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गरीबी के राजदार सोना, मंदिर और कालाधन

देश की बदहाल अर्थव्यवस्था पर घडि़याली आंसू बहाने वाली सरकार और आमजन जानबूझ् कर यह समझ्ने को तैयार नहीं हैं कि हमारे मुल्क की गरीबी  मंदिरों के तहखानों में कैद है.  सोना और कालेधन, चाहे वे स्क्रैप में तबदील  क्यों न हो जाएं, को जमा करने या छिपाने की मानसिकता क्या रंग दिखा रही है, बता रहे हैं लोकमित्र.

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिलांतर्गत आने वाले डौंडियाखेड़ा गांव में सोने के जिस खजाने का सपना एक साधु शोभन सरकार द्वारा देखा गया था, वह सपना दम तोड़ चुका है. पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) को डौंडियाखेड़ा स्थित राजा राव रामबख्श सिंह के किले में खुदाई के दौरान कुछ भी हासिल नहीं हुआ. लेकिन सोने के प्रति हिंदुस्तान की सनातनी ख्वाहिश आज भी जहां की तहां खड़ी हुई है.

वास्तव में सोने के प्रति हिंदुस्तान की यह आसक्ति भी देश की दरिद्रता के लिए किसी हद तक जिम्मेदार है. यह तो पिछले महीनों में डौलर के विरुद्ध रुपए की ऐतिहासिक टूटन से पैदा हुआ डर था, जिस के चलते वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सोना आयात पर कड़े प्रतिबंध लगाए और सोने की मांग तथा खपत में कुछ कमी आई नहीं तो 32 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम की कीमत के बावजूद लोगों में धनतेरस पर सोना खरीदने की जो ललक देखी गई, वह डरावनी है.

धर्मभीरु सरकारें

वास्तव में इस साल की शुरुआत में पहली बार रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने धार्मिक संवेदनाओं की परवा किए बिना एक सही बात कही थी कि मंदिरों में सोना चढ़ाना देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक है. हालांकि देश के अर्थशास्त्री यह बात हमेशा से जानते रहे हैं और कई इस संबंध में खुल कर कहते भी रहे हैं.

भारत में भले ही संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्षता का विधान हो लेकिन हकीकत में सभी सरकारें धर्मभीरु रही हैं या राजनीतिक वजहों से धार्मिक मसलों से डरती रही हैं. इसलिए न तो केंद्र सरकार ने और न ही किसी राज्य सरकार ने कभी मंदिरों में सोना चढ़ाए जाने पर पाबंदी लगाई है और न ही लोगों से ऐसा करने का आह्वान किया है.

मगर हां, जिस तरह से वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सोने के आयात पर टैक्स लगाने की बात कही और फिर आयात शुल्क 400 फीसदी तक बढ़ाया, उस से पता चलता है कि हिंदुस्तानियों का सोने के प्रति मोह अर्थव्यवस्था के लिए कितना घातक है. शायद उसी से उत्साहित हो कर रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने वह बात कही जो सालों पहले न सिर्फ कहनी चाहिए थी बल्कि मंदिरों में सोने के चढ़ाए जाने पर पाबंदी भी लगाई जानी चाहिए थी.

दरअसल, सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, हिंदुस्तान के सभी धार्मिक स्थलों में सोना चढ़ाने का रिवाज है. देश में सोने के लिए जो मारामारी बनी रहती है और सोने की बिक्री में किसी भी तरह की तेजी का कोई असर नहीं पड़ता, उस के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है. यह अकारण नहीं है कि पिछले साल यानी 2012 में जहां पूरी दुनिया में सोने की मांग महज 1.2 फीसदी रही, वहीं भारत में 30 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम की ऐतिहासिक कीमत पर पहुंच जाने के बावजूद सोने की मांग 11 फीसदी रही.

भारत में अप्रैल से अक्तूबर 2012 में ही सोना 398 टन आयात किया गया, जबकि पूरी दुनिया में कुल 500 टन से कम सोने का विभिन्न देशों द्वारा आयात किया गया. इस साल सोना 32 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम के ऊपर भी काफी दिनों तक रहा फिर भी मांग बनी रही. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी सोने को ले कर ललक किस हद तक है.

स्क्रैप बनता सोना

मंदिरों में सोना चढ़ाए जाने का खमियाजा देश की अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ रहा है. हर साल अमूमन 300 टन सोना स्क्रैप के रूप में देश में जमा हो रहा है और इस में बड़ी भूमिका देश के बड़े धार्मिक स्थलों की है जिन में मुख्यरूप से मंदिर हैं. वास्तव में स्क्रैप के रूप में हर साल जमा हो रहा सोना देश की अर्थव्यवस्था पर न सिर्फ एक बड़ा बोझ् है बल्कि यह सक्रिय पूंजी को निष्क्रिय पूंजी में बदलने वाली सब से बड़ी समस्या है.

दरअसल, सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, घरों में भी बहुत बड़े पैमाने पर सोना टूटेफूटे गहनों या पुराने गहनों के रूप में मौजूद है. लोग उसे 2 वजहों से बेचते नहीं हैं और न ही अपनी खरीदफरोख्त का जरिया बनाते हैं कि उस से अर्थव्यवस्था में रफ्तार हासिल की जा सके. एक बड़ी वजह तो भविष्य के प्रति असुरक्षा की है. लोगों को लगता है कि जब संकट आएगा तो यह सोना हमारे काम आएगा. गलत भी नहीं है. लेकिन बड़ी और दूसरी प्रमुख बात यह है कि जब आप गहने बेचने जाते हैं तो दुकानदार आप को आधे से भी कम कीमत देता है और सरकार की कोई ऐसी एजेंसी नहीं है जो घरों में पड़े सोने को वाजिब कीमत पर खरीद ले.

जमाखोरी और कालाधन

देशभर में 10 लाख से ज्यादा धार्मिक स्थल हैं. वैसे धार्मिक स्थलों की संख्या इस से भी ज्यादा हो सकती है. इस की वजह यह है कि देश में 6,53,785 गांव हैं और शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां औसतन 1.5 धार्मिक स्थल न हों. कहने का मतलब यह है कि 2 गांवों में कम से कम 3 धार्मिक स्थल तो होते ही हैं. इन में शहरों में मौजूद मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारों या गिरजाघरों की संख्या शामिल नहीं है.

यह तय बात है कि देश के सभी धार्मिक स्थलों की संख्या भी सैकड़ों में है जहां औसतन 1 लाख रुपए हर दिन की आय है. आखिर हम ब्लैक मनी या काला धन कहते किसे हैं? वह धन जिस पर टैक्स न दिया गया हो और वह धन जो सरकारी निगरानी से बाहर हो. धार्मिक स्थलों की कमाई तकरीबन इन दोनों ही शर्तों को पूरा करती है. भले ही कुछ गिनेचुने धार्मिक स्थलों की कमाई का ब्योरा रखा जाता हो, लेकिन ज्यादातर धार्मिक स्थलों की कमाई का कोई ब्योरा नहीं रखा जाता और अगर रखा भी जाता होगा तो वह प्रशासन को नहीं बताया जाता, क्योंकि न तो ऐसी कोई कानूनी बाध्यता है और न ही ऐसा चलन. इसलिए धार्मिक स्थलों में होने वाली अंधाधुंध कमाई का अधिकतम हिस्सा ब्लैक मनी में ही तबदील होता है.

देश में हर साल आम हिंदुस्तानियों द्वारा औसतन 25 हजार किलो सोना खरीदा जाता है. इस सोने का लगभग 10 फीसदी किसी न किसी रूप में चढ़ावे में चला जाता है. अगर देश के 10 बड़ी कमाई वाले मंदिरों की ही संपत्ति को जोड़ें तो यह तकरीबन 60 खरब रुपए के आसपास पहुंचती है. अकेले दक्षिण भारत के तिरुअनंतपुरम स्थित स्वामीपद्मनाभ मंदिर की संपत्ति ही 10 खरब रुपए की आंकी गई है और सत्य साईं के मरने के बाद पुट्टापरथी स्थित उन के गुप्त खजाने से कई मन सोना निकला है. जिस से अंदाज लगाया जा सकता है कि कई अरब की संपत्ति तो यहां भी है.

मंदिरों में निष्क्रिय मुद्रा

भारत का कुल बजट 1 लाख करोड़ रुपए का है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में धार्मिक स्थलों में कितनी बड़ी तादाद में संपत्ति मौजूद है जो एक किस्म से ब्लैक मनी है. भारत शायद दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां 10 से 15 फीसदी करैंसी मंदिरों में हमेशा निष्क्रिय अवस्था में पड़ी रहती है.

देश में हर समय 12 लाख से ज्यादा नोट (करैंसी) चलन में रहते हैं. इन में अगर 1 लाख नोट विभिन्न मंदिरों में चढ़ावे के रूप में चढ़ जाते हैं तो अमूमन ये नोट महीनों या सालों निष्क्रिय अवस्था में पड़े रहते हैं.

बड़ेबड़े धार्मिक स्थलों, खासकर मंदिरों में तो फिर भी यह व्यवस्था है कि चढ़ावे में आने वाले नोटों को हर 2-3 दिन के अंदर बैंक में जमा करा दिया जाता है. लेकिन लाखों की तादाद में जो छोटे और मझोले मंदिर हैं, वहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में बड़ी तादाद में चढ़ावे के रूप में मंदिरों में आए नोटों को डंप कर दिया जाता है. देश की अर्थव्यवस्था में इस का नकारात्मक असर पड़ता है क्योंकि अगर चलन में नोटों की संख्या कम हो जाती है तो महंगाई बढ़ने की आशंकाएं पैदा हो जाती हैं.

उधर, इस संबंध में किसी के पास भी यह ठोस जानकारी या अध्ययन नहीं है कि वास्तव में कितनी ब्लैक मनी है जो स्विस बैंकों में जमा है? कोई इसे 27 खरब रुपए तो कोई 63 खरब रुपए बताता है. हां, रामदेव जैसे लोग जरूर इस के 400 खरब रुपए से ऊपर होने की बात कह रहे हैं. लेकिन देश के 10 बड़े मंदिरों की तो घोषित संपत्ति 30 खरब रुपए के ऊपर की बैठती है.

सवाल है धार्मिक स्थलों में बड़े पैमाने पर निष्क्रिय अवस्था में मौजूद इस अकूत संपत्ति का क्या किया जाए? क्या इस संपत्ति पर देश का, कानून का, सरकार का हक है या फिर इन धार्मिक स्थलों के मठाधीशों को ही इस की नियति तय करने का हक है? देश में अभी तक कोई ऐसा कानून नहीं है जो धार्मिक स्थलों में मौजूद संपत्ति के अधिग्रहण की वकालत करता हो लेकिन सरकार के पास यह अधिकार है कि वह किसी भी धार्मिक स्थल को अपने कब्जे में ले सकती है, उस के कामकाज को नियंत्रित कर सकती है, उस में निगरानी का पहरा बिठा सकती है लेकिन हमारी सरकारें भारत के धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद चुनावों और वोटों से इस कदर डरती हैं कि चाहे जिस भी पार्टी या घटक की सरकार सत्तासीन हो, कोई भी धार्मिक मामलों में टांग नहीं अड़ाना चाहता.

स्वामीपद्मनाभ मंदिर से मिले अकूत खजाने पर यों ही जब बहस शुरू हुई और एक पक्ष यह आया कि केरल सरकार इसे अपने कब्जे में ले कर केरल की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करे तो एक बड़े तबके द्वारा इस का विरोध शुरू कर दिया गया. मुख्यमंत्री ओमन चांडी को यह सार्वजनिक बयान देना पड़ा कि मंदिर की संपत्ति की देखरेख मंदिर का बोर्ड ही करेगा. सरकार उसे अपने कब्जे में नहीं लेगी.

विकास में हो खर्च

सवाल है कि देश में खरबों रुपए की जो संपत्ति धार्मिक स्थलों में कुछ लोगों की बंधक बनी पड़ी है, क्या उस का देश के हित में सही उपयोग नहीं होना चाहिए? हम एक ऐसे कालेधन को ले कर व्यग्र हैं, आंदोलनरत हैं जिस के बारे में किसी को ठीकठीक अनुमान ही नहीं है कि वह कितना है? साथ ही, सरकार कालेधन पर श्वेतपत्र जारी करने के बाद भी यह बता पाने की स्थिति में नहीं है या बताना नहीं चाहती कि विदेश में कितना कालाधन है और किस का है? केंद्र सरकार ने बाकायदा सार्वजनिक घोषणा कर दी है कि वह कुछ अंतर्राष्ट्रीय नियमोंकानूनों में बंधे होने के चलते ऐसा नहीं कर सकती.

अगर हम मंदिरों में हर साल चढ़ने वाले सोने को विकास के कामों में खर्च करें तो रातोंरात देश का कायापलट हो सकता है. अगर सिर्फ बड़े धार्मिक स्थलों की ही एक सूची बनाएं तो 3 से 5 हजार मंदिर ही इतना सोना मुहैया करा सकते हैं जिस से सरकार देश का अधिसंरचनात्मक विकास कर सकती है.

इस से देश के विकास की मौजूदा रफ्तार छहगुना तेज हो सकती है. देश में अगर 2000 नई यूनिवर्सिटीज और 80 हजार नए विभिन्न क्षेत्रों के शिक्षण संस्थान खोल दिए जाएं तो देश में न सिर्फ साक्षरता दर तेजी से बढ़ेगी बल्कि हमें जरूरी प्रोफैशनल भी 10 साल के भीतर मिल जाएंगे. आज देश के सभी औद्योगिक और कारोबारी क्षेत्रों में 20 से 22 लाख प्रोफैशनलों की कमी है. एक तरफ जहां देश में 5 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हैं, वहीं डेढ़ से पौने 2 करोड़ कुशल कामगारों, प्रशिक्षित प्रोफैशनलों की भारी कमी है.

देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों से सरकार अगर ईमानदारी से उन की यह संपत्ति बतौर निवेश ले तथा उन्हें इस का जरूरी लाभ दे तो सभी तरह की उच्च शिक्षण की बुनियादी व्यवस्था की जा सकती है. देश के तेजी से विकास के लिए 100 खरब रुपए के बुनियादी निवेश की जरूरत है और इस की बहुत आसानी से धार्मिक स्थल पूर्ति कर सकते हैं.

हिंदुस्तान दुनिया के गरीब देशों की सूची में शुमार है और हमारी अमीरी तमाम मंदिरों के तहखानों में कैद है. अगर देश के धार्मिक स्थलों में मौजूद सोना और चांदी को इकट्ठा किया जाए तो वाकई यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत सोने की चिडि़या है. अगर सरकार इस सोने और चांदी को रिजर्व में रख ले और उस के बदले में इन स्थलों को उतनी ही कीमत का बौंड जारी कर दे तो हमारी अर्थव्यवस्था का मुद्रा आधार बहुत मजबूत हो सकता है.

स्टाइल का दमदार स्टेटमैंट

अगर आप बाजार में एक बढि़या एमपीवी की तलाश में हैं तो एक नजर डालिए अशोक लीलैंड  की कार ‘स्टाइल’ पर. उम्मीद  है स्टाइल का स्टाइल आप को अवश्य लुभाएगा.

व्यावसायिक वाहन बनाने के लिए मशहूर कंपनी अशोक लीलैंड ने जापानी कार निर्माता कंपनी निसान के साथ मिल कर भारतीय बाजार में अपनी पहली एमपीवी कार यानी मल्टीपर्पज व्हीकल कार ‘स्टाइल’ लौंच की है. अशोक लीलैंड कंपनी पहली बार पैसैंजर व्हीकल सिगमैंट में उतर रही है.

स्टाइल का उत्पादन चेन्नई के निकट ओरागदाम स्थित निसान के विनिर्माण संयंत्र में होगा, जहां से निसान ने पहले भी कई कार मौडलों को बाजार में पेश किया है. अशोक लीलैंड की इस बहुउपयोगी श्रेणी की कार की कीमत दिल्ली में एक्स शोरूम 7.49 लाख रुपए होगी. स्टाइल में 75 बीएचपी पावर देने वाला 1.5 लिटर का इंजन है.

चूंकि ‘स्टाइल’ निसान की कार इवालिया के मौडल पर आधारित है इसलिए इवालिया और स्टाइल की तुलना करना जरूरी हो जाता है. माइलेज के मामले में स्टाइल इवालिया से थोड़ा आगे है. जहां स्टाइल 1 लिटर में 19.5 किलोमीटर का माइलेज देगी वहीं इवालिया 19.3 किलोमीटर का माइलेज देती है. ऐसे आर्थिक दौर में, जब ईंधन एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय है, ‘स्टाइल एमपीवी’ भारतीय ग्राहकों को फ्यूल ऐफिशिएंसी देने का वादा करती है. स्टाइल में विश्वस्तरीय इंजन है जो बेहतर ड्राइविंग का अनुभव देता है. स्टाइल की डिजाइनिंग इस तरह की गई है कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्टाइलिंग प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है. इस की बौडी की डिजाइनिंग ऐसी है कि बैठने वालों को पूरे स्पेस के साथसाथ सुरक्षा भी मिलती है. चूंकि इस का फ्लोर नीचा है इसलिए इस में बैठना व उतरना भी आसान है. 7-8 सवारियों की क्षमता वाली इस कार को निजी व व्यावसायिक उद्देश्यों को ध्यान में रख कर डिजाइन किया गया है.

स्टाइल 0-100 केपीएच की रफ्तार मात्र 17 सैकंड में पकड़ लेती है. इस क्षेत्र में यह इवालिया से कुछ सेकंड पीछे है. स्टाइल का स्टीयरिंग हलका है और शहरी सड़कों के लिए बेहतर है, साथ ही इस का क्लच ऐक्शन भी बेहतर है. बाहर से देखने में दोनों कारें एक जैसी दिखती हैं सिवा ग्रिल, फ्रंट बंपर और हैड लैंप्स के.

उम्मीद है बेहतर आकर्षक लुक और दमदार इंजन क्षमता से सजी स्टाइल का स्टाइल ग्राहकों को अवश्य लुभाएगा.

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका बिजनैस स्टैंडर्ड मोटरिंग से

नोटा – उम्मीदवार पसंद नहीं तो वोट नहीं

मतदान के प्रति उदासीन होते मतदाताओं को मताधिकार का इस्तेमाल करते समय उम्मीदवारों को नापसंद करने का अधिकार आखिरकार मिल ही गया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की क्या व क्यों अहमियत है और इस के क्या असर होंगे, यह जानने के लिए पढि़ए साधना का यह लेख.

तकरीबन 9 साल की लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को किसी को भी वोट न देने का अधिकार आखिर दे ही दिया. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में अब एक अलग बटन होगा जिस का नाम नोटा (नन औफ द अबव) होगा. लेकिन इस ‘विशेषाधिकार’ के औचित्य को ले कर कई मतभेद भी हैं.

इस सिलसिले में एक जनहित याचिका लगभग 9 साल पहले दायर की गई थी. याचिका में चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों में से मतदाताओं को कोई भी पसंद न आने पर किसी को भी वोट न देने का अधिकार दिए जाने की बात कही

गई थी. ‘नापसंदगी’ को सांविधानिक अधिकार का दरजा देते हुए कोर्ट ने कहा कि जनप्रतिनिधि कानून की धारा 128, चुनाव अधिनियम (1961) की धारा 41(2), (3) और धारा 49 (ओ) के ही न केवल खिलाफ है, बल्कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार की धारा 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के (1) (क) अनुच्छेद और धारा 21 (स्वतंत्रता का अधिकार) के भी विरुद्ध है.

मतदान के प्रति उदासीनता

इस में कोई शक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को यह ऐतिहासिक अधिकार दिया है. ऐतिहासिक इसलिए कि मतदाताओं के पास जनप्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान का अधिकार तो था, लेकिन उन के पास इस का कोई विकल्प नहीं था. चुनाव क्षेत्र से खड़े होने वाला कोई भी उम्मीदवार पसंद आए या न आए किसी एक को वोट देने की मजबूरी थी. हम सब जानते हैं कि इस समय पूरे विश्व में चुने गए जनप्रतिनिधियों के प्रति मतदाताओं की मनोस्थिति लगभग एक जैसी ही है. पूरी दुनिया में मतदान के प्रति उदासीनता एक गंभीर बीमारी बनती जा रही है. दरअसल, जनप्रतिनिधियों के रवैये से हैरान, परेशान, हताश मतदाता अपने मतदान के अधिकार के प्रति उदासीन होते चले गए हैं.

अन्य देशों की मिसालें

मतदान न करने के अधिकार को ले कर दुनिया में चले अभियान की चर्चा करते हुए कोलकाता के जानेमाने मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता और लोकतांत्रिक अधिकार रक्षा समिति के सदस्य सुजात भद्र बताते हैं कि न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में इस तरह का आंदोलन समयसमय पर चलता रहा है. इस के मद्देनजर 27 सितंबर, 2011 को न्यूयार्क टाइम्स ने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की.

इस से पूरे विश्व में मतदाताओं के मन में चुनाव के जरिए जनप्रतिनिधि चुनने की प्रक्रिया के तहत मतदान के प्रति उदासीनता के साथ एक विशेष तरह का नाराजगी का भाव देखने में आया. सर्वेक्षण से साफ हुआ है कि चुन लिए जाने के बाद जनप्रतिनिधियों के रवैये में आई तबदीली के कारण ही दुनिया के विभिन्न देशों में होने वाले चुनाव में मतदान का प्रतिशत दिनोंदिन घटता जा रहा है. मतदान प्रतिशत के ग्राफ को ऊपर ले जाने की गरज से बेल्जियम, लक्जमवर्ग, साइप्रस, ग्रीस जैसे लोकतांत्रिक देशों में मतदान का नियम बाध्यतामूलक कर दिया गया.

