Download App

काय पो छे

इस अटपटे शीर्षक पर आप हैरान न हों. ‘काय पो छे’ गुजराती भाषा का शब्द है. पतंग उड़ाते वक्त जब किसी की पतंग कट जाती है तो काटने वाले अपनी जीत स्वरूप ‘काय पो छे’ उच्चारित कर अपनी खुशी जाहिर करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे उत्तर भारत में ‘आई बो काटा’ कह कर खुश होते हैं. अब आप यह सोच रहे होंगे कि फिल्म पतंगबाजी पर होगी लेकिन इस फिल्म में सिर्फ पतंगबाजी ही नहीं है और भी बहुतकुछ है जो आप को अच्छा लगेगा, आप की आंखें नम कर देगा. आप को बहुतकुछ सोचने पर मजबूर कर देगा.

‘काय पो छे’ चेतन भगत के बहुचर्चित उपन्यास ‘द थ्री मिस्टेक्स औफ माई लाइफ’ पर आधारित है. चेतन भगत के ही एक अन्य उपन्यास पर ‘थ्री इडियट्स’ फिल्म पहले ही बन चुकी है. फिल्म ‘काय पो छे’ में भले ही नामी सितारे न लिए गए हों लेकिन निर्देशक अभिषेक कपूर की मेहनत फिल्म में साफ दिखाई पड़ती है. फिल्म ‘रौक औन’ की सफलता के बाद अभिषेक कपूर ने इस फिल्म के लिए एकदम नया सब्जैक्ट चुना है.

दोस्ती की मिसाल पेश करती इस फिल्म में मसाले नहीं डाले गए हैं, फिर?भी यह दर्शकों को कुछ हद तक बांधे रखती है. निर्देशक अभिषेक कपूर को इस फिल्म को बनाने में 5 साल लगे हैं. उस ने पटकथा पर काफी मेहनत की है. इसीलिए फिल्म इतनी बेहतर बन पड़ी है.  कहानी गुजरात के एक शहर में रहने वाले गोविंद (राजकुमार यादव), ओमी (अमित साध) और ईशान (सुशांत सिंह राजपूत) नाम के 3 दोस्तों की है. तीनों दोस्त मिल कर एक स्पोर्ट्स एकेडमी खोलना चाहते हैं, साथ ही वहां वे स्पोर्ट्स का सामान भी बेचना चाहते हैं. ईशान खुद एक बढि़या क्रिकेट खिलाड़ी है, पर उस की प्रतिभा को दबा दिया गया है. वह क्रिकेट के उभरते बाल खिलाडि़यों को कोचिंग दे कर उन्हें अच्छा खिलाड़ी बनाना चाहता है. तीनों दोस्त एक दुकान खरीदते हैं. उन का धंधा चल निकलता है. तभी ईशान को एक मुसलिम छात्र अली में धुआंधार बल्लेबाजी के गुण नजर आते हैं. वह उसे जीजान से ट्रैंड करता है.

तभी शहर में सियासी हवा चल पड़ती है. ओमी का अंकल नरेंद्र मोदी जैसे नेता की हिंदू पार्टी का लीडर है जबकि ईशान एक मुसलमान के बेटे को कोचिंग दे रहा है. ओमी और ईशान में इसी बात को ले कर तकरार होती है कि ईशान मुसलिम बच्चे को ट्रैंड न करे. इस दौरान हिंदुओं का एक जत्था अयोध्या के लिए रवाना होता है. रास्ते में गोधरा में ट्रेन की कुछ बोगियों में आग लगा दी जाती है. बहुत से हिंदू मारे जाते हैं. अब ओमी और ईशान में नफरत पैदा होती है. ओमी का अंकल हिंदू सेना को ले कर मुसलिम बस्ती पर हमला करता है. इस हमले में बहुत से मुसलमानों के साथसाथ ईशान और ओमी भी मारे जाते हैं. उधर, अली बड़ा हो कर सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी बनता है और मरे हुए ईशान के सपनों को पूरा करता है.

इस कहानी में गोविंद और ईशान की बहन विद्या (अमृतापुरी) की प्रेम कहानी भी शामिल है. अंत में दोनों की शादी हो जाती है. गोविंद अपने बेटे का नाम ईशान रखता है. 2 घंटे की इस फिल्म की कहानी दर्शकों को बांधे रखती है. फिल्म के कई दृश्य भावुक बन पड़े हैं. 

मध्यांतर के बाद फिल्म की धीमी गति दर्शकों को कुछ परेशान करती है. निर्देशक ने गुजरात के दंगों का चित्रण बढि़या ढंग से नहीं किया है. दंगों का अच्छा चित्रण तो इस से पहले राहुल ढोलकिया की फिल्म ‘परजानिया’ और नंदिता दास की फिल्म ‘फिराक’ में किया जा चुका है.

एक तरफ तो आजकल गुजरात के मोदी को अगले चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए नामित करने के लिए कवायदें जारी हैं वहीं दूसरी तरफ इस प्रदेश में मोदी के राज्य में हुए मुसलिम नरसंहार को फिल्म में दिखाया गया है. स्थानीय नेताओं के भड़काने से हुई मारकाट में सैकड़ों मुसलमान मारे गए दिखाए गए हैं. निर्देशक ने इस सच्ची घटना की पुनरावृत्ति को दिखा कर यह जताने की कोशिश की है कि धर्म के नाम पर खूनखराबा जबतब होता रहता है. 

तीनों प्रमुख किरदारों ने बेहतरीन काम किया है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा जरूर है पर कोई गाना याद रहने वाला नहीं है. छायांकन बढि़या है. 

 

हमारी बेडि़यां

मेरी रिश्ते की एक मामी बहुत ही धार्मिक व पुरातनपंथी हैं जिस के कारण उन के घर में हर रोज झगड़ा होता है. उन की बेटी की सालाना परीक्षाएं नजदीक थीं. मामी ने घर में भागवत का आयोजन शुरू करवा दिया. मामाजी व उन के बच्चों ने मामी को बहुत सम?ाया परंतु मामी अपने फैसले से टस से मस नहीं हुईं. 10 दिन तक घर में धार्मिक रस्में चलती रहीं और उन की बेटी भी उन्हीं कार्यों में जुटी रही.बेटी का जब रिजल्ट आया तो वह फेल हो गई. धार्मिक आयोजन ने बेटी का  1 साल बरबाद कर दिया था.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

 

मेरे तायाजी के जवान बेटे का देहांत हो गया. हम सब बहुत दुखी थे. पंजाब में एक प्रथा है कि मौत पर सब महिलाएं मिल कर एक गोल दायरा बना कर खड़ी हो, हाथ से हाथ मिला कर सियापा यानी छाती पीटना करना शुरू कर देती हैं.

ऐसा उस समय भी हुआ. मेरी बूआ उन के साथ मिल कर सियापा नहीं कर पा रही थीं. एक औरत ने दायरे से बाहर कर दिया. मेरे पति को बहुत बुरा लगा, कहने लगे, ‘‘यह कोई परेड तो नहीं कि सब को एकसाथ ही हाथ से हाथ मिला कर करना है. दुख तो उन्हें भी उतना ही है जितना हमसब को है.’’ हमारी ये कुरीतियां कब खत्म होंगी?

