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लोकतंत्र में लूटतंत्र

नेताओं के भ्रष्टाचार पर टनों आंसू बहाने वाले लोग यदाकदा ही अस्पतालों, खासतौर पर सरकारी अस्पतालों में फैले भ्रष्टाचार का जिक्र करते हैं जिस के चलते शरीफ लोगों को वर्षों जेलों में सड़ाया जाता है या फिर गुनाहगारों को बचाया जाता है. दहेज मौतों के मामलों में ऐसा अकसर होता है. दरअसल, सरकारी डाक्टर रिश्वत ले कर पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदल देते हैं. पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर के हाथ में यह होता है कि वह शव को देख कर लिखे कि मृत्यु मारपीट, जोरजबरदस्ती के बाद हुई या मृतक ने खुदकुशी की थी.

दिल्ली के एक मामले में एडिशनल जज कामिनी लौ ने एक ऐसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट को गलत ठहराया जिस में मृतक के घर वालों के कहने पर डाक्टर ने मौत को अस्वाभाविक बताया था जबकि दूसरे डाक्टरों ने उसे स्वाभाविक बताया था. ऐसे में विवाद डाक्टरों में भी खड़ा हो गया और अदालत को आदेश देना पड़ा कि जिन डाक्टरों ने उक्त मौत को स्वाभाविक बताया, उन्हें सुरक्षा दी जाए ताकि दूसरे डाक्टर उन्हें परेशान न करें.

यह देशभर में होता है. डाक्टर की रिपोर्ट के अनुसार ही न्यायालयों के फैसले होते हैं और पेशेवर कातिल इस बात को जानते हैं. सो, वे डाक्टर को पोस्टमार्टम में लूपहोल छोड़ने के लिए मोटा पैसा देते हैं. अगर 5-7 साल बाद पता चले कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार घाव घातक न था, तो अकसर फैसला बदल जाता है.

इस तरह के विवादों में जब तक डाक्टर की गवाही की नौबत आती है तब तक कई साल बीत चुके होते हैं और डाक्टर सरकारी हो तो उस का तबादला हो चुका होता है. ऐसी स्थिति में न्यायालय भी ज्यादा देर तक डाक्टर से पूछताछ नहीं कर पाता. नतीजतन, गुनाहगार छूट जाता है या बेगुनाह सजा पा जाता है, सिर्फ रुपयों के बल पर.?

नेताओं के भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा भयंकर भ्रष्टाचार अफसरशाही, इंस्पैक्टरों, सरकारी विभागों, निजी उद्योगों में खरीद करने वालों में, शेयर बाजारों में, स्कूलों में अंक बढ़ानेघटाने में फैला हुआ है. जनता नेताओं के भ्रष्टाचार से इतनी त्रस्त नहीं है जितनी रजिस्ट्री करने वाले दफ्तर के फैले भ्रष्टाचारी हाथ से है. यह वह देश है जहां मौत के प्रमाणपत्र भी रिश्वत दिए बिना नहीं मिलते.

डाक्टर जैसे शख्स, जिन्हें लोग जीवनदान देने वाला समझते हैं, जब रिश्वत के बदले किसी को छुटवाने या सजा दिलवाने के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदलने लगें तो कुछ नेताओं को भ्रष्टाचार का दोष देना मूर्खता है.

भ्रष्टाचार, बेईमान, झूठ, फरेब का रोग हमारे अंगअंग में घुसा हो तो उन लोगों को, जिन्हें खुशीखुशी चुन कर नेता बनाया, सत्ता पकड़ाई, दोष देना गलत होगा. हम यह तब कर सकते हैं जब समाज हर तरह के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खड़ा हो.

यह सोचना गलत है कि पैसा केवल बेईमानी से बनता है, जिन बेईमानों, भ्रष्टाचारियों, लुटेरों के हाथ में पैसा होता है, उसे किसी किसान, किसी दस्तकार या मजदूर ने खेतों, कारखानों में मेहनत कर के कमाया होता है, शराफत से.

ईमानदारी से कमाए गए इस पैसे पर गर्व होता है पर यही पैसा लूटा जाता है और हमारा देश इस में माहिर है. लोकतंत्र की चुनौती यही है कि वह इस पैसे को कमाने वाले के हाथ में रखे और लूटने वाले नेता, अफसर, संतरी, इंस्पैक्टर के हाथ बांध कर रखे.   

न्याय या अन्याय

सर्वोच्च न्यायालय के 2 न्यायमूर्तियों ने यह माना है कि देश के लोग न्याय शब्द को मजाक समझते हैं. मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम व न्यायाधीश जी एस सिंघवी ने स्वीकार किया कि देश की आजादी के 65 साल गुजर जाने के बाद भी देश की जनता को यह नहीं लगता कि उसे कभी कहीं से न्याय मिलता है. संविधान में बारबार कहे जाने और नेताओं के भाषणों में दोहराए जाने के बावजूद न्याय शब्द का मतलब इस देश के सवा अरब लोगों के लिए अन्याय है.

एक तरह से देश का हर व्यक्ति अन्याय को झेलने को मजबूर है. यहां की सरकार, शासक, समाज, धर्म, व्यापार और यहां तक कि पारिवारिक इकाई भी न्याय की परिभाषा तक जानने की उत्सुक नहीं है, उसे मानने या लागू करने की बात तो छोड़ दें.

हमारे समाज का ढांचा अन्याय पर आधारित है. स्त्रियों के साथ होने वाले अन्यायों पर पोथियां लिखी जा चुकी हैं जबकि स्त्रियां भी दूसरों पर अन्याय करने में पीछे नहीं हैं-कहीं सास बन कर, कहीं सौतेली मां बन कर, कहीं बहू बन कर तो कहीं सौत बन कर.

वर्ण और जाति ने अन्याय को घरघर का हिस्सेदार बना दिया है. धर्म पर आधारित वर्ण व जाति के भेद का शिकार हर कोई होता है. यह बात दूसरी है कि शिकार भी खुद शिकारी बनने से कतराता नहीं है.

हमारे व्यापार आमतौर पर अन्याय पर टिके हैं. ग्राहकों से अन्याय, कर्मचारियों से अन्याय और उत्पादकों से अन्याय जितना ज्यादा करोगे उतना ज्यादा लाभ कमाओगे. हालत यह है कि पटरी पर बैठे सब्जी वाले से प्राप्त आलू के भाव की जानकारी पर न्याय का भरोसा नहीं है और न ही सर्वोच्च न्यायालय में अपनी अरबों की संपत्ति के फैसले के बारे में.

कहने को सब कहते रहें कि उन्हें न्यायालयों के न्याय पर विश्वास है पर यह विश्वास भगवान पर विश्वास की तरह खोखला है. जैसे मरीज के रिश्तेदार भगवान पर विश्वास का ढोंग रचते हुए मरीज को अस्पतालों में भरते रहते हैं वैसे ही न्यायालयों पर न्याय के विश्वास का ढोंग रखते हुए न्याय की दुहाई दी जाती है.

न्याय पर अविश्वास का सब से बड़ा कारण न्याय का महंगा होना और उस में देर होना है. न्यायालय 8-10 घंटे की कार्यवाही को 10 साल तक खींच कर न्याय देते हैं, तब तक न्याय अन्याय में बदल चुका होता है. न्यायालय तुरंत न्याय सुनाने में आज भी विश्वास नहीं दिला पा रहे. 16 दिसंबर, 2012 को हुए बलात्कार कांड, जिस में अपराधियों की पहचान हो गई थी, आज तक अंतिम न्याय नहीं हुआ. दूसरे मामलों का तो कहना ही क्या.

न्यायालयों को तुरंत न्याय देना शुरू करना होगा और इस के लिए सरकार से ‘अपील का हक’ छीनना एक बड़ा कदम होगा. कम से कम सरकार को तो पहली अदालत का फैसला मानना ही चाहिए क्योंकि वह उस के द्वारा ही गठित न्यायालय का दिया होता है. लाखों मामलों में सरकार अपील के जरिए न्यायालय में जा कर न्याय का भुरता बनाती है और न्यायाधीश देखते रह जाते हैं.

 

इतिहास की खुदाई

नरेंद्र मोदी ने देश को एक बार फिर विघटनकारी मुद्दों पर ला खड़ा कर दिया है. कहने को चाहे वे गुजरात मौडल के विकास की बात करें, असल में उन की हर स्पीच में ‘हम’ और ‘उन’ की बात रहती है. वे हर उस, जो हिंदुत्व की भावना में विश्वास नहीं करता, के खिलाफ मुंह खोलते हैं. वे पिछले महीनों के दौरान कभी ‘चरैवेति, चरैवेति’ का बखान करते तो कभी शास्त्रों में भक्ति को प्रणाम कर के आधा पुण्य कमाने की बात, कभी गुरुकुलों की महत्ता का ढिंढोरा पीटते तो कभी गुजरात के मोहनजोदड़ो युग के शहर धोलेरा का गान करते रहे हैं पर सत्ता में आने पर वे क्या करेंगे? धर्म, जाति, वर्ण, भाषा, क्षेत्र के आधार पर बंटे देश की खाई को वे पाटेंगे या कि नहीं?

नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में बारबार उस पुरातन हिंदू राज की बात करते हैं जिस का न इतिहास है न परंपराएं हैं और न जीवनशैली का पता है. पता है तो सिर्फ इतना कि इसे कैसे पूजो, उसे कैसे पूजो. अपने पिछले दिनों पर गर्व करना समाज की भारी भूल है क्योंकि यह गर्व असल में एक बंधन है. इतिहास तो सिर्फ जानने और समझने के लिए है. उस में और आज के फैसले लेने में सबक सीखने को है.

जब नरेंद्र मोदी इतिहास की बात करते हैं तो उन लड़ाइयों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है जिन में हिंदू हारे, बारबार हारे, संख्या, बुद्धि, बल में श्रेष्ठ होने के बावजूद हारे. पर जब इन हारों की दबी दास्तानों को खोद कर निकालने की कोशिश होती है, कंकाल ही मिलते हैं जो बेहद डरावने होते हैं.

आज वे समाज उन्नति कर रहे हैं जो आगे देख रहे हैं. अमेरिका सब से आगे है क्योंकि उस का इतिहास ही नहीं है. चीन आगे बढ़ रहा है क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर चीन ने अपने मन से इतिहास को साफ कर दिया था. यूरोप के देशों ने अपने पुराने इतिहासों को भुला दिया, तभी 1945 के बाद नष्ट होने पर भी बहुतों ने उन्नति की.

हमें बारबार उलट कर, पलट कर पुरातन की ओर ले जाने की कोशिश हो रही है. गो पूजा, राम मंदिर और अब सरदार पटेल, ये गड़े मुरदे उखाड़ कर इन्हें जीवन में थोपने की कोशिश हो रही है. इन का क्या लाभ होगा? सिवा इस के कि समाज में ‘हम’ और ‘उन’ की खाई बढ़ेगी. क्योंकि जब पुरानी बातें खोदोगे तो यह भी निकलेगा कि कैसे तथाकथित देवीदेवताओं ने एकदूसरे के साथ अन्याय किया, व्यभिचार किया, छलकपट किया. इन लोगों ने जनता के बड़े समूह को कैसे दास बना कर रखा. तब फिर यह कैसे छिपाया जा सकता है.

वैश्वीकरण के कारण दुनिया आज हमें पुराने विवादों को हटा कर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रही है. हम पुरातन के पीछे दौड़ेंगे तो मिट्टी में हाथ सनेंगे. सपनों में हजारों टन सोना पाने की बातों में आ कर खोदेंगे तो बरतनों के टुकड़े ही निकलेंगे.

 

न्याय और अदालतें

मुंबई के एक कैंपा कोला कंपाउंड में बनी बहुमंजिली इमारत जिसे अवैध ठहरा कर बृहनमुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी ने ढहाने का फैसला किया था और जिसे फरवरी 2013 में कई अपीलों के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहराया था, अब रोक दिया गया है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का दिल वहां के रहने वालों का विरोध देख कर पसीज गया.

मानवीय भावों को समझे बिना न्याय नहीं किया जाना चाहिए, यह सत्य है. न्यायाधीश की अदालत कोई वैज्ञानिक प्रयोगशाला नहीं होती जिस में गुणाभाग हमेशा वही रहते हों. न्यायाधीश को अपने फैसलों को मानवीय पक्ष, व्यावहारिकता, आने वाले समय पर प्रभाव, बदलती चुनौतियों आदि को ध्यान में रख कर सुनाना होता है.

लेकिन ये बातें सर्वोच्च न्यायालय को फरवरी 2013 में सोचनी चाहिए थीं जब इस भवन के फ्लैटों के मालिक गुहार कर रहे थे कि बिल्डर की गलती का खमियाजा उन्हें क्यों भुगतना पड़े? यदि 1980-85 के दौरान भवन के निर्माण के समय बीएमसी ने ध्यान नहीं दिया और बिल्डर को गैरकानूनी काम करने दिया तो पूरे पैसे दे कर उस में रहने आए भोले नागरिकों को आज क्यों सजा दी जाए और क्यों उन की करोड़ों की संपत्ति को ढहा दिया जाए? यह दंड तो बीएमसी के अफसरों और बिल्डरों को दिया जाना चाहिए.

देशभर में यह आम बात हो गई है कि अदालतें आम नागरिकों को दंड देने को तो तैयार रहती हैं, उन की जरा सी भी गलती पर उन्हें छोड़ा नहीं जाता पर यदि गलती सरकारी अधिकारी की हो तो नागरिक को केवल राहत दे कर सरकारी अधिकारी को छोड़ दिया जाता है. सरकारी अधिकारी अपनेआप को हिंदुओं के देवताओं से भी ऊपर समझते हैं. वे हजार अवगुणों के बावजूद अपनेआप को किसी भी दंड से मुक्त मानते हैं और इसीलिए, कैंपा कोला कंपाउंड जैसे मामलों में भुगतना केवल नागरिकों को पड़ता है.

जब तक देश यह न समझेगा कि शक्ति जनता की है और सरकार का काम सेवा करना है और गलती करने पर उसे एक नागरिक की तरह दंड भुगतना होगा, तब तक सरकारी आतंक सिर पर बना रहेगा और नागरिक उसी तरह रोतेकलपते रहेंगे जैसे इस मामले में दिखे.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, अक्तूबर (द्वितीय) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘कश्मीर पर बयानबाजी’ बहुत अच्छी लगी. वास्तव में जितने भी उच्चकोटि के अधिकारी हैं उन्हें हमेशा मर्यादा के अंतर्गत रह कर ही बातें करनी चाहिए और आर्म्ड फोर्सेज के अधिकारियों का तो यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे ऐसी कोई बात न कहें जिस से देश की प्रतिष्ठा प्रभावित हो. मगर पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह की तो जैसे बात ही अलग है.

जम्मूकश्मीर निसंदेह एक बहुत ही संवेदनशील राज्य है. यह मुसलिम बाहुल्य राज्य है. भारत काफी पैसा खर्च करने के बावजूद वहां की जनता को पूरी तरह से भरोसा नहीं दे पाया कि उस का जीवन भारत में ज्यादा सुखी रहेगा. कठमुल्ले कश्मीरियों को कश्मीर के पाकिस्तान में विलय किए जाने के लिए उकसाते रहते हैं और पाकिस्तान अंगरेजों द्वारा नियुक्त रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट के सिद्धांत के तहत कश्मीर पर अपना हक मानता है.

पूर्व सेनाध्यक्ष अवकाशप्राप्त करने के बाद अब विवादित मुद्दों पर बयानबाजी कर रहे हैं. कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ. वे भाजपा का दामन पकड़ कर नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा कर रहे हैं जबकि उन्हें सरकार के प्रति वफादार होना चाहिए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद, (उ.प्र.)

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‘कश्मीर पर बयानबाजी’ संपादकीय में अवकाशप्राप्त सेनाध्यक्ष की उचित आलोचना की गई है. पूर्व सेनाध्यक्ष अपने सेवाकाल में भी तरहतरह की बयानबाजी से नेताओं की तरह हमेशा चर्चा में बने रहे हैं. इस से उन की रुचि राजनीति में झलकी है जो आखिरकार एक राजनीतिक पार्टी के मंच पर आने से उजागर हो गई. उन की उम्र का विवाद भी एक साधारण बात थी जिसे गंभीर मसला बना कर विपक्षी पार्टी ने अपने अखबारों द्वारा सत्तापक्ष की महीनों फजीहत की थी. वरना यदि उन की जन्मतिथि किसी वजह से गलत लिखी गई थी तो विभाग को उचित सुबूत दे कर वह सुधरवाई जा सकती थी. ऐसा सरकारी कर्मचारी करवाते भी रहे हैं.

उन का यह बयान भी कि आजादी के बाद से भारतीय सेना कश्मीर के नेताओं को पैसे दे कर शांति बनाए रखना चाहती है, ठीक नहीं. यह पूर्व के सारे सेनाध्यक्षों का अपमान है. राज्य के मुख्यमंत्री ने सुबूत मांगा जो आज तक नहीं दिया गया. यह भारतीय सेना का राजनीतिकरण करने का प्रयास है जो देश के लिए घातक है.

माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘अदालत और जनप्रतिनिधि’ में आप ने यह आरोप तो अदालतों पर बड़ी ही सरलता से लगा दिया कि ‘जब अदालतें स्वयं ही न्याय करने में 10-20 साल तक लगा देती हैं तो फिर नेताओं से नैतिकता की मांग कैसे कर सकती हैं,’ परंतु आप ने ऐसा कोई उपाय नहीं सुझाया कि ‘किस आधार पर अदालतें चाहें तो 4-5 महीनों में अपना फैसला सुना सकती हैं. सच पूछो तो अदालतों की इस में जरा सी भी कमी या दुर्भावना नहीं, बल्कि इस के लिए अगर कोई उत्तरदायी है तो वह है देश की कानूनी व न्यायिक प्रक्रिया.

दरअसल, जब सरकार के विधि मंत्रालय ने ही अदालतों के न्यायिक अधिकारों को सीमित कर रखा है तो फिर अदालतें उसी के तहत ही तो फैसले करेंगी. ‘दोषी बेशक बच जाए मगर किसी निर्दोष को सजा न हो’ के बहाने आरोपियों/अपराधियों को इतनी छूट मिली है कि वे कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने यानी मानवाधिकारों के नाम पर अदालतों से तारीख पर तारीख लेते रहते हैं. इस के बावजूद यह मानना अनुचित तनिक भी न होगा कि भ्रष्ट तत्त्वों या प्रशासन में सुधार लाने या फिर पथभ्रष्टों को राह दिखाने के लिए अदालती हथौड़ा अत्यावश्यक हथियार है.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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सरित प्रवाह के तहत प्रकाशित ‘अदालत और जनप्रतिनिधि’ व ‘कश्मीर पर बयानबाजी’ में आप के विचार समाज को झकझोरने व राजनीतिज्ञों की पोल खोलने वाले लगे.

देश के राजनीतिज्ञों को आज न तो आजादी के रणबांकुरों की शहादत का खयाल है न ही देश की मिट्टी से प्यार. उन का मकसद है बस, राज करो और लोगों को अंधेरे में रख कर धर्म, जाति व संप्रदाय के नाम पर भड़का कर उन के बीच संकीर्णता की दीवार खड़ी करो.

लेख ‘अर्थव्यवस्था की दुर्दशा करती सामाजिक व्यवस्था’ काबिलेतारीफ है. सच देखा जाए तो अंधविश्वास में जकड़े हुए हम सब भारतीयों में पंडेपुजारियों ने इतना भय भर दिया है कि उन को पूजे बिना हमारा जीवन बेकार है. ये हट्टेकट्टे पुजारी कुछ ही वर्षों में काफी संपत्ति अर्जित कर के ऐश की जिंदगी गुजार रहे हैं जबकि आम आदमी को आज भी आसानी से दो जून की रोटी नसीब नहीं है.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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देशप्रेमी आज भी हैं

लेख ‘डा. नरेंद्र दाभोलकर : सुला दिया गया लोगों को जगाने वाला’ पढ़ कर लगा कि डा. दाभोलकर ने अपने जीवनकाल में समाज के लिए जो कुछ भी किया, देश उसे सदा याद रखेगा. मुझे ऐसा लगता था कि आज के समय में सच्चे और ईमानदार देशप्रेमियों का अकाल पड़ गया है. मैं यह भी सोचता था कि हम स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभभाई पटेल, कबीर जैसे मार्गदर्शकों के जन्मदिवस तो मनाते हैं परंतु उन के बताए रास्ते पर कब चल कर दिखाएंगे? डा. दाभोलकर ने यह कर के दिखा दिया.

अच्छे लोगों के दुश्मन अधिक और मित्र कम बनते हैं. हरियाणा के आईएएस अफसर डा. अशोक खेमका को भी सपोर्ट कम और परेशानियों का सामना अधिक करना पड़ रहा है. जबकि आसाराम को कुकर्म करने के बावजूद भक्तों का सपोर्ट कहीं ज्यादा मिल रहा है, सजा मिलतेमिलते तो 22वीं सदी आ जाएगी.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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मन आहत करती कहानी

मैं 1974 से सरिता की नियमित पाठिका हूं. इस में छपी कहानियों ने जीवनसंघर्ष में कई बार मार्गदर्शन व प्रेरणा दी है. साहित्य जहां एक ओर समाज का दर्पण होता है वहीं समाज को आदर्श दिशा भी प्रदान करता है, लेकिन अक्तूबर (द्वितीय) अंक में ‘नया जमाना’ शीर्षक से छपी कहानी पढ़ कर बहुत निराशा हुई.

भारत की अमूल्य धरोहर भारतीय संस्कृति ही है जो उसे अन्य देशों से अलग करती है. यह कहानी, जो पाश्चात्य संस्कृति का घिनौना रूप प्रस्तुत कर रही है, भारतीय समाज में घरघर में पढ़ी जाएगी. जहां मर्यादाओं का पालन होता है.

डा. वीना विश्नोई शर्मा, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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अंधश्रद्धा उन्मूलन

अक्तूबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘डा. नरेंद्र दाभोलकर : सुला दिया गया  लोगों को जगाने वाला’ में बताया गया कि जिस शख्स ने राज्य तथा देश में फैली ‘अंधश्रद्धा’ के उन्मूलन के प्रयास में अपनी बलि दे दी उसे सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने उन के द्वारा प्रस्तावित ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन विधेयक’ को आखिरकार कानून बना कर लागू कर ही दिया.

सवाल यह उठता है कि क्या यही विधेयक डा. दाभोलकर की शहादत से पहले पारित नहीं हो सकता था? हो सकता था, मगर तब उस का श्रेय राज्य सरकार को नहीं मिलता यानी नाम डा. दाभोलकर का होता तो फिर राज्य प्रशासकों की इस कारगुजारी को उन का श्रेय हथियाना कहा जाए या जनताजनार्दन का ध्यान भटकाना, क्योंकि डा. दाभोलकर के हत्यारे ही जब अभी तक नहीं पकड़े जा सके हैं तो ‘श्रद्धांजलि’ कैसी?

सच्ची श्रद्धांजलि तो तब मानी जाएगी जब राज्य से तंत्रमंत्र, जादूटोने एवं तथाकथित चमत्कारों से जनसाधारण को राहत मिलेगी. साथ ही, अगर विधेयक के नाम को भी ‘डा. दाभोलकर अंधश्रद्धा उन्मूलन विधेयक’ का नाम दे दिया जाए, तो मानो जनहितार्थ बलि चढ़ गए. एक निस्वार्थ इंसान का नाम देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाएगा, जिस के डा. दाभोलकर हकदार भी हैं.

टीसीडी गाडेगावलिया, करोल बाग (न. दि.)

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देश की अर्थव्यवस्था में बाधक

‘अर्थव्यवस्था की दुर्दशा करती सामाजिक व्यवस्था’ लेख में किया गया तीव्र प्रहार हमारी बंद आंखों को खोलने के लिए काफी है. वास्तव में हम चकित रह जाते हैं जब एक निठल्ला व्यक्ति भीख मांगते समय हमें अपनी ब्राह्मण जाति का बोध कराता है, मानो जो अधिकार शास्त्रों में दिया गया था वह आज के संविधान में भी निहित है. सदियों तक जिस धर्म ने लोगों को नीच और गुलाम बनाए रखा, शिक्षा से वंचित रखा तथा देश और समाज के विकास कार्यों में भागीदारी नहीं दी उसी विचारधारा के लोग आज भी देश की अर्थव्यवस्था की उन्नति में बाधक सिद्ध हो रहे हैं.

आखिर ऐसी कौन सी विवशता है जिस के चलते न तो किसी शंकराचार्य ने और न ही किसी संत समाज ने देश के विकास में बाधक जातिवाद के खिलाफ कोई व्यापक जनआंदोलन नहीं चलाया. सभी राजनीतिक दल कहने को तो सर्वसमाज की उन्नति की बात करते हैं किंतु धरातल पर उन सब की सोच पोंगापंथी ही है. यथार्थवाद में विश्वास न कर कहीं न कहीं ये यथास्थितिवाद के पुराने सिद्धांत के समर्थक हैं.

राजनीति में धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए किंतु क्या हमारे राजनेता अपने व्यक्तिगत खर्चों से तिरुपति या शिरडी नारियल फोड़ने जाते हैं? प्रजातंत्र का ऐसा विकृत रूप हो चुका है कि कोई भी नेता अथवा दल खाप पंचायतों के तुगलकी फरमान का प्रबल ढंग से विरोध करने का साहस नहीं कर पाता. मुंबई में मराठी अस्मिता के नाम पर आएदिन बिहार और उत्तर प्रदेश के कामगारों को सरेआम पीटा जाता है किंतु हमारे नेता बेशर्मी से मुंह फेर कर वोटबैंक के गुणाभाग में लिप्त रहते हैं.

इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि मंदिरों में सोने का अकूत भंडार होने के बावजूद देश की अधिकांश आबादी जीविकोपार्जन के लिए त्राहित्राहि कर रही है. जिन युवाओं के कंधों पर भारत का भविष्य है, वे भी दिग्भ्रमित हैं. जब तक समाज के लोगों को दो चश्मे से देखा जाएगा, देश कभी उन्नति नहीं कर सकता.

सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)

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तनाव का कारण धर्म

सपने दिखा कर संत लोगों को लूटने का काम करते हैं और यह सदियों से चला आ रहा है. मेरा मानना है कि धर्म हमारे जीवन में तनाव का कारण है. अगर हम में मानवता, अच्छे संस्कार और सहयोग की भावना हो तो किसी पंडित की जरूरत नहीं. शादी तय करने के लिए कुंडली मिलान का कार्य मूर्खतापूर्ण है. कितने ही दंपती जन्मकुंडली मिलान के बाद हुए विवाह के बाद भी नाखुश जीवन बिताते हैं जबकि कितने ही लोगों जिन्होंने शादी के न पहले न बाद में पंडितों का चेहरा देखा, वे सुखमय जीवन जी रहे हैं.

इसी तरह टोनेटोटके, अंधविश्वास भी हमारी जिंदगी में बेवजह तनाव ला देते हैं. असलियत में धर्म, टोटके, राशि, नक्षत्र की बातें पंडितों के दिमाग की उपज हैं जो उन की आय के साधन बने हुए हैं.

संतों में जातिवाद, पूंजीवाद की भावना कूटकूट कर भरी होती है. गरीब व्यक्ति धर्म को मानने की परंपरा को त्याग दे तो मेरा मानना है 30 प्रतिशत गरीबी उस की ऐसे ही समाप्त हो जाएगी.

इसी तरह अंतिम संस्कार के लिए जो आडंबर किया जाता है, वह भी बेवजह लगता है.  किसी की सेवा करनी है तो उस के जीतेजी करो. एक सत्य घटना है. मेरे दोस्त के पिताजी का निधन हो गया. मेरे दोस्त ने अस्थि विसर्जन के लिए पास की नदी का चयन किया. तो रिश्तेदारों ने कहा कि इलाहाबाद में अस्थि विसर्जन का सही नियम है. तब मेरे दोस्त ने पैसे की असमर्थता जताई. रिश्तेदारों ने 20 हजार रुपए इकट्ठे कर सारे कर्मकांड किए.

मेरे दोस्त ने कहा कि जब पिताजी जिंदा थे तब इलाज के लिए 10 हजार रुपए के लिए तरस गए थे. तब कोई मदद के लिए नहीं आया. इसलिए धर्म को ले कर अपनेआप को तबाह करना उचित नहीं है.

प्रदीप ताम्रकार, धमधा (छत्तीसगढ़)

आडवाणी के लिए कुछ आंसू

भारतीय जनता पार्टी में अरसे से ‘लौह पुरुष’ की तथाकथित छवि के भ्रम में पीएम पद का सपना संजोए लालकृष्ण आडवाणी को आज एहसास हो रहा होगा कि उन के लौह पुरुष के ढांचे में सिर्फ बुरादा भरा था. मोह, ममता और महत्त्वाकांक्षा के भंवरजाल में फंसे आडवाणी को आखिर अब किस फजीहत का इंतजार है? पढि़ए राजकिशोर का लेख.

अपनी ही पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी की हालत जैसी हो गई है, उसे देख कर किस की आंखें नहीं भीग जाएंगी. मिर्जा गालिब ने एक जबरदस्त शेर कहा है, ‘‘निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन, बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले.’’ इस से संकेत मिलता है कि आडवाणी के साथ जो हो रहा है वह कोई पहली बार नहीं हो रहा है. शायद दुनिया की यही रीति है. एक समय जो लालकृष्ण आडवाणी बाबरी मसजिद को गिराने निकले थे, वे अब महसूस कर रहे होंगे कि गिरना क्या होता है. लेकिन उन्हें इसलिए दंडित नहीं किया गया है कि उन्होंने बाबरी मसजिद क्यों गिराई, बल्कि इस की सजा दी जा रही है कि उस के बाद उन्होंने कुछ और क्यों नहीं गिराया?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक ऐसा व्यक्तित्व मिल गया है जो उस के सपनों को साकार कर सकता है. इसलिए आडवाणी 80 वर्ष के हो गए हों या 85 वर्ष के, संघ उन की ओर मुड़ कर देखना नहीं चाहता. संघ ने अपना दांव मोदी पर लगा दिया है. अब आडवाणी संघ या भारतीय जनता पार्टी से चिपके रहने की कोशिश कर सकते हैं, किंतु उन का अंग नहीं बन सकते.

देर से समझे

अपने को अपमानित करवाना राजनीतिज्ञों को सब से ज्यादा आता है, क्योंकि वे दुनिया में सब से ज्यादा लालची होते हैं. हाथपैर में कोई जोर नहीं रहा, पैमाना खुद से नहीं उठा सकते, महफिल उखड़ चुकी है, फिर भी फरमाइश यह है कि ‘रहने दो अभी सागरोमीना मेरे आगे.’ कायदे से आडवाणी को तभी समझ जाना चाहिए था कि अब उन के राजनीतिक अंत का समय आ गया है जब पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिन्ना की कब्र पर उन्होंने जिन्ना को सैकुलर बता दिया था.

राजनीति में बहुतकुछ चलता है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी एक बार पार्टी से इस्तीफा दे दिया था और अपना अलग दल बनाने की कोशिश की थी, लेकिन जल्द ही उन्हें आटेदाल का भाव पता चल गया और उन्हें कांगे्रस में लौटना पड़ा. काम के आदमी थे, इसलिए रख लिया गया. बाद में कांगे्रस ने उन्हें न केवल बारबार मंत्री बनाया, बल्कि राष्ट्रपति भवन का नागरिक भी मनोनीत कर दिया.

सब से बड़ी भूल

लेकिन आडवाणी को ही नहीं, दूसरे लोगों को भी तब चकित होना पड़ा जब संघ ने तिल का ताड़ बना दिया. सभी जानते हैं कि पाकिस्तान आंदोलन के अग्रणी नेता जिन्ना के लिए 2 कौमों की थियोरी सत्ता पाने का एक औजार मात्र था, वरना उन्हें न तो इसलाम से प्रेम था न हिंदुओं से घृणा. परंतु संघ की बात और है. द्विराष्ट्र सिद्धांत उस का सिद्धांत नहीं, बल्कि उस के जन्म का एकमात्र कारण है.

जिन्ना ने जिसे अपनी राजनीतिक सफलता का आधार बनाया और पाकिस्तान मिलते ही जिसे भुला दिया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उस पर कुंडली मार कर बैठ गया. इसीलिए वह जिन्ना को माफ नहीं कर सकता.

जिन्ना को वह इसलिए भी माफ नहीं कर सकता क्योंकि जिन्ना न होते, तो भारत का विभाजन भी न होता. यह लालकृष्ण आडवाणी की उन की जिंदगी की सब से बड़ी भूल थी कि उन्होंने जिन्ना को सैकुलर घोषित कर दिया. संघ की संस्कृति में ऐसा कहना कुफ्र से कम नहीं था. इसलिए काफिर को बता दिया गया कि वह काफिर है और अब उसे संघ से लगभग निकाला जाता है.

भ्रम के शिकार

आडवाणी ने भाजपा को कहां से कहां पहुंचा दिया, लेकिन वे इस भ्रम का शिकार हो गए कि वे ही भाजपा हैं या उन के बिना भाजपा लूलीलंगड़ी है. इसलिए जब संघ ने उन्हें सातवें आसमान से जमीन पर टपका दिया, वे हतप्रभ हो गए. कोई और राजनीतिज्ञ होता तो तुरंत समझ जाता कि ट्रेन अपने आखिरी स्टेशन तक पहुंच गई है और आगे नहीं जाएगी. पर आडवाणी धीरज के साथ इंतजार करते रहे कि कब गार्ड सीटी बजाएगा और कब ट्रेन एक बार फिर चल पड़ेगी. जब लंबे समय तक टे्रन न हिली न डुली, तब भी आडवाणी की आंख नहीं खुली.

संघ और मोदी

पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी इंतजार करते रहे कि जब भाजपा से अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद के कैंडीडेट का नाम पूछा जाएगा, तब उस के जेहन में कोई और नाम कैसे आ सकता है? अटल बिहारी वाजपेयी के बाद भाजपा के वरिष्ठतम नेता वे ही रहे हैं. आडवाणी भूल गए कि कोई ऐसा नहीं है जिस के बिना दुनिया का कारोबार रुक जाए. सवाल पसंदगी और नापसंदगी का तो है ही, स्वार्थ का भी है. संघ को बैठेबिठाए एक ऐसा शख्स मिल गया है जो आडवाणी से कई बित्ता बड़ा है.

विचित्र यह भी है कि जब आडवाणी ने देख लिया कि मोदी उन पर बहुत भारी पड़ रहे हैं, तब भी उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि आगे रास्ता बंद है, इसलिए भलाई इसी में है कि जहां हो वहीं पड़े रहो. मीडिया उन के नाम के पहले हमेशा यही लिखेगा, ‘भाजपा के वरिष्ठ नेता.’ कोईकोई यह भी लिख देगा, ‘पूर्व उपप्रधानमंत्री.’ 80 वर्ष की उम्र में रिटायरमैंट के बाद यह पैंशन कुछ कम नहीं है. इस सिलसिले में आडवाणी का विद्रोह मनोरंजन से ज्यादा ट्रैजिक है.

जिस दिन उन्होंने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया और पार्टी की रीतिनीति पर गंभीर टिप्पणियां कीं, लग रहा था कि अब वे भाजपा को दोफाड़ कर देंगे और अपनी अलग पार्टी बनाएंगे. इंदिरा गांधी ने एक बार ऐसा ही किया था, जिस से उन्हें भरपूर फायदा हुआ. लेकिन उन में दोदो हाथ करने का दमखम था. आडवाणी इस कोटि में नहीं आते.

आडवाणी की मुश्किल

आडवाणी की सब से बड़ी मुश्किल यह है कि नरेंद्र मोदी से टक्कर लेने के लिए संघ को भी चुनौती देनी होगी. जो संघ को चुनौती देगा उस के साथ भाजपा के कितने लोग जाएंगे? यह सब सोचेविचारे बिना ताव खा कर इस्तीफा देने और एक ही दिन में वापस ले लेने से आडवाणी की सार्वजनिक छवि बहुत ज्यादा मलिन हुई है. जो उन्हें लौह पुरुष समझते थे उन्हें प्रायश्चितस्वरूप कम से कम महीनेभर का उपवास रखना चाहिए. जब वे गृहमंत्री थे और बाद में उपप्रधानमंत्री भी बन गए, तब भी उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया था जिस से यह साबित होता कि वाकई उन में लोहे का तत्त्व है. पार्टी में भी जब उन के सामने चुनौती खड़ी हुई तब भी वे अपनी मुट्ठी को मजबूती से बांधे नहीं रख सके.

आडवाणी को अपनी क्षमता का एहसास तभी हो गया था जब उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. वे जानते थे कि एनडीए के सर्वमान्य नेता के रूप में वे अन्य दलों को मान्य नहीं होंगे. अब यह स्थिति नरेंद्र मोदी की है. लेकिन मोदी की महत्त्वाकांक्षा का कोरकिनारा नहीं है. वे अकेले लड़ना जानते हैं. लेकिन आडवाणी की लड़ाई मोदी से है, ताकि वे खुद अपनेआप को झंडे की तरह फहरा सकें. कई बार आडवाणी को भीष्म पितामह कहा जाता है. भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान मिला हुआ था. आडवाणी के पास भी कोई और विकल्प नहीं है. उन के लिए राजनीति से संन्यास लेने का समय आ गया है.

गरिमा का सवाल

वहीं, यह भी देखा गया है कि इतिहास कभी भी सीधे रास्ते पर नहीं चलता. उस की गति सर्पिल होती है. महाभारत की लड़ाई के लिए क्या भीष्म और द्रोणाचार्य को उन के बुढ़ापे में आमंत्रित नहीं किया गया था? हो सकता है, मोदी की विफलता के बाद आडवाणी को बुलाया जाए. लेकिन उम्र की भी एक गरिमा होती है. क्या आडवाणी यह घोषणा कर कि अब राजनीति में मेरा कोई रस नहीं रहा, रिटायर नहीं हो सकते? या, राजनीतिज्ञ राजनीति की ओर से तभी आंखें फेरता है जब उस के लिए दुनिया से ही आंखें फेरने का क्षण आ जाता है?   

मल्लिका का आरोप

बौलीवुड और हौलीवुड फिल्मों के बाद अभिनेत्री मल्लिका शेरावत इन दिनों टीवी रिऐलिटी शो ‘द बैचलरेट इंडिया–मेरे खयालों की मल्लिका’ में अपना हमसफर ढूंढ़ रही हैं. कम काम के बारे में पूछे जाने पर वे कहती हैं कि मुझे लगता है कि मेरी अट्रैक्टिव पर्सनैलिटी के कारण निर्देशक मुझे सीरियसली नहीं लेते.

उन्हें उम्मीद है कि निर्देशन उन्हें सीरियसली लेंगे और कुछ चैलेजिंग रोल उन्हें मिल सकेंगे. मल्लिकाजी, बहाना अच्छा है. वैसे निर्देशकों को तो चैलेंजिंग अभिनय चाहिए जो शायद आप नहीं कर पाती हैं. खैर, आप कह रही हैं तो मान लेते हैं.   

अलविदा मन्ना

दशकों तक संगीतप्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले प्रबोधचंद डे, जिन्हें दुनिया मन्ना डे के नाम से जानती है, आज दुनिया में नहीं हैं. लंबे समय से बीमार चल रहे मन्ना डे ने 24 अक्तूबर को बेंगलुरु के अस्पताल में आखिरी सांस ली. हिंदी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, मलयालम, कन्नड़ और असमिया भाषा में भी उन के मधुर गीत लोकप्रिय हैं.

श्रेष्ठ गायन के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले मन्ना पद्म विभूषण और दादा साहब फाल्के अवार्ड से भी नवाजे जा चुके हैं. हर गीत में अपनी अनोखी आवाज की छाप छोड़ने वाले मन्ना हमेशा याद आएंगे.                       

 

 

लातघूंसे चलाएंगी सोनाक्षी

दबंग गर्ल अब सीधीसादी नहीं दिखेंगी. वे स्टंट करती नजर आएंगी. सोनाक्षी सिन्हा अपनी आने वाली फिल्म ‘आर… राजकुमार’ में गुंडों से फाइटिंग करती हुई दिखेंगी. सोनाक्षी ने स्टंट सीखने के लिए बाकायदा एक स्टंट मास्टर रखा था. सोनाक्षी का बौक्स औफिस पर पूरे साल कब्जा कर ने का इरादा है तभी तो उन की फिल्मों की एक के बाद एक लाइन लगी है.

 

 

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