भूमि अधिग्रहण विधेयक को ले कर राजनीति गरम है. राजनीतिक दलों में अपनेअपने विधेयक को किसान के हित में बताने के तर्कवितर्क हो रहे हैं. कांगे्रस कहती है कि उस ने भूमि अधिग्रहण पर 2013 में सत्ता में रहते हुए जो कानून बनाया था वह किसानों के हित में है जबकि भाजपा कहती है कि इस कानून से किसानों का समग्र हित नहीं साधा जा रहा है, इसलिए वह संशोधन विधेयक ले कर आई है. अपने तर्क श्रेष्ठ साबित करने के लिए दोनों दलों के बीच जोरआजमाइश हो रही है. भाजपा सत्ता में है और उसे लगता है कि वह विधेयक पारित करा लेगी जबकि कांगे्रस कहती है कि राज्यसभा में उस का बहुमत है, विधेयक पारित नहीं होने दिया जाएगा. सचाई यह है कि दोनों के तर्क किसान के हित में नहीं हैं. विकास के नाम पर पुश्तैनी जमीन बेचने से वह आहत ही होगा लेकिन यदि अधिगृहीत की गई जमीन का इस्तेमाल विकास के लिए तत्काल होता है तो उस के जख्मों को कुछ राहत मिलेगी लेकिन अधिग्रहण के बाद जमीन बेकार पड़ी रही तो उसे पीड़ा होगी. सरकार ऐसी पीड़ा किसान को लगातार दे रही है.
वाणिज्य तथा उद्योग मंत्रालय के अनुसार, विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज के विकास के लिए 47,782.64 हैक्टेअर भूमि 15 फरवरी तक अधिसूचित हो चुकी है और इस में अब तक सिर्फ 19,629.63 हैक्टेअर भूमि का ही सेज के लिए प्रयोग हो रहा है. अधिसूचित शेष भूमि बेकार पड़ी है. इस में से 18,023 हैक्टेअर भूमि वर्षों पहले अधिगृहीत की जा चुकी है लेकिन अब भी बेकार पड़ी है. मौजूदा कानून के अनुसार, जिस भूमि का 5 साल तक इस्तेमाल नहीं होता है उसे किसान को लौटा दिया जाना चाहिए लेकिन इस जमीन को लौटाने की सरकार की हिम्मत नहीं हो रही है.