Download App

धर्म और उस के ठेकेदार

धर्म के कठमुल्लों की एक बड़ी खासीयत है. एक कठमुल्ला धर्म के नाम पर बहुत खतरनाक काम करेगा और तभी दूसरा कहना शुरू करेगा कि धर्म तो ऐसा करने को कहता ही नहीं है. बाद में दूसरा भी ऐसा कोई काम करेगा और तीसरा उस की आलोचना कर के धर्म को पाक दामन बना देगा.

अफ्रीका के देश नाइजीरिया में बोको हरम के नेतृत्व में चल रहे कठमुल्ले इसलामिक बंदूकबाजों की संस्था और्गेनाइजेशन औफ इसलामिक कोऔपरेशन ने एक स्कूल से दिनदहाड़े 200 लड़कियों का अपहरण कर लिया और अब 2 माह से अधिक हो गए, फिर भी वहां की सरकार चुप सी बैठी है. जब इन लड़कियों के मातापिता ने हंगामा मचाया और दुनियाभर में मामला फैला और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व लड़कियों की शिक्षा के हक के लिए काम कर रही विश्व की जानीमानी कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई ने इस का विरोध किया तो बोको हरम ने यह दिखाने के लिए कि लड़कियां जिंदा हैं, एक वीडियो जारी कर दिया पर धमकी भी दे डाली कि अगर नाइजीरियाई सरकार ने उन सभी आतंकवादियों को रिहा नहीं किया जो सरकार की जेलों में बंद हैं तो इन मासूम, निर्दोष लड़कियों को गुलामों की तरह बेच दिया जाएगा.

अफ्रीका में लड़कियों का बलात्कार किया जाना आम है और इन अपहृत लड़कियों को बेचे जाने से पहले लड़ाकू इसलामी दस्ते उन का बलात्कार नहीं करेंगे यह माना नहीं जा सकता.

दुनिया के सारे धर्म इस मामले में एक जैसे हैं. एक मुंह से तो वे प्यार, शांति, सहजता, सब की उन्नति की बातें करेंगे पर दूसरे हाथ से वे हर उस का गला घोंट देंगे जो उन के मनसूबे पूरे न करे. मानव इतिहास में निहत्थे निर्दोषों को पैसे के लिए इतना नहीं मारा गया होगा जितना धर्म के कारण. आज भी भारत समेत दुनिया का लगभग हर देश धर्म के आतंक से डरा हुआ है. यहां तक कि बौद्ध धर्म से प्रभावित चीन, जापान, कंबोडिया, वियतनाम ने भी मानवसंहार में कोताही नहीं की.

कुछ धर्म तो मान कर ही चलते हैं कि पराए धर्म या अपने धर्म के नीच को कुचल देना धर्म का काम है और यही बोको हरम कर रहा है. अपने को तो वह यही कह कर समझा रहा है कि वह धर्म का काम कर रहा है. हर दंगे में बंदूक या तलवार उठाने वाला यह मान कर चलता है कि किसी को मार कर वह अपने धर्म की सेवा कर रहा है. तभी तो उसे उस के द्वारा जिंदगी भर ली गई मौतों पर गर्व होता है, शर्म नहीं आती.

केजरीवाल की भूल

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी छिन्नभिन्न होती नजर आ रही है. 1984 की भाजपा की सदस्य संख्या 2 से दोगुने यानी 4 सदस्य लोकसभा पहुंचाने के बाद भी यह पार्टी शून्य की ओर जा रही है. इस का कारण ढूंढ़ना आसान है.

अरविंद केजरीवाल की लहर उस मध्यवर्ग की देन है जो दिल्ली की तत्कालीन कांगे्रस सरकार से बेहद नाराज था और भ्रष्टाचार से भरी व निकम्मेपन की आदर्श बनी सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता था. उसे 2 वर्ष पूर्व भारतीय जनता पार्टी में भी कोई आशा नजर नहीं आ रही थी. अरविंद केजरीवाल सामने आए तो उस वर्ग को एक खूंटा दिखा, जिस से बंध कर वह अपने विरोध का प्रदर्शन कर सके.

अरविंद केजरीवाल की सरलता और साफगोई राजनीति में नया अछूता प्रयोग था और हर कोई इस नए प्रयोग का हिस्सेदार बनना चाहता था. पर यह वर्ग असल में वह है जो अमीर है, मिश्रित है पर धर्मभीरु भी है और आसानी से नारों में बह जाता है. अरविंद केजरीवाल के नारे पहले तो उसे भाए पर दिसंबर में दिल्ली का चुनाव जीतने के बाद जब अरविंद केजरीवाल सरकार चलाने में व्यस्त होने लगे तो नारों का शोर मध्यम हो गया. भारतीय जनता पार्टी ने उस का लाभ उठाया. उस ने अरविंद केजरीवाल की हर छोटी भूल को तिल का ताड़ बना डाला.

अनुभवहीन अरविंद केजरीवाल इस हमले को पहले तो समझ ही नहीं पाए और उस में घिरते चले गए. जब उन्होंने सोचा लोकपाल कानून के नाम पर सरकार छोड़ कर वे शहीद हो जाएंगे तो भाजपा ने जम कर भगोड़ा कह कर उन्हें इतना बदनाम किया कि वे कदमकदम पर लड़खड़ाने लगे.

कांगे्रस और भाजपा ने दिल्ली चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी में ऐसे तत्त्व घुसा दिए जो टोपी लगा कर अनर्गल व्यवहार करते. केजरीवाल उन लोगों में से एक को काबू में करते तो दूसरा बिदक जाता.

मध्यवर्ग, जो निम्नवर्ग की सेवा का लाभ उठाते रहना चाहता था, अरविंद केजरीवाल की झाड़ू के नीचे जमा होने लगी निम्नवर्गीय जमातों को देख कर घबरा गया. केजरीवाल की हिम्मत की दाद देने के बजाय सोशल मीडिया में उसे बदनाम करने की साजिश रची गई जो अब तक चालू है. अरविंद केजरीवाल को कई मोरचों पर लड़ना पड़ रहा है और वे उसी मध्यमवर्ग की ओर सहायता व सहानुभूति की नजर लगा रहे हैं जो बेहद मतलबी, कट्टर और परंपरावादी है. अरविंद को नए जोश और नई टीम के साथ आगे आना होगा.

नारे, वादे, दावे और कर्म

नरेंद्र मोदी अपने ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ स्लोगन से खुद घबराने लगे हैं. 14 जून को उन्होंने कहा कि अच्छे दिनों से पहले बुरे दिन आएंगे और कुछ अलोकप्रिय फैसले लेने होंगे. आर्थिक अनुशासन के नाम पर उन्होंने लोगों को कड़वी दवा पीने को तैयार रहने को कहा, क्योंकि उन के अनुसार, यह देश बीमार है और पिछली सरकार खजाना खाली कर चुकी है.

आत्मविश्वास लौटाने के लिए उन्होंने जनता से 1-2 साल के लिए सब्र करने की अपील की है और कहा है कि बिना दर्द सहे कुछ मिलता ही नहीं. वे सरकारी खर्च पर लगाम कसने के लिए आमजन को मिलने वाली बहुत सी चीजों पर मिलने वाली सहायता बंद कर देंगे यानी वे महंगी हो जाएंगी. खाद, बीज, अनाज इन में शामिल हैं. सरकार को खर्च पूरा करने के लिए बाजार से कर्ज लेना पड़ेगा, इसलिए ब्याज की दरें भी बढ़ेंगी.

‘हरहर मोदी घरघर मोदी’, ‘अब की बार मोदी सरकार’, ‘अच्छे दिन आएंगे’, ‘भ्रष्टाचार मुक्त मोदी सरकार’ के अपने नारों को नकारते हुए उन्होंने कहा कि केवल उन के गुणगान से स्थिति नहीं बदलेगी. यानी भारतीय जनता पार्टी अब मानने लगी है कि पिछली सरकार के हाथ बंधे थे और देश का बुरा हाल सिर्फ कांगे्रस के कारण नहीं, पूरी सामाजिक व्यवस्था के कारण था.

राम व कृष्ण का हवाला देने वाली, पूजापाठ से चमत्कार करने वाली भाजपा को 30 दिनों की हुकूमत में ही एहसास हो गया है कि देश की हालत के लिए सरकार किस तरह जिम्मेदार है और गांधी परिवार कितना. अगर जो भी बुरा हुआ था वह इटैलियन औरत व उस के शहजादे के कारण हुआ था तो बनारस के गंगा घाट पर अवतरित अवतार से उसी तरह देश में चकाचौंध करने वाली उन्नति हो जानी चाहिए थी जैसी सैकड़ोंहजारों पौराणिक कथाओं में वर्णित है.

मोदी अगर मेहनत कर के कमाई की वकालत कर रहे हैं तो उस पूजापाठ, उन मंत्रों का क्या, उन मंदिरों का क्या जिन के बलबूतों पर चुनाव के दौरान देश का सम्मान लौटाने की बात हो रही थी.

नरेंद्र मोदी जो कह रहे हैं वह गलत नहीं है. बस, वह उन के चुनावी नारों से अलग है जिन के बलबूतों पर उन्होंने चुनाव जीता. देश की जनता असल में सदियों से छली जा रही है क्योंकि वह विश्वास करती रही है कि उसे कुछ नहीं करना. उस ने पूजापाठ कर ली, शनि दोष निकलवा लिया, ब्राह्मणों को दान में गाय, स्वर्ण, अन्न, वस्त्र दे दिए, कल्याण अब अपनेआप हो जाएगा.

देश को सुधारने के लिए पहली जरूरत है कि नरेंद्र मोदी वह भगवा आवरण छोड़ें जिस ने देश को निकम्मा बना रखा है. इस देश की जनता की कर्मठता पर अंधविश्वास, वर्णव्यवस्था, धर्म भारी पड़ रहा है. क्या नरेंद्र मोदी असली कर्मठ समाज के निर्माण का बीड़ा उठा सकते हैं? चुनावी नारों से ऊंचा उठ सकते हैं?

आप के पत्र

लेख ‘पुरुष पर अत्याचार’ पढ़ कर यों तो बड़ी हंसी आई कि कल तक जो तत्त्व मैं, मेरा और बस मेरा ही अधिकार पुकारपुकार कर महिलाओं पर अत्याचार ढहाने से तनिक भी नहीं हिचकिचाता, डरता या शरमाता था, आज वही जब पहाड़ के नीचे आने लगा, तो वह न केवल बौखला ही गया है बल्कि दीनहीन तथा बेचारा बन कर किसी सुरक्षित शरण (ढाल) की तलाश में मारामारा फिर रहा है. लेकिन इस का यह मतलब तनिक भी नहीं है कि आज बेचारे पुरुषों की हालत दयनीय नहीं है.

परंतु अब जिन तथाकथित दहेज उत्पीड़न, महिला सशक्तीकरण तथा घरेलू हिंसा की रोकथाम के नाम पर धाराएं 498ए, 376 तथा 406 लागू की गई हैं, जिन के तहत अपने ससुराल वालों से बदला लेना, किसी को भी ब्लैकमेल करने के लिए आरोप लगा देना या फिर अपनी ही किसी भी आवश्यक इच्छापूर्ति हेतु दबाव बनाने के लिए घरपरिवारों या विवाहबंधनों को बेरहमी से तोड़ा जा रहा है. इस पर न तो समाज, राजनेता, न्यायकानूनविद या देश की विधायिका को ही कोई चिंता है और न ही देश के पुरुषों को फुरसत कि वे एकजुट हो कर आवाज उठाएं. ऐसे में मात्र जो भी इन अत्याचारी एकतरफा कायदेकानूनों के फेर में आ रहे हैं, वे बेशक चीखचिल्लाते रहते हों, परंतु देश के अंधेबहरे शासकों को जगा नहीं पा रहे हैं. चाहे निर्दोष महिला हो या फिर पुरुष, उन को किसी भी अत्याचार से बचाना ही चाहिए, मगर आंख मूंद कर किसी भी निर्दोष पर कहर ढहाना उचित नहीं माना जा सकता. लिहाजा, तथ्यों की गहराई में जा कर, इन पर पुनर्विचार कर, ऐसा बदलाव किया ही जाना चाहिए, ताकि अपराधी बचे नहीं और निर्दोष फंसे नहीं. 

टीसीडी गाडेगावलिया, करोल बाग (न.दि.)

आप के पत्र

जून (प्रथम) अंक में लेख ‘पुरुष पर अत्याचार’ पढ़ कर बेहद अफसोस हुआ कि सिर्फ अपवादस्वरूप कुछ घटनाओं के आधार पर समस्त स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है. महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचार की तुलना में ये तो कुछ भी नहीं हैं. और हम मानें या न मानें, मगर बगावत की यह चिंगारी भी पुरुष सत्तात्मक समाज की ही देन है.

हर लड़की अपने घर, समाज या आसपास में कभी न कभी पुरुषों के अत्याचारीरूप से जरूर अवगत होती है. तब यही वीभत्स रूप उन के अवचेतन में कहीं न कहीं अंकित हो जाता है जिस से वह चेतनावस्था में स्वयं भी अनभिज्ञ रहती है. उस की यही दमित भावना उसे पुरुषों के प्रति प्यार को मन में पनपने नहीं देती और वह बदले की भावना से उत्प्रेरित हो कर कुकृत्य करने को विवश हो जाती है. सदियों से जो चिंगारी दबाई जा रही थी, आज जब उस ने सुलगना प्रारंभ किया तो आधुनिकता की आंधी ने हवा दी और वह पुरुषों के लिए ज्वालामुखी बन गई. महिलाओं ने तो अत्याचार सहन करना अपने रोजमर्रा के कार्यों में शामिल कर लिया है परंतु पुरुष तो अभी इस सहनशक्ति नामक गुण से वंचित है.

यह सच है कि घरेलू हिंसा कानून का आज दुरुपयोग किया जा रहा है. जिस कानून को महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था उस का इस्तेमाल अब तलाक लेने के लिए किया जा रहा है. परंतु इस के लिए सरकार ज्यादा दोषी है. सरकार को इस में यथोचित फेरबदल कर के इसे ऐसा बनाना होगा कि सब को उचित न्याय मिल सके.

टीवी पर आने वाले कुछ धारावाहिक स्त्रियों का ही नहीं बल्कि पूरे समाज का नैतिक पतन कर रहे हैं. इस के लिए सरकार को सैंसर बोर्ड को सावधान करना होगा. मगर साथ ही हम सब को यह समझना होगा कि स्त्री और पुरुष परस्पर एकदूसरे के पूरक हैं. सिर्फ स्त्री या सिर्फ पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है. एक है तभी दूसरा है. एक को होने वाला कष्ट कभी न कभी दूसरे के लिए भी समस्या उत्पन्न कर सकता है.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

आप के पत्र

जून (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘जमीन के लिए जान लेती जातियां’, मुख्य रूप से हमारी वर्णव्यवस्था कैसी है, इस पर प्रकाश डालता है. परंतु इस का आधार मूलरूप से आर्थिक है. इंसान की प्रवृत्ति ही ऐसी है कि उस का मन कभी भी धनदौलत और जायदाद से नहीं भरता, फिर चाहे वह ऊंचे से ऊंचे पद पर क्यों न बैठा हो. उस का मन ‘दिल मांगे मोर’ के हिसाब से ही चलता है. और यहीं से संघर्ष की शुरुआत होती है जिस से कनावनी गांव जैसी घटनाएं घटती हैं. वहां पर धन नहीं वर्ण को प्रधानता दे कर उस में धनलिप्सा छिपा दी जाती है और गांव घर, पाठशालाएं, यह कह कर कि ये फलां वर्ग की हैं, जला दी जाती हैं. महिलाओं से दुष्कर्म होता है. फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का लंबा सिलसिला शुरू हो जाता है, जिस का परिणाम कनावनी गांव जैसी घटनाओं को जन्म देता है.

क्या कभी उपरोक्त घटनाएं घट सकती थीं यदि उन में बीज रूप में धनदौलत, जमीन की लालसा न छिपी होती? नहीं तो इस विश्व में कौन अपनी संतान से हाथ धोना चाहेगा? कौन पाठशालाओं को जलाना चाहेगा? कौन रोजीरोटी की तलाश में गांवदेश छोड़ कर बाहर भटकेगा? कहने का तात्पर्य है कि इस संसार के सभी संघर्षों के पीछे आर्थिक कारण हैं.

थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि ये संघर्ष सवर्णों के बीच हुआ. तो क्या एक पक्ष यह कह कर चुप बैठा रहता कि भैया, हम तुम्हारी जमीनें नहीं ले रहे हैं क्योंकि तुम हमारी जाति के हो. नहीं, वह सूई बराबर जमीन भी नहीं छोड़ता दूसरे पक्ष के लिए. इस संसार में जिस के पास धन है वह चाहे किसी जाति का हो, पैसे के सम्मुख नत होगा (अपवादों को छोड़ कर). तो जब आर्थिक कारक ही मुख्य है तब फिर उन्हें क्यों हम जातिपांति के चश्मे से देखते हैं? क्यों हम वर्ग संघर्ष को उभारते हैं? क्यों खेतखलिहानों को आग के हवाले करते हैं?

हमें उक्त धन या उक्त जमीन क्यों नहीं मिली, दूसरे को मिली तो क्यों? यही भावना मूल कारण है जिसे हम जातिपांति के वस्त्र पहना कर जीवित रखना चाहते हैं ताकि हम दूसरे वर्ग को अपने से इतर जातिप्रजाति का कह कर सदा उस का शोषण करते रहें और सदा कनावनी गांव जैसी घटनाओं को जन्म देते रहें.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

 

आप के पत्र

जून (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘खर्चीली तीर्थयात्राएं’ प्रेरणास्पद है. पिछले वर्ष इतनी खौफनाक घटना के बाद भी लोगों का तीर्थ पर जाने का मोह भंग नहीं हुआ. ‘मां का दिल महान’ कहानी पढ़ कर ऐसा प्रतीत हुआ कि बिना प्रलोभन के निस्वार्थ सेवा करने को भी लोग गलत समझ बैठते हैं, गलत मूल्यांकित कर लेते हैं. अर्थयुग होने के कारण अर्थ ही सर्वोपरि है. सभी लेख व स्तंभ प्रेरणास्पद हैं.

कांति पुरवार, झांसी (उ.प्र.)

आप के पत्र

लेख ‘खर्चीली तीर्थयात्राएं’ पढ़ कर ऐसा लगा कि व्यक्ति की सोच कितनी संकीर्ण हो गई है कि वह अपने पैसे को केवल अपने ऐशोआराम पर ही लुटाता है. वह प्रकृति के उस सौंदर्य से अनभिज्ञ है जिसे वह कभी भी अपने उस तनावपूर्ण वातावरण के आसपास नहीं प्राप्त कर सकता. लेख में बारबार फुजूलखर्ची शब्द का प्रयोग कर लेखक महोदय यह जताना चाहते हैं कि पर्वतीय स्थलों पर जाना बेकार है. किंतु उन से कोई पूछे कि क्या इस तनावभरी जिंदगी से हट कर कोई ऐसी जगह है जहां उसे कुछ देर प्रकृति की गोद में बैठ कर तनावमुक्त होने का मौका मिल सके? ऐसे में भी क्या वह उस के लिए फुजूलखर्ची है?         

रश्मि, पटना (बिहार)

आप के पत्र

अग्रलेख ‘प्रचार और कर्मठता की चौंकाती जीत’ ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने जाति, धर्म आदि के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है. ‘बांटो एवं राज करो’ की नीति के बल पर सत्ता हथियाने वाले उन तमाम नेताओं के गढ़ों को धराशायी कर, जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकार की डोर मोदीजी के हाथों में ऐसे थमाई कि विरोधी दलों के साथ सारी दुनिया भौचक रह गई.

बिना पेंदी के लोटे की तरह एवं कई नदी के संगम वाली सरकार से जनता भी थक गई थी. छीन कौन पतवार संभाले (कौन प्रधानमंत्री बने) की बीमारी से ग्रस्त भारतीय जनता पार्टी इस भ्रम में न रहे कि जनता ने वोटों के खजाने का मुंह उस के लिए खोला है क्योंकि जनता ने सारी पार्टियों के शासनकाल के चंगेज खां, नादिर शाह और गजनियों की लूट को देखा है. इसलिए उस ने पार्टी को नहीं बल्कि नमो नाम पर मुहर लगाई है.

भूखेनंगे बचपन ने, युवा वर्ग की निराशाओं एवं बेकारी ने, प्रौढ़ों की टूटी कमर ने, बुढ़ापे की धुंधली आंखों ने, आएदिन लूटी जा रही मां, बहन, बेटी एवं दुधमुंही बच्चियों की अस्मिता ने अपने असंख्य आसविश्वास की मशाल नरेंद्र मोदी को थमाई है. अब उस बुझी मशाल को प्रज्वलित कर के जनता की कसौटियों पर खरा उतरना उन का काम है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जून (प्रथम) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘मनमोहन का जाना’ में मनमोहन सिंह पर आप के विचार पढ़े. बेशक मनमोहन सिंह की भलमनसाहत और सादगी पर शक नहीं किया जा सकता मगर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने 15 अगस्त पर लाल किले पर दिए भाषण के अलावा कभी हिंदी में कुछ बोला हो. अंगरेजी में भी ऐसे बोलते थे कि पास खड़े होने वाले को भी शायद ही समझ आता हो. किसी राष्ट्र के प्रमुख से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वह जनता से, जनता की भाषा में संवाद करे.

अन्य संपादकीय टिप्पणी ‘औनलाइन फाइलिंग का जंजाल’ यानी सबकुछ कंप्यूटराइजेशन हो जाने का असर आम सेवाओं पर भी पड़ रहा है. एक बार हमारे इलाके के डाकघर के कंप्यूटर के डेड होने पर वहां के कर्मी 4 दिन तक हमें 4 किलोमीटर दूर दूसरे डाकघर में भेजते रहे. मनीऔर्डर, पार्सल आदि सेवाएं स्थगित कर दी गई थीं. बैंक में अगर सर्वर डाउन हो जाए तो कैशियर जमा करने के लिए पैसे ही नहीं पकड़ता, लाइन बढ़ती है तो उस की बला से. ये उदाहरण तो राई भर हैं, बड़े व्यवसायों और सरकारी सेवाओं से संबंधित परेशानियों का तो कहना ही क्या.

 मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

*

आप के लिखे संपादकीय ‘नरेंद्र मोदी की जीत’, ‘प्रचार, चुनाव व दल’ व ‘मनमोहन सिंह का जाना’ यथार्थ के धरातल पर खरे उतरते हैं. नरेंद्र मोदी की चुनाव में अप्रत्याशित जीत ने ऐसी पार्टी को सत्ता से दूर छिटक दिया है जो वर्षों से लोगों की खूनपसीने की कमाई को यों ही उड़ाती रही तथा अपनी तानाशाही शैली से लोगों के भविष्य का फैसला करती रही. वह देश को दरकिनार कर भ्रष्टाचार, बेईमानी व महंगाई बढ़ाने में डूबी रही, जनता के हितों को अपने पैरों तले वर्षों तक कुचलती रही. भारत के लोगों ने इस बार यह जता दिया कि जिस गद्दी को वे हुक्मरानों को सौंपना जानते हैं, उसे वे छीनना भी जानते हैं.

नरेंद्र मोदी को बहुमत मिल गया है और उन्हें भारत देश को आतंकवाद, भाईभतीजावाद, महंगाई से बचाए रखने के लिए हरएक कदम फूंकफूंक कर रखना होगा. विरासत में मिली चुनौतियों का डट कर सामना करना होगा.

नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार में विभिन्न साधनों से आम जनता से संपर्क बनाया, मतदाताओं को खूब लुभाया. मनमोहन सिंह को पता था कि अब की बार कुछ उलटापुलटा होने वाला है तो उन्होंने चुपचाप किनारा कर के न किसी के प्रति जहर उगला, न ही किसी के आरोपों को स्वीकारा. शालीनता में रह कर वे चुपचाप विदा हो गए.   

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

*

संपादकीय टिप्पणी ‘नरेंद्र मोदी की जीत’ में आप ने लिखा ‘जो बहुमत उन्हें मिला है बहुत जिम्मेदारी वाला है…नरेंद्र मोदी को इतिहास से सीखना होगा’ युक्तिसंगत है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी की गलतियों से सीख ले कर देश की जनता के कठघरे की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे.  

अंजनी कुमार सिन्हा, कोलकाता (प.बं.)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें