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अवसरवादिता से अपनाया विकास मौडल खतरनाक

आम चुनाव में माहौल को मोदीमय होते देख सरकारी विभागों ने भी माहौल के बदलते मिजाज में ढलने का प्रयास शुरू कर दिया था. पहले केंद्र सरकार के औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग ने और बाद में योजना आयोग ने विकास के गुजरात मौडल की तारीफ की. दोनों ने गुजरात के कारोबारी माहौल पर रिपोर्ट तैयार कराई और रिपोर्ट में इस मौडल की प्रशंसा की. आयोग की रिपोर्ट में शीर्ष पर शुमार 8 राज्यों में गुजरात शीर्ष पर है.

रिपोर्ट में राज्यों के कारोबारी माहौल और वहां के ढांचागत विकास को तरजीह देते हुए मानक तैयार किए गए हैं.

कमाल तो यह है कि पिछले 10 साल से वहां नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहे लेकिन तब किसी ने उन के मौडल की तरफ  झांका तक नहीं. वे कई बार कहते रहे कि उन के पास विकास का मौडल है लेकिन किसी ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. अचानक उन का विकास मौडल सब को आकर्षित करने लगा. सब उस के मुरीद हो गए. योजना आयोग की आंखें देर से खुलीं.

इस से यह स्पष्ट है कि हमारी आंकलन की प्रक्रिया बेकार है, व्यवस्थित नहीं है. उस में मनमरजी और अवसरवादिता है. विकास का मौडल यदि चापलूसी और अवसरवादिता के आधार पर तैयार किया जा रहा है तो इसे नकार दिया जाना चाहिए. चापलूसी और अवसरवादिता से अपनाया गया मौडल खतरनाक हो सकता है.

नाबालिग खोल सकेगा बैंक खाता

9वीं कक्षा में था. कक्षा अध्यापक का फरमान मिला. सभी बच्चों को संचायिका पासबुक खोलनी है. इस पासबुक को ले कर बच्चे अपने जेबखर्च में से 1, 2, 3 यानी जितने भी रुपए बचते हैं, बैंक में जमा करा सकते थे. जरूरत पड़ने पर निकाल भी लेते. बाद में पता चला कि इस योजना का मकसद बच्चों में बचत का भाव पैदा करना था. बाद में संचायिका चली अथवा नहीं, यह मालूम नहीं है. इधर, रिजर्व बैंक ने एक ऐसा ही आदेश जारी किया है जिस के तहत 10 साल का बच्चा भी अपने मातापिता के सहयोग के बिना बैंक में खाता खुलवा सकता है.

रिजर्व बैंक का कहना है कि बच्चा स्वतंत्र रूप से अपना खाता खोले और बैंक बहुत अधिक औपचारिकताओं के बिना उस में बचत करने की आदत विकसित करने के भाव से उस का खाता खोलें. यही नहीं, उसे इंटरनैट बैंकिंग, एटीएम, डेबिट कार्ड, चैकबुक आदि की सुविधा उपलब्ध कराएं.

बैंकों को खाता खोलने के आवश्यक दस्तावेज अपने स्तर पर तय करने की छूट दी गई है. इस से बच्चों में नैतिक बल भी बढ़ेगा और उन में बचत करने की आदत भी विकसित हो सकती है.

अब तक बैंक 18 साल से कम उम्र के बच्चों को उस के मातापिता अथवा अभिभावक के साथ खाता खोलने की अनुमति देते थे लेकिन अब बैंक के लिए एक बच्चा भी ग्राहक है और नए दिशानिर्देश के अनुसार, बैंक अपने सामान्य ग्राहक को जो सुविधाएं दे रहे हैं वही सुविधा बाल ग्राहक को भी देंगे.

जीवन सरिता : हार के आगे जीत है

उस दिन स्कूल में फैंसी ड्रैस कंपीटिशन था. नर्सरी कक्षा से ले कर तीसरी कक्षा तक के बच्चों के बीच निर्णय होना था. अभिभावकों ने प्रतियोगिता के लिए खूब तैयारी की थी. भाग लेने के लिए ऐंट्रीज बहुत अधिक थीं. हर बच्चे पर मातापिता ने खूब मेहनत की थी. कोई बैस्ट आउट औफ वेस्ट बना था तो कोई दुलहन का वेश धरे था. कोई रोबोट था, कोई सिपाही. किसी ने सीताफल बन के संदेश दिया तो किसी ने पर्यावरण कैसे बचाएं, बताया. हर बच्चा उत्साहित था और सभी मातापिता चाह रहे थे कि उन का बच्चा ही जीते.

निर्णायकों के लिए निर्णय करना कठिन था कि किसे अवार्ड दें. पुरस्कारों की घोषणा होने पर कई अभिभावकों के चेहरे लटक गए. कई मातापिता ने तो निर्णय पर पक्षपात का आरोप तक लगा दिया.

प्रतियोगिता थी, तो किन्हीं 3 को ही जीतना था पर रिजल्ट के बाद मातापिता के साथ कई बच्चे भी मायूस नजर आए. बच्चों का रोना देख कर सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि बच्चे तो गीली मिट्टी जैसे होते हैं, उन के लिए तो हार या जीत एकसमान होती है. उन्हें हार या जीत से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. शायद इन मस्त भोलेभाले बच्चों को हम ही हारने को बुरा और जीतने को अच्छा होना सिखाते हैं.

आज का दौर प्रतियोगिता का दौर है. जहां देखिए वहां गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा है. दुनिया में हुनर भरा पड़ा है, ऐसे में किसी भी प्रतियोगिता में जीतना प्रतिभागी की अक्लमंदी, हुनर या कबिलीयत की कसौटी नहीं होता, बल्कि परिस्थितियां, प्रतियोगिता में शामिल अन्य लोग व निर्णायकों की व्यक्तिगत सोच भी अव्वल आने न आने के लिए जिम्मेदार होती हैं.

अपने मन की इच्छाओं, कुंठाओं के चलते अभिभावक जो स्वयं न कर पाए वह करने का अपने बच्चों पर दबाव बनाते नजर आते हैं. पड़ोसी, रिश्तेदार, मित्रमंडली बच्चों की तुलना कर के अपने बच्चों को भी उसी सब में सफल होते देखना चाहते हैं. नतीजतन, वे उसे ‘जीत’ के लिए प्रेरित करते हैं.

कई पेरैंट्स बच्चे में जोश फूंकने के प्रयास में ‘तुम ही जीतोगे’ कह कर उसे बहुत उम्मीदें बंधा देते हैं और फिर जब बच्चे का सामना स्वयं से ज्यादा टैलेंटेड बच्चे से होता है तो वह स्वीकार नहीं कर पाता, उस का आत्मविश्वास खत्म हो जाता है और वह हिम्मत हार जाता है.

प्रतिस्पर्धा की भावना

दरअसल, किसी भी प्रतियोगिता में अव्वल आना सर्वश्रेष्ठ होने की कसौटी नहीं. किसी भी प्रतियोगिता में जीत न पाना बेकार हो जाना नहीं. प्रतियोगिता में बच्चे को भाग दिलवाइए पर उसे हार स्वीकारना भी सिखाइए. टीवी शोज के औडिशन में भी हम कई बार देखते हैं कि प्रतिभागी ऐसे रोते हुए बाहर निकलते हैं मानो उन की दुनिया उजड़ गई हो.

सिंगिंग, डांस, ऐक्ंिटग या कुकरी की प्रतियोगिता एक शो ही तो है, अगर आगे नहीं जा पाए तो क्या बिलकुल ही अयोग्य हो गए? गलती असल में अभिभावकों की है. हारजीत को प्रतिष्ठा, प्राण और जीवनमरण का प्रश्न हम ही बनाते हैं. कितना अच्छा हो यदि हम बच्चों को केवल भाग लेना सिखाएं.

आशान्वित होना, जोश फूंकना अच्छी बात है. बच्चों की क्षमताओं व उन की मेहनत का ध्यान रखा जाए और आकलन किया जाए तो बेहतर होगा. आप बच्चे को जीत के लिए प्रेरित कीजिए पर हार स्वीकारना भी सिखाइए. जीत या हार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जिंदगी में कभी हम जीतते हैं तो कभी हारते भी हैं, बच्चे को यह मालूम होना चाहिए.

हार स्वीकार न कर पाने की मनोदशा में बच्चा अवसाद का शिकार हो सकता है. उस का स्वाभिमान जाता रहेगा, उस का विश्वास उठ जाएगा व प्रतियोगिताओं से डरेगा और हीन भावना से ग्रसित भी हो सकता है. प्रतियोगिताएं हमेशा जीतने या हारने के लिए नहीं होतीं वे आनंद लेने के लिए, नया सीखने के लिए, टीम भावना पैदा करने के लिए, जिम्मेदारी उठाने के लिए और अपनी क्षमता को आजमाने के लिए होती हैं.

जीत या हार कोई इश्यू नहीं होगा तो बच्चे अपने कार्य में तनावमुक्त हो कर आनंद ले पाएंगे. प्रतियोगिताओं में छिपा होता है स्टेजफियर से मुक्ति का राज, कौन्फिडेंस बिल्ंिडग, नई जानकारी हासिल करने की खुशी, शेयर करने का सुख और दूसरे लोगों से घुलनेमिलने का प्रयत्न.

