अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव रोचक होता जा रहा है. नवंबर 2016 में होने वाले चुनावों के लिए पिछले कुछ महीनों से रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प केंद्र बिंदु बने थे. वे अपने उत्तेजक व कट्टरवादी भाषणों के जरिए गोरे व अमीर अमेरिकियों का ध्यान बखूबी खींच रहे थे. कट्टरपंथी विचारों के लिए डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना भारत के विश्व हिंदू परिषद के प्रवीन तोगडि़या से की जा सकती है.

अमेरिका में हर राज्य में पार्टी के चुनाव होते हैं जिन में पार्टी सदस्य राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों में से एक को चुनने के लिए वोट देते हैं. ट्रम्प आयोबा राज्य में पिछड़ गए तो सब को आश्चर्य हुआ क्योंकि चुनाव में वे अपना बहुत पैसा खर्च कर रहे हैं. दूसरी तरफ पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन की पत्नी हिलेरी क्ंिलटन हैं जो 2008 में बराक ओबामा के मुकाबले उम्मीदवारी की जंग डैमोक्रेटिक पार्टी के चुनाव में हार गई थीं. सालभर पहले उन्हें अविजित समझा जा रहा था पर आयोबा में उन्हें 74 वर्षीय समाजवादी सोच वाले बर्नी सैंडर्स ने भारी चुनौती दे डाली और वे केवल .3 फीसदी से ही आगे रह पाईं, जबकि उन के पास भरपूर पैसा है और हजारों पेड वौलंटियर हैं.

अब अमेरिका के सामने चुनौती है कि वह किसे चुने. डोनाल्ड ट्रम्प जैसे कट्टरपंथी सिरफिरे, हिलेरी क्ंिलटन जैसी अनुभवी या बर्नी सैंडर्स जैसे गरीबों में लोकप्रिय को. अमेरिका अपनी अमीरी से अब नाखुश है. वह दुनिया की सब से बड़ी ताकत तो अभी भी है पर आम अमेरिकी को गुस्सा है कि अमेरिका का सारा पैसा चंद हाथों में सीमित हो गया है. नई तकनीक ने सैकड़ों नए रास्ते तो बना दिए पर साथ ही, इन रास्तों पर मायाजाल बिछाने के तरीके भी सुझा दिए. ऐसे में जहां आम अमेरिकी कर्ज में डूबा है, भारी कर देता है, वहीं अमीर लोग और उन की कंपनियां कम कर दे कर अपना मुनाफा बढ़ाए जा रही हैं.

बर्नी सैंडर्स से लोगों की आशाएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि 74 वर्ष के होते हुए भी उन में उत्साह है और गरीबों के प्रति प्यार. और इसीलिए वे आयुभेद के बावजूद युवाओं में लोकप्रिय हैं. दुनिया को असल में बर्नी सैंडर्स जैसे नेता चाहिए जो एक नई अर्थव्यवस्था को बनवा सकें जिस में न सोवियत रूस जैसा सरकारी शिकंजा हो, न अमेरिका जैसे चंद अमीरों का नियंत्रण. यह रास्ता हमेशा की तरह झाडि़यों में छिपा है. बराबरी की बात सदा ही सपना लगती है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि असल में समाज में समृद्धि व सुख तभी आता है जब बराबरी के पैमाने संतुलित हों. भारत की तो बात ही छोड़ दें क्योंकि यहां धर्म, जाति, रंग, भाषा, बेईमानी, निकम्मेपन आदि के न जाने कितने भेद हैं.

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