शशि बाला, उत्तम नगर (न.दि.)

 

मेरी ससुराल के गांव में प्रथा है कि प्रसव के बाद कमरे में 13 दिन तक कंडे (उपले) का धुआं करते हैं ताकि जच्चाबच्चा से भूतप्रेत दूर रहें. हमारे पड़ोस की महिला की लड़की प्रसव कराने मायके आई हुई थी. धुएं से उस को एलर्जी होने के कारण उस ने मना भी किया पर परिवार के लोग नहीं माने और धुआं रातभर किया गया. इस कारण उस की तबीयत बहुत खराब हो गई. अस्पताल में औक्सीजन तक लगवानी पड़ी.

शालिनी बाजपेयी (चंडीगढ़)

 

मेरी पत्नी रोज शाम को दीया जलाती है जबकि मैं मना करता रहता था. जब पत्नी रात में सोती तो मैं दीया बुझा देता.  एक दिन मैं किसी काम से बाहर चला गया, रात में आना हुआ. थका हुआ था, खापी कर सो गया, दीया बुझाना भूल गया.

रात के करीब 2 बजे घर में हायतोबा मची. मेरे दोनों लड़के बालटी में पानी लाला कर डाल रहे थे. मेरी आंख खुल गई. मैं ने पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’ बेटा बोला, ‘‘आग लग गई थी बाबूजी, लगता है, चूहे ने दीया गिरा दिया था.’’ उस दिन से मेरी पत्नी दीया जलाती तो है लेकिन थोड़ी देर के बाद बुझा देती है.

जी आर ध्रुव, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

इन्हें भी आजमाइए

  1.  आप बच्चों को अपने हाथों से खिलाना चाहती हैं पर बच्चों को पसंद नहीं तो उन्हें अपने हाथों से खाने दें. इस के लिए उन्हें प्रेरित करें. बच्चों को खाते वक्त अपने हाथमुंह सानना अच्छा लगता है. इस से उन्हें खाने के जायके का भी पता लगेगा.
  2. अगर आप की साड़ी पर जंग का दाग लग गया है तो घबराइए मत. फौरन एक गिलास दूध फाड़ कर उस के पानी से दाग रगडि़ए और धो कर डाल दीजिए. धूप में थोड़ी देर में दाग बिलकुल साफ हो जाएगा.
  3. आप बिटिया की फ्रौक की लचीली बेल्ट को टाइट करना चाहती हैं तो पानी में पके स्टार्च में डुबोइए. फिर इस्तिरी कर लीजिए. बेल्ट कड़ी हो जाएगी.
  4. बात समझ में न आने पर कभीकभी फोन पर लंबी बात हो जाया करती है इसलिए हो सके तो लंबी बातों को ईमेल के जरिए समझाएं. फोन पर ज्यादा लंबी कौल महंगी पड़ सकती है.
  5. सूटकेस, बैग पर नामपते की चिट लगाने के बाद चिट पर हलके हाथ से मोमबत्ती रगड़ दें. इस से स्याही जल्दी नहीं मिटेगी.
  6. खिड़कियों पर रोगन करते समय शीशों पर थोड़ा साबुन घोल कर रगड़ लें. इस के बाद शीशे पर लगा फालतू रोगन छुड़ाना आसान हो जाएगा.

 

जीवन की मुसकान

एक बार मैं बांदा से ललितपुर लड़कियों की टीम ले कर गई थी. ललितपुर से लौटते समय हमें झांसी से  बांदा के लिए बुंदेलखंड ऐक्सप्रैस पकड़नी थी. जैसे ही हम प्लेटफार्म पर पहुंचे, गार्ड साहब हरी झंडी दिखा चुके थे. गाड़ी चल चुकी थी इतने में मेरी एक छात्रा को कुछ न सूझा, वह चिल्लाई ‘ए हरी झंडी, ए हरी झंडी, हमें भी ले लीजिए’.

लड़कियों को गिरतापड़ता देख कर शायद गार्ड और ड्राइवर को दया आ गई. और गाड़ी रुक गई. हम सभी ट्रेन में चढ़ गए. लड़कियों ने किसी यात्री को तंग न करते हुए जमीन पर चादर बिछा ली और गातेबजाते बांदा आ गए. हमारा बांदा पहुंचना अतिआवश्यक था क्योंकि अगले दिन हमारी एक छात्रा की सगाई होनी थी. रेलवे स्टाफ की भलमनसाहत से हम गाड़ी पकड़ पाए.

डा. मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

पिछले वर्ष जब मेरी बिटिया की शादी तय हुई तब लड़के वालों ने कहा, ‘‘हमारी कोई मांग नहीं है. हमें केवल लड़की चाहिए. आप की बेटी हमें पसंद है.’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हैदराबाद से भोपाल तक का आनेजाने का किराया हम बरातियों को दे देंगे.’’ तब लड़के के पिताजी ने कहा, ‘‘हम अपने घर की बेटी ले जा रहे हैं और हम अपनी बेटी को आप के किराए से ले जाएं, ऐसा नहीं होगा. हम अपनी बेटी को अपने खर्च से ले जाएंगे.’’ यह बात आज तक मेरे कानों में गूंजती है और अपने कहे अनुसार, लड़के वालों ने किराए का भी पैसा नहीं लिया.

दीप्ति सिन्हा, भोपाल (उ.प्र.)

मैं और मेरी सहेली दिल्ली में बस से यात्रा कर रहे थे. हम जब बस में चढ़े तो अंदर काफी भीड़ थी. बस में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पुरुष यात्री बैठे थे. मेरी सहेली ने नवयुवकों से उठने का अनुरोध किया. बहुत आनाकानी के बाद उन्हें हमें सीट देनी पड़ी. बस अगले स्टौप पर पहुंची ही थी कि बस में बुजुर्ग दंपती चढ़े. मेरी सहेली ने मुझे खड़ा कर वे दोनों सीटें उन्हें दे दीं.

इस पर वे नवयुवक गुस्से से बोले, ‘‘अगर आप को खड़े हो कर ही यात्रा करनी थी तो हम से सीट क्यों ली?’’ तब मेरी सहेली ने कहा, ‘‘आप से सीट लेना हमारा कानूनी अधिकार था और अपने से बड़े बुजुर्गों को सीट देना हमारा नैतिक कर्तव्य. हम सिर्फ अधिकार लेना ही नहीं जानते बल्कि कर्तव्यों का पालन भी ईमानदारी से करते हैं.’’  उस की बात पूरी होने से पहले ही बस में जोरदार तालियां बजने लगीं. मुझे अपनी सहेली पर गर्व हो रहा था.

गार्गी अग्रवाल, शामली (उ.प्र.) 

सफर सुहाना अनजाना

बात पिछली गरमियों की है. मैं अपने दोनों बेटों के सथ लखनऊ से इलाहाबाद जा रही थी. जब हम ट्रेन में बैठे तब पूरा कंपार्टमैंट खाली था. थोड़ी देर बाद मेरी एक सहेली अपनी दोनों बेटियों को ले कर टे्रन पर चढ़ी. साथ में उस की ननद, ननदोई और उन के दोनों बेटे भी थे.

कुछ देर बाद एक दंपती अपनी 2 बेटियों के साथ हमारे कंपार्टमैंट में आ गए. अब हमारे कंपार्टमैंट में 6 बड़े और 8 बच्चे थे. थोड़ी देर में बच्चे आपस में काफी घुलमिल गए और आपस में काफी बातचीत करते रहे. फिर सफर काटने के लिए 4-4 बच्चों की टीम बना कर अंत्याक्षरी खेलने लगे. बच्चों के इस खेल में हम बड़े भी शामिल हो गए. अंत्याक्षरी में एक से बढ़ कर एक बढि़या गीत गा कर हम सब ने इस सफर को बहुत रोचक और मनोरंजक बना दिया.

हमारे अगलबगल के कंपार्टमैंट में बैठे यात्रियों को भी हमारे खेल में मजा आने लगा. हम में से अगर कोई गीत भूल जाता तो कोई दूसरा यात्री उसे गा कर पूरा कर देता. लोकप्रिय फिल्मी गीतों को तो सभी यात्री एकसाथ गाते. इस तरह हंसतेगाते ट्रेन कब इलाहाबाद स्टेशन पर पहुंच गई हमें पता ही नहीं चला. बच्चों के खेल ने हमारे सफर को बहुत मजेदार बना दिया.

श्वेता सेठ, सीतापुर (उ.प्र.)

मैं सपरिवार बनारस से पटना ट्रेन से अपनी ननद के बेटे की शादी में शामिल होने जा रही थी. सामान काफी था. हम ने कुछ सामान बगल वाली सीट के नीचे भी रख दिया था. मेरे ही कोच में एक महिला 11 सामानों के साथ अकेले ही सफर कर रही थी. रास्ते में बक्सर स्टेशन पर वह महिला उतरी और कुली को अपना सामान अंदर से लाने के लिए कह दिया. कुली उन का सामान ले कर उतर गया. ट्रेन चल पड़ी.

अचानक मेरी नजर अपने सामान पर पड़ी. मेरा एक बैग गायब था. मेरे होश उड़ गए. कुछ सम झ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. शादी का सारा उत्साह ठंडा पड़ चुका था. अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी. मैं तो आश्चर्यचकित रह गई. वही कुली मेरा बैग लिए मेरे पास आया और क्षमा मांगते हुए बोला, ‘‘दीदी, यह लीजिए अपना बैग. गलती से आप का यह बैग मैं उन बहनजी का समझ कर ले गया था.’’

मु झे तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. मैं ने उस का ढेरों शुक्रिया अदा किया और उसे इनाम देना चाहा पर उस ने लेने से इनकार कर दिया. मैं यह सोचने लगी कि आज भी हमारे देश में ईमानदारों की कमी नहीं है. यह मेरी यादगार यात्रा थी.

अंजुला, मिर्जापुर (उ.प्र.)    

भारत भूमि युगे युगे

राहुल की मंशा

‘यदि मैं ने शादी कर ली और बालबच्चे हो गए तो मैं यथास्थितिवादी हो जाऊंगा. फिर मैं भी चाहने लगूंगा कि मेरे बच्चे मेरी जगह लें, अपनी शादी को ले कर दिए राहुल गांधी के इस ताजे दार्शनिक बयान में पीड़ा भी है और संकेत भी कि क्यों वे शादी से कतराते हैं.  

यह बयान नेहरूगांधी परिवार को कोसते रहने वालों के लिए अच्छा इस लिहाज से है कि वाकई राहुल ब्रह्मचारी बने रहने की अपनी जिद पर अड़े रहे तो परिवारवाद अगर वाकई समस्या है तो वह खुद ब खुद हल हो जाएगी. और बुरा इस लिहाज से है कि उन से एक अहम मुद्दा छिन जाएगा. विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए कुंआरे रहने का फैसला अपनेआप में अनूठा है और बात जहां तक यथास्थितिवाद की है तो राहुल को कौन समझाए कि शादी से इस का इतना गहरा ताल्लुक नहीं है जितना बढ़ाचढ़ा कर वे बता रहे हैं. बहाना बेशक खूबसूरत है जिस के एक उदाहरण अटल बिहारी वाजपेयी भी हो सकते हैं.

न उम्र की सीमा हो…

नेताओं के अलावा देशभर के बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, समाजशास्त्री, कानूनविद वगैरह सोचने की अपनी जिम्मेदारी बड़ी गंभीरता से निभा रहे हैं. मसला  भी नाजुक है कि सैक्स करने की उम्र 16 साल होनी चाहिए या नहीं. सरकार अपना फैसला सुना चुकी है कि होनी चाहिए. लेकिन इस मसले से जुड़े विधेयक को अभी कई औपचारिकताओं से हो कर गुजरना है. साहित्य में 16 साल की उम्र बड़ी अहम और नाजुक बेवजह नहीं मानी गई है. दरअसल, इस उम्र में पहले मन में कुछकुछ होता था लेकिन अब तन में होने लगा है. यह होना सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित होने लगा तो कानून की जरूरत महसूस होने लगी. नतीजा इतिहास गवाह है कि सैक्स करने वाले, उम्र कोई भी हो, कानून के मोहताज कभी नहीं रहे क्योंकि इस में 2 लोगों की आपसी रजामंदी और एकांत के अलावा किसी तीसरी चीज की जरूरत नहीं पड़ती. जिस चीज की आज भी सब से ज्यादा जरूरत है वह है यौन शिक्षा जिस पर लोग जानबूझ कर खामोश रहते हैं.

अटल पुराण

दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की मीटिंग की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी, यह माहौल देख साफ लगा. तमाम छोटेबड़े और मझोले नेता खुश नजर आए और उम्र व रुतबे के हिसाब से एकदूसरे को बधाईआशीर्वाद वगैरह देते रहे. नया अगर कुछ था तो अटल बिहारी वाजपेयी की चर्चा जो लालकृष्ण आडवाणी ने जीभर कर की. पहले उन्हें सुषमा स्वराज में अटलजी की छवि दिखी तो दूसरे दिन नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह में भी अटल की छाप दिखना उन्होंने बताया. दूसरी तरफ राजनाथ सिंह को आडवाणी में ही अटल दिख गए.

यह अटल पुराण दरअसल भाजपा की स्वीकारोक्ति थी कि उस के पास अब कोई दबंग और सर्वमान्य नेता नहीं है. कई भाजपाई आज प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. ऐसे में ग्लानि, कुंठा और असुरक्षा जैसे मनोभावों से बचने में अटलस्मरण हिम्मत तो देता ही है.

औकात अपनीअपनी

रामदेव इन दिनों खासे परेशान हैं. वजह, आएदिन आयकर व बिक्रीकर जैसे क्षुद्र विभाग बकाया राशि निकाल देते हैं और इन से भी ज्यादा अहम हिमाचल प्रदेश सरकार की वह गुस्ताखी है जिस के तहत उन का भूमि पट्टा रद्द कर दिया गया है.

एक और तगड़ा दुख है जिस का जिम्मेदार सोनिया गांधी को मानते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के बकावंद कसबे की एक सभा में कह डाला कि इटली से आई एक महिला केंद्र सरकार चला रही है जिस की औकात रैस्टोरैंट के वेटर जितनी है. इस से, साबित यह हुआ कि रामदेव जबान को काबू रखने का अभी कोई योगासन ईजाद नहीं कर पाए हैं.

 

यह भी खूब रही

मेरा बेटा यूएस में रहता है. कुछ साल पहले जब वह वहां गया तो उस ने एक पुरानी कार खरीदी. एक दिन उस कार की थर्मोस्टेट खराब हो गई. मैकेनिक ने कहा कि अभी मेरे पास यह पार्ट नहीं है, मैं इस की जगह पर एक स्विच लगा देता हूं, जब गाड़ी स्टार्ट करनी हो तो इसे भी औन कर देना और जब बंद करो तो स्विच को भी औफ कर देना.

इस तरह स्विच लगा कर भी गाड़ी अच्छा काम कर रही थी. कहीं आनेजाने में वह इसी गाड़ी का सहारा लेता था. एक दिन उस की वही गाड़ी चोरी हो गई. वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट करने गया.

पुलिस वालों ने कहा कि इस नंबर की गाड़ी उन्हें बीच सड़क में खड़ी मिली है, इसलिए आप पर जुर्माना लगेगा. फिर उन्होंने मेरे बेटे को गाड़ी दिखाई.  वह देखते ही सम?ा गया कि माजरा क्या है. उस ने पुलिस वालों को बताया कि इस में थर्मोस्टेट की जगह स्विच लगा हुआ था जो चोर ने औन नहीं किया और गाड़ी में से धुआं निकलने लगा, यह देख वह चोर कार बीच सड़क  में ही छोड़ कर भाग गया होगा. पुलिस वाले भी सारा माजरा समझ कर हंसने लगे. कहने लगे, ‘गुड आइडिया.

शशि बाला, उत्तम नगर (नई दिल्ली)

मेरे एक मित्र के घर लड़का पैदा हुआ. हम सभी मिल कर उन्हें बधाई देने पहुंचे. सभी ने उन से लड़के का नाम पूछा तो उन्होंने कहा कि वह लड़के का नाम ‘वीर’ रखने का सोच रहे हैं. यह सुन कर उन की बहन ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘ध्यान रखना कहीं बड़ा हो कर ये ‘वीर’ किसी ‘जारा’ को न ले आए.’’

तभी हमारे एक अन्य मित्र, जो कि बहुत ही हाजिरजवाब हैं, ने फिकरा कसा, ‘‘ ‘जारा’ तक तो ठीक भी है, कहीं ये ‘धरम-वीर’ की जोड़ी न बना ले.’’ यह सुन कर वहां हंसी का फौआरा फूट पड़ा.

रश्मि जैन, कोलकाता (प.बं.)

घटना 3 साल पहले की है. नईनई बहू शादी कर के घर में आई तो सासूमां ने बड़े प्यार से सम?ाया, ‘‘बेटी, अब यह तुम्हारी ससुराल है लेकिन तुम मुझे  अपनी सास नहीं मां समझो. अपने ससुर को पापा की तरह समझो और देवर को भाई मानो.’’

चूंकि बहू गांव की थी और बहुत ही सीधीसादी, सो उस ने सासूमां की बात गांठ बांध ली और जब शाम को पतिदेव औफिस से लौटे तो बहू अपनी सासूमां से चिल्ला कर बोली, ‘‘मांजी, भैया औफिस से वापस आ गए.’’ उन की बात सुन कर सब लोग हंस पड़े.  हालांकि उन्हें बाद में सब सम?ाया गया लेकिन उस समय तो सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

बी एस सोढी

 

पाठकों की समस्याएं

मैं45 वर्षीय विवाहिता, 2 बच्चों की मां हूं. प्रेमविवाह के कारण हम अलग रहने लगे थे. मेरी ससुराल वालों ने मेरे 4 वर्षीय देवर को मेरे पास भेज दिया जिसे मैं ने प्यार व दुलार से पाला. 8वीं कक्षा के बाद वह गांव चला गया.  इधर, शादी के 20 वर्ष बाद पति बीमार पड़ गए, तब अचानक वह देवर हमारे पास आया और मुझ से उस ने अजीब सी बात कही, ‘भाई तो ठीक होने वाले नहीं हैं, मैं ही आप का ध्यान रखूंगा,’ बाद में वह उलटीसीधी हरकतें करने लगा जिसे मैं ने कई बार टाला, डांटा भी. उस ने समझा भी और पैर छू कर मुझ से माफी भी मांगी. 

मुझे उस से चिढ़ हो गई है. मैं ने पति को भी सब बता दिया. उस के प्रति मेरे अब के व्यवहार को मेरे रिश्तेदार गलत लेते हैं क्योंकि वे बीच की बात नहीं जानते. मुझे बताइए, मैं कैसे सामान्य व्यवहार करूं जिस से घर का माहौल सामान्य हो जाए? 

बेशक आप के बच्चे समान देवर ने गलत व्यवहार किया जो सर्वथा निंदनीय है पर आप उस की मानसिकता को समझिए. आप ने बचपन से उस को दुलार दिया, बेशक बेटे समान पर वह आप से जुड़ा  और युवा होते उस के मन में आप की ही तसवीर अंकित हो गई जो एकदम गलत तो है पर युवावस्था की ओर जाते बच्चों में विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण अकसर हो जाता है. इसी वजह से वह आप से गलत हरकत तक कर बैठा और जिस से आप ने अपनी समझदारी से नजात भी पा ली.

जाहिर है कि आप को उस से नफरत होगी पर घर के रिश्ते व मर्यादा को बरकरार रखने के लिए आप उसे माफ कर दें. आप उस से अब कम से कम टू द पौइंट ही बात करें. ऐसा करने से स्थिति सामान्य हो सकती है.

मैं 25 वर्षीय विवाहित पुरुष, भारतीय सेना में कार्यरत हूं. शादी को 2 साल हुए हैं. समस्या पत्नी को ले कर है. मेरे ड्यूटी पर जाते ही वह मायके चली जाती है. मैं घर आ कर उसे लेने जाता हूं और घर आ कर भी वह सारे समय मां से लड़ाईझगड़ा करती रहती है. घर का काम तक नहीं करती. मैं दिनरात समझाता हूं पर वह नहीं समझती. 

ससुर से बात करूं तो वे धमकाते हैं कि दहेज का केस बनवा देंगे. जबकि आज तक हम ने न दहेज की बात की, न उस से बुरा व्यवहार किया. मैं मानसिक रोगी जैसा हो गया हूं. मैं तो बस घर में खुशी चाहता हूं. क्या वे लोग कुछ केस बना देंगे? आप से समाधान चाहता हूं, क्या करूं?

आप भारतीय सेना में कार्यरत ऐसे पुरुष हैं जिस पर समूचा राष्ट्र गौरव करता है. पर खेद की बात है कि जहां आप ने विवाह किया है वे बेहद गलत किस्म के लोग हैं, ऐसे लोग अपनी बेटी को उलटासीधा सिखा कर उस का घर बरबाद कर देते हैं. आप के सासससुर भी ऐसी प्रवृत्ति के ही नजर आते हैं.

