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भारत भूमि युगे युगे

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अब खैरात बांटना बंद कर दिया है. उत्तर प्रदेश के 2014-15 के बजट में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि मुफ्त लैपटौप बांटे जाएं, यहां तक कि बेरोजगारी भत्ता भी बंद कर दिया गया है. अब साड़ी, कंबल भी सपा सरकार नहीं बांटेगी. इसे लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार का बदला कह लें या मतदाताओं की बेवफाई से उपजा ज्ञान मान लें. मुफ्त के माल पर अखिलेश का दिल बेरहम हो उठा है, जो जरूरी भी था क्योंकि ये चीजें और सहूलियतें चंद लोगों को ही मिल रही थीं. उम्मीद है कि इस बचत को बुनियादी जरूरतों के लिए लगाया जाएगा, जिस से सभी को फायदा हो.

भारत भूमि युगे युगे

योजना आयोग को खत्म करने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इरादे से उन लोगों में मायूसी है जो सरकारी पैसे पर गिद्ध दृष्टि रखते हैं. इस आयोग के बारे में आमतौर पर लोग यही जानते हैं कि यह देश के भले और विकास की योजनाएं बनाता है और इस के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया हुआ करते थे जिन्होंने शराफत दिखाते हुए लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद इस्तीफा दे दिया था. योजना आयोग जैसी दर्जनों सरकारी एजेंसियां सफेद हाथी ही साबित हुई हैं जो राजनीतिक उद्देश्यों को ले कर बनती हैं, इन के खुद के खर्च भी भारीभरकम होते हैं. जनता के पैसे को बरबादी से बचाने के लिए आइडिया अच्छा है बशर्ते कोई दूसरी वैकल्पिक एजेंसी खड़ी न की जाए. बेहतर होगा यदि योजनाएं आम जनता से ही बनवाई जाएं.

हाशिए पर मुसलिम नुमाइंदगी

16वीं  लोकसभा चुनाव के नतीजे कई लिहाज से याद रखे जाएंगे. एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी को बहुमत हासिल हुआ वहीं दूसरी ओर मुसलिम नुमाइंदगी अब तक के सब से कम स्तर पर आ गई. दोनों ही स्थितियां चौंकाने वाली हैं, विशेषकर, मुसलिम नुमाइंदगी के बारे में तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. 1952 से ले कर अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं उन में 15वीं लोकसभा में सब से कम अर्थात 29 मुसलिम सांसद थे. लेकिन 16वीं लोकसभा में यह संख्या घट कर 24 रह गई.

सब से ज्यादा आश्चर्यजनक बात उत्तर प्रदेश की है जहां 80 लोकसभा सीट में से एक भी मुसलिम उम्मीदवार कामयाब नहीं हुआ. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि भाजपा ने 482 उम्मीदवारों में 7 मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था. नरेंद्र मोदी की सुनामी थी लेकिन यह सुनामी भाजपा के मुसलिम उम्मीदवारों को कामयाब नहीं करा सकी. देश की 92 सीटें जिन पर मुसलिम निर्णायक भूमिका में हैं, 41 सीटों पर भाजपा ने कामयाबी हासिल की. 20-30 फीसदी मुसलिम बहुल 41 सीटों में से 16, 31-40 फीसदी मुसलिम बहुल 24 सीटों में से 13, 41-50 फीसदी 11 सीटों में से 5 और 50 फीसदी से अधिक की 16 सीटों में से भाजपा ने मात्र 1 सीट हासिल की.

मुसलमानों की कम हुई नुमाइंदगी के लिए आरएसएस और भाजपा की रणनीति को जिम्मेदार बताया जा रहा है. सवाल यह है कि इस रणनीति को आम आदमी समझेगा या मुसलिम संगठन जो रातदिन सांप्रदायिकता का खतरा बताते नहीं थकते हैं. इस बात पर कोई चर्चा नहीं हो रही है कि मुसलिम संगठनों की अपील कितनी स्पष्ट थीं.

मोदी को हराने की अपील कर के इन मुसलिम संगठनों ने मुसलिम वोटों का जो भ्रम था, वह तोड़ दिया और खुद ने मुसलमानों को राजनीतिक स्तर पर हाशिए पर पहुंचाने का काम कर डाला. इस प्रसंग में यदि मुसलिम संगठनों की अपील की समीक्षा की जाए तो जमाअत इसलामी हिंद जैसी दीनी (धार्मिक जमाअत) ने सैकुलर उम्मीदवारों की सूची जारी कर वोट देने की अपील की तो औल इंडिया मिल्ली काउंसिल, जिस ने अतीत में इसी तरह एक बार सूची जारी की थी, ने इस बार सूची जारी करने के बजाय सांप्रदायिक ताकतों को हराने की अपील की. औल इंडिया मुसलिम मजलिस मुशावरत, जो विभिन्न छोटीबड़ी और क्षेत्रीय पार्टियों का संयुक्त मोरचा है, ने भी मिल्ली काउंसिल की तर्ज पर अपील जारी की थी.

जमीअत उलेमा हिंद का शुरू से इस मामले में अलग दृष्टिकोण रहा है. वह कांगे्रस के प्रति नरम रुख रखता है. उस के कार्यकर्ता अपने स्तर से पार्टी के लिए काम करते हैं लेकिन जमीअत अधिकारिक तौर पर किसी के लिए अपील नहीं करती है.

बुनियादी बात यह है कि ये मुसलिम संगठन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांगे्रस में से किसी एक को वोट देने की अपील क्यों नहीं करते, क्या इस का कारण, जैसा कि कहा जाता है, इन मुसलिम संगठनों के उन सियासी पार्टियों से संपर्क हैं और वे किसी एक के पक्ष में अपील कर के दूसरी पार्टी को नाराज नहीं करना चाहते हैं. इसीलिए गोलमोल अंदाज में मतदाताओं से अपील करते हैं. जो सैक्युलर उम्मीदवार सांप्रदायिक उम्मीदवार को हराने या जीतने की स्थिति में हो उस को वोट देने की अपील का हाल यह हुआ कि मतदाताओं ने इन मुसलिम संगठनों की तर्ज पर किसी सियासी पार्टी को नाराज करने के बजाय सभी सियासी पार्टियों के उम्मीदवारों को वोट दिया. इस से यदि भाजपा कामयाब हो गई तो इस में मुसलमानों की कोई गलती नहीं और न ही उन्हें इस के लिए दोषी ठहराया जा सकता है.

मुसलिम वोटों का विभाजन

भाजपा को कुल 31 फीसदी वोट मिले. इस का साफ मतलब है कि मुसलिम वोटों का विभाजन. यह विभाजन किसी और ने नहीं खुद सियासी पार्टियों ने किया. कांगे्रस यदि चाहती तो सैकुलरिज्म के लिए वह अपने सहयोगियों से मिल कर चुनाव लड़ती और मुसलिम वोट विभाजित न होता और इस का अच्छा प्रभाव अन्य सियासी पार्टियों पर पड़ता और तब उन पर दबाव बनाया जाना संभव हो सकता था लेकिन कांगे्रस ने ऐसा न कर के सैक्युलर वोटों के विभाजन का रास्ता खोल दिया.

ऐसी सूरत में कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों द्वारा यह कहना कि उन्होंने अपने स्तर से प्रयास किए कि मुसलमानों के निर्णायक वाले क्षेत्रों में जीतने वाले उम्मीदवार के पक्ष में अन्य सैक्युलर पार्टी के उम्मीदवार मैदान से हट जाएं, लेकिन उस में कामयाबी नहीं मिली. यह जानने के बावजूद कि ये सियासी पार्टियों के उम्मीदवार हैं और सियासी पार्टियों ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया है, वे अपनी मरजी से मैदान से नहीं हट सकते, इस प्रयास का मकसद क्या था? यदि यही दबाव पार्टी नेतृत्व पर डाल कर उस का टिकट वापस करा दिया जाता या उन क्षेत्रों में किसी एक को टिकट देने के लिए सैक्युलर पार्टियों को सहमत कर लिया जाता तो निश्चय ही यह बड़ा काम होता.

औल इंडिया फैडरेशन फौर डैवलपमैंट एजुकेशनल के चेयरमैन अब्दुल अलीम बर्नी कहते हैं कि मुसलिम संगठन खुद एकजुट हैं नहीं और 24 करोड़ मुसलमानों को एकजुट होने का संदेश दे रहे हैं, यह कितना विचित्र है, सोचा भी नहीं जा सकता. उल्लेखनीय है कि मुसलिम संगठनों के सामने भ्रष्टाचार, महंगाई और विकास जैसे मुद्दे कभी नहीं रहे. जबकि युवा पीढ़ी इन समस्याओं से बुरी तरह ग्रस्त है और इन की वजह से उस में काफी नाराजगी पाई जा रही थी. सैक्युलरिज्म के संरक्षण और सांप्रदायिकता को रोकने की अपील उन्हें प्रभावित नहीं कर सकी.

सब से ज्यादा मातम इस बात पर किया जा रहा है कि देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलिम सांसद निर्वाचित नहीं हो सका. मुसलिम सांसद मुसलिम समस्याओं के प्रति कितने सजग होते हैं, इस का अंदाजा इस एक घटना से लगाया जा सकता है कि संसद में आतंक विरोधी मामलों के संबंध में सरकार से सवाल द्वारा स्थिति स्पष्ट करने की मांग किसी मुसलिम सांसद ने नहीं बल्कि वाम मोरचा के एक गैरमुसलिम सांसद ने की, बाद में इस मुहिम में मुसलिम सांसद भी शामिल हो गए.

गत वर्ष सितंबर में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक हिंसा पीडि़तों को सियासी पार्टियों का एजेंट और पेशेवर भिखारी करार दिया गया. इस के बावजूद समाजवादी पार्टी के एक भी मुसलिम विधायक ने इस पर किसी तरह का विरोध नहीं किया. समाजवादी पार्टी का मुसलिम चेहरा आजम खां तक उन के जख्मों पर मरहम रखने के लिए वहां नहीं गया. इन परिस्थितियों में यदि संसद में मुसलिम नुमाइंदगी के कम होने का रोना रोया जाए तो यह एक भावनात्मक बात हो सकती है लेकिन इस का कोई बहुत ज्यादा महत्त्व नहीं है.

मुसलिम संगठनों की कार्यशैली को सियासी पार्टियां भलीभांति जानती हैं. इन का स्वरूप राजनीतिक नहीं, धार्मिक है. ये चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े भी नहीं करती हैं लेकिन मुसलमानों के सियासी मैदान, विशेषकर किस पार्टी को वोट दिया जाए, की अपील जरूर करती हैं. उर्दू समाचारपत्रों में इन के द्वारा विज्ञापन भी दिए जाते हैं. इसी आधार पर आम धारणा यह है कि इन मुसलिम संगठनों को सियासी पार्टियों से पैसा मिलता है जिस की वजह से, कभी ‘इसलाम खतरे में है’ तो कभी ‘सैक्युलरिज्म खतरे में है’, जैसे नारे सुनाई पड़ते हैं. मुसलिम युवाओं ने जिस तरह इन खतरों को उखाड़ फेंका है, 16वीं लोकसभा उसी का परिणाम है.

रहिमन चुप हो बैठिए

वे हिंदी भाषी हैं, हिंदी के हृदय क्षेत्र के एक महत्त्वपूर्ण संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस की कोई संभावना नहीं कि रहीम के इस दोहे से उन का परिचय न हुआ हो, ‘रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन का फेर, जब नीके दिन आईहें बनत न लगिहै देर.’ अफसोस कि इस में निहित संदेश को वे समझ नहीं पाए. सरकारी दस्तावेजों में अपनी जन्मतिथि में दिनन के फेर को वे चुप लगा कर देख न पाए. इतना बोले, इतना बोले कि देश के सर्वोच्च न्यायालय को उन्हें चुप कराना पड़ गया. 13 लाख सैनिकों के प्रमुख जनरल विजय कुमार सिंह ने भारत के सेनाध्यक्ष पद की गरिमा के साथ जितना खिलवाड़ किया वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें दी गई चुभने वाली टिप्पणियों और परामर्श ने जगजाहिर कर दिया.

सेनाध्यक्ष रहते हुए वे जो कुछ बोले उस से मनमोहन सिंह जैसे चुप रहने वाले प्रधानमंत्री और शांत छवि वाले रक्षामंत्री ए के एंटोनी भी त्रस्त और असहज हो गए. विजय कुमार सिंह कुछ बोलते थे तो यह समझ कर कि इस से सेना की गंभीर जरूरतों के प्रति रक्षा मंत्रालय की उदासीनता और अकर्मण्यता कम होगी. पर वे जब भी बोले उन्होंने मंत्रालय अधिकारियों और सैन्य मुख्यालयों के बीच की खाई को केवल और चौड़ा व गहरा किया.

किसी भी गणतंत्र में नागरिक प्रशासन और सरकार के समग्र दिशानिर्देशन और नीतिनिर्धारण के तहत ही सेनाओं को आचरण करना होता है. ऐसा न होने पर क्या होगा, जानने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं. पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड आदि हमारे बहुत निकट हैं. वहां हम बहुत बार देख चुके हैं कि फौजी गाड़ी जब गणतंत्र के घोड़े के आगे जोत दी जाती है तो जनता की आकांक्षाएं बलि चढ़ा दी जाती हैं. पर इस के विपरीत हमारे देश में सैन्य मुख्यालयों में उच्चपदस्थ सैन्य अधिकारियों को अपने समकक्ष सिविल अधिकारियों के आगे नितांत आवश्यक समस्याओं के निदान के लिए भी याचक की तरह जाने की परंपरा बन गई है. उन के कद घटा कर इतने छोटे कर दिए गए हैं कि उन की चीख भी फुसफुसाहट से अधिक असर नहीं करती.

सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के संबंध याचक और दाता के सांचे में ढल गए हैं. एक नए और अधिक संतुलित एवं तर्कपूर्ण सैन्य मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय में सामंजस्य के लिए जितने धैर्य, दूरदृष्टि, परिपक्वता, पैनी समझ और कूटनीतिक क्षमता की आवश्यकता है उस का जनरल सिंह में थलसेनाध्यक्ष के पद पर आसीन होने के पहले से ही नितांत अभाव दिखता रहा था. जब उन्होंने एक कर्तव्यनिष्ठ, जिम्मेदार सेनाध्यक्ष की तरह सरकार को भारतीय थलसेना को उपलब्ध आयुध एवं शस्त्रास्त्र की चिंतनीय स्थिति पर खुलेआम आगाह किया तो उस का प्रभाव उलटा ही पड़ा. संदेश पसंद न आने पर संदेशवाहक को सूली पर चढ़ा देने की ऐतिहासिक परंपरा का पालन हुआ.

सेनाध्यक्ष की सियासतबाजी

थलसेनाध्यक्ष के पद पर आसीन जनरल सिंह ने अपनी निजी समस्याओं को ले कर सरकार के विरुद्ध मोरचा खोला. उसी के परिणामस्वरूप न वे उस में अपने लिए कोई विजय पा सके न अभावों से तरसती सेना के लिए कुछ हासिल कर पाए. कुल मिला कर यही हो पाया कि सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के ठंडे और लचर संबंध कटु से बढ़ कर विषाक्त हो गए.

थलसेनाध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद अपने पुनर्स्थापन के चक्कर में उन्होंने खूब फेरे लगाए. कभी अन्ना हजारे के मंच पर अन्ना के चश्मे में उन की छवि दिखी तो कभी रामदेव के साथ उन्होंने गोटी फिट करने का प्रयास किया. किसानों के आंदोलन में घुसना चाहा और नरेंद्र मोदी के साथ भूतपूर्व सैनिकों के सम्मेलन में भी दिखाई पड़े. यहां आ कर उन्हें लगा कि उन्होंने आखिर में सही जगह जा कर मोरचा खोला है. लाखों भूतपूर्व सैनिकों की आकांक्षाओं का यूपीए सरकार निर्ममता से हनन करती चली आ रही थी. ‘एक रैंक एक वेतन’ की उन की ऐसी मांग, जिसे हर सोपान पर अदालतों ने उचित ठहराया, को सरकार वर्षों तक ठुकराती रही. वेतन आयोग की सिफारिशों को नागरिक सेवाओं के बाबुओं ने बिना सेना की विशेष परिस्थितियों को समझे कुतर्कों से तोड़ामरोड़ा. सैन्य सेवाओं के कर्मचारियों की जायज और न्यायोचित मांगों को सिविल सर्विस के हितों की

रक्षा में प्राणपन से समर्पित मंत्रालय अधिकारियों ने नजरअंदाज कर रखा था. इन सब की स्वाभाविक प्रतिक्रिया समझ पाने में जहां तत्कालीन सरकार पूरी तरह से असफल रही वहीं सैन्य कर्मचारियों के गिरते हुए मनोबल को भाजपा के जमीनी सचाइयों से जुड़े हुए कार्यकर्ता और शीर्ष नेता, सभी ठीक से आत्मसात कर पाए. स्थल, जल और वायु सेना तीनों में कुल मिला कर 17-18 लाख लोग सेवारत हैं. पूरे देश के कोनेकोने से आने वाले ये वरदीधारी और उन के परिवार व संबंधी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एक बहुत विशाल संख्या में थे. सरकार की अनदेखी से संतप्त उन के परिवारों और स्वजनों के गिरते मनोबल व बढ़ते असंतोष का दुष्परिणाम सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशियों को भुगतना पड़ेगा, इसे भाजपा ने पहचाना.

इधर सेनाध्यक्ष पद पर आसीन होने वाले दिनों की कड़वी याद जनरल वी के सिंह के आहत अभिमान की ज्वाला को बुझने नहीं दे रही थी. उधर भाजपा को इतने व्यापक क्षेत्र में तत्कालीन सरकार की अनदेखी का प्रचार करने के लिए इतना कद्दावर भूतपूर्व सैनिक कोई और उपलब्ध नहीं था. फिर क्या जरूरत थी जनरल साहब को नीके दिनों के आने की प्रतीक्षा में चुप हो कर बैठने की? वे मुखर तो थे ही, अब और वाचाल हो गए.

सेनाध्यक्ष पद से निवृत्त होने के बाद उन के उस पद पर आसीन रहते हुए किए गए कई हैरतंगेज कारनामों में सेना के टैक्निकल सपोर्ट डिवीजन की आड़ में रक्षा मंत्रालय में गुप्तचरी का आरोप सब से विस्मयकारी था. पर यह भी सच है कि एक प्रमुख अंगरेजी दैनिक में एक ऐसी घटना को ले कर तिल का ताड़ बनाया गया कि जानकारों को यह एक बेहद बचकाना प्रयास लगा. गणतंत्रदिवस के आसपास कुछ सैन्य टुकडि़यों के नियमित रूप से होते रहने वाले युद्धाभ्यास में कुछ इकाइयों द्वारा दिल्ली के आसपास की गई गतिविधियों की आधीअधूरी जानकारी ले कर कुछ लोग चिल्ला पड़े, कौआ कान ले गया और कुछ कान के कच्चे लोग बिना कनपटी को टटोलते कौए के पीछे दौड़े भी.

पर कुल मिला कर इस बेसिरपैर के नाटक का कोई प्रभाव जनमानस पर नहीं पड़ा. पर जनरल साहब को दूसरों द्वारा अपनी जड़ें खोदने की क्यों चिंता हो जब वे स्वयं अपनी जड़ें खूबसूरती से खोद लेते हैं. इसलिए जहां उन के नेतृत्व में सेना द्वारा सत्तापलट करने की बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया वहीं उन के इस कथन ने कि सेना जम्मूकश्मीर में अपने खुफिया कोष से राजनीतिक दलों के नेताओं को धन बांटती थी, सब को स्तब्ध कर दिया.

बयानों की जुगाली

जनरल साहब के इस बयान से जहां सरकारी हलकों में खलबली मच गई वहीं देश की अखंडता के शत्रुओं को भारत की भर्त्सना करने के लिए एक सशक्त डंडा मिल गया. उन के इस वक्तव्य से सब से अधिक क्षुब्ध अगर कोई हुआ तो स्वयं सेना के अधिकारी और जनरल सिंह के वे प्रशंसक जो अभी तक उन की स्पष्ट वक्तता और ईमानदारी के गुण गाते थे.

सिविल सेवाओं में आने वाला हर अधिकारी मेजर जनरल के समकक्ष पद संयुक्त सचिव तक पहुंचता ही है पर 90 प्रतिशत सैन्य अधिकारी उपसचिव के समकक्ष पद तक पहुंच कर चूक जाते हैं. ऐसे में थलसेनाध्यक्ष के इकलौते पद पर एक सेना अधिकारी 3-4 दशक लंबी लड़ाई जीत कर ही पहुंचता है. विजय सिंह अपने प्रबंधन, नेतृत्व और कार्यकुशलता के गुणों का समुचित परिचय मेजर जनरल और लैफ्टिनैंट जनरल के पदों पर देने के बाद ही इस सर्वोच्च पद तक पहुंचे थे. इसलिए उन की योग्यता पर सवालिया निशान लगाना गलत होगा. पर पद की मर्यादा का पालन करने में वे पूरी तरह असफल रहे हैं.

यह कैसा आचरण

लैफ्टिनैंट जनरल के पद पर आसीन अगले सेनाध्यक्ष के पद के लिए मनोनीत अधिकारी की तुलना चोरडाकुओं के सरगना से करने से बढ़ कर अधिक असंतुलित और बचकाना आचरण क्या होगा. लैफ्टिनैंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग संप्रति मनोनीत सेनाध्यक्ष हैं.

13 लाख की विशाल संख्या वाली भारतीय थलसेना विश्व के समस्त देशों में अपनी बहादुरी, राजनीति से असंबद्धता और अपने प्रोफैशनलिज्म अर्थात व्यावसायिक गुणवत्ता के मानक स्थापित करती है. उस के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के लिए जिस व्यक्ति का चुनाव पिछली सरकार कर चुकी है और जो राजग की सरकार को भी मान्य है, उस के विषय में जनरल वी के सिंह का कथन है कि अगर यूनिट निर्दोषों को मारती है, डकैती करती है और उस के बाद संगठन के प्रमुख उन्हें बचाने की कोशिश करते हैं तो क्या उन्हें आरोपी नहीं ठहराना चाहिए? क्या अपराधी खुले घूमेंगे? जब स्वयं जिस सरकार में जनरल विजय कुमार सिंह मंत्री हैं उसी का रक्षा सचिव सर्वोच्च अदालत में हलफनामा दे कि लैफ्टिनैंट जनरल सुहाग की पदोन्नति पर प्रतिबंध उन के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सरासर गलत थी तो इस प्रतिबंध के लगाने वाले का खिसियानी बिल्ली जैसा आचरण हास्यास्पद नहीं बल्कि घृणित प्रतीत होता है.

निजी स्वार्थों से बचें

देश अपने नेताओं से यह अपेक्षा रखता है कि अपने निजी कार्यकलाप में वे क्षुद्रता और निजी स्वार्थों में लिप्त होने का संकेत न दें. छोटी अदालत से ले कर सर्वोच्च न्यायालय तक की परंपरा है कि न्यायाधीश अपने किसी सगेसंबंधी का मुकदमा आने पर स्वयं उस मुकदमे को नहीं सुनता है. जब सब को मालूम है कि लैफ्टिनैंट जनरल सुहाग जो योग्यता और सीनियरिटी दोनों ही दृष्टियों से सेनाध्यक्ष पद के लिए योग्य पाए गए हैं. येनकेन प्रकारेण उन्हें इस पद के लिए ठुकराया गया तो स्वाभाविक रूप से यह पद जनरल विजय सिंह के समधी साहब लैफ्टिनैंट जनरल अशोक सिंह की झोली में जा गिरेगा तो जनरल विजय सिंह को शालीन असंबद्धता की मर्यादा निभाते हुए जनरल सुहाग की भर्त्सना करने से बचना चाहिए था. पर अपने निजी एजेंडे के आगे जनरल सिंह ने थलसेना ही नहीं सारी सशस्त्र सेनाओं के मनोबल और स्वाभिमान की चिंता नहीं की.

हाल में केंद्रीय मंत्रिपरिषद के गठन के समय लगभग सभी रक्षा कर्मचारियों को भय था कि कहीं रक्षा मंत्रालय उन के हाथ में न सौंप दिया जाए. गनीमत है सशस्त्र सेनाओं से जनरल साहब को दूर ही रखा गया.

सपनों का घरौंदा नियमकायदों ने रौंदा

अदालत के हालिया 2 आदेशों ने आमजन के घर के सपने को तोड़ दिया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुंबई की कैंपा कोला सोसायटी के हजारों फ्लैटों को खाली करने का आदेश दिया गया तो वहीं दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले में ओखला पक्षी विहार के पास बनाए गए हजारों फ्लैटों का आवंटन अधर में लटक  गया है. मुंबई में कैंपा कोला सोसायटी में पहले से रह रहे लोग अदालत के आदेश से परेशान हैं. सोसायटी परिसर में लोग धरने पर बैठे हैं और किसी भी हालत में अपने पसीने की कमाई का घर छोड़ना नहीं चाहते.

पहले बात करते हैं मुंबई की. यहां कैंपा कोला सोसायटी में बने 102 फ्लैटों को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर के खाली कराने का आदेश दिया है. इन फ्लैटों में लोग कुछ समय से रह रहे हैं. दरअसल, 1981 में कैंपा कोला की जमीन पर भवन बनाने की इजाजत पीडीएस कंस्ट्रक्शन, डीवाई बिल्डर्स और पीएसबी कंस्ट्रक्शन नामक 3 बिल्डरों को मिली थी. 1983 में बिल्डरों ने 5-5 मंजिलों की इमारत बनाने का प्लान बना कर बीएमसी यानी बंबई महानगर पालिका को सौंपा था. प्लान को मंजूरी मिल गई लेकिन कुछ समय बाद बिल्डरों ने प्लान बदल कर और ज्यादा मंजिलों की योजना तैयार कर स्वीकृति हेतु बीएमसी को दी.

बिल्डरों ने अपने नए प्लान के अनुसार काम शुरू कर दिया. अब कहा जा रहा है कि बिल्डरों ने प्लान से हट कर कई फ्लैट बना डाले. बीएमसी ने इस बीच बिल्डरों को कई नोटिस दिए. इस के बावजूद 1989 तक इमारत बना कर लोगों को अवैध निर्माण की बात बताए बिना फ्लैट बेच दिए गए लेकिन इस हाउसिंग सोसायटी के सदस्यों को मालूम था कि उन के द्वारा खरीदे गए फ्लैट स्वीकृत प्लान का उल्लंघन कर के बनाए गए हैं.

उधर, बीएमसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बिल्डर ने गैरकानूनी निर्माण किया है. वह इस मामले को ले कर अदालत गई. पहले सिविल कोर्ट, फिर हाई कोर्ट और अंत में सुप्रीम कोर्ट. लेकिन फ्लैट खरीदारों को कोई राहत नहीं मिली. इन लोगों ने अपनी जिंदगीभर की कमाई एक अदद घर में लगा दी थी.

तब कहां थी बीएमसी

सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. दूसरे राजनीतिक दल अदालती आदेश के आगे खुद को बेबस बता रहे हैं. सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब अवैध निर्माण हो रहा था तब बीएमसी कहां थी? बिल्डरों पर कुछ लाख का जुर्माना दे कर ही क्यों छोड़ दिया गया? उन पर धोखाधड़ी का मामला क्यों नहीं चलाया गया?

इसी तरह, ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 28 अक्तूबर, 2013 को अपने फैसले में कहा था कि ओखला पक्षी विहार के 10  किलोमीटर का दायरा पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में आता है. ऐसे में यहां बन रही इमारतों को कंपलीशन सर्टिफिकेट नहीं दिया जाएगा.

इस आदेश के खिलाफ जेपी इंफ्रास्ट्रक्चर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी और ओखला पक्षी विहार इलाके में निर्माण कार्य पर लगी रोक हटाने की बात कही गई. इस पर कोर्ट ने सुनवाईर् से इनकार कर दिया और  ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले को बरकरार रखा है. इस फैसले के बाद एनसीआर में करीब एक लाख फ्लैटों के आवंटन पर तलवार लटक गई है.

कंपनी के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील देते हुए कहा था कि लगभग 4 हजार फ्लैट ग्राहकों को सौंपे जाने के लिए तैयार हैं. ऐसे में अगर कंपलीशन सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता है तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी. सब से बड़ी दिक्कत ग्राहकों के सामने है. नोएडा अथौरिटी द्वारा सर्टिफिकेट नहीं देने से वे ग्राहक गहरे सदमे में हैं जो अधिकतर भुगतान कर चुके हैं और पजेशन का इंतजार कर रहे हैं.

पर्यावरण व कंकरीट का जंगल

मालूम हो कि यह सैंक्चुरी सुर्खियों में तब आई जब लाखों लोगों ने रिहायशी फ्लैट और कमर्शियल प्रोजैक्ट में हो रही देरी के खिलाफ आवाज उठाई. सैंक्चुरी के नजदीक इस जोन में 1 लाख से ज्यादा लोग बसने वाले थे लेकिन ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पिछले साल अक्तूबर में लगभग 58 बिल्डरों से अपने उन प्रोजैक्टों को तुरंत बंद करने को कहा था जो ओखला पक्षी विहार के नजदीक थे. ये वे प्रोजैक्ट थे जिन के लिए उन्होंने नैशनल बर्ड फौर वाइल्डलाइफ से पर्यावरण संबंधी अनुमति नहीं ली.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने नोएडा अथौरिटी से साफ कह दिया है कि काम पूरा होने का प्रमाणपत्र उन प्रोजैक्टों को हरगिज न दें जो इस सैंक्चुरी के 10 किलोमीटर के दायरे में आते हैं. इस से लोगों को फ्लैट या कमर्शियल संपत्ति पर कब्जा नहीं दिया जा सकेगा.

गौरतलब है कि ओखला बर्ड सैंक्चुरी दिल्लीनोएडा सीमा, कालिंदी कुंज के बैराज के नजदीक स्थित है. यह करीब 3.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है. इस सैंक्चुरी को 1990 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इंडियन वाइल्ड लाइफ प्रोटैक्शन ऐक्ट के तहत प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया था. ग्रीन ट्रिब्यूनल के अप्रैल 2014 के आदेश के बाद नोएडा स्थित बिल्डर लगभग 30 हजार परिवारों को घर नहीं दे पा रहे हैं. ट्रिब्यूनल ने जिन प्रोजैक्टों का जिक्र अक्तूबर 2013 के आदेश में किया था, वे सैक्टर 44, 45, 46, 50, 52, 76, 78, 94, 96, 97, 98, 107, 110, 120, 131, 132, 133, 134, 135 और 137 के हैं.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से अगस्त 2013 में नोएडा निवासियों और पर्यावरणविदों ने ओखला पक्षी विहार के 10 किलोमीटर के दायरे में चल रहे अवैध निर्माण को रोकने की मांग की थी. इस पर ट्रिब्यूनल ने नोएडा अथौरिटी से कहा था कि वह ओखला पक्षी विहार के 10 किलोमीटर के दायरे में हो रहे सभी निर्माण कार्यों को तुरंत बंद करवाए. इस के साथ ही ट्रिब्यूनल ने केंद्र सरकार से कहा कि सैंक्चुरी के बफर जोन के लिए कुछ तय नियम बनाए जाएं.

नियमकायदों का रोड़ा

असल में यह परेशानी सरकारी नियमकायदों की वजह से हो रही है. ओखला पक्षी विहार के संबंध में हुआ यह था कि दिसंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद वन एवं पर्र्यावरण मंत्रालय को राज्य सरकार से बफर जोन का मसौदा तैयार करने के लिए कहा था. आदेश दिया था कि सरकार के पास ईको सैंसिटिव जोन तय करने के लिए आखिरी मौका है, पर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. राज्य सरकार ने करीब 7 साल बाद ईको सैंसिटिव जोन तय करने के प्रति थोड़ी सक्रियता दिखाई.

अगस्त 2013 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ओखला बर्ड सैंक्चुरी के 1 किलोमीटर के दायरे को ईको सैंसिटिव जोन माना और इस की घोषणा की लेकिन सरकार ने बाद में सुर बदले और यह दायरा महज 100 मीटर कर दिया. इस साल अप्रैल में अपने एक आदेश में नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा कि यह समझ से बाहर है कि आखिर किस आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार ईको सैंसिटिव जोन को 100 मीटर तक दायरे में सीमित कर रही है. हालांकि यह मामला अभी भी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति का इंतजार कर रहा है. मंत्रालय अभी किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया है कि आखिर सीमा क्या हो. मंत्रालय के पास हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली व अन्य राज्यों से ईको सैंसिटिव जोन से संबंधित घोषणाएं मिल चुकी हैं. तकनीकी विशेषज्ञों की टीम के साथ बातचीत के बाद ही अंतिम निर्णय लिया जा सकेगा.

वास्तविकता यह भी है कि जटिल और ज्यादातर बेमतलब के अनगिनत सरकारी नियमकायदों के चलते ग्राहक और रियल एस्टेट कारोबारी घुटने टेकने को मजबूर हैं.

मुबई में एक इमारत के निर्माण के लिए करीब 40 विभागों की अनुमति लेनी पड़ती है. मसलन, गैर कृषि भूमि की स्वीकृति, ट्री अथौरिटी (बीएमसी), वाटर ऐंड डै्रन डिपार्टमैंट, सेवरेज विभाग, हाइड्रोलिक विभाग, इन्वायरनमैंटल विभाग, स्थापना एवं संचालन, प्राचीन धरोहर विभाग, एअरपोर्ट अथौरिटी औफ इंडिया, टै्रफिक ऐंड कोऔर्डीनेशन विभाग, सीएफओ-फायर विभाग, स्ट्रक्चरल प्लान स्वीकृति और इलैक्ट्रिक विभाग. यह तो खासखास हैं. ये फेहरिस्त बढ़ती ही जा रही है. कुछ समय से निर्माण के मामले में पर्यावरण का संबंध भी आ जुड़ा है. यही हाल दिल्ली का है. एक भवन निर्माता कैसे इन तमाम विभागों की स्वीकृति के बगैर भवन बना कर लोगों को आवंटित कर सकता है?

नियमों की आड़ में लूट

दरअसल, सरकारी विभागों ने अनगिनत दस्तावेजी खानापूरी करने वाले नियम बना रखे हैं ताकि हर दस्तावेज की मंजूरी के लिए बिल्डरों और मकान बनाने वालों से रिश्वत वसूली जा सके. नियमों की आड़ में बिल्डर और ग्राहक दोनों को लूटा जाता है.

देश का कोईर् भी हिस्सा हो, वहां भवन निर्माण का कोईर् भी प्रोजैक्ट शुरू करने के लिए दर्जनों अप्रूवल लेने पड़ते हैं. एक बिल्डर को 100 से ऊपर दस्तावेज जमा कराने होते हैं. ये सब करने के लिए उसे केंद्र और राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों के पास जाना पड़ता है. अगर कोई बिल्डर अफसरों द्वारा बनाए गए नियमकायदों के अनुसार चलेगा तो उस का प्रोजैक्ट शुरू होने में ही 2-4 साल लग जाएंगे. लिहाजा, सरकारी देवताओं से जल्दी काम कराने के लिए उन पर चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है. यह पैसा बिल्डर अपनी जेब से देंगे, लेकिन बाद में उपभोक्ताओं से ही वसूलेंगे.

कैंपा कोला सोसायटी और ओखला बर्ड सैंक्चुरी के नजदीक बने फ्लैट ही नहीं, ऐसे और भी कई निर्माण हैं जहां डैवलपर, बिल्डर और ग्राहक सरकारी अफसरों की रिश्वतखोरी के कारण नुकसान झेलने पर मजबूर हैं. लोगों के घर का सपना टूटे नहीं, इस के लिए सरकारों को घूसखोरी के रास्ते बंद कर ऐसे सरल नियम बनाने चाहिए ताकि जहां न धोखाधड़ी की गुंजाइश रहे और न ही किसी की उम्रभर की कमाई लुटे.

संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास

उपवन में लड़की भंवरे से परेशान हो कर तिलमिला रही है और उस की 2 सहेलियां उसे स्थिर रहने की सलाह दे रही हैं. पास ही पेड़ के पीछे छिपा युवक लड़की की मदद करने सामने आ जाता है.

‘‘आप ठीक तो हैं न?’’ वह पूछता है. उस का सुडौल रूप देख कर लड़की लजा जाती है, और उस की सहेली कहती है, ‘‘जी हां, आप जैसे अलबेले अतिथि जहां आएंगे, वहां सब ठीकठाक कैसे नहीं होगा?’’ फिर मुड़ कर लजाती हुई लड़की से कहती है, ‘‘अतिथि आए हैं, भाग कर सत्कार के लिए फलफूल तो ले आओ.’’

युवक जब रोक कर कहता है कि आप की मीठी बातों से ही मेरा सत्कार हो गया है, तो सहेलियों के भी सवालजवाब शुरू हो जाते हैं.

‘‘आप किस राजवंश के चमकते आभूषण हैं? किस देश की प्रजा को विरह में छोड़ कर आप इस तपोवन में पधारे हैं? कोई नाम?’’

युवक हंस देता है क्योंकि असल में वह राजा ही है, लेकिन इस वक्त इन लड़कियों को सच बताना नहीं चाहता. कुछ साधारण सा परिचय दे कर पीछे खड़ी लड़की के बारे में पूछ बैठता है, ‘‘ये देखने में किसी राजघराने की लगती हैं?’’

सहेली भी झट बताना शुरू कर देती है, ‘‘हैं भी ये प्रतापी राजर्षि कौशिकवंशी की बेटी. जब राजर्षि ने गौतमी के तट पर घोर तप करना शुरू किया तो देवता घबरा गए और राजा का तप बिगाड़ने के लिए अप्सरा मेनका को भेज दिया. वसंत का आरंभ था, राजर्षि की दृष्टि जैसे ही अप्सरा पर पड़ी, तो…’’ कहतेकहते अब सहेली की लजाने की बारी आ गई.

युवक ने तुरंत ‘ओह, मैं समझ गया.’ कह कर बात को संभाल लिया.

संस्कृत और खड़ीबोली

लगभग डेढ़ हजार साल पहले कालिदास ने अपने राजा के सामने शकुंतला और दुष्यंत का नाटक पेश किया था. संस्कृत में कृत ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ ने लोगों का मन ऐसा हरा कि सदियों बाद भी कालिदास का नाम और उन की कृतियां चिरस्थायी हैं. निसंदेह, दुनिया की अब तक की 100 सर्वोत्तम पुस्तकों में इस की गिनती होती है, यह जानने के लिए इतना ही काफी होगा कि हम कृति उठाएं और खुद इस बात को तय करें. लेकिन अफसोस, संस्कृत का ज्ञान जितनी रफ्तार से घट रहा है उस से कहीं तेजी से इस को एक मृत और अव्यावहारिक भाषा बताने वालों की संख्या बढ़ रही है. हमारे बीच कम ही होंगे जो संस्कृत में लिखी किसी भी किताब को उस के मूलरूप में संस्कृत में ही पढ़ पाएं. वैसे उत्तर भारत में भाषा के विकास के बारे में बात करें तो वही दिलचस्प पैटर्न बारबार देखने को मिलता है.

13वीं शताब्दी के तुर्की मूल के सुलतानों ने दिल्ली सल्तनत पर फारसी भाषा थोपी. लेकिन इस भाषा का साम्राज्यवाद एक शताब्दी से ज्यादा नहीं चल पाया. तुर्की मूल के परिवार में उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे अमीर खुसरो अपने को हिंदुस्तानी समझते थे. उन के ही जीवनकाल में प्रचलित खड़ीबोली का उत्तर भारत में प्रचार हुआ. अपने काम से उन्होंने हिंदी को ऊंचे दरजे पर पहुंचाया. उन्हें आज अकसर हिंदी का पहला कवि माना जाता है.

आगे फिर मुगलों ने फारसी को वापस औपचारिक दरजा देना चाहा, तो 18वीं शताब्दी में मीर तकी ‘मीर’ आए.

हम को शायर न कहो मीर

कि साहिब हम ने

दर्दोगम कितने किए जमा

तो दीवान क्या…

आज इन के 6 दीवान यानी कविताओं के संकलन सुरक्षित हैं. इन की गजलें आज भी हिंदुस्तानियों के दिलों को छूती हैं. इन के जीवन के दौरान रेख्ता या सामान्य उर्दू का जन्म हुआ. इस तरह इतिहास हमें दिखाता है कि एक औपचारिक भाषा पर जीत हर बार जनसाधारण भाषा की होती है.

पतन और जातिप्रथा

संस्कृत की कहानी भी कुछ इसी प्रकार है. अरसे से मौखिक परंपरा द्वारा प्रसारित संस्कृत का भारतवर्ष में प्रचलन इतिहासकार और भाषाविद्वान ईसा से 1500 वर्ष पूर्व निर्धारित करते हैं. पाणिनि ने ईसा से 500 वर्ष पूर्व इस भाषा का जो व्याकरण, अष्ठाध्यायी, नियत किया था उस का आज तक अनुसरण किया जाता है. उस समय इसे भाषा के नाम से जाना जाता था.

संस्कृत, यानी कि सम्यक्+कृतम्, अर्थात भली प्रकार जुटाई हुई, नाम का चलन काफी बाद में प्रचलित हुआ. अपनेआप में यह अलग भाषा नहीं मानी जाती थी, बल्कि विशेषरूप से शिष्ट या निपुणता से वार्त्तालाप करने का तरीका थी. यह बात हम संस्कृत के गूढ़ व्याकरण नियमों में देखते हैं. पाणिनि, जो मानवजीवन क्रिया स्वरध्वनि निर्माण और संक्षिप्तता व सूक्ष्मता कायम रखते हुए भाषा के नियमों को विधिबद्ध करने का भली प्रकार से ज्ञान रखते थे, समय से आगे थे. विश्व की यह सर्वाधिक ‘पूर्ण’ एवं तर्कसम्मत भाषा है.

संस्कृत भाषा के पतन में हमारी संस्कृति में सन्निहित जातिप्रथा का योगदान है क्योंकि संस्कृत की शिक्षा उच्च वर्ण में ही दी जाती थी. इस तरह से संस्कृत का ज्ञान सामाजिक वर्ग व शैक्षिक स्तर का चिह्नक (सूचक) था. प्राचीन भारत की देशी भाषा प्राकृत थी. संस्कृत के पतन के और कारणों में समय के साथ राजनीतिक सत्ता, जो विद्वानों को संरक्षण देने में महत्त्वपूर्ण थी, की कमजोरी भी थी. अंतत: अन्य देशी भाषाएं, जो ज्यादा लोकप्रिय हो गई थीं, संस्कृत पर हावी हो गईं.

दिलचस्प आंकड़े

2001 के जनगणना ब्योरों से आश्चर्यजनक तो नहीं, कुछ संयत कर देने वाले आंकड़े जरूर सामने आए. देश की सवा अरब से भी अधिक जनसंख्या में कुल 14,135 जनों ने अपनी मातृभाषा संस्कृत बतलाई. जनगणना के आंकड़ों से कुछ अन्य दिलचस्प तथ्य भी सामने आए. संपूर्ण जनसंख्या में 41 प्रतिशत हिंदीभाषी हैं. देश की बाकी की 21 अनुसूचित भाषाओं में कोई भी भाषा ऐसी नहीं है जिसे 10 प्रतिशत से ज्यादा जनों ने अपनी मातृभाषा बताया हो.

विश्व की सब से पुरानी पुस्तक, वेदों की भाषा संस्कृत के भी फारसी के समान देश से विलुप्त होने के आसार साफ दिखाई देते हैं. मगर दोनों भाषाओं में जमीनआसमान का फर्क है. जहां फारसी मूलत: परदेशी भाषा है, संस्कृत अधिकतर आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है. खड़ीबोली के संस्कृतीकरण ने आधुनिक हिंदी को जन्म दिया. अधिकतर आधुनिक भारतीय भाषाओं की अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गई है या संस्कृत से प्रभावित है. इस तरह संस्कृत भारत को एकता के सूत्र में बांधने का सामर्थ्य रखती है. न केवल हिंदुओं के सभी पूजापाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत है, हिंदू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में हैं. लेकिन सब से अहम बात यह है कि भारत का प्राचीन साहित्य, दर्शनशास्त्र, गणित तथा विज्ञान संस्कृत में लिखित है. संस्कृत के महाकाव्यों और ग्रंथों में जो भी ज्ञान और रहस्य छिपा है, वह ढूंढ़ने और समझने का सर्वाधिकार पंडितों ने अपने पास रख रखा है.

स्वयंसेवकों द्वारा चलाई गई संस्कृत भारती, संस्कृत को फिर से प्रचलित करने के प्रयास में 3 दशकों से जुटी हुई है. इस तरह का प्रयास विश्व में कोई नई बात नहीं है. एक समय था कि यहूदियों की भाषा हिबू्र भी संस्कृत की भांति विलुप्त होने लगी थी तब (19वीं और 20वीं शताब्दियों में) यूरोप और फिलिस्तीन में फैले कुछ यहूदियों ने इस को फिर से प्रचलन में लाने के लिए कदम उठाने शुरू किए. अब इस भाषा ने मृतभाषा के दरजे से उठ कर इसराईलवासियों और दुनियाभर के अधिकांश यहूदियों की मातृभाषा का स्थान प्राप्त कर लिया है.

शर्मिंदा हों या गर्व करें

आधुनिक भारत में संस्कृत के अध्ययन को संदेह की निगाह से देखा जाता है. इस संदेह के 2 मुख्य कारण हैं :

पहला, वक्त था जब संस्कृत, जिसे कई बार देवभाषा भी कहा जाता है, सिर्फ ब्राह्मण या उच्चजातीय लोग ही सीख और बोल सकते थे. निचले वर्गों और यहां तक कि उन की खुद की औरतों को इस जटिल भाषा का ज्ञान नहीं था. लेकिन यह बात भी ध्यान रखना जरूरी है कि उस वक्त की लोकप्रिय भाषा प्राकृत और संस्कृत में कई समानताएं थीं. फिर भी यह बात नकारी नहीं जा सकती कि आज के युग में संस्कृत के ज्ञान की बातचीत चिंतनशील लोगों में 2 अजब तरह के आवेग पैदा करने का सामर्थ्य रखती है. कुछ लोगों को इस के अध्ययन में अपने उद्गम के ज्ञान की प्राप्ति और इस तरह से एक विशेष प्रकार के गर्व की अनुभूति होती है. वहीं कुछ लोगों को इस में सिर्फ अन्याय की निर्मम व अनंत गाथा ही दिखती है.

दूसरा, विशेषत: 19वीं और 20वीं शताब्दियों में, संस्कृत भाषा एवं परंपरा को अनेक बार हिंदू राष्ट्रवाद की सेवा में भरती होना पड़ा. राजनीतिज्ञों द्वारा भाषा के इस व्यपहरण से देश को कई बार क्षति हुई जो लोेकमत में संस्कृत के लिए हानिकारक साबित हुई.

असल में हमारे देश में संस्कृत का धर्म और राजनीति ने अपहरण कर के रखा है. लेकिन संस्कृत तो मात्र एक भाषा है. निसंदेह, लेखक के धरती से जाने के बाद भी भाषा उस के विचारों को बरकरार रखती है. लिखित भाषा बीते हुए कल को जीवित रखने का सामर्थ्य रखती है. भाषा के माध्यम से हमें पुरातन जनों की सही या गलत मान्यताओं व धारणाओं के बारे में जानकारी मिलती है.

‘संस्कृत भारती’ की 30 सालों की उपलब्धियां कोई कम प्रभावशाली नहीं हैं, खासतौर पर अगर हम यह ध्यान में रखें कि 30 साल एक मनुष्य के लिए लंबा दौर होता है, मगर एक संगठन के लिए कम. संस्कृत भारती का ध्येय फिर संस्कृत को देश में वार्त्तालाप की लोकप्रिय भाषा बनाना है. इस उपलब्धि को इस संगठन ने बिना व्याकरण के नियम तोड़े संस्कृत को सरल बना कर हासिल किया है. आजादी के वक्त जब संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव रखा गया तो एकमात्र इस भाषा की कठिनता के कारण देश के संस्थापक पिताओं ने सुझाव अस्वीकार कर दिया था. परंतु 2010 में संस्कृत भारती के यत्नों से इसे उत्तरखंड की दूसरी राजभाषा का दरजा दिया गया.

आज भी प्रचलन में

देशभर में संस्कृत वार्त्तालाप और तरुणों के लिए ग्रीष्मकालीन संस्कृत कैंप चला कर, वीथिनाटकों (स्ट्रीटप्ले), प्रदर्शनियों, सभाओं और सम्मेलनों के जरिए संस्कृत भारती निश्चय ही साल दर साल अपने ध्येय के निकट आ रहा है. स्वयंसेवकों के विश्वास और प्रयत्नों के कारण इन 30 सालों में देश में कई ऐसे गांव हैं जिन में गांववासी संस्कृत में ही पूरा संवाद करते हैं. बेंगलुरु से 300 किलोमीटर दूर मुट्टूर गांव में कई घरों के बाहर लिखा है कि यहां संस्कृत बोली जाती है. अब यह पता करना होगा कि इन घरों के निवासी ब्राह्मण ही हैं या गैरब्राह्मण भी और पढ़ाई धर्मग्रंथों की होती है या वेश्याओं पर लिखे काव्यों की भी.

अमेरिका के बोस्टन नगरवासी, संस्कृत भारती के श्रीगिरी भारतन ‘संस्कृत भारती’ के प्रचार वाक्य के जरिए यह समझना चाह रहे थे कि इस संगठन की कार्यवाहियां किस प्रकार लाभप्रद हो सकने का सामर्थ्य रखती हैं. ‘‘भाषा उज्जीव्यताम्. संस्कृति: संवर्ध्यताम्. विश्वं परिवर्त्यताम्. अर्थात, भाषा का पुन: प्रचलन करें, फिर संस्कृति का नवीनीकरण हो, फिर संसार परिवर्तित हो. ऐसा करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृत भाषा जनता के सामने सरल भाषा की तरह पेश की जाए.’’ भाषा को लोकप्रिय बनाने के लक्ष्य से इस संगठन ने सब से पहले इसे सरल बनाने का काम आरंभ किया. यह समझाने के लिए श्रीगिरी भारतन ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि भाषा के 22 उपसर्गों और 2200 मूल क्रियापदों व संज्ञाओं के संयोजन से जो विशाल शब्दसंग्रह की संभावनाएं हैं, वे न केवल इस भाषा को आधुनिक युग के लिए सक्रिय बनाती हैं, बल्कि हर एक शब्द के लिए इतने सारे समानार्थक शब्द हमारे सामने रखती हैं कि हम वर्णन करने के लिए आराम से केवल सरल शब्द चुन कर एक सुखद वार्त्तालाप कर सकते हैं.

पुनर्जीवित करने का प्रयास

मिसाल के तौर पर यदि हमारे वार्त्तालाप का विषय हमारी सास हों तो मन की पूरी बात अपनी श्वश्रू: को ले कर संस्कृत भाषा में करने की कोशिश में मन थक जाएगा, बेचैन हो जाएगा. लेकिन यदि हमें बताया जाए कि वरवत्सला शब्द भी श्वश्रू: शब्द के समानार्थक है तो अपनी सास पर संस्कृत में आराम से पूरा का पूरा भाषण दिया जा सकता है. इसी तरह से पितृ के बजाय जनक या भ्रातृ के बजाय सहोदर आदि के उपयोग से वार्त्तालाप को सरल बनाया जा सकता है.

‘संस्कृत भारती’ के अमेरिकी कोऔर्डिनेटर, वासुवज ईश्वरमङ्गलम के अनुसार, एक बच्चा अपनी मातृभाषा क्रमश: 4 कदमों में सीखता है. ये हैं, सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना. साधारणतया भारतीय विद्यालयों में संस्कृत सीधे तीसरे और चौथे कदमों से सिखानी शुरू की जाती है. वासुवज के अनुसार, यही वजह है कि अकसर विद्यार्थियों को संस्कृत नीरस लगने लगती है और वे उन्नत स्तर का अनुकरण नहीं करते.

वासुवज की बात सुन कर मैं सोच रही थी कि 20 साल पहले भारत में शिक्षा पाने वाला सच में कोई बच्चा संस्कृत से बच नहीं पाता था. सीखनी सब को पड़ती थी. फलम्, फले, फलानी, संस्कृत कभी नहीं आनी, वाले दिन फिर याद आ गए.

राम के रूप याद करने की बड़ी अच्छी तरकीब सिखाई थी मेरे मौसेरे भाई ने :

‘‘यह क्या वाहियात तरीके से रट लगाए चली जा रही हो. इलाहाबाद में रूप कोई भी ऐसे बेड़ेबेड़े याद नहीं करता है.’’

बेड़ेबेड़े से उन का मतलब था, राम:- रामौ-रामा: फिर, रामम्-रामौ-रामान्… वाला क्रम, उलटे उस दिन मैं ने पन्नू दादा से रूप को ऊपर से नीचे लंबवत याद करना सीखा.

‘‘सब से मुश्किल यह पहली वाली खड़ी है. इसे बस ठीक से याद कर लो. फिर दूसरी खड़ी में तो सिर्फ 2 बार रामौ है, 3 बार रामाभ्याम्, 2 बार रामयो:, फिर हे रामौ…’’

बहरहाल, बिना किसी नाटकविज्ञापन के जैसेतैसे संस्कृत का भी बेड़ा पार हो गया. नहीं तो हथियार तो अपनी मम्मीपापा के सामने मैं ने कई बार डाल दिए थे कि नहीं याद हो पाएगी मुझ से यह संस्कृत.

संस्कृत और अमेरिकी कैंप

वर्ष 2012 में अमेरिका के उत्तरी कैलिफोर्निया के सैन होजे में संस्कृत भारती द्वारा 12 से 17 साल के बच्चों के लिए सप्ताहभर जो इमर्शन कैंप आयोजित किया गया उस में वासुवज के निर्देशन में संस्कृत भाषा सिखाने की शुरुआत पहले कदम से ही हुई. कैंप में बच्चे भाषा में अपनी प्रवीणता के अनुसार बिगिनर, इंटरमीडिएट और ऐडवांस्ड श्रेणियों में विभाजित थे. शुरुआत की ‘मम् नाम: वासुवज’ से. फिर बारीबारी से लगे पूछने उन 15 बच्चों से जिन्होंने कभी संस्कृत न बोली थी न ही सुनी, ‘भवत: नाम: किम्?’ पूछतेपूछते पाठ के खत्म होने तक बच्चों को न केवल परिचय देना और लेना आ गया, बल्कि उन्होंने ‘मैं इधर हूं’, ‘वह वहां है’, ‘मैं भारतीय हूं’, ‘मैं अमेरिकन हूं’ इत्यादि वर्णन करना भी सीख लिया.

यह कैंप संस्कृत भारती द्वारा अमेरिका में हाईस्कूल के बच्चों के लिए तैयार किया हुआ 3 साल के ‘संस्कृत एज फौरेन लैंग्वेज’ नामक औनलाइन संचारित पाठ्यक्रम का भाग है. इस के संचालक गोविंद येलागलावाड़ी ने बताया कि अब तक इस की 2 ग्रेजुएटिंग कक्षाओं में क्रमश: 8 और 9 विद्यार्थी सफलतापूर्वक पास हुए हैं. इस साल सैन होजे के कैंप में 28 बच्चों ने भाग लिया.

विदेशी गपशप में शुमार

कक्षा के बाहर 3 नवयुवक अध्यापकगण आपस में खड़े हो कर संस्कृत में बातचीत कर रहे थे. मैं चौंकी. रुक कर उन की बातें सुनने लगी. मुझे लगा कि वे तीनों हाल में घोषित हौलीवुड फिल्मस्टार जैनी डैप के अपनी गर्लफ्रैंड वनैसा पैराडिस से विच्छेद की बात कर रहे हैं. यह जान कर बड़ी प्रभावित हुई कि इस तरह की सैलिब्रिटी गपशप भी ये लोग संस्कृत में कर लेते हैं. मैं भी उन से बात करने लग गई. बातचीत के दौरान उन नवयुवक अध्यापकों ने जनवरी 2011 और 2012 में बेंगलुरु तथा दिल्ली में हुए विश्व संस्कृत बुक फेयर के बारे में बताना शुरू कर दिया. उन में से एक अध्यापक दोनों उत्सवों में मौजूद थे.

यह महत्त्वपूर्ण बात है कि चीन की मैनडरीन भाषा के बाद विश्व में सब से अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है. 1950 में जब हमारा संविधान लागू हुआ तो भारतीय गणतंत्र की प्रमुख आधिकारिक भाषा के लिए हिंदी और सहायक आधिकारिक भाषा के लिए अंगरेजी को तय किया गया. लेकिन खासतौर पर आजादी मिलने के पहले 3 दशकों में सरकारी कार्यवाहियों द्वारा जो खड़ीबोली हिंदी का संस्कृतीकरण होना शुरू हुआ, उस से शायद आम भारतीय जनता ऐसी घबराई कि उस के प्रतिघात के रूप में हम लोगों में पिजन हिंदी, यानी अंगरेजीमिश्रित हिंदी का प्रचलन बढ़ते देख रहे हैं. भाषा का यह चिंताजनक प्रदूषण आज टैलीविजन के कई चैनलों के हिंदी खबरों के प्रसारण में साफ झलकता है. शायद कहीं ज्यादा अच्छा होता यदि पाठशालाओं में संस्कृत अध्ययन के संचालन पर ज्यादा ध्यान दिया जाता, न कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर.

भाषा सर्वथा वही लोकप्रिय होगी जो जनता को सरल लगे, साथ में विकासशील हो, समय से मेल खाए हुए हो और जिस का आधुनिक साहित्य लोगों को रोचक व रोमांचक लगे.

धार्मिक विध्वंस की आग में तपता इराक

एक दशक से धर्म की उन्मादी साजिश की मार झेल रहा इराक इन दिनों न सिर्फ फिर से उथलपुथल का शिकार है बल्कि हर गुजरते दिन के साथ ही अपने अस्तित्वध्वंस की तरफ बढ़ रहा है. इराक पर रहरह कर टूटने वाले कहर का नाम भले हर बार अलगअलग होता हो लेकिन कहीं न कहीं ये सब के सब होते धार्मिक दुराग्रह के विध्वंस ही हैं. कई सदियों से मध्यपूर्व में शियासुन्नी विवाद किसी न किसी रूप में उभरता रहा है. कई बार इस की शुरुआत दबेछिपे रूप में होती रही है, कई बार खुल्लमखुल्ला धार्मिक बर्बरता के रूप में.

दलदल में धंसता इराक

इराक का मौजूदा संकट, जो फिलहाल इतना बड़ा बन चुका है कि लगता है इराक का अस्तित्व ही मिट जाएगा, बेहद गुपचुप तरीके से शुरू हुआ. अतिवादी इसलामिक संगठन अलकायदा की एक शाखा इसलामिक स्टेट इन इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस के नेतृत्व में 3 हजार से ज्यादा सुन्नी आतंकवादियों ने इराक पर जून के पहले सप्ताह के आखिर में धावा बोल दिया.

यह सबकुछ इतना गुपचुप तरीके और पूरी तैयारी से हुआ कि इराक सरकार अवाक् रह गई और बड़े पैमाने पर जिस हिस्से में यह संकट शुरू हुआ उस की जानकारी देश के दूसरे हिस्से तक भी न पहुंच सकी. यहां तक कि इराक में ही ज्यादातर लोगों को नहीं पता चला कि देश के एक हिस्से में आतंकवादी कितना जुल्म ढा रहे हैं.

आतंकियों ने अपने इस अभियान के फौरन बाद फेसबुक, ट्विटर और स्काइप जैसी सोशल नैटवर्किंग साइटों को जाम कर दिया. फोन लाइंस भी जाम कर दी गईं, जिस से कि एक इलाके से दूसरे इलाके तक आसानी से बात न पहुंचाई जा सके. हालांकि आतंकी पूरी तरह से सफल भी नहीं हुए फिर भी उन्होंने अपने इस अभियान से सरकार और सेना को भौचक कर दिया. सब से पहले आतंकियों ने राजधानी बगदाद से 60 किलोमीटर दूर बाकुबा शहर में कब्जा किया और बड़े पैमाने पर इराकी सेना के जवानों को या तो मार दिया या बंधक बना लिया.

जब तक दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में आतंकियों के इस महाभियान की खबर पहुंची, उस के पहले ही सुन्नी आतंकियों ने इराक के मोसुल, तालअफार जैसे शहरों पर कब्जा कर लिया. इन सभी जगहों पर सेना और चरमपंथी आतंकियों के बीच जबरदस्त घमासान हुआ जिस में सैकड़ों लोग मारे गए. महज 1 सप्ताह के अपने तीव्र व संगठित अभियान के दम पर कट्टरपंथी संगठन आईएसआईएस ने इराक के उत्तरी हिस्से पर बड़े पैमाने पर कब्जा कर लिया. इराक के ज्यादातर हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा फैल गई और शिया बनाम सुन्नी गोलबंदी होने लगी.

भारत में भी इस का तुरंत असर देखने को मिला. एक हफ्ते के भीतर ही यह खबर आई कि आतंकी संगठन आईएसआईएस ने 40 भारतीयों का अपहरण कर लिया. 40 से ज्यादा भारतीय नर्सों को आतंकियों ने हिरासत में ले रखा है. दुनिया के किसी भी कोने में शियासुन्नी विवाद उभरे, उस में भारत में तनातनी न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. फिर ये तो सुन्नी आतंकवादियों का, शिया समुदाय के गढ़ में हमला था. ऐसे में भारत में इस हमले को ले कर उबाल मचना ही था.

देखते ही देखते लखनऊ और दिल्ली व अन्य कई शहरों में हजारों शिया सड़कों पर उतर आए और नई दिल्ली के धरना स्थल जंतरमंतर पर ऐलान किया गया कि हजारों शिया नौजवान इराक में मौजूद पैगंबर मुहम्मद के नवासे हजरत हुसैन व दूसरी हस्तियों के रौजों को बचाने व बेगुनाह इराकियों की सुरक्षा के लिए इराक जाएंगे. और वहां जरूरत पड़ी तो वे हमलावर आतंकवादियों से लोहा भी लेंगे.

इस वैश्विक गोलबंदी की आग में घी का काम किया इराक में मौजूद शियों के बहुत बड़े धर्मगुरु आयतुल्लाह अली अल सीस्तानी के उस आह्वान ने जिस में उन्होंने कहा कि हर वह शिया जो स्वस्थ है और वयस्क है, आतंकवादियों से लड़ने के लिए इराक की सेना की मदद करे. उन की इस बात पर भारत समेत दुनिया के कई देशों के शिया इराक जाने की तैयारी करने लगे. गौरतलब है कि आयतुल्लाह सीस्तानी शियों के आलमे वक्त यानी मौजूदा समय के लीडर हैं. उन की बात पर दुनियाभर के शिया लब्बैक कहते हुए आगे बढ़ने के लिए तैयार रहते हैं.

उधर, इराक के प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी ने अमेरिका से आग्रह किया कि वह आतंकवादियों पर हमला करे, मगर अमेरिका ने ऐसा नहीं किया.

अमेरिका की भूमिका

विध्वंस की आग में तपते इराक ने एक बार फिर जाहिर कर दिया है कि मध्यपूर्व के तमाम आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संकट की जड़ में धार्मिक झगड़े हैं. अमेरिका हमेशा से ऐसे झगड़ों का फायदा उठाता रहा है, इसलिए उस से यह उम्मीद लगाना कि वह इराक में लोकतंत्र के लिए या दुनिया में शांति की सुनिश्चितता के लिए आतंक के खिलाफ कार्यवाही करेगा, बचकानी सोच है.

सच बात तो यह है कि अमेरिका इस बात को भलीभांति जानता है कि सुन्नी आईएसआईएस को सऊदी अरब से आर्थिक सहायता मिल रही है और दुनियाभर के वहाबी मुसलिम इंटलैक्चुअल्स इन सुन्नी आतंकवादियों को वैचारिक खादपानी मुहैया करा रहे हैं.  इस के बाद भी अमेरिका किसी भी कीमत में आईएसआईएस के खिलाफ एक हद के दिखावे से ज्यादा सख्त नहीं हो सकता.

भारत के सऊदी अरब से उतने ही महत्त्वपूर्ण आर्थिक रिश्ते हैं जितने इराक और ईरान से हैं. भारत जापान के बाद ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है जिस की दोतिहाई से ज्यादा तेल निर्भरता मध्यपूर्व से है. जिस में 3 बड़े देश हैं- सऊदी अरब, ईरान और इराक. यही कारण है कि भारत भी तमाम कोशिशों के बाद भी इस मामले में तटस्थ या ढुलमुल बने रहने को अभिशप्त है. 

पाकिस्तान इस पूरे संकट में एक बड़े नियंत्रण केंद्र की तरह मौजूद है क्योंकि भले आईएसआईएस के आतंकियों में पाकिस्तानियों की संख्या कम हो लेकिन आज पूरी दुनिया में मल्टीनैशनल आतंक का सब से बड़ा निर्यातक पाकिस्तान ही है. फिर पाकिस्तान में भी सुन्नियों का दबदबा है जो अकसर शियाओं के खिलाफ तमाम तरह की ज्यादतियों के रूप में अकसर सामने आता रहता है.

लड़कियां चाहिए आतंकियों को

धार्मिक धडे़बंदी के चलते आईएसआईएस जैसे अमानवीय संगठनों को भरपूर मदद और समर्थन मिल रहा है. जबकि आतंकी अभियान से घिरे क्षेत्र से लगातार आतंकियों की ज्यादती की खबरें आ रही हैं जिन में कहा जा रहा है कि ये चरमपंथी बैंक लूट रहे हैं, आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमा रहे हैं और हद तो यह है कि लोगों के घरों में दस्तक दे कर उन से आर्थिक मदद के साथसाथ लड़कियां भी मांग रहे हैं.

इराक के बैजी शहर, जिस पर इस महाभियान के चलते आतंकवादियों ने पूरी तरह से कब्जा कर लिया है, के निवासियों का कहना है कि आईएसआईएस के लड़ाके घर का दरवाजा खटखटाते हैं, फिर घर में मौजूद ब्याहीअनब्याही औरतों की जानकारी लेते हैं और घर वालों को अनब्याही औरतें, सौंपने को कहते हैं ताकि वे अपनी सैक्सुअल जरूरतें पूरी कर सकें. अगर लोग इस संबंध में झूठ बोलते हैं तो उन के साथ खौफनाक सुलूक किया जाता है, साथ ही उस से भी बड़ी खौफनाक कार्यवाही की धमकी दी जाती है.

भले आईएसआईएस अपने लिए नए से नए तर्क गढ़ रहा हो मगर यह पूरी तरह से जुल्म और ज्यादतियां करने वाला एक ऐसा गिरोह है जिस ने अपनी हरकतों को धार्मिक और वैचारिक जामा पहना रखा है. आईएसआईएस का मुखिया अबू बकर अल बगदादी उतना ही खूंखार है जितना कभी ओसामा बिन लादेन हुआ करता था.

बगदादी पर अमेरिका ने 1 करोड़ डौलर का इनाम घोषित कर रखा है, लेकिन उस का पकड़ा जाना शायद इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि बगदाद से 78 मील उत्तर में स्थित सामरा शहर में जन्मा बगदादी बहुत ही तेजदिमाग है. उस की पूरी दुनिया में महज 2 ही तसवीरें हैं. यह इतना उग्र रणनीतिकार है कि अपने भावुक अंदाज से सैकड़ों युवाओं को एकसाथ बे्रनवाश करने की ताकत रखता है.

दरअसल, इसलामिक जगत में लगातार पैर पसारती आतंकी उथलपुथल के केंद्र में ऐसे बेरोजगार नौजवान हैं जिन की आर्थिक मजबूरियों का आतंकी धार्मिक और वैचारिक शोषण कर रहे हैं. यह तब तक जारी रहेगा जब तक इन देशों में धर्म का झंडा बुलंद रहेगा और लोकतंत्र दफन रहेगा. इराक के मौजूदा संकट को दुनिया अपने हितों और नुकसान के आईने के अलावा किसी और तीसरी नजर से नहीं देखना चाहती.

ऐसे में यह कहना थोड़ा निराशाजनक ही है कि राष्ट्रसंघ और दुनिया की दूसरी ताकतें इस संकट को सुलझाने में कोई कारगर व्यावहारिक मदद करेंगी. इस संकट का अस्थायी हल लोकतंत्र के पक्ष में जनता की बड़े पैमाने पर एकजुटता और दीर्घकालिक हल धार्मिक उन्माद को दफन करना ही है.

मोदी की अग्निपरीक्षा

इराक में इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया द्वारा 40 भारतीयों को बंधक बनाए जाने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संकट से निबटने की प्रबंधन क्षमता दांव पर लगी हुई है. आईएसआईएस ने इन भारतीयों को बंदी बनाया है और कहा जा रहा है कि मौका आने पर वह इसे मानव शील्ड के तौर पर इस्तेमाल करेगा. वहीं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बंधकों की घर वापसी के लिए पुरजोर कोशिश में लगी हुई हैं.

पंजाब के रहने वाले इन 40 बंधकों के अलावा इराक के टिकरित शहर के एक अस्पताल में 46 भारतीय नर्सों के भी फंसे होने की विरोधाभाषी खबरें आ रही हैं. ये सभी नर्सें केरल की रहने वाली हैं. कभी इन के बारे में कहा जा रहा है कि ये पूरी तरह से सुरक्षित हैं तो कभी कहा जा रहा है कि ये आतंकियों द्वारा अगवा कर ली गई हैं.

अर्थव्यवस्था पर संकट

भारत के अलावा चीन व तुर्की जैसे देशों के भी तमाम नागरिक इसी तरह इस आतंकी संगठन द्वारा बंधक बनाए गए हैं. लेकिन भारत में नवगठित केंद्र सरकार के लिए यह बड़ा संकट सिर्फ इस लिहाजभर से नहीं है कि इराक में कई सौ भारतीय फंस गए हैं, सरकार के लिए इस से भी बड़ा संकट यह है कि इस संकट के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर बादल मंडराने लगे हैं.

दरअसल, भारत समूचे अरब जगत को ले कर अगर एक संतुलित नजरिया रखता है तो इस की बहुत बड़ी वजह यह है कि हमारी तेल खपत का बहुत बड़ा हिस्सा इसी दुनिया से पूरा होता है. भारत में सब से बड़ा तेल सप्लायर सऊदी अरब है और माना जा रहा है कि आईएसआईएस को सऊदी अरब परदे के पीछे से समर्थन दे रहा है या उस के प्रति सहानुभूति रख रहा है. इसलिए भारत इस संगठन के प्रति कड़ा नजरिया व्यक्त नहीं कर रहा है. इस का एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत में 90 फीसदी से ज्यादा सुन्नी मुसलमान हैं और यह संगठन सुन्नी मुसलमानों का नेतृत्व करता है. ऐसे में भारत इस संगठन के विरुद्ध कड़ा नजरिया व्यक्त कर के देश के करोड़ों सुन्नी मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहता.

लेकिन बड़ी बात यह भी है कि भारत में एक तो शिया मुसलमान जितने भी हैं, प्रभावशाली हैं, उन का सरकार ही नहीं भारत के खातेपीते मध्यवर्गीय समाज में भी असर है. साथ ही, इराक और ईरान में भी बड़े पैमाने पर शिया मुसलमान मौजूद हैं जिस से भारत इस संगठन का समर्थन कर के या इस के प्रति नरमी जता कर इन दोनों देशों को नाराज नहीं करना चाहता.

भारत की स्थिति

वास्तव में भारत की तेल आपूर्ति का भी लगभग 90 फीसदी जरिया यही इलाका है जिस के लिए हम हर साल 170 अरब डौलर से भी ज्यादा खर्च करते हैं. हम सब से ज्यादा सऊदी अरब से, फिर इराक से और तीसरे नंबर पर सब से ज्यादा ईरान से तेल खरीदते हैं. इन तमाम एकदूसरे से जुड़ी, गुंथी स्थितियों के कारण भारत इस पूरे संकट में किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो कर रह गया है.

कहने का मतलब यह कि भारत के लिए बहुत मुश्किल है कि वह इस स्थिति में किस का पक्ष ले. भारत लगातार तटस्थ बना हुआ है. हमारे जरा से इधरउधर हो जाने पर संतुलन गड़बड़ा सकता है. ऐसे में मोदी सरकार को जो भी कुछ करना है, बहुत ही कूटनीतिक तरीके से करना है और कुछ करते हुए नहीं दिखना. यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी सैनिक से कहा जाए कि उसे लड़ना नहीं है, लड़ते हुए दिखना भी नहीं, मगर हर हाल में युद्ध जीतना भी है.

थैंक्यू जज साहिबा

विवाह कर तन दिया है, तन ढकने का अधिकार थोड़े दिया है. यह कह कर मुंबई की एक युवती ने अदालत में तलाक की गुहार लगाई तो समझदार अदालत ने साफसाफ कह दिया कि ढकने का अधिकार तो पत्नी के पास ही है. पति कहे कि साड़ी ही पहनो, जींसटौप नहीं, तो भई, यह नहीं चलेगा.

सही है, साड़ी पहना कर क्या ज्यादा लाड़ दिखेगा. पत्नी क्यों अपने ऊपर उम्र के 8-10 साल फालतू के जोड़े. क्यों बहनजी कहलाए, क्यों मोटरसाइकिल पर एक तरफ बैठने को मजबूर हो, क्यों बिना जेब वाली साड़ी की वजह से पर्स लटका कर चले. पति को साड़ी इतनी अच्छी लगती है तो खुद भी सिर्फ धोती, बिना कमीज के, पहन कर घूमे न. यह क्या कि खुद तो ब्रैंडेड शर्ट पहनी, पैंट पहनी और पत्नी पर रौब कि साड़ी पहनो वरना पत्ता काटो. यानी साड़ी कोई फैवीकोल हो गया जिस से घर टूटते न हों.

साड़ी पहनने की जबरदस्ती करना क्रूरता है मारपीट करने के बराबर की. आज की पत्नी इसे सुनने को तैयार नहीं क्योंकि वह कंधे से कंधा मिला कर, हाथ में हाथ डाल कर चलने को आतुर है. वह पल्लू ठीक करती रहे, पति दूसरों को ताकता रहे, यह नहीं चलेगा. थैंक्यू डा. लक्ष्मी राव, मुंबई की पारिवारिक अदालत की जज साहिबा. एक सही फैसले के लिए थैंक्यू.

बुजुर्गों की रिहाइश

दिल्ली में एक 70 वर्षीय जोड़े को उन के घर में दिनदहाड़े घायल कर लूट लिया गया. यह जोड़ा उस घर में रहता है जिस में उन का बेटा भी ऊपरी मंजिल पर रहता है. लगता है अपराधी इस घर को पहचानते थे क्योंकि उन्होंने घंटी और कैमरे के तार काट दिए थे. वृद्ध दंपती ने चुपचाप लौकर की चाबी उन्हें दे दी थी पर जब उस में से केवल 10 हजार रुपए ही मिले तो एक लुटेरे ने गुस्से में पहले वृद्ध को घायल किया और फिर वृद्धा को.

वृद्धों के साथ इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं. आज वृद्धों की संख्या भी बढ़ रही है. और लुटेरे जानते हैं कि समाज इतना निष्ठुर हो गया है कि कोई आवाज लगाए तो भी पड़ोस के लोग जमा न होंगे.वृद्धों से लूटपाट वैसे तो हमारे देश में ही नहीं दुनियाभर में होती है पर हमारे यहां दुख इस बात का भी है कि घनी बस्तियों में भी उन्हें राहत नहीं है. लुटेरे इतने बेरहम हैं कि वे कान की बालियां खींचते हुए महिला को होने वाले दर्द के बारे में तनिक भी नहीं सोचते.

जो वृद्ध अपने बच्चों से दूर अकेले मकानों में रहते हैं वे तो रोज रात को डरे हुए से सोते हैं और सुबह अपने को जिंदा पा कर खुश होते हैं. वृद्धावस्था का अकेलापन उन्हें इतना नहीं खलता, जितना यह डर कि उन्हें कौन, कब लूट ले. दिल्ली में हर साल सैकड़ों मामले ऐसे ही होते हैं. अब चूंकि हर मामले के चैनलों पर घंटों समाचार दिखाए जाते हैं, डर बढ़ता है घटता नहीं. इस समस्या का एक हल यह है कि कई वृद्ध जोड़े साथ रहें. वृद्धाश्रम में रहना तो अखरता है पर यदि 3-4 जोड़े एक मकान में साथ रहें तो सुरक्षा व साथ दोनों समस्याएं हल हो सकती हैं.

इस सुविधा को व्यावहारिक रूप देने के लिए सरकार को वृद्धों से संपत्ति खरीदफरोख्त पर पूरे कर हटा लेने चाहिए और जो घर 65 साल से ज्यादा के व्यक्ति के नाम का है उस पर से संपत्ति कर गृह कर और स्टांप ड्यूटी हटा लिए जाने चाहिए.अगर एक घर में 65 साल से ज्यादा के 6 से ज्यादा लोग रहते हों तो वहां बिजली और पानी की छूट भी होनी चाहिए. इलाके के बीट कांस्टेबल का काम होना चाहिए कि वह बारबार उन वृद्धों से मिले और उन घरों के आसपास फालतू लोगों को फटकने न दे. यह न भूलें कि इन वृद्धों ने अर्थव्यवस्था को 30-40 साल कमा कर खूब दिया है. अब वे दान नहीं मांग रहे, केवल सुरक्षा व सहूलियत चाहते हैं.

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