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मन की भाषा

बंधा हुआ हूं मैं बंधन में

मन फिर भी स्वच्छंद विचरता

मैं निशब्द हूं, ये है मुखरित

इस को भाती नहीं नीरवता

मैं प्रतिपल कर्तव्य निभाता

ये अपने अधिकार मांगता

मन चाहे आकाश-कुसुम को

समझे मेरी नहीं विवशता

ये छूता आकाश की सीमा

मेरा बस धरती से नाता

चंचल हठी शिशुओं जैसा

पुन:पुन: ये तुम तक आता

कहता होगा तुम से भी कुछ

तुम को क्योंकर समझ न आता

क्या अब भी इतनी क्लिष्ट है

शब्दों में ये मन की भाषा.

                      – अजीत शेखर

उन का बेटा

जयंत औफिस के बाद पुलिस थाने होते हुए घर पहुंचे थे. बहुत थक गए थे. शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत ज्यादा थके थे. शारीरिक श्रम जीवन में प्रतिदिन करना ही पड़ता है, परंतु पिछले 1 महीने से जयंत के जीवन में शारीरिक व मानसिक श्रम की मात्रा थकान की हद तक बढ़ गई थी. घर पर पत्नी मृदुला उन की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रतिदिन करती है. उन के आते ही जिज्ञासा से पूछती है, ‘‘कुछ पता चला?’’ आज भी वही प्रश्न हवा में उछला. पत्नी को उत्तर पता था. जयंत के चेहरे की थकी, उदास भंगिमा ही बता रही थी कि कुछ पता नहीं चला था.

जयंत सोफे पर गिरते से बोले, ‘‘नहीं, परंतु आज पुलिस ने एक नई बात बताई है.’’

‘‘वह क्या?’’ पत्नी का कलेजा मुंह को आ गया. जिस बात को स्वीकार करने में जयंत और मृदुला इतने दिनों से डर रहे थे, कहीं वही सच तो सामने नहीं आ रहा था. कई बार सच जानतेसमझते हुए भी हम उसे नकारते रहते हैं. वे दोनों भी दिल की तसल्ली के लिए झूठ को सच मान कर जी रहे थे. हृदय की अतल गहराइयों से वे मान रहे थे कि सच वह नहीं था जिस पर वे विश्वास बनाए हुए थे. परंतु जब तक प्रत्यक्ष नहीं मिल जाता, वे अपने विश्वास को टूटने नहीं देना चाहते थे.

पत्नी की बात का जवाब न दे कर जयंत ने कहा, ‘‘एक गिलास पानी लाओ.’’

मृदुला को अच्छा नहीं लगा. वह पहले अपने मन की जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहती थी. पति की परेशानी और उन की जरूरतों की तरफ आजकल उस का ध्यान नहीं जाता था. वह जानबूझ कर ऐसा नहीं करती थी, परंतु चिंता के भंवर में फंस कर वह स्वयं को भूल गई थी, पति का खयाल कैसे रखती?

जल्दी से पानी का गिलास ला कर पति के हाथ में थमाया और फिर पूछा, ‘‘क्या बताया पुलिस ने?’’

पानी पी कर जयंत ने गहरी सांस ली, फिर लापरवाही से कहा, ‘‘कहते हैं कि अब हमारा बेटा जीवित नहीं है.’’

मृदुला उन को पकड़ कर रोने लगी. वे उस को संभाल कर पीछे के कमरे तक लाए और बिस्तर पर लिटा कर बोले, ‘‘रोने से क्या फायदा मृदुल, इस सचाई को हम स्वयं नकारते आ रहे थे, परंतु अब हमें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए.’’

मृदुला उठ कर बिस्तर पर बैठ गई, ‘‘क्या उन को कोई सुबूत मिला है?’’

‘‘हां, प्रमांशु के जिन दोस्तों को पुलिस ने पकड़ा था, उन्होंने कुबूल कर लिया है कि उन्होंने प्रमांशु को मार डाला है.’’

सुन कर मृदुला और तेजी से रोने लगी. इस बार जयंत ने उसे चुप कराने का प्रयास नहीं किया, बल्कि आगे बोलते रहे, ‘‘लाश नहीं मिली है. पुलिस ने कुछ हड्डियां बरामद की हैं, उन से पहचान असंभव है.’’

मृदुला का विलाप सिसकियों में बदल गया. फिर नाक सुड़कती हुई बोली, ‘‘हो सकता है, वे प्रमांशु की हड्डियां न हों.’’

‘‘हां, संभव है, इसीलिए पुलिस उन का डीएनए टैस्ट कर के पता करेगी कि वे प्रमांशु के शरीर की हड्डियां हैं या किसी और व्यक्ति की. उन्होंने हमें कल बुलाया है. हमारे ब्लड सैंपल लेंगे.’’

‘‘ब्लड सैंपल…’’ मृदुला चौंक गई. उस ने आतंकित भाव से जयंत को देखा.

जयंत ने आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? ब्लड सैंपल देने में कोई तकलीफ नहीं होती.’’

‘‘नहीं, लेकिन…’’ मृदुला का स्वर कांप रहा था.

‘‘इस में परेशानी की कोई बात नहीं है. डीएनए मिलेगा तो वह हमारा प्रमांशु होगा, नहीं मिलेगा तो कोई अनजान व्यक्ति होगा.’’ जयंत के कहने के बावजूद मृदुला के चेहरे से भय का साया नहीं गया. उस का हृदय ही नहीं, पूरा शरीर कांप रहा था. उस के शरीर का कंपन जयंत ने भी महसूस किया. उन्होंने समझा, बेटे की मृत्यु से मृदुला विचलित हो गई है. उन्होंने उस को दवा दे कर बिस्तर पर लिटा दिया. नींद कहां आनी थी, परंतु जयंत उसे अकेला छोड़ कर ड्राइंगरूम में आ गए. सोफे पर अधलेटे से हो कर वे अतीत के जाल में उलझ गए.

जयंत का पारिवारिक जीवन काफी सुखमय रहा था. मनुष्य के पास जब धन, वैभव और वैचारिक संपन्नता हो तो उस के जीवन में आने वाले छोटेछोटे दुख, कष्ट और तकलीफें कोई माने नहीं रखतीं. उन के पिताजी केंद्र सरकार की सेवा में उच्च अधिकारी थे. मां एक कालेज में प्रोफैसर थीं. उन की शिक्षा शहर के सब से अच्छे अंगरेजी स्कूल और फिर नामचीन कालेज में हुई थी. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने भी प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास की और आज राजस्व विभाग में उच्च अधिकारी थे. उन की पत्नी मृदुला भी उच्च शिक्षित थी, परंतु वह नौकरी नहीं करती थी. वह समाजसेवा और घूमनेफिरने की शौकीन थी. शादी के बाद जब उस का उठनाबैठना जयंत के सीनियर अधिकारियों की बीवियों के साथ हुआ, तो उस की पहचान का दायरा बढ़ा और वह शहर के कई क्लबों और सभासमितियों की सदस्या बन गई थी. जयंत खुले विचारों के शिक्षित व्यक्ति थे, सो, पत्नी की आधुनिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे. वह पत्नी के घूमनेफिरने, अकेले बाहर आनेजाने पर एतराज नहीं करते थे. पत्नी के चरित्र पर वे पूरा भरोसा करते थे.

शादी के 5 साल तक उन के घर बच्चे का पदार्पण नहीं हुआ. जयंत इच्छुक थे, परंतु मृदुला नहीं चाहती थी. शादी के तुरंत बाद वह बच्चा पैदा कर के अपने सुंदर, सुगठित शरीर को बेडौल नहीं करना चाहती थी. वैसे भी वह घर और पति की तरफ अधिक ध्यान नहीं देती थी. इस के बजाय वह किटी पार्टियों व क्लबों में रमी खेलने में ज्यादा रुचि लेती थी. तब जयंत के मातापिता जीवित थे, परंतु मृदुला अपने ऊपर किसी का प्रतिबंध नहीं चाहती थी. वह वैचारिक और व्यावहारिक स्वतंत्रता की पक्षधर थी. इसलिए बाहर आनेजाने के मामले में वह किसी की बात नहीं सुनती थी. जयंत बेवजह घर में कोई झगड़ा नहीं चाहते थे, इसलिए पत्नी को कभी टोकते नहीं थे. उन का मानना था कि एक बच्चा होते ही वह घर और बच्चे की तरफ ध्यान देने लगेगी और तब वह क्लब की मौजमस्ती और किटी पार्टियां भूल जाएगी.

परंतु ऐसा नहीं हो सका. शादी के 5 साल बाद उन के यहां बच्चा हुआ, तो भी मृदुला की आदतों में कोई सुधार नहीं आया. कुछ दिन बाद ही उस ने क्लबों की पार्टियों में जाना प्रारंभ कर दिया. बच्चा आया (मेड) और जयंत के भरोसे पलने लगा. जब तक जयंत के मातापिता जीवित रहे तब तक उन्होंने प्रमांशु को संभाला, परंतु जब वह 10 साल का हुआ तो उस के दादादादी एकएक कर दुनिया से चल बसे. बच्चा स्कूल से आ कर घर में अकेला रहता, टीवी देखता या बाल पत्रिकाएं पढ़ता, जिन को जयंत खरीद कर लाते थे ताकि प्रमांशु का मन लगा रहे. वह आया से भी बहुत कम बात करता था.

शाम को जयंत घर लौटते तो वे उस का होमवर्क पूरा करवाते, कुछ देर उस के साथ खेलते और खाना खिला कर सुला देते. रात के 10 बजने के बाद कहीं मृदुला किटी पार्टियों या क्लब से लौट कर आती. तब उसे इतना होश न रहता कि वह प्रमांशु के साथ दो शब्द बोल कर उस के ऊपर ममता की दो बूंदें टपका सके. उस ने तो कभी यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उस का पेटजाया बच्चा किस प्रकार पलबढ़ रहा था, उसे कोई दुख या परेशानी है या नहीं, वह मां के आंचल की ममतामयी छांव के लिए रोता है या नहीं. वह मां से क्या चाहता है, कभी मृदुला ने उस से नहीं पूछा, न प्रमांशु ने कभी उसे बताया. उन दोनों के बीच मांबेटे जैसा कोई रिश्ता था ही नहीं. मांबेटे के बीच कभी कोई संवाद ही नहीं होता था.

धीरेधीरे प्रमांशु बड़ा हो रहा था. परंतु मृदुला उसी तरह क्लबों व किटी पार्टियों में व्यस्त थी. अब भी वह देर रात को घर लौटती थी. जयंत ने महसूस किया कि प्रमांशु भी रात को देर से घर लौटने लगा है, घर आते ही वह अपने कमरे में बंद हो जाता है, जयंत मिलने के लिए उस के कमरे में जाते तो वह दरवाजा भी नहीं खोलता. पूछने पर बहाना बना देता कि उस की तबीयत खराब है. खाना भी कई बार नहीं खाता था. जयंत की समझ में न आता कि वह इतना एकांतप्रिय क्यों होता जा रहा था. वह हाईस्कूल में था. जयंत को पता न चलता कि वह अपना होमवर्क पूरा करता है या नहीं. एक दिन जयंत ने उस से पूछ ही लिया, ‘बेटा, तुम रोजरोज देर से घर आते हो, कहां रहते हो? और तुम्हारा होमवर्क कैसे पूरा होता है? कहीं तुम परीक्षा में फेल न हो जाओ?’

‘पापा, आप मेरी बिलकुल चिंता न करें, मैं स्कूल के बाद अपने दोस्तों के घर चला जाता हूं. उन्हीं के साथ बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर लेता हूं,’ प्रमांशु ने बड़े ही आत्मविश्वास से बताया. जयंत को विश्वास तो नहीं हुआ, परंतु उन्होंने बेटे की भावनाओं को आहत करना उचित नहीं समझा. बात उतनी सी नहीं थी, जितनी प्रमांशु ने अपने पापा को बताई थी. जयंत भी लापरवाह नहीं थे. वे प्रमांशु की गतिविधियों पर नजर रखने लगे थे. उन्हें लग रहा था, प्रमांशु किन्हीं गलत गतिविधियों में लिप्त रहने लगा था. घर आता तो लगता उस के शरीर में कोई जान ही नहीं है, वह गिरतापड़ता सा, लड़खड़ाता हुआ घर पहुंचता. उस के बाल उलझे हुए होते, आंखें चढ़ी हुई होतीं और वह घर पहुंच कर सीधे अपने कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लेता. जयंत के आवाज देने पर भी दरवाजा न खोलता. दूसरे दिन भी दिन चढ़े तक सोता रहता.

