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यह भी खूब रही

मेरा बेटा यूएस में रहता है. कुछ साल पहले जब वह वहां गया तो उस ने एक पुरानी कार खरीदी. एक दिन उस कार की थर्मोस्टेट खराब हो गई. मैकेनिक ने कहा कि अभी मेरे पास यह पार्ट नहीं है, मैं इस की जगह पर एक स्विच लगा देता हूं, जब गाड़ी स्टार्ट करनी हो तो इसे भी औन कर देना और जब बंद करो तो स्विच को भी औफ कर देना.

इस तरह स्विच लगा कर भी गाड़ी अच्छा काम कर रही थी. कहीं आनेजाने में वह इसी गाड़ी का सहारा लेता था. एक दिन उस की वही गाड़ी चोरी हो गई. वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट करने गया.

पुलिस वालों ने कहा कि इस नंबर की गाड़ी उन्हें बीच सड़क में खड़ी मिली है, इसलिए आप पर जुर्माना लगेगा. फिर उन्होंने मेरे बेटे को गाड़ी दिखाई.  वह देखते ही सम?ा गया कि माजरा क्या है. उस ने पुलिस वालों को बताया कि इस में थर्मोस्टेट की जगह स्विच लगा हुआ था जो चोर ने औन नहीं किया और गाड़ी में से धुआं निकलने लगा, यह देख वह चोर कार बीच सड़क  में ही छोड़ कर भाग गया होगा. पुलिस वाले भी सारा माजरा समझ कर हंसने लगे. कहने लगे, ‘गुड आइडिया.

शशि बाला, उत्तम नगर (नई दिल्ली)

मेरे एक मित्र के घर लड़का पैदा हुआ. हम सभी मिल कर उन्हें बधाई देने पहुंचे. सभी ने उन से लड़के का नाम पूछा तो उन्होंने कहा कि वह लड़के का नाम ‘वीर’ रखने का सोच रहे हैं. यह सुन कर उन की बहन ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘ध्यान रखना कहीं बड़ा हो कर ये ‘वीर’ किसी ‘जारा’ को न ले आए.’’

तभी हमारे एक अन्य मित्र, जो कि बहुत ही हाजिरजवाब हैं, ने फिकरा कसा, ‘‘ ‘जारा’ तक तो ठीक भी है, कहीं ये ‘धरम-वीर’ की जोड़ी न बना ले.’’ यह सुन कर वहां हंसी का फौआरा फूट पड़ा.

रश्मि जैन, कोलकाता (प.बं.)

घटना 3 साल पहले की है. नईनई बहू शादी कर के घर में आई तो सासूमां ने बड़े प्यार से सम?ाया, ‘‘बेटी, अब यह तुम्हारी ससुराल है लेकिन तुम मुझे  अपनी सास नहीं मां समझो. अपने ससुर को पापा की तरह समझो और देवर को भाई मानो.’’

चूंकि बहू गांव की थी और बहुत ही सीधीसादी, सो उस ने सासूमां की बात गांठ बांध ली और जब शाम को पतिदेव औफिस से लौटे तो बहू अपनी सासूमां से चिल्ला कर बोली, ‘‘मांजी, भैया औफिस से वापस आ गए.’’ उन की बात सुन कर सब लोग हंस पड़े.  हालांकि उन्हें बाद में सब सम?ाया गया लेकिन उस समय तो सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

बी एस सोढी

 

पाठकों की समस्याएं

मैं45 वर्षीय विवाहिता, 2 बच्चों की मां हूं. प्रेमविवाह के कारण हम अलग रहने लगे थे. मेरी ससुराल वालों ने मेरे 4 वर्षीय देवर को मेरे पास भेज दिया जिसे मैं ने प्यार व दुलार से पाला. 8वीं कक्षा के बाद वह गांव चला गया.  इधर, शादी के 20 वर्ष बाद पति बीमार पड़ गए, तब अचानक वह देवर हमारे पास आया और मुझ से उस ने अजीब सी बात कही, ‘भाई तो ठीक होने वाले नहीं हैं, मैं ही आप का ध्यान रखूंगा,’ बाद में वह उलटीसीधी हरकतें करने लगा जिसे मैं ने कई बार टाला, डांटा भी. उस ने समझा भी और पैर छू कर मुझ से माफी भी मांगी. 

मुझे उस से चिढ़ हो गई है. मैं ने पति को भी सब बता दिया. उस के प्रति मेरे अब के व्यवहार को मेरे रिश्तेदार गलत लेते हैं क्योंकि वे बीच की बात नहीं जानते. मुझे बताइए, मैं कैसे सामान्य व्यवहार करूं जिस से घर का माहौल सामान्य हो जाए? 

बेशक आप के बच्चे समान देवर ने गलत व्यवहार किया जो सर्वथा निंदनीय है पर आप उस की मानसिकता को समझिए. आप ने बचपन से उस को दुलार दिया, बेशक बेटे समान पर वह आप से जुड़ा  और युवा होते उस के मन में आप की ही तसवीर अंकित हो गई जो एकदम गलत तो है पर युवावस्था की ओर जाते बच्चों में विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण अकसर हो जाता है. इसी वजह से वह आप से गलत हरकत तक कर बैठा और जिस से आप ने अपनी समझदारी से नजात भी पा ली.

जाहिर है कि आप को उस से नफरत होगी पर घर के रिश्ते व मर्यादा को बरकरार रखने के लिए आप उसे माफ कर दें. आप उस से अब कम से कम टू द पौइंट ही बात करें. ऐसा करने से स्थिति सामान्य हो सकती है.

मैं 25 वर्षीय विवाहित पुरुष, भारतीय सेना में कार्यरत हूं. शादी को 2 साल हुए हैं. समस्या पत्नी को ले कर है. मेरे ड्यूटी पर जाते ही वह मायके चली जाती है. मैं घर आ कर उसे लेने जाता हूं और घर आ कर भी वह सारे समय मां से लड़ाईझगड़ा करती रहती है. घर का काम तक नहीं करती. मैं दिनरात समझाता हूं पर वह नहीं समझती. 

ससुर से बात करूं तो वे धमकाते हैं कि दहेज का केस बनवा देंगे. जबकि आज तक हम ने न दहेज की बात की, न उस से बुरा व्यवहार किया. मैं मानसिक रोगी जैसा हो गया हूं. मैं तो बस घर में खुशी चाहता हूं. क्या वे लोग कुछ केस बना देंगे? आप से समाधान चाहता हूं, क्या करूं?

आप भारतीय सेना में कार्यरत ऐसे पुरुष हैं जिस पर समूचा राष्ट्र गौरव करता है. पर खेद की बात है कि जहां आप ने विवाह किया है वे बेहद गलत किस्म के लोग हैं, ऐसे लोग अपनी बेटी को उलटासीधा सिखा कर उस का घर बरबाद कर देते हैं. आप के सासससुर भी ऐसी प्रवृत्ति के ही नजर आते हैं.

आप क्यों मानसिक संतुलन खराब कर रहे हैं. यह तो तय है कि वह लड़की भी इन सब में शामिल है, शायद वह आप के साथ निभाना ही नहीं चाहती.

आप ने पूछा कि क्या वे दहेज का झूठा केस बना देंगे, तो वे इसी घटिया शान में तो आप को परेशान कर रहे हैं. ऐसे में आप को यह चाहिए कि सेना के नियमों के अनुसार, पुलिस में या सेना में पहले ही यह रिपोर्ट दर्ज करवा दें कि इस तरह आप को वे लोग परेशान कर रहे हैं और दहेज का झूठा केस बनाने की धमकी दे रहे हैं. आप अपने विभाग के लीगल सैल से भी जानकारी ले सकते हैं. आप के पहले से केस दर्ज कराने से वे कुछ भी न कर पाएंगे.

आप अपने को कमजोर न समझें, आप का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. इस बीच उस लड़की की खुशामद कतई न करें और उस से बात करनी ही बंद कर दें.

मैं 14 वर्षीय बेटी की मां हूं. उस के कद व वजन को ले कर परेशानी है. 3 वर्षों से उसे पीरियड्स भी हो रहे हैं. अथक प्रयास के बाद भी उस के 56 किलो वजन को कम नहीं कर पाई, न ही लंबाई, जो 5 फुट है, बढ़ा पाई. आप से यह जानना चाहती हूं कि कद बढ़ा कर कैसे वह आकर्षक दिख सकती है?

वजन घटाने के लिए आप की बेटी के व्यायाम करने के साथसाथ खानपान भी देखना होगा. इस उम्र में बच्चे जंकफूड के बहुत शौकीन हो जाते हैं. आप उस की डाइट को किसी डाइटीशियन की मदद से चैक करवाइए. कोई जिम भी जौइन करवा सकती हैं.

रहा सवाल कद बढ़ने का तो अभी वह 14 वर्ष की है, 5 फुट की है, तो अभी उस का कद थोड़ा और बढ़ सकता है. कद बढ़ाने की कोई दवा नहीं होती, आप व्यर्थ के चक्करों में न पड़ें. उस का वजन कम होगा तभी वह आकर्षक लगेगी, अभी कद बढ़ेगा भी और फिर बड़ी होने के बाद थोड़ी हील वगैरह पहन कर वह आकर्षक लगेगी.

मैं 34 वर्षीय, 2 बच्चों की मां हूं. हमारा संयुक्त परिवार है. देवर की बुरी लतों के कारण सासससुर देवरानी व उन के बच्चों को ही पूछते हैं. पूरे परिवार की जिम्मेदारी मेरे पति पर है. कभीकभी दिल चाहता है कि आत्महत्या कर लूं. भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए मार्गदर्शन करें, क्या जीवनभर इतना दायित्व संभव है?

आप एक जुझारू, कर्तव्यपरायण महिला हैं. आत्महत्या करना आप को शोभा नहीं देता. सासससुर व पति से बात कर के देवर की बुरी लत को छुड़ाने का प्रयास करें. अगर तब भी बात न बने तो पति के साथ अलग रहने की बात कहें. शायद तब देवर को भी अक्ल आ जाए और वे अपनी जिम्मेदारी उठाने लगें.

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, फरवरी (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘धर्म का अधर्म’ बड़े मनोयोग से पढ़ी. यह सचाई से ओतप्रोत है. धर्म के नाम पर घृणा करना बचपन से सिखा दिया जाता है. भारत में हिंदूमुसलिम दंगों के लिए केवल धर्म जिम्मेदार है. यहां तक कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी धर्म के केंद्र यानी चर्चों का प्रभाव इतना है कि लोग किसी के दोष के लिए उस के धर्म के हर व्यक्ति को बराबर का दोषी मानना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, इस की जड़ में वह धर्म प्रचार है जो चर्चों में होता है, उन की वैबसाइटों पर होता है. हर धर्म वाले अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को कमतर आंकते हैं. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले भी कम जिम्मेदार नहीं हैं.

कैलाश राम, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ पढ़ी. सरकार ‘शिक्षा का अधिकार सब के लिए’ का नारा देते हुए जोरशोर से सर्व शिक्षा अभियान चला रही है मगर इस की कड़वी सचाई यह है कि 10वीं तक शिक्षा सब के लिए और उस के बाद की शिक्षा सिर्फ अमीरों और धनवानों की औलादों के लिए ही है.

मैडिकल कालेज में प्रवेश चाहिए तो 40 लाख, इंजीनियरिंग में प्रवेश चाहिए तो 5 लाख, एमबीए में प्रवेश चाहिए तो  4-5 लाख रुपए चाहिए. बीएड, आईटीआई, वोकेशनल कोर्स भी बेहद महंगे हो गए हैं. अमीरों के बच्चे लाखों रुपए फीस और डोनेशन भर के डाक्टर, इंजीनियर, वकील और आला अफसर बनेंगे जबकि गरीबों के बच्चे किसी तरह 10वीं तक ही पढ़ कर मारेमारे फिरेंगे और वर्षों नौकरियों का इंतजार करेंगे.

उद्योगपतियों, अरबपतियों के आदेश पर सरकार का मंसूबा यह है कि रोजाना की दुनियादारी चलाने के लिए चपरासी, क्लर्क, पोस्टमैन, बसों के ड्राइवर व कंडक्टर, ट्रैफिक हवलदार, कंपाउंडर, टाइपिस्ट, रेलवे के चौथे दरजे के कर्मचारियों का होना जरूरी है और उन्हें कुछ पढ़ालिखा भी जरूर होना चाहिए. इसलिए गरीबों के लिए 10वीं तक पढ़ाई मुफ्त और जरूरी कर दी.

शिक्षा पूरी तरह से कारोबार बना दी गई है. सरकार यदि सच्चे मन से सही माने में सब के लिए शिक्षा चाहती है तो वह हाई स्कूलों को ग्रांट दे ताकि वे अपने सभी विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का इंतजाम कर सकें. सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारा जाए और सरकारी मैडिकल व  इंजीनियरिंग कालेज भी खोले जाएं. डोनेशन खत्म किया जाए. उच्च शिक्षा केवल उच्चवर्ग के लिए न हो बल्कि समाज के हर वर्ग, खासतौर से गरीबों के लिए भी उच्च शिक्षा के पूरे अवसर मुहैया कराए जाएं.

महफूज उर रहमान, मुंबई (महा.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘गडकरी की हिम्मत’ पढ़ी. वैसे तो कुछ यों था कि ‘नितिन गडकरी ने ईडी अधिकारियों, जिन्होंने उन के फिर से भाजपा अध्यक्ष निर्वाचित किए जाने के ठीक एक दिन पूर्व, उन की कंपनी कार्यालयों में छापे डाले थे, को धमकी दी थी, मगर आप ने दो कदम आगे बढ़ कर उन पर अन्य 4 विभागों को धमकाने का आरोप लगा दिया. किसी के भी विरुद्ध अनावश्यक आरोप लगाना उचित नहीं कहा जा सकता.’ हां, गडकरी को उक्त ‘धमकी’ नहीं देनी चाहिए थी.

कहानी ‘अनुत्तरित प्रश्न’ में लेखक ने जो कहना चाहा है वह हमारे तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदारों या फिर घटना के बाद उपजे ‘युवा आंदोलन’ के अनाम सूत्रधारों के गले भी नहीं उतरेगा. क्योंकि संबंधित राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया ‘दोगली मानसिकता’ ही उजागर करती नजर आ रही है.

यह साफ है कि ऐसी घटनाएं न केवल कल हो रही थीं बल्कि आज भी हो रही हैं. मगर कहानी के पात्र लक्ष्मी द्वारा अपनी मालकिन को आपबीती सुनाना, ऐसा लगता है जैसे समाज के मुंह पर थप्पड़ मार कर पूछा गया हो कि कोई बताए कि ऐसा है और ऐसे गंभीर मसलों को भी क्यों हमारा समाज ‘जायजनाजायज’ के तमगों से नवाज कर कौन सा समाजोत्थान या महिला उत्थान कर रहा है?

ऐसे अनुत्तरित सवालों का यह आशय तनिक भी नहीं है कि जो जनाक्रोश घटना के विरुद्ध उठा, वह गलत था, बल्कि सवाल यह है कि पीड़ा तो लक्ष्मी जैसी दबीकुचली, निर्बल निरीह महिलाओं को भी आजीवन कचोटती है, मगर उन के लिए न्याय की मांग कब और कौन करेगा?

टी सी डी गाडेगावलिया (नई दिल्ली)

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रसोई में महकते रिश्ते

फरवरी द्वितीय में प्रकाशित लेख ‘रिश्तों को चटपटा बनाती रसोई’ बहुत पसंद आया. मैं सरिता को इस बात के लिए धन्यवाद देती हूं कि हर बार वह ऐसे टौपिक लेती है जिन के बारे में कहीं पढ़ने को नहीं मिलता. जहां तक रसोई और रिश्तों की बात है, तो वह कहावत है कि मर्दों के दिल में जाने की राह पेट से हो कर गुजरती है. यदि हम रसोई में ही अपने रिश्तों को सही कर लें तो रिश्तों के खराब होने की नौबत ही न आएगी. फिर यह रिश्ता चाहे पतिपत्नी का हो, सासबहू का हो या कोई दूसरा. एक स्त्री का आधा जीवन रसोई में ही बीत जाता है. अब ऐसे में यदि हम रसोई के अंदर ही रिश्तों को भी अपनी सूझबूझ से संभाल लें तो रसोई के साथसाथ हमारे रिश्ते भी चटपटे हो जाएंगे.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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बिजली का करंट

अंगरेजों ने इस देश से जब कूच किया तो उस समय विद्युत का उत्पादन, वितरण जैसे कार्य निजी संस्थाओं के पास थे. सरकार का उन में कोई अधिकार नहीं था. उस समय की सरकार ने अपने द्वारा बनाए कानून के आधार पर 50 वर्ष के लिए किसी भी व्यक्ति को विद्युत वितरण करने का परवाना दिया हुआ था. उन पर कोई रोक नहीं थी.

भारत सरकार ने 17 सितंबर, 1948 के दिन विद्युत वितरण का कारोबार पूरे देश में अपने हाथ में ले लिया. ऐसा क्यों किया गया, इस का उत्तर आज भी सरकार के पास नहीं है. इन के पास कोई साधन नहीं थे.

26 जनवरी, 1950 के दिन गणतंत्र दिवस मना कर भारत को राज्यों का संघ घोषित कर दिया गया. धन की जरूरत के लिए विद्युत शुल्क लागू कर दिया गया. यह शुल्क राज्य सरकारें वसूल करती हैं. जबकि विद्युत शुल्क लगाने का अधिकार  आज भी किसी भी अनुसूची में नहीं है. राज्य सरकारें व केंद्र सरकार सब को मूर्ख बना रही हैं.

1958 में नया कानून बना कर यह शुल्क वसूलने का काम विद्युत वितरण कंपनियों को दे दिया गया. अनुच्छेद 23 के अंतर्गत कोई भी सरकार किसी से बिना मेहनताना दिए कोई कार्य नहीं करवा सकती. इसलिए इन विद्युत वितरण करने वाली संस्थाओं को राज्य सरकारों ने अपने कोष से एक प्रकार का मेहनताना देना स्वीकार कर लिया. बंबई विद्युत शुल्क अधिनियम 1958 में इस का जिक्र है. इसे हम ने आरटीए अधिनियम 2005 के अंतर्गत हासिल किया है.

उस के बाद जब इस राज्य का नाम महाराष्ट्र रखा गया, तो राज्य सरकार ने अलग से विद्युत बिक्री ‘कर’ उस के अलावा पूरे राज्य में लगा दिया, क्योंकि मुंबई को छोड़ अन्य जगह राज्य की इकाई विद्युत वितरण कर रही थी. उन पर यह शुल्क पहले लागू नहीं था. उधर, सरकार से विद्युत कंपनियों को मेहनताना नहीं मिल रहा.

राज्य सरकार ने विद्युत शुल्क और विद्युत पर बिक्री कर बढ़ा दिया. जबकि उस का कोई हिसाबकिताब उस के पास नहीं है. उलटे, यह काम अब निजी कंपनियों को देने की तैयारी की जा रही है. राज्य सरकार का विद्युत प्रणाली पर अब कोई अधिकार नहीं है. महाजैन को, महापारेषण और महावितरण कंपनियां सरकार से अपना हक मांग रही हैं. निजी कंपनियां इन से कुछ नहीं मांग रहीं, केवल सुचारु  रूप से काम करने की छूट मांग रही हैं जबकि आम उपभोक्ता सही और सस्ती दर पर अपने निवास, व्यापार के लिए विद्युत की मांग कर रहा है.

राज्य सरकार द्वारा स्थापित विद्युत नियामक आयोग यानी मर्क सरकार के दबाव में काम कर रहा है. सरकार अपना फायदा देख रही है. विद्युत कम भाव पर आम जनता को न मिल सके, इस का उपाय ढूंढ़ रही है.

 रक्षपाल अबरोल, मुंबई (महा.)

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एकता की अनेकता

फरवरी (द्वितीय) अंक में टैलीविजन व फिल्म की जानीपहचानी हस्ती एकता कपूर के साथ हुई बातचीत पढ़ी. एक सवाल ‘क्या टीवी सीरियल में औरत की नकारात्मक छवि उस के प्रति सम्मान को कम कर रही है’ के उत्तर में एकता कपूर ने कहा, ‘आप मुझे बताइए कि क्या समाज में वैसी औरतें नहीं हैं? हम तो जो हकीकत है वही दिखाते हैं. घर, बाहर, दफ्तर हर स्तर पर आप को यथार्थ में ऐसा देखने को मिलेगा.’

आज के समय में जब हर तरफ घोटालों और रेप जैसे हादसों को समाप्त करने या रोकने की कोशिश हो रही है, एकताजी का जवाब गले नहीं उतर रहा. यदि समाज में खराब औरत और पुरुष हैं भी, तो क्या हमारा फर्ज यह नहीं बनता कि हम फिल्म या टीवी सीरियल में उस को और उजागर न करें. क्या समाज में सकारात्मक लोग या परिवार हैं ही नहीं? फिर ऐसी क्या अड़चन है जो हमें सीरियल में खलनायिका दिखानी ही होती है? आजकल दिखाए जाने वाले सीरियलों में ‘दीया और बाती’ इस की जीतीजागती मिसाल है.

दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को हुए गैंगरेप हादसे पर काफी चर्चाएं हुईं, नारी की सुरक्षा का प्रश्न उठा और यह भी निष्कर्ष निकाला गया कि यदि देश में हालात सुधारने हैं तो केवल सरकार के ऊपर ही इस का उत्तरदायित्व न छोड़ा जाए बल्कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक विभाग भी इस की जिम्मेदारी ले. इस को संभव करने के लिए जरूरी है कि हम अपनी सोच बदलें और केवल अपना ही नहीं समाज और देश का भी ध्यान रखें.

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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धर्मांधता

फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘उत्तराधिकारिणी’ में जिस तरह से मठाधिकारियों या धर्माधिकारियों के चेहरों पर पड़े परदों को उठा कर उन के चरित्र का परदाफाश किया है, उसे दुस्साहसिक कदम न कह कर अति सराहनीय कदम कहा जाएगा. कहानी पढ़ कर घोर आश्चर्य हुआ कि अपने उपदेशों द्वारा बेशक धर्म के ये अलंबरदार अपने भक्तों को हर नारी में अपनी मां, बहन व बेटी के अक्स दिखाते हों मगर स्वयं वे नारी को न केवल अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन समझते हैं बल्कि उसे मात्र ‘भोग्या’ समझ कर इस्तेमाल कर व स्वहितों की पूर्ति हेतु, उसी नारी को वेश्या रूप में दूसरों को परोसने से भी नहीं हिचकते.

यह सच है कि पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती हैं, मगर यह भी तो सच है कि तालाब को गंदा करने के लिए एक मछली काफी होती है. ऐसे में जो सवाल मन में उठता है वह यह है कि धर्म के नाम पर अंधविश्वास में डूबे भक्तजनों को कौन समझाए कि जिन धर्मगुरुओं की भक्ति में वे रातदिन लीन रहते हैं, वे मात्र ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ को ही चरितार्थ कर रहे होते हैं. वे स्वयं किस राह जा रहे हैं, उन्हें ‘भेड़चाल’ के समर्थक भला चैक करेंगे भी क्या?

ताराचंद देव रैगर (नई दिल्ली)

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आम बजट और महिलाएं

देश के महिला वर्ग को वित्त मंत्री के आम बजट से घोर निराशा हुई. यह बजट हम महिला वर्ग के लिए किसी भी नजरिए से संतोषजनक नहीं है. बजट में सिर्फ बड़ेबड़े वादों की चमकदमक है वादे पूरे होंगे कि नहीं, इस का कोई भरोसा नहीं है. एक तरफ तो वित्त मंत्री महिलाओं को ‘निर्भया फंड’ और ‘वुमेंस बैंक’ का लालच दे रहे हैं वहीं दूसरी तरफ रसोई गैस, बिजली का बिल, पैट्रोलडीजल और भी महंगा करने का ऐलान कर रहे हैं. बजट पेश होने से पहले, मध्यवर्गीय जनता व महिला वर्ग को काफी उम्मीद थी कि इस बजट से महंगाई से राहत मिलेगी, लेकिन हुआ बिलकुल इस के विपरीत. सरकार के इस आम बजट से हम महिलाओं का होम बजट डगमगाने लगा है.

देश की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए, आम जनता पर महंगाई का बोझ क्यों लादा जा रहा है? गरीब को और गरीब व महिलाओं को और कमजोर क्यों किया जा रहा है? बजट में मिडिल क्लास जनता को कोई राहत क्यों नहीं दी गई? डीजल और भी महंगा क्यों किया जा रहा है?

ऐसे कई अनगिनत सवाल हैं हम महिलाओं के मन में, क्या जनता की आर्थिक समस्याओं का कोई उपाय है वित्त मंत्री के पास?

सरिता भूषण, वाराणसी (उ.प्र.) 

सौंदर्य का बेशकीमती तोहफा लिक्टेंस्टाइन

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस छोटे से देश में पर्यटन का हर मिजाज मौजूद है. यहां की हरियाली, पहाड़ व बर्फ के पर्वत देख कर यकीन मानिए आप गद्गद हो जाएंगे.

पिछले दिनों जब हम लोग स्विट्जरलैंड के एक पूर्वी नगर में थे तो अचानक एक स्विस मित्र ने सलाह दी कि क्यों न आज रात्रि का भोजन हम एक नए देश में लें. मु झे कुछ हैरानी हुई. क्योंकि शाम 6 बजे तक तो हम स्विस कंपनी के दफ्तर में ही रहेंगे. मेरे पूछने पर मेरे मित्र ने बताया कि हम शाम 7 बजे यहां से कार में चलेंगे और लगभग आधे घंटे में उस देश के अंदर पहुंच जाएंगे. मु झे लगा कि शायद वे लोग आस्ट्रिया में डिनर लेने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि आस्ट्रिया उस स्थान से बहुत निकट था. किंतु उन्होंने बताया कि वे आस्ट्रिया नहीं बल्कि कहीं और जाने वाले हैं.

वह देश था लिक्टेंस्टाइन, जो स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के बीच में बसा है, जहां की हरियाली, पहाड़ व बर्फ के पर्वत यहां आने वाले सैलानियों के मन को मोह लेते हैं. इस देश के पश्चिमी छोर पर राइन नदी बहती है जो इस की सुंदरता में चार चांद लगा देती है.

हम लोग लगभग सवा 7 बजे शाम को रवाना हुए और लगभग आधे घंटे बाद राइन नदी के पुल को पार करते समय लिक्टेंस्टाइन देश का बोर्ड लगा दिखा और कुछ सैकंडों के अंदर ही हम लिक्टेंस्टाइन में थे. कोई कस्टम चैकिंग नहीं, कोई अवरोध नहीं, लगभग मुक्त सीमा. बस, केवल स्विट्जरलैंड का वीजा होना ही लिक्टेंस्टाइन में प्रवेश के लिए पर्याप्त है.

मनमोहक देश

पूर्ण रूप से आल्प्स पर्वत की गोद में बसे इस सुंदर देश का क्षेत्रफल केवल 160 वर्ग किलोमीटर (लंबाई 25 किलोमीटर, चौड़ाई 6 किलोमीटर) है और इस की जनसंख्या लगभग 35 हजार है. इस देश के चारों ओर दूसरे देशों की सीमाएं हैं. इस के पश्चिम और दक्षिण में स्विट्जरलैंड स्थित है तो पूर्व, और उत्तर में आस्ट्रिया.

इस प्रकार इस देश का कोई अपना सागर तट नहीं है. वैसे, विचित्र बात है कि स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया के स्वयं अपने भी तट नहीं हैं. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि लिक्टेंस्टाइन से बाहर यदि किसी सागर तट पर पहुंचना हो तो कम से कम 2 देशों की सीमा को पार करना पड़ेगा, अर्थात यह

देश दोहरी तरफ से भूमि से घिरा है. इन सब कमियों के बावजूद लिक्टेंस्टाइन एक समृद्ध, अति संपन्न व खुशहाल देश है. लिक्टेंस्टाइन की अपनी राजधानी भी है जिस का नाम वादूज है. बस, यों सम झ लीजिए कि यह भारत के किसी बड़े नगर का क्षेत्रफल व किसी छोटे कसबे की जनसंख्या वाला देश है. इतना छोटा होने के बावजूद इस देश की अपनी सरकार, अपने राजा व रानी, अपने पर्यटन केंद्र और अपनी डाक व्यवस्था व डाक टिकट हैं.

लिक्टेंस्टाइन के डाक टिकट अपने सौंदर्य के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं और संग्रहकर्ताओं के लिए गौरव के साधन हैं. इन्हीं सुंदर डाक टिकटों के कारण लिक्टेंस्टाइन के डाकखानों में बहुत चहलपहल रहती है और यहां के विशाल पोस्ट औफिस का अपना अलग ऐतिहासिक महत्त्व है. बर्फ से लदे पर्वत, हरियालीयुक्त पहाडि़यां व मदमाता प्राकृतिक सौंदर्य इस देश को पर्यटन के एक मोहक स्थल में परिवर्तित कर देते हैं. इसी कारण प्रतिवर्ष अनेक पर्यटक आल्प्स पर्वत पर स्कीइंग के उद्देश्य से आते हैं.

स्कीइंग का यह मौसम सितंबर/अक्तूबर से आरंभ हो कर अप्रैल के मध्य तक चालू रहता है जब ऊंचाई वाले पर्वत श्वेत हिम के कारण धुनी रूई का रंग ले लेते हैं. उस समय यहां के ‘वाल्यूना’ व ‘मालबन’ नामक स्थलों पर बर्फ की 1 मीटर से 2 मीटर मोटी परत जम जाती है और तब स्कीइंग करने वाले युवकयुवतियां हजारों की संख्या में सूटबूट से लैस हो कर आ धमकते हैं और बर्फ पर सरकते हुए स्कीइंग का आनंद लेते हैं. ग्रीष्म व वसंत ऋतु में यहां का प्राकृतिक सौंदर्य और भी अधिक निराला हो जाता है. उस समय पर्वतों पर हरेभरे वृक्षों, रंगबिरंगे फूलों व मखमल जैसी घास की रंगत छा जाती है. ऐसे अवसर पर यूरोप व अमेरिका के विभिन्न भागों से पर्यटक अपने परिवार सहित छुट्टियां बिताने आ जाते हैं. अधिकतर पर्यटक जरमनी, आस्ट्रिया, इटली व स्विट्जरलैंड से आते हैं जहां से इस देश की यात्रा कुछ घंटों में ही तय की जा सकती है.

उदाहरण के लिए जरमनी का म्यूनिख नगर राजधानी वादूज से केवल 240 किलोमीटर दूर है जहां से अति उन्नत सड़कों के कारण यह यात्रा केवल ढाई से 3 घंटे में पूरी हो जाती है. इसी प्रकार स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख नगर से वादूज की दूरी केवल 112 किलोमीटर है जबकि आस्ट्रिया के नगर इंसब्रुक से इस की दूरी 170 किलोमीटर है.

इटली के मैलैंड नगर से वादूज की दूरी केवल 250 किलोमीटर है. स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के कुछ सीमावर्ती नगरों से लिक्टेंस्टाइन तो इतना निकट है कि बच्चे साइकिलों पर चढ़ कर वहां पिकनिक मनाने आते हैं और डिनर के बाद अनेक स्विस व आस्ट्रियावासी यहां कौफी पीने आते हैं. एक खूबसूरत देश होने के नाते यहां पर्यटकों की भरमार रहती है. स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया के अलावा यहां फ्रांस, पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क के पर्यटक बहुतायत से देखे जा सकते हैं.  वैसे, लिक्टेंस्टाइन में भारत के पर्यटक कम दिखते हैं. अपनी यात्रा के दौरान मु झे एक भी भारतीय पर्यटक यहां नहीं दिखा. इस का एक कारण तो यही है कि स्विट्जरलैंड व आस्ट्रिया से घिरा होने के कारण अधिकतर लोग उन्हीं देशों की यात्रा कर के वापस चले जाते हैं. दूसरा, इस नन्हे देश के विषय में लोग बहुत कम जानते हैं. अनेक को तो लिक्टेंस्टाइन का नाम भी नहीं पता है.

गुप्त खातों वाले बैंक

अकसर लोग यह सम झते हैं कि केवल स्विट्जरलैंड में ही गुप्त खातों वाले बैंक होते हैं. बहुत कम लोगों को पता है कि लिक्टेंस्टाइन में भी ऐसे गुप्त खातों वाले अनेक बैंक हैं जहां अनेक व्यापारियों, धनी व्यक्तियों, कालेबाजारियों, भ्रष्ट सत्ता प्रमुखों आदि ने अपने कोड नंबर वाले खाते खोल रखे हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि इतने छोटे से देश में से अनेक विदेशी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के दफ्तर खुले हुए हैं. बताया जाता है कि केवल 35 हजार की जनसंख्या वाले इस देश में विदेशी कार्यरत कंपनियों की संख्या देश की जनसंख्या से भी अधिक है. लिक्टेंस्टाइन विशेषकर उद्योग प्रधान देश है जहां पर खासतौर से मशीनें व औजार, कपड़ा उद्योग, खाद्य पदार्थ, चमड़ा उद्योग, रसायन व फर्नीचर आदि के कल-कारखाने हैं. लिक्टेंस्टाइन अपने रेस्तरां व जलपानगृहों के लिए भी काफी प्रसिद्ध है.

वास्तव में हम लोगों को लिक्टेंस्टाइन काफी महंगा लगेगा क्योंकि स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया की तरह वहां भी वस्तुओं के मूल्य हमारे देश की तुलना में काफी अधिक हैं. किसी साधारण रेस्तरां में भी एक कप चाय की कीमत लगभग 250-300 रुपए है. खाली डबलरोटी की कीमत लगभग 200 रुपए है. साधारण रेस्तरां में पूरा खाना लगभग 4-5 हजार रुपए तक बैठेगा.

लिक्टेंस्टाइन नामक यह नन्हा सा देश अपने शांतिप्रिय सहयोग व प्राकृतिक सौंदर्य के कारण अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए है. यहां की जनता अपने राजा व रानी का बहुत सम्मान करती है, जिन का वैभवशाली महल लिक्टेंस्टाइन की राजधानी वादूज के समीप की पहाड़ी पर स्थित है. ऐसे सुंदर व खुशहाल देश की सैर करने के बाद मन प्रफुल्लित हो जाता है.

बेमिसाल धरोहरों का शहर लंदन

लंदन जाना हमेशा खुशगवार अनुभूति देता है. तमाम आधुनिकताओं से लैस लंदन अपने प्राचीन स्वरूप को भी दिलचस्प अंदाज में पेश करता नजर आता है. यहां आ कर सबकुछ अपनाअपना सा लगता है.

लंदन की यात्रा के लिए हमारा विमान दिल्ली से उड़ कर इस्तांबुल एअरपोर्ट पर उतरा. वहां 4 घंटे का विश्राम था, वहां से हमें तुर्किश एअरलाइंस के ही दूसरे विमान से लंदन जाना था. तुर्किश एअरलाइंस का एअरबस-330 विमान काफी आरामदायक था. इस दौरान हम इस्तांबुल हवाई अड्डे से बाहर तो जा नहीं सकते थे किंतु हवाई अड्डे के एक छोर से दूसरे छोर तक आनेजाने की पूरी स्वतंत्रता थी जिस का हम ने पूरा लाभ उठाया और एअरपोर्ट के अंदर घूमघूम कर तुर्की सभ्यता को सम झने का प्रयास किया.

खैर, इस्तांबुल से उड़ान के 4 घंटे बाद विमान लंदन पहुंचा. लंदन में 3 प्रमुख हवाई अड्डे हैं जहां पर हवाई कंपनियों के विमानों का आवागमन होता है. ये हैं हीथ्रो, स्टेनस्टेड और गेटविक. ये सभी हवाई अड्डे एकदूसरे से काफी दूरी पर हैं. हमारा विमान हीथ्रो पर उतरा था, जो विश्व का तीसरा व्यस्ततम हवाई अड्डा है. यह हवाई अड्डा क्या, एक पूरा शौपिंग मौल है. जिधर देखो इलैक्ट्रौनिक्स सामान, घडि़यां, मदिरा, परफ्यूम, कैमरे, रैडीमेड कपड़े, पुस्तकें और हर प्रकार की सामग्री नजर आती है.

हमारा होटल हीथ्रो हवाई अड्डे से लगभग 24 किलोमीटर उत्तरपूर्व में था. उस समय मई का महीना चल रहा था और लंदन का मौसम अत्यंत सुहावना था. वातावरण में हलकीहलकी ठंडक थी जबकि आकाश में धूप खिली हुई थी जो मन को आनंद से भर दे रही थी. मार्ग की दृश्यावलियां इस आनंद को दोगुना कर रही थीं.

लंदन विशाल नगर है, जिस की जनसंख्या लगभग 82 लाख है. इस प्रकार यह यूके का सब से बड़ा नगर तो है ही, साथ ही अकेले लंदन की आबादी का अनुपात पूरे यूके का लगभग 12.5 फीसदी है. यहां पर ब्रिटिश पौंड को करैंसी के रूप में उपयोग किया जाता है, जिस का मूल्य भारतीय रुपयों में लगभग 83 रुपए है. मूल्यों के आधार पर लंदन एक महंगा स्थान माना जाएगा, क्योंकि यहां पर भारत की तुलना में लगभग सभी वस्तुएं बहुत महंगी लगती हैं. किंतु दूसरी तरफ यदि इस की तुलना गुणवत्ता के आधार पर की जाए तो लंदन में खरीदे गए सभी सामान बहुत मजबूत, टिकाऊ और अच्छे रंगरूप वाले होते हैं. इसीलिए

महंगे होने के बावजूद लोग यहां से खरीदारी करना पसंद करते हैं. लंदन की सड़कें साफ- सुथरी और खूबसूरत हैं. नगर के मुख्य भाग में तो बहुमंजिली इमारतों की बहुतायत है लेकिन वहां के उपनगरों में मकान अधिकतर दोमंजिले हैं. नगर के मध्य भाग से टेम्स नदी बहती है, जिस में अनेक प्रकार की व्यावसायिक नौकाएं व पर्यटन नौकाएं चलती रहती हैं. पर्यटक चाहें तो उन लग्जरी नौकाओं में टिकट खरीद कर जलविहार कर सकते हैं. नदी को व उस के तटों को अत्यंत साफसुथरा बना कर रखा गया है. लोग बताते हैं यह नदी भी पहले किसी देश की आम नदियों की तरह गंदी थी किंतु नियमित व योजनाबद्ध सफाई के बाद अब टेम्स नदी ज्यादा सुंदर बन गई है.

लंदन की विशेषता यह है कि यहां पर आधुनिकता के प्रवेश के बावजूद प्राचीन स्वरूप को भी बना कर रखा गया. जैसे बिगबेन घड़ी, बर्किंघम पैलेस. बर्किंघम पैलेस आज भी अपनी पुरानी परंपराओं को निभाता हुआ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.

वैक्स म्यूजियम

लंदन का एक अत्यंत लोकप्रिय स्थल वहां का मैडम तुसाद संग्रहालय है, जहां मोम से बनी राजप्रमुखों, नेताओं, राजाओं, वैज्ञानिकों, फिल्मी कलाकारों, खिलाडि़यों व अनेक ऐतिहासिक हस्तियों की मानवाकार मूर्तियां लगाई गई हैं. इन में भारत की भी कई हस्तियां जैसे महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सलमान खान, ऋतिक रोशन, माधुरी दीक्षित, शाहरूख खान, ऐश्वर्या राय, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर शामिल हैं.

संग्रहालय के अंदर ट्रौली से नीचे उतरते हुए आप की फोटो खींच ली जाती है और जब आप बाहर निकलते हैं तो उस का पिं्रट तैयार हो बोर्ड पर लगा मिलता है. यदि आप चाहें तो उसे खरीद भी सकते हैं. तुसाद संग्रहालय में अंगरेजी, फ्रैंच, जरमन, इटालियन आदि भाषाओं में सूचना बोर्ड लगे हैं और यह देख कर अत्यधिक प्रसन्नता होती है कि उन सभी भाषाओं के साथ हिंदी भाषा में भी ऐसे बोर्ड लगाए गए हैं.

देशी माहौल

लंदन में भारत, पाकिस्तान बंगलादेश और श्रीलंका के लोगों की बहुतायत है. जगहजगह पर साडि़यां, सलवारकुरते पहने महिलाएं, पगड़ी पहने सिख और भारतीय भाषाओं में बात करते लोग दिख जाते हैं. भारतीय रेस्तरां अनेक स्थानों पर हैं जिन में हिंदी गाने भी बजते रहते हैं. भारत में उपयोग में लाए जाने वाले मसाले, अचार, दालें व रसोई की विभिन्न सामग्री भी दुकानों पर आसानी से मिल जाती है. लंदन का साउथ हौल इलाका तो ‘छोटा भारत’ के नाम से ही मशहूर है. यहां पहुंच कर ऐसा लगता है जैसे दिल्ली के चांदनी चौक या करोल बाग में आ गए हों.

भारत के लोग विदेशों में भी अकसर भारतीय खाना ही पसंद करते हैं. देश के सभी टूर औपरेटर इस सचाई से परिचित हैं, इसलिए वे इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि टूर के दौरान सभी देशों में लंच व डिनर के लिए पर्यटकों को भारतीय रैस्टोरैंट में ही ले जाया जाए. हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ क्योंकि लंदन में हमें बहुत अच्छे भारतीय रैस्टोरैंट में ले जाया गया जहां हर प्रकार का शाकाहारी व मांसाहारी खाना सरलता से उपलब्ध था. लंदन जा कर पर्यटक उस की रम्यता में इतना लीन हो जाते हैं कि वहां से वापस आने का दिल नहीं करता.

दर्शनीय स्थल

लंदन आई : ‘लंदन आई’ टेम्स नदी के तट पर लगा हुआ एक विशालकाय  झूला है जिस की ऊंचाई 135 मीटर व व्यास 120 मीटर है. इस का निर्माण उस समय किया गया था जब विश्व में 21वीं सदी का प्रवेश होने वाला था अर्थात 2000 में, ताकि नई सदी का स्वागत जोश से किया जा सके. 21वीं सदी के प्रवेश के 12 वर्षों के बाद भी ‘लंदन आई’ पर सैर करने के इच्छुक लोगों की भीड़ कम होने का नाम नहीं लेती है.

‘लंदन आई’ वैसे तो एक बड़े  झूले जैसा है किंतु इस में पारदर्शी पदार्थ के अंडाकार डब्बे लगे हैं जिन में पर्यटकों के बैठने की सीटें बनी हैं.  झूले के चलने पर दर्शकों को दूरदूर तक के नजारे दिखते हैं. रात में तो रंगबिरंगी बत्तियों के जलने के बाद ‘लंदन आई’ की छटा अतुलनीय हो जाती है.

टावर औफ लंदन : ब्रिटेन की महारानी का ऐतिहासिक महल और किला ‘टावर औफ लंदन’ के नाम से जाना जाता है. इस का निर्माण 11वीं शताब्दी में टेम्स नदी के उत्तरी तट पर किया गया था. नौका द्वारा टेम्स नदी की सैर करते समय ‘टावर औफ लंदन’ का सुंदर नजारा देखा जा सकता है. यह लंदन की अत्यंत लोकप्रिय पर्यटनस्थली है.

टावर ब्रिज : टावर ब्रिज टेम्स नदी पर बना हुआ खूबसूरत पुल है, जिस का निर्माण वर्ष 1894 में हुआ था. टेम्स नदी पर 2 ऊंचेऊंचे स्तंभों को जोड़ते हुए सड़कें बनाई गई हैं. पुल का निचला हिस्सा 2 भागों में खुल जाता है, जिस के बीच से हो कर नौकाएं, जहाज इत्यादि पुल के नीचे से पार हो जाते हैं. लंदन ब्रिज के ऊपरी भाग से वाहन व पदयात्री निकलते हैं और उस के नीचे से नौकाएं व जहाज.  टावर ब्रिज के निकट ही टेम्स नदी पर एक और पुल भी स्थित है जिस का नाम लंदन ब्रिज है. ये दोनों पुल भिन्न हैं. लंदन ब्रिज की अपनी अलग ऐतिहासिक महत्ता है.  लंदन के अन्य आकर्षणों में बिगबेन घंटाघर, ट्रफलगर स्क्वायर, पिकाडली सर्कस, सैंट पौल कैथेड्रल आदि हैं.

रोम रोम में बसा इटली

इटली यूरोप का ऐसा पर्यटन स्थल है जहां सभ्यता, संस्कृति, विकास, कला और कारीगरी की अनूठी दास्तानें सुनने व देखने को मिलती हैं. सैलानी यहां सिर्फ घूमते ही नहीं बल्कि यहां के रंगीन नजारों, खानपान और सांस्कृतिक कलेवर को खुद में समेटने को आतुर भी दिखते हैं. खिली धूप, नीला आकाश और बिखरी चांदनी में इटली की फिजा देखते ही बनती है.

31 मई, 2012 की सुबह 7.30 बजे हम लोगों ने आस्ट्रिया का होटल क्रोमा छोड़ दिया. वजह? इटली का रंगीन मिजाज वाला शहर वेनिस हमारा इंतजार कर रहा था. वेनिस के नाम से ही एक अत्यंत रूमानी शहर का चित्र दिमाग में आ जाता है. ऐसा शहर जहां सड़कें नहीं हैं, उस की जगह पानी ही पानी है. इस महल्ले से उस महल्ले जाना हो तो पतलीपतली नावों से ही जाना पड़ेगा. ये नावें गोंडोला कहलाती हैं. एड्रियाटिक समुद्र के किनारे बसे इस शहर को ‘क्वीन औफ एड्रियाटिक’ यानी एड्रियाटिक की रानी भी कहा जाता है. यह एक जमाने में बहुत व्यस्त बंदरगाह हुआ करता था.

वहां पहुंचने के लिए जेट्टी से ही हम ने एक बड़ी नाव ली. किनारे पर उतर कर हम एक विस्तृत प्लाजा में आए. वहां पहले से ही काफी भीड़ थी. समुद्र के किनारेकिनारे शहर काफी दूर तक बसा हुआ है. पहली पंक्ति के भवन समूह के पीछे सैंट मार्क नामक विशाल चर्च है. इस के सामने एक विशाल प्रांगण है जो चारों ओर से दो- मंजिले भवनों से घिरा है. पूरा प्रांगण सैलानियों से भरा था. सैकड़ों की संख्या में कबूतर बिखरे दाने चुग रहे थे. प्रांगण के फ्लोर में एक सफेद पट्टी पर लैटिन भाषा में कुछ लिख कर ‘1625’ लिखा हुआ था. शायद उसी वर्ष में इस प्रांगण का निर्माण हुआ था. मन हुआ किसी से पूछूं कि इस का मतलब क्या है, पर देखा, सभी देशीविदेशी अपने में ही मस्त हैं. किसे फुरसत है इतिहास कुरेदने की. प्रांगण में ही 2 ओपन एअर होटल भी थे, जिन के कुछ हिस्से बरामदे में भी थे. तेज धूप के कारण ग्राहकों के लिए रंगीन छाते लगाए गए थे.

उसी परिसर में मुरान्हो ग्लास वर्क्स शौप भी है. यहां दिखाया गया कि ब्लो ग्लास कैसे बनाया जाता है. हमारे सामने ही एक कारीगर ने आग की भट्ठी में से एक लंबा पाइप निकाला जिस के अंतिम सिरे पर पानी में सने आटे की लोई की तरह द्रवित शीशा था. 2 मिनट के अंदर ही कारीगर ने बारीबारी से उसे ठोंकपीट कर एक सुंदर फूल रखने वाला जार बना दिया. दूसरी बार उसी तरीके से एक दौड़ता हुआ घोड़ा बना दिया. कमाल का हुनर था उस के हाथों में. वर्कशौप के साथ ही उन का विक्रय सह शोरूम भी था. विभिन्न आकारों व रंगों में कप, प्लेट, गिलास, गुलदस्ता, चूड़ी, हार, तरहतरह के जानवर, चिडि़या और  झाड़फानूस दिखे.

स्थानीय भाषा में वेनिस को ‘वेनेजिया’ कहा जाता है. यह शहर 170 छोटेबड़े द्वीपों को मिला कर बना है. एक द्वीप से दूसरे द्वीप के बीच समुद्र जल है. स्वाभाविक है कि एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए जल मार्ग का सहारा लेना पड़ेगा. कुल 150 नहरें हैं. सभी नहरें आगे जा कर छोटेबड़े चौराहों पर मिलती हैं. इस तरह नाव खेतेखेते एक महल्ले से दूसरे महल्ले में जाया जा सकता है. नहर में चलते समय हमारी नाव अकसर ओवर हेड व रोड ब्रिज से गुजरती. उस समय ब्रिज पर खड़े लोग नीचे से गुजर रही नावों के यात्रियों को हाथ हिलाहिला कर बायबाय करते. कुछ ताली भी बजाते.

नहर के दोनों तरफ बने मकानों की हालत एक जैसी नहीं थी. जहां बाईं तरफ के मकानों की दीवारें मजबूत पत्थर से बनीं चमकदार दिख रही थीं, वहीं दाईं तरफ की दीवारें गरीबी की कहानी बयान कर रही थीं. बहुत जगह प्लास्टर  झड़ गए थे, अंदर की ईंटें  झांक रही थीं. गरीबअमीर तो दुनिया में हर जगह हैं. कुल मिला कर गोंडोला से यात्रा करना आनंददायी रहा. वैसे इलाहाबाद और बनारस में भी हम ने नौकाविहार किया है, पर वहां चारों ओर खुलाखुला सा रहता है, वेनिस में मकानों के बीच नाव चलती हैं.

जल विहार के उपरांत हम लोगों ने एक ऐसे होटल में खाना खाया जिस का नाम था ‘रिस्तरांतो इंदियानो गांधी’. बड़ा अजीब लगा. वहां साईं बाबा की मूर्ति के अलावा राजस्थानी पेंटिंग्स भी प्रमुखता से टंगी थीं. कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि हम अपने देश में ही हैं. यूरोप के बहुत से हिस्सों में ‘ट’ की जगह ‘त’ व ‘ड’ की जगह ‘द’ का उच्चारण किया जाता है इसीलिए होटल के नाम का उच्चारण ऐसा लिखा गया है. 1 जून, 2012 की सुबह करीब साढ़े 3 घंटे की ड्राइव के बाद ‘ झुकती हुई मीनार’ को देखने पीसा पहुंचे. यह मात्र 1 लाख की आबादी वाला छोटा सा शहर है. कहा जाता है कि प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो ने इस मीनार पर चढ़ कर यह ऐक्सपेरिमैंट किया था कि क्या पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर वस्तु को एक ही तरह आकर्षित करती है.

इस मीनार का निर्माण 1174 में प्रारंभ हुआ. योजनानुसार इसे संगमरमर की घंटा वाली मीनार बनाया जाना था. पर 3 मंजिलें बनने के बाद ही यह  झुकने लगी. तब निर्माण बंद कर दिया गया. 70-80 वर्षों बाद फिर काम शुरू किया गया और उसी  झुकती स्थिति में 5 मंजिलें और जोड़ दी गईं. आज इस की ऊंचाई 55.8 मीटर है. ऊपरी मंजिल तक कम लोग ही चढ़ते हैं. वहां तक पहुंचने के लिए तकरीबन 1 हजार रुपए आप को खर्च करने पड़ेंगे.

यह मीनार एक विशाल अहाते के भीतर है जिसे ‘स्क्वैयर औफ मिरैकल्स’ कहते हैं यानी चमत्कारों का चौराहा. करीब 18-20 फुट ऊंची दीवार से घिरे इस इलाके में जैसे ही घुसते हैं, बाईं ओर एक चर्च और बपतिस्मा करने वाला गुंबददार भवन मिलता है. उस के बाद अंत में दिखाई पड़ता है यह  झुकता हुआ टावर.

फ्लोरैंस

पीसा के बाद हम यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी फ्लोरैंस आए. यह शहर प्रख्यात मूर्तिकार और चित्रकार माइकेल एंजेलो की कर्मभूमि थी. शहर के मुख्य चौराहे सिग्नोरिया स्क्वैयर, जहां तत्कालीन शहर के मुखिया का मकान था, के चारों ओर संगमरमर की बड़ीबड़ी मूर्तियां स्थापित की गई हैं. इस चौराहे को चौराहा न कह कर ‘ओपन एअर म्यूजियम’ कहा जा सकता है. इसी में है डेविड की संगमरमर की विश्व प्रसिद्ध मूर्ति है जो कम से कम 10-12 फुट से कम नहीं होगी. सभी मूर्तियां 5-6 फुट ऊंचे चबूतरे पर स्थापित की गई हैं. वहीं पर बाइबिल में चर्चित कई संतमहात्माओं की मूर्तियों के साथ दांते, वर्जिल जैसे कवियों की भी मूर्तियां थीं.

रोम

रोम को क्षेत्रीय भाषा में ‘रोमा’ कहते हैं. आज यूरोप के हर देश में भवन निर्माण कला, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में रोमन प्रभाव हर जगह दिखाई देता है. सर्वोत्कृष्टता का मानदंड रोमन पद्धति ही रहा है. उसी रोम की यात्रा पर आज हम निकले थे. इस विचार मात्र से ही उत्सुकता एवं रोमांच हो रहा था. शुरू में यह शहर अत्यंत अव्यवस्थित एवं छोटा था. परंतु राजधानी बन जाने के बाद से इस में भव्य भवनों का निर्माण शुरू हुआ और एक समय ऐसा आया कि यह नगर रोमन साम्राज्य की सत्ता का केंद्र बन गया. पूरे यूरोप में इस की तूती बोलती थी. इस की भव्यता को देख कर यह कहा जाता था कि ‘रोम वाज नौट बिल्ट इन अ डे’ यानी इतने महान शहर का निर्माण एक दिन में नहीं हो सकता. इस का अर्थ यह भी लगाया जाता है कि किसी भी महान कार्य को करने के लिए समय व परिश्रम की जरूरत होती है.

वैटिकन सिटी : रोम आने पर सब से पहले हम लोगों ने वैटिकन सिटी की यात्रा शुरू की. संसारभर के रोमन कैथोलिक मत के मानने वाले ईसाइयों के लिए इस से बड़ा कोई स्थान नहीं है. 44 हैक्टेअर क्षेत्र में बसा यह संसार का सब से छोटा देश होने के साथ संयुक्त राष्ट्र का सदस्य भी है. इस का निर्माण यद्यपि सन 800 ई.पू. में शुरू हुआ, परंतु वर्तमान रूप प्राप्त हुआ 1929 में ही. कहते हैं कि करीब 25 हजार लोग प्रतिदिन इसे देखने आते हैं. वैटिकन सिटी कौंप्लैक्स किसी राजमहल से कम नहीं है. इस की अलग से प्रशासन व्यवस्था, पुलिस व सुरक्षा गार्ड्स हैं. सिटी के अंदर रहने वाले सभी निवासियों को परिचयपत्र दिया जाता है ताकि कोई अनाधिकृत व्यक्ति यहां न रह सके. यहां देखने वाले स्थानों में वैटिकन म्यूजियम, सेंट पीटर्स और सिस्टाइन चैपल प्रसिद्ध हैं.

म्यूजियम में ईसाई धर्म के संतों व महापुरुषों के चित्र देखने को मिले. इस के टैपस्ट्री सैक्शन में कमाल की कारीगरी देखने को मिली. कमाल की बात तो यह थी कि ये चित्रण पेंटिंग के द्वारा न कर के बुनाई के माध्यम से किए गए हैं. सेंट पीटर्स बैसिलिका के अंदर लगभग सभी जगह पर छतों व दीवारों पर पेंटिंग हैं.

सिस्टाइन चैपल में माइकल एंजेलो की बनाई ‘पियेटा’ नामक मूर्ति देखने ही लायक है. सूली पर से उतारे घायल ईसा मसीह को मेरी अपने दोनों पैरों पर रख कर उन की ओर द्रवित हो कर देख रही हैं. ईसा मसीह के शरीर में लिपटे वस्त्र अस्तव्यस्त हो कर नीचे लटक रहे हैं. करुणामयी मेरी उन्हें असहाय हो कर देख रही हैं. कठोर पत्थर में इस प्रकार के भावों का संचार करना हर कलाकार के बस की बात नहीं.

कोलोसियम

वैटिकन सिटी के बाद बारी थी कोलोसियम की. यह वह प्रसिद्ध गोल इमारत है जिस में मरनेमारने वाले ग्लैडियेटर्स का खूनी खेल खेला जाता था. इस की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस के अंदर 45 हजार दर्शक बैठ सकते थे. दर्शकों के बैठने के बाद शासनाध्यक्ष के इशारे पर मौत का खेल प्रारंभ होता था. भाला, तलवार व ढाल से सुसज्जित लड़ाकों की जोड़ी रिंग में प्रवेश करती थी. युद्ध में कोई भी किसी को मार सकता था. कभीकभी तो मनुष्यों को भूखे शेर से भी लड़वाया जाता था. लड़ने वाले ज्यादातर युद्ध कैदी या दास हुआ करते थे. इस बिल्डिंग का ऊपरी हिस्सा कहींकहीं ढह गया है, परंतु यह उस जमाने की निर्माण कला के बारे में बहुत कुछ कहता है.

ट्रेवी फाउंटैन

आखिर में हम विशाल ट्रेवी फाउंटैन आए. यह मानव रचित एक विशाल  झरना है. रोड के सामने, लंबी दाढ़ी वाले नेपच्यून की विशाल संगमरमर की मूर्ति है, जिस के दोनों ओर बलपूर्वक रोके जाते हुए चिंघाड़ते हुए 2 घोड़ों की मूर्तियां हैं. इसी बीच इन लोगों के पीछे से लहराते हुए पानी की धारा बहते हुए सामने आ कर गिरती है. ये तीनों मूर्तियां एक ऊंचे चबूतरे पर स्थापित हैं. इन लोगों के अगलबगल और पीछे से आने वाले पानी की धार 3 तरफ बने गड्ढों में गिरती है.

कहते हैं कि यदि कोई आदमी पीछे मुड़ कर इस में पैसा फेंके और वह पानी में जा गिरे, तो उस की मनोकामना पूरी होती है, और वह फिर इस स्थान पर आता है. मनोकामना पूरी करने वाली वस्तुएं हमारे यहां भी काफी हैं, पर यूरोप में भी ऐसा अंधविश्वास होगा, यह नहीं सोचा था.

इसी संदर्भ में याद आया लंदन का  झूला लंदनआई. जिस में हैं तो 32 केबिन, पर अंतिम केबिन की संख्या है 33. क्योंकि 13 नंबर गायब है. 12 के बाद 14 नंबर दिया गया है. अंधविश्वास का प्रभाव हर समाज में किसी न किसी रूप में व्याप्त है, चाहे वह कितना ही विकसित समाज या राष्ट्र क्यों न हो.

यूरोप के अन्य शहरों की तरह रोम में भी हम लोगों ने विभिन्न प्रकार के भारतीय व्यंजन परोसने वाले एक भारतीय होटल में भोजन किया. उस का नाम था ‘रिस्तेरांतो इंदियानो जयपुर’. बाहर से साधारण से दिखने वाले होटल में पूरी तरह भारतीय वातावरण था. रिसैप्शन के पूरे हौल में लटकते विभिन्न प्रकार के  झाड़फानूस व राजस्थानी पेंटिंग्स भारतीय वातावरण की सृष्टि में योगदान कर रहे थे. मजा आ गया. भारतमय हो गया था सबकुछ. लगा ही नहीं, भारत से इतने दूर रोम में हैं. भोजन भी उतना ही स्वादिष्ठ. लेख में उस होटल की चर्चा न करना, रोम व होटल दोनों के प्रति ही अन्याय होता.

थाईलैंड का सफर सुहाना

विदेश यात्रा के लिए जब हम ने थाईलैंड और सिंगापुर का चुनाव किया तो मन चिहुंक उठा और इस के लिए निश्चित तारीख को मैं और मेरी ननद का परिवार नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल-3 पर पहुंचे. हवाई यात्रा के लिए 3 घंटे पहले हवाई अड्डे पर हाजिर होना पड़ता है. औपचारिकताएं पूरी करने में काफी वक्त लगता है. आखिर औपचारिकताएं समाप्त हुईं और हम विमान में अपनी सीट पर विराजमान हो गए. कुछ ही पल बाद जहाज ने उड़ान भरी.

हम सुबह थाईलैंड की राजधानी बैंकौक पहुंच गए. इस पर्यटन यात्रा में मेरे साथ मेरे पति व मेरी ननद का परिवार भी था. थाईलैंड हमारे देश से समय में डेढ़ घंटे आगे है. हमारा टूर एजेंट हमारी प्रतीक्षा में खड़ा था. हम सामान सहित बड़ी सी टैक्सी में बैठ गए. अब हम थाईलैंड के एक छोटे से शहर पटाया की तरफ जा रहे थे. लगभग सवा घंटे के सफर के बाद हम पूर्वारक्षित होटल ‘इबिस’ पहुंचे. वहां अपने कमरे में 2 घंटे आराम करने के बाद हमें नहानेधोने में 2 घंटे और लग गए. क्षुधा शांत करने के बाद मन हुआ कि चलो पटाया शहर घूमा जाए.

दर्शनीय स्थल

पटाया की टुकटुक : पटाया के बारे में बहुत सुन रखा था. आजकल लगभग हर बड़ी कंपनी अपना व्यापार बढ़ाने के लिए अपने उपभोक्ताओं को ‘सेल्स प्रमोशन’ का ‘टैग’ लगा कर उन्हें थाईलैंड का निशुल्क टूर दे रही है. भारी तादाद में नौजवान, प्रौढ़ सभी यहां मस्ती मारने आते हैं. मु झे बहुत उत्सुकता थी यह जानने की कि आखिर ऐसा क्या खास है यहां जो सब यहां की यात्रा को लालायित रहते हैं.

हम होटल से बाहर आए. मालूम हुआ, यहां 3 लेन हैं. लेन 1 यानी बीच लेन, लेन 2 जहां हमारा होटल था और लेन 3 जहां अन्य दर्शनीय स्थल थे. हम ने लेन 2 से टुकटुक लिया और उस में बैठ गए. उसे ‘बीच लेन’ पर चलने को कहा. टुकटुक यानी ऐसा टैंपू जिस में ड्राइवर का बंद केबिन होता है और पीछे आमनेसामने 2 लंबी सीट होती हैं. उन सीटों पर 15-20 लोग एकसाथ बैठ सकते हैं. सड़क पर दुकानें सजी थीं.  स्थानीय लड़कियां छोटेछोटे परिधानों में सजीधजी घूम रही थीं. दूध सी काया, छोटे कद और दबी नाक वाली चिंकिया हुस्न की परियां मालूम हो रही थीं. 

कुछ देर बाद हमारा गंतव्य स्थल आ गया. हम टुकटुक से उतरे और किराया चुकाया. यहां की मुद्रा ‘भाट’ है जो रुपए के मुकाबले सस्ती है. अब हम जोमटिंग बीच पर पहुंचे. दिसंबर के अंतिम सप्ताह की भीड़ का दबाव. क्रिसमस और नववर्ष की छुट्टियां होने के कारण अंगरेज सैलानी अधिक संख्या में नजर आ रहे थे. वे समुद्र में गोते लगा कर मस्ती कर रहे थे. कुछ सैलानी कुरसियों पर अधलेटे धूप का मजा ले रहे थे. सीफूड यानी मछली,  झींगा आदि तलने की गंध हवा में फैली थी. ताजा कटे फल पैकिंग में बिक रहे थे और नारियल पानी की भी दुकानें सजी थीं. हम भी वहां बिछी आरामकुरसियों पर अधलेटी मुद्रा में पसर गए. मैं गहन दृष्टि से आसपास के माहौल का जायजा लेने लगी.

मेरी दृष्टि आगे की कतार में बैठी एक स्थानीय लड़की पर अटक गई. वह पीठ पर टैटू बनवा रही थी. इतने में एक अंगरेज कहीं से निकल कर आया और उस की कुरसी के साथ सट कर कुरसी लगाई और बतियाने लगा. हमें सम झ में कुछकुछ आ रहा था कि उस अंगरेज ने छुट्टियां व्यतीत करने के लिए लड़की की सेवाएं खरीदी थीं.

इधरउधर देखने पर उस जगह की हकीकत सामने आ रही थी. यहां लड़कियां ही सब काम करती नजर आ रही थीं. होटलों में, बार में, दुकानों पर, हर जगह. इन की पहचान ‘सेविका’ रूप में थी. स्त्री का चैरी रूप यहां प्रमुखता से देखने को मिला.

आगे चलतेचलते हमें भारतीय रेस्तरां दिखाई दिया और हम भूख मिटाने के लिए उस रेस्तरां में चले गए. फिर हम ने वहां से टुकटुक लिया और वापस होटल की ओर चल दिए.

रात का नजारा कुछ और था. चमकदार नियौन बोर्ड, सैलानियों के साथ खूबसूरत थाई लड़कियों का लिपटनाचिपटना, उन्मुक्त वातावरण. अच्छाखासा मेला सा लगा हुआ था. जगहजगह थाई मसाज के बोर्ड लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘यहां का मसाज मशहूर है. हाथों का, पैरों का, जांघों का, बांहों का, पूरे बदन का मसाज. लड़कियों द्वारा मसाज सैलानियों के लिए खास आकर्षण है.’ वहां कुछ भारतीय भी घूम रहे थे. युवाओं की संख्या ज्यादा थी. होटल पहुंचते ही नींद ने आ घेरा.

वौकिंग स्ट्रीट : अगले दिन नाश्ता करने के बाद हम शहर की खूबसूरती को निहारने के लिए तैयार थे. पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि मध्य लेन से टुकटुक लेने के बजाय होटल के पिछवाड़े वाली गली से ‘बीच लेन’ पर पहुंचा जा सकता है. हम पैदल ही चल पड़े. 5-7 मिनट बाद हम ‘बीच लेन’ पर थे. यह ‘शौर्टकट’ हमें पसंद आया. ‘वौकिंग स्ट्रीट’ के बारे में बहुत सुना था. ‘स्ट्रिपटीज शो’ के लिए जानी जाती है यह जगह. बच्चों के साथ यहां घूमना मुनासिब नहीं था, सो हम ने उन्हें खिलापिला कर वापस होटल में छोड़ा और हम दोनों दंपती ‘वौकिंग स्ट्रीट’ के नजारे देखने गए. उस समय रात्रि के 10 बज रहे थे.

हम चारों ने उस तथाकथित परियों की नगरी में प्रवेश किया. एकदम जुदा नजारा. उन्मुक्त व्यवहार करती सैक्स वर्कर्स ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए जगहजगह खड़ी थीं. उन के अश्लील इशारों में खिंचे चले आए नौजवान, अधेड़ पर्यटक अलगअलग देशों से आए हुए थे. दूसरी ओर जवान लड़के सड़क पर शो कर रहे थे. पुरुषों के लिए ऐसी ऐशगाह और वह भी बिना पुलिसिए डर के शायद यहीं संभव थी.

मेरे दिलोदिमाग के  झरोखे खटखट खुल गए कि ओह, तो यही वह गली है जो अपनी मांसल अदाओं से मर्दों को बारबार दीवाना बनाती है. यहां का बुलावा आते ही मर्द यहां दौड़े चले आते हैं. सस्ती सेविकाएं, उन का उन्मुक्त व्यवहार, तो फिर उन के जादुई आकर्षण में भला कौन न बंध जाए. न्यूड शोज के बोर्ड जगहजगह चमक रहे थे. लड़कालड़कियों दोनों के अलगअलग शोज भी थे यानी स्त्रियों के मनोरंजन का भी ध्यान रखा जाता है. यहां ‘लेडी बौयज’ भी उपलब्ध थे. कई बार धोखे में ग्राहक लड़कियों की पोशाक पहने लड़कों को ले जाते और फिर सिर पीटते रह जाते. ऐसे कई केस सुनने में आए. इस तरह लुटेपिटे लोग कहीं शिकायत भी नहीं कर सकते.

थाईलैंड जो कभी निर्धन देशों की कतार में शामिल था, आज काफी संपन्न देशों में गिना जाता है. पटाया के विकास के लिए सरकार ने 16 से 25 वर्ष की लड़कियों को देहव्यापार के लिए लाइसैंस देना शुरू किया, ऐसा सुना गया है. यहां देहव्यापार अवैध नहीं माना जाता. लाइसैंस लो और देह से धन कमाओ. यहां स्त्रियां बहुत काम करती हैं जबकि पुरुष नशा करने के अलावा कोई काम नहीं करते. दलाली उन का मुख्य काम है.

एक बात मु झे और मालूम हुई कि यहां स्कूलों की संख्या बहुत कम है. मसाज करने की ट्रेनिंग ज्यादातर चलन में है जो आजीविका कमाने का अच्छा साधन है. लड़कियों को अच्छी सेविका बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है. मसाज कर के, साथ घूमफिर कर, गाइड बन कर, दुकान चला कर या सैक्स वर्कर बन कर लड़कियां अपनी आजीविका कमाती हैं. पर्यटन यहां का मुख्य पेशा है जिस पर जाने कितने परिवार चलते हैं. भारत का 1 रुपया, डेढ़ भाट के बराबर है.

अगले दिन यानी नववर्ष की पूर्व संध्या पर हम दूसरे समुद्री तट पर जाने को तैयार थे. हमारी गाइड जो लड़की थी, हमें कश्ती में ले गई. सब से पहले पैराग्लाइडिंग का लुत्फ उठाने की बारी थी. पंक्तियों में खड़े हो कर लाइफ जैकेट और हैल्मेट लिया.

मैं नील गगन में तैर रही थी. हवा का दबाव बहुत था, इतना अधिक कि मु झे नीचे की ओर खिंचाव महसूस हो रहा था. आहा, विस्मयकारी, ऊपर नीला आसमान, नीचे नीला समंदर और बीचोंबीच तैरती मैं. अद्भुत, कुछ क्षणों के बाद मैं धीरेधीरे विशाल छतरी को ओढ़े नीचे उतर आई और मेरे पांवों को समंदर ने धोया. फिर मैं ने उस खारे पानी की चादर को कमर तक खींच लिया. मछली की तरह मैं थिरक गई. इस रोमांच से बाहर निकल कर मैं ने जाना कि जीवन में इस की भी बहुत जरूरत होती है. अब अंडरवाटर करने की बारी थी. अंडरवाटर यानी समुद्र के पानी में औक्सीजन मास्क लगा कर आधे घंटे तक रहना. मु झे थोड़ा डर लगा. मेरे जीवन का यह पहला अवसर था, इसलिए  थोड़ा सा नर्वस थी. मैं जोखिम उठाने को तैयार हो गई क्योंकि गाइड साथ था.

लाइफ जैकेट और औक्सीजन मास्क पहन कर पीठ पर सिलैंडर बांध लिया. रस्सीयुक्त सीढ़ी पर धीरेधीरे पैर रखती मैं समंदर में उतर गई. आसपास तैरती छोटीछोटी मछलियां मु झे छू कर दौड़ जातीं मानो मेरे साथ कबड्डी खेल रही हों. अभी मुश्किल से 5 ही मिनट हुए थे कि मेरी सांस उखड़ने लगी, मेरे कानों में भयंकर पीड़ा उठी. मु झे यों लगा मानो देह का सारा रक्त उमड़ कर मेरे कानों में समा गया हो. मैं कानदर्द से असहज हो उठी. गाइड, जो मेरे साथ ही उतरा था, ने मेरी हालत देख अपनी उंगली से ओके का सिग्नल दिखाया जिसे देख प्रत्युत्तर में मैं ने सिग्नल नहीं दिया. उस ने तुरंत मेरा हाथ थामा और मु झे सीढ़ी की तरफ ले गया. मु झे ऊपर की ओर धकेलने लगा. मैं एकएक सीढ़ी चढ़ ऊपर आ गई. बाहर निकल कर कुरसी पर बैठ गई और हांफने लगी. काफी देर बाद ही मैं सहज हो पाई. इतने में मेरा छोटा बेटा भी बाहर आ गया. बड़ा बेटा अभी अंदर ही था. वह आधे घंटे तक पूरा मजा लेने के बाद बाहर निकला. मु झे अफसोस हुआ कि मैं इस रोमांचक ख्ेल का आनंद नहीं उठा पाई.

वहां समंदर के भीतर वीडियोग्राफी की जा रही थी. बाहर आने पर लोग अपनी सीडी खरीद रहे थे. फोटोग्राफी कर के धन कमाने का बढि़या जरिया मैं ने वहां देखा. वहां से हम बाहर निकल आए और नौका विहार का जम कर लुत्फ उठाया. अब वापस होटल लौटने की तैयारी थी.  रात्रिकालीन भोजन के बाद बच्चों को होटल में ही छोड़ कर हम चारों बाहर निकल आए. उस समय रात के 11 बज कर 45 मिनट हो रहे थे. नववर्ष के आगमन में अभी 15 मिनट बाकी थे. रहगुजर से हम फिर ‘बीच लेन’ की ओर चल पड़े. हसीन रात में विदेशी सरजमीं पर चांद की किरणों तले चहलकदमी पुरसुकून दे रही थी. रहरह कर आसमान में आतिशबाजी हो रही थी. चारों तरफ उजाला ही उजाला था. 12 बज चुके थे. वहां मौजूद लोगों के मुख से ‘हैप्पी न्यू ईयर’ की बधाइयां फूटने लगीं. हम ने भी एकदूसरे को नए साल की बधाई दी.

बैंकौक में बुद्ध : 1 जनवरी, नए साल का पहला दिन. हमें थाईलैंड की राजधानी बैंकौक के लिए रवाना होना था. बैंकौक में प्रवेश करते ही नजरें सड़कों पर फिसलीं. सड़कें खुली, साफसुथरी और चमकदार थीं. हमारी टैक्सी शानदार फाइवस्टार होटल ‘रौयल बैंजा’ के आगे रुकी. यही हमारा अस्थायी निवास था. हम ने प्रवेश की औपचारिकता पूरी की. 18वीं मंजिल पर स्थित 2 कमरे हमारे लिए बुक थे. अब आराम करने का समय था क्योंकि अगले दिन सुबह हमें सिटी टूर के लिए निकलना था. 2 जनवरी को हम नाश्ते के बाद सिटी टूर के लिए तैयार थे. मिनी बस में कुछ परिवारों के साथ हम ने घूमने की शुरुआत की. महिला गाइड हमें बुद्ध के मंदिर ले गई. उस के बाद अब हम प्रस्थान के लिए तैयार थे. बस में बैठ कर रास्ते को निहारते गए.

वहां इमारतों पर राजा के बड़ेबड़े फोटोग्राफ लगे थे. राजा भिन्नभिन्न पोशाकों में सुसज्जित था. राजा का महल दिखाते हुए गाइड ने बताया कि यहां प्रजातंत्र है और जनता प्रधानमंत्री को बहुत सम्मान देती है. राजा के भित्तिचित्र वास्तव में शानदार थे.

उस के बाद हमारी बस रत्न तराशने वाली फैक्टरी के बाहर रुक गई. उस कारखाने में सैकड़ों कारीगर भिन्नभिन्न मशीनों पर  झुके काम कर रहे थे. इस कारखाने के मालिक टैक्सी चालकों को पर्यटकों को यहां लाने के एवज में निशुल्क पैट्रोल कूपन देते हैं. यही वजह है कि लगभग हर टैक्सी यहां रुकती है. अंदर रत्नजडि़त बेश- कीमती आभूषण शोकेस में सजे प्रशंसकों को अपने मोहपाश में बांध रहे थे. हम भी उन की चकाचौंध में मंत्रमुग्ध हुए जा रहे थे लेकिन उन्हें खरीदने का साहस नहीं था. कुछ रईस उन्हें खरीद रहे थे पर हम उन की कीमत देख ‘आह’ भर कर ही रह गए.

लगभग पौने घंटे बाद हम बाहर आ गए. हम ने गाइड से आग्रह किया कि वह हमें इंदिरा मार्केट में उतार दे. इंदिरा मार्केट भारतीयों की पसंदीदा मार्केट है. चारमंजिला छोटा सा स्थानीय बाजार है. हम ने सभी मंजिलें देखीं. वहां रखी वस्तुएं अधिक महंगी नहीं थीं, मोलभाव खूब चल रहा था. हम ने एक अटैची, 4 डुप्लीकेट मोबाइल और कुछ सोविनियर खरीदे. वहां हिंदी जानने वाले दुकानदार भी थे.  सामान पर उड़ती निगाह डाल कर हम गलियों से गुजरते हुए बाहर निकल आए. हम ने टैक्सी ली और रात लगभग 8 बजे हम होटल पहुंचे.

कुछ देर आराम करने के बाद हम नीचे रिसैप्शन पर पहुंचे. भारतीय रेस्तरां के बारे में जानकारी ली. मालूम हुआ कि थोड़ी ही दूर पर कई भारतीय रेस्तरां हैं. हम होटल से बाहर निकले. हमारी खुशकिस्मती कि कुछ ही दूरी पर एक भारतीय रेस्तरां था. हम फौरन उस में प्रविष्ट हुए. हम ने छक कर भोजन किया और तृप्त हो कर बाहर निकल आए.

मसाज का मजा : रात के साढ़े 11 बज रहे थे. बच्चों को होटल में छोड़ हम एक मसाज पार्लर में गए. थाईलैंड 2 बातों के लिए जाना जाता है, हाथी और मसाज. यहां ऐलीफैंट शो अकसर आयोजित किए जाते हैं. मसाज पार्लरों में लगभग हर दूसरा सैलानी स्पा, मसाज आदि का लुत्फ अवश्य उठाता है. उस मसाज पार्लर के 2 हिस्से थे, एक पुरुषों के लिए और दूसरा स्त्रियों के लिए. पैरों की, बाजुओं की या पूरे शरीर की यानी हाफ बौडी मसाज या फुल बौडी मसाज, जैसी चाहे कराइए. थाई लड़कियां अपने हुनर के साथ मौजूद थीं. हम ने हाफ बौडी मसाज कराया. तनमन की थकान पल में छूमंतर हो गई. मसाज का लुत्फ लेने के बाद हमारे कदम अपने अस्थायी रैनबसेरे की ओर बढ़े चले जा रहे थे.

अगले दिन हम सिंगापुर की फ्लाइट पकड़ने एअरपोर्ट की ओर प्रस्थान कर रहे थे.

अमेरिका नहीं देखा तो क्या देखा

निसंदेह, अमेरिका दुनिया का सब से शक्तिशाली राष्ट्र है. सात समंदर पार हो कर  हम सब को चुंबक की तरह अपनी ओर खींचता है. औरों की बात क्या करें, हम भी अमेरिका घूमने के सपने देखतेदेखते पर्यटक के रूप में वहां पहुंच ही गए. कहने में, ‘पहुंच गए’ आसान भले लगता हो परंतु वास्तविकता यह है कि अमेरिका का वीजा लेना अपनेआप में एक टेढ़ी खीर है. औसतन हर 5 भारतीय आवेदकों में से 2 को अमेरिका का वीजा प्रदान करने से इनकार कर दिया जाता है. मु झे और मेरी पत्नी को भी दूसरे प्रयास में ही अमेरिका का वीजा मिल पाया.

हमारा अमेरिका दौरा न्यूयार्क शहर की गगनचुंबी इमारतों के दर्शन से शुरू हुआ. कुछ दशक पूर्व तक विश्व की सब से ऊंची इमारत मानी जाने वाली ‘अंपायर स्टेट बिल्डिंग’ भी हम ने देखी. 1931 में निर्मित यह दुनिया की पहली इमारत थी जिस में 100 से अधिक मंजिलें हैं. 9/11 के आतंकी हमले में ध्वस्त ‘वर्ल्ड ट्रेड सैंटर’ इमारत का वह बहुचर्चित स्थान ‘ग्राउंड जीरो’ भी हम ने देखा.

न्यूयार्क शहर की सब से विख्यात कृति है ‘स्टैच्यू औफ लिबर्टी’, जोकि फ्रांस द्वारा अमेरिका को भेंट की गई एक ज्योति थामे नारी की विशालकाय मूर्ति है. यह अटलांटिक महासागर में न्यूयार्क से सटे एलिस नामक द्वीप पर स्थित है और अमेरिकी पर्यटन का एक प्रतीक चिह्न सा बन गई है. 46 मीटर ऊंची तांबे की यह मूर्ति एक पेडेस्टर पर रखी है और जमीन से इस के सब से ऊंचे छोर, जोकि नारी के हाथ में थमी ज्योति का छोेर है, की ऊंचाई 93 मीटर है. इस तक पहुंचने के लिए आप को फेरी से एलिस द्वीप जाना होता है जोकि 10-15 मिनट का सफर है.

नीले पानी की चादर के दूसरे छोर पर मूर्ति का परिदृश्य समुद्र से फेरी पर बैठे पर्यटकों को खूब भाता है. घूमने के लिहाज से न्यूयार्क का एक और अहम स्थल है मैनहटन क्षेत्र में स्थित ‘सिटी स्क्वायर’. यहां सूर्यास्त उपरांत लोगों का जमावड़ा लग जाता है और बड़ीबड़ी स्क्रीन पर विविध डिस्प्ले व लाइव शो के जरिए जनसमूह का मनोरंजन किया जाता है.

न्यूयार्क शहर में संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय भी है. इस शहर में हमें कहीं भी दोपहिया वाहन देखने को नहीं मिले और गाय, आवारा कुत्ते, पशु आदि भी विचरण करते नहीं दिखे. अब बात करें यूएसए स्थित एक रमणीय शहर यानी उस की राजधानी वाशिंगटन की. वाशिंगटन शहर का नाम अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जौर्ज वाश्ंिगटन पर रखा गया. वे एक अत्यंत लोकप्रिय राष्ट्रपति थे. आदरस्वरूप वाशिंगटन में उन के स्मारक से ऊंची अन्य कोई बिल्डिंग निर्मित नहीं की जाती. इस कारण से वाशिंगटन एक खुलाखुला सा खूबसूरत शहर बन गया है. यहां बागबगीचे, हरियाली, चौड़ी सड़कें, फौआरे वाले चौराहे व सुंदर सरकारी इमारतें स्थित हैं.

वाश्ंिगटन शहर के कुल क्षेत्रफल का 19.4 प्रतिशत क्षेत्र पार्कलैंड है. यहां की संसद कैपिटल हिल है जोकि गोल गुंबज वाला एक विशाल दर्शनीय भवन है. वर्ल्ड बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ का मुख्यालय भी वाशिंगटन में स्थित है. परंतु जो सरकारी भवन सब से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है वह है वाइट हाउस, जोकि अमेरिका के राष्ट्रपति का निवास है. दुनिया के सब से शक्तिशाली माने जाने वाले व्यक्ति का निवास. सफेद रंग की इस इमारत के दर्शन सुरक्षा कारणों से पर्यटक उस की फैंसिंग से  झांक कर ही कर पाते हैं.

वाशिंगटन स्थित अब्राहम लिंकन स्मारक भी पर्यटकों को बहुत सुहाता है. शायद इसलिए कि वहां जिस हस्ती की सजीव सी मूर्ति स्थित है वह प्रजातंत्र के मूल्यों को विश्व में स्थापित करने वाला व श्वेतश्याम वर्ण रूपी नस्लवाद को खत्म करने में सक्रिय रहा एक लोकनायक था. एक अन्य लोकप्रिय पड़ाव अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति जैफरसन का स्मारक है, जोकि एक छोटे तालाब के बगल में बना है. यह रूसवेल्ट स्मारक भी दर्शनीय है. हम ने तुलनात्मक अध्ययन से पाया कि न्यूयार्क व वाशिंगटन शहरों के स्वरूप में वही अंतर है जोकि मुंबई व दिल्ली के मध्य है.

अमेरिका में हमारा अगला पड़ाव था बुफैलो शहर, जहां विश्वप्रसिद्ध नियागरा जलप्रपात है. वाशिंगटन से बुफैलो के बीच का सफर बेहद सुंदर नजारों से भरा रहा. चारों ओर हरियाली दिखती है. कुछकुछ अंतराल में तालाब व नदियां दिखती हैं. हम वहां गरमी में गए थे, परंतु नदियों में पानी लबालब भरा हुआ मिला. कनाडा की सीमा से लगा नियागरा जलप्रपात 3  झरनों का समूह है और एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला प्राकृतिक नजारा भी. एयरी ताल का पानी  झरने के रूप में 59 मीटर नीचे गिर कर औनटोरियो ताल में जा मिलता है और नियागरा जलप्रपात का स्वरूप लेता है. ‘मेड औफ द मिस्ट’ नाम की नौकाएं पर्यटकों को इन  झरनों के अत्यंत नजदीक भी ले जाती हैं. गीले होने से बचने के लिए नौकाओं में बरसातियां उपलब्ध कराई जाती हैं. ऊंचाई से गिरता हुआ पानी दूध सा गोरापन लिए जलकणों का एक धुंध बना देता है जिस की छटा देखने लायक होती है.

नियागरा के इस अलौकिक दृश्य को देख कर पर्यटक को अनायास ही तृप्ति मिलती है कि हजारों मील का सफर तय कर के और तमाम पैसा खर्च कर नियागरा जलप्रपात आने का उस का निर्णय उचित ही रहा. उस को यह सुखद एहसास भी होता है कि वह वसुधा के उस प्रख्यात व अद्वितीय भौगोलिक लोकेशन के समीप है जहां 5 बड़े ताल मिशिगन, सुपीरियर, हुरौन, एयरी और औनटोरियो स्थित हैं.

इन में से पहले 3 ताल हमारे देश के कई छोटे राज्य – मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, नागालैंड व गोआ आदि से भी बड़े हैं. ये तालाब अमेरिका और कनाडा की सीमा पर स्थित हैं. इन में से एक ताल लेक सुपीरियर 406 मीटर गहरा है और यह दुनिया में मीठे पानी की सब से विशाल प्राकृतिक संरचना है. हालांकि विश्व में सब से अधिक पानी डेढ़ किलोमीटर से ज्यादा गहरी, समुद्र सी दिखती, साइबेरिया स्थित लेक बाईकल में है.

हमें यह जान कर हैरानी हुई कि अमेरिका के अलास्का राज्य में 3 लाख से अधिक तालाब हैं और सरहद पार कनाडा में तो इतने ताल हैं कि उन की गणना आज तक नहीं हो पाई है. खैर, यह तो रही यूएसए के पूर्वी हिस्से की कहानी. इस हिस्से में एटलांटा भी स्थित है जबकि दक्षिणपूर्वी छोर पर मियामी. मियामी फ्लोरिडा राज्य में है और उस का बीच बहुत ही लोकप्रिय है. मियामी कर्क रेखा के समीप स्थित होने के कारण तुलनात्मक दृष्टि से, बाकी राज्यों से अधिक गरम है. इसलिए समुद्र तट पर धूप सेंकने (सन बाथिंग) हेतु सैकड़ों अमेरिकी व पर्यटक मियामी बीच पर रोज घंटों व्यतीत करते हैं.

अमेरिका के पश्चिमी तट पर लास एंजलिस, सैन फ्रांसिस्को व थोड़े अंदर की तरफ लास वेगास जैसे प्रसिद्ध शहर बसे हैं. लास वेगास यानी कैसिनो, बार, नृत्य और रंगीन शाम बिताने के लिए एक चकाचौंध से भरी दुनिया.

नेवाड़ा के मरुस्थल स्थित यह शहर गत शताब्दी में पाप नगरी (सिन सिटी) के नाम से भी जाना जाता था और कई दशकों से यह नौजवानों व पर्यटकों के लिए हौट स्पौट बन गया है. लास वेगास में जुआ खेलने की प्रथा शहर की आबोहवा में घुली है. इसलिए यहां होटल में भी कैसिनो जरूर मिलेंगे. संगीत, नृत्य, मदिरा, शबाब इस शहर की संस्कृति का अंश हैं. यहां के होटल ग्राहकों को लुभाने के लिए अलगअलग तरीके अपनाते हैं. एक होटल तो वर्ष 2010 तक अपने रिसैप्शन के पास जिंदा शेर (पिंजरे में) रखता था. यहां किसी होटल में मिस्र के पिरामिड और स्फिन्कस की नकल, किसी में स्टैच्यू औफ लिबर्टी की नकल व किसी में एफिल टावर की नकल बहुत ही आकर्षक तरीके से की गई है.

यूएस क्या विश्वभर के मनोरंजन की राजधानी लास वेगास ही है. इस का ग्लैमर अद्वितीय है. लास वेगास के नजदीक 2 बहुत मशहूर स्थल हैं. एक, प्राकृतिक दूसरा मानव निर्मित. प्राकृतिक है ग्रैंड कैन्यन जोकि वसुधा पर एक अद्भुत संरचना है और वास्तव में एक बेहद लंबी, विशाल व गहरी खाई है. दूसरा, स्थल मानव निर्मित बांध है जिसे हूवर डैम के नाम से जाना जाता है.

गैंड कैन्यन लगभग 5 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर फैली एक खोह है. यह 1500 मीटर से 2100 मीटर तक गहरी है. यह प्रकृति की एक अद्वितीय कृति है और विश्व के आश्चर्यों में गिनी जाती है. लाखों पर्यटक इस को देखने के लिए लास वेगास आते हैं. हूवर डैम, कोलारेडो नदी पर बना है और इस से न केवल नदी के मनमाने तरीके से बहने की धुन पर लगाम कसी गई बल्कि इस से पनबिजली उत्पादन, बेहतर सिंचाई व बाढ़ पर अंकुश लगाने जैसे असीमित फायदे भी हुए. यह बांध यूएसए के एक पूर्व वाणिज्य सचिव व बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने हर्बट हूवर की लगन व सहयोग से बनना संभव हो पाया, इसलिए इस का नाम उन के नाम पर ही रखा गया.

लास एंजलिस शहर, हौलीवुड फिल्म उद्योग का गढ़ है. कई मशहूर सितारे यहां बेवरली हिल्स व अन्य कालोनियों में निवास करते हैं. यहां का सांटा मानिका बीच सैलानियों में लोकप्रिय है. लास एंजलिस में लकड़ी के बिजली के खंभे हैं जोकि कई दशकों से शहर की विद्युत व्यवस्था का अंग हैं. ये कैलीफोर्निया के जंगल की ‘रैड वुड’ से बने हैं, जोकि बहुत मजबूत व दीर्घायु की लकड़ी होती है.

लास एंजलिस में बारिश कम होती है, केवल जाड़ों में थोड़ी सी. हर घर में अग्नि निर्गम (फायर एक्जिट) की लोहे की सीढि़यां बनी हुई हैं. यहां जाड़ों में सीमित जाड़ा पड़ता है व गरमियों में मौसम सुहाना रहता है. लास एंजलिस में पाम के पेड़ हर तरफ दिखते हैं. यहां पीने के पानी के लिए समीप की पहाडि़यों में ‘पूल’ हैं जहां से पाइपलाइन के जरिए पानी शहर में लाया जाता है. लास एंजलिस के नजदीक एस्टेशिया नामक एक उपनगर है जहां भारतीय मूल, एशिया महाद्वीप व अन्य देशों के लोगों की काफी आबादी निवास करती है.

लास एंजलिस जाएं तो ‘यूनिवर्सल स्टूडियो’ अवश्य जाएं. इस स्टूडियो में फिल्म की आवश्यकतानुसार विभिन्न सैट बने हैं और एक बच्चों की ट्रेन के जरिए स्टूडियो में घुमाते हुए आप को विभिन्न दृश्य जैसे बाढ़, आग, कारों के स्टंट सीन आदि कैसे फिल्माए जाते हैं, दिखाया जाता है. भारत में हैदराबाद शहर स्थित रामोजी फिल्म सिटी इसी का एक लघु रूप है. लास एंजलिस के तमाम स्टूडियो में से आम दर्शक को प्रवेश केवल यूनिवर्सल स्टूडियो में ही मिलता है.

अमेरिका के पश्चिम तट स्थित सैन फ्रांसिस्को शहर अमेरिका का सब से खूबसूरत शहर है. बंदरगाहों में सैन फ्रांसिस्को बंदरगाह विश्व में सब से बड़ा है. पिछले 25 वर्षों से सैन फ्रांसिस्को शहर विश्वभर में पर्यटकों का सब से लोकप्रिय शहर रहा है. इस के बाद दूसरे स्थान पर फ्रांस  का पेरिस शहर आता है. सैन फ्रांसिस्को में सबकुछ है जैसे ऊंचे पहाड़, समुद्र, आकर्षक बागबगीचे, शहर विचरण के लिए बिजली चालित ट्राम कार (जिन्हें केबिल कार कहा जाता है). यहां ‘ट्विन पीक्स’ नाम का एक पहाड़ है जहां से एक तरफ नीला समुद्र दिखता है तो दूसरी ओर पूरा शहर. बीचबीच में जब समुद्र से धुंध उठ कर शहर की तरफ बढ़ती दिखती है तो एक मनोरम दृश्य बन जाता है. बादल के टुकड़े भी इस पहाड़ से उड़उड़ कर शहर की तरफ जाते महसूस होते हैं. इस शहर की आभा ही निराली है यहां गरमियों में भी हलकी सी ठंडक का आभास होता है. शहर में उतारचढ़ाव बहुत हैं जोकि यहां की गलियों की ढाल और इमारतों की कतारों में अत्यंत लुभावने लगते हैं. इस शहर का मुख्य आकर्षण है ‘गोल्डन गेट ब्रिज’. इस के 260 मीटर टावर दुनिया के सब से ऊंचे ‘ब्रिज टावर’ हैं. यह पुल जब निर्मित हुआ था तब निर्माण की उच्च तकनीक की एक मिसाल बन गया था. सैन फ्रांसिस्को का एक और आकर्षण समुद्री गंतव्य है, ‘फिशरमैन वार्फ’, जहां समय कैसे कट जाएगा आप को पता ही नहीं चलेगा. ‘सी फूड’ यानी समुद्री खाने के लिए यह वार्फ विश्वविख्यात है. इस क्षेत्र में खरीदारी का शौक पूरा करने के लिए कई अच्छी दुकानें हैं.

नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर पूर्वोत्तर राज्य

पूर्वोत्तर राज्यों में कुदरती खूबसूरती सौगात बन कर बरसती है. यहां आ कर एक नए भारत के दर्शन होते हैं. आदिवासी जीवन, नृत्यसंगीत, लोककलाएं व परंपराओं से रूबरू होने के साथसाथ प्राकृतिक सुंदरता और सरल जीवनशैली भी यहां के खास आकर्षण हैं.

पूर्वोत्तर राज्यों की  खूबसूरती का जवाब नहीं. यहां के घने जंगल, हरेभरे मैदान, पर्वत शृंखलाएं सैलानियों को बहुत लुभाते हैं. सरल स्वभाव के पूर्वोत्तरवासी अपनी परंपराएं और संस्कृति आज भी कायम रखे हुए है. यहां आ कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हैं. यहां के हर राज्य का अपना नृत्य व अपना संगीत है.

गुवाहाटी

गुवाहाटी असम का प्रमुख व्यापार केंद्र है. गुवाहाटी उत्तरपूर्व सीमांत रेलवे का मुख्यालय है. सड़क मार्ग से भी यह आसपास के राज्यों के अनेक शहरों शिलौंग, तेजपुर, सिलचर, अगरतला, डिब्रूगढ़, इंफाल आदि से जुड़ा हुआ है. यही कारण है यह पूर्वोत्तर का गेटवे कहलाता है.

असम

यहां का सब से बड़ा आकर्षण कांजीरंगा नैशनल पार्क है. गैंडे, बाघ, बारहसिंगा, बाइसन, वनविलाव, हिरण, सुनहरा लंगूर, जंगली भैंस, गौर और रंगबिरंगे पक्षी इस नैशनल पार्क के आकर्षण हैं. बल्कि बर्ड वाचर्स के लिए तो कांजीरंगा बर्ड्स पैराडाइज है. पार्क में हर तरफ घने पेड़ों के अलावा एक खास किस्म की घास, जो हाथी घास कहलाती है, भी देखने को मिलती है. इस घास की खासीयत यह है कि इस की ऊंचाई आम पेड़ जितनी है. यहां की घास इतनी लंबी है कि इन के बीच हाथी भी छिप जाएं. इसी कारण यह घास हाथी घास कहलाती है. कांजीरंगा ऐलीफैंट सफारी के लिए ही अधिक जाना जाता है. यहां हर साल फरवरी में हाथी महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इस महोत्सव का मकसद सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा देना नहीं है, बल्कि इस क्षेत्र में पाए जाने वाले एशियाई हाथियों का संरक्षण और उन्हें सुरक्षा प्रदान करना भी है.

कांजीरंगा में हाथी सफारी का मजा बागुड़ी, मिहीमुखी में लिया जा सकता है. हाथी की सवारी के लिए सब से जरूरी हिदायत यह दी जाती है कि पैर पूरी तरह से ढके होने चाहिए वरना यहां पाए जाने वाली हाथी घास से दिक्कत पेश आ सकती है. कांजीरंगा जाने का बेहतर समय नवंबर से ले कर अप्रैल तक है. यहां खुली जीप में या हाथी की सवारी कर पहुंचा जा सकता है. कांजीरंगा के पास ही नामेरी नैशनल पार्क है. यह रंगबिरंगी चिडि़यों और ईकोफिश्ंिग के लिए जाना जाता है. नामेरी पार्क हिमालयन पार्क के नाम से भी जाना जाता है.

यहां से 40 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक खंडहर है. यह देखने में बड़ा अद्भुत है, लेकिन विडंबना यह है कि इस खंडहर के बारे में अभी तक ज्यादा पता नहीं चल पाया है. गुवाहाटी से 369 किलोमीटर की दूरी पर शिवसागर है. असम के चाय और तेल व प्राकृतिक गैस के लिए शिवसागर जिला प्रसिद्ध है. यहां एक  झील है. इसी  झील के चारों ओर बसा है. असम के अन्य दर्शनीय स्थलों में बोटैनिकल गार्डन, तारामंडल, ब्रह्मपुत्र पर सरायघाट पुल, बुरफुकना पार्क साइंस म्यूजियम और मानस नैशनल पार्क शामिल हैं.

भारत में सब से अधिक वर्षा के लिए जाना जाने वाला चेरापूंजी भी असम में ही है. यह बंगलादेश की सीमा पर है. पर्यटन के लिए सब से अच्छा समय अक्तूबर से मई तक है.

क्या खरीदें

खरीदारी के लिए यहां बांस के बने शोपीस से ले कर बहुत सारा सजावटी सामान है. इस के अलावा महिलाओं के पहनने के लिए मेखला है. यह थ्री पीस ड्रैस है. चोली और लुंगीनुमा मेखला असम का पारंपरिक पहनावा है. इस के साथ दुपट्टेनुमा एक आंचल, साड़ी के आंचल की तरह ओढ़ा जाता है.

  -साधना

ईटानगर

असम, मेघालय के रास्ते अरुणाचल की राजधानी ईटानगर पहुंचा जा सकता है. ईटानगर पहुंचने का दूसरा रास्ता है मालुकपोंग, जो असम के करीब है. यानी असम की यात्रा यहां पूरी हो सकती है, इस के आगे का रास्ता ईटानगर को जाता है.

ईटानगर के आकर्षणों में ईंटों का बना अरुणाचल फोर्ट है. इस के अलावा एक और आकर्षण है और वह है हिमालय के नीचे से हो कर बहती एक नदी जिसे स्थानीय आबादी गेकर सिन्यी के नाम से पुकारती है. जवाहर लाल नेहरू म्यूजियम, क्राफ्ट सैंटर, एंपोरियम ट्रेड सैंटर, चिडि़याघर और पुस्तकालय भी हैं.

टिपी और्किड सैंटर से 165 किलोमीटर की दूरी पर बोमडिला है जो खूबसूरत और्किड के फूलों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. यहां और्किड फूलों का एक सेंटर है, जो टिपी आर्किडोरियम के नाम से जाना जाता है. यहां 300 से भी अधिक विभिन्न प्रजातियों के और्किड के फूलों के पौधे देखने को मिल जाते हैं.

बोमडिला की ऊंचाई से हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां, विशेष रूप से गोरिचन और कांगटो की चोटियां खूबसूरत एहसास दिलाती हैं. यहां से 24 किलोमीटर की दूरी पर सास्सा में पेड़पौधों की एक सैंक्चुरी है. पहाड़ी नदी माकेंग में पर्यटक और एडवैंचर टूरिज्म के शौकीनों के लिए यहां वाइट वाटर राफ्ंिटग का मजा कुछ और ही है. यहां नदी में फिश्ंिग का भी शौक पर्यटक पूरा करते हैं.

अरुणाचल के हरेक टूरिस्ट स्पौट के लिए बसें, टैक्सी, जीप और किराए पर हर तरह की कार मिल जाती हैं. ईटानगर अक्तूबर से ले कर मई के बीच कभी भी जाया जा सकता है. यहां सर्दी और गरमी दोनों ही मौसम में पर्यटन का अलग मजा है.

अगरतला

पूर्वोत्तर भारत में त्रिपुरा वह राज्य है जो राजेरजवाड़ों की धरती कहलाती है. दुनियाभर में हर जगह लोग प्रदूषण की मार  झेल रहे हैं जबकि त्रिपुरा को प्रदूषणविहीन राज्य माना जाता है. इस राज्य का बोलबाला यहां के खुशगवार और अनुकूल पर्यावरण के लिए भी है. त्रिपुरा पर्यटन के कई सारे आयाम हैं. सिपाहीजला, तृष्णा, गोमती, रोवा अभयारण्य और जामपुरी हिल जैसे यहां प्राकृतिक पर्यटन हैं. वहीं पुरातात्विक पर्यटन के लिए उनाकोटी, पीलक, देवतैमुरा (छवि मुरा), बौक्सनगर भुवनेश्वरी मंदिर आदि हैं. अगर वाटर टूरिज्म की बात की जाए तो रुद्रसार नीलमहल, अमरपुर डुमबूर, विशालगढ़ कमला सागर मौजूद हैं.

त्रिपुरा में ईको टूरिज्म के लिए कई ईको पार्क हैं. तेपानिया, कालापानिया, बारंपुरा, खुमलांग, जामपुरी आदि ईको पार्क हैं. पर्यटकों के लिए त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में सब से महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल जो है वह उज्जयंत पैलेस है. यह राजमहल एक वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. 3 गुंबज वाले इस दोमंजिले महल की ऊंचाई 86 फुट है. बेशकीमती लकड़ी की नक्काशीदार भीतरी छत व इस की दीवारें देखने लायक हैं. महल के बाहर मुगलकालीन शैली का बगीचा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है.

पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थलों में अगरतल्ला से 55 किलोमीटर की दूरी पर है रुद्धसागर नामक एक  झील. इस  झील के किनारे बसा है नीरमहल. इस महल का स्थापत्य मुगलकालीन है. ठंड के मौसम में यहां यायावर पक्षियों का जमघट लग जाता है. अगरतला से 178 किलोमीटर की दूरी पर उनकोटि है. यह जगह चट्टानों पर खुदाई कर के बनाई गई कलाकृतियों के लिए विख्यात है. पहाड़ों की ढलान पर यहां 7वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान चट्टानों को काट कर, छील कर और खुदाई कर अनुपम कलाकृतियां बनाई गई हैं. ये कलाकृतियां विश्व- विख्यात हैं.

यहां 19 से भी अधिक आदिवासी जनजातियों का वास है. इसीलिए त्रिपुरा को आदिवासी समुदायों की धरती भी माना जाता है. हालांकि मौजूदा समय में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदाय यहां मिलजुल कर रहते हैं और एकदूसरे के पर्वत्योहार भी मनाते हैं.

कैसे पहुंचें

हवाई रास्ते से अगरतला देशभर से जुड़ा हुआ है. ज्यादातर हवाई जहाज गुवाहाटी हो कर अगरतला पहुंचते हैं. ट्रेन के रास्ते गुवाहाटी से होते हुए अगरतला तक पहुंचा जा सकता है. सड़क के रास्ते कोलकाता से अगरतला की दूरी 1,645 किलोमीटर, गुवाहाटी से 587, शिलौंग से 487 और सिलचर से 250 किलोमीटर है. सड़क के रास्ते जाने के लिए लक्जरी कोच, निजी व सरकारी यातायात के साधन उपलब्ध हैं. पासपोर्ट और वीजा साथ ले कर चलें तो त्रिपुरा के रास्ते बंगलादेश भी घूमा जा सकता है.

सिक्किम

रेल मार्ग या सड़क मार्ग से सिक्किम जाया जा सकता है. रेलयात्री जलपाईगुड़ी, सिलीगुड़ी, कलिंपोंग होते हुए जाते हैं, जबकि सड़क मार्ग तिस्ता नदी के किनारेकिनारे चलता है. तिस्ता सिक्किम की मुख्य नदी है. जलपाईगुड़ी से एक टैक्सी ले कर हम सिक्किम की राजधानी गंगटोक के लिए चल पड़े. तिस्ता की तरफ निगाह पड़ती तो उस का साफ, स्वच्छ सतत प्रवाहमान जल मनमोह लेता और जब वनश्री की ओर निगाह उठती तो उस की हरीतिमा चित्त चुरा लेती. प्रारंभ में शाल, सागौन, अश्वपत्र, आम, नीम के  झाड़ मिलते रहे और कुछ अधिक ऊंचाई पर चीड़, स्प्रूस, ओक, मैग्नोलिया आदि के वृक्ष मिलने लगे. हम 7 हजार फुट की ऊंचाई पर पहुंच गए थे, जिस से समशीतोष्ण कटिबंधीय वृक्षों की अधिकता दिखाई दे रही थी.

रंगपो शहर पश्चिम बंगाल व सिक्किम के सीमांत पर स्थित है. यहां ठंड अधिक होती है. फिर हम गंगटोक पहुंचे. वहां हनुमान टैंक घूमने गए. वहां से कंचनजंघा की तुषार मंडित, धवल चोटियां स्पष्ट दिखाई दे रही थीं.  अपूर्व अलौकिक दृश्य देखा. अहा, यहां प्रकृति प्रतिक्षण कितने रूप बदलती है. सूर्योदय के पूर्व कंचनजंघा अरुणिम आभा में रंगा था और जब सूर्य ने प्रथमतया उस की ओर अपनी सुनहरी किरणों से स्पर्श किया, उस का रंग और भी लाल हो गया.

धूप में कंचनजंघा की बर्फीली चोटियां स्वच्छ धवल चांदी की तरह चमक रही थीं. गंगटोक से थोड़ी ही दूर है जीवंती उपवन प्रकृति का मनोरम नजारा प्रस्तुत करता है यह उपवन. रूमटेक गुम्पा भी सिक्किम का एक प्रसिद्ध गुम्पा है. गंगटोक से 30 किलोमीटर दूर तक छोटी सी पहाड़ी की पृष्ठभूमि में इस का निर्माण किया गया है. यहां लामाओं को प्रशिक्षित किया जाता है. वहां का शांत और पवित्र वातावरण सुखद अनुभव देता है.

गंगटोक से पहले की सिक्किम की राजधानी गेजिंग से 15 किलोमीटर दूर पश्चिम में एक छोटा सा गांव है प्रेमयांची. यहां से अन्यत्र जाने के लिए अपने पैरों पर ही भरोसा रखना पड़ता है. 2,600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित प्रेमयांची बौद्ध धर्म की नियंगमा शाखा का सब से बड़ा गुम्पा है. यहां के सभी लामा लाल टोपी पहनते हैं. इसे लाल टोपी धारी लामाओं का गुम्पा भी कहते हैं.

इस गुम्पा के अंदर ‘संग थी पाल्थी’ नाम की उत्कृष्ट कलाकृति प्रथम तल पर स्थापित है. इस कलाकृति से जीव की 7 अवस्थाओं का परिचय मिलता है. कक्ष की भीतरी दीवारों पर अनेक सुंदर चित्र निर्मित हैं, जो भारतीय बाम तंत्र से प्रभावित जान पड़ते हैं.

सेमतांग के पहाड़ों पर चाय के खूबसूरत बागान हैं. दूर से देखने पर लगता है जैसे हरी मखमली कालीन बिछा दी गई हो. यहां से सूर्यास्त का नजारा देखने लायक होता है. इस अद्वितीय दृश्य का लाभ लेने के लिए हमें वहां कुछ घंटों तक ठहरना पड़ा और जब सूर्य दूसरे लोक में गमन की तैयारी करने लगा तो हमारी आंखें उधर ही टंग गईं. सूर्यास्त का नजारा देखने लायक था.

सारा सिक्किम कंचनजंघा की आभा से मंडित प्रकृति सुंदरी के हरेभरे आंचल के साए में लिपटा हुआ है. चावल, बड़ी इलायची, चाय और नारंगी के बाग से वहां की धरती समृद्धि से भरपूर है. तिस्ता की घाटी अपनेआप में सौंदर्य व प्रेम के गीतों की संरचना सी है. यहां की वनस्पतियों में विविधता है. सब से बड़ी बात यह है कि औषधीय गुण वाले वृक्षों की वहां बहुतायत है.

 

प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत मेल पश्चिम बंगाल

आधुनिकता और सांस्कृतिक धरोहर को अपने में समेटे पश्चिम बंगाल में जहां एक ओर प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना दार्जिलिंग है वहीं दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत का प्रवेशद्वार कोलकाता है, जो पर्यटकों को अपनी ओर बरबस आकर्षित करते हैं.

पश्चिम बंगाल अपनी अलग संस्कृति एवं सभ्यता के कारण भारत के अन्य राज्यों से अलग अहमियत रखता है. इस के उत्तर में विशाल हिमालय व दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है. पश्चिम बंगाल अनेक शासकीय परिवर्तनों का  गवाह रहा है. ईस्ट इंडिया कंपनी की आड़ में अंगरेजों ने धीरेधीरे इसे अपनी कर्मस्थली बना कर पूरे हिंदुस्तान पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया था.

पश्चिम बंगाल जूट उद्योग के कारण व्यापारियों के आकर्षण का केंद्र रहा है. यहां जन्मे अनेक महान साहित्यकारों द्वारा रचा साहित्य न सिर्फ साहित्य प्रेमियों को आकर्षित करता है बल्कि पर्यटकों के लिए इस राज्य में घूमनेफिरने के लिए कई ऐसी जगह हैं जहां वे अनायास ही खिंचे चले आते हैं.

दार्जिलिंग

शिवालिक पर्वतशृंखला में समुद्रतल से लगभग 7 हजार फुट की ऊंचाई पर बसे दार्जिलिंग को पहाड़ों की रानी कहा जाता है. दार्जिलिंग चाय और हिमालयन रेलवे के कारण दुनियाभर में प्रसिद्ध है.

दार्जिलिंग पर्वत क्षेत्र के इन तीनों महकमों (दार्जिलिंग, कर्सियांग और कालिंपोंग) में विभाजित है. दार्जिलिंग जिले के नजदीक का महकमा खारसांग, आम लोगों के लिए कर्सियांग के नाम से जाना जाता है. इस का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है. यहां का सफेद और्किड विश्वविख्यात है, जो स्थानीय भाषा में सुनखरी के नाम से जाना जाता है. यहां के गिद्ध पहाड़ के करीब सुभाषचंद्र बोस का पैतृक मकान है जहां उन्होंने लंबे समय तक एकांतवास किया था.

दार्जिलिंग का तीसरा महकमा कलिंपोंग है, जिस का भूटानी भाषा में अर्थ है मंत्रियों का गढ़. दार्जिलिंग और कर्सियांग को तिस्ता नदी कलिंपोंग से अलग करती है. नदी के किनारे हरेभरे जंगल हैं. जंगलों के बीच पहाड़ी,  झरने यहां की प्राकृतिक शोभा में चार चांद लगाते हैं. दार्जिलिंग विशेष रूप से टौय ट्रेन के लिए जाना जाता है. शुरुआती तौर पर यह टौय ट्रेन हिमालयन रेलवे का हिस्सा थी, जिस की स्थापना 1921 में हुई थी. यह रेलमार्ग 70 किलोमीटर लंबा है. यह बतासिया लूप तक जा कर खत्म होता है. इस ट्रेन से मोनैस्ट्री तक के सफर के दौरान पर्यटक दार्जिलिंग के प्राकृतिक सौंदर्य के नजारों का लुत्फ उठा सकते हैं.

दार्जिलिंग का दूसरा मुख्य आकर्षण टाइगर हिल है. इसे रोमांटिक माउंटेन के रूप में भी जाना जाता है. इस टाइगर हिल से एवरेस्ट समेत विश्व की तीसरी सब से ऊंची चोटी कंचनजंघा का दृश्य देखना पर्यटकों के लिए रोमांचकारी होता है.

दार्जिलिंग अपने बौद्ध मोनैस्ट्री या मठों के लिए भी जाना जाता है. दार्जिलिंग का विख्यात मठ घूम मोनैस्ट्री है. इस के अलावा यहां के दर्शनीय स्थलों में एक जापानी ‘पीस पैगोडा’ भी है, जिस की स्थापना विश्व शांति के मकसद से महात्मा गांधी के मित्र फूजी गुरु ने की थी. गौरतलब है कि यह भारत में कुल 6 शांति स्तूपों में से एक है. पीस पैगोडा से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा की शृंखला का नजारा दिखाई देता है.

दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद और गोरखा टेरिटोरियल औटोनौमस बौडी द्वारा नवनिर्मित गंगामाया पार्क, रौक गार्डन, राजभवन, वर्धमान महाराजा की कोठी आदि यहां के दर्शनीय स्थलों में से है. इस के अलावा मिरिक  झील, सिंजल  झील, जोर पोखरी, सिंगला बाजार, संदाकफू, फालुट भी पर्यटन के दृष्टिकोण से काफी लोकप्रिय हैं. माउंटेनियरिंग संस्थान के करीब पद्मजा नायडू जैविक उद्यान है, जो न सिर्फ बच्चों के लिए बल्कि बड़ों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है. इस उद्यान में हिमालयन तेंदुआ और लाल पांडा को भी देखा जा सकता है. यह उद्यान तेंदुआ और पांडा के प्रजनन केंद्र के लिए भी जाना जाता है.

इस के अलावा यहां साइबेरियन बाघ और तिब्बती भेडि़ए भी हैं. भारत में इन वन्य जीवों को एकसाथ एक ही जगह देखने का मौका पर्यटकों को कहीं और नहीं मिल सकता. लियोर्डस वनस्पति उद्यान भी यहां है. इस उद्यान में और्किड की 50 किस्म की प्रजातियां देखने को मिल जाती हैं. इस के अलावा यहां कई तरह के दुर्लभ पेड़पौधे और जड़ीबूटियां भी पाई जाती हैं.

दार्जिलिंग चायबागानों के लिए विश्वविख्यात है. यह एक रोचक तथ्य है कि चाय के पौधे का पहला बीज कुमाऊं से लाया गया था और यही चाय आगे चल कर दार्जिलिंग चाय के नाम से दुनियाभर में जानी जाने लगी. चायबागान में पत्तियों को तोड़ते हुए देख पर्यटकों के लिए अच्छा शगल है. पर्यटक यहां पत्तियों को प्रोसैस होते हुए भी देख सकते हैं. हालांकि इस के लिए चायबागान के अधिकारियों से विशेष अनुमति लेनी होगी.

कैसे पहुंचें

दार्जिलिंग का नजदीकी एअरपोर्ट बागडोगरा है, जो सिलीगुड़ी में है. कोलकाता, गुवाहाटी, दिल्ली और पटना से प्रतिदिन उड़ानें हैं. बहरहाल, बागडोगरा से दार्जिलिंग पहुंचने के लिए यहां से 90 किलोमीटर की यात्रा किराए की कार या जीप से की जा सकती है. रेलवे से यात्रा करनी हो तो सब से करीबी स्टेशन जलपाईगुड़ी है. कोलकाता से दार्जिलिंग मेल व कामरूप ऐक्सप्रैस ट्रेन जलपाईगुड़ी तक पहुंचती हैं. जलपाईगुड़ी से टौय ट्रेन द्वारा लगभग 8 घंटे की यात्रा कर दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है. दिल्ली से गुवाहाटी तक राजधानी ऐक्सप्रैस से पहुंचा जा सकता है. यहां से हवाई या सड़क के रास्ते दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है. सड़क मार्ग से कोलकाता से सरकारी और निजी बसें भी जाती हैं.

क्या खरीदें

जहां तक दार्जिलिंग में खरीदारी का सवाल है तो चाय पत्तियों के अलावा सेमी प्रेसियस स्टोन से ले कर हस्तशिल्प के सामान और ऊनी कपड़े खरीदे जा सकते हैं. साथ ही यहां अच्छे किस्म की पेंटिंग्स भी मिल जाती हैं. यहां की पेंटिंग्स को पर्यटक दार्जिलिंग सफर की यादगार के रूप में जरूर ले कर जाते हैं.

कोलकाता

कोलकाता ऐसा शहर है जहां प्राचीन मान्यता और आधुनिक विचार, अंधविश्वास व प्रगतिशीलता साथसाथ चलती है. कोलकाता शहर का एक बड़ा महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि यह देश की सांस्कृतिक राजधानी होने के साथ ही साथ यह पूर्वोत्तर भारत का प्रवेशद्वार भी है. अब यह शहर काफी बदल चुका है. एक समय था जब कोलकाता पहुंचने के लिए पहले इस के उपनगर हावड़ा से हो कर जाना पड़ता था. कारण, ज्यादातर लंबी दूरी की ट्रेनें हावड़ा ही आती थीं. लेकिन अब कोलकाता का अपना टर्मिनस भी बन गया है. ‘कोलकाता टर्मिनस’. अब यहां पहुंचना वाया हावड़ा जरूरी नहीं है. फिर भी हावड़ा ब्रिज का महत्त्व किसी भी तरह से कम नहीं हुआ है.

लगभग पौने दो सौ साल पुराना बिन खंभे का यह झूलता हुआ पुल आज भी आकर्षण का केंद्र है, फिर वह चाहे पर्यटन के लिहाज से हो या कोलकाता को हावड़ा समेत अन्य उपनगरों से जोड़ने का मामला हो. हावड़ा ब्रिज के अलावा पूर्वी भारत के इस सब से बड़े महानगर कोलकाता के दर्शनीय स्थलों में विक्टोरिया मैमोरियल, अजायबघर  और बिड़ला प्लेनेटोरियम समेत बहुत सारे स्थल हैं.

विक्टोरिया मैमोरियल

विक्टोरिया मैमोरियल  भारत में ब्रिटिश राज का एक स्मारक स्थल है. 228×338 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैले इस स्मारक में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के साथ अन्य ब्रिटिश प्रशासकों का अभिलेखागार भी है. महारानी विक्टोरिया की मृत्यु के बाद 1901 में इसे तत्कालीन वायसराय ने बनवाया था. 1921 में पहली बार इसे आम लोगों के दर्शन के लिए खोल दिया गया. संग्रहालय के ऊंचेऊंचे खंभे, रंगीन कांच और राजकीय सजावट बरतानिया राज और महारानी विक्टोरिया की उपस्थिति की कहानी सुनाते हैं.

बोटैनिकल गार्डन

यह भी गंगा के किनारे कोलकाता के उस पार स्थित है. यह भारत का सब से बड़ा बोटैनिकल पार्क है. 213 एकड़ में फैले इस पार्क में 1,400 प्रजातियों के लगभग 12 हजार दुर्लभ किस्म के पेड़ पाए जाते हैं, इसी कारण यह विश्वविख्यात है. 25 हिस्सों में बंटे इस उद्यान के अलगअलग भाग में विभिन्न किस्म के पेड़पौधे हैं.

अलीपुर चिडि़याघर

यह एक ऐतिहासिक चिडि़याघर है. जिस के मछलीघर में विभिन्न प्रजातियों की रंगबिरंगी मछलियां हैं. चिडि़याघर में एक तरफ रेपटाइल्स हाउस है जहां किस्मकिस्म के सांपों के अलावा मगरमच्छ और घडि़याल भी हैं. यहां बंगाल के मशहूर रौयल बंगाल टाइगर के अलावा सफेद बाघ, जलहस्ती, गैंडा, अफ्रीकी जिराफ, जेब्रा, नीलगाय, बारहसिंगा आदि भी हैं.

इंडियन म्यूजियम

यह एशिया के वृहत्तम संग्रहालयों में से एक है. यहां हजारों वर्ष पुराने, शिवालिक काल के जीवाश्म रखे गए हैं. शिवालिक की पहाडि़यों पर पाए जाने वाले 20 फुट दांतों वाले विशाल हाथी से ले कर न्यूजीलैंड के एक प्राचीन पक्षी और 1891 में अमेरिका के अरिजोना में हुए उल्कापात के अवशेष और बहुत सारे अजीब और अनोखे संग्रह यहां देखने को मिलते हैं.

राष्ट्रीय पुस्तकालय

अलीपुर में चिडि़याघर के सामने ही राष्ट्रीय पुस्तकालय है. यह देश का सब से बड़ा पुस्तकालय है.

मिलेनियम पार्क

गंगा किनारे बसा मिलेनियम पार्क महानगर के सौंदर्यीकरण का हिस्सा है. यहां से हावड़ा ब्रिज और हुगली सेतु का नजारा बहुत ही लुभावना नजर आता है. गंगा के किनारे से लगे पूरे इलाके को पार्क में तबदील कर दिया गया है. यहां तैरता हुआ चारसितारा होटल भी है. गंगा नदी में तैरते हुए होने के कारण यह फ्लोटेल कहलाता है.

शहीद मीनार

यह मीनार तुर्की, मिस्र और सीरियाई स्थापत्य कला का मिलाजुला स्वरूप है. भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर इस का नाम शहीद मीनार रखा गया. 48 मीटर ऊंची इस मीनार से पूरे कोलकाता का नजारा देखा जा सकता है. लेकिन यहां से हुई आत्महत्याओं की घटना के बाद इस में प्रवेश के लिए कोलकाता पुलिस मुख्यालय से विशेष अनुमति लेनी पड़ती है. इन प्रमुख पर्यटक स्थलों के अलावा कालीघाट, दक्षिणेश्वर, बेलूर मठ और फोर्ट विलियम भी दर्शनीय स्थल हैं. इन पर्यटन स्थलों को देखने का सब से अच्छा समय सितंबर से मार्च तक होता है.

कैसे पहुंचें

कोलकाता अपने दमदम एअरपोर्ट से राष्ट्रीय स्तर पर भारत के लगभग सभी हिस्सों से और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपूर्व एशियाई देशों से जुड़ा हुआ है. हावड़ा, सियालदह और कोलकाता रेलवे टर्मिनस में देश के विभिन्न हिस्सों से ट्रेनें आती हैं. कोलकाता के विभिन्न स्थलों को बस, मिनी बस, ट्राम, लांच, मैट्रो ट्रेन, लोकल ट्रेन, लक्जरी एसी बस द्वारा देखा जा सकता है.

दीघा

यह कोलकाता से 187 किलोमीटर दूर स्थित है. भारतीय समुद्रतटों में दीघा ऐसा पर्यटन स्थल है जहां बीच पर अठखेलियां करती लहरों का लुत्फ उठाने देशविदेश से पर्यटक बड़ी तादाद में आते हैं. दीघा में पर्यटन का सब से अनुकूल समय नवंबर से मार्च तक है. वैसे पर्यटकों का पूरे साल यहां आना लगा रहता है. इस का पुराना नाम बारीकूल है. पर अब यह दीघा के ही नाम से जाना जाता है. यहां सूर्योदय और सूर्यास्त के नजारे मनमोहक होते हैं.

दीघा का साफसुथरा समुद्र तट ऐसा है कि इस तट पर दूरदूर तक पैदल चला जा सकता है. गौरतलब है कि दीघा का समुद्र तट ओडिशा के समुद्रतट से जा कर मिलता है. इसीलिए कहा जाता है कि अगर कोई दीघा के समुद्रतट के किनारेकिनारे चलता जाए तो वह ओडिशा पहुंच जाएगा. अगर ओडिशा की ओर न जाना हो तो दीघा के करीब और भी बहुत सारे पर्यटन स्थल हैं. इन्हीं में से एक है न्यू दीघा. हाल के दिनों में न्यू दीघा को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है. यहां समुद्रतट के अलावा  झील और पार्क भी हैं.

दीघा से 14 किलोमीटर की दूरी पर है शंकरपुर. इस की ख्याति फिशिंग प्रोजैक्ट के रूप में अधिक है. हाल के दिनों में इसे बीच रिजोर्ट के रूप में विकसित किया गया है. इस के अलावा लोगों के लिए पिकनिक स्थल है चंदनेश्वर. दीघा में नहाने, तैरने की सुविधा है. लेकिन यहां पर तट के कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहां तैरने की सख्त मनाही है, विशेष रूप से ज्वार के दौरान जब समुद्रतट का पानी उफान पर होता है. दीघा में समुद्रतट के अलावा तटीय वृक्षों का एक जंगल भी है जो स्थानीय रूप से  झाऊवन के नाम से जाना जाता है. समुद्र की लहरों में तैरनेखेलने के बाद अकसर लोग ‘ झाऊवन’ में आराम करते हैं.

दीघा पहुंचने का रास्ता

कोलकाता से दीघा रेल और सड़क दोनों रास्तों से पहुंचा जा सकता है. कोलकाता से दीघा की दूरी मात्र 4 घंटे में तय हो जाती है. कोलकाता के एस्प्लानेड, उल्टाडांगा से दीघा के लिए सीधी बसें जाती हैं. हावड़ा से दीघा के लिए ट्रेनसेवा भी है. ट्रेन से दीघा पहुंचने में महज 2 घंटे का समय लगता है.

 

हिल स्टेशन दार्जिलिंग की खूबसूरती आज भी आंखों में बसी हुई है. सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग तक ट्रौय ट्रेन का सफर बच्चों के साथसाथ हम ने भी बहुत एंजौय किया. चायबागानों की सैर का मजा ही कुछ और था.

-रजनी कुमार, नई दिल्ली

भीड़भाड़ से भरे कोलकाता शहर में घूम कर बहुत मजा आया. एक बात जो मुझे कुछ हट कर लगी कि सब्जी मार्केट में ही मछली, मुर्गा, सी फूड ऐसे बिक रहे थे जैसे कि सब्जियां. बंगाली मिठाइयां वाकई लाजवाब थीं और पत्नी के लिए बंगाली साडि़यां खरीदना नहीं भूला जिन्हें आज भी वह बहुत चाव से पहनती है.

-राजीव मक्कड़, दिल्ली

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