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आप के पत्र

लेख ‘खर्चीली तीर्थयात्राएं’ पढ़ कर ऐसा लगा कि व्यक्ति की सोच कितनी संकीर्ण हो गई है कि वह अपने पैसे को केवल अपने ऐशोआराम पर ही लुटाता है. वह प्रकृति के उस सौंदर्य से अनभिज्ञ है जिसे वह कभी भी अपने उस तनावपूर्ण वातावरण के आसपास नहीं प्राप्त कर सकता. लेख में बारबार फुजूलखर्ची शब्द का प्रयोग कर लेखक महोदय यह जताना चाहते हैं कि पर्वतीय स्थलों पर जाना बेकार है. किंतु उन से कोई पूछे कि क्या इस तनावभरी जिंदगी से हट कर कोई ऐसी जगह है जहां उसे कुछ देर प्रकृति की गोद में बैठ कर तनावमुक्त होने का मौका मिल सके? ऐसे में भी क्या वह उस के लिए फुजूलखर्ची है?         

रश्मि, पटना (बिहार)

आप के पत्र

अग्रलेख ‘प्रचार और कर्मठता की चौंकाती जीत’ ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने जाति, धर्म आदि के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है. ‘बांटो एवं राज करो’ की नीति के बल पर सत्ता हथियाने वाले उन तमाम नेताओं के गढ़ों को धराशायी कर, जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकार की डोर मोदीजी के हाथों में ऐसे थमाई कि विरोधी दलों के साथ सारी दुनिया भौचक रह गई.

बिना पेंदी के लोटे की तरह एवं कई नदी के संगम वाली सरकार से जनता भी थक गई थी. छीन कौन पतवार संभाले (कौन प्रधानमंत्री बने) की बीमारी से ग्रस्त भारतीय जनता पार्टी इस भ्रम में न रहे कि जनता ने वोटों के खजाने का मुंह उस के लिए खोला है क्योंकि जनता ने सारी पार्टियों के शासनकाल के चंगेज खां, नादिर शाह और गजनियों की लूट को देखा है. इसलिए उस ने पार्टी को नहीं बल्कि नमो नाम पर मुहर लगाई है.

भूखेनंगे बचपन ने, युवा वर्ग की निराशाओं एवं बेकारी ने, प्रौढ़ों की टूटी कमर ने, बुढ़ापे की धुंधली आंखों ने, आएदिन लूटी जा रही मां, बहन, बेटी एवं दुधमुंही बच्चियों की अस्मिता ने अपने असंख्य आसविश्वास की मशाल नरेंद्र मोदी को थमाई है. अब उस बुझी मशाल को प्रज्वलित कर के जनता की कसौटियों पर खरा उतरना उन का काम है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जून (प्रथम) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘मनमोहन का जाना’ में मनमोहन सिंह पर आप के विचार पढ़े. बेशक मनमोहन सिंह की भलमनसाहत और सादगी पर शक नहीं किया जा सकता मगर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने 15 अगस्त पर लाल किले पर दिए भाषण के अलावा कभी हिंदी में कुछ बोला हो. अंगरेजी में भी ऐसे बोलते थे कि पास खड़े होने वाले को भी शायद ही समझ आता हो. किसी राष्ट्र के प्रमुख से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वह जनता से, जनता की भाषा में संवाद करे.

अन्य संपादकीय टिप्पणी ‘औनलाइन फाइलिंग का जंजाल’ यानी सबकुछ कंप्यूटराइजेशन हो जाने का असर आम सेवाओं पर भी पड़ रहा है. एक बार हमारे इलाके के डाकघर के कंप्यूटर के डेड होने पर वहां के कर्मी 4 दिन तक हमें 4 किलोमीटर दूर दूसरे डाकघर में भेजते रहे. मनीऔर्डर, पार्सल आदि सेवाएं स्थगित कर दी गई थीं. बैंक में अगर सर्वर डाउन हो जाए तो कैशियर जमा करने के लिए पैसे ही नहीं पकड़ता, लाइन बढ़ती है तो उस की बला से. ये उदाहरण तो राई भर हैं, बड़े व्यवसायों और सरकारी सेवाओं से संबंधित परेशानियों का तो कहना ही क्या.

 मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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आप के लिखे संपादकीय ‘नरेंद्र मोदी की जीत’, ‘प्रचार, चुनाव व दल’ व ‘मनमोहन सिंह का जाना’ यथार्थ के धरातल पर खरे उतरते हैं. नरेंद्र मोदी की चुनाव में अप्रत्याशित जीत ने ऐसी पार्टी को सत्ता से दूर छिटक दिया है जो वर्षों से लोगों की खूनपसीने की कमाई को यों ही उड़ाती रही तथा अपनी तानाशाही शैली से लोगों के भविष्य का फैसला करती रही. वह देश को दरकिनार कर भ्रष्टाचार, बेईमानी व महंगाई बढ़ाने में डूबी रही, जनता के हितों को अपने पैरों तले वर्षों तक कुचलती रही. भारत के लोगों ने इस बार यह जता दिया कि जिस गद्दी को वे हुक्मरानों को सौंपना जानते हैं, उसे वे छीनना भी जानते हैं.

नरेंद्र मोदी को बहुमत मिल गया है और उन्हें भारत देश को आतंकवाद, भाईभतीजावाद, महंगाई से बचाए रखने के लिए हरएक कदम फूंकफूंक कर रखना होगा. विरासत में मिली चुनौतियों का डट कर सामना करना होगा.

नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार में विभिन्न साधनों से आम जनता से संपर्क बनाया, मतदाताओं को खूब लुभाया. मनमोहन सिंह को पता था कि अब की बार कुछ उलटापुलटा होने वाला है तो उन्होंने चुपचाप किनारा कर के न किसी के प्रति जहर उगला, न ही किसी के आरोपों को स्वीकारा. शालीनता में रह कर वे चुपचाप विदा हो गए.   

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘नरेंद्र मोदी की जीत’ में आप ने लिखा ‘जो बहुमत उन्हें मिला है बहुत जिम्मेदारी वाला है…नरेंद्र मोदी को इतिहास से सीखना होगा’ युक्तिसंगत है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी की गलतियों से सीख ले कर देश की जनता के कठघरे की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे.  

अंजनी कुमार सिन्हा, कोलकाता (प.बं.)

दलदल के पत्ते पर टिका पांव

भारतीय जनता पार्टी के जमेजमाए नेता अरुण जेटली पर बेबात में, अमृतसर लोकसभाई सीट हारने के कारण, धब्बा लग गया है. वैसे वे राज्यसभा के सदस्य हैं पर उन की जो धूम लोकसभाई सीट जीतने पर होती, वह शायद अब न रहे.

भारतीय जनता पार्टी को लालकृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी आदि से भी निबटना होगा क्योंकि ये सब नरेंद्र मोदी के केंद्रीय क्षितिज पर आने से पहले बराबर के वरिष्ठ नेता थे. अब इन सब को नरेंद्र मोदी को नेता मानना होगा जो आसान नहीं है. ये नेता खुद के प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते रहे हैं पर पार्टी को मिले बहुमत के चलते इन का मुंह बंद हो गया है.

राजनीति में जोखिम लेना ही पड़ता है. लगभग सभी देशों में सब से बड़ा नेता हमेशा तैयार रहता है कि न जाने कब क्या हो और उसे विदा कर दिया जाए. इन नेताओं को यह समझना होगा कि वे अरुण जेटली की तरह हारे तो नहीं पर अब हवा के रुख को बदलने की उन की हैसियत नहीं रह गई.

औनलाइन फाइलिंग का जंजाल

भारत सरकार का एक विभाग फलफूल रहा है–औनलाइन फाइलिंग को जबरन थोपने वाला. दावा किया जा रहा है कि औनलाइन फाइलिंग से समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है. देश का व्यापारी खुश है कि चलो घर बैठे काम हो जाएगा.

पर यह औनलाइन एक तरह का जंजाल बनता जा रहा है क्योंकि सरकार ने अरबों रुपए खर्च कर के ऐसे सौफ्टवेयर बनवा लिए हैं कि आयकर, बिक्रीकर, उत्पादकर, सेवाकर के साथसाथ बैंकों से लेनदेन, कै्रडिट कार्ड की एंट्रियां, बच्चों के स्कूलों की फीस, हवाई यात्राएं आदि सब का ब्योरा एक जगह जमा हो सकता है. आम आदमी कितना ही चतुर हो, औनलाइन फौर्म भरते समय याद नहीं रख सकता कि उस ने कब कहां क्या भरा था. सरकारी साइटें वैसे भी बेदर्द होती हैं और कभी भी काम के लगभग पूरा हो जाने के समय बंद हो सकती हैं और तब पूरा काम दोबारा करना पड़ सकता है.

इस का मतलब है कि सरकारी आदमी जब चाहे किसी का भी 4-5 जगह का ब्योरा जमा कर के ब्लैकमेल कर सकता है. इन विवरणियों में इतनी जानकारी मांगी जाती है कि अच्छेअच्छों के बस की नहीं है कि हर औनलाइन फौर्म में हर बात के लिए वह वही जानकारी भरता रहे. भूल से, कहीं भी गलती हो गई तो उस नागरिक को धर लिया जाएगा.

औनलाइन विवरणियां देना चाहे आकर्षक लगे पर यह एक ऐसे जंजाल में फंसना है जिस से निकलना असंभव सा हो सकता है. हर नागरिक को अपनी बातें गुप्त रखने का हक है अगर वह कोई अपराध नहीं कर रहा और पूरा कर दे रहा है. औनलाइन फौर्म की विवरणियां जरूरत से ज्यादा जानकारी मांगती हैं. अगर पूरी जानकारियां नहीं दीं तो फौर्म को अधूरा भरा मान कर औनलाइन कर्सर आगे नहीं बढ़ता.

गोपनीयता का अधिकार नागरिक का मौलिक अधिकार है और कानूनों के पालन या पूरा कर वसूलने के नाम पर सरकार को अतिरिक्त जानकारी लेने का हक नहीं है. जानकारी जमा की जाए पर इतनी नहीं कि स्कूल के समय के फोटो, गाडि़यों के चालान, स्वास्थ्य रिपोर्टें भी सरकार के हाथों में पड़ने लगें. सरकार अब सुपर सरकार बन रही है, ऐसे में नागरिकों को सरकार से अपने को बचाने के लिए वैसा ही संघर्ष करना चाहिए जैसा विदेशी सरकार से मुक्ति के लिए किया था. औनलाइन जानकारी देना एक ऐसी जंजीर है जिस का दुरुपयोग कब किया जाएगा, कहा नहीं जा सकता. सो, सरकार के हाथ रोकने ही चाहिए.

मनमोहन का जाना

मनमोहन सिंह के 10 साल के प्रधानमंत्री कार्यकाल को भारत की मध्य जमात बहुत हलके से ले रही है. अपशब्दों का भरपूर प्रयोग करने वाली, खाली बैठी युवा जमात ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कम बोलने वाली आदत को अपने सैकड़ों मजाकों का केंद्र बना कर एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है जो उलट कर वार भी करेगी. कल को यह जमात नए प्रधानमंत्री के बड़बोलेपन को शिकार बना सकती है.

मनमोहन सिंह का काम पिछले प्रधानमंत्रियों जैसा रहा. यह गनीमत रही कि जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकालों की तरह मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसे निर्णय कम लिए गए जिन का दुष्प्रभाव पड़ता. जवाहर लाल नेहरू ने जनता का बहुत पैसा समाजवादी ढांचे के नाम पर सरकारी उद्योगों में झोंक कर नष्ट कर दिया जिसे देश आज तक भुगत रहा है. इंदिरा गांधी ने सरकारीकरण कर के निजी क्षेत्र का गला घोंट दिया और रिश्वत की खुली छूट को निमंत्रण दे दिया. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मान कर समाज में एक गतिरोध पैदा कर दिया जिस का परिणाम यह हुआ कि सवर्ण वर्ग इस बार नरेंद्र मोदी को जिताने में जीजान से जुटा और कामयाब भी हुआ.

मनमोहन सिंह ने शांति का मार्ग अपनाया. सोनिया गांधी से मिल कर कई सामाजिक प्रभाव वाले कानून बनवाए जिन का असर धीमा रहा, कोई जलजला नहीं पैदा हुआ. मनमोहन सिंह ने अपने दोनों प्रधानमंत्रित्व कालों में राजनीतिक उठापटक नहीं होने दी. वर्ष 2002 जैसे विनाशक दंगे नहीं हुए. देश की अर्थव्यवस्था ठीकठाक रही. घोटाले, रिश्वतखोरी के मामले जरूर हुए पर उन में से कितने सही साबित होंगे, यह तो अब नई सरकार के गठन के बाद पता चलेगा क्योंकि अभी तक कुछ ज्यादा साबित नहीं हो पाया है.

मनमोहन सिंह सभाओं में दहाड़ते नहीं हैं तो इस का अर्थ यह नहीं कि वे ढुलमुल या कठपुतली प्रधानमंत्री रहे हैं. दुनिया के कितने ही देशों में प्रधानमंत्री, कई दलों के सर्वमान्य व्यक्ति होने के कारण, पद पाते हैं और उन्हें निर्णय सब से पूछताछ कर के लेने होते हैं. मनमोहन सिंह को अगर निर्णय सोनिया गांधी से पूछ कर लेने पड़ते थे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है. महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार के मुख्यमंत्री सदा बाल ठाकरे के इशारों पर चलते रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हमेशा सुननी पड़ी है.

मनमोहन सिंह ने इस बात को आसानी से पहचान लिया कि उन की राजनीतिक शक्ति है ही नहीं, वे प्रधानमंत्री हैं पर प्रधानमंत्री हमेशा भारीभरकम दल का नेता ही हो, जरूरी नहीं.

मनमोहन सिंह इतिहास में अपना नाम नहीं लिखा कर जा रहे पर उन पर वे धब्बे भी नहीं हैं जो पिछले कई प्रधानमंत्रियों पर रहे. देश को अगर प्रधानमंत्री चाहिए तो ऐसा ही जो अपने तर्कों से विभिन्न वर्गों को साथ ले कर चल सके न कि जिस के आने पर एक वर्ग में खुशी हो तो दूसरे में डर और असमंजस.

 

प्रचार, चुनाव और दल

इन आम चुनावों में कांगे्रस की फजीहत तो हुई ही, बहुजन समाज पार्टी की बड़ी फजीहत हुई और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की हवा काफी निकल गई. छोटे दलों जैसे जनता दल (युनाइटेड), समाजवादी पार्टी, लोक दल, राष्ट्रीय जनता दल आदि की उत्तर भारत में जो पिटाई हुई उस से साफ है कि अब वोट जाति पर नहीं मांगे जा सकते. इन दलों ने आमतौर पर अपना पूरा ध्यान जाति समीकरणों पर बैठा रखा था और उन्होंने शासन की बात की ही नहीं थी.

आम चुनाव यह तय करने के लिए होते हैं कि किन लोगों को दिल्ली में बैठाया जाए ताकि देश की सरकार चल सके. आम चुनावों को जाति जनमत संग्रह समझना गलत है जबकि यह वर्षों चला क्योंकि सब एकसुर में बोल रहे थे. नरेंद्र मोदी की विजय की हुंकार से इन छोटे दलों के जातिगत वोटबैंकों की चूलें हिल गईं और वोटर या तो छितर गए या भाजपा के साथ हो लिए.

जाति की राजनीति करने वाले लोगों को अब राजनीति से अवकाश लेना पड़ेगा क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाए रखना उन के लिए असंभव सा रहेगा. ममता बनर्जी और जयललिता उत्साही सीटें ले गईं पर अगले चुनावों में उन पर दबाव बना रहेगा और पर्याय सामने दिखते ही उन के भी वोटर भाजपा में जा सकते हैं.

आम चुनाव इस बार कुछ करने वालों के पक्ष में गए हैं चाहे करने में केवल प्रचार ही क्यों न रहा हो. जो प्रचार नहीं कर सकते वे आज की बाजार व्यवस्था में टिक नहीं सकते. लोग अब पैसे के बदले सेवा चाहने लगे हैं और वोट के बदले अच्छे शासन की मांग कर रहे हैं, जो इन छोटे दलों के बस का नहीं रहा है.

मल्लिका की ‘डर्टी पौलिटिक्स’

भंवरी देवी कांड पर बन रही फिल्म ‘डर्टी पौलिटिक्स’ रिलीज से पहले ही विवादों में घिरती जा रही है. विवाद फिल्म के उस पोस्टर को ले कर है जिस में फिल्म की लीड ऐक्ट्रैस मल्लिका शेरावत अपने जिस्म को तिरंगे में लपेटे ऐंबैसेडर कार में सीडी ले कर बैठी है. चूंकि फिल्म राजस्थान में हुए भंवरी देवी हत्याकांड से इंस्पायर है, ऐसे में विवाद की आशंका तो थी लेकिन इस पोस्टर को ले कर हुआ विवाद तो फिल्म को चर्चित ही कर रहा है.

देसी और बोल्ड अवतार में नजर आ रहीं मल्लिका शेरावत की इस फिल्म में ओमपुरी, जैकी श्रौफ, अनुपम खेर, आशुतोष राणा और राजपाल यादव भी नजर आएंगे. वैसे मल्लिका की फिल्म को ले कर मचा बवाल कोई पहली बार नहीं है. इस से पहले भी उन की कई फिल्मों को ले कर कभी छोटे कपड़ों के नाम पर तो कभी किस सींस पर हंगामा मचता रहा है.

 

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