पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 70 के दशक में जब बैंकों को पूंजीपतियों और महाजनों के चंगुल से छुड़ा कर उन का राष्ट्रीयकरण किया था तो आर्थिक जगत में सवाल उठ रहे थे कि ढीली सरकारी मशीनरी के हाथों चुस्तदुरुस्त बैंकिंग कारोबार आते ही ढह जाएगा और उस की गति ढीली पड़ जाएगी. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो श्रीमती गांधी की इस पहल का जबरदस्त स्वागत कर रहे थे और उन्होंने कह दिया था कि राष्ट्रीयकरण होने के बाद बैंकों का कायापलट हो जाएगा और देश का बैंकिंग तंत्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हो जाएगा.

आखिरकार, तत्कालीन सरकार का कदम सही साबित हुआ. उस के कदम से देश में बैंकिंग तंत्र को नई गति ही नहीं मिली बल्कि आम जनजीवन बैंकिंग नैटवर्क से इस कदर जुड़ता गया कि धीरेधीरे उस के लिए यह तंत्र महत्त्वपूर्ण हो गया. उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा आएगा जब देश का आम नागरिक जेब को नोटों के वजन से भारी रखने के बजाय एटीएम का इस्तेमाल इस स्तर पर करेगा कि वह दैनिक खर्च के लिए भी एटीएम का ही सहारा लेगा. इस के कई फायदे हुए. एक तो जेब में बड़ी रकम रखने का जोखिम घटा, दूसरा, बैंकिंग प्रणाली हमारे दैनिक जीवन का अहम हिस्सा बन गई.

तब शायद यह भी सोचना ठीक रहा होगा कि 2013 तक देश के प्रमुख बैंकों की जिम्मेदारियां महिलाएं संभाल रही होंगी. पिछले दिनों 57 वर्षीय अरुंधती भट्टाचार्य को जब देश के सब से बड़े स्टेट बैंक औफ इंडिया के शीर्ष पद पर नियुक्त करने की खबर आई तो देश में महिला राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की घोषणा की तरह ही यह खबर भी चौंकाने वाली लगी. देश के सब से बड़े बैंक की वे पहली महिला प्रमुख बन गईं. उन से पहले विजयलक्ष्मी अय्यर सरकारी क्षेत्र के बैंक औफ इंडिया की मुख्य प्रबंध निदेशक और सुब्बालक्ष्मी, दूसरे सरकारी बैंक, इलाहाबाद बैंक की मुख्य प्रबंध निदेशक बनी हैं. लेकिन इतने ऊंचे ओहदे पर स्टेट बैंक ने ही एक महिला को बैठाया है.

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