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किसकिस को किया किस

मटरू की बिजली यानी अनुष्का शर्मा अब लेटैस्ट किसरकिंग सुशांत सिंह राजपूत के साथ किस करती हुई राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘पीके’ में दिखेंगी. अनुष्का ने सुशांत के अलावा फिल्म के हीरो आमिर खान के साथ भी एक डीपलौंग किस किया है.

चर्चा यह है कि यह किस बौलीवुड में अब तक का सब से लंबा किस है. हालांकि इस बात में कितनी सचाई है यह कहना अभी मुश्किल है.

 

 

मेहनती दीपिका

 ‘कोचाडीयन-द लीजेंड’ अब तक की सब से बड़ी फिल्म मानी जा रही है. इस फिल्म में दीपिका पादुकोण खास अंदाज में नजर आने वाली हैं. उस में एक डांस की कोरियोग्राफी सरोज खान करेंगी. इस डांस को दीपिका ने लगातार 48 घंटे में शूट किया है. दीपिका के बारे में सरोज खान कहती हैं कि दीपिका काफी मेहनती और प्रोफैशनल हैं. मैं ने अब तक सारे सितारों के साथ काम किया है लेकिन दीपिका की कार्यक्षमता और कुशलता सब से अच्छी है. बहुत कम समय में काफी बेहतरीन और सारे भाव के साथ नृत्य किया है.

 

वार छोड़ न यार

छोड़ न यार, क्या रखा है वार में. भारतपाक सीमा पर हालात वार जैसे हों और दोनों साइडों के सैनिक एकदूसरे से माइक पर अंत्याक्षरी खेल रहे हों तो कोई भी इस सोच में पड़ जाएगा कि यह वार फील्ड है या स्टेज पर हो रहा कोई जलसा. सही समझे आप, इस फिल्म में वार की निरर्थकता को बताते हुए दोनों मुल्कों के बीच आपसी प्यार और भाईचारे की बात कही गई है जबकि भारत और पाकिस्तान को आपस में लड़वाने वाले देश चीन की पोलपट्टी खोली गई है. लेकिन इन सब बातों को गंभीरता से न कह कर मजाकिया स्टाइल में कहा गया है.

वार फील्ड पर बौलीवुड में पहले भी कुछ फिल्में बनी हैं. उन में जेपी दत्ता की ‘बौर्डर’ लाजवाब फिल्म थी. लेकिन इस फिल्म में लगता है, निर्देशक ने पूरा होमवर्क नहीं किया और जल्दबाजी में फिल्म पूरी कर ली.

फिल्म की कहानी राजस्थान से सटी भारतपाक सीमा से शुरू होती है. एक तरफ भारतीय कैप्टन राज वीर सिंह राणा (शरमन जोशी) है तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी कैप्टन कुरैशी (जावेद जाफरी) है, जो अपनीअपनी बटालियन के साथ सीमा पर तैनात हैं. एक न्यूज चैनल की रिपोर्टर रुत दत्ता (सोहा अली खान) अपने कैमरामैन के साथ कवरेज के लिए वहां आती है. वहां उसे पता चलता है कि पाकिस्तानी जनरल (दिलीप ताहिल) 2 दिनों के बाद युद्ध का ऐलान कर सकते हैं लेकिन उसे पता चलता है कि वहां युद्ध के हालात कतई नहीं हैं. दोनों साइडों के सैनिकों के बीच मजाक चलता रहता है. माइक पर वे अंत्याक्षरी खेलते हैं. वह अपने टीवी चैनल पर दोस्ती का मैसेज देने लगती है. उधर, पाकिस्तानी जनरल चीन को खुश करने के लिए भारत पर परमाणु बम से हमला कराने के लिए तैयार हो जाता है.  रुत अपने चैनल पर चीन की पोल खोल पाने में कामयाब हो जाती है. दोनों देशों की जनता वार के खिलाफ है. पाकिस्तान को भी परमाणु बम को रोक देना पड़ता है. दोनों देश चीन में बने साजोसामान का बायकाट करते हैं.

मध्यांतर से पहले कहानी कुछकुछ बांधे रखती है. इस हिस्से में जावेद जाफरी के बोले गए संवाद और संजय मिश्रा की कौमिक ऐक्ंिटग कुछकुछ ठीक है, जबकि मध्यांतर के बाद फिल्म चाइनीज प्रौडक्ट्स का बायकौट करने का मैसेज देती प्रतीत होती है. दरअसल, पटकथा ही कमजोर है.

फिल्म का निर्देशन कमजोर है. शरमन जोशी साधारण रहा है. सोहा अली खान भी प्रभावित नहीं करती. निर्देशक को न जाने क्या सूझी कि उस ने वार फील्ड में भी सोहा अली खान और शरमन जोशी के बीच इश्क दिखा दिया. फिल्म का गीतसंगीत बेकार है.  

बौस

अक्षय कुमार ने इस फिल्म में कई जगह कहा है, ‘बौस इज औलवेज राइट’. लेकिन फिल्म देखने पर लगा, ही इज नौट राइट. फिल्म में वह बारबार पानी निकालने की बात भी कहता है जबकि फिल्म में उस ने फिल्म की कहानी का ही पानी सुखा दिया है. कहानी में ऐक्शन की इतनी ज्यादा डोज है कि मुंह से सीसी की आवाज निकलने लगती है और दिमाग कुंद सा होने लगता है.

फिल्म में जब तक सबकुछ बैलेंस न हो तो वह मजा नहीं देती. ‘बौस’ में ऐक्शन, कौमेडी, ड्रामा सबकुछ है परंतु बैलेंस्ड नहीं है. पानी निकालने के चक्कर में सबकुछ घालमेल हो गया है. इमोशंस पर ऐक्शन हावी हो गया है. फिल्म टुकड़ोंटुकड़ों में तो कुछ ठीक लगती है लेकिन औन द होल देखा जाए तो बासी सब्जी में ऐक्शन का जबरदस्ती न छौंक दिया गया है.