आस्टे्रलिया में वर्ष 1924 से मतदान बाध्यतामूलक रहा है लेकिन अब यहां भी इस बाध्यतामूलक नियम को रद्द किए जाने की मांग उठने लगी है.

1991 में स्वेटिक नामक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने बेलारूस में वोट न देने के अधिकार के सिलसिले में जनमत तैयार करने में अपनी जीजान लगा दी. इस के लिए उसे सरकार ने सजा सुनाई. तब यह मामला राष्ट्रसंघ तक पहुंचा. वर्ष 2004 में दक्षिण अफ्रीका में भी मतदान के बहिष्कार का आंदोलन चला. मतदान बहिष्कार का आह्वान करते हुए कहा गया कि जिन के पास जमीन नहीं, घरद्वार नहीं उन के लिए मतदान के कोई माने नहीं. इस को ले कर ऐसा प्रचार अभियान चलाया गया कि दक्षिण अफ्रीकी सरकार को दमन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा. तब जा कर मामला काबू में आया. 2009 में मैक्सिको में भी ऐसा ही अभियान चला, जिस ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया. सुजात भद्र कहते हैं कि इस समय विश्व के कम से कम 13 ऐसे देश हैं जहां मतदाताओं को यह ‘विशेषाधिकार’ प्राप्त है.

भारत में सुगबुगाहट

इस मसले को ले कर भारत में भी जागरूकता आई और वोट न देने के अधिकार को ले कर सुगबुगाहट शुरू हो गई. साथ ही, पिछले कुछ सालों में मतदाताओं में मतदान के प्रति उदासीनता देखने को मिली है. देश में एक के बाद एक घोटाले से नाराजहताश नागरिक मतदान का अघोषित बहिष्कार करने लगे. तब मतदाताओं को मतदान केंद्र तक पहुंचाने के लिए कई प्रचार अभियान चलाए गए. सुजात भद्र बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में भी 90 के दशक में मतदान न करने का आह्वान किया गया था और तब भी पुलिस प्रशासन ने प्रचारसामग्री जब्त कर दमन का रास्ता अख्तियार किया था.

हालांकि भारत में अगर कोई मतदान न करना चाहे तो उन के लिए एक नियम जरूर रहा है, जिस के तहत मतदाता औपचारिक रूप से चुनाव के दिन अपने मतदान केंद्र के चुनाव अधिकारी को पत्र लिख कर या 19 नंबर फौर्म भर मतदान में हिस्सा न लेने के लिए आवेदन कर यह छूट हासिल कर सकता है. मतदान गोपनीय मामला है, लेकिन ऐसा करने से व्यावहारिक तौर पर मतदान न देने का उस का फैसला गोपनीय नहीं रहता है.

वहां, जब तक बैलेट पेपर पर मतदान होता था, तब तक कोई उम्मीदवारी पसंद न आने पर कोरा बैलेट पेपर डाल देने या एक से अधिक पार्टी के निशान के आगे ठप्पा लगा कर मतदान को अवैध करने की गुंजाइश थी. लेकिन ईवीएम मशीन आ जाने के बाद इस गुंजाइश पर भी खाक पड़ गई. कहा जा सकता है कि ईवीएम पर मतदान किसी को एक वोट दिलवाने का अघोषित रूप से बाध्यतामूलक तरीका है. ऐसे में मतदान के प्रति उदासीन मतदाता अगर बूथ तक नहीं गया तो फर्जी मतदान की शतप्रतिशत संभावना बन जाती है.

वर्ष 1999 में पहली बार लोकतांत्रिक अधिकार रक्षा समिति की ओर से एक जनहित याचिका कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर की गई थी. लेकिन हाईकोर्ट ने 2000 में याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है इसीलिए इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है.

संशय और सवाल

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा मतदाताओं के पक्ष में फैसला दिए जाने के बाद कुछ हलकों में इस को ले कर न केवल संशय जाहिर किए गए, सवाल उठाए गए, बल्कि इस की आलोचना भी हो रही है.

सुजात भद्र का इस पर कहना है कि राजनीतिक दलों की आलोचना एक हद तक हास्यास्पद ही कही जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने देश पर कोई नया कानून नहीं थोपा है, बल्कि 2 कानूनों-मतदान का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व स्वतंत्रता के अधिकार के मौलिक अधिकार के फर्क की व्याख्या मात्र की है.

हालांकि इस के उलट नजरिया रखने वाले कोलकाता के एक स्कूल शिक्षक शुभ्रांशु कुमार राय कुछ संभावनाओं पर विचार करते हुए कहते हैं कि 5 राज्यों के चुनाव के बाद 2014 में लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में मतदान के दौरान अगर ईवीएम मशीन में ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ का बटन ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं ने दबाया तो हो सकता है कि बहुत ही कम अंतर से कोई जनप्रतिनिधि चुना जाए.

सवाल यह है कि अगर यह पहली संभावना काम नहीं करती है तो दूसरी संभावना यह बन सकती है कि बहुसंख्यकों ने अगर इस विशेष बटन को दबाया तो क्या होगा? क्या उस केंद्र का वोट ही रद्द हो जाएगा? अगर ऐसा होता है तो दोनों ही संभावना लोकतंत्र के लिए सही नहीं होंगी. महंगी चुनाव प्रक्रिया के बाद यह नतीजा, निश्चित तौर पर लोगों के लिए सही नहीं होगा. वैसे भी आजकल तो महज 1 वोट के अंतर से सरकार बनती और गिरती है.

इस संबंध में आशावादी सुजात भद्र का कहना है कि वर्तमान समय में भारत में जिस तरह का राजनीतिक धु्रवीकरण है, ‘नापसंदगी’ को बहुमत मिलने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है.

चुनाव सुधार के मद्देनजर एक और चर्चित मुद्दा है, राइट टू रिकौल का. सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल किसी को भी वोट न देने के अधिकार को स्वीकृति प्रदान कर दी है. संसद या विधानसभा का चुनाव जीत जाने के बाद जनप्रतिनिधियों के अयोग्य साबित होने या भ्रष्टाचार व दंगा करवाने जैसे अपराध में लिप्त होने पर उन्हें वापस बुला लेने के प्रस्ताव ‘राइट टू रिकौल’ के नाम से जाना जाता है, और इस तरह के चुनाव सुधार का प्रस्ताव 15 साल से लंबित पड़ा है. जाहिर है अब इस के लिए जोरदार संघर्ष होगा. आने वाले समय में शायद इसे भी स्वीकृति मिल जाए.

भारत भूमि युगे युगे

ईमानदारी का सट्टा

दिक्कत की बात यह है कि देश के आम लोगों, जिन्हें चुनाव के वक्त पुचकार कर मतदाता कहा जाने लगता है, ने मान लिया है कि राजनीति और ईमानदारी पेट और पीठ की तरह हैं. यानी पूरी ईमानदारी से राजनीति नहीं की जा सकती. पर ईमानदार इस में रहें तो बेईमानी पर अंकुश लगा रहता है.

‘आप’ के रास्ते में आम आदमी की यही उलझन आड़े आ रही है. सटोरियों ने नई दिल्ली विधानसभा सीट पर शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल का लगभग बराबरी का भाव दे रखा है. भाजपा उम्मीदवार विजेंद्र गुप्ता पर तो इस बात को ले कर दांव लगाया जा रहा है कि उन की जमानत बचेगी या नहीं. शीला दीक्षित अपना दामन यथासंभव पाकसाफ रखने में कामयाब रही हैं और सटोरियों की निगाह में उन का भाव अभी कम है यानी संभावनाएं बनी हुई हैं.

 

माया के 3 बंगले

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को याद होगा कि संघर्ष के दिनों में कभी कांशीराम उन के छोटे से घर में रहते हुए बड़ेबड़े कामों को अंजाम देते थे और संतुष्ट भी थे. लेकिन मायावती को दिल्ली के पौश और वीआईपी इलाके लुटियंस जोन में केंद्र सरकार ने 1 या 2 नहीं बल्कि 3-3 बंगले दे रखे हैं. एकदूसरे से सटे इन बंगलों को तुड़वा कर माया ने एक बंगला बनवा लिया है. यह तोड़फोड़ कायदे, कानूनों और नियमों के अनुरूप है.

घरों की जो परिभाषा चलन में है उस के लिहाज से मायावती अकेली हैं और इस रियासतनुमा बंगले में अकेली ही रहती हैं पर यह रियासत इतनी बड़ी भी नहीं है कि इस में उन का विशाल दलित समुदायनुमा परिवार रह सके. देखा जाए तो यह कीमती जमीनों और सरकारी आवासों का दुरुपयोग ही है, जो हो रहा है. कोई क्या कर सकता है?

 

नटगीरी

हवा में झूलते तार पर जब हाथ में डंडा लिए नट चलता है तो देखने वालों की सांसें थम जाती हैं और वे उस की संतुलन क्षमता के कायल हो जाते हैं. यही हालत इन दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की है जो नरेंद्र मोदी की तारीफ करते थकते नहीं और उन्हें हीरो बनाने के लिए खुद हाशिये पर जीवनयापन कर रहे हैं.

जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह या नीतीश कुमार के कहने भर से भाजपा व्यक्तिवादी पार्टी नहीं हो जाती लेकिन राजनाथ सिंह के बयानों से लगता है कि व्यक्तिवादी हो गई है. पर दिक्कत यह है कि लालकृष्ण आडवाणी इस के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं और अनदेखी तो दूर, अपमानित हो कर भी वे पार्टी नहीं छोड़ रहे. शुक्र है, किसी को तो पार्टी की चिंता है.

 

कांग्रेसी संस्कार

8 नवंबर को छठ पूजन पर पश्चिम बंगाल के सूचना व संस्कृति विभाग द्वारा जारी एक इश्तिहार कुछ बड़े हिंदीभाषी अखबारों में भी छपा, जो शोध और चर्चा का विषय रहा. इस में ममता बनर्जी की जगह नाम ममता बंधोपाध्याय छपा था. जानकार ही समझ और समझा पाए कि बंगाली समुदाय में बंधोपाध्याय का मतलब बनर्जी, चटोपाध्याय का चटर्जी और मुखोपाध्याय का मुखर्जी होता है.

आदमियों का समुद्र कहे जाने वाले कोलकाता में भी उत्तर भारतीय खासतौर से उत्तर प्रदेश, बिहार के लोग इफरात से हैं, जिन्हें वोट समझने में ममता ने चूक नहीं की और छठ पूजा की बधाई साहित्यिक भाषा में दे डाली. छठ का व्यवसायीकरण हो गया है और ममता ने भी लोकसभा चुनावों की गोटियां बिछानी शुरू कर दी हैं, जिसे उन का हक ही कहा जाएगा.      

मंगल की ओर भारत

मंगल ग्रह की धरती पर जीवन के क्रमिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका को ले कर विज्ञान जगत में हमेशा से शोध होते रहे हैं. इसी क्रम में भारत ने भी कदम बढ़ाते हुए इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रम के तहत 5 नवंबर को अपना यान मंगल ग्रह पर भेजा. 460 करोड़ रुपए की लागत से तैयार भारत का 1,350 किलोग्राम का रोबोटिक उपग्रह लाल ग्रह की 2 हजार लाख किलोमीटर की 10 महीने की यात्रा पर रवाना हुआ. इस में 5 खास उपकरण मौजूद हैं जो मंगल ग्रह के बारे में अहम जानकारियां जुटाने का काम करेंगे. इस मंगल अभियान का मुख्य उद्देश्य वहां जीवन की संभावनाओं की तलाश करना बताया जा रहा है.

भारत के इस अभियान को ले कर दुनिया भर से मिलीजुली प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. एक वर्ग जहां मंगल ग्रह पर एक छोटा मानवरहित उपग्रह भेजे जाने को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में बड़ी उपलब्धि मान रहा है वहीं कुछ लोग इसे संभ्रांत तबके का भ्रामक अभियान मात्र बता रहे हैं.

बहरहाल, अगर सबकुछ ठीक रहा तो भारत इस मिशन की कामयाबी के साथ मंगल मिशन शुरू करने वाले दुनिया के चुनिंदा देशों-रूस व अमेरिका के बाद विश्व का तीसरा राष्ट्र हो जाएगा. भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ की अंतरिक्ष एजेंसियों के बाद ऐसी एजेंसी बन जाएगी जिसे मंगल ग्रह पर यान भेजने में कामयाबी हासिल हुई. फिलहाल, आशा और उम्मीदों के साथ देशवासियों की निगाहें इस अभियान के साथ जुड़ी हैं.

बच्चों के मुख से

बात कुछ साल पहले की है. मेरा बेटा साढ़े 4 साल का था. पड़ोस में रहने वाली आंटीजी के यहां नाती हुआ था और वे खुशी से अपने नाती की एकएक ऐक्टिविटी हमें बतातीं. एक बार वे मुझे बताने आईं, ‘देखो, शायद मेरे नाती की आंखें आई हैं,’ मैं ने उन्हें बोला, ‘आंटीजी, आप तुरंत उसे डाक्टर के यहां ले जाओ.’

थोड़ी देर बाद आंटीजी और उन की बहू डाक्टर के यहां से वापस आईं तो मेरा बेटा मुझ से बोला, ‘चलो न मम्मी, हम लोग छोटे गोलू को देखने चलते हैं क्योंकि आज उसे आंखें आई हैं, मैं भी देखूंगा नईनई आंखें कैसी होती हैं?’ उस की बात का अर्थ समझ कर हम लोग हंसने लगे क्योंकि उसे लग रहा था छोटे गोलू के चेहरे पर पहली बार नई आंखें उभरी हैं.

अल्पिता घोंगे, भोपाल (म.प्र.)

 

मेरे देवर का 5 वर्षीय बेटा शुभांक सुबह स्कूल जाने के लिए उठाने पर रोज नए नखरे करता है. उस की इस आदत से हम सभी बहुत परेशान रहते हैं. एक दिन जब उस की मम्मी ने उसे स्कूल जाने के लिए उठाया तो वह कहने लगा, ‘मैं आज स्कूल नहीं जाऊंगा,’ इस पर उस की मम्मी ने झल्ला कर उस से कहा, ‘आज ऐसी कौन सी खास बात है जो तुम स्कूल नहीं जाओगे,’ वह चुपचाप उठ कर स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया.अगले दिन सुबह जब उस की मम्मी ने उसे उठाया तो वह बोला, ‘आज ऐसी कौन सी खास बात है जो मैं स्कूल जाऊं?’ उस के इस अनोखे सवाल का हमारे पास कोई जवाब नहीं था.

श्वेता सेठ, सीतापुर (उ.प्र.)

 

पिछले दिनों डेंगू फैलने के कारण एक दिन मेरे 7 वर्षीय भतीजे रेयांश को भी स्कूल में इस से बचने की जानकारी दी गई और लक्षण दिखने पर अपने फैमिली डाक्टर से मिलने को कहा गया. रेयांश ने स्कूल से आते ही पूछा कि यह फैमिली डाक्टर क्या होता है? मैं ने उसे बताया, ‘‘जब कोई किसी काम से बारबार हमारे परिवार से मिलता है तो उस के साथ फैमिली शब्द जुड़ जाता है.’’

अगले दिन शाम को जब हम खरीदारी के लिए बाजार जा रहे थे तो रेयांश अचानक चिल्लाया, ‘‘पापा, पापा, हमारा फैमिली सब्जी वाला.’’

दरअसल, सामने से हमारे महल्ले में रोज आने वाला एक सब्जी वाला अपनी रेहड़ी लिए आ रहा था. उस की यह बात सुन कर आसपास वाले भी हंसने लगे.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

मतदाताओं को भरमाते चुनावी सर्वेक्षण

चुनाव से पूर्व ओपिनियन पोल यानी सर्वेक्षण अंगूर जैसे हैं कि पक्ष में हों तो मीठे, खिलाफ  हों तो खट्टे. वैसे भी सर्वेक्षण कहते कुछ हैं और नतीजा होता है कुछ और. सवाल यह उठता है कि सर्वेक्षण के जरिए मतदाताओं का मूड भांपने का यह पैमाना सही है या फर्जी, पड़ताल कर रहे हैं जगदीश पंवार.

चुनावी सर्वेक्षणों पर पाबंदी को ले कर बहस चल पड़ी है. कुछ राजनीतिक दल चुनावी सर्वे के पक्ष में हैं तो कुछ प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं. सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं तो पक्ष में तर्क भी दिए जा रहे हैं. कांग्रेस ने प्रतिबंध लगाने की मांग की है. उस ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह ओपिनियन पोल के पक्ष में नहीं है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी रोक के पक्ष में हैं.

वहीं, भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा और वामपंथी दल पाबंदी नहीं चाहते. कांग्रेस ने तो सर्वेक्षणों को ले कर टैलीविजन चैनलों पर होने वाली बहस से अपने प्रवक्ताओं को दूर कर लिया है क्योंकि अब तक हुए सर्वेक्षणों में कांग्रेस की हालत पतली बताई गई है.

प्रतिबंध के समर्थकों की दलील है कि चुनाव पूर्र्व सर्वे मतदाताओं की सोच पर असर डालते हैं और इन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. सर्वे के विरोधी भी यह मानते हैं कि ये प्रायोजित होते हैं और कोईर् भी पैसा दे कर अपने पक्ष में सर्वे करवा सकता है. सर्वे के पैरोकारों का मानना है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध होगा.

भाजपा का कहना है कि ज्यादातर सर्वेक्षणों के नतीजों में कांग्रेस की हार सामने आने से वह डर गई है. भाजपा हालांकि पहले ओपिनियन पोल के खिलाफ थी. अटल बिहारी के समय भाजपा ने सर्वदलीय बैठक में प्रतिबंध पर सहमति जताई थी. वह चुनाव सुधार के बहाने अध्यादेश भी लाना चाहती थी पर अब सर्वेक्षणों में पार्टी अपनी बढ़त को देखते हुए प्रतिबंध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दे रही है.

जबकि एजेंसियों का कहना है कि वे चुनाव से पूर्व सैंपल सर्वे के आधार पर मतदाताओं का मूड भांपने की कोशिश करती हैं. उन का तरीका वैज्ञानिक है. उन का तर्क है कि चुनावी सर्वे राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवार उतारे जाने और घोषणापत्रों के आने से पहले ही आ जाते हैं जबकि चुनाव उम्मीदवार की व्यक्तिगत छवि पर निर्भर करते हैं इसलिए पक्षपात का सवाल ही नहीं उठता.

हाल ही में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने अपना सर्वे कर के अरविंद केजरीवाल को सब से अधिक 42 प्रतिशत लोगों की पसंद का मुख्यमंत्री बता कर प्रचार किया.

कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन कहते हैं कि आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव सीएसडीएस से जुड़े हैं तो सीवोटर के यशवंत देशमुख आरएसएस से. लिहाजा, ये चुनाव सर्वे और विश्लेषक तटस्थ नहीं हैं.

मीडिया भी निशाने पर है. आरोप है कि कुछ मीडिया संस्थान अपने लिए एजेंसियों से सर्वे करवा कर मतदाताओं की राय बनाने के बहाने अपना और राजनीतिक दलों का स्वार्थ सिद्ध करते हैं. चुनाव आयोग का भी मानना है कि सर्वे पर प्रतिबंध होना चाहिए. आयोग ने 1999 में निर्देश जारी कर प्रतिबंध लागू कर भी दिया था पर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो अदालत ने यह कह कर आयोग का निर्देश रद्द कर दिया कि वह नियम नहीं बना सकता. नियम बनाने का काम सरकार का है.

प्रतिबंध करने की बातें पहले भी हुई हैं. 2004 में वाजपेयी सरकार इस पर अध्यादेश लाना चाहती थी पर तब के अटौर्नी जनरल ने सरकार को सलाह दी कि यह अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा. बाद में संप्रग सरकार ने 2009 में पाबंदी की कोशिश की. उस ने जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में धारा 126(ब) जोड़ी ताकि एक्जिट पोल यानी मतदान के बाद लोगों की राय जानने के लिए किए जाने वाले सर्वे पर प्रतिबंध लगाया जा सके. उस समय चुनाव पूर्व सर्वे को छोड़ दिया गया था पर अब अटौर्नी जनरल ने सरकार को प्रतिबंध लगाने की सलाह दी है.

यह सच है कि चुनावी सर्वेक्षणों की धज्जियां उड़ती रही हैं. पिछले चुनावों में देखा गया कि हर सर्वे में भाजपा को आगे दिखाया गया लेकिन जब नतीजा आया तो भाजपा पीछे नजर आई. 2004 में उम्मीद जताई गई थी कि भाजपा अपने ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान की बदौलत सत्ता में वापसी करेगी पर ऐसा नहीं हुआ.

2004 में 5 बड़े चुनावी सर्वेक्षण हुए जिन में एनडीटीवी-इंडियन ऐक्सप्रैस, इंडिया टुडे-भास्कर, द वीक, आउटलुक और स्टार न्यूज प्रमुख थे. इन सब ने एनडीए की भारी जीत के दावे किए. इंडिया टुडे ने 330 से 340 सीटों की भविष्यवाणी की थी. तब 4 माह पहले हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 5 में से 3 राज्य जीते थे और उन्हें सत्ता का सेमीफाइनल माना गया था.

एनडीटीवी और इंडियन ऐक्सप्रैस के लिए नील्सन द्वारा किए गए सर्वे में 2004 में एनडीए के हिस्से 287 से 307 सीटें बताई गईं जबकि कांग्रेस गठबंधन को 143 से 163 सीटें. इस सर्वे के बारे में दावा किया गया था कि यह बहुत बड़ा सर्वे है जिस में 207 लोकसभा क्षेत्र और वहां के 45 हजार लोगों की राय ली गई है. उन में 80 प्रतिशत जनता ग्रामीण थी. सर्वे करने वाली एजेंसियां सिर्फ ओपिनियन पोल के मामले में ही गलत साबित नहीं होतीं बल्कि इन के एक्जिट पोल के आंकड़ों में भी बड़ा अंतर देखा गया है.

एक अन्य सर्वे भाजपा को पश्चिम भारत की 210 सीटों में से 190 सीटें दे रहा था. कांग्रेस व अन्य दलों के हिस्से 95 से 105 सीटें बताई गईं लेकिन ये सब सर्वेक्षण झूठ साबित हुए. संप्रग सत्ता में आ गया.

इसी तरह 2009 में भी तमाम सर्वेक्षण एनडीए की सरकार बनने का दावा कर रहे थे पर संप्रग ने दोबारा बाजी मार ली. इन चुनावों में भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को सब से आगे बताया गया था. संप्रग की वापसी की संभावना किसी ने नहीं जताई थी पर संप्रग फिर से बहुमत में आ गया. उस चुनाव में संप्रग को 262 सीटें मिली थीं और एनडीए को महज 137 सीटें हासिल हुईं.

अब 5 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के सर्वे में भी भाजपा को आगे बताया जा रहा है. राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने के दावे हैं. राजस्थान व दिल्ली में कांग्रेस की जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है. लेकिन सर्वे में चारों राज्य भाजपा के हिस्से आने की बात है.

इंडिया टुडे-ओआरजी के सर्वे में कहा गया है कि मध्य प्रदेश में 60 फीसदी लोग फिर से शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. भाजपा के 240 में से 140 सीटें दी गई हैं. कांग्रेस के हिस्से केवल 78. छत्तीसगढ़ में भी 56 प्रतिशत लोगों की पसंद मौजूदा मुख्यमंत्री रमन सिंह को बताया गया है. 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 46 और कांग्रेस को 42 सीटें मिलना बताया गया है.

इसी तरह राजस्थान में भाजपा को 200 में से 120 और कांग्रेस को केवल 76 सीटें दी जा रही हैं तो दिल्ली में भाजपा को 36 और कांग्रेस को 22. यहां आम आदमी पार्टी को 8 सीटें दी जा रही हैं. आईबीएन 7-सीएसडीएस का सर्वे भी भाजपा के पक्ष में है.

चुनावी सर्वेक्षणों में विरोधाभास भी देखने को मिलता है. एक सर्वे किसी गठबंधन को बहुमत के करीब बताता है तो दूसरा बहुत दूर या बराबर बताता है. मसलन, 2014 के आम चुनाव में टाइम्स नाउ-सी वोटर एनडीए के हिस्से 184 सीटें दे रहा है जबकि द वीक-हंस रिसर्च यूपीए को इतनी ही, यानी 184 सीटें.

सवाल है कि क्या चुनावी सर्वे के द्वारा देश के मतदाताओं के मूड की वास्तविकता को भांपा जा सकता है. सर्वे एजेंसियों के पास कोई सटीक पैमाना नहीं है. इन का सर्वेक्षण सीमित मतदाताओं और सीमित क्षेत्र तक ही होता है. हमारे देश में मतदान के पीछे अलगअलग बातें निर्भर करती हैं. एक आम मतदाता उम्मीदवार की जाति, धर्म, वर्ग के बाद उस की छवि, उस के द्वारा किए गए काम, उस की पार्टी, पार्र्टी की साख, स्थानीय समस्याएं, राष्ट्रीय समस्याएं, विकास कार्य और फिर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार जैसे कारक देखता है.

इन के अलावा देश के कई हिस्सों में गरीब, झुग्गीवासी वोटर शराब, साड़ी, नकद पैसे देने वाले दल के नेता को वोट दे देते हैं. मतदान के पीछे कहींकहीं भय, लालच भी काम करता है. देश में कहींकहीं कोई उम्मीदवार केवल 11 प्रतिशत वोट प्राप्त कर जीत जाता है तो कहीं 90 प्रतिशत पा कर जीतता है. 1990 के बाद से राजनीतिक दल वोट प्रतिशत अधिक पाते आए हैं पर सीटें कम. क्या इसे मतदाता की इच्छा मानेंगे?

हमारा मतदाता राजनीतिक तौर पर शिक्षित नहीं है. वह अपनी समस्याओं को ले कर राजनीतिक दलों या अपने उम्मीदवार के बारे में स्वयं अपने मत का फैसला करने में नाकाम रहता आया है. हाल में आए गूगल इंडिया के एक सर्वे के अनुसार 42 प्रतिशत वोटर इस बात को ले कर अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं कि वे किस दल को वोट दें. इस सर्र्वे में कहा गया है कि 36 प्रतिशत मतदाता घरेलू उम्मीदवार को तरजीह देते हैं. 35 प्रतिशत दल को प्राथमिकता देते हैं तो 11 फीसदी के लिए प्रधानमंत्री महत्त्वपूर्ण होता है. क्या इन सब तथ्यों पर गौर किया जाता है?

लिहाजा, ऐसे में सटीक तौर पर देश के मतदाताओं का मूड भांपने के लिए कोई पैमाना नहीं है. हमारे यहां पंडों, ज्योतिषियों के धंधे की तरह सैफोलौजिस्टों के धंधे की शुरुआत 1989 से शुरू हुई जब देश स्थायी सरकार के लिए तरस रहा था,  खिचड़ी सरकारों का दौर था. सैफोलौजी कोई जीव विज्ञान की तरह विज्ञान नहीं है. जैसा कि इस के धंधेबाजों द्वारा दावा किया जाता है. सैफोलौजी को राजनीति विज्ञान की एक शाखा बताया गया है, जो चुनावों का वैज्ञानिक विश्लेषण और अध्ययन करती है. यह महज कुछ आंकड़े इकट्ठे कर चुनावी अध्ययन का नाम है. इस की शुरुआत इंगलैंड के इतिहासकार आर बी मैक्कलम के 1952 से चुनावों के वैज्ञानिक विश्लेषण को वर्णित करने के बाद से हुई.

जब से चुनावी सर्र्वे शुरू हुए हैं उन की चुनावी भविष्यवाणियां पंडों, ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों की तरह हो गई हैं जो कभी सच नहीं होतीं. पहले चुनावों में हारजीत का नतीजा जानने के लिए नेता लोग और राजनीतिक दल ज्योतिषियों के पास जाया करते थे. ज्योतिषी ग्रह, नक्षत्रों का गुणाभाग कर के अपना उल्लू सीधा करते रहे.

अब सर्वे एजेंसियां मीडिया समूहों और राजनीतिक दलों के पास जाने लगी हैं. ये चुनावी सर्वेक्षणों के आधुनिक पंडित बन गए जो वैज्ञानिक तरीके का दावा कर के चुनाव दर चुनाव देश के सामने झूठ परोस रहे हैं. इन की झूठ की दुकानदारी पिछले कुछ वर्षों से चल पड़ी है. पंडों की तरह ही हर बार इन की भविष्यवाणियों की भी धज्जियां उड़ती नजर आती हैं.

धर्म के नाम पर ज्योतिषी लोग व्यक्ति पर ग्रह, नक्षत्रों के आधार पर असर पड़ने का दावा करते आए हैं लेकिन एक ही समय में जन्मे जुड़वां व्यक्तियों का जीवन, रहनसहन अलगअलग होना ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों की पोल खोल देता है. हमारे यहां जाति, धर्म, वर्ग आधारित नुमाइंदे चुनने की प्रवृत्ति के चलते इस तरह के सर्वेक्षण किसी भी तरह सटीक फैसला नहीं बता सकते.

हमारे देश में सदियों से मूर्ख जनता को चंद स्वार्थी लोग हांकते आए हैं. लोग भेड़ों की तरह उन के बताए अनुसार चल पड़ते हैं. अपना विवेक, तर्क जरा भी इस्तेमाल नहीं करते. सैफोलौजिस्ट भी यही करने की कोशिश कर रहे हैं.

सर्वेक्षणों में भाजपा और उस के नेतृत्व वाले गठबंधन को ही आगे बताया जाता रहा है. ऐसे में इन सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर शक पैदा होता है कि कहीं वे भाजपा के पक्ष में हवा बनाने की कोशिश तो नहीं करते आ रहे. लिहाजा, चुनावी सर्वेक्षण मीडिया, कुछ राजनीतिक दलों, स्वयं सर्वे वालों और सट्टेबाजों के लिए मुफीद साबित हो रहे हैं. सट्टेबाज तो सर्वे के आधार पर उम्मीदवारों की हारजीत के भाव लगाते हैं. लाखों, करोड़ों रुपए चुनावों में दांव पर लगाए जाते हैं.

चुनावी सर्वेक्षण बंद नहीं होने चाहिए. हर किसी को अपनी राय जाहिर करने का हक है. यह हक सुरक्षित रहे लेकिन हमारे यहां चुनावी सर्वेक्षण किसी नियमकायदे से बंधे नहीं हैं. ऐसे नियम जरूर हों जिन से कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने पक्ष में सर्वे न करा सके और न ही सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियां किसी के पक्ष में हवा बनाने के लिए चुनावी सर्वेक्षण कर पाएं.

देश का मतदाता क्या अब भी अपना, अपने देश का भविष्य चंद लोगों की राय पर ही छोड़े रखेगा?

सार्वजनिक जमीन पर गैरकानूनी कब्जे

विकास की राह पर अग्रसर हो रहे मुल्क के ज्यादातर हिस्से अतिक्रमण के कैंसर से जूझ रहे हैं. रेलवे लाइन, बाजार, गलीनुक्कड़ से ले कर राजमार्गों तक फैले इस अतिक्रमणरूपी कैंसर की पूरी कहानी पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव के इस लेख में.

भोपाल रेलवे स्टेशन से ट्रेन जब चलती है तब उस की रफ्तार महज 30 किलोमीटर प्रति घंटा होती है जबकि 3-4 साल पहले तक यह गति 110 किलोमीटर प्रति घंटा हुआ करती थी. रफ्तार धीमी होने की वजह रेलवे ट्रैक के दोनों तरफ नाजायज तरीके से बनी हजारों झुग्गियां और कच्चे मकान हैं. वे कब, कैसे और क्यों उग आए, इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं, अगर है भी तो सिर्फ सूचनात्मक कि यह अतिक्रमण है. इस अतिक्रमण से यात्रियों की सुरक्षा को खतरा है. इतना ही नहीं, इन नाजायज कब्जों से रेलवे ट्रैक कमजोर भी हो रहा है.

यह समस्या अकेले भोपाल की नहीं, बल्कि पूरे देश की है. राजधानी दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में रेलवे ट्रैक के नजदीक इफरात से झुग्गियां देखने को मिल जाती हैं. वजीरपुर, सरायरोहिल्ला, दयाबस्ती, आजादनगर, तिलक ब्रिज, ओखला, शकूरबस्ती, निजामुद्दीन, किशनगंज आदि स्टेशनों के आसपास की पटरियों पर बनी झुग्गियां रेलवे के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं.

दिल्ली अरबन शैल्टर इंप्रूवमैंट बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली की 60 हैक्टेअर जमीन पर तकरीबन 46,693 झुग्गियां नाजायज तरीके से बनी हुई हैं. इन में लगभग 10 हजार सेफ्टी जोन में यानी रेलवे ट्रैक के 15 मीटर अंदर हैं. दिल्ली से आनेजाने वाली ट्रेनों में बैठे मुसाफिर धीमी गति के लिए भले ही रेलवे को जिम्मेदार ठहरातेकोसते रहें पर यह हकीकत उन्हें नहीं मालूम रहती कि नाजायज कब्जे वाली झुग्गियों और कच्चे मकान हटाने के लिए रेलवे दिल्ली सरकार को करोड़ों रुपए का भुगतान कर चुका है. एक झुग्गी हटाने के लिए रेलवे दिल्ली सरकार को 1,07,590 रुपए देता है पर भुगतान करने के बाद भी अतिक्रमण नहीं हटाया जा रहा, जिस का खमियाजा आम यात्रियों को भुगतना पड़ता है.

इसी तरह मुंबई के बांद्रा पूर्व इलाके में रेलवे ट्रैक से लगभग सटी हजारों झुग्गियां दिखती हैं. कई जगह तो 3 या 4 मंजिले मकान भी बन चुके हैं पर कहीं भी न तो पानी की व्यवस्था है न कूड़ा फेंकने की उचित व्यवस्था. कूड़े के ढेर के पास एक तख्ती में लिखा है, ‘यह संपत्ति रेलवे की है.’ सालों से वहां रहने वाला अब्दुल समद शेख बताता है कि नवपाड़ा का यह क्षेत्र पहले इतनी आबादी वाला नहीं था. 1993 में दंगे के बाद यहां आ कर लोग इसलिए बस गए क्योंकि यहां का माहौल शांत है. पहले 5 हजार लोग रहते थे अब 35 हजार रहते हैं. यहां न तो सफाई है न आनेजाने की सुविधा, बारिश में पूरा इलाका गंदगी से भरा रहता है. बीएमसी यानी बृहनमुंबई महानगर पालिका की गाडि़यां कभीकभी आती हैं.

मुंबई में रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी बताते हैं कि वैस्टर्न लाइन में झुग्गियां कम हैं. सैंट्रल और  हार्बर लाइन में सब से अधिक हैं. बांद्रा, कुर्ला, सायन, थाणे, मानखुर्द, गोवंडी, वडाला आदि ऐसे स्थान हैं जहां करीब डेढ़ लाख लोग इन झुग्गियों में रहते हैं.

मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन के पास बसी झुग्गीबस्ती में जन्मे और वहीं पलेबढ़े रेलवे कमेटी के सदस्य व समाजसेवक तनवीर अहमद शेख बताते हैं कि यह इलाका कभी गांव के क्षेत्र में आता था पर अब यह शहर बन चुका है. यह पहले हमारी जमीन थी, रेल लाइन बाद में आई है. किसी को भी हटाने से पहले रेलवे नोटिस देता है. अगर लोग नहीं हटते तो पुलिस बल का प्रयोग किया जाता  है.

झुग्गियों में रहने वाले लोग बिल्डरों को पैसा दे कर बड़ीबड़ी बिल्ंिडगें खड़ी कर लेते हैं. इस से सभी को करोड़ों रुपए तो मिल रहे हैं पर व्यवस्थित काम नहीं होता. गटर जाम हो जाता है, ऊपर पानी भर जाता है, बीमारियां फैलती हैं. इस क्षेत्र के नीचे से हजारों तार एक स्थान से दूसरे स्थान पर रेलवे द्वारा ले जाए गए हैं. क्षेत्रीय सांसद प्रिया दत्त ने पिछले साल 5 महिला और 5 पुरुष शौचालय बनवाए हैं पर इस के बावजूद लोग ट्रैक पर गंदगी करते हैं.

हादसों को न्योता

बिहार की बात करें तो ज्यादातर इलाकों में भी रेलवे लाइन के आसपास सैकड़ों झुग्गियां उग आई हैं. दूरदराज के इलाकों की छोडि़ए, पटना के आसपास के इलाकों में भी रेल पटरियों के किनारे बसी झुग्गियां हर समय हादसों को न्योता देती रहती हैं. रेल लाइनों पर झुग्गियों के बच्चे हुड़दंग मचाए रहते हैं. न बच्चों को और न ही उनके मांबाप को यह चिंता है कि रेलगाड़ी के नीचे आने से जान जा सकती है. बच्चों और जानवरों को हटाने के लिए रेलगाड़ी का ड्राइवर सीटी बजातेबजाते परेशान रहता है, जिस से गाड़ी अपनी सही चाल से नहीं चल पाती. हादसे के बाद होने वाले उपद्रव मारपीट और तोड़फोड़ के डर से ड्राइवर गाड़ी की सीटी लगातार बजाने और टे्रन को रुकरुक कर चलाने को मजबूर है. नतीजा यह होता है कि रेलगाडि़यां लेटलतीफी का शिकार होती रहती हैं.

पटना-दीघा रेल लाइन के किनारे कई सालों से झोंपडि़यां बनी हुई हैं. उन्हें हटाने की हिम्मत न स्थानीय प्रशासन में है, और न ही रेल महकमे में है. इतना ही नहीं, पटना के बेलीरोड, हौल्ट तबेला और दीघा घाट हौल्ट शराब व शराबियों के अड्डे में तबदील हो गए हैं. पुनाईचक हौल्ट का बुकिंग काउंटर ध्वस्त हो गया है, जबकि शिवपुरी हौल्ट बुकिंग काउंटर पर गायभैंस बांधे जा रहे हैं. पूर्वमध्य रेलवे के इस मार्ग पर बदइंतजामी की इंतहा साफ नजर आती है.

ऐसा ही हाल दानापुर अनुमंडल से गुजरने वाली रेल लाइनों का है. हर हादसे के बाद रेलवे अफसरों की नींद टूटती है और वे पटरियों के आसपास बनी झोंपडि़यों को हटाने का ऐलान करते हैं. मामले के ठंडे होते ही वे भी ठंडे पड़ जाते हैं. दानापुर राजकीय मध्य विद्यालय में पढ़ने वाली संजना कुमारी कहती है कि अगर रेलवे के अफसर उस के घर को हटाने की कोशिश करेंगे तो वह जान दे देगी. उस का परिवार पिछले कई सालों से इंदिरा आवास की मांग कर रहा है, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

बिहार के कई जिलों में कई दशकों से गरीब लोग रेलवे की खाली जमीन पर या रेल लाइनों के किनारे झोंपड़ी बना कर जिंदगी गुजार रहे हैं. उन झोंपडि़यों में रहने वाले हर पल मौत का सामना करते हुए जिंदगी बिता रहे हैं. रेलवे उन्हें हटाने की जिद करता है तो वे मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं.

सजता है बाजार

तकरीबन यही हाल पश्चिम बंगाल का भी है. पश्चिम बंगाल के सियालदह, मध्यमग्राम, बारासात, विधाननगर, हृदयपुर, दुर्गापुर, बिराटी और दमदम जैसे रेलवे स्टेशनों के प्लेटफौर्मों से यात्रियों का ट्रेन पर चढ़ना व उतरना मुहाल रहता है. प्लेटफौर्म में चाय, बीड़ी, पान, सिगरेट की दुकान से ले कर फूल, सब्जी, फल, प्लास्टिक के सामान और खिलौने तक की दुकानें सजी होती हैं. लगभग हर रोज यात्रियों और प्लेटफौर्म के दुकानदारों से हाथापाई, गालीगलौज की नौबत होती है.

प्लेटफौर्मों में अतिक्रमण के बारे में पूर्व रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी समीर गोस्वामी का कहना है, ‘‘अतिक्रमण हटाना पुलिस का काम है. रेलवे महज उन का सहयोग कर सकता है.’’ वहीं इस बारे में एसआरपी सियालदह, तापस रंजन घोष का कहना है, ‘‘रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण है तो इसे हटाने का बीड़ा रेलवे को ही उठाना होगा. हां, हम उन का साथ दे सकते हैं.’’ जाहिर है कि अतिक्रमण हटाने के सवाल पर रेलवे और पुलिस एकदूसरे पर जिम्मेदारी डाल कर पल्ला झाड़ लेते हैं और यात्रियों को इस का खमियाजा भुगतना पड़ता है.

कोलकाता और उस के उपनगरों में लोगों के लिए सड़क पर चलना दूभर है. खासतौर पर उत्तर, मध्य और दक्षिण कोलकाता में. पूर्वी कोलकाता के हाथीबागान, श्याम बाजार, धर्मतल्ला, गडियाहाट, कालेज स्ट्रीट और मध्य कोलकाता के रवींद्र सदन, बिड़ला तारामंडल, नंदन और एसएसकेएम अस्पताल के आसपास की मुख्य सड़कें सदियों से हौकरों के कब्जे में हैं. त्योहारों के दौरान तो हाल और भी बुरा होता है. फुटपाथों में बाकायदा इन की दादागीरी चलती है. कीमत पूछ कर अगर किसी ने सामान न खरीदा तो ये फुटपाथी हौकर फिकरे कसने से ले कर गालीगलौज तक पर उतर आते हैं.

सत्ता पलटाता अतिक्रमण

पश्चिम बंगाल में 1960 में पहली बार राज्य की कांग्रेसी सरकार ने फुटपाथों को हौकरों के कब्जे से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था. उस समय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआईएम कांग्रेसी सरकार के इस अभियान के खिलाफ सड़क पर उतरी और पहली बार हौकरों को संगठित किया. फुटपाथों के अतिक्रमण के खिलाफ जुलूस, धरना, प्रदर्शन शुरू हुआ. वैसे भी कांग्रेस शासन में नक्सलवाद के खिलाफ अभियान में सरकार की छवि दागदार हो चुकी थी.

इस के बाद अतिक्रमण विरोधी सरकारी अभियान से मामला पूरी तरह से पलट गया. हौकरों और उन के परिवार का वोटबैंक सीपीआईएम के पाले में आ गया. अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई. यह विडंबना ही है कि बंगाल की सत्ता किस के हाथों में हो, अन्य कई बातों के साथ एक हद तक इस पर निर्भर करती है कि राज्य के हौकरों का वोट किस के पाले में है. 1977 से 2011 तक राज्य विधानसभा चुनाव जीतनेजिताने में हौकरों की अहम भूमिका रही है.

