बारबार मुझे कौल करती है. मैं अपनी गर्लफ्रैंड को धोखा नहीं देना चाहता?

जवाब
आप ने शुरुआत से ही उस लड़की को धोखे में नहीं रखा और सब सचसच बता दिया, यह अच्छा है. अगर वह आप के बारबार समझाने पर भी न समझे तो उसे सख्त लहजे में समझाएं कि आप के बारे में वह सोचना छोड़ दे क्योंकि आप किसी और के प्रति सीरियस हैं और जोरजबरदस्ती से किसी को हासिल नहीं किया जा सकता. इसलिए वह बारबार कौल कर के आप को परेशान न करे.

ये भी पढ़ें…

शादी से पहले अपने पार्टनर को ऐसे करें प्रपोज

अरेंज मैरिज हो या लव मैरिज. आप पहलें अपने पार्टनर को पूरा तरह जानने की कोशिश करते हैं जिससे कि शादी के बाद उसे समझनें में ही आधा वक्त न निकल जाए. अरेंज मैरिज की बात करे तो आप और आपकी पार्टनर दोनों ही अनजानें सफर में चल पडते है. पहलें जमाने की बात करें तो शादी से पहले मिलना भी बड़ी मुश्किल का काम था लेकिन इस जमानें में इस सफर को आसान बनानें के लिए सगाई का दौर शुरू हो गया जिससे की आप एक-दूसरें के ठीक ढंग से पहचान सकें, एक-दूसरें की आदतो, पसंद-नापसंद के बारें में जान सके. माना जाता है कि अरेंज शादी में प्यार शादी के बाद और लव मैरिज में शादी से पहले प्यार होता है.

अगर आप चाहें तो अरेंज मैरिज के शादी सें पहलें ही दोनों के बीच प्यार ला सकते है लेकिन आपकी हिचकिचाहट और ठीक ढंग आइडिया न हो पाने के कारण ज्यादा समय लग जाता है. लेकिन हम अपनी खबर में ऐसी आइडिया के बारें में बताएगें जिन्हें अपनाकर अरेंज मैरिज को भी लव में बदला जा सकता है.

फैमली और दोस्तों की सहायता लें

अपनें पार्टनर की पसंद-नापसंद को जानने के लिए आपकी सहायता फैमली और दोस्त ही सबसे ज्यादा कर सकते हैं. अपनें दोस्तों की मदद से अपने पार्टनर को बाहर घूमने के लिए भेजिए और आप घर के एक अच्छें से कमरें को चुन कर अपने पार्टनर की पसंद की चीजों जैसे की उसकी पसंद के फूल, कैंडल आजि से सजाए और उसके वापस आने पर उसे  डेकोरेटेड रूम में वेडिंग रिंग के साथ प्रपोज करें. जो जरुर आपसे इंप्रेस हो जाएगी.

पिक्चर हॅाल में

प्रपोज करने का यह तरीका अच्छा साबित हो सकता है. यह तरीका थोड़ा फिल्मी है लेकिन इससे आपकी लाइफ पार्टनर इंप्रेस हो सकती है इसके लिए आपको सही समय को चुनें और इसके लिए सही समय है कि हॅाल खाली है या फिर इंटरवल का वक्त हो या फिर आप चाहें तो थियेटर बुक करा लें. इसके बाद सबसे सामने अपनी पार्टनर से पूछें “विल यू मैरी मी”.

सगाई होने से पहलें करें प्रपोज

सगाई वालें दिन आपनी पार्टनर के पास जाकर उसके सामनें घुटनें के बल बैठ कर उसे प्रपोज करें यद बहुत ही रोमांटिक होगा.

पार्टनर के जन्मदिन पर

अगर आप लकी हुए औऱ शादी और सगाई से पहलें उसका बर्थडे पड़ रहा हा तो यह आपके लिए प्रपोज करने का अच्छा मौका है. इसके लिए उसे डेट में ले जाए या फिर उनके रूम  में बड़ा से गिफ्ट रखें और साथ में अपने हाथ से लिखा हुआ कार्ड भी रखें. जिसमें अपने हाथों से ‘हैप्पी बर्थडे माय लव, विल यू मैरी मी’ लिखकर उन्हें प्रपोज करें.

फैमिली डिनर पर करें प्रपोज

शादी से पहले दोनों परिवार मिलकर किसी डिनर या लंच का प्लान कर सकते हैं. खाने की टेबल पर सबको अटेंशन करते हुए पेरेंट्स को थैंक्यू कहें कि उन्होंने आपके लिए खूबसूरत और अंडरस्टैडिंग पार्टनर चुना और फिर पार्टनर के सामने शादी का प्रपोजल रखें. ये इमोशनल आइडिया केवल पार्टनर का ही नहीं, बल्कि पेरेंट्स के दिल को भी छू जाएगा.

वीडियो बनाकर अपनी पार्टनर को करें इंप्रेस

आजकल समय कम होने के कारण सगाई और शादी के बीच के बहुत कम समय मिलता है एक-दूसरें को जाननें का लेकिन आप इस  थोड़े से समय का सही इस्तेमाल कर सकते है. इसके लइए आप अपने पार्टनर की आदतों, नेचर, स्टाइल, जिस भी चीज के आफ दीवाने हैं इऩ बातों को लेकर उसकी तारीफ करते हुए एक वीडियों बना कर उसे एक्सप्रेस करें और साथ ही उन्हें इस वीडियो के जरिए प्रपोज करें. इस वीडियो को उनके साथ अपने फ्रेंड्स को भी शेयर करें. पार्टनर को इम्प्रेस और प्रपोज करने का ये बेहतरीन आइडिया उन्हें जरूर पसंद आएगा.

अटूट बंधन : एक दूसरे की कमी पूरी करते प्रेमियों की कहानी

story in hindi

जूमजूम झूम वाला : लड़कियों की फोटो खींचना कैसे पड़ गया भारी हेमंत और रोहित को ?

रोहित ने शान से अपना नया स्मार्टफोन निकाल कर अपने दोस्तों को दिखाया और बोला, ‘‘यह देखो, पूरे 45 हजार रुपए का है.’’

‘‘पूरे 45 हजार का?’’ रमन की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘आखिर ऐसा क्या खास है इस मोबाइल में?’’

‘‘6 इंच स्क्रीन, 4 जीबी रैम, 32 जीबी आरओएम, 16 एमपी ड्यूल सिम, 13 मेगापिक्सल कैमरा…’’ रोहित अपने नए फोन की खासीयतें बताने लगा.

रोहित के पापा शहर के बड़े व्यापारी थे. रोहित मुंह में सोने का चम्मच ले कर पैदा हुआ था. उस की जेब हमेशा नोटों से भरी रहती थी इसलिए वह खूब ऐश करता था.

रोहित के पापा भी यह जानते थे, लेकिन उन्होंने कभी रोहित को टोका नहीं. उन का मानना था कि कुछ समय बाद तो रोहित को ही उन का व्यापार संभालना है इसलिए अभी जितनी मौजमस्ती करनी है कर ले.

पापा की छूट का रोहित पर बुरा असर पड़ रहा था. वह पढ़नेलिखने के बजाय नएनए दोस्त बनाने और मस्ती करने में लगा रहता.

आज भी वही हो रहा था. क्लास बंक कर के रोहित कैंटीन में दोस्तों के साथ बैठा अपनी शेखी बघारता हुआ उन्हें अपने नए मोबाइल की खूबियां बता रहा था. उस के दोस्त भी उस के मोबाइल की तारीफ के पुल बांधने में जुटे थे.

‘‘यार, मानना पड़ेगा, तुम्हारे पापा तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. तभी तो तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी कर देते हैं,’’ सनी ने मोबाइल को देखते हुए कहा.

‘‘क्या बात करते हो यार, मेरी तो ज्यादातर ख्वाहिशें अधूरी हैं,’’ रोहित बोला.

