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विकास दर के पूर्वानुमान से बाजार को झटका

शेयर बाजार में विदेशी बाजारों के सकारात्मक रुख के कारण बढ़त का माहौल रहा. बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक भले ही इस माहौल में 26 हजार अंक का मनोवैज्ञानिक आंकड़ा छूने में सफल नहीं रहा लेकिन वह दिसंबर के दूसरे पखवाड़े में लगातार 3 दिन तक तेजी पर बंद हुआ और सूचकांक 760 अंक तक बढ़ निकला.

इस की वजह सरकार के विकास दर के पूर्वानुमान को घटाना बताया जा रहा है. सरकार ने मानसून के ठीक नहीं रहने की वजह से विकास दर के 7.75 फीसदी ही रहने का अनुमान जताया है जो पिछले अनुमान से भी कम है. बाजार पूर्व आर्थिक समीक्षा में इस अवधि के लिए विकास दर 8.1 से साढ़े 8 फीसदी तक रहने का अनुमान व्यक्त किया गया था. विनिर्माण क्षेत्र के कमजोर रहने और निर्यात के आंकड़े का लगातार 1 साल से गिरावट में रहने का भी अर्थव्यवस्था पर दबाव है जिस के कारण विकास दर का अनुमान घटा है. नए अनुमान की घोषणा होते ही बाजार में मायूसी छा गई और सूचकांक 18 दिसंबर को लगातार 3 दिन की तेजी के बाद करीब 300 अंक टूट गया.

अब मोबाइल से मिलेगी खाने की जानकारी

फ्रिज में जो खाना और सब्जियां रखी हुई हैं, कहीं वे खराब तो नहीं हो गईं. अगर खाने में बैक्टीरिया उत्पन्न होते हैं तो इस की सूचना आप के स्मार्ट फोन के जरिए आप तक पहुंच जाएगी. एक सैंसर के जरिए जो आप के रसोईघर और रैफ्रिजरेटर में मौजूद रहेगा, मालूम होगा कि खाद्य पदार्थ में ऐथेनौल का उत्सर्जन शुरू हुआ कि नहीं. खाद्य पदार्थ के खराब होने की प्रक्रिया में सर्वप्रथम ऐथेनौल निकलता है. फिनलैंड के डैक्निकल रिसर्च सैंटर ने ऐसे ऐथेनौल सैंसर का निर्माण कर लिया है.

अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि यह सैंसर खाद्य सामग्री से ऐथनौल के उत्सर्जन को माप कर खाने के खराब होने की पहचान करेगा. सैंसर से मिली जानकारी आप तक स्मार्टफोन के जरिए पहुंचेगी. और इस से संबद्ध डाटा एक सर्वर में सुरक्षित हो जाएगा. सैंसर की सतह रेडियो तरंगों से पहचान करने वाले टैग का हिस्सा है, इसलिए इस के डाटा को स्मार्टफोन पर भी पढ़ा जा सकता है. यह सैंसर डब्बाबंद खाने की ताजगी के बारे में भी सूचनाएं देता है.   

कौफी पीजिए और कैंसर से दूर रहिए

रोज दिन में 3 से 4 कप कौफी का मजा लीजिए और कैंसर को बायबाय कहिए. न्यूयार्क बोस्टन के डाना फाइबर कैंसर इंस्टिट्यूट के रिसर्चरों की टीम ने करीब 100 ऐसे कोलोन टाइप 3 कैंसर से पीडि़त मरीजों पर अध्ययन किया जिन को हाल ही में कीमोथैरेपी या कैंसर सर्जरी से गुजारा गया था. उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि वे मरीज, जो नियमित 3 से 4 कप कौफी ले रहे थे यानी कि 460 मिलीग्राम कैफीन रोज उन के शरीर में जा रही थी, उन को उन टाइप 3 कोलोन कैंसर मरीजों की तुलना में 42 प्रतिशत कम कैंसर के लक्षण देखने को मिले.

रिसर्च में यह बताया गया कि उन मरीजों में कोलोन टाइप 3 कैंसर दोबारा लौटता है जो पूरे दिन में एक बार भी कौफी नहीं पीते थे. जबकि रोजाना हौट कौफी का मग लेने वालों में कैंसर के वापस लौटने की संभावना न के बराबर होती है.

लखनऊ में जब किन्नर बने ट्रैफिक वालंटियर

‘गोरी बनने के लिये 1 हजार की क्रीम लगा लोगी, पर जान बचाने के लिये 5 सौ रूपये का हेलमेट नहीं लगा सकती’

‘पुलिस की वर्दी पहनने वाले ही जब हेलमेट नहीं लगायेगे तो दूसरा कैसे लगायेगा.’

कुछ इस तरह के ताने देकर किन्नर लखनऊ में ट्रैफिक सिस्टम को सुधरने का प्रयास करेगे. शहरों में बढता यातायात तमाम तरह की परेशानियां खडा कर रहा है. दिल्ली सेलेकर लखनऊ तक यातायात, सडक सुरक्षा और प्रदूषण से निपटने के तमाम प्रयोग किये जा रहे है.

दिल्ली में औड इवन नम्बर पर हंगामा मचा है, तो उत्तर प्रदेश की राजधनी लखनऊ का दिल हजरतगंज वन वे सिस्टम से बेहाल हो चुका है. आधा किलोमीटर का सफर तय करने के लिये 2 किलोमीटरका चक्कर लगाना पड रहा है. मुख्यमंत्री सचिवालय, राजभवन और विधनसभा भवन के पास लगा वन वे सिस्टम 2 घंटे में ही खत्म करना पडा. वीवीआईपी मसला होने के कारण यह वन वे सिस्टम भले ही खत्म हो गया हो पर हजरतगंज में रहने वालों को वन वे सिस्टम से राहत नहीं मिल रहीहै.

