देश के बाजारों में चीन के डिजिटल हमले ने व्यापारिक असंतुलन पैदा कर दिया है. तकनीकी सामान की आड़ में चीन के भारतीय बाजार पर अघोषित कब्जे और पिछले दशक से वर्तमान व्यापारिक असंतुलन तक चीन की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण कर रहे हैं अरविंद कुमार सेन.

वर्ष 2005 की बात है. उस समय चीन के प्रधानमंत्री रहे वेन जियाबाओ ने भारत आने का ऐलान किया था. जवाहरलाल नेहरू के जमाने में आए चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई की यात्रा के तकरीबन साढे़ 4 दशक बाद कोई चीनी प्रधानमंत्री भारत आ रहा था. 1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन ने आपसी रिश्ते तोड़ लिए थे. जाहिर है, लंबा अरसा गुजरने के बाद बीजिंग की ओर से वेन जियाबाओ का आना अहम बात थी. मगर वेन जियाबाओ ने भारत पहुंचने से पहले ही धमाका कर दिया. बीजिंग की तरफ से कहा गया कि चीनी प्रधानमंत्री भारत की राजधानी नई दिल्ली जाने के बजाय सब से पहले बेंगलुरु जाएंगे.

भारत की सिलीकन वैली कहे जाने वाले बेंगलुरु में देश की नामी आईटी कंपनियों के मुख्यालय हैं. 1990 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की अगुआई आईटी सैक्टर की कंपनियों ने की है और बेंगलुरु इस नए भारत का गढ़ है. मतलब, बेंगलुरु जा कर वेन जियाबाओ कोई संदेश देना चाह रहे थे. वह संदेश मिला नई दिल्ली में, जब भारत में चीन के राजदूत ने कहा कि भारत के मामले में चीन के लिए बाउंड्री (भारत-चीन विवादित सीमा) के बी के बजाय बिजनैस का बी ज्यादा अहमियत रखता है.

संदेश साफ था, 21वीं सदी में भारतीय बाजार को हथियाने के लिए चीन सैन्य नीति की बजाय कारोबारी नीति पर काम कर रहा था. वेन जियाबाओ का कहना था कि भारत व चीन को अपनी विवादित सीमा का मसला अलग रख कर कारोबारी रिश्तों में मेलजोल बढ़ाना चाहिए. भारत ने चीन के इस तर्क को स्वीकार कर लिया. दोनों देशों ने अपनेअपने घरेलू बाजार एकदूसरे के लिए खोल दिए और आपसी कारोबार कुलांचें भरने लगा.

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