इस देश में आस्था एक नशा, वहम और बीमारी की तरह धर्मांध लोगों की नसों में उतर चुकी है. इसी आस्था का जानलेवा जहर मध्य प्रदेश के रतनगढ़ में उस समय कई लोगों की जान ले गया, जब दलितों का बड़ा जत्था मोक्ष की आस में भगदड़ में रौंदा गया. अंधविश्वासी दलितों को कैसा मोक्ष मिला, पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट में.

मध्य रेलवे के 2 बड़े जंक्शनों, ग्वालियर व झांसी के बीच स्थित दतिया रेलवे स्टेशन पर काफी कम रेलें रुकती हैं. मध्य प्रदेश के सब से छोटे और पिछड़े 5 जिलों में एक जिला दतिया भी है. यहां के लोग अपने शहर को बड़े फख्र से मिनी वृंदावन भी कहते हैं, क्योंकि शहर में इफरात से मंदिर हैं. दतिया से संबंध रखती एक और दिलचस्प बात स्थानीय लोगों का फोन पर हैलो की जगह ‘जय माई की’ संबोधन इस्तेमाल करना है.

यह माई यानी देवी शहर के बीचोंबीच बने मंदिर पीताम्बरा शक्ति पीठ में विराजती है जहां कोई न कोई तांत्रिक अनुष्ठान बारहों महीने चलता रहता है. रसूखदार नेता, अभिनेता, उद्योगपति, व्यापारी और खिलाड़ी भी पीताम्बरा के दर्शन के लिए खासतौर से आते हैं और महंगे अनुष्ठान करवाते हैं. कहा जाता है कि इस सिद्ध क्षेत्र में अनुष्ठान करवाने से मनोरथ पूरे होते हैं.

पीताम्बरा पीठ के बारे में यहां के लोग बगैर किसी हिचक के स्वीकारते हैं कि यह वीआईपी लोगों यानी पैसे वालों के लिए है. दरिद्रों और शूद्रों के मनोरथ पूरे करने के लिए दतिया से 55 किलोमीटर दूर जंगल में बना है रतनगढ़ देवी का मंदिर, जहां 13 अक्तूबर को पुल पर मची भगदड़ में लगभग 200 श्रद्धालु मारे गए.

भेदभाव की आस्था

रामनवमी के दिन रतनगढ़ के मुकाबले पीताम्बरा पीठ में जुटी भीड़ यानी श्रद्धालुओं की संख्या न के बराबर ही कही जाएगी. इस के बाद भी पीताम्बरा पीठ में सुरक्षा और शांति के मद्देनजर 100 पुलिसकर्मी तैनात थे. इस के उलट रतनगढ़, जहां लगभग 4 लाख श्रद्धालु थे, को महज दर्जनभर जवान दिए गए थे.

यह भेदभाव क्यों? इस का जवाब बेहद साफ है कि रतनगढ़ आने वाले श्रद्धालु छोटी जाति के थे जिन की जानमाल की परवा न पहले कभी की गई थी न आज की जाती है. पर दोनों ही मंदिरों में जुटी भीड़ हिंदुओं की बताई जाती है, नीची और ऊंची जाति का एक शाश्वत फर्क यहां से शुरू होता है या फिर यहां आ कर खत्म होता है, यह तय कर पाना मुश्किल है.

रतनगढ़ हादसे में मरने वाले शतप्रतिशत लोग चूंकि दलित, आदिवासी समुदाय के थे जिन्हें फख्र से आज भी गंवार, चमार और अछूत कहा जाता है, इसलिए उन की मौत पर हायहाय न के बराबर हुई, मानो आदमी नहीं, बरसाती कीड़ेमकोड़े मरे हों.

रतनगढ़ में इस भीड़ का घिरना अपनेआप में शक पैदा करने वाली बात क्यों और कैसे है, इस के पहले यह जान लेना जरूरी है कि हादसा क्या था, कैसे हुआ और इस के असल जिम्मेदार लोग कौन होते हैं.

क्या था हादसा

दूसरे धार्मिक हादसों के मुकाबले रतनगढ़ का हादसा कतई पेचीदा नहीं है. 13 अक्तूबर को लाखों की भीड़ यहां उमड़ी थी. अधिकांश श्रद्धालु बुंदेलखंड, चंबल आदि इलाकों से यहां देवीदर्शन के लिए आ रहे थे. वाहनों की लंबी कतार दतिया से ही दिखनी शुरू हो गई थी. पैदल चल कर आने वालों की तादाद भी कम नहीं थी.

रतनगढ़ पहुंचने के लिए यहां बहने वाली सिंधु नदी पर बने पुल से हो कर जाना पड़ता है, जो मंदिर से 2 किलोमीटर पहले पड़ता है. जब यह पुल नहीं बना था तब साल 2006 में भी पानी के तेज बहाव में काफी श्रद्धालु बह कर मर गए थे.

इस पुल पर यातायात नियंत्रण के कोई इंतजाम नहीं किए गए थे. 2 अधिकारी और 4 कर्मचारी पुल की निगरानी के नाम पर उमड़ते सैलाब को देखते अपने को कोस रहे थे कि बुरे फंसे, त्योहार के दिन भी ड्यूटी बजानी पड़ती है, इन्हें क्या जरूरत धर्मकर्म की, इस से इन की जाति और गति तो सुधरने से रही.

सेवढ़ा अनुभाग के तहत आने वाले इस इलाके का नजारा नवमी ही नहीं पूरे नवरात्रों में देखने लायक होता है. सिर पर माता के नाम की लपेटी गई लाल चुनरिया सुबह 8 बजे कफन बन गई जब 2 वाहनों की टक्कर में पुल पर जाम लग गया. वहां मौजूद नाममात्र की पुलिस ने भीड़ को तितरबितर करने के लिए अपने विवेक, जो हाथ में पकड़े डंडे में था, से काम लिया और उदारतापूर्वक बेवक्त ड्यूटी बजाने की अपनी भड़ास श्रद्धालुओं पर निकाली. इस गैरजरूरी और अघोषित लाठीचार्ज से भी काम न बना तो अफवाह यह उड़ा दी गई कि पुल टूट रहा है.

भक्ति का भूत मौत के डर के चलते गायब हुआ तो देखते ही देखते पुल श्रद्धालुओं की भीड़ से पट गया. लोग एकदूसरे को धकियातेकुचलते दौड़ने लगे. इस भगदड़ में बूढ़ों, बच्चों व औरतों की शामत ज्यादा आई जो कमजोरी के कारण पैरों तले रौंदे गए. अधिकांश लोगों को जान बचाने के लिए पुल से नीचे कूदना मुफीद लगा, कइयों ने हाथ में आए कपड़े और औरतों के शरीर से खींची गई साडि़यों की रस्सी बना कर पुल से उतर कर अपनी जान बचाई. भगदड़ का क्षेत्र महज 2 किलोमीटर तक रहा जहां 1 घंटे में 200 लोग मर चुके थे.

मंत्रीजी का आगमन

पुलिस ने लाठीचार्ज क्यों और किस के आदेश पर किया इस पर इसी विभाग के एक सब इंस्पैक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘हमें खबर मिली थी कि मंत्रीजी व उन के घर वाले आने वाले हैं, इसलिए जरूरी था? कि उन्हें रास्ता साफ मिले. लिहाजा, पुलिस ने भीड़ छांटने की कोशिशभर की थी.’

मंत्रीजी यानी पंडित नरोत्तम मिश्रा, जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं, भारतीय जनता पार्टी के इस इलाके के ही नहीं, बल्कि राज्य के भी वे कद्दावर नेता हैं और दतिया विधानसभा सीट से इस बार भाजपा के उम्मीदवार भी हैं. शायद ही नहीं बल्कि तय है कि रतनगढ़ आने वाले वे दूसरे ब्राह्मण रहे होेंगे. वरना अछूतों के नाम कर दिए गए इस जंगल में बने मंदिर में ब्राह्मण तो दूर, ऊंची जाति का कोई भी जाना गंवारा नहीं करता.

वजह जो भी रही हो, भगदड़ मची, लोग दबेकुचले मरे, हल्ला मचा तो पूरा देश थर्रा उठा कि हे भगवान, यह क्या हो गया, एक और हादसा धर्मस्थल पर हो गया.