यह बहुत चिंताजनक स्थिति थी. जयंत ने मृदुला से इस का जिक्र किया तो वह लापरवाही से बोली, ‘इस में चिंता करने वाली कौन सी बात है, प्रमांशु अब जवान हो गया है. अब उस के दिन गुड्डेगुडि़यों से खेलने के नहीं रहे. वह कुछ अलग ही करेगा.’

और उस ने सचमुच बहुतकुछ अलग कर के दिखा दिया, ऐसा जिस की कल्पना जयंत क्या, मृदुला ने भी नहीं की थी.

प्रमांशु ने हाईस्कूल जैसेतैसे पास कर लिया, परंतु नंबर इतने कम थे कि किसी अच्छे कालेज में दाखिला मिलना असंभव था. आजकल बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा और कोचिंग आदि की सुविधा होने के कारण वे शतप्रतिशत अंक प्राप्त करने लगे थे. हाई स्कोरिंग के कारण 90 प्रतिशत अंक प्राप्त बच्चों के ऐडमिशन भी अच्छे कालेजों में नहीं हो पा रहे थे. जयंत ने अपने प्रभाव से उसे जैसेतैसे एक कालेज में ऐडमिशन दिलवा दिया, परंतु पढ़ाई जैसे प्रमांशु का उद्देश्य ही नहीं था. उस की 17-18 साल की उम्र हो चुकी थी. अब तक यह स्पष्ट हो चुका था कि वह ड्रग्स के साथसाथ शराब का सेवन भी करने लगा था. जयंत के पैरों तले जमीन खिसक गई. प्यार और ममता से वंचित बच्चे क्या इतना बिगड़ जाते हैं कि ड्रग्स और शराब का सेवन करने लगते हैं? इस से उन्हें कोई सुकून प्राप्त होता है क्या? अपने बेटे को सुधारने के लिए मांबाप जो यत्न कर सकते हैं, वे सभी जयंत और मृदुला ने किए. प्रमांशु के बिगड़ने के बाद मृदुला ने क्लबों में जाना बंद कर दिया था. सोसायटी की किटी पार्टियों में भी नहीं जाती थी.

प्रमांशु की लतों को छुड़वाने के लिए जयंत और मृदुला ने न जाने कितने डाक्टरों से संपर्क किया, उन के पास ले कर गए, दवाएं दीं, परंतु प्रमांशु पर इलाज और काउंसलिंग का कोई असर नहीं हुआ. उलटे अब उस ने घर आना ही बंद कर दिया था. रात वह अपने दोस्तों के घर बिताने लगा था. उस के ये दोस्त भी उस की तरह ड्रग एडिक्ट थे और अपने मांबाप से दूर इस शहर में पढ़ने के लिए आए थे व अकेले रहते थे. जयंत के हाथों से सबकुछ फिसल गया था. मृदुला के पास भी अफसोस करने के अलावा और कोई चारा नहीं था. प्रमांशु पहले एकाध रात के लिए दोस्तों के यहां रुकता, फिर धीरेधीरे इस संख्या में बढ़ोतरी होने लगी थी. अब तो कई बार वह हफ्तों घर नहीं आता था. जब आता था, जयंत और मृदुला उस की हालत देख कर माथा पीट लेते, कोने में बैठ कर दिल के अंदर ही रोते रहते, आंसू नहीं निकलते, परंतु हृदय के अंदर खून के आंसू बहाते रहते. अत्यधिक ड्रग्स के सेवन से प्रमांशु जैसे हर पल नींद में रहता. लुंजपुंज अवस्था में बिस्तर पर पड़ा रहता, न खाने की सुध, न नहानेधोने और कपड़े पहनने की. उस की एक अलग ही दुनिया थी, अंधेरे रास्तों की दुनिया, जिस में वह आंखें बंद कर के टटोलटटोल कर आगे बढ़ रहा था.

जयंत के पारिवारिक जीवन में प्रमांशु की हरकतों की वजह से दुखों का पहाड़ खड़ा होता जा रहा था. जयंत जानते थे, प्रमांशु के भटकने की असली वजह क्या थी, परंतु अब उस वजह को सुधार कर प्रमांशु के जीवन में सुधार नहीं लाया जा सकता था. मृदुला अब प्रमांशु के ऊपर प्यारदुलार लुटाने के लिए तैयार थी, इस के लिए उस ने अपने शौक त्याग दिए थे, परंतु अब समय उस के हाथों से बहुत दूर जा चुका था, पहुंच से बहुत दूर. इस बात को ले कर किसी को दोष देने का कोई औचित्य भी नहीं था. जयंत और मृदुला परिस्थितियों से समझौता कर के किसी तरह जीवन के साथ तालमेल बिठा कर जीने का प्रयास कर रहे थे कि तभी उन्हें एक और झटका लगा. पता चला कि प्रमांशु समलैंगिक रिश्तों का भी आदी हो चुका था.

जयंत की समझ में नहीं आ रहा था, यह कैसे जीन्स प्रमांशु के खून में आ गए थे, जो उन के खानदान में किसी में नहीं थे. जहां तक उन्हें याद है, उन के परिवार में ड्रग्स लेने की आदत किसी को नहीं थी. पार्टी आदि में शराब का सेवन करना बुरा नहीं माना जाता था, परंतु दिनरात पीने की लत किसी को नहीं लगी थी. और अब यह समलैंगिक संबंध…?

जयंत की लाख कोशिशों के बावजूद प्रमांशु में कोई सुधार नहीं हुआ. घर से उस ने अपना नाता पूरी तरह से तोड़ लिया था. उस की दुनिया उस के ड्रग एडिक्ट और समलैंगिक दोस्तों तक सिमट कर रह गई थी. उन के साथ वह यायावरी जीवन व्यतीत कर रहा था. बेटा चाहे घरपरिवार से नाता तोड़ ले, मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाए, परंतु मांबाप का दिल अपनी संतान के प्रति कभी खट्टा नहीं होता. जयंत अच्छी तरह समझ गए थे कि प्रमांशु जिस राह पर चल पड़ा था, उस से लौट पाना असंभव था. ड्रग और शराब की आदत छूट भी जाए तो वह अपने समलैंगिक संबंधों से छुटकारा नहीं पा सकता था. इस के बावजूद वे उस की खोजखबर लेते रहते थे. फोन पर बात करते और मिल कर समझाते, मृदुला से भी उस की बातें करवाते. वे दोनों ही उसे बुरी लतों से छुटकारा पाने की सलाह देते.

जयंत और मृदुला को नहीं लगता था कि प्रमांशु कभी अपनी लतों से छुटकारा पा सकेगा. परंतु नहीं, प्रमांशु ने अपनी सारी लतों से एक दिन छुटकारा पा लिया. उस ने जिस तरह से अपनी आदतों से छुटकारा पाया था, इस की जयंत और मृदुला को न तो उम्मीद थी न उन्होंने ऐसा सोचा था. एक दिन प्रमांशु के किसी मित्र ने जयंत को फोन कर के बताया कि प्रमांशु कहीं चला गया है और उस का पता नहीं चल रहा है. जयंत तुरंत उस मित्र से मिले. पूछने पर उस ने बताया कि इन दिनों वह अपने पुराने दोस्तों को छोड़ कर कुछ नए दोस्तों के साथ रहने लगा था. इसी बात पर उन लोगों के बीच झगड़ा और मारपीट हुई थी. उस के बाद प्रमांशु कहीं गायब हो गया था. उस मित्र से नामपता ले कर जयंत उस के नएपुराने सभी दोस्तों से मिले, खुल कर उन से बात की, परंतु कुछ पता नहीं चला. जयंत ने अनुभव किया कि कहीं न कहीं, कुछ बड़ी गड़बड़ है और हो सकता है, प्रमांशु के साथ कोई दुर्घटना हो गई हो.

दुर्घटना के मद्देनजर जयंत ने पुलिस थाने में प्रमांशु की गुमशुदगी की रपट दर्ज करा दी. जवान लड़के की गुमशुदगी का मामला था. पुलिस ने बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया. परंतु जब जयंत ने प्रमांशु की हत्या की आशंका व्यक्त की और पुलिस के उच्च अधिकारियों से बात की तो पुलिस ने मामले को गंभीरता से लिया और प्रमांशु के दोस्तों से गहरी पूछताछ की. जयंत लगभग रोज पुलिस अधिकारियों से बात कर के तफ्तीश की जानकारी लेते रहते थे, स्वयं शाम को थाने जा कर थाना प्रभारी से मिल कर पता करते. थानेदार ने उन से कहा भी कि उन्हें रोजरोज थाने आने की जरूरत नहीं थी. कुछ पता चलनेपर वह स्वयं उन को फोन कर के या बुला कर बता देगा, परंतु जयंत एक पिता थे, उन का दिल न मानता.

और आज पुलिस ने संभावना व्यक्त की थी कि प्रमांशु की हत्या हो चुकी थी. उस के दोस्तों की निशानदेही पर पुलिस ने कुछ हड्डियां भी बरामद की थीं. चूंकि प्रमांशु की देह नहीं मिली थी, उस की पहचान सिद्ध करने के लिए डीएनए टैस्ट जरूरी था. जयंत और मृदुला का खून लेने के लिए पुलिस ने कल उन्हें थाने बुलाया था. वहां से अस्पताल जाएंगे. रात में फिर मृदुला ने शंका व्यक्त की, ‘‘पता नहीं, पुलिस किस की हड्डियां उठा कर लाई है और अब उन्हें प्रमांशु की बता कर उस की मौत साबित करना चाहती है. मुझे लगता है, हमारा बेटा अभी जिंदा है.’’

‘‘हो सकता है, जिंदा हो. और पूरी तरह स्वस्थ हो. फिर भी मैं चाहता हूं, एक बार पता तो चले कि हमारे बेटे के साथ क्या हुआ है. वह जिंदा है या नहीं, कुछ तो पता चले.’’

‘‘परंतु जंगल से किसी भी व्यक्ति की हड्डियां उठा कर पुलिस कैसे यह साबित कर सकती है कि वे हमारे बेटे की ही हड्डियां हैं?’’

‘‘इसीलिए तो वह डीएनए परीक्षण करवा रही है,’’ जयंत ने मृदुला को आश्वस्त करते हुए कहा.

दूसरे दिन वे दोनों ब्लड सैंपल दे आए. एक महीने के बाद जयंत के पास थानेदार का फोन आया, ‘‘डीएनए परीक्षण की रिपोर्ट आ गई है. आप थाने पर आ कर मिल लें.’’

‘‘क्या पता चला?’’ उन्होंने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘आप आ कर मिल लें, तो अच्छा रहेगा,’’ थानेदार ने गंभीर स्वर में कहा. जयंत औफिस में थे. मन में शंका पैदा हुई, थानेदार ने स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बताया? उन्होंने मृदुला को फोन कर के बताया कि डीएनए की रिपोर्ट आ गई है. वे घर आ रहे हैं, दोनों साथसाथ थाने चलेंगे. घर से मृदुला को ले कर जंयत थाने पहुंचे. थानेदार ने उन का स्वागत किया. मृदुला कुछ घबराई हुई थी, परंतु जयंत ने स्वयं को तटस्थ बना रखा था. किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए वे तैयार थे.

थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘आप मेरे साथ आइए,’’ फिर मृदुला से कहा, ‘‘आप यहीं बैठिए.’’ जयंत को एक अलग कमरे में ले जा कर थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘सर, बात बहुत गंभीर है, इसलिए केवल आप से बता रहा हूं. हो सकता है सुन कर आप को सदमा लगे, परंतु सचाई से आप को अवगत कराना भी मेरा फर्ज है. डीएनए परीक्षण के मुताबिक जिस व्यक्ति की हड्डियां हम ने बरामद की थीं, वे प्रमांशु की ही हैं.’’

जयंत को यही आशंका थी. उन्होंने अपने हृदय पर पत्थर रख कर पूछा, ‘‘परंतु उस की हत्या कैसे और क्यों हुई?’’

‘‘उस के जिन दोस्तों को हम ने पकड़ा था, उन से पूछताछ में यही पता चला था कि प्रमांशु ने अपने कुछ पुराने दोस्तों से संबंध तोड़ कर नए दोस्त बना लिए थे. पुराने दोस्तों को यह बरदाश्त नहीं हुआ. उन्होंने उस से संबंध जारी रखने के लिए कहा, तो प्रमांशु ने मना कर दिया. यही उस की हत्या का कारण बना.’’

‘‘क्या हत्यारे पकड़े गए?’’

‘‘हां, वे जेल में हैं. अगले हफ्ते हम अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर देंगे.’’ जयंत ने गहरी सांस ली.

‘‘सर, एक और बात है, जो हम आप से छिपाना नहीं चाहते क्योंकि अदालत में जिरह के दौरान आप को पता चल ही जानी है.’’

‘क्या बात है’ के भाव से जयंत ने थानेदार के चेहरे को देखा.

‘‘सर, प्रमांशु आप की पत्नी का बेटा तो है, परंतु वह आप का बेटा नहीं है,’’ थानेदार ने जैसे धमाका किया. जयंत की आंखें फटी की फटी रह गईं और मुंह खुला का खुला रहा गया. उन्हें चक्कर सा आया. कुरसी पर न बैठे होते तो शायद गिर जाते. जयंत कई पल तक चुपचाप बैठे रहे. थानेदार भी नहीं बोला, वह जयंत के दिल की हालत समझ सकता था. कुछ पल बाद जयंत ने शांत स्वर में कहा, ‘‘थानेदार साहब, जो होना था, हो गया. अब प्रमांशु कभी वापस नहीं आ सकता, परंतु जिस झूठ को अनजाने में हम सचाई मान कर इतने दिनों से जी रहे थे, वह झूठ सचाई ही बना रहे तो अच्छा है. यह हमारे दांपत्य जीवन के लिए अच्छा होगा.’’

‘‘क्या मतलब, सर?’’ थानेदार की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘आप मेरी पत्नी को यह बात मत बताइएगा कि मुझे पता चल गया है कि मैं प्रमांशु का पिता नहीं हूं.’’

थानेदार सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘‘जी सर, यही होगा. मैं आप की पत्नी को गवाह नहीं बनाऊंगा.’’

‘‘हां, यही ठीक होगा. बाकी मैं संभाल लूंगा.’’

‘‘जी सर.’’

जयंत थके उदास कदमों से मृदुला को कंधे से पकड़ कर थाने के बाहर निकले. मृदुला बारबार उतावली सी पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ? थानेदार ने क्या बताया? डीएनए परीक्षण से क्या पता चला? क्या वह हमारा प्रमांशु ही था?’’

गाड़ी में बैठते हुए जयंत ने मृदुला के सिर को अपने कंधे पर टिकाते हुए कहा, ‘‘मृदुल, तुम अपने को संभालो, वह हमारा ही बेटा था. अब वह इस दुनिया में नहीं रहा.’’ मृदुला हिचकियां भर कर रोने लगी.

दिन दहाड़े

सरकारी कार्य के सिलसिले में मैं भोपाल से दिल्ली गया था. मेरे साथ एक अधिकारी और थे. वरिष्ठ अधिवक्ता के साथ पटियाला हाउस में कौन्फ्रैंस थी. हम लोगों ने जीपीओ कश्मीरी गेट से पटियाला हाउस औटो से यात्रा की. वरिष्ठ अधिवक्ता महोदय उच्चतम न्यायालय में दिनभर व्यस्त रहे, सो समय नहीं दे पाए. उन्होंने अपने नोएडा स्थित निवास पर मिलने के लिए अगले दिन बुलाया. जीपीओ कश्मीरी गेट से कश्मीरी गेट मैट्रो स्टेशन की दूरी बस से मात्र एक स्टेशन की थी. हम दोनों बस में सवार हो लिए.

मैं जैसे ही सीट पर बैठने के लिए आगे बढ़ने लगा, एक युवक मेरे सामने रास्ता रोक कर खड़ा हो गया और मुझे आगे बढ़ने से रोकता हुआ पीछे की ओर धकेलने लगा. मैं ने कहा कि भाई, सामने से हटो, आगे सीट खाली है, मुझे आगे जाने दो. तो वह बड़े ही सामान्य व्यवहार से मुसकराते हुए कहता है कि अंकल, टिकट तो ले लेने दो. मैं ने उस के इस व्यवहार को सामान्य समझा और थोड़ा पीछे हुआ. उसी समय मुझे 3 युवकों ने 3 तरफ धक्का दिया. जैसे ही मुझे धक्के का एहसास हुआ, मैं ने तुरंत अपने पैंट की पीछे वाली जेब को टटोला. जेब में पर्स था, क्योंकि जेब का बटन बंद था. पर्स उस में से निकालना आसान नहीं था. लेकिन जैसे ही मैं ने दूसरे हाथ से सामने की जेब में रखे मोबाइल को टटोला, मैं सन्न रह गया. जेब खाली थी. तीनों युवक मेरे से दूर हो गए. लो फ्लोर बस थी, चलते ही दरवाजे बंद हो जाते हैं. युवकों को उतरने का मौका नहीं मिला. मैं ने तुरंत पीछे वाले युवक से कहा कि तुम ने मेरा मोबाइल निकाल लिया है, वापस करो. वह युवक चुप रहा. उस के साथी ने सफाई दी कि अभीअभी एक लड़का बस से उतरा है, वही आप का मोबाइल ले कर भागा होगा. मैं ने कहा कि अभी बस से कोई नहीं उतरा है. मेरा मोबाइल सामने वाले युवक, जो मेरे पीछे खड़ा था, उस ने ही निकाला है एवं अपने साथी को दिया है, मेरा मोबाइल वापस कर दो. युवकों की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. मैं ने जोर से चिल्ला कर कंडक्टर से कहा कि ‘कंडक्टर, बस को सीधे थाने ले चलो, इन लोगों ने मेरा मोबाइल निकाल लिया है और वापस नहीं दे रहे हैं.’ इतना सुनते ही युवकों में से एक युवक ने काले रंग का एक स्मार्ट फोन दिखाया कि क्या यह है. मैं ने कहा, ‘नहीं.’

मैं ने फिर कंडक्टर से जोर से चिल्ला कर कहा कि बस को सीधे थाने ले चलो. यह सुन कर एक युवक नीचे की ओर झुका और इस प्रकार ऐक्ंिटग की कि वह मोबाइल फर्श से उठा रहा है और मुझे मोबाइल दिखाते हुए बोला कि अरे अंकल, यह मोबाइल कहीं आप का तो नहीं है. मैं ने तुरंत मोबाइल अपने हाथ में ले कर देखा और कहा कि हां, यही मेरा मोबाइल है.

– डा. हरिशरण सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

अपने लिए जिए तो क्या जिए

अपने लिए तो सभी जिया करते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं. इस कथन को अगर हकीकत में देखना है तो पर्यटन स्थल खजुराहो के समीप जिला मुख्यालय छतरपुर के संजय शर्मा इस की मिसाल हैं. वे दूसरों के लिए जीते हैं. वे मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों की सेवा करते हैं, जिन्हें लोग पागल कह कर दुत्कार देते हैं. वर्ष 2010 में मध्य प्रदेश सरकार से महर्षि दधिचि पुरस्कार और गौडफ्रे फिलिप्स अवार्ड के अलावा कई पुरस्कारों से सम्मानित, पेशे से वकील संजय शर्मा ऐसे व्यक्तियों की महज देखभाल ही नहीं करते, वे उन्हें शासकीय खर्चे पर चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराने का काम पिछले 25 वर्षों से कर रहे हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के प्रति उन के लगाव को देख कर आसपास के सभी लोग उन्हें पागलों का वकील भी कहते हैं.

आज उन के प्रयासों के कारण 281 से ज्यादा ऐसे लोग सही हो कर सामान्य जीवन जी रहे हैं. वे बिना किसी के सहयोग से, सड़क पर घूमते विक्षिप्तों व अशक्तजनों को कपड़े पहनाना, ठंड में कंबल या शौल बांटना, खाना खिलाना, बाल बनवाना, नहलानाधुलाना आदि अपने खर्चे पर करते आ रहे हैं. कानून की डिगरी हासिल करने की वजह से चूंकि वे कानून से वाकिफ हैं, इसलिए ऐसे गरीब विक्षिप्तों को वे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 के अनुसार न्यायालय के माध्यम से मानसिक अस्पताल में भेजते हैं. संजय शर्मा का कोई एनजीओ नहीं है. वे बिना किसी की सहायता लिए, इस काम को अंजाम दे रहे हैं.

शौक बना जनून

उन के इस शौक की शुरुआत कैसे हुई, इस के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं जब छोटा था तब हमारे महल्ले में एक पागल व्यक्ति रोज आता था. महल्ले के सभी बच्चे उसे परेशान करते व पत्थर मारते थे. लेकिन मेरी नानी उसे रोज खाना देती थीं. नानी से प्रेरणा ले कर मैं भी रोज मां से बिना बताए घर का बचा खाना उसे देने लगा. खाना खा कर जो संतुष्टि के भाव उस के चेहरे पर आते थे वे ऐसे लगते थे जैसे किसी जरूरतमंद को कहीं से बहुत सारा पैसा मिल गया हो.

‘‘धीरेधीरे मेरे घर के सामने शहर के ऐसे लोगों की भीड़ जमा होने लगी. लेकिन इस पर महल्ले वालों से ले कर मेरे घर वालों तक को इसलिए आपत्ति होने लगी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं कोई पागल उन के बच्चों व उन्हें नुकसान न पहुंचा दे. सभी के विरोध के बावजूद मैं ने ऐसे व्यक्तियों के प्रति अपनी मदद को बंद नहीं किया. लेकिन उन से मिलने के लिए जगह जरूर बदल ली. ‘‘मैं ने देखा कि इन में और भीख मांगने वालों में बहुत अंतर है. भीख मांगने वाले भीख मांगना एक व्यवसाय बना लेते हैं पर ये व्यक्ति सिर्फ उतना ही लेते हैं जितनी इन्हें आवश्यकता होती है, इन्हें इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इन्हें परेशान कर रहा है. तभी से मैं ने यह संकल्प लिया कि मैं ऐसे ही अशक्तजनों की सेवा करूंगा. तब से आज तक यह लगातार जारी है.’’

अंधविश्वास की गहरी जड़ें

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 14 जिलों से घिरे बुंदेलखंड में अंधविश्वास और कुरूतियां चरम पर हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को उन के घर वाले और गांव वाले दैवीय क्रोध मान कर झाड़नेफूंकने वाले तांत्रिकओझा के पास ले कर जाते हैं. अंधविश्वास में कंठ तक डूबे घर वाले इन लोगों के चंगुल में फंस कर झाड़फूंक कराते रहते हैं, क्योंकि पंडेपुजारी तो हमेशा से यही चाहते हैं कि उन की धर्म की दुकान न बंद हो. उचित चिकित्सीय इलाज न मिलने के कारण पीडि़त की हालत बद से बदतर होती जाती है.

संजय बताते हैं, ‘‘मैं ने जितने भी विक्षिप्त व्यक्तियों से संपर्क किया अधिकांश ने बताया कि शुरू में वे गांजा पीने के आदी थे. गांजा तंत्रिकातंत्र पर हमला करता है और उस का शिकार व्यक्ति धीरेधीरे उस की गिरफ्त में आता जाता है. आगे चल कर नशा व्यक्ति पर इस कदर हावी हो जाता है कि वह विक्षिप्तों जैसा व्यवहार करने लगता है और उचित सलाह व इलाज न मिलने की दशा में आगे चल कर वह पूरी तरह से विक्षिप्त हो जाता हैं.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘ऐसे लोगों का इलाज कराना भी सरल नहीं है क्योंकि एक तो हमारे देश में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है व दवाएं अत्यंत महंगी हैं. दूसरे, बड़ी समस्या कानून है जिस पर सही तरीके से अमल किए बिना परिवार वाले भी मानसिक रूप से विक्षिप्त को अस्पताल में ऐडमिट नहीं कर सकते.

‘‘भारत सरकार के मैंटल ऐक्ट 1987 के तहत आने वाले व्यक्ति का अस्पताल में दाखिला होता है. इस ऐक्ट के लागू होने के पहले किसी भी सामान्य व्यक्ति को पागल घोषित कर के प्रौपर्टी हथियाने के मामले सामान्य थे. उसी को रोकने के लिए सरकार यह ऐक्ट लाई थी. जिस में उस इलाके का थाना प्रभारी पंचनामा बना कर और आसपास वालों के स्टेटमैंट के आधार पर यह लिखता है कि उक्त विक्षिप्त व्यक्ति हिंसक है और समाज के लिए खतरनाक है. उस स्टेटमैंट को उस जिले के मैडिकल बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाता है. बोर्ड की स्वीकृति के बाद सीजीएम द्वारा विक्षिप्त व्यक्ति को मानसिक अस्पताल में दाखिले के लिए आदेश जारी किया जाता है.

‘‘ऐसे में आप ही बताइए, कौन इस लंबी कानूनी प्रक्रिया को अपनाता होगा. कई मरीजों के घर वाले तो इस लंबी कानूनी प्रक्रिया से डर कर पीडि़त का इलाज नहीं कराते हैं और घर में ही कैद कर देते हैं. मुझे जब किसी मरीज के बारे में पता चलता है तो मैं यही कानूनी प्रक्रिया उन के लिए स्वयं करता हूं. चूंकि मैं खुद कानून का जानकार हूं, इसलिए बड़े ही सहज तरीके से न्यायपालिका के सहयोग से उस मरीज की सहायता कर पाता हूं. कई बार तो ऐसे मरीज जिन का कोई पताठिकाना नहीं, कोई घरपरिवार नहीं, उन का इलाज मैं ने शासकीय खर्चे पर कराया है. कानून में प्रावधान है कि अगर कोई निराश्रित है या गरीब है तो उस का इलाज सरकार कराएगी.’’

कठिनाइयां भी हैं

सेवा कार्य करते समय संजय को कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ा है. कुछ विक्षिप्त तो पहली बार उन से मिलने पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा वे आम लोगों के साथ करते हैं. मारने के लिए दौड़ना, गालियां देना, दिए गए सामान को फेंक देना. इस के बावजूद वे उन से बिलकुल सहज भाव से मिलते हैं. जैसे वे किसी सामान्य आदमी से मिलते हैं. वे उन की पसंद की चीजों के बारे में पता करते हैं. उस का लालच देते हैं. तब वे पास आने को तैयार होते हैं. कई मरीज जिन्हें सालों से जंजीरों में बांध कर रखा गया होता है वे हिंसक हो जाते हैं और पास में आनेजाने वालों को मारते हैं. संजय कहते हैं, ‘‘ऐसे मरीजों के पास जाने में मुझे भी कुछ डर लगा रहता है पर धीरेधीरे बात करने पर उन से दोस्ताना व्यवहार हो जाता है. उन को नहलाना, खाना खिलाना, गंदगी साफ करने तक का काम मैं करता हूं. तब जा कर उन का विश्वास हासिल कर पाता हूं.’’

एक बार तो संजय शर्मा को ऐसे लोगों की सहायता के चक्कर में कई परेशानियां झेलनी पड़ीं. वे बताते हैं, ‘‘एक ग्रैजुएट लड़के ने, जो 4 साल से मानसिक विक्षिप्त था, 4-5 लोगों पर धारदार हथियारों से हमला कर दिया. उस के विरुद्ध 4 कानूनी मामले भी दर्ज हो गए पर विक्षिप्तता की अवस्था के चलते उसे जेल नहीं हो पाई और वह मोटी जंजीरों से घर पर ही दिनरात बंधा रहता था. ‘‘मैं ने उस के परिवार वालों की गुहार पर पुलिस अधीक्षक से मिल कर कानूनी कार्यवाही कर के जिला अस्पताल में उस का मैडिकल करा कर संबंधित न्यायालय में उसे पेश किया, जहां न्यायालय ने उस से कुछ प्रश्न किए. इस के बाद न्यायालय के दरवाजे बंद कर के न्यायाधीश ने कुछ प्रश्न किए. विक्षिप्त ग्रैजुएट व टीचर था. इसलिए सभी प्रश्नों के सही उत्तर देता रहा. न्यायालय ने मैडिकल रिपोर्ट, पंचनामा को आधार न मान कर उस व्यक्ति को मानसिक रूप से सही मानते हुए मेरे ऊपर ही कानूनी कार्यवाही करने का आदेश दिया. बाद में न्यायालय ने दोबारा सारी विवेचना कराई, जो सही पाई गई और उसे मानसिक विक्षिप्त रूप से पाया गया और कोर्ट के आदेश पर उस का इलाज कराया गया.’’

इसलिए बढ़ रही है संख्या

संजय कहते हैं, ‘‘बस स्टैंड के पास और सड़क के किनारे होटलोंढाबों में रातदिन काम करते कई मानसिक विक्षिप्तों को आप ने देखा होगा. कई लोग ऐसे लोगों का गलत फायदा भी उठाते हैं. सिर्फ खाना खिलाने के नाम पर रातदिन इन से काम लिया जाता है. ऐसे लोगों की संख्या हमारे देश में हजारों है जिन की सुध लेने वाला हमारे यहां कोई नहीं है. अगर कोई मदद के लिए हाथ बढ़ाता भी है तो हमारी कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य आदमी इन्हें अस्पताल में दाखिल नहीं करा सकता. पुलिस भी पूरी तरह से सहयोग नहीं करती क्योंकि उसे भी ऐक्ट की जानकारी नहीं है और इन लोगों को वह बेवजह के झमेले में पड़ना मानती है. अगर किसी विक्षिप्त का परिवार उस का इलाज कराने में सक्षम है तो डाक्टरों की भारी कमी है.

‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूर्वानुमान लगाया है कि भारत में वर्ष 2020 तक भारत की 20 प्रतिशत जनसंख्या (लगभग 30 करोड़ लोग) किसी न किसी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता से पीडि़त होगी. वर्तमान में भारत में  मात्र 3,500 मनोचिकित्सक हैं, इसलिए सरकार को अगले दशक में इस अंतराल को कम करना होगा. 

‘‘मैं ने जबलपुर हाईकोर्ट में डाक्टरों की कमी से संबंधित एक पीईआईएल भी लगाई है कि युवा डाक्टर इस क्षेत्र में आने से क्यों परहेज करते हैं. साइकोलौजिक काउंसलर तो वे बन जाएंगे पर विशेषज्ञ नहीं बनना चाहते.’’ कई सारे विरोधों के बावजूद आज संजय शर्मा अपनी जनसेवा को जारी रखे हुए हैं. बुंदेलखंड में गांजे को मानसिक विक्षिप्तता का सब से बड़ा कारण मानने वाले संजय नशा मुक्ति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं. इस के लिए वे राज्य सरकार सेले कर केंद्र सरकार तक दरवाजा खटखटा चुके हैं. उन का मानना है कि अशिक्षा और धर्मांधता भी इस रोग के पनपने के लिए उतनी ही जिम्मेदार है जितना नशा है.

विक्षिप्तों के लिए कानून

मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे–भारतीय पागलखाना अधिनियम और भारतीय पागलपन अधिनियम 1912 में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी और केवल पागलखाने में भरती मरीजों पर ही विचार किया जाता था, सामान्य मनोरोगियों पर नहीं.

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987  अस्तित्व में आया,  जिस में कई सुधार किए गए. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानसिक स्वास्थ्य एटलस 2011 के अनुसार, भारत अपने संपूर्ण स्वास्थ्य बजट का मात्र .06 प्रतिशत ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है जबकि जापान और इंगलैंड में यह प्रतिशत क्रमश: 4.94 और 10.84 है. 

अंधेरे से उजाले की ओर

पिछले 2 वर्षों में एक के बाद एक हिट फिल्में देने वाली बौलीवुड की टौप ऐक्ट्रैस दीपिका पादुकोण की फिल्मों ने चाहे रिकौर्डतोड़ कमाई की हो लेकिन फिर भी दीपिका खुश नहीं थीं. उन्हें कोई गम था और वह इस हद तक पहुंच गया था कि वे ठीक से शूटिंग भी नहीं कर पा रही थीं. दरअसल, दीपिका डिप्रैशन की शिकार हो गई थीं. एक साक्षात्कार में खुद दीपिका ने इस बात का खुलासा किया. दीपिका, जो फिल्म इंडस्ट्री में अपने जिंदादिल स्वभाव बेहतरीन अदाकारी के लिए जानी जाती हैं, को डिप्रैशन से बाहर आने के लिए मैडिटेशन का सहारा लेना पड़ा. बाद में वे एंग्जाइटी और डिप्रैशन के प्रति जागरूकता फैलाने का काम भी करने लगीं.

हमारी जिंदगी में कल क्या हो, यह कोई नहीं जानता. इंसान अमीर हो या गरीब, सफल हो या असफल, जीवन में किसी भी मोड़ पर ऐसी परिस्थितियां आ सकती हैं जब व्यक्ति स्वयं को बिलकुल हताश, तनहा और उलझा हुआ महसूस करता है.

इस कठिन समय व परिस्थिति में हिम्मत न हारना, उस से उबरना, हौसला बनाए रखने का जज्बा जिन लोगों में होता है वे हर तकलीफ आसानी से पार कर जाते हैं और दूसरों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं.क्रिकेट खिलाड़ी युवराज सिंह का उदाहरण हमारे सामने है. युवराज सिंह को 2012 की शुरुआत में कैंसर होने की बात सामने आई. उन के फेफड़े में ट्यूमर था जो कैंसरस था. अमेरिका के बोस्टन शहर में उन का इलाज चला. उन की कीमोथैरेपीज हुईं, बाल झड़े, दर्द के दौर से गुजरना पड़ा. मार्च 2012 में अंतिम कीमोथैरेपी होने के बाद वे भारत वापस आए. यह उन का जज्बा ही था कि वापसी के चंद महीनों बाद उन की भारतीय क्रिकेट टीम में वापसी हो गई और उन्होंने 2012 में ही शानदार खेल का प्रदर्शन किया. युवराज सिंह अपनी किताब, ‘द टैस्ट औफ माई लाइफ’ में लिखते हैं, ‘‘जब आप बीमार होते हैं तो पूरी तरह निराश होने लगते हैं. कुछ सवाल भयावह सपने की तरह आप के मन में उठते हैं. लेकिन आप को सीना ठोक कर इन मुश्किल सवालों व हालात का सामना करना चाहिए.’’

युवराज सिंह ने जिस तरह खुल कर अपनी लड़ाई लड़ी, उस अंदाज ने जानेअनजाने उन्हें कैंसर से पीडि़त लोगों के लिए एक मिसाल बना दिया. युवराज के अनुसार, ‘‘मैं अपनी किताब के जरिए अपनी कहानी लोगों तक पहुंचाना चाहता हूं ताकि ऐसी हालत में जी रहे लोग यह न समझें कि वे अकेले हैं. जिस तरह हम अपनी जीत और सुख को दूसरों के साथ बांटते हैं, उसी तरह हमें अपना दुख भी दूसरों के साथ बांटना चाहिए ताकि जो लोग इसी तरह के दुखों को झेल रहे हैं वे भी यह महसूस कर सकें कि वे अकेले नहीं हैं.’’ बौलीवुड के सुपरहीरो रितिक रोशन की जिंदगी में भी डिप्रैशन का दौर आ चुका है. दरअसल, ‘जोधा अकबर’ फिल्म के बाद 6 महीने से ज्यादा समय तक रितिक घुटने में दर्द की वजह से व्हीलचेयर पर थे. इस दौरान उन्होंने फिर से ऐक्ंिटग या डांसिंग करने की उम्मीद भी छोड़ दी थी.

यह वह समय था जब घुटने की सर्जरी के बाद भी रितिक को दर्द से राहत नहीं मिली. उन्होंने चाइनीज थैरेपी से ले कर आयुर्वेदिक ट्रीटमैंट्स भी आजमाए, लोकल मसाज करवाए मगर कोई फायदा नहीं हुआ. रितिक याद करते हुए कहते हैं कि उस दौरान वे पूरी तरह हिम्मत हार गए थे. तभी संजय लीला भंसाली, ‘गुजारिश’ का औफर ले कर आए, जिसे उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया. ‘गुजारिश’ में एक पैरालाइज्ड व्यक्ति की भूमिका निभानी थी, इस फिल्म ने उन के कौन्फिडैंस को काफी बढ़ा दिया. बौलीवुड में अपनी अलग पहचान बनाने वाली मनीषा कोइराला के बारे में जब नवंबर 2012 में यह खबर आई कि उन्हें ओवेरियन कैंसर है तो उन के प्रशंसकों में निराशा की लहर दौड़ गई. 10 दिसंबर को उन की सर्जरी की खबर आई. मगर जल्द ही इस बीमारी और असफल शादी से होने वाले डिप्रैशन से वे बाहर आ गईं और पहले की तरह अपने काम में जुट गईं.

16 साल की उम्र में मौडलिंग से अपने कैरियर को शुरू करने वाली लिजा रे की जिंदगी उस वक्त बदल गई जब उन्हें कैंसर का पता चला. लिजा ने 2009 के टोरंटो इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल के दौरान बताया कि वे मल्टीपल मायलोमा नामक कैंसर से पीडि़त हैं. उन्होंने 2010 में स्टैम सैल ट्रांसप्लांट द्वारा कैंसर से नजात पाई. जुलाई 1982 में कुली फिल्म में एक ऐक्शन सीन की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन का ऐक्सिडैंट हो गया था. वे बहुत समय तक जिंदगी और मौत के बीच झूलते रहे. काफी मुश्किलों से रिकवर हुए और फिर से अपने पुराने अंदाज में लौट आए. 1984 में उन्हें ‘मायस्थीनिया ग्रेविस’ नामक बीमारी से पीडि़त पाया गया. इस से वे फिजिकली और मैंटली वीक हो गए और डिप्रैशन में चले गए. मगर उन्हें फिर से वापस लौटने और मेगास्टार बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगा.

‘बर्फी’ जैसी हिट फिल्मों के डायरैक्टर अनुराग बसु को 2004 में डाक्टरों ने कह दिया था कि उन्हें एक्यूट प्रीमाईलोसाइटिक ल्यूकेमिया बीमारी है और उन के बचने की संभावना सिर्फ 50 प्रतिशत है. यह बीमारी एक तरह का ब्लड कैंसर है. मगर उन्होंने एक चैंपियन की तरह इस बीमारी से लड़ाई लड़ी. अपने ट्रीटमैंट्स के दौरान ही उन्होंने फिल्म ‘लाइफ इन ए मैट्रो’ व ‘गैंगस्टर’ जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखीं. शाहरुख यानी किंग खान को ‘किंग औफ सर्जरीज’ भी कहा जा सकता है. पिछले 25 सालों में उन की 8 सर्जरी हुई हैं, जिन में रिब्स, एंकल, नी, आई और शोल्डर प्रमुख हैं पर आज भी वे अपने आत्मबल और उत्साह की वजह से बौलीवुड के बादशाह हैं.

2011 में सुपरस्टार सलमान खान को ट्राइजैमिनल न्यूरैल्जिया डायग्नोज किया गया है. इस रोग में चेहरे और मसूड़ों में तेज दर्द होता है. यह मनुष्यों में होने वाली सब से पीड़ादायक बीमारियों में से एक है. उन्हें इस की वजह से कई अन्य परेशानियां भी होती हैं. मगर वे अपनी दबंगई और जीवनशैली में बिना बदलाव लाए पूरे हौसले से बौलीवुड में टिके हुए हैं और शोहरत अर्जित कर रहे हैं. मुंबई बम ब्लास्ट केस में सजा काट रहे संजय दत्त ने अपने एक करीबी दोस्त से इस बात का खुलासा किया था कि जेल में वे डिप्रैशन और नींद न आने जैसी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं. पूरी तरह टूट चुके संजय दत्त ने डिप्रैशन का सामना जेल में प्राणायाम और योग का सहारा ले कर किया.

तमिल सुपरस्टार रजनीकांत को 2011 में 4 सालों तक आईसीयू  में ऐडमिट रहना पड़ा. उस वक्त उन की उम्र 61 साल थी. वे एग्जौशन से पीडि़त थे और उन्हें इलाज के लिए सिंगापुर जाना पड़ा. मगर इस साउथ इंडियन स्टार ने उसी तरह समस्या की जड़ से सफाई कर दी, जैसा कि वे फिल्मों के खलनायकों की करते हैं. बौलीवुड के यंग ऐक्टर वरुण धवन ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया कि उन्हें भी फिल्म, ‘बदलापुर’ की शूटिंग के दौरान डिप्रैशन से गुजरना पड़ा. उन्होंने बताया कि फिल्म की कहानी ने उन के दिमाग पर इस कदर असर किया कि उन्हें मानसिक तनाव से गुजरना पड़ा. उन्हें लगा कि वे डिप्रैशन में जा रहे हैं. उन्होंने इस से नजात पाने के लिए डाक्टर से सलाह ली.

गुजरे जमाने की मशहूर फिल्म अभिनेत्री मुमताज को 2002 में ब्रैस्ट कैंसर हो गया था. उस वक्त वे 54 साल की थीं. उन्हें 6 कीमोथैरेपीज और 35 रैडिएशंस के दौर से गुजरना पड़ा. उन के शब्द थे, ‘‘मैं आसानी से कुछ भी गिवअप नहीं करती. यहां तक कि मौत को भी मुझ से लड़ना होगा.’’ उन्होंने एक नियमित दिनचर्या और जीवनशैली अपनाई और वापस उसी जीवंत खूबसूरती के साथ जिंदगी को गले लगाया. कुछ ऐसे ऐक्टर भी हैं जो डिप्रैशन से उबर नहीं सके और जिंदगी की जंग हार बैठे. बौलीवुड में कुछ फिल्मों में अपनी अदाकारी का जलवा बिखेरने वाली जिया खान द्वारा आत्महत्या करने की घटना ने बौलीवुड को सदमे में डाल दिया था. जिया खान निजी जिंदगी में आई परेशानियों के चलते डिप्रैशन में थीं, इसलिए उन्होंने आत्महत्या को अंजाम दिया.

ऐक्ट्रैस सिल्क स्मिता ने फिल्म इंडस्ट्री में बतौर आइटम गर्ल तहलका मचाया. लेकिन इस ग्लैमर के पीछे उन की उदासीन जिंदगी का सच छिपा था. अपने डूबते कैरियर और अकेलेपन की वजह से वे डिप्रैशन में आईं और खुदकुशी कर ली. बौलीवुड की हसीन अदाकाराओं में शुमार बीते जमाने की ऐक्ट्रैस परवीन बौबी की मौत की वजह भी डिप्रैशन रही. बौबी डायबिटीज जैसी बीमारी से जूझ रही थीं. मौत से पहले 3 दिनों तक उन्होंने कुछ नहीं खाया था.सच है, डिप्रैशन इंसान को इतना कमजोर बना देता है कि कई दफा वह पूरी तरह उम्मीद खो बैठता है. इस तरह अंधेरे में खोने से बेहतर है कि हम डिप्रैशन से निकलने का प्रयास करें. एक बार अपने अंदर झांकें और अपने सवालों का जवाब खुद खोजें, कुछ इस तरह…

अपनी भावनाओं को समझें : जब भी आप अवसादग्रस्त हों तो आईने के सामने खड़े हो कर सोचें कि क्या पूरी जिंदगी आप इसी तरह गुजारना चाहते हैं या इस से निकल कर जीवन में ऊंचा उठना चाहते हैं, यदि आप का फैसला सकारात्मक हुआ तो उसी क्षण आप को जिंदगी में एक तरह की आजादी महसूस होगी.

स्वयं के साथ ईमानदार रहें : सब से बड़ी बात जो महसूस करनी जरूरी है वह यह कि कोई कुछ भी कहे, आप स्वयं के लिए खुद ही उत्तरदायी हैं. अपनी समस्या को ले कर चलने के बजाय स्वयं से और दूसरों से खुल कर इस के बारे में बात करें, समाधान निकालें और आगे बढ़ें.किसी ऐसी जगह जाएं या कुछ ऐसा करें जिस से आप को वास्तव में खुशी मिलती है.संगीत सुनना, दोस्तों के साथ घूमनाफिरना, लिखनापढ़ना, रिश्तेदारों से मिलना, जो कुछ भी आप को वास्तव में खुशी दे, वैसा ही करें.

सपोर्ट सिस्टम तलाशें : डिप्रैशन से जुड़ी सब से महत्त्वपूर्ण वजह है अकेलापन. आप जब डिप्रैशन में होते हैं तो यह महसूस करते हैं जैसे आप को कोई नहीं समझता, किसी को भी आप की परवा नहीं. इस के विपरीत किसी का सपोर्ट और साथ आप को अवसाद से बाहर निकालने में मददगार होता है.इसलिए बेहतर होगा कि जब आप डिप्रैस्ड महसूस करें तो किसी ऐसे मित्र या परिवार के सदस्य का साथ खोजें जो आप को मौरल सपोर्ट दे सके.

खुशनुमा लमहों को याद करें : जब आप डिप्रैशन के शिकार हों तो उन खुशनुमा पलों को बारबार याद या फिर वैसे काम करें, जिन्हें करते वक्त आप सचमुच खुश होते हों, जैसे डांस करना, गीत गुनगुनाना वगैरा. ऐसा करने से धीरेधीरे आप अपनी पहले वाली स्थिति में वापस आ जाएंगे.

व्यायाम : जिंदगी में व्यायाम जरूरी है. शांत स्थिर मन से कुछ सोचना, अपने अंदर झांकना, स्वयं से बातें करना, सकारात्मक ऊर्जा अपने अंदर महसूस करना.      

अमेरिकियों का चुनाव

अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव रोचक होता जा रहा है. नवंबर 2016 में होने वाले चुनावों के लिए पिछले कुछ महीनों से रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प केंद्र बिंदु बने थे. वे अपने उत्तेजक व कट्टरवादी भाषणों के जरिए गोरे व अमीर अमेरिकियों का ध्यान बखूबी खींच रहे थे. कट्टरपंथी विचारों के लिए डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना भारत के विश्व हिंदू परिषद के प्रवीन तोगडि़या से की जा सकती है.

अमेरिका में हर राज्य में पार्टी के चुनाव होते हैं जिन में पार्टी सदस्य राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों में से एक को चुनने के लिए वोट देते हैं. ट्रम्प आयोबा राज्य में पिछड़ गए तो सब को आश्चर्य हुआ क्योंकि चुनाव में वे अपना बहुत पैसा खर्च कर रहे हैं. दूसरी तरफ पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन की पत्नी हिलेरी क्ंिलटन हैं जो 2008 में बराक ओबामा के मुकाबले उम्मीदवारी की जंग डैमोक्रेटिक पार्टी के चुनाव में हार गई थीं. सालभर पहले उन्हें अविजित समझा जा रहा था पर आयोबा में उन्हें 74 वर्षीय समाजवादी सोच वाले बर्नी सैंडर्स ने भारी चुनौती दे डाली और वे केवल .3 फीसदी से ही आगे रह पाईं, जबकि उन के पास भरपूर पैसा है और हजारों पेड वौलंटियर हैं.

अब अमेरिका के सामने चुनौती है कि वह किसे चुने. डोनाल्ड ट्रम्प जैसे कट्टरपंथी सिरफिरे, हिलेरी क्ंिलटन जैसी अनुभवी या बर्नी सैंडर्स जैसे गरीबों में लोकप्रिय को. अमेरिका अपनी अमीरी से अब नाखुश है. वह दुनिया की सब से बड़ी ताकत तो अभी भी है पर आम अमेरिकी को गुस्सा है कि अमेरिका का सारा पैसा चंद हाथों में सीमित हो गया है. नई तकनीक ने सैकड़ों नए रास्ते तो बना दिए पर साथ ही, इन रास्तों पर मायाजाल बिछाने के तरीके भी सुझा दिए. ऐसे में जहां आम अमेरिकी कर्ज में डूबा है, भारी कर देता है, वहीं अमीर लोग और उन की कंपनियां कम कर दे कर अपना मुनाफा बढ़ाए जा रही हैं.

बर्नी सैंडर्स से लोगों की आशाएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि 74 वर्ष के होते हुए भी उन में उत्साह है और गरीबों के प्रति प्यार. और इसीलिए वे आयुभेद के बावजूद युवाओं में लोकप्रिय हैं. दुनिया को असल में बर्नी सैंडर्स जैसे नेता चाहिए जो एक नई अर्थव्यवस्था को बनवा सकें जिस में न सोवियत रूस जैसा सरकारी शिकंजा हो, न अमेरिका जैसे चंद अमीरों का नियंत्रण. यह रास्ता हमेशा की तरह झाडि़यों में छिपा है. बराबरी की बात सदा ही सपना लगती है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि असल में समाज में समृद्धि व सुख तभी आता है जब बराबरी के पैमाने संतुलित हों. भारत की तो बात ही छोड़ दें क्योंकि यहां धर्म, जाति, रंग, भाषा, बेईमानी, निकम्मेपन आदि के न जाने कितने भेद हैं.

मंगल पर जीवन की आस

कुछ नया खोजते रहना मनुष्य का स्वभाव है. आज हम विज्ञान व विज्ञान से संबंधित अनेक वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हैं, वे सब मनुष्य की खोजी प्रवृत्ति का ही नतीजा हैं. खासतौर से ब्रह्मांड के रहस्य मानव को सदा ही लुभाते रहे हैं. आकाश और उस में चमकता चंद्रमा, टिमटिम करते तारे व दिन में रोशनी व गरमी देता सूरज मानव की जिज्ञासा व शोध का विषय रहे हैं, लेकिन अभी तक वैज्ञानिक इन रहस्यों पर से परदा उठाने में कामयाब नहीं हुए हैं, लेकिन उन की खोजें जारी हैं.

वैज्ञानिकों ने हालांकि ब्रह्मांड में उपस्थित अनेक ग्रहों को तो खोज निकाला है, पर उन ग्रहों पर जीवन या जीवन की संभावना है या नहीं इस बारे में वे कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं करा सके हैं. करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर स्थित चंद्रमा की धरती पर जब 1966 में अमेरिकी चंद्रयात्री नील आर्म स्ट्रौंग ने अपना पहला कदम रखा तो लगा कि अब चंद्रमा के रहस्यों का पता लगा पाना आसान हो जाएगा. इस यात्रा के बाद अनेक चंद्रयात्राएं वैज्ञानिकों ने कीं पर अभी भी वे इस नतीजे पर नहीं पहुंच सके कि वहां मानव जीवन का अस्तित्व संभव है या नहीं? चंद्रमा से संबंधित खोजों का सिलसिला जारी है. अभी तक चंद्रमा की धरती पर रह कर बड़े खोज अभियान और विभिन्न प्रयोग करना संभव नहीं हो पाया है. पर अब चंद्रमा पर स्थायी स्पेस स्टेशन बनाने का सपना जल्द ही पूरा हो सकता है, क्योंकि चंद्रयान-1 ने इस बात का पता लगाने में सफलता प्राप्त कर ली है कि वहां जल मौजूद है.

चंद्रमा के बाद ब्रह्मांड का एक और ग्रह मंगल अब वैज्ञानिकों की खोज का विषय बना हुआ है. वैज्ञानिक इस रहस्य का पता लगाने में जुटे हैं कि क्या वहां जीवन या उस की संभावना है? 2004 में नासा के वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह की सतह पर अपनी ‘रोवर अपौर्च्युनिटी’ मशीन उतारी थी जिस से मंगल ग्रह पर सल्फेट होने का पता चला. इसी से वैज्ञानिकों ने अंदाजा लगाया कि मंगल ग्रह पर कभी पानी जरूर रहा होगा, क्योंकि सल्फेट पानी की वजह से ही पाया जाता है लेकिन वह अम्लीय रहा होगा.

2006 में वैज्ञानिकों की एक खोज से यह अंदाजा लगाया गया कि मंगल ग्रह पर अम्लीय पानी कुछ वक्त के लिए ही रहा हो. ऐसा हो सकता है कि यह सक्रिय ज्वालामुखियों के कारण रहा हो. वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि कभी मंगल ग्रह पर स्वच्छ पानी भी रहा होगा, जिस में अम्ल की मात्रा नहीं होगी. मंगल ग्रह पर जीवन की खोज कर रहे वैज्ञानिकों के ताजा शोधों के अनुसार मंगल ग्रह पर कभी ऐसा माहौल अवश्य रहा होगा जिस में जीवन पनप सकता था. अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक बेथानी एलमैन के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक समूह ने मंगल ग्रह के नीली फोसे इलाके में मैग्नीशियम कार्बोनेट के पत्थर खोजे हैं. इस के आसपास के इलाकों में भी अन्य कार्बोनेटों के छोटेछोटे ढेर मिले हैं, जिन के आधार पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मंगलग्रह पर जीवन पनपने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अम्लीय पानी की उपस्थिति में कार्बोनेट नहीं बनता, इसलिए मंगलग्रह पर अवश्य ही बिना अम्ल वाला शुद्ध पानी रहा होगा और जहां पानी होगा वहां जीवन पनप सकता है.

अब तक सैकड़ों वर्षों से एक सवाल इंसान को बेचैन करता रहा कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल ने ही वैज्ञानिकों को मंगल व अन्य ग्रहों पर जीवन तलाशने को मजबूर किया. हाल ही में मंगल की सतह पर हुई खोज से पता चलता है कि इस की सतह के नीचे मौजूद पानी में जीवन छिपा हो सकता है. इस के अलावा मंगल ग्रह के वातावरण में मिला मीथेन गैस का बादल भी इस तरह के जीवन की मौजूदगी का संकेत देता है, क्योंकि कुछ सूक्ष्म जीव मीथेन भी पैदा करते हैं. आज से करीब 4 अरब साल पहले जब पृथ्वी पर जीवन विकसित हो रहा था, उस समय हमारे सोलर सिस्टम में पत्थर के टुकड़े ग्रहों से टकराते हुए उड़ रहे थे. वैज्ञानिकों का मानना है कि अति सूक्ष्म जीव इन पत्थरों पर सवार हो कर ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचा होगा और यह भी संभव है कि जीवन दूसरे ग्रहों से पृथ्वी पर आया हो, पर इन तमाम वैज्ञानिक दलीलों का कोई पुख्ता प्रमाण ज्ञात नहीं हो सका.

इस बात को आधार बना कर ही हार्वर्ड मैडिकल स्कूल के जीव वैज्ञानिक गैरी खकुन और उन के सहयोगी मंगल ग्रह पर डीएनए तलाश कर उस की सीक्वैंसिंग करने के प्रोजैक्ट पर काम कर रहे हैं. उन्हें ऐसा भरोसा है कि मंगल ग्रह पर मिलने वाले जीवन के निशान पृथ्वी के जैव विकास के दौरान मंगल ग्रह से उस के संबंध को दिखाएंगे. इस खोज के लिए चल रहे प्रोजैक्ट का नाम है ‘सर्च फौर ऐक्स्ट्रा टेरैस्ट्रियल जीनोम्स’ (एसईटीजी). इस प्रोजैक्ट में अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा भी मदद कर रही है. 2018 में मंगल पर एक लैब भेजी जाएगी. यह रोबोटिक लैब मंगल ग्रह की मिट्टी या बर्फ खोद कर उस का एक डाई के साथ मिक्स्चर बनाएगी. इस डाई की खासीयत यह है कि यह डीएनए के संपर्क में आते ही चमकने लगती है. जैसे ही मिक्स्चर का कोई हिस्सा चमकेगा उसे डीएनए ऐप्लिकेशन के लिए भेजा जाएगा ताकि पता चल सके कि यह डीएनए पृथ्वी के नमूने से मिलता है या नहीं.

अब प्रश्न यह है कि अगर पृथ्वी से बाहर जीवन मिला तो कैसे पता चलेगा कि यह हमारे पूर्वजों से उपजा है. लेकिन कनाडा के वैज्ञानिकों ने इस का भी जवाब ढूंढ़ लिया है. उन का कहना है कि इस का जवाब 20 एमीनो एसिड में मौजूद है. यह एसिड जीवन के लिए जरूरी होता है. यह एसिड जीवित चीजों में पाया जाता है. अगर पृथ्वी से बाहर पाए गए जीवन में यह एसिड पाया गया तो मानना पड़ेगा कि या तो ये धरती से विकसित हुए हैं या धरती का जीवन इन से उत्पन्न हुआ है.

पृथ्वी की तुलना में मंगल ग्रह का वातावरण काफी अलग है. मंगल का सतही दबाव पृथ्वी की सतह से 35 किलोमीटर ऊपर पाए जाने वाले दबाव के बराबर है. इसी तरह मंगल का सतही गुरुत्व पृथ्वी के सतही गुरुत्व से केवल 38 त्न है. इस का वायुमंडल 95त्न कार्बन डाइऔक्साइड, 3त्न नाइट्रोजन, 1.6त्न और्गन से बना है. यहां औक्सीजन और पानी के निशान शामिल हैं. यहां के वातावरण में काफी धूल है, जो मंगल के आसमान को एक गहरा पीला रंग देती है. मंगल और पृथ्वी पर ऋतुएं ज्यादातर एकजैसी हैं. मंगल पर ऋतुओं की लंबाई पृथ्वी की अपेक्षा करीब दोगुनी है. मंगल सूर्य से पृथ्वी की अपेक्षा ज्यादा दूर है. इसलिए मंगल का वर्ष करीब 2 पृथ्वी वर्ष के बराबर होता है अर्थात मंगल सूर्य का 2 वर्ष में एक चक्कर लगा लेता है. यह ग्रह पृथ्वी की तुलना में सूर्य से 1.52 गुना अधिक दूर भी है, इसलिए केवल 45त्न ही सूर्य का प्रकाश वहां पहुंच पाता है. इसीलिए यहां का सर्दियों में तापमान करीब -89 डिग्री सेल्सियस नीचे से ले कर गरमियों में -5 डिग्री सेल्सियस तक रहता है.

मंगल की सूर्य से औसत दूरी करीब 23 करोड़ किलोमीटर है. मंगल का सौर दिवस पृथ्वी दिवस से थोड़ा सा लंबा है. यह 24 घंटे, 39 मिनट और 35.244 सैकंड है. मंगल का एक वर्ष 1.8809 पृथ्वी वर्ष के बराबर है अर्थात वहां का एक वर्ष पृथ्वी के 1 वर्ष, 320 दिन और 18.2 घंटे के बराबर है. मंगल का अक्षीय झुकाव 25.19 डिग्री है, जोकि पृथ्वी के अक्षीय झुकाव के बराबर है. इसीलिए मंगल की ऋतुएं पृथ्वी जैसी हैं.

मंगल के चंद्रमा

पृथ्वी की ही तरह मंगल के भी उपग्रह हैं. इस के 2 छोटे प्राकृतिक चंद्रमा हैं. इन के नाम फोबोस और डिमोज हैं. इन दोनों उपग्रहों को 1877 में असाफ हाल ने खोजा था. फोबोस और डिमोज दोनों का अर्थ होता है आतंक या भय. ये ग्रीक शब्द हैं. मंगल ग्रह की सतह से, फोबोस और डिमोज की गति पृथ्वी के चांद की अपेक्षा काफी अलग है. फोबोस पश्चिम से उदय होता है और पूर्व में अस्त होता है. यह मात्र 11 घंटे बाद फिर से उदित हो जाता है. डिमोज कुछ अलग है. यह पूरब से उदित होता है और धीरेधीरे अस्त होता है. इसे अस्त होने में 2.7 दिन का समय लग जाता है. यह मंगल ग्रह की घूर्णन दिशा में साथसाथ घूमते हुए धीरे से डूबता है. फिर उदय होने के लिए इसे उसी तरह लंबा समय लेना पड़ता है. अब हमारे वैज्ञानिक मंगल पर पानी की खोज में लगे हैं. इस में कुछ हद तक सफलता मिली भी है. हो सकता है, इस के चंद्रमा पर पानी का भंडार मिल जाए. यह सब अभी भविष्य के गर्त में है. अगर ऐसा हुआ तो मानव अपना बसेरा उस ग्रह पर जरूर बसाएगा.

सूरज की रोशनी भी कम होगी

सूरज हजारों वर्षों से हमें रोशनी दे रहा है, लेकिन जरा सोचिए, अगर यह रोशनी देना बंद कर दे तो क्या होगा या अगर इस की चमक कुछ कम हो जाए तो क्या होगा? यकीन मानिए, भविष्य में ऐसा जरूर होगा. एक दिन उस की भी रोशनी कम होगी और वह पूरी तरह रोशनी विहीन हो जाएगा. जो ग्रह पैदा हुए वे धीरेधीरे बूढे़ भी होते हैं और मरते भी हैं. हम इस ब्रह्मांड की छोटी सी पृथ्वी पर रहते हैं. सिर से ऊपर तक फैला अपार आकाश और इस आकाश में लटकी हमारी पृथ्वी और उस में रहने वाले मनुष्य कितने अनोखे हैं. इंसान हमेशा से ब्रह्मांड की नापजोख की गणित लगाता रहा है. लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड के नापजोख की गणित लगा कर इस बात के पर्याप्त तर्क इकट्ठे कर लिए हैं कि वास्तव में ब्रह्मांड हमें जितना दिखाई देता है उस से बहुत बड़ा है. वैज्ञानिकों के मुताबिक वास्तविक ब्रह्मांड का आकार दृश्य ब्रह्मांड से 250 गुना ज्यादा है.

अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने सूर्य से 320 गुना बड़े ब्रह्मांड के सब से बड़े तारे की खोज करने का दावा किया है. यह तारा मैंगेलैनिक के विशाल बादलों में तरनतुला नेबुला में स्थित है. इस का नाम ‘आर 136एल’ रखा गया है. इस तारे के बारे में चिली में यूरोपी साउदर्न आबजर्वेरी के एक बहुत बड़े दूरबीन हब्बल से आंकड़े इकट्ठे कर पता लगाया गया. इस के पहले सब से बड़े तारे के रूप में ‘एडिंगटन लिमिट’ की पहचान की गई थी जो सूर्य से करीब 150 गुना बड़ा है. यह नाम 1919 में ब्रिटिश भौतिक वैज्ञानिक आर्थर एडिंगटन के नाम पर रखा गया. एडिंगटन ने महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर यह साबित किया था कि प्रकाश को गुरुत्वाकर्षण के द्वारा मोड़ा जा सकता है. जो तारा आकार में बड़ा होता है उस का आकर्षण बल भी अधिक होता है.

रौयल एस्ट्रोनौटिकल सोसायटी की पत्रिका ‘मंथली नोटिस’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में ‘आर136एल’ का आकार सूर्य से 265 गुना है. बूढ़ा होने के साथ ही यह तारा तेजी के साथ ऊर्जा उत्पन्न करता है, जिस कारण इस ने कुछ करोड़ वर्ष की अवधि में अपना 20त्न भार खो दिया है. ऐसा अनुमान है कि यह तारा मूल रूप में सूर्य से 320 गुना बड़ा रहा होगा. अगर हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो सूर्य 4.57 अरब वर्ष से चमक रहा है और इस ने अपने केवल 0.03त्न भार को ऊर्जा में परिवर्तित किया है.

ज्यादा चमकीला तारा ‘आर136एएल’ के सतह का तापमान 40 हजार डिग्री सेल्सियस है और यह सूर्य से 1 करोड़ गुना ज्यादा चमकीला है. अभी तक के ज्ञात तारों में से ‘पिस्टन स्टार’ और ‘एटा कैरिना’ भी बड़े तारे हैं. ‘पिस्टन स्टार’ सूर्य से 80 से 150 गुना बड़ा है जबकि ‘एटा कैरिना’ लगभग 80 गुना है. मगर अब ये तारे नई खोजों के सामने बौने नजर आने लगे हैं. इस समय सभी तारों की तुलना में ‘आर136एएल’ ज्यादा ऊर्जा दे रहा है. यदि यह हमारेसौरमंडल में होता तो यह सूर्य से काफी अधिक चमकीला होता और फिर सूरजचांद की तरह दिखता.

दूसरी तरफ सूरज की तपती आग से भयभीत हो कर उसे और नजदीक से देखने की तैयारी हो रही है. ऐसा लगता है कि सूरज फिर बड़ी तेजी से आग उगलने को उतावला है. इसलिए वैज्ञानिकों ने उसे और नजदीक से झांकने के लिए कमर कस ली है. यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी सूरज के पास एक सैटेलाइट भेज रही है जो बुध ग्रह से भी आगे निकल कर सूरज का चक्कर लगाएगा. इस उपग्रह को जनवरी, 2017 में भेजा जाएगा. इस का ठेका ब्रिटेन की तकनीकी फर्म एस्ट्रीयम को दिया गया है. इस प्रोजैक्ट पर 30 करोड़ यूरो खर्च होंगे. यह उपग्रह सूर्य के नजदीक करीब साढ़े 4 करोड़ किलोमीटर की दूरी तक पहुंच जाएगा.

पृथ्वी और सूरज के बीच की दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर है. यह जैसेजैसे सूरज के पास पहुंचेगा पृथ्वी के मुकाबले 10 गुना ज्यादा रोशनी झेलनी पड़ेगी. इसलिए इस के ऊपर ऐसी परतें चढ़ाई जाएंगी जो करीब 500 डिग्री सेंटीग्रेड की गरमी बरदाश्त कर सकेंगी. यह हिस्सा सदा सूरज की ओर होगा. दूसरी तरफ के हिस्से का तापमान उतना ही होगा जो पृथ्वी के आसपास होता है. इस के ऊपर की परत करीब 1 फुट मोटी होगी. इसे टाइटेनियम या कार्बन फाइबर से तैयार किया जाएगा. इस उपग्रह का काम सौर लपटों की भूमिका का अध्ययन करना होगा, जिस की वजह से सैटेलाइट प्रभावित होते हैं. सूरज का चुंबकीय क्षेत्र कैसे तैयार होता है, यह इस का भी पता लगाएगा. करीब 7 साल तक यह मिशन चलेगा. इस उपग्रह का वजन करीब 1,800 किलोग्राम होगा. 2020 तक यह अपना काम पूरी तरह से करने लगेगा.

वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस की मदद से यह पता लग पाएगा कि सुपरसोनिक किरणों की मदद से सूरज किस तरह से पूरे सौरमंडल को प्रभावित करता है. इस के साथ ही यह भी पता लग पाएगा कि सूरज के चुंबकीय प्रभाव से किस तरह पृथ्वी के उपकरण प्रभावित होते हैं. इस मिशन को सफल बनाने में नासा का भी योगदान होगा. हम सभी जानते हैं कि सूर्य, सौरमंडल में स्थित एक तारा है जिस के चारों ओर पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूम रहे हैं. सूर्य हमारे सौरमंडल का सब से बड़ा पिंड है. इस का व्यास करीब 13 लाख 90 हजार किलोमीटर है, जो हमारी धरती से करीब 109 गुना अधिक है. सूर्य ऊर्जा का शक्तिशाली भंडार है.

टाइटन पर जीवन के संकेत

दूसरी तरफ शनि के सब से बड़े उपग्रह टाइटन पर जीवन के संकेत मिले हैं. उस के वातावरण में पाई गई हाइड्रोजन के बारे में वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे हैं कि यह गैस वहां के प्राणियों की सांसों से निकली है. इस विशालतम उपग्रह टाइटन को हम 1655 से ही जानते हैं. इस की खोज हौलैंड के क्रिस्तियान हुइजीन ने की थी. टाइटन शनि परिवार का सब से विशाल उपग्रह है. पूरे सौरमंडल में यह दूसरे नंबर का उपग्रह है.  यहां पर हवा का दबाव पृथ्वी की सतह पर हवा के दबाव से केवल डेढ़ गुना ज्यादा है. ऐसा माना जाता है कि टाइटन की हवा में जिन तत्त्वों की अधिकता आज है वही तत्त्व आज से 4 अरब साल पहले पृथ्वी के वातावरण में मौजूद थे. पहले शक्तिशाली दूरबीन नहीं थीं इसलिए टाइटन को अच्छी तरह देखने में सफलता नहीं मिली. लेकिन 1940 में टाइटन से आने वाले प्रकाश का जब विश्लेषण किया गया तब उस के स्पैक्ट्रम में मिथेन की धारियां मिलीं. इस से वैज्ञानिकों को यह पता चल गया कि टाइटन की सतह घने वातावरण में लिपटी है और उस पर अकसर पीले रंग का कुहरा छाया रहता है. इसीलिए टाइटन के वातावरण को भेद कर उस की ठोस धरती को देखना असंभव था.

1980-81 में जब वायजर-1 और वायजर-2 अंतरिक्ष यान शनि के पास से गुजरे, तब उस ने टाइटन पर भी नजर दौड़ाई. लेकिन आकाश में छाए पीले रंग के कुहरे के कारण वहां की धरती दिखाई नहीं पड़ी. फिर भी यंत्रों की मदद से उन्होंने जो परीक्षण किए, उन से यही पता चला कि वहां के गाढ़े वातावरण में नाइट्रोजन की अधिकता है. वहां का तापमान-178 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है. इतनी ज्यादा ठंड में औक्सीजन बर्फ में कैद हो जाती है. वहां हवा में जो मीथेन गैस है, वह तरल हो कर वर्षा के रूप में बरस पड़ती है. इस वर्षा के फलस्वरूप टाइटन पर शायद ऐथेन के समुद्र बन गए होंगे. नासा ने अक्तूबर, 1997 में ‘कैसीनी’ नाम का अंतरिक्षयान शनि की ओर रवाना किया था. उस ने 1 अरब किलोमीटर का फासला 7 साल में तय किया. यह यान 1 जुलाई, 2004 को शनि के आंगन में पहुंचा था. तब से वह शनि का चक्कर लगा रहा है. इस ने करीब 50 बार टाइटन के नजदीक जा कर उस को निहारा है. लाखों फोटो भेजे हैं. इस के अंदर एक रोबोट भी रखा गया था. इस का नाम हुइजीन था. वह टाइटन की सतह पर उतर कर वहां चलाफिरा भी. उस ने वहां महीनों अनुसंधान किए. वह अपने परीक्षणों के परिणामों से कैसीनी को सूचित करता रहा और उन्हें पृथ्वी को भेजता रहा. उस की इन्हीं सूचनाओं के आधार पर वैज्ञानिकों ने बताया कि टाइटन की धरती पर जीवधारी मौजूद हैं. आज भी यह प्रश्न वहीं का वहीं खड़ा है कि क्या पृथ्वी से बाहर किसी ग्रह या उपग्रह पर जीवधारी बसते हैं? यह सवाल 21वीं सदी के लिए सब से बड़ा चैलेंज है और जिस दिन इस सवाल का जवाब मिल जाएगा मानव को रहने का दूसरा बसेरा मिल जाएगा. 

पृथ्वी के अलावा दूसरे ग्रहों पर जीवन है या नहीं, यह अभी तक पता नहीं चल पाया है. लेकिन समयसमय पर दूसरे ग्रहों के प्राणियों यानी एलियनों की पृथ्वी पर आने की बातें सुनने में आती रही हैं. 20-30 साल पहले उड़नतश्तरियों के बारे में भी सुनने को मिलता था, पर न तो कोई एलियनों से मिला और न ही कोई उड़नतश्तरी मनुष्य की पकड़ में आई, जिस से इस बात पर विश्वास किया जा सके. लेकिन ब्रह्मांड मनुष्य के कुतूहल का विषय जरूर बना हुआ है. वैज्ञानिक इस दिशा में जुटे हुए हैं, यह सिलसिला कब तक चलेगा कहा नहीं जा सकता. 

पिता की सियासी दुश्मनी को आगे बढ़ाते बेटे

लालू यादव और रामविलास पासवान की सियासी दुश्मनी को अब उनके बेटे आगे बढ़ा रहे हैं. राजद सुप्रीमो लालू के बेटे और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के बेटे और सांसद चिराग पासवान के बीच पिछले कुछ महीनों से जारी जुबानी जंग ने यह साफ कर दिया है कि दोनों  अपने-अपने पिता के बीच की सियासी खाई को फैलाने की जुगत में लग चुके हैं. पिछले 3-4 महीनों के दौरान बिहार में हुई हत्याओं और लूट की वारदातों के बहाने चिराग ने नीतीश सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि बिहार सरकार सुशासन और कानून-व्यवस्था को लागू कराने में पूरी तरह से नाकाम रही है 

तेजस्वी के चुनाव क्षेत्रा राघोपुर में लोजपा नेता बृजनाथी सिंह की हत्या के बाद उपजे सियासी गरमी के बीच चिराग ने तेजस्वी पर जम कर निशाना साधा. चिराग कहते हैं कि उनके चुनाव क्षेत्र में इतने बड़े नेता का मर्डर हो गया, इसके बाद भी तेजस्वी ने वहां जाना मुनासिब नहीं समझा. इससे तो यह साफ हो जाता है कि तेजस्वी को अपने चुनाव क्षेत्र और वहां की जनता से कोई लेना-देना ही नहीं है.

इसके जबाब में तेजस्वी कहते हैं कि राघोपुर में जिसकी हत्या की गई थी, उस पर 20 हत्याओं का मामला दर्ज था. वह किसी भी आपराध्कि इमेज वाले नेता का समर्थन नहीं करते हैं, चाहे वह उनकी ही पार्टी को कोई नेता क्यों न हो? चिराग के बयानबाजी और आरोपों से गुस्साए तेजस्वी कहते हैं कि चिराग में दमदार नेता के कोई भी गुण नहीं है. सुरक्षित सीट जमुई के अलावा वह किसी सामान्य सीट से चुनाव जीत कर दिखा दें तो वह उनका लोहा मान लेंगे.

चिराग और तेजस्वी भले ही एक दूसरे पर सियासी गोलियां दाग रहे हों पर दोनों की सियासत के तौर-तरीकों में कापफी समानता भी है. दोनों युवाओं को राजनीति से जोड़ने पर जोर देते रहे हैं. दोनों कई मंचों से कह चुके हैं कि युवाओं को जोड़े बगैर न तो सही राजनीति हो सकती है और न ही सूबे की असली तरक्की हो सकती है. दोनों की पैनी नजर हमेशा ही बिहार के युवा वोटरों पर रही है, जो राजनीति से कटा हुआ है और वोट डालने से कतराता है. 

9 नबंबर 1989 में पटना में जन्मे और दिल्ली पब्लिक स्कूल से पढ़ाई करने वाले तेजस्वी का पहला शौक क्रिकेट था और उसी में कैरियर बनाना चाहते थे, लेकिन उसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी. 31अक्टूबर 1982 में पैदा हुए चिराग ने दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और उसके बाद 2 साल तक मुंबई में हीरो बनने के लिए हाथ-पैर मारने के बाद अपने पिता की पार्टी लोजपा के जरिए राजनीति के मैदान में कूद पडे़ और पहली ही कोशिश में सांसद बन गए.

तेजस्वी यादव कहते हैं कि सरकार का इकलौता एजेंडा बिहार की तरक्की है. अभी तो सरकार ने काम करना } शुरू ही किया है, जल्द ही अच्छे नतीजे सामने आएंगे तो सारे विरोधियों की जुबान पर खुद ही ताला लग जाएगा. वहीं चिराग कहते हैं कि नीतीश सरकार के बने 3 महीने से ज्यादा गुजर गए लेकिन कहीं भी तरक्की और सुशासन की रत्ती भर बानगी भी नजर नही आ रही हैं. 

नीती हैं तेजस्वी के राजनीति गुरू

तेजस्वी यादव अपने पिता लालू यादव के बजाए नीतीश कुमार को अपना ‘राजनीतिक गुरू’ मानते हैं. पिछले दिनों बिहार विधानसभा के स्थापना दिवस समारोह में उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सुशासन का अपना अलग ही तरीका है और इस मामले में वह उन्हें अपना गुरू मानते हैं. 

क्या आपने देखा 8 इंच का ऐंड्रौयड रोबोट फोन

शार्प कंपनी ने नाचनेगाने और चलने वाले 8 इंच के ऐंड्रौयड रोबोट फोन का निर्माण किया है, जिस को नाम दिया है, ‘रोबोहौन’. रोबोहौन ‘रोबोट फोन’ बहुत ही खूबसूरत सा स्मार्टफोन है जिसे आप अपनी पौकेट में भी रख सकते हैं. इस रोबोट फोन से आप किसी को भी फोन मिला सकते हैं, प्रोजैक्ट फोटोज ले सकते हैं, मैप्स देख सकते हैं. इतना ही नहीं हाथ और पैर होने के कारण यह वौक और डांस भी कर सकता है.

इस फोन को हाथ में लेने पर आप को लगेगा जैसे आप ने किसी खिलौने को हाथ में लिया हुआ हो. लेकिन यह कोई साधारण खिलौना नहीं बल्कि ऐंड्रौयड रोबोट फोन है. यह फोन आप को एहसास दिलाएगा कि आप मौडर्न टैक्नोलौजी का इस्तेमाल कर रहे हैं. 2 इंच की टचस्क्रीन भी इस में पीछे की तरफ फिट की गई है. इस फोन से अगर आप को किसी को कौल मिलानी है तो इस फोन के अगले हिस्से को ऊपर उठाना होगा.

हर होम स्क्रीन पर 4 आइकौन रखने जितना ही स्पेस है. रोबोट के सिर पर एक प्रोजैक्टर भी फिट किया हुआ है जिस से आप फिल्म देखने का भी लुत्फ उठा सकते हैं. यही नहीं इस में आवाज पहचानने के लिए स्पीकर फिट किया गया है. इस का 4जी नैटवर्क से जुड़ा होना अपनेआप में खास है. शार्क ने अभी तक इस की कीमत का खुलासा नहीं किया है.  

किसान: न नाम मिला न दाम

यह बहुत अफसोस की बात है कि बिहार में किसानों को फायदा पहुंचाने और उन की वाहवाही बटोरने के लिए ‘किसान’ नाम से बनाई गई ज्यादातर योजनाएं अफसरों की लापरवाही की शिकार हो कर रह गई हैं. सरकार ने किसानों का भरोसा जीतने के लिए राज्य में ‘किसान’ नाम से कई योजनाओं की शुरुआत तो कर डाली, पर ज्यादातर आधीअधूरी हालत में हैं और कई तो फाइलों से बाहर ही नहीं निकल सकी हैं. सब से ज्यादा बुरी हालत किसान पाठशाला योजना की है. अफसरों की लापरवाही और जैसेतैसे काम निबटाने की सोच ने किसान पाठशालाओं का मकसद ही बिगाड़ कर रख दिया?है. किसान पाठशालाओं को खेत में चलाना है, पर अफसर गांव के बरामदों में ही पाठशाला लगा कर किसानों को चलता कर देते हैं.

जहानाबाद जिले के नेवारी गांव के किसान संजय मिश्रा बताते हैं कि कृषि महकमे के अफसर और कृषि वैज्ञानिक खेतों में पहुंच कर किसानों को खेती के नए तरीकों और तकनीकों की जानकारी नहीं देते हैं. वे किसानों को दफ्तर या जिला कृषि कार्यालय में बुला कर भाषण पिला देते हैं, पर किसानों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता है. जब किसान बाद में किसी समस्या को ले कर अफसरों के पास जाते हैं, तो या तो वे मिलते नहीं हैं या फिर डांटडपट कर भगा देते हैं.

पटना के संपतचक गांव के किसान श्याम साहनी बताते हैं कि खेतों में प्रैक्टिकल कराने के बजाय अफसर गांव के बरामदों में ही थ्योरी पढ़ा कर काम निबटा रहे हैं. गौरतलब है कि किसान पाठशाला का नारा है, ‘कर के सीखो और देख कर यकीन करो’. इस के बाद भी अफसर सिर्फ किताबी पढ़ाई करवा कर अपना काम आसान कर रहे हैं और सरकार की योजना पर पानी फेर रहे हैं.

एक किसान पाठशाला के आयोजन पर सरकार 29 हजार रुपए खर्च करती है, पर इस से किसानों को जरा भी फायदा नहीं हो पा रहा है. किसान पाठशाला का आयोजन समूह बना कर खेतों में ही किया जाना चाहिए और इस में कम से कम 25किसानों का होना जरूरी है. किसान पाठशाला योजना के तहत किसानों को बीज प्रबंधन, बीज उपचार, उर्वरक प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, कटाई, खेती की नई तकनीकों और मशीनों की जानकारी, फसलों की मार्केटिंग और मशीनों के इस्तेमाल आदि की जानकारी खेतों में ही देनी है.

किसान क्रेडिट कार्ड योजना की भी हालत बदतर ही है. यह योजना सही तरीके से जमीन पर नहीं उतर पा रही है, जिस से किसानों को इस का फायदा नहीं मिल पा रहा है. इस में सब से बड़ी बाधा बैंकों की उदासीनता और टालमटोल वाला रवैया है. इसी वजह से किसानों के क्रेडिट कार्ड नहीं बन पा रहे हैं, जिस से वे इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. गौरतलब है कि किसानों को गांवों के साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड योजना की शुरुआत की गई थी, पर इस योजना के फेल होने से किसान साहूकारों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर हैं. पटना से सटे नौबतपुर गांव के किसान मनोज पंडित कहते हैं कि पिछले साल बारिश की वजह से उन की प्याज की फसल बरबाद हो गई और उस के बाद आलू की फसल को झुलसा रोग ने चौपट कर दिया.

अब उन के पास खेती करने के लिए पैसे नहीं हैं. उन्होंने केसीसी बनवा कर लोन लेने के लिए पिछले 4 महीने में कई बार बैंकों के चक्कर लगाए, पर आज तक उन का केसीसी नहीं बन सका है. जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो मन मार कर उन्हें साहूकार से ही कर्ज लेना पड़ा. बिहटा के किसान चुनचुन राय कहते हैं कि पिछले 2 सालों से वे किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने की कोशिश कर रहे हैं, पर बैंक उन की मांग पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहे हैं. जिन किसानों के केसीसी बने हुए हैं, उन को 5 लाख रुपए तक लोन देने का प्रावधान है, पर बैंक उन्हें 50 हजार रुपए देने में भी आनाकानी करते हैं. ऐसी हालत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना पानी मांगती नजर आने लगी है.

किसान शिकायतपेटी योजना भी दम तोड़ रही है. अकसर किसानों की यह शिकायत होती है कि अफसर उन की सुनते नहीं हैं या उन्हें डांटफटकार कर भगा देते हैं या किसी काम के एवज में घूस मांगते हैं या बेवजह दफ्तरों के चक्कर लगवाते हैं. इस दर्द से पीडि़त किसानों के लिए सरकार ने किसान शिकायतपेटी योजना बनाई है. किसानों की शिकायतों की लंबी होती लिस्ट को देखते हुए बिहार सरकार ने यह फरमान जारी किया कि अगर अफसरों ने किसानों को परेशान किया हो तो किसानों की शिकायत पर उन पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी और शिकायत करने वाले किसानों के नाम और पते गुप्त रखे जाएंगे. हर प्रखंड में आयोजित होने वाले कृषि कार्यक्रमों के दौरान वहां किसान शिकायतपेटी भी रखी जाएगी. कार्यक्रम खत्म होने के बाद शिकायतपेटी को जिलाधीशों के सामने ही खोला जाएगा. हर शिकायत की जांच की जाएगी और शिकायत के सही पाए जाने पर अफसर के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. किसानों को भ्रष्टाचार से नजात दिलाने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया था, लेकिन अब किसानों की एक नई शिकायत है कि किसी भी सरकारी कृषि कार्यक्रम में शिकायतपेटी रखी ही नहीं जाती है.

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