सरित प्रवाह, जून (प्रथम) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘मनमोहन का जाना’ में मनमोहन सिंह पर आप के विचार पढ़े. बेशक मनमोहन सिंह की भलमनसाहत और सादगी पर शक नहीं किया जा सकता मगर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने 15 अगस्त पर लाल किले पर दिए भाषण के अलावा कभी हिंदी में कुछ बोला हो. अंगरेजी में भी ऐसे बोलते थे कि पास खड़े होने वाले को भी शायद ही समझ आता हो. किसी राष्ट्र के प्रमुख से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वह जनता से, जनता की भाषा में संवाद करे.

अन्य संपादकीय टिप्पणी ‘औनलाइन फाइलिंग का जंजाल’ यानी सबकुछ कंप्यूटराइजेशन हो जाने का असर आम सेवाओं पर भी पड़ रहा है. एक बार हमारे इलाके के डाकघर के कंप्यूटर के डेड होने पर वहां के कर्मी 4 दिन तक हमें 4 किलोमीटर दूर दूसरे डाकघर में भेजते रहे. मनीऔर्डर, पार्सल आदि सेवाएं स्थगित कर दी गई थीं. बैंक में अगर सर्वर डाउन हो जाए तो कैशियर जमा करने के लिए पैसे ही नहीं पकड़ता, लाइन बढ़ती है तो उस की बला से. ये उदाहरण तो राई भर हैं, बड़े व्यवसायों और सरकारी सेवाओं से संबंधित परेशानियों का तो कहना ही क्या.

 मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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आप के लिखे संपादकीय ‘नरेंद्र मोदी की जीत’, ‘प्रचार, चुनाव व दल’ व ‘मनमोहन सिंह का जाना’ यथार्थ के धरातल पर खरे उतरते हैं. नरेंद्र मोदी की चुनाव में अप्रत्याशित जीत ने ऐसी पार्टी को सत्ता से दूर छिटक दिया है जो वर्षों से लोगों की खूनपसीने की कमाई को यों ही उड़ाती रही तथा अपनी तानाशाही शैली से लोगों के भविष्य का फैसला करती रही. वह देश को दरकिनार कर भ्रष्टाचार, बेईमानी व महंगाई बढ़ाने में डूबी रही, जनता के हितों को अपने पैरों तले वर्षों तक कुचलती रही. भारत के लोगों ने इस बार यह जता दिया कि जिस गद्दी को वे हुक्मरानों को सौंपना जानते हैं, उसे वे छीनना भी जानते हैं.

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