सर्वोच्च न्यायालय के 2 न्यायमूर्तियों ने यह माना है कि देश के लोग न्याय शब्द को मजाक समझते हैं. मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम व न्यायाधीश जी एस सिंघवी ने स्वीकार किया कि देश की आजादी के 65 साल गुजर जाने के बाद भी देश की जनता को यह नहीं लगता कि उसे कभी कहीं से न्याय मिलता है. संविधान में बारबार कहे जाने और नेताओं के भाषणों में दोहराए जाने के बावजूद न्याय शब्द का मतलब इस देश के सवा अरब लोगों के लिए अन्याय है.
एक तरह से देश का हर व्यक्ति अन्याय को झेलने को मजबूर है. यहां की सरकार, शासक, समाज, धर्म, व्यापार और यहां तक कि पारिवारिक इकाई भी न्याय की परिभाषा तक जानने की उत्सुक नहीं है, उसे मानने या लागू करने की बात तो छोड़ दें.
हमारे समाज का ढांचा अन्याय पर आधारित है. स्त्रियों के साथ होने वाले अन्यायों पर पोथियां लिखी जा चुकी हैं जबकि स्त्रियां भी दूसरों पर अन्याय करने में पीछे नहीं हैं-कहीं सास बन कर, कहीं सौतेली मां बन कर, कहीं बहू बन कर तो कहीं सौत बन कर.
वर्ण और जाति ने अन्याय को घरघर का हिस्सेदार बना दिया है. धर्म पर आधारित वर्ण व जाति के भेद का शिकार हर कोई होता है. यह बात दूसरी है कि शिकार भी खुद शिकारी बनने से कतराता नहीं है.
हमारे व्यापार आमतौर पर अन्याय पर टिके हैं. ग्राहकों से अन्याय, कर्मचारियों से अन्याय और उत्पादकों से अन्याय जितना ज्यादा करोगे उतना ज्यादा लाभ कमाओगे. हालत यह है कि पटरी पर बैठे सब्जी वाले से प्राप्त आलू के भाव की जानकारी पर न्याय का भरोसा नहीं है और न ही सर्वोच्च न्यायालय में अपनी अरबों की संपत्ति के फैसले के बारे में.