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बात ऐसे बनी

बात मेरे मित्र की लड़की की शादी की थी. सारा प्रबंध एक फार्महाउस में था. जयमाला का कार्यक्रम था, स्टेज पर दूल्हा अपने मित्रों के साथ खड़ा था व दुलहन अपनी सहेलियों के साथ जयमाला ले कर खड़ी थी. दुलहन ने जैसे ही जयमाला डालने को हाथ उठाए, दूल्हे के मित्रों ने दूल्हे को काफी ऊपर उठा लिया. दुलहन माला ले कर एक ओर खड़ी हो गई.

दूसरी बार फिर माला डालने की कोशिश की तो फिर दूल्हे के मित्रों ने उसे ऊपर उठा लिया. तब दुलहन एक ओर खड़ी हो गई व उस ने अपनी सहेली के कान में कुछ कहा. सहेली ने दूल्हे से कुछ कहा. अब मैं ने देखा कि दूल्हा सिर झुकाए खड़ा है व मित्र भी सब शांत हैं. आराम से जयमाला कार्यक्रम समाप्त हो गया. बाद में मुझे इस शांति का पता चला तो मैं हंसे बिना न रह सका. दरअसल, दुलहन ने अपनी सहेली से कहा था कि दूल्हे से कह दो कि वह शांतिपूर्वक जयमाला डलवा ले वरना वह जा रही है.

वेद प्रकाश गुप्ता, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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मेरी बेटी की सहेली की शादी ऐसे घर में हुई जो दहेजलोभी थे. उन्होंने अपनी बहू का जीना इतना दूभर कर दिया कि बहू ने आत्महत्या कर ली. घटना के बाद से मेरी बेटी को शादी के नाम से नफरत हो गई. उस ने प्रण किया कि वह शादी नहीं करेगी. खैर, काफी समझाने के बाद वह शादी के लिए राजी हुई. सगाई होने के बाद मेरी बेटी को पता चला कि उस के ससुराल वाले भी दहेज के लोभी हैं. उस ने लड़के को साफसाफ शब्दों में कहा कि मैं शादी तब करूंगी जब आप के मातापिता मुझे सिर्फ वरमाला में स्वीकार करेंगे अन्यथा मैं कुंआरी रहना पसंद करूंगी.लड़के ने अपने मातापिता से कहा कि अगर आप ने बहू को दहेज के लिए परेशान किया तो जिंदगीभर वह कुंआरा रहेगा. इकलौती संतान होने के कारण लड़के के मांबाप को औलाद की खुशी की खातिर झुकना पड़ा.

सपना रावानी, अजमेर (राज.)

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मेरी पड़ोसिन 2 गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती थी. परंतु वे बच्चे जब मन करता, पढ़ने आते और कभी भी छुट्टी मार लेते. उन के मातापिता भी कुछ नहीं कहते थे. इस पर मेरी पड़ोसिन कसमसाती कि इन बच्चों व मातापिता को पढ़ाई व समय की कीमत मालूम नहीं है.

मैं ने उस से कहा, ‘‘अगर अब ये बच्चे छुट्टी करें तो उन को जुर्माने के तौर पर 5 रुपए लाने के लिए कहना. इस से वे समय व पढ़ाई की कीमत समझेंगे.’’ उस ने ऐसा ही किया. नतीजतन, बच्चे रोज आने लगे.

पूनम जैन, पानीपत (हरियाणा)

भारत भूमि युगे युगे

भुखमरी मुक्त दिल्ली

सबकुछ ठीकठाक रहा तो विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिल्ली के 73.5 लाख गरीबों को खाद्य सुरक्षा योजना के तहत सस्ता अनाज मिलना शुरू हो जाएगा. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कहती हैं कि दिल्ली भुखमरी से मुक्त हो जाएगी. शीला दीक्षित भाषा की धनी हैं इसलिए उन्होंने गरीबी के बजाय सटीक शब्द भुखमरी का इस्तेमाल किया बावजूद यह जाननेसम?ाने के  कि आजकल लोग भूख से कम दूषित खाद्य पदार्थों के सेवन से ज्यादा मरते हैं. बहरहाल, शीला की मंशा की व्याख्या करते राहुल गांधी ने 6 अगस्त को यह कहते नया विवाद पैदा कर दिया कि गरीबी एक मानसिक स्थिति है जिसे खैरात बांटने से दूर नहीं किया जा सकता. बात सच भी है, अब सरकारें पुरुषों को आफ्टर शेव लोशन और महिलाओं को सैनिटरी नेपकिन बांटने से तो रहीं.

द वाशिंगटन पोस्ट

‘द वाशिंगटन पोस्ट’ दुनिया भर में जानामाना अखबार है जिसे बीते दिनों अमेरिकी कंपनी अमेजन के सीईओ जैफ पी बेजास ने तकरीबन 250 मिलियन डौलर में खरीद लिया. यह अखबार अपने 135 सालों के इतिहास में चौथी बार बिका. अखबार हमारे यहां भी बिकते रहते हैं पर इतने महंगे नहीं. वजह, प्रसार संख्या है जिसे ले कर तमाम मीडिया हाउस चिंतित हैं पर इलैक्ट्रौनिक्स मीडिया के जादू से निबटने का मंत्र कोई नहीं ढूंढ़ पा रहा. इस की लगभग 4,74,767 प्रतियां बिकती हैं जो किसी भी भारतीय प्रकाशक को उसकी संपादकीय व लेखकीय गुणवत्ता की हैसियत बताने के लिहाज से पर्याप्त हैं. इस अखबार के मालिकाना हक के बिकने की वजह बीते 10 सालों में इस के प्रसार में लगातार गिरावट बताई गई जिस के चलते विज्ञापन भी कम हो चले थे. इस सौदे का इकलौता सबक यही है कि लेखकीय गुणवत्ता गिर रही है, इसलिए लोग आंखों का इस्तेमाल देखने में ज्यादा करने लगे हैं.

कांग्रेस की मुश्किल

साल 2013 में नरेंद्र मोदी छाए हुए हैं कांग्रेसी तो कांग्रेसी शत्रुघ्न सिन्हा और जसवंत सिंह जैसे कई भाजपाई दिग्गज बोलते रहे कि मोदी को प्रधानमंत्री न बनाया जाए. देश की चिंता के अलावा इन सब की अपनीअपनी निष्ठाएं और स्वार्थ हैं. राहुल गांधी नेएक सलीके का काम 36 कांग्रेसी प्रवक्ताओं को यह नसीहत देते किया कि नरेंद्र मोदी पर बेवजह, ऊटपटांग न बोला जाए और बोलना ही है तो गुजरात के विकास मौडल की बखिया उधेड़ी जाए. सार यह कि मोदी को ब्रैंड न बनाया जाए.

अब मोदी पर नहीं बोलना तो कांग्रेसियों को सम?ा आ गया पर गुजरात विकास मौडल क्या बला है, यह वे सम?ा नहीं पा रहे. गुजरात का विकास शोध और खोज का विषय हो चला है जिस पर कांग्रेसी सिर खपाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा.

बेलगाम दिग्विजय

उन का नाम मीनाक्षी नटराजन है. वे मंदसौर-नीमच से कांग्रेसी सांसद हैं. अविवाहित हैं, खूबसूरत, सांवली हैं, कम बोलती हैं और उन की सब से बड़ी खूबी राहुल गांधी से नजदीकी है. इसलिए कांग्रेसियों का उन का लिहाज करना स्वाभाविक है पर दिग्विजय सिंह ने नहीं किया. मंदसौर में मंच से भीड़ के सामने उन्होंने भद्दी भाषा और घटिया अंदाज में मीनाक्षी को 100 टन का माल कह दिया. इस उपाधि, जिसे कटाक्ष कहना ज्यादा ठीक होगा, को मीनाक्षी ने पुरस्कार की तरह सम्मानपूर्वक सार्वजनिक रूप से ग्रहण कर लिया, मानो कोई पद्म उपाधि मिल गई हो.

अगर यह भाषा गलत थी तो दोषी जाहिर है दिग्विजय से ज्यादा खुद मीनाक्षी हैं जिन में स्वाभिमान और सम्मान नाम के तत्त्व नहीं हैं. ऐसे में दिग्विजय जैसे पुरुषों की विकृत मानसिकता को शह मिलती है.

 

त्रासदी के खौफ से घबराए कांवडि़ए

सावन की शिवरात्रि के दौरान करोड़ों की तादाद में बमबम भोले का शंखनाद करने वाले कांवडि़यों का हुजूम देश की सड़कों पर ऊधम मचाता हुआ नजर आता था, पर इस बार ऐसा क्या हुआ कि न केवल कांवडि़यों की संख्या बहुत कम नजर आई बल्कि उन को मुफ्त का माल परोसने वाले धर्म के धंधेबाजों में पहले जैसे जोश का अभाव भी नजर आया?

गंगाजल लेने को हरिद्वार जाने वाले शिवभक्त कांवडि़यों की संख्या इस बार बहुत कम देखने में आई. इसी वजह से सड़कों पर उत्पात, गुंडागर्दी, महिलाओं से छेड़छाड़ जैसी हरकतों से आम लोगों और प्रशासन को थोड़ी राहत महसूस हुई. दिल्ली के वजीराबाद, जीटी रोड, मथुरा रोड, बदरपुर, धौला कुआं हो कर हरिद्वार जाने वाले रास्तों पर कांवडि़यों का भगवा सैलाब बहुत कम नजर आया. कहींकहीं तो कंधों पर कांवड़ लादे हुड़दंगी कांवडि़यों की भरमार रहने वाले रास्तों पर भी वीरानी रही.

पूर्वी दिल्ली से गुजर रहे व्यस्ततम नैशनल हाईवे नंबर 24 पर कांवडि़यों की थोड़ी आवाजाही रही. पुलिस ने कांवडि़यों की वजह से कमर्शियल वाहनों का आवागमन रोक दिया था लेकिन वजीराबाद रोड, जीटी रोड और विकास मार्ग पर कांवडि़यों के कारण कहींकहीं जाम हो रहा था. दिल्ली पुलिस का कहना है कि इस बार कांवडि़यों की संख्या में कमी जरूर दिखाई दी पर हमें इंतजाम हर साल की तरह ही करने पड़े. हां, इतना जरूर है कि कांवडि़यों को ले कर तनाव और विवाद जैसे मामले ज्यादा नहीं आए.

हरिद्वार जिला सूचना अधिकारी कार्यालय के प्रदीप कोठारी कहते हैं कि यह सही है कि इस बार यहां कांवडि़यों की संख्या काफी कम रही. वजह पूछने पर वे कहते हैं कि केदारनाथ त्रासदी के कारण कांवडि़ए कम आए. गरमी इस की वजह नहीं है. कांवडि़यों की वजह से हरिद्वार जिला प्रशासन को काफी परेशानी होती होगी? इस सवाल पर कोठारी कहते हैं कि हां, शहर में गंदगी और अराजकता जैसा माहौल होता है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं था.

कांवड़ यात्रियों के लिए इस बार भी दिल्लीहरिद्वार हाईवे का यातायात एक हफ्ते के लिए डाइवर्ट कर दिया गया. इस रास्ते से केवल कांवडि़ए ही जा सकते हैं ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो और आसानी से मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की हो कर वे हरिद्वार पहुंच सकें. दिल्ली में पूरे एक पखवाड़े विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य धार्मिक व सामाजिक संगठनों द्वारा त्रिनगर, शास्त्रीनगर, करोलबाग, शाहदरा जैसी जगहों में लगे तंबू खाली दिखाई दिए और कई जगह तो ये तंबू कांवड़ यात्रा खत्म होने से 2 दिन पहले ही उखड़ गए. 3, 4 और 5 अगस्त को दिल्ली में हुई बारिश के बाद ये तंबू बिल्कुल वीरान नजर आ रहे थे.

दिल्ली के बाहर निकलते ही साहिबाबाद, गाजियाबाद, मेरठ, मुरादनगर, मुजफ्फरनगर में भी स्थानीय संगठनों की ओर से लगाए गए टैंटों में कांवडि़यों के लिए खानेपीने, आराम करने, चिकित्सा आदि के पूरे इंतजाम किए गए थे पर कांवडि़ए कम ही थे.

कांवड़ यात्रा शुरू होने से पहले उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार से कांवडि़यों के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने की मांग करने वाले एक स्वामीजी का दावा है कि पिछले साल 1.95 करोड़ कांवडि़ए हरिद्वार, ऋषिकेश, गोमुख क्षेत्र में पहुंचे थे और इस बार 1 करोड़ कांवडि़ए आने की संभावना थी लेकिन इस से आधे भी नहीं पहुंचे. हरिद्वार जिला प्रशासन के पास कांवडि़यों का कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है. सूचना कार्यालय का कहना है कि यहां आने वाले कांवडि़यों का महज अंदाजा लगाया जाता है. यह अंदाजा मीडिया और प्रशासन अपनेअपने तरीके से लगाते हैं.

हर साल सावन में हरिद्वार जाने वाले रास्तों पर अराजकता, गुंडागर्दी का माहौल व्याप्त रहता है. इस बार उत्तर प्रदेश में प्रशासन ने कांवडि़यों द्वारा ट्रकों, गाडि़यों में स्पीकर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था, फिर भी नियम तोड़ने में माहिर ये हुड़दंगी बाज नहीं आए. इलाहाबाद में स्पीकर लगे ट्रक को रोका गया तो कांवडि़यों ने जम कर उत्पात मचाया. गाडि़यों, बसों में तोड़फोड़ की.

इस के बावजूद प्रशासन उन की हर सुविधा का पूरा ध्यान रखता है. उन के लिए अलग ट्रैक की व्यवस्था करता है. चौराहों पर विशेष पुलिस तैनात की जाती है जो यातायात को रोक कर कांवडि़यों को पहले जाने देती है. लेकिन कांवडि़ए अपनी हरकतों से बाज नहीं आते. चोली के पीछे क्या है…, मुन्नी बदनाम हुई…, शीला की जवानी… जैसे फिल्मी गानों की तर्ज पर बने धार्मिक गीतों पर अश्लील मुद्रा में थिरकते कांवडि़ए लोगों के लिए मुसीबत बन कर हर साल सामने आते हैं.

धर्म के धंधे पर गहरी चोट

धार्मिक वर्णव्यवस्था में जिन लोगों को पढ़ाईलिखाई, पूजापाठ, हवनअनुष्ठान से वंचित किया गया वे कांवडि़ए होते हैं. इन में ज्यादातर निम्न जातियों के लोग शामिल हैं. ये लोग धर्म के धंधेबाजों के नए ग्राहक हैं. सदियों से वंचित ये लोग पूजापाठ, तीर्थयात्रा कर के अब खुद को धन्य समझने लगे हैं. दिल्ली में करोल बाग स्थित दलितों के गुरु रविदास विश्राम मंदिर के अध्यक्ष जोगिंदर मोहन कहते हैं कि हरिद्वार जाने वाले कांवडि़ए हर वर्ग, हर जाति के होते हैं. गंगाजल लाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है.ऐसा नहीं है कि हर साल हरिद्वार जाने वाले कांवडि़ए सहीसलामत घर लौट आते हैं, 10-20 हर साल बेमौत मरते हैं. आम लोगों का मत कांवडि़यों को ले कर ठीक नहीं है. लोगों का कहना है कि उन में भक्त कम, असामाजिक तत्त्व अधिक होते हैं.

दिल्ली के रोहिणी इलाके में शिव मंदिर के पुजारी उमाकांत तिवारी कहते हैं शास्त्रों में गंगाजल से शिव के अभिषेक का वर्णन है. रावण शिवभक्त था और वह गंगाजल से शिवलिंग की पूजा करता था, इसलिए यह बहुत पुरानी परंपरा है. अनेक कांवडि़ए हरिद्वार के अलावा गंगोत्तरी, गोमुख से गंगाजल लाते हैं पर इस बार प्रशासन ने हरिद्वार से आगे जाने की अनुमति नहीं दी. सवाल यह है कि क्या इस बार कांवडि़यों की तादाद वास्तव में केदारनाथ त्रासदी के कारण कम रही? शिव के खौफ से उन के ही भक्त कांवडि़ए घबरा गए?

दरअसल, पिछले दिनों बारिश के कहर से चारधाम की यात्रा पर निकले सैकड़ों यात्री मारे गए थे. इन में से ज्यादातर भगवान केदारनाथ यानी शिव से सुरक्षा, समृद्धि की चाह में गए थे पर मौत के मुंह में समा गए. कई अनाथ हो गए. कइयों का सुहाग उजड़ा, किसी की गोद उजड़ी, किसी ने मांबाप खोए, किसी ने पत्नी.

इस घटना से देश में हाहाकार मच गया. लोगों ने सरकार, प्रशासन को कोसा. मौत से बच कर आए अनेक लोगों ने भविष्य में ऐसे धार्मिक तीर्थस्थलों पर जाने से तौबा कर ली. कुछ लोगों का कथित ईश्वर से भरोसा उठ गया फिर भी अनेक लोगों का अब भी मानना है कि  उन्हें ईश्वर ने ही बचाया है, बिना यह सोचे कि ईश्वर ने उन्हें बचाया पर औरों को क्यों मारा? क्या ईश्वर लोगों के साथ भेदभाव करता है्?

दरअसल, केदारनाथ त्रासदी के बाद लोगों में पहाड़ों के नजदीक बसे तीर्थस्थलों पर जाने का भय समा गया. अंधभक्तों को समझ में आने लगा कि जब लोग भगवान के घर में ही सुरक्षित नहीं हैं तो फिर कहां होंगे. स्वयं भगवान अपना घर नहीं बचा पाए तो लोगों की जान कैसे बचाएंगे. इस तरह के सवालों ने लोगों के बंद दिमागों पर दस्तक जरूर दी होगी.

असल में प्रकृति समयसमय पर धर्म, ईश्वर की पोल खोलने का काम करती रहती है पर धर्म के ठेकेदार, भगवानों के बिचौलिए प्रकृति के प्रकोप को भगवान की मरजी, पापियों को सजा देने जैसी बातें कह कर अपने झूठ को ढकने की कोशिश करते हैं और लोगों को बहलाने में कामयाब हो जाते हैं. बेवकूफ लोग भी उन की कही बातों को सच मान लेते हैं. चूंकि केदारनाथ धाम की घटना अभी ताजा है इसलिए हरिद्वार कांवड़ यात्रा पर जाने वाले भक्तों की तादाद पर असर पड़ना स्वाभाविक है.

लेकिन यह तय है कि यह अधिक समय तक नहीं चलेगा. धर्म, ईश्वर की मार्केटिंग करने वाले लोग धर्म का कारोबार करने के लिए फिर से लोगों को मूर्ख बनाना शुरू कर देंगे और दिमाग से गुलाम बना दिए गए लोग फिर पंडों के कहे रास्ते पर चल पड़ेंगे क्योंकि उन में न अपना दिमाग है न तर्कवितर्क करने की शक्ति. वे तो बस हमेशा दूसरों के द्वारा हांके जाने को अभिशप्त हैं.

केदारनाथ की प्राकृतिक घटना ने धर्म के धंधे पर गहरी चोट की है. कांवडि़यों की कमी से धर्म के कारोबार में मंदी आई है. यानी मंदिरों में चढ़ावा कम हुआ है. कांवडि़यों को हरिद्वार कौन धकेल रहा है? निश्चित ही मंदिरों में बैठे पंडेपुजारी. जिस दिन लोगों को धर्म की खाने वाले इन धंधेबाजों की चालबाजी समझ में आ जाएगी, इन की दुकानों में ताले पड़ जाएंगे. धर्मांध लोगों को इन के शिकंजे से बाहर निकलना ही होगा.

पाठकों की समस्याएं

मैं 33 वर्षीय विधवा, 2 बच्चों की मां हूं. हिंदू होते हुए एक 27 वर्षीय मुसलिम लड़के से प्यार करती हूं. हमारे बीच शारीरिक संबंध भी हैं. पर हाल ही में मुझे पता चला है कि वह भी शादीशुदा है और 2 बच्चों का पिता है. इसी बीच, मेरा आकर्षण अपने फेसबुक फ्रैंड की तरफ भी हो रहा है जो उम्र में मुझ से छोटा है. वह भी मुझे प्यार करता है. मेरे बारे में सबकुछ जानने के बाद भी वह मुझ से शादी के लिए तैयार है. मुझे लगता है कि इस नए लड़के के साथ शादी करना पहले लड़के के साथ धोखा होगा पर उस से शादी कर के मैं उस के खुशहाल परिवार को बरबाद नहीं होने देना चाहती. मुझे क्या करना चाहिए?

दरअसल, आप 2 नावों पर सवार हैं. रिश्ते ऐसे भावनाओं में बह कर न तो बनाए जाते हैं न तोड़े जाते हैं. एक पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाने के बाद दूसरे पुरुष की ओर आकर्षित होना आप की कमजोरी को दर्शाता है, जो आप के बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. 2 बच्चों के पिता से शादी कर आप क्यों उस की गृहस्थी में आग लगाना चाहती हैं. आप के लिए उसे भूल जाना ही बेहतर होगा. जहां तक फेसबुक फ्रैंड से शादी करने की बात है तो ऐसी दोस्ती महज एक छलावा होती है. ऐसे लड़कों का मकसद महज मनोरंजन करना होता है, उन के प्यार में गंभीरता नहीं होती. इसलिए जो भी फैसला लें अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख कर लें.

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मैं 58 वर्षीय प्रौढ़ व्यक्ति हूं. एमए करने के बाद भी बेरोजगार हूं. पिछले कई वर्षों से डिप्रैशन का इलाज चल रहा है. बेरोजगार होने व मानसिक रोग के कारण परिवार के लोग उपेक्षा से देखते हैं. पत्नी व 3 बच्चे हैं. पत्नी की तरफ से भी प्यार व सहानुभूति का अभाव है.28 वर्षीय पुत्री विवाह योग्य है. जीवन से निराश हो गया हूं लेकिन आत्महत्या करना सही नहीं मानता. परिवार में केवल छोटी बहन मुझे सम्मान व प्यार देती है. जीवन में अपनों का प्यार व खुशियां कैसे लौटें, राह दिखाइए.

आप की समस्या के मूल में आप का कुछ न करना यानी खाली रहना है. स्वयं को किसी भी सकारात्मक कार्य में व्यस्त कीजिए. परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझिए. जीवन से निराश हो कर हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना समस्या का समाधान नहीं है. अपनी छोटी बहन की मदद से कुछ काम शुरू कीजिए, आप को परिवार का प्यार व सम्मान अवश्य मिलेगा.

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मैं 32 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरी एक 3 साल की बेटी है. मैं और मेरे पति दोनों कामकाजी हैं. मेरी समस्या का कारण मेरे पति हैं. वे न तो औफिस के कामों में दिलचस्पी लेते हैं न बेटी की कोई जिम्मेदारी उठाते हैं. बेटी का सारा खर्च मैं ही उठाती हूं. पति लगभग सारा दिन घर पर बैठ कर टीवी देखते हैं और मेरे कामों में गलतियां निकाल कर मुझे अपमानित करते रहते हैं, घर से निकल जाने को कहते हैं. सास भी पति का साथ देती हैं और मुझ से चुप रहने को कहती हैं. मैं मातापिता के घर भी नहीं जा सकती क्योंकि वे अस्वस्थ रहते हैं. इस समस्या से कैसे निबटूं, आप ही बताइए?

आप सब से पहले पति व सासससुर के साथ बैठ कर गंभीरता से बात करें. अपनी परेशानी बताएं. अगर वे मदद नहीं करते तो कानूनी कदम उठाने की धमकी भी दे सकती हैं. जहां तक पति के औफिस के कार्यों में दिलचस्पी न लेने की बात है, कोई भी संस्था उन्हें बिना काम के ज्यादा दिन तक नौकरी पर नहीं रखेगी. ऐसी नौबत आए, उस से पहले उन्हें अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराइए.  आप के पति आप को क्यों अपमानित करते हैं, इस की वजह जानने की कोशिश कीजिए, हो सकता है आप में कोई कमी हो या आप का व्यवहार उन के प्रति ठीक न हो. आप उन्हें प्यार व मनुहार से मनाने का प्रयास करें. हो सकता है उन का व्यवहार बदल जाए. अगर वे तब भी नहीं सुधरते तो पति के किसी दोस्त या सहकर्मी की मदद ले सकती हैं. घर छोड़ कर हरगिज न जाएं व बेटी के खर्च की जिम्मेदारी भी खुद न उठाएं, पति पर डालें. कब तक वे अपनी जिम्मेदारी से भागेंगे?

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मैं 32 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरा एक 6 वर्षीय बेटा है. प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती हूं. विवाह को 8 साल हो गए हैं. शादीशुदा जीवन ठीकठाक चल रहा है. कुछ दिनों से मेरे औफिस का एक सहकर्मी मुझे अच्छा लगने लगा है. उसे देखना, उस से चैटिंग करना अच्छा लगता है. क्या शादीशुदा होने के बाद किसी के प्रति आकर्षित होना गलत है. इस के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? क्या यह पति के साथ धोखा होगा?

विपरीत लिंगी के प्रति झुकाव स्वाभाविक है. यह एक हद तक मर्यादा में रह कर ही होना चाहिए, पर आप की समस्या को जान कर ऐसा लगता है कि आप समझदार होते हुए भी और सबकुछ समझते हुए भी गड्ढे में गिरने को तैयार हैं. कुछ लोग जब तक किसी के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाते, समझते हैं कि वे परिवार को धोखा नहीं दे रहे जबकि शादी के बाद किसी अन्य के प्रति आकर्षित होना आप की पारिवारिक जिंदगी पर प्रभाव डाल सकता है.

प्यार व आकर्षण में कनफ्यूज न हों. आकर्षण क्षणभंगुर होता है जबकि पतिपत्नी के प्यार में विश्वास व अपनापन होता है. शुरूशुरू का आकर्षण हो सकता है अफेयर तक चला जाए जिस का असर आप की शादीशुदा जिंदगी पर पड़ेगा. अच्छा होगा उस सहकर्मी की तरफ से ध्यान हटा कर परिवार व पति पर ध्यान दीजिए.

जेएनयू मामला – प्यार के फेर में खत्म कर ली जिंदगी

पहले दोस्ती फिर प्यार और बाद में बेवफाई फिर इंतकाम. आकाश और रोशनी के बीच भी ऐसा ही हुआ. भले ही यह प्रकरण नया न हो पर गंभीर जरूर है. यदि समय रहते अभिभावकों और शिक्षा प्रशासन ने इस समस्या का हल न ढूंढ़ा तो इसी तरह बच्चे जिंदगी बनानेसंवारने की उम्र में एकदूसरे की जिंदगी लेते रहेंगे. पढि़ए उग्रसेन मिश्रा का लेख.

साधारण परिवार का 23 वर्षीय आकाश बिहार के गया जिले के मदाड़पुर गांव से एक सपना लिए दिल्ली आया था. उस के मातापिता ने भी उसे बड़े अरमानों के साथ इस उम्मीद में दिल्ली भेजा था कि बेटा पढ़लिख कर अफसर बनेगा. लेकिन मांबाप की उम्मीद धरी की धरी रह गई. उन के सपने टूट गए और आकाश ने उन्हें जिंदगीभर को तड़पने के लिए छोड़ दिया.

नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आकाश सैंटर फोर कोरियन लैंग्वेज ऐंड कल्चर स्टडीज से कोरियाई भाषा सीख रहा था. उस का दूसरा साल पूरा हो चुका था. आकाश की दोस्ती 22 वर्षीय रोशनी कुमारी गुप्ता से हो गई. रोशनी बिहार के ही मुजफ्फरपुर शहर के शंकर नगर इलाके की रहने वाली है जो कैंपस के ही एक छात्रावास में रहती है. पढ़नेलिखने में आकाश अच्छा था और रोशनी साधारण थी. इसलिए आकाश उस की काफी मदद करता था. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदल गई. प्यार के चक्कर में आकाश का रिजल्ट खराब होता चला गया और वह तीसरे साल में नहीं पहुंच सका जबकि रोशनी तीसरे साल में पहुंच गई. इस बीच आकाश परेशान रहने लगा. उस के दोस्तों को लगा कि शायद रिजल्ट खराब होने के कारण वह परेशान रहता है. लेकिन आकाश के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था. दरअसल, वह प्यार में चोट खाया हुआ था.

31 जुलाई को भाषा संस्थान के कमरा नंबर 213 में 10 बजे सुबह क्लास शुरू हुई. दूसरा पीरियड शुरू होने से पहले आकाश और रोशनी में कुछ बातचीत हुई और कुछ ही पलों में यह बातचीत बहस में बदल गई. जब तक बाकी छात्र कुछ सम?ा पाते आकाश ने बैग से एक देशी पिस्तौल निकाली और हवा में लहराते हुए कहा कि कोई बीच में नहीं आएगा वरना वह गोली चला देगा. रोशनी को यह सब मजाक लगा और उस ने आकाश को धक्का दे दिया. फिर क्या था, आकाश ने अपने साथ लाए बैग में से कुल्हाड़ी निकाली और रोशनी पर ताबड़तोड़ कई वार कर डाले और फिर खुद पर वार कर सल्फास की गोलियां खा लीं. आकाश को औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज (एम्स) ले जाया गया जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.  रोशनी को सफदरजंग अस्पताल में भरती करा दिया गया जहां वह जिंदगी और मौत से जू?ा रही है.

यह तो तय है कि आकाश की परेशानी रोशनी थी. एक छात्र ने बताया कि रोशनी ने आकाश को भाव देना बंद कर दिया था और अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक छात्र से उस की दोस्ती बढ़ गई थी. रोशनी उस के साथ ज्यादा समय बिताने लगी थी. यह सब आकाश को पसंद नहीं आया, इसलिए उस ने रोशनी को मारनेका पूरा तानाबाना बुन लिया. आकाश ?ोलम छात्रावास के कमरा नंबर 132 में रहता था. 10×12 के इस कमरे में 2 बैड थे. एक बैड पर आकाश और दूसरे बैड पर लाइफ साइंस का कोर्स कर रहा एक अन्य छात्र रहता था. अब उस छात्र को दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया है.

इस छात्रावास में तकरीबन 350 छात्रों के लिए रहने की व्यवस्था है जिस में 2 बैड वाले और 1 बैड वाले कमरे हैं. विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक छात्रों को सिंगल और डबल बैड कमरे दिए जाते हैं. इस छात्रावास में कुल 3 फ्लोर हैं. 1 फ्लोर पर तकरीबन 20 कमरे हैं और 9 कमरों पर 1 बाथरूम इस्तेमाल करने का प्रावधान है. डबल बैड कमरे में 2 टेबल और 1 अलमारी भी होती है जो दोनों छात्र इस्तेमाल करते हैं. लाइट और पंखे लगे होते हैं. यदि कोई छात्र कमरे में कूलर लगाना चाहे तो वह अपने पैसे से लगवा सकता है.

एक छात्र ने बताया कि अगर पहले से हस्तक्षेप होता तो आकाश को बचाया जा सकता था. जेएनयू में ?ोलम, सतलुज, पेरिया, कावेरी, नर्मदा माहीमांडवी, ब्रह्मपुत्र छात्रावास लड़कों के लिए जबकि गंगा, कोइना, शिप्रा और गोदावरी लड़कियों के लिए हैं. वहीं साबरमती, ताप्ती, लोहित, चंद्रभागा में लड़के और लड़कियां दोनों रहते हैं. महानदी छात्रावास में शादी- शुदा कपल्स रहते हैं. इन में से कुछेक छात्रावास को छोड़ कर कोई चैकिंग नहीं होती है अगर चैकिंग होती तो आकाश अपने बैग में रख कर पिस्तौल, कुल्हाड़ी या फिर सल्फास की गोलियां ला ही नहीं पाता.

कहने को तो एक छात्रावास में 4 वार्डन की व्यवस्था है पर यदि ?ोलम की बात करें तो यहां कभी भी वार्डन चैकिंग करने के लिए नहीं आता. साल में कभीकभार एक बार आ जाए तो गनीमत सम?िए. वार्डन की यहां अलग ही मजबूरी होती है. कुछ छात्र ऐसे हैं जो गैरकानूनी तरीके से यहां रहते हैं. हालांकि प्रशासन ने हाल ही में सतलुज होस्टल में 3 छात्रों पर अपने कमरे में गलत तरह से अतिथि को ठहराने को ले कर 5-5 हजार रुपए का जुर्माना लगाया है.

कुलपति प्रो. सुधीर कुमार सोपोरी का कहना है कि अभिभावक चिंता न करें, कैंपस सुरक्षित है. लेकिन सवाल उठता है कि महज कुछ छात्रों पर जुर्माना लगाने से क्या होगा? प्रशासन उन छात्रों पर भी कार्यवाही करे जो गैरकानूनी तरीके से रहते हैं और छात्रावास के नियमों का पालन नहीं करते. समयसमय पर कैंपस के होस्टलों में क्या हो रहा है, उस की नियमित जांच क्यों नहीं होती इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता?

एक छात्र ने बताया कि आकाश यहां पढ़ने आया था, किसी की हत्या करने नहीं. पिछले कुछ दिनों से वह बहुत परेशान रहता था और उस ने बातचीत करनी भी कम कर दी थी. रोशनी उस के कमरे में आतीजाती थी लेकिन कुछ दिनों से उस ने भी आना बंद कर दिया था. शायद, इसीलिए वह परेशान रहने लगा था. आकाश को अगर सही समय पर  काउंसलिंग मिल जाती तो वह संभल सकता था. विश्वविद्यालय की तरफ से पार्टटाइम काउंसलर हैं पर वे कब आते हैं और कब चले जाते हैं, इस बारे में पता ही नहीं लगता.

रोशनी के भाई सुधीर गुप्ता का कहना है कि आकाश से मेरी बहन का कोई कभी रिलेशनशिप रहा ही नहीं. अगर वक्त रहते वे अपनी बहन का हालचाल ले लेते तो उन्हें आज यह दिन देखना नहीं पड़ता. छात्रावास में अपने बच्चों को भेज कर मातापिता निश्ंिचत हो जाते हैं कि अब उन की जिम्मेदारी एक तरह से खत्म हो गई है. बच्चा छात्रावास में क्या कर रहा है, उस के साथ क्या हो रहा है, यारदोस्तों की संगत कैसी है, सब से बड़ी बात पढ़ाई को ले कर वह कितना सीरियस है, इन सब की वे कोई जानकारी नहीं लेते. जबकि अब जब लड़कालड़की एक ही कालेज में पढ़ने लगे हैं, उन में दोस्ती हो जाना कोई नई बात नहीं रह गई है. ऐसे में दोनों के बीच आकर्षण की भावना किस हद तक बढ़ रही है, इस ओर भी मातापिता को ध्यान देना बहुत जरूरी है.

मातापिता पूरी तरह से बच्चे को अपने भरोसे में ले कर उन्हें भविष्य के प्रति जागरूक बना सकते हैं. कैरियर उन के भविष्य के लिए कितना जरूरी है और उस के बाद सब चीजें वह कितनी आसानी से हासिल कर सकता है, यदि मातापिता यह बात अपने बच्चे को सम?ाने में सफल हो जाते हैं तो काफी हद तक छात्रावास में रह कर भी बच्चा अपना ध्यान दूसरी बातों की तरफ से हटा कर अपनी पढ़ाई पर केंद्रित रख सकता है.

आकाश और रोशनी के प्रकरण में दोनों को सम?ाने में मातापिता की भूमिका नगण्य रही. उन्हें कुछ पता नहीं था कि  छात्रावास में दोनों कितना पढ़ रहे हैं या उन दोनों के बीच क्या चल रहा है. हालांकि आजकल मातापिता के लिए यह मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं. आकाश पूरी तरह से रोशनी को अपना सम?ा उस की पढ़ाईलिखाई में मदद करता रहा और दूसरी तरफ शायद रोशनी उस का फायदा उठाती रही. इसी का नतीजा रहा कि रोशनी तीसरे साल में पहुंच गई और आकाश फेल हो गया.

इन सब बातों को देखते हुए क्या कहा जाए कि गलती सिर्फ आकाश की है? नहीं, गलती उस के मातापिता की भी है, कालेज प्रशासन की भी है, रोशनी की भी है और उन सब हालात की भी जिन के चलते आकाश ने आगापीछा न सोचते हुए, प्यार के आवेश में रोशनी के मतलबीपन का बदला लेने के लिए उसे मौत के मुंह में धकेल दिया और खुद भी मौत के आगोश में चला गया.

यह भी सच है कि सही समय पर काउंसलिंग न होने और सही गार्जियनशिप न मिलने के चलते आकाश मातापिता की उन तमाम खुशियों को दफन करने को मजबूर हो गया जो कभी उन बेचारों ने उस के जन्म लेते ही संजो ली थीं. ऐसी घटनाओं के बाद भी अगर शिक्षा प्रशासन अभिभावक और बच्चे कोई सीख नहीं लेते तो ऐसी घटनाएं बारबार पत्रपत्रिकाओं की सुर्खियां बनती रहेंगी.

ब्लैकमेलिंग का फसाद यौनशोषण

खुदगर्जी से कायम नाजायज रिश्ते रजामंदी से शुरू हो कर ब्लैकमेलिंग का षड्यंत्रकारी जाल किस तरह बुनते हैं, यह मध्य प्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री राघवजी के मामले से परिलक्षित है. सैक्स, सीडी और सियासत के ये मामले सियासतदानों के राजनीतिक कैरियर में अकसर भूचाल लाते हैं.

मध्य प्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता 80 वर्षीय राघवजी को 34 दिनों तक जेल में रहने के बाद हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया. जेल में डाले जाने से पहले वे कलियुगी हरकतें करते रहे थे. 4 जुलाई को राघवजी के बंगले पर रह रहे उन के एक 20 वर्षीय नौकर राजकुमार दांगी ने उन पर यह इल्जाम मढ़ते न केवल सूबे बल्कि देशभर की सियासत में हाहाकार मचा दिया था कि राघवजी 3 सालों से उस का यौन शोषण कर रहे थे और एवज में सरकारी नौकरी का लालच देते थे. इस बाबत राजकुमार ने बतौर सुबूत कुछ सीडियां भी पेश की थीं जो सार्वजनिक हुईं तो राघव जी को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. रिपोर्ट दर्ज होने के बाद उन्हें भारतीय दंड संहिता की धाराओं-377, 506 (बी) और 34 के तहत गिरफ्तार हो कर जेल की हवा खानी पड़ी.

एक हफ्ते तक इस मामले पर काफी गरमागरमी रही. लोगों को हैरानी इस बात को ले कर थी कि राघवजी जैसा इज्जतदार नेता आखिरकार कैसे इस ?ामेले में पड़ गया. इस पर विदिशा के एक भाजपा नेता का कहना है कि वित्त मंत्रालय का प्रबंधन 10 साल तक कामयाबी से करने वाले राघवजी इस लड़के को अगर ‘सलीके’ से ‘मैनेज’ कर लेते तो उन्हें ये दिन न देखने पड़ते.

सलीके से मैनेज कर लेने के शब्दों के पीछे छिपी मंशा साफ है कि राघवजी राजकुमार की मांगें पूरी करते रहते यानी ब्लैकमेल होते रहते और इसलिए होते रहते कि वे अपनी एक जरूरत राजकुमार के जरिए पूरी कर रहे थे. यह जरूरत दरअसल एक कमजोरी थी जिसे राजकुमार जैसे लड़के बखूबी सम?ाते हैं और इस का फायदा भी उठाते हैं. जाहिर है, राघवजी ब्लैकमेल हो रहे थे और राजकुमार की मांगों व धौंस से आजिज आ चुके थे. अपनी कमजोरी या जरूरत का वाजिब भुगतान वे कर रहे थे पर राजकुमार दांगी को यह सम?ा आ गया था कि जो मिल रहा है उस से और ज्यादा भी ?ाटका जा सकता है और जब नाउम्मीदी हाथ लगी तो उस ने भाजपाई और कांग्रेसी नेताओं की मदद से ही सही, राघवजी का न केवल बुढ़ापा बल्कि राजनीतिक कैरियर भी तबाह कर दिया.

देश में न तो राघवजी जैसे नेताओं की कमी है और न ही राजकुमार जैसे कथित शोषितों की जो आपसी रजामंदी से संबंध बनाते हैं, कुछ समय तक ईमानदारी से इन्हें निभाते हैं पर फसाद उस वक्त खड़े होते हैं जब कोई एक पक्ष अपनी पर उतारू हो जाता है और राज खोल देता है या राज दबाए, बनाए रखने के लिए संगीन गुनाह कर बैठता है. राजकुमार चूंकि लड़का था इसलिए भी कुदरती तौर पर हल्ला ज्यादा मचा क्योंकि मामला 2 मर्दों के बीच नाजायज सैक्स संबंधों का था. इस से पहले के उजागर मामलों में एक पक्ष औरत होती थी.

कामयाब राजनेताओं का पल्लू थाम रातोंरात अमीर हो जाने और रसूखदार पद पा लेने के लिए बढ़ती महत्त्वाकांक्षी महिलाओं की फेहरिस्त काफी लंबी है. हर एक उजागर मामले में दोनों में से किसी एक पक्ष को इस की कीमत चुकानी पड़ी या फिर खमियाजा भुगतना पड़ा जिस से हर दफा साबित यह हुआ कि नाजायज रिश्ते खुदगर्जी के चलते कायम किए जाते हैं और इस में दोनों पक्षों की रजामंदी शुरू में होती है. दिक्कत उस वक्त पेश आती है जब कोई एक ब्लैकमेलिंग की धमकी देता है या फिर राघवजी की तरह और ज्यादा ब्लैकमेल होने से इनकार कर देता है.

और भी हैं मामले

सैक्स, सीडी और सियासत का यह पहला या आखिरी उजागर मामला नहीं था. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे दिग्गज कांगे्रसी नेता नारायण दत्त तिवारी अभी तक नाजायज संबंधों का खमियाजा ब्लैकमेलिंग और परेशानी की शक्ल में भुगत रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते उन के संबंध उज्ज्वला शर्मा नाम की महिला से हो गए थे और इस हद तक हो गए थे कि उज्ज्वला से उन का एक बेटा भी हुआ जिस का नाम रोहित शेखर है. जवानी की एक नादानी की कीमत आज तक एन डी तिवारी ब्लैकमेल हो कर चुका रहे हैं. कोर्टकचहरी से उन्हें फायदा नहीं हुआ, बदनामी मिली सो अलग.

सैक्सी सीडियों में भाजपा के महासचिव रहे संजय जोशी की भी सीडी खासी चर्चित रही थी जो दरअसल  भाजपा में आरएसएस के नुमाइंदे थे और खासा रुतबा था उन का. मुंबई में जब पार्टी सिल्वर जुबली जलसा मना रही थी तब यह सीडी बनाई गई थी जिस में जोशी एक महिला के साथ अंतरंग संबंध स्थापित कर रहे थे. शोर मचा तो उन्हें तमाम पदों से इस्तीफा देना पड़ा था. चर्चा यह रही थी कि इस सीडी को बनवाने के पीछे जोशी के धुर विरोधी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का हाथ था. बात हालांकि पूरी तरह साबित नहीं हुई लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ जोशी ने प्रचार शुरू किया तो नरेंद्र मोदी भागेभागे आरएसएस के मुख्यालय नागपुर में फरियाद ले कर पहुंचे थे.

राजनीतिक दुश्मनी निभाने की सीडियां बनाई जाती हैं, यह बात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पेशे से कामयाब वकील अभिषेक मनु सिंघवी की सैक्सी सीडी से भी उजागर हुई थी. अप्रैल 2012 में चर्चा में रही इस सीडी में साफसाफ दिख रहा था कि सिंघवी एक महिला से सहवास करते उसे जज बनाने का लालच दे रहे हैं. संजय जोशी की तरह सिंघवी भी अब गुमनाम सी जिंदगी जी रहे हैं, जो अप्रत्यक्ष षड्यंत्र का शिकार हुए. जाहिर है उन्हें सीधे ब्लैकमेल कराने के बजाय औरतों को लालच या पैसा दे कर मोहरा बनाया गया.

सुर्खियों में अनुराधा बाली उर्फ फिजा और चंद्रमोहन शर्मा उर्फ चांद मोहम्मद के संबंध भी रहे थे. हरियाणा के इस उपमुख्यमंत्री का दिल फिजा पर आया तो वे घर, परिवार और प्रतिष्ठा भूल उस से शादी कर बैठे. बात ज्यादा हर्ज की नहीं थी पर जल्द ही चांद का जी फिजा से भर गया तो वे उस से कन्नी काटने लगे और उसे एसएमएस के जरिए तलाक दे दिया. रहस्यमय हालात में अनुराधा की मौत हुई तो कई सवाल भी पैदा कर गई, जिन में अहम था कि क्या वह चंद्रमोहन शर्मा को ब्लैकमेल करने लगी थी या दबाव बनाने लगी थी.

जिन मामलों में पीडि़त ब्लैकमेल करने या दबाव बनाने में कामयाब नहीं हो पाया उन में उलटा हुआ. शोषक यानी रुतबेदार नेता पर ही हत्या का आरोप लगा. राजस्थान का भंवरी देवी हत्याकांड, उत्तर प्रदेश का मधुमिता शुक्ला और मध्य प्रदेश का शहला मसूद हत्याकांड इस की मिसाल बने.

ब्लैकमेलिंग और हत्याएं

सैक्स संबंधों के तमाम उजागर मामलों में साफ यह होता है कि रसूखदार नेताओं को जिस्मानी सुख देने वाले को लगता है कि उसे उतना नहीं मिल रहा है जितने का वह हकदार है. लिहाजा, वह राजकुमार दांगी और उज्ज्वला शर्मा की तरह पोल खोल देता है. पोल खोलने की हिम्मत इसलिए पड़ती है कि वह लंबे वक्त से संबंध बना रहा होता है. नेता की जरूरत बनतेबनते उस का भरोसा जीत कर पैसों के लालच में धोखा देना उसे फायदे का सौदा लगता है.

नेता के इर्दगिर्द पसरी ताम?ाम, शानोशौकत और शोहरत में हिस्से की चाहत उसे दगा देने को मजबूर करती है. इन में सब से अहम पैसा है. ये वे लोग हैं जो संबंध बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से भी पहल करते हैं. इन की नीयत बाद में बिगड़ती है. दबाव भी एकदम न बना कर ये धीरेधीरे मुंह फाड़ते हैं. तब तक नेता की स्वभावगत कमजोरियों और खूबियां से भी ये वाकिफ हो जाते हैं.

इस के उलट भंवरी देवी, मधुमिता शुक्ला या शहला मसूद जैसी औरतें ब्लैकमेल करने का हुनर न जानने की सजा भुगतती हैं. महीपाल मदेरणा, अमरमणि त्रिपाठी और धु्रवनारायण सिंह सरीखे नेताओं का खास कुछ नहीं बिगड़ता. कोई सैक्स संबंध नाजायज नहीं होता बशर्ते दोनों पक्ष बालिगऔर सहमत हों. छिप कर और छिपा कर सैक्स संबंध बनाना ब्लैकमेलिंग जैसी दुश्वारियां पैदा करने वाला होता है. यह बात मशहूर समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया की जिंदगी से साबित भी होती है जो बगैर शादी किए दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक अधिकारी रमा मित्रा के साथ जिंदगी भर रहे. खुद लोहिया का कहना था कि एक औरत और आदमी के बीच सबकुछ जायज है बशर्ते उन में वादाखिलाफी व ताकत का इस्तेमाल न हो.

लेकिन अब लालच के चलते अधिकांश मामलों में वादाखिलाफी भी हो रही है और ताकत का इस्तेमाल भी हो रहा है. नतीजतन, ब्लैकमेलिंग और हत्या जैसे जुर्म हो रहे हैं.

भाजपा के शत्रु

सियासत में स्वार्थी ऊंट कब किस करवट बैठ जाए कहा नहीं जा सकता. कल तक नरेंद्र मोदी और सुशील मोदी की माला जपने वाले अभिनेता कम नेता शत्रुघ्न सिन्हा आजकल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुणगान करते नहीं थक रहे. डायलौगबाजी के लिए मशहूर शत्रु सियासत का कौन सा ड्रामा खेल  रहे हैं, पढि़ए बीरेंद्र बरियार ज्योति के लेख में.

शौटगन यानी शत्रुघ्न सिन्हा ने एक बार फिर पौलिटिकल फायरिंग शुरू कर दी है. यह उन का पुराना चुनावी हथकंडा है. चुनाव के करीब आते ही वे फिल्मी स्टाइल में दहाड़ लगा कर सामने वाले को ‘खामोश’ करने की कवायद शुरू कर देते हैं. बिहार भाजपा के अंदर अगले लोकसभा चुनाव में शत्रुघ्न को बेटिकट करने की हवा ने उन्हें बौखला दिया है. सो, वे भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए ‘नीतीश चालीसा’ पढ़ने लगे हैं.

फिल्मों में तो शत्रुघ्न की ‘खामोश’ की गर्जना सुन कर सामने वाला चुप हो जाता था पर सियासत में उन का यह मशहूर डायलौग लोगों को कई तरह की बातें बोलने को उकसा देता है. सियासत में लोगों को खामोश होने के बजाय बकबक करने में ज्यादा महारत हासिल होती है. कुछ दिन पहले ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने के खिलाफ बोल कर शत्रु भाजपा की काफी फजीहत करा चुके थे और अब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तारीफ में कसीदे पढ़ कर नया बावेला खड़ा कर दिया.

‘नीतीश कुमार में पीएम मैटेरियल है’ और ‘बिहार में राजग गठबंधन के टूटने के लिए नीतीश जिम्मेदार नहीं हैं’ यह कह कर शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी पार्टी भाजपा की छीछालेदर कर दी. गठबंधन टूटने के बाद से भाजपा लगातार नीतीश कुमार और उन की सरकार पर हमले कर रही है और कई मसलों पर उन्हें कठघरे में खड़ा कर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई है. ऐसे में उस के ही एक सांसद ने नीतीश की तारीफों के पुल बांध कर उस की राजनीति को मटियामेट कर डाला. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि शत्रु अकसर अपने नाम के लिहाज से ही काम करते हैं. दोस्ती निभाना उन की फितरत में नहीं है. जहां रहते हैं वहां वे ‘शत्रु’ की तरह व्यवहार करते हैं, इसी वजह से फिल्म इंडस्ट्री और राजनीति में उन्होंने अपने कई ‘शत्रु’ खड़े कर लिए हैं.

दरअसल, भाजपा में यह मंथन चल रहा है कि पटना साहिब लोकसभा सीट से इस बार सुशील कुमार मोदी को उतारा जाए. यह बात उसी समय साफ हो गई थी जब नीतीश सरकार से अलग होने के बाद भाजपा ने नंदकिशोर यादव को विधानसभा में विरोधी दल का नेता बना दिया था. सुशील कुमार मोदी के बजाय नंदकिशोर यादव को यह पद देने के पीछे पार्टी की मंशा यही है कि मोदी को पटना साहिब सीट से चुनाव लड़ाया जाए. मोदी पहले भी मध्य पटना से 3 बार विधायक रह चुके हैं. अपनी सीट पर मोदी की दावेदारी की सुगबुगाहट ने बिहारी बाबू को बौखला दिया. नीतीश की तारीफ कर वे इस जुगाड़ में लग गए हैं कि उन की प्रैशर पौलिटिक्स से घबरा कर भाजपा उन्हें दोबारा पटना साहिब की सीट से चुनाव लड़ाने को राजी हो जाए और अगर ऐसा नहीं होता है तो वे जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ कर भाजपा को उस की औकात बता सकें. जदयू के प्रवक्ता ने तो शत्रुघ्न सिन्हा को जदयू में शामिल होने का न्यौता भी दे डाला है.

सिनेमा में खलनायक के तौर पर अपने ऐक्ंिटग कैरियर की शुरुआत करने वाले शत्रुघ्न बाद में भले ही नायक बन गए पर 80 के दशक में सियासत में उतरने के बाद से अब तक उन के भीतर दबाछिपा खलनायक कई बार बाहर आता रहा है. चुनाव आते ही उन की सियासी खलनायकी कुछ ज्यादा ही तेज हो जाती है.

1996 में भाजपा ने उन्हें पहली बार राज्यसभा का सदस्य बनाया और फिर 2002 में भी उन्हें राज्यसभा भेजा गया. 2009 में भाजपा ने पटना साहिब संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया और वे करीब ढाई लाख वोट से जीत गए. केंद्र में राजग सरकार के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा को 2 बार कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया. 2003 में उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और 2004 में जहाजरानी मंत्री बनाया गया था. इस के बाद भी उन्हें हमेशा यह महसूस होता रहा कि उन की क्षमता का भाजपा ने बेहतर इस्तेमाल नहीं किया. उन की इस सोच पर भाजपा के एक नेता दबी जबान में कहते हैं कि या तो पार्टी ने उन्हें अंडरएस्टीमेट किया या वे खुद को ओवरएस्टीमेट करते रहे हैं.

पिछले 2 महीने से जब भाजपा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजैक्ट करने की मुहिम में लगी हुई है, तो शत्रुघ्न ने पार्टीलाइन से बाहर जा कर मोदी के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया. उन का मानना है कि पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सीनियर और काबिल नेताओं को किनारे लगा कर नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ किया जा रहा है, जो ठीक नहीं है. भाजपा अपने दोस्त ‘शत्रु’ के दिए इस दर्द को सहला ही रही थी कि अब नीतीश कुमार के नाम की माला जप कर शत्रुघ्न ने उस के दर्द को कई गुना ज्यादा बढ़ा दिया है. गौरतलब है कि 2004 में उन्होंने राजद सुप्रीमो लालू यादव के नाम का ढोल पीटा था, पर लालू ने उन्हें नचनियाबजनिया नेता बता कर उन की बोलती बंद कर दी थी.

जब नीतीश कुमार ने बिहार को स्पैशल स्टेट का दरजा देने की मांग करते हुए 16 मार्च को दिल्ली में अधिकार रैली का आयोजन किया था और उस मुहिम से भाजपा को अलग रखा था तो शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कह कर नीतीश कुमार को ‘खामोश’ कर दिया था कि गुजरात में ‘नमो’ (नरेंद्र मोदी) के बाद अब बिहार में ‘सुमो’ (सुशील मोदी) की बारी है. नमो और सुमो की जोड़ी अगर मिल कर काम करेगी तो लोकसभा चुनाव में शानदार कामयाबी मिलनी तय है. वही शत्रुघ्न अब ‘नमो’ और ‘सुमो’ को भूल कर ‘नीकु’ (नीतीश कुमार) की चापलूसी में लग गए हैं, ताकि भाजपा से बेटिकट होने पर जदयू से टिकट ले कर चुनावी रेलगाड़ी पर सवार हो सकें.

2014 में होने वाला लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार और भाजपा के लिए ऊहापोह वाला और अपनीअपनी इज्जत बचाने की कवायद से भरा होगा. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं, जिन में 20 पर जदयू और 12 पर भाजपा का कब्जा है.  4 सीटें राजद, 2 सीटें कांगे्रस और 2 सीटें निर्दलीयों की ?ोली में हैं. 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जहां जदयू को 22.58 फीसदी वोट मिले थे वहीं भाजपा ने 16.49 फीसदी वोट हासिल किए थे. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे कहते हैं कि 2004 और 2009 के आम चुनाव में भाजपा चूक गई थी पर अगले चुनाव में नहीं चूकेगी, शत्रुघ्न सिन्हा की सियासी डायलौगबाजी का भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 

ये पति

मेरे पति मजाक में अकसर ऐसी बात बोल देते थे जो मु?ो अच्छी नहीं लगती थी. एक दिन मेरी सास को अचानक सीने में तेज दर्द उठा. लगा कि वे अब नहीं बचेंगी. हम सभी घबरा गए. डाक्टर को बुला कर पूरी जांच कराई तो पता चला कि कोई खास बात नहीं है, सिर्फ गैस थी. डाक्टर ने दवा दी और कहा कि 1-2 दिनों में पूरी तरह ठीक हो जाएंगी. उसी दिन हमारा दूध वाला अपने पोते के जन्म की खुशी में ज्यादा दूध दे गया, सो मैं ने खीर बना दी. मेरे पति खीर खाने के बाद बोले, ‘‘मां, देखो, तुम्हारे जाने की खुशी में तुम्हारी बहू ने आज खीर बनाई है.’’

मु?ो उन की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी. इस बार मैं भी चुप रहने वाली नहीं थी. मैं भी बोल पड़ी, ‘‘आप तो इतने खुश थे कि मां के जाने के बाद यह बंगला, गाड़ी, जमीन और जायदाद सबकुछ आप के नाम हो जाएगा, इसी खुशी में अपने हिस्से की खीर के साथसाथ मेरे हिस्से की भी खीर मांग कर स्वाद लेले कर खा गए.’’ इतना सुनते ही मेरे पति का मुंह देखने लायक था. इस के बाद दोबारा उन्होंने मजाक नहीं किया.

अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.)

 

मेरी शादी हुए सिर्फ 6 महीने हुए थे.  भोपाल से बेगमगंज हम लोगों को बस से जाना था. भीड़ बहुत थी. जैसे ही बस आई, ये बोले, ‘‘दौड़ के चढ़ो.’’ मैं दौड़ी और आगे के दरवाजे से अंदर चढ़ गई, ये पिछले दरवाजे से चढ़ पाए. हम दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हो गए. तभी कंडक्टर मेरे पास कर बोला, ‘‘कहां तक जाना है? पैसे निकालिए.’’ मैं बोली, ‘‘भैया, बेगमगंज जाना है, मेरे पतिदेव पीछे हैं, वे टिकट ले लेंगे.’’ कंडक्टर दूध का जला था, बोला, ‘‘मैं पीछे कहां ढूंढूंगा, आप पैसे दीजिए, ऐसे ही बोल कर लोग सफर कर लेते हैं. अच्छा ठीक है, नाम बताइए उन का.’’

मैं ने नाम बताया, ‘‘गिरीश वर्मा’’. उस ने आवाज लगानी शुरू की, ‘‘गिरीश वर्मा कौन हैं?’’ उधर से कोई आवाज नहीं आई. दरअसल, मेरे पति खड़ेखड़े सो गए थे. कंडक्टर गुस्से में चिल्ला कर बस के ड्राइवर से बोला, ‘‘रोको भाई, बिना टिकट सवारी है.’’ मैं रोंआसी हो गई. बस एक ?ाटके से रुक गई. जैसे ही बस को ?ाटका लगा इन की नींद टूट गई, अधखुली आंखों से बगल वाले यात्री से पूछा, ‘‘कौन सी जगह आ गई, भाई?’’

वह बोला, ‘‘कोई सी नहीं आई भाई, बिना टिकट सवारी है, उसे उतारा जा रहा है.’’ कुतूहल से ये ?ांक कर देखने लगे तो गुस्से और क्रोध से भरी मैं नजर आई. ये दौड़ कर कंडक्टर के पास आए. सारा मामला पलक ?ापकते सुल?ा गया, फिर तो ये पूरे रास्ते सिर्फ माफी ही मांगते रहे.

आराधना सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

लैपटौप का लौलीपौप

समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मेधावी छात्रों को हर साल करोड़ों रुपए के लैपटौप व टैबलेट बांटने की घोषणा कर के चुनावी समर भले ही जीत लिया पर इस वादे को पूरा करने के लिए सरकार को न केवल अपने खजाने को खाली करने के लिए विवश होना पड़ रहा है बल्कि प्रदेश की जनता की गाढ़ी कमाई को बरबाद करने के आरोप में जनता की अदालत में खड़ा भी होना पड़ रहा है. पेश है शैलेंद्र सिंह का यह लेख.

विधानसभा चुनाव के समय समाजवादी पार्टी यानी सपा ने युवाओं को लुभाने के लिए मुफ्त में इंटर पास करने वालों को लैपटौप और हाईस्कूल पास करने वालों को टैबलेट देने की बात कही थी. बेरोजगारी भत्ता देना भी इसी कड़ी का एक फैसला था. युवाओं ने भी सपा को अपना पूरा समर्थन दिया. बहुमत से पार्टी जीती और अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. चुनावी घोषणा करते समय सपा को इस बात का ज्ञान नहीं था कि इन योजनाओं से जनता पर कितना बड़ा बो?ा पड़ जाएगा.

उत्तर प्रदेश में इंटर यानी कक्षा 12 पास करने वालों की संख्या 15 लाख है. हाईस्कूल पास करने वालों की संख्या साल 2012 में 26 लाख से बढ़ कर साल 2013 में 28 लाख हो गई. अखिलेश सरकार के लिए इतनी बड़ी संख्या में लैपटौप और टैबलेट्स का इंतजाम करना मुश्किल हो गया. सरकार बनने के 1 साल बाद 11 मार्च को अखिलेश यादव ने इंटर पास करने वाले मुट्ठीभर छात्रों को लैपटौप बांटने की शुरुआत लखनऊ से की.

जुलाई 2013 तक सरकार केवल1 लाख 25 हजार छात्रों को ही लैपटौप बांट पाई है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि 15 लाख छात्रों को हर साल लैपटौप बांटना कितना मुश्किल काम है. अगर अगस्त 2013 तक के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि सरकार को 26 लाख टैबलेट की जरूरत हाईस्कूल के छात्रों के लिए है. एक टैबलेट की कीमत 5 हजार रुपए है. इस तरह हाईस्कूल के छात्रों को टैबलेट देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को करीब 1,300 करोड़ रुपयों की जरूरत होगी.

इंटर पास छात्रों को जो लैपटौप दिए जा रहे हैं उन की कीमत 19 हजार 58 रुपए है. ऐसे में सरकार को 15 लाख बच्चों को लैपटौप बांटने के लिए 2,850 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ रही है. हाईस्कूल और इंटर के छात्रों को लैपटौप और टैबलेट देने के लिए सरकार को हर साल 4,150 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी. इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करना सरकार के लिए आसान काम नहीं है. 5 साल में सरकार को करीब 75 लाख लैपटौप और 1 करोड़ 25 लाख टैबलेट बांटने हैं. सरकार साल 2017 तक लैपटौप बांट पाएगी, इस पर सवालिया निशान लगने लगे हैं. 

उत्तर प्रदेश इलैक्ट्रौनिक कौर्पोरेशन के विश्व के सब से बड़े टैंडर में हिस्सा लेने के लिए एचसीएल, लेनोवो, एसर और एचपी के बीच होड़ लगी थी. बाजी एचपी ने मार ली. उत्तर प्रदेश इलैक्ट्रौनिक कौर्पोरेशन ने 15 लाख लैपटौप खरीदने का और्डर कंपनी को दे रखा है.  जानकारी के मुताबिक, 9 लाख लैपटौप एचपी ने सरकार को भेज दिए हैं. इन में से तकरीबन डेढ़ लाख लैपटौप ही बंट पाए हैं. बाकी लैपटौप गोदामों में बंद पड़े हैं. जिला प्रशासन स्कूलों में इन लैपटौप को रखवा देती है. कई जगहों पर ठीक तरह से लैपटौप न रखने से ये खराब भी होने लगे हैं. संभल में कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव जब लैपटौप बांटने पहुंचे तो कुछ लैपटौप के कागज वाले कवर में दीमक लग चुकी थी. जानकारी मिलने पर आननफानन उन लैपटौप को बदला गया.   

वौलपेपर से जूझ रहे छात्र

इंटर पास करने वाले छात्रों को अखिलेश सरकार ने जो लैपटौप दिए हैं उन्हें एचपी कंपनी से खरीदा गया है. इन लैपटौप में 1 जीबी रैम, 1 जीबी ग्राफिक कार्ड और 500 जीबी हार्ड डिस्क है. एक वौलपेपर खासतौर पर सैट किया गया है जिस से लैपटौप के खुलते ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की फोटो दिखती है. यह वौलपेपर बायोस पर लगा है जिस से इसे हटाना मुश्किल काम है. इस के बावजूद लैपटौप मिलने के बाद छात्र सब से पहले इस वौलपेपर को ही हटाने की कोशिश करते हैं, जिस के चलते उन का लैपटौप खराब हो जाता है. एचपी कंपनी ने लैपटौप पर 1 साल की वारंटी दे रखी है. कंपनी इस वौलपेपर को नहीं हटाती है. ऐसे में लैपटौप पाने वाले छात्र इसे हटवाने के लिए लैपटौप को कंप्यूटर रिपेयर करने वाली दुकानों में ले जाने लगे हैं.

लखनऊ में नाका हिंडोला में कंप्यूटर की बड़ी मार्केट है. यहां कुछ दुकानदारों ने चोरीछिपे इस वौलपेपर को हटाने के लिए काम करना शुरू कर दिया है. बच्चे अब 400 से 500 रुपए खर्च कर वौलपेपर को हटवाने लगे हैं. इस की वजह बताते हुए एक छात्र का कहना है, ‘‘हम अपनी पसंद का वौलपेपर लगाना चाहते हैं. इस वौलपेपर को देख कर पता चल जाता है कि यह मुफ्त का लैपटौप है. ऐसे में सामने वाले की नजर में लैपटौप का महत्त्व घट जाता है.’’  

किस काम का लैपटौप

लैपटौप पाने वाले बच्चे इस का उपयोग केवल लैपटौप पर गाना सुनने, गेम खेलने और फिल्म देखने में करते हैं. लैपटौप पाने वाले बच्चों के मातापिता का मानना है कि अगर लैपटौप की जगह पर सरकार ने 20 हजार रुपए दिए होते तो शायद बच्चों की ग्रेजुएशन की पढ़ाई का खर्च निकल जाता. लखनऊ की रहने वाली एक छात्रा बताती है, ‘‘मैं बीए की पढ़ाई कर रही हूं. इस में लैपटौप की कोई जरूरत नहीं है. युवाओं में लैपटौप का बड़ा क्रेज है. इस कारण छात्र इस को लेना चाहते हैं. मेरा लैपटौप मेरे तो नहीं पर पापा के काम आ रहा है. वे उस पर अपना काम करते हैं.’’

गांव में रहने वाले कुछ बच्चों के पास लैपटौप रखने की जगह तक नहीं है. ऐसे में कई बच्चों ने तो लैपटौप बेच भी दिए हैं. सरकार को यह पता है. इस कारण सरकार ने लैपटौप और कंप्यूटर का कारोबार करने वालों से कहा है कि वे इस लैपटौप को न खरीदें. गांव में रहने वाले एक लड़के का कहना है, ‘‘जब तक यह चल रहा है, हम लोग फिल्म देखने के उपयोग में इस को ला रहे हैं. हमें इस के उपयोग का सही तरीका नहीं आता है.’’  

लैपटौप बांटने पर करोड़ों का खर्च

जनता पर केवल लैपटौप के खरीदने का बो?ा ही नहीं पड़ रहा है, इस के बांटने में भी करोड़ों रुपयों का बो?ा पड़ रहा है. अब तक लैपटौप बांटने का काम केवल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के जरिए ही होता रहा है. ऐसे में उन के आनेजाने व सम्मान समारोह को आयोजित करने में करोड़ों खर्च हो रहे हैं. लैपटौप बांटने की गति को तेज करने के लिए इस काम में सपा के बड़े नेताओं और जिलों के प्रभारी मंत्रियों को भी लगाया गया है. लैपटौप बांटने से पहले अखबारों और खबरिया चैनलों पर ‘यशस्वी भव’ का एक विज्ञापन चलता है, जिस पर भी लाखों  रुपए खर्च हो रहे हैं.

कांग्रेस के लखनऊ शहर अध्यक्ष डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘लोकलुभावन घोषणाओं को करने से पहले अगर सही अनुमान लगाया गया होता तो ज्यादा अच्छा होता. इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए विकास कामों का पैसा इस में लगाया जा रहा है. बिजली की दरों में 35 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई.’’ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता डा. मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘‘सरकार लैपटौप दिए जाने के बजाय उस के आयोजन और प्रदर्शन पर ज्यादा खर्च कर रही है. सरकार को इस खर्च का पूरा विवरण जनता के सामने रखना चाहिए.’’

बहरहाल, चुनावी जंग को जीतने के लिए समाजवादी पार्टी ने हर साल 2,850 करोड़ रुपए के लैपटौप और 1,300 करोड़ रुपए के टैबलेट बांटने की बात कह कर प्रदेश की जनता पर 4,150 करोड़ रुपए का सालाना बोझ तो डाल ही दिया है.

अवैध रेत खनन – लोकतंत्र में लूटतंत्र की ताकत

देशभर के प्राकृतिक संसाधनों को गिद्ध की तरह नोचने वाले माफिया अपने सियासी रसूख की बदौलत खुलेआम नदियों का सीना चीर कर बालू का अंधाधुंध अवैध खनन करते रहते हैं. लेकिन जब दुर्गा शक्ति नागपाल जैसी ईमानदार अफसर की दखलंदाजी इन के मंसूबों के आड़े आती है तो फिर सत्ता में बैठे लोग स्वार्थ की खातिर इन माफियाओं को किस तरह पनाह देते हैं, पढि़ए अभिषेक कुमार सिंह की रिपोर्ट में.

अरसे से देश में प्राकृतिक संसाधनों को खुलेआम लूट रहे खनन माफिया को किस तरह राजनेताओं और राजनीतिक दलों का संरक्षण प्राप्त है, इस की एक मिसाल दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले में देखने को मिली. यहां पिछले कुछ समय से खनन माफिया के खिलाफ कार्यवाही कर रहीं युवा आईएएस अधिकारी, जिले की सबडिवीजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) दुर्गा शक्ति नागपाल को एक निर्माणाधीन मसजिद की दीवार गिराने के आरोप में 27 जुलाई को रातोंरात हटा दिया गया.

इस बारे में स्थानीय नेता और उत्तर प्रदेश एग्रो कौर्पोरेशन के चेयरमैन नरेंद्र भाटी ने एक सभा में यह दावा किया कि गे्रटर नोएडा के रबूपुरा स्थित कादलपुर गांव में मसजिद की दीवार गिराने की शिकायत मुख्यमंत्री से करने के 41 मिनट के अंदर एसडीएम के निलंबन का आदेश जारी किया गया. उन्होंने जोर दे कर यह भी कहा कि लोकतंत्र की ताकत का नतीजा है कि कोई सरकारी अधिकारी मनमाने ढंग से काम नहीं कर सकता. उस के ऊपर जनता द्वारा चुनी गई सरकार है जो ऐसे अधिकारियों को तुरंत हटा सकती है. भाटी का यह बयान टीवी चैनलों पर बारबार दिखाया गया, फिर भी बाद में वे अपने इस बयान से पलट गए.

दरअसल, भाटी ने खुद उक्त एसडीएम को हटाने की साजिश रची थी क्योंकि वे उन के चहेते रेत खनन माफिया के कामकाज में रोड़े अटका रही थीं. एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल ने भाटी का संरक्षण प्राप्त अवैध खनन के धंधेबाज ओमेंद्र खारी के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी और उस का खनन का काम रुकवा दिया था. ऐसा कहा जा रहा है कि ओमेंद्र के खिलाफ कार्यवाही से नाराज नरेंद्र भाटी ने योजना बना कर पहले तो कादलपुर गांव के लोगों को 50 हजार रुपए दे कर बिना प्रशासनिक अनुमति लिए मसजिद बनाने को कहा और फिर खुद ही इस की शिकायत एसडीएम से कर दी. इस पर जिला मजिस्ट्रेट रविकांत सिंह से मौखिक आदेश ले कर दुर्गा शक्ति नागपाल गांव में गईं और गांव वालों से निर्माणाधीन मसजिद की दीवार गिराने को कहा, जिस पर गांव वालों ने फौरन अमल किया. दीवार गिराए जाने के तुरंत बाद भाटी ने इस की शिकायत यूपी सरकार से की. अपनी शिकायत में उन्होंने यह कहा कि इस से गांव का सांप्रदायिक माहौल बिगड़ सकता है, लिहाजा एसडीएम को हटाया जाना चाहिए.

दुर्गा शक्ति के निलंबन पर हरकत में आई आईएएस लौबी मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में ले गई लेकिन प्रदेश सरकार अपना फैसला पलटने को राजी नहीं हुई. बताया जाता है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव से नरेंद्र भाटी की नजदीकियों के चलते सरकार अपना गलत फैसला वापस नहीं ले पा रही है.

कुल मिला कर यह घटना साबित करती है कि देश में अवैध रूप से जमीनों और नदियों का खनन कर रहे माफिया तंत्र का राजनीतिक दलों के साथ कितना गहरा गठजोड़ है. चूंकि इस सुनियोजित गठजोड़ में सब का हिस्सा तय है इसलिए इस के खिलाफ कारगर कार्यवाही करना मुश्किल होता जा रहा है. जब प्रशासन इस बारे में कोई तत्परता दिखाता है तो राजनीतिक प्रभुत्व निजी स्वार्थवश उस में अड़ंगे डालता है. एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के साथसाथ गौतमबुद्ध नगर के खनन निरीक्षक आशीष कुमार के किए गए तबादले से इस गठजोड़ की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

बात सिर्फ रुकावट बन रहे अधिकारियों के निलंबन और तबादले तक सीमित नहीं रहती, बल्कि खनन माफिया ऐसे लोगों की हत्या करने तक से नहीं चूकता. दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के दौरान ही नोएडा और गे्रटर नोएडा में अवैध खनन के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले नोएडा के सैक्टर-126 के ग्राम रायपुर निवासी 52 वर्षीय पाले राम चौहान की 31 जुलाई को दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई. उल्लेखनीय है कि पाले राम चौहान ने इलाके में अवैध खनन करने वालों के खिलाफ शिकायत की थी, जिस के कारण वे खनन माफिया की आंख की किरकिरी बने हुए थे.

इसी तरह की एक घटना पिछले साल फरीदाबाद में हुई थी, जहां अवैध रूप से नदी से रेत उठा कर ले जा रहे एक डंपर को रोकने की कोशिश में ड्यूटी पर तैनात एक पुलिस कौंस्टेबल को उसी वाहन से कुचल दिया गया था. इसी तरह मध्य प्रदेश में एक युवा आईपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार को भी खनन माफिया के ट्रैक्टर से रौंद डाला गया था. यह स्पष्ट है कि अवैध रूप से नदियों से रेत निकालने का काम सिर्फ दिल्ली, नोएडा, हरियाणा में यमुना और हिंडन नदियों के आसपास ही नहीं हो रहा है बल्कि पूरे देश में गंगा, चंबल समेत हरेक नदी के आसपास खनन माफिया अवैध रूप से रेत का खनन कर रहे हैं. इस खनन के खिलाफ कई आवाजें उठी हैं. कई आंदोलन किए गए हैं लेकिन सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

अवैध खनन की अनदेखी की सब से बड़ी वजह है इस में होने वाला भारी मुनाफा. लागत के मुकाबले इस धंधे में कई गुना लाभ है. पुलिस, प्रशासन, नेताओं को मुनाफे का हिस्सा देने के बावजूद इस से जुड़े लोग जल्द ही करोड़पति हो जाते हैं. असल में, पिछले एकडेढ़ दशक में महानगरों के इर्दगिर्द जिस तेज गति से बहुमंजिली इमारतों, विशाल शौपिंग मौलों और शानदार आवासीय परियोजनाओं के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ है, उस के लिए कच्चे माल यानी रेत, बजरी और अन्य भवन निर्माण सामग्रियों की मांग बढ़ी है. इस जरूरत को साधने के लिए राज्य सरकारें खनन के वैध ठेके आवंटित करती हैं, पर उस से माल महंगा हो जाता है और पुलिस, प्रशासन व नेतागण समेत खनन माफिया के लिए भारी कमाई के अवसर भी सिकुड़ जाते हैं. लिहाजा, अवैध खनन कभी तो चोरीछिपे और कभी गठजोड़ कर खुलेआम किया जाता है.

सुदूर केरल से ले कर गोआ, कर्नाटक, ओडिशा और आंध्र प्रदेश से ले कर उत्तराखंड तक पूरे देश में रेत माफिया की सक्रियता के बारे में कई संगठन सरकार को आगाह कर चुके हैं. पिछले साल मानवाधिकार संगठन ‘ह्यूमन राइट्स वौच’ ने भारत के बेलगाम होते खनन उद्योग के बारे में टिप्पणी की थी कि सरकार देश के खनन उद्योगों में मानवाधिकारों और पर्यावरण संबंधी सुरक्षा मानकों को लागू करने में नाकाम रही है.

रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में खनन संबंधी प्रमुख नीतियां न तो सही तरीके से बनाई गई हैं और न ही उन्हें असरदार ढंग से लागू किया गया है. इस कारण देश में खनन गतिविधियां मनमाने ढंग से जारी हैं और यह उद्योग घोटालों से भरा पड़ा है. ऐसे अवैध उत्खनन से राजस्व की हानि तो होती ही है, इस से पर्यावरण पर भी खराब असर पड़ रहा है.

रेत का काला कारोबार

वैसे तो गौतमबुद्धनगर जिले के करीब 70 किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के किनारे स्थित लगभग 60 गांवों में छोटेबड़े स्तर पर खनन की गतिविधियां चलती रहती हैं, लेकिन इस से सब से ज्यादा प्रभावित इलाका दिल्ली के ओखला पक्षी विहार के दूसरे किनारे पर स्थित इसजिले का वह क्षेत्र है जहां लगभग प्रत्येक 400 मीटर की दूरी पर एक स्टोनक्रशर लगा है और नदी से रेत की खुदाई व ढुलाई का काम अनवरत चल रहा है. सिर्फ 8 किलोमीटर के दायरे में करीब 50 स्टोनक्रशर चल रहे हैं, जो कानून का उल्लंघन कर के चलाए जा रहे हैं.

यहां अवैध खनन के 2 रूप दिखाई देते हैं. एक तो है राजस्थान से पत्थर मंगा कर उन्हें तोड़ कर रोड़ी की शक्ल देना जिस का उपयोग सड़कों से ले कर इमारतों के लिए कंक्रीट की छत व दीवारें बनाने में होता है. दूसरे, यमुना व हिंडन नदी से बेहिसाब रेत निकालना जो किसी भी निर्माण कार्य के लिए बुनियादी रूप से जरूरी है. यमुना खादर इलाके में मामूली किराए में स्टोनक्रशर मालिकों को जमीन उपलब्ध हो जाती है, जबकि इस्तेमाल होने वाले पानी के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता. वह यमुना से बेहिसाब ढंग से खींचा जाता है.

इस धंधे में मुनाफे का गणित यह है कि राजस्थान से 4 हजार रुपए प्रति ट्रक के हिसाब से पत्थर मंगाए जाते हैं. इन्हें स्टोनक्रशर में तोड़ने पर हुए डीजल के खर्च, मजदूरी और पुलिस को इस धंधे की अनदेखी करने के एवज में दिए गए शुल्क के भुगतान के बाद यह कीमत 11 हजार रुपए प्रति ट्रक हो जाती है. बिल्डिंग मैटीरियल सप्लायरों को प्रति ट्रक रोड़ी न्यूनतम 15 हजार रुपए प्रति ट्रक के हिसाब से बेची जाती है. इसलिए स्टोनक्रशर मालिक को प्रति ट्रक 4 हजार रुपए मुनाफा होता है जो मांग बढ़ने की स्थिति में 7-8 हजार रुपए प्रति ट्रक या डंपर तक हो जाता है.

खनन का ज्यादा विकृत रूप यमुना व हिंडन से रेत की खुदाई के रूप में दिखाई देता है. बताते हैं कि डेढ़ दशक पहले नोएडा इलाके के करीब 60 गांवों के लोग ही घर बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर यमुना-हिंडन से रेत निकाला करते थे. लेकिन पिछले 10-12 वर्षों में यहां के रियल एस्टेट सैक्टर में आए उफान की बदौलत यमुना व हिंडन से मिलने वाली मुफ्त की रेत के अच्छे दाम मिलने लगे. शुरूशुरू में तो रेत निकालने वालों को लागत के मुकाबले 80 फीसदी तक मुनाफा हुआ करता था क्योंकि तब मांग के मुकाबले रेत सप्लाई करने वाले कम थे लेकिन मौजूदा स्थिति में दर्जनों की संख्या में रेत सप्लाई करने वालों के बावजूद यह मुनाफा 50 फीसदी तक है.

फिलहाल, सरकारी ठेके से एक डंपर भर कर मिलने वाली रेत की कीमत14 हजार रुपए है लेकिन इस के लिए खनन करने वाले, प्राधिकरण को प्रति ट्रक या डंपर के हिसाब से शुल्क चुकाते हैं. यदि इतनी ही रेत अवैध खनन करने वालों से ली जाए, तो सप्लायर को उस के बदले प्रति ट्रक या डंपर  10 हजार रुपए ही देने पड़ते हैं. मांग बढ़ने पर यह राशि 2 से 5 हजार रुपए प्रति ट्रौली और 16 से 17 हजार रुपए प्रति डंपर हो जाती है. अवैध ढंग से खनन करने वाले माफिया गिरोहों को यमुना व हिंडन से निकाली गई रेत पर कोई शुल्क या टैक्स भी नहीं देना पड़ता है, इसलिए उन का मुनाफा काफी ज्यादा हो जाता है. हालांकि इस की भरपाई उन्हें पुलिस व प्रशासन (प्राधिकरण) के संबंधित अधिकारियोंकर्मचारियों को हर महीना सुविधाशुल्क यानी चंदा दे कर चुकानी पड़ती है. इस के बावजूद उन का 50 फीसदी मुनाफा तय माना जाता है.

मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि अकेले नोएडा क्षेत्र में ही करीब 1 करोड़ रुपए की रेत रोजाना यमुना और हिंडन से निकाली जाती है. जबकि यमुना खादर से सक्रिय अवैध खनन माफिया का कुल कारोबार प्रति माह 90 करोड़ रुपए का बताया जाता है. कहा जा रहा है कि कुल मिला कर यह 500 करोड़ के आसपास का अवैध कारोबार है. खनन के इस काम में कुल कितने लोग अवैध और वैध ढंग से लगे हैं, इस का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है पर एक आकलन के अनुसार तकरीबन 600 लोग इस धंधे में लगे हुए हैं. इन में प्रदेश में सत्ताधारी नेताओं के करीबी माने जाने वाले खनन माफिया का बड़े इलाके में होने वाली खनन गतिविधियों पर कब्जा है.

गठजोड़ का नतीजा

यदि कोई व्यक्ति कानूनी रूप से यमुना या हिंडन नदी से रेत निकालना चाहे तो इस की राह आसान नहीं है. इस के लिए सब से पहले सरकार का खनन विभाग जमीन या नदी के उन इलाकों को चिह्नित करता है जहां ऐसा खनन हो सकता है और जिस का पर्यावरण पर ज्यादा खराब असर पड़ने की आशंका नहीं होती है. इलाके की पहचान के बाद राज्य सरकार को खनन के कारण पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन कर के एक रिपोर्ट (एनवायर्नमैंट इंपैक्ट असेसमैंट यानी ईआईए को देनी होती है.

ईआईए की मंजूरी के बाद खनन विभाग चिह्नित इलाके के लिए खुली बोली के जरिए निविदाएं आमंत्रित करता है. ठेका हासिल करने वाले से लिए गए शुल्क को सरकारी खजाने में जमा कराया जाता है. कुल मिला कर यह प्रक्रिया बेहद लंबी है और चुने हुए इलाके में ही खनन की इजाजत मिलती है. लिहाजा, इस से न तो जरूरतें पूरी होती हैं और न ही खनन करने वाले को रातोंरात भारी मुनाफा हासिल होता है. इसलिए खनन माफिया का अवैध तंत्र विकसित हुआ है और सत्ता के गठजोड़ से यह नदियों को मनमाने ढंग से जब चाहे, जहां चाहे खंगाल रहा है.

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