अब सत्ता पर काबिज होने के 2 साल बाद ममता बनर्जी ने हौकरों के अतिक्रमण को हटाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘संग्राम समिति के नाम पर फुटपाथों पर कब्जा बरदाश्त नहीं किया जाएगा,’’ गौरतलब है कि वाममोरचा शासन में ‘औपरेशन सनशाइन’ के दौरान ममता बनर्जी ने ही हौकरों को संगठित कर हौकर संग्राम समिति का गठन किया था. लेकिन अब तक भस्मासुर हो चुके हौकरों ने ममता बनर्जी पर आंखें तरेरते उन के हरीश मुखर्जी रोड स्थित आवास में हौकर संग्राम समिति ने चक्काजाम किया तो पलटवार करते हुए ममता भी सड़क पर उतर आईं और कहा, ‘‘किसी भी कीमत पर सड़क व फुटपाथ का अतिक्रमण नहीं होने दिया जाएगा. मैं भी बाघेर बच्चा (बाघ की पैदाइश) हूं. लड़ना बखूबी जानती हूं.’’ अतिक्रमण व हौकर समस्या पर सीपीएम नेता सूर्यकांत मिश्र ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘औपरेशन सनशाइन का विरोध इन्हीं ममता बनर्जी ने किया था और अब इन बेचारे हौकरों का क्या दोष, बाघ का बच्चा बन कर हौकर उन्मूलन के लिए मुख्यमंत्री सड़क पर उतरे, यह तो बड़ी हास्यास्पद बात है. बहरहाल, बाघ हो या बाघ का बच्चा, दोनों ही हौकरों के लिए खतरनाक हैं.’’

लगभग 3 दशकों तक सत्तासुख भोग लेने के बाद वाम मोरचा सरकार ने 1995 में कोलकाता के फुटपाथों से अतिक्रमण हटाने का काम शुरू किया, जिसे ‘औपरेशन सनशाइन’ नाम दिया गया. कोलकाता नगर निगम, सीपीएम के कैडर और पुलिस बटालियन के संयुक्त प्रयास से फुटपाथ और सड़कों से अतिक्रमण हटाया जाने लगा. तब हौकर ममता बनर्जी की शरण में गए. ममता बनर्जी ने हौकरों को संगठित किया. उन्होंने हौकरों के 32 संगठनों को एकजुट कर ‘हौकर संग्राम समिति’ का गठन किया और वाम मोरचा के औपरेशन सनशाइन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया.

हालांकि वाम मोरचा सरकार ने अतिक्रमण हटाने के अभियान को बंद नहीं किया, लेकिन विपक्ष की राजनीति के दबाव में आ कर औपरेशन सनशाइन अभियान को शिथिल जरूर कर दिया. इस से औपरेशन सनशाइन की चपेट में आए हौकरों को फिर से फुटपाथों पर कब्जा करने का मौका मिल गया. लेकिन 2000 में कोलकाता नगर निगम तृणमूल के हाथों में चले जाने के बाद 2000-2005 तक कोलकाता के लगभग 80 प्रतिशत फुटपाथों पर हौकरों का अतिक्रमण हो गया.

क्या हैं परेशानियां

आवाजाही में दिक्कत के अलावा रेल पटरियों के किनारे के बेजा कब्जों से दूसरा बड़ा नुकसान रखरखाव और मरम्मत का है. झुग्गियों में रहने वाले लोग पटरियों के आसपास ही शौच करते हैं. ऐसे दृश्य लगभग पूरे देश में देखे जा सकते हैं. इस से नुकसान यह है कि अगर कोई सिग्नल भी खराब हो जाए तो कर्मचारी गंदगी के चलते उसे ठीक करने जाने से मना कर देता है. इस बाबत अधिकारी उस पर दबाव बनाएं तो बात मानवीय अधिकारों के उल्लंघन की हो जाती है और विभिन्न रेल यूनियनें हाथ में झंडे और तख्तियां ले कर हायहाय करने लगती हैं कि देखो, हम से शौच साफ कराई जा रही है. यानी इन नाजायज झोंपड़ों में रह रहे लोगों की फैलाई गंदगी को साफ कराने में ही रेलवे को सालाना करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं. इसलिए रेलवे शराफत से राज्य सरकारों को झुग्गी हटाने के लिए तयशुदा राशि देने को तैयार रहता है.

आम जनता में इच्छाशक्ति के अभाव के अलावा राजनीति और घूसखोरी के चलते ये अतिक्रमण कभी दूर हो पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. हां, इतना जरूर है कि जब भी स्पीड कम होगी तो ट्रेन में सफर कर रहे लोग रेलवे को बदस्तूर कोसते रहेंगे जबकि उन को प्रशासन या नगर निगम की अतिक्रमण में खलनायकी भूमिका का पता नहीं चलेगा.

रेलवे खुद क्यों ये नाजायज कब्जे नहीं हटा पाता, इस पर मुंबई रेलवे के एक जनसंपर्क अधिकारी का कहना है कि अतिक्रमणकारियों को नोटिस भेजा जाता है जिस से कुछ लोग हट जाते हैं अन्यथा पुलिस बल का प्रयोग, राज्य सरकार की सहायता से किया जाता है. इस के अलावा झुग्गीझोंपड़ी वाले इलाके के दोनों तरफ रेलवे ट्रैक बना कर छोड़ दिया जाता है. बाद में लोग खुद ही हट जाते हैं. नाजायज तरीके से बसे ऐसे लोगों को हटाने में कई बार रेलवे प्रशासन भी लाचार दिखता है क्योंकि उन्हें हटाने पर लोग जमीन की मांग करते हैं.

नाजायज कब्जे हटाए जाने के सवाल पर रेल अधिकारियों के बयानों में विरोधाभास साफ दिखता है. बात भोपाल की करें तो रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी केके दुबे का कहना है कि वे अतिक्रमणकारियों के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा एफआईआर दर्ज कराने का ही काम कर सकते हैं. इस के पहले रेलवे ने जिला प्रशासन व नगर निगम को इस मामले में पत्र भी लिखे थे. यानी झंझट यह है कि किस विभाग की जमीन कहां तक और कितनी है? सेफ जोन के नाजायज कब्जे रेलवे हटा सकता है.

वहीं, दिल्ली रेल मंडल के जनसंपर्क अधिकारी अजय माइकल की मानें तो रेलवे अपनी जमीन से अतिक्रमण हटाने की कोशिश करता रहता है. मई 2012 से ले कर इस साल मार्च तक दिल्ली में रेलवे ने 1337 झुग्गियां हटा कर लगभग 3.87 हैक्टेयर जमीन अतिक्रमणमुक्त कराई.

रेलवे की हद सेफ जोन यानी उस की जमीन तक ही है. इस के बाद जमीन निजी या सरकारी होना शुरू हो जाती है. हैरत की बात यह है कि वह भी अतिक्रमण रहित नहीं होती. नाजायज कब्जों की हालत देख यह तय कर पाना मुश्किल है कि देश में कुल जायज कब्जे ज्यादा हैं या नाजायज की तादाद ज्यादा है.

यत्र, तत्र, सर्वत्र

भोपाल उतरें या दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जाएं, कुछ कदम चलने के बाद रेलवे के नाजायज कब्जे सरीखे दूसरे नाजायज कब्जे नई शक्ल में दिखने लगते हैं. ये कब्जे ‘सर्वधर्म समभाव’ की तरह हैं, होर्डिंग्स और इश्तिहारों की तरह हैं और कभीकभी तो लगता है कि ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं. एक बार को नाजायज कब्जे तो आम लोगों के बगैर रह लें पर आम लोग शायद इन के बिना नहीं रह सकते.

भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के एक चौराहे पर से जिला प्रशासन और नगर निगम ने कुछ नाजायज कब्जे किसी खास वजह से हटा डाले तो वहां से रोजाना गुजरने वालों को दिक्कत होने लगी.

दफ्तर जाने वाले एक मुलाजिम के अनुसार, मैं मोटरसाइकिल से जाता हूं, चौराहे के बायीं तरफ नाजायज कब्जे वाली कच्ची दुकानें थीं जहां से मैं संभल कर निकलता था और मान कर चलता था कि बायीं तरफ कच्चे चबूतरे होने की वजह से कोई ओवरटेक नहीं करेगा. पर कब्जे हटने के तीसरे दिन ही मेरा एक्सिडैंट हो गया क्योंकि मैं भूल गया था कि अब बायीं तरफ की जगह खाली हो गई है. हादसे वाले दिन मैं रोजाना की तरह धीमी रफ्तार से जा रहा था कि एकाएक बायीं तरफ से दूसरी बाइक वाला प्रकट हो गया और टक्कर हो गई. दोनों को मामूली चोटें लगीं.

बात कहनेसुनने में मजाक लग सकती है पर है हकीकत कि आम लोग रोजरोज एक परेशानी यानी नाजायज कब्जा को बरदाश्त करने के आदी हो गए हैं. इसे ले कर लोग परेशानी के क्षणों में सरकार को, मेयर को, कलैक्टर को, पुलिस वालों को और जितने संबंधितअसंबंधित विभाग हो सकते हैं, को दिल से कोसते हैं. पर परेशानी के वक्त इन विभागों से ज्यादा अतिक्रमणकारियों को भी कोसते हैं कि कैसे जाहिल और बेहूदे लोग हैं जो हरकहीं कब्जा कर लेते हैं और परेशानी हम जैसों को उठानी पड़ती है. और यह झल्लाहट केवल शहरी लोगों की ही नहीं है, देहातों व कसबों के लोग भी अतिक्रमण से परेशान हैं.

जाहिर है अतिक्रमण एक राष्ट्रीय मानसिकता बन चुका है. देहातों में खाली पड़ी जमीन पर मढि़या यानी छोटा मंदिर पूजापाठ करने के बहाने जमीन पर कब्जा करने की नीयत से बनाए जाते हैं.

इतना ही नहीं, हाइवे से ले कर तंग गलियों तक में नाजायज कब्जे हैं जिन से यातायात अवरुद्ध होता है और घंटों जाम लगा रहता है. लाखों, करोड़ों का ईंधन धुआं बन कर उड़ जाता है पर नाजायज कब्जा ज्यों का त्यों रहता है.

दरअसल, बेजा कब्जा बनाए रखने के लिए घूस खाई जाती है. अतिक्रमण हटाने का जिम्मा स्थानीय निकायों का होता है जिन के इंस्पैक्टरों की तोंदें घूस की रकम से फूल रही हैं. नाजायज कब्जे वाला इन्हें दैनिक, साप्ताहिक या मासिक घूस, वह भी अग्रिम देता है. भोपाल में कई दफा यह बात उजागर भी हो चुकी है.

पूर्व कोलकाता हौकर संग्राम समिति के अध्यक्ष शक्तिमान घोष का कहना है कि अपना और परिवार का पेट भरने के लिए हौकरों को ट्रेड यूनियन के नेता से ले कर राजनीतिक पार्टियों के नेता, पुलिस, स्थानीय पार्षद तक सब का ‘मुंह भरना’ पड़ता है. शक्तिमान यह भी बताते हैं कि सिर्फ कोलकाता में हर साल 265 करोड़ रुपए रिश्वत में हौकरों को देने पड़ते हैं और यह रकम उन के कारोबार का एक तिहाई है. वहीं, बंगाल हौकर यूनियन का कहना है कि वह कारोबार करने का अधिकार पाने के लिए निगम को किराया और दूसरे कर देने को भी तैयार है पर सरकार को इंतजाम करने पड़ेंगे. यूनियन ने सरकार से हौकरों को विशेष परिचयपत्र देने की मांग की. परिचयपत्र मिल जाने से वे रिश्वत देने से बच जाएंगे.

गुमटी, कच्चीपक्की दुकानें, मकान, झुग्गियां जब नाजायज तरीके से बनते हैं तो परेशानी आम लोगों को ही होती है. लेकिन लोगों के असंगठित होने और परेशानी तात्कालिक कह लें या अल्पकालिक होने के कारण कोई सशक्त विरोध दर्ज नहीं कराया जाएगा. बातबात पर उपभोक्ता फोरम, थानों और अदालतों में जाने वाले जागरूक लोगों की हिम्मत भी इन नाजायज कब्जों को देख पस्त हो जाती है और वे इन के आगे नतमस्तक हो जाते हैं. अब तो सरकारें भी नाजायज कब्जों को जायज बनाने के लिए शुल्क लेने लगी हैं. जान कर हैरानी होती है कि कई कालोनियां तक, जो नाजायज कब्जे की जमीन पर बनी थीं, वहां अब खासी आबादी बसने लगी है. यह गुत्थी कोई नहीं सुलझा पाता कि जब नाजायज कब्जे हो रहे होते हैं तब सरकार और उस के महकमे कहां सो रहे होते हैं?

हथियार डालते लोग

लोगों ने नाजायज कब्जों और कब्जाधारियों से इस हद तक समझौता कर रखा है कि घर से बाहर सड़क पर चंद कदमों की दूरी पर भी कोई नाजायज कब्जा दिखे तो अपना रास्ता बदल लेंगे पर उसे हटाने के लिए अपनी तरफ से कोई किसी तरह की पहल नहीं करता. कोई भी बेकार के झगड़े में नहीं पड़ना चाहता, परेशानी उठाना उसे मंजूर होता है.

तकनीकी तौर पर नाजायज कब्जों से हैरानपरेशान लोगों को यह समझानेफुसलाने की कोशिश की जाती है कि लोग देहातों से शहर की तरफ भाग रहे हैं, उन्हें जहां जमीन खाली दिखती है झुग्गी बना लेते हैं, रोजगार के लिए कहीं भी सब्जीतरकारी या इस्तरी करने की दुकान खोल लेते हैं. इन की तादाद इतनी ज्यादा है कि किसकिस को हटाया जाए और हटा भी दिया जाए तो ये जाएंगे कहां. कहीं न कहीं तो कच्ची ही सही, चारदीवारी खड़ी करेंगे यानी नाजायज कब्जा करेंगे ही.

मान लीजिए, आप के घर के सामने किसी तथाकथित गरीब ने झोंपड़ा बना लिया है और यदि वह नाजायज कब्जों का गणित जानते हैं कि कल को 1 कमरे का यह घर 2 का हो जाएगा. कुछ दिनों बाद इस के बगल में 1 और झोपड़ा खड़ा हो जाएगा. फिर देखते ही देखते खाली पड़ी पूरी जमीन झुग्गियों से पट जाएगी. आप कार्यवाही करने की सोचेंगे. पुलिस थाने जाएंगे तो बेरुखी से कहा जाएगा कि अतिक्रमण हटाना हमारा काम नहीं, नगर निगम का काम है. अगर आप नगर निगम के दफ्तर जाएंगे, वहां से आप को मशवरा दिया जाएगा कि पहले थाने में रिपोर्ट लिखाएं कि कब्जाधारी कौन है?

बहलानेफुसलाने वाले ये लोग दरअसल घूसखोर सरकारी मुलाजिम हैं जिन्हें नाजायज कब्जों के एवज में तगड़ी घूस मिलती है. इसीलिए आम लोगों को नहीं मालूम कि नाजायज कब्जे हटाने की जिम्मेदारी किस की है.

जाहिर है आप ‘औफिस औफिस’ धारावाहिक के मुसद्दीलाल बनना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि इस में वक्त और पैसा तो जाया होगा ही साथ ही नवगठित बेनाम झुग्गी यूनियन वाले आप के दुश्मन बन जाएंगे, अब आप डरेंगे इस बात से कि कहीं ये आप को परेशान न करने लगें.

जाएं तो कहां जाएं

साफ है, आम लोगों को नहीं मालूम कि इन परेशानियों से कैसे बचा जाता है, अलबत्ता इन कलपते लोगों को कुछ दिनों बाद यह ज्ञान प्राप्त होता है कि इस में उन सभी की मिलीभगत थी जिन्हें कार्यवाही करनी चाहिए थी और ये कब्जे फलां नेता और बिल्डर के इशारे पर हुए थे. नेताओं के लिए कुछ महीनों बाद ये वोट और बिल्डर के लिए कुछ सालों बाद नोट उगलने वाली मशीन बन जाते हैं.

ठीक यही हाल बाजारों का है. हर नाजायज कब्जे वाली जगह, जिस के सरकारी होने से आप को चलनेफिरने तक में परेशानी होती है और आम आदमियों को परेशान करती रहती है.

जानलेवा नाजायज कब्जे बाजार और शहर की खूबसूरती बिगाड़ें, किसी को फर्क नहीं पड़ता, न चिंता या परवा रहती. यह सारा खेल नोटों और वोटों का है. सभी प्रमुख दलों ने झुग्गीझोंपड़ी प्रकोष्ठ बेवजह नहीं बना रखे और यूनियनें भी बेवजह नहीं बनाई जातीं.

हकीकत तो यह है कि आम आदमी नाजायज कब्जों को ले कर हताश हो चुका है, इसलिए परेशानियों से जूझते इन्हें स्वीकृति दे चुका है. इन से परेशान लोगों का कोई संगठनयूनियन नहीं बनती. रेलवे या दूसरे विभाग कुछ कर पाएंगे, यह दूर की बात है. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट तक के आदेश तक असरहीन साबित हो चुके हैं. कोर्ट द्वारा बारबार राज्य सरकारों की खिंचाई के बावजूद देशभर में अवैध धर्मस्थल सीना तान कर खड़े हैं.

अजीब तो यह है कि देश में श्मशानों तक में अतिक्रमण है. जिंदगी भर अतिक्रमण की मार से जूझता आदमी मरने के बाद चार कंधों पर जब श्मशान पहुंचता है तो वहां भी वह इस समस्या से दोचार होने को मजबूर होता है.   

-साथ में मुंबई से सोमा घोष, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति और कोलकाता से साधना शाह      

लोकतंत्र में लूटतंत्र

नेताओं के भ्रष्टाचार पर टनों आंसू बहाने वाले लोग यदाकदा ही अस्पतालों, खासतौर पर सरकारी अस्पतालों में फैले भ्रष्टाचार का जिक्र करते हैं जिस के चलते शरीफ लोगों को वर्षों जेलों में सड़ाया जाता है या फिर गुनाहगारों को बचाया जाता है. दहेज मौतों के मामलों में ऐसा अकसर होता है. दरअसल, सरकारी डाक्टर रिश्वत ले कर पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदल देते हैं. पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर के हाथ में यह होता है कि वह शव को देख कर लिखे कि मृत्यु मारपीट, जोरजबरदस्ती के बाद हुई या मृतक ने खुदकुशी की थी.

दिल्ली के एक मामले में एडिशनल जज कामिनी लौ ने एक ऐसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट को गलत ठहराया जिस में मृतक के घर वालों के कहने पर डाक्टर ने मौत को अस्वाभाविक बताया था जबकि दूसरे डाक्टरों ने उसे स्वाभाविक बताया था. ऐसे में विवाद डाक्टरों में भी खड़ा हो गया और अदालत को आदेश देना पड़ा कि जिन डाक्टरों ने उक्त मौत को स्वाभाविक बताया, उन्हें सुरक्षा दी जाए ताकि दूसरे डाक्टर उन्हें परेशान न करें.

यह देशभर में होता है. डाक्टर की रिपोर्ट के अनुसार ही न्यायालयों के फैसले होते हैं और पेशेवर कातिल इस बात को जानते हैं. सो, वे डाक्टर को पोस्टमार्टम में लूपहोल छोड़ने के लिए मोटा पैसा देते हैं. अगर 5-7 साल बाद पता चले कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार घाव घातक न था, तो अकसर फैसला बदल जाता है.

इस तरह के विवादों में जब तक डाक्टर की गवाही की नौबत आती है तब तक कई साल बीत चुके होते हैं और डाक्टर सरकारी हो तो उस का तबादला हो चुका होता है. ऐसी स्थिति में न्यायालय भी ज्यादा देर तक डाक्टर से पूछताछ नहीं कर पाता. नतीजतन, गुनाहगार छूट जाता है या बेगुनाह सजा पा जाता है, सिर्फ रुपयों के बल पर.?

नेताओं के भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा भयंकर भ्रष्टाचार अफसरशाही, इंस्पैक्टरों, सरकारी विभागों, निजी उद्योगों में खरीद करने वालों में, शेयर बाजारों में, स्कूलों में अंक बढ़ानेघटाने में फैला हुआ है. जनता नेताओं के भ्रष्टाचार से इतनी त्रस्त नहीं है जितनी रजिस्ट्री करने वाले दफ्तर के फैले भ्रष्टाचारी हाथ से है. यह वह देश है जहां मौत के प्रमाणपत्र भी रिश्वत दिए बिना नहीं मिलते.

डाक्टर जैसे शख्स, जिन्हें लोग जीवनदान देने वाला समझते हैं, जब रिश्वत के बदले किसी को छुटवाने या सजा दिलवाने के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदलने लगें तो कुछ नेताओं को भ्रष्टाचार का दोष देना मूर्खता है.

भ्रष्टाचार, बेईमान, झूठ, फरेब का रोग हमारे अंगअंग में घुसा हो तो उन लोगों को, जिन्हें खुशीखुशी चुन कर नेता बनाया, सत्ता पकड़ाई, दोष देना गलत होगा. हम यह तब कर सकते हैं जब समाज हर तरह के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खड़ा हो.

यह सोचना गलत है कि पैसा केवल बेईमानी से बनता है, जिन बेईमानों, भ्रष्टाचारियों, लुटेरों के हाथ में पैसा होता है, उसे किसी किसान, किसी दस्तकार या मजदूर ने खेतों, कारखानों में मेहनत कर के कमाया होता है, शराफत से.

ईमानदारी से कमाए गए इस पैसे पर गर्व होता है पर यही पैसा लूटा जाता है और हमारा देश इस में माहिर है. लोकतंत्र की चुनौती यही है कि वह इस पैसे को कमाने वाले के हाथ में रखे और लूटने वाले नेता, अफसर, संतरी, इंस्पैक्टर के हाथ बांध कर रखे.   

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