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हाईवे प्रोजेक्ट: किसानों को मिलेगा अधिक मुआवजा

हाईवे प्रोजेक्ट के लिए अपनी जमीन छोड़ चुके किसानों को नए भूमि अधिग्रहण कानून के तहत अधिक मुआवजा मिलेगा, बशर्ते कि उन्हें पुराने कानून के तहत मुआवजा दिया जाना बाकी हो. इस कदम से करीब 2,000 मामलों में फंसी करोड़ों रुपए के प्रोजेक्ट को सिरे चढ़ाने में मदद मिलेगी. सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में घोषणा की है, कि सरकार किसानों को अधिक मुआवजा देने पर विचार कर रही है और साथ ही उन्हें हिस्सेदारी देने पर भी विचार कर रही है.

एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, मंत्रालय ने एनएचएआई, एनएचआईडीसीएल और अन्य को ऐसे मामलों में जहां मुआवजे पुराने कानून के तहत निर्धारित किए गए, लेकिन भूमि मालिकों को मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया है, नए कानून के तहत मुआवजा बढ़ाने का निर्देश दिया है. यह व्यवस्था उचित मुआवजा का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनर्भुगतान कानून, 2013 के प्रावधानों के तहत की गई है.

उन्होंने कहा कि यह निर्णय उन किसानों पर भी लागू होगा जिनके मुआवजे एक जनवरी, 2015 से पूर्व निर्धारित किए गए थे, किंतु अधिग्रहित भूमि का कब्जा नहीं लिया गया है. मंत्रालय ने भारत के अतिरिक्त महाधिवक्ता पिंकी आनंद से इस पर कानूनी राय मांगी है.

सरकार ने रेट्रोस्पेक्टिव क्लॉज के तहत मुआवजे की परिभाषा को भी बदल दिया है. पुराने बिल के मुताबिक अगर संबंधित व्यक्ति को मिलने वाला मुआवजा उसके खाते में नहीं भी गया है और सरकार ने अदालत में या सरकारी खाते में मुआवजा जमा करा दिया है तो उसे मुआवजा ही माना जाएगा.

अब मेट्रो स्टेशनों पर होगी सामान की डिलीवरी

फरवरी से दिल्ली मेट्रो के विभिन्न स्टेशन ई कामर्स पोर्टलों के लिए टर्मिनल के रूप में भी काम करेंगे. ये आनलाइन रिटेल कंपनियां अपने ग्राहकों को चुनिंदा स्टेशनों पर उत्पाद की आपूर्ति का विकल्प देंगी, ताकि वे अपनी सुविधा के अनुसार वहां से अपना सामान ले सकें. यह सुविधा गुड़गांव और नोएडा समेत 10 स्टेशनों पर उपलब्ध होगी.

इस व्यवस्था से उन्हें सुविधा होगी जो आनलाईन खरीद करते हैं लेकिन आम तौर आर्डर प्राप्त करने के लिए वे घर पर नहीं होते हैं. अब वे पोर्टल से कह सकते हैं कि उनके सामानों की आपूर्ति तय मेट्रो टर्मिनल पर करें जहां से वे यात्रा के दौरान अपना सामान प्राप्त कर सकें.

दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन (डीएमआरसी) के एक अधिकारी ने कहा कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड के जरिए आपूर्ति पर भुगतान का विकल्प भी उपभोक्ताओं को प्रदान किया जाएगा. यह सुविधा गुड़गांव और नोएडा समेत 10 स्टेशनों पर उपलब्ध होगी.

इस सुविधा के लिए जिन स्टेशनों का चुनाव किया गया है उनमें मेट्रो की व्यस्त लाइनों पर मौजूद एमजी रोड, हुडा सिटी सेंटर, नोएडा सेक्टर -18, लक्ष्मी नगर, वैशाली, नेहरू प्लेस, द्वारका सेक्टर-9, कश्मीरी गेट, राजीव चौक और जीटीबी नगर स्टेशन शामिल हैं. मेट्रो के एक अधिकारी ने कहा, यह ई- रिटेल कंपनियों के ग्राहकों को आखिरी गंतव्य पर आपूर्ति की सुविधा संबंधी पहल है. जो डीएमआरसी के लिए आय अर्जित करने का जरिया होगा क्योंकि हम ऐसे खोके, कियोस्क बनाने के लिए जगह प्रदान करेंगे.

 

बिन पुस्तक सब सून

आज का युवा कल का भविष्य है, लेकिन इस युवा की दशा और दिशा गढ़ने वाले स्कूलकालेज आज स्वयं ही प्रश्न के दायरे में हैं. पिछले कई सालों से देखा जा रहा है कि छात्र कालेज जाते ही नहीं हैं. क्लासरूम में छात्रों की उपस्थिति मात्र 15 से 20% देखी गई है. इस से भी बड़ी दुख व चिंता की बात यह है कि भविष्य के इन सृजनकर्ताओं के हाथों में सृजन संसार के निर्माण में सहायक किताबों की भूमिका ही गायब है. किताबों की जगह मोबाइल ने ले ली है.

स्कूलकालेजों में युवाओं के हाथों से किताबें धीरेधीरे दूर होती जा रही हैं. यहां तक कि कई स्थानों पर छात्र परीक्षाएं भी बिना किताबों के ही दे रहे हैं. कहने को तो  वे बड़ीबड़ी डिग्रियां हासिल कर रहे हैं, नौकरियां भी पा रहे हैं लेकिन चिंता की बात यह है कि भले ही हाथ में बड़ी डिग्रियां हों, लेकिन किताबों का साथ छूटता जा रहा है. अब उन के हाथ में एक कौपी और गाइड होती है. टैक्स्ट बुक को न पढ़ कर विद्यार्थी गाइड पढ़ना पसंद करते हैं, क्योंकि उस में सभी उत्तर भी मिल जाते हैं और मेहनत भी नहीं करनी पड़ती.

टैक्स्ट बुक से दूरी, गाइड जैसी हैल्प बुक से प्रेम के लिए जिम्मेदार भी टीचर्स और छात्र दोनों हैं. छात्र टैक्स्ट बुक पढ़ते समय अध्यापक से अच्छी हैल्पबुक की राय भी लेते हैं. कहीं टीचर्स हैल्पबुक्स बताने में पूरी रुचि दिखाते हैं तो कहीं छात्र को टैक्स्ट बुक्स पढ़ने की ही सलाह दी जाती है. जब विकल्प मौजूद हैं तो छात्र दिमाग लगाना पसंद नहीं करते. वे इन किताबों के जरिए परीक्षाएं पास तो जरूर कर लेते हैं लेकिन उन का ज्ञान नहीं बढ़ता. आगे चल कर वे ऐसे ही शौर्टकट रास्ते के द्वारा अन्य परीक्षाएं भी पास कर लेना चाहते हैं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिलती.

किताबों से दूर क्यों भाग रहे बच्चे

आखिर छात्र किताबें क्यों नहीं पढ़ रहे हैं? इस सवाल का जवाब प्राध्यापकों को ही देना होगा. हमारे युवा किताबों से दूर क्यों हो रहे हैं? जबकि वे नेताओं के भड़काने से धरनाप्रदर्शन करने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं. लेकिन यही ऊर्जा वे पढ़ने में क्यों नहीं लगाते? अच्छी किताबें क्यों नहीं पढ़ते? आज इस बात पर चर्चा क्यों नहीं होती कि ये छात्र किताबों से विमुख क्यों होते जा रहे हैं.

वे सैल्फी लेने में इतना दिमाग लगाते हैं लेकिन उन का ध्यान किताबों की ओर नहीं जाता, आखिर क्यों? महात्मा गांधी ने भी पुस्तक को सर्वश्रेष्ठ मित्र कहा था. यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो छोटे बच्चे किताबों का भारी बस्ता लिए स्कूल जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ कालेज जाने वाले छात्रों के हाथ में केवल एक नोटबुक होती है. यह किस तरह की व्यवस्था निर्मित हो रही है. उन के दिमाग में यह क्यों नहीं आता कि किताबें केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं होतीं, बल्कि ज्ञान के निरंतर विस्तार में वे अहम भूमिका निभाती हैं. उन्हें ताउम्र अपने साथ रखना चाहिए.

आप का एक जिगरी दोस्त साथ छोड़ देगा लेकिन किताबें कभी साथ नहीं छोड़तीं. ये हमेशा आप को एक रास्ता दिखाती हैं. अच्छी पुस्तकें भटकते मानव को राह दिखाती हैं. सच तो यह है कि संघर्ष के दौर में जब आदमी हारने लगता है, तब पुस्तक में प्रकाशित आत्मकथाएं, उपन्यास, जीवनियां आदि हमें राह दिखाती हैं. एक छात्र और पुस्तक का संबंध वैसा ही होता है जैसे योद्धा का तलवार से या लेखक का कलम से. आज के युवा पुस्तकालय से दूर क्यों भाग रहे हैं. उन्हें किताबें क्यों नहीं भा रहीं? कोई छात्र बिना किताब के विद्यार्थी कैसे कहला सकता है? यह कैसी बीमारी है जो हमारे छात्रों को लग रही है? इसे कैसे दूर किया जाए? इस के लिए हमारे प्राध्यापकों को ध्यान देना होगा वरना वह दिन दूर नहीं जब बिन किताब के छात्र नकल के बल पर पास होते रहेंगे और बेरोजगार घूमते रहेंगे.