16 अक्तूबर तक लाशें गिनी जा रही थीं. सिंधु नदी इक्कादुक्का लाशें उगल रही थी. सुबह 10 बजे जब हम  रतनगढ़ पहुंचे तो कुछ अधिकारी वहां मुस्तैदी

से मीडियाकर्मियों को बड़े गर्व से बता रहे थे कि यह भीड़ तो कुछ भी नहीं, असल भीड़ तो दीवाली के बाद दूज के दिन इकट्ठी होगी. लग यों रहा था मानो हम देश के लगभग बीचोंबीच स्थित शहर दतिया के रतनगढ़ देवी मंदिर में नहीं बल्कि किसी सरहद पर हों जहां शत्रुसेना हमला करने वाली हो और चंद मुलाजिम सैनिकों की तरह देश की लाज बचाने के लिए अपनी जान कुरबान कर देंगे.

दरअसल, सरकार ऐसे हादसों के तुरंत बाद किए जाने वाले अपने 2 प्रिय काम कर चुकी थी. पहला, मुआवजे की घोषणा का और दूसरा, अधिकारी- कर्मचारियों को बर्खास्त करने का. चूंकि मध्य प्रदेश में भी 25 नवंबर को मतदान होना है इसलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ये दोनों काम निर्वाचन आयोग की अनुमति से करने पड़े. तीसरी रस्म एक जांच आयोग गठित करने की भी अदा की गई.

एकसदस्यीय यह जांच आयोग कई बिंदुओं पर जांच करेगा, जिस में यह बिंदु शामिल नहीं है कि वे लोग कौन हैं जो गांवगांव जा कर धर्म का, चमत्कारों का प्रचार कर देहातियों को धर्मस्थलों पर आने के लिए उकसाते हैं और इस के पीछे उन की मंशा क्या रहती है.

अंधश्रद्धा

हादसे के बाद भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला जारी रहा, मानो 2 दिन पहले कुछ हुआ ही न हो. जो हुआ वह भाग्य और दैवीय प्रकोप था. श्रद्धालुओं का ऐसा मानना था. ये श्रद्धालु रोजाना की तरह जत्थों में आते रहे और वही ‘जय माता दी’, ‘चलो बुलावा आया है’ सरीखे नारे लगा रहे थे. अब तक 13 अक्तूबर को मारे गए व घायलों की सूची भी प्रशासन ने जारी कर दी थी जिस में एक भी सवर्ण का नाम या उपनाम नहीं था.

हादसे पर कुदरती तौर पर राजनीति हुई. कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साधा कि पुलिस वालों द्वारा ट्रैक्टरट्रौलियों के दाखिले के एवज में 200 रुपए की घूस लिए जाने की वजह से हादसा हुआ तो शिवराज सिंह चौहान सकपकाए से यही कह पाए कि हादसा चूंकि दुखद है इसलिए इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए.

ध्यान खींचने वाली बात सिर्फ बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने कही कि सरकार मृतकों व घायलों को दी जाने वाली मुआवजा राशि बढ़ाए. मायावती की दिलचस्पी मध्य प्रदेश के इस धर्मस्थल के हादसे में बेवजह नहीं है. हकीकत में मृतकों में उत्तर प्रदेश के लोग भी बराबरी से थे और सभी दलित थे. रतनगढ़, सेवड़ा विधानसभा क्षेत्र में आता है जहां से पिछली दफा बसपा जीती थी. उस के उम्मीदवार राधेलाल बघेल को यहां के दलित तबके ने हाथोंहाथ लिया था. बसपा इस दफा भी इस सीट से उम्मीद लगाए बैठी है.

यह राजनीति कतई उल्लेखनीय नहीं होती अगर इस में हिंदूवादी संगठनों की कोई भूमिका न होती. इस इलाके की हर एक सीट पर मजबूती से सभी को टक्कर दे रहे बहुजन संघर्ष दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष फूलसिंह बरैया का कहना है, ‘‘आरएसएस के लोग दूरदराज के इलाकों में त्रिशूल और धार्मिक साहित्य सामग्री बांटते रहते हैं. इन का मकसद अपनी दुकानदारी चलाए रखना है. अब ये दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराते गांवगांव घूमते देवीदेवताओं की बातें करते हैं.’’

