Download App

रद्द हो सकती है भारत-पाक क्रिकेट सीरीज

भारत और पाकिस्तान की महिला क्रिकेट टीमों के बीच होने वाली सीरीज पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं. उड़ी हमले के बाद से दोनों देशों में तनाव और तल्खी दोनों बढ़ रही हैं. ऐसे में भारत के खेल संघ पाकिस्तान के साथ किसी भी स्तर पर कोई खेल खेलने को तैयार नहीं हैं. बैडमिंटन और कबड्डी के बाद अब महिला क्रिकेट सीरीज के पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान के बीच अक्टूबर के अंत तक महिला क्रिकेट सीरीज खेली जानी है जिसमें आईसीसी महिला चैंपियनशिप अंकों का निर्णय होना है. लेकिन बीसीसीआई ने अभी तक पीसीबी को सीरीज खेलने या रद्द करने को लेकर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी है. यदि सीरीज रद्द होती है तो अंकों के बंटवारे का निर्णय चैंपियनशिप की तकनीकी समिति करेगी.

सीरीज रद्द होने पर भारत को नहीं मिलेंगे अंक

आईसीसी के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान की मेजबानी में होने वाली इस सीरीज को यदि भारत खेलने से मना करता है तो उसे अंक नहीं दिये जाने चाहिये. इस सीरीज में दोनों देशों के बीच तीन वनडे होने हैं और पीसीबी संयुक्त अरब अमीरात में भारत की मेजबानी करने को तैयार है.

उल्लेखनीय है कि आईसीसी महिला चैंपियनशिप के बाद शीर्ष चार स्थानों पर रहने वाली टीमों को इंग्लैंड में अगले साल होने वाले 2017 वर्ल्ड कप के लिए स्वत: प्रवेश मिल जाएगा.

भारत-पाक तनावपूर्ण रिश्ते

भारत और पाकिस्तान के बीच फिलहाल रिश्ते काफी तनावपूर्ण बने हुए हैं और ऐसी स्थिति में महिला क्रिकेट सीरीज होने के आसार काफी कम ही हैं. भारतीय पुरुष टीम ने भी पाकिस्तान के साथ 2012-13 से ही द्विपक्षीय सीरीज नहीं खेली है. हालांकि पाकिस्तान ने भारत की मेजबानी में हुए आईसीसी 20-20 वर्ल्ड कप, वनडे वर्ल्ड कप, चैंपियंस ट्रॉफी और एशिया कप में क्रिकेट खेला है.

पहले भी रद्द की गई है सीरीज

भारत और पाकिस्तान के बीच मई 2014 में एक करार भी हुआ था जिसके तहत दोनों देशों के बीच साल 2015 से 2023 के बीच छह द्विपक्षीय क्रिकेट सीरीज खेली जानी हैं. गत वर्ष भी दिसंबर में पाकिस्तान की मेजबानी में भारत के साथ सीरीज होनी थी लेकिन विवाद और काफी चर्चा के बावजूद वो द्विपक्षीय सीरीज बीसीसीआई की ओर से रद्द कर दी गयी थी.

रैंकिंग में हो सकता है नुकसान

गैर क्रिकेट कारणों से सीरीज रद्द किये जाने की स्थिति में टीमों को अंक गंवाने पड़ सकते हैं. ऐसे में भारतीय महिला टीम के लिए भी यह स्थिति पैदा हो सकती है. आईसीसी महिला चैंपियनशिप में भारत तालिका में 13 अंकों के साथ छठे स्थान पर है और शीर्ष की चार टीमों से पांच अंक के फासले पर है. पाकिस्तान तालिका में आठ अंक लेकर सातवें स्थान पर है.

पीसीबी बना रहा दबाव

यदि इस सीरीज से मिलने वाले सभी छह अंक पाकिस्तान को मिल भी जाते हैं तब भी उसके या भारत के पास वर्ल्ड कप के लिए सीधे क्वालीफाई करने का मौका नहीं बनता है. पाकिस्तान की महिला टीम को 13 से 17 नवंबर तक तीन वनडे मैचों की सीरीज के लिए न्यूजीलैंड के दौरे पर भी जाना है. ऐसे में पीसीबी भारत के साथ सीरीज को लेकर काफी दबाव बना रहा है.

भारत और पाकिस्तानी महिला टीमों को 25 नवंबर से पांच दिसंबर तक थाईलैंड में होने वाले एशिया कप टूर्नामेंट में भी एक दूसरे के साथ खेलना है.

फर्नीचर के शीशे में फिट होगी ‘इनविजिबल टीवी’

कहानियां तो आपने कई सुनी होंगी. रोमांचक कहानियां जो आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं. इस दुनिया में आपके पास कई ऐसी चीजें होती हैं जिनका असल में होना न मुमकिन सा लगता है. लेकिन यदि वो सच हो जाए तो! पैनासॉनिक का नया टीवी कुछ ऐसा ही है.

कल्पना कीजिए एक ऐसे टीवी का, जो कांच की तरह दिखता हो और आपके फर्नीचर के शीशे में फिट हो सकता हो. पैनासोनिक ने ऐसा ही एक 'अदृश्य' टीवी का प्रोटोटाइप विकसित किया है. यह टीवी किसी सामान्य टीवी की तरह ही चमकीली और साफ तस्वीरें-वीडियो दिखाता है.

एनगैजेट वेबसाइट के मुताबिक, पैनासोनिक ने नए प्रोटोटाइप की तस्वीरों की गुणवत्ता में सुधार किया है. इस रिपोर्ट में आगे कहा गया, "यह ओएलइडी स्क्रीन पतली जाली से बना है, जिसे कांच के दरवाजे में जोड़ा गया है."

अगर इस टीवी को किसी आलमारी के आगे लगया जाए तो इस टीवी को बंद करने पर इसके पीछे की आलमारी के दराजों को देखा जा सकता है. लेकिन जब इसे चालू किया जाता है तो यह किसी सामान्य टीवी की तरह ही काम करती है. पैनासोनिक के मुताबिक, यह टीवी अगले तीन साल में बाजार में आ जाएगा.

अब साइबर क्राइम से बचाएगा साइबर इंश्योरेंस

सोशल मीडिया पर लिखना कभी-कभी आपको मुश्किलों में डाल देता है और आपको मानहानि के मुकदमों और जुर्माने तक का सामना करना पड़ जाता है. हालांकि जल्दी ही मार्किट में एक ऐसी साइबर इंश्योरेंस पॉलिसी आने जा रही है जो आपको ऐसी घटनाओं के समय कवर देगा. इंश्योरेंस कंपनी ऐसे मामलों में केस का खर्चा और जुर्माने की रकम भी देने का दावा कर रही है, बस क्लेम साबित करना होगा.