अक्षय कुमार का मानना है कि आजकल पब्लिक बहुत स्मार्ट हो गई है जबकि ‘बौस’ में उस ने घिसेपिटे लटकेझटके ही दिखाए हैं. इस तरह की ऐक्शन कौमेडी दर्शक उस की खिलाड़ी सीरीज की फिल्मों और ‘राउडी राठौड़’ में देख चुके हैं. इसलिए बौस, इस ‘बौस’ को देखना ही है तो दिमाग को घर पर रख कर जाना.

मलयालम फिल्म ‘पोकरी राजा’ पर आधारित इस फिल्म की कहानी पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है. बौस (अक्षय कुमार) को बचपन में उस के पिता सत्यकांत शास्त्री (मिथुन चक्रवर्ती) ने घर से निकाल दिया था. बौस को पनाह दी बिगबौस (डैनी) ने. सत्यकांत का एक और बेटा है शिव (शिव पंडित) जिसे एसीपी आयुष्मान (रोनित राय) की बहन अंकिता (अदिति राव हैदरी) से प्यार हो जाता है. गृहमंत्री प्रधान (गोविंद नामदेव) प्रधान अंकिता की शादी अपने बेटे से कराना चाहता है, इसीलिए वह एसीपी के जरिए बौस के भाई शिव को अरैस्ट कर उस पर जुल्म करता है. एसीपी शिव को जान से मारना चाहता है. उधर सत्यकांत बौस के पास अपने छोटे बेटे शिव की जान बचाने के लिए आता है. अब शुरू होता है बौस और आयुष्मान के बीच चूहेबिल्ली का खेल. कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों का युद्ध होता है और बौस एसीपी आयुष्मान को खत्म कर डालता है.

फिल्म के क्लाइमैक्स में कुरुक्षेत्र में हुई यह लड़ाई महाभारत के मिथक के साथ मजाक करती प्रतीत होती है. फिल्म की पूरी कहानी घिसीपिटी है जिसे तेज गति दे कर और ऐक्शन सीनों के सहारे ही लंबा खींचा गया है.

अक्षय कुमार ने फाइटिंग कर कुछ तालियां जरूर बटोरी हैं लेकिन ‘पानी’ निकालने वाला द्विअर्थी डायलौग बोल कर ठीक नहीं किया. फिल्म का फर्स्ट हाफ कुछ ठीक है. अक्षय कुमार को हरियाणवी गुंडे का लुक दिया गया है जिस के पास बहुत से ट्रक हैं. एक खुले मैदान में पचासों ट्रक खड़े कर के उन पर छलांगें लगा कर अक्षय कुमार का जौगिंग करना रोमांचक बन पड़ा है. रोनित राय का काम भी अच्छा है. मिथुन के करने लायक फिल्म में कुछ ज्यादा नहीं है.

फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा है. फिल्म में एक गाने के बोल हैं, ‘हम न छोड़ें, तोड़ें, फोड़ें जो भी हम से पंगा ले…’ को जोश में गाया गया है. एक अन्य पार्टी सौंग में सोनाक्षी सिन्हा की अपीयरैंस अच्छी लगती है. फिल्म के अंत में सोनाक्षी सिन्हा के साथ ही ‘जांबाज’ फिल्म का गाना ‘हर किसी को नहीं मिलता प्यार जिंदगी में…’ डाला गया है. यह गाना भी अच्छा बन पड़ा है.

 

मिकी वायरस

यह कौमिक थ्रिलर फिल्म कंप्यूटर हैकर्स के कारनामे दिखाती है. हैकिंग पर बनी यह पहली फिल्म है. पिछले कुछ सालों से यह तकनीक हर घर तक पहुंच गई है. हर घर में, हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन, टैबलेट, कंप्यूटर जैसे गैजेट्स हैं. अधिकांश ट्रांजैक्शंस औनलाइन होने लगे हैं. ऐसे में हैकिंग के मामले भी काफी बढ़ चले हैं. यह फिल्म दिखाती है कि हैकिंग की दुनिया कितनी बड़ी है. दुनिया के बड़ेबड़े हैकर्स किस तरह किसी भी बैंक अकाउंट से कईकई सौ करोड़ रुपए उड़ा ले जाते हैं.

फिल्म की विशेषता इस की कहानी है. कहानी भले ही जलेबी की तरह घुमावदार है लेकिन आज के युवाओं के आलसीपन को दर्शाती है. आज का युवा बैठेबिठाए सबकुछ पा लेना चाहता है. उस के पास एक से बढ़ कर एक गैजेट्स मौजूद हैं.

हर वक्त वह पैनड्राइव जेब में डाले घूमताफिरता है. वह डैस्ट्रक्टिव माइंड का हो चला है. कभी भी, कहीं भी वायरस छोड़ कर किसी के भी सिस्टम को करप्ट करने में उसे मजा आता है.

‘मिकी वायरस’ एक ऐसे ही युवक मिकी (मनीष पाल) की कहानी है, जो हर वक्त खाली घूमता रहता है, खुराफातें करता रहता है. उस की जेब में पैनड्राइव रहती है जिस में वायरस घुसे रहते हैं. वह हैकिंग ऐक्सपर्ट है. उस के कुछ दोस्त भी उसी जैसे हैं. चटनी (पूजा गुप्ता), फ्लौपी (राघव कक्कड़) और पैंचो (विकेश कुमार) के साथसाथ एक गुरु प्रोफैसर (नीतेश पांडे) उस के दोस्त हैं.

एक दिन पुलिस को 2 अनजान विदेशियों की लाशें मिलती हैं. पता लगता है कि ये दोनों हैकर्स थे और भारत आए थे. मामले की तहकीकात एसीपी सिद्धांत (मनीष चौधरी) और इंस्पैक्टर भल्ला (वरुण वडोला) करते हैं. उन्हें किसी भ्रम गैंग की तलाश है. वे मिकी को ढूंढ़ निकालते हैं और उस की मदद से हैकर्स का पता लगाने की कोशिश करते हैं. इसी दौरान मिकी की मुलाकात कामायनी (एली अवराम) से होती है. एक दिन कामायनी गलती से एक बड़ी रकम किसी दूसरे के अकाउंट में ट्रांसफर कर बैठती है. मिकी उस की मदद कर पैसा वापस सही अकाउंट में ले आता है. यहीं से मिकी मुसीबतों में फंस जाता है. कामायनी की हत्या हो जाती है. सबूत मिकी की ओर इशारा करते हैं. लेकिन मिकी मामले की तह तक पहुंच जाता है और उसे पता चल जाता है कि एक बड़ी रकम को हैक करने के पीछे कौनकौन लगे हुए हैं. यहां तक कि एसीपी सिद्धांत भी उस रकम को हासिल करना चाहता है. वह सभी हैकर्स के साथसाथ एसीपी को भी गिरफ्तार कराता है.

फिल्म की इस कहानी में सस्पैंस अंत तक बनाए रखा गया है. कहानी दिलचस्प है. लेकिन निर्देशक ने कहानी को शुरू में बेवजह लंबा खींचा है. फर्स्ट हाफ में पता ही नहीं चल पाता कि कौन क्या कर रहा है. मध्यांतर के बाद हैकर्स को पकड़ने वाले सीक्वैंस ड्रामेटिक बन पड़े हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है.

हैकर्स द्वारा बनाए गए और आजमाए गए नएनए गैजेट्स दिखा कर निर्देशक ने दर्शकों को नई जानकारी दी है. फिल्म में अच्छे ग्राफिक्स का इस्तेमाल किया गया है. निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. फिल्म के संवाद भी अच्छे हैं. बीचबीच में हंसी की फुलझडि़यां छूटती रहती हैं.

फिल्म में किरदारों के नाम अटपटे रखे गए हैं जैसे स्यापा, चटनी, फ्लौपी आदि. सारे किरदार इंटरनैटी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. आधुनिक जीपीआरएस सिस्टम का इस्तेमाल कर अपराधी को दबोचते हुए दिखाया गया है.

फिल्म का उद्देश्य मात्र साइबर क्राइम दर्शाना है. इस क्राइम से कैसे खुद को सुरक्षित रखा जाए, फिल्म में इस का जिक्र नाममात्र को भी नहीं है. मनीष पाल टीवी कलाकार है. यह उस की पहली फिल्म है. वह लफंडर ज्यादा लगा है, हैकर कम. अभिनय में वह काफी कमजोर रहा है. एली अवराम भी कुछ खास नहीं कर पाई.

फिल्म का गीतसंगीत औसत है. ‘प्यार… चाइना का माल है…’ गीत सुनने में भले ही अजीब लगे पर फिल्म से मैच करता है. छायांकन अच्छा है.

 

छोटे किरदार से मिली पहचान -पूनम झांवर

पूनम झांवर बहुआयामी कलाकार के तौर पर कभी अभिनेत्री तो कभी सिंगर  के रूप में रूपहले परदे पर नजर आती रही हैं. हाल ही में राजेश कुमार से हुई बातचीत में पूनम ने नीरा राडिया प्रकरण पर बनने वाली फिल्म‘2जी राडिया-शन’ और ‘आर…राजकुमार’ से जुड़े अनुभवों को बांटा.

पिछले वर्ष की सब से चर्चित फिल्म ‘ओह माई गौड’ (ओएमजी) में गोपी मइया का किरदार निभा कर मोहरा गर्ल पूनम झांवर एक बार फिर से सुर्खियों में हैं. जल्द ही वे 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले पर आधारित फिल्म ‘2जी राडिया-शन’  में मुख्य किरदार में और प्रभुदेवा की ‘आर…राजकुमार’ में शाहिद कपूर और सोनाक्षी सिन्हा के साथ विशेष भूमिका में नजर आएंगी. बहुत कम लोग जानते हैं कि पूनम अभिनेत्री के अलावा सिंगर, फिल्ममेकर और मौडल भी हैं. ओएमजी से पहले ज्यादातर लोग उन्हें फिल्म ‘मोहरा’ में सुनील शेट्टी के साथ ‘न कजरे की धार…’ गीत के लिए याद करते थे. जबकि इस के बाद उन्होंने इंडस्ट्री में म्यूजिक एलबम के अलावा कई हिंदी और मराठी फिल्में भी बनाई हैं. राजस्थान के रईस मारवाड़ी परिवार से संबंध रखने वाली पूनम ने ओएमजी के बाद से बदली अपनी जिंदगी और कैरियर के बारे में कई बातें बताईं. पेश हैं मुख्य अंश :

ओएमजी से एक तरह से कमबैक हुआ है आप का?

हां, कह सकते हैं. हालांकि इस से पहले मैं ने नाना पाटेकर के साथ ‘आंच’ फिल्म का निर्माण किया था. इस फिल्म में मैं लीड रोल में भी थी, इस के अलावा कई म्यूजिक एलबम भी किए, पर जो पहचान ओएमजी से मिली, उस हिसाब से यह कमबैक जैसा ही था. कई बार ऐसा होता है कि आप काम तो बहुत करते हैं पर समय और प्रचार ठीक न होने के चलते उन्हें नोटिस नहीं किया जाता और कई बार एक छोटा सा किरदार आप को सुर्खियों में ले आता है. ओएमजी में गोपी मइया का किरदार भी कुछ ऐसा ही था.

इस फिल्म में आप का किरदार बहुत छोटा था, आप को नहीं लगता कि कुछ और सींस और डायलौग मिलने चाहिए थे?

मुझे उस छोटे से रोल से वह पहचान मिल गई जो कई बड़ी भूमिकाओं से नहीं मिली थी.

ओएमजी जैसी सामाजिक सरोकार से जुड़ी फिल्म लंबे अरसे के बाद देखने को मिली, आप को नहीं लगता कि ऐसी फिल्में कम बनती हैं?

यह सच है कि बौलीवुड में कमर्शियल फिल्मों की तादाद ज्यादा देखने को मिलती है बजाय सामाजिक सरोकार से जुड़ी फिल्मों के. असल में ज्यादातर निर्मातानिर्देशकों की सोच ऐसी है कि मसाला फिल्में जितनी कमाई करती हैं, समाज को संदेश देने वाली फिल्में उतना नहीं कमा पातीं. चूंकि ज्यादातर निर्मातानिर्देशक फिल्मों को मुनाफा कमाने का जरिया मात्र मानते हैं, इसीलिए कोई भी समाज को संदेश देने वाली फिल्में बना कर घाटे का सौदा नहीं करना चाहता. जबकि इस मिथक को ओएमजी ने बौक्स औफिस पर जबरदस्त कमाई कर तोड़ा है. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों का सामाजिक फिल्मों के प्रति रुझान बढ़ेगा.

व्यक्तिगत तौर पर आप समाज से कितना सरोकार रखती हैं?

इस देश का नागरिक और पब्लिक फिगर होने के नाते मैं अपनी क्षमता के मुताबिक सोशल इश्यूज को उठाने वाले संगठनों के साथ हमेशा जुड़ने की कोशिश करती हूं. महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली एनजीओ के साथ तो मैं आज भी जुड़ी हूं. इस के अलावा दिल्ली के रामलीला मैदान में जब अन्ना हजारे ने जनलोकपाल बिल के लिए अनशन किया था तब भी मंच पर जा कर मैं ने उन के आंदोलन को समर्थन दिया था. कोशिश यही रहती है कि सोशल कौज से जुड़ कर समाज के लिए कुछ करती रहूं.

कुछ साल पहले आप को ले कर नीरा राडिया प्रकरण पर फिल्म बनाने की घोषणा हुई थी, क्या हुआ?

दरअसल, 2 जी स्कैम और नीरा राडिया के मामले पर फिल्म बनाने की घोषणा पर उस दौरान कई लोगों को आपत्ति थी, जिस के चलते प्रोजैक्ट डिले होता गया. पर अब सारी अड़चनें खत्म हो चुकी हैं. अब यह फिल्म एक इंटरनैशनल प्रोजैक्ट की तरह हौलीवुड और बौलीवुड के बड़े बैनर्स के तले बन रही है.

क्या नीरा राडिया की आपत्ति के चलते यह फिल्म लटकी थी?

असल वजह कई थीं पर हां, यह भी एक वजह कही जा सकती है. कई लोगों ने बताया था कि नीरा नहीं चाहतीं कि उन के ऊपर बनने वाली फिल्म में उन की छवि को और भी खराब किया जाए. हालांकि असल वजह तो फिल्म निर्माता ही बता सकते हैं पर हालफिलहाल फिल्म से जुड़ी सारी रुकावटें दूर हो गई हैं.

अभिनय के अलावा आप ने सिंगिंग में भी हाथ आजमाया है?

जी हां, फिल्मों में अभिनय के साथसाथ मैं सिंगिंग को ले कर भी काफी उत्साहित थी. मेरे 2 म्यूजिक वीडियो भी आए थे, जिस में मैं ने अभिनय के साथसाथ गायन में भी हाथ आजमाया था. अली हैदर के म्यूजिक वीडियो ‘चांद सा मुखड़ा’ में भी नजर आई थीं. अभी तक मैं ने 9 म्यूजिक वीडियो और 3 एलबम ‘पू फौर यू’, ‘मेक मी होम बेबी’ और ‘पू क्या जलवा’ आ चुके हैं.

भविष्य की क्या योजनाएं हैं?

हालफिलहाल तो मैं 2जी स्कैम के अपने महत्त्वाकांक्षी प्रोजैक्ट पर पूरी तरह से फोकस कर रही हूं. इस के अलावा कुमार मंगत की फिल्म ‘मुठभेड़ : द प्लैंड एनकाउंटर’ साइन की है. साथ ही, कुछ रीजनल फिल्मों का निर्माण करने की भी योजनाएं हैं. और हां, प्रभुदेवा की निर्देशित फिल्म ‘आर…राजकुमार’ में भी बड़ा दिलचस्प किरदार निभाने का मौका मिला है.                      

भीड़ से घबराना कैसा

अकेलेपन से दूर भीड़ सभी को अच्छी लगती है. हर कोई भीड़ से घिरा रहना चाहता है क्योंकि भीड़ जीवन का हिस्सा है और भीड़ हम से आप से ही बनती है. लेकिन भीड़ के अनेक चेहरे होते हैं. जीवन में भीड़ के चेहरे को पहचान कर कैसे करें उस का सामना, बता रही हैं अंजली गुप्ता.

भीड़ की परेशानियों से हम सभी वाकिफ हैं. यहां तक कि स्कूल में पढ़ने वाले छोटेछोटे बच्चे भी भीड़ की पीड़ा को महसूस करते हैं जब उन्हें बस में धक्के खाने पड़ते हैं. मातापिता के लिए यह भीड़ तब और कष्टदायक हो जाती है जब उन्हें अपने बच्चे के लिए स्कूलकालेजों में दाखिला दिलाना होता है.

परिवार नियोजन के नारे ‘हम दो हमारा एक’ के बाद भी हर जगह भीड़ बढ़ती ही जा रही है. आवास के लिए, राशन के लिए, नौकरी के लिए, दाखिले के लिए, रेलवे आरक्षण के लिए, डाकघर में, बैंक में, दफ्तर में, सड़क पर, बस में, पार्क में जहां देखिए हर जगह भीड़ से परेशान लोग हैं और भीड़ में रहने को मजबूर भी हैं. वैसे अब तो यह भीड़ एक तरह से हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है.

यहां हम बात करेंगे उस भीड़ की जिस का सामना हमें अचानक करना पड़ता है या जो भीड़ अवसर विशेष पर जमा होती है और फिर बरसाती बादल की तरह छंट जाती है, जैसे मेले, खेलतमाशे की भीड़, आक्रामक भीड़, उग्र भीड़, पिक्चर हौल की भीड़, रेलवे प्लेटफौर्म की भीड़ आदि.

डरें नहीं मुकाबला करें

उग्र भीड़ के पास सोचनेसमझने की शक्ति नहीं रहती. वह ‘करो या मरो’ वाली स्थिति में रहती है. चूंकि इस भीड़ का अपना आक्रोश जाहिर करने का तरीका आक्रामक होता है इसलिए निशाना कोई भी हो सकता है. भीड़ का यह रूप ज्यादातर पहले से नियोजित होता है कि आज फलांफलां जगह जमा होना है. फिर उस विचार से सहमत लोग उस जगह जमा हो जाते हैं. इस में प्रवेश के लिए कोई प्रतिबंध नहीं होता.

भीड़ का एक और रूप आक्रामकता भी है. इस भीड़ का शिकार निश्चित होता है वह चाहे व्यक्ति हो, चाहे समूह विशेष.

यह भीड़ किसी भी तरह अपने शिकार को अधिक से अधिक शारीरिक, आर्थिक नुकसान पहुंचाना चाहती है, भले ही उस भीड़ की अपने शिकार से कोई जानपहचान या दुश्मनी न हो. जैसे, आप गाड़ी चला रहे हैं और आप की गाड़ी से कोई दुर्घटना हो जाती है या कोई साइकिल, स्कूटर चालक अपनी गलती से आप की गाड़ी से टकरा जाता है. यहां आप की कोई गलती नहीं है पर चूंकि चोट साइकिल या स्कूटर चालक को लगती है इसलिए दुर्घटना के आसपास के लोगों की सहानुभूति उस के साथ होती है और गलती न होते हुए भी उन्हें आप की गलती नजर आने लगती है. फलस्वरूप, देखते ही देखते आप के आसपास भीड़ जमा हो जाती है, जो आप को शारीरिक चोट पहुंचा सकती है. यह भी हो सकता है कि आर्थिक हानि पहुंचाने के लिए भीड़ गाड़ी की तोड़फोड़ कर दे.इस भीड़ का एक रूप सांप्रदायिक दंगों के समय भी देखने को मिलता है जब भीड़ के रूप में जमा एक संप्रदाय के लोग दूसरे संप्रदाय के लोगों की हत्या, मारपीट और आगजनी आदि करना चाहते हैं.

रेलवे स्टेशन की भीड़ से भी सभी वाकिफ होंगे. रेलगाड़ी रुकते ही उतरने वाले तो जल्दी से उतरना चाहते हैं, चढ़ने वाले भी चढ़ने में जल्दबाजी करते हैं. इस ‘पहले हम पहले हम’ वाली भीड़ से मुकाबला करना बहुत कठिन है.

आज के हालात को देखते हुए यह कहना बहुत मुश्किल है कि कब घर का कोई सदस्य भीड़ में कहां फंस जाए क्योंकि लोग स्वभाव से काफी उग्र हो गए हैं और उन की प्रवृत्ति भी आक्रामक हो गई है. यहां किसी भी तरह की भीड़ में फंसने पर सब से जरूरी बात है उस में से सुरक्षित निकलना. इस के लिए आप को भीड़ से मुकाबला करना पड़ेगा. आजकल व्यक्ति के उग्र होने के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण है, अपने अधिकारों के प्रति सजगता. इसलिए पता नहीं चलता कि कब व्यक्तियों का कोई हुजूम उग्र भीड़ का रूप ले ले.

यह भीड़ एक तरह से पागल भीड़ होती है. इस के पास सोचनेसमझने की शक्ति नहीं होती. यह सोचती है कि जो उस के विचार हैं वे सही हैं और जो भी वह कर रही है वह ठीक है. इस में सब एकमत होते हैं. उग्र भीड़ को सांप्रदायिक सद्भावना या अहिंसा और शांति के विचारों से प्रभावित नहीं किया जा सकता यानी कि एकसाथ पूरी भीड़ की सोच को फौरन बदल पाना असंभव है.

आक्रामक भीड़ में शामिल सभी लोग इस सच को जानते हैं कि वे आपस में एकदूसरे को नहीं मारेंगे. उन्हें सिर्फ अपने निशाने को ही नुकसान पहुंचाना है इसलिए अपनी सुरक्षा के प्रति वे निश्ंिचत होते हैं. चिंता तो उस व्यक्ति को होती है जो भीड़ में घिरा होता है क्योंकि घिरा हुआ वह खुद है, इसलिए मुकाबला भी उसी को करना है. इसलिए चौकन्ना भी उसी को रहना पड़ेगा.

सावधानी की जरूरत

अपने जीवन में हमें एक और तरह की भीड़ का भी सामना करना पड़ता है और वह है मेले, खेलतमाशे या नुमाइश की भ्ीड़. ऐसी भीड़ में जब हम फंसते हैं तो हमें पता होता है कि हम भीड़ में फंसने वाले हैं. अब अगर ऐसे में किसी के साथ कोई हादसा हो जाए तो उस के ?लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए, भीड़ को या खुद को?

खेलतमाशों की भीड़ से मुकाबले की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि यहां अधिकतर लोग मनोरंजन के लिए आते हैं. हां, ऐसी जगहों पर गिरहकटों से जरूर सावधान रहना चाहिए अन्यथा वे चुपचाप अपना काम कर जाएंगे और आप का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाएगा. औरतें मेले जैसी भीड़ वाली जगहों पर गहनों के प्रदर्शन का मोह त्याग दें तो घूमने का अधिक लुत्फ उठा सकेंगी. खुद ही नहीं बल्कि साथ के लोग भी निश्ंिचत हो कर मेले का भ्रमण कर सकेंगे.

छोटे बच्चों को भीड़ में कभी भी अकेले न छोड़ें. सदा गोद में ही रखें और थोड़े समझदार बच्चों को वह स्थान अच्छी तरह समझा दें, साथ ही घर का पता, फोन नंबर वगैरह लिख कर उस की जेब में डाल दें. बेहतर है कि भीड़ वाली जगहों पर अपना समूह बना कर ही जाएं. मनोरंजन के लिए निकले हैं तो भीड़ से क्या घबराना. पर मुकाबले को तैयार रहें.

एक थी काबुलवाले की बंगाली बीवी

मुल्क कोई भी हो, धर्म के ठेकेदारों का हैवानियत भरा नंगा नाच एक ही शक्ल का होता है. देश में डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के तौर पर दिखा तो अफगानिस्तान में मजहबी जनूनियों ने सुष्मिता बनर्जी को भून डाला. पढि़ए साधना शाह का लेख.

अंधविश्वासियों ने भारत में मानवता के हितैषी डा. दाभोलकर को मौत के घाट उतार दिया तो अफगानिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने तालिबानी सोच से लोहा ले रही सुष्मिता को गोलियों से छलनी कर दिया. ‘एस्केप फ्रौम तालिबान’ फिल्म से पूरे देश में ख्यातिप्राप्त करने वाली एक काबुलीवाले की बंगाली बीवी सुष्मिता बनर्जी उर्फ साहिब कमाल बनर्जी (अफगानी नाम) को पिछले दिनों तालिबानियों ने घर से बाहर निकाल कर गोलियों से छलनी कर दिया.

इसी साल मार्च में वे अपने ससुराल अफगानिस्तान वापस लौट गई थीं और काबुल में स्वास्थ्यकर्मी के रूप में काम कर रही थीं. साथ ही, तालिबानियों के खिलाफ एक बार फिर से अपनी आवाज बुलंद करने की तैयारी में भी लगी हुई थीं. इस बीच 4 सितंबर की रात उन की हत्या कर दी गई.

रहस्य की गुत्थी

परिजनों को इस हत्या में रहस्य का अंदेशा है, क्योंकि सुष्मिता की हत्या के बाद भी उस के ससुराल वालों ने यहां एक बार फोन तक नहीं किया. हादसे के 2 दिन बाद जांबाज खान (सुष्मिता के पति) से बात हुई, पर उस ने वही सब बयां किया, जिस की खबर विदेशी मीडिया से कोलकाता में परिवार को मिल चुकी थी. जांबाज ने यह भी बताया कि मदरसे के पास जहां सुष्मिता की लाश पड़ी थी, वहां से लाश को घर ला कर फिर उसे कब्रिस्तान ले जा कर दफन कर दिया गया.

इधर, परिवार को कोलकाता में सुष्मिता की फेसबुक मित्र से पता चला कि 5 सितंबर को चैटिंग करते हुए उस ने कोलकाता के लिए रवाना होने की बात की थी. सारा सामान वह पैक कर चुकी थी. फिर 4 सितंबर को रात डेढ़ बजे हत्या की बात कैसे की जा रही है. सुष्मिता के भाई गोपाल बनर्जी प्रशासनिक कार्यवाही पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि स्थानीय पुलिस ने लाश का पोस्टमार्टम भी नहीं करवाया और उसी दिन 4 सितंबर को लाश दफन कैसे कर दी गई? सो, सुष्मिता का परिवार मामले की जांच की मांग कर रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने परिवार को मदद देने का आश्वासन दिया है.

तालिबानी निशाने पर

सुष्मिता ने हालांकि धर्मपरिवर्तन कर अपना नाम साहिब कमाल रख लिया था लेकिन बुरका और परदा प्रथा से समझौता करने को वे तैयार नहीं हुईं. यह वह समय था जब अफगानिस्तान में एक तरफ सोवियत सेना की कार्यवाही चल रही थी तो दूसरी तरफ मुजाहिदीन के लड़ाके अपनी लड़ाई लड़ रहे थे. इस के बाद 1993 में तालिबानी ताकत ने सिर उठाया. हर महिला को बुरका पहनने का फरमान जारी किया गया. सुष्मिता ने इस फरमान को बारबार अंगूठा दिखाया और ‘बेपरदा’ घर से बाहर निकलती रही. तालिबानी धमकी की यहीं से शुरुआत हुई और फिर जांबाज खान के रूढि़वादी परिवार ने भी सुष्मिता पर बहुत सारी बंदिशें लगा दीं.

ऐसे में सुष्मिता ने अफगानिस्तान से निकल जाने का पूरी तरह से मन बना लिया. चोरीछिपे वे पाकिस्तान पहुंच गईं. पर पासपोर्ट और वीजा न होने के कारण उन्हें अफगानिस्तान वापस भेज दिया गया. उस के बाद उन्हें ससुराल में नजरबंद कर दिया गया. पर जिद्दी सुष्मिता ने हार नहीं मानी और काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार 1995 में वे स्वदेश लौट आई थीं.

काबुली प्रेम की बलि

वर्ष 1988 में सुष्मिता बनर्जी एक अफगानी युवक जांबाज खान के प्रेम में गिरफ्तार हुईं और 1989 में जांबाज खान के साथ निकाह कर के कोलकाता से काबुल के लिए रवाना हुईं. काबुल से लगभग 200 किलोमीटर दूर पाकतिका प्रदेश के सरायकाला नामक गांव में दोनों ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की. इस के बाद की कहानी पूरी दुनिया ‘एस्केप फ्रौम तालिबान’ की बदौलत जान चुकी है.

गौरतलब है कि यह किताब सर्वाधिक बिक्री की फेहरिस्त में अपनी पुख्ता जगह बना चुकी है और देशीविदेशी कई भाषाओं में अनूदित भी हो चुकी है. बहरहाल, सुष्मिता के बहुचर्चित मूल उपन्यास ‘काबुलीवालार बंगाली बऊ’ के प्रकाशक स्वप्न विश्वास कहते हैं कि इस किताब ने 7 लाख प्रतियों की बिक्री का रिकौर्ड बनाया है. स्वप्न विश्वास बताते हैं कि इन दिनों सुष्मिता की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. इस के कारण कुछ महीने पहले मध्य कोलकाता के अपने फ्लैट को उन्हें बेच देना पड़ा था.

सुष्मिता के भाई गोपाल बनर्जी, जो कोलकाता के उपनगर बागुईहाटी में बिल्डर हैं, का कहना है कि खुद परिवार के पास भी खबरें छनछन कर आ रही हैं. अफगान पुलिस के हवाले से किसी विदेशी मीडिया के जरिए पता चला कि जांबाज खान समेत पूरे परिवार को बांध कर तालिबानी सुष्मिता को घसीटते हुए घर से बाहर ले गए और फिर गोलियों से भून डाला. लगभग 20 गोलियां मारने के बाद वे करीब के एक मदरसे में सुष्मिता को फेंक कर चले गए. सुनने में यह भी आया है कि तालिबानियों ने बड़ी कू्ररता के साथ सुष्मिता के सिर के बालों को भी कई जगह से नोच दिया था.

