जून (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘जमीन के लिए जान लेती जातियां’, मुख्य रूप से हमारी वर्णव्यवस्था कैसी है, इस पर प्रकाश डालता है. परंतु इस का आधार मूलरूप से आर्थिक है. इंसान की प्रवृत्ति ही ऐसी है कि उस का मन कभी भी धनदौलत और जायदाद से नहीं भरता, फिर चाहे वह ऊंचे से ऊंचे पद पर क्यों न बैठा हो. उस का मन ‘दिल मांगे मोर’ के हिसाब से ही चलता है. और यहीं से संघर्ष की शुरुआत होती है जिस से कनावनी गांव जैसी घटनाएं घटती हैं. वहां पर धन नहीं वर्ण को प्रधानता दे कर उस में धनलिप्सा छिपा दी जाती है और गांव घर, पाठशालाएं, यह कह कर कि ये फलां वर्ग की हैं, जला दी जाती हैं. महिलाओं से दुष्कर्म होता है. फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का लंबा सिलसिला शुरू हो जाता है, जिस का परिणाम कनावनी गांव जैसी घटनाओं को जन्म देता है.

क्या कभी उपरोक्त घटनाएं घट सकती थीं यदि उन में बीज रूप में धनदौलत, जमीन की लालसा न छिपी होती? नहीं तो इस विश्व में कौन अपनी संतान से हाथ धोना चाहेगा? कौन पाठशालाओं को जलाना चाहेगा? कौन रोजीरोटी की तलाश में गांवदेश छोड़ कर बाहर भटकेगा? कहने का तात्पर्य है कि इस संसार के सभी संघर्षों के पीछे आर्थिक कारण हैं.

थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि ये संघर्ष सवर्णों के बीच हुआ. तो क्या एक पक्ष यह कह कर चुप बैठा रहता कि भैया, हम तुम्हारी जमीनें नहीं ले रहे हैं क्योंकि तुम हमारी जाति के हो. नहीं, वह सूई बराबर जमीन भी नहीं छोड़ता दूसरे पक्ष के लिए. इस संसार में जिस के पास धन है वह चाहे किसी जाति का हो, पैसे के सम्मुख नत होगा (अपवादों को छोड़ कर). तो जब आर्थिक कारक ही मुख्य है तब फिर उन्हें क्यों हम जातिपांति के चश्मे से देखते हैं? क्यों हम वर्ग संघर्ष को उभारते हैं? क्यों खेतखलिहानों को आग के हवाले करते हैं?

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