मुंबई के एक कैंपा कोला कंपाउंड में बनी बहुमंजिली इमारत जिसे अवैध ठहरा कर बृहनमुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी ने ढहाने का फैसला किया था और जिसे फरवरी 2013 में कई अपीलों के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहराया था, अब रोक दिया गया है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का दिल वहां के रहने वालों का विरोध देख कर पसीज गया.

मानवीय भावों को समझे बिना न्याय नहीं किया जाना चाहिए, यह सत्य है. न्यायाधीश की अदालत कोई वैज्ञानिक प्रयोगशाला नहीं होती जिस में गुणाभाग हमेशा वही रहते हों. न्यायाधीश को अपने फैसलों को मानवीय पक्ष, व्यावहारिकता, आने वाले समय पर प्रभाव, बदलती चुनौतियों आदि को ध्यान में रख कर सुनाना होता है.

लेकिन ये बातें सर्वोच्च न्यायालय को फरवरी 2013 में सोचनी चाहिए थीं जब इस भवन के फ्लैटों के मालिक गुहार कर रहे थे कि बिल्डर की गलती का खमियाजा उन्हें क्यों भुगतना पड़े? यदि 1980-85 के दौरान भवन के निर्माण के समय बीएमसी ने ध्यान नहीं दिया और बिल्डर को गैरकानूनी काम करने दिया तो पूरे पैसे दे कर उस में रहने आए भोले नागरिकों को आज क्यों सजा दी जाए और क्यों उन की करोड़ों की संपत्ति को ढहा दिया जाए? यह दंड तो बीएमसी के अफसरों और बिल्डरों को दिया जाना चाहिए.

देशभर में यह आम बात हो गई है कि अदालतें आम नागरिकों को दंड देने को तो तैयार रहती हैं, उन की जरा सी भी गलती पर उन्हें छोड़ा नहीं जाता पर यदि गलती सरकारी अधिकारी की हो तो नागरिक को केवल राहत दे कर सरकारी अधिकारी को छोड़ दिया जाता है. सरकारी अधिकारी अपनेआप को हिंदुओं के देवताओं से भी ऊपर समझते हैं. वे हजार अवगुणों के बावजूद अपनेआप को किसी भी दंड से मुक्त मानते हैं और इसीलिए, कैंपा कोला कंपाउंड जैसे मामलों में भुगतना केवल नागरिकों को पड़ता है.

जब तक देश यह न समझेगा कि शक्ति जनता की है और सरकार का काम सेवा करना है और गलती करने पर उसे एक नागरिक की तरह दंड भुगतना होगा, तब तक सरकारी आतंक सिर पर बना रहेगा और नागरिक उसी तरह रोतेकलपते रहेंगे जैसे इस मामले में दिखे.

 

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