हुनर की कमी

देश में आज 5 से 30 वर्ष के सिर्फ 60 फीसदी युवा हैं. लेकिन इस में केवल 35 लाख लोगों के लिए स्किल ट्रेनिंग का इंतजाम है. वहीं चीन से तुलना कर के देखें तो वहां हर साल 9 करोड़ लोग ऐसी ट्रेनिंग ले रहे हैं. सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट 2015 के मुताबिक भारत में हर साल सवा करोड़ शिक्षित युवा रोजगार की तलाश में इंडस्ट्री के दरवाजे खटखटाते हैं. लेकिन उन में केवल 37% ही रोजगार के काबिल होते हैं. इस मामले में हमारी नींद बड़ी देर से खुली है जबकि जरमनी, जापान, कोरिया जैसे देशों ने इस के जरिए ही दुनिया पर अपना दबदबा कायम किया.

दरअसल, जिस शिक्षा प्रणाली के बल पर हम यहां तक पहुंचे हैं, वह हमें पढ़नालिखना तो सिखा देती है पर हुनरमंद नहीं बनाती? क्योंकि केवल रट्टा मार लेने मात्र से विषय में पारंगतता हासिल नहीं की जा सकती. रहीसही कसर सरकार भी पूरी कर रही है, क्योंकि स्किल ट्रेनिंग के लिए तकनीकी संस्था खोलने की वह जरूरत ही नहीं समझती, विस्तारीकरण तो दूर की बात है. सरकार का आईआईटी जैसे बड़े संस्थान खोलने पर ध्यान जरूर रहा, लेकिन छोटेछोटे तकनीकी संस्थान खोलने का उसे जरा भी खयाल नहीं आया. प्राइवेट सैक्टर को तो ऐसे संस्थान खोलने की अनुमति दी गई पर वे इतने महंगे हैं कि उन तक देश के गरीब वर्ग की पहुंच ही संभव नहीं हो पाती. सरकार को स्किल इंडिया के सपने को पूरा करने के लिए बुनियादी स्तर पर ही व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी. शिक्षा उत्पादन की जरूरतों के अनुसार देनी होगी. हमें यह भी देखना होगा कि दुनिया के अन्य देशों ने अपना विकास कैसे किया. ज्ञानविज्ञान में खोज और नएनए आविष्कारों के बिना आज किसी देश के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती. इस का सब से बड़ा उदाहरण जापान है जो परमाणु युद्ध में बरबाद हो गया था, लेकिन अपने कठिन परिश्रम से वह तमाम चुनौतियों का मुकाबला करते हुए फिर उठ खड़ा हुआ.

यही जज्बा हमारे युवाओं में भी होना चाहिए. युवा सरकार से, शिक्षकों से ऐसी शिक्षा व्यवस्था की पुरजोर मांग करें जिस से उन्हें व्यावहारिक ज्ञान भी मिले और तकनीक भी सीखने को मिले. बापदादा के जमाने से चली आ रही पाठ्यपुस्तकों को छात्र अपडेट करने की मांग करें.

यू टर्न लेते युवा

आज के अधिकतर युवा कैरियर की सही दिशा तलाशने में कन्फ्यूज हैं. मातापिता भी उन पर दबाव डाल कर अपना कैरियर चुनने को कहते हैं. आज के दौर में यह जरूरी नहीं कि डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही देश की सेवा की जा सकती है, बल्कि जिस क्षेत्र में हुनर हासिल है, उस में भी पहचान हासिल की जा सकती है. पढ़ाई के दौरान या फिर नौकरी की शुरुआत करते समय एक गलत मोड़ आप के पूरे जीवन को प्रभावित कर सकता है. दूसरों को देख कर या उन से प्रभावित हो कर कदम उठाने के बजाय अगर आप खुद की पसंद को ठीक से समझते हुए उपयुक्त दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो आप के कामयाब होने की उम्मीदें कई गुना बढ़ जाएंगी. लेकिन कुछ गलत निर्णयों के कारण कभी कितने गलत परिणाम देखने को मिलते हैं.

बनारस की पूनम को उस के पापा सीपीएमटी की तैयारी कराना चाहते थे. उन्होंने नैट पर सर्च कर के कोटा में एक अच्छी कोचिंग में उस का दाखिला करा दिया. होस्टल की अच्छी व्यवस्था देख कर वे उसे होस्टल दिलवा कर घर वापस आ गए. प्रारंभ में पूनम बहुत खुश थी. लेकिन एक महीना बीततेबीतते उस का मन उचटने लगा. होस्टल की लड़कियों के साथ वह एडजस्ट नहीं हो पा रही थी. इस का असर उस की पढ़ाई पर भी पढ़ने लगा. अब वह कोचिंग में भी खोईखोई रहती थी.

होस्टल में रूमपार्टनर उसे रात को पोर्न फिल्में देखने को कहती. लेकिन वह इस का विरोध करती थी. ऐसे में उस का अन्य साथियों से झगड़ा होने लगा. उस की रूमपार्टनर हमेशा मोबाइल पर जोरजोर से गाने सुनती, जिस से वह रात को पढ़ भी न पाती. अब उसे ऐसा लगने लगा कि इस माहौल में उस की सीपीएमटी की तैयारी नहीं हो सकती. उस ने मम्मीपापा को इस की सूचना दी. पापा ने उसे समझाया कि बेटे मैं तुम्हारा होस्टल बदल दूंगा. लेकिन वह न मानी और एक दिन पापा को बिन बताए सारा सामान ले कर होस्टल से घर चली आई. मम्मी ने उसे खूब डांटा. कोचिंग का पूरे साल भर का पैसा भी बरबाद चला गया. लेकिन उस के दिमाग में तो बस एक ही धुन सवार थी कि वह अब नहीं पढ़ेगी. पढ़ाई के प्रति ही उसे घृणा पैदा हो गई.

इलाहाबाद के तुषार का वहीं एक इंजीनियरिंग कालेज में उस के पापा ने दाखिला करा दिया. पिता अपने बेटे के बेहतर भविष्य को ले कर आश्वस्त हो गए. लेकिन अभी कुछ ही दिन बीते थे कि तुषार ने पापा को रात के 1 बजे फोन किया. मम्मीपापा इतनी रात को फोन की घंटी सुन घबरा गए. तुषार ने रोते हुए कहा कि मैं अब यहां एक पल भी नहीं रहूंगा. उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की. नईनई जगह है, पहली बार घर से दूर गए हो, धैर्य से काम लो, कुछ दिन में मन लगने लगेगा. पापा के समझाने पर तो तुषार ने मनमसोस कर कुछ दिन तो काटे, लेकिन वह बारबार मम्मी से घर वापस आने की बात कहा करता था. मम्मी भी उसे समझाती थीं कि बेटे केवल 4 साल की तो बात है, इंजीनियरिंग कर लेने के बाद तुम्हें अच्छी नौकरी मिल जाएगी और खूब पैसा कमाओगे. कुछ दिन तक तो तुषार ने मां की बात को किसी तरह मान लिया. लेकिन एक दिन उस ने ऐसा कदम उठा लिया जिस ने सभी को अचंभित कर दिया. मम्मीपापा ने एक दिन अखबार में उस का फोटो देखा जिस में लिखा था कि तुषार ने पंखे से लटक कर फांसी लगा ली. उस के मम्मीपापा तुरंत खबर मिलते ही वहां पहुंचे. तुषार के कमरे में एक सुसाइड नोट मिला जिस में लिखा था, ‘मां अब मैं तुम्हारे पास कभी नहीं आऊंगा. हमेशाहमेशा के लिए तुम से दूर जा रहा हूं.’ तुषार के मम्मीपापा ने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा था कि उन का लाड़ला ऐसा कदम उठा लेगा.

युवाओं का दोष नहीं

ऐसा लगता है कि आज के युवा कन्फ्यूज हैं. उन्हें यह पता नहीं कि वे क्या करें? आज के युवा प्रतिभावान होने के बावजूद अपने लिए उपयुक्त कैरियर की दिशा तलाशने में कन्फ्यूज रहते हैं. वे कब किस से प्रभावित हो कर उसे रोल मौडल बना लें, कहानहीं जा सकता. उन के मन में जोश तो होता है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि उन की सटीक पसंद क्या है. कौन सा कोर्स उन्हें भविष्य में कामयाबी की ओर ले जाएगा, उन्हें ठीक से पता नहीं होता.

ऐसे में मातापिता का यह फर्ज होता है कि उन्हें सही रास्ता दिखाएं. लेकिन अकसर गार्जियन उन पर अपने विचार जबरदस्ती थोप देते हैं. उन्हें ऐसा करने को मजबूर कर देते हैं जो वे करना नहीं चाहते. इसलिए गार्जियन को भी उन के मन की बात जाननी चाहिए और उसी के अनुसार अपनी राय देनी चाहिए. अब ऐसे में छात्र खुद के ज्ञान विस्तारीकरण के लिए किताबों पर निर्भर होते तो उन के आत्मविश्वास का लैवल भी हाई होता, क्योंकि जानकारी सदैव उत्साह ही देती है. नए विचार सोचने को देती है.

