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काश्तकारों को रुलाती अधिगृहीत भूमि

भूमि अधिग्रहण विधेयक को ले कर राजनीति गरम है. राजनीतिक दलों में अपनेअपने विधेयक को किसान के हित में बताने के तर्कवितर्क हो रहे हैं. कांगे्रस कहती है कि उस ने भूमि अधिग्रहण पर 2013 में सत्ता में रहते हुए जो कानून बनाया था वह किसानों के हित में है जबकि भाजपा कहती है कि इस कानून से किसानों का समग्र हित नहीं साधा जा रहा है, इसलिए वह संशोधन विधेयक ले कर आई है. अपने तर्क श्रेष्ठ साबित करने के लिए दोनों दलों के बीच जोरआजमाइश हो रही है. भाजपा सत्ता में है और उसे लगता है कि वह विधेयक पारित करा लेगी जबकि कांगे्रस कहती है कि राज्यसभा में उस का बहुमत है, विधेयक पारित नहीं होने दिया जाएगा. सचाई यह है कि दोनों के तर्क किसान के हित में नहीं हैं. विकास के नाम पर पुश्तैनी जमीन बेचने से वह आहत ही होगा लेकिन यदि अधिगृहीत की गई जमीन का इस्तेमाल विकास के लिए तत्काल होता है तो उस के जख्मों को कुछ राहत मिलेगी लेकिन अधिग्रहण के बाद जमीन बेकार पड़ी रही तो उसे पीड़ा होगी. सरकार ऐसी पीड़ा किसान को लगातार दे रही है.

वाणिज्य तथा उद्योग मंत्रालय के अनुसार, विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज के विकास के लिए 47,782.64 हैक्टेअर भूमि 15 फरवरी तक अधिसूचित हो चुकी है और इस में अब तक सिर्फ 19,629.63 हैक्टेअर भूमि का ही सेज के लिए प्रयोग हो रहा है. अधिसूचित शेष भूमि बेकार पड़ी है. इस में से 18,023 हैक्टेअर भूमि वर्षों पहले अधिगृहीत की जा चुकी है लेकिन अब भी बेकार पड़ी है. मौजूदा कानून के अनुसार, जिस भूमि का 5 साल तक इस्तेमाल नहीं होता है उसे किसान को लौटा दिया जाना चाहिए लेकिन इस जमीन को लौटाने की सरकार की हिम्मत नहीं हो रही है.

टाटा प्रमुख से सबक ले सरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संपन्न या सक्षम लोगों से रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी को छोड़ने के आग्रह के मद्देनजर मार्च तक करीब 3 लाख उपभोक्ता सब्सिडी छोड़ चुके हैं जिस से राजकोष को 100 करोड़ रुपए से अधिक का फायदा हुआ है. मोदी की यह अपील लोगों को पसंद आ रही है. उन के खास मित्र और उद्योगपति रतन टाटा ने अपने कर्मचारियों से गैस सब्सिडी छोड़ने का आह्वान किया है. उन्होंने देशविदेश में काम कर रहे टाटा समूह के करीब 6 लाख कर्मचारियों से यह अपील की है. कंपनी के देश में ही 4 लाख से अधिक कर्मचारी हैं. टाटा समूह का नमक से ले कर सौफ्टवेयर तक का कारोबार है. टाटा की यह अपील यदि कर्मचारी मान लेते हैं तो इस से देश के राजस्व में बड़ा इजाफा होगा. रतन टाटा का कहना है कि टाटा समूह ने राष्ट्र के उत्थान में हमेशा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और आज जब देश आर्थिक शक्ति बनने की राह पर है तो समूह को इस में फिर अपना योगदान देना चाहिए.

यह भावुक अपील टाटा समूह के कर्मचारी आसानी से मान भी जाएंगे लेकिन सवाल यह है कि हमारा सरकारी भ्रष्ट तंत्र इस अपील का मान रखेगा? तेल और गैस कंपनियों के आलीशान जीवनयापन करने वाले कर्मचारी इस अपील से कुछ सबक लेंगे? सरकारी तेल कंपनियों के कार्यालय और उन के कर्मचारियों को जो सुविधा मिल रही है, रतन टाटा की अपील का पैसा तो उन कर्मचारियों की सुखसुविधा पर आने वाले खर्च के लिए भी कम पड़ेगा. तेल कंपनियों की समाज में वर्गभेद करने वाली नीति पर पहले अंकुश लगे. महंगाई के कारण सरकारी कर्मचारी पहले ही मोटी तनख्वाह ले कर अब फिर वेतन आयोग के गठन की मांग कर रहे हैं. सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य सब्सिडी नियम लागू क्यों नहीं किया जाता है? सरकार भी रतन टाटा से सबक ले.

धमाके के साथ नए वित्त वर्ष का स्वागत

शेयर बाजार ने नए वित्त वर्ष 2015-16 का धमाके के साथ स्वागत किया है. वित्त वर्ष के पहले ही दिन बाजार ने 3 सप्ताह में पहली बार सर्वाधिक साप्ताहिक छलांग लगाने का रिकौर्ड बनाया और बौंबे स्टौक एक्सचेंज का सूचकांक 302.65 अंक उछल गया. सूचकांक की नई छलांग लगाने की पृष्ठभूमि पहले ही दिन बन गई थी जब रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने संकेत दिए कि रिटर्न की स्थिति में बैंक ऋण की दर को कम किया जा सकता है. इसी तरह वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी ब्याज दरों में कटौती के संकेत दिए थे. उसी दौरान विश्व मुद्रा कोष यानी आईएमएफ ने कहा कि 2015-16 में भारत में विकास दर 7.25 प्रतिशत तक पहुंच सकती है. रिजर्व बैंक ने बैंकों की बैलेंस शीट में सुधार के वास्ते बैड लोन यानी बाजार में फंसे ऋण की वसूली के लिए ऋण नियमावली में ढील देने की बात की. समाप्त हुए वित्त वर्ष के आखिरी दिन रिपोर्ट आई कि बाजार ने 2014-15 में 5 साल का रिकौर्ड तोड़ा है. इस अवधि में बाजार ने 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है. इन सब का शेयर बाजार पर सकारात्मक असर रहा जिस के कारण समाप्त वित्त वर्ष के आखिरी सत्र से पहले बाजार 517 अंक की उछाल लगा कर 2 माह के शीर्ष स्तर पर पहुंचा. हालांकि उस से पहले के कारोबारी सप्ताह के आखिरी दिन सूचकांक वैश्विक स्तर पर नकारात्मक माहौल की वजह से 654 अंक टूट कर 10 सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गया था.

टीचर से आशिकी ठीक नहीं

प्राइवेट शिक्षा ने स्कूलों की पूरी व्यवस्था को बदल कर रख दिया है. अब स्कूल पहले जैसे नहीं रह गए हैं. स्कूल में आए एक बदलाव ने किशोरावस्था में पढ़ाई कर रहे छात्र और उस की टीचर के बीच उम्र के अंतर को भी घटा दिया है. उम्र के इस घटे हुए अंतर के चलते किशोर उम्र के युवाओं का आकर्षण अपनी टीचर के प्रति बढ़ने लगा है. फिल्ममेकर रामगोपाल वर्मा की तेलुगू फिल्म ‘सावित्री’ इसी मुद्दे को ध्यान में रख कर तैयार की गई है. एक तबका इस का विरोध भी कर रहा है. किशोर उम्र के बच्चों में युवा उम्र की टीचर के प्रति आकर्षण कोई अपराध नहीं है. यह एक मनोवैज्ञानिक परेशानी है. इस का हल इसी नजर से तलाश करने की जरूरत है.

कक्षा 11 और 12 में पढ़ने वाले बच्चे आपस में अपनी नईनई आई गणित की टीचर के बारे में बात कर रहे थे. एक लड़का बोला, ‘मुझे गणित से बहुत डर लगता है पर जब से नई टीचर आई है, मैं गणित की क्लास में जाने लगा हूं. उस के आने से गणित की बोरियत भरी क्लास में ताजगी का एहसास होता है.’ दूसरा बच्चा बोला, ‘सही कह रहा है यार. वह मुझे वैसी ही लगती है जैसे शाहरुख खान की फिल्म ‘मैं हूं न’ में सुष्मिता सेन लगती थी.’ 2 बच्चों की बहस में शामिल होते हुए तीसरे बच्चे ने कहा, ‘यार, वह बोलती कितने प्यार से है. हर सवाल को प्यार से समझाती है. पहले वाले सर तो सवाल पूछने पर ऐसे मुंह बनाते थे जैसे किसी ने उन के मुंह में कुनैन डाल दी हो.’ पहले वाले बच्चों को लगा कि उस के साथी ज्यादा बात कर रहे हैं. वह बहस को अपने हाथ में लेता हुआ बोला, ‘यार, पढ़ाईलिखाई की बातें जाने दो, मुझे तो उस का फैशन स्टाइल बहुत अच्छा लगता है. वह तो मुझे किसी हीरोइन जैसी लगती है.’

‘किसी ऐसीवैसी हीरोइन जैसी नहीं, वह दीपिका पादुकोण लगती है. क्या स्लिमफिगर है. उस की आवाज कितनी मीठी है.’ ‘दीपिका नहीं यार, मुझे तो वह प्रियंका चोपड़ा जैसी लगती है. आज से हम उस को पीसी कहेंगे. किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा.’ ‘हां हां, यह ठीक है.’ सभी बच्चे एकमत हो गए. उस दिन के बाद से गणित की टीचर उन बच्चों के बीच पीसी के नाम से पहचानी जाने लगी. धीरेधीरे यह बात पूरे स्कूल को पता चल गई. पर पीसी का पूरा नाम उन बच्चों को ही पता था जो अपनी गणित टीचर को प्रियंका चोपड़ा जैसी देख रहे थे. कक्षा 10 से 12 के बीच पढ़ने वाले बच्चों से बात करने पर यही पता चलता है कि करीबकरीब हर स्कूल में कोई न कोई टीचर उन के आकर्षण का केंद्र होती है.

फिल्में समाज का आईना

फिल्मों को समाज का आईना कहा जाता है. फिल्म ‘सावित्री’ के जरिए किशोर उम्र के छात्रों में अपनी टीचर के प्रति बढ़ते आकर्षण को दिखाने और समझाने की कोशिश की है. फिल्म ‘सावित्री’ के प्रचार के लिए जिस तरह के पोस्टर का प्रयोग रामगोपाल वर्मा ने किया है उस को ले कर अलगअलग संगठनों ने विरोध किया. रामगोपाल वर्मा ने पूरे मसले पर अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘‘राजकपूर ने बहुत समय पहले फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में जो दिखाया, मैं ने वैसा ही दिखाया है. मेरी फिल्म के पोस्टर को अश्लील कह कर उस का विरोध करना सही नहीं है. मैं इस से हरगिज सहमत नहीं हूं. मेरी फिल्म किशोर मन पर आधारित है जिस में एक किशोर अपने से बड़ी उम्र की महिला की ओर आकर्षित होता है.’

ऐसे विषय पर पहले भी फिल्में बन चुकी हैं. फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में एक किशोर छात्र का मन अपनी जवां, खूबसूरत मैडम पर डोल जाता है. वह उस से प्यार करने लगता है. उस फिल्म में राजकूपर ने काफी बोल्ड सीन के जरिए उस को दिखाने का काम किया था. केवल हिंदी फिल्मों में ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में भी ऐसे विषयों पर फिल्में बनती रही हैं. इन सभी को दर्शकों के द्वारा खूब सराहा भी गया है. इटली की फिल्म ‘मलेना’, औस्कर विजेता फ्रेंच फिल्म ‘पाराडिसों’, अमेरिकी फिल्म ‘समर औफ 42’ और ‘थुरूपु पदामारा’ आदि इसी विषय पर बन चुकी हैं. फिल्म ‘सावित्री’ में एक किशोर लड़के का मन दिखाया गया है जो अपनी उम्र से बड़ी महिला पर आसक्त हो गया है. वह उसे जवां और खूबसूरत लगती है. वह उसे उसी तरह से देखता है. रामगोपाल वर्मा कहते हैं, ‘‘यह बहुत स्वाभाविक है. मुझे नहीं लगता कि कुछ गलत दिखाया गया है. बचपन में मैं भी अपनी एक टीचर के प्रति आकर्षित हुआ था. उस का नाम सरस्वती था. कुछ समय पहले मैं ने उन को यह बात बताई तो वे मुसकराईं. टीचर होने के नाते वे इस बात को समझती हैं कि किशोरावस्था में इस तरह का आकर्षण बहुत स्वाभाविक होता है.’’

कुछ संगठनों को फिल्म के नाम ‘सावित्री’ पर आपत्ति है. धार्मिक होने के कारण वह इस नाम की पवित्रता का सहारा ले कर सवाल उठा रहे हैं. उन को जवाब देते रामगोपाल वर्मा कहते हैं, ‘‘ऐसे लोग क्या कहना चाहते हैं कि दूसरे नामों की महिलाएं पवित्र नहीं होती हैं.’’ रामगोपाल वर्मा के पोस्टर को ले कर हैदराबाद के बाल अधिकार संगठन ने उन को एक नोटिस भेजा है.

हिट का फार्मूला विवाद

फिल्म के बाजार में आने से पहले उस का नाम विवादों से जोड़ा जाता है. फिल्मी कारोबार से जुडे़ लोग मानते हैं कि विवाद होने से फिल्मों को मुफ्त का प्रचार मिल जाता है. इस संबंध में रामगोपाल वर्मा का कहना है, ‘‘मैं अपनी फिल्म के प्रचार के लिए ऐसे सस्ते हथकंडे नहीं अपनाता हूं. इस के अलावा न ही गंदे व सस्ते विषयों को लेता हूं.’’ रामगोपाल वर्मा की बात अपनी जगह पर सही हो सकती है. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विवादों के चलते फिल्में प्रचार पाती हैं. फिल्म उद्योग से जुडे़ तमाम लोग फिल्मी विवादों को भड़का कर प्रचार पाते हैं. फिल्म ‘सावित्री’ अपनी रिलीज से पहले ही प्रचार पा चुकी है. कई जगहों पर विरोध के बाद इस का नाम ‘श्रीदेवी’ भी प्रचारित किया जा रहा है.  कानूनी पचडे़ से बचने के लिए रामगोपाल वर्मा साफतौर पर कहते हैं, ‘‘मेरी इस फिल्म में न तो किसी महिला टीचर की कहानी है और न पोस्टर में दिखाई गई महिला टीचर है. मेरी फिल्म में आज के दौर की जीवनशैली दिखाई गई है. पोस्टर को देख कर उसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है. असली कहानी परदे पर दिखेगी. यह फिल्म युवा मनोविज्ञान पर आधारित है.’’ मनोविज्ञानियों का भी मानना है कि किशोरावस्था में इस तरह के आकर्षण स्वाभाविक हैं. इस को ले कर किशोर उम्र के बच्चों की काउंसलिंग करने की जरूरत है. किसी तरह की समस्या के समाधान के लिए बच्चों के मनोभावों को समझ कर फैसला करना चाहिए.

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में बहुत सारे बदलाव हुए हैं. शिक्षा एक तरह से बाजारवाद में बदल चुकी है. स्कूलों में इंटीरियर से ले कर पढ़ाई तक में सबकुछ बदल चुका है. किताबें, बच्चों की ड्रैस, लंचबौक्स, पढ़ाई का तरीका सभी आधुनिकता की दौड़ में बदलता जा रहा है. साथ ही टीचर की सोच, पहनावा और रहनसहन भी बदल गया है. इस का असर सब से अधिक किशोर उम्र वाली कक्षाओं यानी 9वीं से 12वीं में तेजी से पड़ा है. किशोर उम्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होता है. कई बार इसी का शिकार हो कर बच्चे अपनी ही टीचर के प्रति आकर्षित हो जाते हैं. ऐसे में वह सब से पहले उस टीचर की हर बात को मानना शुरू कर देता है. उस का खयाल रखता है. किसी न किसी बहाने उस टीचर के आसपास रहने की कोशिश करता है. कई किशोरों में यह आकर्षण दिल में बना रहता है तो कई कुछ कदम आगे भी बढ़ जाते हैं. ऐसे में कई बार उन को डांट भी खानी पड़ जाती है. ज्यादातर मसलों में यह बात पढ़ाई खत्म होने के साथ उन के स्कूल से बाहर चले जाने के बाद खत्म हो जाती है. आज के समय में कई टीचर और छात्र अपने फेसबुक अकाउंट रखते हैं. छात्र अपनी पसंदीदा टीचर के फेसबुक अकाउंट के साथ भी जुड़ना चाहता है. कई बार टीचर उसे ऐसा करने की छूट भी दे देती है. मनोविज्ञानी डा. दिशा पांडेय कहती हैं, ‘‘ऐसे मसले आने पर टीचर की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. उसे बहुत ही शांत मन से काम लेना चाहिए. बच्चों की शिकायत करने के बजाय उसे समझाना चाहिए. यह उम्र में आ रहे बदलावों के चलते स्वाभाविक बात होती है.’’

डा. दिशा कहती हैं, ‘‘यह परेशानी नई नहीं है. स्कूलों में इन बातों को बहुत ही सहज और सरल ढंग से हल कर लिया जाता है. टीचर को खुद अपने आचारव्यवहार से ऐसा करना चाहिए जिस से बच्चे में ऐसे भाव न पनपने पाएं. टीचर को ऐसे बच्चों पर निगाह रखनी चाहिए और उस को ऐसे समझाना चाहिए जिस से बात बिगड़ने से पहले बन जाए और टीचर या बच्चे दोनों के लिए घटना दुखद न बन जाए. किशोरों के अपनी टीचर के प्रति ऐसे आकर्षण कोई अजूबी बात नहीं है. इन को पूरी संवेदनशीलता के साथ ही देखा जाना चाहिए. सब से अधिक परेशानी कक्षा 11 और 12 में पढ़ने वाले बच्चों के सामने आती है. ऐसे बच्चे को पहचान कर उस की काउंसलिंग कर के परेशानी को हल किया जा सकता है.’’ कई बार बच्चे इस आकर्षण को खुद ही नहीं समझ पाते. उन को केवल यह लगता है कि टीचर उन को अच्छी लगती है. ऐसे कुछ बच्चे बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उन की टीचर उन को पसंद आती है. इस का कारण बताते वे कहते हैं, ‘‘मुझे वह बहुत सुंदर लगती है.’’

टीचर की सुंदरता की तारीफ बच्चों में उस के प्रति आकर्षण के भाव को बढ़ाता है. कुछ बच्चे स्वीकार करते हैं कि वे सोचते हैं कि जब उन की शादी हो तो लड़की इन्हीं टीचर जैसी हो. स्वाभाविक आकर्षण को उम्र के असर के रूप में ही देखा जाना चाहिए. इस से अधिक इस को देखने की जरूरत नहीं है. पहले बच्चों और टीचर की उम्र के बीच का फासला ज्यादा होता था तो ऐसे आकर्षण की संभावना कम होती थी. अब टीचर और छात्र के बीच का फासला कम हो गया है. 14-15 साल का छात्र और 22-25 साल की टीचर के प्रति ऐसे आकर्षण की संभावना ज्यादा बलवती हो जाती है. कई टीचरों में सुंदर और स्मार्ट दिखने की चाहत उन की उम्र को और भी कम कर देती है. ऐसे में आकर्षण बढ़ने की संभावना ज्यादा ही होती है. एक पिं्रसिपल का कहना है, ‘‘ऐसे आकर्षण उन टीचरों के साथ ज्यादा होते हैं जिन की पढ़ाई में हंसीमजाक  की संभावना ज्यादा होती है. कई बार बच्चे हंसीमजाक को टीचर की स्वीकृति समझ लेते हैं. फलस्वरूप वे आकर्षण के सपने को अलग रूप में देखने लगते हैं.’’

भटकाव की उम्र

टीचर और किशोर के प्रति आकर्षण की घटना को बहुत गंभीर रूप में देखने की जरूरत नहीं है. यह आकर्षण तक ही सीमित रहे, इस बात का पूरा खयाल रखना होगा. इस में सब से बड़ी भूमिका स्कूल और टीचर की होती है. किशोर उम्र का बच्चा मानसिक बदलाव की उम्र में होता है. उस में ऐसी बातें आनी स्वाभाविक होती हैं. ऐसी घटनाओं का पता चलने पर बच्चे को सही तरीके से समझाना चाहिए. बदलती दुनिया के तौरतरीकों और फैशन को सीमा के अंदर रखने की जरूरत है. कई बार देखा गया है कि टीचर की तारीफ की शुरुआत बच्चा घर से ही करता है. ऐसे में पेरैंट्स द्वारा बच्चे को यह समझाने की जरूरत है कि यह उम्र उस की पढ़ाई की है. इस उम्र में वह इस काम को ही करे. इधरउधर भटकने से उस का कैरियर प्रभावित होगा जिस का प्रभाव उस के आने वाले जीवन पर पड़ेगा.

पोंगापंथ के खिलाफ मुहिम

‘कौन कहता है आसमान में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…’ एक कविता की इन पंक्तियों को बिहार में सदियों से जमी पोंगापंथ की गंदगी को साफ करने में लगे कुछ लोग सच साबित कर रहे हैं. अंधविश्वास और पाखंडी बाबाओं के किले को ढहाने के लिए शुरू की गई छोटीछोटी कोशिशें, धीरेधीरे ही सही, रंग लाने लगी हैं. ऐसे लोगों पर पाखंड के धंधेबाजों ने कई दफे हमले भी किए पर उन्होंने हार नहीं मानी और अपने मकसद में लगे रहे. फिल्म ‘पीके’ ने न सिर्फ देश के सामाजिक और रूढि़वादी तानेबाने पर सीधा प्रहार कर पोंगापंथ के खिलाफ उठ रही आवाजों को मजबूती दी बल्कि मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा और चर्च के नाम पर सियासी रोटियां सेंकने वालों व पाखंड की दुकान चलाने वालों के चेहरे से नकाब हटाने की पुरजोर कोशिश की.

देशभर में 8 साल से ‘अंधविश्वास भगाओ, देश बचाओ’ मुहिम चलाने वाले बुद्ध प्रकाश भंते कहते हैं कि उन की जिंदगी का मकसद भाग्य, भगवान, मूर्तिपूजा, पंडित, मुल्ला और पाखंडियों की पोल खोलना बन गया है.  भंते कहते हैं कि पंडेपुजारियों ने अपना धंधा चलाने के लिए प्रचारित किया है कि कणकण में भगवान है, पर असलियत यह है कि कणकण में विज्ञान है. आदमी, समाज, देश और दुनिया की तरक्की विज्ञान और तकनीक की बदौलत हो रही है न कि इस के पीछे भगवान नाम की चीज का हाथ है.

बुद्ध प्रकाश भंते तर्कों और विज्ञान के कमालों के सहारे लोगों के जेहन में गहरे बैठे पोंगापंथ को भगाने की मुहिम में लगे हुए हैं. हरियाणा के तहसील सोसाइटी से उन्होंने हाथ की सफाई की विधिवत ट्रेनिंग ली है. वे बिहार अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य रह चुके हैं.  वे स्कूलों, कालेजों, जेलों, पुलिस कार्यालयों, पंचायतों और गांवों में जा कर लोगों को बाबाओं व ओझाओं की करतूतों की पोलपट्टी वैज्ञानिक तरीके से खोलते हैं. वे बताते हैं कि सदियों से हमारा समाज डायन, बलि, टोटका, झाड़फूंक, जादूटोना, तंत्रमंत्र के चक्कर में इस तरह फंसा हुआ है कि उस से छुटकारा मिलने में काफी समय लगेगा. धीरेधीरे ही सही, पर लोग इन ठगों की असलियत को समझने लगे हैं. सांप के काटने से भारत में हर साल डेढ़ लाख लोगों की जान जाती है. इन में 80 फीसदी लोगों की जान झाड़फूंक के चक्कर में फंस कर समय बरबाद करने की वजह से जाती है. जिस आदमी को सांप ने काटा हो, अगर तुरंत उसे अस्पताल ले जा कर सही इलाज कराया जाए तो मरीज की मौत नहीं होगी.

बाबाओं से नजात जरूरी

पब्लिक अवेयरनैस फौर हैल्थफुल अप्रोच फौर लिविंग (पहल) के मैडिकल डायरैक्टर डा. दिवाकर तेजस्वी 14 सालों से स्वास्थ्य के क्षेत्र में फैले अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं. एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के बारे में समाज में फैले अंधविश्वास को दूर करने के लिए उन्होंने एड्स पीडि़त महिला का जूठा बिस्कुट उस के ही हाथों से खाया और यह साबित करने की कोशिश की कि एड्स छुआछूत की बीमारी नहीं है और किसी मरीज के छूने या उस के साथ खाने से यह नहीं फैलता है. उस वाकये को याद करते हुए दिवाकर कहते हैं कि सेफ सैक्स नहीं करने की वजह से ही मुख्तार और उस की बीवी रामपति एड्स की चपेट में आए. अगर सही समय पर उन का सही इलाज शुरू कर दिया जाता तो उन की जिंदगी तबाह होने से बच सकती थी.

हैल्थ के क्षेत्र में काफी ज्यादा अंधविश्वास फैला हुआ है. पहले हैजा, प्लेग, चेचक आदि को भगवान का प्रकोप माना जाता था. आज कुष्ठ, कैंसर, चेचक आदि को दैवीय प्रकोप मान कर लोग पहले बाबाओं और तांत्रिकों के चक्कर में फंसते हैं. बाबाओं के चक्कर में फंस कर लोग जान और माल दोनों का नुकसान कर डालते हैं और नतीजा सिफर ही रहता है. वे बताते हैं कि आजकल डिप्रैशन यानी अवसाद की बीमारी लोगों में तेजी से फैल रही है, जिसे लोग सिर पर भूत, प्रेत, डायन या बुरी आत्मा का सवार होना मानते हैं. जब कोई इंसान हताशा, निराशा, नाकामी, धोखा आदि मिलने के बाद दिमागी तौर पर परेशान हो कर उलटीसीधी हरकतें या बातें करने लगता है तो उस के घर वाले बीमार आदमी को झाड़फूंक के लिए तांत्रिकों के पास ले जाते हैं. जबकि मानसिक रोगी के न्यूरो मीटर को इलाज के जरिए कंट्रोल या पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है.

अकसर यह दलील दी जाती है कि अनपढ़ लोग ही अंधविश्वास व बाबाओं के चक्कर में फंसते हैं, जबकि उस से ज्यादा खतरनाक पढ़ेलिखे तबके में फैला अंधविश्वास है.इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके डा. अजय कुमार बाबाओं की ठग विद्या के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. खासकर रामदेव के योग और दवाओं से हर तरह की बीमारियों को ठीक करने के दावों के खिलाफ वे मुहिम चलाते रहे हैं. वे कहते हैं कि एड्स, डायबिटीज, ब्लडप्रैशर, गठिया, अंधापन, हार्ट, किडनी, लिवर आदि की बीमारियों को योग से ठीक करने का प्रचार कर कई धूर्त बाबा अपना गोरखधंधा चला रहे हैं. कुछ की अपनी कंपनी के सीईओ और अब राजनेता बनने की उन की कोशिश यही साबित करती है कि आम आदमी को ठग कर पैसा कमाने की उन की भूख लगातार तेजी से बढ़ती जा रही है. अगर जड़ीबूटी और झाड़फूंक आदि से लाइलाज बीमारियों का इलाज हो सकता तो आज एलोपैथ और पूरी मैडिकल साइंस का भट्ठा बैठ चुका होता. योग के जरिए काफी हद तक बीमारियों को कंट्रोल में रखा जा सकता है, लेकिन बीमारी का इलाज नहीं किया जा सकता. ऐसा दावा करने वाले बीमारों को मौत के मुंह में धकेल रहे हैं.

गंगा मैली क्यों

सफेद बाल और दाढ़ी के साथ सफेद लिबास में उन की शख्सीयत को देख कर ही अंदाजा लग जाता है कि वे कुछ अलग किस्म के इंसान हैं और उन का काम भी औरों से अलग है. नाम तो उन का विकास चंद्र है लेकिन वे गुड्डू बाबा के नाम से मशहूर हैं. वे पूजापाठ के लिए बनी मूर्तियों समेत लावारिस लाशों को गंगा में बहाने के विरोध में पिछले 17 सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं. ‘गंगा बचाओ अभियान’ संस्था बना कर वे साल 1998 से गंगा को पाखंड और आडंबरों से बचाने की मुहिम चला रहे हैं. वे बताते हैं कि 31 मई, 1999 का दिन था और वे गंगा में नाव से घूम रहे थे. अचानक ही पटना मैडिकल कालेज ऐंड हौस्पिटल के पिछवाड़े में कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनाई पड़ीं. वहां पहुंच कर देखा तो हौस्पिटल के पोस्टमार्टमरूम के पीछे कटीफटी लावारिस लाशें रखी हुई हैं और कुछ लोग उन लाशों को उठा कर गंगा नदी में फेंक रहे हैं. उसी दिन से उन्होंने गंगा को बचाने की लड़ाई शुरू करने की ठान ली. उन की मुहिम की वजह से ही पटना हाईकोर्ट ने उन्हें ‘पब्लिक स्प्रिटेड सिटीजन’ और ‘ह्विसिल ब्लोअर’ का खिताब दिया है. रिलायंस इंडस्ट्रीज उन्हें ‘रीयल हीरो’ की उपाधि दे कर सम्मानित कर चुकी है.

उन्होंने बताया कि गंगा में गंदगी की सब से बड़ी वजह पाखंड और पोंगापंथ हैं. इंसानों की लावारिस लाशें और मरे हुए जानवरों को गंगा में बहाने पर तो लंबी लड़ाई के बाद अदालत ने रोक लगा दी है लेकिन मूर्तियों और पूजापाठ के सामानों को गंगा में फेंकने पर रोक लगाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने की दरकार है. पोंगापंथ के धंधेबाजों ने गंगा को डस्टबिन बना कर रख दिया है. गंगा के किनारे विकास चंद्र के साथ घूमने पर गंगा को साफ रखने की उन की दीवानगी से रूबरू हुआ जा सकता है. रोज नदी के किनारे पड़ी लावारिस लाशों को जमा कर वे जला देते हैं और जहांतहां बिखरे पूजापाठ के सामानों को उठा कर एक जगह जमा करते हैं और मिट्टी में दबा देते हैं. वे कहते हैं कि गंगा की आरती पर हजारोंलाखों रुपया और समय बरबाद किया जाता है पर आरती करने वालों को गंगा की गंदगी नहीं दिखाई देती है. 

कुष्ठ रोग संबंधी भ्रांति

कुष्ठ रोग के बारे में समाज में यह धारणा है कि यह बीमारी गलत काम करने की वजह से होती है या यह पिछले जन्मों के पाप का नतीजा है, यह गलत है. इसे ले कर समाज में पोंगापंथियों ने जम कर भ्रम फैला रखा है. बाबाओं ने यह प्रचार कर रखा है कि गलत काम करने, गलत संबंध बनाने, खून गंदा होने या सूखी मछली खाने से कुष्ठ रोग होता है. जबकि ऐसा कुछ नहीं है, पोंगापंथियों ने अपना धंधा चलाने के लिए इस बीमारी को ले कर भ्रम का जाल फैला रखा है. डा. दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि जिस किसी को कुष्ठ रोग हो जाता है उस मरीज को ज्यादा देखभाल और सहानुभूति की जरूरत होती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है.  डा. विमल कारक कहते हैं कि यह रोग माइक्रोबैक्टीरियम लेप्री की वजह से होता है. इस बीमारी का सही तरीके से इलाज किया जाए तो मरीज पूरी तरह ठीक हो जाता है. बिहार के आरा रेलवे स्टेशन के पास छोटा सा इलाका है – अनाइठ. इस इलाके में गांधी कुष्ठ आश्रम नाम की संस्था है. उस में कुष्ठ रोगियों के 68 परिवार रहते हैं जिन की आबादी 152 है. उस में रहने वाले सभी लोग अपनी बीमारी से तो तड़प ही रहे हैं पर उन का दर्द बीमारी से कहीं ज्यादा यह है कि उन के घर वालों ने देवता का प्रकोप मान कर उन्हें घर से निकाल दिया और तिलतिल मरने के लिए छोड़ दिया.

भारत में करीब 15 लाख से ज्यादा कुष्ठ रोगी हैं. उन में से 24 फीसदी बिहार में हैं. सूबे में कुष्ठ रोगियों की 40 बस्तियां हैं, जिन की हालत बद से बदतर है. बिहार में प्रति 10 हजार की आबादी पर 1.12 कुष्ठ रोगी हैं. बिहार के अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में सब से ज्यादा कुष्ठ रोग के मरीज हैं. बिहार अनुसूचित एवं पिछड़ी जाति संघर्ष मोरचा के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि गरीब और पिछड़ों के दर्द को सुनने और उसे दूर करने वाला कोई नहीं है. उन के नाम पर पटना से ले कर दिल्ली तक सत्ता की रोटियां सेंकी जाती रही हैं पर उन के हालात में बदलाव आजादी के बाद से अब तक नहीं हो सका है.

वर्चस्व के लिए जब नंबर २ बनना चाहे नंबर १

भारतीय राजनीति इन दिनों वर्चस्व की लड़ाई में मशगूल है. फिर वह तृणमूल कांग्रेस हो या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हो या नईनवेली आम आदमी पार्टी. जहां तक कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, इन दोनों पार्टियों में नेतृत्व को ले कर समयसमय पर विरोध और उठापटक के साथ वर्चस्व के लिए सत्ता संघर्ष का अपना इतिहास रहा है. आम आदमी पार्टी को इस में अपवाद माना जा रहा था लेकिन पिछले कुछ दिनों में पार्टी में जो ड्रामा हुआ उस से साफ जाहिर है कि वर्चस्व की लड़ाई में यह पार्टी भी अब अछूती नहीं रही. जबजब पार्टी के दूसरी कतार के नेताओं ने शीर्ष पर आने की कवायद शुरू की है तो ऐसे नेताओं को उन की औकात बताने में पार्टी ने कतई देरी नहीं की.

आजादी से पहले जवाहरलाल नेहरू बनाम सुभाष चंद्र बोस और बाद में नेहरू बनाम सरदार वल्लभभाई पटेल का सत्ता संघर्ष जगजाहिर है. कहा जाता है महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद सी राजगोपालाचारी, सुचेता कृपलानी जैसे कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार कर नेहरू ने पार्टी में अपना वर्चस्व कायम किया. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी बनाम मोराजी देसाई ऐंड कंपनी के बीच वर्चस्व की लड़ाई इतिहास के पन्नों में दर्ज है. इंदिरा गांधी की इस बात के लिए बड़ी आलोचना भी हुई कि उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस के अलावा अर्जुन सिंह या शरद पवार बनाम नरसिम्हाराव, प्रकाश करात बनाम सीताराम येचुरी, उद्धव बनाम राज ठाकरे के बीच वर्चस्व की लड़ाई की मिसालें भारतीय राजनीति में हैं.

‘आप’ में तूतू मैंमैं

अब जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है तो यह पार्टी शुरू से ही व्यक्ति केंद्रित पार्टी रही है. दिल्ली विधानसभा में इतनी बड़ी जीत मिलने से पहले यही कहा जा रहा था कि आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल को केंद्र में रख कर अचानक पैदा हुए बहुत सारे नेताओं की असंगठित भीड़ है, जिस का न कोई सिद्धांत है और न कोई विचारधारा. आप के जन्मकाल से जुड़े रहे लोहियावादी योगेंद्र यादव और कानूनी दांवपेच में माहिर प्रशांत भूषण जैसे नेताओं का मानना है कि पार्टी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का लक्ष्य ले कर चली थी, तो अब केवल दिल्ली ही भ्रष्टाचार मुक्त क्यों? जबकि पूरे देश की जनता भष्टाचार से मुक्ति की आस लगाए बैठी है.

चूंकि दिल्ली की जनता ने वोट अरविंद केजरीवाल को ही दिया है, इस आधार पर केजरीवाल और उन के समर्थक, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की हैसियत को तूल देने को तैयार नहीं हैं. अरविंद दिल्ली पर निष्कंटक राज करना चाहते हैं, इसीलिए योगेंद्र और प्रशांत की चिकचिक उन्हें बरदाश्त नहीं. अरविंद समर्थक ‘आप’ नेताओं को लगने लगा कि पार्टी से इन की छुट्टी कर देने से अरविंद केजरीवाल का रास्ता सुगम हो जाएगा और इसीलिए इन दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. 

‘आप’ की तुलना असम गण परिषद से भी की जा सकती है, जो छात्र आंदोलन से पैदा हुई पार्टी है. इस में प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु फुकन एक ही कतार के नेता हुआ करते थे. लेकिन जब प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बने और भृगु फुकन राज्य के गृहमंत्री बने तो दोनों के बीच पहले और दूसरे नंबर के बीच अहं का टकराव शुरू हुआ. नतीजतन, पार्टी और पार्टी के नेता तितरबितर हो गए. नूतन असम गण परिषद और असम गण परिषद (प्रोग्रैसिव) के नाम पर असम गण परिषद बिखर कर रह गया. आज स्थिति यह है कि इन का कोई खास नामलेवा भी नहीं रहा.

