कांगे्रस के पतन की कहानी वैसे तो कई बार लिखी जा चुकी है पर इस बार वह ऐसे गड्ढे में चली गई है जो पूरा बोरवैल है, जिस में से निकल पाना असंभव सा है. कांगे्रस ने यह गड्ढा भी खुद ही खोदा था जब उस ने 2004 में सत्ता पाने के बाद पार्टी की सारी ताकत ऐसे लोगों को सौंप दी जो वास्तव में भाजपाई सोच के थे. अगर कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर, अंबिका सोनी, पी चिदंबरम, शीला दीक्षित, विजय बहुगुणा, रीता बहुगुणा जोशी आदि को जरा सा खुरचें तो उन में से कट्टरपंथी, धर्मांध नेता ही निकलेंगे.

देश को 2004 में ऐसी सरकार मिली थी जो 1992 के बाबरी मसजिद विध्वंस और 2002 के गुजरात के दंगों के घावों पर मरहम लगा सके. लेकिन उस ने ऐसे लोगों को वरीयता दे दी जो दिल से उसी सोच के थे जिस के कारण देश सदियों गुलाम रहा, देश में वर्णव्यवस्था फलीफूली, गरीबअमीर में फर्क रहा, धार्मिक भेदभाव रहा.

सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया जिस से लगे कि सत्ता का केंद्र बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वालों को मिल रहा है. सोनिया गांधी ने कई कानून बनवाए और नीतियां बनाईं जो गरीबों के लिए सहायक हो सकती हैं पर वे जनता को ऐसे परोसी गईं मानो कुत्तों को टुकड़े दिए जा रहे हैं. राहुल गांधी भाषणों में कहते रहे कि कांग्रेस ने भूखमुक्ति कानून दिया, सम्मान का कानून दिया, गैस सिलेंडर दिए कि मानो वे अपनी खुद की जागीर से दे रहे हों.

ये तो जनता के पैसे से दिए गए थे जनाब राहुल गांधी.

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