बजाज आलियांज जल्दी ही एक ऐसी पॉलिसी ला रहा है जिसे लेने के बाद आपको सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखने से पहले सौ बार सोचना नहीं पड़ेगा. बजाज किसी भी सोशल मीडिया कंटेंट पर केस होने की स्थिति में कवर उपलब्ध कराएगी. बजाज ने सोशल मीडिया यूजर्स को कवर देने की पूरी तैयारी कर ली है और ये अपने तरह की पहली इंश्योरेंस पॉलिसी होगी.

साइबर चोरी और हैकिंग में भी मिलेगा कवर

कंपनी के मुताबिक बीमा कराने वाले व्यक्ति को दिए जानेवाले साइबर कवर में उसकी साख, डाटा सेंध और किसी निजी, फाइनेंशियल या संवेदनशील जानकारी चोरी हो जाने के मामले में भी कवर मिलेगा. कंपनी का मानना है कि इंटरनेट के पर्सनल लाइफ में बढ़ते इस्तेमाल के मद्देनज़र इस तरह की पॉलिसी की ज़रुरत काफी समय से महसूस की जा रही थी. ऑनलाइन ट्रांजेक्शन के बढ़ते चलन की वजह से नए खतरे पैदा हुए हैं और सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स वेबसाइट्स पर काफी मात्रा में निजी जानकारी मौजूद है इसकी सुरक्षा के लिए इंश्योरेंस कवर बेहद ज़रूरी है.

एक हजार करोड़ से ज्यादा का है मार्किट

एक अनुमान के मुताबिक, भारत में साइबर बीमा का मार्केट करीब 1,000 करोड़ रुपए का है. यह मार्केट लायबिलिटी के 7 से 10 फीसदी हिस्सों को कवर करता है. देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है. इसमें सबसे ज्यादा नए इंटरनेट यूजर्स का झुकाव सोशल मीडिया की तरफ होता है. चीन के बाद भारत में इंटरनेट यूजर्स के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश है.

यहां शुरू हुई ऐसी पॉलिसी

फिलहाल पर्सनल साइबर इश्योरेंस पॉलिसी के तहत फिशिंग, आइडेंडिटी थेफ्ट, साइबर स्टाकिंग, शोषण और बैंक अकाउंट्स की हैकिंग को कवर किया जाता है. साइबर इश्योरेंस आईटी फर्मों, बैंकों, ई-कॉमर्स और फार्मा कंपनियों को बेचे जाते हैं. इसके तहत कॉरपोरेट्स को प्राइवेसी और डाटा ब्रीच, नेटवर्क सिक्युरिटी क्लेमस और मीडिया लायबिलिटी का कवर मिलता है.

डूब गई ‘यारों की बारात’

बौलीवुड में अभिनेता रितेश देशमुख और फिल्म निर्देशक साजिद खान उन लोगों में से हैं, जो कि लगातार असफल हो रहे हैं. बौलीवुड में इन दोनों की गिनती उन रचनात्मक लोगों में होती है, जो कि खुद को सही बताते हैं और इन्हे यह पसंद नहीं है कि कोई इनसे असफल फिल्मों या इनके करियर में मिल रही असफलता को लेकर सवाल करे. यदि किसी पत्रकार ने इनसे इनकी फिल्म की असफलता को लेकर सवाल कर दिया तो यह तुरंत उस पत्रकार से कहते हैं कि उसका अखबार भी अधिक संख्या में क्यों नहीं बिकता है?

जब ‘जी टीवी’ ने इन दोनों असफल व घमंडियों को अपने चैनल के चैट शो ‘यारों की बारात’ के एंकर के रूप में चुना था, तभी फिल्म और टीवी इंडस्ट्री में कानाफूसी शुरू हो गयी थी कि इस चैट शो को अब असफल होने से कोई नहीं बचा सकता. बहरहाल, अब तक यारों की बारात की जो टीआरीपी आयी है, उससे लोगों की शंका सच साबित हो रही है. गौरतलब है कि इस शो के पहले एपीसोड में अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा व दूसरे एपीसोड में करण जोहर, फरहा खान आए थे.

सूत्रों का दावा है कि जी टीवी के लोग आज अपने निर्णय पर पछता रहे हैं. रितेश देशमुख पहले ऐसे नहीं थे. उनका स्वभाव भी फ्रेंडली था और फिल्म ‘एक विलेन’ में उनके अभिनय की काफी तारीफ हुई. उसके बाद रितेश ने बतौर निर्माता और अभिनेता मराठी फिल्म ‘लय भारी’ की, इस फिल्म को भी जबरदस्त सफलता मिली. मगर इस फिल्म के बाद उन्हें लगने लगा कि उनसे बड़ा अभिनेता इस संसार में नहीं हो सकता.

घमंड में चूर होते ही रितेश का हिंदी फिल्मों में करियर पतन की ओर अग्रसर हो गया. मराठी फिल्म लय भारी के बाद रितेश की ‘बैंगिस्तान’, ‘हाउसफुल 3’, ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ और ‘बैंजो’ सहित सभी प्रदर्शित हिंदी फिल्मों ने बाक्स ऑफिस पर पानी नहीं मांगा. हालात यह हैं कि ‘यशराज फिल्म्स’ अब अपनी कंपनी की फिल्म ‘बैंक चोर’ को प्रदर्शित करने का निर्णय नहीं ले पा रही है, जिसमें रितेश की मुख्य भूमिका है.

मजेदार बात यह है कि रितेश कुछ समय पहले सफल मराठी गेम शो ‘विकता का उत्तर’ का संचालन कर चुके हैं. मगर ये चमत्कार वो हिंदी फिल्मों और चैट शो के साथ नहीं कर पा रहे हैं. इस असफलता का कारण क्या है ये तो रितेश ही बता सकते हैं और जिसका जवाब वो देना नहीं चाहते.

यही हाल साजिद खान का है. 2012 में प्रदर्शित फिल्म ‘हाउसफुल 2’ की सफलता के बाद साजिद खान भी सांतवें आसमान पर पहुंच गए. यदि सूत्रों पर यकीन किया जाए, तो उनके इसी ‘मुझसे बेहतर निर्देशक कोई नहीं’ सोच के कारण ही उनसे उनकी प्रेमिका व अभिनेत्री जैकलीन ने दूरी बना ली. 2013 में प्रदर्शित फिल्म ‘हिम्मतवाला’ और 2014 में प्रदर्शित फिल्म ‘हमशकल्स’ भी कोई कमाल नहीं कर पाई.

