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टीनऐजर्स लव : प्यार और वासना के बीच उलझी एक लड़की की कहानी

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मायावती-आकाश आनंद : राजनीति में परिवार जरूरी

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने 2001 में मायावती को अपना उत्तराधिकारी चुना था. उस समय तक मायावती ने अपनी योग्यता साबित कर दी थी. 2 बार वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री रह चुकी थीं. पार्टी संगठन पर उन की पकड़ मजबूत बन चुकी थी. बसपा कैडर आधारित पार्टी थी तो हर किसी ने कांशीराम के फैसले को स्वीकार कर लिया था.

2023 में जब मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी चुना तो उस की एक ही योग्यता है कि वह मायावती के भाई आनंद कुमार का बेटा और मायावती का भतीजा है.

आकाश आनंद ने बसपा के संगठन में किसी तरह का काम नहीं किया है. लदंन से एमबीए करने के कारण उस का देश में समाज के लोगों के बीच काम करने का कोई खास अनुभव भी नहीं है. जिन हालात को मायावती ने झेला उन से आकाश आनंद का इत्तफाक नहीं पड़ा. दलित बिरादरी के जमीनी अनुभव भी उस के पास नहीं है. ऐसे में दलित समस्याओं को समझना उस के लिए सरल नहीं होगा.

ऐसा ही एक उदाहरण लोकदल के सामने है. चौधरी चरण सिंह ने जब अपने बेटे चौधरी अजीत सिंह को पार्टी की बागडोर सौंपी तो वे पिता की राजनीति को आगे नहीं बढ़ा पाए क्योंकि राजनीति का अनुभव उन को नहीं था. अजीत सिंह ने अपने बेटे जंयत चौधरी को पार्टी सौंपी तो वे भी उसी तरह रह गए. राजनीति में जो जुझारुपन चाहिए वह आकाश आनंद, जयंत चौधरी जैसे नेताओं में नहीं दिखता है. ऐेसे में पूरी पार्टी एक या दो सीट पर आ कर सिमट जाती है.

पहली बौल पर ही बीट हुए हैं आकाश आनंद

बसपा में नेशनल कोआर्डिनेटर का बड़ा महत्त्व होता है. आकाश आनंद के पास उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड छोड कर पूरे देश की कमान है. बूआ मायावती तो पार्टी प्रमुख हैं ही. पिता आनंद कुमार भी पार्टी के प्रमुख ओहदेदार हैं. आकाश आनंद की शादी में भी मायावती का प्रमुख रोल रहा है. अपने बेटे की तरह उन्होंने आकाश की शादी में हिस्सा लिया था.

आकाश आनंद की पत्नी डाक्टर प्रज्ञा सिद्वार्थ के पिता अशोक सिद्वार्थ भी बसपा में प्रमुख नेता और राज्यसभा के सदस्य रहे हैं. आकाश को घरपरिवार का राजनीति करने में सहयोग मिले, इस के लिए बसपा परिवार से ही लड़की का चुनाव किया गया था. ऐसे में आकाश आनंद को सजीसजाई पूरी फील्ड मिली है. देखना यह है कि अब वे चुनावी मैदान में चौकेछक्के कैसे लगाते हैं.

मायावती कई साल पहले ही यह योजना बना चुकी थीं कि पार्टी की कमान वे आकाश आनंद को देंगी. इस की तैयारी भी वे कर रही थीं. उन को सही समय का इंतजार था. 2019 के लोकसभा चुनाव से ही आकाश मायावती के साथ पार्टी मीटिंग में देखे जाते थे. मायावती के सब से करीब दिखते थे वे. मायावती इशारा कर के उन को बताती थीं कि मीटिंग में कहां बैठना है.

2023 के विधानसभा चुनाव में आकाश आनंद के पास राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश  की चुनावी कमान थी. मायावती की योजना यह थी कि इन चुनावों में पार्टी को तीनों राज्यों में जब सफलता मिलेगी तो पूरे धूमधाम से पार्टी की कमान आकाश को सौंपी जाएगी. बसपा ने राजस्थान में 2 सीटें जीतीं पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी खाली हाथ रह गई. इस वजह से आकाश की पार्टी में लौंचिंग फीकी रह गई.

पार्टियों में हो रहा नेतृत्व का अभाव

जिस समय मायावती को पार्टी की कमान दी गई थी उस समय बसपा में नेतृत्व संभालने वाले कई नेता थे. आज के समय में कांशीराम के साथ वाले नेता पार्टी में नहीं हैं. वे दूसरी पार्टियों में अपना भविष्य तलाश रहे हैं. आज के दौर में समाज में उन युवाओं की कमी दिख रही है जो आगे बढ़ कर राजनीति व समाज का नेतृत्व कर सकें. इस वजह से पार्टी को संभालने के लिए अपने ही बीच के नेता का अगुआ बनाना पड़ रहा है.

हमारे देश के युवा अब नेतृत्व करने की जगह पर नौकरी करना पंसद करते हैं. यह ब्राहमणवादी सोच है जिस में ब्राह्मण नेतृत्व करने की जगह पर राजा का मंत्री या सलाहकार बनने में ही भलाई समझता था.

इस के उलट, हमारे ही देश के युवा जब विदेशों में जाते हैं तो वहां नेतृत्व संभालने के लिए आगे आते हैं. भारतीय मूल के लोगों ने कई देशों की कमान संभाली है. जिन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. ब्रिटेन के 200 साल के इतिहास में ऋषि सुनक सब से कम उम्र के प्रधानमंत्री बने.

कमला हैरिस यूएसए की पहली अश्वेत उपराष्ट्रपति बनीं. गुयाना के 9वें कार्यकारी अध्यक्ष मोहम्मद इरफान अली बने. 2015 में पुर्तगाल के प्रधानमंत्री बने एंटोनियो कोस्टा भारतीय मूल के थे. उन का पैतृक परिवार गोवा से था.

सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका परसाद और मौरिशस के प्रधानमंत्री प्रवीण जगन्नाथ भारतीय मूल के थे. मौरिशस के राष्ट्रपति प्रदीप सिंह रूपुन, सेशेल्स के राष्ट्रपति वेबेल रामकलावन और सिंगापुर की पहली महिला राष्ट्रपति हलीमा याकूब भी भारतीय मूल की थीं.

युवाओं को लीडरशिप के लिए तैयार करना जरूरी    

हमारे देश के युवाओं में क्षमता है पर उन को अपने देश में अवसर नहीं मिल रहे हैं. नेतृत्व संभालने की योग्यता वाले युवा अपना देश छोड़ कर विदेश चले जा रहे हैं. दुनियाभर में भारत सब से बड़ा देश है जहां के युवा दूसरे देशों को अपनी सेवाएं दे रहे हैं.

ऐसे में जरूरी है कि देश के युवाओं को लीडरशिप के लिए तैयार किया जाए. पहले यह काम छात्रसंघों द्वारा होता था. अब हमारी राजनीति पर बूढ़े होते नेता हावी हैं. वे अपनी तरह के मनमाने फैसले लेते हैं.जिस से युवा लीडरशिप में आगे नहीं आ रहे हैं. इस से राजनीतिक दलों के पास नेताओं का अभाव होता जा रहा है. उन को अपने घरपरिवार के बीच से ऐसे नेताओं को चुना जा रहा है जो राजनीति में नेतृत्व संभालने की क्षमता नहीं रखते.

इस से देश में राजनीतिक और दलीय व्यवस्था को बड़ा नुकसान हो रहा है. ऐसे में राजनीति क्षमतावान नेताओं के हाथों से निकल कर कारोबारी घरानों और अफसरों के हाथ में चली जा रही है, जिस का नुकसान देश की जनता को होगा क्योंकि ये नेता अपनी नीतियां जनता के हित की जगह अपने हित में बनाएंगे. अडानी-अंबानी के नाम का शोर इसी वजह से लग रहा है.

छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय क्यों रास आए भाजपा को ?

3 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे भाजपा के लिएलौटरी के ईनाम जैसा हैं. लिहाजा, मुख्यमंत्रियों के नाम भी लौटरी की तर्ज पर ही वह तय कर रही है. छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री उस ने अनजाने से विष्णुदेव साय को बनाया है जो आदिवासी समुदाय से आते हैं.

4 बार लोकसभा सदस्य रहे छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्री 59 वर्षीय विष्णुदेव साय की इकलौती खूबी यही है कि वे प्रतिबद्ध भाजपाई और जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले नेता हैं, यानी हिंदुत्व उन के खून और मिजाज दोनों में है. उन के दादा बुधनाथ साय और ताऊ नरहरी प्रसाद साय भी जनसंघ से विधायक चुने गए थे. चौंकाने का सिलसिला जारी रखते नतीजे के सप्ताहभर बाद जब उन का नाम घोषित किया गया तो छत्तीसगढ़ के सवर्ण नेताओं के चेहरों पर दिखावटी खुशी ही थी.

पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को भाजपा ने वीआरएस देते हुए विधानसभा अध्यक्ष जैसा उबाऊ पद देते सम्मानजनक विदाई कर दी है तो अरुण साव और विजय शर्मा को उप मुख्यमंत्री बनाने का भी ऐलान कर दिया. ये दोनों चेहरे भी अनजाने से हैं जिन्हें एक खास किस्म की जिम्मेदारी सौंपी गई है.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की आबादी 33 फीसदी के लगभग है जो 90 में से 30 सीटों पर सीधे प्रभाव रखती है. जिस सीट कुनकुरी से विष्णु देव जीते हैं वह सरगुजा संभाग की है जहां की सभी 12 सीटें भाजपा की झोली में गिरी हैं. इतना ही नहीं, हैरतअंगेज तरीके से बस्तर की 12 में से 8 सीटें भी उसे मिली हैं. यानी, इस बार आदिवासी भाजपा पर ठीक वैसे ही मेहरबान रहा है जैसे 2018 के चुनाव में कांग्रेस पर रहा था.

विष्णुदेव ही क्यों 

जब कांग्रेस ने इस राज्य का पहला मुख्यमंत्री आईएएस अधिकारी अजित जोगी को बनाया था तब उन की जाति को ले कर सवाल भी उठे थे और बवाल भी मचा था कि वे सचमुच के अदिवासी हैं भी या नहीं. अजित जोगी की जाति का मसला उन की मौत के बाद तक पहेली बना हुआ है जिस के अपने अलग सियासी माने हैं. आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग रमन सिंह के मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी उठी थी लेकिन भाजपा ने भी उस पर गौर नहीं किया था.

2018 में जब कांग्रेस खासे बहुमत से सत्ता में आई तो उस ने पिछड़े तबके के भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया जिन का कार्यकाल बेहतर रहा था. वोटर ने उन्हें क्यों नकारा, इस की वजहें अच्छे विश्लेषकों को समझ नहीं आ रहीं.

चूंकि सत्ता में वापसी की उम्मीद कम थी इसलिए भाजपा ने राजस्थान और मध्य प्रदेश जितनी मेहनत छत्तीसगढ़ में नहीं की.हां, धर्मकर्म का अपना राग वह यहां भी अलापती रही. साल 2023 की शुरुआत ही छत्तीसगढ़ में संतों की धार्मिक यात्राओं से हुई थी जिन का फौरी तौर पर कोई असर नहीं दिखा था लेकिन फरवरी में विश्व हिंदू परिषद ने 700 किलोमीटर की लंबी पदयात्रा का आयोजन किया था जिस का संयोजक उस ने सर्वेश्वर दास महाराज को बनाया था.

हिंदू राष्ट्र की मांग करती 500 संतों के हुजूम वाली यह पदयात्रा एक महीने चली थी और शिवरात्रि के दिन आदिवासियों के सब से बड़े मंदिर मां दंतेश्वरी में जम कर पूजापाठ व यज्ञहवन हुए थे जिस में बड़ी तादाद में आदिवासी मौजूद थे.

इस यात्रा से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इतने बौखला गए थे कि उन्होंने बड़े पैमाने पर राम वन गमन पथ विकसित करने का ऐलान कर दिया था. यही भाजपा चाहती थी कि कांग्रेस भी साधुसंतों, पूजापाठ और यज्ञहवन की राजनीति करे जिस से आदिवासियों में हिंदुत्व की फीलिंग आए.

धर्मकर्म का यह माहौल आदिवासियों को रास आता रहे, इस की जिम्मेदारी अब विष्णुदेव साय को दी गई है कि वे इत्मीनान से यह नेक और एजेंडे वाला काम सरकार चलाते करते रहें. विष्णुदेव साय भी उत्साह में हैं क्योंकि उन्हें भी सपने में उम्मीद नहीं थी कि कई दिग्गज नामों को किनारे करते भाजपा आलाकमान उन्हें यह मौका देगा.

ऐसे ही चौंकाने वाला फैसला भाजपा ने उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाते लिया था जो अब इफरात से धर्म और पूजापाठ की राजनीति कर रहे हैं. हरियाणा में मनोहर सिंह खट्टर को भी इसीलिए मुख्यमंत्री बनाया गया था कि वे कट्टर हिंदुत्व के हिमायती हैं.

भाजपा की नई रणनीति यह है कि दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को पूजापाठ के नाम पर घेरा और बरगलाया जाए, जम कर मंदिर की राजनीति को हवा दी जाए जिस से लोग महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का रोना भगवान के सामने जा कर रोएं और कोई हल न निकले तो किस्मत को कोसते और पूजापाठ के जरिए उस में सुधार करते रहें.

इस से दूसरा फायदा यह होगा कि छोटी जाति वाले पहले की तरह ब्राह्मणों और दूसरी ऊंची जाति वालों की गुलामी ढोते धर्म का टैक्स भरते रहेंगे. छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय उसे इसलिए भी उपयुक्त लगे कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए खतरा नहीं बनेंगे और उन की हां में हां मिलाते रहेंगे क्योंकि वे काबिलीयत से नहीं चुने गए बल्कि एहसान से दबे मुख्यमंत्री हैं.

ऐसे में यह कह पाना मुश्किल है कि आदिवासियों का कोई भला होगा, नुकसान जो होंगे वे अभी से दिखने लगे हैं.

धारा-370 हटाए जाने के फैसले पर लगी ‘सुप्रीम’ मुहर

जम्मूकश्मीर से धारा370 हटाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दर्ज 22 याचिकाओं पर 16 दिन बहुत तेजी से सुनवाई चली और आज सभी याचिकाओं को खारिज करते हुए कोर्ट ने जम्मूकश्मीर से धारा370 हटाए जाने के केंद्र सरकार के फैसले को सही बताया. अपना फैसला सुनाते हुए सीजेआई के नेतृत्व वाली संविधान पीठ ने कहा कि 5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार द्वारा जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाए जाने का फैसला बरकरार रहेगा.

राष्ट्रपति के पास जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने का अधिकार है और यह अधिकार विधानसभा भंग होने के बाद भी कायम रहेगा. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि युद्ध के हालात में धारा 370 हटाने का फैसला अंतरिम फैसला था और जम्मूकश्मीर भारत का अभिन्न अंग है.

सुप्रीम कोर्ट में फैसला आने की संभावना को देखते हुए आज जम्मूकश्मीर में सुरक्षा बढ़ा दी गई थी. सुरक्षाबलों को सख्त निर्देश थे कि कहीं भी किसी तरह की अराजकता पैदा न होने दी जाए. पीडीपी नेत्री मेहबूबा मुफ्ती भी आज सुबह से अपने घर में नजरबंद रखी गईं.

जम्मू में भी व्यापक प्रबंध किए गए हैं. सोशल मीडिया पर खास नजर रखी जा रही है. पूरी घाटी में सुरक्षा बलों के काफिले की रवानगी पर रोक लगा दी गई है. साथ ही, वीआईपीज की सुरक्षा में लगे काफिले पर भी रोक लगा दी गई है. आईजी कश्मीर की ओर से सेना के साथ ही बीएसएफ, सीआरपीएफ, आईटीबीपी, एसएसबी तथा अन्य सुरक्षा बलों के अधिकारियों व सभी पुलिस प्रमुखों को संदेश भेज कर कहा गया है कि जम्मूश्रीनगर हाईवे तथा अन्य हाईवेज पर कोई भी काफिला नहीं निकलेगा. पूरे दिन ड्राई डे रहेगा.

दिशानिर्देश जारी

इस के साथ ही वीआईपी तथा सुरक्षाप्राप्त व्यक्तियों के काफिले को निकलने से पूरी तरह बचने को कहा गया है. इस बीच अफवाह फैलाने के आरोप में एक न्यूज पोर्टल के 2 संस्थापक सदस्यों को गिरफ्तार किया गया है. उन की पहचान जहूर अहमद खान निवासी मनवान अवूरा और अब्दुल रऊफ पीर निवासी अवूरा कुपवाड़ा के रूप में हुई है. दोनों पर फर्जी समाचार प्रसारित करने व अफवाहें फैलाने का आरोप है. उन पर कानून की संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है और उन के डिजिटल उपकरणों का विश्लेषण व जांच शुरू कर दी गई है.

पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि शांति को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की गई है. यहां के अधिकारियों ने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील या आतंकवाद व अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली किसी भी सामग्री के सोशल मीडिया पर प्रसार किये जाने को रोकने के लिए सीआरपीसी की धारा 144 के तहत सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं. दिशानिर्देशों का उद्देश्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर आतंकवाद,अलगाववाद, धमकियों, धमकी या सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील सामग्री का उपयोग करते समय नागरिकों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों पर स्पष्टता प्रदान करना है.

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ ने सुनवाई करने के बाद फैसला 5 सितंबर को ही सुरक्षित रख लिया था. सुप्रीम कोर्ट की वैबसाइट पर अपलोड की गई 11 दिसंबर की कौज लिस्ट में कहा गया था कि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ फैसला सुनाएगी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बड़ी बातें –

– राष्ट्रपति को आर्टिकल 370 हटाने का हक है. आर्टिकल 370 हटाने का फैसला संवैधानिक तौर पर सही था.

– संविधान के सभी प्रावधान जम्मूकश्मीर पर लागू होते हैं. यह फैसला जम्मूकश्मीर के एकीकरण के लिए था.

– अनुच्छेद 370 हटाने में कोई दुर्भावना नहीं थी. जम्मूकश्मीर में जल्द चुनाव के लिए कदम उठाए जाएं. 30 सितंबर,2024 तक जम्मूकश्मीर में चुनाव हों.

– जम्मूकश्मीर में जल्द राज्य का दर्जा बहाल हो. आर्टिकल 370 एक अस्थाई प्रावधान था. जम्मूकश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. जम्मूकश्मीर के पास कोई आंतरिक संप्रभुता नहीं थी.

– सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लद्दाख को अलग करने का फैसला भी वैध था.

अमित शाह का नेहरू पर स्यापा : कौन नायक कौन खलनायक

गृहमंत्री अमित शाह ने 6 दिसंबर, 2023 को लोकसभा में कहा,”देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल के दौरान हुए 2 बड़े ब्लंडर (बड़ी गलती) का खमियाजा जम्मूकश्मीर को सालों तक भुगतना पड़ा.”

दरअसल, यह पहली दफा नहीं है जब 2013 के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार के चेहरे पंडित जवाहरलाल नेहरू पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं. देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पंडित नेहरू को देश की आवाम आज भी याद करती है। सभी जानते हैं कि उन्होंने देश को कितनी ऊंचाइयां दीं. मगर भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा महात्मा गांधी और नेहरू परिवार के खिलाफ विष‌ वमन कर के ही फैलती है.

शायद इसलिए मजबूरी में नेहरू परिवार पर आरोप लगाए जाते रहते हैं और इस के लिए अब बाहरी मंचों के साथ देश की संसद का भी उपयोग किया जाने लगा है.

कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना

सीधी और सच्ची बात तो यह है कि चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या फिर अमित शाह, उन्हें अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए और बाकी पुराना सबकुछ इतिहास पर छोड़ देना चाहिए जो स्वयं तय करेगा की कौन नायक है और कौन खलनायक.

जम्मू कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023 और जम्मू कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023 पर सदन में हुई चर्चा का जवाब देते हुए अमित शाह का कहना था,” नेहरू की 2 बड़ी गलतियां 1947 में आजादी के कुछ समय बाद पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय संघर्ष विराम करना और जम्मू कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाने की थी.”

अमित शाह ने कहा,” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2024 में एक बार फिर प्रधानमंत्री बनेंगे और 2026 तक जम्मू कश्मीर से आतंकवाद का पूरी तरह खात्मा हो जाएगा.”

भयभीत मोदी सरकार

दरअसल, समझने की बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार 2024 के आम चुनाव को ले कर किस तरह भयभीत है. लोगों को देश के नाम पर भयभीत कर नरेंद्र मोदी और उन की पार्टी देश में सरकार बनाना चाहती है. जो बात स्वयं अमित शाह ने संसद में कह डाली उस का यही सार है.

अमित शाह ने कहा,” नेहरू के समय में जो गलतियां हुई थीं, उस का खमियाजा सालों तक कश्मीर को उठाना पड़ा. पहली और सब से बड़ी गलती वह थी जब जब हमारी सेना जीत रही थी, लेकिन पंजाब का क्षेत्र आते ही संघर्ष विराम कर दिया गया और पीओके का जन्म हुआ. अगर संघर्ष विराम 3 दिनों बाद होता तो आज पीओके भारत का हिस्सा होता. दूसरी गलती संयुक्त राष्ट्र में भारत के आंतरिक मसले को ले जाने का था.”

अमित शाह ने कहा,”मेरा मानना है कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए था, लेकिन अगर ले जाना था तो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर 51 के तहत ले जाना चाहिए था, लेकिन चार्टर 35 के तहत ले जाया गया. नेहरू ने खुद माना था कि यह गलती थी, लेकिन मैं मानता हूं कि यह ब्लंडर (बड़ी गलती) था.”

कोई नई बात नहीं

इस तरह स्पष्ट है कि अमित शाह ने कोई नई बात नहीं कही है जब पंडित नेहरू ने स्वयं इस बात का उल्लेख किया है कि गलती हुई थी तो यह उन की महानता थी और देश के प्रति समर्पण का भाव. इंसान जब चलता है तो ठोकर भी खाता है, गलतियां भी करता है। इस बात को शायद अमित शाह भूल गए.

और जैसा कि होना चाहिए था देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदर्भ में शाह की टिप्पणियों का कांग्रेस के सदस्यों ने पुरजोर विरोध किया और इस दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक भी हुई.

शाह ने कहा,”जम्मू कश्मीर से संबंधित जिन 2 विधेयकों पर सदन में विचार हो रहा है, वे उन सभी लोगों को न्याय दिलाने के लिए लाए गए हैं जिन को 70 साल तक अनदेखी की गई और जिन्हें अपमानित किया गया.”