आप क्यों मानसिक संतुलन खराब कर रहे हैं. यह तो तय है कि वह लड़की भी इन सब में शामिल है, शायद वह आप के साथ निभाना ही नहीं चाहती.

आप ने पूछा कि क्या वे दहेज का झूठा केस बना देंगे, तो वे इसी घटिया शान में तो आप को परेशान कर रहे हैं. ऐसे में आप को यह चाहिए कि सेना के नियमों के अनुसार, पुलिस में या सेना में पहले ही यह रिपोर्ट दर्ज करवा दें कि इस तरह आप को वे लोग परेशान कर रहे हैं और दहेज का झूठा केस बनाने की धमकी दे रहे हैं. आप अपने विभाग के लीगल सैल से भी जानकारी ले सकते हैं. आप के पहले से केस दर्ज कराने से वे कुछ भी न कर पाएंगे.

आप अपने को कमजोर न समझें, आप का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. इस बीच उस लड़की की खुशामद कतई न करें और उस से बात करनी ही बंद कर दें.

मैं 14 वर्षीय बेटी की मां हूं. उस के कद व वजन को ले कर परेशानी है. 3 वर्षों से उसे पीरियड्स भी हो रहे हैं. अथक प्रयास के बाद भी उस के 56 किलो वजन को कम नहीं कर पाई, न ही लंबाई, जो 5 फुट है, बढ़ा पाई. आप से यह जानना चाहती हूं कि कद बढ़ा कर कैसे वह आकर्षक दिख सकती है?

वजन घटाने के लिए आप की बेटी के व्यायाम करने के साथसाथ खानपान भी देखना होगा. इस उम्र में बच्चे जंकफूड के बहुत शौकीन हो जाते हैं. आप उस की डाइट को किसी डाइटीशियन की मदद से चैक करवाइए. कोई जिम भी जौइन करवा सकती हैं.

रहा सवाल कद बढ़ने का तो अभी वह 14 वर्ष की है, 5 फुट की है, तो अभी उस का कद थोड़ा और बढ़ सकता है. कद बढ़ाने की कोई दवा नहीं होती, आप व्यर्थ के चक्करों में न पड़ें. उस का वजन कम होगा तभी वह आकर्षक लगेगी, अभी कद बढ़ेगा भी और फिर बड़ी होने के बाद थोड़ी हील वगैरह पहन कर वह आकर्षक लगेगी.

मैं 34 वर्षीय, 2 बच्चों की मां हूं. हमारा संयुक्त परिवार है. देवर की बुरी लतों के कारण सासससुर देवरानी व उन के बच्चों को ही पूछते हैं. पूरे परिवार की जिम्मेदारी मेरे पति पर है. कभीकभी दिल चाहता है कि आत्महत्या कर लूं. भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए मार्गदर्शन करें, क्या जीवनभर इतना दायित्व संभव है?

आप एक जुझारू, कर्तव्यपरायण महिला हैं. आत्महत्या करना आप को शोभा नहीं देता. सासससुर व पति से बात कर के देवर की बुरी लत को छुड़ाने का प्रयास करें. अगर तब भी बात न बने तो पति के साथ अलग रहने की बात कहें. शायद तब देवर को भी अक्ल आ जाए और वे अपनी जिम्मेदारी उठाने लगें.

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, फरवरी (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘धर्म का अधर्म’ बड़े मनोयोग से पढ़ी. यह सचाई से ओतप्रोत है. धर्म के नाम पर घृणा करना बचपन से सिखा दिया जाता है. भारत में हिंदूमुसलिम दंगों के लिए केवल धर्म जिम्मेदार है. यहां तक कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी धर्म के केंद्र यानी चर्चों का प्रभाव इतना है कि लोग किसी के दोष के लिए उस के धर्म के हर व्यक्ति को बराबर का दोषी मानना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, इस की जड़ में वह धर्म प्रचार है जो चर्चों में होता है, उन की वैबसाइटों पर होता है. हर धर्म वाले अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को कमतर आंकते हैं. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले भी कम जिम्मेदार नहीं हैं.

कैलाश राम, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*****

संपादकीय टिप्पणी ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ पढ़ी. सरकार ‘शिक्षा का अधिकार सब के लिए’ का नारा देते हुए जोरशोर से सर्व शिक्षा अभियान चला रही है मगर इस की कड़वी सचाई यह है कि 10वीं तक शिक्षा सब के लिए और उस के बाद की शिक्षा सिर्फ अमीरों और धनवानों की औलादों के लिए ही है.

मैडिकल कालेज में प्रवेश चाहिए तो 40 लाख, इंजीनियरिंग में प्रवेश चाहिए तो 5 लाख, एमबीए में प्रवेश चाहिए तो  4-5 लाख रुपए चाहिए. बीएड, आईटीआई, वोकेशनल कोर्स भी बेहद महंगे हो गए हैं. अमीरों के बच्चे लाखों रुपए फीस और डोनेशन भर के डाक्टर, इंजीनियर, वकील और आला अफसर बनेंगे जबकि गरीबों के बच्चे किसी तरह 10वीं तक ही पढ़ कर मारेमारे फिरेंगे और वर्षों नौकरियों का इंतजार करेंगे.

उद्योगपतियों, अरबपतियों के आदेश पर सरकार का मंसूबा यह है कि रोजाना की दुनियादारी चलाने के लिए चपरासी, क्लर्क, पोस्टमैन, बसों के ड्राइवर व कंडक्टर, ट्रैफिक हवलदार, कंपाउंडर, टाइपिस्ट, रेलवे के चौथे दरजे के कर्मचारियों का होना जरूरी है और उन्हें कुछ पढ़ालिखा भी जरूर होना चाहिए. इसलिए गरीबों के लिए 10वीं तक पढ़ाई मुफ्त और जरूरी कर दी.

शिक्षा पूरी तरह से कारोबार बना दी गई है. सरकार यदि सच्चे मन से सही माने में सब के लिए शिक्षा चाहती है तो वह हाई स्कूलों को ग्रांट दे ताकि वे अपने सभी विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का इंतजाम कर सकें. सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारा जाए और सरकारी मैडिकल व  इंजीनियरिंग कालेज भी खोले जाएं. डोनेशन खत्म किया जाए. उच्च शिक्षा केवल उच्चवर्ग के लिए न हो बल्कि समाज के हर वर्ग, खासतौर से गरीबों के लिए भी उच्च शिक्षा के पूरे अवसर मुहैया कराए जाएं.

महफूज उर रहमान, मुंबई (महा.)

*****

संपादकीय टिप्पणी ‘गडकरी की हिम्मत’ पढ़ी. वैसे तो कुछ यों था कि ‘नितिन गडकरी ने ईडी अधिकारियों, जिन्होंने उन के फिर से भाजपा अध्यक्ष निर्वाचित किए जाने के ठीक एक दिन पूर्व, उन की कंपनी कार्यालयों में छापे डाले थे, को धमकी दी थी, मगर आप ने दो कदम आगे बढ़ कर उन पर अन्य 4 विभागों को धमकाने का आरोप लगा दिया. किसी के भी विरुद्ध अनावश्यक आरोप लगाना उचित नहीं कहा जा सकता.’ हां, गडकरी को उक्त ‘धमकी’ नहीं देनी चाहिए थी.

कहानी ‘अनुत्तरित प्रश्न’ में लेखक ने जो कहना चाहा है वह हमारे तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदारों या फिर घटना के बाद उपजे ‘युवा आंदोलन’ के अनाम सूत्रधारों के गले भी नहीं उतरेगा. क्योंकि संबंधित राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया ‘दोगली मानसिकता’ ही उजागर करती नजर आ रही है.

यह साफ है कि ऐसी घटनाएं न केवल कल हो रही थीं बल्कि आज भी हो रही हैं. मगर कहानी के पात्र लक्ष्मी द्वारा अपनी मालकिन को आपबीती सुनाना, ऐसा लगता है जैसे समाज के मुंह पर थप्पड़ मार कर पूछा गया हो कि कोई बताए कि ऐसा है और ऐसे गंभीर मसलों को भी क्यों हमारा समाज ‘जायजनाजायज’ के तमगों से नवाज कर कौन सा समाजोत्थान या महिला उत्थान कर रहा है?

ऐसे अनुत्तरित सवालों का यह आशय तनिक भी नहीं है कि जो जनाक्रोश घटना के विरुद्ध उठा, वह गलत था, बल्कि सवाल यह है कि पीड़ा तो लक्ष्मी जैसी दबीकुचली, निर्बल निरीह महिलाओं को भी आजीवन कचोटती है, मगर उन के लिए न्याय की मांग कब और कौन करेगा?

टी सी डी गाडेगावलिया (नई दिल्ली)

*****

रसोई में महकते रिश्ते

फरवरी द्वितीय में प्रकाशित लेख ‘रिश्तों को चटपटा बनाती रसोई’ बहुत पसंद आया. मैं सरिता को इस बात के लिए धन्यवाद देती हूं कि हर बार वह ऐसे टौपिक लेती है जिन के बारे में कहीं पढ़ने को नहीं मिलता. जहां तक रसोई और रिश्तों की बात है, तो वह कहावत है कि मर्दों के दिल में जाने की राह पेट से हो कर गुजरती है. यदि हम रसोई में ही अपने रिश्तों को सही कर लें तो रिश्तों के खराब होने की नौबत ही न आएगी. फिर यह रिश्ता चाहे पतिपत्नी का हो, सासबहू का हो या कोई दूसरा. एक स्त्री का आधा जीवन रसोई में ही बीत जाता है. अब ऐसे में यदि हम रसोई के अंदर ही रिश्तों को भी अपनी सूझबूझ से संभाल लें तो रसोई के साथसाथ हमारे रिश्ते भी चटपटे हो जाएंगे.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

*****

बिजली का करंट

अंगरेजों ने इस देश से जब कूच किया तो उस समय विद्युत का उत्पादन, वितरण जैसे कार्य निजी संस्थाओं के पास थे. सरकार का उन में कोई अधिकार नहीं था. उस समय की सरकार ने अपने द्वारा बनाए कानून के आधार पर 50 वर्ष के लिए किसी भी व्यक्ति को विद्युत वितरण करने का परवाना दिया हुआ था. उन पर कोई रोक नहीं थी.

भारत सरकार ने 17 सितंबर, 1948 के दिन विद्युत वितरण का कारोबार पूरे देश में अपने हाथ में ले लिया. ऐसा क्यों किया गया, इस का उत्तर आज भी सरकार के पास नहीं है. इन के पास कोई साधन नहीं थे.

26 जनवरी, 1950 के दिन गणतंत्र दिवस मना कर भारत को राज्यों का संघ घोषित कर दिया गया. धन की जरूरत के लिए विद्युत शुल्क लागू कर दिया गया. यह शुल्क राज्य सरकारें वसूल करती हैं. जबकि विद्युत शुल्क लगाने का अधिकार  आज भी किसी भी अनुसूची में नहीं है. राज्य सरकारें व केंद्र सरकार सब को मूर्ख बना रही हैं.

1958 में नया कानून बना कर यह शुल्क वसूलने का काम विद्युत वितरण कंपनियों को दे दिया गया. अनुच्छेद 23 के अंतर्गत कोई भी सरकार किसी से बिना मेहनताना दिए कोई कार्य नहीं करवा सकती. इसलिए इन विद्युत वितरण करने वाली संस्थाओं को राज्य सरकारों ने अपने कोष से एक प्रकार का मेहनताना देना स्वीकार कर लिया. बंबई विद्युत शुल्क अधिनियम 1958 में इस का जिक्र है. इसे हम ने आरटीए अधिनियम 2005 के अंतर्गत हासिल किया है.

उस के बाद जब इस राज्य का नाम महाराष्ट्र रखा गया, तो राज्य सरकार ने अलग से विद्युत बिक्री ‘कर’ उस के अलावा पूरे राज्य में लगा दिया, क्योंकि मुंबई को छोड़ अन्य जगह राज्य की इकाई विद्युत वितरण कर रही थी. उन पर यह शुल्क पहले लागू नहीं था. उधर, सरकार से विद्युत कंपनियों को मेहनताना नहीं मिल रहा.

राज्य सरकार ने विद्युत शुल्क और विद्युत पर बिक्री कर बढ़ा दिया. जबकि उस का कोई हिसाबकिताब उस के पास नहीं है. उलटे, यह काम अब निजी कंपनियों को देने की तैयारी की जा रही है. राज्य सरकार का विद्युत प्रणाली पर अब कोई अधिकार नहीं है. महाजैन को, महापारेषण और महावितरण कंपनियां सरकार से अपना हक मांग रही हैं. निजी कंपनियां इन से कुछ नहीं मांग रहीं, केवल सुचारु  रूप से काम करने की छूट मांग रही हैं जबकि आम उपभोक्ता सही और सस्ती दर पर अपने निवास, व्यापार के लिए विद्युत की मांग कर रहा है.

राज्य सरकार द्वारा स्थापित विद्युत नियामक आयोग यानी मर्क सरकार के दबाव में काम कर रहा है. सरकार अपना फायदा देख रही है. विद्युत कम भाव पर आम जनता को न मिल सके, इस का उपाय ढूंढ़ रही है.

 रक्षपाल अबरोल, मुंबई (महा.)

*****

एकता की अनेकता

फरवरी (द्वितीय) अंक में टैलीविजन व फिल्म की जानीपहचानी हस्ती एकता कपूर के साथ हुई बातचीत पढ़ी. एक सवाल ‘क्या टीवी सीरियल में औरत की नकारात्मक छवि उस के प्रति सम्मान को कम कर रही है’ के उत्तर में एकता कपूर ने कहा, ‘आप मुझे बताइए कि क्या समाज में वैसी औरतें नहीं हैं? हम तो जो हकीकत है वही दिखाते हैं. घर, बाहर, दफ्तर हर स्तर पर आप को यथार्थ में ऐसा देखने को मिलेगा.’

आज के समय में जब हर तरफ घोटालों और रेप जैसे हादसों को समाप्त करने या रोकने की कोशिश हो रही है, एकताजी का जवाब गले नहीं उतर रहा. यदि समाज में खराब औरत और पुरुष हैं भी, तो क्या हमारा फर्ज यह नहीं बनता कि हम फिल्म या टीवी सीरियल में उस को और उजागर न करें. क्या समाज में सकारात्मक लोग या परिवार हैं ही नहीं? फिर ऐसी क्या अड़चन है जो हमें सीरियल में खलनायिका दिखानी ही होती है? आजकल दिखाए जाने वाले सीरियलों में ‘दीया और बाती’ इस की जीतीजागती मिसाल है.

दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को हुए गैंगरेप हादसे पर काफी चर्चाएं हुईं, नारी की सुरक्षा का प्रश्न उठा और यह भी निष्कर्ष निकाला गया कि यदि देश में हालात सुधारने हैं तो केवल सरकार के ऊपर ही इस का उत्तरदायित्व न छोड़ा जाए बल्कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक विभाग भी इस की जिम्मेदारी ले. इस को संभव करने के लिए जरूरी है कि हम अपनी सोच बदलें और केवल अपना ही नहीं समाज और देश का भी ध्यान रखें.

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

*****

धर्मांधता

फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘उत्तराधिकारिणी’ में जिस तरह से मठाधिकारियों या धर्माधिकारियों के चेहरों पर पड़े परदों को उठा कर उन के चरित्र का परदाफाश किया है, उसे दुस्साहसिक कदम न कह कर अति सराहनीय कदम कहा जाएगा. कहानी पढ़ कर घोर आश्चर्य हुआ कि अपने उपदेशों द्वारा बेशक धर्म के ये अलंबरदार अपने भक्तों को हर नारी में अपनी मां, बहन व बेटी के अक्स दिखाते हों मगर स्वयं वे नारी को न केवल अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन समझते हैं बल्कि उसे मात्र ‘भोग्या’ समझ कर इस्तेमाल कर व स्वहितों की पूर्ति हेतु, उसी नारी को वेश्या रूप में दूसरों को परोसने से भी नहीं हिचकते.

यह सच है कि पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती हैं, मगर यह भी तो सच है कि तालाब को गंदा करने के लिए एक मछली काफी होती है. ऐसे में जो सवाल मन में उठता है वह यह है कि धर्म के नाम पर अंधविश्वास में डूबे भक्तजनों को कौन समझाए कि जिन धर्मगुरुओं की भक्ति में वे रातदिन लीन रहते हैं, वे मात्र ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ को ही चरितार्थ कर रहे होते हैं. वे स्वयं किस राह जा रहे हैं, उन्हें ‘भेड़चाल’ के समर्थक भला चैक करेंगे भी क्या?

ताराचंद देव रैगर (नई दिल्ली)

*****

आम बजट और महिलाएं

देश के महिला वर्ग को वित्त मंत्री के आम बजट से घोर निराशा हुई. यह बजट हम महिला वर्ग के लिए किसी भी नजरिए से संतोषजनक नहीं है. बजट में सिर्फ बड़ेबड़े वादों की चमकदमक है वादे पूरे होंगे कि नहीं, इस का कोई भरोसा नहीं है. एक तरफ तो वित्त मंत्री महिलाओं को ‘निर्भया फंड’ और ‘वुमेंस बैंक’ का लालच दे रहे हैं वहीं दूसरी तरफ रसोई गैस, बिजली का बिल, पैट्रोलडीजल और भी महंगा करने का ऐलान कर रहे हैं. बजट पेश होने से पहले, मध्यवर्गीय जनता व महिला वर्ग को काफी उम्मीद थी कि इस बजट से महंगाई से राहत मिलेगी, लेकिन हुआ बिलकुल इस के विपरीत. सरकार के इस आम बजट से हम महिलाओं का होम बजट डगमगाने लगा है.

देश की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए, आम जनता पर महंगाई का बोझ क्यों लादा जा रहा है? गरीब को और गरीब व महिलाओं को और कमजोर क्यों किया जा रहा है? बजट में मिडिल क्लास जनता को कोई राहत क्यों नहीं दी गई? डीजल और भी महंगा क्यों किया जा रहा है?

ऐसे कई अनगिनत सवाल हैं हम महिलाओं के मन में, क्या जनता की आर्थिक समस्याओं का कोई उपाय है वित्त मंत्री के पास?

सरिता भूषण, वाराणसी (उ.प्र.) 

सौंदर्य का बेशकीमती तोहफा लिक्टेंस्टाइन

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस छोटे से देश में पर्यटन का हर मिजाज मौजूद है. यहां की हरियाली, पहाड़ व बर्फ के पर्वत देख कर यकीन मानिए आप गद्गद हो जाएंगे.

पिछले दिनों जब हम लोग स्विट्जरलैंड के एक पूर्वी नगर में थे तो अचानक एक स्विस मित्र ने सलाह दी कि क्यों न आज रात्रि का भोजन हम एक नए देश में लें. मु झे कुछ हैरानी हुई. क्योंकि शाम 6 बजे तक तो हम स्विस कंपनी के दफ्तर में ही रहेंगे. मेरे पूछने पर मेरे मित्र ने बताया कि हम शाम 7 बजे यहां से कार में चलेंगे और लगभग आधे घंटे में उस देश के अंदर पहुंच जाएंगे. मु झे लगा कि शायद वे लोग आस्ट्रिया में डिनर लेने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि आस्ट्रिया उस स्थान से बहुत निकट था. किंतु उन्होंने बताया कि वे आस्ट्रिया नहीं बल्कि कहीं और जाने वाले हैं.

वह देश था लिक्टेंस्टाइन, जो स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के बीच में बसा है, जहां की हरियाली, पहाड़ व बर्फ के पर्वत यहां आने वाले सैलानियों के मन को मोह लेते हैं. इस देश के पश्चिमी छोर पर राइन नदी बहती है जो इस की सुंदरता में चार चांद लगा देती है.

हम लोग लगभग सवा 7 बजे शाम को रवाना हुए और लगभग आधे घंटे बाद राइन नदी के पुल को पार करते समय लिक्टेंस्टाइन देश का बोर्ड लगा दिखा और कुछ सैकंडों के अंदर ही हम लिक्टेंस्टाइन में थे. कोई कस्टम चैकिंग नहीं, कोई अवरोध नहीं, लगभग मुक्त सीमा. बस, केवल स्विट्जरलैंड का वीजा होना ही लिक्टेंस्टाइन में प्रवेश के लिए पर्याप्त है.

मनमोहक देश

पूर्ण रूप से आल्प्स पर्वत की गोद में बसे इस सुंदर देश का क्षेत्रफल केवल 160 वर्ग किलोमीटर (लंबाई 25 किलोमीटर, चौड़ाई 6 किलोमीटर) है और इस की जनसंख्या लगभग 35 हजार है. इस देश के चारों ओर दूसरे देशों की सीमाएं हैं. इस के पश्चिम और दक्षिण में स्विट्जरलैंड स्थित है तो पूर्व, और उत्तर में आस्ट्रिया.

इस प्रकार इस देश का कोई अपना सागर तट नहीं है. वैसे, विचित्र बात है कि स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया के स्वयं अपने भी तट नहीं हैं. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि लिक्टेंस्टाइन से बाहर यदि किसी सागर तट पर पहुंचना हो तो कम से कम 2 देशों की सीमा को पार करना पड़ेगा, अर्थात यह

देश दोहरी तरफ से भूमि से घिरा है. इन सब कमियों के बावजूद लिक्टेंस्टाइन एक समृद्ध, अति संपन्न व खुशहाल देश है. लिक्टेंस्टाइन की अपनी राजधानी भी है जिस का नाम वादूज है. बस, यों सम झ लीजिए कि यह भारत के किसी बड़े नगर का क्षेत्रफल व किसी छोटे कसबे की जनसंख्या वाला देश है. इतना छोटा होने के बावजूद इस देश की अपनी सरकार, अपने राजा व रानी, अपने पर्यटन केंद्र और अपनी डाक व्यवस्था व डाक टिकट हैं.

लिक्टेंस्टाइन के डाक टिकट अपने सौंदर्य के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं और संग्रहकर्ताओं के लिए गौरव के साधन हैं. इन्हीं सुंदर डाक टिकटों के कारण लिक्टेंस्टाइन के डाकखानों में बहुत चहलपहल रहती है और यहां के विशाल पोस्ट औफिस का अपना अलग ऐतिहासिक महत्त्व है. बर्फ से लदे पर्वत, हरियालीयुक्त पहाडि़यां व मदमाता प्राकृतिक सौंदर्य इस देश को पर्यटन के एक मोहक स्थल में परिवर्तित कर देते हैं. इसी कारण प्रतिवर्ष अनेक पर्यटक आल्प्स पर्वत पर स्कीइंग के उद्देश्य से आते हैं.

स्कीइंग का यह मौसम सितंबर/अक्तूबर से आरंभ हो कर अप्रैल के मध्य तक चालू रहता है जब ऊंचाई वाले पर्वत श्वेत हिम के कारण धुनी रूई का रंग ले लेते हैं. उस समय यहां के ‘वाल्यूना’ व ‘मालबन’ नामक स्थलों पर बर्फ की 1 मीटर से 2 मीटर मोटी परत जम जाती है और तब स्कीइंग करने वाले युवकयुवतियां हजारों की संख्या में सूटबूट से लैस हो कर आ धमकते हैं और बर्फ पर सरकते हुए स्कीइंग का आनंद लेते हैं. ग्रीष्म व वसंत ऋतु में यहां का प्राकृतिक सौंदर्य और भी अधिक निराला हो जाता है. उस समय पर्वतों पर हरेभरे वृक्षों, रंगबिरंगे फूलों व मखमल जैसी घास की रंगत छा जाती है. ऐसे अवसर पर यूरोप व अमेरिका के विभिन्न भागों से पर्यटक अपने परिवार सहित छुट्टियां बिताने आ जाते हैं. अधिकतर पर्यटक जरमनी, आस्ट्रिया, इटली व स्विट्जरलैंड से आते हैं जहां से इस देश की यात्रा कुछ घंटों में ही तय की जा सकती है.

उदाहरण के लिए जरमनी का म्यूनिख नगर राजधानी वादूज से केवल 240 किलोमीटर दूर है जहां से अति उन्नत सड़कों के कारण यह यात्रा केवल ढाई से 3 घंटे में पूरी हो जाती है. इसी प्रकार स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख नगर से वादूज की दूरी केवल 112 किलोमीटर है जबकि आस्ट्रिया के नगर इंसब्रुक से इस की दूरी 170 किलोमीटर है.

इटली के मैलैंड नगर से वादूज की दूरी केवल 250 किलोमीटर है. स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के कुछ सीमावर्ती नगरों से लिक्टेंस्टाइन तो इतना निकट है कि बच्चे साइकिलों पर चढ़ कर वहां पिकनिक मनाने आते हैं और डिनर के बाद अनेक स्विस व आस्ट्रियावासी यहां कौफी पीने आते हैं. एक खूबसूरत देश होने के नाते यहां पर्यटकों की भरमार रहती है. स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के अलावा यहां फ्रांस, पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क के पर्यटक बहुतायत से देखे जा सकते हैं.  वैसे, लिक्टेंस्टाइन में भारत के पर्यटक कम दिखते हैं. अपनी यात्रा के दौरान मु झे एक भी भारतीय पर्यटक यहां नहीं दिखा. इस का एक कारण तो यही है कि स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया से घिरा होने के कारण अधिकतर लोग उन्हीं देशों की यात्रा कर के वापस चले जाते हैं. दूसरा, इस नन्हे देश के विषय में लोग बहुत कम जानते हैं. अनेक को तो लिक्टेंस्टाइन का नाम भी नहीं पता है.

गुप्त खातों वाले बैंक

अकसर लोग यह सम झते हैं कि केवल स्विट्जरलैंड में ही गुप्त खातों वाले बैंक होते हैं. बहुत कम लोगों को पता है कि लिक्टेंस्टाइन में भी ऐसे गुप्त खातों वाले अनेक बैंक हैं जहां अनेक व्यापारियों, धनी व्यक्तियों, कालेबाजारियों, भ्रष्ट सत्ता प्रमुखों आदि ने अपने कोड नंबर वाले खाते खोल रखे हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि इतने छोटे से देश में से अनेक विदेशी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के दफ्तर खुले हुए हैं. बताया जाता है कि केवल 35 हजार की जनसंख्या वाले इस देश में विदेशी कार्यरत कंपनियों की संख्या देश की जनसंख्या से भी अधिक है. लिक्टेंस्टाइन विशेषकर उद्योग प्रधान देश है जहां पर खासतौर से मशीनें व औजार, कपड़ा उद्योग, खाद्य पदार्थ, चमड़ा उद्योग, रसायन व फर्नीचर आदि के कल-कारखाने हैं. लिक्टेंस्टाइन अपने रेस्तरां व जलपानगृहों के लिए भी काफी प्रसिद्ध है.

वास्तव में हम लोगों को लिक्टेंस्टाइन काफी महंगा लगेगा क्योंकि स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया की तरह वहां भी वस्तुओं के मूल्य हमारे देश की तुलना में काफी अधिक हैं. किसी साधारण रेस्तरां में भी एक कप चाय की कीमत लगभग 250-300 रुपए है. खाली डबलरोटी की कीमत लगभग 200 रुपए है. साधारण रेस्तरां में पूरा खाना लगभग 4-5 हजार रुपए तक बैठेगा.

लिक्टेंस्टाइन नामक यह नन्हा सा देश अपने शांतिप्रिय सहयोग व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए है. यहां की जनता अपने राजा व रानी का बहुत सम्मान करती है, जिन का वैभवशाली महल लिक्टेंस्टाइन की राजधानी वादूज के समीप की पहाड़ी पर स्थित है. ऐसे सुंदर व खुशहाल देश की सैर करने के बाद मन प्रफुल्लित हो जाता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें