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आम आदमी की जेब पर डाका

बाजार और खरीद के बदलते तेवरों के बीच आज छुट्टे पैसे यानी सिक्कों की किल्लत धीरेधीरे बड़ी समस्या के तौर पर सामने आ रही है. आम झड़पों से गंभीर झगड़ों तक जहां ये सिक्के कलह का कारण बन रहे हैं वहीं आम आदमी के जेब पर इन की किल्लत के चलते किस तरह डाका डाला जा रहा है, बता रही हैं साधना शाह.

काफी समय से रेजगारी की किल्लत के कारण बाजार से ले कर हाट तक, सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट से ले कर परचून व मौल तक में छुट्टे पैसों के बदले कहीं कूपन तो कहीं टौफी, कहीं कैरम की गोटियां तो कहीं प्लास्टिक व रबर के सिक्कों का उपयोग आर्थिक लेनदेन में हो रहा है. कुल मिला कर गलीमहल्ले से ले कर डिपार्टमैंटल स्टोर व मौल तक में एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल निकली है.

इस सामानांतर व्यवस्था को ले कर देशभर की सड़कोंबाजारों में आएदिन आम आदमी के साथ हर जगह झड़पें हो रही हैं, कभीकभी तो जान तक पर भी बन जाती है. पिछले दिनों छुट्टे पैसों के सवाल पर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस इलाके में एक आटोचालक ने ब्लेड से यात्रियों के चेहरे पर हमला ही नहीं किया, बल्कि गले की नली तक काट डाली.

महंगाई की मार पहले से झेल रही जनता को छुट्टे के बदले टौफी, शैंपू के सैशे, पानमसाला जैसी वस्तुएं जबरन खरीदनी पड़ रही हैं. यह समस्या इस कदर विकराल हो गई कि इस को ले कर कलकत्ता हाईकोर्ट में पिछले दिनों एक जनहित याचिका दायर की गई थी. यह याचिका एक स्वयंसेवी संस्था की ओर से राजीव सरकार ने दायर की. मामले की सुनवाई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्र और जयमाल बागची की खंडपीठ कर रही है. पिछले दिनों सुनवाई के दौरान केंद्र, राज्य और रिजर्व बैंक के वकीलों से खंडपीठ ने इस समानांतर अर्थव्यवस्था पर हैरानी जताते हुए प्रश्न किया कि ‘यह सब क्या चल रहा है?’ सुनवाई के बाद इस आरोप के सिलसिले में न्यायाधीशों ने राज्य वित्त विभाग, परिवहन विभाग समेत केंद्रीय वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक से हलफनामा तलब किया है.

दरअसल, इन दिनों बस, रिकशा, आटोरिकशा, मैट्रो रेल, रेलवे टिकट काउंटर, रेलवे आरक्षण काउंटर, दुकानबाजार, डिपार्टमैंटल स्टोर हर जगह छुट्टे पैसों की समस्या है. इस समस्या से पूरा देश जूझ रहा है. छुट्टा कह लीजिए या चिल्लर, यह ऐसी नायाब चीज बन गई है जिस की हर कोई मांग करता है, पर यह मिलती है बमुश्किल से. ये छुट्टे पैसे महंगाई की मार झेल रहे आम आदमी की जेब पर चुपके से डाका भी डाल रहे हैं.

बसों, आटो के बाद सब से अधिक दिक्कत ब्रिज या हाईवे, ऐक्सप्रैसवे आदि में टोल टैक्स देने में पेश आ रही है. छुट्टे के अभाव में गाडि़यों की लंबी कतारें लग जाती हैं और समय की कहें तो कम से कम आधे घंटे का चूना लगना आम है. छुट्टे की किल्लत के चक्कर में ही बहुत जगहों पर ‘राउंड फिगर’ में पैसे वसूलने का चलन शुरू हो गया है. वहीं, 4 रुपए के किराए के लिए 5 रुपए और 8 रुपए किराए के लिए 10 रुपए चुकाने की मजबूरी हो गई है. टैक्सी वाले तो पहले ही 2 रुपए से ले कर 5 रुपए तक राउंड फिगर करते रहे हैं. पहले ही महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है, उस पर ‘राउंड फिगर’ का कहर जेब पर अलग डाका डाल रहा है. इतना ही नहीं, छुट्टे पैसे के बदले कभी टौफी, माचिस, शैंपू से ले कर जलजीरा और पानमसालों के सैशे आदि जबरन ले कर हिसाब पूरा करना पड़ रहा है.

रिजर्व बैंक का दावा

रिजर्व बैंक औफ इंडिया का कहना है कि पिछले 2 सालों में छुट्टे पैसे की कोई किल्लत नहीं है. पर्याप्त मात्रा में सिक्के जारी हो रहे हैं. रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि साल 2010-2011 में 74 करोड़ 40 लाख 10 हजार सिक्कों की आपूर्ति की गई है. वहीं, साल 2011-2012 में 77 करोड़ 10 लाख 90 हजार सिक्के आरबीआई कौइन वेंडिंग मशीन और राष्ट्रीयकृत बैंकों के 211 खुदरा विनिमय केंद्रों के जरिए जारी किए गए हैं. यही नहीं, समयसमय पर देश के कई हिस्सों में रिजर्व बैंक ने शिविर लगा कर भी सिक्के बांटे हैं. पर सवाल उठता है कि फिर हमें सिक्कों की कमी का सामना क्यों करना पड़ रहा है?

सिक्कों की कालाबाजारी

दरअसल, सिक्कों की कमी के पीछे कारण इस की कालाबाजारी है. बड़े पैमाने पर इस की तस्करी और कालाबाजारी हो रही है. रिजर्व बैंक के सिक्कों में जिस धातु का उपयोग होता है वह उम्दा किस्म का स्टेनलैस स्टील होता है, जो जंगरोधी है. इसलिए इन सिक्कों को गला कर इस का उपयोग बरतन से ले कर नकली जेवर और ब्लेड बनाने में हो रहा है, क्योंकि इन सिक्कों में प्रयुक्त धातु की कीमत सिक्कों की कीमत से कहीं अधिक हो गई है. बताया जाता है कि यही कारण है कि रिजर्व बैंक द्वारा जारी गए सिक्कों का 30 प्रतिशत इस्तेमाल इन्हीं गैरकानूनी कामों में हो रहा है.

सिक्कों की तस्करी

हाल ही में कोलकाता पुलिस ने सिक्कों की तस्करी के बड़े मामले का परदाफाश किया है. रात के अंधेरे में संदिग्ध साइकिल वैन को पुलिस ने रोका. चालक साइकिल वैन को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने वैन को अपने कब्जे में ले लिया. बोरियों में 50 पैसे से ले कर 5 रुपए तक के सिक्के पाए गए. इस से पहले भी कोलकाता पुलिस ने 2 सिक्का तस्करों को धर दबोचा था. पूछताछ से पता चला कि पड़ोसी देश बंगलादेश में भारतीय सिक्कों की बहुत अधिक मांग है, वहां सिक्कों को गला कर ब्लेड बनाया जाता है. यहां तक कि बंगाल के सीमांत क्षेत्र के गांवों में ब्लेड बना कर बंगलादेश भेजे जाते हैं. हालांकि इस के लिए

1 रुपए, 2 रुपए और 5 रुपए के सिक्कों का उपयोग होता है. पुलिस के खुफिया विभाग ने जांच में पाया कि 1 रुपए के एक सिक्के से जिस पैमाने पर स्टेनलैस स्टील धातु प्राप्त होता है उस से कम से कम 3 ब्लेड तैयार होते हैं.

देश भर के बड़ेबड़े बस अड्डों व गुमटियों में खुदरा व छुट्टे पैसों पर बट्टे यानी कमीशन का कारोबार चलता है. स्थानीय भाषा में छुट्टे को ‘रेजगारी’ कहते हैं. आटो रिकशा चालक से ले कर छोटेबड़े दुकानदार ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी ‘रेजगारी’ को कमीशन पर बेचती हैं. कमीशन के तौर पर 8 प्रतिशत से ले कर 25 प्रतिशत की दर से सिक्कों की बिक्री होती है.

दलालों का बोलबाला

कोलकाता पुलिस के खुफिया विभाग के पल्लव कांति घोष का कहना है कि सिक्कों की कमी का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि इस के पीछे एक गिरोह काम कर रहा है. गिरोह पिरामिड की तरह काम करता है. बाजार में छुट्टे पैसों की किल्लत से निबटने के लिए बीचबीच में रिजर्व बैंक द्वारा ‘कौइन फेयर’ यानी सिक्कों के मेले का भी आयोजन किया जाता है. लेकिन वहां भी दलालों का बोलबाला रहता है. जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले ही सिक्के खत्म हो जाते हैं.

असली से नकली सिक्का

सिक्कों को गला कर बरतन और नकली जेवर के साथ दूसरे सिक्के भी बनाए जाते हैं. 1 किलो सिक्कों से प्राप्त धातु को गलाने में महज 20-25 रुपए का खर्च पड़ता है. लेकिन इस धातु से बने जेवर, मूर्ति और बरतन से 300 रुपए से ले कर 3,000 रुपए तक का फायदा होता है. असली सिक्कों को गला कर नकली सिक्का बनाने का धंधा भी किया जाता है. इन नकली सिक्कों को गांवदेहातों में चला दिया जाता है.

सिक्के का चोखा धंधा

हाल ही में गाजियाबाद के पास 6 क्ंिवटल सिक्के एक कार से बरामद किए गए. इस सिलसिले में 2 लोगों की गिरफ्तारी हुई. पूछताछ में पता चला कि 100 रुपए के सिक्के के लिए वे 150 रुपए देते थे. जाहिर है कि नकली 5 रुपए का सिक्का चला कर ऐसे लोग देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

इसी साल अप्रैल महीने में कानपुर में नकली जेवर बनाने वाले गिरोह का पता चला. गिरोह के एक सदस्य को 7 बोरी सिक्कों के साथ पकड़ा गया था, जिस में लगभग 2 लाख रुपए के सिक्के थे. इन बोरियों में 1, 2 और 5 रुपए के सिक्के थे. गिरोह वाले 100 रुपए के सिक्कों पर 10 रुपए का कमीशन दिया करते थे. वे गांव और कसबे के छोटे दुकानदारों से सिक्के इकट्ठा किया करते थे.

बहरहाल, सिक्कों के मामले में कानून का सहारा लेने पर अदालत ने राज्य व केंद्र की सरकारों समेत रिजर्व बैंक से जवाब मांगा है, लेकिन देशवासी तो पलपल सिक्कों की मार झेल रहे हैं. अदालत तो कानूनी कार्यवाही करने को तत्पर दिखती है लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या कानून के रखवाले व लागू करवाने वाले सिक्कों की कालाबाजारी व तस्करी को रोकने के लिए ईमानदारी से कदम उठाएंगे या रिश्वत ले कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही देंगे?