उन्होंने यह भी कहा,”प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गरीबों का दर्द समझते हैं तथा एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्होंने पिछड़ों के आंसू पोंछे हैं. वोट बैंक की राजनीति किए बगैर अगर आतंकवाद की शुरुआत में ही उसे खत्म कर दिया गया होता तो कश्मीरी विस्थापितों को कश्मीर छोड़ना नहीं पड़ता. 5-6 अगस्त, 2019 को कश्मीर से अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करने के संबंध में जो विधेयक संसद में लाया गया था उस में यह बात शामिल थी और इसलिए विधेयक में न्यायिक परिसीमन की बात कही गई है.

“अगर परिसीमन पवित्र नहीं है तो लोकतंत्र कभी पवित्र नहीं हो सकता. इसलिए हम ने विधेयक में न्यायिक परिसीमन की बात की. हम ने परिसीमन की सिफारिश के आधार पर 3 सीटों की व्यवस्था की है. जम्मू कश्मीर विधानसभा में 2 सीट कश्मीर से विस्थापित लोगों के लिए और 1 सीट पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर उन (पीओके) से विस्थापित हुए लोगों के लिए है. विधानसभा में 9 सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित की गई हैं.”

सच का साथ क्यों नहीं ?

कुल मिला कर अमित शाह को नरेंद्र मोदी सरकार की सकारात्मक बातों को संसद में रखना चाहिए और यह संसद सदस्यों पर छोड़ देना चाहिए कि वह इस के पक्ष और विपक्ष में अपनी बात को रखें ताकि देश के समक्ष नीर क्षीर विवेक के साथ तथ्य और सच पहुंच सके. मगर भारतीय जनता पार्टी के नेता सिर्फ अपनी बात करने में सिद्धहस्त हैं.

इसलिए अमित शाह ने कहा,”पीओके के लिए 24 सीटें आरक्षित की गई हैं क्योंकि पीओके हमारा है.”

उन्होंने कहा कि इन दोनों संशोधन को हर वह कश्मीरी याद रखेगा जो पीड़ित और पिछड़ा है.

देश के गृहमंत्री ने कहा,”विस्थापितों को आरक्षण देने से उन की आवाज जम्मू कश्मीर की विधानसभा में गूंजेगी.”

शाह ने कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के महत्त्वपूर्ण सवालों पर कहा,”कश्मीरी विस्थापितों के लिए 880 फ्लैट बन गए हैं और उन को सौंपने की प्रक्रिया जारी है.

उल्लेखनीय है कि कश्मीर में आगामी पंचायत चुनाव में भाजपा सुपड़ा साफ होने से चिंतित है और विधानसभा चुनाव से पीछे हट रही है.

विवाहिता नए घर में बेटी के नहीं बेटे के बराबर

जीवन में बहुत से संबंध जन्म से बनते हैं. मांपिता, भाईबहन और मां व पिता के संबंधियों से संबंध जन्म से अपनेआप बनते चले जाते हैं और इसी के साथ ढेरों चाचाचाची, ताऊ चचेरेममेरे भाईबहन, भाभियां, मौसियां, मौसा, फूफा, बूआ के संबंध बन जाते हैं. इन संबंधों को निभाने और इन में खटपट होने का अंदेशा कम होता है क्योंकि ये मांबाप के इशारे पर बनते हैं जो प्रगाढ़ होते हैं.

लेकिन शादी के बाद एक लड़की का इन संबंधियों से एक नया रिश्ता बनता है. रिश्ता तो लड़के का भी लड़की के संबंधियों से बनता है पर वह मात्र औपचारिक होता है. शादी होने पर लड़की का जो रिश्ता लड़के के संबंधियों से बनता है, वह कुछ और माने रखता है.

सास और ससुर से संबंध इस मामले में सब से बड़ा और महत्त्वपूर्ण होता है. लड़के का संबंध अपने मांबाप से नैसर्गिक, नैचुरल होता है, 20-30 साल पुराना होता है, लेकिन उस की पत्नी को उन (सासससुर) से संबंध एक दिन में बनाना होता है जिस की न कोई तैयारी होती है न ट्रेनिंग. लड़की चाहे सास खुद पसंद कर के लाए या सास का लाड़ला अपनी मां की सहमति या असहमति से लाए, संबंध को निभाने की जिम्मेदारी अकेली उसी यानी नई पत्नी की होती है.

यह एक बड़े पेड़ के प्रत्यारोपण (ट्रांसप्लांट) की तरह होता है. अब तक मनुष्य पेड़ों को इधर से उधर जड़ समेत नहीं ले जाता था, नए लगाना वह आसान समझता था क्योंकि हाल तक यह माना जाता था कि जिस पेड़ की जड़ें जमीन में गहरे तक गई हुई हैं, उसे दूसरी जगह ले जाना और फिर उस का फलनाफूलना असंभव सा है. लेकिन हाल में तकनीक विकसित हुई है कि पेड़ को जड़ समेत एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है, हालांकि, इस प्रक्रिया में बहुत से पेड़ मुरड़ जाते हैं.

तकरीबन हर लड़की के जीवन में उस के रिश्तों को अपने मांबाप से एक ?ाटके से तोड़ कर उसे दूसरे संबंधों से जोड़ दिया जाता है और उम्मीद की जाती है कि वह पत्नी बन कर अपनी पुरानी जड़ें भूल नई पक्की जमीन में अपनी जड़ें दिनों, सप्ताहों में बना लेगी. केवल पति के सहारे एक पत्नी के लिए यह काम मुश्किल होता है खासतौर पर जब वह अपनी पहले ही जमीन पर पत्नी को जगह देने को तैयार न हो.

नई पत्नी को नए घर में रमाने न देने के लिए पंडों ने बहुत से उपाय तैयार कर रखे हैं. वे अपनी इस सेवा को लिए जाने को कंप्लसरी बनाने के लिए इस नई सदस्या को अनावश्यक बनाने का माहौल बनाना शुरू कर देते हैं.

हमारे सनातनी समाज में तो पंडित सब से बड़ा उपदेशक, मार्गदर्शक, विपत्तियां दूर करने वाला होता है जो जब घर में कदम रखता है, मोटी दानदक्षिणा वसूल लेता है उस सलाह को देने के लिए जिस की न तो आवश्यकता होती है, न ही वह किसी काम की होती है. वह सलाह, दरअसल, दूध में हमेशा नीबू निचोड़ने की होती है लेकिन नीबू की बूंदें इतनी चतुराई से डाली जाती हैं कि लगता है जैसे शहद की बूंदें टपकाई जा रही हों.

एक उपाय यह बताया जाता है कि तुलसी, चंपा, चमेली के पौधे लगा दो. वास्तुशास्त्र के अनुसार कहां लगेंगे, यह पंडित ही तो बताएगा न, जो पहले अपनी फीस लेगा. एक दूसरा उपाय आजकल बताया जाने लगा है कि किचन की कैबिनेट काले रंग की न हो. पत्नी और सास के संबंध में किचन के रंगों का भला क्या योगदान है, यह सम?ा से परे है पर इसे भी अपना लिया जाता है.

कुछ सनातनी वास्तुशास्त्री किचन को ही खिसकाने की सलाह देने लगते हैं. यह काम आम घरों में संभव नहीं होता.

अपने मतलब का, स्वार्थ का, पैसे देने वाला एक उपाय यह बताया जाता है कि घर में एक गणपति की मूर्ति रखें. ऐसे में इस की स्थापना के लिए पंडित को दानदक्षिणा तो देनी ही होगी.

हमारा मीडिया बेटे को मां और अपनी पत्नी के साथ तालमेल के गुर बताने की जगह अनापशनाप उपाय बताता है.

काफी समझदार लोग भी पंडितों के बताए उपायों को अपनाते हैं क्योंकि उन्हें जन्म से यह शिक्षा मिली होती है कि पंडेपुजारी जो कहते हैं वह सब को बनाने वाले भगवान की इच्छा है.

नई सदस्या को कैसे घर में रमाएं, कैसे उस के 20-25 साल के व्यक्तित्व व उस की ट्रेनिंग का लाभ उठाएं, कैसे उसे नए घर की ज्योग्राफी व टैंपरामैंट से अवगत कराएं आदि की जगह टोनेटोटकों की सलाहों की बरसात होने लगती है.

एक उपाय में यह बताया गया है कि सासबहू सुबहसुबह उठ कर झाड़ू लगाएं. यह विघ्न डालने वाला काम है. जब नए पतिपत्नी एकदूसरे की बांहों में हों, सास झाड़ू लगाना शुरू कर दे या बहू को आदेश दे या नौकरानी से कह दे, तो ऐसे में विवाहित जोड़े का सैक्स सुख तो डिस्टर्ब होगा ही. नतीजतन, पत्नी के मन में चिढ़ उठेगी और संबंध ठीक नहीं रहेंगे.

एक दूसरा उपाय यह सुझाया जाता है कि विवाद हो तो सूजी का हलवा खा कर मंदिर में बांट दो. यह तो सासबहू की तकरार का खुला विज्ञापन करने जैसा है.

बजाय इन सब चोंचलों के, सासबहू के संबंध ठीक बने रहें, इस के लिए ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत सब से ज्यादा ठीक होता है पर यह पाठ बहुत ही कम पढ़ाया जाता है. ‘तुम मेरी तरह जियो’ की जिद सासबहू के संबंधों को सब से ज्यादा खराब करती है. आमतौर पर सासें जिद्दी होती हैं जो अपने तौरतरीके बदलने को तैयार नहीं होतीं और चाहती हैं कि बिना किसी तैयारी के बेटे की नवविवाहिता उन के अनुसार काम करने लगे.

जहां सास अपने बेटेबहू से अलग रहती है वहां भी वह बेटे की पत्नी को अलग मानने से बाज नहीं आती. उसे हमेशा लगता है कि पत्नी ने उस के बेटे को छीन लिया है. चाहे यह सच भी हो पर यह विकास का नैचुरल प्रोसैस है.

जब भरी मैट्रो में नए पैसेंजर आ जाते हैं तो सब खुद ही अपनी जगह कम कर लेते हैं ताकि नए को जगह मिल जाए. यह तकनीक समाज, मैट्रो प्रबंधन, भीड़ खुद को सिखा रही है. यह घरों में नहीं सीखा जाता. यही समस्या की जड़ है.

नई पत्नी को लाना, घर में रमाना एक पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो धर्म ने कभी न सिखाई और न सीखने दी क्योंकि उस की रुचि इस में रही है कि हर घर में हर समय विवाद होते रहें.

आज मनोवैज्ञानिक तरीके ढूंढ़ रहे हैं कि सासबहू संबंध जिस पर पतिपत्नी संबंध टिका होता है, कैसे सौलिड रखा जाए.

इस के लिए कुछ टिप्स ये हैं

प्ले फेयर : सासससुर या निकट संबंधियों के घर की नई मैंबर को पुराने मैंबर की तरह बराबर सम?ाना चाहिए. जो व्यवहार, सुविधा, असुविधा, ससुर, ननदें, दूसरे बेटे को मिल रही हैं वे तुरंत नई आई पत्नी को भी मिलें चाहे वह उसी घर में रह रही हो या दूर हो. कुछ भी खरीदा जा रहा हो तो गिनती करते समय बेटे की पत्नी को बेटे के साथ न जोड़ें, उसे स्वतंत्र समझें, यही सही व फेयर गेम है.

सामान्य ढंग से बातचीत : नई सदस्या को घर के सारे राज जानने का हक है. उसे पूरा इतिहास जानने दें. बात करते हुए अचानक उस के आने पर चुप न हो जाएं बल्कि उसे बैकग्राउंड बताते हुए समेट लें, अपना लें. उस से अपने घर की कमियों को छिपाएं नहीं, खुल कर बताएं. समस्या आर्थिक हो या व्यावहारिक, बेटे की नई पत्नी को जितनी जल्दी सम?ा आएगी उतनी जल्दी ही वह सब के साथ घुलमिल जाएगी जैसे पानी में रंग.

उसे थैंक्स दें और एप्रिशिएट करें : घर की नई सदस्या यानी बेटे की पत्नी यदि कुछ सकारात्मक करती है तो उसे थैंक्स बोलें व उस की कोशिश को एप्रिशिएट करें. नई सदस्या अपना महत्त्व जानना चाहती है. वह घर की इंटर्न नहीं है, वह मालिक की हिस्सेदार है. उसे वह आदरसत्कार दें जो पत्नी के पति के पत्नी के घर में दामादों की तरह मिलता है.

सहायता करें, सहायता मांगें : किसी विषय में नईर् पत्नी की सहायता करने में कभी यह न सोचें कि उस की मां सुलटा देगी या बेटा सुलटा लेगा. जितना खुद से बन पड़े, सास को करना चाहिए. दूसरी ओर हर छोटीबड़ी बात पर बेटे की पत्नी को परिवार का एक हिस्सा मान कर उस से सहायता लें. यह अपनेपन की निशानी है.

अपने को श्रेष्ठ न समझें : न सास को और न ही बहू को श्रेष्ठता जताने की कोशिश करनी चाहिए. यह गुण या कह लें अवगुण, हर घर के पुराने सदस्यों में होता है. भाईबहन, मातापिता यह नहीं जताते कि उन्हें कुछ काम ज्यादा अच्छा आता है.

देश की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी अपनी बहू मेनका गांधी से नहीं निभा पाईं. देश की समस्याओं को सुलझ पा सकने वाली महिला घर में विवादों से दूर न हो सकीं. बेटे संजय गांधी की मृत्यु के बाद मेनका को घर से निकलना पड़ा. उन्हें इंदिरा गांधी ने दिल्ली के महारानी बाग इलाके में अलग घर दिलाया. मेनका गांधी को इतना गुस्सा था कि उन्होंने कांग्रेस की विरोधी भारतीय जनता पार्टी जौइन कर ली और 9 बार उस की ओर से सांसद बनीं.

इंदिरा गांधी ने संजय की संपत्ति को ले कर मेनका गांधी पर मुकदमा तक किया जो सुप्रीम कोर्ट तक गया.

इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ और बड़े बेटे चार्ल्स की पत्नी डायना में कभी नहीं बनी जो शायद चार्ल्स को उन की उम्र से बड़ी कैमिला रोजमेरी शैंड की तरफ धकेलने का एक कारण था. चार्ल्स और डायना में तलाक हुआ और बाद में डायना एक रईस अरब के साथ एक दुर्घटना में मारी गई.

एलिजाबेथ का सासपन इस के लिए जिम्मेदार नहीं था, यह कहना मुश्किल है. जो तथ्य महल से दनदना कर बाहर आए हैं वे साफ बताते हैं कि एलिजाबेथ ने डायना को कभी चार्ल्स के बराबर न समझ.

युवकयुवती में वैवाहिक संबंध मजबूत रहें, इस के लिए सासबहू के संबंधों को तर्क और व्यावहारिकता की जमीन पर रखें. संबंधों को टोनेटोटकों, रीतिरिवाजों, परंपराओं, जंजीरों में न बांधें क्योंकि एक बार पड़ी दरार हो सकता है कभी न भरी जा सके.

जितनी जातियां उतने देवता

केवट यानी निषादराज के बारे में हर कोई जानता है कि वह मामूली मछुआरा और नाविक था. रामायण के गरीब, दलित और दीनहीन इस किर दार के बारे में लोग यह भी जानते हैं कि उस ने राम को नदी पार कराई थी और एवज में मेहनताना नहीं बल्कि आशीर्वाद व मोक्ष चाहा था. त्रेता से कलियुग आतेआते केवट कब आदमी से देवता हो गया, इस की किसी को हवा भी न लगी. और तो और, उस की जयंती भी बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी है. तीजत्योहारों और जयंतियों वाले हमारे देश में बीती 14 मई को केवट जयंती सरकारी स्तर पर भोपाल के मुख्यमंत्री निवास में मनाई गई थी.

मुख्य अतिथि, जाहिर है, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे और तालियां बजाने केवट के लिए कुछ वंशज मौजूद थे जिन के चेहरे से खुशी और दर्प फूटे पड़ रहे थे. उन पर फूल बरसाए जा रहे थे. आखिर बात थी भी कुछ ऐसी ही, उन के पूर्वज को देवता का दर्जा जो मिल गया था.

देवता वही होता है जिस के मंदिर हों, मूर्तियां हों, जिस का पूजापाठ हो और जिस की जयंती मने. एक पंडितपुजारी हों, चढ़ावा चढ़े. चुनावी साल में केवट समाज की भीड़ देख शिवराज सिंह गदगद थे और उन के चेलेचपाटे हिसाबकिताब लगा रहे थे कि किस विधानसभा सीट पर इन निषादराजों के कितने वोट हैं और मुख्यमंत्री ने जो घोषणाएं की हैं उन का कितना फायदा भाजपा को मिलेगा.

ये सियासी मुनीम यह याद कर भी फूले नहीं समा रहे थे कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा और योगी आदित्यनाथ की भी नैया इसी समाज के लोगों ने पार लगाने में अहम रोल निभाया था. शायद पहली बार इन केवटों ने जाना कि निषादराज हिंदू पोंगापंथी के लिए किसी भगवान से कम नहीं हैं. कुछ देर इधरउधर की हांक कर शिवराज सिंह मुद्दे की बात पर आते बोले, ‘आप लोग एक जगह तय कर लें जहां भव्य और विशाल निषादराज स्मारक बनाया जाएगा. निषादराज की मूर्तियां भी लगाई जाएंगी.’ फिर, वे प्रतीक रूप में नाव पर भी चढ़े.

इसी दिन केवटों पर डोरे प्रदेश कांग्रेस भी अपने दफ्तर में समारोहपूर्वक डाल रही थी. कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी केवटों को दाना चुगाया. इन 2 आयोजनों से साबित हो गया कि निषाद समुदाय के लोग भी अब देवताविहीन नहीं रहे. कुल जमा देवताओं की लिस्ट में और एक नया नाम शुमार हो गया.

सवर्ण देवताओं की तलब

ढूंढ़े से भी कोई जाति ऐसी नहीं मिलेगी जिस का अपना खास कोई देवी या देवता न हो. देश में लगभग 3 हजार जातियां हैं. इस लिहाज से तो देवताओं की तादाद भी 3 हजार होनी चाहिए. अब यह अपनीअपनी सम?ा पर निर्भर है कि जाति की संख्या के मुताबिक देवताओं की संख्या मानी जाए या देवताओं की संख्या के मुताबिक जातियां मानी जाएं.

हरेक राज्य में सैकड़ों/हजारों देवता ऐसे हैं जिन के नाम भी किसी, खासतौर से शहरियों, ने नहीं सुने होंगे. एक दिलचस्प उदाहरण अकेले उत्तरी बिहार का लें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां के 140 विधानसभा क्षेत्रों में दर्जनों देवता पूजे जाते हैं. उन के नाम भी हिंदू देवताओं से हट कर हैं, मसलन गौरैया बाबा, बंदी माई, सोखा बाबा, बरहम बाबा, गिहल, विषहरा, बामती, सलहेस आदि. ये सभी दलित जातियों के देवता हैं, इसलिए भी दलितों को सवर्णों के देवताओं जैसे राम, विष्णु, चक्रधारी कृष्ण, ब्रह्मा की तलब नहीं लगती है.

इंडियन काउंसिल औफ हिस्टौरिकल रिसर्च के एक स्कौलर प्रदीपकांत चौधरी की यह रिसर्च काफी दिलचस्प जातियों के देवताओं के लिहाज से है. बकौल प्रदीपकांत, ऊंची जाति वालों में कुल देवी या देवता आमतौर पर एक होता है. उन से छोटी जातियों, यादव-कुर्मी आदि में यह संख्या 2 से 3 हो जाती है जबकि दलित और महादलित जातियों में दर्जनभर से ज्यादा देवता पूजे जाते हैं.

इन दिनों जातिगत जनगणना को ले कर खासा हल्ला मचा हुआ है. इस से कुछ और हासिल हो या न हो, यह जरूर साफ हो जाएगा कि आखिर देवता कितने हैं. साल 1901 की जनगणना, जो हकीकत के ज्यादा नजदीक मानी जाती है, के मुताबिक देश में जातियों की संख्या 2,378 है. अब उसी अनुपात में देवताओं की तादाद कुछ बढ़ी है तो वह केवट जैसों को देवता का दर्जा दे देने की वजह से बढ़ी है. कुछ समाजशास्त्री उपजातियों की संख्या 25 हजार के लगभग बताते हैं, यानी जाति की भी जाति होती है. इस लिहाज से इतने ही उपदेवता भी होते हैं.

जातियों के बारे में कुछ भी स्पष्ट या प्रामाणिक नहीं है. अब से सौ साल पहले मुंबई विश्वविद्यालय के नामी समाजशास्त्री डा. जी एस घुर्ये, जिन्हें भारत में समाजशास्त्र का संस्थापक भी माना जाता है, ने लंबाचौड़ा हिसाबकिताब लगा कर बताया था कि देश में जातियों की कुल संख्या 3 हजार होनी चाहिए. लेकिन उन के गणित का पोस्टमार्टम ‘भारत में जातियों का इतिहास’ नाम की किताब के लेखक श्रीधर केतकर की यह थ्योरी करती है कि केवल ब्राह्मणों की ही 800 उपजातियां हैं. इस लिहाज से तो शूद्रों की उपजातियां 10 गुना से भी ज्यादा होनी चाहिए. जातियां धर्म के हिसाब से बनी हों या कर्म यानी पेशे के हिसाब से, शूद्रों की सब से ज्यादा हैं.

यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि कुछ जातियों के एक से ज्यादा भी देवता हैं लेकिन एक से ज्यादा देवताओं को मानने की छूट या सहूलियत केवल ऊंची जाति वालों को है. नीची जाति वाले आमतौर पर अपनी उपजाति का देवता ही पूजते हैं. कायस्थ होने के नाते यह लेखक बचपन से ही सुनता आया है कि हमारे देवता चित्रगुप्त हैं जो सभी जातियों और धर्मों के लोगों के पापपुण्यों का लेखाजोखा रखते हैं.

लेकिन बचपन से ही हर कायस्थ यह भी सुनता आया है कि हम श्रीवास्तव लोग बाकी 11 जातियों से श्रेष्ठ हैं. यानी एकता सिर्फ देवता या आराध्य स्तर पर है. इस के बाद तो उपजाति, गोत्र, कुलदेवी, देवताओं और बापदादाओं का बखान शुरू हो जाता है. अब यह सवाल भी अनुतरित्त ही रह जाता है कि जब चित्रगुप्त हमारा देवता है तो हम राम, कृष्ण, शिव या किसी देवी को क्यों पूजें. इस का जवाब बड़ा दिलचस्प है कि चित्रगुप्त के पूजापाठ में किसी को दक्षिणा नहीं देना पड़ती लेकिन बाकियों को चंकी भगवान का दर्जा हासिल है, इसलिए उन के पूजापाठ में ब्राह्मण को दान देने का विधान और बाध्यता है.

देश के बनिए और वैश्य कृष्ण का बाल रूप पूजते हैं लेकिन उन का अपनी जाति के मुताबिक भी एक अलग देवता है. मसलन, अग्रवाल लोग अग्रसेन महाराज को तो माहेश्वरी महेश को पूजते हैं, यह शंकर का दूसरा नाम है. लेकिन पूजापाठ के तौरतरीके अलग हैं. अगर यह महेश शंकर ही होता तो महेश्वरी भी महेश नवमी के बजाय शिवरात्रि मनाते लेकिन उन की महेश जयंती ज्येष्ठ महीने की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाना बताता है कि धर्म की महिमा और दुकान कितनी व्यापक है.

इन जातियों में एक अहम लेकिन अपेक्षाकृत छोटी जाति गुप्ता भी है लेकिन उस का अग्रसेन या महेश जैसा कोई अधिकृत देवता नहीं है, इसलिए वह लड्डू गोपाल के अलावा हनुमान से काम चला रही है. ऐसी जातियों के बारे में विरोधाभास कायम है कि ये गुप्त वंश के हैं या तेली हैं जैसा कि धर्म के ठेकेदार कहते हैं.

केवट समुदाय के लोग भी देवीदेवताओं को पूजते हैं और ब्राह्मणों को दानदक्षिणा भी खूब देते हैं लेकिन हालफिलहाल निषादराज के नाम पर उन्हें किसी को धेला भी नहीं देना पड़ता. आने वाले दिनों में जब निषादराज मंदिर बन जाएंगे और उन में यज्ञहवन जैसे कर्मकांड होने लगेंगे तब जादू के जोर से एक ब्राह्मण पुजारी प्रगट होगा और चढ़ावा बटोर ले जाएगा. तब उन्हें कुछकुछ सवर्णपने का एहसास होगा. यह एक तरह की मुख्यधारा में शामिल होने की एंट्री फीस है.

इस गड़बड़?ाले को बहुत सरल तरीके से सम?ों तो यादव जाति और उस की उपजातियों के घोषित देवता कृष्ण हैं पर कृष्ण मंदिरों का चढ़ावा ब्राह्मण बटोरते हैं. इसी तरह राम क्षत्रियों के देवता हैं, उन के नाम की चढ़ोत्री भी ब्राह्मण बटोरते हैं. यानी जितने ज्यादा देवता उतना बड़ा कारोबार. इसलिए देवता बढ़ते रहें, इस में श्रेष्ठियों को कोई दिक्कत नहीं.

दिक्कत तो तब होती है जब कोई यह कहने लगे कि जातियां इन्हीं ब्राह्मण पंडों ने बनाईं और वह कहने वाला कोई और नहीं बल्कि आरएसएस जैसे शक्तिशाली संगठन का मुखिया हो तो त्रिपुंड पर सिलवटें पड़ जाना स्वाभाविक बात है कि जिन्हें दुकान चमकाने का ठेका दिया था वही बुलडोजर ले कर आ गए. तो हो गई हिंदू धर्म की रक्षा और बन गया हिंदू राष्ट्र.

जातियां – भगवान का संविधान

2023 की 5 फरवरी को रविदास जयंती के मौके पर मुंबई के एक आयोजन में भाषण देते आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि जाति भगवान ने नहीं बनाई है, जाति पंडितों की बनाई हुई व्यवस्था है जो गलत है. किसी को यह सफाई देने की जरूरत नहीं पड़ी कि यहां पंडित शब्द से उन का मतलब ब्राह्मण से था या नहीं.

देखते ही देखते मोहन भागवत के इस बयान का विरोध शुरू हो गया. बिरला ही ऐसा शहर होगा जहां ब्राह्मण संगठनों ने उन का विरोध न किया हो. सड़कों पर प्रदर्शन हुआ, हनुमान चालीसा पढ़ कर भागवत को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना की गई, उन की हायहाय के नारे लगे, कई जगह प्रशासन को ज्ञापन भी सौंपे गए. मोहन भागवत को ब्राह्मण समाज से माफी मांगने की चेतावनी दी गई जो उन्होंने कुछ दिनों बाद गोलमोल शब्दों में मांग भी ली.

हर किसी ने इस वक्तव्य का मतलब अपने हिसाब से लगाया. अधिकतर लोगों को हैरानी इस बात की थी कि जिस संगठन पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगता रहा है वही ब्राह्मणविरोधी बात कह रहा है. एक लोकप्रिय और आरएसएस की तरह ही देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम पर काम कर रहे धर्मगुरु देवकीनंदन ठाकुर की धौंस से स्पष्ट हुआ कि दरअसल लोचा क्या और कहां है.

उन्होंने बेहद तल्ख लहजे में कहा, ‘‘मैं कुछ पर्सनल बोल दूंगा तो बुरा लग जाएगा. आप पढि़ए तो वेद. उन में जो व्यवस्था है वही भगवान का संविधान है.’’

यानी हर जाति का देवता भी धर्म, भगवान और ब्राह्मणों की देन है जिसे मोहन भागवत ब्राह्मणों के दिमाग की उपज बता गए तो बवाल मच गया. इतने सारे देवता किस ने बनाए, इस सवाल पर अब ज्यादा रिसर्च की जरूरत नहीं है क्योंकि देवकीनंदन इस का श्रेय लेने से हिचक नहीं रहे हैं. इस समीकरण से साबित यह भी होता है कि ब्राह्मण और भगवान कोई अलगअलग इकाइयां नहीं हैं. ब्राह्मण ही भगवान है और यह बात धर्मग्रंथों में प्रमुखता से कही गई है.

कमजोर पड़ता हिंदुत्व

आरएसएस और मोहन भागवत का हिंदू राष्ट्र का सपना जिन कई वजहों से पूरा नहीं हो पाएगा, उन में से एक वजह जितनी जाति उतने देवता भी हैं. कुकुरमुत्ते सरीखे जो देवीदेवता ब्राह्मणों ने अपनी दुकान के लिए उपजाए हैं, अब वही राह में रोड़ा बनते जा रहे हैं. निषाद जैसी जातियां अगर किसी एक या दो देवताओं को मानें तो उन के कट्टर हिंदू होने की गुंजाइश बढ़ जाती है लेकिन उन्हें अपना एक अलग देवता मिल गया तो वे किसी ?ां?ाट में पड़ना पसंद नहीं करेंगे.

यह बात हर उस जाति पर लागू होती है जिसे अपना एक अलग देवता पकड़ा दिया गया है. मिसाल पिछड़ों में प्रमुखता से शुमार लोधी जाति की लें तो कुछ वर्षों पहले तक उस का कोई घोषित देवता नहीं हुआ करता था लेकिन मंदिर आंदोलन के बाद देश में रातोंरात जो देवता बड़े पैमाने पर पूजे जाने लगे उन में से एक लोधेश्वर देवता भी हैं.

साध्वी उमा भारती 2003 में जब मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं तो मुख्यमंत्री निवास में उन्होंने समारोहपूर्वक लोधेश्वर देवता का पूजन किया था. इस के बाद तो लोधी समाज धूमधाम से लोधेश्वर जयंती मनाने लगा. जगहजगह लोधेश्वर का पूजापाठ होने लगा, उन्हें 56 भोग परोसे जाने लगे, भजनकीर्तन और भंडारे होने लगे. इस से हुआ यह कि लोधियों के दिलोदिमाग से हिंदुत्व का भूत उतरने लगा और लोधेश्वर का चढ़ने लगा क्योंकि द्वापर युग का यह ज्ञान भी ब्राह्मणों का दिया हुआ है कि लोधेश्वर भी शंकर का रूप है. बस, फिर पिछड़ी जाति वाले लोधियों को अगड़े हिंदुओं वाले शंकर की खास जरूरत नहीं रह गई.

मोहन भागवत की चिंता यही है कि जब तक छोटेबड़े हिंदू ‘वन नेशन वन गौड’ को नहीं मानेंगे तब तक हिंदू राष्ट्र बनना नामुमकिन है. अब यह स्थिति भस्मासुर सरीखी होती जा रही है. ब्राह्मणों को हिंदू राष्ट्र तो चाहिए लेकिन भाजपा या आरएसएस वाला नहीं, बल्कि भगवान के संविधान वाला जिस में पूजापाठी अहम होते हैं क्योंकि वे जिंदगीभर दानदक्षिणा देते रहते हैं.

एक बार पूजापाठ की लत अगर पड़ गई तो फिर आसानी तो क्या मुश्किल से भी नहीं छूटती. बड़ी मुश्किल से पिछड़े और दलित इस ?ांसे में आ रहे हैं जो भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे समाजसुधारकों को भी देवता की तरह पूजने लगे हैं. ऐसे में उन्हें छोड़ पाने का मोह ब्राह्मणों को कारोबारी जोखिम लग रहा है. दलित, पिछड़े, आदिवासी किसी को भी देवता मान उस की पूजा करें, यही ब्राह्मणों की मंशा और मकसद है.

ताकि भीड़ काबू में रहे

हर जाति को अपना अलग देवता थमा देने का रिवाज कितना भी पुराना हो और उस में मतभेद हों लेकिन यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि यह पौराणिक काल की ही व्यवस्था है. फर्क सिर्फ इतना है कि कायस्थों के चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उपजे बताए जाते हैं तो निषादों के केवट शूद्र हैं जबकि उन की उत्पति ब्रह्मा के पैर से भी हुई नहीं बताई गई है. त्रेता युग में जो केवट था वह साल 2023 में देवता बनाया जा रहा है तो इस के पीछे कोई नेकनीयत नहीं है, बल्कि यह शुद्ध धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थ और व्यवसाय है.

रामायण और रामचरितमानस में जिन जातियों का प्रमुखता से उल्लेख है उन में कुम्हार, तेली, भंगी, कोल, कलवार, बहेलिया आदि हैं जिन्हें एक दोहे में कुछ इस तरह पिरोया गया है.

जे वर्णाश्रम तेली कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा. अर्थात, तेली, कुम्हार, भंगी, बहेलिया, कोल, कलवार अधम वर्ण के लोग हैं, ये पापी जातियां हैं.

ये नीच, पापी और अधम लोग कहीं मंदिरों में गंद फैलाते मर्यादा पुरुषोत्तम राम को न पूजने लगें, इसलिए इन के लिए अलगअलग देवताओं के इंतजाम कर दिए गए जिस से पवित्रता बनी रहे और सनातनी लोग अशुद्ध न हों. इन दिनों तेली जाति की देवता/देवी एक भगवती माता हैं. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गिनती इसी जाति में होती है.

कुम्हार जाति के लोगों को भी एक श्री यादे मां थमा दी गईं. हालांकि यह जाति ब्रह्मा ने पैदा की थी लेकिन यही ब्रह्मा उन के लिए दूर की बात है क्योंकि वे शूद्र हैं. इसलिए उन्हें शूद्र रूप दिया गया. यह और बात है कि कुम्हार जाति के लोग खुद को प्रजापति कहने में गर्व महसूसते हैं. लेकिन इस से उन की हीनभावना दूर नहीं हो जाती और न ही सामाजिक हैसियत पर कोई फर्क पड़ता है जोकि दोयम दर्जे की ही है.

कोल और कलवार जाति के देवता इन दिनों बलभद्र हैं जिन्हें बलराम भी कहा जाता है. कुर्मी जाति भी इन्हीं की तरह अर्धकिसान यानी खेतिहर मजदूर हैं. शिवराज सिंह चौहान कुर्मी जाति के हैं जिस के आराध्य या देवता भी बलराम ही हैं. अब कोल जाति की कुछ उपजातियों के लोग ?ांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सहयोगी ?ालकारी देवी को भी पूजने लगे हैं.

सब से नीची और छोटी जाति के करार दे दिए गए भंगी और मेहतर जाति के लोगों के देवता वाल्मीकि हैं जिन के मंदिर गलीकूचों में बन गए हैं. लेकिन आमतौर पर ये दलित बस्तियों में ही हैं. यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि छोटी जाति के किसी देवता के हाथ में धनुष, बाण, तलवार या फरसे जैसे हथियार नहीं दिखते, फिर तंत्रमंत्र से दुश्मन का नाश करने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती. यानी वे अपने अनुयायियों की तरह शक्तिहीन और लाचार हैं.

दलित जातियों के लोग सवर्णों के मंदिर यानी राम, कृष्ण, शिव आदि के मंदिरों में नहीं जाते और न ही इन्हें कभी कलावा पहने या तिलक लगाए देखा जाता है. कुछ पैसे वाले हो गए पिछड़ों को यह हक हासिल हो गया है जो दानदक्षिणा के नाम पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाने लगे हैं. राजनीति के चलते इन के कुछ देवताओं की जयंतियां मनाई जाने लगी हैं. इसी तरह सरकारी प्रोत्साहन के चलते चमड़े का काम करने वाली जाति के लोग अब रविदास को पूजने लगे हैं जिन पर भाजपा और कांग्रेस सहित सभी छोटेबड़े दल मेहरबान रहते हैं.

इन्हीं रविदास की जयंती पर मोहन भागवत की जबान फिसली थी और वे समानता की बात करते ब्राह्मणों की पोल खोल बैठे थे. रविदास जैसे सूफियों और सुधारकों को कट्टर हिंदूवादी देवता का दर्जा देने को इसलिए भी तुल गए हैं कि जिस से ऊंची जाति वालों के मंदिर में दलितों की भीड़ भी नियंत्रित रहे. उन में इन लोगों के जाने की मुमानियत है. कबीर दास कोरी जाति के देवता हो गए हैं जिन के मंदिर अब हर कहीं हैं. इस जाति के लोग भी सवर्णों के मंदिर में नहीं जाते.

ब्रह्मा और विष्णु के अवतारों में भी विकट का भेदभाव है, उदाहरण विश्वकर्मा नाम के देवता का लें तो वे बढ़ई और लोहार जाति के हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से विश्वकर्मा जयंती धूमधाम से मनाई जाने लगी है. उन के भी मंदिर बन गए हैं. नाइयों को इन मंदिरों से दूर रखने के लिए सेन महाराज की जयंती मनाई जाने लगी है. इन देवताओं की लिस्ट बहुत लंबी है जो दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है.

आदिवासियों के बदले देवता

आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते. इस नाते उन्हें हिंदू देवताओं, चाहे वे छोटे हों या बड़े, से कोई लेनादेना नहीं होता. इस के बाद भी हिंदूवादी संगठन और क्रिश्चियन मिशनरियां इन के पीछे हनुमान, शंकर के तावीज और मूर्तियां ले कर दौड़ते रहते हैं कि हमारा धर्म और देवीदेवता अपना लो. ईसाई मिशनरियां क्रौस और बाइबिल आदिवासी इलाकों में बांटती हैं जिन पर आएदिन विवाद होते रहते हैं.

इन दिनों भाजपा ने इन भोलेभाले प्रकृतिपूजकों को बिरसा मुंडा और टटया भील सरीखे आधा दर्जन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थमा दिए हैं. सरकारी और राजनीतिक आयोजनों में इन्हें भी केवट की तरह देवता बनाने की साजिश शबाब पर है. मकसद आदिवासियों को भी पूजापाठी बनाना है. इन अदिवासी नायकों का बखान बढ़ाचढ़ा कर किया जाता है और इन की जयंतियों पर छुट्टी भी दी जानी लगी है. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कुछ सालों बाद आदिवासी अपने इन नव देवताओं के मंदिरों से तिलक लगा कर हाथ में प्रसाद की थाली ले कर मंदिर से बाहर निकलते नजर आएं.

पहली नजर में देखने से लगता है कि हर जाति के देवता से फायदा राजनीतिक दलों का होता है लेकिन दूसरी नजर से देखें तो फायदा ब्राह्मणों का ज्यादा है जो इन छोटे देवताओं के मंदिर में नहीं जाते, न ही उन का पूजापाठ करते हैं जाहिर है उन में इन के प्रति श्रद्धा ही नहीं है, हां, श्रद्धा हो जाएगी बशर्ते उन्हें दक्षिणा मिलने लगे. प्रसंगवश ब्राह्मणों का नजरिया अभी भी इन के प्रति कितना नफरतभरा है, यह हालिया कुछ मामलों से दिखता है और यह सवर्णों का जातिगत अहंकार बनाए रखने के लिए है जिस से वे खुद को श्रेष्ठ सम?ाते रहें और होड़ में आ कर और ज्यादा दानदक्षिणा दें.

फसाद और नफानुकसान

बागेश्वर धाम के बाबा धीरेंद्र शास्त्री आएदिन छोटी जाति वालों सहित उन के देवताओं के बारे में भी अपशब्दों का इस्तेमाल अपने प्रवचनों में करते रहते हैं. 23 मई, 2023 को मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले बालाघाट में उन्होंने आदिवासियों को जंगली कहा तो उन का विरोध आदिवासी संगठनों, खासतौर से कलार समुदाय के लोगों ने किया था लेकिन वह फुस्स हो कर रह गया. क्योंकि धीरेंद्र के बारे में कुछ बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा. उस का अपना साम्राज्य, रुतबा और रसूख है. ब्राह्मणों सहित सारी सवर्ण जातियां उस के साथ हैं. भाजपा उस की संरक्षक और सरकारें उस की दास व भाजपाई शीर्ष नेता और मुख्यमंत्री उस के शिष्य व वत्स हैं.

इस महाराज ने मई के ही पहले सप्ताह में एक प्रवचन में सहस्त्रबाहु नाम के देवता के बारे में कहा था कि वह जिस वंश से था उस का नाम हैहय था. हैहय वंश के विनाश के लिए भगवान परशुराम ने फरसा अपने हाथ में उठाया. हैहय वंश का राजा बड़ा ही कुकर्मी व साधुओं पर अत्याचार करने वाला था. इस पर हैहय समाज के लोग बिफर उठे और जगहजगह उन्होंने धीरेंद्र शास्त्री का तरहतरह से विरोध किया. इस वंश में कलाल और ताम्रकर जाति के लोग प्रमुख हैं.

ताम्रकर समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीहोर के वरिष्ठ अधिवक्ता और पत्रकार रामनारायण ताम्रकर से जब इस प्रतिनिधि ने बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘धीरेंद्र शास्त्री नफरत फैला रहे हैं. उन का मकसद भले ही हिंदू राष्ट्र हो लेकिन इस तरह वे कामयाब नहीं होने वाले. हां, वे चाहें तो अपना अलग ब्राह्मण राष्ट्र बना लें लेकिन यह नफरत फैलाना बंद करें. कुछ बोलने से पहले उन्हें धर्मग्रंथ पढ़ लेना चाहिए और लोगों की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए.’’

असल में यह वही नफरत है जिस की चर्चा राहुल गांधी अकसर अपने बयानों व भाषणों में किया करते हैं कि भाजपा, आरएसएस और दूसरे कट्टरवादी संगठन नफरत फैलाया करते हैं और देश में फूट डाल कर उसे बांट देना चाहते हैं. नफरत की दुकान का जवाब मोहब्बत की दुकान से देने का राहुल का फलसफा कर्नाटक में सिर चढ़ कर बोला. वह हिंदीभाषी राज्यों में चलेगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी.

लाख टके का दिलचस्प सवाल यह भी है कि क्यों राम और कृष्ण जपने वाली भाजपा निषादराज जैसे छोटी जाति के देवताओं की मुहताज हो चली है और क्यों उस के धीरेंद्र शास्त्री जैसे एजेंट इन्हीं छोटी जाति वालों और उन के देवताओं को ही कोसते रहते हैं. राजनीतिक सच जो भी हो लेकिन धार्मिक सच उस से ज्यादा नुकसानदेह है कि हर जाति का देवता होगा तो पूजा?पाठी मानसिकता बढ़ेगी, लोग अपना कामधाम छोड़ कर मंदिरों और चलसमारोहों में भजनकीर्तन करते नाचगा रहे होंगे तो नुकसान भी उन्हीं का होगा. इस मानसिकता को शह देने वाले तो ठाट से राज कर रहे हैं.

जातियों और देवताओं की उत्पत्ति के मनगढ़ंत दिलचस्प किस्से

हजारोंलाखों पौराणिक किस्सेकहानियों की तरह एक बात यह भी है कि एक बार माता पार्वती भगवान शंकर से एक सुंदर बगीचा बनाने की जिद पकड़ बैठीं. तब भगवान शंकर ने अनंत चौदस के दिन अपने कान के मैल से एक पुरुष पुतले को बनाया और उस में प्राण डाल दिए जो मनंदा कहलाया. इसी तरह पार्वती ने डाभ ( एक तरह की घास ) के एक पुतले में प्राण फूंक कर एक सुंदर कन्या को बनाया जो आदि कन्या सेजा कहलाई.

भगवान ने इन दोनों को सोनेचांदी से बने बागबानी के औजार यथा कुदाल, खुरपी आदि दे कर इन्हें अपने बगीचे का काम सौंप दिया. यही मनंदा माली कहलाने लगा जिस के सेजा से 11 बेटे और एक बेटी हुई. अब मनंदा और उस के वंशज हर कहीं किसी साहब के लौन या किचन गार्डन में घास खोदते दिख जाएंगे. उन के सोनेचांदी के औजार ऊपर ही कहीं रह गए, सो वे लोहे और प्लास्टिक के औजारों से अपने पुश्तैनी काम को मुस्तैदी से अंजाम दे रहे हैं. बदहाली में जीते माली समाज को गर्व महज इस बात का है कि उन का आदि पुरुष मनंदा ऊंची जाति वालों के आदि पुरुष शंकर का माली था.

ऐसे किस्सेकहानी ही बताते हैं कि कैसेकैसे छोटी जाति वालों के हाथ एकएक देवता भगवान का मानस पुत्र कहते थमा दिए गए. सम?ा यह भी आता है कि वर्णव्यवस्था कैसे शुरू हुई और उसे कैसेकैसे पुख्ता किया गया, नहीं तो भगवान शंकर सुंदर बगीचा अपनी फूंक से भी रच सकते थे. लेकिन जरूरत खेतों और बगीचों में मेहनती मजदूरों की थी, इसलिए मनंदा और सेजा की कहानी रचनाकारों ने गढ़ दी.

