लेख ‘पुरुष पर अत्याचार’ पढ़ कर यों तो बड़ी हंसी आई कि कल तक जो तत्त्व मैं, मेरा और बस मेरा ही अधिकार पुकारपुकार कर महिलाओं पर अत्याचार ढहाने से तनिक भी नहीं हिचकिचाता, डरता या शरमाता था, आज वही जब पहाड़ के नीचे आने लगा, तो वह न केवल बौखला ही गया है बल्कि दीनहीन तथा बेचारा बन कर किसी सुरक्षित शरण (ढाल) की तलाश में मारामारा फिर रहा है. लेकिन इस का यह मतलब तनिक भी नहीं है कि आज बेचारे पुरुषों की हालत दयनीय नहीं है.

परंतु अब जिन तथाकथित दहेज उत्पीड़न, महिला सशक्तीकरण तथा घरेलू हिंसा की रोकथाम के नाम पर धाराएं 498ए, 376 तथा 406 लागू की गई हैं, जिन के तहत अपने ससुराल वालों से बदला लेना, किसी को भी ब्लैकमेल करने के लिए आरोप लगा देना या फिर अपनी ही किसी भी आवश्यक इच्छापूर्ति हेतु दबाव बनाने के लिए घरपरिवारों या विवाहबंधनों को बेरहमी से तोड़ा जा रहा है. इस पर न तो समाज, राजनेता, न्यायकानूनविद या देश की विधायिका को ही कोई चिंता है और न ही देश के पुरुषों को फुरसत कि वे एकजुट हो कर आवाज उठाएं. ऐसे में मात्र जो भी इन अत्याचारी एकतरफा कायदेकानूनों के फेर में आ रहे हैं, वे बेशक चीखचिल्लाते रहते हों, परंतु देश के अंधेबहरे शासकों को जगा नहीं पा रहे हैं. चाहे निर्दोष महिला हो या फिर पुरुष, उन को किसी भी अत्याचार से बचाना ही चाहिए, मगर आंख मूंद कर किसी भी निर्दोष पर कहर ढहाना उचित नहीं माना जा सकता. लिहाजा, तथ्यों की गहराई में जा कर, इन पर पुनर्विचार कर, ऐसा बदलाव किया ही जाना चाहिए, ताकि अपराधी बचे नहीं और निर्दोष फंसे नहीं. 

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