बरैया की बात में दम इस लिहाज से है कि ज्यादा नहीं अब से कोई 15-20 साल पहले तक अछूतों यानी दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित था. 15-17 सालों में चमत्कार कैसे हो गया कि दलित और आदिवासी अचानक भारी तादाद में मंदिरों की तरफ भागने लगे.

धर्म के नाम पर वोटबैंक

अब से 12 साल पहले कांग्रेसी नेता और मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री महेंद्र बौद्ध ने एक भव्य और खर्चीला यज्ञ इस इलाके में करवाया था जिस की खूबी यह थी कि इस में मौजूद अधिकांश लोग दलित तबके के थे. खुद बौद्ध भी इसी समुदाय के थे. इसलिए भीड़ देख उत्साहित थे कि अब उन का वोटबैंक भाजपा की तरह, धर्म के नाम पर ही सही, पक्का हो गया.

पर हुआ उलटा. चमत्कारी तरीके से दलित वोटबैंक भाजपा के खाते में चला गया. यज्ञहवन की आहुतियों का जो रास्ता महेंद्र बौद्ध ने दिखाया था उसे हिंदूवादी संगठनों ने इस कदर हथियाया कि दलित खुद को गर्व से हिंदू कहने लगा. मुमकिन है कि आरएसएस को दलितप्रेम की प्रेरणा इसी आयोजन से मिली.

इसी दौरान, संघ ने हिंदुओं के धर्म पर दोबारा बवाल मचाना शुरू किया, प्रचार यह किया गया कि क्रिश्चियन मिशनरियां हमारे भोलेभाले आदिवासी भाइयों को जबरन या लालच दे कर ईसाई बना रही हैं. हम उन की वापसी हिंदू धर्म में करेंगे और उन का शुद्धिकरण भी करेंगे. छत्तीसगढ़ में दिलीप सिंह जूदेव जैसे जमीनी नेताओं ने तो संघ के सहयोग से बाकायदा इस बाबत धर्मवापसी की मुहिम भी चलाई थी.

चंबल के भिंड, मुरैना, दतिया और विंध्य के रीवा, सतना जिलों में बसपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए दलितों पर डोरे डाले गए. प्रचार यह किया गया कि अब दलितों के लिए भी मंदिरों के दरवाजे खुले हैं और वे तनमनधन से धर्मकर्म कर सकते हैं. इस में वेदपुराण, ब्राह्मण और पंडे बाधा नहीं बनेंगे बल्कि उन का हृदय से स्वागत करेंगे.

यह स्वागत साल दर साल नवरात्रि के दिनों में खासतौर से देखने में आया. दलित और आदिवासी बाहुल्य इलाकों से पैदल चल कर मंदिर आनेजाने वाले श्रद्धालुओं के स्वागतसत्कार के लिए जगहजगह फलाहार और स्वल्पाहार के स्टौल सजाए जाने लगे. भगवा झंडे और तंबू तले बैठ कर 9 दिन व्रत करता भूखाप्यासा दलित सागूदाने की खिचड़ी खाने मात्र से कथित तौर पर खुद को महज धर्म के आधार पर मुख्यधारा में शामिल समझने लगा. और इसे, बराबरी समझ ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा.

पुराना धंधा, नए ग्राहक

90 का दशक धर्म और पंडिताई के लिहाज से भी बदलाव का रहा जो किसी को नजर नहीं आया. हुआ यह कि ऊंची जाति वालों के बच्चे तकनीकी शिक्षा की डिगरी ले कर बड़े शहरों में जा कर नौकरी करने लगे जिस की मार कारोबारी पंडे बरदाश्त नहीं कर पाए. खुद ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय, बनियों और कायस्थों की पूरी पीढ़ी महानगरों में आ कर बसने लगी तो शहरी पुरोहित और देहाती पंडे भुखमरी की कगार पर आ कर खुद के आरक्षण की मांग करने लगे. इन की बड़ी तकलीफ यह भी थी कि जिन घरों में साल में 4 दफा उन्हें धार्मिक समारोहों में बुलाया जाता था वहां 4 साल में 1 दफा भी बुलावा आना बंद हो गया.

सवर्णों की कंप्यूटरी पीढ़ी अपने बच्चों का मुंडन जैसा अनिवार्य धार्मिकसंस्कार भी करवाने से कतराने लगी. इस से ज्यादा चिंता की बात यह थी कि वह अपने बापदादों की तरह पूर्णिमा, अमावस्या और हिंदू पंचांग भी भूलने लगी. 14-16 घंटे नौकरी करती इस पीढ़ी को समझ आ गया कि धर्म के नाम पर लुटने से कोई फायदा नहीं, न ही ज्यादा बच्चे पैदा करना फायदे की बात है. इसी दौरान, सवर्ण लड़कियां भी तेजी से नौकरियों में जाने लगीं जिन्हें धर्मकर्म और कर्मकांडों से कोई खास लगाव नहीं रहा.

इस घाटे की पूर्ति करने के लिए धर्म के दुकानदारों का ध्यान पिछड़े वर्ग की तरफ गया. जल्द ही पंडे उन के यहां जा कर पूजापाठ करने लगे और एवज में खासी दक्षिणा भी पाने लगे पर हैरतअंगेज तरीके से पिछड़ों ने सवर्णों के मुकाबले ज्यादा और जल्द तरक्की की. उन के बच्चे भी सवर्णों की तरह पढ़ कर महानगरों की तरफ भागने लगे.

ऐसे में हिंदूवादियों को झख मार कर वंचित तबके के लोगों को ग्राहक बनाना पड़ा. उस वर्ग के लोगों को धर्म की घुट्टी पिलाई जाने लगी. जिसे कल तक दुत्कारा जाता था, छोटी जाति में उस के जन्म को पूर्वजन्म के पापों का फल कहा जाता था, वेदों में उसे सेवक कहा गया है, इस तरह का प्रचार कम किया गया बल्कि उस के माथे पर तिलक लगाया जाने लगा. ऐसा सिर्फ पैसों के लिए किया गया. इस से न तो छुआछूत बंद हुई न ही दलित अत्याचार कम हुए.

इस का असर हुआ और वाकई चमत्कारी ढंग से हुआ. सदियों से सवर्णों से पिटता और दुत्कारा जाता रहा एक बड़ा वर्ग खुद को हिंदू महसूस करने लगा, शर्त दक्षिणा चढ़ाने, भीड़ बढ़ाने पूजापाठ करने और व्रत करने की थी. वह यह सब करने लगा. आज दलितों का उत्साह रतनगढ़ देवी जैसे मंदिरों में हर कहीं देखा जा सकता है.

देवीदेवताओं के चमत्कारी किस्से जोर पकड़ने लगे, इसे हिंदूवादी संगठनों ने आस्था का सैलाब कह कर प्रचारित किया. आरएसएस जैसे कट्टरवादी संगठनों का फायदा यह था कि दलित उन के जरिए भाजपा से जुड़ने लगे और पंडों के पांव भी छूने लगे. भगवा सरकारों ने इस के एवज में जम कर रेवडि़यां संघ और उस के अनुयायी संगठनों को बांटीं.

एक मिसाल भोपाल की है, जहां के एक पौश और व्यावसायिक इलाके एमपी नगर में वनवासी कल्याण परिषद का दफ्तर करोड़ों की जमीन पर बना है. वहां एक आदिवासी मंदिर भी बना दिया गया है.

मगर यह सोचना सरासर बेवकूफी की बात है कि इस से छुआछूत, भेदभाव और जातिगत तिरस्कार बंद हो गए, फर्क सिर्फ इतना आया कि इन नवागंतुक हिंदुओं से धर्म की कीमत वसूली जाने लगी. पंडों को नोट मिले, भाजपा को वोट और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को ताकत मिली जिस के बल पर उस ने नरेंद्र मोदी जैसे मनुवादी हिंदू नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा डाला.

आरएसएस को तगड़ा पैसा, जमीनें और सहूलियतें भाजपा से मिलती हैं. वह भी एक तरह की दक्षिणा ही है. आरएसएस की पैरवी से भाजपा को गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में सत्ता मिलने लगी. उत्तर प्रदेश के हालात भिन्न रहे क्योंकि यहां के जातिगत समीकरण बसपा संस्थापक कांशीराम 80 के दशक से ही बदलने में कामयाब होने लगे थे. राम मंदिर के एक धक्के के बाद भाजपा औंधेमुंह वहां गिरी और कांशीराम की बोई फसल मायावती अभी तक काट रही हैं.

दलित अगर हिंदू माना जाने लगा है तो बसपा और मायावती कमजोर क्यों नहीं हो रहे, इस सवाल का जवाब भी बेहद साफ है कि अभी भी दलित समुदाय पूर्व के सवर्ण अत्याचार को भूला नहीं है और अपनी इकलौती दलित नेता को मजबूत बनाए रखने के लिए बसपा को वोट देता रहता है. मायावती और मुलायम सिंह यादव दोनों की गिनती मनुवाद के विरोधियों में होती है. मुलायम सिंह अपनी सहूलियत के मुताबिक पैंतरा बदलते रहते हैं और प्रधानमंत्री पद के लिए कभी भी, किसी से भी कोई भी, कैसा भी समझौता कर सकते हैं. मौका मिला तो मायावती भी ऐसा करने से हिचकिचाएंगी नहीं और दुहाई दलित और उस के हितों को ही देंगी.

इन राजनीतिक समीकरणों का सामाजिक हालात से गहरा नाता है. अकेले रतनगढ़ में नहीं बल्कि देश के सभी, खासतौर से पश्चिम, मध्य और उत्तरी राज्यों में इस नवरात्रि पर गरीबों, जो हकीकत में दलित हैं, ने जम कर महंगी झांकियां लगाईं और अपनी बस्तियों में भंडारे आयोजित किए. अपने स्तर पर गरबा कर धर्म का मजा सवर्णों की तरह लूटा. फर्क इतना था कि दलितों के गरबे खुले मैदानों में हुए और सवर्णों के भव्य पंडालों व महंगे होटलों में.

हिंदू धर्म के ठेकेदारों और दुकानदारों को यह बात भी समझ आ गई कि दलित आदिवासियों को बहलाने के लिए चमत्कारों के छोटेमोटे किस्सेकहानी काफी हैं जो कभी सवर्णों को फंसाने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे. अब सवर्ण ब्रैंडेड बाबा पालनेमानने लगे हैं. धर्म को दर्शन और आध्यात्म से जोड़ते हुए लुटने के ठौरठिकाने और तरीके उन्होंने बदल लिए हैं.

रतनगढ़ देवी मंदिर में दीवाली के बाद दूज पर लाखों दलित इकट्ठा होते हैं. मान्यता यह है कि किसी को सांप काट ले तो तुरंत रतनगढ़ देवी का नाम ले कर काटे गए स्थान पर पट्टी बांध लो, जान बच जाएगी.

दरअसल, इस नशे,  बीमारी और वहम का कोई इलाज नहीं है जिसे आस्था कह कर प्रचारित किया जा रहा है. वह हकीकत में अंधविश्वास है. और दलितों को जकड़े रखने के लिए यह जरूरी भी है ताकि वे शिक्षित न हो पाएं, पैसा लुटाते रहें, भीड़ बढ़ाते रहें. और मुद्दे की बात यह कि आज भी वे बड़ी जाति वालों के घर के सामने से गुजरें तो जूतियां पैरों से उतार कर सिर पर रख लें.

यह दृश्य आज भी देहातों में आम है पर रतनगढ़ जैसे मंदिरों में नहीं, जहां हिंदूवादी संगठनों के उकसावे में आ कर लाखों दलित उन्मादियों की तरह टूट पड़ते हैं, भगदड़ मचती है तो मारे जाते हैं. इस पर तरस खाने वाली बात प्रचार का करना है कि यह तो मोक्ष है, देवी की मरजी है जिस पर किसी का जोर नहीं.

इस पूरे खेल, जिसे साजिश कहा जाना बेहतर होगा, में चिंता की इकलौती बात दलित आदिवासियों की बदहाली व पिछड़ापन है जिस पर अब हिंदू मिशनरियां अपनी रोटी सेंक रही हैं. पूजापाठ और यज्ञहवन से तरक्की होती तो 40 फीसदी यह आबादी तो दूर की बात है, देश का भला तो कभी का हो गया होता.

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