लेखिका– वीना उदयमो
‘दिस इज़ टू मच’ यह शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद रहे हैं. मानो मेरे कानों में कोई पिघला शीशा उड़ेल रहा हो. मेरा घर भी अखबारों की सुर्खियां बनेगा यह तो मैंने स्वप्न में भी ना सोचा था. हमारे हंसते खेलते घर को न जाने किसकी बुरी नजर लग गई. हम चार जनों का छोटा सा खुशहाल परिवार – बेटा बी0टेक0 थर्ड ईयर का छात्र और बेटी बी0टेक0 फर्स्ट ईयर की.
कोरोन संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए जब सभी कॉलेजों और स्कूलों से विद्यार्थियों को घर वापस भेजा जाने लगा और मेरा भी विद्यालय बंद हो गया तो मैं प्रसन्न हो गई कि बरसों बाद अपने बच्चों के साथ मुझे समय बिताने का मौका मिलेगा.
कानपुर आईआईटी में पढ़ने वाला मेरा बेटा और बीबीडी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाली मेरी बेटी जब घर आए तो मेरा घर गुलज़ार होगया. नरेंद्र अपनी पुलिस की ड्यूटी निभाने में व्यस्त रहते थे और मैं क्वेश्चन पेपर बनाने, वर्कशीट बनाने और लिखने पढ़ने में. बस यही व्यस्त दिनचर्या रह गई थी हमारी.
जब बच्चे घर आए तो उनसे बातें करते, मिलजुल कर घर के काम करते, और साथ बैठकर टीवी देखते तथा मज़े करते दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता.
पर मेरी यह खुशी ज्यादा दिन नटिक पाई. सौरभ और सुरभि ने कुछ दिनों तो मेरे साथ खुशी-खुशी समय बिताया, फिर बोर होने लगे, बातों का खज़ाना खाली हो गया और घर का काम बोझ लगने लगा, उमंग और उल्लास का स्रोत सूखने लगा. दोनों अपने-अपने कमरों में अपने-अपने मोबाइल और लैपटॉप के साथ अपनी ही दुनिया में मगन रहते.
मैं 5:00 बजे उठकर सोचती कि 5:00 बजे ना सही, कम से कम 6:00-7:00 बजे तक ही उठकर दोनों मेरे साथ एरोबिक्स अथवा योगा करें. हम साथ-साथ मिलकर काम करें और साथ-साथ बैठकर मूवी देखें और समय बिताएं. मैं उनकी पसंद का नाश्ता बना कर उनके उठने का इंतजार करती. पहले उन्हें प्यार से उठाती फिर चिल्लाती. पर उन दोनों के कानों पर तो जूँ तक ना रेंगती.
बेटी को उठाती तो वह कहती, “आप मेरे ही पीछे पड़ी रहती हो, पहले भैया को उठाओ जाकर.” और भाई को कहती तो वह कहता, “माँ दिस इस टू मच. चैन से सोने भी नहीं देती हो. अब मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूँ.” मैं अपना सा मुँह लेकर रह जाती.
भागते भागते 21 बरस कैसे बीत गए पता ही ना चला. लगता है जैसे कल की ही बात हो, जब मेरा अन्नू अपनी शरारतों से हम सबके बीच आकर्षण का केंद्र बना रहता था. उससे 2 साल छोटी तनु जब ठुमक ठुमक कर चलती थी तो मानो साक्षात मोहिनी ने अवतार ले लिया हो. उन्हें देखकर हम फूले नहीं समाते थे.
नरेंद्र मंत्रमुग्ध हो कहते, “मैं अपने बेटे को पुलिस कमिश्नर बनाऊँगा और बेटी को जज.” ऐसे ही ना जाने कितने सपने सजाए हम दिलोजान से उन्हें अच्छी परवरिश देने में लगे थे.
मैं सुबह 5:00 बजे उठकर सबका नाश्ता तैयार करती. नरेंद्र यदि घर पर होते तो बच्चों को तैयार करने में मेरी सहायता करते. बच्चों को बस स्टॉप पर छोड़ कर अपने स्कूल के लिए भागती. बच्चों की छुट्टी 2:00 बजे हो जाती थी इसलिए वह स्कूल से सीधे नानी के घर चले जाते थे.
मैं जब 3:30 बजे लौटती तो उन्हें अपने साथ घर वापस ले आती. घर आकर उन दोनों को रेस्ट करने के लिए कहती और खुद भी थोड़ी देर आराम करती. 5:00 बजे उन्हें उठाकर होमवर्क करवाने बैठाती और साथ ही घर के काम भी निपटाती जाती.
जीवन की आपाधापी में समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही ना चला. नरेंद्र की 24 घंटे की पुलिस की नौकरी और हजारों तरह की कठिनाइयों के बाद भी वह मुझे और बच्चों को समय देने और हमारा ध्यान रखने की पूरी कोशिश करते. उन्हें अपने दोनों बच्चों पर बड़ा गर्व था.
सौरभ का जब आईआईटी में सिलेक्शन हो गया तब उन्होंने अपने पूरे स्टाफ को मिठाई बाँटी और रिश्तेदारों को पार्टी दी. सौरभ के हॉस्टल जाने के बाद मैं कितना रोई थी. उसके सेलेक्ट होने की खुशी तो थी पर घर से जाने का गम भी बहुत ज्यादा था. कुछ भी बनाती तो उसकी याद आती. डाइनिंग टेबल पर उसकी खाली कुर्सी देख कर मैं रो पड़ती कि मेरा बेटा हॉस्टल का रुखा-सूखा खाना खा रहा होगा.
उसके 2 साल बाद ही तनु को भी एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया और वह भी बाहर चली गई. उसके जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से खुशियां ही चली गई हो.
धीरे धीरे इस सन्नाटे की हमें आदत हो गई. आज 10 दिन के लिए बच्चे हवा के झोंकों की तरह घर आते और चले जाते. कोरोना के कहर ने सारे संसार को आतंकित कर रखा है. मैं कोरोना से भयभीत तो थी पर मुझे खुशी थी कि जीवन की इस आपाधापी में मुझे बरसों बाद अपने बच्चों के साथ समय बिताने को मिलेगा.