शिक्षा के बदलते नियम बेहतर या कमतर

स्नातक के लिए अब तक 3 साल खर्च करने वाले छात्रों को एक झटका मिला है दिल्ली विश्वविद्यालय से. दरअसल डीयू ने स्नातक की डिगरी देने के नियमों में तबदीली की है. इस के तहत अब छात्र खुद तय करेंगे कि उन्हें अपनी डिगरी 2 साल में चाहिए या 3 या फिर 4 साल में. तबदीली के इस दौर में महंगी शिक्षा प्रणाली और लचर व्यवस्था इस नए प्रावधान को किस रूप में लेगी, जानने के लिए पढ़ें मेघा जेटली का लेख.

परिवर्तन के साथ तरक्की के सिद्धांत में दम है लेकिन कहींकहीं परिवर्तन नुकसानदेह भी हो सकता है. थोपे जाने वाले किसी भी तरह के परिवर्तन से अंतत: हर स्तर की जनता का प्रभावित होना लाजिमी है. बदलावों के दौर में आज शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव किए जा रहे हैं. शिक्षा के नियमों में बदलाव का एक बड़ा उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय यानी डीयू द्वारा स्नातक की पढ़ाई को 3 से बढ़ा कर 4 साल कर दिया जाना है. डीयू के इस फैसले की खूब आलोचना हुई, वहीं इसे प्रोत्साहन भी मिला.

जुलाई 2013 से ग्रेजुएशन का 3 वर्षीय डिगरी कोर्स 4 साल का कर दिया गया, जिस के तहत मुख्य परिवर्तन यह है कि छात्रों को अलग तरह की डिगरियां 4 सालों में दी जाएंगी, जैसे एसोसिएट स्तर (2 साल बाद), स्तर (3 साल बाद) और औनर्स के साथ स्तर (4 साल बाद). 4 वर्षीय स्नातक डिगरी के तहत छात्रों को शुरुआत में 11 आधार पाठ्यक्रम लेने अनिवार्य होंगे.

डीयू के डिप्टी डीन संगीत रागी बताते हैं कि दूसरे और तीसरे साल के अंत में छात्र को कोर्स छोड़ कर जाने का विकल्प दिया जाएगा. पूरे होने के बाद छात्र को एक सहयोगी डिप्लोमा मिलेगा. तीसरे वर्ष के अंत में छात्र स्नातक की डिगरी ले कर जा सकता है और पूरे 4 साल होने के बाद सम्मान के साथ स्नातक की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा. जो छात्र दूसरे और तीसरे साल के बाद छोड़ कर जाने के विकल्प लेंगे वे 8 साल की अवधि के अंतराल में वापस लौट कर विश्वविद्यालय में शामिल हो कर आगे की पढ़ाई कर सकेंगे. खालसा कालेज में पढ़ाने वाली एक अध्यापिका के अनुसार, एक डिप्लोमा लेने के लिए छात्र को कम से कम 40 फीसदी अंक लाने होंगे जबकि स्नातक की डिगरी और सम्मान के साथ स्नातक की डिगरी के लिए कम से कम 50 फीसदी अंक अनिवार्य हैं.

विरोध क्यों?

छात्र, शिक्षकों और मातापिता ने स्नातक कोर्स को 4 साल का किए जाने के निर्णय के खिलाफ काफी विरोध किया. कमला नेहरू कालेज में अंगरेजी पढ़ाने वाले सनम खन्ना के अनुसार, नए सिलेबस के हिसाब से छात्रों के ऊपर दबाव बढ़ेगा जिस से वे गाइड पर निर्भर हो जाएंगे. इस से डिगरी के मूल्य को खतरा है. सीखे हुए से ज्यादा वे याद किए हुए ज्ञान पर निर्भर होंगे जिस का नतीजा छात्रों के लिए अच्छा नहीं होगा.

दिल्ली विश्वविद्यालय के कई शिक्षकों का कहना है कि न तो उन से 4 साल के डिगरी कोर्स के बारे में कोई सलाह ली गई और न ही उन्हें बताया गया. डीयू से संबद्ध खालसा कालेज में पढ़ने वाली छात्रा नेहा का कहना है कि पहले ही इतनी प्रतिस्पर्धा है और अगर 3 साल की डिगरी हम 4 साल में पूरी करेंगे तो कहीं न कहीं भीड़ में पीछे रह जाएंगे. यह समय की बरबादी के अलावा कुछ नहीं है.

डीयू में पढ़ने वाले एक छात्र के पिता राधेसिंह का कहना है कि पहले ही बच्चों को पढ़ाने में बहुत खर्चा हो रहा है ऊपर से स्नातक में 1 साल और बढ़ा देने का बोझ हम मध्यवर्ग वाले कैसे उठा पाएंगे. फीस के अलावा रोजाना आनाजाना, किताबें, फाइल पर भी बहुत खर्च हो जाता है.

विश्वविद्यालय प्रशासन की तरफ से तर्क यह दिया जा रहा है कि अमेरिका में भी 4 साल का स्नातक कोर्स होता है और इसे यहां शुरू करने से विद्यार्थियों की गुणवत्ता बढ़ेगी लेकिन विरोधियों के अनुसार यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया है. इस से छात्रों की या शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा.

अमेरिकी शिक्षा प्रणाली के अनुसार, छात्र यदि चाहें तो 4 साल डिगरी कोर्स चुन सकते हैं वरना उन के पास अन्य कई विकल्प होते हैं. अमेरिकी व्यवस्था बहुत बेहतर है. शिक्षा के चयन में बहुत लचीलापन है, जिसे यहां पूरी तरह लाने की आवश्यकता है.

3 साल की शिक्षा प्रणाली में असाइनमैंट, डिबेट व प्रोजैक्ट आदि होते हैं जबकि 4 साल के डिगरी कोर्स की प्राथमिकता में लिखित कार्य और समूह परियोजना पर जोर दिया जाएगा. छात्र 2 साल बाद एसोसिएट स्तर का डिप्लोमा डिगरी ले कर पढ़ाई छोड़ सकता है लेकिन वह छात्र कई कंपनियों में नौकरी पाने के लिए योग्य नहीं होगा. ऐसे में उसे कोई फायदा नहीं होगा. पहले ही स्कूल की महंगी फीस भर कर पढ़े हुए विषय यदि फिर पढ़ाए जाएंगे तो मातापिता का महंगाई के दौर में बच्चों की फीस का और भार उठा पाना मुश्किल होगा.

4 वर्षीय स्नातक के लाभ

4 साल के स्नातक का हालांकि जम कर विरोध हुआ लेकिन कुछ आवश्यक चीजों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है. 4 साल का स्नातक कोर्स अमेरिकी शिक्षा प्रणाली से मेल खाता है जिस में छात्र प्रारंभिक वर्ष में शुद्ध विज्ञान, वाणिज्य और कला भी सीख पाएगा. 3 साल पूरे होने पर मिलने वाली डिगरी को स्नातक (बीए) या (बीएस) कहा जाता है. जो छात्र अपनी आगे की पढ़ाई विदेश में करना चाहते हैं उन के लिए यह अत्यंत उपयोगी साबित होगी.

दरअसल, भारत में इस नई प्रणाली के प्रति जागरूकता कम होने के कारण विरोध ज्यादा है. शिक्षा संस्थानों को 4 साल के कार्यक्रम का महत्त्व समझाने के लिए कई सेमिनार करवाए जाने की आवश्यकता है. इस 4 साल के कार्यक्रम में 9 सेमेस्टर होंगे जिस में छात्रों को नियमित रूप से विज्ञान विषयों के अलावा मानविक मूल्यों में भी पारंगत किया जाएगा.

यह सत्य है कि एक ही प्रणाली के लगातार रहने से उस में कुछ बदलाव बेहतर हो सकते हैं. जब संस्थानों ने सेमेस्टर प्रणाली शुरू करने का फैसला किया था विरोध की आंधी तो तब भी उठी थी.

इस 4 साल के कोर्स के पीछे उपकुलपति दिनेश सिंह का तर्क यह है कि 3 साल के विशिष्ट कोर्सों में छात्र लगभग कुछ नहीं सीख पाते. 8 सेमेस्टरों का यह कोर्स उन्हें केवल हिंदी या फिजिक्स या पौलिटिकल साइंस न पढ़ा करर एक बड़ा कैनवास देगा. कहने को यह उद्देश्य अच्छा है पर यह 4 साल का कोर्स जनता पर भारी पड़ेगा. शिक्षक तो वह रहेंगे न जिन की मानसिकता है कि गुरु के चरणों का सान्निध्य ही ज्ञान है. गुरुसेवा की लालसा रखने वाले शिक्षक 3 साल साथ रहें या 4 साल, शिक्षा का स्तर बदलेगा नहीं.

4 साल का कोर्स मूलत: व्यर्थ इसलिए है कि उस की जड़ में अंगरेजी माध्यम रहेगा जिसे पचाना अंगरेजी माध्यम से 12 कक्षा पढ़ कर आए बच्चों के लिए भी संभव नहीं है. वे बड़ी मुश्किल से 3 साल काटते हैं, 4 साल तो उन के लिए पहाड़ हो जाएंगे. 4 साल का कोर्स हो जाने के बाद यह सोचना कि 2 या 3 साल बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले भी कुछ प्रमाणपत्र ले कर निकलेंगे, मूर्खता है. उन्हें कौर्पोरेट जगत निखट्टू और असफल समझेगा इसलिए ये 4 साल तो हरेक को ढोने ही होंगे.

इस का बोझ कालेजों के भवनों, शिक्षकों की संख्या, छात्र के परिवहन पर पड़ेगा जिस की कीमत करदाताओं को करों के रूप में देनी पड़ेगी.  

बच्चा गोद लेने पर भी मातृत्व अवकाश की सुविधा

आप कामकाजी महिला हैं, यदि बच्चा गोद लेने की सोच रही हैं और आप को लगता है कि छोटे बच्चे के घर पर आने से उस की देखभाल में औफिस से छुट्टी नहीं मिलेगी और दिक्कत होगी तो आप गलत सोच रही हैं. बच्चा गोद लेने के बाद कानूनी स्तर पर आप को वही सुविधाएं मिलेंगी जिन की हकदार एक मां होती है. यह अच्छी पहल है और इस से उन माताओं का सम्मान भी बढे़गा जिन्होंने अपने बुढ़ापे के सहारे के लिए बच्चे को गोद लिया है.

जरूरी यह है कि आप को कानूनी प्रक्रिया पूरी कर के ही यह काम करना पड़ेगा. जैसे ही आप कानून के अनुसार बच्चे को गोद लेती हैं तो आप के नियोक्ता को आप को वही सब सुविधाएं देनी पड़ेंगी जिन की हकदार एक मां होती है. मतलब कि बच्चा गोद लेने के बाद आप को मातृत्व अवकाश मिलेगा और इस दौरान आप का वेतन भी नहीं कटेगा. इतना ही नहीं, यह सुविधा बच्चे के पिता को भी मिलेगी. सुविधा हालांकि उतनी ही होगी जितनी सरकारी स्तर पर दी जा रही है लेकिन आप को यह हक बच्चे का कानूनी पिता बनने के बाद मिल पाएगा.

अब तक यह व्यवस्था सिर्फ सरकारी कार्यालयों में ही थी और सरकारी कर्मचारियों में यह सुविधा खूब चर्चा में रही है लेकिन अब निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनियों ने भी इस को अपना लिया है. निजी क्षेत्र के टाटा समूह, रिलायंस, ब्रिटानिया इंडस्ट्री, आरपीजी समूह, गोदरेज आदि कंपनियां ने यह सुविधा देनी शुरू की है. इन कंपनियों में कर्मचारी को 2 माह के वेतन के साथ मातृत्व अवकाश दिया जाएगा.

कुछ कंपनियां तो इस अवकाश को 8 सप्ताह से बढ़ा कर 16 सप्ताह कर रही हैं और इस दौरान अपने कर्मचारी को पूरा वेतन दे रही हैं. यह मानवीय पहल है और इस का स्वाभाविक रूप से सर्वत्र स्वागत किया जाना चाहिए. इस से बच्चे के प्रति मां का और फिर बच्चे का मां के प्रति ऐसा ही लगाव बढ़ेगा जो एक जन्मदात्री मां का अपने बच्चे के साथ होता है.

यह नितांत असाधारण मानवीय पहल है और सभी निजी क्षेत्र की कंपनियों को इस का पालन करना चाहिए. इस से कर्मचारी में अपने संस्थान के प्रति लगाव बढ़ेगा और वह अपना काम समझ कर संस्थान के साथ जुड़ा रहेगा. निसंदेह ठेका प्रथा से कर्मचारी और संस्थान के बीच की भावनात्मक दूरी बढ़ी है और इस के दुष्परिणाम आने वाले समय में जरूर सामने आएंगे. कर्मचारी और संस्थान जब एकदूसरे के पूरक बनेंगे तो कार्यक्षमता बढ़ेगी और उस का लाभ कर्मचारियों के साथ संस्थान को भी होगा.

सरकारी बैंकों की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में जब बैंकों को पूंजीपतियों और महाजनों के चंगुल से छुड़ा कर उन का राष्ट्रीयकरण किया था तो आर्थिक जगत में सवाल उठ रहे थे कि ढीली सरकारी मशीनरी के हाथों चुस्तदुरुस्त बैंकिंग कारोबार आते ही ढह जाएगा और उस की गति ढीली पड़ जाएगी. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो श्रीमती गांधी की इस पहल का जबरदस्त स्वागत कर रहे थे और उन्होंने कह दिया था कि राष्ट्रीयकरण होने के बाद बैंकों का कायापलट हो जाएगा और देश का बैंकिंग तंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हो जाएगा.

आखिरकार, तत्कालीन सरकार का कदम सही साबित हुआ. उस के कदम से देश में बैंकिंग तंत्र को नई गति ही नहीं मिली बल्कि आम जनजीवन बैंकिंग नैटवर्क से इस कदर जुड़ता गया कि धीरेधीरे उस के लिए यह तंत्र महत्त्वपूर्ण हो गया. उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा आएगा जब देश का आम नागरिक जेब को नोटों के वजन से भारी रखने के बजाय एटीएम का इस्तेमाल इस स्तर पर करेगा कि वह दैनिक खर्च के लिए भी एटीएम का ही सहारा लेगा. इस के कई फायदे हुए. एक तो जेब में बड़ी रकम रखने का जोखिम घटा, दूसरा, बैंकिंग प्रणाली हमारे दैनिक जीवन का अहम हिस्सा बन गई.

तब शायद यह भी सोचना ठीक रहा होगा कि 2013 तक देश के प्रमुख बैंकों की जिम्मेदारियां महिलाएं संभाल रही होंगी. पिछले दिनों 57 वर्षीय अरुंधती भट्टाचार्य को जब देश के सब से बड़े स्टेट बैंक औफ इंडिया के शीर्ष पद पर नियुक्त करने की खबर आई तो देश में महिला राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की घोषणा की तरह ही यह खबर भी चौंकाने वाली लगी. देश के सब से बड़े बैंक की वे पहली महिला प्रमुख बन गईं. उन से पहले विजयलक्ष्मी अय्यर सरकारी क्षेत्र के बैंक औफ इंडिया की मुख्य प्रबंध निदेशक और सुब्बालक्ष्मी, दूसरे सरकारी बैंक, इलाहाबाद बैंक की मुख्य प्रबंध निदेशक बनी हैं. लेकिन इतने ऊंचे ओहदे पर स्टेट बैंक ने ही एक महिला को बैठाया है.

निजी क्षेत्र में देश के सब से बड़े बैंक आईसीआईसीआई बैंक की महाप्रबंधक और मुख्यकार्यकारी अधिकारी भी एक महिला चंदा कोचर हैं जबकि शिखा शर्मा निजी क्षेत्र के प्रमुख बैंक ऐक्सिस बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं. इन सब से अलग, नैना लाल किदवई विदेशी बैंक एचएसबीसी की कंट्री प्रमुख हैं.

 

शेयर बाजार 3 साल के उच्चतम स्तर की तरफ

भारतीय शेयर बाजार में इस बार पंख लग गए. पंख लगने की वजह विदेशी बाजार की अच्छी स्थिति है. अमेरिका में कर्ज की अवधि बढ़ाने के संसद में पारित प्रस्ताव से कोषागार में भुगतान का संकट छा गया और एक पखवाड़े से अधिक समय तक रही तालाबंदी के कारण सरकारी दफ्तरों की फाइलों पर जमी धूल साफ करने का काम शुरू हुआ तो उस का असर पूरी दुनिया के बाजारों में देखने को मिला.

इसी बीच, चीन में आर्थिक विकास का आंकड़ा सामने आया. भारत में रिजर्व बैंक ने वित्तीय स्थिति दुरुस्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाने के जो संकेत दिए उस का बाजार पर सकारात्मक असर देखने को मिला और 18 अक्तूबर को बाजार 3 साल के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ. बाजार के जानकारों का कहना है कि इस की बड़ी वजह कंपनियों के तिमाही परिणाम बेहतर रहना है. आसियान देशों के शिखर सम्मेलन के साथ ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिक विकास के लिए वैश्विक मंच पर दिखाई गई सक्रियता भी महत्त्वपूर्ण है.

बड़ी बात यह है कि पिछले दिनों महंगाई की दर में इजाफा हुआ है और ओडिशा में चक्रवाती तूफान के चलते कई हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने देश की आर्थिक विकास दर को बहुत कम बताया है तथा रेटिंग एजेंसी ने भारत की साख को कम कर के दिखाया है. इन विपरीत स्थितियों में भी बाजार में तेजी रहने को महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में बाजार में मजबूती का माहौल रहेगा. शेयर बाजार सूचकांक के 21 हजार की तरफ बढ़ने और नैशनल स्टौक ऐक्सचैंज में भी तेजी रहने की एक वजह रुपए में 3 माह में सब से अधिक मजबूती को बताया जा रहा है.

 

दलितों को मिला मोक्ष?

इस देश में आस्था एक नशा, वहम और बीमारी की तरह धर्मांध लोगों की नसों में उतर चुकी है. इसी आस्था का जानलेवा जहर मध्य प्रदेश के रतनगढ़ में उस समय कई लोगों की जान ले गया, जब दलितों का बड़ा जत्था मोक्ष की आस में भगदड़ में रौंदा गया. अंधविश्वासी दलितों को कैसा मोक्ष मिला, पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट में.

मध्य रेलवे के 2 बड़े जंक्शनों, ग्वालियर व झांसी के बीच स्थित दतिया रेलवे स्टेशन पर काफी कम रेलें रुकती हैं. मध्य प्रदेश के सब से छोटे और पिछड़े 5 जिलों में एक जिला दतिया भी है. यहां के लोग अपने शहर को बड़े फख्र से मिनी वृंदावन भी कहते हैं, क्योंकि शहर में इफरात से मंदिर हैं. दतिया से संबंध रखती एक और दिलचस्प बात स्थानीय लोगों का फोन पर हैलो की जगह ‘जय माई की’ संबोधन इस्तेमाल करना है.

यह माई यानी देवी शहर के बीचोंबीच बने मंदिर पीताम्बरा शक्ति पीठ में विराजती है जहां कोई न कोई तांत्रिक अनुष्ठान बारहों महीने चलता रहता है. रसूखदार नेता, अभिनेता, उद्योगपति, व्यापारी और खिलाड़ी भी पीताम्बरा के दर्शन के लिए खासतौर से आते हैं और महंगे अनुष्ठान करवाते हैं. कहा जाता है कि इस सिद्ध क्षेत्र में अनुष्ठान करवाने से मनोरथ पूरे होते हैं.

पीताम्बरा पीठ के बारे में यहां के लोग बगैर किसी हिचक के स्वीकारते हैं कि यह वीआईपी लोगों यानी पैसे वालों के लिए है. दरिद्रों और शूद्रों के मनोरथ पूरे करने के लिए दतिया से 55 किलोमीटर दूर जंगल में बना है रतनगढ़ देवी का मंदिर, जहां 13 अक्तूबर को पुल पर मची भगदड़ में लगभग 200 श्रद्धालु मारे गए.

भेदभाव की आस्था

रामनवमी के दिन रतनगढ़ के मुकाबले पीताम्बरा पीठ में जुटी भीड़ यानी श्रद्धालुओं की संख्या न के बराबर ही कही जाएगी. इस के बाद भी पीताम्बरा पीठ में सुरक्षा और शांति के मद्देनजर 100 पुलिसकर्मी तैनात थे. इस के उलट रतनगढ़, जहां लगभग 4 लाख श्रद्धालु थे, को महज दर्जनभर जवान दिए गए थे.

यह भेदभाव क्यों? इस का जवाब बेहद साफ है कि रतनगढ़ आने वाले श्रद्धालु छोटी जाति के थे जिन की जानमाल की परवा न पहले कभी की गई थी न आज की जाती है. पर दोनों ही मंदिरों में जुटी भीड़ हिंदुओं की बताई जाती है, नीची और ऊंची जाति का एक शाश्वत फर्क यहां से शुरू होता है या फिर यहां आ कर खत्म होता है, यह तय कर पाना मुश्किल है.