उन की भी बातें मानें

अगर आप स्वयं को खुश देखना चाहते हैं तो कुछ भी करने या पढ़ने के लिए अपने मन की बातों को समझें. यह देखें कि आप क्या करना चाहते हैं. पेरैंट्स को बच्चों से खुल कर बात करनी चाहिए, क्योंकि हो सकता है वह डर के कारण आप से अपने मन की बात न बता रहा हो. आप ने उसे पाला है तो आप से अच्छा और कोई भी नहीं, जो उस के मन की बात जान सकता हो. आज के दौर में युवा यह न सोचें कि डाक्टर या इंजीनियर, बन कर ही आप को पहचान मिल सकती है. आज के समय में जिस भी क्षेत्र में आप हुनरमंद हैं, उसी में प्रसिद्धि मिल सकती है. इसलिए हुनर को तराशने का प्रयास करना चाहिए. जब आप अपने हुनर के विपरीत जाते हैं तो सफलता आप से दूर चली जाती है. इस के लिए किताबों को अपना साथी बनाना होगा. सफलता का कोई भी शौर्टकट रास्ता नहीं होता.

नए साल में कुछ इस तरह बदलें अपना अंदाज

न्यूईयर ईव का मतलब फुल नाइट मौजमस्ती, खानापीना, डीजे पर थिरकना और 12 बजते ही एकदूसरे को शुभकामनाएं देने व मैसेज भेजने का सिलसिला शुरू हो जाता है. यहां तक कि हम न्यू ईयर के जश्न के लिए कई दिन पहले से तैयारियां शुरू कर देते हैं ताकि सैलिबे्रशन में कहीं कोई कमी न रहने पाए. हर जगह और हर स्तर पर अपनेअपने तरीके से न्यू ईयर मनाया जाता है, क्योंकि यह इंटरनैशनल फैस्टिवल जो है. कोई भी देश न्यू ईयर मनाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहता.

आखिर हम नए साल का जश्न मनाते ही इसीलिए हैं ताकि जिस जश्न के साथ हम ने नए साल का स्वागत किया है वही उल्लास और उत्साह पूरे साल हमारे जीवन में बना रहे. न कोई दुख हमारे जिंदगी को छुए और हम हर दम यों ही चहकते रहें, लेकिन युवाओं को इस बात को समझना होगा कि न्यू ईयर का जश्न एक दिन मना कर फीका न पड़े साथ ही यह भी समझें कि आखिर नया साल है  क्या?  नए साल का मतलब नई शुरुआत, नई सोच, विचारों को नई दिशा देना है. खुद को बदल कर समाज व देश में नई क्रांति लाना है. जब हम इस बात को समझ जाएंगे तो हमें सिर्फ पहली जनवरी या फिर 31 दिसंबर की ईव पर ही जश्न मनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि हमारे लिए हर दिन जश्न का दिन होगा. तो फिर इस बार न्यू ईयर पर जश्न के साथसाथ अपनी सोच को भी नई दिशा दें.

जश्न में न रहने पाए कमी

सब नए साल का स्वागत अपनेअपने तरीके  से करते हैं. कोई इस दिन को दोस्तों संग मनाना पसंद करता है तो कोई फैमिली के साथ. आप चाहे इस दिन को किसी के साथ भी मनाएं लेकिन फन में कमी नहीं रहनी चाहिए. साथ ही आप का मूड भी पार्टी के लिए तैयार होना चाहिए. जिस तरह ‘ये दिन न मिलेंगे दोबारा’ ठीक उसी तरह न तो 31 दिसंबर, 2015 की ईव दोबारा आएगी और न ही 1 जनवरी, 2016 की सुबह इसलिए फन में कमी न आने दें. इस के लिए पहले से ही तैयारी करनी चाहिए वरना लास्ट मूवमैंट पर तैयारी करने का मतलब है अपना मूड खराब करना.

आप पहले से ही केक और्डर कर दें ताकि 12 बजते ही केक खिला कर एकदूसरे का मुंह मीठा करवा कर उस के साथ यही कामना की जाए कि केक की मिठास की तरह ही हमारा पूरा साल, हमारे रिलेशन, हमारी दोस्ती में मिठास बरकरार रहे. खाने में भी वैराइटी ला कर पार्टी वाली फीलिंग पैदा की जाए. घर को ऐसे सजाएं जैसे दीवाली पर सजाते हैं. हो सके तो क्रिएटिव आइडियाज द्वारा पार्टी को नया लुक देने की कोशिश करें.

डीजे वाले बाबू मेरा गाना बजा दो

न्यू ईयर का जश्न हो और डीजे न हो बात कुछ जमती नहीं. युवाओं को तो आज वही पार्टी पसंद आती है जिस में डीजे हो. युवा खानेपीने से समझौता कर सकते हैं लेकिन डीजे से नहीं. 31 दिसंबर की ईव पर आप को जगहजगह डीजे लगे हुए दिख जाएंगे जिन पर थिरकने के लिए युवा आतुर रहते हैं. वे पहले से ही अपनी पसंद के गानों की कलैक्शन करनी शुरू कर देते हैं और पार्टी वाले दिन डीजे वाले बाबू से फरमाइश कर के अपनी पसंद के गाने बजवाते हैं और डीजे पर मौजमस्ती करते हैं. 5 मिनट में 12 से 15 गाने प्ले हो जाते हैं जिन पर युवाओं का नौनस्टौप थिरकना जारी रहता है. इस बीच न उन्हें खाने का होश होता है और न ही टाइम का पता चलता है. बस, मस्ती औन द फ्लोर औफ डीजे.

फिल्म देख कर करें ऐंजौय

अगर आप इस बार घर पर या फिर रैस्टोरैंट में पार्टी करने के मूड में नहीं हैं तो दोस्तों के साथ मूवी देखने का प्रोग्राम बनाएं. वहां आप को मूवी के साथसाथ दोस्तों की कंपनी को भी ऐंजौय करने का मौका मिल जाएगा. वैसे तो पेरैंट्स से लेट नाइट मूवी शोज देखने की परमिशन नहीं मिलती, लेकिन इस दिन शायद ही किसी के पेरैंट्स रोकटोक करें, क्योंकि पूरी रात चहलपहल व सेफ्टी के पुख्ता इंतजाम होते हैं. उस रात आप फुल औफ कौमेडी मूवी देखें. ऐसी फिल्म के सीन्स याद कर आप अपने आप ही बाद में भी हंसते रहेंगे. मूवी के बाद आप मस्ती करते हुए घर लौटें और फिर एसएमएस कर एकदूसरे को बधाई दें.

जश्न को न पड़ने दें फीका

युवा हर चीज का स्वागत तो करते हैं लेकिन उस को हमेशा के लिए अपनी लाइफ में कायम नहीं रख पाते, जिस से एक दिन के जश्न के बाद फिर से उन की लाइफ नीरस सी होने लगती है और वे फिर से रीफ्रैश होने के लिए किसी फैस्टिवल का इंतजार करने लगते हैं. युवाओं को यह समझना होगा कि नए साल से ज्यादा उन्हें हर पल कुछ नया करने के बारे में सोचना चाहिए जिस से उत्साह बना रहे वरना हर साल की तरह यह साल भी आ कर चला जाएगा. आप इस साल अपना लक्ष्य निर्धारित करें कि मुझे इस साल कालेज में टौप करना है या फिर इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल करनी है चाहे इस के लिए मुझे कितनी ही कड़ी मेहनत करनी पड़े और जब आप अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे तो आप को कितनी खुशी होगी इस बात का अंदाजा शायद ही आप लगा पाएं. इसलिए हर साल की तरह इस साल को अपने हाथ से न जाने दें और कोई नया मुकाम हासिल करें, जिस से आप के लिए हर दिन, हर महीना किसी जश्न से कम नहीं होगा.

समाज व देश के लिए कुछ करने का बीड़ा उठाएं

साल आता है और चला जाता है और हम ऐसे में सिर्फ यही सोचते रह जाते हैं कि यह साल भी आ कर चला गया. अगर आप चाहते हैं कि साल के अंत में आप पछताएं नहीं कि इस साल मैं ने कोई खास काम नहीं किया तो इस बार आप समाज को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठाएं और इस की शुरुआत अपने घर से ही करें. जहां खाया वहीं कूड़ा फेंक दिया वाली अपनी आदत को त्याग दें.

अगर आप बस या ट्रेन में ट्रैवल करते हुए कुछ खा रहे हैं तो उस का खाली पैकेट यहांवहां फेंकने के बजाय अपने बैग में रखें और अगर आप को आसपास भी कोई गंदगी फैलाता हुआ दिखे तो उसे ऐसा करने से रोकें और सफाई का महत्त्व समझाएं. यह न सोचें कि दोचार लोगों के प्रयास से कौन सा देश या समाज में सुधार हो जाएगा, क्योंकि अगर हर इंसान ऐसा सोचेगा तो कोई भी सुधार करने की पहल नहीं कर पाएगा.

