झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता, लचर विस्थापन और ढुलमुल पुनर्वास नीतियों के चलते आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है. दानेदाने को मुहताज इन आदिवासियों को जीवनयापन की आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने में नाकाम प्रशासन से सिवा परेशानियों के कुछ भी हासिल नहीं हुआ. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार.
रांची के पास सिल्ली में रहने वाली मजदूर रंगीली भगत गुस्से में कहती है, ‘‘आदिवासी जान दे देगा पर जंगल और जमीन नहीं छोड़ेगा. आदिवासियों के राज्य में आदिवासियों की जमीन और जंगल को उजाड़ कर तरक्की हो ही नहीं सकती. उद्योग लगाने के नाम पर आदिवासियों को हटाया जाता है, पर न उन्हें मुआवजा मिलता है न ही उद्योग लगता है.’’
पिछले 13 सालों से झारखंड में नई पुनर्वास नीति बनाने की जद्दोजहद में आदिवासियों और उन की जमीनों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. उन के जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश के नाम पर उन के जख्मों को कुरेदा ही जाता है. यही वजह है कि देश की कुल खनिज संपदा का 40 फीसदी झारखंड में होने के बाद भी सूबे में न उद्योग लगने में तेजी आई, न आदिवासियों को उन का हक मिल सका और न ही सूबे की खास तरक्की हो सकी.
सूबे की कोरबा जनजाति की हालत को देख कर आदिवासियों की बदहाली का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह जनजाति फाकाकशी में जीती है, जंगली फल, चिडि़या, चूहा, घूस, खरगोश खा कर गुजारा करती है. पीने के लायक पानी के लिए इस जनजाति के लोगों को मीलों भटकना पड़ता है.
हरखू बताता है कि उन लोगों का समूचा दिन खाने और पीने की चीजों के जुगाड़ करने में ही निकल जाता है. कोरबा जनजाति के ज्यादातर लोग महुआ की शराब और चावल खा कर गुजारा करते हैं. जंगलों में घूमघूम कर फल, फूल, लकड़ी, चूहा आदि ढूंढ़ना उन का काम है. कुछेक लोग खेती, पशुपालन और मजदूरी करते हैं. बगैर हल, बैल, खाद, बीज और पानी के खेती कैसी होगी, इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फंस कर कई कोरबा बंधुआ मजदूर बन कर रह गए हैं.
आदिवासियों की जमीन के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक किसी तरह की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर हिस्सा भी उन तक नहीं पहुंच सका है. बीमार पड़ने पर कोरबा लोग तंत्रमंत्र और ओझागुनिया के चक्कर में फंस कर अपनी उपस्थिति को धीरेधीरे खत्म कर रहे हैं.
दरअसल, झारखंड की सियासी उठापटक और लचर विस्थापन और पुनर्वास नीति की वजह से नए उद्योगों के लगने की गति तेज नहीं हो पा रही है. वहीं, करीब साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर हैं. आदिवासियों की तरक्की के नाम पर झारखंड राज्य बने 13 साल हो गए पर अब तक न औद्योगिक नीति बनी और न ही विस्थापन और पुनर्वास नीति ही आकार ले सकी.
रांची हाईकोर्ट के वकील अभय सिन्हा कहते हैं, ‘‘अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से अब तक करीब 66 एमओयू पर दस्तखत हुए पर एक पर भी काम चालू नहीं हो सका. 13 सालों में सूबे के 9 मुख्यमंत्री आए पर आदिवासी और उन की समस्याएं जस की तस मुंह बाए खड़ी हैं.’’
झारखंड में आदिवासियों के लिए विस्थापन और पुनर्वास की समस्या नई नहीं है, वे सदियों से इस समस्या से जूझ रहे हैं. आदिवासियों के नाम पर अलग राज्य बनने के बाद भी इस समस्या को दूर करने का दावा और वादा किया गया था पर अलग राज्य बनने के बाद किसी भी सरकार के कान पर जूं तक न रेंगी.
झारखंड विस्थापन संघर्ष समिति के नेता चेतन भगत बताते हैं कि सूबे में अब तक 3 लाख से ज्यादा आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं, इस में सब से ज्यादा विस्थापन खदानों की वजह से हुआ है. रोज नई खदानों में काम चालू होते रहे और आदिवासियों को जंगल व जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा. बड़े बांधों और सिंचाई की योजनाओं की वजह से भी विस्थापन होता रहा. कुल विस्थापितों में से 70 फीसदी आदिवासी पुनर्वास के लिए दरदर भटक रहे हैं, जिन की सुनने वाला कोई नहीं है. आदिवासियों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया है.
सुरेश कोरबा बताता है कि पहले उस के इलाके में 1 डिस्पैंसरी थी जहां दवा मिलती थी, पर 10-12 साल पहले वह भी बंद हो गई. कोरबा जनजाति के लोग इलाज के लिए ओझाओं के पास जाने को मजबूर हैं. इस तरह अपनी जमीन से उजड़ने के बाद कोरबा जनजाति मिटने के कगार पर पहुंच चुकी है और सरकार कान में तेल डाल कर सो रही है.
आदिवासियों का रोना यह है कि उन्हें उन की जमीन से उजाड़ भी दिया जाता है और वहां कोई योजना शुरू भी नहीं हो पाती है. रांची भू अर्जन महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक, जमीन का अधिग्रहण कर महकमे को दखलकब्जा दिला देने के बाद भी योजनाओं पर काम शुरू नहीं हो पाता है. जितने महकमों ने जमीनों का अधिग्रहण किया है, अगर उन के द्वारा काम चालू हो जाता तो सूबे का रंगरूप ही बदल जाता.
जुलाई 2009 तक करीब 2 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर कई महकमों को दखलकब्जा दिलाया जा चुका है, पर ज्यादातर पर काम चालू नहीं हो पाया है. इस से आदिवासियों में काफी गुस्सा है. आदिवासी भोलन उरांव कहता है कि न तो सरकार आदिवासियों को उन की जमीन से उजाड़ कर कारखाने ही लगा सकी है और न ही आदिवासियों को मुआवजा व नई जगह पर बसाने का ही काम कर पाई है. इस से आदिवासियों के इस राज्य को दोतरफा नुकसान हो रहा है.
सूबे में आदिवासियों के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम-1949 और बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969 जैसे कानून बने हुए हैं और लागू भी हैं, लेकिन ये कानून काफी पुराने हो चुके हैं और आज की तारीख में बेकार साबित हो रहे हैं.
ये कानून आदिवासियों की परेशानियों को दूर नहीं कर रहे बल्कि उन के लिए रोज नई परेशानी खड़ी कर रहे हैं.
16 जुलाई, 2008 को झारखंड सरकार ने नई पुनर्वास नीति को मंजूरी तो दी पर वह फाइलों से अब तक बाहर नहीं निकल सकी है. हर नया मुख्यमंत्री शपथ लेने के तुरंत बाद ऐलान कर डालता है कि नई पुनर्वास नीति को कड़ाई से लागू किया जाएगा और जरूरत पड़ी तो उस में बदलाव भी किया जाएगा. हर नए मुख्यमंत्री और हर नए ऐलान के बाद आदिवासियों के मन में इंसाफ मिलने की उम्मीद तो जगती है, पर कुछ ही दिनों के बाद उन की उम्मीदें चकनाचूर हो जाती हैं.