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किसान: न नाम मिला न दाम

यह बहुत अफसोस की बात है कि बिहार में किसानों को फायदा पहुंचाने और उन की वाहवाही बटोरने के लिए ‘किसान’ नाम से बनाई गई ज्यादातर योजनाएं अफसरों की लापरवाही की शिकार हो कर रह गई हैं. सरकार ने किसानों का भरोसा जीतने के लिए राज्य में ‘किसान’ नाम से कई योजनाओं की शुरुआत तो कर डाली, पर ज्यादातर आधीअधूरी हालत में हैं और कई तो फाइलों से बाहर ही नहीं निकल सकी हैं. सब से ज्यादा बुरी हालत किसान पाठशाला योजना की है. अफसरों की लापरवाही और जैसेतैसे काम निबटाने की सोच ने किसान पाठशालाओं का मकसद ही बिगाड़ कर रख दिया?है. किसान पाठशालाओं को खेत में चलाना है, पर अफसर गांव के बरामदों में ही पाठशाला लगा कर किसानों को चलता कर देते हैं.

जहानाबाद जिले के नेवारी गांव के किसान संजय मिश्रा बताते हैं कि कृषि महकमे के अफसर और कृषि वैज्ञानिक खेतों में पहुंच कर किसानों को खेती के नए तरीकों और तकनीकों की जानकारी नहीं देते हैं. वे किसानों को दफ्तर या जिला कृषि कार्यालय में बुला कर भाषण पिला देते हैं, पर किसानों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता है. जब किसान बाद में किसी समस्या को ले कर अफसरों के पास जाते हैं, तो या तो वे मिलते नहीं हैं या फिर डांटडपट कर भगा देते हैं.

पटना के संपतचक गांव के किसान श्याम साहनी बताते हैं कि खेतों में प्रैक्टिकल कराने के बजाय अफसर गांव के बरामदों में ही थ्योरी पढ़ा कर काम निबटा रहे हैं. गौरतलब है कि किसान पाठशाला का नारा है, ‘कर के सीखो और देख कर यकीन करो’. इस के बाद भी अफसर सिर्फ किताबी पढ़ाई करवा कर अपना काम आसान कर रहे हैं और सरकार की योजना पर पानी फेर रहे हैं.

एक किसान पाठशाला के आयोजन पर सरकार 29 हजार रुपए खर्च करती है, पर इस से किसानों को जरा भी फायदा नहीं हो पा रहा है. किसान पाठशाला का आयोजन समूह बना कर खेतों में ही किया जाना चाहिए और इस में कम से कम 25किसानों का होना जरूरी है. किसान पाठशाला योजना के तहत किसानों को बीज प्रबंधन, बीज उपचार, उर्वरक प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, कटाई, खेती की नई तकनीकों और मशीनों की जानकारी, फसलों की मार्केटिंग और मशीनों के इस्तेमाल आदि की जानकारी खेतों में ही देनी है.

किसान क्रेडिट कार्ड योजना की भी हालत बदतर ही है. यह योजना सही तरीके से जमीन पर नहीं उतर पा रही है, जिस से किसानों को इस का फायदा नहीं मिल पा रहा है. इस में सब से बड़ी बाधा बैंकों की उदासीनता और टालमटोल वाला रवैया है. इसी वजह से किसानों के क्रेडिट कार्ड नहीं बन पा रहे हैं, जिस से वे इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. गौरतलब है कि किसानों को गांवों के साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड योजना की शुरुआत की गई थी, पर इस योजना के फेल होने से किसान साहूकारों के चंगुल में फंसने के लिए मजबूर हैं. पटना से सटे नौबतपुर गांव के किसान मनोज पंडित कहते हैं कि पिछले साल बारिश की वजह से उन की प्याज की फसल बरबाद हो गई और उस के बाद आलू की फसल को झुलसा रोग ने चौपट कर दिया.

अब उन के पास खेती करने के लिए पैसे नहीं हैं. उन्होंने केसीसी बनवा कर लोन लेने के लिए पिछले 4 महीने में कई बार बैंकों के चक्कर लगाए, पर आज तक उन का केसीसी नहीं बन सका है. जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो मन मार कर उन्हें साहूकार से ही कर्ज लेना पड़ा. बिहटा के किसान चुनचुन राय कहते हैं कि पिछले 2 सालों से वे किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने की कोशिश कर रहे हैं, पर बैंक उन की मांग पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहे हैं. जिन किसानों के केसीसी बने हुए हैं, उन को 5 लाख रुपए तक लोन देने का प्रावधान है, पर बैंक उन्हें 50 हजार रुपए देने में भी आनाकानी करते हैं. ऐसी हालत में किसान क्रेडिट कार्ड योजना पानी मांगती नजर आने लगी है.

किसान शिकायतपेटी योजना भी दम तोड़ रही है. अकसर किसानों की यह शिकायत होती है कि अफसर उन की सुनते नहीं हैं या उन्हें डांटफटकार कर भगा देते हैं या किसी काम के एवज में घूस मांगते हैं या बेवजह दफ्तरों के चक्कर लगवाते हैं. इस दर्द से पीडि़त किसानों के लिए सरकार ने किसान शिकायतपेटी योजना बनाई है. किसानों की शिकायतों की लंबी होती लिस्ट को देखते हुए बिहार सरकार ने यह फरमान जारी किया कि अगर अफसरों ने किसानों को परेशान किया हो तो किसानों की शिकायत पर उन पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी और शिकायत करने वाले किसानों के नाम और पते गुप्त रखे जाएंगे. हर प्रखंड में आयोजित होने वाले कृषि कार्यक्रमों के दौरान वहां किसान शिकायतपेटी भी रखी जाएगी. कार्यक्रम खत्म होने के बाद शिकायतपेटी को जिलाधीशों के सामने ही खोला जाएगा. हर शिकायत की जांच की जाएगी और शिकायत के सही पाए जाने पर अफसर के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. किसानों को भ्रष्टाचार से नजात दिलाने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया था, लेकिन अब किसानों की एक नई शिकायत है कि किसी भी सरकारी कृषि कार्यक्रम में शिकायतपेटी रखी ही नहीं जाती है.

शहरों से गांवों तक गरम दूध उद्योग

शहरों से ले कर गांवों तक गरम दूध का काम तेजी से बढ़ता जा रहा है. जाड़े के दिनों में यह कारोबार पहले भी खूब चलता था, अब यह पूरे साल चलने लगा है. शहरों में इस का चलन ज्यादा है. गरम दूध में केसर डाल कर भी बेचा जाता है. कहींकहीं दुकानों में इसे बेचने के लिए मिट्टी के कुल्हड़ों का इस्तेमाल किया जाता है, इसीलिए इसे कुल्हड़ वाला दूध भी कहते हैं.

कुल्हड़ वाले 200 मिलीलीटर दूध की कीमत 20 रुपए तक होती है. आमतौर पर आजकल 1 लीटर दूध करीब 50 रुपए प्रति लीटर की दर से मिलता है. 1 लीटर दूध को गरम करने पर करीब 200 मिलीलीटर दूध कम हो जाता है. ऐसे में 1 लीटर दूध में 4 कुल्हड़ दूध तैयार होता है. 20 रुपए प्रति कुल्हड़ की दर से यह कीमत 80 रुपए हुई. इस तरह से 1 लीटर दूध बेचने में करीब 30 रुपए की बचत होती है. इस में से अगर चीनी, कुल्हड़ और ईंधन की कीमत निकाल दें, तो भी करीब 15 रुपए का मुनाफा बेचने वाले को होता है. इस प्रकार से गरम दूध का करोबार करना काफी मुनाफे का सौदा होता है.

उत्तर प्रदेश में दूध की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है. ऐसे में पशुपालन करने वाले किसानों के लिए नए अवसर पैदा हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश में रोजाना 635 लाख लीटर दूध की मांग है, पर 435 लाख लीटर दूध की आपूर्ति ही रोज होती है. जनता की इस परेशानी को दूर करने के लिए सरकार ने अमूल जैसी बड़ी कंपनी को प्रदेश में अपनी डेरी खोलने की इजाजत दे दी है. यह एशिया की सब से बड़ी डेरी होगी. अमूल से जुड़े लोगें का मानना है कि अमूल को रोज जितने दूध की जरूरत होगी, उतना दूध उत्तर प्रदेश के किसानों से नहीं मिल पाएगा. ऐसे में उन को बाहरी प्रदेशों से दूध खरीदना पड़ सकता है. अगर प्रदेश के किसान ही दूध उत्पादन में ध्यान देंगे तो दूध कारोबार को नई दिशा दी जा सकती है.

उत्तर प्रदेश में पराग जैसी बड़ी कंपनियां दूध बेचने का काम कर रही हैं. इस के अलावा कई छोटीछोटी कंपनियां भी दूध कारोबार में लगी हैं. उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने प्रदेश में दूध की कमी को पूरा करने के लिए अमूल कंपनी को लखनऊ में डेरी खोलने की इजाजत और सुविधाएं दी हैं. अमूल को लखनऊ शहर से लगे चक गजरिया फार्म में 20 एकड़ जमीन इस के लिए दी गई है. संघ आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल) बनासकांठा सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ पालनपुर गुजरात की इकाई है. सरकार ने अमूल को छूट दी?है कि अगर उत्तर प्रदेश के किसानों से पूरी मात्रा में दूध न मिल पाए तो वह बाहर के किसानों से दूध खरीद सकती है. अमूल को 20 एकड़ जमीन 48 सौ रुपए प्रति वर्गमीटर की दर से दी गई है. अमूल कंपनी रोजाना 5 लाख लीटर दूध की बाजार में आपूर्ति करेगी. प्लांट लगाने के लिए अमूल को 18 महीने का समय दिया गया है.

दूध बेचने वाली कंपनियां 40 से 50 रुपए प्रति लीटर की दर से दूध बेच रही हैं. इन कंपनयों ने पिछले 2 सालों में दूध की कीमतों में 40 फीसदी का इजाफा किया है. दूध के साथ दूध से बनने वाली दूसरी चीजों जैसे खोया, पनीर, मक्खन, घी और दही के दाम भी तेजी से बढ़े हैं. आमतौर पर खोया 400 रुपए प्रति किलोग्राम, पनीर 300 रुपए प्रति किलोग्राम, दही 60 से 120 रुपए प्रति किलोग्राम, मक्खन 400 रुपए प्रतिकिलोग्राम और घी 450 रुपए प्रति किलोग्राम की दर  बाजार में बिकता है.

चारे ने बढ़ाई दूध की कीमत

लोगों में दूध के साथ ही साथ दूध से बनने वाली चीजों की मांग भी बढ़ी है. इन में खोया, दही, पनीर, रबड़ी, मलाई, आइसक्रीम, मट्ठा और मक्खन शामिल हैं. इस मांग के मुताबिक दूध की आपूर्ति में बदलाव नहीं हुआ है. चारे की कमी के कारण दुधारू पशुओं का पालन करने वालों के सामने परेशानी रहती है. 1 भैंस को चारा खिलाने पर हर रोज करीब 150 रुपए का खर्च आता है. आजकल चोकर करीब 1100 रुपए, खली व चूनी करीब 1400 रुपए और भूसा करीब 300 रुपए प्रति क्विंटल के?भाव से मिल रहा है. बीते 1 साल में इन की कीमत 50 फीसदी तक बढ़ गई है.

आमतौर पर 1 भैंस रोज 6 लीटर दूध देती है, जिसे ज्यादा से ज्यादा 20 रुपए प्रति लीटर की दर से बेचा जाता है. इस हिसाब से 6 लीटर दूध 120 रुपए का हुआ. बिचौलिए पशुपालकों से 20 रुपए प्रति लीटर की दर से दूध लेते हैं. इसे वे 25 से 28 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचते हैं. इस प्रकार बिचौलियों को प्रति लीटर दूध से 5 से 8 रुपए का लाभ हो जाता है. अमूल और पराग जैसी कंपनियां भी इसी तरह से मुनाफा कमा रही हैं.

तुषार कपूर: कैरियर में कामयाबी की लुकाछिपी

अभिनेता तुषार कपूर अपनी पहली फिल्म के आगाज से ही समीक्षकों की कड़ी आलोचनाओं का शिकार होते रहे हैं. इन की आलोचना कई माने में सही भी मानी जा सकती है क्योंकि अब तक 15 साल के कैरियर में शायद ही कोई फिल्म होगी जो सीधे तौर पर तुषार कपूर की वजह से कामयाब हुई है. ज्यादातर सफल फिल्मों में तुषार या तो साइडरोल में थे या कौमेडियंस की फौज में खड़े एक औसत किरदार करते दिखे. कैरियर में एक वक्त ऐसा आया कि उन्हें फिल्में न के बराबर मिलने लगीं. तब उन के डूबते कैरियर को सहारा मिला अपने घर से.  जी हां, जब एकता कपूर ने अपने प्रोडक्शन की ‘शूटआउट एट वडाला’, ‘शोर-इन द सिटी’, ‘क्या कूल हैं हम’ और ‘डर्टी पिक्चर’ जैसी फिल्मों में अहम सहायक भूमिकाएं देनी शुरू कीं. इन में ज्यादातर फिल्में सफल भले रही हों लेकिन इन की सफलता का क्रैडिट पाने वाले तुषार कपूर आखिरी कलाकार रहे.

अपने जमाने के मशहूर व लोकप्रिय स्टार जीतेंद्र के पुत्र तुषार कपूर ने साल 2001 में रोमांटिक फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ के साथ अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी. उस के बाद कौमेडी फिल्मों के पर्याय से बन गए. 2010 में उन का कैरियर काफी ऊंचाइयों पर था. पर फिर अचानक उन का कैरियर ढलान पर चला गया. यदि हम तुषार कपूर के कैरियर का आंकलन करें तो वे मल्टीस्टारर फिल्मों में ही चल रहे हैं. जबकि वे अपने कैरियर को संवारने का भरसक प्रयास करते रहते हैं. हालिया प्रदर्शित एडल्ट कौमेडी फिल्मों ‘क्या कूल हैं हम 3’ और ‘मस्तीजादे’ में भी उन्हें दर्शकों ने सिरे से खारिज कर दिया. उलटे, अश्लील कौमेडी फिल्मों का हिस्सा बनने पर उन की आलोचना ही हुई है. इस के बावजदू, तुषार कपूर का दावा है कि वे बहुत जल्द नई ऊंचाइयों को छूने वाले हैं.

तुषार का कहना है, ‘‘मैं सोचता हूं कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है. मुझे लगता है कि मेरा कैरियर चलतेचलते अचानक रुक जाता है, फिर आगे बढ़ने लगता है और फिर रुक जाता है. यानी मेरे कैरियर में लुकाछिपी का खेल बहुत हो रहा है. अपने कैरियर को ले कर खुश हूं, मगर दिक्कतें बहुत आती हैं. फिल्में मिलना कठिन नहीं होता है. मुझे अच्छी फिल्में भी मिल जाती हैं, मगर कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती है. कुछ नहीं होता, तो मेरी फिल्म सैंसर में ही अटक जाती है. ‘मस्तीजादे’ और ‘क्या कूल हैं हम 3’ भी लंबे समय तक सैंसर में अटकी रहीं.’’

फिल्मी परिवार में होने वाले फायदे के बाबत तुषार साफ इनकार करते हुए कहते हैं, ‘‘देखिए, फिल्मी खानदान का होने के नाते ही फिल्में नहीं मिलती हैं. फिल्मों का बिजनैस बहुत अलग तरह का है. अगर परिवार की फिल्मों को छोड़ दें तो मैं कबीर कौशिक की एक फिल्म ‘शिकागो जंक्शन’ कर रहा हूं, जो कि ‘खाकी’ वाले मूड की ही फिल्म है. इस में बहुत ही अलग तरह का किरदार है. इस के अलावा मुझे खुद नहीं पता कि ‘खाकी’, ‘द डर्टी फिक्चर’ जैसी फिल्में करने के बावजूद मेरे पास उस स्तर की ज्यादा फिल्में क्यों नहीं आईं. शायद इन फिल्मों का बिजनैस उस स्तर का नहीं हुआ, जिस स्तर का इन के निर्माताओं ने सोचा होगा.’’

पर एक कलाकार के तौर पर खास मुकाम नहीं बना पाए. इस पर वे कहते हैं, ‘‘आप सच कह रहे हैं, मैं उस ऊंचाई पर नहीं पहुंचा जहां होना चाहिए. शायद मुझ से कोई गलती हुई हो. मगर मैं ने अब तक ऐसी कोई फिल्म छोड़ी नहीं है जिसे दूसरे कलाकार ने किया हो और वह फिल्म हिट हो गई हो. इसलिए यह नहीं कह सकता कि मैं ने गलत फिल्में चुनीं. मैं मेहनत भी करता हूं.’’

मल्टीस्टारर फिल्में करने से एक कलाकार के तौर पर पहचान कम हो जाती है? इस सवाल पर तुषार कुछ यों जवाब देते हैं, ‘‘मैं ऐसा नहीं मानता. मेरे डैड भी अपने समय में मल्टीस्टारर फिल्मों के साथ ही सोलो हीरो वाली फिल्में भी करते थे. हम या लोग, कलाकार को जितना टाइपकास्ट कर देते हैं उतना दर्शक कलाकार को टाइपकास्ट नहीं करता. दर्शक मुझे सोलो हीरो और मल्टीस्टारर हर तरह की फिल्मों में देखना चाहता है. ये फिल्मकार होते हैं, जो सोचते हैं कि यह तो मल्टीस्टारर फिल्में कर रहा है, मैं इसे सोलो हीरो वाली फिल्म में क्यों लूं? पर ‘मस्तीजादे’ और ‘क्या कूल हैं हम 3’ डबल हीरो वाली फिल्में हैं. हो सकता है कि इस के बाद मैं सोलो हीरो वाली फिल्में करने लग जाऊं.’’

बदलते दौर में हिंदी सिनेमा में आए बदलाव को ले कर तुषार का मानना है, ‘‘मेरे डैडी के समय में और अब में फर्क है. फिल्मों का बिजनैस अब सिर्फ 3 दिन का रह गया है. स्क्रीन बढ़ गए हैं. दर्शक विश्वभर का सिनेमा देखने लगे हैं. पहले पारिवारिक फिल्में ही ज्यादा बनती थीं. अब हर तरह की फिल्में बनने लगी हैं. मीडिया बढ़ गया है. अवार्ड फंक्शन ज्यादा होने लगे हैं. अब सबकुछ कमर्शियल हो गया है. इस बदलाव से सिनेमा को फायदा हो रहा है. सच कहूं तो अब मेरे डैड के समय की फिल्में देखने वालों की संख्या कम हो गई है. अब मल्टीप्लैक्स, सिंगल थिएटर, ए सैंटर, बी सैंटर, सी सैंटर के नाम पर दर्शक बंट गए हैं. कुछ फिल्में गुजरात व महाराष्ट्र में चलती हैं, तो वे उत्तर भारत में नहीं चलतीं. आज की तारीख में पूरे देश में चलने वाली फिल्में नहीं बनतीं. यदि फिल्म को अच्छी ओपनिंग मिल जाए तो फायदा है. दूसरा यह फायदा हुआ है कि अब हमारे भारतीय सिनेमा को विश्व सिनेमा के पटल पर पहचान मिल गई है. इंटरनैट की वजह से भी पूरे विश्व में हमारी फिल्में पहुंच रही हैं. पर फिल्मों में दिखावा बहुत हो गया है, जिस की वजह से लोग स्क्रिप्ट पर काम कम करते हैं. बाकी चीजों पर ध्यान ज्यादा देते हैं. लोग हर फिल्म को ग्लौसी के रूप में पेश करते हैं. भेड़चाल बढ़ गई है. हर फिल्म इतनी तेज गति से भागती है कि कहानी में दम ही नहीं रहता.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘पहले के फिल्मकार पूरे देश के दर्शकों को ध्यान में रख कर फिल्म बनाते थे. पर आज का फिल्मकार किसी न किसी ग्रुप के लिए फिल्म बनाता है. इतना ही नहीं, इन दिनों हमारी इंडस्ट्री के लोगों में एक गलत बात यह आ गई है कि यह चीज नहीं चलेगी. अरे, आप घर बैठ कर कैसे सोच लेते हैं कि क्या नहीं चलेगा. आप लोगों को अच्छी चीज देंगे तो लोग उसे जरूर देखना चाहेंगे.’’

बीते दिनों राजश्री की ‘प्रेमरतन धन पायो’ को छोड़ दें तो पारिवारिक फिल्मों में कमी आई है. इस मामले पर वे कहते हैं, ‘‘ऐसा हुआ है, पर क्यों हुआ है, मुझे नहीं पता. मुझे लगता है कि परिवार और पारिवारिक कंटैंट टीवी पर चला गया है. जब उस तरह का कंटैंट टीवी पर मुफ्त में मिल रहा हो तो दर्शक पैसा खर्च कर के फिल्म देखने के लिए थिएटर के अंदर क्यों जाएगा. लेकिन जब सूरज बड़जात्या जैसे लोग पारिवारिक फिल्म ले कर आते हैं तो दर्शक उन फिल्मों को देखते हैं. दर्शकों को फिल्म की तरफ खींचने के लिए कहानीकार की कहानी की अहमियत है. कहानी अच्छी हो तो दर्शक मल्टीप्लैक्स में भी जाता है.’’ सोशल मीडिया पर फिल्म को प्रमोट करने से कितना फायदा होता है, इस बाबत उन का मानना है, ‘‘मुझे नहीं पता. पर कुछ लोग कहते हैं कि युवा पीढ़ी पर सोशल मीडिया का बहुत प्रभाव है. लोग कहते हैं कि युवा पीढ़ी यूट्यूब पर बहुतकुछ देखना चाहती है. पर मेरी राय में सोशल मीडिया से प्रमोशन नहीं हो सकता. मेरी राय में सोशल मीडिया के साथसाथ टीवी व अखबारों में भी प्रमोशन करना चाहिए. यदि लोगों को ट्रेलर पसंद आता है, तभी फिल्म चलती है, वरना नहीं. फिल्म की कहानी अच्छी नहीं है तो फिर आप चाहे जितने शहर घूम लें, कोई फायदा नहीं होगा.’’

वे प्रचार व फायदे की बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘‘हां, कौर्पाेरेट कंपनियों के आने से फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन जरूर मजबूत हुआ है. पर जिन कौर्पाेरेट कंपनियों में क्रिएटिव लोग हैं वहां अच्छी फिल्में बन रही हैं. मसलन, धर्मा प्रोडक्शन को लीजिए. वहां अच्छी फिल्में बन रही हैं. पहले ‘यू टीवी स्पौट बौय’ में क्रिएटिव लोग थे. यदि कौर्पाेरेट कंपनी में एक भी क्रिएटिव इंसान है तो वह फिल्म के कंटैंट पर ध्यान दे सकता है. इसलिए जरूरी है कि हर कौर्पाेरेट कंपनी में फिल्मों के पुराने जमाने का कोई न कोई सदस्य जुड़ा हो.’’

हौलीवुड फिल्मों के हिंदी व अन्य भाषाओं में डब हो कर रिलीज होने से बौलीवुड पर क्या असर हो रहा है, इस पर तुषार बताते हैं, ‘‘अच्छा असर है. जितना ज्यादा कंपीटिशन होगा उतनी अच्छी फिल्में बनेंगी. हौलीवुड फिल्में ज्यादा कमाएंगी, तो हम भारतीय भी उन का मुकाबला करने के लिए अच्छी फिल्म बनाएंगे.’’ खुद के सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहने के सवाल पर वे बताते हैं, ‘‘मैं ट्विटर व इंस्टाग्राम पर बहुत सक्रिय हूं. मैं हर विषय पर लिखता हूं, राजनीति पर भी अपने विचार रखता हूं, लेकिन दिनभर नहीं लगा रहता.’’

अभिनेता तुषार कपूर विदेश से मैनेजमैंट की पढ़ाई कर के लौटे, फिर अपनी बहन के प्रोडक्शन हाउस में बतौर क्रिएटिव व मैनेजमैंट हैड का काम किया. लेकिन अभिनय की चाहत उन्हें फिल्मों में ले आई. पर कैरियर के 15 सालों में तुषार की अभिनय दक्षता व सफलता का ग्राफ देखते हुए कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि वे शायद प्रोडक्शन में ज्यादा सफल हो सकते हैं.

बहरहाल, योग्यता का कोई पैमाना नहीं होता. फिल्मी दुनिया में तो कामयाबी कब झोली में गिर जाए और सितारा फर्श से अर्श पर पहुंच जाए, कहा नहीं जा सकता. उम्मीद करते हैं कि तुषार के कैरियर में कामयाबी के लिए लुकाछिपी का खेल जल्द ही खत्म हो.   

हर तरह का किरदार निभाना चाहता हूं: रवि दुबे

ऐक्टिंग के जनून के शिकार हजारों नौजवानों की ही तरह उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर गोरखपुर का टैलीकौम इंजीनियर रवि दुबे भी मुंबई इसी सपने को ले कर आया था. पर वह उन नौजवानों की भीड़ में शामिल नहीं हुआ जो एक बार की असफलता से निराश हो जाते हैं. कड़ी मेहनत और इच्छाशक्ति के बलबूते देखते ही देखते वह छोटे परदे पर छा गया.

पहले ‘डोली सजा के रखना’ फिर ‘सास बिना ससुराल’ और उस के बाद ‘जमाई राजा’ जैसे टाइटल वाले शो उसे मिलते हैं.

रवि एक इंजीनियर से ऐक्टर कैसे बन गया?

‘‘इस की एक लंबी कहानी है,’’ वह कहता है, ‘‘फिलहाल मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि मेरी बचपन से ही ऐक्टिंग करने की इच्छा थी. जब मैं हिंदी फिल्में देखता था तो हमेशा सोचता कि मैं हीरो बनूंगा और परदे पर दिखूंगा. स्कूली पढ़ाई के बाद घर वालों की इच्छा थी कि मैं इंजीनियर बनूं. इसलिए मैं दिल्ली से मुंबई इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए आ गया था. पर पढ़ाई के साथसाथ शौकिया मौडलिंग भी करने लगा. दर्शकों का प्रोत्साहन मिला तो अपने शौक को प्रोफैशन में बदला.

‘जमाई राजा’ में रवि मराठी महिला का किरदार निभा रहा है तो एक रिऐलिटी शो ‘इंडिया बैस्ट ड्रामाबाज-2 में होस्ट बना है.

मराठी महिला ज्योति ताई के किरदार के लिए वह तुरंत तैयार हो गया था. हालांकि ताई का किरदार निभाने में एक मुश्किल थी और वह थी उम्रदराज महिला के अंदाज में मराठी टोन के डायलौग बोलना. दरअसल, यह एक सीरियस कैरेक्टर है,  इसलिए उसे लाउड रखने का सवाल ही नहीं उठता. इस कैरेक्टर के लिए कुछ बातें उस ने अपनी मां से सीखीं. वे भी बहुत सिंपल रहती हैं. बहुत ही प्यार से और धीमा बोलती हैं.

शरगुन के साथ रवि की मैरिज लाइफ भी बढि़या चल रही है, क्योंकि दोनों एकदूसरे को समझते हैं और जानते हैं कि इस फील्ड में कितना कम समय मिलता है. इसलिए दोनों को कभी यह शिकायत नहीं रहती कि एकदूसरे को समय नहीं दे पाते हैं.

बब्बन और खालू फिर दिखेंगे साथ साथ

खालू जान (नसीरुद्दीन शाह) और बब्बन (अरशद वारसी) की जोड़ी फिल्म ‘इश्किया’ और ‘डेढ़ इश्किया’ के बाद फिर से धमाल मचाने आ रही है. दोनों सामाजिक तानेबाने पर बन रही फिल्म ‘इरादे’ में एकसाथ दिखाई देंगे. 66 वसंत देख चुके नसीरुद्दीन अपनी अदायगी के बलबूते आज भी हर तरह के किरदार निभाने की काबिलीयत रखते हैं. ताजा खबर यह है कि नसीर फिल्ममेकर मणिरत्नम की पत्नी सुहासिनी मणिरत्नम के साथ निर्देशक अनु मेनन की फिल्म ‘वेटिंग’ में भी जल्दी नजर आएंगे. सुहासिनी भी इस फिल्म से बौलीवुड डैब्यू कर रही हैं.

 

फरहान बने अदिति के सलाहकार

इन दिनों अदिति जो भी काम कर रही हैं सब कुछ ‘वजीर’ में अपने कोस्टार रहे फरहान अख्तर से पूछ कर कर रही हैं. फिल्म ‘वजीर’ के बाद अदिति और फरहान की नजदीकियों की वजह से ही फरहान की पत्नी अधुना के अलग होने की खबरें आई थीं. लगता है कि गपशप गली की खबरों में कुछ तो सचाई है तभी तो अदिति आजकल अपना ज्यादा समय अख्तर परिवार के साथ बिताती हैं. खबर है कि उन का आगे का कैरियर प्लान भी फरहान ही तय कर रहे हैं, क्योंकि फिल्म ‘वजीर’ के बाद कई फिल्मों के प्रस्ताव आए, लेकिन उन्होंने अभी तक किसी के लिए हामी नहीं भरी है. वजह फरहान की तरफ से हरी झंडी नहीं मिलना है.

अर्शिमा के साथ हुई सैट पर मारपीट

टीवी शो ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ और ‘ये है मोहब्बतें’ में काम कर चुकी अर्शिमा थापर के साथ प्रोडक्शन टीम द्वारा मारपीट का मामला सामने आया है. उन के साथ 3 सदस्यों ने सैट पर मारपीट की. हालांकि उन के साथ हुई इस घटना के बारे में उन्होंने कुछ भी कहने से मना कर दिया है.

सूत्रों के मुताबिक इस मामले में सिने ऐंड टैलीविजन आर्टिस्ट ऐसोसिएशन और फैडरेशन औफ वैस्टर्न इंडिया सिने इंप्लौइज में केस दर्ज किया गया और इस संबध में कड़ी कार्यवाही किए जाने की मांग की गई है. जानकारी के अनुसार, अर्शिमा की तबीयत खराब थी, इस के बावजूद उन्हें अगले दिन सुबह जल्दी रिपोर्ट करने को कहा गया. जब अर्शिमा ने अपनी खराब तबीयत का हवाला दिया तब अतुल ने पहले उन का हाथ पकड़ा और फिर मारपीट की.

विजेंदर से डरकर ये क्या करने लगा हंगरी का बॉक्सर

भारत के स्टार बॉक्सर विजेंदर सिंह से डरकर हंगरी के बॉक्सर एलेक्सजेंडर हारवर्थ ने सांप का खून पीना शुरू कर दिया है. यह कोई अफवाह नहीं है बल्कि सच्चाई है जो खुद हारवर्थ ने स्वीकार की है. हारवर्थ और विजेंदर के बीच लिवरपूल में मुकाबला 12 मार्च को होना है. 20 साल के हंगरी के बॉक्सर मुकाबले के लिए जोरदार तैयारी करने में जुटे हैं. इसी कड़ी में हारवर्थ ने सांप का खून पीना शुरू किया.

जीत के दावेदार माने जा रहे विजेंदर

विजेंदर ने अब तक खेले अपने सभी तीनों प्रोफेशनल मुकाबले नॉक-आउट पंच से जीते हैं. ऐसे में हारवर्थ के खिलाफ भी विजेंदर को जीत का दावेदार माना जा रहा है. हालांकि अनुभव के मामले में हारवर्थ विजेंदर से आगे हैं. हारवर्थ ने 31 राउंड में से 5 जीते, एक हारा और एक ड्रॉ रहा है.

परिवार में सांप का खून पीने की परंपरा

हारवर्थ ने कहा, 'मेरे परिवार में सांप का खून पीने की पुरानी परंपरा है. यह कई वर्षों से चला आ रहा है. अपने पूर्वजों की तरह मैं भी एक सच्चा वॉरियर हूं और जीत से पहले नहीं रुकूंगा.' हारवर्थ ने सांप का खून पीने को सही ठहराते हुए कहा, 'हंगरी में सैनिकों का सांप का खून पीने का इतिहास रहा है. वे टर्क्स को हराने के लिए खून पीते थे. अब मैं विजेंदर को हराने के लिए सांप का खून पी रहा हूं.' 20 साल के हारवर्थ ने कहा, 'सांप का खून पीकर मुझे जो ताकत मिलती है जिसको मैं बयान नहीं कर सकता. मेरे खून में जो सांप का खून बहता है और विजेंद्रर किसी भी हालत में मुझे नहीं हरा सकते. खून पीना शुरू करने के बाद से मैं ज्यादा ट्रेनिंग कर पा रहा हूं.'

दुनिया के कई हिस्सों में सांप का खून पीने का प्रचलन

हंगरी के अलावा दुनिया के बाकी हिस्सों में भी सांप का खून पीने का प्रचलन रहा है. दुनिया में सबसे ताकतवर माने जा रहे यूएस मरींस भी खतरनाक कोबरा का खून पीकर जंगलों में ट्रेनिंग के दौरान रहते हैं.

वाइपर का खून पी रहे हारवर्थ

हारवर्थ मैच की तैयारी से पहले जिस सांप का खून पी रहे हैं वह दुनिया के सबसे खतरनाक सांपों में से एक वाइपर है. वैसे इन सब बातों से विजेंदर अंजान हैं और उनकी पूरी तैयारी अपने मैच पर है. वह लगातार इससे जुड़ी बातें ट्वीट कर रहे हैं. 

इमरान बोले, धर्मशाला टी20 मैच नहीं खेले पाकिस्तान

पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान इमरान खान का मानना है कि हिमाचल प्रदेश के सीएम वीरभद्र सिंह के 'घृणायुक्त बयान और प्रतिरोध' को देखते हुए पाकिस्तानी टीम को धर्मशाला में भारत के खिलाफ 19 मार्च को होने वाले वर्ल्ड टी20 मैच में नहीं खेलना चाहिए.

धर्मशाला में भारत से ना खेले पाकिस्तान

खबरों के अनुसार इमरान ने कहा कि वह मुख्यमंत्री के बयान से निराश थे. इमरान ने कहा, 'हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री का बयान गैरजिम्मेदाराना था और यह पूरी तरह से मेहमाननवाजी और मेजबानी के मापदंडों के खिलाफ है. मुख्यमंत्री का बयान साफ तौर पर घृणा को बढ़ावा देता है. इस स्थिति के बीच मुझे नहीं लगता कि पाकिस्तान टीम को हिमाचल प्रदेश में खेलना चाहिए.'

वीरभद्र ने सुरक्षा देने में जताई थी असमर्थता

गौरतलब है कि राज्य के सीएम वीरभद्र ने कांगड़ा के शहीदों के परिवारों और पूर्व सैनिकों की आपत्ति को देखते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच मैच के लिए सुरक्षा मुहैया कराने में असमर्थता जताई थी. उनका मानना था कि पाकिस्तान की मेजबानी उन सैनिकों का 'अपमान' है जिन्होंने जनवरी में पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले में अपनी जान गंवाई थी.

ड्रग टेस्ट में फेल हुई शारापोवा, लग सकता है बैन

टेनिस की दुनिया से एक खबर चौंकाने वाली है. टेनिस की पूर्व नंबर वन खिलाड़ी और पांच बार ग्रैंड स्लैम विजेता रहीं मारिया शारापोवा ने एक खुलासा कर सबको चौंका दिया है. उन्होंने यह कबूला है कि वो ऑस्ट्रेलियन ओपन के ड्रग टेस्ट में फेल हो गईं थीं. शारापोवा ने कहा कि उन्हें उस दवा के सेवन के लिए फेल किया गया जो वह 10 साल से स्वास्थ्य कारणों की वजह से ले रहीं थीं.

शारापोवा ने कहा कि मैंने बहुत बड़ी गलती की है. मैं चार साल की उम्र से इस खेल को खेलती हूं. मैं जानती हूं कि मुझे किन हालातों का सामना करना पड़ेगा. लेकिन मैं अपना करियर ऐसे खत्म नहीं करना चाहती. मुझे उम्मीद है कि मुझे फिर से खेलना का मौका मिलेगा.

शारापोवा ने कहा कि मेल्डोनियम के लिए हुए उनका टेस्ट पॉजिटीव पाया गया. इसे वह वर्ष 2006 से ले रही थीं, लेकिन पिछले साल यह बैन दवाओं की लिस्ट में शामिल हो गई. मैं टेस्ट में फेल हो गई और इसकी पूरी जिम्मेदारी लेती हूं. इस साल 18 से 31 जनवरी के बीच ऑस्ट्रेलियन ओपन टेनिस चैम्पियंशिप खेला गया था. शारापोवा ने कहा मुझे अंतरराष्ट्रीय टेनिस फाउंडेशन की तरफ से एक पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि मैं ऑस्ट्रेलियन ओपन के लिए ड्रग टेस्ट में फेल हो गई हूं.

इंटरनेशनल टेनिस फेडरेशन ने एक स्टेटमेंट जारी कर इस बात की पुष्टि की है कि शारापोवा का टेस्ट 26 जनवरी को पॉजिटिव पाया गया था. आईटीएफ के मुताबिक इस टेस्ट के रिजल्ट और शारापोवा के ड्रग लेने की बात कबूल करने के बाद उन्हें सस्पेंड कर दिया गया है. 12 मार्च से यह लागू हो जाएगा.

पांच बार ग्रैंड स्लैम चैंपियन का खिताब जीत चुकी शारापोवा को अस्थायी तौर पर आगे की कार्रवाई के लिए 12 मार्च से निलंबित कर दिया गया है. फोर्ब्स की सूची के मुताबिक पिछले 11 सालों में शारापोवा सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली महिला एथलीट रही हैं. अगस्त 2005 में वह पहली बार दुनिया की नंबर एक खिलाड़ी बनीं और फिलहाल वह रैंकिंग में सातवें पायदान पर हैं.

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