देखादेखी न लें रैजोल्यूशन

नया साल आए और हम रैजोल्यूशन न लें ऐसा संभव नहीं है. युवा अपने दिमाग से नहीं बल्कि देखादेखी रैजोल्यूशंस लेते हैं जैसे अगर एक फ्रैंड ने कहा कि मैं तो इस साल एमबीए कोर्स में ही ऐडमिशन लूंगा तो दूसरा फ्रैंड भी देखादेखी एमबीए कोर्स में ही ऐडमिशन लेने का रैजोल्यूशन ले लेता है, भले ही उसे इस के लिए कितनी ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े और परिणाम बेकार ही क्यों न हो. युवाओं को इस बात को समझना होगा कि हर व्यक्ति की कार्यक्षमता अलग होती है और यह जरूरी नहीं कि जिस कार्य में एक व्यक्ति सक्षम हो उस में दूसरा व्यक्ति भी सक्षम हो, इसलिए सोचसमझ कर व खुद का विश्लेषण करने के बाद ही कोई रैजोल्यूशन लें.

बैड हैबिट्स को कहें अलविदा

अलविदा 2014, अलविदा 2015 कहते हुए तो आप युवाओं को देख लेंगे, लेकिन कोई भी पुराने साल को विदा करते वक्त यह नहीं कहता कि हम इस साल से अपनी सारी बुरी आदतों को त्याग देंगे. इस साल की शुरुआत आप अपनी सारी बुरी आदतों को त्याग कर करें. अगर आप में हर वक्त औनलाइन रहने की बुरी आदत है तो आप उसे छोड़ें. ऐसा आप एकदम से नहीं बल्कि धीरेधीरे ही कर पाएंगे. आप खुद से वादा करें कि आप रोजाना 2-3 घंटे ही नैट से जुड़ेंगे और अगर आप का मन इस से और जुड़ने को करेगा तो आप अपने मन को समझाएंगे कि ऐसा करने से आप अपने तय लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे. ठीक इसी तरह आप अपनी अन्य बुरी आदतों को भी अपनी दृढ़इच्छाशक्ति से छोड़ें.

व्यवहार में लाएं सौफ्टनैस

अच्छे व्यवहार का जादू सिर चढ़ कर बोलता है. किसी के दिल को जीतना तो सौफ्ट व्यवहार की बदौलत ही संभव है. कड़वे व तीखे बोल वाले व्यक्ति को देख कर अकसर लोग उस से कटने की कोशिश करते हैं, इसलिए नए साल पर अपने व्यवहार में परिवर्तन ला कर लोगों के दिलों पर राज करें. इस तरह आप नए साल पर जश्न मनाने के साथसाथ कुछ ऐसा भी करें जिसे आप हमेशा याद रखें व आप को साल के अंत में पछताना न पड़े कि मैं ने हर साल की तरह इस साल को भी अपने हाथ से जाने दिया.

रकिंग : फिटनैस का नया मंत्र

दिल्ली के मयूर विहार में रहने वाला 27 वर्षीय सौरभ रोजाना सुबह एक बैग पीठ पर टांग कर घर से निकल पड़ता है. देखने से तो लगता है कि औफिस जा रहा है लेकिन उस की ड्रैस कुछ और ही बताती है. ट्रैक सूट और स्पोर्ट्स शूज पहन कर सौरभ घर से निकल पड़ता है और करीब एकडेढ़ घंटे बाद वापस भी आ जाता है. आखिर वह जाता कहां है? एक दिन सौरभ के पड़ोसी ने जब उस से पूछा तब पता चला कि वह रोजाना रकिंग के लिए जाता है. सुनने में अजीब लगने वाला यह शब्द इन दिनों फिटनैस प्रेमियों के बीच खासा प्रचलित हो रहा है. रकिंग का अर्थ है अपनी पीठ पर वजन लाद कर समूह में चलना. यह वजन कम करने में मददगार है और शरीर को मजबूती भी प्रदान करता है.

कैसे करें

रकिंग को अमूमन समूह में किया जाता है लेकिन कुछ लोग इसे अकेले भी करते हैं. एक बैग में अपनी क्षमतानुसार वजन डाल कर इसे पीठ पर टांग लिया जाता है. उस के बाद एक निश्चित दूरी  तक अपनी गति में चला जाता है. इस की तीव्रता को बढ़ाने के लिए बैग में अधिक वजन डाल सकते हैं या दूरी बढ़ा सकते हैं. कार्डियोवस्कुलर और वजन कम करने के उद्देश्य से रकिंग सप्ताह में 5-6 दिन बिना रुके आधे घंटे तक करनी चाहिए.

लाभ

वर्कआउट का एक मस्ती भरा और आसान तरीका है रकिंग. चूंकि इस में सिर्फ पैदल चलना है तो आप को किसी विशेष कौशल की आवश्यकता ही नहीं है. समूह में रकिंग करने से व्यक्ति प्रेरित होता है, बातचीत करने और हंसने का भी मौका मिलता है जो अपनेआप में एक व्यायाम है. इस से शरीर सुदृढ़ बनता है, मांसपेशियों में जंग नहीं लगता और वजन कम करने में भी मदद मिलती है. हां, यह जरूर है कि यदि आप स्ट्रैंथ ट्रेनिंग की खोज में हैं या बाइसेप्स ट्राइसेप्स चाहते हैं तो यह वेट टे्रनिंग वर्कआउट का विकल्प नहीं हो सकता. दरअसल, कुछ मांसपेशियां रकिंग के दौरान बिलकुल भी काम नहीं करतीं.

क्या चाहिए

एक बेहतरीन बैक पैक और वजन के लिए पानी भरी बोतलें, किताबें, राशन या अन्य कोई वजनी वस्तु, पीने के लिए पानी की बोतल, आरामदायक कपड़े, बेहतरीन  वौकिंग शूज और खुशमिजाज लोगों का समूह रकिंग के लिए जरूरी है.

कहां जाएं

रकिंग के लिए आप जौगिंग ट्रैक से ले कर सड़क पर भी चल सकते हैं. यदि चैलेंजिंग वर्कआउट करना है तो ऊपर जाने वाली सड़क लीजिए या ऐसी सड़क जो ऊबड़खाबड़ हो.

शरीर का पोस्चर

आप का सीधे खड़े हो कर चलना जरूरी है. आप को पीठ पर दबाव महसूस नहीं होना चाहिए. पीठ में दर्द या स्लिप डिस्क वालों के लिए यह वर्कआउट वर्जित है. सीधे खड़े हो कर अपने कंधों को रिलैक्स करने दीजिए, अपने कदम तेज करने के बजाय आराम से चलिए. पैर की उंगलियों के बजाय एड़ी के बल चलना चाहिए. जमीन पर हलके कदम रखने से जोड़ों पर दबाव कम पड़ता है.

जरूरी बातें

यदि आप के बैक पैक से आप की पीठ, गरदन या कंधों में दर्द हो रहा है, तो तुरंत वजन को कम कर लीजिए. समय के साथ वजन धीरेधीरे बढ़ा सकते हैं. वर्कआउट के बाद स्ट्रैचिंग जरूर करें. कंधों के पिछले हिस्से के लिए कुछ व्यायाम अलग से कर सकते हैं. यदि आप को कंधे, पैर, जोड़ों या अन्य किसी मांसपेशी में दर्द होने लगे तो कुछ दिन आराम करने के बाद दोबारा रकिंग की शुरुआत कर सकते हैं.          

डीजे का शोरशराबा

पार्टियों में डीजे बुलवा कर देर रात तक म्यूजिक चलवाना अब शहरों तक ही सीमित नहीं है. हर गांव के नुक्कड़ पर एक बोर्ड दिख जाएगा जिस में म्यूजिक पार्टी का विज्ञापन भी होगा और नाचने वाली युवतियों के मस्त फोटो भी. गांवों में हमेशा से नाचनेवालियां आती रही हैं पर अब डीजे पूरे तामझाम, स्पीकर्स, कनसोलों, मिक्सर्स, नियौन और एलईडी लाइट्स के साथ पधारते हैं ताकि बाई ही न नाचे हर जना ठुमका लगा ले. इस में अपने आप में बुराई नहीं है पर होता यह है कि इस से पहले जम कर बोतलें खुल जाती हैं और युवक तो युवक उन के चाचाताऊ और युवतियां भी पी कर नाचने को उतावली हो जाती हैं. दिक्कत यह होती है कि हर कोई चाहता है कि उसी का मनचाहा गाना बजे, बारबार बजे, डीजे उस समय किराए पर आता है पर अपनेआप को महज भोंपू वाला नहीं समझता, आर्टिस्ट समझता है. डीजे वैराइटी बनाए रखने के लिए और मांग के अनुसार प्रैफरैंस देने के चक्कर में किसी की मांग को अनदेखा करने लगते हैं और किसी की देरी कर देते हैं. मेहमान इस पर बिगड़ जाते हैं और हाथापाई तो हो ही जाती है, गोलियां तक चल जाती हैं और जेसिका लाल जैसा मामला भी हो जाता है.

वैसे झगड़ा करने और बंदूक निकालने के लिए जरूरी नहीं कि मामला गंभीर हो. यह छोटे से मामले पर भी हो सकता है. पर जब किसी पार्टी में हो तो अफसोस होता है, मेजबान तो यही चाहता है कि सभी मेहमान खुश रहें और उस की पार्टी ऐंजौय करें पर जिद्दी पियक्कड़ अपनेआप को माइकल जैक्सन दर्शाने से नहीं मानते और न केवल स्टेज घेरे रहते हैं, डीजे को बंधक बनाने की भी कोशिश करते हैं. होना तो यह चाहिए कि पार्टी में मेजबान की चले, जिस ने डीजे का पैसा दिया वह रिक्वैस्ट करे और कोई नहीं. पार्टी में व्यवहार के तरीके सीखने नहीं होते, ये अपने आप आ जाते हैं, पर सिरफरों की कमी नहीं होती. असल में जब से पार्टियों में मौज के नाम पर पीना और नाचना शामिल हो गया है, पार्टियों का मुख्य उद्देश्य सोशलाइजिंग खत्म होने लगा है. पार्टी में म्यूजिक कानफोड़ू होगा तो कौन किस से क्या बात कर सकता है. पार्टी में आवाजें कहकहों की हों, किस्से कहानियों की हों, आपसी रोनेधोने की हों न कि डीजे के साउंड सिस्टम और उस से लड़ने वाले मेहमानों की.

लखनऊ में भी न धुल सका हैदराबाद का दाग

आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से उत्तर प्रदेश की राजधनी लखनऊ की दूरी 14 सौ किलोमीटर के करीब है. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी का मामला प्रधानमंत्री की लखनऊ यात्रा पर भारी पडा. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का मैच आखिरी ‘स्लाग ओवर’ में चल रहा है. विधानसभा चुनाव के 4 साल बीत चुके हैं अब आखिरी साल चल रहा है. इस साल के अंत तक ही चुनाव की घोषणा होनी है .हर दल ने अपने अपने हिसाब से चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं.

भारतीय जनता पार्टी के लिये यह चुनाव इसलिये भी खास है क्योकि यहां से प्रधनमंत्री और गृहमंत्री सहित 73 सांसद जीत कर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 से 2017 के बीच 3 साल के फासले में लोकसभा चुनाव के परिणाम कसौटी पर होगे. बिहार चुनाव में भाजपा के ‘सवर्णवाद’ की हवा निकलने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा नये समीकरण तलाश रही है. वह पिछडी जातियों के साथ दलित समीकरण को भी बनाने में लगी है.

लखनऊ यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लखनऊ में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में हिस्सा लेने आये तो हैदराबाद के दलित छात्र रोहित की खुदकुशी पर रोष प्रगट करते अम्बेडकर विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘मोदी मुर्दाबाद’ और ‘मोदी वापस जाओं’ जैसे नारे लगाने शुरू कर दिये. इनमें अम्बेडकर विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडल विजेता छात्र रामकरन और अमरेद्र आचार्य जैसे छात्र भी शरीक थे. प्रधानमंत्री को इस तरह के विरोध की आशंका पहले से थी. अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने रोहित की मौत पर 2 बार मौन रह कर भावुकता पूर्वक अपनी संवेदना प्रगट की. प्रधानमंत्री ने रोहित को मां भारती का लाल बताया. यही नहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार के कामों को अम्बेडकर के सपनों से जोडने की कोशिश करते कहा कि अमेरिका में पढने के बाद भी अम्बेडकर ने भारत में काम करने का संकल्प लिया था. मोदी ने लखनऊ यात्रा में काल्विन ताल्लुकेदार कालेज में ई-रिक्शा बांटने का कार्यक्रम भी रखा था. यहां भी गरीबों से चारपाई पर आमने सामने बैठ कर बात की. इसके बाद प्रधनमंत्री मोदी अम्बेडकर महासभा के आफिस गये जहां डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के अस्थिकलश पर पुष्प चढाये.

लखनऊ में अपने 4 घंटे के कार्यक्रम में प्रधनमंत्री मोदी ने 3 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. सभी जगह दलित और अम्बेडकरवाद से अपनी सरकार के कामों को जोडने का प्रयास किया. प्रधानमंत्री ने वैसे तो अपने पूरे दौरे में किसी तरह की चुनावी बात नहीं की पर कुछ न कहते हुये भी पार्टी के दलित एजेंडें को तय कर दिया. भाजपा के थिंक्स टैंक अब पार्टी के अम्बेडकरवाद की चर्चा से चुनावी तैयारी शुरू करना चाह रहे है. वैसे तो भाजपा और उसके संगठन सामाजिक समरसता और दलित उत्थान का बेहद समर्थन करते है पर उनकी कथनी और करनी का फर्क सामने दिखता है. विद्यालयों को शिक्षा का मंदिर कहा जाता है वहां पर जिस तरह की जाति और धर्म की जकडन है हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित की खुदकुशी ने उसे उजागर कर दिया है. अगर यही मायनों में देश और समाज का भला करना है तो राजनीति को जाति और धर्म के वोट बैंक से बाहर निकल कर काम करना होगा. सही मायनों में तभी बाबा साहब का सपना सकार हो सकेगा.

थिएटर को बहुत ज्यादा मिस करता हूं: वरुण शर्मा

सिनेमा में भले ही बहुत बड़ा बदलाव आ गया हो, मगर बौलीवुड के गैर फिल्मी परिवार से आने वाले लोगों के लिए दरवाजे अभी भी पूरी तरह खुले नहीं हैं. वास्तव में अभी बौलीवुड फैमिली बिजनैस ही बना हुआ है. चंद फिल्मी परिवार ही पूरी तरह से हावी हैं. ऐसे में जालंधर के एक गैर फिल्मी व उच्च शिक्षा हासिल करने वाले वरुण शर्मा का बौलीवुड में आ कर अपनी पहचान बनाना बहुत बड़ी उपलब्धि है. वे अब तक ‘फुकरे’, ‘वार्निंग’, ‘डौली की डोली’, ‘किसकिस को प्यार करूं’ के अलावा शाहरुख खान व काजोल के साथ फिल्म ‘दिलवाले’ में नजर आ चुके हैं. प्रस्तुत हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश :

आप ने अभिनय को ही कैरियर बनाने की बात कब सोची?
बचपन से ही मुझे अभिनेता बनना था. यों तो मूलत: मैं जालंधर से हूं पर मेरी स्कूली शिक्षा कसौली के द लौरेंस स्कूल, सनावर से हुई. स्कूल की पढ़ाई के ही दौरान मेरे पिता का देहांत हो गया था. इसलिए मुझे कसौली छोड़ कर चंडीगढ़ आ कर अपनी मम्मी के साथ रहना पड़ा और फिर मेरी आगे की पढ़ाई चंडीगढ़ में ही हुई.

मुझे याद है, जब मैं छोटा था, तो एक दिन फिल्म ‘बाजीगर’ देखते हुए फिल्म का यह गाना, ‘कालीकाली…’ आते ही उस पर नृत्य करने लगा था. उस वक्त मेरे मातापिता को लगा कि यह बचपना है और यह सब 2-3 माह बाद खत्म हो जाएगा, पर मेरे अंदर नृत्य व अभिनय की दीवानगी बढ़ती ही चली गई. अभिनेता संजय दत्त भी सनावर से ही पढ़े हुए हैं. हमारे स्कूल के स्थापना दिवस पर संजय दत्त मुख्य अतिथि बन कर आए थे.

मैं उन से मिलना चाहता था और उन के सामने अपनी कला को दिखाना चाहता था. इसलिए मैं ने अपने शिक्षक से प्रार्थना कर एक नाटक में छोटा सा किरदार निभाया पर संजय दत्त से कोई बात नहीं हो पाई. मैं उन से बात करने व उन से मिलने के लिए कुछ देर तक उन के पीछेपीछे चलता रहा और मैं ने तय कर लिया कि कुछ भी हो जाए अब तो मुझे यही करना है.

पर जैसा कि मैं ने पहले बताया कि पिता के देहांत की वजह से मुझे 10वीं तक की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही जालंधर लौटना पड़ा. उस के बाद मेरी शिक्षा जालंधर और चंडीगढ़ में हुई. मैं ने फिल्म विधा में स्नातक की डिग्री ‘इंडिया थिएटर अकादमी’ चंडीगढ़ से ली. चंडीगढ़ में रहते हुए आशू शर्मा के साथ जुड़ कर थिएटर किया. फिर कुछ विज्ञापन फिल्में करने के कारण एक दिन मुंबई चला आया. अब कुछ फिल्में रिलीज हो चुकी हैं. कलाकार के तौर पर लोग मुझे भी पहचानने लगे हैं.

चंडीगढ़ से मुंबई पहुंचने के आप के अनुभव कैसे रहे?
मैं चंडीगढ़ में इंडियन थिएटर अकादमी से फिल्म मेकिंग में पढ़ाई करने के बाद आगे की ट्रेनिंग लेने और फिल्मों में अभिनय करने के मकसद से मुंबई आया था. यहां मैं ने बतौर सहायक कास्टिंग डायरैक्टर अपने कैरियर की शुरुआत की थी. मैं नंदनी श्रीकांत के साथ भी बतौर सहायक कास्टिंग डायरैक्टर के रूप में काम करते हुए ट्रेनिंग लेता रहा. मैं ने उन्हें साफसाफ बता दिया था कि मेरा मकसद अभिनय करना है पर मैं कुछ समय के लिए आप के साथ जुड़ना चाहता हूं. नंदनी श्रीकांत के साथ काम करते हुए मैं ने ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’, ‘यह जवानी है दीवानी’, ‘एक मैं और एक तू’, मीरा नायर की फिल्म ‘लेफटिस्ट फंडामैंटलिस्ट’ और बंगला फिल्म ‘ताशेर देश’ के लिए मौडलिंग की.

कास्टिंग के दौरान मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला. क्योंकि जब एक ही स्क्रिप्ट पर 400 कलाकार अलगअलग ढंग से परफौर्म करते थे, तब कैमरे के पीछे खड़े हो कर उसे रिकौर्ड करते हुए हम बहुत कुछ सीखते थे. जब मुझे पहली फिल्म ‘वार्निंग’ मिली तब मैं ने कास्टिंग का काम करना बंद कर दिया और अभिनय में ही पूरी तरह से डूब गया. ‘वार्निंग’ की शूटिंग खत्म होते ही मैं ने ‘फुकरे’ के लिए औडिशन दिया और मेरा चयन हो गया. ‘फुकरे’ फिल्म रिलीज होने के बाद मेरी जिंदगी बदल गई.

फुकरेफिल्म रिलीज होने के बाद किस तरह से जिंदगी बदली?
‘फुकरे’ फिल्म रिलीज होने के बाद सभी को मेरा काम इतना पसंद आया कि अब मुझे औडिशन देने की जरूरत नहीं पड़ती. अब निर्देशक मुझे बुलाता है और सीधे कहानी सुनाता है. ‘फुकरे’ के बाद मैं ने अरबाज खान की फिल्म ‘डौली की डोली’ में सोनम कपूर के साथ, अब्बास मस्तान की फिल्म ‘किसकिस को प्यार करूं’ में कपिल शर्मा के साथ और अब रोहित शेट्टी निर्देशित फिल्म ‘दिलवाले’ में शाहरुख खान, काजोल, वरुण धवन, बोमन ईरानी के साथ काम किया है. लोग मेरे काम की तारीफ कर रहे हैं.

आप ने दिलवालेफिल्म की. मगर दिलवालेमें शाहरुख खान, काजोल, वरुण धवन और कृति सैनन हैं. फिल्म के प्रमोशन में भी इन्हें महत्त्व दिया गया. ऐसे में आप को खुद के लिए खतरा महसूस नहीं हुआ?
मेरा ध्यान इस तरफ गया ही नहीं. कैरियर की शुरुआत में ही काजोल और शाहरुख खान जैसे सुपर स्टार कलाकारों के साथ फिल्म का हिस्सा बनने का अवसर मिल रहा था तो इनकार करने का सवाल ही नहीं था. फिर इस में बोमन ईरानी, संजय मिश्रा, वरुण धवन सहित कई दिग्गज व प्रतिभाशाली कलाकार भी हैं.

मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही बात थी कि इन बेहतरीन कलाकारों के बीच मुझे भी अपनी प्रतिभा को दिखाने का अवसर मिलेगा. मुझे काफी कुछ सीखने को मिलेगा और दुनिया के सामने मेरी कला भी पहुंच सकेगी. इसलिए मेरे मन में कभी भी दूसरों से खुद के लिए खतरा पैदा होने वाली बात नहीं आई.

आप के अनुसार दिलवालेफिल्म क्या है?
‘दिलवाले’ एक मनोरंजक फिल्म है, जिस में रोमांस, ड्रामा, ऐक्शन, इमोशन सब कुछ है. मेरा किरदार सिद्धू का है जो बहुत फन लविंग करैक्टर है. मगर यह किरदार मेरी पहले की फिल्मों के किरदारों से काफी अलग है. पर यह गंभीर किस्म का किरदार नहीं है. यह किरदार भी फनी है, जोकि लोगों को हंसाता है. इस में मेरे साथ एक नई लड़की चेतना पांडे है, जिस के संग मेरी प्रेम कहानी है. फिल्म में सिद्धू की शादी का भी मसला है. मेरी कोशिश तो यही रही है कि मैं लोगों के चेहरे पर मुसकराहट ला सकूं. फिल्म में मेरे तमाम सीन्स शाहरुख खान, काजोल व वरुण धवन के साथ हैं. हम ने पूरे 180 दिन शूटिंग की है.

जब कोई फिल्म 180 या उस से अधिक दिन तक फिल्माई जाती है तो उस के तमाम दृश्यों पर कैंची चलने की उम्मीदें बढ़ जाती हैं. आप को डर नहीं लगा था?
मुझे इस बारे में कुछ पता नहीं. पर मुझे नहीं लगता कि फिल्म में ऐसा कोई सीन फिल्माया गया, जिसे काटने की जरूरत पड़ेगी. पहले के समय में तो कई साल तक फिल्म फिल्माई जाती थी. मैं बहुत नासमझ हूं. मैं तो अभी बौलीवुड से जुड़ा हूं. बौलीवुड की कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश में लगा हुआ हूं. फिलहाल तो मेरे दिमाग में यही बात रहती है कि अपना काम ईमानदारी व अच्छे से करो, तो परिणाम भी अच्छे मिलेंगे.

शाहरुख खान को ले कर क्या कहेंगे?
वे बहुत बेहतरीन इंसान और कलाकार हैं, अभिनय के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा मुकाम हासिल करने के बाद भी वे सैट पर काफी रिहर्सल करते हैं. वे अपने सहकलाकारों की भी हौसलाअफजाई करते हैं. वे सैट पर हर छोटेबड़े कलाकार के साथ घुलमिल जाते हैं. शूटिंग के दौरान वे सैट पर ही ज्यादातर मौजूद रहते हैं. उन के अंदर काम के प्रति जो पैशन है, वह बहुत कम लोगों में नजर आता है. उन्हें काम करते देख मुझे लगा कि मैं बहुत कम मेहनत करता हूं और मुझे कामयाबी पाने के लिए उन की तरह मेहनत करनी होगी.

तो क्या आप सिर्फ कौमेडी करते हुए नजर आएंगे? क्योंकि अब तक आप अपनी हर फिल्म में कौमेडी किरदार ही निभाते आए हैं?
यह सच है कि अब तक मैं अपनी हर फिल्म में कौमेडी करता आया हूं. इस बात को ले कर मुझे तमाम लोगों ने टोका भी है. कुछ लोगों ने कहा कि यदि मैं ने इसी तरह सिर्फ कौमेडी किरदार निभाए, तो एक कौमेडियन की इमेज में बंध कर रह जाऊंगा. मैं ने भी सुना है कि बौलीवुड में कलाकारों को इमेज में बांध कर रख दिया जाता है. पर हकीकत यह है कि जब मैं ने फिल्मों में काम करना शुरू किया था, तो मुझे खुद पता नहीं था कि मैं कौमेडी कर पाऊंगा.

पहले मैं थिएटर किया करता था. थिएटर पर मैं ने ‘अंधा युग’ सहित करीबन 20-25 नाटकों में गंभीर किरदार निभाए हैं. पर मैं ने पहली बार फिल्म ‘फुकरे’ में कौमेडी की थी. यहां तक कि मेरे कैरियर की पहली फिल्म ‘वार्निंग’ भी गंभीर फिल्म थी. पर ‘फुकरे’ में मेरा चूजे का किरदार इतना लोकप्रिय हो गया कि उस के बाद लोगों ने मुझे कौमेडी के लिए ही याद करना शुरू कर दिया. मैं ने सोचा कि जिस चीज को मैं दिल से कर रहा हूं क्यों न उसे आगे बढ़ाया जाए. लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि मैं सिर्फ कौमेडी करना चाहता हूं. मैं गंभीर, इमोशनल नैगेटिव किरदार भी निभाना चाहता हूं.

थिएटर को आप मिस करते हैं या नहीं?
थिएटर को बहुत ज्यादा मिस करता हूं. वास्तव में हमारे जैसे कलाकार मुंबई से दूर थिएटर करते रहते हैं. पर मुंबई पहुंचते ही हमारी प्राथमिकता यह होती है कि हम विज्ञापन फिल्में करते हुए रोजमर्रा के खर्च को निकालें और फिल्मों के लिए कोशिश करें. फिल्मों से जुड़ने के संघर्ष में इतना समय निकल जाता है कि थिएटर हम से दूर हो जाता है. फिल्म मिलने के बाद हम सभी उस में इस कदर व्यस्त हो जाते हैं कि थिएटर को ले कर हम कुछ सोच नहीं पाते हैं. इस की दूसरी वजह यह भी है कि नाटक करने के लिए बहुत समय देना पड़ता है. एक नाटक के लिए लगातार डेढ़ 2 माह का समय रिहर्सल के लिए देना भी चाहिए तभी उस में परफैक्शन आएगा. मगर मुंबई पहुंचने के बाद फिल्मों के चक्कर में कुछ समय के लिए थिएटर छूट जाता है. पर जब हम फिल्मों में काम करने लगते हैं, तो फिर से थिएटर शुरू किया जा सकता है. मैं फिल्मों में व्यस्त हूं. मगर 2 फिल्मों के बीच समय निकाल कर चंडीगढ़ अपने थिएटर गुरु आशू शर्मा से मिलने चला जाता हूं. उन्हीं के माध्यम से मैं नीलम मानसिंह चौधरी व अन्य रंगकर्मियों से मिला था, जिन के साथ चंडीगढ़ में रहते हुए थिएटर किया करता था. बीचबीच में चंडीगढ़ जा कर मैं आशू शर्मा के साथ किसी पुराने नाटक की रिहर्सल करता हूं, जिस से हम अपने अंदर की कला को पौलिश कर पाते हैं अन्यथा एक जैसा काम करने से बोरियत महसूस होने लगती है.

क्या यह माना जाए कि सहायक या कास्टिंग डायरैक्टर के रूप में काम करना फिल्मों में प्रवेश करने का जरिया या यों कहें कि स्टैपिंग स्टोन है?
मैं ऐसा नहीं मानता. मुझे लगता है कि जब कोई इंसान बाहर से मुंबई आता है और फिल्मों से जुड़ना चाहता है, तो उसे किसी न किसी क्षेत्र में बतौर सहायक काम करना चाहिए. क्योंकि मुंबई में पहली जरूरत होती है सुबह उठ कर घर से बाहर निकलने की. यदि आप सुबह उठ कर घर से बाहर नहीं निकलेंगे तो दिन भर घर में रहने की घुटन आप की प्रतिभा को नुकसान पहुंचाती है. बतौर सहायक ऐसी जगह काम करना चाहिए, जहां आप कुछ सीख सकें. जो लोग कास्टिंग डायरैक्टर के रूप में काम कर रहे हैं वे कभी नहीं सोचते कि शायद मेरा खुद का नंबर लग जाएगा. मेरा शुरू से मानना है कि कोई भी कलाकार खुद किसी फिल्म को नहीं चुनता है बल्कि फिल्म खुद कलाकार को चुनती है. जब मैं मुंबई आया तो यदि कास्टिंग में मुझे मौका न मिलता, तो मैं बतौर सहायक निर्देशक या फिल्म विधा के किसी अन्य क्षेत्र में काम करता, क्योंकि मैं घर पर रहने के बजाय सैट पर रहना पसंद करता हूं.

दिलवालेफिल्म देखने के बाद आप के चंडीगढ़ के दोस्तों की क्या प्रतिक्रिया रही?
देखिए, मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति फिल्मों से नहीं जुड़ा है. बौलीवुड में मैं किसी को नहीं जानता था, इसलिए जब मैं फिल्मों से जुड़ा तो मेरे दोस्तों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था. अब फिल्म ‘दिलवाले’ देखने के बाद उन का उत्साह भी बढ़ गया है. मेरे वे दोस्त जो थिएटर से जुड़े हुए हैं, उन्हें लगता है कि यदि वरुण शर्मा बौलीवुड में अपनी पहचान बना सकता है, उसे सफलता मिल सकती है तो वे भी अवश्य कुछ नया कर सकते हैं. यदि वरुण बड़े कलाकारों के साथ काम कर सकता है, तो वे भी कुछ बड़ा काम कर सकते हैं. मेरी सफलता से मेरे दोस्तों को इस बात का एहसास हो गया कि कुछ भी असंभव नहीं है.

मेरे स्कूल के कुछ दोस्तों ने कहा है कि गैर फिल्मी परिवार का एक लड़का यदि अरबाज खान की फिल्म ‘डौली की डोली’ या शाहरुख व काजोल के साथ ‘दिलवाले’ कर सकता है, तो अब कोई भी कुछ भी कर सकता है. मुझे इस बात का गर्व है कि अब मैं भी लोगों के लिए आत्मविश्वास का कारण बन सकता हूं.

आप अपने पुराने दोस्तों के संपर्क में हैं?
जी हां, मेरी राय में हर इंसान के साथ उस के वे दोस्त जरूर होने चाहिए, जोकि उसे बचपन से जानते हैं क्योंकि ऐसे दोस्तों के बारे में आप सबकुछ जानते हैं. मैं आज भी अपने ऐसे दोस्तों के संपर्क में हूं. हर दिन उन से कम से कम फोन पर तो बात करता हूं. मेरे दोस्त अपनी राय भी मेरे सामने खुल कर रखते हैं.

फिल्म दिलवालेदेखने के बाद आप की मम्मी की क्या प्रतिक्रिया रही?
वे बहुत खुश हैं. आज मैं जो कुछ भी हूं उन्हीं की वजह से हूं. जब मैं स्कूल में पढ़ाई कर रहा था तभी मेरे पिता का देहांत हो गया था. उसी के बाद मेरी मम्मी ने ही मेरी परवरिश की. मैं तो ऐसी इंडस्ट्री में आया था, जहां कुछ भी निश्चित नहीं होता, पर मुझे सफलता मिली. इस से वे खुश हैं. उन को फिल्म ‘दिलवाले’ बहुत पसंद आई. अब तो वे मेरे साथ मुंबई में ही रहती हैं. मुझे खुशी है कि मैं ने जो सपना देखा था और अपनी मम्मी से जो वादा किया था वह सब पूरा हो रहा है.

फिल्म किसकिस को प्यार करूंको देखने वालों की राय है कि इस फिल्म में आप कपिल शर्मा पर हावी रहे हैं?
मैं ऐसा नहीं मानता मगर यदि किसी को ऐसा लगा तो यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. सब से बड़ा सच तो यह है कि कपिल शर्मा भारत के सब से बड़े हंसाने वाले कलाकार हैं. बेहतरीन स्टैंडअप कौमेडियन हैं. वे नंबर वन ऐंकर हैं. कौमेडी का नाम आते ही सब से पहला नाम कपिल शर्मा का आता है. उन के साथ मेरी तुलना होना ही बहुत बड़ी बात है. मुझे फायदा यह हुआ कि कपिल शर्मा की जो लोकप्रियता है, उस की वजह से मैं भी लोगों के घरों तक पहुंच पाया. जिन लोगों ने मेरी ‘फुकरे’ या ‘डौली की डोली’ फिल्में नहीं देखी थीं, उन्होंने भी कपिल शर्मा की वजह से फिल्म ‘किसकिस को प्यार करूं’ में मुझे देखा और पसंद भी किया.

यानी आप भी लोगों को हंसाने में कामयाब रहे?
मैं तो एक चीज मानता हूं कि यदि हम लोगों को हंसा सकते हैं तो यह बहुत बड़ी बात है. मुझे याद है कि जब ‘किसकिस को प्यार करूं’ फिल्म की रिलीज के कुछ दिन बाद मैं ने अपना ट्विटर अकाउंट देखा तो उस में एक इंसान ने लिखा था कि उन की मां बीमार है. वे अकसर अपसैट रहती हैं और अपनी मां का दिल बहलाने के लिए घर से बाहर नहीं ले जा पाते. उन्होंने अपनी मां को लैपटौप पर फिल्म ‘किसकिस को प्यार करूं’ दिखाई. फिल्म देख कर उन की मां बहुत खुश हुईं. इस के लिए उन्होंने मेरा शुक्रिया अदा किया था.

आप को नहीं लगता कि बौलीवुड में मिथ है कि एक सफल स्टैंडअप कौमेडियन सफल कलाकार नहीं बन सकता?
देखिए, स्टैंडअप कौमेडी में कलाकार का अपना आत्मविश्वास बहुत माने रखता है. कपिल शर्मा सफल कलाकार हैं. वे बहुत मेहनत करते हैं और उन की कौमिक टाइमिंग भी बहुत अच्छी है.

सिनेमा में आ रहे बदलाव को आप किस तरह से देखते हैं?
हकीकत यह है कि अब सिनेमा का दर्शक बहुत बदल चुका है और दर्शकों की बदली हुई रुचि ने सिनेमा को बदलने पर मजबूर किया है. पहले छोटे बजट की फिल्मों के दर्शक नहीं हुआ करते थे पर अब ऐसा नहीं रहा. अब तो नए कलाकारों से सजी अच्छे कंटैंट वाली छोटे बजट की फिल्म को भी दर्शक बहुत पसंद कर रहे हैं.

अब दर्शक हर तरह की फिल्म देखना चाहते हैं. दर्शकों की रुचि में आए बदलाव की वजह से हमारे जैसे प्रतिभाशाली नए कलाकारों को काम करने का अच्छा अवसर मिल रहा है. अब उस तरह की फिल्में बन रही हैं, जिन में हमें अपने अंदर की प्रतिभा को विकसित करने का अवसर मिल रहा है.

इस के अलावा क्या कर रहे हैं?
बहुत जल्द अभिषेक डोगरा की फिल्म ‘तफरी’ की शूटिंग शुरू करने वाला हूं.

आप खुद पंजाबी हैं मगर पंजाबी फिल्में नहीं कर रहे हैं?
मैं खुद पंजाब से हूं. पंजाबी अच्छी लगती है. मैं पंजाबी और हिंदी फिल्में देखते हुए ही बड़ा हुआ हूं इसलिए मैं ने पंजाबी फिल्म ‘यारां द कैचअप’ की. वैसे भी पंजाबी सिनेमा तेजी से ग्रो कर रहा है और काफी अच्छी फिल्में बन रही हैं. मैं सोचता हूं कि साल दो साल में कम से कम एक पंजाबी फिल्म भी अवश्य करूं. मैं खुद को हमेशा पंजाबी भाषा के लोगों के साथ जोड़ कर रखना चाहता हूं. 2015 का वर्ष तो फिल्म ‘किसकिस को प्यार करूं’ और ‘दिलवाले’ में काम करते निकल गया. इसलिए पंजाबी फिल्म नहीं कर पाया जबकि मेरे पास 2 फिल्मों के औफर थे. मगर 2016 में पंजाबी फिल्में करने का मन है.                      

 

रियो ओलंपिक: क्या इस बार इंडिया लाएगा गोल्ड

भारत इस बार रियो ओलंपिक की तैयारी ज़ोर-ओ-शोर से कर रहा है और ऐसी उम्मीद है कि मैडल के मामले में लंदन ओलंपिक में मिले 6 मैडल का रिकार्ड शायद तोड़ दे और कम से कम एक गोल्ड जीत ले. लंदन ओलंपिक में भारत ने दो रजत और चार कांस्य पदक जीते थे. ये मैडल उसे निशानेबाज़ी, कुश्ती, बैडमिंटन और बॉक्सिंग में जीते थे.

टेनिस
सानिया मिर्ज़ा ने 2015 का साल जिस अंदाज़ में ख़त्म किया है उससे लगता है कि वो भारत के गोल्ड के सूखे को रियो में ख़त्म कर दें. वैसे उन्हें इस साल सफलता महिला युगल में मिली है जिसमें उनकी साथी मार्टीना हिंगिस हैं लेकिन इस सफलताओं से उनका मनोबल बहुत ऊंचा है और वो ये कमाल मिश्रित युगल में भी दिखा सकती हैं. उन्होंने अभी तक अपना पार्टनर चुना नही है. इसके पहले वो लिेंडर पेस के सात जोड़ी बना चुकी हैं.

बैडमिंटन
विश्व की नंबर दो खिलाड़ी सायना नेहवाल से रियो ओलंपिक में बहुत उम्मीदें रहेंगी. हाल ही में उनका प्रदर्शन बहुत शानदार रहा है और वह विश्व की नंबर एक खिलाड़ी भी बन गई थीं.

बॉक्सिंग
लंदन ओलंपिक में महिला बॉक्सिंग में मैरी कोम ने कांस्य पदक जीतकर सबको हैरान कर दिया था. इस सफलता ने उन्हें रातों रात स्टार बना दिया था. यहां तक कि उनके जीवन पर फ़ीचर फिल्म भी बन गई जो सफल भी रही थी. रियो ओलंपिक के बाद मैरी शायद बॉक्सिंग से सन्यास ले लें और ज़ाहिर है वो कांस्य को सोने में बदलना चाहेंगी. विजय कुमार से भी उम्मीद की जा सकती थी लेकिन वह पेशेवर बॉक्सर बन चुके हैं.

तीरंदाज़ी
भारत को 2014 एशियाई खेलों में पदक दिलाने वाली पुरुष कंपाउंड टीम और रिकर्व श्रेणी में दुनिया की नंबर एक तीरंदाज रह चुकी दीपिका कुमारी से रियो ओलंपिक में काफी उम्मीद रहेगी. तीन बार वर्ल्ड चैंपियनशिप में रजत पदक जीत चुकी और मौजूदा वर्ल्ड रैंकिंग में आठवें नंबर पर मौजूद दीपिका कुमारी इस बार महिला टीम का नेतृत्व कर रही हैं. महिला टीम में शामिल अन्य खिलाड़ियों में 2010 एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीतने वाली लक्ष्मी रानी मांझी और रिमिल बुरीउली भी शामिल हैं.

निशानेबाज़ी
भारतीय निशानेबाज़ जीतू राय ने विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक जीत कर रियो 2016 ओलंपिक के लिये जिस तरह  क्वालिफ़ाई किया है उससे पदक की उम्मीदें जागी हैं. रियो ओलंपिक में अपनी जगह पक्की करने वाले वो पहले भारतीय निशानेबाज़ हैं. जीतू ने ग्रानाडा में 51वीं विश्व निशानेबाज़ी चैंपियनशिप में पुरुषों की 50 मीटर पिस्टल स्पर्धा में रजत पदक जीता था. वह बस थोड़े से अंतर से ही स्वर्ण पदक हासिल करने से चूक गए थे.

कुश्ती
दो बार के ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार ने गुरुवार को भरोसा जताया कि अगले साल होने वाले रियो ओलंपिक खेलों में भारत कुश्ती के साथ दूसरे खेलों में भी शानदार प्रदर्शन कर तमगे जीतेगा. सुशील का कहना है कि ‘रियो ओलंपिक खेलों के लिये हमारे पास खिलाड़ियों की जबर्दस्त टीम है. सुशील कुमार के अलावा योगेश्वर से भी काफी उम्मीदें हैं.

डिस्कस थ्रो
इस बीच भारत के शीर्ष डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ ने भी रियो ओलंपिक का टिकट कटा लिया. गत अप्रेल में आईएएएफ के दिशा निर्देशों में पुरुषों के डिस्कस थ्रो के लिए क्वालीफाई कट ऑफ मार्क 66 मीटर था, लेकिन आईएएएफ परिषद ने इसे घटाकर 65 मीटर करने का फैसला किया है. गौडा ने मई में जमैका आमंत्रण एथलेटिक्स टूर्नामेंट के दौरान 65 मीटर की दूरी पार की थी. जिसका लाभ उन्हें अब मिल गया. राष्ट्रमंडल खेलों स्वर्ण पदक विजेता 32 वर्षीय गौडा ने मई में किंगस्टन में 65.14 मीटर दूर तक थ्रो कर खिताब जीता था.

जहां तक हाकी का सवाल है भारत ने कुछ बेहतर प्रदर्शन तो किया है लेकिन मैडल की उम्मीद करना शायद ठीक नही होगा.

मैक्सवेल का बड़ा बयान, बोले स्वार्थी हैं भारतीय क्रिकेटर्स

ऑस्ट्रेलिया के गलैन मैक्सवेल का बल्ला तो आग उगलता ही है उनकी ज़बान भी कम आग नहीं उगलती. मैक्सवेल नतीजों की परवाह किये बग़ैर बेख़ौफ अपनी राय का इज़हार करने के लिये जाने जाते हैं.

मैक्सवेल कितने बेबाक हैं इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वह पिच, बाउंड्री लॉ और कोच डैरन लेहमैन पर अपनी बेबाक टिप्पणी के लिये विवादों में फंस चुके हैं.

मेलबर्न में 96 की जिताऊ पारी खेलने के बाद उन्होंने फिर ऐसी टिप्पणी कर दी जिससे काफी वबाल, ख़ासकर बारचीय मीडिया में, मच गया. उन्होंने कहा कि भारतीय बल्लेबाज़ जब किसी रिकॉर्ड के पास पहुंच जाते हैं तो स्वार्थी हो जाते हैं.

मैक्सवेल ने मैच के बाद प्रेस कॉंफ़्रेंस में कहा था, "वे शायद सुनिश्चित कर रहे थे कि रिकॉर्ड बन जाए. कुछ लोग रिकॉर्ड्स के लिये खेलते हैं और कुछ नहीं." भारतीय मीडिया में इस बयान का ये अर्थ लगाया गया कि मैक्सवेल ने भारतीय बल्लेबाज़ों को स्वार्थी कहा.

पांचवे वनडे के पहले मैक्सवेल ने कहा कि उन्हें मालूम था कि भारतीय बल्लेबाज़ों पर उनकी टिप्पणी के बाद मीडिया हंगामा मचाएगा. मैक्सवेल ने कहा, "मुझे मालूम है, मालूम था कि हंगामा मचेगा लेकिन मैं परवाह नहीं करता."

मैक्सवेल ने विराट कोहली की चौथे वनडे में बैटिंग के बारे में बात की और इशारे में कह दिया कि जब वह (कोहली) अपने 25वें वनडे शतक के क़रीब पहुंचने लगे तो उनकी बैटिंग धीमी हो गई थी.

उन्होंने कहा, "मुझे एक तस्वीर भेजी गई. लिखा था- विराट कोहली ने 63 बॉल पर 84 रन बनाए (दरअसल उसने 61 बॉल पर 84 रन बनाए थे), और फिर 89 बॉल पर 100 रन (84 बॉल,100 रन) या शायद ऐसा ही कुछ. कोहली ने सेंचुरी पूरी करने के लिये अपने आख़िरी 11 रन 22 बॉलों पर बनाये.''

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