मजेदार बात यह है कि वन वे सिस्टम के बाद भी हजरतगंज इलाके में चौराहों पर जाम की हालत में कोई अंतर नहीं आया है. जिला प्रशासन ने इसे नाक का सवाल बना लिया है. वह किसी भी हालत में वन वे सिस्टम की अपनी इंजीनियरिंग को फेल मानने को तैयार नहीं है. उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि वीवीआईपी इलाके में 2 घंटे में ही वन वे सिस्टमक्यों हटा लिया ?

लखनऊ में तमाशा बन चुके ट्रैफिक सिस्टम को सुधारने में एक पहल किन्नरों के संगठन पायल फाउडेंशन ने शुरू की है. पायल फाउडेंशन को चलाने वाली पायल सिंह किन्नर है. वह लखनऊ में कई चुनाव भी लड चुकी है. वह कई तरह की समाजसेवा भी करती है. लखनऊ के हजरतगंज में बुधवार की दोपहर 3 बजे के बाद पायल और उसके संगठन में काम करने वाले दूसरे किन्नर साथियों ने यातायात को सही तरह से चलाने और यातायात नियमों का पालन करने जैसे सीट बेल्ट लगाने, हेलमेट लगाने, सही तरह से गाडी चलाने और पार्किंग का प्रयोग करने के लिये आते जाते लोगों को समझाया. इनमें साधरण नागरिक से लेकर पुलिस वाले और लाल नीली बत्ती वाले सभी तरह के लोग शामिल थे. पायल ने कहा कि वह रोजाना शहर के अलग अलग क्षेत्रों में ऐसे अभियान चलायेगीं.

प्रदूषण बिना प्रगति कैसे संभव

अरविंद केजरीवाल का नाम सामने आते ही हमारे सामने एक ऐसे अक्खड़ मुख्यमंत्री की छवि उभर कर आती है जिसे सब से पंगा लेने की मानो आदत सी हो गई?है. फिर चाहे वह केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार हो या दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग, दिल्ली पुलिस हो या फिर सीबीआई. आजकल दिल्ली के ये ‘आम मुख्यमंत्री’ एक और बात को ले कर सुर्खियों में बने हुए हैं और वह है दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए उन की एक ऐसी पहल, जो पहली नजर में अनोखी और बचकानी लग रही है.

दरअसल, दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने साल 2015 के आखिर में एक फैसला लिया कि 1 जनवरी, 2016 से 15 जनवरी, 2016 तक दिल्ली की सड़कों पर विषम तारीख के दिन विषम नंबर की कारें और सम तारीख के दिन सम नंबर की कारें ही दौड़ेंगी. इस के लिए कुछ नियमकानून बनाए गए और कुछ को छूट भी दी गई. अदालत ने भी अरविंद केजरीवाल के इस फैसले की सराहना की और यह भी जानना चाहा कि औरतों को कार चलाने व दोपहिया वाहनों को इस नियम में छूट क्यों दी गई?

यह पत्रिका आप के हाथों में आने तक 1 से 15 जनवरी की यह समयावधि बीत चुकी होगी और इस फैसले का जो असर होना होगा, वह हो चुका होगा. पर इस बात से यह सवाल जरूर उठता है कि अरविंद केजरीवाल ने यह कठोर कदम क्यों उठाया? जब उन की सरकार बनी थी तब दिल्ली को मुफ्त बिजली व पानी देने के उन के वादे को लोगों ने वोट बटोरने का जरिया बताया था, लेकिन यह फैसला तो कहीं से ऐसा नहीं लगता कि उन के जेहन में दिल्ली की जनता के वोट हैं. उलटे, यह तो जनता से बैर मोल लेने जैसा है.

बदलाव की जरूरत

लेकिन अगर ठंडे दिमाग से सोचा जाए तो अब वक्त आ गया कि लोग फैसला कर लें कि उन्हें प्रगति चाहिए या प्रदूषण? दिल्ली सरकार की यह योजना अगर कारगर साबित होगी तो इस में सब से बड़ा योगदान जनता का ही रहेगा, क्योंकि राजधानी में प्रदूषण का स्तर काफी ज्यादा बढ़ गया है. इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने भी माना है कि राजधानी दिल्ली में प्रदूषण की वजह से रोजाना 80 लोगों की जानें चली जाती हैं. शायद यही वजह है कि दिल्ली सरकार ने समविषम नंबर के आधार पर वाहनों को चलाने की यह योजना बनाई है.

यह दुख की बात है कि दिल्ली भी दुनिया के प्रदूषित शहरों के मामले में चीन के शहर बीजिंग से टक्कर ले रही है, बल्कि दिसंबर 2015 में तो इस ने प्रदूषण के मामले में बीजिंग को मात भी दे दी थी. वास्तव में वायु प्रदूषण का मतलब है हवा में धूल और कार्बन के महीन कणों तथा नुकसान पहुंचाने वाली गैसों का एक सीमा से अधिक हो जाना. नाइट्रोजन डाईऔक्साइड, सल्फर डाईऔक्साइड और कार्बन मोनोऔक्साइड की मात्रा तथा हवा में घुले वे महीन सूक्ष्म कण जो नंगी आंखों से नहीं दिखते, उन्हें पीएम 2.5 कहते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय किए गए मापदंड से इन का अधिक हो जाना ही वास्तव में वायु प्रदूषण जांचने की मुख्य कसौटी है.

भयावह आंकड़े

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, इन कणों की मात्रा हवा में 25 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. हवा में अगर इन की मात्रा 100 माइक्रोग्राम हो जाए तो ऐसी हवा प्रदूषित कही जाएगी और अगर यह 300 माइक्रोग्राम तक चली जाए तो फिर कम से कम बच्चों, बूढ़ों, दमे के मरीजों व बीमारों को तो घरों के भीतर ही रहना चाहिए.

2015 की शुरुआत में पहले 3 हफ्ते दिल्ली के पंजाबी बाग इलाके में प्रदूषण की औसत रीडिंग 473 पीएम-2.5 थी, जबकि बीजिंग में तब यह 227 थी. लेकिन नवंबरदिसंबर 2015 में तो कई बार दिल्ली में प्रदूषण की मात्रा 500 माइक्रोग्राम की सीमा भी पार कर गई. यहां तक कि दीवाली के आसपास तो एक दिन रिकौर्ड 755 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक आंकड़ा पहुंच चुका है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित प्रदूषण मात्रा से 3 हजार प्रतिशत ज्यादा है.

एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक, हवा की गुणवत्ता में यदि सुधार कर लिया जाए तो भारत और चीन प्रति वर्ष 14 लाख लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचा सकते हैं. हालांकि सरकार ने हाल में संपन्न पेरिस जलवायु सम्मेलन में साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33-35 फीसदी तक की कमी का फैसला लिया है और यह तय किया है कि साल 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन का 40 फीसदी हिस्सा कार्बन रहित ईंधन से होगा. लेकिन व्यवहार में इस का होना इसलिए मुश्किल लगता है क्योंकि देश में पहले ही बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा बढ़ी हुई है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें ईंधन में कोयले के इस्तेमाल की मौजूदा मात्रा को 40 प्रतिशत तक कम करना होगा. इस से बड़ी तादाद में उद्योगधंधे प्रभावित होंगे, जो शायद हम बरदाश्त न कर सकें.

तरक्की बनाम प्रदूषण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पेरिस में कहा है कि पर्यावरण के लिए हम अपनी प्रतिबद्धता को हर हाल में पूरा करेंगे. मगर सवाल है-क्या हम व्यक्तिगत स्तर पर इस के लिए अपनी तथाकथित प्रगति की कुरबानी देने को तैयार हैं? क्योंकि दो काम एकसाथ नहीं हो सकते कि पर्यावरण की अपनी चिंता को भी हम दूर कर लें और हमारी प्रगति भी बाधित न हो.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ऊर्जा के लिए हमें आसमान की ओर देखना होगा. उन्होंने सस्ती सौर ऊर्जा उपलब्ध कराने के लिए देश में साल 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य भी रखा है. यह भी उम्मीद है कि साल 2016 तक तकरीबन 12 गीगावाट की क्षमता स्थापित हो जाएगी, जो मौजूदा क्षमता से 3 गुना अधिक है. फिर भी इस सब के लिए हमें अपनी कुछ ख्वाहिशों की कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी. दरअसल उत्सर्जन के मामले में हम साल 2005 के स्तर पर तभी पहुंच पाएंगे जब अगले 15 सालों में किसी भी निर्माण के लिए हम 33 फीसदी कम ऊर्जा का उपयोग करें. ज्यादा साफ शब्दों में यह कोयले की खपत को 40 फीसदी तक घटाने की चुनौती है.

बीमारियों को आमंत्रण

लेकिन शायद ही ऐसा हो पाए, क्योंकि एनवायरमैंट परफौर्मेंस इंडैक्स यानी ईपीआई में 178 देशों के बीच भारत का स्थान 155वां है. चीन, पाकिस्तान, नेपाल तक हम से बेहतर हैं. लैंसेट ग्लोबल हैल्थ बर्डन 2013 के अनुसार, भारत में वायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए छठा सब से घातक कारण बन चुका है, जो हर वर्ष 6 लाख, 20 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले लेता है. पीएम 2.5 कणों की सांद्रता के सालाना औसत के मामले में दिल्ली सब से आगे रहने वाला शहर बन चुका है. देश में सांस और फेफड़े संबंधी बीमारियों के कारण होने वाली मौतों की दर दुनिया में सब से ज्यादा है. देश में सब से ज्यादा दिल्ली की हवा तो खराब है ही, लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं है कि देश के दूसरे शहरों की स्थिति बहुत अच्छी है.

साल 2015 में जारी एक अध्ययन के मुताबिक, दिल्ली के अलावा देश के 140 शहर रहने के लायक नहीं हैं. इन में पटना, कानपुर, लुधियाना से ले कर हावड़ा और जमशेदपुर तक शामिल हैं. अगर दिल्ली को लें तो पिछले 2 सालों में यहां वायु प्रदूषण में 44 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है तो वाहनों की संख्या में साढ़े 4 लाख की बढ़ोतरी हुई है. आज दिल्ली में 86 लाख से ज्यादा वाहन रजिस्टर्ड हैं, साथ ही एनसीआर में पंजीकृत लाखों वाहनों में से बड़े पैमाने पर हर रोज यहां आते हैं. रोजाना 50 हजार से 1 लाख ट्रक भी शहर से हो कर गुजरते हैं, जबकि साल 1970 में दिल्ली में महज 8 लाख वाहन थे. बाकी जगहों की गाडि़यां भी अपेक्षाकृत तब यहां कम आती थीं, जबकि अब हालत यह है कि रोजाना 1,400 से ज्यादा गाडि़यां ट्रैफिक में शामिल हो रही हैं.

दिल्ली और एनसीआर में हो रहा भवन निर्माण और पड़ोसी इलाकों में जलाया जाने वाला एग्रीकल्चरल वैस्ट तथा राजस्थान की रेगिस्तानी रेत के चलते, हार्वर्ड इंटरनैशनल रिव्यू के मुताबिक, 5 में हर 2 दिल्लीवासी सांस की बीमारी से ग्रस्त हैं. अस्थमा से जितने लोग भारत में मरते हैं उतने समूचे संसार में कहीं नहीं मरते. दिल्ली की हवा को जीने लायक तभी बनाया जा सकता है जब यहां के कुल वाहनों में से 80 फीसदी कम किए जाएं, मगर क्या यह संभव है? दिल्ली की आबोहवा आदर्श स्थिति में 10 से 12 लाख और संवहनीय (सस्टनेबल) स्थिति में 15 से 16 लाख वाहन ही झेल सकती है.

सवाल है कि दिल्ली समेत दुनिया को प्रदूषण की मार से कैसे बचाया जा सकता है? इस का एक ही तरीका है कि हम सब लोगों को इस के लिए बड़ी से बड़ी कीमत देने के लिए तैयार होना होगा. अपनी लाइफस्टाइल को कुदरत के नजदीक लाना होगा. दिखावे को त्यागना होगा और लगातार अपने को सजग नागरिक बनाना होगा.

खुद करें पहल

आज अकेले दिल्ली शहर में 3,96,000 परिवार ऐसे हैं जहां औसतन 4 वाहन हैं. अगर एक से ज्यादा वाहन वाले परिवारों की गिनती करें तो ये 11 लाख से ज्यादा हैं. अगर इसी तरह घरों में लगे एअरकंडीशनर को देखें तो वे भी एकएक घर में कईकई लगे हैं. अगर हमें साफ हवा चाहिए तो इस दिखावे को ‘बायबाय’ करना होगा, वरना चेतना के नाम पर हम इस भयावह समस्या की रट भी लगाए रखेंगे और प्रदूषण की मार से मरते भी रहेंगे. बात अगर अरविंद केजरीवाल के फैसले की करें तो उन्होंने एक ऐतिहासिक कदम उठाया है. उन्होंने साफ शब्दों में बता दिया कि अगर प्रदूषण के दानव से 2-2 हाथ करने हैं तो जनता को भी यह बीड़ा उठाना होगा. उन्होंने इस योजना के लिए ‘गंगा सफाई अभियान’ की तरह, करोड़ोंअरबों का सरकारी खजाना नहीं खोला है, बल्कि जनता से अपील की है कि वह प्रदूषण के खतरनाक इरादों को समझे और अपने विवेक से उचित निर्णय ले.

अरविंद केजरीवाल को इस के लिए शाबाशी भी मिलनी चाहिए, क्योंकि ऐसे बहुत कम नेता होते हैं जो अपने फायदे को ताक पर रख कर सही माने में जनता के भले की सोचते हैं. हो भी क्यों न, यह हमारे और आने वाली पीढि़यों की जिंदगी का सवाल है.

‘‘मैं मानता हूं कि इस से आप को परेशानी होगी, मगर दिल्ली की हवा प्रदूषण के कारण जहरीली होती जा रही है. यह हम सब की सेहत के लिए घातक है, खासकर बच्चों के लिए तो बहुत ही घातक है. आइए, हम सब मिल कर एक कोशिश करते हैं दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने की. मैं भी आप की तरह इस नियम का पालन करूंगा.’’

–अरविंद केजरीवाल, मुख्यमंत्री, दिल्ली सरकार

– साथ में राजेश कुमार

रिव्यू: शिक्षा व्यवस्था पर चोट करती “चॉक एंड डस्टर”

शिक्षक और शिक्षा के साथ हो रही राजनीति, स्कूल व कालेज मैनेजमेंट में बढ़ती धनलोलुपता, शिक्षा के प्रति सरकार की उदासीनता के साथ एक आम शिक्षक की रोजमर्रा की जिंदगी को वास्तविकता के धरातल पर चित्रित करने के साथ ही चंद उद्योगपितयों के आगे सरकार के नतमस्तक रहने का ज्रिक करने वाली फिल्म का नाम है – चॉक एंड डस्टर. जिसके निर्माता अमिन सुरानी है. इसके लिए फिल्म के निर्देशक जयंत गिलटर और लेखक द्वय रंजीव वर्मा और नीतू वर्मा बधाई के पात्र हैं.

‘‘चॉक एंड डस्टर’’ एक बेहतरीन पटकथा पर बनी फिल्म है. निर्देशक ने विषयवस्तु के साथ फिल्म के हर किरदार के साथ न्याय किया है. फिल्म में यदि हनुमान चालीसा, तुलसीदास व गणित को पढ़ाने के पुराने तरीके का जिक्र है, तो वहीं इस बात का भी जिक्र है कि नासा में वैज्ञानिक के रूप मे कार्यरत या एक सिविल इंजीनियर या एक आर्मी आफिसर किस शिक्षा पद्धति की पैदाइश है.

फिल्म में सोशल मीडिया, टीवी चैनल पर शिक्षक को स्कूल से निकाले जाने पर बहस, शिक्षक के सम्मान में पैदल मार्च का चित्रणकर समाज में आ रहे बदलाव व आधुनिक समाज का भी जिक्र है. गुरू द्रोणाचार्य, एकलव्य और अर्जुन के साथ ही देश के प्रथम उपराष्ट्रति और द्वितीय राष्ट्रपति तथा शिक्षाविद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की सोच वाले स्कूलों की जरुरत की बता की गयी है. फिल्म में इस बात को बेहतरीन तरीके से चित्रित किया गया है कि आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा में आ रही गिरावट के लिए शिक्षक दोषी नहीं है, बल्कि हमारा शिक्षा तंत्र, शिक्षा व्यवस्था और सरकार की नीतियां दोषी है. जिसका फायदा उठाकर स्कूल मैनेजमेंट ने शिक्षा का व्यवसायीकरण कर रखा है. वर्तमान समय में एक काल सेंटर में नौकरी करते ही पहले माह जो किसी युवक या युवती को सैलरी मिलती है, उतनी सैलरी एक शिक्षक को 28 साल तक नौकरी करने के बाद भी नहीं मिलती है.

अमूमन जब कोई फिल्मकार किसी मुद्दे पर आधरित फिल्म बनाता है, तो वह फिल्म अपनी विषयवस्तु के कारण उपदेशात्मक अथवा शुष्क व नीरस हो जाती है. अथवा अंत में निर्देशक अपनी विषयवस्तु से भटक जाता है, मगर ‘चॉक एंड डस्टर’ के साथ ऐसा कुछ नहीं होता है. ‘चॉक एंड डस्टर’ पूरी तरह से मनोरंजक शैली में बनी फिल्म है.

फिल्म के अंदर एक संवाद है, जहां शिक्षा मंत्री, शिक्षा सचिव को बुलाकर कहता है कि एक निजी स्कूल के शिक्षकों को निकाले जाने का मामला खत्म करा दे. इसके लिए वह मैनेजमेंट से शिक्षक को दस लाख रूपए दिलवाने की बात करते हुए कहता है, ‘‘यह बड़े लोग हैं. बड़े लोग हमेशा सही होते हैं. यह बड़े लोग सरकार हिला देंगे.’’ इससे यह बात साफ तौर पर उभरती है कि आज सरकारें चंद उद्योगपतियों के इशारे पर नाचती हैं.

फिल्म की कहानी मुंबई जैसे महानगर की पृष्ठभूमि में कांताबेन नामक हाईस्कूल के दो इमानदार व शिक्षा के प्रति प्रतिबद्ध शिक्षकों दिव्या (शबाना आजमी) और ज्योति (जूही चावला) की है. इनका पैशन और शिक्षा के प्रति लगाव विद्यार्थियों से इनका एक खास रिश्ता बना देता है. यह दोनो शिक्षक विद्यार्थियों के बीच जीवन मूल्यो के साथ साथ शिक्षा में भी उच्च मानक स्थापित कर रही हैं. मगर तभी बुरी घटना घटती है. स्कूल की सुपरवाइजर के रूप में कामिनी गुप्ता (दिव्या दत्ता) आ जाती हैं. वह स्कूल के फायदे के लिए वह हर मौके का फायदा उठाती हैं.

स्कूल के शिक्षक उन्हे हिटलर की संज्ञा दे देते हैं. पर कामिनी गुप्ता स्कूल के ट्रस्टी मनसुख के विदेश में एमबीए की पढ़ाईकर वापस लौटे बेटे अमोल पारिख (आर्य बब्बर) का सहारा लेकर स्कूल की प्रिंसिपल बन जाती है और अब उनका सपना स्कूल के ट्रस्टियों में से एक बनना है. इसीलिए वह स्कूल मैनेजमेंट को फायदे की बात समझाकर स्कूल से अनुभवी शिक्षकों को बाहर का रास्ता दिखाकर नए शिक्षकों की भर्ती करना शुरू कर देती है. जिससे स्कूल में शिक्षा का स्तर गिरने लगता है.

इसी क्रम में कामिनी गुप्ता हर शिक्षक को परेशान करते हुए स्कूल को गंदी राजनीति का अखाड़ा बना देती है. दिव्या को स्कूल से बेकाबिल शिक्षक होने के आरोप के साथ निकाला जाता है, जिससे उन्हे हार्ट अटैक आ जाता है और फिर ज्योति एक लड़ाई शुरू करती है. जिसे अमोल पारिख के साथ मिलकर कामिनी गुप्ता बहुत गंदी राजनीति की ओर ले जाती है. जबकि दिव्या और ज्योति शिक्षा में सुधार और शिक्षक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा को वापस लाने के लिए स्कूल प्रबंधकों के खिलाफ एक लड़ाई छेड़ देती हैं.

अंततः एक समाचार चैनल पर स्कूल प्रबंधकों की शर्तों पर सवाल जवाब शुरू होते है. स्कूल प्रबंधकों ने दस सवाल तैयार किए है, जिनका सही जवाब देने पर दिव्या व ज्योति को पांच करोड़ रूपए, उन्हे फिर से स्कूल में नौकरी देने के साथ ही उनसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की बात कही गयी है. यह सवाल कामिनी गुप्ता ने तैयार करवाती हैं. परचैनल पर खुली बहस में पूरे देश के सामने दिव्या और ज्योति की जीत होती है.

निर्देषक जयंत गिलटर ने विषयवस्तु व किरदारों के अनुरूप ही कलाकारों का चयन कियाहै. शबाना आजमी, गिरीष कर्नाड, जूही चावला, जैकी श्राफ तो अच्छे कलाकार हैं, इसमें कोई दो राय नहीं. निगेटिव भूमिका में दिव्या दत्ता ने भी अच्छा काम किया है. फिल्म के सभी गीत अच्छे हैं. संदेश शांडिल्य का संगीत भी ठीक है.

फिल्म के कलाकार हैं- शबाना आजमी, जूही चावला, दिव्या दत्ता, उपासना सिंह, गिरीष कर्नाड, जरीना वहाब, आर्य बब्बर, समीर सोनी और आदि ईरानी. इसके अलावा ऋषि कपूरऔर रिचा चड्ढा विशेष भूमिका में है.

बच्चों के मुख से

मेरी छोटी बेटी अपने प्रथम प्रसव के लिए मेरे पास आई थी. दीवाली के आसपास की डेट थी. मैं ने अपनी बड़ी बेटी को सहायता के लिए बुला लिया था. वह अपनी 2 बच्चियों, जिन की उम्र 7 व 3 वर्ष थी, को ले कर आई थी. हम दीवाली के लिए खरीदारी कर रहे थे. ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए दुकानदार और कंपनियां सामान खरीदने में हर प्रोडक्ट के साथ फ्री गिफ्ट दे रहे थे. सो, हम ने बहुत सी चीजें खरीद लीं. कुछ चीजें तो ऐसी थीं जो बहुत आवश्यक भी नहीं थीं. वजन ज्यादा होने से पति झुंझला रहे थे. हमारा मजाक उड़ाते हुए वे बोले, ‘‘जो प्रोडक्ट ज्यादा नहीं बिकते, दुकानदार ग्राहकों को फ्री गिफ्ट के रूप में गले मढ़ देते हैं.’’ बात आईगई हो गई.

दीवाली के 2 दिन बाद प्रसव पीड़ा होने पर बेटी को अस्पताल ले गए. उस के जुड़वां बच्चे होने वाले थे. प्रसव होने पर नर्स पहले बेटा ले कर आई, फिर 10-15 मिनट बाद बेटी ला कर मजाक करती हुई हम से कहने लगी कि बेटे के साथ यह बेटी फ्री गिफ्ट है. बड़ी बेटी की बेटी शिवि कुछ सोचने के बाद मासूमियत के साथ बोली, ‘‘बेटियों को लोग ज्यादा पसंद नहीं करते, इसलिए हमें बेटे के साथ फ्री गिफ्ट के रूप में दे रहे हैं.’’ उस की बात सुन कर हम अवाक् रह गए.

मनोरमा वर्मा, रायपुर (छ.ग.)

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‘‘बूआ, मैं बौर्नविटा वाला दूध रोज पीती हूं तब भी मैं बड़ी नहीं हो रही हूं. क्यों?’’ एक दिन जब मेरी 4 वर्षीय पोती आरुषि ने अपनी बूआ शालू से प्रश्न किया तो बूआ ने कहा, ‘‘तुम रोज दूध पिया करो. जब तुम फर्स्ट क्लास में पहुंचोगी तब तुम बड़ी भी हो जाओगी और बहादुर भी.’’

यह वार्त्तालाप शालू की गोदी में बैठी उस की 3 वर्षीय बेटी अनुष्का सुन रही थी. वह झट से बोली, ‘‘मम्मी, जब मुझे किचन सूप पिलाएगी तब मैं बड़ी और ताकतवर बन जाऊंगी.’’ किचन सूप कौन सा नया सूप है, अभी हम यह सोच भी नहीं पाए थे कि उस ने अपनी बात फिर दोहरा दी, ‘‘डाक्टर अंकल ने कहा था कि जब मैं किचन सूप पिऊंगी तब मैं ताकतवर बन जाऊंगी.’’

बात यह हुई थी कि कुछ दिन पहले अनुष्का के लिए डाक्टर ने सलाह दी थी कि इसे चिकन सूप पिलाओ तब यह ताकतवर बनेगी. यही बात नन्ही अनुष्का ने समय आने पर किचन सूप बना कर सब के सामने परोस दी. किचन सूप का अर्थ जब समझ में आया तब हम लोग हंसतेहंसते लोटपोट हो गए और वह मां की गोद में छिप गई.

– रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

गुजरात निकाय चुनाव: शहर में कमल, गांव में पंजा

गुजरात स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों ने भाजपा के सामने चुनौती खड़ी कर दी है. चुनावों में कांग्रेस को मिली कामयाबी से अब ‘मोदी मौडल’ पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. ये नतीजे भाजपा की लोकप्रियता में गिरावट के संकेत माने जा रहे हैं तो प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का उत्साह उमड़ पड़ा है.

ये चुनाव नतीजे वर्ष 2017 में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए महत्त्वपूर्ण संकेत हैं. हालांकि प्रदेश भाजपा नेतृत्व ग्रामीण इलाकों में हार की समीक्षा की बात कह रहा है पर साफ है कि ग्रामीण मतदाताओं की नाराजगी साफ दिखाई दी है. राजनीतिक समीक्षक भाजपा के पिछड़ने की वजह पटेल आरक्षण, किसानों की अनदेखी, गरीबों तक योजनाओं का फायदा नहीं पहुंचने और सरकार द्वारा अमीरों, कौर्पोरेट पर खास मेहरबान रहने जैसे मामलों को मान रहे हैं.

चुनाव नतीजों में यह बात भी जाहिर हुई है कि पाटीदारपटेल मतदाताओं ने अपनी ही जाति के उम्मीदवारों को वोट दिए, वह चाहे कांग्रेस का रहा हो या भाजपा का.

इस चुनाव की खास बात यह रही कि 10 साल बाद पालिका व पंचायत में कांग्रेस की वापसी हुई है. 31 में से 24 जिलों व 230 में से 132 पंचायतों पर कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीनी है. भाजपा इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की मजबूत अगुआई व अमित शाह की कही जाने वाली माइक्रोप्लानिंग के बिना ही चुनाव मैदान में उतरी थी. यह चुनाव गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के लिए परीक्षण समान माना जा रहा था. वे मोदी के दिए हुए भाजपा साम्राज्य को बचाने में विफल रही हैं. पिछले 15 सालों में राज्य में पहली बार भाजपा को भारी नुकसान हुआ है. चुनाव परिणाम के मद्देनजर, गुजरात विधानसभा की 182 में से 95 सीटों पर कांग्रेस मजबूत स्थिति में है.

चुनाव फैक्टर

शहरी क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली, वहां पाटीदार फैक्टर का कोई असर नहीं हुआ. पाटीदार बाहुल्य क्षेत्र में भाजपा के पाटीदार उम्मीदवार विजयी हुए हैं. पाटीदार प्रभावित 60 तालुका पंचायत में कांग्रेस विजयी हुई है. इस से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण क्षेत्र में पाटीदार फैक्टर कांग्रेस के लिए लाभदायी रहा है. पाटीदारों का गढ़ माना जाने वाला सौराष्ट्र व उत्तर गुजरात में भी कांग्रेस के पंजे ने भाजपा के कमल को मसल दिया. पाटीदार आंदोलन के अगुआ हार्दिक पटेल के वीरमगाम में भाजपा जीती है जबकि लालकृष्ण आडवाणी के मतक्षेत्र गांधीनगर में भाजपा की हार हुई है.

गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के क्षेत्र खरोड व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्षेत्र वडनगर में आश्चर्यजनक रूप से भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है. इस चुनाव के परिणाम कांग्रेस के सुनहरे भविष्य की तरफ इशारा कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी 2017 के विधानसभा चुनाव की तैयारी पूरी ताकत व उत्साह से करे तो आगामी वक्त कांग्रेस के लिए सकारात्मक होगा, इस में दोराय नहीं. राज्य के चुनाव के दृश्य को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में विधानसभा सीटें ज्यादा हैं. शहरी क्षेत्र में 60 विधानसभा सीटें हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में कुल 100 से ज्यादा सीटें आई हैं, जहां कांग्रेस अब मजबूत स्थिति में आ गई है. 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात के मतदाताओं ने 26 में से 26 सीटें भाजपा की झोली में डाली थीं, आज उन्हीं मतदाताओं ने 17 महीनों के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्र में भाजपा से मुंह फेर लिया है.

मजबूत हुई कांग्रेस

चुनाव में शहरी मतदाताओं की संख्या 1.30 करोड़ थी, जबकि ग्रामीण मतदाता 2.23 करोड़ थे. इस का सीधा मतलब होता है कि ग्रामीण क्षेत्र में कांग्रेस को जो जीत मिली है वह भाजपा को मिली जीत से कई गुना ज्यादा मजबूत है. जहां पर कांग्रेस की जीत हुई है वहां जीत का मार्जिन काफी ज्यादा रहा है, जबकि भाजपा की जहां जीत हुई है वहां जीत का मार्जिन काफी कम रहा है. यह बात आगामी विधानसभा चुनाव में महत्त्वपूर्ण साबित हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी.

हम बात अगर शहरी क्षेत्र की करें तो यहां अवश्य भाजपा को बड़ी जीत मिली है, परंतु भाजपा का जनाधार पहले से काफी कम हुआ है व सीटों की संख्या भी कम हुई है. इस से एक बात स्पष्ट होती है कि भाजपा का परंपरागत वोटबैंक टूटा है.इस संपूर्ण चुनाव का विश्लेषण करने पर नतीजा निकलता है कि गुजरात में पुख्ता लोकतंत्र का वक्त आ चुका है. आज गुजरात की जनता मतदान के प्रति काफी जागृत हो चुकी है.

अमेरिका व यूरोप की तरह यहां पर भी कुछ सीटों को छोड़ कर चुनावी जंग में सिर्फ 2 पार्टियां ही मुख्यरूप से भूमिका में रही हैं. इसे परिपक्व लोकतंत्र की निशानी माना जा सकता है. नरेंद्र मोदी द्वारा गुजरात में स्थापित भाजपा साम्राज्य की नींव हिलने लगी है. भाजपा के विकास की गति व दिशा का ग्राम्य गुजरातियों ने बहिष्कार कर दिया है.

फ्यूचर गैजेट्स, जो 2016 में करेंगे धमाल..!

आधुनिक युग तकनीक का युग है. यह तकनीक कदम-दर-कदम भविष्य को हमारे पास लगाती जा रही है. यह भावी नई तकनीकों का हमारे जीवन पर इतना अधिक प्रभाव पड़ने वाला है जिसका अंदाज लगाना भी बहुत मुश्किल है.

इसे अगर हम यूं कहे कि यह भविष्य की नई तकनीकें किसी जादू से कम नहीं होगी तो गलत न होगा. यानि तकनीक वर्तमान में ही नहीं भविष्य में भी इतने बेहतरीन प्रदर्शन के लिए तैयार है जिसकी झलक हमें आज भी दिखाई देती है.

प्याज की परत दर परत खुलते इसके नित नए स्वरूप भविष्य की झलक हमारे सामने ला रहे हैं. तो चलिए आज हम आपको ऐसी ही पांच भावी तकनीकों और उपकरणों के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं जो दूरगामी परिवर्तनों के जनक बन सकते हैः

लेक्सस होवरबोर्ड
वर्षों से हम फिल्मों में होवरबोर्ड देखते रहे होंगे. अगर नहीं देखा तो हम आपको बता दें कि होवरबोर्ड स्केटबोर्ड जैसा ही होता है पर इसमें पहिए नहीं होते हैं. यह धरती से हवा में कुछ ऊपर तक उड़ता है. लेक्सस की माने तो ‘स्लाइड' नामक यह होवरबोर्ड ‘फ्रिक्शनलेस मूवमेंट' कर सकता है और इसके लिए वह मैग्नेटिक लेविटेशन का उपयोग करता है. इनमें से कुछ लिक्विड नाइट्रोजन मैग्नेट सुपरकूल्ड कंडक्टर्स हैं. होवरबोर्ड के डिजाइन के कुछ भाग वर्तमान की लेक्सस कारों जैसे हैं.

पावर वाई-फाई
मान लो कि आप कैमरे से फोटो क्लिक करे पर बैटरी खत्म हो जाए तो आप क्या करेंगे. इसका समाधान अब होने वाला है. भारतवंशी और यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के शोधकर्ताओं द्वारा ऐसी तकनीक विकसित की गई है जिससे वाई-फाई की मदद से कैमरे को पावर मिल सकती है. शोधकर्ता वाम्सी तल्ला की माने तो पहली बार वाई-फाई की मदद से कैमरा के सेंसर व अन्य उपकरणों को ऊर्जा देने में सफलता मिली है. वाई-फाई सिग्नल से ऊर्जा पाने के अतिरिक्त शोधकर्ताओं ने कुछ ऐसे सेंसर भी तैयार किए हैं जोकि उपकरण में ऊर्जा को बढ़ाने में सहायक हैं. शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि इससे इंटरनेट की स्पीड पर भी नेगेटिव प्रभाव नहीं होगा.

एल्‍युमिनियम आयन बैटरी
यदि आपसे कहा जाए कि अब आपके मोबाइल की बैटरी केवल 1 मिनट में चार्ज हो जाएगी तो आप शायद ही विश्वास करें लेकिन स्‍टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसा उपकरण तैयार किया है जिससे मात्र 60 सेकेंड में ही आपके मोबाइल की बैटरी पूरी चार्ज हो जाएगी. यूनिवर्सिटी के वरिष्‍ठ लेखक व रसायन के प्रोफेसर ने की माने तो यह बैटरी पुरानी सभी बैटरियों को रिप्‍लेस कर देगी.

अभी प्रयोग की जाने वाली एल्‍केलाइन बैटरी वातावरण के लिए हानिकारक है तो लिथि‍यम आयन बैटरी में ब्‍लास्‍ट करने की शिकायत आम है. एल्‍युमिनियम आयन बैटरी 7,500 बार मोबाइल रिचार्ज कर सकेगी जबकि दूसरी बैटरियां केवल 1000 बार रिचार्ज करने में सक्षम है. इस नई बैटरी में दो इलेक्‍ट्रोड का प्रयोग किया गया है. एल्‍युमिनियम का एनोड व ग्रेफाइट का कैथोड बनाया गया है. यह कंबिनेशन अधिक सर्किल चार्जिंग में सहायक है. विशेष बात यह है कि यह बैटरी लचीली है. इससे आप इसे मोड़कर किसी भी डिवाइस में (लैपटॉप, मोबाइल) सरलता से प्रयोग कर सकते हैं.

वर्चुअल रियलिटी तकनीक
इस वर्ष शायद वर्चुअल रियलिटी तकनीक आपके द्वार पर दस्तक दे सकता है क्योंकि सोनी, माइक्रोसाफ्ट, एचटीसी, सैमसंग और गूगल आदि कंपनियों द्वारा इस तकनीक पर आधारित अपना स्वयं का डिवाइस लाया जा सकता है. अनेक डिवलापर्स द्वारा भी अपने गेम्स , ऐप्स व सॉफ्टवेयर पर काम करना आरंभ कर दिया गया है ताकि वर्चुअल रियलिटी डिवाइस की शुरुआत धमाकेदार हो सके.

टेक टैटू
आपने लोगों को टैटू लगाएं देखा होगा पर अब एक ऐसा टेक टैटू तैयार किया गया है जोकि लुक्स के साथ-साथ आपके स्वास्थ्य का भी ध्यान रखता है. हेल्थ से संबंधित अनेक टास्क को परफॉर्म करता है. यह टैटू परमानेंट नहीं है जिससे इसे आसानी से रिमूव भी किया जा सकता है. इसे बनाने हेतु इलेक्ट्रिक पेंट, टाइनी चिप्स व एम्बिएंट लाइट सेंसर्स को लगाया गया. इसकी कम्पलीट इनफार्मेशन को आप टेक टैटू ऐप की सहायता से गेन कर सकते है. इसकी विशेषता है कि इसका टेम्प्रेचर सेंसर आपके बीमार होने पर फीवर को ट्रैक करता है. साथ ही इसका एम्बिएंट लाइट सेंसर्स आपके घर की लाइट्स को कंट्रोल करता है. कमरे से बाहर जाने पर लाइट को डिम भी करता है.

इस तरह आम बल्ब की रोशनी हो जाएगी तीन गुना

अमेरिकी शोधकर्ताओं ने ऐसी तकनीक विकसित की है जो आम बल्ब की रोशनी को तीन गुना बढ़ा देगी. शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने पारंपरिक बल्ब से तीन गुना बेहतर काम करने वाला बल्ब तैयार किया है.

कई देशों में पुराने बल्बों को हटाया जा रहा है. पुराने बल्ब ऊर्जा के केवल 2 फीसदी हिस्से को ही रोशनी में बदलते हैं, जबकि बाकी ऊर्जा बर्बाद हो जाती है. लेकिन अमेरिका के तकनीकी संस्थान एमआईटी के वैज्ञानिकों ने इस बर्बाद हो रही ऊर्जा को री-साइकिल करने का तरीका ढूंढ़ निकाला है.

इससे पहले शोधकर्ता कर चुके हैं कि आलू से बिजली का बल्ब जल सकता है. शोधकर्ता राबिनोविच और उनके सहयोगी पिछले कुछ सालों से लोगों को यही करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. ये सस्ती धातु की प्लेट्स, तारों और एलईडी बल्ब को जोड़कर किया जाता है और उनका दावा है कि ये तकनीक दुनियाभर के छोटे कस्बों और गांवों को रोशन कर देगी.

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