‘‘कार, सूट, कीमती घडि़यां, विदेशी चश्मे और नोटों की गड्डियां सबकुछ तो तुम्हें हासिल है जिन के बारे में हम लोग सोच भी नहीं सकते. इस के बाद भी तुम्हारी कौन सी ख्वाहिश अधूरी रह गई है?’’ उमंग ने जानना चाहा.

‘‘कार, माईफुट. एक कार पकड़ा दी और पिछले 2 साल से उसे ढो रहा हूं,’’ रोहित ने बुरा सा मुंह बनाया. फिर लंबी सांस भरते हुए बोला, ‘‘मेरी तो ख्वाहिश है कि मेरा अपना एक प्राइवेट जैट हो, जिस पर बैठ कर मैं वीकऐंड मनाने यूरोप जाऊं. स्विट्जरलैंड में अपना एक खूबसूरत सा विला हो, जहां गर्लफ्रैंड के साथ छुट्टियां मनाने जाऊं.’’

‘‘यार, तुम्हारे पापा इतने अमीर हैं. तुम्हारा यह ख्वाब वे एक दिन जरूर पूरा करेंगे,’’ रमन ने कहा.

‘‘तुम्हारे मुंह में घीशक्कर,’’ रोहित ने रमन की पीठ थपथपाई, फिर बैरे को बुला कर सभी के लिए एकएक बर्गर और कोल्ड ड्रिंक का और्डर दिया, जबकि एकएक पिज्जा वे पहले ही खा चुके थे.

‘‘अरे भाई, किस चीज की दावत चल रही है,’’ तभी हेमंत ने कैंटीन में प्रवेश करते हुए पूछा.

‘‘रोहित 45 हजार का नया मोबाइल फोन लाया है. ऐसा मोबाइल पूरे शहर में किसी के पास नहीं होगा,’’ दीपक ने कोल्ड ड्रिंक का घूंट पीने के बाद मुंह पोंछते हुए बताया.

‘‘ऐसी क्या खास बात है इस में?’’ हेमंत ने करीब आ कर एक कुरसी पर बैठते हुए पूछा, तो रोहित से पहले रमन उस की खूबियां गिनाने लगा.

हेमंत ने मोबाइल हाथ में ले कर गौर से देखा. फिर बोला, ‘‘यार, तुम्हारे पिछले स्मार्टफोन में भी तो यही सब फीचर्स थे.’’

‘‘हां, लेकिन यह 4जी फ्रैंडली है और इस का कैमरा जूम वाला है. इस से तुम यहीं बैठेबैठे फोन के कैमरे को जूम कर दूर का फोटो भी साफसाफ खींच सकते हो और कोई तुम्हें देख भी नहीं पाएगा,’’ रोहित ने रहस्यमय अंदाज में फुसफुसाते हुए बताया.

‘‘कोई देख नहीं पाएगा तो उस से क्या फायदा होगा?’’ हेमंत ने पूछा.

‘‘यार, तू भी न पूरा घोंचू है,’’ रोहित ने कहा और फिर आगे बढ़ कर हेमंत की जेब से उस का मोबाइल निकाल कर उस के हाथ में रखते हुए बोला, ‘‘वह देख, तेरी क्लास की लड़की आ रही है. जा उस का एक फोटो खींच ला.’’

‘‘अबे, मरवाएगा क्या? कोई फोटो खींचते हुए देख लेगा तो जूते तो पड़ेंगे ही कालेज से भी निकाल दिया जाऊंगा,’’ हेमंत ने हड़बड़ाते हुए अपना मोबाइल अपनी जेब में वापस रख लिया.

रोहित ने ठहाका लगाया और बोला, ‘‘बेटा, यही खास बात है मेरे फोन में कि यहीं बैठेबैठे जूम कर के किसी का भी फोटो खींच लो और उसे व्हाट्सऐप ग्रुप पर डाल दो ताकि सारे दोस्त उसे देख कर झूम सकें.’’

‘‘अरे वाह, तब तो इस फोन का नाम जूमजूम झूम वाला रख दो,’’ हेमंत का चेहरा खिल उठा. फिर वह खुशामदी स्वर में बोला, ‘‘यार, एक मिनट के लिए अपना फोन देना जरा इस लड़की का एक फोटो खींच लूं. क्लास में तो यह लिफ्ट ही नहीं देती,’’ हेमंत ने एक लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘छोड़ न यार. इस का क्या फोटो खींचना. यह लड़की तो रोज वाली है. बगल में जो गर्ल्स कालेज है वहां की लड़कियां बहुत नकचढ़ी हैं. सीधे मुंह बात ही नहीं करतीं. चल उन में से किसी खास पीस का फोटो खींच कर करते हैं कैमरे का उद्घाटन,’’ रोहित ने अपने दिल की बात सब के सामने रखी.

‘‘अरे वाह, आइडिया अच्छा है,’’ हेमंत चहकते हुए बोला, ‘‘ला, यह शुभ काम मैं ही कर दूं. बदले में तुम जो कहोगे कर दूंगा.’’

‘‘चल तू भी क्या याद करेगा,’’ रोहित ने मोबाइल हेमंत को पकड़ाया और बोला, ‘‘बस, एक शर्त है, फोटो जोरदार होना चाहिए. अगर सब को पसंद नहीं आया तो आज के नाश्ते का बिल तुझे भरना होगा.’’

‘‘मंजूर है,’’ हेमंत ने कहा और सभी दोस्तों की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘चलो, सभी बाउंड्री वाल के पास. जिस का कहोगे उस का फोटो खींच दूंगा.’’

‘‘इतने लोग गर्ल्स कालेज के पास जाएंगे तो पकड़े जाएंगे. तुम अकेले जाओ और चुपचाप फोटो खींच लाओ,’’ रोहित ने समझाया.

‘‘ठीक है,’’ हेमंत ने सिर हिलाया और मोबाइल ले कर सधे कदमों से ऐसे बाहर निकल गया जैसे किसी मोरचे पर जा रहा हो.

उस के कैंटीन से बाहर निकलते ही रोहित ने कहा, ‘‘यह अपने को बहुत तीसमारखां समझता है. आज इसे बकरा बनाना है. यह चाहे जितनी खूबसूरत लड़की का फोटो खींच कर लाए, सब उसे रिजैक्ट कर देना. फिर आज का बिल इसे ही भरना पड़ेगा.’’

यह सुन सभी ने ठहाका लगाया और हेमंत के वापस आने का इंतजार करने लगे.

थोड़ी देर बाद ही रमन, दीपक, उमंग और सनी के मोबाइल पर हेमंत का व्हाट्सऐप मैसेज आया.

‘‘अरे वाह, क्या पटाखा फोटो खींचा है,’’ कहते हुए रमन ने रोहित को फोटो दिखाया तो वह सन्न रह गया. दरअसल, उस कालेज में उस की बहन तान्या भी पढ़ती थी और हेमंत ने उसी का फोटो खींच कर व्हाट्सऐप ग्रुप पर डाल दिया था वह भी उसी के नंबर से.

‘‘अबे, यह क्या कर दिया इस घोंचू ने, मेरी ही बहन का फोटो खींच कर व्हाट्सऐप ग्रुप पर डाल दिया. अब तक तो यह फोटो पचासों लड़कों के पास पहुंच चुका होगा,’’ रोहित ने दोस्तों को बताया तो सभी परेशान हो गए.

‘‘क्या यह तुम्हारी बहन है, ओह नो,’’ कहते हुए सभी ने अपनेअपने मोबाइल जेब में रख लिए.

‘‘मैं इस कमीने को छोडूंगा नहीं,’’ रोहित के जबड़े भिंच गए और आंखें लाल अंगारा हो उठीं.

जैसे ही हेमंत कैंटीन में दाखिल हुआ, उसे देखते ही रोहित तेजी से उस की ओर लपका और उस के चेहरे पर घूंसा जड़ दिया.

‘‘यह क्या मजाक है?’’ हेमंत बोला.

‘‘मजाक तो तू ने किया है, जो अब तुझे बहुत महंगा पड़ने वाला है,’’ गुस्से से कांपते हुए रोहित ने हेमंत पर लातघूंसों की बरसात कर दी.

हेमंत की समझ में ही नहीं आ रहा था कि रोहित उसे मार क्यों रहा है. अचानक हेमंत ने रोहित को पूरी ताकत से धक्का दिया तो वह दूर जा गिरा. फिर हेमंत उसे घूरते हुए बोला, ‘‘तू पागल हो गया है क्या, जो मारपीट कर रहा है. आखिर बात क्या है?’’

‘‘पागल तो तू हो गया है, जो तूने मेरी बहन का फोटो व्हाट्सऐप ग्रुप पर डाला है,’’ रोहित उसे खा जाने वाले लहजे में बोला तो हेमंत की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘क्या रोहित वह तुम्हारी बहन है. मुझे तो पता नहीं था और न ही मैं उसे पहचानता हूं, उफ, यह क्या हो गया?’’ हेमंत ने अपना सिर पकड़ लिया. उस की आंखों में पाश्चात्ताप साफ झलक रहा था.

वह रोहित के पास पहुंच भर्राए स्वर में बोला, ‘‘रोहित, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई है. तेरी बहन मेरी बहन हुई. मैं ने अपनी बहन को ही बदनाम कर दिया. मुझे माफ कर दे.’’

‘‘यह क्या तमाशा हो रहा है यहां पर?’’ तभी प्रिंसिपल साहब की कड़क आवाज सुनाई पड़ी. मारपीट होते देख कैंटीन का मैनेजर उन्हें बुला लाया था.

‘‘जी, कुछ नहीं. वह हम लोगों का आपसी मामला था,’’ रोहित हड़बड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ.

‘‘आपसी मामले इस तरह निबटाए जाते हैं?’’ प्रिंसिपल साहब ने दोनों को डांटा. फिर बोले, ‘‘तुम लोग मेरे औफिस में आओ.’’

रोहित और हेमंत प्रिंसिपल साहब के पीछेपीछे उन के औफिस में गए. पूरी बात सुन कर प्रिंसिपल साहब का चेहरा गंभीर हो गया. उन्होंने फोन कर के फौरन दोनों के पापा को स्कूल में बुला लिया.

‘‘अंकल, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुझे नहीं पता था कि वह रोहित की बहन है. अगर पता होता तो उस का फोटो कभी न खींचता,’’ हेमंत ने रोहित के पापा के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘तड़ाक,’’ इस से पहले कि वे कुछ कह पाते हेमंत के पापा उस के गाल पर तमाचा जड़ते हुए चीखे, ‘‘अगर तुझे पता भी होता तो तू किसी दूसरी लड़की का फोटो खींच लेता,  वह भी तो किसी न किसी की बहन होती. शर्म नहीं आती ऐसी हरकत करते हुए.’’

‘‘भाई साहब, गलती इस की नहीं बल्कि मेरी है. मैं ने ही रोहित को इतनी छूट दे रखी है कि यह अच्छेबुरे का भेद भूल गया है. आज इस की बहन का फोटो खिंच गया तो इसे तकलीफ हो रही है, लेकिन यही फोटो किसी और की बहन का होता तो इसे आनंद आ रहा होता,’’ रोहित के पापा ने आगे आ कर हेमंत के पापा का हाथ थाम लिया.

‘‘तुम लोगों को सोचना चाहिए कि जिन लड़कियों के साथ तुम छेड़छाड़ करते हो वे भी किसी न किसी की बहन होती हैं. तुम लोगों की हरकतों से उन्हें कितनी तकलीफ होती होगी, सोचा है कभी?’’ प्रिंसिपल साहब ने भी कड़े स्वर में डांटा.

‘‘सर, हमें माफ कर दीजिए,’’ रोहित ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘हां सर. हम लोग अब ऐसी गलती कभी नहीं करेंगे,’’ हेमंत ने भी हाथ जोड़ कर माफी मांगी.

‘‘लेकिन फोटो वायरल होने से तान्या की जो बदनामी हुई उस का क्या होगा?’’ प्रिंसिपल साहब ने पूछा.

‘‘सर, फोटो मैं ने केवल अपनी क्लास के दोस्तों के ग्रुप पर ही डाला था. मैं अभी सब से हाथ जोड़ कर विनती करूंगा कि मेरी बहन का फोटो डिलीट कर दें,’’ हेमंत ने कहा.

‘‘ठीक है, जल्दी करो,’’ प्रिंसिपल साहब ने आज्ञा दी तो दोनों दौड़ते हुए क्लास में जा कर दोस्तों से फोटो डिलीट करने का आग्रह करने लगे. लेकिन अन्य दोस्तों से मामला पता चलने पर उन्होंने पहले ही ग्रुप से फोटो डिलीट कर दिया था.

‘‘घबराओ नहीं रोहित, तुम्हारी बहन हमारी भी बहन है. हम भी नहीं चाहेंगे कि उस के साथ गलत हो. साथ ही हम ने भी ऐसी छेड़खानी से तोबा करने की सोच ली है,’’ रमन सब की ओर से बोला. अब तक प्रिंसिपल साहब और हेमंत व रोहित के पापा भी क्लास में पहुंच गए थे. दोनों के पापा के चेहरों पर जहां पश्चात्ताप के भाव थे वहीं वे संकल्पित थे कि जरूरत से ज्यादा छूट दे कर बच्चों को बिगाड़ेंगे नहीं. साथ ही यह सुकून भी था कि बच्चों को अपनी गलती का एहसास हो गया है. रोहित और हेमंत की आंखें भी शर्म से झुकी हुई थीं.

चाहत : एक गृहिणी की ख्वाहिशों की दिल छूती कहानी

‘थक गई हूं मैं घर के काम से. बस, वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर की सारी टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं. अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,’ शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं. एक बार अपनी बोरियतभरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान बनाया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.

मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं जिस में वे घर वालों पर नहीं, बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें. इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था. यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी उठ गई थीं. उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय पर वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो चाहत की विजय हुई. औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.

शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर पर जा कर लाइन में लग गईं. जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा, ‘3 टिकट.’ अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया, ‘1200 रुपए.’ शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में उस व्यक्ति के होंठों को 1,200 रुपए बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए न देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, ‘कितने?’ इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. उस ने जोर से कहा, ‘1200…’ शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोरनी की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब 1,200 रुपए उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.

10 मिनट पहले दरवाजा खुला. हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं. अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के वीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उसे वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी. लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था.

साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वह हमेशा आंखों से ही फूटता है. वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस, किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा. अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.

चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दी. शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी लंबी थी. जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मैन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं. 400 रुपए के सिर्फ पौपकौर्न, समोसा 80 रुपए का एक सैंडविच 120 रुपए की एक और कोल्डड्रिंक 150 रुपए की एक. एक गृहिणी, जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो, को एक टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार 400 रुपए बता रहे थे. शोभा के लिए यह वही बात थी कि कोई सूई की कीमत 100 रुपए बताए और उसे खरीदने को कहे. उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे.

मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का खर्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे, तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा. सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है. ऐसा लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी. थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासीयत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.

सिर्फ 60 रुपए में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी, तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी. बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं. उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उन के दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए? तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा, ‘‘मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?’’ अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी एक को चुनना था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए,

साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए, कहा, ‘‘आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसैट देखेंगे.’’ शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला? शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.

आओ नरेगानरेगा खेले

आज देश में अगर हर जगह किसी चीज की चर्चा है तो वह नरेगा यानी नेशनल रूरल एंप्लायमेंट गारंटी ऐक्ट ही है. स्वाइन फ्लू व बर्ड फ्लू आदि तो बरसाती मेढक की तरह हैं जो कुछ समय के लिए टर्रटर्र करने के बाद इतिहास में उसी तरह विलीन हो जाते हैं जैसे भारत का किसी भी ओलिंपिक खेलों में प्रदर्शन विलीन हो जाता है. इतिहास को बदलने की शुरुआत जरूर निशानेबाज अभिनव बिंद्रा व मुक्केबाज बिजेंद्र कुमार ने की, नहीं तो हमारा ओलिंपिक में पदक के मामले में निल का स्वर्णिम इतिहास रहा है.

हां, ओलिंपिक खेलों में हमारा दल जरूर सदलबल रहा है. यानी अगर 50 खिलाड़ी गए तो अधिकारी 49 कभी नहीं रहे, 50 को तो पार कर ही जाते थे. आखिर हर खिलाड़ी के पीछे एक अधिकारी तो होना चाहिए न. उसे असफल होने पर धक्का लगाने के प्रयोजन से. एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है. हमारे यहां हर असफल खिलाड़ी के आगे एक अधिकारी होता है.

वैसे हम अपने राष्ट्रीय खेल हाकी में फिसड्डी हो गए हैं तो अब सभी के प्रिय खेल ‘नरेगानरेगा’ को राष्ट्रीय खेल घोषित कर दिया जाए. वैसे अघोषित रूप से यह राष्ट्रीय क्या अंतर्राष्ट्रीय खेल हो गया है क्योंकि कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ नरेगा की समस्याओं, उलझनों की आग में अपनी रोटी सेंक रहे हैं.

कहां नरेगा, कहां खेल. आप को यह अटपटा लग रहा होगा. पर सच है, बहुत से लोगों के लिए नरेगा ने एक नए खेल के रूप में जन्म लिया है. नरेगा में सरकार ने कानूनी रूप से मजदूर को, जो अपने ही क्षेत्र में काम करना चाहता है, 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी है. नहीं तो सरकार को बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है. नरेगा के वास्तविक हकदार वे मजदूर हैं जिन की रोजीरोटी की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है और वे शारीरिक श्रम करने को मजबूर व सहमत हैं.

लगता है, मजदूर शब्द की उत्पत्ति मजा+दूर से हुई है. केवल कमरतोड़ मेहनत का काम करने के लिए जहां मजा नाम की कोई चीज नहीं है अर्थात मजा बहुत दूर है इसलिए नाम है मजदूर.

नरेगा में सरकार ने मजा का बंदोबस्त किया है. मसलन, कार्यस्थल पर दवाइयों की किट, बच्चों के लिए झलाघर, पानी की व्यवस्था, पूरी न्यूनतम मजदूरी लेकिन मजदूर शब्द का कैरेक्टर ही ऐसा है कि मजा उस से दूर हो जाता है व उसे सजा के रूप में कम मजदूरी, विलंब से मजदूरी मिलती है.

नरेगा का मजा परदे के पीछे रह कर मजदूरों का भला चाहने वालों को मिलता है. ये कौन लोग हैं? ये हैं मजदूर का जाबकार्ड बनाने, बैंक में खाते खुलवाने के मददगार. नरेगा की रेलमपेल में अपनी मशीनरूपी रेल झोक देने वाले तसले, फावड़े, कुदाल बेचने वाले व्यापारी, मुद्रण के अलगअलग कार्य करने वाले, कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए कंसल्टेंट, एन.जी.ओ. आदि, नरेगा का मजा ले रहे हैं और बेचारे मजदूर सजा पा रहे हैं.

नरेगा का नाम मरेगा कर देना चाहिए क्योंकि इस में बाकी सबकुछ दिन दूना रात चौगुना बढ़ेगा पर मजदूर तो मरेगा ही. मशीनबाज ठेकेदार मशीन से करवा कर मजदूर को आधी मजदूरी काम घर बैठे दे कर जाबकार्ड पर उस का अंगूठा लगवा लेता है. जाबकार्ड भी ठेकेदार या ठेकेदाररूपी सरपंच के पास ही रहता है. यहां एक बात सम?ा में नहीं आई कि जो जिले शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य कई साल पहले प्राप्त कर चुके हैं वहां भी नरेगा में मजदूर अंगूठा ही लगा रहा है यानी उस समय साक्षरता अभियान चलाने वालों ने सरकार को ठेंगा ही (अंगूठा) दिखाया है.

जितना काम नहीं हो रहा उस से ज्यादा उस का हिसाब रखने के लिए मस्टररोल, रजिस्टर छप रहे हैं. नरेगा मजदूरों के अलावा सब के लिए है. विपक्षी दल के विधायक के लिए भी है. उसे विधानसभा में उठाने के लिए कोई विषय नहीं मिलता तो नरेगा से संबंधित कुछ भी पूछ लेता है. मसलन, फलां जिले के रेलवे स्टेशन में मजदूर गठरी लिए क्यों बड़ी संख्या में खड़े रहते हैं जब नरेगा उन के जिले में चल रही है.

अब उन्हें कौन सम?ाए कि पेट को दो वक्त की रोटी के हिसाब से देखें तो साल में 730 बार खाना चाहिए. नरेगा अधिक से अधिक केवल 200 बार रोटी देता है. वे तो गले तक भर पेट ले कर प्रश्न पूछते हैं. इसलिए मजदूर का 265 दिन का पिचका पेट उन्हें नहीं दिखता है. ये ऐसे ही प्रश्न हैं जैसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रांसीसी क्रांति के समय अपनी जनता के बारे में कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते.

सरकाररूपी सिस्टम मजबूरी में नरेगा में सुधार के समयसमय पर फैसले लेता है पर जैसे पुलिस व चोरों के बीच चूहेबिल्ली का खेल चलता है, वैसे ही नरेगा के परदे के पीछे के हितलाभी ‘तू डालडाल मैं पातपात’ की तर्ज पर सरकारी नियंत्रण की तोड़ निकाल लेते हैं. लगे हाथ एकदो उदाहरण भी देख लें.

सरकार ने सोचा कि जाबकार्ड सभी को दे दो, चाहे मजदूर आए या न आए क्योंकि जाबकार्ड बनाने में मजदूर को पासपोर्ट बनवाने से ज्यादा चक्कर सचिव, सरपंच और पटवारी आदि के लगाने पड़ेंगे तो सयानों ने ठेकेदारों को अपने जाबकार्ड किराए पर दे दिए. मजदूर भी बड़े सरकारी ठेकेदार की तरह अपने विशेषाधिकार को पेटी कांट्रैक्टर को हस्तांतरित करने की तर्ज पर काम कर रहा है. चलो, नरेगा ने एक हथियार तो मजबूर, अरे नहीं मजदूर को दिया कि वह बिना हाड़मांस का शरीर हिलाए कुछ रुपए पा जाए.

सरकार ने मजदूर के खाते खोलना अनिवार्य कर दिया और भुगतान खाते से होगा. यह भी जरूरी कर दिया तो कई मजदूर ठेकेदारों के चंगुल में आ गए. बिना काम किए निश्चित प्रतिशत ठेकेदार से ले कर बैंक से निकाली राशि उसे सौंप दी.

सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में जैसे कोई बहुत बड़ी पूंजी वाला कारखाना खुल जाता है वैसे ही नरेगा रूपी विशाल उद्योग खुलने से कई उद्यमियों को घरबैठे उद्योग स्थापित करने का अवसर मिला है. ये कौनकौन हैं नीचे क्रमबद्ध सुशोभित हैं:

पत्रकारिता के व्यापारियों ने ‘नरेगा टाइम्स’ या ‘नरेगा पन्ना’ नाम से नियमित अखबार शुरू कर दिया है.

मुद्रणालयों ने अनापशनाप रजिस्टरों, फार्मों के स्कोप को देखते हुए, अपनी पिं्रटिंग इकाइयों का विस्तार कर लिया. कई बीमार प्रिंटिंग इकाइयां जो बी.आई.एफ.आर. के पास थीं, वापस क्रियाशील घोषित हो गईं. बी.आई.एफ.आर. वह संस्थान है जो बीमार औद्योगिक इकाइयों को पुनर्जीवित करने का कार्य करता है.

अचानक कई शहरों में जे.सी.बी. यानी कि नईनई एजेंसियां खुल गईं. उन्हें देख कर ऐसा लगा मानो छोटे शहर भी औद्योगिक क्रांति की ओर दौड़ पड़े हैं, क्योंकि अब बैंक भी जे.सी.बी. को उसी तरह फाइनेंस करने लगे हैं जैसे ट्रैक्टर आदि को करते थे. जे.सी.बी. कंपनी के हेडआफिस में भी आपातकालीन बैठक बुला कर नरेगा के कारण बिक्री लक्ष्य 500 नग कर दिया गया है. इस बैठक में यह बात भी निकल कर आई कि धारा 40 के मामलों की बाढ़ आ गई है. यदि पंचायत में काम करने वाले मजदूर नहीं हैं तो भी प्रशासन सरपंच को दोषी मान कर नोटिस दे देता है. अत: वकीलों को भी भरपूर रोजगार मिल रहा है. जय हो नरेगा. जो सब का ध्यान रखता है. अल्टीमेटली काम मशीनों से होंगे क्योंकि उतने मजदूर हैं नहीं जितने सरकार सोचती है और जो हैं भी, उन में से ज्यादातर में ‘जितना काम उतना दाम’ के सिद्धांत व कमतर होती शारीरिक क्षमता के कारण काम करने की इच्छा नहीं है.

नरेगा जिलों में पोस्ंिटग का वैसा ही क्रेज है, जैसा गुजरात, जहां दारू निषेध है, के अवैध शराब की ज्यादा बिक्री वाले क्षेत्र के थानों में पोस्ंिटग के लिए होता है. स्थानांतरण कार्य का स्कोप बढ़ गया है. नरेगा जिले के मुख्य अधिकारी को आंखें दिखाओ तो वह वशीकरण मंत्र के प्रभाव की तरह जो बोला जाए वही करने लगता है. आखिर वह भी सिविल सेवा में, देश सेवा के लिए ही तो आया है, नहींनहीं, सात पुश्तों की सेवा के लिए आया है.

दोपहिया, चार पहिया वाहन वालों, रिएल एस्टेट वालों की पौबारह है. सरपंच, अधिकारी, शिकायतकर्ता, एन.जी.ओ. और पत्रकार सभी नरेगा के कारण वाहन, जमीनजायदाद खरीद रहे हैं. नरेगा के कारण आटो मोबाइल में एक्साइज ड्यूटी कम होने के बावजूद डीलरों ने रेट बढ़ा दिए हैं. फिर भी बिक्री का ग्राफ बढ़ गया है.

कलक्टर, जिला पंचायत कार्यालय में स्थापना का कार्य देख रहे बाबू का कार्य बढ़ गया है क्योंकि नरेगा के कारण रोज किसी न किसी अधिकारी की जांच चल रही है. अधिकारी व कर्मचारी प्रभावशील व्यक्ति की मशीन को काम नहीं देते हैं तो वे शिकायत करवा देते हैं, मजिस्ट्रेट के न्यायालय में काम बढ़ गया है.

नरेगा क्रिटिक का एक नया क्षेत्र रोजगार के लिए खुल गया है. एक कंसल्टेंसी फर्म ने तो बाकायदा विज्ञापन दे कर ऐसे व्यक्तियों की सेवाएं लेनी चाही हैं. नरेगा ने सरपंच की औकात बढ़ा दी है. एक छोटे से क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होने के कारण तथा नरेगा में लाखोंकरोड़ों का आबंटन मिलने से बहुत बड़े क्षेत्र के जनप्रतिनिधि, विधायक व सांसद को उस ने आंखें दिखाना शुरू कर दिया है. अब वह विधायक व सांसद से अपने यहां की पंचायत में कार्य करवाने की मिन्नत नहीं करता बल्कि कभीकभी वह यह इच्छा पाल लेता है कि विधायक व सांसद उस से निवेदन की भाषा में कोई कार्य स्वीकृत करने की बोलें तो वह कार्य स्वीकृत उसी अंदाज में कर देगा जिस में पहले वे लोग किया करते थे, क्योंकि हर सांसद व विधायक के निर्वाचन क्षेत्र में सैकड़ों पंचायतें हैं. इस तरह से देखें तो प्रति ग्राम पंचायत उन के फंड का पैसा मामूली सा रह जाता है.

न्यायपालिका की सक्रियता से नरेगा भी नहीं बचा है. न्यायालयों में ट्रायल चलतेचलते ही कई लोग वास्तविक सजा से ज्यादा समय जेल में गुजार लेते हैं फिर भी मामले का फैसला नहीं होता है. उस पर न्यायपालिका की दिलेरी देखिए कि नरेगा के हर मामले में सक्रिय है.

नरेगा होने से सिविल सोसायटी बहुत सिविल हो गई है. क्योंकि हर स्तर पर कमी निकालने का हथियार नरेगा ने इन को दे दिया है. दुनिया में और भी मुद्दे हैं जिन्हें ये पकड़ना नहीं चाहते, सब नरेगा के पीछे चल पड़े हैं क्योंकि मजदूरों के साथ इन की भी रोजीरोटी इसी से चल रही है. यह योजना कैसे प्रभावी ढंग से चले इस के उलट कैसे उस में पोल बनी रहे? लोग परेशान हों? इस बात में ये ज्यादा रुचि रखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सरकारी अस्पताल का डाक्टर इस कोशिश में रहता है कि अस्पताल के कुप्रबंधन में उस का योगदान कम न रहे जिस से उस के क्लीनिक में सरकारी अस्पताल के मरीज आते रहें व उस के घर का प्रबंधन सुचारु रहे.

एन.जी.ओ. में से कई ऐसी संस्था थीं जो लाखों का घपला कर माल डकार गईं और दफ्तर बंद कर गायब हो गईं. अब फिर नए नाम से नया संगठन बना कर नरेगा के घपलों में अपने घपले को फिर अंजाम देने की जुगत में हाथपैर चला रहे हैं. स्विस बैंक के अधिकारियों को अब ज्यादा घमंड नहीं करना चाहिए. उन के यहां जितना काला धन जमा है उस से ज्यादा नरेगा का बजट हो जाएगा.

अरे, मेरे देश के पत्रकारो, एन.जी.ओ., ठेकेदारो, अधिकारियो, छात्रो, एक्टिविस्टो, शिक्षाविदो और बहुत से दूसरे भी, तुम नरेगा को प्रभावी बनाने में अपना सकारात्मक योगदान दो तो वह दिन दूर नहीं कि देश का मजदूर भी नैनो से नरेगा में काम करने आएगा तो सोने की चिडि़या का संबोधन पुन: देश को मिलना शुरू हो जाएगा.

‘न्यूज क्लिक’ : स्वतंत्र पत्रकारिता सवालों में

3 अक्तूबर, 2023 की सुबह ‘न्यूज क्लिक’ के बरक्स देश की पत्रकारिता पर सत्ता की हुकूमत की गाज एक बार फिर गिरी, जिस की गूंज पूरे देश में सुनाई दी और जनमानस में यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी सरकार की छाया में भारत की पत्रकारिता किस तरह खतरे में और अंकुश में है.

‘न्यूज क्लिप’ के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, अभिषेक शर्मा के साथ उन की पूरी टीम जिस तरह नरेंद्र मोदी सरकार की धज्जियां उड़ाते रहे हैं, वह पूरे देश ने देखा है. सीधी सी बात की है कि अगर कोई पत्रकारिता संस्थान साहस के साथ सत्ता को आंख दिखाता है, तो इस का मतलब यह है कि वह देश और पत्रकारिता के प्रति ईमानदार है. किसी भी तरह का गलत आचरण या लोभ के कारण कोई पत्रकारिता संस्थान या पत्रकार बेबाकी से सत्ता की आलोचना नहीं कर सकता. सच यह है कि जो लोग सत्ता के गुणगान करते हैं, वे सत्ता के भय से पोल न खुल जाए सत्ता के ढोल बजाते रहते हैं. मगर आश्चर्य है कि जो निष्पक्ष व ईमानदार पत्रकारिता करते हैं, सत्ताधारी उन्हें हलकानपरेशान करते हैं और जो हां में हां मिलाते हैं, उन्हें प्रशस्ति देते हैं. सब से बड़ा उदाहरण आज की तारीख में ‘न्यूज क्लिक’ है, जिस पर चीन से रुपए लेने का आरोप लगा कर सत्ता ने सबक सिखाने की कोशिश की है और कड़ा संदेश दिया है पत्रकारिता संस्थाओं को.

हाल ही में बीबीसी पर भी ऐसा ही हमला सत्ता द्वारा किया गया और बाद में बीबीसी को क्लीन चिट भी मिल गई. आज केंद्र में बैठी हुई सरकार पत्रकारिता के साथ कुछ ऐसा व्यवहार कर रही है मानो वह कोई अपराधी हो. कुलमिला कर संदेश यह है कि जब तक सत्ता की हां में हां मिलाते रहोगे, तुम्हारा कोई बाल बांका भी नहीं करेगा.

यही कारण है कि समाचार पोर्टल ‘न्यूज क्लिक’ से जुड़े पत्रकारों पर काररवाई को ले कर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ और भाजपा आमनेसामने आ गए. विपक्षी गठबंधन ने ‘न्यूज क्लिक’ से जुड़े पत्रकारों पर छापेमारी की काररवाई की कड़ी निंदा की, वहीं दूसरी तरफ भाजपा ने कहा, ‘वित्तपोषण मामले में कानून अपना काम कर रहा है.’

सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग सिंह ने मोरचा संभाला और एक तरह से स्वीकार कर लिया कि ‘न्यूज क्लिक’ पर काररवाई उन की जानकारी में है. वैसे जैसा भाजपा के नेताओं का चरित्र है, वे यह भी कह सकते थे कि उन्हें कोई जानकारी ही नहीं है, अनजान बन सकते थे.

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के आरोप कि, ‘भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार की काररवाई केवल उन लोगों के खिलाफ है, जो सत्ता के सामने सच बोलते हैं. नफरत और विभाजनकारी सोच को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ कोई काररवाई नहीं होती.’

इंडियन नैशनल डवलपमैंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) ने एक बयान में कहा, ‘सरकार ने सांठगांठ वाले पूंजीपतियों का मीडिया संस्थानों पर नियंत्रण करा कर अपने पक्षपातपूर्ण और वैचारिक हितों के लिए मीडिया को मुखपत्र बनाने की भी कोशिश की है. ऐसा कर के भाजपा न केवल अपने किए पापों को छिपा रही है, बल्कि वह एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा से भी समझौता कर रही है.’

कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाया है, ‘छापेमारी बिहार में जाति आधारित गणना के निष्कर्षों की बढ़ती मांग से ध्यान भटकाने वाला है.’

मगर देखा जाए, तो बड़े ही दुस्साहस के साथ भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने कहा, “कानून अपना काम करेगा, लेकिन पूर्व में आपातकाल लगाने वाली और हाल ही में 14 पत्रकारों पर प्रतिबंध लगाने वाली कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रैस की स्वतंत्रता के बारे में उपदेश नहीं देना चाहिए. कांग्रेस का प्रैस के बारे में उपदेश देना शैतान द्वारा शास्त्रों के बारे में उपदेश देने जैसा है.”

पत्रकारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न संगठनों ने दिल्ली पुलिस की छापेमारी की निंदा की है और दावा किया गया है कि यह प्रैस की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करने का प्रयास है.

प्रैस क्लब औफ इंडिया ने कहा है कि ‘न्यूज क्लिक’ से जुड़े पत्रकारों और लेखकों के आवासों पर छापों को ले कर बहुत चिंतित है. हम घटनाक्रम पर नजर रख रहे हैं और एक विस्तृत बयान जारी करेंगे. पीसीआई पत्रकारों के साथ एकजुटता से खड़ी है. आज देश जिस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, वह चिंता का विषय बन चुका है और पूरी दुनिया में सरकार की गतिविधियों की निंदा हो रही है.

द वैक्सीन वार : वैज्ञानिकों से अधिक सरकार और धर्म का गुणगान

रेटिंग : 5 में से 2 स्टार

लेखक व निर्देशक : विवेक अग्निहोत्री

निर्माता : पल्लवी जोशी, अभिषेक अग्रवाल

कलाकार : नाना पाटेकर, पल्लवी जोशी, निवेदिता भट्टाचार्य, अनुपम खेर, राइमा सेन, गिरिजा ओक

अवधि : 2 घंटे 41 मिनट

प्रदर्शन : 28 सितंबर से सिनेमाघरों में

2005 में असफल फिल्म ‘चाकलेट’ से फिल्म निर्देशक बने विवेक रंजन अग्निहोत्री उस के बाद फिल्म ‘धन धना धन गोल’, ‘हेट स्टोरी’, ‘जिद’, ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’, ‘जुनूनियत’ तक बौक्स औफिस पर बुरी तरह से घुटने टेकने वाली फिल्में निर्देशित करते रहे क्योंकि उन्हें सिनेमा के क्राफ्ट की समझ ही नहीं रही.

मगर ‘ताशकंद फाइल्स’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ से वे अचानक महान निर्देशक बन गए. अब विवेक रंजन अग्निहोत्री कोरोना महामारी से निबटने के लिए ‘कोवैक्सीन’ के निर्माण की कहानी पर साइंस ड्रामा फिल्म ‘द वैक्सीन वार’ ले कर आए हैं जोकि पहली बेहतरीन साइंस ड्रामा फिल्म बनतेबनते रह गई. उन की यह फिल्म ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ के पूर्व महानिदेशक बलराम भार्गव के 2021 के संस्मरण ‘गोइंग वायरल : मेकिंग औफ कोवैक्सिन’ पर आधारित है.

वैसे, विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म की शुरुआत में ही डा. बलराम भार्गव की इस किताब के साथ ही वैज्ञानिकों के इंटरव्यू लेने की भी बात कही है.

कहानी : ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद’ के पूर्व महानिदेशक बलराम भार्गव सर्तक हो जाते हैं. जिद्दी स्वभाव और इंसानी रिश्तों से परे डा. बलराम भार्गव ‘कोरोना बीमारी’ से छुटकारा पाने के लिए ‘कोवैक्सीन’ बनाने की दिशा में काम करना शुरू कर देते हैं. भार्गव को महिलाओं के प्रभुत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम प्रिया अब्राहम (पल्लवी जोशी), निवेदिता गुप्ता (गिरिजा ओक) और प्रज्ञा यादव (निवेदिता भट्टाचार्य) का समर्थन मिलता है.

कोवैक्सीन के निर्माण के असंभव कार्य के साथ सभी वैज्ञानिक ऐड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं, जिस के चलते उन की पारिवारिक जिंदगी भी सफर करती है. पर ऐसा करते हुए हर वैज्ञानिक के अंदर भारत को आत्मनिर्भर बनाने का जनून भी है लेकिन इन वैज्ञानिकों के प्रयास में रोड़ा अटकाने वाली ‘द डेली वायर’ की साइंस एडीटर व पत्रकार रोहिणी सिंह धूलिया (राइमा सेन) हैं, जो जीवन बचाने के लिए कोवैक्सिन बनाने के महान कार्य को विफल करने की हर मोड़ पर कोशिश करती हैं.

रोहिणी सिंह डा. भार्गव व अन्य वैज्ञानिकों से बात करना चाहती हैं मगर डा. भार्गव पत्रकारों को सुअर संबोधित करते हुए उन से बात नहीं करना चाहते और अपनी टीम को भी बात करने से मना करते हैं.

‘कोवैक्सीन’ बनाने की कहानी आखिरकार ‘कोवैक्सीन’ बनने के बाद भी खत्म नहीं होती। उस के बाद मीडिया को खलनायक बताने की कहानी है. कोवैक्सीन बनने के बाद सभी वैज्ञानिकों के साथ ही डाक्टर बलराम भार्गव भी प्रेस कौन्फ्रैंस में पत्रकारों से मुखातिब होते हैं और पत्रकारों को आतंकवादी बताते हैं.

लेखन व निर्देशन : फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री लिखित पटकथा की कमजोरी के चलते यह फीचर फिल्म की बजाय डाक्यूमैंट्री ज्यादा लगती है. फिल्मकार ने अपनी सोच थोपने के लिए किताब से इतर जा कर फिल्म का बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कोवैक्सीन बनाने के लिए वैज्ञानिकों का साहस जरूर महत्त्वपूर्ण है मगर यह फिल्म वैज्ञानिकों के संघर्ष, उन के देशप्रेम को भी ठीक से चित्रित करने में विफल रही. फिल्मकार का सारा ध्यान पत्रकारिकता को कोसने में रही है.

जब 2 घंटे 41 मिनट लंबी फिल्म ‘द वैक्सीन वार’ की कहानी वैक्सीन के निर्माण के बाद खत्म होती नजर आती है, तभी मीडिया से युद्ध छेड़ दिया जाता है. फिल्म में पूरी तरह से ‘द डेली वायर’ की साइंस पत्रकार रोहिणी वालिया को एक विदेशी एजेंट के रूप में चित्रित किया गया है, जो तथ्यों पर टिके रहने से इनकार करने में क्रूर है और साथ ही ‘टूलकिट’ के लिए संदेह की वस्तु है जो उस की रिपोर्ट को सूचित करती है.

फिल्म में जब तक कोवैक्सीन बनने की कहानी चलती है, जब तक कहानी के केंद्र में डा. बलराम भार्गव व उन के वज्ञानिकों की टीम रहती है, तब तक फिल्म में रोचकता बनी रहती है. इस में भी सब से बड़ी कमी यह है कि वैज्ञानिकों के तमाम शब्द हर दर्शक के सिर के ऊपर से गुजरते हैं, जिस के चलते दर्शकों की फिल्म से रूचि खत्म हो जाती है.

डा. बलराम भार्गव जिद्दी हैं, पूरी तरह से मिशन के प्रति समर्पित हैं. उन के लिए इंसानी रिश्ते व भावनाएं कोई मूल्य नहीं रखते, यह खासियत फिल्म को नाटकीय जरूर बनाती है.

इंसान के तौर पर हम किसी इंसान को नापसंद करने का हक रखते हैं, मगर इस का यह अर्थ तो नहीं है कि हम उस इंसान के प्रति इंसानियत से परे जा कर शब्दों का उपयोग करें.

फिल्म के अंदर एक संवाद है जहां ‘भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ के महानिदेशक डा. बलराम भार्गव पत्रकारों को ‘सुअर’ कहते हैं. पहला सवाल यह है कि जिस पद पर डा. भार्गव आसीन हैं, उन्हें यह शब्द शोभा देता है? दूसरा सवाल क्या डाक्टर भार्गव ने अपनी किताब में भी पत्रकारों को ‘सुअर’ शब्द से संबोधित किया है?

यदि नहीं और यह शब्द फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री की दिमागी उपज है तो डा. भार्गव ने इस का विरोध क्यों नहीं किया? मालूम हो कि डा. भार्गव दावा कर चुके हैं कि उन्होंने यह फिल्म देखी है. सब से बड़ा आश्चर्य यह है कि खुद को ‘सुअर’ व आतंकवादी कहे जाने के बावजूद हमारे पत्रकार विवेक रंजन का गुणगान करने मे अपनी सारी उर्जा का निवेश कर रहे हैं.

वास्तव में फिल्मकार अपने विषय से भटक गए हैं. फिल्मकार भारत सरकार का गुणगान करने, डीएवीपी के लिए आवश्यक फिल्म बनाने, देश के प्रधानमंत्री की कार्यशैली की प्रशंसा करने, भारतीय परंपरा व सनातन धर्म की बात करने, मीडिया व पत्रकारों को कोसने की जिम्मेदारी निभाते हुए ‘साइंस ड्रामा’ बनाने में विफल रहे हैं. फिल्म में संवाद है, ‘स्वयं पर विश्वास ही सनातन है.’

फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं, जहां लगता है कि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति को दोहराया गया हो. ‘द वैक्सीन वार’ इस बात में यकीन करती है कि कोरोना वायरस चीन के वुहान शहर की एक प्रयोगशाला से लीक हुआ.

कोवैक्सीन निर्माण पर विवेक अग्निहोत्री फिल्म ‘द वैक्सीन स्टोरी’ ले कर आए हैं, जिस में विलेन कोरोना महामारी नहीं बल्कि भारत देश के पत्रकार हैं. उन का मानना है कि इन पत्रकारों को विदेश से धन मुहैया हो रहा है. परिणामतया फिल्म की कहानी वैक्सीन निर्माण बनाम भारतीय मीडिया पर ही केंद्रित हो कर रह गई है.

यहां तक कि क्लाइमैक्स पर पहुंचतेपहुंचते प्रैस कौन्फ्रैंस में विवेक रंजन अग्निहोत्री मीडिया को आतंकवादी तक घोषित कर देते हैं। वे अपने इस कृत्य से देश के सभी वैज्ञानिकों की मेहनत पर पानी फेरते हुए ‘कोवैक्सीन’ के निर्माण पर बनी इस फिल्म को एक यादगार फिल्म बनने से रोक देते हैं.

विवेक अग्निहोत्री फिल्म की विषयवस्तु के प्रति कितना ईमानदार हैं, इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि ‘कोवैक्सीन’ का उत्पादन कृष्णा एला की निजी कंपनी ‘भारत बायोटेक’ ने किया, मगर फिल्म में इस का उल्लेख बमुश्किल से किया गया है. फिल्म में एला का किरदार भी नहीं है और न ही एला को टेलीफोन के दूसरे छोर पर आवाज के रूप में चित्रित किया गया. इतना ही नहीं, फिल्म में डा. प्रिया का एक संवाद है जोकि अदालत पर भी कटाक्ष करता है.

जहां तक सिनेमा के क्राफ्ट का सवाल है तो इस कसौटी पर विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी पिछली फिल्मों ‘ताशकंद फाइल्स’ व ‘द कश्मीर फाइल्स’ की ही तरह ‘द वैक्सीन वार’ में भी बहुत कमजोर साबित हुए हैं. वैसे सिनेमा क्राफ्ट से इतर विवेक अग्निहोत्री अपने विचारों को अपने हिसाब से रखना अधिकार समझते हैं.

अभिनय : कलाकारों का चयन भी सही नहीं किया गया. ‘नेपोटिज्म’ के खिलाफ बात करने वाले विवेक रंजन अग्निहोत्री की हर फिल्म में उन की पत्नी व अभिनेत्री पल्लवी जोशी का होना अनिवार्य शर्त है.

विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म में जिन सरकारी संस्थाओं का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए फिल्म में हर वैज्ञानिक के असली नाम पर ही हर किरदारों के नाम रखे हैं, उस से यह संकेत मिलता है कि संभव है कि इस फिल्म के निर्माण में सरकारी खजाने का उपयोग किया गया हो.

महिला सशक्तिकरण का संदेश देते हुए यह फिल्म इस बात को भी रेखांकित करती है कि हमारे देश की महिला वैज्ञानिक ‘कोवैक्सीन’ बनाने के असंभव कार्य करते हुए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी अच्छे से संभालती हैं, खाना भी बनाती हैं और अपने पति से लिपस्टिक को ले कर प्रशंसा भी बटोरती हैं.

विवेक रंजन अग्निहोत्री की विवशता इस फिल्म में कोविड के समय छपे 12 लेखों, मीडिया व मीडिया के ईको सिस्टम को अपनी सोच के मुताबिक फिल्म की कहानी में पिरोना रही है. उन की विवशता यह रही कि उन्हें मीडिया को ‘आत्मनिर्भर भारत’ के खिलाफ चित्रित करना है. मीडिया को विलेन बताने वाले फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री की उन पत्रकारों के बारे में क्या राय है जो कि उन्हें ‘स्टार निर्देशक ’साबित करने में जुटे हुए हैं, क्या यह पत्रकार भी उन की नजर में सुअर और आतंकवादी हैं?

फिल्म में करोना महामारी को ले कर बात नहीं की गई है. करोना के वक्त मौत की नींद सो चुके लोगों के दाह संस्कार की जो तसवीरें उस वक्त मीडिया ने दिखाया था, वह कुछ दिखा कर पत्रकार के घर काम करने वाली बाई के संवाद के माध्यम से यह कहा गया है कि उस वक्त इटली जैसे देश में इस से भी बड़ी दुर्दशा थी पर भारतीय मीडिया ने उस पर गौर नहीं किया.

कोवैक्सीन निर्माण की कहानी बयां करने वाली फिल्म में औक्सीजन की कमी, बीमारी के वक्त सरकारी प्रबंधन, कोविड के मरीजों को बचाने में जुटे डाक्टरों आदि पर कोई बात नहीं की गई.

कम समय में ऐसे घटाएं वजन

‘‘फरवरी में मेरी बहन की शादी है और फिट होने के लिए मेरे पास केवल एक महीना है,’’ या फिर ‘‘आने वाली छुट्टियां मुझे मियामी में बितानी हैं और मुझे उस के लिए वजन कम करना है,’’ ऐसे संकल्प हम अपने दोस्तों, परिजनों और परिचितों से किसी न किसी समय आमतौर पर सुनते रहते हैं. अपने इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लोग कई तरह की क्रैश डाइट्स और तेजी से वजन घटाने वाले व्यायाम करते हैं. जबकि ये सभी प्रयास लंबी अवधि में प्रभावी नहीं होते. इसलिए बहुत से जागरूक और समझदार लोग वजन घटाने के ऐसे प्रयास करते हैं, जिन में वजन का घटना लगातार जारी रहता है. वे फिटनैस के लिए पूरे शरीर पर असर करने वाले जुंबा और शरीर को मजबूती देने वाली वेट लिफ्टिंग का सहारा लेते हैं. इस की वजह मांसपेशियों की स्थायी मजबूती और फैट बर्निंग के प्रति बढ़ती जागरूकता है. फिटनैस के दीवाने लोगों के बीच ये दोनों वर्कआउट्स बेहद लोकप्रिय हो रहे हैं.

हालांकि, जुंबा के लिए भी कई लोग जिम जाना पसंद करते हैं, लेकिन जिम के उपकरणों और मशीनों पर वही परंपरागत तरीके से वर्कआउट बड़ी संख्या में फिटनैस प्रेमियों के लिए नीरस हो जाता है. अब वे अपने फिटनैस लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ विविधता, उत्साह और मनोरंजन से भरपूर तकनीक चाहते हैं.

जुंबा का आविष्कार 90 के दशक में एक फिटनैस प्रशिक्षक अल्बर्टो बेटो पेरेज के हाथों हुआ. यह एक मस्ती और ऊर्जा से भरपूर ऐरोबिक फिटनैस प्रोग्राम है, जो दक्षिणी अमेरिकी डांस की विभिन्न शैलियों से प्रेरित है. यह वर्कआउट शैली तेजी से कैलोरी बर्न करने के लिए कारगर है. दरअसल, इस में अपने पंजों पर खड़े रह कर हिपहौप और सालसा की चुस्त बीट्स पर अपनी बौडी को मूव कराना होता है. मुख्य रूप से गु्रप में किया जाने वाला वर्कआउट जुंबा उत्साही बने रहने और फिटनैस लक्ष्यों पर केंद्रित है. चूंकि जुंबा तेज गति से होने वाला डांस है, इसलिए यह अन्य वर्कआउट्स जैसे ट्रेडमिल पर दौड़ने या क्रौसट्रेनर पर समय बिताने के मुकाबले तेजी से फैट बर्न करता है.

बढ़ाएं लचीलापन

जुंबा एक बेहतरीन कार्डियोवैस्क्युलर ऐक्सरसाइज है, जो तेज और मध्यम गति से की जाती है और इंटरवेल ट्रेनिंग की तरह काम करती है, इसलिए हर मांसपेशी खासतौर पर पीठ और पेट पर असरकारक है. जुंबा में होने वाले पेचीदा मूव मसल्स में लचीलापन बढ़ाते हैं और शरीर को संतुलित बनाते हैं. जुंबा के परिणाम यहीं तक सीमित नहीं हैं, ताकत से भरपूर इस वर्कआउट का दूसरा फायदा यह है कि यह सभी मांसपेशियों को सक्रिय करता है और पूरे शरीर को फिट करने में मदद करता है. सब से अच्छी बात यह है कि जुंबा में उम्र कोई रुकावट नहीं है, क्योंकि इस का जोड़ों पर बहुत कम असर पड़ता है. फिट रहने के लिए 5 से 65 वर्ष तक का कोई भी व्यक्ति जुंबा कर सकता है.

वेट ट्रेनिंग

वेट ट्रेनिंग भी वजन घटाने के लिए एक अन्य प्रभावी वर्कआउट है, जो परंपरागत रूप से बौडीबिल्डर्स के बीच लोकप्रिय रहा है. आश्चर्य हो रहा है? हम में से बहुत से लोग सोचते हैं कि वेट ट्रेनिंग केवल मसल्स बनाने के लिए ठीक है. यही वजह है कि वजन घटाने की कोशिश करने वाले वेट लिफ्टिंग को प्राथमिकता नहीं देते और इस के बजाय कार्डियो और कैलीस्थैनिक्स को अपनाते हैं.

वेट लिफ्ंिटग शरीर की मजबूती के साथ ही वजन घटाने के लिए भी महत्त्वपूर्ण व्यायाम है. परंपरागत रूप से स्ट्रैंथ ट्रेनिंग में सहनशक्ति और मांसपेशियां बढ़ाने के लिए फ्री वेट या वेट मशीनों का उपयोग किया जाता रहा है. मैटाबोलिक स्ट्रैंथ ट्रेनिंग में उच्च तीव्रता वाले इंटरवेल सर्किट्स और चेंजिंग कौंबिनेशंस के साथ फ्री वेट्स, कैटलबेल्स, डंबल्स आदि का उपयोग करते हुए दोहराना होता है. वर्कआउट के दौरान रैजिस्टैंस बैंड्स मैटाबोलिज्म रेट को बढ़ा देते हैं. कार्डियो ट्रेनिंग में केवल वर्कआउट के दौरान हृदय की गति एवं फेफड़ों की क्षमता बढ़ने से कैलोरीज बर्न होती हैं, इस के उलट वेट ट्रेनिंग में व्यायाम खत्म होने के 72 घंटे बाद तक कैलोरी बर्निंग जारी रहती है. यह शरीर की मैटाबोलिक दर को भी बढ़ाता है, जो दिन भर कैलोरी को तेजी से बर्न करने में मदद करता है.

वेट लिफ्टिंग के फायदे केवल वजन घटाने तक ही सीमित नहीं हैं, वेट ट्रेनिंग बौडी मसल्स बनाने और हड्डियों की सघनता बढ़ाने में भी कारगर है, जिस से औस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियों से बचने में मदद मिलती है. रोजाना वेट लिफ्टिंग करने से डायबिटीज का खतरा कम होता है और इस से पीठ दर्द में भी आराम मिलता है. मानसिक मजबूती बढ़ती है और फिटनैस के दीवाने लोगों को काम के दौरान उत्साही बनाए रखती है.

इसलिए शरीर की मजबूती के लिए फिटनैस की धुन में भले ही जुंबा को चुनें या वेट ट्रेनिंग को, ये दोनों ही वर्कआउट्स आप के फिटनैस लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं, चाहे आप वजन कम करना चाहें या मांसपेशियों की मजबूती. जुंबा और वेट लिफ्टिंग दोनों ही बेहतरीन रास्ते हैं. तो क्या आप पसीना बहाने के लिए तैयार हैं?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें