Download App

मोदी से बेहतर शिवराज

भाजपा ने पीएम पद के लिए अपने नेता की अभी तक आधिकारिक घोषणा नहीं की है मगर भाजपा नेताओं के बीच मल्लयुद्ध छिड़ गया है. एक खेमा नरेंद्र मोदी की वकालत कर रहा है तो दूसरा शिवराज सिंह चौहान के कसीदे काढ़ने में जुटा है. पीएम पद के लिए इन दोनों में कौन बेहतर है, और किसे देश की जनता स्वीकार कर सकती है, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब 22 जुलाई को उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजा अर्चना कर अपनी चुनावी जन आशीर्वाद यात्रा की शुरुआत की थी तो प्रचार सामग्री से नरेंद्र मोदी को गायब देख आम लोग भी चौंके थे. शिवराज के पोस्टर्स पर सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह ही थे. इस से एक ?ाटके में देशभर में यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता नहीं हैं और उन के प्रधानमंत्री घोषित किए जाने की अभी चर्चा भर है, इस पर पार्टी ने आधिकारिक मोहर नहीं लगाई है.

दोटूक शब्दों में कहा जाए तो शिवराज सिंह ने कई बातें एकसाथ स्पष्ट कर दी हैं. पहली यह कि प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए उन्हें नरेंद्र मोदी की फोटो की जरूरत नहीं. दूसरी यह कि वे खुद इतने बड़े नेता हैं कि पार्टी नरेंद्र मोदी की फोटो लगाने को उन्हें विवश नहीं कर सकती और तीसरी जो इन सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि शिवराज सिंह भी नरेंद्र मोदी की बराबरी से प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं और प्रदेश विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को उन की कट्टरवादी छवि के चलते जगह दे कर अपनी 8 सालों की मेहनत पर पानी नहीं फेरना चाहते.

भाजपा आलाकमान खासतौर से राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह नरेंद्र मोदी को ले कर दिक्कतों से घिरे हैं जबकि सहूलियतें उन्हें शिवराज सिंह चौहान के नाम और कामों से मिली हुई हैं. शायद इसीलिए 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव तक नरेंद्र मोदी को वे प्रधानमंत्री घोषित नहीं कर और करवा पा रहे. कर्नाटक का सबक उन्हें भी याद है. इसलिए वे राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में मोदी के नाम पर कोई जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. वजह, भाजपा के आधे सांसद इन राज्यों से चुन कर आते हैं.

दिक्कतें ही दिक्कतें

नरेंद्र मोदी को पीएम पद के उम्मीदवार बनाने के मसले को ले कर नीतीश कुमार के प्रबल विरोध के चलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए पहले ही दोफाड़ हो चुका है, दूसरी दिक्कत महाराष्ट्र से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने यह कहते खड़ी कर रखी है कि भाजपा पहले इस पद को ले कर अपना रुख साफ करे तभी हम अपने पत्ते खोलेंगे. गौरतलब है कि बाल ठाकरे अपने जीतेजी शिवसेना की तरफ से सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद के लिए सब से काबिल नेता करार दे चुके थे. अपने पिता कीबात पर कायम रहते उद्धव ठाकरे ने अपनी पार्टी केमुखपत्र ‘सामना’ में छपे एक लेख में नरेंद्र मोदी को हिंदुओं का रक्षक नहीं भक्षक बताया था.

इसे महज इत्तफाक कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ऐसा तब हुआ था जब शिवराज सिंह चौहान मुंबई जा कर उद्धव से मिले थे और लंबी सियासी गुफ्तगू की थी. लाख मनाने पर भी ठाकरे, मोदी के नाम पर टस से मस नहीं हो रहे तो बात भाजपा के लिए चिंता की है, जिस ने महाराष्ट्र से बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं. उद्धव के साथ ज्यादा जोरजबरदस्ती करने से राजनाथ डर रहे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि कल को वे भी नीतीश की राह पर चलते एनडीए से किनारा कर लें.

दिक्कतें अंदरूनी भी हैं. जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोकप्रिय नेता बेधड़क मोदी का विरोध करने से नहीं चूकते, यहां तक कि नतीजे की परवा भी नहीं करते इस से सहज समझा  जा सकता है कि मोदी भाजपा के लिए एक मजबूरी की देन हैं जिस का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. जाहिर है, भाजपा में अभी भी आडवाणी गुट कहीं ज्यादा मजबूत है. इस का एक बड़ा प्रमाण शिवराज सिंह का दिया वह बयान है जिस में उन्होंने साफ कहा था कि प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ही बनेंगे. खुद की दावेदारी पर शिवराज एक खास किस्म की मुसकराहट के साथ कहते हैं, ‘अपनी बात मैं उचित मंच से कहूंगा.’

इन सब से बड़ी दिक्कत देश के आम और खास आदमी के बीच चल पड़ी वह राजनीतिक चर्चा है जो अब बहस में बदलती जा रही है कि आखिरकार जब उग्र हिंदूवाद का दौर थम गया था तो मोदी को आगे कर क्यों उसे हवा दी जा रही है? अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों में दहशत क्यों पैदा की जा रही है? मोदी की सांप्रदायिक छवि लोग हजम नहीं कर पाए थे, न अब कर पा रहे हैं. नरेंद्र मोदी मुसलिम टोपी पहनने से मना कर दें, यह उन का व्यक्तिगत मामला या सोच हो सकती है जो उन का कट्टरवादी चेहरा उजागर करती है.

अटल बिहारी वाजपेयी का कोई डर या खौफ मुसलमानों के दिलोदिमाग पर कभी नहीं रहा. लालकृष्ण आडवाणी का था जो जिन्ना की मजार पर कसीदे पढ़ने से कम हुआ था तो आरएसएस ने उन्हें अपनी प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा को टारगेट बना लिया और अब वह मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने पर तुला है. नरेंद्र मोदी कभी आडवाणी को रास नहीं आए. गोआ मीटिंग के बाद का नाटक इस का गवाह है. अब वे अपनी ख्वाहिश को शिवराज सिंह के जरिए पूरी होते देखना चाहें तो बात सियासत के लिहाज से कतई हैरानी की नहीं होगी.

भाजपा को इंतजार 4 राज्यों के विधानसभा के नतीजों का है अगर मध्य प्रदेश में तीसरी बार शिवराज सिंह की अगुआई में उसे सरकार बनाने का मौका मिला तो साफ दिख रहा है कि शिवराज मोदी से कहीं आगे होंगे. इस बात के पीछे भोपाल के एक भाजपा कार्यकर्ता की इस दलील में दम है कि आखिर शिवराज और मोदी में वरिष्ठता और अनुभव के मामले में अंतर क्या है. अगर किसी राज्य में लगातार तीसरी जीत पैमाना है तो बस 4 महीने और इंतजार कीजिए.

शिवराज सिंह के साथ मुसलमानों को ले कर कोई दिक्कत नहीं है. मध्य प्रदेश में 6 करोड़ के हज हाउस का शिलान्यास कर शिवराज ने मोदी से भिन्नता दिखाई और बीती 6 अगस्त को रोजा इफ्तार पार्टी भी सीएम हाउस में आयोजित कर मुसलमानी टोपी भी पहनी. 2 दिन बाद ईद के दिन तो फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने मोदी को कोसते हुए मुसलिम समुदाय का रुख साफ कर दिया जिस के अपने अलग माने हैं.

सियासत टोपी की

मशहूर फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने भोपाल में ईद के दिन नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान में फर्क जता कर सियासी सनसनी तो मचाई ही साथ ही यह भी उजागर कर दिया कि आम मुसलमान का नजरिया इन दोनों भाजपा मुख्यमंत्रियों के बारे में क्या है. हजारों लोगों की मौजूदगी में रजा मुराद ने फिल्मी अंदाज में बोलते हुए कहा कि शिवराज सिंह बहुत अच्छे इंसान हैं पर भाजपा के कुछ लोग अच्छे नहीं हैं. शिवराज सिंह कुत्तों के बच्चों से नहीं इंसानों से ईद मिलने आए हैं. जनता जिसे चाहेगी वही प्रधानमंत्री बनेगा, मुल्क पर हुकूमत करनी है तो दिल से जुड़ना पड़ेगा.

चौतरफा ध्रुवीकरण

वोटों का धु्रवीकरण तो मोदी के नाम के साथ ही हुआ मान लिया गया था. इस बाबत सियासी जानकारों को ज्यादा जहमत नहीं उठानी पड़ी थी. सभी की नजर में गोधरा कांड और गुजरात के दंगे 1947 के बंटवारे के वक्त और बाबरी मसजिद ढहाए जाने के बाद हुए दंगों से कम कहर ढाने वाले नहीं थे. मुसलमान पीढि़यों तक उन्हें नहीं भूल पाएगा और चूंकि मोदी ने कभी माफी नहीं मांगी इसलिए वोट तो उन के नाम पर भाजपा को मिलने से रहे.

अलगअलग राज्यों में गैरभाजपाई दलों में मुसलिम वोट बंटना तय दिख रहा है. मोदी के यह कहने पर किसी ने गौर ही नहीं किया कि मैं अकेले हिंदुओं का नेता नहीं हूं. सब से बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश, जहां से प्रधानमंत्री पद का रास्ता जाता है, में मुसलिम वोट सीधेसीधे सपा और बसपा के खाते में जाते दिख रहे हैं तो बिहार में जदयू के खाते में, जहां नीतीश कुमार वक्त रहते संभल गए.

दिल्ली, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस को फायदा मिलेगा पर मध्य प्रदेश में हालात 2005 जैसे ही हैं. वजह, शिवराज सिंह ने हिंदूवादी संगठनों के कड़े विरोध के बाद भी हज हाउस वहीं बनने दिया जहां नजदीक ही मंदिर है. सरकारी तीर्थयात्रा में उन्होंने अजमेर शरीफ को शामिल कर अपने मंसूबे पहले ही साफ कर दिए थे. कई धड़ों में बंटी कांग्रेस पिछली बार की तरह मुसलमान वोट ले जा पाएगी, इस में शक है. तीसरी ताकतें भी यहां निर्णायक स्थिति में नहीं हैं.

यह सोचना नादानी है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर धु्रवीकरण सिर्फ मुसलिम वोटों का ही होगा, बहुजन संघर्ष दल के मुखिया फूलसिंह बरैया की मानें तो, असल धु्रवीकरण तो हिंदू वोटों का होगा. दलित, आदिवासी पहले सा बुद्धू नहीं रहा. वह जानता है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो सब से ज्यादा दुर्गति उसी की ही होगी. जिस दल का मुखिया ही मनुवादी हो और सिर्फ ऊंची जाति वालों व व्यापारियों को ही हिंदू मानता हो उसे इन तबकों से वोट की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए.

बात में दम इसलिए भी है कि गुजरात में दलित आदिवासियों के लिए खास काम नहीं हुए हैं. इन वर्गों को ले कर शिवराज सिंह हमेशा ही चौकन्ने रहे हैं. इसलिए अगस्त के पहले हफ्ते में ही उन्होंने अपनी ‘आशीर्वाद यात्रा’ के दौरान पूर्व मंत्री और वजनदार आदिवासी नेता विजय शाह को वापस ले लिया था, जिन्हें उन की पत्नी साधना सिंह पर जुमले कसने के आरोप में बाहर का रास्ता दिखाया गया था.

शिवराज ने इन तबकों के लिए पंचायतें भी आयोजित कीं और उन के भले के लिए ताबड़तोड़ घोषणाएं भी कीं. इसी बूते पर वे ताल ठोंक कर मैदान में हैं और तमाम सर्वेक्षणों और चर्चाओं में फायदे में बताए जा रहे हैं. शिवराज की लोकप्रियता से परेशान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने सिपहसालारों को हुक्म दिया था कि वे शिवराज को निशाने पर रखें. शिवराज सिंह इस का भी फायदा उठाने से नहीं चूके. 6 अगस्त को उन्होंने नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह पर मानहानि का दावा ठोक डाला. उन्होंने अदालत में कहा कि अजय सिंह व्यक्तिगत आलोचना पर उतर आए हैं, यह कहते फिर रहे हैं कि सीएम हाउस में उन की पत्नी साधना सिंह ने नोट गिनने की मशीन लगा रखी है. साधना सिंह ने भी इसी अंदाज में अदालत में बयान दिया तो कांग्रेस सकते में है कि वह इन हालात से कैसे निबटे. किसी को उम्मीद नहीं थी कि शिवराज सिंह अदालत भी जा सकते हैं. भावनात्मक दबाव की राजनीति करते शिवराज सिंह की नजर बहुत दूर की मंजिल को देख रही है.

महत्त्वाकांक्षी शिवराज सिंह की नजर देश के सब से बड़े पद पर है इसलिए वे फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं और विधानसभा चुनाव उन की प्राथमिकता में हैं. अपनी राह में कोई अड़ंगा वे बरदाश्त नहीं करते. अपने चहेते नरेंद्र सिंह तोमर को वे पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनवा कर ले आए तो उमा भारती को भी खामोश रहने को मजबूर कर दिया.

शिवराज मोदी से बेहतर क्यों हैं, इस सवाल पर मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ मंत्री का नाम न छापने की शर्त पर दोटूक कहना है, ‘इसलिए कि शिवराज के नाम पर कोई विवाद नहीं है, किसी वर्ग में दहशत नहीं है और विरोध नहीं है. मोदी को तो हमारी पार्टी ने ही ठोंकठोंक कर राष्ट्रीय नेता बना दिया है, वे तो अभी से खुद को पीएम सम?ाने लगे हैं.’ इस मंत्री के मुताबिक शिवराज सिंह चौहान में धैर्य भी है, नम्रता भी और शिष्टता भी. उलट इस के, नरेंद्र मोदी चाहते हैं जल्द से जल्द उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाए.

हिंदू राष्ट्रवादी होने के माने

नरेंद्र मोदी खुद को इसलिए बड़े फख्र से हिंदू राष्ट्र्रवादी कहते हैं क्योंकि कट्टर हिंदूवादी कहेंगे तो ज्यादा बवाल मचेगा. यह हिंदू राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी क्या बला है और क्यों है, इस का जवाब अच्छेअच्छे चिंतकों और दार्शनिकों के पास नहीं है. आजादी की लड़ाई में आरएसएस के लोग न के बराबर थे क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य में उन्हें ज्यादा सहूलियत लगती थी, जैसे वर्णवाद का बने रहना. असल लड़ाइयां आजादी के बाद शुरू हुईं जब आरएसएस ने रामराज्य परिषद और हिंदू महासभा जैसे हिंदूवादी दलों के जरिए हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा पर चलना शुरू किया. ये दोनों दल छोटी जाति के हिंदुओं की अनदेखी पर काम करने को तैयार नहीं हुए तो जनसंघ को जन्म दिया गया जो अब भारतीय जनता पार्टी बन कर देश के सब से बड़े दूसरे दल की शक्ल में सामने है.

आरएसएस का 3 शब्दों का एजेंडा बेहद साफ है ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान, ‘जिस पर वर्तमान में नरेंद्र मोदी ही खरे उतर रहे हैं और धर्म थोपने वाले इस दर्शन पर चलते हुए प्रधानमंत्री बनने को तैयार भी हैं. शिवराज सिंह सरीखे जानते हैं कि लोकतंत्र में यह फार्मूला चलने वाला नहीं, इसलिए वे इस से हट कर चलने का जोखिम भी उठा रहे हैं. संविधान की धार्मिक स्वतंत्रता के तहत नरेंद्र मोदी की तर्ज पर कोई मुसलमान अगर खुद को मुसलिम राष्ट्रवादी और ईसाई, ईसाई राष्ट्रवादी कहे तो बात उतनी ही अटपटी और बेतुकी लगेगी जितनी नरेंद्र मोदी के मुंह से यह निकलना कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं.

कट्टरपंथी तो हिंदू, दलितों और आदिवासियों को भी पूर्ण हिंदू नहीं मानते हैं. उन की हालत अभी भी दोयम दरजे की है. मुसलमान और ईसाई तो इन की नजर में पहले से ही म्लेच्छ हैं. जाहिर है, नरेंद्र मोदी के नाम पर 20 फीसदी हिंदू हल्ला मचा रहे हैं जो सवर्ण और कुछ पिछड़ी जातियों के हैं. आरएसएस नरेंद्र मोदी के अच्छेबुरे का आंख बंद कर समर्थन कर रहा है. उस के मुखिया मोहन भागवत स्पष्ट कर चुके हैं कि गुजरात या मध्य प्रदेश का विकास मौडल चुनावी मुद्दा नहीं है. जाहिर है, आरएसएस हिंदुत्व के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ना चाहता है जिस की कोई परिभाषा नहीं, न ही लोकतंत्र में जरूरत है. इसीलिए सभी पिछड़ी जातियां भी खुल कर मोदी के पक्ष में नहीं आ रहीं. वल्लभभाई पटेल के नाम पर भाजपाई अभी तक एक क्ंिवटल लोहा भी इकट्ठा नहीं कर पाए हैं क्योंकि यह नाम ही सवर्णों को रास नहीं आ रहा. दलित आदिवासियों की तो मौजूदा पीढ़ी गांधीनेहरू के अलावा किसी और को जानती भी नहीं.

हकीकत तो यह है कि खुद नरेंद्र मोदी भ्रमित हैं कि तथाकथित हिंदुओं में 1993 जैसा करंट क्यों नहीं आ रहा. शायद ही मोदी या आरएसएस यह सम?ा पाए कि 20 साल में लोगों की मानसिकता काफी बदली है, अमनचैनपसंद लोग अब किसी तरह का दंगाफसाद या दूसरा सामाजिक और धार्मिक तनाव बरदाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. इस में युवा पीढ़ी सब से आगे है जो वोटों का 40 फीसदी है. आरएसएस का सोचना यह था कि नरेंद्र मोदी को आगे करते ही कांग्रेस बौखला कर राहुल गांधी का नाम आगे कर देगी जिस से उस की लड़ाई का केंद्रीयकरण हो जाएगा पर हुआ उलटा, नरेंद्र मोदी के नाम पर वोटों का धु्रवीकरण किया जाना शुरू हो गया है. दूसरी दिक्कत सवर्णों की नई पीढ़ी है जो खुद को गर्व से भारतीय कहलाना तो पसंद करती है पर हिंदू नहीं.

तेलंगाना अभी और भी हैं

राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के आधार पर अलग तेलंगाना राज्य की मांग अरसे से उठती रही है पर हर बार इस मुद्दे को सत्तासीन कांग्रेस के राजनीतिक छलबल का शिकार होना पड़ा. अब उसी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना को हरी झंडी दे दी है. नतीजतन, देश में नए सिरे से कई अलग राज्यों की मांगें उठने लगी हैं. पढि़ए लोकमित्र का विश्लेषणपरक लेख.

सालों के रायमशवरे के बाद भी तेलंगाना मसले पर जब इस साल के शुरू में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की राय आपस में बंटी हुई थी तो राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान यही था कि शायद इस की बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर नेता तेलंगाना के मुद्दे को वर्ष 2014 के आम चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं. लिहाजा, सोचा यह गया कि तेलंगाना को ले कर शायद अगले साल की शुरुआत में ही कोई बड़ा फैसला हो. लेकिन 10 जनपद की हरी झंडी के बाद आंध्र प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी दिग्विजय सिंह ने 30 जुलाई की शाम को एक बड़ी ब्रेकिंग न्यूज दी. यह बड़ी सुर्खी थी तेलंगाना को हरी झंडी.

इस तरह भारत के नक्शे में तेलंगाना नाम के 29वें राज्य का उदय होना तय हो गया है. वैसे घोषणा के बाद का स्वाभाविक हंगामा अभी तक थमा नहीं है. अब तक कई दर्जन विधायक और सांसद तेलंगाना के विरोध में इस्तीफा दे चुके हैं. इन में दूसरी पार्टियों के साथसाथ कांग्रेस के विधायक और सांसद भी हैं.

वैसे कांग्रेस में मुख्यधारा के बड़े नेता कभी भी तेलंगाना के पक्ष में नहीं रहे. इतिहास गवाह है कि एम चेन्ना रेड्डी से ले कर वाई एस राजशेखर रेड्डी तक इसीलिए बारबार वादा कर के मुकर जाते रहे हैं. शायद यह इतिहास का हैंगओवर ही था कि 28 दिसंबर, 2012 को आंध्र प्रदेश में सक्रिय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से मुलाकात करने के बाद जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार श्ंिदे ने घोषणा की थी कि 1 माह के भीतर तेलंगाना के मुद्दे पर अंतिम निर्णय ले लिया जाएगा, तब भी किसी को इस की उम्मीद नहीं थी.

भले ही इस घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश में यह उम्मीद बढ़ गई थी कि 28 जनवरी, के गठन का ऐलान कर देगी. लेकिन 28 जनवरी से पहले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार अपने वादे से पीछे हट गई और इस के लिए बहुत भोला सा कारण गृहमंत्री ने ही दिया कि हमें इस संवेदनशील मुद्दे पर फैसला करने के लिए अभी और वक्त चाहिए. बहरहाल, अब कांग्रेस से मिली सरकार को हरी झंडी के बाद तेलंगाना का अलग राज्य के रूप में स्थापित होना लगभग तय है.

भारत में राज्यों के गठन का इतिहास जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की दुविधा नई नहीं थी. दरअसल, जब 22 दिसंबर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ तब पंडित जवाहरलाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध कर रहे थे, मगर ज्यादातर लोग इस के पक्ष में थे. आयोग का गठन हुआ और इस ने 30 सितंबर, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.

आयोग के 3 सदस्यों में जस्टिस फजल अली के अलावा हृदयनाथ कुंजरू और के एम पणिक्कर थे. आयोग की रिपोर्ट आने के बाद 1956 में नए राज्यों का गठन हुआ और 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश अस्तित्व में आए. 1 नवंबर, 1956 को मद्रास रैजिडेंसी से अलग हो कर आंध्र प्रदेश देश का पहला भाषाई आधार पर राज्य गठित हुआ. लेकिन पहले दौर से ही बात नहीं बनी. यही कारण है कि 1956 में जहां आंध्र प्रदेश के गठन के साथ ही देश में भाषाई आधार पर राज्यों की गठन की कहानी शुरू हुई वहीं आंध्र प्रदेश के बंटवारे के साथ ही भाषाई आधार पर गठित राज्यों का तर्क बेमानी हो गया.

1960 में एक बार फिर से राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला जिस के चलते 1960 में बंबई राज्य को तोड़ कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए. 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश 2 नए राज्य अस्तित्व में आए. हिमाचल में जहां हिमाचली और डोगरी बोली जाती थी, वहीं हरियाणा में हिंदी का बोलबाला था और मौजूदा पंजाब, पंजाबी का गढ़ था. हालांकि लग रहा था कि भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन एक वैज्ञानिक तरीका है लेकिन बहुत जल्द ही इस विचार की भी सीमाएं नजर आने लगीं. क्योंकि दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के बाद भी नए राज्यों की मांगों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ.

कई और राज्यों में बंटवारे की मांग उठने लगी और इसे चाहे राजनीतिक मजबूरी कहें या राजनीतिक फायदे का गणित, कई और राज्यों का गठन करना ही पड़ा. 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा बनाए गए. 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश और गोआ को पूर्ण राज्य का दरजा दिया गया. आखिर में 2000 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की गठबंधन सरकार ने उत्तराखंड, ?ारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया.

इस पूरी हलचल में तेलंगाना का मुद्दा बारबार आताजाता रहा, लेकिन किसी फैसले तक नहीं पहुंचा. दरअसल, यह उस राज्य पुनर्गठन के आधार पर ही सवाल खड़ा कर रहा था जो भाषा के आधार पर टिका था. क्योंकि तेलुगुभाषियों की अस्मिता को ध्यान में रख कर 1956 में देश में सब से पहला राज्य आंध्र प्रदेश गठित हुआ था.

अब उसी आंध्र प्रदेश को 2 टुकड़ों में विभाजित करने के लिए अगर तेलुगु भाषा को वैचारिक आधार बनाया जाए तो यह हास्यास्पद ही होता क्योंकि तेलंगाना में तो तेलुगु बोली ही जाएगी, शेष आंध्र प्रदेश की भी मुख्य भाषा यही होगी. शायद यही एक बड़ी वजह थी जिस के चलते 2000 के पहले कांग्रेसियों को यह नहीं सू?ा रहा था कि तेलंगाना बंटवारे को तार्किक कैसे ठहराया जाए. मगर जब 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने 3 हिंदी भाषी प्रांतों को बांट कर एक नया इतिहास रचा तो तेलंगाना की मांग और तेज हो गई.

हालांकि गौरतलब तथ्य यही है कि तेलंगाना की मांग के पीछे न तो मजबूत अस्मिता का सवाल है और न ही कुशल प्रशासन और विकास ही मुख्य मुद्दे हैं. क्योंकि अस्मिता की बात करेंगे तो रौयल सीमा और तटीय आंध्र की भी तेलुगु अस्मिता ही है इसलिए अलग से तेलंगाना को इस का ?ांडा उठाने की जरूरत नहीं थी. इसी तरह अगर विकास या प्रशासनिक चुस्ती मुद्दा होती तो अलग राज्य के बजाय एक अलग विकास परिषद या प्राधिकरण की मांग होती जैसे पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड मौजूद है. वास्तव में अलग तेलंगाना की मांग अलग राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की मांग थी. फिर भी इस के लिए केंद्र में मौजूदा सत्तासीन कांग्रेस का राजनीतिक छलबल देखने लायक है.

दरअसल, तेलंगाना को ले कर कांग्रेस  द्वारा लिया गया निर्णय बताता है कि उस के लिए मौजूदा राजनीतिक समीकरण में आंध्र प्रदेश बहुत महत्त्वपूर्ण है. पिछले 2 आम चुनावों से यह आंध्र प्रदेश ही है जो कांग्रेस के लिए केंद्र में सत्ता हासिल करने का जरिया बन रहा है. लेकिन अब राज्य में बंटवारे की बात जिस हद तक पहुंच गई थी उस को ले कर कांग्रेसी दांव भी खेलना चाहते थे और डरे हुए भी थे. लंबे समय तक वे समझ नहीं पा रहे थे कि बंटवारे के बाद उन्हें राजनीतिक रूप से फायदा होगा या नुकसान.

बहरहाल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को तेलंगाना के मसले को ले कर पार्टी के अंदर ही अलगअलग तरह की आवाजें सुनने को मिल रही हैं. जो लोग बंटवारा चाहते थे वे खुश हैं. उन के मुताबिक, अगर तेलंगाना नहीं बनता तो कांग्रेस का जहाज इस बार के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश की दलदल में डूब जाता और जो कह रहे हैं बंटवारा नहीं होना चाहिए, उन का मानना है कि अब आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लुटिया डूब जाएगी.

ज्ञात हो कि पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश कांग्रेस का शक्ति केंद्र बन कर उभरा है. कांग्रेस आंध्र प्रदेश में अपनी शानदार जीत की बदौलत ही केंद्र में सत्तासीन हुई है. 2004 में संपन्न आम चुनावों में कांग्रेस को 42 में से 29 लोकसभा सीटें मिली थीं जबकि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 5 सीटें जीती थीं. 2009 के चुनावों में राजनीतिक पंडितों को भी यह आशा नहीं थी कि कांग्रेस 5 साल पहले के अपने विजय अभियान को दोहरा सकेगी लेकिन कांग्रेस ने न सिर्फ यह कर के दिखाया बल्कि 2009 में अपने पुराने आंकड़े को और बेहतर बनाया. उस ने 42 में से 33 सीटों पर कब्जा जमाया. कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए अगर 200 सीटों का जादुई आंकड़ा पार किया तो इस में आंध्र प्रदेश में जीती गई 33 सीटों का बड़ा हाथ था.

शायद इसी वजह से कांग्रेस में तेलंगाना को ले कर पक्ष और विपक्ष के 2 खेमे बन गए थे. अपने त्वरित राजनीतिक फायदों को ध्यान में रखने के कारण पिछले कुछ सालों में कांग्रेस ने तेलंगाना के मामले को धीरेधीरे बरगलाया भी है जिस की शुरुआत एम चेन्ना रेड्डी ने तेलंगाना ‘प्रजा राज्यम’ के कांग्रेस में विलय के साथ शुरू की थी, लेकिन नए सिरे से 2004 में इसे बरगलाने का काम कांग्रेस के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी ने किया. उन्होंने धमाकेदार जीत और तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ सम?ौता कर के इस मुद्दे को तकरीबन अप्रासंगिक बना दिया.

सच बात तो यह है कि कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में तेलंगाना को ले कर उस के पैरों के नीचे से खिसकती मिट्टी का पता ही नहीं चलता अगर पिछले साल उपचुनावों में कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता. पिछले साल आंध्र प्रदेश में 18 विधानसभा सीटों और 1 लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए. इन उपचुनावों में वाई एस राजशेखर के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस को पूरी तरह से बौखला दिया क्योंकि 18 विधानसभा सीटों में से 15 के साथसाथ अकेली लोकसभा सीट का उपचुनाव भी वाई एस आर कांग्रेस के खाते में गया. इस से कांग्रेस चौंकी कि वाई एस आर की ही तरह उन का बेटा भी प्रदेश में गेमचेंजर न साबित हो. वास्तव में तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की असमंजस की रणनीति और जगनमोहन रेड्डी को ले कर उस का ढुलमुल रवैया इसी का नतीजा था. अब जबकि कडप्पा से सांसद जगन मोहन रेड्डी अपनी मां विजय लक्ष्मी और पार्टी के सभी विधायकों और इस मुद्दे को ले कर इस्तीफा दे चुके हैं तो कांग्रेस एक बार फिर पसोपेश में है कि कहीं यह दांव उलटा न पड़ जाए.राज्य में इन उपचुनावों ने उन कांग्रेसियों को यह हल्ला मचाने का मौका दे दिया जो तेलंगाना के पक्ष में हैं. इसी के जरिए उन्होंने यह माहौल बनाना शुरू कर दिया कि अगर तेलंगाना को जल्द नहीं बनाया गया तो यह कांग्रेस के लिए घातक होगा.

इन राजनेताओं का कहना है कि अलग राज्य का निर्णय ही कांग्रेस को राज्य में अपना अस्तित्व बरकरार रखने दे सकता है और इस से कांग्रेस टीआरएस पर भारी पड़ सकती है. इस धड़े के नेताओं के मुताबिक अगर कांग्रेस तेलंगाना राज्य बनाती है तो फिर टीआरएस के साथ मिल कर वह बाकी राजनीतिक पार्टियों का सूपड़ा साफ कर सकती है. इन की राय में यही एक तरीका है जिस से क्षेत्र में कांग्रेस एक बार फिर से 2014 में अपना डंका बजा सकती है.

बहरहाल, तेलंगाना राज्य का जो मुद्दा कांग्रेस के लिए अब भावुक सियासत के गले में हड्डी सा बन गया है, अब गले उतर चुका है. वह कई बार राज्य की जनता को इस आश्वासन पर बरगला चुकी थी कि वही अलग तेलंगाना राज्य बनाएगी और अब वही कांग्रेस इस चिंता में है कि कहीं तेलंगाना की घोषणा मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ना न साबित हो क्योंकि देश के अलगअलग क्षेत्रों से अलग राज्य बनाने की पुरानी और नई मांगें फिर से जोर पकड़ रही हैं, जिन में असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, पूर्वांचल और व्रज प्रदेश के अलावा बुंदेलखंड की भी मांग नए सिरे से उठाई जाएगी तो मध्य प्रदेश में महाकौशल राज्य की मांग नाक में दम कर सकती है.   

-साथ में साधना शाह

भूमि अर्जन विधेयक 2011, कानून के सहारे हक?

आम चुनाव से पहले सरकार खुद के दामन में लगे महंगाई व  भ्रष्टाचार के दागों को धोने के लिए भले ही भूमि अर्जन विधेयक का सहारा ले रही हो, लेकिन इस प्रस्तावित कानून के प्रावधानों से भूमिहीनों और गरीब किसानों को जमीन व संपत्ति वितरण व्यवस्था के मामले में बड़ी राहत मिलेगी, बशर्ते नौकरशाही और कानूनी दांवपेंच  अड़ंगा न डालें. पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार ने संसद के मौजूदा मानसून सत्र में नए भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित कराने के लिए कमर कस ली है, हालांकि तमाम दलों को मनाने के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी व द्रमुक जैसे दल अभी भी नाखुश हैं. सरकार अपने सब से बड़े प्रतिद्वंद्वी विपक्ष भाजपा की कुछ शर्तों के आगे ?ाक कर उसे मनाने में कामयाब रही. इधर कौर्पोरेट जगत समेत भूमि अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता बिल के मौजूदा स्वरूप से नाराज हैं. कौर्पोरेट जगत को तो ऐसा लग रहा है मानो उस से उस का जन्मसिद्ध अधिकार छीना जा रहा है.

उद्योग जगत पहले इस बात से हैरान था कि भूमि अधिग्रहण बिल पर संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश सरकार के सामने रखी तो निजी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण के अवसर सीमित करने वाले इस बिल को ले कर सरकार ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? कौर्पोरेट सैक्टर का मानना है कि बिल के प्रावधान इंडस्ट्री के लिए अच्छे नहीं हैं. उधर, आदिवासियों, दलितों, भूमिहीनों और विस्थापितों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन इन लोगों के पुनर्वास संबंधित प्रावधानों को ले कर संतुष्ट नहीं हैं. किसान आंदोलन के अगुआ नेताओं का मानना है कि इस कानून से किसानों को ज्यादा लाभ नहीं होगा.

कुछ राजनीतिबाज भी बिल में किसानों के लिए पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान न होने पर विरोध  जता रहे हैं लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि कौर्पोरेट, जंगलों, आदिवासियों, और किसानों की बात करने वाले गैर सरकारी संगठनों के असंतुष्ट रुख को देखते हुए हम ने बीच का रास्ता निकाला है. वास्तव में आम चुनाव से पहले संप्रग सरकार शहरियों व ग्रामीण भूमालिकों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, किसानों की हितैषी दिखने की कोशिश कर रही है और अपने दामन पर लगे महंगाई, भ्रष्टाचार, असुरक्षा जैसे तमाम दाग धो देना चाहती है.

दरअसल, मौजूदा भूमि अधिग्रहण विधेयक में कौर्पोरेट क्षेत्र की अधिक तरफदारी है. उस में भूस्वामियों की जमीनें जबरन छीन लेने तक के प्रावधान हैं, इसलिए कौर्पोरेट को प्रस्तावित नए कानून के प्रावधानों  और उस के आगे हरदम ?ाकी रहने वाली सरकार के रवैये से हैरानी हो रही है.

नए ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011’ के मसौदे पर गौर किया जाए तो उस में न केवल सरकारी व जनहित विकास परियोजनाओं, उद्योग जगत और शहरियों का, बल्कि ग्रामीणों, किसानों, भूमिहीन मजदूरों, आदिवासियों तक का पूरा खयाल रखा गया है. बिल में भूमालिकों की जमीन को संरक्षित रखने और पर्याप्त मुआवजे व रोजगार तक का इंतजाम किया गया है.

दरअसल, ग्लोबलाइजेशन के दौर में पिछले करीब 2 दशक में सरकारी विकास परियोजनाओं और निजी उद्योगों की स्थापना के कारण शहरी लोगों की ही नहीं, ग्रामीण किसानों, मजदूरों, आदिवासियों की दिक्कतें भी बढ़ने लगीं. विभिन्न परियोजनाओं से मौजूदा कानून में सही मुआवजे और पुनर्वास के पर्याप्त प्रावधान न होने की वजह से शहरी भी अपने घर, जमीन से बेदखल हुए तो गरीब किसानों को भी अपनी जमीन और आजीविका से महरूम होना पड़ा.

इस दौरान बुनियादी ढांचागत और औद्योगिक विकास के नाम पर देश में बड़े पैमाने पर जमीनों, शहरों में मकानों, दुकानों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों का सरकारों व निजी कंपनियों के लिए अधिग्रहण किया गया. सदियों से जो लोग जिस जमीन पर रह रहे थे, उन्हें वहां से जबरन बेदखल कर दिया गया. ग्रामीण लोगों के पास शहरों के स्लम क्षेत्रों की ओर पलायन कर के मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा तो शहरियों को अन्यत्र कामधंधा और रिहाइश तलाशनी पड़ी. यह सब हुआ देश के मौजूदा भू अधिग्रहण कानून की वजह से. वर्तमान भू मालिकाना कानून बहुत ही असमान और अन्यायपूर्ण वितरण वाला है.

पश्चिम बंगाल के सिंगूर का मामला इसी तरह का है. कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने टाटा कंपनी को नैनो कार का प्लांट लगाने के लिए सिंगूर के किसानों की 1 हजार एकड़ जमीन जबरन ले ली. अपनी जमीन से बेदखल और विस्थापित हुए किसानों ने विरोध किया तो पुलिस ने उन्हें मारापीटा. घरों में घुस कर महिलाओं को बेइज्जत तक किया गया. इसी दौरान विधानसभा चुनाव आए तो तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने किसानों के साथ खड़े हो कर नैनो प्लांट का विरोध किया. टाटा को विरोध के चलते सिंगूर प्लांट छोड़ने पर मजबूर कर दिया. बाद में जब ममता बनर्जी ने 2011 में राइटर्स बिल्ंिडग में सत्ता संभाली तो उन्होंने किसानों के हक के लिए ‘सिंगूर रिहैबिलिटेशन ऐंड डैवलपमैंट बिल-2011’ पारित कराया और किसानों को उन की 997 एकड़ जमीन वापस दिलाई. इस पर टाटा कंपनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गई. यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है. यानी वर्ष 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून जो आज भी वजूद में  है किसानों के खिलाफ और टाटा जैसी कंपनियों के पक्ष में है. कानून में किसानों की जमीनें जबरन छीनने का हक तो सरकार के पास है पर पीडि़तों के पुनर्वास का दायित्व नहीं. इसीलिए सरकारें अब तक कौर्पोरेट कंपनियों के पक्ष में खड़ी दिखाई देती रही हैं पर किसानों, आदिवासियों, मजदूरों के खिलाफ रही हैं. लिहाजा, नए भूमि अर्जन बिल में संप्रग सरकार द्वारा इन सब खामियों को दूर करने का प्रयास किया गया है.     

फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) की अध्यक्ष नैनालाल किदवई कहती हैं कि नया बिल बड़ी उत्पादन परियोजनाओं हेतु भूमि अधिग्रहण के लिए सही नहीं है. पोस्को और आर्सेलर मित्तल जैसी परियोजनाओं को जमीन मिलने में देरी नहीं चल सकती. कोई भी इतने सालों तक इंतजार नहीं कर सकता. पोस्को जैसी कंपनी ने बड़ा धैर्य रखा. यानी उद्योग जगत यथास्थिति चाहता है कि सरकार किसानों की जमीनें जबरदस्ती छीन कर उन्हें देती रहे चाहे किसान, भूस्वामी अपनी आजीविका खोएं या बेजमीन हो जाएं.

किदवई आगे कहती हैं कि अगर नया बिल मौजूदा स्वरूप में पेश किया जाता है तो बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण करना संभव नहीं हो सकेगा. फिक्की अध्यक्ष को मुआवजे और पुनर्वास वाले प्रावधान पर भी एतराज है. वे कहती हैं कि पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापना की शर्त तब नहीं होनी चाहिए जब बड़ी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण खरीदार और विक्रेता की आपसी रजामंदी से होता है. उद्योग जगत का यह सामंती विचार है कि भूस्वामी से जमीन ले कर उसे बस चलता कर दिया जाए चाहे वह कुछ भी करे. इस खरीद में अकसर जबरन धमकी देने का भी कार्य करा जाता है. खेतों के मालिकों के खिलाफ मुकदमे दायर कर दिए जाते हैं, गुंडों से पिटवा दिया जाता है.

इसी सोच की वजह से पिछले समय में हुए जमीन अधिग्रहण के मामलों में कई दुष्परिणाम देखने में आए. सरकारों ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश में जिन किसानों से भूमि अधिग्रहण की वे बेरोजगार हो गए. उन्हें मुआवजे के मिले पैसों का न तो सदुपयोग करना आया न वे उस पैसे को पचा पाए, नतीजतन, बेरोजगारी और अपराध पनपने लगे. कन्फैडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) का भी कहना है कि भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवारों की सहमति 80 प्रतिशत की जगह घटा कर 60 प्रतिशत की जानी चाहिए.

सीआईआई के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी कहते हैं कि भूमि के सही रिकौर्ड के अभाव में अलगअलग मालिकों से जमीन का संचयन करना कौर्पोरेट क्षेत्र को प्रभावित कर सकता है, इसलिए सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है. सीआईआई ने यह भी कहा कि बिल के प्रावधान अगर लागू हो जाते हैं तो देश में भूमि की कीमत साढे़ तीनगुना बढ़ सकती है. इस से औद्योगिक परियोजनाओं पर असर पड़ेगा और उत्पादन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का क्षय होगा. यानी सीआईआई चाहता है कि भूमि अधिग्रहण के मौजूदा गैर बराबरी, नाइंसाफी वाले कानून की तरह ही भूमालिकों को बेदखल कर दिया जाए और उन्हें जमीन दी जाए.

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी कौर्पोरेट और सामंती व शोषकों की भाषा बोल रहे हैं. वे कहते हैं कि भूमि अर्जन बिल से डैम और अन्य परियोजनाओं के लिए गैर रजामंदी वाले किसानों से भूमि अधिग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा. लगता है शरद पवार भी किसानों से जबरन भूमि हड़पने के पक्षधर हैं. इतने सालों से केंद्र में शक्तिशाली मंत्री रहे शरद पवार से कोई पूछे कि आजादी के बाद भी भूमि के बंटवारे को ले कर असमानता वाला कानून क्यों?

सीपीआई (एम) भूमि अधिग्रहण से प्रभावित 100 प्रतिशत परिवारों की सहमति की मांग कर रही है तो द्रमुक नेता टी आर बालू कहते हैं कि बिल संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है और उन की पार्टी इस बिल से सहमत नहीं है. सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता भी प्रस्तावित नए बिल से खुश नहीं हैं. कहा जा रहा है कि यह भूमि के कौर्पोरेटाइजेशन को शह देने वाला है और इस में पुनर्वास के प्रावधानों की भी कमी है.

एकता परिषद के संस्थापक और भूमि को ले कर सत्याग्रह आंदोलन के अगुआ रहे पी वी राजगोपाल कहते हैं कि इंडस्ट्री की धारणा है कि इस से रोजगार बढे़गा, सही नहीं है. उद्योग जिस जगह पर लगाया जाएगा, उस स्थान पर रहने वालों का अपना रोजगार खत्म हो जाएगा और केवल सीमित संख्या में ही रोजगार उत्पन्न होगा.

समाज सेविका मेधा पाटकर का कहना है कि यह बिल लोगों के समान विकास पर आधारित नहीं है. हालांकि इस में कुछ अच्छे प्रावधान भी हैं. बिल में दिक्कत यह है कि यह भूमि का आगे निगमीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करता है और इस में पुनर्वास व आजीविका का कोई ठोस प्रावधान नहीं है. उद्योग जगत और एक्टीविस्ट की इस तरह की आपत्तियां जायज हैं या नहीं, अभी कहा नहीं जा सकता. कानून लागू होने के बाद व्यावहारिक तौर पर यह सब सामने आ पाएगा.

मगर मौजूदा कानून के चलते नुकसान के आंकड़ों पर यकीन करें तो पिछले 2 दशक में पुलों, बांधों, बिजली परियोजनाओं, खनन, राजमार्गों आदि के निर्माण के नाम पर करीब 50 लाख लोग विस्थापित हुए हैं और अगर आजादी के बाद की बात की जाए तो विभिन्न विकास परियोजनाओं के नाम पर देशभर में 3 करोड़ से अधिक लोगों को बिना कोई मुआवजा दिए उजाड़ दिया गया.  

देश में इस समय 1 करोड़, 30 लाख परिवार बेजमीन, बेघर, खानाबदोश की जिंदगी बसर कर रहे हैं. गांव के किसान व मजदूर ही नहीं, शहरों के मकान, दुकान, व्यापारिक प्रतिष्ठानों के मालिक भी अधिग्रहण की चपेट में आए. शहरों में आवासीय योजनाओं, कलकारखानों, मैट्रो रेल, पुलों आदि के लिए हजारों लोगों को उजड़ने का दर्द ?ोलना पड़ा.

मुंबई अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजैक्ट यानी एमयूआईपी की विभिन्न परियोजनाओं के लिए मुंबई के 35 हजार परिवार विस्थापित हुए. दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना के तीसरे चरण में 399 दुकानें और 87 आवासीय इकाइयों को तोड़ना पड़ा. दिल्ली मैट्रो की अन्य लाइनों के लिए भी हजारों मकान, दुकानें, वर्कशौप, औद्योगिक यूनिटें पूरी या कहींकहीं, आधी हटानी पड़ीं. इस से हजारों भूमालिक, किराएदार प्रभावित हुए. इन लोगों को भी समुचित मुआवजा नहीं मिला. मुआवजे के सैकड़ों मामले निचली अदालतों और उच्च न्यायालय में लंबित हैं.  भारत के 43 प्रतिशत लोग अभी भी भूमिहीन हैं. 13.34 प्रतिशत दलित और 11.50 प्रतिशत जनजाति परिवार पूरी तरह जमीन से वंचित हैं. देश की15.20 प्रतिशत भूमि मात्र 1.33 प्रतिशत लोगों के  नियंत्रण में है. 63 फीसदी सीमांत भूमालिकों के पास सिर्फ 15.60 फीसदी जमीन है. 1977-78 में दलितों की भूमिहीनता 56.8 फीसदी से बढ़ कर 1983 में 61.9 फीसदी जा पहुंची. इसी वर्ष जन जातियों में यह 48.5 फीसदी से 49.4 फीसदी हो गई थी. कृषि भूमि की बात करें तो 95.65 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत वर्ग में आते हैं. करीब 62 प्रतिशत इस्तेमाल की जाने वाली जमीन मध्यम और बड़े किसानों के पास है. इन की तादाद मात्र 3.5 प्रतिशत है. यही लोग 37.72 फीसदी कृषि क्षेत्र के मालिक बने बैठे हैं.

सरकारों द्वारा लोगों को न तो उजाड़ने से पहले और न ही बाद में किसी तरह की कोई भरपाई, मुआवजा मुहैया कराया गया. सरकारों ने जमीनें गरीबों, आदिवासियों और किसानों से ले कर कौर्पोरेट जगत को मुहैया कराने में खूब रुचि दिखाई और इस प्रक्रिया में उन लोगों की उपेक्षा की जाती रही जो वास्तविक तौर पर हकदार थे और जिस जमीन, जंगल के सहारे उन की आजीविका चल रही थी. नतीजतन, इन लोगों के भीतर सरकारों और सरकारी नीतियों के भेदभावपूर्ण रवैये के प्रति आक्रोश बढ़ने लगा. देशभर में यह संदेश गया कि सरकारें शहरी लोगों, गरीबों, पिछड़ों, किसानों और आदिवासियों की जमीनें छीन कर अमीरों को कौडि़यों केभाव बांट रही हैं.

हाल के वर्षों में हजारों एकड़ संरक्षित और अनुसूचित भूमि बलपूर्वक खनन और औद्योगिकीकरण के नाम पर हस्तांतरित कर दी गई. बड़े पैमाने पर कृषि और वन भूमि उद्योग, खनन और विकास परियोजनाओं या ढांचागत परियोजनाओं के लिए दे दी गई.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ?ारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कोर्पोरेट कंपनियों को किसानों की कृषि भूमि, आदिवासियों के जंगल, शहरी लोगों की शहरों से सटी जमीनें अन्यायपूर्ण कानून के सहारे छीनी गईं. 2 दशक में करीब 7 लाख 50 हजार एकड़ भूमि खनन और 2,50,000 एकड़ औद्योगिक मकसद से हस्तांतरित की गई, वह भी बिना स्थानीय लोगों की आजीविका की परवा किए. नतीजतन, बंगाल में टाटा, छत्तीसगढ़ और ?ारखंड में जिंदल ग्रुप, ओडिशा में आर्सेलर मित्तल व पोस्को, गुजरात में अदानी, रिलायंस और उत्तर प्रदेश में रिलायंस के विरोध में हिंसात्मक घटनाएं घटीं.

गैरनियोजित शहरीकरण व गैरकानूनी कब्जे से भी सरकारी अफसरों और भूमाफिया की चांदी बन गई. इस का सब से बड़ा खमियाजा शहरी लोगों के साथसाथ किसानों और गरीब मजदूरों को भुगतना पड़ा. वर्तमान में लागू भूमि अधिग्रहण कानून-1894 सब से पुराना है. यह कानून बिना किन्हीं बाधाओं के भूमि अधिग्रहण की अनिवार्यता प्रदान करता है. अधिग्रहण संबंधित शुरुआती भागों में 55 सैक्शन हैं जो अधिग्रहण के लिए प्रारंभिक जांच, अधिग्रहण के इरादे की घोषणा, सर्वे, नोटिफिकेशन, आपत्तियों की सुनवाई, भूमि की माप, भूमालिकों को अधिग्रहण की सूचना, क्लेम पेश करते हैं लेकिन सैक्शन 16 या 17 (भाग-3) में कानून का अन्यायपूर्ण चेहरा उजागर होता है. इस के अंतर्गत किसी की भी भूमि शांतिपूर्ण या जबरन लेने का स्पष्ट प्रावधान है. मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून के भाग-2 के सैक्शन 38 से 41 में निजी कंपनियों के भूमि अधिग्रहण का प्रावधान है. इस में कहा गया है कि सरकार शांति से या जबरन कब्जा ले सकती है.

इसी तरह उद्योगों को आम आदमी की कीमत पर स्थापित करने वाला महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डैवलपमैंट ऐक्ट-1961 है जिस में राज्य में औद्योगिक क्षेत्र, उद्योगों की स्थापना के लिए विशेष प्रावधान है. इस के सैक्शन 32 (4) के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की हर तरह की बाधा को दूर करने के लिए सरकार पूरी तरह स्वतंत्र है. यानी यह कानून ही सरकार को निजी कंपनियों के पक्ष में और भूस्वामियों के विरोध में खड़ा करने वाला है. इसीलिए, सरकारें भूमालिकों से जमीन ले कर कौर्पोरेट को दिलाने का काम करती हैं. बौंबे मैट्रोपोलिटन रीजन डैवलपमैंट अथौरिटी ऐक्ट-1974 क्षेत्र में विकास की योजनाओं को निर्देशित करने के लिए है. इस के अध्याय-8 में सैक्शन 32 से 41 तक भूमि अधिग्रहण से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं. इस कानून के सैक्शन-33 के अंतर्गत सरकार कोई भी भूसंपत्ति भूमालिक को 30 दिन पहले सूचना दे कर ले सकती है. अगर भूमालिक शांति से कब्जा नहीं देता है तो बलपूर्वक कब्जा लिया जाता है. 1984 में भूमि अधिग्रहण कानून में केंद्र सरकार ने संशोधन किया जिस में मुआवजे को ले कर प्रावधान किया पर सरकार यह मुआवजा सर्किल रेट पर देती है जोकि बहुत ही कम होता है, इसीलिए मुआवजे के मामले अदालतों में बढ़ते जा रहे हैं.

इसी तरह  भूसंपत्ति की सीलिंग के शिकार ग्रामीण किसान ही नहीं, शहरी लोग भी हैं. केंद्र सरकार का अर्बन लैंड सीलिंग ऐंड रैगुलेशन ऐक्ट-1976 शहरियों की भूसंपत्ति की सीलिंग निर्धारित करता है. यह कानून महाराष्ट्र के ग्रेटर मुंबई (ए कैटेगरी शहरी क्षेत्र, म्युनिसिपल कौर्पोरेशन के 8 किलोमीटर तक), पुणे, शोलापुर, नागपुर, उल्हासनगर, थाणे, नासिक, सांगली में लागू है. इस के सैक्शन-3 के तहत प्रावधान है कि इन क्षेत्रों में कोई भी व्यक्ति सीलिंग सीमा से अधिक भूमि नहीं रख सकेगा. सैक्शन-4 के तहत मुंबई अर्बन संचय क्षेत्र में 500 स्क्वायर मीटर, पुणे में 1000 स्क्वायर मीटर, थाणे, नासिक, सांगली और कोल्हापुर में 1580 स्क्वायर मीटर सीलिंग सीमा तय है. इस से अधिक भूमि सरकार द्वारा ले ली गई.

सरकारों की इसी नीति और कानून के चलते देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों में नक्सली आंदोलन फैला और किसानों, मजदूरों, गरीबों में आक्रोश बढ़ता गया. विकास के नाम पर बन रही परियोजनाओं के खिलाफ उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब, ?ारखंड, छत्तीसगढ़ सुलगने लगे. किसान, मजदूर, गरीब धरनों, प्रदर्शनों में शामिल होने लगे.

सरकारों की इस तरह की अमानवीय नीतियों के खिलाफ देश भर के कुछ गैर सरकारी संगठन प्रभावित लोगों के समर्थन में जुटे और आंदोलन शुरू हुआ. सरकार से भूमि अधिग्रहण और इस से प्रभावित लोगों को बदले में जमीन, मकान व आजीविका सुनिश्चित कराने वाला कानून बनाए जाने की मांग उठने लगी. हालांकि संप्रग सरकार 2007 में विकास परियोजनाओं से प्रभावित लोगों के लिए पुनर्वास और पुनर्स्थापन बिल ले कर आई पर 2009 में वह गिर गया. सरकार के भीतर कुछ मतभेदों को ले कर इस बिल में भी मुआवजा, अधिग्रहण से पूर्व जमीन मालिकों की सहमति जैसे मुद्दों को ले कर विलंब होता रहा.

कहा जाता है कि इस कानून का उद्देश्य भूमिहीन परिवारों के लिए जमीन मुहैया कराना और अधिग्रहण की चपेट में आए किसानों, मकान मालिकों को पर्याप्त मुआवजा, आजीविका व पुनर्वास को सुनिश्चित करना है. यह बिल विकास के लिए अधिग्रहण होने वाली भूमि के मालिकों के अधिकारों को मजबूती देगा. भूमि सुधार के लिए समयसमय पर कानून बनते रहे हैं पर मौजूदा भूमि वितरण की व्यवस्था जातिगत सामाजिक व आर्थिक आधार पर की जाती है. बड़ी संख्या में जमीनों के मालिक ऊंची जातियों के हैं तो किसान मध्यम और कृषि मजदूर बड़ी संख्या में दलित व आदिवासी हैं. उन के पास कोई जमीन नहीं है. खेतों में मेहनत यही वर्ग करता है पर उन के लिए कोई सामाजिक, आर्थिक सुविधा, सुरक्षा नहीं है.

1997 की 9वीं योजना के ड्राफ्टपेपर के अनुसार, 77 फीसदी दलित और 90 फीसदी आदिवासी या तो कानूनन भूमिहीन हैं या वास्तव में भूमिहीन हैं.

  1. अब जरा नए बिल की कुछ खास बातों पर गौर करते हैं : 
  2. जमीन संबंधी नई नीति केवल गाइडलाइन उपलब्ध कराएगी और जमीन राज्य का विषय होगा. भूमि विवाद सुल?ाने के लिए लैंड ट्रिब्यूनल की स्थापना की जाएगी.
  3. भूमिहीन को 0.1 एकड़ (4,356 स्क्वायर फुट के बराबर) से कम जमीन नहीं मिलेगी. जमीन परिवार की वरिष्ठ महिला सदस्य के नाम होनी चाहिए.
  4. पिछले समय धर्म, शिक्षा का कारोबार और प्लांटेशन जैसी फर्जी योजनाएं खूब फलीफूलीं. सरकारों ने इन्हें कौडि़यों के भाव जमीनें बांटीं लेकिन नए बिल में धार्मिक, शैक्षिक, अनुसंधान और औद्योगिक संगठनों के साथसाथ प्लांटेशन के लिए कोई जमीन नहीं मिलेगी.
  5. बिल के अनुसार, राज्य स्तर पर भूमि बैंक की स्थापना की जाएगी.
  6. नए बिल में जमीन कहां से आएगी, इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भूदान, वक्फ की जमीन के कब्जों को हटा कर सरकारें जमीन अपने कब्जे में ले सकेंगी. बिल में कुछ संस्थाओं के लिए जमीन की सीलिंग निर्धारित कर दी गई है. धार्मिक, शैक्षिक, चैरिटेबल संस्थाओं की जमीन 15 एकड़ से अधिक न हो सकेगी.

बिल में राज्य में सिंचाई के लिए10 एकड़ और गैर सिंचाई के लिए15 एकड़ जमीन की सीलिंग तय की गई है.दरअसल, दिखने में यह बिल बड़ा अच्छा है. मानो इस से भूमिहीनों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों की जमीन व घर की समस्याएं खत्म हो जाएंगी और विस्थापितों को मुआवजा मिल जाएगा लेकिन जैसा कि हमारे देश के अन्य कानूनों का हश्र होता आया है, इस में भी नौकरशाहों की मरजी पर कोई अंकुश की बात नहीं है. भूमि अर्जन पर मुआवजे से ले कर पीडि़त को अन्यत्र जमीन और मकान देने के प्रावधान पर कलैक्टर का हुक्म हावी रहेगा. हमेशा की तरह गरीबों, भूमिहीनों का माईबाप कलैक्टर ही होगा. मुआवजा आसानी से मिल जाएगा, बिना घूस दिए, इस बात की कोई गारंटी नहीं है.

लेकिन हां, इस बिल में कुछ बातें जरूर ठीक हैं. मसलन, अधिगृहीत की जाने वाली जमीन को किनकिन लोकहित के लिए उपयोग में लाया जाएगा, इसे स्पष्टतौर पर परिभाषित किया गया है. भारतीय किसान यूनियन के महामंत्री युद्धवीर सिंह कहते हैं कि इस में किसानों के लिए पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान नहीं है. जिन जमीनों का अधिग्रहण किया गया है उन्हें अभी भी बुनियादी हक नहीं मिल पाया है.

भाजपा नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि हम ने 12 सु?ाव दिए थे जिन पर सरकार सहमत है. हम ने सरकार से कहा कि जब आप भूमि अधिगृहीत करते हैं तो अपने मूल किसान को 50 प्रतिशत मुआवजा देंगे, इस पर सरकार सहमत थी. राज्य सरकार अपने खुद के कानून बना सकेगी, इस की इजाजत केंद्र देने के लिए राजी है. जैसा कि जमीन लीज का मामला राज्य का विषय है, यह मांग भी स्वीकार की गई कि भूमि अधिग्रहण के अलावा भूमि डैवलपर्स को लीज पर दी जा सकेगी, ताकि उस का मालिकाना हक किसानों के पास रह सके और वे इस से नियमित आय पा सकें.

भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता धर्मेंद्र कुमार मलिक कहते हैं कि नए भूमि अर्जन विधेयक से किसानों को कोई फायदा नहीं मिलेगा. इस में बहुफसली भूमि के अधिग्रहण के लिए जो अपवाद की बातें जोड़ी गई हैं उन से जब चाहे कोई कलैक्टर किसी भी जिले की बहुफसली जमीन का अधिग्रहण कर सकेगा. दरअसल, आजादी के बाद से ही भूमि सुधार की प्रक्रिया चलती रही है. पहले जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और हर पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार के लिए नीतिनियमों को शामिल किया गया. सभी राज्य सरकारों से कहा गया कि कृषि भूमि सीलिंग ऐक्ट और अधिकतम भू अधिग्रहण सीमा को ले कर कानून बनाएं और भूमिहीनों व सीमांत किसानों को सरप्लस जमीन बांटी जाए.

1961 तक करीब सभी राज्य सरकारों ने कृषि भूमि सीलिंग कानून पारित कर दिए थे. जागीरदारी प्रथा उन्मूलन के पूरी तरह नाकाम रहने के परिणामस्वरूप योजना आयोग ने 1955 में सभी राज्य सरकारों को अधिग्रहण व भूमिहीनों और अन्य सीमांत किसानों को भूमि आवंटन करने के लिए कृषि भूमि जोत की सीलिंग करने की सलाह दी पर कानून (विधि निर्माण) में पूरी तरह से लूपहोल थे और बड़े भूस्वामियों के ही पक्ष में थे.

यह साफतौर पर जाहिर होता रहा कि ज्यादातर राज्य सरकारों ने जानबू?ा कर भूमि सीलिंग कानून में बड़े भूमालिकों के फायदे को देखते हुए विलंब किया. जमीन रिकौर्ड को और सरप्लस जमीन को ट्रांसफर करने में सरकारी नौकरों और बड़े भूमालिकों ने मिल कर खूब आपसी स्वार्थ साधे. नए विधेयक में कहींकहीं जो किंतुपरंतु हैं, उन से नौकरशाही और जमीन व संपत्ति संबंधी पुरानी मिल्कियत वाली सोच को प्रश्रय जरूर मिलेगा. यानी कई चीजें नौकरशाहों की मरजी पर होंगी. किंतुपरंतु  इस में इसलिए लगाया गया है ताकि सरकार अपनी मनमरजी चला सके.

नौकरशाही को मुआवजा देने, विस्थापितों के पुनर्वास के लिए घूसखोरी के रास्ते खुले दिखाई देते हैं. इसे रोकने के लिए कानून में कोई प्रावधान नहीं किया गया है.असल में सरकारों ने उद्योगों को जमीन, कर्ज व सब्सिडी जैसी अनेक सुविधाएं व अधिकार मुहैया करा दिए पर यह उन किसानों, मजदूरों की कीमत पर जो भूस्वामी थे और जो मेहनत करने वाले थे. यह जो बाद वाला वर्ग है वह हमेशा सरकार पर आश्रित रहा और सरकारें पहले वाले वर्ग के इशारे पर चलती रहीं.

इसी वजह से देश दो भागों में बंटा दिखने लगा. एक बड़ा हिस्सा मेहनत करने वालों का और दूसरा सत्ता के साथ मिल कर जमीन, संसाधन हड़प लेने और उस से मिलने वाले फायदे को स्वयं पचा लेने वाला. दरअसल, नया कानून जमीन और संपत्ति के समान वितरण की व्यवस्था प्रदान करेगा. हो सकता है निजी कंपनियों, किसानों और मजदूरों से जुड़े प्रावधानों को ले कर कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के चलते कानून को लागू करने में दिक्कतें आएंगी.

अभी भी सामाजिक, सरकारी सोच में बदलाव नहीं आया है. फिर भी देरसबेर लोग जागरूक होंगे तो धीरेधीरे शहरी, बेजमीन, बेघर लोगों को उन का हक मिलने लगेगा और सिर्फ अपना फायदा देखने वाले औद्योगिक जगत की पुरानी सोच में भी धीरेधीरे तबदीली आ पाएगी. जमीन के समान बंटवारे को ले कर चल रहे भेदभाव और नाइंसाफी के खिलाफ अंगरेजों ने करीब 117 साल पहले और अब फिर एक विदेशी महिला सोनिया गांधी ने भूसंपत्ति से जुड़ा हक लोगों को कानून के जरिए दिलाने का प्रयास किया है.

नया बिल उद्योगों, कौर्पोरेट के साथसाथ किसानों, मजदूरों, आदिवासियों की भूमि संबंधी आवश्यकताओं का संरक्षण करने वाला है. देश की संपत्ति में असमान वितरण वाली धार्मिक, सामाजिक और सरकारी व्यवस्था को इस तरह के कानूनों से बदला जा सकता है.

पिटाई समस्या का हल नहीं

पतियों के हाथों पिटती पत्नियों के लिए तो पूरा समाज आंसू बहाता है पर पत्नी यदि पीटने पर उतारू हो जाए तो पति बहुत ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है. आज की जिम जाने वाली, शरीर से स्वस्थ पत्नी पति से ज्यादा ताकतवर हो सकती है और पति की खासी पिटाई कर सकती है, विशेषकर तब जब पति को किसी गलती का एहसास कराना हो. वैसे पत्नियां जो पिटती हैं और मुंह बंद रखती हैं उन में से ज्यादातर जानती हैं कि उन की खुद की गलती कम नहीं होती पर उन्हें दूसरों की सहानुभूति मिल जाती है.

अमेरिका में पत्नी की पिटाई से एक पति इतना तंग आ गया कि उस ने न केवल पत्नी की हत्या कर दी, मरी पत्नी के फोटो फेसबुक पर डाल कर खुद को पुलिस के हवाले कर दिया कि कानून उसे मौत की सजा दे या उम्रभर की कैद.

दरअसल पिटाई, खासतौर पर पतिपत्नी के बीच किसी समस्या को हल नहीं कर सकती. यह सामाजिक देन है कि पीटने से आप दूसरे को डरा सकते हैं. बाहर के लोग चाहे पिटाई की वजह से चुप हो जाएं पर जिसे घर में रहना है उसे पीट कर पीटनेवाला कुछ नहीं पा सकता. यह पिटाई भाईबहनों में हो, बापबेटेबेटी में हो या पतिपत्नी में, निरर्थक है. यह हिंसा प्रकृति की देन नहीं है. पशु आक्रामक प्रतिद्वंद्वी से लड़ते कम हैं, मान जाते हैं. केवल माया को पाने के लिए या अपने अधिकार क्षेत्र को बचाने के लिए वे लड़ते हैं. जो दूसरों को मार कर खा जाते हैं उन का मामला दूसरा है.

पतिपत्नी के बीच में जब हिंसा का सा माहौल हो जाए तो घर छोड़ देना सब से सरल और सही उपाय है. जिसे लगे कि उस के साथ अन्याय हो रहा है, उसे घर छोड़ कर चले जाना चाहिए, चाहे कम सुविधाओं में जीना पड़े. सुविधाओं, बच्चों के भविष्य, पैसे के लिए हिंसा सहना गलत है. यह आत्मसम्मान के भी खिलाफ है और अव्यावहारिक भी. सब से बड़ी बात यह है कि जिस घर या जिन बच्चों को बचाने के लिए हिंसा सही जाती है, वे कभी एहसान नहीं मानते. हिंसा के शिकार के प्रति आदर कभी नहीं पनपता, हिंसा करने वाले के प्रति चाहे गुस्सा, क्षोभ, घृणा हो.

ओसामा और पाक सरकार

वर्ष 2011 में अमेरिका के सैनिकों द्वारा देर रात में हैलिकौप्टरों से पाकिस्तान की सीमा में 100 किलोमीटर अंदर घुस कर ओसामा बिन लादेन के ऐबटाबाद के गुप्त ठिकाने पर हमला कर उसे  मार डालने से जहां अमेरिका ने अपना संकल्प पूरा किया वहीं उस ने पाकिस्तान सरकार को लुंजपुंज साबित कर दिया. इस की जांच के लिए पाकिस्तान सरकार द्वारा बैठाए गए आयोग की तैयार रिपोर्ट को एक विदेशी चैनल ने प्रसारित कर दिया जबकि पाकिस्तान सरकार की इस पर चुप रहने की मंशा थी.

आयोग ने यह तो जाहिर किया है कि ओसामा बिन लादेन 2002 से पाकिस्तान के विभिन्न शहरों में रह रहा था पर इस बात को मानने में आयोग हिचका है कि सेना प्रमुख, राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को इस बाबत जानकारी थी. यह बात अजीब लगती है कि जिस व्यक्ति को पकड़ने के लिए अमेरिका बुरी तरह पीछे पड़ा हो और कई मिसाइल अटैक कर चुका हो, उस के बारे में पाकिस्तान की सरकार को मालूम न हो.

आयोग ने रास्ता निकाला है कि पाकिस्तान की सरकार बेहद निकम्मी साबित हुई है और साथ ही अमेरिका के सीमा में घुसने पर उसे दुश्मन होना करार दिया. आयोग को कोई सुबूत नहीं मिला जिस से वह सेना प्रमुख आदि की जानकारी में होने की बात को स्वीकारता पर वह आईएसआई, पाकिस्तान की विशेष गुप्तचर संस्था का हाथ अवश्य मानता है.

इस आयोग की रिपोर्ट वैसी ही है जैसे हमारे यहां के आयोग देते हैं-न इधर की बात करते हैं न उधर की. मोटे से गं्रथ में घुमाफिरा कर तीनचौथाई ऐसे तथ्य दे देते हैं जो सब को मालूम होते हैं. पाकिस्तान के लिए ओसामा बिन लादेन को पनाह देना लगभग अनिवार्य था क्योंकि उसी के बल पर वह अमेरिका को लगातार ब्लैकमेल करता था और उस से सहायता लेता था. जब तक ओसामा को मारा नहीं गया, पाकिस्तान की हर बात अमेरिका मानता गया. पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र के लौटने के आसार अगर दिख रहे हैं तो इसीलिए कि अब सेना और मुल्लाओं को एहसास होने लगा है कि अमेरिका को अब ब्लैकमेल करना संभव नहीं है.

यह आयोग यह स्पष्ट करता है कि कई बार सरकारें कितनी असहाय होती हैं कि अपने यहां छिपे व्यक्ति के बारे में भी उन्हें कुछ नहीं मालूम होता. सरकारें सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक नहीं, यह ओसामा बिन लादेन ने मर कर साबित कर दिया.

 

बरातघर से कमाई

दिल्ली में एक बैंक्वैट हाल खोलने की इजाजत देने के लिए 30 लाख रुपए की घूस नगर निगम अधिकारियों को देने के आरोप में 2 व्यवसायियों और निगम के कुछ अफसरों को पकड़ा गया है. छापों में नगर निगम के अफसरों के घरों की तलाशी में बहुत नकदी मिली है जो वे अपने सामान्य वेतन से बचा ही नहीं सकते. दिल्ली में अब शादीब्याह करने के लिए शहर के बीच पार्क नहीं बचे हैं. अब फिल्म ‘बैंड बाजा बरात’ की तरह गली में तंबू लगा कर शादी करना भी कठिन हो गया है क्योंकि दूसरे नागरिकों को बहुत कठिनाइयां होती हैं. यह दिक्कत अब दूसरे बड़े शहरों में ही नहीं छोटे कसबों और यहां तक कि गांवों में भी होने लगी है. अब गांवों में भी बाकायदा बारातघर बनाए जाने लगे हैं.

नगर निगम के अफसरों को हर जगह इस परिवर्तन से खूब कमाई हो रही है. उन की तरकीब होती है कि किसी भी बैंक्वैट हाल को बनाने के लिए अनापशनाप नियम बना दो. आग बुझाने वाले विभाग, जमीन के उपयोग के विभाग, पुलिस, स्वास्थ्य विभाग, खाद्य विभाग, प्रदूषण विभागों को लपेट कर एक बैंक्वैट हाल चलाने के लिए बीसियों कागजों का इंतजाम करने के नियम बना डालते हैं. फिर वे हर अनुमति देने से पहले दूसरों की अनुमति का प्रमाण मांगते हैं. नतीजा यह है कि बैंक्वैट हाल को कानूनन कोई चला ही नहीं सकता.

अब चूंकि यह काम पेचीदा हो गया है, मुनाफा भी बढ़ गया है, इसलिए जो बैंक्वैट हाल मालिक हेरफेर, राजनीतिक पहुंच और अफसरों को सही चढ़ावा चढ़ा दे वही इन्हें चला सकता है और मनमाने दाम वसूल सकता है. शादी करने वालों को अब मन मार कर इस खेल में शामिल होना पड़ता है. ठेके कर सारे नियमों को ताक पर रखने के पैसे दिए जाते हैं. शायद इसी पैसे के लेनदेन पर हुए किसी विवाद के कारण व्यवसायी और अफसरों को पकड़ा गया है. अगर सभी अवैध बैंक्वैट हालों के मालिकों और उन्हें अवैध इजाजत देने वालों को पकड़ा जाए तो एक और तिहाड़ जेल किसी के बैंक्वैट हाल में ही बनानी पड़ेगी.

अफसोस है कि सरकार शादी जैसे पुनीत काम में भी अपना हिस्सा, वह भी मोटा, मांगने में हिचकिचाती नहीं है. यह खर्च हमारे समाज में आमतौर पर लड़की का पिता करता है और इन अफसरों को उन से कोई हमदर्दी नहीं होती.

शादी और मौत 2 ऐसे अवसर हैं जहां रिश्वत नहीं होनी चाहिए पर इस देश की महान संस्कृति का कमाल है कि यहां दुलहन के जोड़े और कफन दोनों का कपड़ा काटने वालों की कमी नहीं, उलटे उन्हें इनाम मिलता है कि वाह, क्या कमाई की है.

किसानों की जमीन

देशभर में किसानों की जमीनों को बेरहमी से छीन कर उद्योगपतियों, निजी कालेजों और रिहायशी कालोनियां बनाने वालों को बिना डरे और बिना कानून का पालन किए दिया जा रहा है. राज्य सरकारों के पास किसानों से जमीन छीन कर बेचना राजनीतिक सत्ता का एक मुख्य आकर्षण है और नौकरशाही इस में बढ़चढ़ कर भाग लेती है. अगर दूध पहुंच वाले व्यापारियों को मिलता है तो मलाई अफसरशाही को और जो खुरचन नेताओं को मिलती है वही उन के लिए बहुत होती है.

गनीमत है अब अदालतों ने अपना रुख बदला है और वे ज्यादा मुआवजा दिलाने में लग गई हैं, चाहे अधिग्रहण को पूरी तरह निरस्त न कर रही हों. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के निकट नोएडा ऐक्सटैंशन में कई साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार के आपात अधिग्रहण पर सुनवाई करने के दौरान किसानों को बेदखल करने से इनकार कर दिया है. मजेदार बात यह है कि बहुत से बिल्डर जमीन मिलने से पहले ही वहां हवा में बिल्डिंग बना कर फ्लैट बेच चुके थे और कम से कम 50 हजार लोगों से पैसा जमा करा चुके थे. अब बिल्डरों का पैसा तो फंस ही गया है, भोलेभाले नागरिकों की भी जमापूंजी फंस गई.

अभी 20 साल पहले तक गांवों की खेती की जमीनों की कीमतें बहुत कम थीं. खेती से तो आज भी आमदनी बहुत कम है. जो किसान केवल खेती के लिए भी जमीन खरीदते हैं वे जानते हैं कि लगी पूंजी पर मुनाफा कमाना तो दूर ब्याज भरने लायक भी उपज न होगी. उन का आकर्षण केवल यह होता है कि तेजी से कृषि भूमि के जो दाम बढ़ रहे हैं, उस की वजह से जब वे जमीन बेचेंगे तब अगलापिछला सब चुकता कर देंगे.

देश के ऐसे कानून को जिस के तहत किसी की जमीन को निजी काम के लिए सरकार द्वारा छीन लेना, जनता के जीने का हक छीनने वाला कानून कहा जाएगा. इस का मतलब है कि देश में न्याय नहीं, सरकारी धौंस और तानाशाही चलती है और 60 साल का वोट डालने का हक केवल उंगली पर लगे निशान के बराबर का है. असली हक तो इन नौकरशाहों और उन की उंगलियों पर नाचते चुने हुए नेताओं का है जो जनता के हक को दबाने को असली सरकारी शक्ति मानते हैं. यह अच्छा है कि अब सरकारें चेत रही हैं. अदालतें किसानों के हक में खड़ी हो रही हैं और अफसरों, व्यापारियों व नेताओं के गठजोड़ पर थोड़ा अंकुश लग रहा है. पर यह कितने दिन चलेगा?

 

सीमा पर हमला

पाकिस्तानी घुसपैठियों द्वारा पुंछ क्षेत्र में घुस कर 5 भारतीय सैनिकों को मार डालना बेहद गुस्सा दिलाने वाली दुखदायक घटना है जो सवाल खड़ा करती है कि पाकिस्तान की नई चुनी सरकार भरोसे लायक है या नहीं. नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कई बार भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने की बात कही है पर 2014 के चुनावों के मद्देनजर भारत सरकार की प्रतिक्रिया फीकी रही है. लेकिन भारत सरकार ने इस घटना को खासा तूल दिया है.

यह हमला घुसपैठियों का था या सैनिकों का, कहना मुश्किल है. 5 जवानों को मार कर पाकिस्तान कुछ साबित नहीं कर सकता. पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति ऐसी नहीं है कि वह भारत से एक और युद्ध झेल सके. पाकिस्तान को तो फिलहाल खुद से लड़ना पड़ रहा है और वहां सरकार लड़खड़ाती चल रही है. अगर अमेरिकी सहायता और विदेशों में बसे पाकिस्तानियों का पैसा न होता तो पाकिस्तान कब का दिवालिया हो चुका होता. लड़ने की क्षमता तो भारत की भी कम हो गई है. 5 साल पहले जो जोश देश में था वह काफूर हो गया है. रुपए का गिरता मूल्य, महंगाई और ऊपर से बढ़ती लूट, रिश्वतखोरी, अव्यवस्था व विघटनी ताकतों की जीत ने भारतीयों के मन में डर बैठा दिया है. नरेंद्र मोदी जैसे कट्टर, अंधविश्वासी नेता का मुख्य विरोधी दल को हथिया लेने से वह स्थिति बनने लगी है जो देश में असमंजस का माहौल पैदा कर दे और ऐसे में पाकिस्तान से दोदो हाथ करने की शक्ति देश में नहीं है. जबरन युद्ध थोपा गया तो लड़ना पड़ेगा ही पर यह देश के लिए बेहद महंगा साबित होगा.

इस घुसपैठी घटना को नजरअंदाज किए बिना, पर गुस्से से नहीं, कूटनीति से मामला सुलझे तो ही बात बनेगी. हम यह भी नहीं दिखा सकते कि कभी पाकिस्तान, कभी चीन तो कभी म्यांमार भारत में जब चाहे सैर करने आ जाएं. सीमाओं पर आनाजाना लगा रहता है पर यदि दूसरे की नीयत खराब हो तो चिंता होना स्वाभाविक है.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, जुलाई (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘नए दलदल में फंसता समाज’ में आप ने देश, समाज व जनता की उस रग पर हाथ रखा है जिस से उठती, निकलती पीड़ा को न तो हमारे प्रशासक अनुभव कर पाते हैं और न ही हमारे रणनीतिकार, कि उन की नीतियों के दुष्परिणाम भी हो सकते हैं. कारण, बापू के इन आहतपूर्ण शब्दों में समाहित है, ‘जाके पांव न फटे बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई.’

मेरा यह लिखने या मानने का मतलब यह कतई नहीं है कि बलात्कार या बलात्कारियों या फिर महिलाओं से छेड़छाड़ करने या उन का शारीरिक शोषण करने वालों के विरुद्ध कोई कानून नहीं बनाया जाना चाहिए बल्कि यह है कि ऐसे कानून बनने चाहिए और वे न केवल सख्त होने चाहिए, बल्कि सख्ती व ईमानदारी से लागू भी किए जाने चाहिए.

वहीं, इस बात का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि 498ए (दहेज विरोधी) सरीखे कानून की तरह ऐसे कानूनों का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए. सोने पर सुहागा तो तब माना जाएगा जब महिलाओं की सुरक्षार्थ बने कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को भी कालकोठरियों का रास्ता दिखाया जाए, ताकि किसी निर्दोष का अनावश्यक जीवन बरबाद न हो सके.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

*

संपादकीय टिप्पणी ‘गुप्त सूचनाएं और लोकतंत्र’ पढ़ी. वास्तव में आप ने इस टिप्पणी में एक नई बात बताई जो काफी प्रशंसनीय है.

लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार कुछ भी छिपा कर न करे. शत्रुओं की बातें जानने के लिए की जा रही जासूसी भी इतनी गुप्त न हो कि उन का दुरुपयोग किया जाने लगे.

तानाशाह देश पहले बोलने, सोचने व कुछ करने की स्वतंत्रता पर रोक लगाते हैं, फिर वे अपना राज बनाए रखने के लिए विरोधियों की गतिविधियों पर नजर रखना शुरू कर देते हैं. अगर लोकतंत्र में भी यही हुआ तो फिर कैसा लोकतंत्र?

अमेरिकी सरकार का कहना है कि वह नागरिकों की बातें इसलिए सुन रही है ताकि आतंकवादियों की जानकारी पहले मिल जाए. सरकार की गुप्त सूचनाएं जगजाहिर करना देशद्रोह है या नहीं, यह मामला अमेरिका में तूल पकड़ रहा है. अमेरिकी सरकार लगातार जनता पर नजर रख रही है और आम आदमियों से ले कर खास हस्तियों तक के ईमेल पढ़े जा रहे हैं, टैलीफोन वार्तालाप सुने जा रहे हैं और मैसेज कहां से आए व कहां गए, का रिकौर्ड रखा जा रहा है.

इन गुप्त बातों को जानने के लिए कभी दूसरे देश के गुप्तचर भारी रकम देने को तैयार रहते थे पर आज उत्साही युवा बिना मूल्य के अपनी सरकार के गुप्त भेद जगजाहिर कर रहे हैं.

29 साल के एडवर्ड जोसेफ स्नोडेन ने आतंकियों को पकड़ने के नाम पर रिकौर्ड की गई बातों को अमेरिकी प्रैस को खुल्लमखुल्ला बिना कुछ चाहे बता दिया, जिसे सिरफिरा या फितूर कहा जा सकता है. पर ऐसे ही लोग असल में लोकतंत्र के रक्षक हैं और निरंकुश सरकार पर रोक लगा सकते हैं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*

संपादकीय टिप्पणी ‘प्रकृति का प्रकोप’ पढ़ी. उत्तराखंड व ?ारखंड दोनों राज्यों, जो विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश और बिहार से अलग हुए थे, ने साबित कर दिया कि राज्यों को तोड़ कर जो राज्य बनते हैं, उस से उन का विकास नहीं केवल विनाश होता है, शोषण व दोहन होता है.

?ारखंड का निर्माण होते ही वह नक्सलियों के निशाने पर आ गया. फिर ?ारखंड के साथसाथ पूरे देश में नक्सलियों ने अपने पांव पसार लिए.

15 वर्ष पूर्व तक जिन का नाम तक सुनने को नहीं मिलता था, आज आएदिन वे अपनी करतूतों से देश को खोखला किए जा रहे हैं. आदिवासियों के नाम पर ?ारखंड बनने से आदिवासियों का कितना भला हुआ, यह तो वे ही जानें. शिबू सोरेन या अर्जुन मुंडा, ये सब नेता ?ारखंड को एक स्थिर पंचवर्षीय सरकार तक न दे सके, सुशासन क्या देंगे. उलटे ?ारखंड को नक्सलियों की भेंट चढ़ा दिया.

यही हाल उत्तराखंड का हुआ. सत्ता में बैठे लोगों को केवल पर्यटन से कमाई सू?ा, जिस में उन्होंने पर्यावरण की सुरक्षा को बहुत पीछे छोड़ दिया. यह तो वही बात हुई, ‘जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को काट रहे हैं.’

इसलिए जब व्यक्ति बिना सोचेसम?ो प्रकृति का शोषण करता है तो प्रकृति भी अपना संतुलन खो बैठती है और विनाशलीला कर बैठती है. प्राकृतिक संतुलन न बिगड़े इसलिए जरूरी है कि प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाए.

वनिता सिन्हा, विंध्यनगर, (म.प्र.)

*

उत्तराखंड में बीते दिनों भीषण तबाही के लिए जिम्मेदार लोगों की ओर ध्यान खींचती आप की संपादकीय टिप्पणी ‘प्रकृति का प्रकोप’ पढ़ी. इस में कोई?झूठ नहीं कि अमीर लोगों के ऊलजलूल तरीके से अर्जित धन को धर्म के नाम पर खर्च करवाने में पंडेपुजारियों और धंधेबाजों का ही योगदान रहा है. ताज्जुब की बात यह है कि अब भी सरकार को पंडों का ध्यान है. उन की मदद का वास्ता दिया जा रहा है. परंतु अनंत लोगों की तबाह हुई जिंदगी को पटरी पर लाने का जिक्र कहीं भी नहीं है.

भला हो हमारे जांबाज सैनिकों का जिन्होंने जान पर खेल कर हजारों नागरिकों को मौत के मुंह से बाहर निकाला. आप ने सही लिखा है कि धर्म के ठेकेदारों का मानव रक्षा कर पाना न तो पहले बस का था और न आगे भी होगा. सही सू?ाबू?ा और स्वस्थ चिंतन ही काम आता है.

छैल बिहारी शर्मा, छाता (उ.प्र.)

*

प्रकृति का प्रकोप

जुलाई (द्वितीय) अंक में लेख ‘उत्तराखंड : प्रकृति की भयंकर मार, भक्त धंधेबाजों के शिकार’ व संपादकीय टिप्पणी ‘प्रकृति का प्रकोप’ पढ़ी. लेखक और आप के विचार एकसमान ही पाए. इसी में अपना मत भी समाहित लगा. मसलन, अंधभक्त टोलियों की टोलियों में जाते हुए कुछ यों गुनगुनाते से पाए जाते हैं, ‘चलो बुलावा आया है, फलां ने बुलाया है.’ पूछने पर कहते हैं, ‘कोई भी कहीं भी तभी जाता है जब प्रभु उन्हें बुलाता है, उस की इच्छा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता.’

इसे सत्य मान भी लिया जाता, अगर ये ही भक्तजन जब प्रकृति के प्रकोप में फंसे, तब मानते. मगर कोई भी भक्त यह स्वीकारने को तैयार नहीं था कि यह कोई प्रकोप नहीं बल्कि प्रभु की इच्छा थी.

ऐसे ही तो सत्यअसत्य या फिर आस्थाअनास्था से परदा उठता है और साथ ही, यह सवाल भी हथौड़े समान सिर पर पड़ता सा लगता है कि जो भक्त उस में इतनी आस्था रखते हैं, वह उन पर क्यों इतना कहर बरपा रहा है? लेकिन इन अंधविश्वासियों को कौन सम?ाए कि जो प्रभु स्वयं अपनी मूर्तियों या अपने पुजारियों तक की रक्षा न कर पाया, वह भला भक्तों की रक्षा कर भी कैसे सकता था? तुर्रा फिर भी देखिए कि जो बचा लिए गए, वे अब भी प्रभु के ही एहसानमंद हैं, सुरक्षाबलों या सैनिकों के नहीं, जिन्होंने जान दे कर उन्हें बचाया.

टी सी डी गाडेगावलिया, (न.दि.)

*

अंधविश्वास और प्रकृति

जुलाई (द्वितीय) अंक पढ़ा. लेख ‘उत्तराखंड : प्रकृति की भयंकर मार, भक्त धंधेबाजों के शिकार’ के तहत उत्तराखंड आपदा पर गहरा प्रकाश डाला गया है, जो अक्षरश: सत्य है. आश्चर्य की बात है कि एक तरफ तो हम कणकण में ईश्वर के होने का दावा करते हैं और वहीं ईश्वर दर्शन के लिए जंगलों व पहाड़ों में मारेमारे फिरते हैं. उस पर भी यदि हम सहीसलामत वापस आ जाते हैं तो ईश्वर की कृपा और अगर मौत के मुंह में समा जाते हैं तो प्रशासन व्यवस्था को दोष देते हैं.

चारधाम यात्रा हो या कुंभ स्नान, तीर्थयात्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. इन जगहों पर व्यवस्था चुस्तदुरुस्त करने के लिए हर साल सरकारी खजाना खाली होता है जिसे भरने के लिए सरकार द्वारा टैक्स बढ़ाया जाता है जिस से महंगाई बढ़ती है.

तत्कालीन हिंदूवादी नेता तो जनता के दिए गए रुपयों से ही सारे इंतजाम कर वाहवाही लूट अपना वोट पक्का करते थे मगर जनता को यह बात सम?ा में नहीं आती. उत्तराखंड आपदा में अपने कई साथियों की जान गंवा कर भी सेना ने जिस तरह से लोगों को मौत के मुंह से बाहर निकाला है, वह सराहनीय है. मगर शर्म की बात यह है कि उन बहादुर सैनिकों के घरों को आबाद करने के बजाय पंडेपुरोहित केदारनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना पर जोर दे रहे हैं.

उन्हें अपनी पोथियों के बह जाने की चिंता है परंतु उन सैनिकों की विधवाओं का बहता सिंदूर और उन के बच्चों के मिट्टी में मिलते भविष्य की उन्हें कोई चिंता नहीं है.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

*

पति, पत्नी और दोस्त

जुलाई (द्वितीय) अंक में लेख ‘लड़ाई पतिपत्नी की, खिंचाई दोस्तों की’ पढ़ कर आनंद आया. पहले जमाने में यह माना जाता था कि पत्नी हर बात में पति का कहा ही मानेगी. ऐसे में लड़ाइयां या तो होती ही नहीं थीं और यदि कभी हो भी गई तो घर से बाहर उस की भनक कम ही सुनाई देती थी.

आजकल पति और पत्नी की बराबर की पढ़ाई, नौकरी, पैसा होने से घरेलू बातों में दोनों की राय जरूरी हो गई है, जिस से तकरार के मौके भी बढ़ गए हैं.

यह भी किसी हद तक सच है कि पतिपत्नी लड़ते जरूर हैं लेकिन अलग होने के लिए कभी नहीं लड़ते. कभीकभी दोनों का स्वाभिमान उन को एकदूसरे से न बोलने पर मजबूर कर देता है. मेरे एक मित्र और उन की पत्नी बहुत सालों के बाद भी हमें, उन के कुछ ?ागड़े खत्म करवाने के लिए अभी तक याद करते हैं. मेरा मित्र दफ्तर के कामों में कुछ अधिक ही समय बिताता था तो जाहिर है पत्नी के लिए समय कुछ कम निकल पाता था.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

*

चोरी फिर भी सीनाजोरी

जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘सीएजी : क्या इन में भी है दम’ हमारे भ्रष्ट राजतंत्र व नेतातंत्र की लूटपाट का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करता है. पूर्व सीएजी विनोद राय अपनी कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी के लिए सदा याद किए जाएंगे. क्योंकि सीएजी की निजी कंपनियों की जांच से न केवल उन की और सरकार की मिलीभगत का पता चला बल्कि यह खुलासा हुआ भी कि किस प्रकार जनता की गाढ़ी कमाई का बंदरबांट किया जा रहा है. नतीजतन, देश की अर्थव्यवस्था चरमराई और तमाम विकास कार्य बाधित हुए. उलटे, सीएजी को अपनी हद में रहने की चेतावनी दी जाती रही. यानी चोरी उस के ऊपर सीनाजोरी. टू जी स्पैक्ट्रम, कौमनवैल्थ और कोयला घोटालों ने कुछ सत्ताधारियों के मुंह पर कालिख पोत दी है और सरकार कठघरे में है.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

*

यह कैसा लोकतंत्र

जुलाई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘लोकतंत्र में हिंसा’ के संबंध में मेरे अनुभव के हिसाब से इस देश में लोकतंत्र कहने व किताबों में लिखने भर को है. वास्तव में देखा जाए तो लोकतंत्र का सही माने में अर्थ होता है जनता का राज लेकिन हो रहा है इस के विपरीत. जो जनसेवक है या लोकसेवक वह तो वातानुकूलित बंगलों में रहते व वाहनों में घूमते हैं जबकि लोकतंत्र की रीढ़ आम जनता गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा के अभाव में जी रही है. क्या यही भारत का लोकतंत्र है?

निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव करने की घोषणा से ले कर मतपेटी खुलने तक तो 2 या 3 माह अवश्य इस देश में लोकतंत्र दिखता है. जब हर पार्टी के नेता अपने सांसदों व विधायकों के लिए उन लोगों से मतदान लेने या यह कहें कि मत पत्र अपने लिए पाने के लिए गांव, ढाणी, कसबों, नगरों, महानगरों के चक्कर लगाते हैं और मत देने की भीख मांगते हैं, यह आश्वासन भी देते हैं कि यदि उन्हें वोट दिया तो उन की गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा व अशिक्षा जैसी समस्याओं को दूर कर दिया जाएगा. लेकिन सत्ता में आने के बाद 5 साल तक आम मतदाता से बात करना वे उचित नहीं समझते. क्या यही लोकतंत्र है?

जगदीश प्रसाद पालड़ी ‘शर्मा’, जयपुर (राज.) 

टाटा जमीन सबलीज – अरबों का लगा चूना

झारखंड में टाटा स्टील कंपनी से जुड़े सबलीज विवाद ने सबलीजधारियों को अधर में लटका दिया. करोड़ों के निवेश के बाद निर्माण कार्य रोकने का फैसला और मामले के सियासी पेंच से इतर क्या है, पूरा मसला बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार.

झारखंड में टाटा स्टील कंपनी की सबलीज में गड़बड़ी का मामला स्टील फैक्टरी की ब्लास्ट फर्नेस की तरह गरम होता जा रहा है. इसे ले कर सियासी दल अपनीअपनी तलवारें खींच कर टाटा कंपनी को कठघरे में खड़ा करने में लगे हुए हैं. जबकि टाटा स्टील प्रबंधन ने इस मामले पर चुप्पी साध रखी है. टाटा स्टील कंपनी पर यह आरोप लगा है कि उस ने सरकार से लीज में मिली जमीन को दूसरी प्राइवेट कंपनियों को सबलीज पर दे कर सरकारी खजाने को करोड़ों रुपए का चूना लगाया है. कीमती जमीनों को औनेपौने भाव पर बिल्डरों को सबलीज पर दे दिया गया है और बिल्डर मनमानी कीमतों पर दुकान, औफिस व फ्लैट बना कर उन को बेचने की तैयारी में हैं.

गड़बड़ी को ले कर रांची हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है. इस मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग भी उठने लगी है. टाटा स्टील कंपनी ने 59 प्राइवेट कंपनियों को जमशेदपुर में 482 एकड़ जमीन सबलीज पर दी थी और इस से महज 11 करोड़ 59 लाख रुपए ही राजस्व के तौर पर सरकारी खजाने में जमा किए गए, जबकि अनुमान लगाया जा रहा है कि जितनी जमीनों को सबलीज पर दिया गया है उन की कीमत करीब 6 हजार करोड़ रुपए है. इस मामले को ले कर पीआईएल दायर करने वाले एडवोकेट राजीव कुमार कहते हैं कि जिन इलाकों में सबलीज पर जमीनें दी गई हैं वहां 1 डेसिमल जमीन की कीमत 10 लाख रुपए है.

साल 1907 में जमशेदपुर में टाटा स्टील को 30 साल के लिए लीज पर जमीन मुहैया कराई गई थी. हर 30 साल पर लीज ऐग्रीमैंट का रिन्यूअल किया जाता है. साल 1995 में ऐग्रीमैंट की अवधि खत्म हो गई और सरकार कान में तेल डाल कर सोई रही. साल 2005-06 में जब अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने टाटा लीज मामले का रिन्यूअल कराया.

इस मामले में गड़बड़ी होने के लिए विपक्षी दल अर्जुन मुंडा को भी घसीट रहे हैं. झारखंड विधानसभा में इस मामले को ले कर कई बार हंगामा भी हो चुका है. कांग्रेस के विधायक के एन त्रिपाठी कहते हैं कि टाटा सबलीज देने में करोड़ों रुपए की गड़बड़ी की गई है और सीबीआई जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है.

टाटा के सबलीजधारियों की जान हलक में फंसी हुई है. उन के लाखों करोड़ों रुपए निर्माण के कामों में लग गए हैं और अब प्रशासन के साथ टाटा स्टील ने भी निर्माण का काम रोकने का फरमान जारी कर दिया है. देवाशीष गुप्ता जांच कमेटी की सिफारिशों के आलोक में सरकार ने निर्माण कार्य रोकने का आदेश जारी किया. इस कमेटी ने साल 2010 में सरकार को जांच रिपोर्ट सौंपी थी.

उधर, टाटा का दावा है कि सबलीज आवंटन में पूरी तरह पारदर्शिता बरती गई थी और सबलीज देने का टाटा को कानूनी अधिकार है. 70 के दशक में कंपनी की ओर से 9 हजार लोगों को सबलीज दी गई. साल 2005 में लीज करार का रिन्यूअल करने और आवेदनों पर विचार करने के बाद 59 प्रस्तावों को एएमसी यानी एप्रोपिएट मशीनरी कमेटी के पास भेज दिया गया था.

राजस्व व भूमि सुधार विभाग के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, झारखंड सरकार के निर्देश पत्रांक 1876/ 12.07.2010 के तहत जमशेदपुर क्षेत्र में सबलीज बंदोबस्ती के संबंध में गड़बड़ी की जांच शुरू की गई थी. जांच कमेटी ने रिपोर्ट में लिखा है कि सिंहभूम चैंबर औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री ने भी सरकार को पत्र लिख कर कहा था कि व्यवसायी व्यक्ति द्वारा निजी मकसद के लिए तथाकथित सबलीज का आवेदन किया गया और बिना तय पारदर्शी प्रक्रिया के कीमती जमीनों को औनेपौने भाव में ले लिया गया. इस से सरकार को करोड़ों रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ है. गौरतलब है कि जमशेदपुर के लीज क्षेत्र होने की वजह से आमतौर पर वहां के औद्योगिक इलाके की जमीन को खरीदा और बेचा नहीं जा सकता है, उस पर कोई कारोबार या फैक्टरी शुरू करने के लिए टाटा कंपनी से ही सबलीज पर जमीन ली जा सकती है.

टाटा लीज डीड का रिन्यूअल 20 अगस्त, 2005 को हुआ था, जिस पर झारखंड सरकार की ओर से मुख्य सचिव पी पी शर्मा और टाटा की ओर से प्रबंध निदेशक बी मुत्थुरमण ने दस्तखत किए हैं. जमींदारी उन्मूलन के लिए बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 की धारा-2 में खनिज संबंधी लीज की श्रेणी में सबलीज को भी शामिल किया गया है ताकि इसे अमल में लाने में किसी तरह की परेशानी न हो.

सबलीज देने के लिए टाटा प्रबंधन को कंपनी की ओर से पारित प्रस्ताव को सरकार के पास भेजना चाहिए था. प्रस्ताव में यह लिखा जाना चाहिए था कि जिस कंपनी को सबलीज दी जाएगी उस की जरूरत क्या है? सबलीज देने में इस तरह की कोई जानकारी भी सरकार या क्षेत्रीय समिति को नहीं दी गई. सबलीज देने के एवज में किस से कितनी रकम ली जाएगी, इस में भी कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई.

जांच कमेटी ने सिफारिश की है कि सबलीज पर दी गई जमीनों का पट्टा रद्द कर के नए सिरे से सबलीज देने का काम किया जाए. इस के लिए खुली डाक का तरीका अपनाया जाए. सबलीज देने के तरीके से सरकार को अरबों रुपए का नुकसान हुआ है, इसलिए सबलीज देने की प्रक्रिया में सुधार की काफी जरूरत है, तभी मनमाने तरीके से जमीन का आवंटन बंद हो सकेगा.

जांच रिपोर्ट के आधार पर 25 सितंबर, 2012 को सरकार ने सबलीज पर दी गई जमीनों पर चल रहे सभी कंस्ट्रक्शन के कामों को बंद करा दिया है, जिस से सबलीज पर जमीन लेने वाले कारोबारियों और फैक्टरी मालिकों की जान हलक में फंस गई है. लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च करने के बाद काम पर रोक लगाने से हड़कंप मचना लाजिमी है. सरकार के रोक के आदेश के बाद बिष्टुपुर इलाके में 300 करोड़ रुपए की लागत से बन रहे मौल, 15 करोड़ रुपए की लागत से बन रही औटोमैटिक ऐंड मल्टीलेयर पार्किंग और 450 करोड़ रुपए की लागत से बन रहे जुसको कंपनी के मौल बनने का काम बंद हो गया है. इसी तरह गोलमुरी इलाके में बन रहे फाइवस्टार होटल और एक्सएलआरआई के ग्लोबल एमबीए प्रोग्राम पर भी ताला लटक गया है.

वहीं, सिंहभूम चैंबर औफ कौमर्स के अध्यक्ष आर के अग्रवाल का मानना है कि अगर टाटा सबलीज का आवंटन रद्द किया जाएगा तो सूबे के विकास का काम ठप पड़ जाएगा. सबलीज आवंटन में किसी भी तरह की धांधली नहीं की गई है. टाटा स्टील को यह अधिकार है कि वह सबलीज करे. साल 2005 के लीज करार के बाद जमशेदपुर में सबलीज आवंटन हुआ तो तरक्की की कई योजनाएं धड़ाधड़ जमीन पर उतरने लगी थीं, ऐसे में सबलीज के आवंटन को रद्द करना ठीक नहीं है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें