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दिन दहाड़े

वर्ष 1971 की घटना है. मैं सुबहसुबह चंडीगढ़ से मनाली जाने वाली बस, जो 6 बजे चलती थी, में सामान रख रहा था कि अचानक मेरी नजर पिछली सीट पर बैठे एक दाढ़ी वाले व्यक्ति पर पड़ी. वह सीट से एक कंबल उठा रहा था. जैसे ही उस ने मुझे देखा उस ने कंबल वहीं रख दिया व मुझ से कहा, ‘‘आप कंबल का ध्यान रखना, मैं टिकट ले कर आता हूं.’’ मैं ने समझा शायद कोई सवारी है.

मैं ने अपनी जेब से 100 रुपए का नोट निकाल कर उसे थमा दिया यह कह कर कि एक मेरा टिकट भी सुंदरनगर का ले आना. गाड़ी का समय भी हो गया परंतु वह व्यक्ति लौट कर नहीं आया.

जब गाड़ी के चलने का समय हो गया तब मैं ने सारी बात कंडक्टर को बताई. फिर मैं टिकट खिड़की के पास भी गया. परंतु वह व्यक्ति रफूचक्कर हो चुका था. मैं असमंजस में फंस गया क्योंकि मेरी जेब में पैसे नहीं थे. मेरी आंखों से मजबूरी के आंसू निकलने लगे.

डा. आर के गुप्ता, मंडी (हि.प्र.)

बात कुछ वर्ष पहले की है. हम किराए के जिस मकान में रहते थे वहां सामने बड़ा सा आंगन था. मेरे घर में काफी पुराने अखबार जमा हो गए थे. एक दिन मैं ने एक रद्दी वाले को आवाज लगाई. रद्दी लेने वाले 2 कम उम्र के बच्चे थे. मैं ने सारे अखबार ला कर आंगन में रखे और उन बच्चों से तोलने के लिए कहा.

उन बच्चों ने अखबार तोले और बताया कि 5 किलो हैं. 5 रुपए प्रति किलो के हिसाब से 25 रुपए उन्होंने मुझे दिए. उन को कम उम्र में यह काम करते देख कर मुझे दया आ गई. मैं ने उन्हें पीने के लिए पानी दिया और बिस्कुट भी दिए. फिर मैं ने उन से कहा कि ये सब बाहर ले जाओ और थोड़ी देर में वे चले गए.

उन के जाने के बाद मैं तुलसी के पौधे  में पानी डालने गई तो देखा वहां रखा अगरबत्तीदान गायब था. असल  में तुलसी के गमले पर रखा हुआ अगरबत्तीदान पीतल का था जिस की कीमत कम से कम 50 रुपए थी. मासूम से दिखने वाले वे बच्चे मुझे दिनदहाड़े बेवकूफ बना गए थे.

वंदना मानवटकर, सिवनी (.प्र.)

मेरे पति और मेरे जेठ एक ही दुकान पर काम करते हैं. दुकान घर से 1 किलोमीटर की दूरी पर है. वे दोनों पैदल ही जाते हैं.

एक दिन मेरे जेठजी दोपहर 12 बजे घर से दुकान के लिए निकले. आधे रास्ते पर ही उन्हें एक लड़के ने बुलाया और कहा, ‘‘मुझे आंख में तकलीफ है. आप किसी आसपास के डाक्टर का पता बता दीजिए.’’ उन के मना करने पर उस लड़के ने उन्हें बातों में उलझा कर कुछ मंत्र पढ़ना शुरू किया और मेरे जेठजी को अपने वश में कर के उन की गले की चेन, अंगूठी और पर्स ले कर चंपत हो गया.

हर्षा भागचंदानी, लखनऊ (.प्र.)

मेरे पापा

मैं पढ़ने में हमेशा अच्छी रही हूं. पेंटिंग और डिबेट में भी मैं ने हमेशा पुरस्कार जीते हैं. 8वीं क्लास में प्रथम आने के बाद मेरा मन पढ़ाई में कम खेलकूद व पेंटिंग में ज्यादा लगने लगा था. नतीजा यह हुआ कि मैं क्लास टैस्ट में पिछड़ने लगी थी और अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरा प्रदर्शन बहुत खराब रहा.

तब मेरे पापा ने मुझे अपने पास बुला कर खराब प्रदर्शन की वजह पूछी. मेरे द्वारा संतोषजनक जवाब न मिलने पर पापा ने मुझ से मेरे दिन का शैड्यूल मांगा व उसे चैक किया. मेरे शैड्यूल में खेलने के घंटे पढ़ाई के घंटे से डबल थे.

यह देख पापा बहुत नाराज हुए. फिर उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, पढ़ाई खुद एक खेल है. इसे खेल की तरह समझो. तुम्हें यह किसी भी खेल से ज्यादा मजेदार लगेगी. क्योंकि इस से तुम्हारा ज्ञान तो बढ़ेगा ही साथ ही स्कूल, घर और समाज में प्रतिष्ठा भी मिलेगी. यही पढ़ाई आगे चल कर तुम्हारे सुनहरे भविष्य का निर्माण भी करेगी.’’

पापा की यह सीख मेरे दिल को छू गई. इस के बाद मैं दिल लगा कर पढ़ने लगी. आज मैं 2 विषयों में एम ए कर चुकी हूं. यह सबकुछ मेरे पापा की वजह से ही हुआ है.

अमृता पांडेय, रोहिणी (दिल्ली)

 

मेरे बचपन का ज्यादातर वक्त पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कसबा मानिकतल्ला बाजार में गुजरा है. छोटा पुत्र होने के कारण मैं अपनी मां का बहुत दुलारा था. मुझे चौकलेट बहुत प्रिय थी. उस समय मेरी उम्र लगभग 10 वर्ष की रही होगी. मैं श्रीरामपुर के एक स्कूल में 5वीं कक्षा का विद्यार्थी था.

एक दिन किसी बात को ले कर मां व पिताजी के बीच जोरों का झगड़ा हो रहा था, जो मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा था. मैं ने आव देखा न ताव, एक डंडा पिताजी की पीठ पर दे मारा. वे दर्द से बिलबिला उठे व मुझे मारने के लिए दौड़े. मैं उन के डर से भाग कर अपने घर के बगल में स्थित अमरूद के एक पेड़ की सब से ऊंची शाखा पर चढ़ गया.

अमरूद के पेड़ के बगल में एक गहरा तालाब था व पेड़ की कुछ शाखाएं तालाब के ऊपर थीं. मेरे वजन से पेड़ की शाखा ऊपरनीचे हो रही थी तभी पिताजी को ऐसा आभास हुआ कि पेड़ की शाखा से तालाब में गिरने पर मेरी जान खतरे में पड़ सकती है. वे वहां से चले गए व 5 मिनट बाद लौटे तो उन के हाथ की मुट्ठी चौकलेट से भरी हुई थी.

उन्होंने मुझे दुलारते हुए नीचे आ कर चौकलेट लेने के लिए कहा. मैं सहमते हुए नीचे उतरा व सारी चौकलेटें ले लीं. फिर उन्होंने मुझे प्यार करते हुए समझाया कि गलती हो तो भी किसी को मारा नहीं करते. मैं पिताजी के पैरों पर गिर गया और उन से माफी मांगी. उन्होंने मुझे गले से लगा लिया.

के चंद्रा, पटना (बिहार)

 

तुम्हारी खामोशी

तुम कुछ कहना चाहती हो

मगर तुम खामोश ही रहना

तुम बोलोगी तो

अधरों को जुम्बिश होगी

तुम्हारी हंसीखामोशी का नूर

चांद चुरा लेगा

मैं ठगा सा रह जाऊंगा

तुम्हें तो मुसकरा कर चूम लूंगा

मगर चांद को बहला नहीं पाऊंगा

इसलिए तुम खामोश ही रहना

तुम बोलोगी तो

तुम्हारी खनकती आवाज

एक तरन्नुम बन जाएगी

हवा की सरगोशियों में उलझ जाएगी

तुम्हें तो मैं कान के बुंदे

और ताजमहल की रेप्लिका दे कर

पा लूंगा मोहब्बत की जागीर

मगर निगोड़ी हवा को

आंख नहीं दिखा पाऊंगा

इसलिए तुम खामोश ही रहना

सच कहूं तो तुम्हारी खामोशी

मुझे भली सी लगती है

आई लव यू, आई एम फोर यू

आई विल बी फोर यू फोरएवर

ये सबकुछ तो बोल दिया है मैं ने

अब तुम्हारी खामोशी में

इजहार है, इनकार और इकरार भी

तुम्हारी खामोशी सुनने के लिए

खुद खामोश हो रहा हूं

तुम भी खामोश ही रह

आईवीएफ तकनीक भरे सूनी गोद

हर औरत का सपना मां बनने का होता है. मां न बन पाने की स्थिति में वह डिप्रैशन की शिकार हो जाती है. उस के परिवार वालों का रवैया भी उस के प्रति बदल जाता है लेकिन अब विज्ञान ने बांझपन को दूर करने के लिए कई रास्ते खोज लिए हैं. इन में से एक है आईवीएफ तकनीक यानी इन विट्रो फर्टिलाइजेशन.

कृत्रिम तरीके से स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु को मानव शरीर के बाहर मिलान करने से बने भ्रूण को स्त्री के गर्भाशय में पुन: स्थापित करने की प्रक्रिया को आईवीएफ कहते हैं. करीब 3 दशकों से इस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है पर हाल के कुछ वर्षों में इस की खासी डिमांड बढ़ी है.

बांझपन का मुख्य कारण हार्मोन असंतुलन, महिला की फेलोपियन नलिकाओं में रुकावट व पुरुष शुक्राणुओं की पूरी तरह से अनुपस्थिति या फिर पर्याप्त संख्या में न होना होता है. इस के अलावा अगर स्त्री के गर्भाशय से जुड़ी नलिकाएं काम न कर रही हों, बंद हों या खराब हों, बच्चेदानी के मुंह में इन्फैक्शन हो या शारीरिक रूप से डिसेबल हों और संभोग प्रक्रिया संभव न हो तो संतानसुख नहीं मिल पाता. ऐसे में कृत्रिम गर्भाधान यानी आईवीएफ ही संतानसुख प्राप्त करने का जरिया बचता है.

नई दिल्ली स्थित रौकलैंड अस्पताल की गाइनीकोलौजिस्ट डा. आशा शर्मा कहती हैं कि इस तकनीक में पुरुषों के शुक्राणुओं की जांच आवश्यक है. आमतौर पर 60 से 120 मिलियन तक शुक्राणु होते हैं, जिन में से 60 से 80 प्रतिशत शुक्राणु जिंदा होते हैं. लेकिन आजकल आईवीएफ तकनीक की सहायता से वे महिलाएं भी संतान का सुख भोग सकती हैं जिन के पतियों में शुक्राणु बन तो रहे हैं पर किसी कारणवश वीर्य की जांच करने पर दिखाई नहीं देते हैं. ऐसे लोगों के लिए आईसीएसआई तकनीक उपलब्ध है.

इस के अलावा वर्तमान में कई ऐसी तकनीक उपलब्ध हैं जिन की सहायता से मां बन पाने में असमर्थ महिलाएं संतानसुख भोग सकती हैं.

वर्तमान में प्रचलित उपलब्ध तकनीक हैं, जेडआईएफटी, जीआईएफटी और पीजीडी तकनीक.

जांच है जरूरी महिलाओं के लिए यह जानना जरूरी है कि उन्हें इन में से किस तकनीक की आवश्यकता है. इन तकनीक का इस्तेमाल आमतौर पर उन महिलाओं में किया जाता है जिन की दोनों फेलोपियन ट्यूब ब्लौक होती हैं. फेलोपियन ट्यूब के ब्लौक होने के कई कारण होते हैं. मसलन, ऐक्टोपिक प्रेग्नैंसी, एनडोमेटरिओसिस या नलियों में सूजन आदि.

इन तकनीक का इस्तेमाल करने से पहले महिला व पुरुष को कई प्रकार की खून की जांच करानी पड़ती है. पुरुषों की जांच में वीर्य की जांच के अलावा खून की विभिन्न जांचें जैसे–थायराइड, सीबीसी, एचआईवी, वीडीआरएल, ब्लड ग्रुप जांच, ब्लड शुगर व हेपेटाइटिस ‘बी’ अनिवार्य हैं.

इन जांचों के दौरान यदि कोई बीमारी निकलती है तो इन तकनीकों का इस्तेमाल करने से पहले उस बीमारी का इलाज किया जाता है. महिलाओं में खून की जांच में सीबीसी, ब्लड शुगर, एचआईवी, हेपेटाइटिस ‘बी’, यूडीपीएल, थायराइड, हार्मोनल प्रोफाइल अनिवार्य हैं.

इन के अलावा पेल्विस का अल्ट्रासाउंड भी जरूरी है. इन सभी जांचों के बाद महिलाओं की हिसटेरास्कोपिक व लेप्रोस्कोपिक जांच की जाती हैं. इस तकनीक में दूरबीन के द्वारा गर्भाशय के अंदर कोई पोलिप या रसोली यदि देखी जाती है तो उस का इलाज भी किया जा सकता है. इस के बाद आईवीएफ तकनीक द्वारा बच्चा ठहरने के अवसर बढ़ जाते हैं. लेप्रोस्कोपिक तकनीक से पेट के अंदर देखा जाता है व फेलोपियन ट्यूब के बंद होने का कारण पता लगाया जा सकता है.

आईवीएफ तकनीक में अंडाशय से अंडे को निकालते हैं. यह एक आउटडोर क्रिया है. अंडे को स्पैशल औजारों से निकाल कर एक डिश में रखते हैं. उस डिश में पुरुष के शुक्राणु को डाल कर निषेचित कर भ्रूण तैयार किया जाता है. फिर उस डिश को इन्क्यूबेटर में रख कर 3 से 4 दिन में भ्रूण को गर्भाशय में एक नली के द्वारा डाल दिया जाता है. इस तकनीक में पहले हर मरीज का एक स्पैशल हार्मोन से इलाज किया जाता है. इस से बच्चे को बढ़ने में मदद मिलती है. यह हार्मोनल उपचार भ्रूण के गर्भाशय में पहुंचने के बाद 3 से 4 महीने तक चलता है जब तक प्लेसेंटा बनता है.

बरतें सावधानियां

जैसेजैसे उम्र बढ़ती है वैसेवैसे आईवीएफ की सफलता की दर कम होती जाती है. 30 से 34 वर्ष की महिला के लिए इस तकनीक की सफलता 40-45 प्रतिशत होती है जबकि 35 वर्ष से अधिक आयु की महिला के लिए यह दर 30-35 प्रतिशत होती है.

40 वर्ष की आयु में यह दर और भी कम हो कर 15 प्रतिशत रह जाती है और 40 वर्ष के बाद तो सफलता की दर केवल 5 प्रतिशत रह जाती है.

सरोगेसी सैंटर इंडिया यानी एससीआई की डायरैक्टर डा. शिवाणी सचदेव गौर के मुताबिक, अगर आप ने गर्भधारण के लिए आईवीएफ का सहारा लिया है तो आप को कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए ताकि इस के सफल रहने की संभावना बढ़ जाए, जैसे :

1. हैवी वर्कआउट या व्यायाम न करें.

2. नशीले पदार्थों का सेवन न करें.

3.संभोग न करें.

4. भारी वजन न उठाएं.

5. एरोबिक्स जैसी गतिविधियां न करें.

6. धूप से बचें और तैराकी भी न करें.

आप को अपने दिमाग से सभी प्रकार के नकारात्मक विचारों को दूर करना होगा. रिलैक्स रहें. अपने डाक्टर से नियमित रूप से सलाह लें. अगर कोई समस्या या अजीब लक्षण दिखाई दे तो तुरंत डाक्टर को बताएं. अगर आप रिलैक्स नहीं कर पा रही हैं तो मैडिटेशन जैसी रिलैक्ंिसग तकनीक का सहारा ले सकती हैं, अपने आसपास के वातावरण को शांत बनाएं. अपनी गर्भावस्था को ऐंजौय करने के लिए खुश रहने की कोशिश करें.

मातृत्व औरत के जीवन का सब से सुखद पल होता है पर जब वह इस सुख से वंचित रह जाती है तो घरपरिवार व समाज में उस की साख भी दांव पर लग जाती है. पर अब आईवीएफ तकनीक ने देशभर में सूनी गोद के संताप में डूबी औरतों को मातृत्वसुख का उपहार दिया है. विज्ञान के इस तकनीकी उपहार से हर सूनी गोद भरी जा रही है.     

खतरा सुपरबग का

इंसान के जिस्म में पाए जाने वाले हानिकारक बैक्टीरिया दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता यानी अपने भीतर ड्रग रेजिस्टैंस विकसित कर लेते हैं तो उन पर लगाम लगाना चिकित्सा जगत के लिए मुश्किल हो जाता है. चिकित्सा विज्ञान ऐसे बैक्टीरिया को सुपरबग की संज्ञा देता है और ऐसे ही सुपरबग की मौजूदगी की चेतावनी हाल में आईआईटी (दिल्ली) और ब्रिटेन की न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सा झा रूप से भारत के तीर्थस्थलों के बारे में दी है. इन वैज्ञानिकों ने देश के प्रमुख तीर्थस्थलों (हरिद्वार और ऋषिकेश) में पिछले साल मई व जून में एक अध्ययन किया और पाया कि इस दौरान गंगा में डुबकी लगाने आए लाखों लोगों के लिए ऐंटीबायोटिक प्रतिरोधी सुपरबग का खतरा करीब 60 गुना ज्यादा बढ़ गया था.

धार्मिक तीर्थों पर सुपरबग की जांचपड़ताल में जुटे न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के एनवायरमैंटल इंजीनियर प्रोफैसर डेविड ग्राहम ने इस बारे में जानकारी दी है कि इन तीर्थस्थलों पर नदी के पानी के बैक्टीरिया में एक खास तरह का प्रतिरोधी जीन बीएलएनडीएम-1 मौजूद रहता है जो ऐंटीबायोटिक दवाओं को बेअसर कर देता है. ऐसे में, यदि किसी वजह से गंगा में डुबकी लगाने वाले लोग ठंड या सर्दीजुकाम जैसे संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं तो उन का इलाज मुश्किल हो जाता है क्योंकि उन पर ऐंटीबायोटिक दवाएं काम ही नहीं कर पाती हैं.

खतरा सिर्फ दवाओं के बेअसर होने का नहीं है, बल्कि सुपरबग के ताकतवर होते जाने का है क्योंकि ये नई से नई दवाओं के खिलाफ भी प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं जिस से मामूली बीमारियों के भी महामारी में बदल जाने का संकट खड़ा हो जाता है. यहां अहम सवाल यह है कि क्या सुपरबग साफसफाई की कमी या विषैले प्रदूषण की पैदावार हैं या फिर उन्हें दुनिया में ऐंटीबायोटिक के बढ़ते इस्तेमाल ने पैदा किया है.

दुनिया की आबोहवा में इंसानों को बीमार करने वाले विषाणु हमेशा से मौजूद रहे हैं और आधुनिक चिकित्सा की 90 फीसदी जंग बैक्टीरिया से पैदा होने वाले संक्रमणों को खत्म करना रही है. यह सच है कि दूषित हवापानी ऐसे विषाणुओं की पैदावार में सहायक होते हैं जो कई बार जानलेवा भी होते हैं. धर्मस्थलों, खासतौर से हिंदू तीर्थस्थलों पर जिस तरह से लोग आंख मूंद कर पंडों के बहकावों में आ कर धार्मिक भक्तिभाव से नदियों के गंदे जल में स्नान करने का दुस्साहस करते हैं, वह जानबू झ कर अपनी सेहत से खिलवाड़ करना ही है.

हरिद्वार या ऋषिकेश की गंगा हो या दिल्ली की यमुना नदी, आज इन नदियों में मिलने वाले सीवेज, सीवर के ट्रीटेड पानी, कारखानों के कचरायुक्त जल आदि वजहों से ये भयानक ढंग से प्रदूषित हैं. दिल्ली में यमुना नदी एक गंदे नाले में तबदील हुई पड़ी है, लेकिन छठ जैसे धार्मिक पर्व पर लोग इस में डुबकी लगाने का जोखिम उठाने से बाज नहीं आते हैं.

आश्चर्य है कि सरकार यह जानते हुए भी कि नदियों के प्रदूषित जल में भयानक सुपरबग हो सकते हैं, गंगादशहरा और छठ जैसे पर्वों पर जनता के स्नान के लिए तो ढेर सारे प्रबंध कर देती है पर स्नानघाटों पर कहीं ऐसी चेतावनी का एक बोर्ड तक नहीं लगाती कि नदी के प्रदूषित जल में स्नान करने से लोगों को जानलेवा सुपरबग अपनी जकड़ में ले सकता है. अगर सरकार ऐसा कुछ करेगी तो धर्म के दुकानदार उठ खड़े होंगे क्योंकि उन की रोजीरोटी मारी जाएगी. प्रदूषण के प्रति जनता और सरकार की लापरवाही इस समस्या का एक पक्ष है, दूसरा पक्ष ऐंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता वाले सुपरबग्स का सामने आना है जिन का सिलसिला इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है.

खतरनाक सुपरबग

भारत में ऐंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी सुपरबग विकसित होने की अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं. इस की ज्यादा चर्चा वर्ष 2010 में तब हुई थी जब एक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘लांसेट’ ने भारत के अस्पतालों में एक सुपरबग एनडीएम-1 की मौजूदगी का दावा किया था. हालांकि सरकार ने आननफानन देश में ऐसे किसी सुपरबग की उपस्थिति से साफ इनकार कर दिया था लेकिन बाद में दिल्ली के एक नामी अस्पताल ने अपने यहां एनडीएम-1 मौजूद होने की बात मान ली थी. बाद में दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में भी यह सुपरबग मौजूद पाया गया था. हालांकि उस वक्त एनडीएम-1 की चर्चा इस रूप में ज्यादा हुई थी कि इस के जरिए भारत को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है. असल में, लांसेट की रिपोर्ट में जिस सुपरबग एनडीएम-1 का हवाला दिया गया था, उस के नाम में दिल्ली जोड़ा गया था. इसे ‘न्यू डेल्ही मेटालो बी लेक्टामेज’ (एनडीएम-1) कहा गया तो सरकार ने इस के नामकरण पर एतराज प्रकट किया था. ऐसा नामकरण अवश्य ही चिंता की बात थी, लेकिन इस सुपरबग के प्रकट होने के साथ ही देश में यह चर्चा जोर पकड़ गई थी कि आखिर ऐसे सुपरबग कहां से ताकत पा रहे हैं और क्या यह अकेला सुपरबग है?

छानबीन से पता चला कि एनडीएम-1 अकेला सुपरबग नहीं है. ‘मेथिसिलिन रेसिस्टैंट स्टेफाइलोकौक्कस औरियस’ (एमआरएसए) नाम के बैक्टीरिया पर भी बहुत से ऐंटीबायोटिक्स का असर नहीं हो रहा है. एमआरएसए के कारण मूत्रमार्ग का घातक संक्रमण, निमोनिया और जख्मों में इन्फैक्शन हो सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सरकार ढंग से पड़ताल कराए तो कई और सुपरबग्स का पता चल सकता है. इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च ने कुछ समय पहले ऐसे ही अज्ञात सुपरबग्स का पता लगाने के लिए एक प्रोजैक्ट की शुरुआत की थी. जहां तक सुपरबग्स के दिनोंदिन ताकतवर होते जाने का सवाल है, तो सारे विज्ञानी इस बारे में एकमत हैं कि ऐसा ऐंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध और लापरवाह इस्तेमाल की वजह से हो रहा है. एक तरफ तो खुद मरीज डाक्टरों से बीमारी जल्दी ठीक करने का आग्रह करते हुए ताकतवर ऐंटीबायोटिक लिख देने का दबाव बनाते हैं, वहीं दूसरी तरफ कई बार वे खुद ही दवाओं की ताकतवर डोज ले लेते हैं. शुरूशुरू में तो ये ऐंटीबायोटिक अपना असर दिखाते हैं लेकिन धीरेधीरे ये भी अपना प्रभाव खो देते हैं क्योंकि बारबार ज्यादा ताकतवर दवाएं लेते रहने पर बीमारियों के बैक्टीरिया इन के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं.

बड़ी चुनौती

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिल्ली में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, दिल्ली में 47 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि अगर सामान्य जुकाम के लिए उन का डाक्टर उन को ऐंटीबायोटिक नहीं लिखता है तो वे डाक्टर बदल देंगे. इसी तरह ऐसे लोगों की तादाद 53 प्रतिशत थी जिन्होंने माना कि बीमार होने पर वे खुद ऐंटीबायोटिक ले लेते हैं और अपने परिवार वालों को भी देते हैं. समस्या बिना पूरी जांच के या फिर अपनी डाक्टरी चमकाने के मकसद से ज्यादा ताकत वाली दवाएं खुद डाक्टरों द्वारा सुझाए जाने की भी है. ऐसे डाक्टरों के मरीज ठीक तो जल्दी हो जाते हैं लेकिन उन्हीं दवाओं के खिलाफ बहुत जल्दी सुपरबग भी विकसित हो जाते हैं. इस समय ड्रग इंडस्ट्री के सामने सब से बड़ी चुनौती यही है कि कैसे वह सामने आ रहे सुपरबग्स के खिलाफ और ज्यादा ताकतवर ऐंटीबायोटिक दवाएं बनाए.

असल में, मामला कुल मिला कर ऐंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग का है. इस के खतरों के बारे में आगाह करते हुए 2 साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की डा. नाता मेनाब्दे ने कहा था कि बड़ी तादाद में प्रथम पंक्ति की ऐंटीबायोटिक दवाएं असर करना बंद कर रही हैं. यही नहीं, दूसरी और तीसरी पंक्ति की दवाएं न केवल बहुत ज्यादा महंगी होती हैं बल्कि उन के दुष्प्रभाव भी ज्यादा होते हैं. वे लोग जिन पर बहुत सारी दवाएं बेअसर हो चुकी हैं वे अपनी बीमारियों के जीवाणु फैलाते हैं. इस से उन के संपर्क में आने वाले लोग भी उन विषाणुओं से ग्रस्त हो जाते हैं और उन पर भी दवाओं का असर नहीं होता. इस के कारण भारत पर छूत की बीमारियों का बहुत बड़ा बो झ पड़ गया है. स्थिति यह है कि भारत में हर साल 1 लाख मल्टी ड्रग रेसिस्टैंट टीबी के मरीज बढ़ रहे हैं. टीबी के इस प्रकार से निबटने में जो दवाएं इस्तेमाल होती हैं वे सामान्य दवाओं से 100 गुना ज्यादा महंगी हैं और उस पर भी वे बेअसर साबित हो रही हैं.

चिकित्सकीय आपदा

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर किसी मरीज की बीमारी की सही जांच हुए बगैर कोई डाक्टर 48 घंटे तक उसे ऐंटीबायोटिक दवाएं देता है तो यह बेहद खतरनाक बात है क्योंकि बीमारी का तो पता ही नहीं है. इस समस्या से संबंधित शोध अध्ययनों में बताया गया है कि निमोनिया जैसी बीमारी में सही कारण जाने बगैर इलाज में अस्पताल में ही मरीज की मृत्यु का खतरा दोगुना तक बढ़ जाता है. इसी तरह अगर मरीज के शरीर में मौजूद बैक्टीरिया में दवा के खिलाफ प्रतिरोधी ताकत हो तो निमोनिया 20 से 60 फीसदी ज्यादा बढ़ सकता है.

अमेरिका की रौकफेलर यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलौजिस्ट अलैक्जेंडर टोमाज ऐसी वजहों को ‘मैडिकल डिजास्टर’ कह चुके हैं. उन्होंने इस का उदाहरण देते हुए बताया था कि 1992 में अमेरिकी अस्पतालों में 19 हजार और अस्पतालों के बाहर 58 हजार मौतें ऐसी ही लापरवाही के कारण हुई थीं. एक अन्य वैज्ञानिक थौमस हसलर ने अपनी किताब ‘वायरसेज वर्सेस सुपरबग्स’ में खुलासा किया था कि करीब एक दशक पहले 2005 में अमेरिका में 20 लाख लोग इन्फैक्शनों की चपेट में आए, जिन में से 90 हजार की मौत हो गई. इतनी अधिक मौतों की एकमात्र वजह ऐंटीबायोटिक दवाओं की असफलता थी. इस से यह साबित हुआ कि इन में से ज्यादातर मरीजों का अस्पतालों में या निजी डाक्टरों द्वारा इलाज किया जा रहा था और उन्हें ऐंटीबायोटिक दिए जा रहे थे.

इन मामलों से साफ है कि मुकम्मल इलाज सिर्फ दवाओं में नहीं, साफसफाई के प्रति सजग रहने और प्रदूषण से खुद को दूर रखने से ही मुमकिन है. भारत में डाक्टरों की लापरवाही और मरीजों की नीमहकीमी के अलावा एक समस्या खराब डायग्नोसिस की भी है. अच्छी पैथोलौजी लैब्स का देश में बड़ा अकाल है और लोग भी दवाओं व डाक्टर की फीस के बाद जांच के तीसरे खर्च से बचना चाहते हैं. बीमारी का बिलकुल सही निर्धारण और उसी के अनुरूप ऐंटीबायोटिक का सटीक इस्तेमाल हमारे जीवनव्यवहार का हिस्सा बनना चाहिए. इस के बजाय अंधाधुंध ऐंटीबायोटिक ले कर हम न सिर्फ अपने बल्कि पूरी दुनिया के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं.                        

पाठकों की समस्याएं

मैं 30 वर्षीय महिला हूं. मुझ से एक लड़के ने कहा कि वह मुझ से बहुत प्यार करता है. मैं ने उस की बात पर भरोसा कर लिया और मैं भी उस से आकर्षित हो कर उस से प्यार करने लगी. इसी दौरान एक दिन उस लड़के ने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया और गले में मंगलसूत्र पहना दिया. लेकिन अब वह मुझ से बात भी नहीं करता है. इस स्थिति में मैं क्या करूं?

पहली गलती आप की है कि आप ने भावनाओं में बह कर उस लड़के की चिकनीचुपड़ी बातों पर विश्वास कर लिया और उसी विश्वास का उस लड़के ने फायदा उठाया. उस ने आप की मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र सिर्फ मजे के लिए पहनाया. अगर वह आप से वास्तव में विवाह करना चाहता तो अपने परिवार वालों से आप को मिलवाता और जो भी करता सब के सामने करता. आप इस घटना को सिर्फ एक बचकानी हरकत समझ कर भूल जाइए और एक परिपक्व महिला की तरह व्यवहार कीजिए, इसी में आप की भलाई है.