लगभग ढाई करोड़ की आबादी वाले माली समाज के दर्जनभर गोत्र हैं लेकिन 3 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले चौरसिया समाज के 84 गोत्र हैं . इन सभी का देवता नाग है. नागपंचमी के दिन यों तो सभी सांपों को दूध पिलाते और पूजापाठ करते हैं लेकिन चौरसिया समाज इसे समारोहपूर्वक चौरसिया दिवस की शक्ल में मनाता है. इस जाति के लोग पान और उस से जुड़े उत्पादों का व्यापारव्यवसाय करते हैं. नाग देवता थमाने के पीछे किस्सा यह है कि एक बार धरती पर कहीं यज्ञ संपन्न हो चुका था. यज्ञ में पान की बड़ी अहमियत होती है लेकिन दिक्कत यह थी कि उस वक्त पान पाताल लोक में ही हुआ करते थे. जहां जाना जान जोखिम में डालना था क्योंकि वहां सांपों की हुकूमत चलती थी.

काफी विचारविमर्श के बाद फैसला हुआ कि चौरसी नाम का मुनि पाताललोक जा कर पान  लाएगा. ये चौरसी महाराज पान लेने पाताल लोक पहुंच तो गए लेकिन वहां नागराज ने इन्हें डसने के बजाय अपनी कन्या की शादी इन से करा दी. तब से चौरसी और नाग कन्या से जो 84 संताने हुईं वे चौरसिया कहलाने लगीं.

चूंकि ब्राह्मण काम कम, आराम ज्यादा करते हैं और पूजापाठ की ही खाते हैं इसलिए उन्होंने एक और जाति नेमा को भी एक देवता थमा दिया जिस से वे पूजापाठ करते हिंदुओं को दानदक्षिणा इन्हें देते रहें. नेमा जाति के लोग मध्य प्रदेश और उस में भी महाकौशल-बुंदेलखंड में ज्यादा पाए जाते हैं. नरसिंहपुर जिला इन का गढ़ है जहां राजस्थान से आए इन के पूर्वज कभी बस गए थे. ऐसा कहा जाता है कि नेमा जाति का आदमी कहीं भी हो उस की रिश्तेदारी नरसिंहपुर में जरूर मिल जाएगी.

नेमा लोग भले ही अपना इतिहास कुछ भी बताते रहें पर इस पौराणिक आख्यान से मुंह नही मोड़ पाते कि परशुराम जब क्षत्रियों का नाश कर रहे थे तब एक और महर्षि भृगु ने कोई 30 क्षत्रियों को अपने आश्रम में शरण दी और गुरुकुल में उन्हें वणिक जाति के गुणधर्मों की शिक्षादीक्षा दी. भृगु ने अपने इन शिष्यों को 14 ऋषियों में नियोजित कर उन्हें 14 गोत्रों में बांट दिया. ये मनुस्मृति के नियमों का पालन करते थे और आज भी करते हैं इसलिए ये सभी नेमा कहलाए. चौरासियों की तरह नेमा जाति भी अब शिक्षित हो गई है और हर क्षेत्र में उन के युवा हाजिरी और मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं लेकिन वे अपने देवता का पूजापाठ और मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं.

जातियों के देवताओं को लिपिबद्ध किया जाए तो एक खासा महाग्रंथ तैयार हो सकता है जिस का सार यह होगा कि जातियां ब्राह्मणों ने ही बनाईं ताकि उन का दानदक्षिणा का कारोबार फलताफूलता रहे.

राज्यपाल बने कठपुतली

राज्यपालों के माध्यम से विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को नियंत्रण करने की असंवैधानिक कोशिश अगर नरेंद्र मोदी सरकार ने की है तो इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों में से यह भी एक है कि जरूरत पड़ने पर नियमों को धराशायी कर दो और तोड़मरोड़ कर अपनी जिद चला लो. इस के अनेक उदाहरण हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिल जाएंगे. एक मुख्य है अर्जुन द्वारा महाभारत के युद्ध के दौरान युधिष्ठिर को मारने की चेष्टा.

हुआ यह था कि उस युद्ध में कर्ण कौरवों का सेनापति था और उस ने पांडवों की सेना की दुर्गति कर रखी थी. कर्ण ने युधिष्ठिर को घायल कर दिया. युधिष्ठिर उस समय खेमे में चला आया और द्रौपदी के कक्ष में चला गया. रणभूमि में युधिष्ठिर को न देख कर अर्जुन ने कृष्ण को खेमे में चलने को कहा और वहां युधिष्ठिर को द्रौपदी के साथ देख कर अर्जुन भड़क गया. तूतूमैंमैं के दौरान युधिष्ठिर ने कह दिया कि अर्जुन (जो अपने गांडीव व धनुष के बल पर जीतने का रोब मारता था), इसे किसी और को दे दे क्योंकि उस के बस का कौरवों को हराना नहीं है. इस पर अर्जुन तलवार ले कर युधिष्ठिर को मारने दौड़ा क्योंकि उस ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो भी उसे गांडीव छोड़ने को कहेगा उसे मार देगा.

कृष्ण ने बीचबचाव किया क्योंकि कृष्ण नहीं चाहते थे कि युद्ध समाप्त हो और कौरव जीतें क्योंकि कौरवों को कृष्ण बिलकुल पसंद नहीं थे. कृष्ण ने इस नियम का तोड़ बताया कि अर्जुन अगर युधिष्ठिर का अपमान कर दें तो यह उन की हत्या के बराबर होगा. इस तरह युधिष्ठिर की जान बची.

पौराणिक कहानियों के ज्ञान से बनी सरकार संविधान को भी पौराणिक कथा मानती है और राज्य सरकारों की विधानसभाओं के कानूनों पर औपचारिक हस्ताक्षर करने के संवैधानिक नियमों को कृष्ण की तरह तोड़मरोड़ कर सारे गवर्नर राज्य सरकारों को परेशान करने में लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर आपत्ति की है पर गवर्नर तो पौराणिक ज्ञान को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ऊपर मानते हैं.

गैरभाजपा सरकारों की विधानसभाओं के बनाए कितने ही कानून भाजपा सरकार के नियुक्त गवर्नर आज दबाए बैठे हैं. सुप्रीम कोर्ट के कहने पर तमिलनाडु के गवर्नर आर एन रवि के लौटाए 10 बिल फिर विधानसभा ने उसी शक्ल में पास कर के फिर गवर्नर के पास भेजे हैं पर भाजपा को बचाने के प्रयास में गवर्नर कृष्ण की तरह तोड़मरोड़ का नियम लागू करते रहेंगे, इस में संदेह नहीं है.

गवर्नर की नियुक्ति प्रधानमंत्री करते हैं और वे चुनी सरकार से ऊपर नहीं हो सकते पर उन्हें अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करना वैसा ही है जैसा संयुक्त परिवार में कर्त्ता के रूप में बड़ा भाई अपनी धौंस चलाता है या सास बहू पर चलाती है. कृष्ण की धोखेबाजी की कूटनीति केवल राजनीति में ही नहीं चल रही वह खुल कर घरों में भी चलती है. घरों में रामायणमहाभारत की कहानियां रोज सुनाई जाती हैं और बेईमानी, धोखा, विपक्षी का नाम, भाइयों में द्वंद्व के पाठ रोजाना घरों में पहले सीखे जाते हैं और फिर घरघर में अपनाए जाते हैं.

हमारे यहां हर संयुक्त परिवार एक रणक्षेत्र बना रहता है जिस में लगातार खेमेबाजी बनती रहती है और चाचाताऊ, मौसी, भाभी सब पासे पलटते रहते हैं. इन की शिक्षा, सीधे पौराणिक ग्रंथों से मिलती है जिन में नैतिकता का पाठ कहीं ढूंढे़ भी नहीं मिलता. यह हमारा दोगलापन है कि हम इसी सनातन धर्म के बल पर अपने को विश्वगुरु होने का दम भरते हैं.

फेफड़ों की बीमारियों के लिए स्टेम सैल थेरैपी

फेफड़ों से जुड़ी कई बीमारियों के इलाज हेतु स्टेम सैल थेरैपी एक उम्मीद की किरण बन कर सामने आई है. इस थेरैपी में फेफड़ों के क्षतिग्रस्त हुए टिशूज की मरम्मत कर के उन्हें दोबारा तैयार करने की क्षमता होती है. स्टेम सैल से विभिन्न गंभीर श्वसन समस्याओं (सांस लेने में तकलीफ) से जूझ रहे लोगों को उम्मीद जगी है. हालांकि फिलहाल यह थेरैपी विभिन्न क्लिनिकल ट्रायल से गुजर रही है और इस के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जाने से पहले आगे और शोध किए जाने की जरूरत होगी.

फेफड़ों की बीमारी के बारे में समझिए

फेफड़ों की बीमारियों में कई प्रकार की स्थितियां शामिल हो सकती हैं जो एक व्यक्ति की श्वसन प्रणाली (सांस लेने की प्रक्रिया) पर गंभीर असर कर सकती हैं. फेफड़ों की सब से आम बीमारियों में क्रोनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज, अस्थमा, पल्मोनरी फाइब्रोसिस और फेफड़ों का कैंसर शामिल हैं.

इन बीमारियों में अकसर सांस फूलने, खांसी आने, सांस लेते वक्त सीटी जैसी तेज आवाज निकलना (घबराहट) और फेफड़ों की कार्यक्षमता कमजोर होने तथा हमेशा दुख एवं चिड़चिड़ापन रहने जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं. इस के गंभीर मामलों में जान को खतरा भी हो सकता है, जिस के कारण इस के लिए प्रभावशाली उपचार विकसित करना बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाता है.

स्टेम सैल्स और उन की क्षमताएं

स्टेम सैल्स ऐसी खास कोशिकाएं होती हैं जो शरीर में अलगअलग प्रकार की कोशिकाएं बन सकती हैं और इन में फेफड़ों की कोशिकाएं भी शामिल हैं. फेफड़ों की क्षतिग्रस्त हो चुकी कोशिकाओं को ठीक करने में यह थेरैपी बेहद कारगर हो सकती है. इस से फेफड़े बेहतर ढंग से काम कर सकते हैं.

फेफड़ों की बीमारी के उपचार में

2 मुख्य प्रकार के स्टेम सैल इस्तेमाल किए जाते हैं- एंब्रायोनिक स्टेम सैल्स और एडल्ट स्टेम सैल्स. एंब्रायोनिक स्टेम सैल्स प्रारंभिक भ्रूण से निकलते हैं और शरीर में कोई भी कोशिका बन सकते हैं लेकिन इन के साथ नैतिकता से जुड़ी चिंताएं होती हैं. वहीं, एडल्ट स्टेम सैल्स शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पाए जाते हैं जो आसानी से मिल जाते हैं और इन के लिए विवाद भी कम होते हैं. इसलिए आमतौर पर यह स्टेम सैल थेरैपी के लिए पहली पसंद बनते हैं.

फेफड़ों की बीमारियों के लिए स्टेम सैल थेरैपी

स्टेम सैल थेरैपी को फेफड़ों की विभिन्न बीमारियों के लिए एक कारगर इलाज माना जा रहा है. इस से मरीजों को फायदा मिलने की उम्मीद है.

सीओपीडी : क्रोनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज फेफड़ों की बीमारियों का एक सामूहिक रूप है, जिस से शरीर के अंदर वायु प्रवाह रुक जाता है और सांस लेने में कठिनाई होने लगती है. यह बीमारी अमेरिका में मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण है. स्टेम सैल थेरैपी से फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार करने की संभावना देखी गई है और सीओपीडी के मरीजों में लक्षणों की कमी नजर आई है. फेफड़ों की क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को स्वस्थ कोशिकाओं से बदलने पर स्टेम सैल्स फेफड़ों की कार्यक्षमता दोबारा से सुचारु करने, सूजन घटाने और जीवन गुणवत्ता में सुधार करने में मददगार हो सकते हैं.

अस्थमा : यह फेफड़ों में सूजन पैदा करने वाली एक गंभीर बीमारी है. इस में शरीर के वायुमार्ग संकरे हो जाते हैं. अमेरिका में यह बीमारी बच्चों में अधिक देखने कोे मिलती है. स्टेम सैल थेरैपी ने अस्थमा के मरीजों में सूजन कम करने और फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार करने की क्षमता दिखाई है. हाल के क्लिनिकल ट्रायल में गंभीर रूप से अस्थमा से पीडि़त मरीजों में इस थेरैपी की मदद से स्टेरौयड की खुराक कम करने की क्षमता देखने को मिली है. बीमारी के मूल कारणों को लक्ष्य बनाते हुए स्टेम सैल थेरैपी से इस बीमारी से पीडि़त मरीजों के लिए उम्मीद की किरण देखने मिल सकती है.

पल्मोनरी फाइब्रोसिस : पल्मोनरी फाइब्रोसिस लगातार बढ़ने वाली फेफड़ों की एक बीमारी है, जिस से फेफड़ों के टिशूज में धब्बे पड़ने लगते हैं और आखिरकार श्वसन प्रणाली विफल होने एवं मृत्यु तक की नौबत आ सकती है. स्टेम सैल थेरैपी की मदद से पल्मोनरी फाइब्रोसिस के बढ़ने की गति को धीमा करने के परिणाम देखने को मिले हैं. इस से फेफड़ों के स्वस्थ टिशूज को पुनर्जीवित करने में मदद मिलती है. इस से न केवल फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार होता है बल्कि मरीज का जीवनकाल भी बढ़ता है. इस प्रकार स्टेम सैल थेरैपी से इस जानलेवा बीमारी से जूझ रहे मरीजों के लिए भी उम्मीद पैदा होती है.

फेफड़ों का कैंसर : फेफड़ों का कैंसर इस जानलेवा बीमारी से होने वाली मौतों का सब से बड़ा कारण है. वर्तमान में इस बीमारी के संभावित इलाज के रूप में स्टेम सैल थेरैपी का परीक्षण किया जा रहा है. स्टेम सैल की मदद से सीधे कैंसर ट्यूमर की कोशिकाओं तक कैंसरविरोधी दवाएं पहुंचाने में मदद मिल सकती है, जो एक सटीक एवं अधिक प्रभावी उपचार साबित हो सकता है. इस के अलावा, स्टेम सैल्स में बदलाव कर के नए इम्यून सैल्स तैयार किए जा सकते हैं, जो टूयमर की कोशिकाओं से लड़ सकते हैं और शरीर को कैंसर के खिलाफ प्राकृतिक सुरक्षा मिलने में मदद कर सकते हैं.

स्टेम सैल थेरैपी की कार्यप्रणाली

फेफड़ों की बीमारी में इस्तेमाल की जाने वाली स्टेम सैल थेरैपी फेफड़ों के क्षतिग्रस्त टिशूज की मरम्मत करती है और फेफड़ों की कार्यक्षमता को सामान्य स्थिति में लाने का काम करती है. इस थेरैपी से स्टेम सैल्स को सीधे सांस के जरिए फेफड़ों में पहुंचाया जा सकता है या फिर इन्हें इंजैक्शन के जरिए रक्तप्रवाह में प्रवेश कराया जा सकता है.

नई विकसित की गई फेफड़ों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त टिशूज की मरम्मत करने, फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार करने और सूजन घटाने में अहम भूमिका निभाती हैं. इन बीमारियों के मूल कारणों का समाधान करते हुए स्टेम सैल थेरैपी इलाज के लिए एक नया तरीका प्रस्तुत करती है.

स्टेम सैल थेरैपी के फायदे

फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार : स्टेम सैल थेरैपी से फेफड़ों की कार्यक्षमता में काफी सुधार हो सकता है, जिस के लिए क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को स्वस्थ कोशिकाओं में बदल दिया जाता है. इस के परिणामस्वरूप बेहतर वायुप्रवाह, बेहतर औक्सीजन आपूर्ति और सांस फूलने जैसे लक्षणों में कमी देखने को मिलती है.

लक्षणों में कमी : स्टेम सैल थेरैपी से इलाज करा रहे मरीजों को फेफड़ों की बीमारी के लक्षणों में स्पष्ट गिरावट का अनुभव हो सकता है. इस से उन का जीवन बेहतर बन सकता है. उन को चलनेफिरने में आसानी होगी और संपूर्ण स्वास्थ्य में सुधार देखने को मिल सकता है.

बीमारी बढ़ने की गति धीमी होगी : स्टेम सैल थेरैपी में फेफड़ों की बीमारियों के बढ़ने की गति को धीमा करने की क्षमता है. यह खासीयत पल्मोनरी फाइब्रोसिस जैसी बिगड़ती हुई स्थिति से जू?ा रहे मरीजों के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है. फेफड़ों के टिशूज को होने वाले नुकसान में कमी लाते हुए स्टेम सैल थेरैपी मरीज के जीवनकाल को बढ़ा सकती है.

बेहतर जीवन गुणवत्ता : फेफड़ों की बीमारियों के मूल कारणों का समाधान करते हुए और क्षतिग्रस्त टिशूज की मरम्मत में मददगार बनते हुए स्टेम सैल थेरैपी एक मरीज की जीवन गुणवत्ता में काफी हद तक सुधार ला सकती है. इस से मरीज की शारीरिक ऊर्जा में बढ़ोतरी, शारीरिक कार्यक्षमता में सुधार और संपूर्ण स्वास्थ्य बेहतर होने का अनुभव मिल सकेगा.

स्टेम सैल थेरैपी के जोखिम

वैसे तो स्टेम सैल थेरैपी को एक सुरक्षित प्रक्रिया माना गया है लेकिन इस के इस्तेमाल के दिशानिर्देश अभी निश्चित नहीं हुए हैं. इस थेरैपी से कुछ जोखिम भी जुड़े हुए हैं :

संक्रमण : किसी भी चिकित्सा पद्धति में संक्रमण का जोखिम होता है और स्टेम सैल थेरैपी के साथ भी ऐसा ही है. इसलिए, यह जरूरी होगा कि संक्रमण जोखिम को कम करने के लिए सभी जरूरी सावधानियां बरती जाएं.

रक्तस्राव (ब्लीडिंग) : स्टेम सैल्स को इंजैक्शन के जरिए शरीर में पहुंचाने या ट्रांसप्लांट करने से रक्तस्राव यानी ब्लीडिंग होने की संभावना रहती है, हालांकि इस दौरान काफी कम मात्रा में खून बहता है और चिकित्साकर्मी इस स्थिति को आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं.

एलर्जी : मरीजों को स्टेम सैल अथवा इस उपचार की अन्य प्रक्रियाओं से एलर्जी का अनुभव हो सकता है. इस के लिए ध्यानपूर्वक मरीजों की जांच एवं इलाज के दौरान उन की निगरानी रखते हुए इस जोखिम को भी कम किया जा सकता है.

ट्यूमर का बढ़ना : स्टेम सैल थेरैपी से जुड़ा एक सैद्धांतिक जोखिम यह भी है कि इस से ट्यूमर बढ़ सकते हैं. स्टेम सैल्स में शरीर की कोई भी कोशिका बनने की क्षमता होती है और इन में कैंसर कोशिकाएं भी हो सकती हैं. इस जोखिम को घटाने के लिए गहन शोध एवं मरीज की निगरानी रखना आवश्यक होगा.

क्या स्टेम सैल थेरैपी मेरे लिए उचित होगी ?

अगर आप फेफड़ों की बीमारी के लिए स्टेम सैल थेरैपी लेने का विचार कर रहे हैं तो इस बारे में अपने डाक्टर से सलाह लेना जरूरी होगा. एक चिकित्सा विशेषज्ञ ही आप की स्थिति, मैडिकल हिस्ट्री और संपूर्ण स्वास्थ्य का आकलन करते हुए यह निर्धारित कर सकेंगे कि स्टेम सैल थेरैपी आप के लिए उचित इलाज विकल्प है या नहीं. इस के अलावा, आप के डाक्टर आप को इस पद्धति से जुड़े विभिन्न जोखिमों एवं फायदों के बारे में भी अच्छी तरह बता सकेंगे ताकि आप पूरी जानकारी के साथ अपने उपचार के बारे में फैसला कर सकें.

हालांकि इस बारे में यह ध्यान रखना जरूरी है कि फेफड़ों की बीमारी के लिए स्टेम सैल की प्रभावशीलता और सुरक्षा को पूरी तरह से सम?ाने के लिए अधिक रिसर्च किए जाने की जरूरत है.

चिकित्सा विशेषज्ञों एवं शोधकर्ताओं द्वारा साथ मिल कर इस दिशा में काम करने से इस क्षेत्र में आगे का रास्ता खुल सकता है. इस प्रकार आने वाले वर्षों में फेफड़ों की बीमारियों की जांच व उन के उपचार के लिए प्रक्रियाओं में सुधार और बदलाव देखने को मिल सकते हैं.   द्य

(लेखिका फोर्टिस हौस्पिटल, बेंगलुरु कनिंघम रोड में कंसलटैंट हैं.)

मैं 46 की उम्र में भी बेरोजगार हूं, कृपया बताइए कि मैं अपने बेटे और बीवी की मदद कैसे करूं ?

सवाल

मैं 46 वर्षीय पुरुष हूं, फिलहाल बेरोजगार हूं. घर में एक कमाऊ बेटा है और पत्नी गृहिणी है. पूरा समय टीवी पर समाचार या फिल्में देखते निकलने लगा है. घर का खर्च तो अच्छे से चल रहा है लेकिन बिना काम के मेरा मन दुखी रहता है. घर पर बेकार पड़े हाथ पर हाथ रख बैठे खाना और बेटे को इतनी मेहनत करते देखना अच्छा नहीं लगता. दूसरी नौकरी की तलाश जारी है लेकिन इस ग्लानि में कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.

जवाब

देखिए, नौकरी न होने का मतलब यह नहीं है कि आप बेकार हो गए हैं. आप फिलहाल नौकरी नहीं कर रहे हैं तो अपनी पत्नी की मदद कर दिया कीजिए. उन से बात करिए, जो काम आप नौकरी के दौरान नहीं कर पाते थे उन्हें अब कर लीजिए.

नौकरी की तलाश जारी रखिए लेकिन जब तक नौकरी नहीं है तब तक इस समय का उपयोग करने की कोशिश कीजिए. ग्लानि से आप खुद को मानसिक प्रताड़ना देने के बजाय और कुछ नहीं कर रहे हैं. हो न हो आप का परिवार भी आप को इस स्थिति में देख खुश नहीं होगा. उन्हें अब तक जो समय नहीं दे पाए वह अब दे दीजिए. जितना सकारात्मक रहेंगे उतने ही खुश रहेंगे. इस कठिन समय को खुद पर हावी मत होने दीजिए.

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