‘आप’ के केंद्र में भले ही अरविंद केजरीवाल हों लेकिन भारतीय राजनीति में इसे स्थान दिलाने में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जुड़े सिविल सोसाइटी का अवदान कुछ कम नहीं रहा है. ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक संगठन से खड़ी हुई ‘आप’ में योगेंद्र्र यादव और प्रशांत भूषण सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे जैसे अन्य कई नेता भी अरविंद केजरीवाल के समानांतर कतार में थे. मनभेदमतभेद के बावजूद पार्टी ने चुनाव लड़ा और भाजपा के रणनीतिकारों को जबरदस्त पटखनी दी.

ममतामुकुल के बीच तनातनी

तृणमूल कांग्रेस पार्टी में वर्चस्व के मुद्दे पर ममता बनर्जी व मुकुल राय एकदूसरे के आमनेसामने हैं. लोकसभा चुनाव के बाद मुकुल पार्टी में नंबर 2 की हैसियत से आगे बढ़ कर अपनेआप को पार्टी का रणनीतिकार मान कर सर्वेसर्वा बनने के लिए जोड़तोड़ में लगे हुए थे. मुगालता यह हो चला था कि उन के बिना पार्टी एक कदम नहीं चल सकेगी. मुकुल राय, कबीर सुमन प्रकरण भूल गए और पार्टी गठन करने का श्रेय लेते हुए यहां तक कह डाला कि पार्टी के असली संस्थापक वे खुद हैं. ममता ने बहुत बाद में पार्टी की सदस्यता ली. ममता पर भला यह धौंस कैसे चलती. ममता बनर्जी ने पार्टी से मुकुल राय का पत्ता ही साफ कर दिया और दूसरे नंबर के नेता के रूप में अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी का अभिषेक कर दिया. सब से पहले ममता ने अभिषेक बनर्जी को पार्टी में शामिल किया. फिर लोकसभा चुनाव में डायमंड हार्बर से पार्टी का टिकट दिया. अभिषेक को जीत दिलाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से मैदान में उतारा गया. अभिषेक की जीत से मुकुल राय समेत उन के समर्थकों, तृणमूल के अन्य नेताओं में खलबली मच गई थी.

मुकुल सहित पार्टी के और कुछ नेताओं, जो खुद को अलगअलग स्तर पर दूसरी कतार के नेता मान कर चल रहे थे, को अभिषेक बनर्जी से खतरा नजर आने लगा. बगावत का कीड़ा हिलोरे मारने लगा. ममता बनर्जी पर परिवारतंत्र चलाने का आरोप लगाया जाने लगा. इस बीच, सारदा मामले में सीबीआई में मुकुल की पेशी ने ममता और मुकुल के बीच अविश्वास को और अधिक हवा दी. मुकुल की मंशा भांप कर ममता ने इशारे ही इशारे में धमकाते हुए संदेश भी दिया कि बाघ का नाखून कैसे उखाड़ा जाता है, वे बखूबी जानती हैं पर मुकुल बाज नहीं आए. जाहिर है ममता ने जैसा कहा वैसा कर के दिखाया. पार्टी के तमाम पदों से उन्हें हटा दिया गया और तमाम पद उन्हें दे दिए गए हैं, जो तब तक मुकुल के मातहत थे. फिलहाल मुकुल राज्यसभा से पार्टी के सांसद हैं.

इस से पहले माओवादी समर्थक के रूप में जाने जाने वाले गायकपत्रकार कबीर सुमन न केवल लोकसभा में पार्टी के सांसद थे बल्कि  लोकसभा चुनाव में रिकौर्ड वोटों से उन्होंने जीत दर्ज की थी. लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद ममता द्वारा माओवादियों पर की गई कार्यवाही से, खासतौर पर माओवादी कमांडर किशनजी की धोखे से हत्या के बाद कबीर सुमन के बागी तेवर अपनाने पर पार्टी ने उन से इसी तरह किनारा कर लिया था. लेकिन मुकुल प्रकरण से सिंगूर भूमि अधिग्रहण आंदोलन से उभरे नेता शुभेंदु अधिकारी, जो खुद भी बागी तेवर दिखा रहे थे, मुकुल की दुर्गति देख कर फिलहाल अपने खोल में सिमट गए हैं.

बहरहाल, मुकुल राय को मौका मिल ही गया. पार्टी फंड को ले कर प्रवर्तन निदेशालय तृणमूल से बारबार ब्योरा मांग रही है. पार्टी फंड में जोड़तोड़ का काम अब तक मुकुल राय ही करते रहे हैं. गौरतलब है कि ऐसी कुछ कंपनियों से चंदे का ब्योरा दिया गया है, जिस की सालाना आय महज 5 हजार रुपए है. लेकिन अब चूंकि पार्टी की हर जिम्मेदारी से फारिग हैं मुकुल, इसीलिए प्रवर्तन निदेशालय से निबटने से भी उन्होंने अपना पल्ला झाड़ लिया है. फिलहाल पार्टी का चंदा तृणमूल के गले की फांस बना हुआ है. चर्चा थी कि मुकुल पार्टी से अगर निष्कासित नहीं किए गए तो वे खुद तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा या अन्य किसी पार्टी में शामिल हो जाएंगे. लेकिन हाल ही में भाजपा के बंगाल प्रभारी सिद्धार्थनाथ सिंह ने ऐसी चर्चा पर विराम लगाते हुए साफ कर दिया कि जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं उन को पार्टी में शामिल करने का सवाल ही नहीं उठता. लेकिन इस पर भी, ममता की इस समय सब से बड़ी चिंता यह है कि मुकुल राय तृणमूल कांग्रेस व ममता बनर्जी को किस तरह और कितना बड़ा झटका दे सकते हैं.

भाजपा में हाशिए पर बुजुर्ग नेता

2014 में लोकसभा चुनाव से बहुत पहले भाजपा में खासी उठापठक चली. भाजपा लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ चेहरे को दरकिनार कर के पार्टी नई पीढ़ी के नरेंद्र्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह की तिकड़ी के साथ आई. लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने के बाद बेंगलुरु में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में साफ कर दिया गया कि अगले 2 दशकों तक भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का वर्चस्व रहने वाला है. वैसे बेंगलुरु में नई पीढ़ी के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई एक बार फिर सामने आई. अरुण जेटली का दो फ्रंट पर संघर्ष चल रहा था. एक तरफ सुषमा स्वराज थीं तो दूसरी तरफ राजनाथ सिंह. लोकसभा चुनाव के बाद सुषमा स्वराज को विदेश और अरुण जेटली को वित्त मंत्रालय दे कर दोनों का अहं शांत कर दिया गया. उधर, 2009 से ही अध्यक्ष राजनाथ सिंह और महासचिव अरुण जेटली के बीच पार्टी में अपनीअपनी साख को ले कर तनातनी शुरू हो चुकी थी. लेकिन अब पार्टी में तीसरे नंबर के लिए संघर्ष चल रहा था. राजनाथ और सुषमा स्वराज को पीछे पछाड़ कर अरुण जेटली आगे निकल गए. बेंगलुरु कार्यकारिणी की बैठक में मंच पर अरुण जेटली को स्थान दे कर पार्टी ने इस चर्चा पर विराम लगा दिया. जहां तक पार्टी में तीसरे नंबर का सवाल है तो एक समय ऐसा था जब पार्टी में केवल 2 चेहरे थे. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी. बाद में मुरली मनोहर जोशी को पार्टी का अध्यक्ष बना कर उन्हें तीसरे नंबर का स्थान दिया गया पर अब वे हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. वैसे 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और गोविंदाचार्य के बीच भी रस्साकशी तब खुल कर सामने आई जब गोविंदाचार्य ने बयान दे डाला कि वाजपेयी तो पार्टी का मुखौटा मात्र हैं. हालांकि इस बयान की कीमत गोविंदाचार्य को चुकानी पड़ी और उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता नापना पड़ा.

भाजपा में सत्ता संघर्ष की और भी मिसालें हैं. गुजरात में 2001 में आए भुज भूकंप के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल और नरेंद्र मोदी की तनातनी जगजाहिर है. इस में केशुभाई पटेल को नरेंद्र मोदी के हाथों मात खानी पड़ी. शंकर सिंह वाघेला भी भाजपा में एक ऐसा ही नाम है, जिन्हें पार्टी में नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद रास नहीं आ रहा था. तब भाजपा से अलग हो कर उन्होंने राष्ट्रीय जनता पार्टी का गठन किया. बाद में कांग्रेस में जा शामिल हुए. अब वापस भाजपा में लौटने का जुगाड़ बैठा रहे हैं.भाजपा की साध्वी नेत्री उमा भारती को रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान फायर ब्रैंड की पदवी क्या मिल गई, पार्टी में उन्हें अपने वर्चस्व का मुगालता हो गया. 2004 में भाजपा की उच्चाधिकार समिति की बैठक में खुलेआम लालकृष्ण आडवा णी को खूब खरीखोटी सुनाईं और दनदनाती हुई भरी सभा से बाहर निकल गई थीं. ऐसे में भला आडवाणी बरदाश्त क्यों करते. जल्द ही पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया. वर्षों बाहर रहने के बाद उमा फिर भाजपा में आईं. 

कांग्रेस में जोरआजमाइश

कांग्रेस की बात करें तो समयसमय पर कई नेताओं ने जोर आजमाइश की. राजीव गांधी की हत्या के बाद शरद पवार और अर्जुन सिंह को पटखनी दे कर नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. सत्ता संघर्ष को तब जा कर विराम लगा जब शरद पवार को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया गया और रूठे अर्जुन सिंह ने खुद ही पार्टी छोड़ दी. पर नरसिम्हा राव को कुरसी की ऐसी लत लग गई कि वे अपनेआप को सर्वेसर्वा समझने लगे. तब नेहरू परिवार के एकनिष्ठ नेताओं के बीच सोनिया गांधी को लाने की सुगबुगाहट शुरू हो गई. नतीजतन, धीरेधीरे नरसिम्हा राव में असुरक्षा की भावना घर करती गई. पार्टी में अपनी साख बनाए रखने के लिए नरसिम्हा राव ने हवाला और झारखंड मुक्ति मोरचे के सांसदों को खरीदने का तिकड़म शुरू किया. इसी बीच, बाबरी मसजिद कांड, सैंट किड्स कांड, लक्खूभाई पाठक कांड ने उन की छवि एक ऐसे नेता की बना दी जो अपनी कुरसी बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.

उधर, 1994 में नरसिम्हा राव से मतभेद के कारण अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया, नारायण दत्त तिवारी, शरद पवार, पी ए संगमा, नटवर सिंह, पी चिदंबरम जैसे नेता भी पार्टी से अलग हो गए. इस दौरान राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस तिवारी, मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस, इंदिरा कांग्रेस नाम से कई अलग पार्टियां भी बनीं. 1996 का चुनाव कांग्रेस हार गई. अब कमान संभालने आए सीताराम केसरी. सीताराम केसरी पार्टी में अपना वर्चस्व बनाने में लग गए. उन की महत्त्वाकांक्षा जोर मारने लगी. तब सोनिया गांधी ने कमान संभाली.

पिछले दिनों ‘आप’ में जो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ हुआ, कुछ ऐसा ही कांग्रेस में सीताराम केसरी के साथ हुआ था. केसरी पर लगातार इस्तीफा देने का दबाव बनाया जा रहा था. वैसे तो केसरी चुने हुए अध्यक्ष थे, लेकिन दबाव के कारण उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना ही लिया. पर इस्तीफा वे कांग्रेस के अधिवेशन में ही देने को अड़ गए. चूंकि इस में इस्तीफा नामंजूर होने का अंदेशा था, इसीलिए एक दिन अचानक केसरी की ओर से इस्तीफे की पेशकश की खबर अखबारों में प्रकाशित हो गई. माना जाता है ऐसा सोचीसमझी रणनीति के तहत किया गया था और बगैर अध्यक्ष की अनुमति के कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुला ली गई. बैठक में पार्टी के संविधान की धारा 19 (जे) के तहत प्रणब मुखर्जी ने पार्टी में केसरी की सेवा के लिए उन का आभार प्रकट करना शुरू किया. केसरी ने इस का विरोध किया, तब उन्हें डपट कर बिठा दिया गया. इस तरह बेइज्जत कर के सीताराम केसरी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाया गया.

दक्षिण की राजनीति में टकराव

जहां तक अहंकार के टकराव का सवाल है तो इस की मिसाल दक्षिण में भी कुछ कम नहीं है. दक्षिण भारत की राजनीति के शिखर पुरुष एन टी रामाराव और एम जी रामचंद्रन के बाद इन की पार्टी में भी वर्चस्व की लड़ाई का अपना इतिहास रहा है. अरविंद केजरीवाल की तरह एन टी रामाराव और रामचंद्रन गैरराजनीतिक व्यक्तित्व थे. इसीलिए राजनीति में आए तो अपने साथ साफसुथरी छवि वाले लोगों को ले कर आए. आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव की बीमारी का लाभ उठा कर उन के विरोधी भास्कर राव ने और फिर उन के दामाद ने रामाराव का तख्ता पलट दिया.

गौरतलब है कि रामाराव पर शोध करने वाली छात्रा लक्ष्मी पार्वती बाद में उन की पत्नी बनी. यह बात पहले ही बेटे और दामाद को नागवार लगी थी. रामाराव के बाद लक्ष्मी पार्वती और चंद्र्रबाबू नायडू के बीच तेलुगूदेशम पार्टी की विरासत को ले कर टकराव तेज हुआ. आखिरकार, रामाराव की विरासत पर चंद्र्रबाबू का कब्जा हो गया और पार्वती को किनारे कर दिया गया. वहीं, तमिलनाडु में अन्ना मुनेत्र कषगम के एम जी रामचंद्र्रन के बाद उन की पत्नी जानकी रामचंद्रन और जे जयललिता के बीच भी सत्ता को ले कर टकराव शुरू हुआ. कहते हैं गांधीजी से प्रभावित हो कर रामचंद्रन कांग्रेस से जुड़े थे. लेकिन बाद में करुणानिधि के द्र्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) में चले गए. लेकिन जब करुणानिधि अपने बेटे एम के मुथु को आगे लाने की जोड़तोड़ करने लगे तो रामचंद्र्रन अपने को पार्टी में उपेक्षित महसूस करने लगे. तब उन्होंने पार्टी पर भ्रष्टाचार का बोलबाला होने का आरोप लगा कर पार्टी के दिग्गज नेताओं व मंत्रियों को अपनी संपत्ति का खुलासा करने को कहा. इसे पार्टी विरोधी गतिविधि मान कर रामचंद्र्रन को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

कामराज के शिक्षा सुधार और अन्नादुरई द्वारा उठाई गई सामाजिक विसंगतियों, गरीबी, भाषाई आंदोलन से प्रभावित रामचद्र्रन ने तमिल अस्मिता का मुद्दा ले कर 1972 में औल इंडिया अन्ना द्र्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी का गठन किया. लेकिन रामचंद्रन के बाद उन की पत्नी जानकी रामचंद्रन और जे जयललिता के बीच उन के उत्तराधिकारी को ले कर जंग छिड़ गई. आखिरकार जानकी गुमनाम हो गईं और पार्टी की विरासत जयललिता के पास रह गई. 

उद्धव ने राज के काटे पर

सत्ता संघर्ष का ऐसा ही वाकेया उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का है. शिवसेना में रहते हुए राज ठाकरे चाचा बालासाहेब ठाकरे के सामने उन के बेटे उद्धव ठाकरे की नेतृत्व क्षमता को ले कर सवाल उठाते रहे. लेकिन बावजूद इस के, बालासाहेब ठाकरे ने उद्धव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. जबकि उद्धव, राज ठाकरे की तुलना में राजनीति में नए थे. वहीं, शिवसैनिकों का बड़ा हिस्सा राज ठाकरे में बालासाहेब की परछाईं देखा करता था. इसीलिए राज ठाकरे अपनेआप को बालासाहेब के उत्तराधिकारी के रूप में देख रहे थे. पर बालासाहेब ने राज ठाकरे को झटका दिया और उद्धव को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी. तब राज ठाकरे ने बालासाहेब पर अपनी अनदेखी करने और पक्षपात करने का आरोप लगाया. बालासाहेब ठाकरे ने इसे पार्टी में बगावत के रूप में लिया. इस के बाद 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उद्धव ने राज ठाकरे को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया. आखिरकार, 2006 में राज ठाकरे शिवसेना से अलग हो गए और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया.

किस्से और भी हैं

बिहार में जीतनराम मांझी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण वर्चस्व के लिए उठापटक की एक और ताजा मिसाल है. लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड के खराब नतीजे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे कर जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन नीतीश कुमार का आरोप रहा कि पार्टी में रहते हुए मांझी का झुकाव भाजपा और आरएसएस की ओर है. वहीं, मांझी ने नीतीश पर रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाने का आरोप लगाया. दोनों के बीच जोरआजमाइश बढ़ती रही. इस प्रकरण में आखिरकार जीतनराम मांझी को किनारा करना पड़ा. ये वही नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने कभी पार्टी के बुजुर्ग नेता व संस्थापक जौर्ज फर्नांडीस का कद छोटा किया था. माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद पार्टी के कई दिग्गज नेताओं को किनारे कर के प्रकाश करात महासचिव बने. लेकिन आज पार्टी के घटते जनाधार को ले कर पोलित ब्यूरो नेता सीताराम येचुरी और प्रकाश करात के बीच चल रहे वैचारिक मतभेद आम हैं.

इन तमाम मिसालों से साफ है कि शीर्ष नेतृत्व या पार्टी का चेहरा बने रहने के लिए जोड़तोड़ करने वाले नेता भूल जाते हैं कि व्यक्ति से बड़ी पार्टी हुआ करती है और समय से बड़ा बलवान कोई नहीं. समय के झोंके में अच्छेअच्छे बह जाते हैं. दरअसल, दुनिया में किसी भी राजनीतिक पार्टी का अस्तित्व नहीं है जो व्यक्तिकेंद्र्रित हो कर रह जाए. तमाम राजनीतिक पार्टियों में हमेशा से अंदरूनी कलह, टूटफूट, टूटनेजुड़ने का सिलसिला चलता रहता है. बावजूद इस के, मंच (पार्टी) वही रहता है और किरदार बदलते रहते हैं. वह राजनीतिक किरदार कितना सशक्त है, यह एक हद तक पार्टी के अंदर कार्यकर्ताओं और पार्टी से बाहर जनसमर्थन पर निर्भर करता है.

१४०० साल पुराने इसलाम को लागू करने की जिद पर खूनी खेल

इराक और सीरिया के  एक हिस्से पर बना स्वतंत्र राष्ट्र आईएसआईएस या इसलामिक राज्य दुनिया में हैवानियत का दूसरा नाम बन गया है. हर नया दिन उस की नृशंसता की रोंगटे खड़े कर देने वाली नई कहानी ले कर आता है. कभीकभी तो लगता है कि वह क्रूरता की सारी हदें पार करता जा रहा है. तालिबान, अलकायदा, बोको हरम, अलशहाबा आदि इसलामी आतंकी संगठनों की क्रूरता और जुल्म की मिसालें शायद काफी नहीं थीं, इसलिए आतंकवादी चरम क्रूरता की नई मिसाल ले कर आए हैं- आईएसआईएस या इसलामिक राज्य. इस आतंकी संगठन की क्रूरता इराक और सीरिया तक ही सीमित थी लेकिन अब वह उसे अंतर्राष्ट्रीय बना रहा है.

यमन में 2 मसजिदों पर आत्मघाती हमले कर आईएस ने 140 लोगों की हत्या की और 269 लोगों को जख्मी किया. इस से एक दिन पहले उस ने ट्यूनीशिया में 20 विदेशियों की हत्या की. विख्यात लेखक वी एस नायपाल ने हाल ही में लिखा है, ‘‘आईएस नया नाजी राज्य बनता जा रहा है. इसे खत्म करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलजुल कर कोशिश की जानी चाहिए,’’ कहना न होगा कि कई सुपर पावर कहलाने वाले देशों का गठबंधन इस तरह की नाकाम कोशिश कर चुका है.  आईएस की हैवानियतभरी हरकतों की मुसलिम जगत में तीखी आलोचना हो रही है. कुछ अरसे पहले दुनिया के 126 मुसलिम धर्मशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों ने खलीफा बगदादी को खुली चिट्ठी लिख कर इसलामिक राज्य की करतूतों की कड़ी निंदा की है. इस से पहले मिस्र की एक प्रमुख मसजिद के इमाम भी इसलामिक राज्य को मुसलिम विरोधी बता चुके हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि इसलामिक राज्य गैर इसलामिक है. ओबामा इस आंदोलन को ले कर वही बात बोल रहे हैं जो राजनीतिक तौर पर सुविधाजनक हो. इस संगठन की सोच और रणनीति को न समझ पाने के कारण ही तमाम देश मिल कर भी इस संगठन का बाल बांका नहीं कर पाए, नतीजतन वह फलताफूलता जा रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से पश्चिमी देशों में उस का गंभीरता से अध्ययन हो रहा है. आखिरकार, दुनियाभर के देशों से लाखों लड़ाकों को आकर्षित करने वाले आईएस या इसलामिक राज्य संगठन में कोई तो बात है जो दुनियाभर के दर्जनों देशों के लोग अपनी जान जोखिम में डाल कर वहां खिंचे चले जा रहे हैं.

शुद्ध इसलाम और धर्मद्रोह

आईएस द्वारा जारी वीडियो उस की पत्रिका ‘दबिक’ और अन्य प्रचार साहित्य को पढ़ने पर एक बात उभर कर आती है कि वह शुद्ध इसलाम या इसलाम के मूलरूप पर विश्वास करता है. उस का मानना है कि इसलाम के 1400 साल पहले की पहली पीढ़ी यानी मोहम्मद और उन के साथियों की सोच और तरीके ही शुद्ध इसलाम हैं. इस में किसी तरह का संशोधन करने का मतलब है कि आप इसलाम के मूलरूप की शुद्धता पर विश्वास नहीं करते. यह धर्मद्रोह है और धर्मद्रोह की इसलाम में एक ही सजा है-मौत. अपने इस नजरिए के कारण आईएस लोकतंत्र, समाजवाद, फासीवाद आदि आधुनिक विचारधाराओं को नकारता है. उस का मानना है कि इसलाम की पहली पीढ़ी ने जो व्यवस्थाएं स्थापित कीं वे ईश्वरीय हैं जबकि अन्य व्यवस्थाएं  मानवनिर्मित हैं. वह इन मानवनिर्मित व्यवस्थाओं को पूरी तरह से नकारता है. यही वजह है कि वह उन इसलामवादी दलों को भी गुनाहगार मानता है जो चुनाव में हिस्सा लेते हैं. आईएस केवल ईश्वरीय व्यवस्था यानी शुद्ध मोहम्मदी इसलाम में विश्वास करता है, जिस के 2 स्तंभ हैं, खिलाफत और ईश्वरीय कानून शरीया. इन्हें वह ठीक उस तरह लागू करना चाहता है, जैसे मोहम्मद और उन के साथियों ने अपने समय में लागू किया था.

पहली पीढ़ी के इसलाम की बात केवल इसलामी राज्य ही नहीं तालिबान, बोको हरम आदि कई संगठन भी मानते हैं. बोको हरम के नेता शेकू ने कहा था कि वे नाइजीरिया में चुनाव नहीं होने देंगे क्योंकि वे जनता द्वारा जनता की और जनता के लिए बताए जाने वाले लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते बल्कि ईश्वर की, ईश्वर द्वारा चलाई जाने वाली सरकार में विश्वास करते हैं. वे हर तरह की आधुनिक व्यवस्था के खिलाफ हैं. बोको हरम का मानना है कि पश्चिमी शिक्षा वर्जित है. हाल ही में जानीमानी अमेरिकी पत्रिका ‘एटलांटिक’ में अमेरिकी प्रोफैसर ग्राहम वुड का इसलामिक राज्य पर लिखा लेख बौद्धिक हलकों में चर्चा का केंद्र रहा. इस में वे कहते हैं कि इस में मध्यपूर्व और यूरोप के बहुत से मनोविक्षिप्त और दुस्साहसी लोग शामिल हो गए हैं लेकिन इस के ज्यादातर अनुयायी इसलाम के गहन अध्ययन पर आधारित भाष्यों को मानते हैं. इसलामिक राज्य द्वारा किए गए हर फैसले और कानून में वे पैगंबर के तौरतरीकों को अपनाते हैं. यानी मोहम्मद की भविष्यवाणियों और उदाहरणों का पूरी तरह से पालन करते हैं. मसलन, आईएस की औनलाइन पत्रिका का नाम दबिक है. दबिक वह जगह है जिस के बारे में मोहम्मद ने भविष्यवाणी की थी कि इसलाम की सेनाओं का रोम की सेनाओं से आखिरी युद्ध होगा.

ग्राहम वुड कहते हैं कि असल में अगर हम इसलामिक स्टेट जैसी प्रवृत्ति से लड़ना चाहते हैं तो इस के बौद्धिक विकास को समझना होगा. इसलाम में तकफीर यानी बहिष्कार की अवधारणा है जिस के तहत एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को धर्मद्रोही कह कर गैर मुसलिम करार दे सकता है. हर वह मुसलिम धर्मद्रोही भी है जो इसलाम में संशोधन करता है. कुरान या मोहम्मद के कथनों  को नकारना पूरी तरह से धर्मद्रोह माना जाता है लेकिन  इसलामिक राज्य ने कई और मुद्दों पर भी मुसलमानों को इसलाम से बाहर निकालना शुरू कर दिया है. इस में शराब, ड्रग बेचना, पश्चिमी कपड़े पहनना, दाढ़ी बनाना, चुनाव में वोट देना और मुसलिमों को धर्मद्र्रोही कहने में आलस बरतना आदि बातें शामिल हैं. इस आधार पर शिया और ज्यादातर अरब धर्मद्र्रोह के निष्कर्ष पर खरे उतरते हैं. शिया होने का मतलब है इसलाम में संशोधन करना और आईएस के अनुसार, कुरान में कुछ नया जोड़ने का मतलब है उस की पूर्णता को नकारना. शियाओं में जो इमामों की कब्र की पूजा करने और अपने को कोड़े मारने की परंपरा है उस की कुरान या मोहम्मद के व्यवहार में कोई मिसाल नहीं मिलती. इसलिए धर्मद्रोही होने के कारण करोड़ों शियाओं की हत्या की जा सकती है. यही बात सूफियों पर भी लागू होती है.

इसी तरह मुसलिम देशों के प्रमुख भी धर्मद्र्रोही हैं जिन्होंने दिव्य माने जाने वाले इसलामी कानून शरीया के बावजूद मनुष्यनिर्मित कानून बनाया और उसे लागू किया. इस तरह इसलामिक राज्य या आईएस इस विश्व को शुद्ध करने के लिए बड़े पैमाने पर लोगों की हत्या करने के लिए प्रतिबद्ध है. उस के नजरिए से जो भी मूल इसलाम में संशोधन करता है वह धर्मद्रोही है, इसलिए हत्या ही उस का दंड है. इसलिए इसलामिक राज्य 1-2 हत्याएं लगातार और सामूहिक हत्याकांड हर कुछ हफ्तों में करता रहता है. कथित मुसलिम धर्मद्रोही ही ज्यादातर उन के शिकार बनते हैं.

कुरान में जो युद्ध के नियम बताए गए और इसलामिक राज का जो वर्णन है उस का इसलामिक राज्य के लड़ाके पूरी ईमानदारी और श्रद्धा से पालन कर रहे हैं. इन में से बहुत सी बातें ऐसी हैं जिन के बारे में आधुनिक मुसलमान मानते हैं कि यह उन के धर्म का अपरिहार्य अंग नहीं है. गुलामी, सूली चढ़ाना, सिर कलम करना आदि मध्ययुगीन बातें हैं जिन्हें इसलामी राज्य के लड़ाके थोक के भाव में आज के जमाने में ले आए हैं. कुरान में साफतौर पर इसलाम के शत्रुओं के लिए सूली पर चढ़ाना एकमात्र दंड बताया गया है. ईसाइयों के लिए जजिया और इसलाम के वर्चस्व को स्वीकार करने का प्रावधान किया गया है. ये नियम मोहम्मद ने लागू किए हैं. इसलामिक राज्य के नेता, जो मोहम्मद का अनुसरण करना अपना कर्तव्य मानते हैं, ने इन दंडों को फिर लागू किया. इसलाम की पहली पीढ़ी ने जो भी किया वह ईश्वरीय था, यह मान कर लकीर का फकीर बन कर उस समय की हर चीज को आईएस लागू कर रहा है. उस ने गुलामी को पुनर्जीवित किया तो कुछ लोगों ने विरोध जताया लेकिन इसलामिक राज्य ने कोई अफसोस जताए बगैर गुलामी और सूली पर चढ़ाना जारी रखा. पत्रिका  दबिक में तो गुलामी की पुनर्स्थापना पर एक पूरा लेख लिखा है. इस लेख में लिखा गया था, ‘यजदी महिलाओं और बच्चों को शरीया के मुताबिक सीरिया में भाग लेने वाले लड़ाकों के बीच बांट दिया गया है. काफिरों के परिवारों को गुलाम बना कर उन की महिलाओं को रखैल बनाना शरीया का स्थापित हिस्सा है. अगर कोई कुरान की इन आयतों और मोहम्मद की बातों को नकारेगा या उन का मजाक उड़ाएगा तो इसलाम का द्रोही होगा.’

शरीया कानून

बाकी इसलामी संगठनों और इसलामी राज्य संगठन में एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि उस ने  ब्रिटेन से भी ज्यादा क्षेत्रफल वाला स्वतंत्र देश स्थापित कर लिया है. खिलाफत की स्थापना के लिए यह जरूरी है. इस कारण दुनियाभर की खिलाफत की स्थापना चाहने वालों को बगदादी द्वारा अपने को खलीफा घोषित करने पर खुशी हुई. पिछली खिलाफत आटोमन साम्राज्य थी जो 16वीं शताब्दी में अपनी कीर्ति के शिखर पर पहुंची. 1924 में तुर्की के तानाशाह कमाल अता तुर्क ने उसे खत्म कर दिया. इसलामी राज्य के समर्थक उसे वैध खिलाफत नहीं मानते क्योंकि उस ने पूरी तरह से शरीया कानून लागू नहीं किया था जिस में गुलामी, पत्थर मार कर हत्या करना और शरीर के अंग काटना आदि भी शामिल है. बगदादी ने मोसुल में दिए अपने भाषण में खिलाफत के महत्त्व पर प्रकाश डाला था. उस ने कहा कि संस्था ने पिछले 1 हजार साल से कोई काम नहीं किया. खलीफा का एक दायित्व शरीया को लागू करना है. इसलामी राज्य के कुछ समर्थक मानते हैं कि अब तक शरीया को आधेअधूरे तरीके से लागू किया गया, जैसे सऊदी अरब में सिर कलम कर दिया जाता है और चोर के हाथ काट दिए जाते हैं. इस तरह से अपराध कानून लागू किया जाता है लेकिन शरीया के सामाजिक व आर्थिक न्याय को लागू नहीं किया जाता. शरीया, उन के अनुसार, एक पूरा पैकेज है. उसे पूरा लागू न करने से उस के प्रति नफरत फैलती है. खलीफा का दूसरा काम है हमलावर के खिलाफ जिहाद शुरू करना. इस का मतलब है गैरमुसलिमों द्वारा शासित देशों में जिहाद को फैलाना. खिलाफत का विस्तार करना खलीफा का कर्तव्य है.

इस तरह इसलामी राज्य के समर्थक लोगों को इसलाम की 1400 साल पुरानी दुनिया में ले जाना चाहते हैं जहां  ईश्वरीय कानून शरीया पूरी तरह से लागू होगा. एक इसलामी राज्य के समर्थक का बयान अखबार में छपा था कि ईश्वरीय कानून यानी शरीया में जीने का अपना आनंद है. इसी आनंद का आस्वाद लेने के लिए दुनिया के कई देशों के लाखों मुसलमान वहां पहुंच रहे हैं. यह बात अलग है कि बाकी लोग इसलामी राज्य की करतूतों को हैवानियत मानते हैं. यह भी अलग बात है कि इसलामिक राज्य के मुखिया आधुनिक तकनीक का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं. यदि वे 1400 साल पहले जाना चाहते हैं तो उन्हें बंदूकें, गाडि़यां, टैंक, टैलीफोन, वायरलैस, कंप्यूटर, पैट्रोल, प्लास्टिक, दवाएं यानी हर चीज जो 1400 साल पहले नहीं थी, छोड़नी चाहिए. घोड़ों और भेड़ों के बल पर इसलामिक राज्य 2 दिन चल कर चलाएं तो. इस मामले में दूसरे धर्मों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो 2000, 2500 या उस से पुराने धर्म को उसी रूप में थोपने की कोशिश करते हैं पर कौपीकिताबों, वीडियो, आधुनिक हथियारों, तकनीक के बल पर.

‘माई चौइस’ वीडियो : औरतों में आजादी की छटपटाहट

पुराना फलसफा है कि अरे, वह ऐसा कैसे कर सकती है, वह तो औरत जात ठहरी. औरतों की आजादी, उन की मरजी, उन के अपने हक की बात कहने पर सदियों से पहरा रहा है. जब भी कोई महिला अपनी आजादी की बात करती है तो समाज के उस वर्ग में हलचल मच जाती है जो महिलाओं को आज भी अपनी मरजी के अनुसार चलाना चाहता है, उन पर अपना रूढि़वादी व सामंतवादी रवैया बनाए रखना चाहता है. कुछ ऐसी ही हलचल एक पत्रिका के लिए होमी अदजानिया निर्देशित वीडियो ‘माई चौइस’ के रिलीज होते ही पूरे देश में मची. इस वीडियो में बौलीवुड अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का वौयसओवर है.

इस वीडियो में दीपिका अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की आजादी का संदेश देती दिखाई दी हैं. वे कहती हैं :

‘‘मैं शादी करूं या न करूं, मेरी मरजी.

शादी से पहले सैक्स करूं या शादी के बाद भी किसी से रिश्ता रखूं, मेरा मन.

किसी पुरुष से प्यार करूं या महिला से या फिर दोनों से, मेरी मरजी.

मुझ से जुड़े सारे फैसले मेरे हैं, यह मेरा हक है.’’

ब्लैक ऐंड व्हाइट कलर में शूट किया गया यह वीडियो नारी सशक्तीकरण की राह में दीपिका की ओर से एक जबरदस्त कदम माना जा रहा है. इस वीडियो ने देशभर में तहलका मचाया. कुछ लोग इस के पक्ष में बोले तो कइयों ने इस के खिलाफ झंडा उठा लिया. कहने को हम आजाद हैं पर इस देश की महिलाएं आज भी सामाजिक, कानूनी बंदिशों की बेडि़यों में जकड़ी हुई हैं और आजादी के लिए छटपटा रही हैं. जहां एक ओर दीपिका का यह वीडियो माई चौइस मेरी मरजी की बात करता है वहीं देश की अधिकतर महिलाएं जो बद से बदतर जिंदगी गुजार रही हैं, उन के पास कोई चौइस नहीं है. पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में एक 16 साल की लड़की से उस के पिता, भाई और चाचा 2 साल तक बलात्कार करते रहे. इस बीच वह 2 बार प्रैग्नैंट भी हुई. जब मदद की आस में अपनी मां को बुलाया तो मां ने कहा, ‘वे तुम्हारे बाप, चाचा और भाई हैं, कोई गैर नहीं.’

जिन 2 सालों के दरम्यान यह मासूम इस हैवानियत से गुजर रही थी, शायद उसी दरम्यान सोशल मीडिया के धुरंधर महिला स्वतंत्रता, नारी सशक्तीकरण और दीपिका के ‘माई चौइस’ वीडियोनुमा विज्ञापन बनाने में व्यस्त रहे होंगे. बिना इस बात की परवा किए कि सताई जा रही औरतें जिन कालकोठरियों में सड़ रही हैं, वहां न तो यूट्यूब पहुंचता है न ‘माई चौइस’ का जुमला. और हां, जैसा कि अंगरेजी में कहावत है, ‘स्लेव्स हैव नो चौइस’ की तर्ज पर दीपिका की तरह सब के पास अपनी चौइस का विकल्प नहीं है. पुरुष प्रधान समाज और पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देते महिला सुधारवादी संगठन, फिल्मकार होमी अदजानिया जैसे निर्देशक, आधुनिक महिला लेखिकाएं, अभिनेत्रियां और एंटरप्रेन्योर शायद यह भूल जाते हैं कि नारी स्वतंत्रता या समानता में रुकावट के लिए सिर्फ आदमी या औरत जिम्मेदार नहीं, बल्कि सालों पुरानी धर्मजनित शिक्षा, प्रचलित कुरीतियां, सामंतवाद और जातिवादी व्यवस्था है. वरना जलपाईगुड़ी के मामले में अगर घर के पुरुष बलात्कार कर रहे थे तो उस की मां उन्हें समर्थन दे कर उस का दोहरा मानसिक व शारीरिक बलात्कार कर रही थी. इसलिए बजाय पुरुष बनाम महिला की बहस के, समस्या की जड़ पर गौर फरमाया जाए और न सिर्फ गौर बल्कि उसे जड़ समेत उखाड़ा जाए वरना ‘माई चौइस’ का जुमला सिवा फिल्मी फैंटेसी के और कुछ हो ही नहीं सकता.

हालांकि ऐसे प्रयास गलत नहीं हैं लेकिन अगर ये संदेश ग्लैमरस जमीन से हट कर वास्तविकता के धरातल पर उन लोगों तक भी पहुंचें, जिन्हें इन की जरूरत है तो शायद ‘माई चौइस’ के मतलब सही समझ आएं. बहरहाल, दीपिका के इस वीडियो से बहस के अंगार को हवा जरूर मिल गई है. दीपिका का यह वीडियो, जितना सोचा गया था उस से कहीं ज्यादा हंगामा कर गया. इस के बड़ी मजेदार प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. इस का असर इस बात से समझा जा सकता है कि दीपिका के ‘माई चौइस’ वीडियो आने के 1 दिन बाद ही पुरुषों का ‘माई चौइस’ वीडियो भी बाजार में आ गया. इस में दीपिका के बहाने तमाम आजादीपसंद लड़कियों को निशाना बनाते हुए लड़कियों की जम कर खिल्ली उड़ाई गई. कुतर्कों के साथ कहा गया कि महिलाओं की चौइस हो सकती है तो पुरुषों की क्यों नहीं? कुछ लोगों ने तो आपत्तिजनक कमैंट्स भी किए. अभिनेता कमाल आर खान ने भी महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया.

फिगर को ले कर उठे सवाल

दीपिका की जिस बात को महिलाओं का सब से ज्यादा समर्थन मिला वह थी, ‘मेरा साइज जीरो हो या साइज 15, इट्स माई चौइस.’ और ऐसा हो भी क्यों न, फिगर मेंटेन के लिए लड़कियों को कितने जतन करने पड़ते हैं यह पुरुष क्या जानें. महिलाओं का शरीर समाज के सांचे के मुताबिक नहीं ढला है और इस के लिए उस को मजाक, हीनभावना, बेइज्जती न जाने क्याक्या सहना पड़ता है. शादी करनी हो, इस के लिए भी लड़की का फिगर अच्छा होना जरूरी है. मोटी लड़की को कोई पसंद नहीं करता. कोई लड़का उसे अपनी गर्लफ्रैंड नहीं बनाना चाहता. प्रैग्नैंसी में एक महिला का शरीर किस कदर बदलता है, यह वही जान सकती है. पुरुष उस पीड़ा को नहीं समझ सकते.

सैक्स आउटसाइड मैरिज

सैक्स पर बात करना भारतीय समाज में खतरे से खाली नहीं है. फिर दीपिका ने तो सैक्स आउटसाइड मैरिज यानी शादी के बाद पति के अलावा किसी और से भी मरजी से सैक्स का मामला उठाया है. इस पर सब से तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. पुरुष ही नहीं, महिलाओं की ओर से भी इस पर सवाल उठाए गए. कमाल आर खान ने तो दीपिका और ‘माई चौइस’ डायरैक्टर होमी अदजानिया की व्यक्तिगत जिंदगी पर भी आपत्तिजनक बातें कीं और कहा कि अगर आप की शादी के बाद आप का पार्टनर किसी और से सैक्स करे तो आप को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए.  वैसे बता दें कि शादी के बाद पत्नी से जबरदस्ती करने पर पति पर रेप का आरोप भी लग सकता है, इसलिए चाहे शादी के पहले प्रेम संबंध हों या शादी के बाद, साथी की इच्छा भी महत्त्वपूर्ण होती है. शादी के बाद पति के अलावा किसी और से सैक्स करने के कानूनी ही नहीं, नैतिक पहलू भी हैं जिन्हें ज्यादातर समाजों में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता. इस सवाल पर सब से ज्यादा बहस की जरूरत है.

गोरे रंग की दीवानगी

सांवली दीपिका जब अपनी पसंद के लड़के की बात करती हैं तो वे समाज की गोरे रंग के प्रति संकीर्ण सोच को भी दुत्कारती हैं और उस लड़के को अपनी पसंद बताती हैं जिस के मातापिता या वह लड़का खुद उस का रंग नहीं, बल्कि उस के गुण और प्रतिभा को देख कर उसे पसंद करे. गोरे रंग को ले कर भारत ही नहीं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे देशों में भी दीवानगी देखी जाती है. हमारे सिर पर सीधे सूरज गिरने के कारण हमारा रंग काला होना स्वाभाविक है. अत्यधिक ठंडे देशों में रहने वाले गोरे रंग के लोगों को देख कर हमारे मन में हीनभावना आखिर क्यों पैदा हो जाती है? जदयू नेता शरद यादव ने संसद में गोरे रंग के प्रति भारतीयों की दीवानगी को ले कर टिप्पणी की थी और दक्षिण भारत की महिलाओं को सांवली लेकिन उन के फिगर को खूबसूरत बताया था, जिस पर विवाद भी हो गया था. हालांकि उन का तर्क सही था लेकिन उदाहरण गलत हो सकता है. इस के अलावा भारतीय जनता पार्टी नेता गिरिराज सिंह का सोनिया गांधी पर दिया गया बयान काफी हद तक नस्लभेदी था. उन्होंने कहा था-अगर राजीव गांधी नाइजीरियन महिला से शादी करते तो उन्हें इतना सम्मान और पद नहीं मिल पाता जो सोनिया को मिला. इस पर नाइजीरिया के राजदूत ने आपत्ति भी जताई थी.

आम भारतीय की सोच बहू को ढूंढ़ते वक्त दिए गए विज्ञापनों में देखी जा सकती है जिस में साफ लिखा होता है कि गोरी लड़की चाहिए. हमारी सोच का एक और नमूना टीवी पर आने वाले फेयरनैस क्रीम, फेसवाश और पाउडर के विज्ञापनों में भी झलकता है. भाजपा की ओर से दिल्ली की सीएम कैंडिडेट रहीं किरन बेदी वैसे तो महिला सशक्तीकरण की आदर्श मानी जाती हैं लेकिन वे भी फेयरनैस क्रीम का विज्ञापन कर चुकी हैं.

पुरुषों को लगी मिरची

दीपिका के इस वीडियो का असर उम्मीद से कहीं ज्यादा देखने को मिला. एक तरह से इसे नैगेटिव पब्लिसिटी ज्यादा मिली. सोशल मीडिया में लड़के अजीबोगरीब तर्क देने लगे कि हम भी अपनी मरजी कर सकते हैं. पर समाज में तो सदियों से पुरुषों की ही मरजी चली आ रही है. इस दौरान अभिनेता गोविंदा पर फिल्माया गया गाना, ‘मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मरजी…’ को खूब शेयर किया गया. इस से यह पता चलता है कि एक सामान्य बात कह देने भर से पुरुषों को कितनी मिर्ची लगती है.

पुरुषवादी सोच से लड़ाई

नारीवाद पुरुषों के खिलाफ नहीं है. यह पुरुषवादी सोच के खिलाफ खड़े होने की बात करता है. यह पुरुषवादी सोच पुरुषों में ही नहीं, महिलाओं में भी हो सकती है. उदाहरण के तौर पर हम ने भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के नेताओं को हिंदू महिलाओं से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करते देखा. इस में महिला नेता भी शामिल हैं. यही पुरुषवादी सोच है और यह सिर्फ जीवनशैली को अपने ढंग से अपनाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि महिलाओं को बराबर के अधिकार, उचित सम्मान दिलाने की भी लड़ाई है.

वीडियो में पुरुषों का मुद्दा

इस वीडियो में पुरुषों के हित की भी बात है. दीपिका जब कहती हैं कि उन की चौइस लड़का हो या लड़की तो वे एक तरह से पुरुषों की भी बात करती हैं. हमारे समाज में ‘गे’ और ‘लैस्बियन’ की मरजी की बात तो छोडि़ए, उन्हें जरूरी सम्मान तक नहीं दिया जाता. दीपिका जब लड़की के साथ लड़की की बात करती हैं तो उस में लड़के के साथ लड़के की भी बात छिपी होती है. इस वीडियो में इस महत्त्वपूर्ण विषय पर भी चर्चा हो रही है. एक कमजोर ही कमजोर का सहारा बनता है. समाज में न तो लड़कियों को उन की जगह मिली है और न सेम सैक्स करने वालों को. इसलिए ‘माई चौइस’ वीडियो कई पुरुषों के हक में भी खड़ा होता है. महिलाओं की स्थिति पर भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी कहते हैं, ‘‘यह चेतनाशून्य होने की पराकाष्ठा है. हमें पता नहीं कि हम कितना बदल गए हैं. भारत में महिलाओं को मां के रूप में संबोधित करने की परंपरा रही है लेकिन अब मां कहे जाने पर आपत्ति जताई जा रही है. अब आप एक शरीर हैं. एक उत्पाद हैं.’’

अभिव्यक्ति की लड़ाई

दीपिका की तरह अभिव्यक्ति की कुछ ऐसी ही लड़ाई कनाडा के टोरंटो शहर में रहने वाली भारतीय मूल की रूपी कौर ने भी लड़ी. यह लड़ाई रूपी ने इंस्टाग्राम में एक तसवीर पोस्ट कर के लड़ी. तसवीर में वे लेटी हुई थीं और उन के कपड़ों पर लगे खून से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे माहवारी यानी पीरियड से गुजर रही हैं. रूपी की इस तसवीर को इंस्टाग्राम ने कम्युनिटी गाइडलाइन के खिलाफ बताते हुए हटा दिया. लेकिन रूपी कौर ने इंस्टाग्राम के इस फैसले को चुनौती दी और लिखा कि न तो यह तसवीर किसी ग्रुप की भावना को ठेस पहुंचाती है और न ही पौर्नोग्राफी को बढ़ावा देती है. यह कोई स्पैम भी नहीं है, यह मेरी खुद की तसवीर है. उन्होंने तसवीर को दोबारा पोस्ट किया. आखिर इंस्टाग्राम को रूपी कौर से माफी मांगनी पड़ी और माना कि यह तसवीर किसी गाइडलाइन का विरोध नहीं करती. इंस्टाग्राम के खिलाफ अभिव्यक्ति की लड़ाई लड़ने वाली रूपी कौर के इस साहसिक कदम के बाद दुनियाभर में इस पर बहस शुरू हो गई है कि आखिर कब तक माहवारी जैसी प्राकृतिक चीज को अपवित्र माना जाएगा.

एक सच यह भी

औरतों को जागरूक करने की दिशा में काम करने वाले महिला संगठनों में भी औरतें हैं तो वहीं लुटेरी दुलहनों की शक्ल में ठगी का जाल बुनने वाली भी औरतें ही हैं. मौडलिंग व ग्लैमरस फील्ड में बदन की नुमाइश कर विवाहेतर संबंधों को अपना हक व अधिकार समझने वाली भी औरत है तो वहीं पति को सात जन्मों तक सिर्फ उसी को अपना सबकुछ मानने वाली भी औरत ही है. औरत वह भी है जो आज भू्रण हत्या में अपने पति के साथ सहभागिता निभाती है और औरत का एक रूप ऐसा भी है जो नीना गुप्ता की तरह बिना ब्याह के अपनी बेटी को न सिर्फ जन्म देने का तथाकथित समाज विरोधी फैसला करती है बल्कि उसे समाज में इज्जतदार छवि भी देती है. ऐसे ही गांव, कसबे, शहर की औरतों के मिजाज, सामाजिक व्यवस्था व मानसिकता में भेद है तो वहीं आर्थिक आधार पर भी औरतों में असमानता है. घर की मालकिन और उसी घर में झाड़ूपोंछा करने वाली औरतों में भी समानता का अलग गणित काम करता है.

लिहाजा, इन तमाम शक्लों को लिए हुए नारी समाज के लिए पहले यह तय करना होगा कि नारी स्वतंत्रता व समानता के अधिकार के माने वास्तविकता में आखिर हैं क्या? कानूनी या सामाजिक व राजनीतिक आधार पर महिलाओं की स्वतंत्रता का इंसाफ नहीं किया जा सकता. जिस तरह एक सफल उपभोक्ता कंपनी अपने विज्ञापन के जरिए टारगेट कस्टमर या औडियंस का चुनाव कर उचित सुविधा या प्रोडक्ट जरूरतमंद तक पहुंचा कर अपना ध्येय सफल बनाती है, वैसे ही किस समाज व तबके की महिला किस तरह की स्वतंत्रता चाहती है, इस का निर्धारण किए बिना माई चौइस को सब की चौइस कहना अतार्किक व अनैतिक होगा.

आजादी के अलगअलग माने

किसी महिला के लिए आजादी का मतलब कम कपडे़ पहनना व नाइट पार्टी में घूमना हो सकता है तो किसी के लिए बुरके से नजात पाना. कोई घर से निकल कर सिर्फ स्कूल तक पहुंचने को आजादी मानती है तो कोई मौडलिंग की दुनिया में नाम कमाने को आजादी की परिभाषा मानती है. कई महिलाएं तो पुरुषों की सेवा को ही आजादी का नाम देती हैं तो कई आजादी को अपने बदन से जोड़ती हैं. एक मजदूर औरत के लिए स्वतंत्रता के माने किसी से शादी हो जाए, में निहित है तो किसी को शादी की जंजीर से आजाद होने में भी फ्रीडम का फील आता है. जाहिर है, माई चौइस के इतने वर्जन हैं कि कोई भी भ्रमित हो जाए. इसलिए किनारे पर बैठ कर गहराई का अंदाजा लगाने के बजाय पानी में उतरना निहायत जरूरी है.

गुलामी का इतिहास

यह अंदाजा लगाना तो मुश्किल है कि महिलाओं की आजादी और समानता का अधिकार छिनना कब शुरू हुआ होगा लेकिन एक बात मोटेतौर पर समझ आती है कि पौराणिक व धार्मिक ग्रंथों ने हमेशा औरतों को नीचा, पुरुष की संपत्ति व दोयम दरजे की वस्तु के सांकेतिक इशारे किए हैं. इन ग्रंथों को अतार्किक आधार मान कर सामंतवाद व जातिवादी व्यवस्था का उद्भव हुआ और उसी दौरान नारी को दास संपत्ति व भोग्या मानने की मानसिकता का चलन शुरू हुआ. जैसे एक कमजोर तबके, समाज या पुरुष वर्ग को शूद्र की श्रेणी में डाल कर निम्नवर्गीय काम करने पर मजबूर कर उसे गुलामों सरीखा जीवन जीने पर बाध्य किया गया, ठीक वैसे ही नारी को भी कमजोरों की तरह पुरुष की सेवा के लिए उन के नीतिग्रंथों में ऐसे सिद्धांत नियमित कर दिए कि तुम्हारा उद्धार पुरुष ही कर सकता है, वही तुम्हारा सबकुछ है. इन तमाम घटनाक्रमों के दौरान उन के मन में हीनता की ग्रंथि गहरी जड़ें जमाती गई. एक स्थिति ऐसी भी आई कि पुरुष तो पुरुष, महिलाएं ही दूसरी व अपने से कमजोर व असहाय महिलाओं को प्रताडि़त करने की परंपरा विकसित करती गईं.

घर में सासबहू की गृहकलह नीति, ननददेवरानी के झगड़े और पुरुषों के दिलों व उन की संपत्ति व घरों पर राज करने की प्रतिस्पर्धा ने औरत को औरतों का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लिहाजा, इस स्थिति पर आ कर महिलाओं को किस से, कैसे व कब आजाद होना है, तय कर लेना चाहिए. 14वीं व 15वीं शताब्दी में तुलसीदास नारी को ताड़ना का अधिकारी मानते थे. 18वीं सदी में सुधारवादी आंदोलनों के दौरान भी प्रताड़ना का सिलसिला जारी रहा. और अगर आज भी ‘माई चौइस’ वीडियो को ले कर इतना हंगामा मचा है तो स्पष्ट है कि ताड़ना की अधिकारी महिला आज भी जस की तस है.

महिलाएं खुद पहल करें

सरकार के नीतिनिर्धारकों के कानून बना देने, कमेटियां बैठा देने या आंदोलनों से बदलाव आना होता तो कब का आ गया होता. सचाई तो यह है कि महिलाएं अपनी आजादी के लिए खुद पहल करें. किसी के कंधों पर सवार हो कर अगर वे गंभीर मसले भी उठाएंगी तो उन के असर दूरगामी नहीं होंगे. दीपिका पादुकोण, रेने वर्मा, रूपी कौर की आवाज हर उस महिला की आवाज है जो महिलाओं के प्रति समाज में पसरे गैरबराबरी के रवैए से खफा है और अपने जीवन के तमाम फैसले करने की आजादी चाहती है. दीपिका का माई चौइस का तीर भले ही अंधेरे में चला हो लेकिन अगर इसे एक जागरूक पहल के तौर पर लिया जाए तो महिलाएं आंखों पर पट्टी बांध कर भी अपनी आजादी व समानता का तीर देश, दुनिया व समाज पर टारगेट कर उन्हें भेद सकती हैं.

-गीतांजलि, ललिता गोयल, राजेश कुमार

वैध अवैध का खेल

दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने अवैध कही जाने वाली बस्तियों को नियमित करने का काम शुरू करा दिया है. अब तक पूरी दिल्ली में फैली सैकड़ों ऐसी बस्तियों में, सरकारी रिकौर्डों के अनुसार, रहने वालों के पास मालिकाना हक नहीं थे. काफी बस्तियां ऐसी जमीनों पर हैं जो किसानों से ली गईं. उन जमीनों को पिछली सरकारों ने भूमि अधिग्रहण कानून के तहत उन से जबरन छीना था. चूंकि छीनने के बाद सरकार उन जमीनों पर कुछ नहीं कर पाई थी, पुराने किसान मालिकों ने वहां फसलों की जगह मकान उगवा दिए और आज अवैध कही जाने वाली उन कालोनियों में लाखों लोग रहते हैं. अगर दिल्ली की नई सरकार इस काम को तुरतफुरत कर दे तो ही कहा जाएगा कि सत्ता में नई तरह की सरकार आई है. इन्हें कानूनी जामा पहनाना कठिन नहीं है. सरकार को सिर्फ 4-5 आदेश जारी करने हैं और बिना पैसापाई खर्च किए लाखों मकानमालिक सरकारी अफसरों की घूसखोरी से मुक्ति पा जाएंगे.

दिल्ली में राज्य सरकार के अलावा कौर्पाेरेशन और दिल्ली डैवलपमैंट अथौरिटी भी हैं पर इस बड़े काम के लिए एक अजगर कम होगा, बाकी 2 अजगरों को भी ढीला होना पड़ेगा. अगर निवासियों को रहने का पक्का हक मिलेगा तो वे अपने मकानों को सुधारेंगे. खरीदफरोख्त बढ़ेगी. विरासत के बंटवारे के समय विवाद कम होंगे. गृह और संपत्ति कर में बढ़ोतरी होगी. कालाधन कम लगेगा. अरविंद केजरीवाल को लीजहोल्ड का तमाशा भी समाप्त करना चाहिए. जिस जमीन को सरकार ने बेचा है वह नागरिक की अपनी है और अनुबंध चाहे कैसा भी हो, सरकारी दखल समाप्त हो और पूरा शहर फ्रीहोल्ड माना जाए. यह एक आदेश से हो सकता है या कानून में छोटे संशोधन से. यह बड़ी राहत देने वाला छोटा काम होगा.

इस तरह का वैधअवैध खेल देशभर में चलता है. सिवा उस जमीन पर जिस पर सरकारी कब्जा पक्का था और सरकार उसे इस्तेमाल करती थी. सिर्फ जमीन पर बने मकान अवैध नहीं माने जाने चाहिए. ‘सब भूमि सरकार’ की का सिद्धांत नहीं चलना चाहिए. सरकार बनाम जनता में 100 प्रतिशत हक जनता का होना चाहिए. जो भी जहां भी मकान बनाता है उसे उस का हकदार माना जाना चाहिए. नदी, नालों, जंगलों, बागों पर कब्जे न हों, सरकार का काम केवल यही हो. भूमि अधिग्रहण कानून के अंतर्गत ली गई जमीन पर अगर पुराने मालिक ने मकान बनवा दिए हैं तो उन्हें सरकार को मान लेना चाहिए. सरकार जनता की सेवा के लिए है, जनता की मालिक नहीं, इस सिद्धांत को सरकारी अफसरों के दिमाग में ठूंसने की जरूरत है.

धर्म की धौंस

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू ने गुड फ्राइडे के दिन न्यायाधीशों का एक सम्मेलन कर विवाद पैदा कर दिया है. भारतीय जनता पार्टी के कट्टरवादी, विधर्मी विरोधी माहौल में यह सम्मेलन गुड फ्राइडे के दिन शायद किसी चूक के कारण आयोजित किया हो, यह संभव था पर सीनियर अधिवक्ता लिली थौमस और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की आपत्तियों के बाद यह गंभीर हो गया है. मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में कुरियन जोसेफ ने यह तक लिख दिया कि क्या इस तरह के सम्मेलन दीवाली, होली या दशहरे को आयोजित किए जाने के उदाहरण हैं.

उत्तर में मुख्य न्यायाधीश का कहना कि एक जज के पारिवारिक कारणों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण न्यायालय की संस्था है और संबंधित जज को अपने परिवार को यह बात समझानी चाहिए. असल में धार्मिक त्योहारों पर किसी तरह का जबरन अवकाश होना ही नहीं चाहिए. धर्म की धौंस कि जिस दिन वह कहे उस दिन सब लोग काम छोड़ कर धर्म के नाम पूजापाठ और उस से ज्यादा दानपुण्य में लग जाएं, गलत ही है. धार्मिक अवसरों पर, देवीदेवताओं या नेताओं के जन्मदिन पर अवकाश रखना अपनेआप में गलत है. अगर दीवाली या ईद जैसे त्योहार कुछ लोगों को मनाने हैं तो वे काम न करने को स्वतंत्र होने चाहिए. हरेक व्यक्ति साल में 4-5 दिन अपनी मरजी के दिन तय कर ले और उन दिनों में वह चाहे घर बैठे या कहीं अंधविश्वासी बन कर सिर टिकाए, लाइनों में लगे, जेबें कटाए, दानपुण्य करे, यह उस की अपनी इच्छा पर निर्भर होना चाहिए. दूसरे, पहले की तरह उस दिन काम करने के लिए स्वतंत्र होने चाहिए.

सरकारी अवकाश केवल 15 अगस्त, 26 जनवरी जैसे दिन होने चाहिए. कुछ और त्योहार इन में जोडे़ जा सकते हैं जैसे ग्रेगोरियन कैलेंडर का पहला दिन या अंतिम दिन. लगातार काम से राहत देने के लिए 2 माह में एक शुक्रवार को कुछ नाम दे कर सरकारी अवकाश दिया जा सकता है. धर्म के नाम पर छुट्टी करने का दुष्प्रभाव यह है कि अब अनजान पर्वों पर छुट्टी मांगी जाने लगी है. गुड फ्राइडे की तरह छठ, तरहतरह की ईदों, अंबेडकर जयंती, वाल्मीकि जयंती, कांशीराम जयंती, नेहरू जयंती, कांवड़ जयंती, तिरुपति जयंती, थैंक्सगिविंग और न जाने किसकिस दिन की छुट्टी मांगी जाने लगी है.

पूरा देश 10 दिन एकसाथ बंद रहे यह माना जा सकता है. पर इन दिनों के अतिरिक्त रविवारों को छोड़ कर पूरा देश 300 दिन काम करे, चाहे बैंक हों, राज्य सरकारें हों या केंद्र सरकार. हर व्यापारी को छूट हो कि वह चाहे जिस दिन अपनी दुकान या व्यापार बंद रखे. हर सरकारी कर्मचारी भी इन 10-12 दिनों के अलावा अपनी सालाना छुट्टियों में से किसी भी त्योहार पर छुट्टी ले. छुट्टियों का मानकीकरण अब बहुत आवश्यक है, केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में.

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