गोपाल बताते हैं कि परिवार में कोई नहीं चाहता था कि वे फिर से वहां जाएं, पर वे नहीं मानीं. लेकिन सुष्मिता की किताबों के प्रकाशक स्वप्न विश्वास का कहना है कि दरअसल, सुष्मिता एक नए उपन्यास की तैयारी में थी और इस के लिए तथ्य जुटाने के मकसद से ही वह महज 6 महीने के लिए अफगानिस्तान गई थी.

वह तालिबानी शासन में अफगानी महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक बदहाली से बखूबी परिचित हो चुकी थी. काफीकुछ उस ने खुद भोगा भी था. लेकिन अफगानिस्तान में करजई सरकार के शासन में महिलाओं की स्थिति में कितना कुछ बदलाव आया है, यह जानना ही उस के वहां जाने का मकसद था.

सुष्मिता के एक चचेरे भाई रंजन बनर्जी कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफैसर हैं. वे कहते हैं, ‘‘सुष्मिता ने डाक्टरी की पढ़ाई बेशक नहीं की थी लेकिन अफगानिस्तान में रहते हुए उस ने डाक्टरी की बहुत सारी किताबों को पढ़ा और वहां आसपड़ोस की महिलाओं की छोटीमोटी बीमारियों का वह छिटपुट इलाज भी किया करती थी. उस के योगदान को देखते हुए कुछ साल पहले वहां स्वास्थ्यकर्मी की नौकरी के लिए उस के पास बाकायदा प्रस्ताव भी आया था लेकिन उस प्रस्ताव को सुष्मिता ने खारिज कर दिया था.

‘‘अब चूंकि उसे अपने नए उपन्यास पर काम करना था और करजई शासन में, वहां की नई स्थितियों का जायजा लेना था इसीलिए उस ने एक पंथ दो काज का रास्ता अपनाया और स्वास्थ्यकर्मी की नौकरी ले कर वहां के लिए रवाना हुई. काम के दौरान एक मूवी कैमरा वह हमेशा अपने साथ रखती थी और वहां की महिलाओं की स्थिति को कैमरे में कैद करती जा रही थी.’’

अफगानिस्तान प्रेम में बगावत

सुष्मिता के परिजन बताते हैं कि जब 1988 में सुष्मिता घर वालों से बगावत कर के पहली बार अपने ससुराल अफगानिस्तान गई थी, तब उस के भीतर उस देश के प्रति बहुत सारी जिज्ञासाएं थीं. परिजनों का यह मानना है कि सुष्मिता में साहस, संकल्प, जिज्ञासा और जिद कूटकूट कर भरी हुई थी और यही उस के जीवन की थाती थी. अफगानी से प्रेम के लिए मातापिता से बगावत के कारण बाकायदा उस की मारकुटाई हुई. पर जांबाज के साथ दांपत्य का संकल्प उस ने नहीं छोड़ा. बंगाल के प्रगतिशील समाज से निकल कर वहां के रूढि़वादी समाज में पहुंच कर उसे बड़ा झटका लगा.

काबुलीवालों का अपराधबोध

सुष्मिता बनर्जी तालिबान शासन में अफगानी महिलाओं की दुर्दशा पर एक वृत्तचित्र बना रही थी और यही बात तालिबानियों को नागवार गुजरी. कुछ महीने पहले मध्य कोलकाता के काबुलीवाले महल्ले में रह रहे सुष्मिता के देवर जहांगीर खान की हत्या कर दी गई थी. लेकिन इस हत्या की गुत्थी पुलिस आज तक नहीं सुलझा सकी है. बताया जाता है कि इस हत्या में तालिबानियों का ही हाथ था. इस के बाद सुष्मिता को भी फोन पर लगातार जान से मारने की धमकियां मिलने लगी थीं. पर उसे इन बातों की कहां परवा थी. घरपरिवार के बारबार मना करने के बाद भी इसी साल मार्च में वह अपने पति के साथ काबुल चली गई थी.

बंगाल की लड़कियों का काबुलीवाले से प्रेमलगाव बहुत पुराना है. रवींद्रनाथ ठाकुर का उपन्यास ‘काबुलीवाला’ को जरा याद कीजिए. मीना को काबुलीवाले और काबुलीवाले को मीना से कितना लगाव था. पर अफगानिस्तान में सुष्मिता की हत्या के बाद काबुलीवाला महल्ला शर्मसार है. अफगानिस्तान के जलालाबाद का शेरखान, जो कोलकाता की इलियटी रोड इलाके में रहता है, भी सुष्मिता के अंजाम से शर्मसार है. वहीं पख्तून प्रदेश का निवासी आमिर खान एक बंगाली लड़की से ब्याह कर यहीं बस चुका है. आमिर अपनी बीवी को ले कर कभी अफगानिस्तान नहीं लौटने का फैसला कर चुका है.

अफगानिस्तान के पाकतिका राज्य के गवर्नर मोखलस अफगान ने अपने बयान में सुष्मिता के जज्बे को सलाम करते हुए कहा है कि धर्म बदल कर सुष्मिता ने अफगानिस्तानी युवक से निकाह किया और उस प्रेम का ही तकाजा था कि वह स्वदेश छोड़ कर यहां की हो गई. उस की हत्या से अफगानिस्तान का सिर हमेशा के लिए झुक गया है.

अफगानी गवर्नर का बयान वास्तव में मानवता का ही परिचायक है. दरअसल, तालिबानी हैवानियत की गिरफ्त में वहां इंसानियत की सांस, बस, आजा रही है.

पाठकों की समस्याएं

मैं 25 साल का युवक हूं और एक लड़की से 3 साल से प्यार करता हूं. वह भी मुझे बहुत प्यार करती है. हम दोनों एक ही जाति के हैं और शादी करना चाहते हैं. समस्या यह है कि मैं लड़की के मातापिता से इस बारे में बात करने से डरता हूं क्योंकि सुना है कि वे गुस्से वाले हैं. हालांकि लड़की की मां अच्छी हैं पर डरता हूं कि कहीं वे हमारे प्यार की बात अपने पति से करें और वे नाराज हो कर हमारे रिश्ते की बात से इनकार कर दें. क्या करूं? उचित सलाह दें.

जब आप ने प्यार किया है तो इस बारे में लड़की के मातापिता से खुल कर बात करें और आप अगर अपने पैरों पर खड़े हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं तो इस बात के लिए भी दिमागी रूप से तैयार रहें कि अगर लड़की के मातापिता रिश्ते से इनकार कर देते हैं तो आप परिवार वालों की इच्छा के खिलाफ भी उस लड़की से शादी कर के उस के साथ अलग रह लेंगे. तभी इस रिश्ते को आगे बढ़ाएं वरना इस रिश्ते के बारे में सोचना बंद कर दें.

 

मैं रेलवे में गार्ड की नौकरी करता हूं. मेरे औफिस में कार्यरत एक लड़की ने पहले स्वयं को बेसहारा बता कर मुझ से दोस्ती की और बाद में शादी का प्रस्ताव रखा. पहले मैं ने इनकार कर दिया लेकिन जब वह अपनी मजबूरियां बता कर रोने लगी तो भावुक हो कर मैं ने हां कर दी. शहर में अकेला होने के कारण वह लड़की मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहने लगी. इस दौरान पता चला कि लड़की का किसी अधिक उम्र के विवाहित पुरुष के साथ पिछले 10 वर्षों से नाजायज संबंध है और उस के गलत चालचलन के कारण ही उस के परिवार वालों ने उस से रिश्ता तोड़ा था. अब मैं उस लड़की से हरगिज शादी नहीं करना चाहता और मैं ने वकील से एक एफिडेविट भी बनवा लिया है जिस में उस लड़की ने खुद लिखा है कि उस का किसी और के साथ संबंध है और वह मुझ से शादी करने से इनकार करती है. इस के बावजूद वह लगातार मुझ पर शादी के लिए दबाव डाल रही है. मैं क्या करूं, उचित सलाह दें?

पहली गलती तो आप ने यह की कि भावुकता में आ कर उस को अपने साथ रहने की स्वीकृति दे दी. अब जब आप को उस के अवैध संबंधों का पता चला है तो आप कानूनी दांवपेंच खेल रहे हैं. ऐसे मामलों में एफिडेविट का कोई मतलब नहीं होता. अब अगर आप उस लड़की से शादी कर सकते हैं तो कर लें. जहां तक किसी अन्य पुरुष के साथ संबंधों की बात है तो आप से विवाह के बाद वे संबंध अपनेआप समाप्त हो जाएंगे. आप से शादी का दबाव भी शायद वह इसलिए डाल रही हो कि उस को आप से लगाव हो गया हो, वह आप के साथ अपनी जिंदगी गुजारना चाहती हो.

 

मैं कालेज का छात्र हूं. जब भी मैं पढ़ने बैठता हूं, पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता. सुबह सोचता हूं रात को पढ़ूंगा, रात को सोचता हूं, सुबह होते ही पढ़ूंगा. पढ़ाई बिलकुल नहीं हो पा रही, मेरी परीक्षाएं भी नजदीक आ रही हैं. समझ नहीं आ रहा, क्या करूं?

पढ़ाई में आप का मन न लगने का कारण शायद आप के द्वारा गलत विषय का चुनाव करना है. हो सकता है जो विषय आप ने चुना है वह आप की रुचि का न हो और आप को उस को पढ़ने में मजा न आता हो. इसलिए समय रहते अपनी पसंद का विषय चुनें और मन लगा कर पढ़ाई करें. विषय जब आप की रुचि और पसंद का होगा तो आप का खुदबखुद पढ़ाई में मन लगने लगेगा.

 

मैं 32 वर्षीय युवक हूं. भाई के विवाह को 2 वर्ष हो चुके हैं लेकिन मेरा विवाह अभी तक नहीं हुआ है. विवाह न होने के कारण मैं घर में अकेलापन महसूस करता हूं, एक साथी की जरूरत महसूस होती है और साथी के अभाव में मन पागल सा रहता है, मन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा. घर वालों से इस बारे में बात करता हूं तो वे कहते हैं कोई अच्छी लड़की मिलेगी तो विवाह कर देंगे.

आप की विवाह की चाहत या साथी की जरूरत स्वाभाविक है, लेकिन विवाह न होने का अर्थ यह नहीं कि आप खुद पर नियंत्रण खो दें. आत्मनिर्भर हैं, अपने विवाह के लिए अपने परिवार वालों पर निर्भर रहने के बजाय आप अपने फ्रैंड सर्कल, औफिस में अपनी पसंद का जीवनसाथी खुद ढूंढ़ें. अपने पहनावे, व्यवहार, बातचीत के तरीके में बदलाव लाएं, हो सकता है आप के विवाह में देरी का कारण इन में से कोई हो.

 

मैं 25 वर्षीया विवाहिता हूं. पति की दूसरी शादी है जबकि मेरी पहली. शादी को 3 साल हो चुके हैं. पति का 15 साल का एक बेटा भी है. पति की आयु 41 वर्ष है. मेरी समस्या यह है कि पति कभी भी सैक्स के लिए खुद पहल नहीं करते. क्या हमारे बीच आयु का अंतर तो इस का कारण नहीं? मुझे पति का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता.

आप व्यर्थ ही इस बात को ले कर परेशान हो रही हैं. पति सैक्स के लिए पहल नहीं करते तो उन में थोड़ा सा अपराध भाव हो सकता है. अगर आप के पहल करने के बाद वे सैक्स में रुचि दिखाते हैं तो परेशानी की कोई बात नहीं है. उन के इस व्यवहार के पीछे हो सकता है उन की मंशा आप की इच्छाओं का सम्मान करना हो और वे आप के साथ आप की इच्छा के विरुद्ध सैक्स न करना चाहते हों. पति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए आप उन के साथ कुछ समय दिन में भी अकेले में बिताएं. जिस दिन आप उन से सैक्स चाहती हों, उस दिन सुबह या शाम से ही उन से थोड़ी सैक्सी फ्लर्टिंग कर के देखें ताकि वे आप से खुल जाएं.

 

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