यदि आप का बच्चा प्रतियोगिता में हिस्सा ले कर खुश है, कुछ नया कर पा रहा है, उसे स्टेजफियर नहीं है और उसे प्रतियोगिता में मजा आ रहा है तो प्लीज, उसे हारजीत के फेर में मत डालिए. बिना रिजल्ट की चिंता किए, उसे प्रतियोगिता में भाग लेने दीजिए. जीत जाए तो बधाई दीजिए और हारे तो हौसला बढ़ाइए. आप अपनी उम्मीदें उस पर मत लादिए.

विजय निसंदेह एक अद्वितीय भावना है पर उस से ताकतवर है त्याग, सहचर्य व एकता की भावना. जीवन में हजारों तमगों, प्रमाणपत्रों और पुरस्कारों से बढ़ कर बच्चों का प्यार, अपनापन व विश्वास है जिसे आप हमेशा के लिए चाहेंगे, इसलिए बच्चे को हारना भी सिखाइए.

मोदी से अत्यधिक उम्मीद में छलांग लगाता बाजार

मोदी सरकार के गठन के साथ शेयर बाजार उड़ान पर है. बीएसई का शेयर सूचकांक लगातार छलांग लगा  25 हजार के रिकौर्ड स्तर को पार कर गया है.

सूचकांक 11 दिसंबर, 2007 को पहली बार 20 हजार पर पहुंचा था तो चारों तरफ खलबली मच गई थी लेकिन महज 1 माह बाद 8 जनवरी, 2008 को सूचकांक 21 हजार का स्तर छू गया. उस के बाद बाजार की 1 हजार अंक की चाल पहली बार इस

10 मार्च को दिखी जब सूचकांक 22 हजार को पार कर गया. फिर 9 मई को 23 हजार, 13 मई को 24 हजार और मतगणना से ठीक 1 दिन पहले 25 हजार अंक का स्तर बाजार के सूचकांक ने छुआ तो स्वयं में सर्वाधिक ऊंचाई हासिल करने का भी एक रिकौर्ड बन गया.

यह ठीक है कि वित्त वर्ष की शुरुआत यानी अप्रैल में निर्यात 2 माह की गिरावट के बाद बढ़ा है और इस दौरान महंगाई की दर में भी गिरावट आई है लेकिन ऐसा पहले भी कई बार हुआ है. कुल मिला कर बाजार को मोदी से कुछ ज्यादा ही उम्मीद है, इसलिए वहां उत्साह का माहौल है.

खबरें आ रही हैं कि मोदी राजमार्ग निर्माण, करों में सुधार, भूमि अधिग्रहण, महंगाई पर नियंत्रण के लिए आयात नीति में सुधार, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए योजनाएं बदलेंगे ताकि लोगों को मजदूरी पर निर्भर रहने के बजाय स्थायी रोजगार उपलब्ध हो सके. उधर, मूडीज को भी भरोसा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई हासिल करेगी. इन्हीं सब उम्मीदों के बीच बाजार लगातार नई ऊंचाई हासिल कर रहा है.

भारत भूमि युगे युगे

चिंतन का अड्डा जेल

महात्मा गांधी की लोकप्रियता में उन की कानून तोड़ने की आदत बड़ी अहम थी जिसे अरविंद केजरीवाल ने भी अपना लिया है. उन का कहना है कि वे एक नेक काम, भ्रष्टाचार खत्म करने का, कर रहे हैं फिर किसी भी कथित मानहानि पर वे बौंड क्यों भरें.

केजरीवाल, गांधीजी की तरह बातबात में जेल जाने की लत भी पाल बैठे हैं. उन के जेल जाने पर किसी को दुख नहीं होता, उलटे उन की आम आदमी पार्टी के लोग उकसाते हैं कि जाओ, अंदर चिंतन करो, यहां हम हल्ला मचा कर आप को गांधी की तरह हिट कर देंगे. आज देश में लोकतंत्र है और अरविंद की दलीलों को लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को मिली हार की खिसियाहट माना जा रहा है. उम्मीद है, अब वे पक्के नेता बन जाएंगे.

प्रियंका आओ, कांग्रेस बचाओ

कुछ तो पहले से ही शोर मचा रहे थे पर अब कई कांग्रेसी चिल्लाने लगे हैं कि ‘प्रियंका आओ, कांगे्रस बचाओ’. ये लोग दरअसल कह यह रहे हैं कि ‘सोनियाराहुल हटाओ, कांग्रेस बचाओ’.

चिकित्सकीय भाषा में कहें तो कांग्रेस वैंटिलेटर पर है. अब कोई करिश्मा ही उसे बचा सकता है. उसे दवा की नहीं दुआ की जरूरत है. नेहरूगांधी परिवार के भक्तों की नजर में यह पूरा खानदान ही शंकर, पार्वती, गणेश जैसा है, इन में से कोई तो चलेगा. प्रियंका को उकसा रहे कांग्रेसी दरअसल खुद निकम्मेपन की चादर दोबारा ओढ़ कर सोना चाहते हैं, उन्हें चमत्कारों की आदत जो पड़ गई है.

बेदम सियासी दांव

महज 3 सांसद वे भी अपने कुनबे के समेटे सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने एक अजीब बात कही कि अगर नरेंद्र मोदी चीन से देश की जमीन छीन लाएं तो मैं उन का साथ देने को तैयार हूं. बात अजीब इसलिए है कि उत्तर प्रदेश और चीन का कोई संबंध नहीं है. दूसरे, एनडीए या नरेंद्र मोदी को मुलायम व उन की समाजवादी पार्टी का साथ चाहिए, यह बात न किसी ने कही, न इस की कोई कीमत है.

कल के पहलवान मुलायम सिंह कुश्ती के साथसाथ सियासत के दांव भी भूल गए हैं कि कमजोरी की स्थिति में चुप रह कर अपनी ताकत बढ़ाना बेहतर रहता है. ऐसे बयानों से जनता उन की दयनीय हालत पर हंसती ही है.

हारे को हरिनाम

बाड़मेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े तो इस मंशा से थे कि जीत कर भाजपा को उस की हैसियत बता देंगे पर हुआ उलटा, जसवंत सिंह को खुद अपनी हैसियत पता चल गई. अब वापसी के लिए वे भाजपा की परिक्रमा में जुट गए हैं.

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह को लोग राजनीति के ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहने लगे थे जिन में से पहले 2 तो समझदारी दिखाते बच गए थे लेकिन संहार करने चले तीसरे खुद संहार  के शिकार हो गए हैं.

जसवंत सिंह से भी हर किसी को सहानुभूति है पर इन्हीं लोगों का यह कहनासोचना भी है कि अब आराम करो और नए नेताओं को राजकाज संभालने दो क्योंकि दिलाया भी तो इन्हीं ने है.

धर्म की क्रूर परंपरा : औरतों का खतना

आज समूचे विश्व में जहां नारी अधिकारों की चर्चा है और भारत में भी गांवों से ले कर संसद तक नारी अधिकारों की बातें हो रही हैं वहीं कुछ घरों में महिलाओं की स्थिति दयनीय है. वे शोषण व अत्याचार के दौर से गुजर रही हैं. यही नहीं, धर्म की आड़ में उन पर दमन बढ़ता ही जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि दमन का शिकार केवल हिंदू महिलाएं हैं, ईसाई और इसलाम धर्मों में भी महिलाओं पर कई तरह के धार्मिक अत्याचार होते हैं जिन में खतना भी एक है. आप कल्पना कर सकते हैं कि धार्मिक आधार पर एक अबोध बच्ची के शरीर से कोई नाजुक अंग काट कर अलग किया जाए तो उसे किस कदर दर्द होगा पर धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि धर्म में ऐसा है, इसलिए करो.

दरअसल, इंडोनेशिया में अब भी मुसलिम धर्म को मानने वालों में सदियों पुरानी बच्चियों का भी खतना करने की परंपरा चलन में थी जिस में अबोध लड़कियों के भगनासा को काटा जाता था लेकिन वहां की सरकार ने इस पुरानी धार्मिक प्रथा के खिलाफ कठोर कदम उठा कर सराहनीय कार्य किया.

मुसलिम कट्टरपंथियों का मानना है कि भगनासा काट देने से बच्ची के बड़े होने पर उस में सैक्स इच्छा कम हो जाती है और वह अपनी हद में रहती है. इस के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र भी कई बार आवाज उठा चुका है. उस का मानना है कि खतने के नाम पर महिलाओं के सैक्स और्गेन को नुकसान पहुंचाना उन के साथ अन्याय है. पर मुसलिम कट्टरपंथियों का मानना है कि यह धार्मिक प्रक्रिया है.

कई मुल्कों में है परंपरा

आज भी दुनिया के कई मुल्क ऐसे हैं जहां खतने की परंपरा आम है. 3 लाख से ज्यादा लड़कियां हर साल खतने का शिकार हो जाती हैं. खासकर, अफ्रीका और मिडल ईस्ट के देशों में खतने की परंपरा बिलकुल आम है.

एक सर्वे के मुताबिक दक्षिण अफ्रीकी देश गुआना में 98.6 फीसदी महिलाएं इस प्रकिया से गुजरती हैं. वहीं मिस्र में यह परंपरा शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में ज्यादा प्रचलन में है. मुसलिमों और ईसाइयों, दोनों में इस का प्रचलन है. दक्षिण अफ्रीका के देश माली में तो महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा इस परंपरा को जारी रखने का समर्थन करता है. समर्थन करने वालों में 15 से 49 वर्ष की उम्र तक की तीनचौथाई महिलाएं हैं. एरिट्रिया में भी ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह उन के धर्म की मांग है.

जिबूती में इस के चलते मातृ मृत्युदर और शिशु मृत्युदर बहुत ज्यादा है. आंकड़े बताते हैं कि 14 से 45 वर्ष की उम्र की 93 फीसदी महिलाएं इस प्रक्रिया से गुजरती हैं. सोमालिया में करीब 80 से 98 फीसदी महिलाएं खतने का सामना करती हैं, वहां ज्यादातर 6 से 8 साल की बच्चियों को इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. सूडान में भी शालीनता, मर्यादा और शादी की धारणाओं को ध्यान में रखते हुए बड़ी संख्या में खतना किया जाता है. अगर बात जाम्बिया की करें तो वहां इस प्रक्रिया से गुजरने वाली महिलाओं का प्रतिशत 60 से 90 तक है. इसी तरह बुर्किना में इसे कानूनी तौर पर मान्यता मिली हुई है. वहां महिलाओं को बिना एनस्थीसिया दिए खतने की दर्दनाक प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है. चाड में आंकड़े बताते हैं कि वहां कम से कम 60 फीसदी महिलाएं खतने से गुजरती हैं.

यह कुप्रथा इराकी कुर्दिस्तान में बड़े स्तर पर कायम है. वहां 72 फीसदी बच्चियों का खतना हो जाता है. डब्लूएचओ के 2013 के सर्वे के मुताबिक, खतने के दौरान मौत की आशंका 70 फीसदी बढ़ जाती है. इस के अलावा अफ्रीका में हर साल 5 से 7 हजार बच्चों की प्रसव के दौरान मौत का कारण मां का खतना होता है.

मुसलिम समाज में खतना

भले ही कुछ मुसलिम बुद्धिजीवी इस से इनकार करें, लेकिन यह सच है कि आज भी मुसलिम देशों के पिछड़े और ग्रामीण इलाकों में बालिकाओं का खतना किया जाता है और यह सब इसलाम के नाम पर होता है, कहीं दबे रूप में तो कहीं खुलेआम.

मुसलिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि तकरीबन 1450 साल पहले कुछ मुसलिम देशों के कबीलों में ही लड़कियों का खतना होता था लेकिन धीरेधीरे इस पर अंकुश लगता गया.

नाम न छापने की शर्त पर दिल्ली में अपना क्लिनिक चलाने वाले एक डाक्टर का कहना है कि केवल पुरुषों का खतना होता है, औरतों का नहीं. इस के पीछे तर्क यह है कि इस से कई तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है.

धर्म को आधार बना कर मुल्ला- मौलवियों ने जिस तरह मुसलिम महिलाओं का शोषण किया है वह किसी से छिपा नहीं है. कट्टरपंथियों की दकियानूसी सोच के कारण ही मुसलिम समाज में आज भी महिलाओं की दशा बेहद खराब है.

विरोध में उठी आवाज

कुछ वर्ष पहले की बात है. इमराना नाम की एक महिला के साथ उसी के पिता समान ससुर ने बलात्कार किया, लेकिन ससुर को सजा देना तो दूर, काजी ने उस के खिलाफ फतवा देते हुए यह कहा था कि इमराना अब अपने पति नूर इलाही की पत्नी नहीं बल्कि अपने ससुर अली मुहम्मद की पत्नी है. इसलिए अब वह अपने शौहर की बीवी नहीं बल्कि उस की मां के रूप में रह सकती है.

बेशक इमराना के ससुर अली मुहम्मद को अदालत ने सजा दी लेकिन धर्म की दुहाई दे कर मुसलिम समाज में जिस तरह औरतों को पुरुषों के हाथों का खिलौना समझा जाता है वह भी किसी से छिपा नहीं है. अपने ससुर द्वारा ही बलात्कार की शिकार हुई इमराना ने जब भी इस के खिलाफ कानून की ओर अपने कदम बढ़ाए, हर बार कठमुल्लों ने उस के कदम पीछे खींचने चाहे. यह तो इमराना की हिम्मत थी कि उस ने धर्म के खोखले उपदेशों के चंगुल में फंस कर आंसू बहाने या मुंह बंद कर रहने के बजाय मुल्लों के खिलाफ संघर्ष किया और अपने हक की लड़ाई लड़ी. इमराना तो बानगी भर है, न जाने ऐसी कई इमराना हैं जो इस की भुक्तभोगी हैं.

हाल ही में पाकिस्तान की शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई ने भी महिलाओं का खतना किए जाने के खिलाफ आवाज बुलंद की है. मलाला ने ब्रिटेन में होने वाली महिला जननांग विकृति के विरोध में चल रहे अभियान को अपना समर्थन दिया है. गौरतलब है कि फिलहाल बर्मिंघम में बसी मलाला लड़कियों के अधिकार के मुद्दे पर ब्रिटिश स्कूलों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से अपने किशोर साथियों की इस मुहिम को समर्थन दे रही है. अगर दुनियाभर में इसी तरह जानेमाने चेहरे धर्म के नाम पर हो रही इस क्रूर और अमानवीय परंपरा का विरोध करें तभी इस पर लगाम कसी जा सकती है.  

फतवे और फरमान

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नामीगिरामी उलेमा पैसे ले कर फतवा जारी करते हैं. अब जहां पैसे ले कर फतवे जारी होते हैं वहां भला कोई औरत कैसे सुरक्षित रह सकती है. जाहिर है, इस से फतवों के वजूद और फरमानों पर तो सवालिया निशान लग ही जाता है.

हर धर्म के अनुयायी अपने धर्म और धार्मिक गुरुओं की बातों को केवल अमल में ही नहीं लाते बल्कि उन पर भरोसा भी करते हैं. यदि हम हिंदू समाज की बात करें तो वहां भी औरतें धर्मकर्म के नाम पर छली जाती रही हैं. कई तो साधुसंतों के हवस की शिकार हो जाती हैं और जो झांसे में नहीं आतीं उन्हें डायन कह कर प्रताडि़त किया जाता है.

धर्म की आड़ में

धर्मशास्त्रों की बात करें तो मनुस्मृति में लिखा है : ‘भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेवयो भ्राताय सोदार: प्राप्ता परा धास्ताडया: स्यू रज्जवा वेणुदलेन वा’. इस का मतलब होता है कि स्त्री, पुत्र, दास, शिष्या आदि कोई गलती करे तो उसे रस्सी से बांध कर बांस के डंडे से पीटा जाए.

रामचरितमानस में तुलसीदास ने नारी को ढोल की तरह पीटे जाने वाली वस्तु बताया है- ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ यानी औरतों का दरजा यह है कि यदि उन को नियंत्रण में रखना है तो उन का दमन करना ही एकमात्र रास्ता है.

हिंदुओं के पौराणिक धर्मग्रंथों में बारबार सती होने का जिक्र मिलता है, मानो सती होने पर औरतों को जन्मजन्मांतर से मुक्ति मिल जाएगी. वहीं, यह कहा जाता है कि पितरों को सिर्फ बेटा ही पानी पिला सकता है, बेटी नहीं, जबकि हिंदू समाज में ऐसे कपूत बेटों की कोई कमी नहीं जो जीते जी अपने मातापिता को पानी तक नहीं पिलाते.

पाकिस्तान में महिलाओं की हालत बदतर है. कठमुल्लाओं के तुगलकी फतवों के चलते आज भी उन का खुली हवा में सांस लेना दूभर है. आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान में हजारों औरतें जेलों में बंद सुनवाई का इंतजार कर रही हैं. उन में 88 फीसदी औरतें हुदूद कानून के तहत अपराधी हैं तो 90 फीसदी के पास कोई वकील तक नहीं है.

दरअसल, 1979 में जियाउल हक के फौजी शासन के दौरान हुदूद कानून लागू किया गया था जिस में किसी महिला के पति के सिवा दूसरे किसी विवाहित या अविवाहित पुरुष से व्यभिचार को अपराध घोषित किया गया था. यदि कोई जबरन किसी महिला का बलात्कार करता है और वह महिला यदि उस पर 4 पुरुषों की गवाही न जुटा पाए तो उसे अपराधी माना जाएगा. ऐसे में उस की सजा यही है कि उसे तब तक पत्थर मारा जाए जब तक कि उस की मौत न हो जाए.

यह कैसी तरक्की

एक ओर जहां कठमुल्ले इस कानून को निरस्त करने को कुरान की मुखालफत मानते हैं वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अमेरिका में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ को दिए अपने  साक्षात्कार में कहा था कि पाकिस्तान की औरतें पैसा या कनाडियन वीजा पाने के लिए अपना बलात्कार करा रही हैं.

सच तो यह है कि इस तरह के कानून धर्म के नाम पर अत्याचार के सिवा और कुछ भी नहीं हैं. क्या यही 21वीं सदी की तरक्की है और यदि यही तरक्की है तो फिर पिछड़ापन किसे कहते हैं? इस के साथ विडंबना यह भी है कि दुनियाभर में धर्म का कहर औरतें झेल रही हैं, फिर भी वे ही धर्म की सब से बड़ी पैरोकार बनी नजर आती हैं. औरतों को धर्म और धर्म के बिचौलिए की परवा छोड़नी होगी, तभी वे सही माने में धर्म के कहर से बच पाएंगी.

हाशिए पर राजनीतिक दल

‘भेडि़या आया भेडि़या आया’ कह कर गांव के बाहर रहने वाला एक गड़रिया रोज शोर मचाता था.  इस बहाने वह यह देखना चाहता था कि गांव के लोग उस के कितने मददगार साबित होते हैं. उस की चीखपुकार सुन कर गांव वाले दौड़ कर उस के घर पर आ जुटते थे. वहां आ कर उन को पता चलता कि भेडि़या तो आया नहीं. ऐसा कई बार हो चुका था. एक दिन सच में भेडि़या आ गया. गड़रिया फिर से चिल्लाया. गांव वालों ने उस की चीखपुकार सुनी, उन को लगा कि हर बार की तरह वह लोगोें को परेशान कर रहा होगा. कोई गांव वाला उस की मदद को आगे नहीं आया. भेडि़या उस की सारी भेड़ें खा गया. अब उस को अफसोस हो रहा था कि अगर वह रोज  झूठ नहीं बोलता तो गांव के लोग उस की बात को सच मान कर भेडि़या आने पर उस की मदद के लिए आ जुटते.

गांव वाले की यह कहानी राजनीतिक दलों पर फिट बैठती है. 20 साल से ज्यादा समय से राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को यह कह कर बरगलाते रहते थे कि अगर वे एकजुट नहीं रहेंगे तो विरोधी दल सत्ता में आ जाएगा. जनता अपनी जाति और बिरादरी के सम्मान के लिए आ जुटती थी. सत्ता पा कर ये दल अपनी बिरादरी को भूल कर कुरसी का मजा लेते थे. 1989 के बाद से 2014 तक राजनीतिक दलों की यह जुगत कारगर होती रही. 16वीं लोकसभा के चुनावों में जनता ने ऐसे दलों की बातों पर भरोसा नहीं किया. नतीजतन, वे हाशिए पर आ गए. उत्तर प्रदेश,  झारखंड और बिहार की 140 सीटों में से विरोधी दलों के हिस्से में 17 सीटें ही आ सकीं. विरोधी दलों को उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 7, बिहार की 40 में से 9 और  झारखंड की 14 में से 1 सीट मिली. 

ऐसे में उत्तर प्रदेश, बिहार और  झारखंड में जाति की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल युनाइटेड, राष्ट्रीय लोकदल और  झारखंड मुक्ति मोरचा के गिरते जनाधार पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. राजनीतिक स्तंभकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘जिन नीतियों को ले कर ये दल गैरकांग्रेस और गैर भाजपा की बातें कर रहे थे वे अब प्रभावी नहीं रह गई हैं. ऐसे में इन का स्वाभाविक दलित, पिछड़ा, गरीब और किसान वर्ग अपने को छला महसूस करने लगा है.  चुनाव से पहले आपस में लड़ाई और चुनाव के बाद आपसी तालमेल से सरकार बनाने की इन की प्रस्तावित मुहिम को जनता ने सही नहीं माना. जनता सम झ चुकी थी कि यह तालमेल केवल कुरसी के लिए होता है. उस के हित के लिए नहीं. ये दल अपने वोटबैंक का भरोसा खो चुके थे. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में वे हाशिए पर पहुंच गए.’’     

परिवारवाद में सिमटा समाजवाद

लोकसभा चुनावों के नतीजे उत्तर प्रदेश में सपा के लिए सब से निराशाजनक रहे हैं. वह केवल 5 सीटें जीत पाई. उन में से 2 सीटें आजमगढ़ और मैनपुरी की सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने जीतीं. कन्नौज से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ने जीत हासिल की तो बदायूं से मुलायम सिंह के भतीजे धर्मेंद्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव को विजयश्री हासिल हुई.

कुल मिला कर देखें तो पूरी पार्टी परिवार में ही सिमट कर रह गई. लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद पार्टी ने जब हार की समीक्षा करनी शुरू की तो असल मुद्दों से हट कर केवल समीक्षा का दिखावा करती रही. पार्टी में 3 प्रमुख पदों में से 1 मुलायम सिंह यादव और 2 अखिलेश यादव के पास हैं. मुलायम सिंह यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. अखिलेश यादव पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं.

चुनावी हार की समीक्षा करते हुए अखिलेश यादव ने कहा, ‘‘हम ने बहुत काम किया लेकिन अपने काम को सही ढंग से जनता तक पहुंचा नहीं पाए. अपने काम को वोट और समर्थन में बदल नहीं पाए.’’ हार से बौखलाई सपा सरकार ने सब से पहले 36 दरजाप्राप्त मंत्रियों को पदों से हटा दिया. आगे भी ऐसे दिखावे वाले कदम उठाए जा सकते हैं. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने कामकाज का सही आकलन जब तक नहीं करेंगे तब तक सुधार की शुरुआत नहीं हो सकती. 

समाजवादी पार्टी का उदय भले ही 1990 में हुआ हो पर इस के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विचारधारा सोशलिस्ट और समाजवादी थी. इन विचारधाराओं के जनक के रूप में जयप्रकाश नारायण, डा. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और चौधरी चरण सिंह का प्रभाव मुलायम के जीवन पर पड़ा था. 

सोशलिस्ट पार्टी की विचारधारा में धर्म के कट्टरवाद को सही नहीं माना गया था. इसी वजह से ये लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के खिलाफ थे. संघ का समर्थन करने वाला जनसंघ भी इन के लिए कांग्रेस जैसी ही दूरी रखता था. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने जो सामाजिक सुधार की मुहिम चलाई वह कुछ दिनों में ही कांग्रेस विरोध की राजनीति में बदल गई. खासतौर पर यह विरोध कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी के खिलाफ था. 1975 में इमरजैंसी के दौरान इस गठजोड़ का असर दिखा. इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं. सामाजिक और जातीय आंदोलन करने वाली सोशलिस्ट पार्टी राजनीतिक बदलाव की हिमायती हो गई. इस कारण 1977 में गैरकांग्रेसी दलों का या जनता पार्टी में विलय हो गए. अलगअलग विचारधाराओं का यह गठबंधन  2 साल में ही बिखर गया.

चौधरी चरण सिंह के लोकदल के सहारे मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीति शुरू की. विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल के प्रयोग के बाद मुलायम ने अपनी समाजवादी पार्टी बनाई. उस समय उन की नीतियां आडंबर, धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थीं. वोट की राजनीतिमें फंस कर बाद में मुलायम सिंह यादव को ‘मुल्ला मुलायम’ भी कहा जाने लगा. वे अपनी नीतियों से सम झौता करने लगे.

समाजवाद का जन्म देश को नेहरूगांधी खानदान से छुटकारा दिलाने के लिए हुआ था. कुछ ही दिनों में बिहार के लालू प्रसाद यादव से ले कर मुलायम सिंह यादव तक बदल गए. समाजवाद इन के परिवारवाद में बदल गया. मुलायम सिंह यादव पूजापाठ, धार्मिक आडंबर जैसे पाखंड में जुट गए. ऐसे में उन के एजेंडे से पिछड़े, मजदूर और किसान बाहर हो गए. चुनाव के समय जब समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र बनता है तो इन बातों को दिखावे के लिए उस में शामिल किया जाता है. सही माने में सपा ने इन के जीवनस्तर को सुधारने के लिए कोई योजना नहीं बनाई.

1989 के बाद से 2014 तक मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रहे और वर्तमान में सत्ता उन्हीं के हाथों में है भी. इस दौरान गांवों में रहने वाले मजदूर, किसान और पिछड़ों का कोई भला नहीं हुआ. मुसलिमों को हिंदू कट्टरवादी ताकतों से बचाने की लड़ाई लड़ने वाले मुलायम सिंह यादव खुद भी पूजापाठ और धार्मिक अनुष्ठानों जैसे पाखंड करने लगे. जबकि एक समय समाजवादी और सोशलिस्ट विचारधारा इस का विरोध करती थी. अब मुलायम सिंह यादव खुद हाथ में कलावा पहन कर, माथे पर तिलक लगा कर इस में शामिल होने लगे. ऐसे में पिछड़ी जातियों की एक बड़ी आबादी भी इस में शामिल हो गई जिस से मुलायम का अपना मूल जनाधार कमजोर पड़ा.

लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में पिछड़ी जातियां मुलायम को छोड़ तिलकधारियों के पीछे चली गईं.  आज के समय में जितना बड़ा और चटकदार तिलक हिंदुत्व की अगुआई करने वाले नेता नहीं लगाते हैं उस से बड़ा और चटकदार तिलक समाजवादी पार्टी के नेता लगाने लगे हैं. ऐसे नेता जानते हैं कि जब पार्टी के मुखिया को ऐसे पाखंड से कोई आपत्ति नहीं है तो वे पीछे क्यों रहें?

मुलायम बनाम अखिलेश

साल 2003 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे.  सरकार चलाने में सपा को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था. इस के बाद भी जब 2004 के लोकसभा चुनाव हुए तो सपा को लोकसभा की 36 सीटें मिली थीं. उस समय सत्ताविरोधी वोटों का असर पार्टी पर नहीं पड़ा. सवाल उठता है कि सत्ता विरोधी वोटों का असर केवल अखिलेश यादव की सरकार पर ही क्यों पड़ा?

2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में जयललिता और ओडिशा में नवीन पटनायक अपनी साख बचाने में सफल कैसे रहे? ये दल अभी भी अपनी नीतियों और विचारधारा से जुडे़ हुए हैं. वे जनता के करीब हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सपा प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव अपनी सरकार की जिन उपलब्धियों पर नाज कर रहे हैं वे जनता को उतना प्रभावित नहीं कर पाईं जितना ममता बनर्जी, जे जयललिता और नवीन पटनायक की नीतियों ने किया.

मुलायम सिंह यादव जब खुद मुख्यमंत्री थे तो वे काफी हद तक जनता के बीच एक सा व्यवहार करते थे. वे जो कहते थे, करते थे. अखिलेश यादव ने अपनी योजनाओं को पूरा करने में भेदभाव किया. मुलायम सिंह यादव के समय बेरोजगारी भत्ता 500 रुपए ही भले था पर सब को दिया गया था. अखिलेश यादव ने बेरोजगारी भत्ते की रकम बढ़ा कर 1 हजार रुपए कर दी पर गिनेचुने लोगों को दिया. कन्या विद्या धन योजना के साथ भी यही हाल है. अखिलेश यादव की सब से महत्त्वाकांक्षी लैपटौप और टैबलेट वितरण योजना पूरी तरह से शुरू ही नहीं हो पाई. उस की सफलता का इतना प्रचारप्रसार किया गया कि वह उलटा प्रभाव डालने लगी.  

केवल यही नहीं, बाकी सरकारी योजनाओं का सही तरह से लाभ उचित लोगों तक नहीं पहुंचा जिस की वजह से सपा सरकार को इस हार का मुंह देखना पड़ा. अखिलेश सरकार के मंत्री, अफसर सभी जनता से दूरी बना चुके थे. खुद मुख्यमंत्री का जनतादर्शन कार्यक्रम जोरशोर से कुछ दिन चला, बाद में वह भी बंद हो गया. थाना दिवस, तहसील दिवस दिखावा बन कर रह गए. वहां लोगोें को निराशा मिलने लगी.

सच से दूर हुए मुख्यमंत्री

अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने थे तो लोगों को लगा था कि वे कोई ऐसा सिस्टम बनाएंगे जिस से आम लोगों के संदेश उन तक पहुंच सकें. दिखावे के लिए कई फेसबुक अकाउंट बने. यहां भी लोगों ने अपनी बात कहने की कोशिश की पर मुख्यमंत्री तक उन की बात पहुंच नहीं सकी क्योंकि मुख्यमंत्री के आसपास ऐसे लोग घेरा बनाने में सफल रहे जो हर काम में केवल तारीफ ही करते थे. सूचना विभाग से ले कर पार्टी के मीडिया विभाग तक ऐसे लोगों की लाइन लगी रही जो अपने काम के लिए सरकार की वाहवाही करते रहे. ऐसे में मुख्यमंत्री  सच से दूर होते चले गए. मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे, मीडिया के लाड़ले थे. इस के बाद भी वे सच बोलने वाले और  झूठी तारीफ करने वाले के बीच के फर्क को सम झ लेते थे.

पूरक बनने की रणनीति

समाजवादी पार्टी का जन्म और भारतीय जनता पार्टी का उत्थान करीबकरीब एकसाथ ही शुरू हुआ. गैरसांप्रदायिक  और सांप्रदायिक वोटों के ध्रुवीकरण पर दोनों ही दलों का उत्थानपतन होता रहा. सपा को लगने लगा कि जबजब भाजपा मजबूत होगी वह खुद भी ताकतवर होती जाएगी. सपा का गणित तब तक सही था जब तक आधे से अधिक वोटर मतदान करने नहीं जाते थे. ऐसे में हर तरह के समीकरण का प्रयोग करना सरल होता था. जब आधे से अधिक वोटर मतदान करने पहुंचने लगे तो इस तरह के समीकरण टूटने लगे. जैसेजैसे मतदान बढे़गा, राजनीति में अपराधीकरण जैसे तत्त्व खत्म होते जाएंगे. समीकरणों की राजनीति हाशिए पर पहुंच जाएगी. ऐसे में जरूरी होगा कि सभी को ध्यान में रख कर विकास की योजनाएं बनें. 

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में अखिलेश यादव की जीत के पीछे 2 वजहें थीं. पहली, मायावती सरकार के भ्रष्टाचार और उस का जनता से दूर हो जाना. दूसरी, अखिलेश यादव के रूप में उम्मीद की नई रोशनी का दिखना. अखिलेश 2017 में पुरानी ऊंचाइयों को फिर से छू सकते हैं बशर्ते वे अपने आसपास बने वाहवाही चक्र को तोड़ कर बाहर आ सकें. 

योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘राजनीति में विचारधारा का अपना खास महत्त्व होता है. राजनीतिक  विचारधारा से पता चलता है कि सरकार बनाने के बाद दल किस तरह से काम करेंगे. चमचमाते, शहर, बडे़बडे़ मौल्स, ऐक्सप्रैस हाईवे जैसे विकास का प्रभाव गांव के गरीब, किसान पर कम ही पड़ता है. वोट के लिए दलों ने जिस तरह से अपनी विचारधारा से सम झौता करना शुरू किया उस से जनाधार कमजोर हुआ.’’

बसपा बनी मनुवाद की पिछलग्गू

बसपा नेता मायावती इन चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत कर किंगमेकर की भूमिका निभाना चाहती थीं. चुनाव परिणाम आने के पहले उन्होंने घोषणा भी कर दी कि वे भाजपा को समर्थन नहीं देंगी. जब चुनाव परिणाम आए तो उन्हें सब से करारा  झटका लगा. देश में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली. इसे मायावती की सब से करारी हार के रूप में देखा जा रहा है. मायावती इस के लिए मुसलिम और अपने दूसरे वोटबैंक को दोष दे रही हैं. बसपा को इस चुनाव में 19 फीसदी के करीब वोट मिले. उस से कम वोट पा कर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 2 सीटें मिल गईं. मायावती कहती हैं कि उन का दलित वोटबैंक उन के साथ एकजुट है. 

राजनीतिक जानकार इसे सही नहीं मानते. वे मानते हैं कि बसपा क ो जो वोट मिला है उस में दलित, पिछड़ा, मुसलिम और अगड़ी जातियां शामिल हैं. ऐसा नहीं हो सकता कि 2007 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनावों में जो जातियां बसपा के साथ रही हों वे पूरी तौर से बसपा से दूर हो जाएं. सचाई यह है कि दलितों में एक बड़ा वर्ग अपने को अगड़ी जातियों सा महसूस करने लगा है. उस ने जब देखा कि बसपा अपनी विचारधारा से भटक रही है तो वह क्यों बसपा से जुड़ा रहे. सो, उस वर्ग ने बसपा से दूरी अख्तियार कर भाजपा को वोट दे दिया.

मूर्तिपूजा को दी पहचान

बसपा को उत्तर प्रदेश में जो सत्ता मिली थी उस के पीछे केवल मायावती का चमत्कार नहीं था. सदियों से दलितों के विकास के लिए जो आंदोलन चल रहे थे उन के कारण दलित जागरूक हुआ था. तब ‘तिलक, तराजू और तलवार’ का नारा दलित जागरूकता का प्रतीक होता था. वोट की राजनीति ने इस विचारधारा को बदल कर ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है’ कर दिया. इस का नुकसान इस चुनाव में बसपा के सामने आ गया. 1995 से 2012 तक करीब 8 साल मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं. 2007 से 2012 तक तो वे बहुमत से सरकार चला रही थीं. इस के बाद भी उन्होंने दलितों के रहनसहन और विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए.

आज प्रदेश में जनता को मायावती के काम के रूप में लखनऊ व नोएडा में बने पार्क, उन में लगी मूर्तियां ही दिखाई देती हैं. थोड़ाबहुत काम यमुना ऐक्सप्रैस वे के रूप में दिखता है. दलित के लिए मायावती ने सत्ता में रहते कोई काम नहीं किया. गांव में रहने वाले गरीब दलित की जरूरत थी कि उस के लिए छोटे पक्के मकान बनते जहां वह धूप, धूल और बरसात से अपनी सुरक्षा कर सकता. कांशीराम आवास योजना के तहत मायावती ने जो मकान बनाए भी वे गरीब दलित की पहुंच से बहुत दूर थे. इन मकानों पर उन दलित लोगों ने कब्जा किया जो शहर में रहते थे, जिन के पास मकान को पाने के लिए, खर्च करने के लिए पैसा था. ऐक्सप्रैस वे बन जाने से दलितों को क्या लाभ मिला? यह सोचने की फुरसत मायावती को नहीं थी. जिन दलितों में जागरूकता आई वे खुद मनुवादी बन कर अगड़ों में शामिल होने लगे. अगर मायावती ने विकास के साथ ही साथ अपनी विचारधारा का खयाल रखा होता तो बसपा कोे इस तरह की चुनावी हार का मुंह नहीं देखना पड़ता.

मनुवाद के साथ जुड़ कर मायावती ने खुद बहुत ज्यादा पूजापाठ भले न किया हो पर धार्मिक पाखंडों से उन को एतराज भी नहीं था. उन की सभाओं में शंख बजाते लोग देखे जा सकते हैं. बड़ी संख्या में मायावती को धार्मिक प्रतीक मिलने लगे हैं. वे भले ही हिंदू देवीदेवताओं की मूर्तियों को न रखती हों पर जिस तरह से पार्कों और स्मारकों में मूर्तियों को रखा गया उस से साफ लगने लगा कि पाखंड में वे कांग्रेसी या भाजपाई नेताओं से अलग नहीं हैं. मनुवाद की पिछलग्गू बनने से न केवल बसपा और मायावती को नुकसान हुआ बल्कि दलितों को जागरूक कर रहे लोगों की चाल भी धीमी पड़ गई.

रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘अब दलित अपने को दलित कहलाने में शर्म महसूस करता है. वह समाज में अपनी पहचान बदलने के लिए छटपटा रहा है. जब बसपा में मनुवाद का कब्जा नहीं था तबतक यहीदलित अपने स्वाभिमान के लिए मनुवादी नहीं बनना चाहता था. उसे मनुवाद गाली लगती थी. बसपा की सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर जिस तरह से ब्राह्मणवाद का बसपा पर कब्जा हुआ उस से दलित उस स्वाभिमान को भूल कर खुद ब्राह्मण बनने की राह पर चल पड़ा है. अब उस में बसपा और भाजपा का भेद खत्म हो रहा है. ऐसे में बसपा को राजनीतिक नुकसान होना लाजिमी है. मनुवाद का मतलब केवल जातिबिरादरी से नहीं था, मनुवाद वह विचारधारा थी जो समाज को जाति, बिरादरी, छुआछूत और पाखंड के नाम पर बांटने का काम करती थी. धार्मिक पाखंड इस का बड़ा हथियार था. परेशानी की बात यह है कि जो दलित राजनीतिक रूप से इतना जागरूक दिखता था वह अंदर से पूरी तरह से खोखला निकला. आज भी समाज में सामाजिक आंदोलनों की जरूरत है जिस से लोगों को पाखंड से दूर रखा जा सके. विकास का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सहीगलत की सम झ भूल कर दूसरों के पीछे दौड़ लगाई जाए.’’

लालू, नीतीश की दोस्ती

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के बाद बिहार में दलितपिछड़ों की अगुआई करने वाले दलों को जोरदार  झटका लगा. बिहार में सब से ज्यादा सीटें जीतने वाली भाजपा का मुख्य आधार अगड़ी जातियां थीं. वे तादाद में इतनी नहीं थीं कि भाजपा को ऐसी जीत मिल सकती. ऐसे में दलित और पिछड़ों ने भी बड़ी संख्या में भाजपा को वोट दिया. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद और जनता दल युनाइटेड यानी जदयू सब से बडे़ दल के रूप में काम कर रहे हैं. जदयू के नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव तक बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद जदयू और राजद में दोस्ती हो गई है. राजद ने जदयू की सरकार को बिहार विधान सभा में अपना समर्थन दे कर मजबूत कर दिया है. बिहार के जातीय समीकरण को ठीक करने के लिए जदयू ने महादलित बिरादरी के जीतन राम मां झी को बिहार का नया मुख्यमंत्री बना दिया है. नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है.

इस दोस्ती से तत्काल बिहार में भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकना संभव हो गया है. अब भाजपा बिहार विधानसभा को भंग नहीं करवा सकती. ऐसे में जदयू की सरकार बनी रहेगी. दूसरा लाभ यह होगा कि राज्यसभा की 3 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में जदयू और राजद को लाभ हो सकता है. राज्यसभा की 3 सीटें राजीव प्रताप रूड़ी, रामविलास पासवान और रामकृपाल यादव के सांसद बनने से खाली हो रही हैं. लालू प्रसाद यादव इस दोस्ती का नया रोडमैप दिखाते कहते हैं, ‘‘मंडल वालों पर हमला हो रहा है. ऐसे में एकजुटता समय की जरूरत है. हमारा सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ संघर्ष जारी रहेगा.’’

नीतीश कुमार ने दलितों को कमजोर करने के लिए दलित और महादलित की अलग बिरादरी बना दी. जिन जीतन राम मां झी को बिहार का नया मुख्यमंत्री बनाया गया है वे इसी महादलित समुदाय से आते हैं. इस बहाने पिछड़ी और दलित जातियों का नया समीकरण बनाने की कोशिश की गई है ताकि सक्षम जातियों को बिहार की सत्ता से दूर रखने में सफलता हासिल की जा सके. अगर सही माने में बिहार में मंडल का विरोध करने वालों को माकूल जवाब देना है तो लालू और नीतीश को पिछड़ों और दलितों को धार्मिक पाखंड से दूर रखना होगा. अगर इन के मन में मनुवादी सोच का जन्म हो गया तो नीतीश और लालू का वही हाल होगा जो उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती का हुआ है.

बिहार की राजनीति में दलितों पर पकड़ रखने वाली लोक जनशक्ति पार्टी का अपना अलग स्थान है. इस के नेता रामविलास पासवान लालू और भाजपा दोनों से तालमेल कर राजनीति करने के लिए मशहूर रहे हैं. लोकसभा चुनावों में वे भाजपा के साथ रहे.

भाजपा के साथ जा कर रामविलास पासवान को फौरीतौर पर सफलता जरूर मिल गई है पर दलित जब तक मनुवादी पाखंड से दूर रहेगा तब तक अपनी पुरानी विचारधारा से जुड़ा रहेगा. जैसे ही वह मनुवादी पाखंड का हिस्सा बनेगा वैसे ही वह मंडल का विरोध करने वालों के करीब खड़ा नजर आने लगेगा. समाजवादी और सोशलिस्ट विचारधारा व पाखंड एकसाथ नहीं चल सकता. वहीं, राजनीतिक जानकार कहते हैं कि धार्मिक कहानियों में पाखंड को इतना बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है कि इन की बुराई आसानी से सम झ में नहीं आती है. मंदिरों में अगर दलितों को पूजा करने का अधिकार मिल गया है तो इस से उन को नुकसान ही हुआ है. जिस तरह से पाखंड में फंस कर अब तक अगडे़ चढ़ावा चढ़ाते थे, अब दलितपिछडे़ भी चढ़ावा चढ़ाने में उन से मुकाबला करने लगे हैं.

लालू प्रसाद यादव जिस मंडल की बात कर रहे हैं उस का इशारा अगड़ी जातियों को सत्ता में आने से रोकने का है. कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों की मूल नीतियां समान ही हैं. जो कुछ अंतर शुरू में था वह भी अब खत्म सा हो गया है. ऐसे में विचारधारा के आधार पर बने दलों को अपनी पूंजी संभाल कर रखनी पडे़गी

समस्याओं के अंबार पर मोदी सरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ एक मंच पर आ कर बाहरी मुल्कों से मधुर संबंध बनाने की पहल की है.

भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग की सरकार का गठन हो गया. सरकार बनने तक नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली के बारे में व्यक्त की जा रही तमाम आशंकाएं धूमिल पड़ती नजर आ रही हैं. जीत के बाद मोदी की बातों और व्यवहार से विचारकों का भय का हौआ हटता दिखाई दे रहा है. 16 मई को चुनाव नतीजे आने के बाद से ले कर 26 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने तक नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से जो कुछ कहा, उस से फिलहाल उन के नजरिए में यह कहीं दिखाईर् नहीं दिया कि वे विवादास्पद मुद्दों को आगे बढ़ा रहे हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान सांप्रदायिक कहे जाने वाले मोदी अब 125 करोड़ देशवासियों को साथ ले कर चलने की बात कर रहे हैं. ‘सब का साथ, सब का विकास’ का नारा दे रहे हैं. कोई किसी भी संप्रदाय, वर्र्ग का हो, किसी के साथ अन्याय नहीं होने देने का आश्वासन दे रहे हैं. विकास और सुशासन की बात तो वे शुरू से ही करते रहे हैं. पहले छोटा मंत्रिमंडल रख कर ‘मिनिमम गवर्नमैंट, मैक्सिमम गवर्नैंस’ की प्रतिबद्धता जता रहे हैं.

भाजपा को पूर्ण बहुमत की घोषणा के बाद 16 मई को वडोदरा की रैली में नरेंद्र मोदी ने जो बातें कहीं, वे वास्तव में दुनिया के सब से बड़े, मजबूत और परिपक्व लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे नेता की ओर से कही जानी चाहिए थीं. ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारे के साथ उन्होंने देश के हर धर्म, हर वर्ग को साथ ले कर चलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की.

मोदी की जीत के बाद जो कुछ नजर आ रहा है, वह आश्चर्य से कम नहीं है. यह स्क्रिप्ट तो कुछ और ही है. राष्ट्रपति भवन के खुले प्रांगण के शपथ ग्रहण समारोह में 4 हजार मेहमानों की उपस्थिति में भगवा साया नहीं, हिंदुत्व की उपस्थिति या विचारधारा का एहसास न के बराबर और मंत्रिमंडल में बहुलतावादी भारत की तसवीर किसी भी देशवासी को संतोष देने वाली रही.

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए क्रीम रंग के फुल बाजू के कुरते और गहरे सुनहरे रंग की जैकेट में नजर आए मोदी जब शाम को सवा 6 बजे शपथ ले रहे थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर भोपाल में संघ की शाखा में शिरकत की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने टैलीविजन पर मोदी मंत्रिमंडल का लाइव शपथ ग्रहण समारोह देखा.

समारोह में विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडि़या, बजरंग दल के विनय कटियार जैसे धर्मध्वजा उठाए नेता और उन की मंडली नजर

नहीं आई. चुनावों में भाजपा का प्रचार करने वाले योग कारोबारी रामदेव भी गायब थे. हां, मोरारी बापू, श्रीश्री रविशंकर, ऋतंभरा समेत 4-5 साधु जरूर दिखाईर् दे रहे थे. पर इन से ज्यादा साधु तो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस, लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल और दूसरे दलों के कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं.

पड़ोसी मुल्कों से संबंध

मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई, भूटान के प्रधानमंत्री ल्योनशेन शेरिन तोगबे, नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला, बंगलादेश की स्पीकर शिरीन चौधरी, मौरिशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम, मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को बुला कर दुनिया में संदेश देने की कोशिश की है कि वे पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध कायम रखना चाहते हैं और आपस में मिल कर शांति के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं.

मोदी ने 16 मई के बाद से देश के सामने अपने हर भाषण में बहुलतावादी दृष्टिकोण रखा है. जाति, धर्म, वर्ग यानी हर समुदाय को बराबरी के दरजे की प्रतिबद्धता जाहिर की है. उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अल्पसंख्यकों के हित बाकी लोगों जितने ही महत्त्वपूर्ण हैं और सरकार की ओर से उन्हें बराबर की तवज्जुह दी जाएगी. सांप्रदायिक कहे जाने वाले मोदी आज 125 करोड़ देशवासियों की बात कर रहे हैं.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को बुलाने की आलोचना करने वालों की आपत्ति को मोदी ने दरकिनार कर दिया.

वडोदरा में पहली विजयी रैली में मोदी ने संविधान के तहत देश को चलाने का संकल्प जताते हुए कहा था, ‘‘मेरी जिम्मेदारी देश को चलाने में सभी को साथ ले कर चलने की है. सरकार किसी एक विशेष पार्टी की नहीं होती, पूरे देश के सभी लोगों की होती है. एक सरकार के लिए कोई खास नहीं है और न कोई पराया.’’

चुनाव प्रचार के दौरान चले आरोप- प्रत्यारोप का जिक्र करते हुए मोदी कहते हैं कि वे अपने विरोधियों द्वारा दिखाए गए ‘प्यार’ को शुद्ध प्यार में बदल देंगे. उन्होंने कहा, ‘‘मैं देश की जनता को आश्वस्त करना चाहता हूं कि  हर एक को साथ ले कर चलना हमारा लक्ष्य है. चाहे वह हमारा कितना ही विरोध करे. हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि इस मोरचे पर कोई कसर बाकी न रहे. जीत की ऊंचाई जितनी भी हो, सरकार में सभी को साथ ले कर चलना हमारी जिम्मेदारी है.’’ 

बदलेबदले से जनाब

एक सभा में मोदी ने खुद को मजदूर नंबर वन बताते हुए यह भी कहा कि कोई भी, यहां तक कि उन के प्रतिद्वंद्वी भी, उन के द्वारा की गई मेहनत पर सवाल नहीं उठा सकते. अगले

60 महीनों में आप को एक बेहतर मजदूर मिलेगा. वे कहते हैं, ‘‘आप ने मुझ में भरोसा जताया है, मैं आप में भरोसा जताता हूं, जब मैं एक कदम उठाता हूं तो मैं विश्वास करता हूं कि 125 करोड़ लोग मेरे साथ चलेंगे.’’

इस तरह की बातों से कहीं से भी नहीं लगता कि ये वही मोदी हैं जिन के बारे में तरहतरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं.

अब यह कहना मुश्किल है कि मोदी वक्त के अनुरूप खुद बदल गए या वे जड़ से ही ऐसे लोकतांत्रिक हैं. यह तो मोदी को गहराई से जानने वाले ही बता सकते हैं या फिर धीरेधीरे वक्त बीतने पर सामने आएगा.

अगर मोदी कहते हैं कि उन की सरकार गरीबों, नौजवानों और महिलाओं की सरकार होगी तो जनता की वह आशंका खत्म हो जाती है जिस में कौर्पोरेट अंबानी और अडाणी की सरकार बनने का भय समाया था.

मोदी ने गुजरात विधानसभा से विदा लेते समय कहा था, काम करतेकरते जानेअनजाने में यदि उन से कोई गलती हुई हो, उन के व्यवहार में कोई दोष रहा हो, तो उन्हें माफ कर दें.

12 साल गुजरात में मुख्यमंत्री रहे मोदी ने भाजपा विधायकों को संबोधित करते हुए उन्हें कड़ी मेहनत करने की सलाह दी. अपने काम के बारे में बताते हुए कहा कि वह एक भी फाइल पैंडिंग छोड़ कर नहीं जा रहे और वे चुनाव प्रचार के दौरान भी अधिकारियों को रात को बुलाते थे और काम पूरा करते थे.

भारतीय जनता पार्टी के संसदीय सदस्यों की सभा के लिए संसद भवन की सीढि़यों पर माथा टेकते हुए देश ने पहली बार किसी नेता को देखा और बैठक में आत्मविश्वास जाहिर करते हुए पहली बार सुना गया कि 5 साल बाद मेरा रिपोर्ट कार्ड देख लीजिएगा. उम्मीद करता हूं कि उन की सरकार कांग्रेसी सरकारों से बेहतर तो जरूर करेगी क्योंकि साख का सवाल है. ऐसे में कोई मोदी की मंशा पर कैसे सवाल उठाए?

चुनावी जीत के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं में तो जबरदस्त उत्साह देखा गया पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के गठन के समय जश्न मनाने में आगे रहने वाले हिंदूवादी संगठन और उन के समर्थक इस बार सड़कों पर खुशी का प्रदर्शन करते नहीं दिखे. जीत के बाद उन की ओर से नई सरकार के समक्ष कोई धार्मिक एजेंडा सामने नहीं आया.

1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तब सब से ज्यादा जोश धार्मिक संगठनों में था. इस के विपरीत आज ऐसा माहौल नहीं है. राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे न तो पार्टी के चुनाव प्रचार में उठे और न ही भाजपा के समर्थक रहे हिंदू संगठनों की ओर से.

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही नरेंद्र मोदी के लिए देश व जनता के प्रति जिम्मेदारियां शुरू हो गई हैं. मोदी ने ऐसे समय में देश की बागडोर संभाली है जब देश के समक्ष समस्याओं का अंबार लगा है और इस की वजह से पूर्व संप्रग सरकार तथा कुछ क्षेत्रीय सरकारों के प्रति जबरदस्त गुस्से की लहर थी. इसी लहर के परिणामस्वरूप मोदी को भारी बहुमत मिला. यह आक्रोश ही मोदी के लिए बड़ी भारी चुनौती है. मोदी के लिए सत्ता सुख की सेज नहीं है, बल्कि शेर की सवारी है.

देश के आम आदमी की मुख्य समस्याएं महंगाई, भ्रष्टाचार, असुरक्षा, आतंकवाद, अशिक्षा और बेरोजगारी हैं. 

समस्याएं

मोदी सरकार ऐसे समय बनी है जब देश के अधिकांश लोग असंतुष्ट हैं. वे महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पूर्व सरकार के कामकाज को ले कर चिंतित हैं. लोग चाहते हैं कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटे. महंगाई से राहत दिलाना मोदी के लिए पहली चुनौती है. 2005 से 2007 के बीच भारत की विकास दर 9 प्रतिशत थी. अब यह बमुश्किल 5 फीसदी है. यह देश के लिए अपर्याप्त है. फुटकर महंगाई की दर 8.6 प्रतिशत है. वित्तीय घाटा बहुत ऊंचाई पर जा पहुंचा है. इसे पटरी पर लाना होगा.

उदारीकरण के बाद पिछले 2 दशकों से देश में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचा है. रिश्वतखोरी के मामले में नौकरशाही निरंकुश हुई तो नेता, मंत्री बड़ेबड़े घोटालों में लिप्त हो गए. देश के संसाधनों की लूट मच गई. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग के कई नेता कौमनवैल्थ गेम्स घोटाले, कोयला घोटाले, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले, खनन घोटाले में शामिल रहे. कुछ मंत्री जेल भी गए. कांग्रेस ही नहीं, जिस पार्टी की सरकार का नेतृत्व मोदी कर रहे हैं उस पार्टी के कई नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के मामले हैं. मोदी को साफसुथरी सरकार दे कर जनता को भरोसा दिलाना होगा. मोदी सरकार के सामने कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार से अलग दिखने की भी चुनौती है.

भारत में हर वर्ष लाखों नौकरियों की जरूरत है. मोदी ने चुनावों में युवाओं से रोजगार का वादा किया था. रोजगारों का सृजन कैसे किया जाए, मोदी के लिए चुनौती है. जिस अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह ने पैदा किया और पोषित किया, उस की वजह से क्या नुकसान हुआ, इस का समाधान मोदी को निकालना होगा.

गुजरात में 2002 के दंगों के कारण हिंदू और मुसलिम दोनों ही समुदायों को आशंका है कि मोदी की सरकार हिंदू कट्टरपंथियों के हौसले बढ़ाएगी और उस के कारण धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा. मोदी को लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खत्म करना होगा. विकास कार्य और धार्मिकता की विचारधारा साथसाथ नहीं चलाए जा सकते.

देश में वैज्ञानिक सोच विकसित करनी होगी. उन धार्मिक दुकानदारों और ठेकेदारों को नियंत्रण में रखना होगा जो धार्मिक विद्वेष पैदा करते हैं और समाज को बांट कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं. देश को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने वाली नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने होंगे. याद रखें कि सोनिया व मनमोहन सरकार ने उस में कभी रुचि नहीं दिखाई थी.

हो सकता है अब धीरेधीरे अयोध्या में राममंदिर निर्माण और शिक्षा में परिवर्तन की मांगें उठने लगें. भाजपा नेता अब तक तो कहते आए थे कि उन के पास पूरा बहुमत नहीं होने से वे राममंदिर निर्माण करवाने में असमर्थ थे लेकिन अब सरकार पर दबाव बढ़ सकता है. यह तब होगा जब मोदी पर दूसरी समस्याओं का दबाव बढ़े.

देश में आंतरिक व बाहरी खतरों से मुकाबले की समस्या खड़ी है. देश पिछले 2 दशक से कई आतंकी वारदातें  झेल चुका है. आतंकी ताकतें कम नहीं हो रही हैं. इस के लिए पड़ोसी देशों

से अच्छे संबंध बनाने होंगे. उन के सहयोग से इन खतरों को कम किया जा सकता है.

समाज सुधार की बाधाएं

समाज सुधार की राह को प्रशस्त करना मोदी के सामने एक चुनौती है. धर्म के नाम पर जनता के साथ लूट, आडंबर, धर्मस्थलों पर दुर्घटनाएं, साधु, संतों की काली करतूतें, यह सब देश, समाज को गर्त में ले जाने वाली सिद्ध हो रही हैं. युवा पीढ़ी को संस्कृति के नाम पर नशाखोरी बरबाद कर रही है.

देश में अधिक समय तक रही कांग्रेस की सरकारें समाज सुधार की राह में रोड़े अटकाने के काम करती रहीं. कांग्रेसी सरकारों ने अंधविश्वासों को बढ़ावा देने से ले कर धार्मिक व्यापार को चमकाने में सहयोग किया. इस से आम जनता को तो नहीं, चंद धर्र्म की खाने वाले और खुद कांग्रेस पार्टी फायदा उठाती रही. इंदिरा गांधी से ले कर राजीव गांधी और अब सोनिया व राहुल गांधी गरीबों की बातें तो करते रहे पर प्रत्यक्ष तौर पर उन्हें कोई फायदा नहीं मिला. मुसलमानों के वोटों का जम कर महज दोहन किया गया.

अभिव्यक्ति की आजादी

परिपक्व और स्वस्थ लोकतंत्र में व्यक्ति व मीडिया माध्यमों के बोलने व लिखने की स्वतंत्रता को बुनियादी हक माना गया है लेकिन धार्मिक राष्ट्रों और कट्टर मजहबी मानसिकता वाले देशों में शासक और उन के समर्थक मजहबी संगठन मीडिया की आवाज को दबाए रखने में यकीन करते हैं. कोई उन की पोल न खोले. वे जनता को जागरूक, शिक्षित नहीं होते देखना चाहते. मोदी को प्रचार माध्यमों की स्वतंत्रता को ऐसे कट्टर धार्मिक तत्त्वों से बचाए रखना होगा.

मोदी के समर्थकों में 95 प्रतिशत वे हैं जो धार्मिक आडंबरों को आवश्यक मानते हैं और दूसरे पक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं. ऐसे में मोदी उन का साथ देंगे या उन को रोक सकेंगे, बड़ा सवाल है.

मोदी ने स्वयं में एक राष्ट्रीय नहीं, अंतर्राष्ट्रीय नेता की झलक दिखाई है. सार्क देशों समेत, अमेरिका, चीन जैसी शक्तियां मोदी के स्वागत के लिए उतावली हो रही हैं.

कोई भी देश दकियानूसी, ओछी सोच से चिपके रह कर तरक्की के रास्ते तय नहीं कर सकता. मोदी जानते हैं उन को प्रधानमंत्री का पद उदारता, स्वतंत्रता, सब को साथ ले कर चलने और विकास व सुशासन की उम्मीदों से मिला है. 

मोदी को परखने का समय अभी तो शुरू  हुआ है. उन के बारे में कोई भी अंतिम निर्णय करना जल्दबाजी होगी. फिलहाल तो मोदी की बातें और व्यवहार सब को लुभा रहे हैं.

नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां

नरेंद्र मोदी के दरवाजे पर जिस तरह अपेक्षाओं के ढेर लग रहे हैं उन से वे घबरा जाएं तो आश्चर्य नहीं. आज देश में जिसे देखो वह नरेंद्र मोदी द्वारा लाए गए राजनीतिक बदलाव के साथ आर्थिक, प्रशासनिक, औद्योगिक व व्यावहारिक परिवर्तनों की आशा कर रहा है. ये सारी आशाएं केवल नरेंद्र मोदी पर टिकी हैं.

पिछली सरकारों ने आम भारतीय को बुरी तरह ठगा है. देश में गरीबों और जातियों के नाम पर सरकारें बनती रही हैं पर न गरीबों को राहत मिली न जातियों को. ऊंचे वर्गों के लिए जो आर्थिक उन्नति पिछले दशकों में हुई है उस के लिए कोई भी किसी भी पार्टी को श्रेय देने को तैयार नहीं है पर जो भी भूलें हुईं, जो भी कमी रह गई उस के लिए तब की सत्तारूढ़ पार्टियों को तारकोल से रंगा जा रहा है.

पिछले 3 दशकों के दौरान देश में बहुत बदलाव आए हैं. चौड़ी सड़कें बनीं, ऊंचे भवन बने. मैक्डौनल्ड रेस्तरां और पिज्जा हट गलीगली खुल गए. प्याऊ की जगह पानी बोतलों में पिया जाने लगा, बहुमंजिले स्कूल और मैनेजमैंट कालेजों की भरमार हो गई, सड़कों पर जापान, जरमनी की गाडि़यां दौड़ रही हैं पर किसी से कोई प्रशंसा के दो बोल नहीं बोल रहा. जो बोल रहा है, वह शिकायत कर रहा है उस मुफ्तखोर बराती की तरह जो दाल में ज्यादा घी और खीर में ज्यादा क्रीम की शिकायत करता फिर रहा हो. इन शिकायतखोरों ने मिल कर अब नई सरकार को बनाया है.

नरेंद्र मोदी ने अच्छी सरकार और अच्छे दिनों का वादा किया है और इसीलिए अब अखबारों के पन्ने नरेंद्र मोदी के लिए किए जाने वाले कामों की लिस्टों से भर गए हैं. गंभीर बात यह है कि ये सूचियां आम गरीब या गरीब से जरा ज्यादा बेहतर व्यक्ति नहीं बना रहे. ये सूचियां वे लोग बना रहे हैं जो 30 साल से अपना जम कर जीवन सुधार कर रहे थे. इन में बड़े उद्योगपति व व्यापारी या उन के साथ के सफल वकील, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैशनल, विदेशी भारतीय, विदेशी नियोजक ही शामिल हैं.

कोई भी चैनल देख लें, कोई भी पत्रपत्रिका देख लें, कोई पहचाना चेहरा नरेंद्र मोदी से कुछ मांगता दिखेगा पर सारी मांगें उन के अपने लिए हैं, देश या देश की लगभग भूखी जनता के लिए नहीं. घर में ज्यादा पैसा आए, टैक्स कम हों, जमीनें सस्ती हों, जंगलों को काटने की अनुमति हो, खनिजों को दुहने का अधिकार हो, सड़कें चौड़ी हों जिन पर पैदल चलने वाले न हों आदि व इसी तरह की अन्य मांगें की जा रही हैं.

नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां कुछ ज्यादा ही हैं क्योंकि समस्याओं को हल करने में जो खर्च होगा, अर्थव्यवस्था उस लायक ही नहीं है. प्रशासनिक बदलाव बहुत धीरे आते हैं. जब भी बदलाव लाए जाते हैं तो कुछ को हानि होती है और फिर वे बहुत शोर मचाते हैं. नरेंद्र मोदी को उन से निबटना भी होगा.

एक बात नरेंद्र मोदी के पक्ष में है कि उन के पास 5 साल नहीं, 5 से कहीं ज्यादा साल हैं क्योंकि विरोधी दलों और अपने दल में विरोध की आवाजें समाप्तप्राय हैं और वे निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं. 3-4 राज्यों को छोड़ कर 2-3 साल में सारी राज्य सरकारें भी भाजपा की होंगी (इस भविष्यवाणी के लिए कोई ओपीनियन पोल नहीं चाहिए) और उन्हें राज्य सरकारों की अड़चनों का भी सामना न करना पड़ेगा. उन्हें तो जनता की समुद्र जैसी अपेक्षाएं पूरी करने की समस्या से जू झना होगा.

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