रतनगढ़ हादसे में मरने वाले शतप्रतिशत लोग चूंकि दलित, आदिवासी समुदाय के थे जिन्हें फख्र से आज भी गंवार, चमार और अछूत कहा जाता है, इसलिए उन की मौत पर हायहाय न के बराबर हुई, मानो आदमी नहीं, बरसाती कीड़ेमकोड़े मरे हों.

रतनगढ़ में इस भीड़ का घिरना अपनेआप में शक पैदा करने वाली बात क्यों और कैसे है, इस के पहले यह जान लेना जरूरी है कि हादसा क्या था, कैसे हुआ और इस के असल जिम्मेदार लोग कौन होते हैं.

क्या था हादसा

दूसरे धार्मिक हादसों के मुकाबले रतनगढ़ का हादसा कतई पेचीदा नहीं है. 13 अक्तूबर को लाखों की भीड़ यहां उमड़ी थी. अधिकांश श्रद्धालु बुंदेलखंड, चंबल आदि इलाकों से यहां देवीदर्शन के लिए आ रहे थे. वाहनों की लंबी कतार दतिया से ही दिखनी शुरू हो गई थी. पैदल चल कर आने वालों की तादाद भी कम नहीं थी.

रतनगढ़ पहुंचने के लिए यहां बहने वाली सिंधु नदी पर बने पुल से हो कर जाना पड़ता है, जो मंदिर से 2 किलोमीटर पहले पड़ता है. जब यह पुल नहीं बना था तब साल 2006 में भी पानी के तेज बहाव में काफी श्रद्धालु बह कर मर गए थे.

इस पुल पर यातायात नियंत्रण के कोई इंतजाम नहीं किए गए थे. 2 अधिकारी और 4 कर्मचारी पुल की निगरानी के नाम पर उमड़ते सैलाब को देखते अपने को कोस रहे थे कि बुरे फंसे, त्योहार के दिन भी ड्यूटी बजानी पड़ती है, इन्हें क्या जरूरत धर्मकर्म की, इस से इन की जाति और गति तो सुधरने से रही.

सेवढ़ा अनुभाग के तहत आने वाले इस इलाके का नजारा नवमी ही नहीं पूरे नवरात्रों में देखने लायक होता है. सिर पर माता के नाम की लपेटी गई लाल चुनरिया सुबह 8 बजे कफन बन गई जब 2 वाहनों की टक्कर में पुल पर जाम लग गया. वहां मौजूद नाममात्र की पुलिस ने भीड़ को तितरबितर करने के लिए अपने विवेक, जो हाथ में पकड़े डंडे में था, से काम लिया और उदारतापूर्वक बेवक्त ड्यूटी बजाने की अपनी भड़ास श्रद्धालुओं पर निकाली. इस गैरजरूरी और अघोषित लाठीचार्ज से भी काम न बना तो अफवाह यह उड़ा दी गई कि पुल टूट रहा है.

भक्ति का भूत मौत के डर के चलते गायब हुआ तो देखते ही देखते पुल श्रद्धालुओं की भीड़ से पट गया. लोग एकदूसरे को धकियातेकुचलते दौड़ने लगे. इस भगदड़ में बूढ़ों, बच्चों व औरतों की शामत ज्यादा आई जो कमजोरी के कारण पैरों तले रौंदे गए. अधिकांश लोगों को जान बचाने के लिए पुल से नीचे कूदना मुफीद लगा, कइयों ने हाथ में आए कपड़े और औरतों के शरीर से खींची गई साडि़यों की रस्सी बना कर पुल से उतर कर अपनी जान बचाई. भगदड़ का क्षेत्र महज 2 किलोमीटर तक रहा जहां 1 घंटे में 200 लोग मर चुके थे.

मंत्रीजी का आगमन

पुलिस ने लाठीचार्ज क्यों और किस के आदेश पर किया इस पर इसी विभाग के एक सब इंस्पैक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘हमें खबर मिली थी कि मंत्रीजी व उन के घर वाले आने वाले हैं, इसलिए जरूरी था? कि उन्हें रास्ता साफ मिले. लिहाजा, पुलिस ने भीड़ छांटने की कोशिशभर की थी.’

मंत्रीजी यानी पंडित नरोत्तम मिश्रा, जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं, भारतीय जनता पार्टी के इस इलाके के ही नहीं, बल्कि राज्य के भी वे कद्दावर नेता हैं और दतिया विधानसभा सीट से इस बार भाजपा के उम्मीदवार भी हैं. शायद ही नहीं बल्कि तय है कि रतनगढ़ आने वाले वे दूसरे ब्राह्मण रहे होेंगे. वरना अछूतों के नाम कर दिए गए इस जंगल में बने मंदिर में ब्राह्मण तो दूर, ऊंची जाति का कोई भी जाना गंवारा नहीं करता.

वजह जो भी रही हो, भगदड़ मची, लोग दबेकुचले मरे, हल्ला मचा तो पूरा देश थर्रा उठा कि हे भगवान, यह क्या हो गया, एक और हादसा धर्मस्थल पर हो गया.

16 अक्तूबर तक लाशें गिनी जा रही थीं. सिंधु नदी इक्कादुक्का लाशें उगल रही थी. सुबह 10 बजे जब हम  रतनगढ़ पहुंचे तो कुछ अधिकारी वहां मुस्तैदी

से मीडियाकर्मियों को बड़े गर्व से बता रहे थे कि यह भीड़ तो कुछ भी नहीं, असल भीड़ तो दीवाली के बाद दूज के दिन इकट्ठी होगी. लग यों रहा था मानो हम देश के लगभग बीचोंबीच स्थित शहर दतिया के रतनगढ़ देवी मंदिर में नहीं बल्कि किसी सरहद पर हों जहां शत्रुसेना हमला करने वाली हो और चंद मुलाजिम सैनिकों की तरह देश की लाज बचाने के लिए अपनी जान कुरबान कर देंगे.

दरअसल, सरकार ऐसे हादसों के तुरंत बाद किए जाने वाले अपने 2 प्रिय काम कर चुकी थी. पहला, मुआवजे की घोषणा का और दूसरा, अधिकारी- कर्मचारियों को बर्खास्त करने का. चूंकि मध्य प्रदेश में भी 25 नवंबर को मतदान होना है इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ये दोनों काम निर्वाचन आयोग की अनुमति से करने पड़े. तीसरी रस्म एक जांच आयोग गठित करने की भी अदा की गई.

एकसदस्यीय यह जांच आयोग कई बिंदुओं पर जांच करेगा, जिस में यह बिंदु शामिल नहीं है कि वे लोग कौन हैं जो गांवगांव जा कर धर्म का, चमत्कारों का प्रचार कर देहातियों को धर्मस्थलों पर आने के लिए उकसाते हैं और इस के पीछे उन की मंशा क्या रहती है.

अंधश्रद्धा

हादसे के बाद भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला जारी रहा, मानो 2 दिन पहले कुछ हुआ ही न हो. जो हुआ वह भाग्य और दैवीय प्रकोप था. श्रद्धालुओं का ऐसा मानना था. ये श्रद्धालु रोजाना की तरह जत्थों में आते रहे और वही ‘जय माता दी’, ‘चलो बुलावा आया है’ सरीखे नारे लगा रहे थे. अब तक 13 अक्तूबर को मारे गए व घायलों की सूची भी प्रशासन ने जारी कर दी थी जिस में एक भी सवर्ण का नाम या उपनाम नहीं था.

हादसे पर कुदरती तौर पर राजनीति हुई. कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साधा कि पुलिस वालों द्वारा ट्रैक्टरट्रौलियों के दाखिले के एवज में 200 रुपए की घूस लिए जाने की वजह से हादसा हुआ तो शिवराज सिंह चौहान सकपकाए से यही कह पाए कि हादसा चूंकि दुखद है इसलिए इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए.

ध्यान खींचने वाली बात सिर्फ बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने कही कि सरकार मृतकों व घायलों को दी जाने वाली मुआवजा राशि बढ़ाए. मायावती की दिलचस्पी मध्य प्रदेश के इस धर्मस्थल के हादसे में बेवजह नहीं है. हकीकत में मृतकों में उत्तर प्रदेश के लोग भी बराबरी से थे और सभी दलित थे. रतनगढ़, सेवड़ा विधानसभा क्षेत्र में आता है जहां से पिछली दफा बसपा जीती थी. उस के उम्मीदवार राधेलाल बघेल को यहां के दलित तबके ने हाथोंहाथ लिया था. बसपा इस दफा भी इस सीट से उम्मीद लगाए बैठी है.

यह राजनीति कतई उल्लेखनीय नहीं होती अगर इस में हिंदूवादी संगठनों की कोई भूमिका न होती. इस इलाके की हर एक सीट पर मजबूती से सभी को टक्कर दे रहे बहुजन संघर्ष दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष फूलसिंह बरैया का कहना है, ‘‘आरएसएस के लोग दूरदराज के इलाकों में त्रिशूल और धार्मिक साहित्य सामग्री बांटते रहते हैं. इन का मकसद अपनी दुकानदारी चलाए रखना है. अब ये दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराते गांवगांव घूमते देवीदेवताओं की बातें करते हैं.’’

बरैया की बात में दम इस लिहाज से है कि ज्यादा नहीं अब से कोई 15-20 साल पहले तक अछूतों यानी दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था. 15-17 सालों में चमत्कार कैसे हो गया कि दलित और आदिवासी अचानक भारी तादाद में मंदिरों की तरफ भागने लगे.

धर्म के नाम पर वोटबैंक

अब से 12 साल पहले कांग्रेसी नेता और मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री महेंद्र बौद्ध ने एक भव्य और खर्चीला यज्ञ इस इलाके में करवाया था जिस की खूबी यह थी कि इस में मौजूद अधिकांश लोग दलित तबके के थे. खुद बौद्ध भी इसी समुदाय के थे. इसलिए भीड़ देख उत्साहित थे कि अब उन का वोटबैंक भाजपा की तरह, धर्म के नाम पर ही सही, पक्का हो गया.

पर हुआ उलटा. चमत्कारी तरीके से दलित वोटबैंक भाजपा के खाते में चला गया. यज्ञहवन की आहुतियों का जो रास्ता महेंद्र बौद्ध ने दिखाया था उसे हिंदूवादी संगठनों ने इस कदर हथियाया कि दलित खुद को गर्व से हिंदू कहने लगा. मुमकिन है कि आरएसएस को दलितप्रेम की प्रेरणा इसी आयोजन से मिली.

इसी दौरान, संघ ने हिंदुओं के धर्म पर दोबारा बवाल मचाना शुरू किया, प्रचार यह किया गया कि क्रिश्चियन मिशनरियां हमारे भोलेभाले आदिवासी भाइयों को जबरन या लालच दे कर ईसाई बना रही हैं. हम उन की वापसी हिंदू धर्म में करेंगे और उन का शुद्धिकरण भी करेंगे. छत्तीसगढ़ में दिलीप सिंह जूदेव जैसे जमीनी नेताओं ने तो संघ के सहयोग से बाकायदा इस बाबत धर्मवापसी की मुहिम भी चलाई थी.

चंबल के भिंड, मुरैना, दतिया और विंध्य के रीवा, सतना जिलों में बसपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दलितों पर डोरे डाले गए. प्रचार यह किया गया कि अब दलितों के लिए भी मंदिरों के दरवाजे खुले हैं और वे तनमनधन से धर्मकर्म कर सकते हैं. इस में वेदपुराण, ब्राह्मण और पंडे बाधा नहीं बनेंगे बल्कि उन का हृदय से स्वागत करेंगे.

यह स्वागत साल दर साल नवरात्रि के दिनों में खासतौर से देखने में आया. दलित और आदिवासी बाहुल्य इलाकों से पैदल चल कर मंदिर आनेजाने वाले श्रद्धालुओं के स्वागतसत्कार के लिए जगहजगह फलाहार और स्वल्पाहार के स्टौल सजाए जाने लगे. भगवा झंडे और तंबू तले बैठ कर 9 दिन व्रत करता भूखाप्यासा दलित सागूदाने की खिचड़ी खाने मात्र से कथित तौर पर खुद को महज धर्म के आधार पर मुख्यधारा में शामिल समझने लगा. और इसे, बराबरी समझ ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा.

पुराना धंधा, नए ग्राहक

90 का दशक धर्म और पंडिताई के लिहाज से भी बदलाव का रहा जो किसी को नजर नहीं आया. हुआ यह कि ऊंची जाति वालों के बच्चे तकनीकी शिक्षा की डिगरी ले कर बड़े शहरों में जा कर नौकरी करने लगे जिस की मार कारोबारी पंडे बरदाश्त नहीं कर पाए. खुद ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय, बनियों और कायस्थों की पूरी पीढ़ी महानगरों में आ कर बसने लगी तो शहरी पुरोहित और देहाती पंडे भुखमरी की कगार पर आ कर खुद के आरक्षण की मांग करने लगे. इन की बड़ी तकलीफ यह भी थी कि जिन घरों में साल में 4 दफा उन्हें धार्मिक समारोहों में बुलाया जाता था वहां 4 साल में 1 दफा भी बुलावा आना बंद हो गया.

सवर्णों की कंप्यूटरी पीढ़ी अपने बच्चों का मुंडन जैसा अनिवार्य धार्मिकसंस्कार भी करवाने से कतराने लगी. इस से ज्यादा चिंता की बात यह थी कि वह अपने बापदादों की तरह पूर्णिमा, अमावस्या और हिंदू पंचांग भी भूलने लगी. 14-16 घंटे नौकरी करती इस पीढ़ी को समझ आ गया कि धर्म के नाम पर लुटने से कोई फायदा नहीं, न ही ज्यादा बच्चे पैदा करना फायदे की बात है. इसी दौरान, सवर्ण लड़कियां भी तेजी से नौकरियों में जाने लगीं जिन्हें धर्मकर्म और कर्मकांडों से कोई खास लगाव नहीं रहा.

इस घाटे की पूर्ति करने के लिए धर्म के दुकानदारों का ध्यान पिछड़े वर्ग की तरफ गया. जल्द ही पंडे उन के यहां जा कर पूजापाठ करने लगे और एवज में खासी दक्षिणा भी पाने लगे पर हैरतअंगेज तरीके से पिछड़ों ने सवर्णों के मुकाबले ज्यादा और जल्द तरक्की की. उन के बच्चे भी सवर्णों की तरह पढ़ कर महानगरों की तरफ भागने लगे.

ऐसे में हिंदूवादियों को झख मार कर वंचित तबके के लोगों को ग्राहक बनाना पड़ा. उस वर्ग के लोगों को धर्म की घुट्टी पिलाई जाने लगी. जिसे कल तक दुत्कारा जाता था, छोटी जाति में उस के जन्म को पूर्वजन्म के पापों का फल कहा जाता था, वेदों में उसे सेवक कहा गया है, इस तरह का प्रचार कम किया गया बल्कि उस के माथे पर तिलक लगाया जाने लगा. ऐसा सिर्फ पैसों के लिए किया गया. इस से न तो छुआछूत बंद हुई न ही दलित अत्याचार कम हुए.

इस का असर हुआ और वाकई चमत्कारी ढंग से हुआ. सदियों से सवर्णों से पिटता और दुत्कारा जाता रहा एक बड़ा वर्ग खुद को हिंदू महसूस करने लगा, शर्त दक्षिणा चढ़ाने, भीड़ बढ़ाने पूजापाठ करने और व्रत करने की थी. वह यह सब करने लगा. आज दलितों का उत्साह रतनगढ़ देवी जैसे मंदिरों में हर कहीं देखा जा सकता है.

देवीदेवताओं के चमत्कारी किस्से जोर पकड़ने लगे, इसे हिंदूवादी संगठनों ने आस्था का सैलाब कह कर प्रचारित किया. आरएसएस जैसे कट्टरवादी संगठनों का फायदा यह था कि दलित उन के जरिए भाजपा से जुड़ने लगे और पंडों के पांव भी छूने लगे. भगवा सरकारों ने इस के एवज में जम कर रेवडि़यां संघ और उस के अनुयायी संगठनों को बांटीं.

एक मिसाल भोपाल की है, जहां के एक पौश और व्यावसायिक इलाके एमपी नगर में वनवासी कल्याण परिषद का दफ्तर करोड़ों की जमीन पर बना है. वहां एक आदिवासी मंदिर भी बना दिया गया है.

मगर यह सोचना सरासर बेवकूफी की बात है कि इस से छुआछूत, भेदभाव और जातिगत तिरस्कार बंद हो गए, फर्क सिर्फ इतना आया कि इन नवागंतुक हिंदुओं से धर्म की कीमत वसूली जाने लगी. पंडों को नोट मिले, भाजपा को वोट और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को ताकत मिली जिस के बल पर उस ने नरेंद्र मोदी जैसे मनुवादी हिंदू नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा डाला.

आरएसएस को तगड़ा पैसा, जमीनें और सहूलियतें भाजपा से मिलती हैं. वह भी एक तरह की दक्षिणा ही है. आरएसएस की पैरवी से भाजपा को गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में सत्ता मिलने लगी. उत्तर प्रदेश के हालात भिन्न रहे क्योंकि यहां के जातिगत समीकरण बसपा संस्थापक कांशीराम 80 के दशक से ही बदलने में कामयाब होने लगे थे. राम मंदिर के एक धक्के के बाद भाजपा औंधेमुंह वहां गिरी और कांशीराम की बोई फसल मायावती अभी तक काट रही हैं.

दलित अगर हिंदू माना जाने लगा है तो बसपा और मायावती कमजोर क्यों नहीं हो रहे, इस सवाल का जवाब भी बेहद साफ है कि अभी भी दलित समुदाय पूर्व के सवर्ण अत्याचार को भूला नहीं है और अपनी इकलौती दलित नेता को मजबूत बनाए रखने के लिए बसपा को वोट देता रहता है. मायावती और मुलायम सिंह यादव दोनों की गिनती मनुवाद के विरोधियों में होती है. मुलायम सिंह अपनी सहूलियत के मुताबिक पैंतरा बदलते रहते हैं और प्रधानमंत्री पद के लिए कभी भी, किसी से भी कोई भी, कैसा भी समझौता कर सकते हैं. मौका मिला तो मायावती भी ऐसा करने से हिचकिचाएंगी नहीं और दुहाई दलित और उस के हितों को ही देंगी.

इन राजनीतिक समीकरणों का सामाजिक हालात से गहरा नाता है. अकेले रतनगढ़ में नहीं बल्कि देश के सभी, खासतौर से पश्चिम, मध्य और उत्तरी राज्यों में इस नवरात्रि पर गरीबों, जो हकीकत में दलित हैं, ने जम कर महंगी झांकियां लगाईं और अपनी बस्तियों में भंडारे आयोजित किए. अपने स्तर पर गरबा कर धर्म का मजा सवर्णों की तरह लूटा. फर्क इतना था कि दलितों के गरबे खुले मैदानों में हुए और सवर्णों के भव्य पंडालों व महंगे होटलों में.

हिंदू धर्म के ठेकेदारों और दुकानदारों को यह बात भी समझ आ गई कि दलित आदिवासियों को बहलाने के लिए चमत्कारों के छोटेमोटे किस्सेकहानी काफी हैं जो कभी सवर्णों को फंसाने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे. अब सवर्ण ब्रैंडेड बाबा पालनेमानने लगे हैं. धर्म को दर्शन और आध्यात्म से जोड़ते हुए लुटने के ठौरठिकाने और तरीके उन्होंने बदल लिए हैं.

रतनगढ़ देवी मंदिर में दीवाली के बाद दूज पर लाखों दलित इकट्ठा होते हैं. मान्यता यह है कि किसी को सांप काट ले तो तुरंत रतनगढ़ देवी का नाम ले कर काटे गए स्थान पर पट्टी बांध लो, जान बच जाएगी.

दरअसल, इस नशे,  बीमारी और वहम का कोई इलाज नहीं है जिसे आस्था कह कर प्रचारित किया जा रहा है. वह हकीकत में अंधविश्वास है. और दलितों को जकड़े रखने के लिए यह जरूरी भी है ताकि वे शिक्षित न हो पाएं, पैसा लुटाते रहें, भीड़ बढ़ाते रहें. और मुद्दे की बात यह कि आज भी वे बड़ी जाति वालों के घर के सामने से गुजरें तो जूतियां पैरों से उतार कर सिर पर रख लें.

यह दृश्य आज भी देहातों में आम है पर रतनगढ़ जैसे मंदिरों में नहीं, जहां हिंदूवादी संगठनों के उकसावे में आ कर लाखों दलित उन्मादियों की तरह टूट पड़ते हैं, भगदड़ मचती है तो मारे जाते हैं. इस पर तरस खाने वाली बात प्रचार का करना है कि यह तो मोक्ष है, देवी की मरजी है जिस पर किसी का जोर नहीं.

इस पूरे खेल, जिसे साजिश कहा जाना बेहतर होगा, में चिंता की इकलौती बात दलित आदिवासियों की बदहाली व पिछड़ापन है जिस पर अब हिंदू मिशनरियां अपनी रोटी सेंक रही हैं. पूजापाठ और यज्ञहवन से तरक्की होती तो 40 फीसदी यह आबादी तो दूर की बात है, देश का भला तो कभी का हो गया होता.

भारतीय बाजारों में चीन का डिजिटल हमला

देश के बाजारों में चीन के डिजिटल हमले ने व्यापारिक असंतुलन पैदा कर दिया है. तकनीकी सामान की आड़ में चीन के भारतीय बाजार पर अघोषित कब्जे और पिछले दशक से वर्तमान व्यापारिक असंतुलन तक चीन की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण कर रहे हैं अरविंद कुमार सेन.

वर्ष 2005 की बात है. उस समय चीन के प्रधानमंत्री रहे वेन जियाबाओ ने भारत आने का ऐलान किया था. जवाहरलाल नेहरू के जमाने में आए चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई की यात्रा के तकरीबन साढे़ 4 दशक बाद कोई चीनी प्रधानमंत्री भारत आ रहा था. 1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन ने आपसी रिश्ते तोड़ लिए थे. जाहिर है, लंबा अरसा गुजरने के बाद बीजिंग की ओर से वेन जियाबाओ का आना अहम बात थी. मगर वेन जियाबाओ ने भारत पहुंचने से पहले ही धमाका कर दिया. बीजिंग की तरफ से कहा गया कि चीनी प्रधानमंत्री भारत की राजधानी नई दिल्ली जाने के बजाय सब से पहले बेंगलुरु जाएंगे.

भारत की सिलीकन वैली कहे जाने वाले बेंगलुरु में देश की नामी आईटी कंपनियों के मुख्यालय हैं. 1990 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की अगुआई आईटी सैक्टर की कंपनियों ने की है और बेंगलुरु इस नए भारत का गढ़ है. मतलब, बेंगलुरु जा कर वेन जियाबाओ कोई संदेश देना चाह रहे थे. वह संदेश मिला नई दिल्ली में, जब भारत में चीन के राजदूत ने कहा कि भारत के मामले में चीन के लिए बाउंड्री (भारत-चीन विवादित सीमा) के बी के बजाय बिजनैस का बी ज्यादा अहमियत रखता है.

संदेश साफ था, 21वीं सदी में भारतीय बाजार को हथियाने के लिए चीन सैन्य नीति की बजाय कारोबारी नीति पर काम कर रहा था. वेन जियाबाओ का कहना था कि भारत व चीन को अपनी विवादित सीमा का मसला अलग रख कर कारोबारी रिश्तों में मेलजोल बढ़ाना चाहिए. भारत ने चीन के इस तर्क को स्वीकार कर लिया. दोनों देशों ने अपनेअपने घरेलू बाजार एकदूसरे के लिए खोल दिए और आपसी कारोबार कुलांचें भरने लगा.

1990 में दोनों देश के बीच आपसी कारोबार शून्य था मगर अब यह 70 अरब डौलर का आंकड़ा पार कर गया है. कारोबार के लिहाज से यह बहुत बड़ी रकम है लेकिन इस का फायदा केवल चीन को ही मिलता है क्योंकि दोनों देशों का कारोबारी घाटा भी रिकौर्ड 30 अरब डौलर की ऊंचाई पर पहुंचा हुआ है.

यह कारोबारी घाटा भारत के खाते में झुका हुआ है. यानी भारत, चीन से आयात ज्यादा करता है, निर्यात कम करता है. सूई से ले कर वाहनों तक और खिलौनों से ले कर लैपटौप तक हर सामान चीन से आ रहा है.

कैसे किया कब्जा

आधुनिक विश्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस देश का मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर आला दरजे का है उसी ने दुनिया पर राज किया है. 1945 से पहले ब्रिटेन के कारखानों से निकला सामान दुनियाभर के बाजारों पर राज करता था. 1945 के बाद अमेरिका दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बना. वहीं, 1980 के दशक में जापान ने यह ताज अपने सिर रख लिया. 1990 में दक्षिण कोरिया, चीन और जरमनी दुनिया की फैक्टरी में तबदील हो गए. कोरियन और जरमन कंपनियों के उत्पादों ने अपनी हाई क्वालिटी के दम पर पूरी दुनिया में धाक जमाई है. मगर हाई क्वालिटी का सामान महंगी कीमत पर मिलता है.

दूसरी ओर, चीनी सामान ने बड़ी कंपनियों की पहुंच से बाहर छूट चुके गरीब और कम आमदनी वाले लोगों को निशाना बनाया. चीनी सामान की दूसरी खासीयत है कि यह तकनीक के साथ तालमेल बनाए रखता है. आप चीनी कंपनियों के सहारे हर नई तकनीक का मजा महज 4 से 5 हजार की मामूली सी रकम में उठा सकते हैं. अगर 3 महीने बाद आप को अपना हैंडसैट बदलना है तो भी आप की जेब को दर्द नहीं होगा क्योंकि हैंडसैट की कीमत महज 4 हजार रुपए के भीतर ही है. यही बात लैपटौप, टैबलेट से ले कर कैमरे और एलसीडी टीवी जैसे तमाम इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स पर लागू होती है. साइंस में हो रही रिसर्च ने टैक्नोलौजी की लाइफ कम कर दी है और यह चीज चीनी कंपनियों के पक्ष में काम कर रही है.

चीन की अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर की हिस्सेदारी 30 फीसदी से ऊपर है जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर महज 16 फीसदी योगदान देता है. सीधा मतलब है कि चीन की फैक्टरियां बड़े पैमाने पर इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स का उत्पादन कर रही हैं.

चीनी सरकार ने पूरे देश में स्पैशल इकोनौमिक जोन बना कर मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को टैक्स में छूट दे कर उन्हें बेहद कम दामों पर जमीन मुहैया करवाई है. 1980 के दशक से ही चीनी सरकार ने शिक्षा और हैल्थ सैक्टर में खासा निवेश किया है. चीनी सरकार इन दोनों बुनियादी सैक्टरों पर भारत से लगभग तीनगुना ज्यादा पैसा खर्च करती है. जाहिर है, चीन में बड़े पैमाने पर स्किल्ड लेबरफोर्स कम दामों पर उपलब्ध है. रिसर्च ऐंड डैवलपमैंट यानी आर ऐंड डी पर चीन मोटी रकम खर्च करता है, लिहाजा, नई तकनीक ईजाद करने की लागत भी कम आती है.

एक गैजेट को तैयार करने में लगने वाली हर तरह की इनपुट कौस्ट पर चीनी सरकार ने नकेल कस रखी है, इसलिए आउटपुट कौस्ट यानी किसी गैजेट का मूल्य भी कम रहता है. चीन का सब से बड़ा हथियार करैंसी डिवैल्युएशन (मुद्रा अवमूल्यन) है, जिस के जरिए चीनी सरकार ने जानबूझ कर अपने देश की मुद्रा युआन की कीमत कम कर रखी है जिस का सीधा फायदा दूसरे देशों को निर्यात करने वाली चीनी कंपनियों को मिलेगा.

दरअसल, 1995 में विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ के दबाव में भारत जैसे कई विकासशील देशों ने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते यानी एफटीए किए हैं. एफटीए के बाद दो देश एकदूसरे के बाजारों में सामानों की आवाजाही पर इंपोर्ट ड्यूटी नहीं लगाते हैं. ऐसे में चीन के शंघाई शहर की फैक्टरी में बना सामान उसी कीमत पर नई दिल्ली या लखनऊ में बेचना संभव है. चीन का मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर मजबूत है, लिहाजा, वह एफटीए के बाद मिलने वाले खुले बाजार का फायदा उठाने के लिए बेहतर पोजीशन में रहा है. भारत ही नहीं, दुनिया के आका अमेरिका के बाजार को भी चीनी कंपनियों ने अपने सस्ते सामान से पाट रखा है.

क्या कायम रहेगा चीनी जलवा

चीन से मिल रहे संकेतों को आधार मानें तो यह तय है कि चीन का दबदबा ढलान की ओर है. चीनी सामान को सस्ता बनाने वाला सब से बड़ा फैक्टर चीनी करैंसी युआन की कम कीमत यानी करैंसी डिवैल्युएशन है. मगर अब चीन की इस चाल पर सवाल उठने खड़े हो गए हैं.

अमेरिका की अगुआई में यूरोपियन यूनियन ने चीन पर युआन की कीमत में इजाफा करने का दबाव बना रखा है. वहीं कम पगार पर काम करने वाले चीनी मजदूरों के वेतन बढ़ोत्तरी की मांग को ले कर निकट भविष्य में हड़ताल पर जाने की खबरें भी छनछन कर आ रही हैं.

लंदन से छपने वाली मशहूर पत्रिका द इकोनौमिस्ट ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि कम पगार के कारण चीन में मजदूरों का गुस्सा धीरेधीरे चरम स्थिति की तरफ जा रहा है और किसी भी वक्त विस्फोटक रूप ले सकता है. उधर, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया की राजनीतिक अस्थिरता के कारण पैट्रोलियम समेत कई चीजों के दामों में इजाफा हो गया है, लिहाजा, कम कीमत पर इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स का निर्माण करना मुश्किल होता जा रहा है.

चीनी कंपनियों के सस्ते गैजेट्स की बाढ़ से निबटने के लिए बड़ी कंपनियों ने भी कम कीमत वाले गैजेट्स बनाने शुरू कर दिए हैं. मसलन, पिछले दिनों महंगे फोन बनाने वाली अमेरिका की एप्पल कंपनी ने भारत जैसे विकासशील देशों के उपभोक्ताओं के लिए अपने मशहूर मोबाइल हैंडसैट आईफोन का सस्ता संस्करण महज 5 हजार रुपए की कीमत में लौंच कर दिया है. सस्ती गैजेट्स लाने की यह होड़ केवल मोबाइल कंपनियों में ही नहीं है, एसी से ले कर कार बनाने वाली कंपनियां भी कम कीमत के प्रौडक्ट लौंच करने के इस दंगल में कूद चुकी हैं. नतीजा, सस्ते गैजेट्स के दम पर दुनियाभर का बाजार हथियाने वाली चीनी कंपनियों के साम्राज्य को जोरदार चुनौती मिलनी शुरू हो चुकी है.

सब चीन का माल है

अगर आप एप्पल का आईमैक लैपटौप खरीद कर इस इल्म में हैं कि आप ने अमेरिकी कंपनी का प्रौडक्ट खरीदा है तो आप गलत हैं. आप ने लैपटौप तो चीनी खरीदा है केवल उस की ब्रैंडिंग अमेरिकी है. दरअसल, चीनी कंपनियों के सस्ते माल से मुकाबला करने के लिए दुनियाभर की बड़ी कंपनियों ने अपने गैजेट्स की लागत कम करने के लिए चीन में ही अपने मैन्युफैक्चरिंग प्लांट लगा लिए हैं. आप के गैजेट पर किसी अमेरिकी, जापानी या कोरियन कंपनी का ब्रैंड नेम तो हो सकता है लेकिन उस के भीतर कलपुरजों पर मेड इन चाइना ही लिखा होगा.

चीन के दम पर छा गए

पुरानी कहावत है कि कई दफा दुश्मन को मात देने के लिए उसी की शैली में लड़ना पड़ता है. अमेरिका, जापान और यहां तक कि भारत की कई कंपनियों ने इस गुर को बखूबी समझ लिया है. मिसाल के तौर पर माइक्रोमैक्स का उदाहरण लीजिए. 5 साल पहले इस भारतीय कंपनी को कोई नहीं जानता था. 2008 में माइक्रोमैक्स ने चीनी कंपनियों के साथ सस्ते मोबाइल हैंडसैटों के निर्माण और आपूर्ति पर करार किया. माइक्रोमैक्स ने चीन में कम दामों पर बने मोबाइल हैंडसैटों को भारत ला कर अपने ब्रैंड के नाम से बेचना शुरू कर दिया. गैजेट चीन का था, केवल उस की ब्रैंडिंग और ठप्पा भारतीय कंपनी के नाम से था. नतीजा हिला देने वाला है.

भारत की इस अदनी सी कंपनी माइक्रोमैक्स ने भारतीय मोबाइल बाजार पर कब्जा किए बैठी यूरोपीय देश फिनलैंड की कंपनी नोकिया को जबरदस्त शिकस्त दी थी. एप्पल जैसी दिग्गज कंपनियां भी अब माइक्रोमैक्स के रास्ते पर चल पड़ी हैं. ये कंपनियां अपने गैजेट्स ठेके पर चीनी कंपनियों से बनवा रही हैं और ब्रैंडिंग के बाद अपना ठप्पा लगा कर दुनियाभर में बेच रही हैं.

चीन का दर्द

चीनी कंपनियों का कहना है कि बेकार ही उन पर दुनिया के बाजार पर एकाधिकार करने की तोहमत लगाई जा रही है. चीनी सरकार का तर्क है कि ब्रिटेन, अमेरिका और जापान ने भी शुरुआती दिनों में अपनी घरेलू कंपनियों को सहारा देने के लिए अपनी मुद्राओं की कीमतों में जानबूझ कर कमी की थी. अगर जापान सोनी और पैनासोनिक को खड़ा करने के लिए अपनी करैंसी की कीमत कम कर सकता है तो यही काम हुवाई और लेनोवा को खड़ा करने के लिए चीन क्यों नहीं कर सकता है? चीनी सरकार अपनी कंपनियों को सहारा देने के लिए युआन की कीमत कम रखने की बात पर अडिग है.

चीनी कंपनियों का तर्क है कि चीन में किसी भी गैजेट की फाइनल असैंबलिंग होती है लेकिन उस के निर्माण में काम आने वाले कलपुरजे पूरी दुनिया से मंगाए जाते हैं. चूंकि चीन में लागत कम है, लिहाजा, लैपटौप की फाइनल असैंबलिंग चीनी मैन्युफैक्चरिंग प्लांट में की जाती है और इस के तैयार होने के बाद बौडी पर मेड इन चाइना का ठप्पा लगा दिया जाता है. ऐसे में ग्लोबल मार्केट पर चीनी कब्जे की बातें आधारहीन हैं.

वहीं, वास्तविकता यह भी है कि किसी गैजेट में काम आने वाला सामान और तकनीक सप्लाई करने वाले देश भी बिक्री से मिलने वाला मुनाफा लेते हैं, चीन को तो केवल फाइनल असैंबलिंग से हासिल होने वाला मार्जिन ही मिलता है. फाइनल असैंबलिंग के बाद गैजेट चीन से बाहर निकलता है तो वह चीनी सरकार के व्यापार खाते में दर्ज हो जाता है. वास्तव में उस गैजेट की बिक्री का असली फायदा किसी जरमन या जापानी कंपनी को मिलेगा. सतही तौर पर यह कारोबारी घाटा चीन का मुनाफा लगता है लेकिन धरातल पर ऐसा नहीं है. बहरहाल, ‘मेड इन चाइना’ ने भारत के मैन्युफैक्चर सैक्टर को बुरी तरह हिला कर रख दिया है. 

सियासी उठापटक में फंसा आदिवासी

झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता, लचर विस्थापन और ढुलमुल पुनर्वास नीतियों के चलते आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है. दानेदाने को मुहताज इन आदिवासियों को जीवनयापन की आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने में नाकाम प्रशासन से सिवा परेशानियों के कुछ भी हासिल नहीं हुआ. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार.

रांची के पास सिल्ली में रहने वाली मजदूर रंगीली भगत गुस्से में कहती है, ‘‘आदिवासी जान दे देगा पर जंगल और जमीन नहीं छोड़ेगा. आदिवासियों के राज्य में आदिवासियों की जमीन और जंगल को उजाड़ कर तरक्की हो ही नहीं सकती. उद्योग लगाने के नाम पर आदिवासियों को हटाया जाता है, पर न उन्हें मुआवजा मिलता है न ही उद्योग लगता है.’’

पिछले 13 सालों से झारखंड में नई पुनर्वास नीति बनाने की जद्दोजहद में आदिवासियों और उन की जमीनों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. उन के जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश के नाम पर उन के जख्मों को कुरेदा ही जाता है. यही वजह है कि देश की कुल खनिज संपदा का 40 फीसदी झारखंड में होने के बाद भी सूबे में न उद्योग लगने में तेजी आई, न आदिवासियों को उन का हक मिल सका और न ही सूबे की खास तरक्की हो सकी.

सूबे की कोरबा जनजाति की हालत को देख कर आदिवासियों की बदहाली का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह जनजाति फाकाकशी में जीती है, जंगली फल, चिडि़या, चूहा, घूस, खरगोश खा कर गुजारा करती है. पीने के लायक पानी के लिए इस जनजाति के लोगों को मीलों भटकना पड़ता है.

हरखू बताता है कि उन लोगों का समूचा दिन खाने और पीने की चीजों के जुगाड़ करने में ही निकल जाता है. कोरबा जनजाति के ज्यादातर लोग महुआ की शराब और चावल खा कर गुजारा करते हैं. जंगलों में घूमघूम कर फल, फूल, लकड़ी, चूहा आदि ढूंढ़ना उन का काम है. कुछेक लोग खेती, पशुपालन और मजदूरी करते हैं. बगैर हल, बैल, खाद, बीज और पानी के खेती कैसी होगी, इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फंस कर कई कोरबा बंधुआ मजदूर बन कर रह गए हैं.

आदिवासियों की जमीन के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक किसी तरह की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर हिस्सा भी उन तक नहीं पहुंच सका है. बीमार पड़ने पर कोरबा लोग तंत्रमंत्र और ओझागुनिया के चक्कर में फंस कर अपनी उपस्थिति को धीरेधीरे खत्म कर रहे हैं.

दरअसल, झारखंड की सियासी उठापटक और लचर विस्थापन और पुनर्वास नीति की वजह से नए उद्योगों के लगने की गति तेज नहीं हो पा रही है. वहीं, करीब साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर हैं. आदिवासियों की तरक्की के नाम पर झारखंड राज्य बने 13 साल हो गए पर अब तक न औद्योगिक नीति बनी और न ही विस्थापन और पुनर्वास नीति ही आकार ले सकी.

रांची हाईकोर्ट के वकील अभय सिन्हा कहते हैं, ‘‘अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से अब तक करीब 66 एमओयू पर दस्तखत हुए पर एक पर भी काम चालू नहीं हो सका. 13 सालों में सूबे के 9 मुख्यमंत्री आए पर आदिवासी और उन की समस्याएं जस की तस मुंह बाए खड़ी हैं.’’

झारखंड में आदिवासियों के लिए विस्थापन और पुनर्वास की समस्या नई नहीं है, वे सदियों से इस समस्या से जूझ रहे हैं. आदिवासियों के नाम पर अलग राज्य बनने के बाद भी इस समस्या को दूर करने का दावा और वादा किया गया था पर अलग राज्य बनने के बाद किसी भी सरकार के कान पर जूं तक न रेंगी.

झारखंड विस्थापन संघर्ष समिति के नेता चेतन भगत बताते हैं कि सूबे में अब तक 3 लाख से ज्यादा आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं, इस में सब से ज्यादा विस्थापन खदानों की वजह से हुआ है. रोज नई खदानों में काम चालू होते रहे और आदिवासियों को जंगल व जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा. बड़े बांधों और सिंचाई की योजनाओं की वजह से भी विस्थापन होता रहा. कुल विस्थापितों में से 70 फीसदी आदिवासी पुनर्वास के लिए दरदर भटक रहे हैं, जिन की सुनने वाला कोई नहीं है. आदिवासियों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया है.

सुरेश कोरबा बताता है कि पहले उस के इलाके में 1 डिस्पैंसरी थी जहां दवा मिलती थी, पर 10-12 साल पहले वह भी बंद हो गई. कोरबा जनजाति के लोग इलाज के लिए ओझाओं के पास जाने को मजबूर हैं. इस तरह अपनी जमीन से उजड़ने के बाद कोरबा जनजाति मिटने के कगार पर पहुंच चुकी है और सरकार कान में तेल डाल कर सो रही है.

आदिवासियों का रोना यह है कि उन्हें उन की जमीन से उजाड़ भी दिया जाता है और वहां कोई योजना शुरू भी नहीं हो पाती है. रांची भू अर्जन महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक, जमीन का अधिग्रहण कर महकमे को दखलकब्जा दिला देने के बाद भी योजनाओं पर काम शुरू नहीं हो पाता है. जितने महकमों ने जमीनों का अधिग्रहण किया है, अगर उन के द्वारा काम चालू हो जाता तो सूबे का रंगरूप ही बदल जाता.

जुलाई 2009 तक करीब 2 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर कई महकमों को दखलकब्जा दिलाया जा चुका है, पर ज्यादातर पर काम चालू नहीं हो पाया है. इस से आदिवासियों में काफी गुस्सा है. आदिवासी भोलन उरांव कहता है कि न तो सरकार आदिवासियों को उन की जमीन से उजाड़ कर कारखाने ही लगा सकी है और न ही आदिवासियों को मुआवजा व नई जगह पर बसाने का ही काम कर पाई है. इस से आदिवासियों के इस राज्य को दोतरफा नुकसान हो रहा है.

सूबे में आदिवासियों के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम-1949 और बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969 जैसे कानून बने हुए हैं और लागू भी हैं, लेकिन ये कानून काफी पुराने हो चुके हैं और आज की तारीख में बेकार साबित हो रहे हैं.

ये कानून आदिवासियों की परेशानियों को दूर नहीं कर रहे बल्कि उन के लिए रोज नई परेशानी खड़ी कर रहे हैं.

 

16 जुलाई, 2008 को झारखंड सरकार ने नई पुनर्वास नीति को मंजूरी तो दी पर वह फाइलों से अब तक बाहर नहीं निकल सकी है. हर नया मुख्यमंत्री शपथ लेने के तुरंत बाद ऐलान कर डालता है कि नई पुनर्वास नीति को कड़ाई से लागू किया जाएगा और जरूरत पड़ी तो उस में बदलाव भी किया जाएगा. हर नए मुख्यमंत्री और हर नए ऐलान के बाद आदिवासियों के मन में इंसाफ मिलने की उम्मीद तो जगती है, पर कुछ ही दिनों के बाद उन की उम्मीदें चकनाचूर हो जाती हैं.

घुसपैठ और जेल – तेल का खेल

अंतर्राष्ट्रीय सियासत में इन दिनों रूस का मुद्दा खासा चर्चा में है. पिछले दिनों पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था ‘ग्रीनपीस इंटरनैशनल’ के 30 कार्यकर्ताओं को समुद्री डकैती के आरोप में रूस ने गिरफ्तार किया तो दुनियाभर की सामाजिक व नामी हस्तियों ने उन्हें आजाद कराने की मुहिम छेड़ दी. कई मुल्कों में इस बाबत प्रदर्शन भी हो रहे हैं.

नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने भी उन्हें रिहा करने के लिए रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन से गुहार लगाई. लेकिन रूस का रुख जरा कड़ा है. उस के मुताबिक सभी पर आर्कटिक तेल प्लेटफौर्म में घुसने के आरोप में मुकदमा चलेगा. रूस के अनुसार यह मामला चोरी और घुसपैठ का है वहीं पर्यावरण संस्था का कहना है कि उस के कार्यकर्ता ‘खतरनाक आर्कटिक तेल खनन’ के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे.

बहरहाल, मुल्क में तेल, घुसपैठ और रिहाई की यह कहानी कोई भी मोड़ ले लेकिन एक बात तो साफ है कि मुल्क चाहे कोई भी हो, सरकारें सच की आवाज को दबा नहीं सकती हैं.

जोड़तोड़ के दलदल मों फंसा हर दल

बिहार का सियासी माहौल इन दिनों जोड़तोड़ की राजनीति का शिकार है. अगले चुनावों के मद्देनजर राजद, जदयू, भाजपा और कांग्रेस जैसे दल बजाय खुद को मजबूत दावेदार बनाने के अन्य प्रतिस्पर्धी दलों के विधायकों को तोड़ कर उन्हें कमजोर बनाने की फिराक में ज्यादा हैं. ऐसे में आने वाले दिनों में जोड़तोड़ का यह खेल चुनावी अखाड़े में कौन सा रंग दिखाएगा, पड़ताल कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

बिहार में हर दल में अजीब सी कुलबुलाहट मची हुई है. किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलने की बहती हवा के बीच हर दल खुद को मजबूत करने के बजाय दूसरे दलों को तोड़ने और उन्हें कमजोर करने की सियासत में लगा हुआ है. जनता दल (यूनाइटेड) यानी जदयू भाजपा विधायकों पर डोरे डाल रहा है तो भाजपा जदयू और राष्ट्रीय जनता दल के विधायकों व नेताओं को पटाने में लगी हुई है.

कांग्रेस नीतीश पर अपना जादू चलाने के बाद अपने असली रंग में आने लगी है और अगली लोकसभा व विधानसभा चुनावों को ले कर सीटों का मोलभाव करने के लिए दबाव बढ़ाने लगी है, जिस से जदयू की बेचैनी बढ़ रही है. लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा के मुखिया रामविलास पासवान कभी कांगे्रस तो कभी राजद से पींगें बढ़ाने की कवायद में कनफ्यूजन वाली हालत में हैं.

243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में महज 4 विधायकों के बूते कांगे्रस ने हर दल की नाक में दम कर रखा है. मुसलमानों को पटाने व दूसरे दलों के मुसलिम प्रेम की हवा निकालने की जुगत में भाजपा में अंदरखाने शाहनवाज हुसैन को अगले मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजैक्ट करने पर मंथन चल रहा है. शाहनवाज केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं. वे इस समय सांसद व भाजपा प्रवक्ता हैं.

जदयू के एक बड़े नेता कहते हैं कि कांगे्रस पार्टी की दिलचस्पी खुद को नए सिरे से खड़ा करने और अपना जनाधार मजबूत करने से ज्यादा दूसरे दलों को तोड़ने, कमजोर करने और उन की जड़ें खोदने में होती है. बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान का बेड़ा गर्क करने के बाद उस का अगला मिशन है जदयू को मटियामेट करना.

नीतीश कुमार कांगे्रस के इस दांव और मायाजाल में फंस चुके हैं. कांगे्रस के बहकावे में उन्होंने भाजपा से 17 साल पुराना रिश्ता तो एक झटके में तोड़ लिया, पर अब उन्हें कांगे्रस का दांवपैंतरा समझ में आने लगा है. अब नीतीश की हालत सांपछछूंदर वाली हो गई है, न उन्हें कांगे्रस की यारी रास आ रही है न ही भाजपा से दूरी सहन हो पा रही है.

16 जून को भाजपा से नाता तोड़ने के बाद 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में जदयू के 118 विधायक रह गए हैं. यह आंकड़ा बहुमत से 4 कम है. कांग्रेस के 4, सीपीएम का 1 और 6 निर्दलीय विधायकों की मदद ले कर नीतीश ने अपनी लाज और ताज तो बचा लिया पर उन की सरकार पर हर समय खतरों के बादल मंडरा रहे हैं. पता नहीं कब किस बात पर चिढ़ कर कांगे्रसी और निर्दलीय विधायक उन की सरकार से समर्थन वापस ले लें.

इस खतरे को टालने के लिए नीतीश और उन के साथी भाजपा विधायकों पर लगातार डोरे डालने में लगे हुए हैं. जदयू के वरिष्ठ नेता का दावा है कि भाजपा के 5 विधायक जदयू में आने के लिए तैयार हैं. समस्तीपुर जिले के मोहिउद्दीन नगर के विधायक राणा गंगेश्वर सिंह पहले ही नीतीश की तारीफ के पुल बांध कर अपनी मंशा जता चुके हैं.

भाजपा विधायक दल के नेता सुशील कुमार मोदी गुस्से में कहते हैं कि नीतीश कुमार भाजपा के विधायकों को तोड़ने में लगे हुए हैं. वहीं, नीतीश कुमार अपने ऊपर लगाए गए इस आरोप को नकारते हुए कहते हैं कि उन्हें तोड़फोड़ की राजनीति नहीं आती है. अगर भाजपा का कोई विधायक उन की सरकार की तारीफ करता है तो इस में उन की क्या गलती है. यह तो भाजपा की समस्या है.

पिछले 16-17 अगस्त को बिहार भाजपा कार्यसमिति में नरेंद्र मोदी छाए रहे और पिछले साढ़े 7 सालों तक नीतीश सरकार में बने रहने वाली भाजपा नीतीश सरकार को हर मोरचे पर नाकाम रहने का ढिंढोरा पीट कर अपनी ही पोलपट्टी खोलने में लगी हुई है.

गठबंधन की जुगत

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे कहते हैं कि नीतीश सरकार अल्पमत में है और सरकार बचाने के लिए वह कांगे्रस से नापाक गठबंधन बना कर अपना असली चेहरा दिखा चुकी है. छपरा में मिड डे मील खा कर 23 बच्चों की मौत हो गई. नवादा, बेतिया, सासाराम और खगडि़या में सामाजिक भाईचारा बिगड़ने के हालात पैदा हो चुके हैं. इतना ही नहीं, बोधगया के महाबोधि टैंपल में सीरियल बम ब्लास्ट करने वाले अपराधी पकड़ से बाहर हैं. इन वारदातों ने नीतीश सरकार के सुशासन की पोल खोल दी है.

इस उठापटक के बीच राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के साले, पूर्व सांसद और कांगे्रसी नेता साधु यादव ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर सियासी पारा चढ़ा दिया है. सियासी हलकों में हवा चल पड़ी है कि साधु भाजपा में शामिल होने की जुगत में लगे हुए हैं. इस से पहले राजद के एमएलसी नवल किशोर यादव ने नरेंद्र मोदी को देश का सब से लोकप्रिय नेता और ‘पीएम मैटेरियल’ बता कर बखेड़ा खड़ा किया था. उन के यह कहने के कुछ ही घंटे के बाद उन्हें राजद से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

लालू यादव की पार्टी के अंदर भी ऊहापोह वाली स्थिति है. पिछले 17 साल से 900 करोड़ रुपए के चारा घोटाले में लालू बुरी तरह से फंस चुके हैं और फिलहाल जेल में हैं. उन के जेल जाने के बाद पार्टी को बिखराव से बचाने की कवायद शुरू कर दी गई है. अपने बेटों, तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव को वे पहले ही सियासत के मैदान में उतार चुके हैं. राबड़ी देवी प्रदेश में अपनी पार्टी को मजबूत करने में जुट गई हैं.

बिहार के सियासी गलियारे में हवा है कि जदयू, कांगे्रस और राजद के बीच सियासी खिचड़ी पक रही है. भाजपा से अलग होने के बाद अपनी ताकत मजबूत करने और भाजपा को उस की औकात बताने के मकसद से नीतीश कुमार नया महागठबंधन बनाने की जुगत में लगे हुए हैं.

बिहार विधानसभा में विरोधी दल के नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं कि भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद जदयू के अंदर खलबली मची हुई है और वह किसी भी सूरत में बिहार की सत्ता पर काबिज होने के लिए सामदामदंडभेद की नीति अपना रही है. वे कहते हैं कि नीतीश चाहे जो भी तिकड़म करें, अगले चुनाव में जनता उन्हें सबक सिखा देगी.

वहीं दूसरी ओर नीतीश, भाजपा और राजद को एक ही थैली के चट्टेबट्टे करार दे कर उन की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं कि दोनों की सोच और काम करने का तरीका एक जैसा है. दोनों के बीच सियासी व चुनावी रिश्ता बनाने के लिए जोड़तोड़ चल रही है.

गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 16.49 फीसदी और जदयू को 22.58 फीसदी वोट मिले थे, वहीं राजद ने 18.84 फीसदी वोट हासिल कर दोनों दलों को कांटे की टक्कर दी थी. अगर राजद अगले चुनाव के लिए तगड़ी तैयारी करती है तो उसे काफी फायदा मिल सकता है. 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव और 2015 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए हर दल ने सियासी शतरंज पर अपनेअपने मोहरे बिठाने शुरू कर दिए हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे बता देंगे कि भाजपा से नाता तोड़ कर नीतीश ने सही किया या गलत.

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