फिल्म ‘हमशकल्स’ के प्रदर्शन के बाद सैफ अली ने साजिद खान के खिलाफ काफी कुछ कहा था. इसके बाद साजिद खान को किसी भी फिल्म को निर्देशित करने का मौका नहीं मिला. फिल्म ‘हाउसफुल 3’ का निर्देशन भी उनकी बजाय दूसरे को सौंपा गया था. अब बौलीवुड व टीवी इंडस्ट्री सवाल उठाए जा रहे हैं कि घर पर बेकार बैठे असफल निर्देशक साजिद खान और असफल अभिनेता रितेश देशमुख को जी टीवी ने क्या सोचकर चैट शो ‘यारों की बारात’ के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी थी?

उधर जी टीवी के अंदर भी हड़कंप मचा हुआ है. जीटीवी को इस शो के असफल होने से काफी नुकसान हो रहा है. सूत्र बताते हैं कि जीटीवी ने साजिद खान व रितेश देशमुख को बहुत बड़ी रकम दी है. सूत्र तो यह भी बताते हैं कि इस शो में आने के लिए भी हर सेलेब्रिटी काफी मोटी रकम ले रहे हैं. इन सब के कारण चैनल का घाटा हर एपीसोड के बाद बढ़ता ही जा रहा है. उधर जी टीवी के अंदरूनी सूत्रों की माने तो अब जी टीवी इस चैट शो को समय से पहले ही बंद करने पर विचार कर रही है

माना कि फिल्म या टीवी कार्यक्रम की सफलता की गारंटी पहले से नहीं दी जा सकती. सब कुछ दर्शकों की इच्छा पर निर्भर करता है. पर लगातार असफलता मिलने पर क्या अभिनेता या निर्देशक का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वह अपने अंदर वजह तलाश करे कि वह कहां गलती कर रहा है? सब कुछ दर्शक के सिर माथे डालकर अपनी कमियों पर परदा डालना ठीक नहीं है.

‘‘सरकार 3’’ से अभिषेक-ऐश्वर्या की छुट्टी

हमने कुछ दिन पहले बताया था कि लगातार असफलता का स्वाद चखते आ रहे फिल्मकार राम गोपाल वर्मा इस बार हर हाल में सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं. इसी के चलते इस बार काफी फूंक-फूंक कर कदम उठाते हुए उन्होंने हर किसी से अपने पुराने मतभेद भुलाकर एक बार फिर अपनी सफल फिल्म ‘सरकार’ की फ्रेंचाइजी पर दांव लगाते हुए ‘‘सरकार 3’’ बनाने जा रहे हैं.

वह ‘‘सरकार 3’’ में सिर्फ सफल लोगों को ही जोड़ना चाहते हैं. इस बार राम गोपाल वर्मा ने मनोज बाजपेयी से अपनी 15 वर्ष पुरानी दुश्मनी को भुलाकर उन्हें गले लगाते हुए ‘सरकार 3’ में जोड़ने का फैसला किया है. राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म में अमिताभ बच्चन को ही एक बार फिर सुभास नागरे के किरदार में जोड़ा है.

बहरहाल,अब ‘सरिता’’ की इस खबर पर खुद राम गोपाल वर्मा ने ट्वीट कर मुहर लगा दी है. राम गोपाल वर्मा ने ट्वीटर पर अपनी फिल्म ‘‘सरकार 3’’ के कलाकारों के नाम उजागर करते हुए ट्वीट किया है- ‘‘हम फिल्म ‘सरकार 3’ शुरू करने जा रहे हैं. जिसमें सुभास नागरे के किरदार में अमिताभ बच्चन के अलावा मुख्य विलेन में मनोज बाजपेयी व जैकी श्राफ होंगे. इसके अलावा इस फिल्म में यामी गौतम, अमित साध, रोनित रॉय, रोहिणी हट्टंगड़ी और भरत दाभोलकर होंगे.’’

यानी कि राम गोपाल वर्मा ने अपनी ‘‘सरकार 3’ से ‘सरकार’ में अभिनय कर चुके अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन की छुट्टी कर दी है. सूत्रों का दावा है कि बौलीवुड में इन दिनों हर कोई असफल कलाकार जोड़ी अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन से दूरी बनाकर चल रहा है. तो फिर भला रामू कैसे इस कलाकार जोड़ी को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाएंगे.

फिल्म ‘सरकार 3’ में रोहिणी हट्टंगड़ी रूक्कू भाई देवी के नगेटिव किरदार में नजर आएंगी. जबकि सूत्रों का दावा है कि इस फिल्म में मनोज बाजपेयी का किरदार नगेटिव और गुस्सैल है. उनके किरदार में लोगों को अरविंद केजरीवाल के हिंसात्मक रूप का अहसास होगा. जबकि जैकी श्राफ के किरदार का नाम ‘सर’ होगा.

सोनाक्षी सिन्हा भी करेंगी फिल्म निर्माण

अनुष्का शर्मा और प्रियंका चोपड़ा के फिल्म निर्माण में उतरने के बाद सोनाक्षी सिन्हा के फिल्म निर्माण में उतरने पर आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि फिल्म निर्माण करना तो उनके खून में है.

सोनाक्षी सिन्हा के पिता व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा भी अभिनय करते हुए ‘रामायण चित्रा’ के बैनर तले फिल्मों का निर्माण किया था. उसके बाद सोनाक्षी सिन्हा के दोनों भाई लव व कुश ने मिलकर भी अपने पिता के बैनर ‘रामायण चित्रा’ को पुनः जीवित करने का असफल प्रयास किया था.

पर इनके द्वारा निर्मित पहली फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर पानी नहीं मांगा था. ऐेसे में यदि सोनाक्षी सिन्हा भी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरते हुए अपने पिता शत्रुघ्न सिन्हा के बैनर ‘रामायण चित्रा’ को पुनः जीवित करने का प्रयास करती हैं, तो कुछ भी अजूबा नहीं है.

मगर अजूबा यह है कि सोनाक्षी सिन्हा फिल्मों में बतौर अभिनेत्री असफल होने के बाद फिल्म निर्माण करने की बात सोच रही हैं. पिछले दो वर्ष के अंतराल में ‘एक्शन जैक्शन’, ‘लिंगा’, ‘तेवर’, ‘ऑल इज वेल’, ‘अकीरा’ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल हो चुकी हैं.