मेरी 45 वर्षीय मां सरकारी नौकरी में हैं. घर में पापा और भाई हैं. 7 वर्ष पूर्व मां ने एक लड़के से रौंग नंबर पर बात की थी. लड़के को फोन पर मां का स्वभाव इतना पसंद आया कि वह उन से बिना मिले ही 2 साल तक फोन पर बातें करता रहा. मां ने उस लड़के को अपनी उम्र 35 वर्ष बताई थी. मां ने ऐसा सिर्फ मजाक में किया था. अब वह लड़का कहीं और चला गया है तो पिछले 5 वर्षों से मां इसी तरह किसी और लड़के से फोन पर बात करती हैं. दोनों एकदूसरे को खूब मैसेज भेजते हैं. मां घर और औफिस की सभी जिम्मेदारियों को बखूबी नियमित रूप से निभाती भी हैं. समाज में उन्हें पूरा मानसम्मान मिलता है. वह लड़का अब एक डिगरी कालेज में नौकरी कर रहा है. दोनों गर्लफ्रैंड बौयफ्रैंड की तरह बातें करते हैं. मैं जानना चाहती हूं कि मेरी मां क्या मानसिक रूप से बीमार हैं?

आप की मां पूरी तरह से स्वस्थ हैं. जिस तरह आप स्कूलफ्रैंड, कालेजफ्रैंड, औफिसफ्रैंड बनाते हैं ठीक उसी तरह उन लड़कों का आप की मां के साथ फोनफ्रैंड का रिश्ता है. अगर आप की मां को और उन लड़कों को एकदूसरे से बात कर के अच्छा लगता है तो इस में कुछ गलत नहीं है क्योंकि उन्हें अपनी सीमाओं की जानकारी है. आप की मां समझदार, कर्तव्यनिष्ठ महिला हैं. कई बार कोई हमें इतना अच्छा लगता है कि हम उस से बिना मिले ही बात करते रहते हैं. ऐसा ही कुछ आप की मां के साथ है. इसे दोस्ताना संस्कृति का हिस्सा मानिए जिस में उम्र नहीं देखी जाती. मां के इस व्यवहार को सामान्य समझिए और बेफिक्र रहिए क्योंकि वे आप से कुछ भी छिपा नहीं रही हैं.

मेरे विवाह को 2 महीने हो गए हैं, फिर भी मेरे पति हर रोज मेरे साथ सैक्स करना चाहते हैं. इस से मुझे बहुत तकलीफ होती है. वे मानते नहीं हैं. इस से बचने का कोई तरीका बताइए?

आप के विवाह को 2 महीने ही हुए हैं. ऐेसे में पति का सैक्स इच्छा रखना जायज है. जहां तक आप को सैक्स के दौरान तकलीफ होने की समस्या है उस के लिए आप किसी अच्छे ब्रैंड के ल्यूब्रिकेंट का प्रयोग करें और पति को फोरप्ले के लिए प्रेरित करें. इस से तकलीफ कम होगी. इस के अलावा आप इंटरकोर्स को आनंददायक बनाने के लिए माहौल को खुशनुमा बनाएं, सैक्स के प्रति अपने मन में उपजे भय को भगाएं, साथ ही सैक्स इच्छा बढ़ाने के लिए किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ से भी सलाह लें.

मैं 60 वर्षीय सेवानिवृत्त पुरुष हूं. पत्नी 54 वर्षीय सेवारत डिप्रैशन से गुजर रही महिला हैं. 7 वर्ष पूर्व हमारे साथ एक अत्यंत दुखदायी घटना हो गई थी, हम ने अपने युवा पुत्र को खोया था. बेटाबहू बाहर रहते हैं जो अपनी दुनिया में मस्त हैं. समस्या यह है कि उस दुर्घटना के बाद से पत्नी को सैक्स से नफरत हो गई है और वह साधुमहात्माओं पूजापाठ में व्यस्त रहती हैं. बहुत कहने पर भी महीने में 1-2 बार ही सैक्स हो पाता है. हैरानी की बात यह है कि डिप्रैशन, सैक्स से अरुचि के बावजूद अपने साजशृंगार में उन की पूरी रुचि रहती है. मैं पत्नी के इस रवैये से परेशान हूं. मैं सप्ताह में 2 दिन सहवास की इच्छा रखता हूं. मैं जानना चाहता हूं कि 60 वर्ष की उम्र में मेरा सैक्स की मांग करना अनुचित तो नहीं है?

आप अपनी पत्नी की तरफ से शारीरिक अलगाव की समस्या से जूझ रहे हैं जो आप की जरूरत है. यह मांग कदापि गलत नहीं है. विश्वस्तर पर हुई अनेक रिसर्च भी यही साबित करती हैं कि सैक्स की जरूरत का उम्र से कोई लेनादेना नहीं है. सैक्स स्वस्थ व सुखी जीवन के लिए बेहद उपयोगी साबित होता है. सैक्स स्वस्थ रहने का बेहतरीन टौनिक है. जैसे पेट की भूख मिटाने के लिए भोजन जरूरी है उसी तरह मन की भूख मिटाने के लिए सैक्स जरूरी है. आप की पत्नी का साधुमहात्मा, मठमंदिर में व्यस्त होना ही उन में सैक्स के प्रति नीरसता ला रहा है. आप इस बारे में पत्नी को सम झाएं और अपनी जरूरत बताएं. उन के बनावशृंगार की तारीफ करें व नजदीकियां बढ़ाएं और साथ ही, अपने मन से सैक्स की मांग को गलत सम झने का अपराधभाव निकाल दें.

मैं 35 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं. मेरी पत्नी शारीरिक संबंधों को ले कर मुझ से संतुष्ट नहीं रहती है. पिछले दिनों मैं ने पत्नी को किसी अन्य पुरुष के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया. अब मेरी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा नहीं होती. क्या करूं?

क्या कभी आप ने अपनी पत्नी से यह जानने की कोशिश की कि वह आप से संतुष्ट क्यों नहीं है? अपनी कमी को दूर करने के लिए किसी सैक्सोलौजिस्ट से संपर्क करें. पत्नी को किसी और के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखने की घटना को एक दुर्घटना समझ कर भूल जाएं और पत्नी को संतुष्ट करने का प्रयास करें. जब पत्नी आप से संतुष्ट होगी तो सबकुछ सामान्य हो जाएगा.

कांग्रेस का पतन

कांगे्रस के पतन की कहानी वैसे तो कई बार लिखी जा चुकी है पर इस बार वह ऐसे गड्ढे में चली गई है जो पूरा बोरवैल है, जिस में से निकल पाना असंभव सा है. कांगे्रस ने यह गड्ढा भी खुद ही खोदा था जब उस ने 2004 में सत्ता पाने के बाद पार्टी की सारी ताकत ऐसे लोगों को सौंप दी जो वास्तव में भाजपाई सोच के थे. अगर कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर, अंबिका सोनी, पी चिदंबरम, शीला दीक्षित, विजय बहुगुणा, रीता बहुगुणा जोशी आदि को जरा सा खुरचें तो उन में से कट्टरपंथी, धर्मांध नेता ही निकलेंगे.

देश को 2004 में ऐसी सरकार मिली थी जो 1992 के बाबरी मसजिद विध्वंस और 2002 के गुजरात के दंगों के घावों पर मरहम लगा सके. लेकिन उस ने ऐसे लोगों को वरीयता दे दी जो दिल से उसी सोच के थे जिस के कारण देश सदियों गुलाम रहा, देश में वर्णव्यवस्था फलीफूली, गरीबअमीर में फर्क रहा, धार्मिक भेदभाव रहा.

सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया जिस से लगे कि सत्ता का केंद्र बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वालों को मिल रहा है. सोनिया गांधी ने कई कानून बनवाए और नीतियां बनाईं जो गरीबों के लिए सहायक हो सकती हैं पर वे जनता को ऐसे परोसी गईं मानो कुत्तों को टुकड़े दिए जा रहे हैं. राहुल गांधी भाषणों में कहते रहे कि कांग्रेस ने भूखमुक्ति कानून दिया, सम्मान का कानून दिया, गैस सिलेंडर दिए कि मानो वे अपनी खुद की जागीर से दे रहे हों.

ये तो जनता के पैसे से दिए गए थे जनाब राहुल गांधी.

देश की अर्थव्यवस्था की डोर उन 70-80 करोड़ गरीबों के हाथों में है जो उत्पादन करते हैं, अनाज पैदा करते हैं, सामान ढोते हैं, ट्रक चलाते हैं, कारखानों में काम करते हैं, घरों में सफाई करते हैं, सड़कें बनाते हैं. कांगे्रस का कौन सा नेता इन समाजों से आ रहा है. कांगे्रस ने 1947 के बाद से ही ब्राह्मण व ऊंची जातियों के लोगों को नेतृत्व दिया जो 2004 में भी नहीं बदला.

सोनिया गांधी के इर्दगिर्द जमा लोगों के चेहरे देखें, एक भी पिछड़े या दलित समाज का दिखाई न देगा. कलेवा बांधे लोग किसी भी तरह वर्णव्यवस्था व आर्थिक नीतियों की जंजीरों को तोड़ने को तैयार नहीं. बराबरी के अवसर देना और सामाजिक सुधार लाना सोनिया गांधी और उन के सक्षम अमीर नेताओं के खून में था ही नहीं.

अब जब कांगे्रस बुरी तरह हार चुकी है, उस का कोई बदलाव उन करोड़ों का भरोसा वापस नहीं दिला सकता जिन्होंने कभी कांगे्रस पर भरोसा किया था.

सोनिया गांधी अगर हिंदू समाज के इन वर्णव्यवस्था व जाति के दोषों को सम झती भी होंगी तो राहुल व प्रियंका की सम झ से परे हैं. इन के इर्दगिर्द के लोग उस व्यवस्था को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं और जो लोग इस के शिकार हैं, अब कांगे्रस पर कभी भरोसा न करेंगे.

परिवर्तन की दरकार

नरेंद्र मोदी की चुनावों में भारी जीत और उस के बाद भाजपा विरोधी विचारधाराओं के लोगों द्वारा स्वीकार्यता के पीछे एक कारण मोदी का शब्दों का चयन है जिस में विकास, आशा, आशावादी, कर्मठता, चुनौती शामिल हैं. एक देश और समाज का निर्माण तभी होता है जब उस के नेता समाज और देश को यह विश्वास दिला सकें कि बहुत कुछ करना संभव है. जरूरत लक्ष्य तय करने और उसे पाने की आशा रखने की है.

यह सोच भारतीय जनता पार्टी की है या नरेंद्र मोदी की, अगले 2-3 महीनों में पता चलेगा. पर यह पक्का है कि आगे बढ़ने की सोच का अभाव ही इस देश की दुर्गति का कारण रहा है. यहां सदियों से सिखाया जा रहा है कि तुम्हें मिलेगा वही जो तुम्हारे भाग्य में है. कर्म में विश्वास रखने की बातों के बावजूद इस देश को सदा अपने भविष्य के लिए तंत्रमंत्र पर रहने को कहा गया है, अपनी आशा, कर्मठता की नाव पर चलने को नहीं. कर्म का संबंध अगले जन्म में उस के फल पाने से था, यहां इसी जन्म में उस के लाभहानि गिनने से नहीं.

नरेंद्र मोदी की ये बातें और उन की करनी अगर देश को सोते से जगा सके, उसे अपने भाग्यवाद के जंजाल से मुक्त करा दे और यह विश्वास दिला दे कि इस जमीन में ऐसा कुछ नहीं है कि केवल गरीब, खाली पेट, अनपढ़, गंदे लोग ही पैदा कर सकती है तो देश में परिवर्तन अवश्य आ सकता है.

देश को परिवर्तन की जरूरत है जो अन्य राजनीतिक दल, यहां तक कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक और तमिलनाडु में जे जयललिता भी नहीं कर पा रहे हैं. वहां काम ढंग से हो रहा है, भ्रष्टाचार के गंद की बू भी बहुत ज्यादा नहीं है पर जनता को जगाने का काम वहां भी नहीं हो रहा.

हां, अगर यह परिवर्तन सपना साबित हुआ और धर्म व संस्कृति के नाम पर वर्णव्यवस्था को परोक्ष रूप से मजबूत करना शुरू किया गया, देश की विचारों की स्वतंत्रता को कुचलना शुरू हुआ, मंदिरों और आश्रमों में नीतियां तय होनी शुरू हुईं तो मराठा राजा शिवाजी के बाद पेशवाओं के राज का सा पतन दूर न होगा जिस ने अंगरेज व्यापारियों के लिए शासन करने के रास्ते खोल दिए थे.

कालेधन पर स्पैशल टीम

काले धन की समस्या से निबटने के लिए नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में विशेष जांच टीम का गठन किया है जिस के अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश एम बी शाह होंगे. जुलाई 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी एक टीम गठित करने का आदेश मनमोहन सरकार को दिया था पर वह सरकार टालमटोल करती रही थी. मनमोहन सरकार लगातार उस फैसले को गैरकानूनी और असंवैधानिक मानती रही और बारबार सर्वोच्च न्यायालय पर उस पर पुनर्विचार करने का दबाव बना रही थी.

नरेंद्र मोदी ने यह काम पहली बैठक में कर के अगर यह बताया है कि वे काले धन के प्रति चिंतित हैं तो यह भी साफ कर दिया है कि कोई सरकार अपने पिछले कुकर्मों के लिए सदासदा के लिए सुरक्षित नहीं है. जिन मामलों में रिश्वत ली गई है उन के रिकौर्ड लंबे समय तक रहते हैं और अगर इच्छा हो तो काले धन के हस्तांतरण का रूट पता किया जा सकता है.

इस जांच टीम में चाहे विशेष गुप्तचर विभागों के प्रतिनिधि हों पर इस से बड़ी अपेक्षा करना मूर्खता होगी. राजनीति ऐसा हमाम है जिस में कोई पाकसाफ नहीं है और हरेक के शरीर की खरोंचें दिखती हैं. जांच टीम के सदस्य उसी राजनीति की देन हैं जिस से काला धन पैदा होता है. यह हमेशा का इतिहास रहा है कि लूटने वालों में पहला नंबर खजाने की रक्षा करने वालों का होता है. फर्क यह है कि लूटने वाले एकदम से लूटना चाहते हैं जबकि सुरक्षा करने वाले थोड़ाथोड़ा मगर लगातार लूटते रहते हैं.

इसलिए जांच टीम पर अभी से दबाव बनने लगेंगे कि किसे छोड़ा जाए और कैसे. जैसे पूर्व सौलीसिटर जनरल मोहन परासरण ने कहा था कि उन पर 2जी और कोयला घोटालों के दौरान खास दबाव रहा. वहीं सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा था कि उन पर सहारा मामले में दबाव रहा. अब ये दबाव मोदी छड़ी से दूर हो जाएंगे, असंभव है.

काले धन से छुटकारे के लिए जरूरी है कि कम कर और तर्कसंगत कर प्रणाली हो. आज कर देने वालों को कतारों में खड़ा होना पड़ता है, बेमतलब के जवाब देने होते हैं. अफसरों के पास अरबों रुपए सिर्फ एक हस्ताक्षर से खर्च करने के अधिकार होते हैं. मंत्रियों के कहने पर नियमों व नीतियों में बदलाव किए जाते हैं. ये सब काले धन के जनक हैं.

जिस देश में पाप को पूजा कर के पुण्य में बदला जा सकता है वहां काले धन को उस में से कुछ हिस्सा रिश्वत में दे कर सफेद तो किया ही जा सकता है, सरकार चाहे किसी की हो, कैसी हो.

वैसे भी यह विशेष जांच टीम केवल विदेशों से काले धन को लाने के लिए बनी है. हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने चाहे जो कहा हो, उस के आदेश न विदेशी सरकारों पर चलते हैं न वहां के निजी बैंकों पर. उन्हें भारत जैसे देशों की घुड़कियों का अनुभव भी बहुत है. वे अच्छेअच्छों को टरका सकते हैं. यही बैंक असल में उन बैंकों को कंट्रोल करते हैं जो भारत सरकार को रोज कर्जा देते हैं या उस का पैसा इधरउधर करते हैं. यह टीम केवल दिखावा साबित हो तो बड़ी बात नहीं.

बिल्डरों के पास ग्राहक नहीं, गरीब के पास घर नहीं

देश में तेजी से शहरीकरण हो रहा है. गांव खाली हो रहे हैं और शहरों में आबादी के साथ ही बेरोजगारों की भीड़ बढ़ रही है. शहरों के आसपास खेती की जमीन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी हो रही हैं. दिल्ली से हरिद्वार, मुरादाबाद, आगरा, जयपुर, चंडीगढ़ जिस राजमार्ग पर जाएंगे सड़कों के दोनों तरफ मकान उगते नजर आएंगे. 

आर्थिक उदारवादी व्यवस्था के बाद शहरों की तरफ तेजी से पलायन हुआ है और अर्थव्यवस्था के साथ ही शहरी आबादी में भी बूम आया है. आवासविकास मामलों के केंद्रीय मंत्रालय का कहना है कि देश के शहरों में करीब 2 करोड़ घरों की जरूरत है. शहर फैल रहे हैं और इस के मुख्य भूभाग पर धनाढ्य वर्ग का कब्जा है.

कमजोर वर्ग शहरों के बाहरी इलाकों में आवास तलाश रहा है. शहरों की तरफ इसी वर्ग का तेजी से पलायन हो रहा है और उसे ही आवास की सब से ज्यादा जरूरत है. बड़े बिल्डर नएनए प्रोजैक्ट ला रहे हैं और हजारों की तादाद में आवास बना रहे हैं लेकिन उस से निम्न आयवर्ग के लोगों को फायदा नहीं हो रहा है.

बिल्डरों की परियोजनाओं के आवास इस वर्ग की पहुंच से बाहर हैं, इसलिए प्रौपर्टी बाजार सुस्त पड़ा है. उस के ग्राहक मध्यम आयवर्ग के लोग हैं लेकिन डैवलपर्स का जोर लग्जरी घरों के निर्माण पर है जिन में उन्हें ज्यादा फायदा होता है.

पहले हर शहर में गरीबों को सस्ती दर और सरल किस्तों पर आवास उपलब्ध कराने के लिए सरकारी विकास प्राधिकरण बनाए गए जिन्होंने ठेकेदारों और इंजीनियरों की धांधली से सही, गरीबों के लिए मकान बनाए. मकान चाहने वाले ज्यादा लोग होते थे, इसलिए लौटरी सिस्टम से घर आवंटित होते थे.

अब इस तरह की परियोजनाएं लगभग बंद हो गई हैं और बिल्डरों के हाथ में भवन निर्माण चला गया है. परिणाम यह हुआ कि आज महानगरों के सस्ते मकानों में सिर्फ 7 फीसदी और लग्जरी मकानों में 130 फीसदी का इजाफा हुआ है. शहरों में विकास का ऐसा मौडल तैयार किया जा रहा है कि गरीब महानगरों से भागने को मजबूर हों और वे दूरदराज में रह कर ही अभाव का जीवन जिएं व अपनी अगली पीढि़यों को भी शहर भेजने की भूल न कर सकें.

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