बॉलीवुड के कुछ सूत्र दावा कर रहे हैं कि सोनाक्षी सिन्हा के गर्दिश सितारों ने सफलतम निर्देशक ए मुर्गादास को भी ‘अकीरा’ के साथ असफलता का स्वाद चखा दिया.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वह एक सफल फिल्म निर्माता के रूप में उभर पाएंगी? यह अपने आपको सुर्खियों में रखने के लिए सोनाक्षी सिन्हा ने खबर उड़ायी है कि वह फिल्म निर्माता बनने जा रही है.

जब भारी पड़ी चहेतों की चाहत

अमिताभ बच्चन के बंगले ‘जलसा’ के अंदर जब बिहार का एक नौजवान गायक बनवारी लाल यादव दीवार फांद कर उन से मिलने इसलिए घुसा कि वह अमिताभ बच्चन के लिए भोजपुरी गीत गाना चाहता था, तो सिक्योरिटी वालों के होश उड़ गए. आननफानन पुलिस को फोन किया गया और उसे गिरफ्तार कर पुलिस लौकअप में रखा गया. हालांकि अमिताभ बच्चन उस नौजवान गायक को ज्यादा सजा नहीं देना चाहते थे, पर बाद में कोई इसे न दोहराए, इसलिए सुरक्षा के नजरिए से ऐसा करना पड़ा. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. इस से पहले भी नामी हस्तियों के कई फैन इस तरह की हरकतें करते आए हैं. बौलीवुड के तमाम कलाकारों को इस का सामना करना पड़ता है. कई बार तो कुछ कलाकार ऐसी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. कई बार उन्हें गुस्सा भी आ जाता है. एक फैन की अपने पसंदीदा फिल्मी सितारे पर बनी फिल्म ‘फैन’ भी इस का सुबूत है.

गायिका लता मंगेशकर एक बार एक सम्मेलन में आई थीं. उस से पहले जब वे होटल में ठहरी थीं, तो एक फैन सुबह से उन से मिलने की कोशिश में होटल के नीचे उन का इंतजार कर रहा था. लता मंगेशकर को जब यह बात पता चली, तो वे खुद नीचे उतर कर उस से मिलने आ गईं. उन का कहना था कि आज वे जहां पर हैं, उस की वजह उन के फैन हैं, इसलिए उन की कद्र करना उन का फर्ज है. शाहरुख खान ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि जब उन की पीठ की सर्जरी अमेरिका में हो रही थी, तो एक अफ्रीकन औरत बारबार उन्हें ऐसा करने से मना कर रही थी, क्योंकि उस ने सपने में उसे टेबल पर औपरेशन के दौरान मरते हुए देखा है. यह बात वह फैन बारबार फोन से मैसेज कर कह रही थी.

पहले तो शाहरुख खान ने ध्यान नहीं दिया, पर जब फौर्म पर दस्तखत करने की बात आई, तो थोड़ी देर के लिए उन के हाथ कांप उठे थे कि कहीं उस औरत की कही बात सच न हो. अभय देओल बताते हैं कि फैंस की जरूरत हर कलाकार को होती है, जो बिना किसी शर्त के उन के काम की तारीफ करते हैं. उन की इज्जत हमेशा हर कलाकार को करनी चाहिए. एक बार एक मौल में एक लड़की अभय देओल को देख कर कांपने लगी, तो वे डर गए कि इसे हुआ क्या है. उन्होंने धीरेधीरे उसे नौर्मल किया. जैकलीन फर्नांडीस कहती हैं, ‘‘मैं अपने फैंस को हमेशा थैंक्स कहती हूं. उन्होंने हर वक्त मेरा साथ दिया. मेरी फिल्में चलें या न चलें, वे हमेशा मुझे देखते हैं. ‘‘एक फैन ने तो इतना कहा था कि वह मेरी फिल्म को ही बारबार देखता है और अपनेआप को उस फिल्म का हीरो समझता है.’’

यह बात सही है कि बीते जमाने में केवल कुछ बड़े कलाकार ही सिक्योरिटी रखते थे. तब लोग उन के पास ज्यादा नहीं आ पाते थे. प्रचार करने का तरीका अलग था. वे एक आटोग्राफ से ही खुश हो जाते थे. अब तो सभी को सिक्योरिटी रखनी पड़ती है. इस की वजह सोशल मीडिया का असरदार होना है. अब पब्लिसिटी के तरीके भी बदल गए हैं. लोगों के बीच में कलाकार खूब जाते हैं, जिस से फैंस को उन से मिलने का मौका मिल जाता है. स्मार्टफोन से फोटो खींचने का चलन का होना भी आज की समस्या है. इस का असर कलाकारों पर पड़ता है. सुष्मिता सेन कहती हैं कि एक फैन उन्हें बारबार महंगे सामान भेजता था. हद तो तब हुई, जब उस ने उन्हें शादी के लिए प्रपोज किया और दुलहन का लिबास भेज दिया. उसे स्वीकार न करने पर मार डालने की धमकी दी. ऐसा देख कर सुष्मिता सेन ने पुलिस का सहारा लिया.

एक बार एक फैन ने रितिक रोशन के करीब आ कर इतनी जोर से उन की गरदन पकड़ ली कि उन के बाउंसर ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया. वह रितिक से गले मिलना चाहता था. जौन अब्राहम कहते हैं, ‘‘एक फैन मुझ से मिलने की इच्छा रखता था. जब मैं ने मना किया, तो वह मेरे मातापिता को काल करने लगा. मजबूर हो कर मैं ने पुलिस को इस की सूचना दी.’’ साल 2010 में कंगना राणावत का एक फैन भूख हड़ताल पर इसलिए बैठ गया, क्योंकि उस ने एक चिट्ठी लिखी थी, जिसे कंगना को पढ़ना था. कंगना ने चिट्ठी ली और वह आदमी वहां से चला गया. जरीन खान कहती हैं, ‘‘फैंस का होना जरूरी है, पर आजकल के फैंस इतने ज्यादा उग्र स्वभाव के हो चुके हैं, इसलिए मुझे सिक्योरिटी रखनी पड़ती है.’’

जिम्मी शेरगिल कहते हैं कि फैंस जरूरी हैं, लेकिन उन्हें एक सीमा में रहना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उन की सोच सही नहीं है. इस सिलसिले में मनोवैज्ञानिक संजय मुखर्जी कहते हैं कि फैंस का होना अच्छा है और हर कोई किसी कलाकार, लेखक, पेंटर वगैरह का फैन होता है. यह आम बात है, लेकिन क्रेजी होना ठीक नहीं.

खानपान पर सरकारी पहरा

संविधान और कानून भले ही खानपान के मामले में कोई भेदभाव न करते हों, पर सरकारी एजेंसियों पर किसी का जोर नहीं चलता, जो तरहतरह के नियम की बिना पर आएदिन हैरान कर देने वाले न केवल फरमान जारी करती हैं, बल्कि उन पर अमल करते हुए यह भी जता देती हैं कि आम लोगों को खाना बेचने और खाने की भी उतनी आजादी नहीं है, जितनी वे संवैधानिक तौर पर समझते हैं.

देश के किसी भी शहर में फुटपाथ और सड़कों पर खोमचे, चाट या चाय बेचने वालों का दिखना आम है. इन में से ज्यादातर नाजायज तरीके से सामान बेचते हैं. आएदिन सरकारी लोग इन पर कार्यवाही करते हुए इन्हें खदेड़ते हैं, लेकिन हैरतअंगेज के तरीके से ये खोमचे, ठेले, गुमटी वाले 2-4 दिन बाद फिर उसी जगह पर दिखाई देने लगते हैं. यानी ये लोग धार्मिक जगहों की तरह पसरे हैं. इन के बगैर आम लोगों का भी काम नहीं चलता. करोड़ों लोगों को खिलानेपिलाने वाले इन गुमटियों, खोमचे वालों की बसावट के लिए सभी शहरों में हौकर्स कौर्नर खोल दिए गए हैं, लेकिन इस के बाद भी समस्या जस की तस है, क्योंकि सभी को हौकर्स कौर्नर में जगह नहीं मिल पाती और इस का खर्च भी सभी दुकानदार उठा नहीं पाते हैं.

एक मुहिम ऐसी भी

मध्य प्रदेश में भोपाल नगरनिगम ने एक अनूठा और भेदभाव भरा फरमान जारी कर कार्यवाही करने की बात कही है, लेकिन यह सिर्फ चिकन कौर्नरों के खिलाफ है. नगरनिगम ने उन्हीं चिकन कौर्नरों को हटाने का फैसला लिया है, जो रात 8 बजे से 12 बजे के बीच लगते हैं. फरमान तानाशाही न लगे, इस बाबत नगरनिगम की दलीलें ये हैं कि चिकन का बिकना रात को शुरू होता है और इन के खिलाफ आएदिन शिकायतें मिलती रहती हैं. मतलब यह है कि चिकन कौर्नर लगने से रात में लोगों खासतौर पर औरतों का निकलना दूभर हो जाता है, क्योंकि चिकन कौर्नरों पर शराबियों की भरमार रहती है, इन से गंदगी होती है और ये किसी घर के पास हों, तो बदबू भी आती है.

इस फरमान के बाद चिकन बेचने वालों में दहशत फैलना कुदरती बात थी, क्योंकि कइयों की रोजीरोटी इस से चलती है. दूसरे, चिकन और मांसाहार के उन शौकीनों की तादाद लगातार बढ़ रही है, जिन की जेब महंगे होटलों के  दाम नहीं चुका पाती. भोपाल नगरनिगम ने चिकन की तकरीबन 6 सौ नाजायज दुकानें पहचानीं और उन के खिलाफ कार्यवाही करने का मन बना लिया और यह भी कहा कि ये चिकन कौर्नर नाजायज इस लिहाज से भी हैं कि मांस बेचने के लिए लाइसैंस जरूरी है, जो इन लोगों ने नहीं लिया है और न ही नगरनिगम दफ्तर में रजिस्ट्रेशन कराया है, जबकि चिकन या मांस बेचने का लाइसैंस और रजिस्ट्रेशन जरूरी है.

पहरा और भेदभाव

इन दलीलों में दम इस लिहाज से नहीं है कि भोपाल में ही हजारों नाजायज दुकानें हैं. चाय, चाट ठेले या गुमटी वालों ने भी न तो लाइसैंस लिया है, न ही कहीं कोई रजिस्ट्रेशन कराया है. लेकिन इन्हें माफी और छूट दे दी गई है और शिकंजा केवल चिकन बेचने वालों पर ही कसा जा रहा है  दरअसल, ये नाजायज ठेले, खोमचे और कौर्नर में नगरनिगम के मुलाजिमों की आमदनी का एक बड़ा जरीया हैं, जिन से दैनिक घूस इंस्पैक्टर, सुपरवाइजर लेते हैं.

भोपाल में 10 हजार ऐसे विक्रेता हैं, जो औसतन 50 रुपए रोज घूस देते हैं यानी यह रकम 5 लाख रुपए रोज है. इन में से चिकन बेचने वालों की तादाद एक हजार भी नहीं है. इस के बाद भी गाज अकेले उन्हीं पर क्यों गिर रही है? इस बात की पड़ताल करने पर पता चला कि ज्यादातर चिकन बेचने वाले मुसलिम हैं, इसलिए जानबूझ कर ऐसा किया जा रहा है. बात में दम होता, अगर वाकई नगरनिगम नाजायज कौर्नरों और दुकानों को हटाने के मामले में गंभीरता दिखाते हुए चाट और चाय वालों पर भी बराबरी से कार्यवाही करता, क्योंकि भीड़ उन से भी बढ़ती है, कब्जा वे भी करते हैं और लाइसैंस भी नहीं लेते.

बात जहां तक शराबियों के जमावड़े की है, तो वह वही भोपाल है, जहां आएदिन रिहायशी इलाकों से शराब के ठेके हटाने के लिए आंदोलन होते रहते हैं. इन में औरतें सब से आगे रहती हैं, जिन्हें शराबियों की करतूत भुगतनी पड़ती है और जगहजगह सहूलियत से शराब की दुकानें होने से नए शराबी पैदा हो रहे हैं. यह ठीक है कि शराब की दुकानें लाइसैंसशुदा और जायज होती हैं, पर इन से चिकन कौर्नर के मुकाबले कहीं ज्यादा परेशानी लोगों को उठानी पड़ती है, फिर इन्हें क्यों परेशानियों की बिना पर नहीं हटाया जाता? क्या परेशानी सिर्फ चिकन कौर्नर से ही होती है, चाट और चाय वालों से नहीं, जबकि वे भी चिकन कौर्नर वालों की तरह नाजायज हैं?

मंदिरों पर छूट क्यों

कोई भी नगरनिगम यह बात दावे से नहीं कह सकता कि शहर में कब्जे वाले मंदिर नहीं हैं. हर दूसरे चौराहे पर एक मंदिर है, जो गैरकानूनी तरीके से बना है. पर इन मंदिरों को हटाने की कोई पहल नहीं की जाती. अगर पहल की भी जाती है, तो भक्त और श्रद्धालु इतना विरोध करते हैं कि नगरनिगम अमला चुपचाप खिसकने में ही अपनी भलाई समझता है. वैसे भी खुद उस के मुलाजिम मंदिरों और देवीदेवताओं से डरते हैं यानी नगरनिगम की नजर में नाजायज मंदिर भी नाजायज नहीं होता, बावजूद सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के कि देश के तमाम शहरों के गैरकानूनी तौर पर बने धर्मस्थलों की लिस्ट बना कर उसे भेजी जाए और ये नाजायज मंदिरमसजिद व चर्चगुरुद्वारे हटाए जाएं. जब इस फैसले पर अमल नहीं हुआ, तो सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाते हुए राज्य सरकारों को फटकार लगाई तो इस पर कलक्टरों ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया था. भोपाल में गैरकानूनी रूप से बने मंदिरों की तादाद हजारों में पाई गई थी.

इन मंदिरों से एकसाथ जो भीड़ निकलती है, उस से भी ट्रैफिक जाम होता है. लेकिन बात और मामला चूंकि धर्म का है, इसलिए कोई इस पर ध्यान नहीं देता. वैसे भी मंदिर और कौर्नरों में कोई खास फर्क नहीं, पैसा दुकानदारों की तरह पंडेपुजारी भी कमाते हैं और उसी पैसे से मंदिरों का प्रचार भी होता है. बात अगर सिर्फ लोगों की परेशानियों की है, तो नगरनिगम की चिंता झांकियों के दिनों में भी करनी चाहिए, जो सड़कों पर लगती हैं और तरहतरह की परेशानियां लोगों को झांकियों से उमड़ती भीड़ से होती है. ये सार्वजनिक झांकियां किस आधार पर जायज होती हैं, शायद ही कोई बता पाए. तो फिर कार्यवाही सिर्फ हजार 5 सौ चिकन कौर्नरों के खिलाफ ही क्यों, खोमचे, चाय वालों और गैरकानूनी मंदिरों के खिलाफ भी क्यों नहीं? यह भेदभाव खानपान पर ही क्यों? क्यों न इसे शाकाहार को और बढ़ावा देने की साजिश समझी जाए?

बसपा को तोड़ रहा ‘सतीश मिश्रा फैक्टर’

बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा में केवल दलित कैडर को ही नहीं, बल्कि ऊंची जातियों को भी पार्टी में सतीश मिश्रा के बढ़ते दबदबे से परेशानी है. कभी मायावती के बेहद करीबी रहे उन के अंगरक्षक पदम सिंह ने इस बात को खुल कर कबूल किया. वे केवल मायावती के सुरक्षाधिकारी ही नहीं रहे, उन के बेहद करीबी थे. आगरा के रहने वाले और जाति से जाटव होने के कारण पदम सिंह की मायावती से ज्यादा नजदीकियां हो गई थीं. वे मायावती के जूते उठाने को ले कर भी चर्चा में रहे हैं. पदम सिंह बसपा छोड़ कर अब भाजपा में शामिल हो गए हैं. वे कहते हैं कि बसपा में अब सतीश मिश्रा ही सबकुछ हैं. ऐसे ही आरोप बसपा छोड़ने वाले ब्रजेश पाठक भी लगा चुके हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य भी यही बात दोहराते रहे हैं.

बसपा का मूल कैडर इस बात से नाराज है कि सत्ता का लाभ केवल ऊंची जातियों के नेताओं को मिलता है. इसी वजह से एकएक कर दलित नेता बसपा से अलग हो रहे हैं. बसपा छोड़ने वाले करीबकरीब सभी नेता इस बात को मानते हैं कि बसपा अब दलितों की पार्टी नहीं रह गई. यही वजह है कि एक के बाद एक दलित जातियां बसपा से अलग होती जा रही हैं. दलित जातियों को बसपा से अपने भले की जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हो पा रही हैं. दिखावे के लिए ऊंची जाति के नेता मंच पर मायावती के पैर जरूर छू लेते हैं, पर दलितों को ले कर उन के मन में बैठी नफरत और छुआछूत का भाव दूर नहीं होता. बसपा प्रमुख मायावती को लगता है कि ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट दे कर वे सोशल इंजीनियरिंग को बढ़ा रही हैं. असल में ब्राह्मण तबका उन सीटों पर ही बसपा को थोड़ाबहुत वोट करता है, जहां पर उस की जाति का उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा होता है. बाकी सीटों पर वह बसपा से परहेज करता नजर आता है. 2007 में बहुमत की सरकार बनने के बाद ब्राह्मण नेताओं ने इस बात का प्रचार किया था कि बसपा की जीत ब्राह्मण वोटरों के कारण हुई. 2 साल बाद ही लोकसभा चुनाव में जब बसपा को मनचाही कामयाबी नहीं मिली, तो दलित वोटर पर तुहमत लगा दी गई कि उस ने बसपा को वोट नहीं दिया. बसपा का दलित और पिछड़ा कैडर इस बात से दुखी हो कर पार्टी से दूर होने लगा.

2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा की हार का एक बड़ा कारण पार्टी में ऐसे नेताओं की अहमियत बढ़ना है, जिस की जाति के लोग पार्टी को वोट नहीं देते. सतीश मिश्रा बसपा में मायावती के बाद नंबर 2 की हैसियत वाले नेता हैं. अपने कुछ करीबियों को अच्छे पदों पर बिठाया, जिस से उन पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का भी आरोप लगा.  सतीश मिश्रा से नाराजगी केवल दलित जातियों में ही नहीं, ऊंची जातियों में भी है. अब पदम सिंह की बातों ने बसपा में ‘सतीश मिश्रा फैक्टर’ को ले कर नाराजगी को उजागर कर दिया है.

बच्चा जनने के दौरान जाती जान

रामपुर गांव के रहने वाले रामकुमार की पत्नी सीमा पेट से थी. रामकुमार गरीब परिवार का था. बहुत कोशिशों के बाद भी उस का बीपीएल कार्ड नहीं बना था. इस वजह से गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को मिलने वाले सरकारी फायदे भी  नहीं मिल रहे थे. दलित जाति का होने के चलते उस के पास जमीन का कोई पट्टा भी नहीं था. उस की पत्नी पेट से हुई, तो गांव की स्वास्थ्यकर्मी ‘आशा बहू’ ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ले जा कर दवाएं दिलवा दी थीं. सीमा कमजोर थी. यह उस का तीसरा बच्चा था. बच्चा जनने के दिन उसे बहुत दर्द हो रहा था. गांव में पहले वह स्वास्थ्य केंद्र गई. वहां डिलिवरी कराने की अच्छी सुविधा नहीं थी, तो डाक्टर ने उसे जिला अस्पताल, लखनऊ भेज दिया. रास्ते में ही उसे दर्द शुरू हो गया. कमजोर होने के चलते वह डिलिवरी नहीं कर पाई और उस की सांसें समय से पहले ही थम गईं.

दहिला गांव की रहने वाली सुभावती भी बच्चा जनने के दौरान गुजर गई. उसे जब दर्द उठा, तो सब से पहले गांव की कुछ औरतों ने घर में ही बच्चा पैदा कराने की कोशिश की. इस दौरान बच्चे का सिर अंग से बाहर आ गया, पर आगे का हिस्सा बाहर नहीं आ पाया. सुभावती को खून बहने लगा. उस का पति ब्रजेश और गांव के लोग अस्पताल ले जाने लगे, तभी रास्ते में उस की मौत हो गई. ब्रजेश अतिपिछड़ी मल्लाह जाति का था. गांव से सड़क तक आने में 2 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है. आसपास कोई डाक्टर या दूसरी स्वास्थ्य सेवाएं न होने के चलते ऐसी घटनाएं कई बार घट जाती हैं. गांव में रहने वाली गरीब औरतों के मामलों में सब से ज्यादा बच्चा जनने के दौरान मौत होती है. ये लोग गरीब और नासमझ दोनों होते हैं. ऐसे में इन को किसी तरह की सरकारी मदद भी नहीं मिल पाती है.

ऐसी घटनाएं केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, देश के बाकी प्रदेशों में भी होती हैं. देश में बच्चा जनने के दौरान मरने वाली औरतों की तादाद काफी है.

मुसीबत में गांव वालियां  

एक तरफ सरकार ने संसद में ‘मातृत्व अवकाश’ यानी मैटरनिटी लीव के लिए बिल ला कर उसे 6 हफ्ते से बढ़ा कर 12 हफ्ते कर के ऐसा जताया है, जैसे औरतों के लिए बहुत बड़ा काम कर दिया हो, दूसरी ओर अभी भी देश में बच्चा जनने के दौरान हर घंटे 5 औरतों की जान जा रही है. ‘मातृत्व अवकाश’ का फायदा चंद औरतों तक ही पहुंच रहा है. जरूरत इस बात की है कि देश में बदहाल महिला स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर किया जाए, जिस से गांव में काम करने वाली मजदूर औरतें भी महफूज तरीके से बच्चा पैदा कर सकें. उन्हें अपनी जान से हाथ न धोना पड़े. ‘मातृत्व अवकाश’ का फायदा लेने वाली औरतें हर तरह से जागरूक और सक्षम हैं. वे अपना इलाज और देखभाल बेहतर तरीके से कर सकती हैं.

गांव की रहने वाली गरीब औरतें न तो सक्षम हैं और न ही जागरूक. ऐसे में ‘जननी सुरक्षा योजना’ के तहत केवल एक हजार रुपए की मदद दे कर महफूज तरीके से बच्चा पैदा करने की सोचना बेमानी बात है. ‘जननी सुरक्षा योजना’ भी दूसरी तमाम सरकारी योजनाओं की तरह लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की शिकार है, जिस से इस का सही फायदा औरतों को नहीं मिल पा रहा है.    बहुत पुरानी कहावत के हिसाब से बच्चा जनने को औरत का दूसरा जन्म माना जाता है. यह बात काफी हद तक ठीक भी है. बहुत सारी मैडिकल सेवाओं के बाद भी बच्चा जनने के दौरान देश में हर घंटे 5 औरतों की जान चली जाती है.

देश में मृत्यु दर का आंकड़ा एक लाख बच्चा जनने के मामलों पर महज 174 का है. स्वास्थ्य सेवाओं में तरक्की के बाद भी यह हालत चिंताजनक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ ने साल 2016 की रिपोर्ट में खुलासा किया है कि भारत के गांवदेहात में हालात ज्यादा खराब हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी अभी अस्पतालों में सौ फीसदी प्रसव नहीं होते हैं. इस के लिए सब से ज्यादा जिम्मेदार लोगों का जागरूक न होना और स्वास्थ्य सेवाओं का बदहाल होना है.  पूरी दुनिया में बच्चा जनने के दौरान होने वाली कुल मौतों में से 17 फीसदी मौतें भारत में होती हैं. भारत का हाल इंडोनेशिया जैसे देशों से भी खराब है. भारत में जहां बच्चा जनने के दौरान हर साल 174 औरतों की जान चली जाती है, वहीं इडोनेशिया में यह तादाद 126 की है. भारत की खराब हालत के लिए गांवदेहात के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल होना है.

देश की स्वास्थ्य सेवाओं के हालात पर नजर डालें, तो पता चलता है कि गांवदेहात के इलाकों में काम कर रहे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चा जनने की मूलभूत सुविधाएं तक नहीं हैं. ऐसे में कई बार सड़क और अस्पताल के बाहर ही बच्चा पैदा होने की घटनाएं भी पता चलती रहती हैं.

काम नहीं आ रही योजना

बच्चा जनने के दौरान होने वाली मौतों को रोकने और जच्चाबच्चा की सेहत का ध्यान रखने के लिए साल 2005 में ‘जननी सुरक्षा योजना’ शुरू की गई. इस योजना में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली औरतों का खास खयाल रखने की कोशिश शुरू हुई. इस योजना के तहत अस्पताल में बच्चा जनने वाली औरतों को एक हजार रुपया दिया जाने लगा. इस योजना में यह तय किया गया कि बच्चा अस्पताल में पैदा हो या ट्रेनिंग दाई द्वारा ही कराया जाए. इस योजना के फायदे उन तक पहुंचाने के लिए महिला स्वास्थ्यकर्मी ‘आशा बहू’ को तैयार किया गया. ‘जननी सुरक्षा योजना’ का लाभ लेने के लिए बच्चा पैदा कराने वाली औरत को अस्पताल में अपना रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है. इस के बाद भी अस्पतालों में सौ फीसदी बच्चे पैदा नहीं हो रहे हैं. इस  वजह से ही बच्चा जनने के दौरान होने वाली मौतों को रोका नहीं जा सका है.  आंकड़े बताते हैं कि 80 फीसदी अस्पतालों में तय मानक से दोगुना मरीज होते हैं. 62 फीसदी सरकारी अस्पतालों में महिला डाक्टर यानी गाइनिकोलौजिस्ट नहीं होती हैं 30 फीसदी जिलों में एएनएम यानी आरर्जिलरी नर्स मिडवाइफ ही महिला मरीजों को देखती हैं, इन पर भी दोगुना मरीजों को देखने का भार होता है. 22 फीसदी स्वास्थ्य केंद्र ऐसे होते हैं, जहां पर एएनएम तक नहीं मिलतीं.

देशभर के सरकारी अस्पतालों में 3429 महिला डाक्टर होनी चाहिए, पर केवल 1296 पदों पर ही महिला डाक्टर तैनात हैं.

बदहाल स्वास्थ्य केंद्र

जमीनी सचाई इन आंकड़ों से भी कहीं ज्यादा भयावह है. किसी भी स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चा जनने की सुविधाएं ही नहीं हैं. सामान्य प्रसव तो किसी तरह से हो भी जाता है, पर हालत खराब होते ही देखभाल करने का सिस्टम नहीं है. इस के लिए मरीज को कम से कम जिला लैवल के अस्पताल जाना होता है. कई बार आनेजाने के दौरान ही मौत हो जाती है. जिला अस्पताल पहुंचने के पहले ही कई बार ऐसे हालात हो जाते हैं कि औरत की मौत हो जाती है. तमाम स्वास्थ्य केंद्रों पर बिजली की रोशनी तक का सही इंतजाम नहीं है. बड़े शहरों के गांवदेहात इलाकों में बने स्वास्थ्य केंद्रों पर दिन के समय में भले ही डाक्टर मिल जाए, पर किसी भी तरह की इमर्जैंसी में डाक्टर उपलब्ध नहीं होते हैं, जिस के चलते भी मरीजों को मजबूरन झोलाछाप डाक्टरों के पास जाना पड़ता है.

प्राइवेट अस्पतालों में बच्चा पैदा कराने का खर्च इतना महंगा हो गया है कि आम आदमी वहां जाना नहीं चाहता. गरीब तबका तो वहां जाने की सोच भी नहीं सकता है. कई स्वास्थ्य केंद्रों पर काम करने वाले वार्ड बौय या सफाई मुलाजिम ही कुछ पैसों के लालच में बच्चा पैदा कराने का जोखिम उठाते हैं. इस में कई बार औरत की जान चली जाती है. बिना जानकार लोगों के बच्चा पैदा कराने का असर केवल औरत पर ही नहीं पड़ता, बल्कि होने वाले बच्चे की जान को भी जोखिम होता है. इस दौरान सही तरह से बच्चे को अगर पकड़ा न जाए, तो उस के सिर की नस दब जाती है. कई बार बच्चे के मुंह में ऐसा तरल पदार्थ पहुंच जाता है, जिस से बच्चे को बेहद नुकसान हो जाता है. कई मामलों में औरत बच जाती है, तो बच्चे की मौत हो जाती है. महफूज तरीके से बच्चा पैदा न हो पाने के चलते ही देश में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर भी दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा है.

बिगड़ जाते हैं रिश्ते

अस्पतालों पर मरीजों के बढ़ते बोझ का एक बुरा असर यह भी पड़ता है कि मरीज और डाक्टर के बीच संबंध तनाव भरे हो जाते हैं. कई बार मरीज के परिवार वाले अस्पताल में तोड़फोड़ तक करने लगते हैं. तोड़फोड़ की घटनाएं केवल प्राइवेट अस्पतालों में होती हैं, जहां इलाज के बाद जब मरीज की मौत हो जाती है और अस्पताल में इलाज का खर्च मांगा जाने लगता है, तो मरीज के परिवार वाले तोड़फोड़ करते हैं. प्राइवेट अस्पतालों में बच्चा पैदा कराने का खर्च सामान्य हालत में 50 हजार से ऊपर का आने लगा है. अगर जच्चाबच्चा को कोई परेशानी हो जाए, तो यह खर्च एक लाख रुपए से ऊपर तक पहुंच जाता है. ऐसे में गरीब आदमी प्राइवेट अस्पतल की तरफ रुख करने की सोच भी नहीं सकता है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी और मरीजों की ज्यादा तादाद होने से डाक्टर के पास इतना भी समय नहीं होता है कि वह मरीज की सही तरह से काउंसलिंग कर सके. ऐसे में मरीज को पता ही नहीं चलता कि गर्भावस्था में उसे अपना किस तरह से ध्यान रखना चाहिए और खानपान किस तरह का करना है, जिस से बच्चा जनने में आसानी हो और उसे किसी अनहोनी का सामना न करना पड़े. 

गर्वस्था में होने वाली देखभाल जब सही तरह से नहीं होती, तो उस का बुरा असर बच्चा जनने के समय पड़ता है, जो खतरनाक हो जाता है. शिशु जन्म के बाद 24 घंटे के अंदर होने वाले 5 सौ मिलीलिटर से एक हजार मिलीलिटर से ज्यादा खून बहने को पोस्टपार्टम हैमरेज यानी पीपीएच कहते हैं. यह बच्चा जनने के दौरान होने वाली मौतों की सब से बड़ी वजह होती है. डाक्टर मानते हैं कि इस के अलावा भी कई परेशानियां ऐसी हो सकती हैं, जो जानलेवा हैं. जानकार डाक्टर के पास न जाने से ऐसी परेशानियां बढ़ जाती हैं, जिस से जच्चा और बच्चा दोनों को नुकसान हो जाता है. जिला अस्पताल के दूर होने से बच्चा जनने के लिए झोलाछाप डाक्टरों के पास जाना मजबूरी होती है. मरीज का वहां जाना जानलेवा हो जाता है. पहले ज्यादातर गांवों में दाइयां होती थीं या अनुभवी औरतें होती थीं, जिन की मदद से घर में ही बच्चा पैदा हो जाता था. अब गांवों में ये लोग नहीं हैं, जिस से घरों में बच्चा पैदा कराना खतरनाक हो गया है. इस सब के बावजूद सरकारी अस्पतालों में बच्चा पैदा कराना मां और बच्चे के लिए सुरक्षित माना जाता है, क्योंकि वहां के डाक्टर और नर्स अपने काम को बखूबी जानते हैं और उन की कोशिश रहती है कि जच्चाबच्चा दोनों को कोई नुकसान न पहुंचे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें