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Hindi Kahani : दोस्त या प्यार – क्या मुकेश मीनू को अपना बना पाया?

Hindi Kahani : कोरोना की महामारी ने बड़ेबड़े परदेशी को शहर से गांव में आने के लिए मजबूर कर दिया है. आज पूरे 4 साल बाद मुकेश अपने गांव आया है. अपने सपनों को पूरा करने और घर की हालत सुधारने के लिए 10वीं के बाद ही वह मुंबई भाग गया था. वहां उस ने मोटर मेकैनिक का काम सीखा और आज अच्छा पैसा कमा रहा है. मुकेश की उम्र अभी 24 साल है. उस पर मुंबई का सुरूर देखा जा सकता है. रंगे हुए बाल, गोरा जिस्म, अच्छे कपड़े उस की शोभा बढ़ा रहे थे. मुकेश अपने घर के बाहर बरामदे में बैठा हुआ था कि तभी उस की नजर सामने लगे नल पर पड़ी, जहां एक 17 साल की खूबसूरत लड़की पानी भर रही थी.

मुकेश की नजरों को मानो कोई जादू सा लग गया था. वह एकटक उसी को ही देखे जा रहा था. उस की नजर उस का तब तक पीछा करती रही, जब तक कि वह पानी ले कर आंखों से ओझल न हो गई. मुकेश ने अपनी भाभी से पूछा, ‘‘भाभी, यह लड़की कौन है? मैं नहीं पहचान पाया इसे.’’ उस की भाभी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह अपने बगल के तिवारीजी की बेटी मीनू है. बड़ी हो गई है, इसीलिए तुम पहचान नहीं पाए.’’ मुकेश को उस का नाम जान कर न जाने क्या खुशी मिल रही थी कि वह मन ही मन उसे अपना बनाने की सोचने लगा. अगले दिन मुकेश फिर बरामदे में बैठ कर मीनू का इंतजार करने लगा कि कब वह पानी भरने आएगी और वह उस का दीदार कर सकेगा. तभी उस की नजर पीले सूट में चमकती हुई मीनू पर पड़ी और मुकेश की आंखें उसे देखती रह गईं. मुकेश ने बड़ी हिम्मत की और नल तक पहुंच गया और हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘तुम मीनू हो न?’’ मीनू ने भी पलटते हुए जवाब दिया, ‘‘हां, मैं मीनू ही हूं. और तुम मुकेश हो न…? ‘‘तुम तो मुंबई क्या गए, हम सब को तो भूल ही गए.

लगता है कि शहर की लड़कियां ज्यादा खूबसूरत होती हैं.’’ अचानक मुकेश के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं मीनू, तुम से खूबसूरत कोई नहीं.’’ मीनू शरमा कर बालटी ले कर भागी और मुकेश को होश आया कि उस ने क्या कह दिया. अगले दिन फिर मुकेश बात करने पहुंच गया और बोला, ‘‘मीनू, मुझे माफ कर दो. मैं ने न जाने क्या बोल दिया, जो तुम भाग गई.’’ मीनू ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अरे पागल, कोई बात नहीं.’’ मुकेश ने कहा, ‘‘मुझ से दोस्ती करोगी?’’ मीनू ने कहा, ‘‘लेकिन, मैं और तुम बचपन से दोस्त हैं. बस, तुम ही भूल गए.’’ मुकेश को लगा कि आग दोनों तरफ लगी है. उस ने बड़े प्यार से इशारों वाली बात में कहा, ‘‘वह वाली दोस्त बनोगी, गर्लफ्रैंड वाली?’’ मीनू ने कहा, ‘‘तुम परेशान करोगे, क्योंकि मैं ने ऐसा फिल्मों में देखा है .’’ मुकेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘नहीं, प्यार करूंगा बस. परेशान कभी नहीं करूंगा मेरी मीनू.’’ इसी तरह दोनों की प्यार भरी मुलाकातें और बातें बढ़ती गईं. मुकेश प्यार से कभी मीनू का हाथ छू लेता, तब उस के शरीर में एक अजीब सी सिहरन दौड़ जाती.

मीनू मन ही मन अपना दिल मुकेश को दे चुकी थी. बस, होंठों पर इजहार लाना था, लेकिन हर लड़की की तरह वह भी चाहती थी कि मुकेश ही इजहार करे. एक दिन मुकेश ने बड़ी हिम्मत की और उसे अपने दिल की बात बताई. इतना सुन कर मीनू खुशी से चहक उठी और उसे गले से लगा लिया. मीनू के गले लगते ही मुकेश उसे पाने की ललक में उतावला हो गया. अगले दिन मीनू मुकेश के घर आई, तब उस की भाभी नहाने और मां बगल वाले ताऊ के यहां गई थीं. मुकेश बिस्तर पर सो रहा था. मीनू उस के पास पहुंची और अपने होंठों से उस के गालों पर एक चुम्मा दे दिया. अचानक छुअन से मुकेश पलटा और दोनों के होंठ छू गए. मुकेश उसे चूमने लगा, तभी मीनू की भी सांसें गरम होने लगीं, लेकिन खुद को संभालते हुए वह उसे झीटक कर दूर हुई और बोली, ‘‘तुम बड़े बदमाश हो. अब कभी तुन्हें चुम्मा नहीं करूंगी.’’ तभी मुकेश ने उठ कर मीनू को अपनी बांहों में भर लिया. मुकेश की गरम सांसें मीनू के बदन में आग डाल रही थीं और उस का जोबन पूरे उफान पर आ चुका था. मुकेश भी अपने सीने पर उसे महसूस कर रहा था. दोनों बिना कुछ बोले एकदूसरे में समा गए थे. मुकेश और मीनू का प्यार था या सिर्फ खिंचाव या फिर बचपन में हुई गलती, यह समय ही बताएगा.

मुकेश और मीनू लौकडाउन के 4 महीनों में न जाने कितनी दफा एकदूसरे के आगोश में लिपटे अपने जिस्म की गरमी से एकदूसरे को पिघलाया. अचानक कुछ ही दिनों बाद मुकेश को शहर से फोन आ गया. वह अपने काम के प्रति ईमानदार था. अभी उम्र कम थी और काम ज्यादा करना था. अभी तो उसे कामयाबी मिलनी शुरू हुई थी. एक रात मुकेश ने अपने बाग में मीनू को बुलाया और मिलते ही मीनू ने उसे गले से लगा लिया. मुकेश के गालों को अपने होंठों से चूमते हुए मीनू ने कहा, ‘‘मुकेश, तुम से बिलकुल दूर नहीं रहा जाता. मुझे हर जगह बस तुम्हीं दिखते हो. मन करता है कि तुम्हारी बांहों में रहूं और उम्र गुजर जाए.’’ मीनू की बातें मुकेश सुनता रहा, पर वह तो आज मीनू से विदा लेने आया था कि उसे फिर शहर वापस जाना है. मुकेश ने मीनू से कहा, ‘‘मीनू, मैं भी तुम से प्यार करता हूं और तुम जानती हो कि आज के जमाने में प्यार के साथ पैसों की भी जरूरत पड़ती है. बिना पैसों के घर नहीं चलता,

इसीलिए मैं ने तुम्हें आज बुलाया, क्योंकि मुझे कल शहर जाना है. आज सुबह शहर वापसी के लिए फोन आया था.’’ इतना सुनते मीनू के सिर पर मानो गम का पहाड़ टूट पड़ा. वह रोने लगी और फिर मुकेश की बांहों में खुद को समर्पित कर दिया. मुकेश ने उसे प्यार से चूमा और दोनों के होंठ और हाथ एकदूसरे के बदन से खेलने लगे. मुकेश ने उसे वहीं जमीन पर लिटा दिया और चूमने लगा. मीनू भी उस का बराबर साथ दे रही थी. रात के ढलते हुए पहर में वे दोनों एकदूसरे में खोते गए. न जाने कब दोनों एकदूसरे के जिस्म में समा गए और अपनी हसरत पूरी करने के बाद दोनों अलग हुए. मुकेश ने मीनू से वादा किया, ‘‘मीनू, तुम चिंता मत करो. मैं जल्दी ही वापस आऊंगा और तुम्हें अपने साथ शहर ले जाऊंगा.’’ सुबह हुई, मुकेश तैयार हुआ और शहर के लिए रवाना हुआ. मीनू छत से उसे देख रही थी.

आज इस घटना को पूरे 3 साल हो गए. मुकेश एक बार भी शहर से गांव नहीं आया. पहले एक या डेढ़ साल तक उस का फोन आता था, लेकिन तब से वह भी बंद हैं. मीनू अब और बड़ी हो गई और खूबसूरत भी. उस की जवानी अब उफान पर है, उभार और कमर की खूबसूरती लड़कों को खींचती. उस के कालेज के न जाने कितने लड़कों ने उसे प्यार के लिए मनाया, पर उस के मन में मुकेश के सिवा कोई नहीं. वह बस उसी का इंतजार कर रही है. एक दिन मीनू को खबर मिली कि मुकेश इस हफ्ते गांव आ रहा है.

उस की खुशी का अंदाजा न था. उसे लग रहा था कि वह सातवें आसमान पर है. आज वह दिन आया और मुकेश वापस आया. मीनू कालेज से वापस आते ही भागती हुई मुकेश के घर उस से मिलने पहुंची और वहां पहुंचते ही वह हैरान हो गई. मुकेश अकेला नहीं आया था, बल्कि एक लड़की के साथ आया था, जो उस की पत्नी थी. मुकेश ने शहर में शादी कर ली थी. मीनू को देखते ही मुकेश ने उसे अपने पास बुलाया और पत्नी से मिलाते हुए कहा, ‘सुनो, यह मेरी वह वाली दोस्त है, जिस के बारे में मैं ने तुम्हें बताया था.’ मीनू ने भी मुकेश की पत्नी को गले लगाया और कहा, ‘‘तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम्हें सब से अच्छा लड़का मिला, जो मेरा दोस्त था.’’ मीनू वहां से भागती हुई आई और बहुत रोई. वह खुद को समझने की कोशिश कर रही थी कि वह तो सिर्फ वह वाली दोस्त थी.

Best Hindi Story : सच्चाई सामने आती है पर देर से

Best Hindi Story : ‘‘आप को हर महीने 5 हजार रियाल वेतन, खानापीना और रिहाइश मुफ्त मिलेगी.’’ शानदार ढंग से सजेधजे औफिस में मेज के पीछे बैठे ट्रैवल एजेंट ने कहा.

शाहिदा बानो ने अपने पति की तरफ देखा.

‘‘काम क्या करना होगा?’’ उस के पति अहमद सिराज ने पूछा.

‘‘ब्यूटीपार्लर में आने वाली ग्राहकों को ब्यूटीशियन की सेवाएं.’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर चालाक ट्रैवल एजेंट खामोश हो गया.

शाहिदा बानो दक्ष ब्यूटीशियन थी. उस ने 6 महीने का ब्यूटीशियन का कोर्स किया था. उस के बाद वह अहमदाबाद के पौश इलाके में स्थित एक ब्यूटीपार्लर में काम करने लगी थी. उसे 12 हजार रुपया वेतन मिलता था. उस का पति अहमद सिराज ट्रक ड्राइवर था. उस का वेतन 10 हजार रुपया था. इतनी आमदनी से सात लोगों के परिवार का खर्चा खींचतान कर चलता था.

तीनों बेटियां दिनोंदिन बड़ी हो रही थीं.  उन का निकाह कैसे होगा, पतिपत्नी को चिंता लगी रहती थी.

‘‘तुम खाड़ी देशों में जा कर नौकरी कर लो.’’ एक दिन उस की साथी फरजाना ने कहा.

‘‘वहां तो मजदूरों को काम मिलता है?’’

‘‘नहीं, ब्यूटीशियन का काम भी होता है.’’

‘‘क्या तुझे कभी जौब औफर हुई है?’’

‘‘मेरे शौहर ने बताया कि सऊदी अरब, बहरीन, दुबई से कई कंपनियां वहां के ब्यूटीपार्लरों के लिए ब्यूटीशियन की भरती कर रही हैं.’’

‘‘मगर खाड़ी देशों में अब तक घरेलू नौकरानियों और अन्य छोटेमोटे काम के लिए जनाना लेबर की मांग थी. अब एकदम ब्यूटीशियन की मांग और वो भी सैकड़ों की तादाद में?’’

‘‘जब किसी ने जौब औफर की है तो काम भी होगा.’’

इस मुद्दे पर दोनों में काफी बातें हुईं तो शाहिदा बानो सोचने लगी. मिलने वाला वेतन भी भारीभरकम था. 5 हजार रियाल यानी करीब 90 हजार रुपया.

खाड़ी देशों में कार्यरत हाउस मेड और अन्य छोटेमोटे काम करने वाली औरतों के यौनशोषण की खबरें यदाकदा सुननेपढ़ने को मिलती थीं, इसलिए शाहिदा बानो को झिझक हो रही थी.

लेकिन आर्थिक परेशानियों से मुक्ति पाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. आखिरकार किसी तरह पासपोर्ट बनवा कर और किराए के पैसों का इंतजाम कर के वह सऊदी अरब के शहर दम्माम जा पहुंची.

कीमती उपकरणों, फरनीचर, बढि़या परफ्यूम और सौंदर्य प्रसाधन सामग्री वाला ब्यूटीपार्लर था. शाहिदा बानो को रिहाइश के लिए वैल फर्नीश्ड फ्लैट मिला, साथ ही आनेजाने के लिए स्कूटर. ब्यूटीपार्लर में दरजन भर औरतें थीं. एकदो कुंवारी लड़कियां थीं. बाकी उसी की तरह विवाहित, बच्चों वाली.

थोड़ेथोड़े अंतराल पर हर ब्यूटीशियन को क्लाइंट के यहां ‘होम सर्विस’ के लिए भेजा जाता था. होम सर्विस का आदेश सुन कर सब खामोश हो जातीं. जो लड़कियां पहले होम सर्विस के लिए नहीं गई थीं, वे उत्सुक रहती थीं.

शाहिदा बानो ने अरब शेखों के बारे में काफी कुछ सुना था. अरब शेखों की ढेर सारी बेगमें, रखैलें, मुताई बेगमें होती हैं. साथ ही अनेकों बांदियां नौकरानियां भी. भारत की भूतपूर्व रियासतों के राजाओं, नवाबों, जागीरदारों की तरह अरब शेखों की हैसियत कम नहीं होती.

‘‘आप को आज रात क्लाइंट के यहां होम सर्विस के लिए जाना है.’’ ब्यूटीपार्लर की संचालिका जो एक अधेड़ अरब महिला थी, ने उसे अपने औफिस में बुला कर कहा.

‘‘क्लाइंट क्या कोई अमीर शेख है?’’ उत्सुकता से शाहिदा बानो ने पूछा.

‘‘हां, हमारे अधिकांश क्लाइंट्स अमीर शेख हैं.’’ संक्षिप्त सा जवाब मिला उसे.

‘‘साथ क्याक्या ले जाना होगा?’’

‘‘एक छोटा सा मेकअप बौक्स. अधिकतर क्लाइंट अपनी प्रसाधन सामग्री और उपकरण रखते हैं. कइयों के यहां तो बहुत बेहतरीन उपकरण और प्रसाधन सामग्री होती है.’’

क्लाइंट्स द्वारा भेजी गाड़ी में सवार हो शाहिदा बानो गंतव्य के लिए रवाना हो गई. सड़क के दोनों तरफ रेत के बड़ेबड़े टिब्बे थे. बीचबीच में कहींकहीं थोड़ी हरियाली भी नजर आती थी.

हरियाली भरे इलाके को नखलिस्तान कहा जाता था. थोड़ीथोड़ी दूरी पर छोटेछोटे किलेनुमा इमारतें थीं. उन को देख कर शाहिदा समझ गई कि सब अमीर शेखों के घर होंगे.

मेहराबदार बड़े गेट को पार कर गाड़ी बड़े पोर्च में रुकी. अरबी वेशभूषा पहने एक दाढ़ी वाले अधेड़ व्यक्ति ने दरवाजा खोला. मेकअप बौक्स थामे शाहिदा बानो गाड़ी से उतरी.

एक बुरकाधारी महिला उस की आगवानी के लिए आई. उस के पीछेपीछे चलती शाहिदा बानो अंदर की तरफ चल दी. चमचमाता फर्श, खुली गैलरी, कुछ पुराने जमाने की शैली कुछ आधुनिक.

एक भूरे रंग के चमचमाते दरवाजे के बाहर रुक उस खातून ने हैंडल घुमा कर दरवाजा खोला. खातून के इशारे पर शाहिदा बानो अंदर दाखिल हुई. उस के अंदर प्रवेश करते ही क्लिक की आवाज के साथ दरवाजा बंद हो गया.

कमरे में चमकती रोशनी, कीमती पेंट से रंगी दीवारें, अरब परिवेश की बड़ी पेंटिंग जिस में अरब वेशभूषा में एक अरबी ऊंट की लगाम थामे रेगिस्तान में खड़ा था.

‘‘तशरीफ रखिए मोहतरमा.’’ साफसुथरी उर्दू भाषा में एक मरदाना आवाज गूंजी. मरदाना आवाज सुन कर शाहिदा बानो चौंकी. उस ने सिर घुमाया.

उस के सामने अरबी ड्रैस में एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था, जिस के सिर के आधे बाल सफेद थे और चेहरे पर नफासत से तराशी हुई दाढ़ी थी. उस की आंखों में लाल डोरे थे. चेहरा लाल भभूका था, जो उस के शराबी या नशेड़ी होने की चुगली कर रहा था.

शाहिदा बानो ने चौंक कर पूछा, ‘‘यहां मुझे किसी खातून के मेकअप के लिए बुलाया गया था.’’

‘‘खातूनें मेरे हरम में हैं. पहले आप मेरे यहां नोश फरमाएं.’’

उस आदमी ने हलके से ताली बजाई. पीछे की तरफ से बंद दरवाजा खुला. एक तश्तरी में कटे फल और शरबत का गिलास थामे चुस्त पजामा और आधी बाजू वाली चोली पहने एक नौजवान लड़की अंदर दाखिल हुई.

उस लड़की को देख कर शाहिदा कुछ आश्वस्त हुई. दीवार के साथ बिछे सोफे पर बैठ कर शाहिदा बानो ने सामने मेज पर रखी तश्तरी से फल का टुकड़ा उठा कर मुंह में रखा और कुतरने लगी. उस का गला प्यास से सूख रहा था.

शरबत का घूंट भरा, तो उस को सनसनाहट महसूस हुई. शरबत ठंडा था. धीरेधीरे चुस्की लेते हुए उस ने सारा गिलास खाली कर दिया. थोड़ी देर बाद उस की आंखें बोझिल हो गईं. हलकीहलकी नींद आतेआते उसे पता भी नहीं चला कि कब लुढ़क कर फर्श पर गिर गई.

शाहिदा बानो को होश आया तो उस ने अपने शरीर पर हाथ फेरा, एक कपड़ा भी नहीं था. वह सकपकाई. बडे़ से डबलबैड पर वह पूर्णतया नग्न अवस्था में लेटी थी. थोड़ी दूर वही अधेड़ अरब पूर्णतया नग्न अवस्था में खड़ा था, एक हाथ में शराब का गिलास थामे. उस के चेहरे पर शरारत नाच रही थी.

‘होम सर्विस’ 5 हजार सऊदी रियाल यानी 90 हजार रुपया महीना. एक ब्यूटीशियन को इतनी मोटी रकम. इस का कारण अब उस की समझ में आ रहा था.

ब्यूटीपार्लर में पहले से कार्यरत दूसरी लड़कियों और महिलाओं के चेहरे पर छाई गंभीरता और मुर्दनी के भाव अब उसे समझ आए. 3 बच्चों की मां को 35 साल की उम्र में इस तरह अपनी इज्जत गंवानी पड़ी थी.

शाहिदा बानो ने अपने कपड़ों के लिए इधरउधर देखा. उस का बुरका, सलवार कमीज, दुपट्टा सब करीने से तह कर के सामने सोफे पर रखे हुए थे. वह उठ कर बैठ गई और अपने वक्षस्थल को अपने बांहों से छिपाने की असफल कोशिश करने लगी.

वह पलंग से उतरने लगी. मगर उस अधेड़ शेख ने उस की बाजू थामते हुए कहा, ‘‘ना ना, अभी नहीं. एक राउंड और…’’

शाहिदा बानो ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. उस दरिंदे की मजबूत पकड़ से उसे अंदाजा हो गया. उस से छुटकारा पाना आसान नहीं था.

शराब का गिलास खत्म कर अधेड़ उम्र का वह दरिंदा फिर उस पर छा गया. आधापौना घंटा उसे रौंद कर के वह अलग हट गया.

‘‘जाओ.’’

शाहिदा बानो पलंग से उतरी और अपने कपड़े पहनने लगी. बुरका ऊपर डाल कर उस ने अपना मेकअप बौक्स उठाया और दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

‘‘ठहरो. ये लो.’’ पलंग पर अधलेटे पूर्णतया नग्न अधेड़ शेख ने सऊदी अरब की करेंसी का एक पुलिंदा उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

मगर शाहिदा बानो ने एक हिकारत और नफरत भरी नजर उस पर डाली और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गई. बाहर उसे अंदर पहुंचाने वाली खातून खड़ी थी. वह यंत्रचालित ढंग से शाहिदा बानो के आगेआगे चल दी.

उसे मैंशन में लाने वाली कार और शोफर पोर्च में तैयार खड़ा था. खातून ने दरवाजा खोला. शाहिदा बानो यंत्रचालित ढंग से उस में सवार हो गई.

ब्यूटीपार्लर की संचालिका ने एक नजर शाहिदा बानो के चेहरे पर डाली और समझ गई कि कि होम सर्विस की ड्यूटी निपटा आई थी.

शाहिदा बानो स्टाफरूम में चली गई. 5 ब्यूटीशियन लड़कियां चुपचाप इधरउधर बैठी थीं. तभी कमरे में लगा इंटरकौम बजा. एक लड़की ने रिसीवर उठा कर फोन सुना. फिर बाहर चली गई. चंद मिनटों बाद वापस लौटी. उस के हाथ में एक लिफाफा था.

लिफाफा उस ने शाहिदा बानो की तरफ बढ़ाया. प्रश्नवाचक नजरों से शाहिदा बानो ने उस की तरफ देखा.

‘‘मैडम ने कहा है, होम सर्विस के लिए मिली बख्शीश है. इसे ठुकराओ मत. धन सिर्फ धन ही होता है. धन को ठुकराना नहीं चाहिए.’’ उस ने लिफाफा शहिदा बानो के पास रख दिया.

शाहिदा बानो ने पहले लिफाफे की ओर फिर कमरे में बैठी पांचों लड़कियों की तरफ देखा. सब के चेहरे उन की एक जैसी कहानी बयान कर रहे थे.

तभी शाहिदा बानो का सेलफोन बजा. उस के पति का फोन था. रोजाना कभी वह फोन करती थी, कभी उस का पति.

रोज उत्साह से वह अपने पति को उस रोज की गतिविधियों के बारे में बताती कि आज ब्यूटीपार्लर में कितने ग्राहक निपटाए. बच्चे भी अपनी मम्मी से बारीबारी से चैट करते. मगर आज?

सेलफोन अटेंड करते ही शाहिदा बानो को जैसे करेंट लगा.

‘‘हैलो! कैसी हो? अपनी शाहिना ने सारे कालेज में टौप किया है. सारे मोहल्ले से बधाइयां मिल रही हैं. तुम को भी बधाई हो.’’ उस के पति अहमद सिराज का उत्साह भरा स्वर सुनाई दिया.

‘‘आप सब को भी बधाई हो.’’ शाहिदा बानो ने बुझे स्वर में जवाब दिया.

फिर तीनों बेटियों ने भी अपनी मम्मी से बात की. फोन बंद होने के बाद शाहिदा बानो खामोश हो गई. क्या करे? तभी इंटरकौम बजा. एक लड़की ने फोन सुना फिर रिसीवर रख कर शाहिदा बानो की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘मैडम, कह रही हैं आप की ड्यूटी खत्म हुई. आप घर जाओ.’’

इस को सुन कर शाहिदा बानो का खून खौलने लगा. मगर वह विवश थी. उस ने अपना पर्स कंधे पर लटकाया और उठ कर बाहर की तरफ बढ़ी, ‘‘तुम्हारा लिफाफा.’’ फोन सुनने वाली अमीना ने मेज पर रखा लिफाफा उठा कर उस की तरफ बढ़ाया.

शाहिदा बानो ने कशमकश भरी नजरों से लिफाफे की ओर देखा. उस की अस्मत लुटने की कीमत. क्या करे? उस की मन:स्थिति समझ कर अमीना ने उस का पर्स खोला और लिफाफा उस में डाल दिया.

हलकेहलके लड़खड़ाती सी चलती शाहिदा बानो ब्यूटीपार्लर से बाहर चली आई. सारे सपने सारी उम्मीदें एक झटके में खत्म हो गई थीं. ब्यूटीपार्लर द्वारा दिया स्कूटर छूते हुए उसे हाथ में आग सी लग रही थी.

जैसेतैसे फ्लैट में पहुंची. रोजाना उत्साह से खाना बनाती थी. मगर आज पानी भी नहीं पिया जा रहा था. बत्ती बुझा कर बिस्तर पर लेटी. काफी देर बाद पता नहीं कब उस की आंख लग गई.

काफी दिन चढ़े जब उस का सेलफोन थरथराया तो उस की नींद टूटी. उस ने स्क्रीन पर नजर डाली. ब्यूटीपार्लर की संचालिका का फोन था. स्विच औन करते ही मैडम का रौबीला स्वर गूंजा.

‘‘क्या हुआ, अभी तक नहीं आई?’’

‘‘मेरी तबीयत खराब है.’’

‘‘जब अपने शौहर के साथ हमबिस्तर होती हो तब तबीयत खराब नहीं होती?’’

शाहिदा बानो खामोश रही.

‘‘जल्द से जल्द हाजिर होओ वरना…’’ मैडम ने फोन काट दिया.

मैडम के स्वर में धमकी साफ थी. शाहिदा बानो फटाफट तैयार हो कर ब्यूटीपार्लर पहुंची.

‘‘आज दूसरी लड़कियां होम सर्विस को गई हैं. यहां कई क्लाइंट बैठी हैं, उन को अटेंड करो.’’ वेटिंग हाल में बहुत सी खातूनें मौजूद थीं.

शाहिदा बानो सब को बारीबारी से निपटाने लगी. सभी क्लाइंट्स निपट गईं तो शाहिदा बानो कैश काउंटर पर बैठी मैडम के पास पहुंची.

‘‘मेरा पासपोर्ट दे दीजिए और मेरा हिसाब कर दीजिए. मुझे वापस जाना है.’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.

मैडम की भौंहें तन गईं.

‘‘तुम्हारा कौन्ट्रैक्ट 3 साल का है. मियाद से पहले तुम वापस नहीं जा सकती. चुपचाप काम करो वरना…’’

‘‘आप मेरी तनख्वाह जब्त कर लो, मगर मेरा पासपोर्ट दे दो.’’

‘‘मैं एक फोन करूंगी, 5 मिनट में पुलिस आ जाएगी. तुम्हें बदकारी के इल्जाम में अंदर कर देगी.’’ मैडम के स्वर में साफसाफ धमकी थी.

‘‘बदकारी..? मेरी अस्मत लुटवा कर मुझे बदकार कहती हैं.’’ शाहिदा बानो चिल्लाई.

‘‘यह सऊदी अरब है, तुम्हारा इंडिया नहीं. यहां जिस्मफरोशी सख्त अपराध है. इस की सख्त सजा है, चौराहे पर कोड़े लगाए जाएंगे. कम से कम 3 साल जेल की सजा काटनी पड़ेगी.’’ मैडम किसी वकील की तरह बोल रही थी.

शाहिदा बानो सहम गई. 5 हजार रियाल यानी 90 हजार रुपए महीना. सारे सपने, सारी उमंगें एकदम खत्म हो गईं. ब्यूटीपार्लर की आड़ में जिस्मफरोशी का एक रैकेट था. इस दलदल से, दुष्चक्र से क्या छुटकारा पा सकेगी?

वह खामोश हो कर सर्विस रूम में चली गई. होम सर्विस के लिए गई लड़कियां लौटने लगीं. सब के चेहरे खामोश थे. भुक्तभोगी शाहिदा बानो उन के चेहरे से उन की मन:स्थिति समझ रही थी. सब ने किस्मत और हालात से समझौता कर लिया था. स्टाफरूम में सब खामोश थीं. सब के चेहरे उन की मजबूरी बयान कर रहे थे.

सब अलगअलग देशों से, अलगअलग इलाकों से आई थीं. कई शादीशुदा थीं, कई कुंवारी. बड़ी रकम वाली तनख्वाह के बदले उन को अपना शरीर सौंपना पड़ा था.

आमतौर पर सब में हलकाफुलका वार्तालाप होता था. घरपरिवार की बातें होती थीं. सब के पासपोर्ट और कागजात ब्यूटीपार्लर की संचालिका के पास जमा थे. इकरारनामे की मियाद पूरी होने से पहले किसी को वापस नहीं भेजा जा सकता था.

इस का मतलब था मियाद खत्म होने तक सब को बारबार होम सर्विस के बहाने अपनी अस्मत लुटवानी थी.

सब के दिमाग में एक ही सवाल था, मगर अनजाने भय से सब खामोश थीं. क्या पता स्टाफरूम में कोई टेपरिकौर्डर लगा हो. क्या पता कोई सीसीटीवी कैमरा उन पर नजर रख रहा हो.

वास्तव में ब्यूटीपार्लर के हर कक्ष में गुप्त कैमरे फिट थे. ब्यूटीपार्लर की संचालिका या मैडम अपनी सीट पर बैठी सामने रखी स्क्रीन पर नजर डाल हर जगह की खबर रखती थी.

शाम का अंधेरा छाया. ब्यूटीपार्लर बंद हुआ. सब अपनीअपनी स्कूटी, स्कूटर पर सवार हो अपने घर चलीं.

होम सर्विस की ड्यूटी भुगते शाहिदा बानो को 4 दिन बीत गए. ब्यूटीपार्लर की असलियत सामने आने पर काम के प्रति सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. पार्लर में आने वाले ग्राहकों को अब वह बड़ी फुरती से निपटाती थी.

‘‘गुलबदन…’’ इंटरकौम पर मैडम की आवाज गूंजी.

‘‘जी, फरमाइए.’’

‘‘तुम्हें और शाहिदा बानो को होम सर्विस पर जाना है.’’

‘‘इकट्ठे?’’

‘‘शेख अब्दुल्ला बिन मोहम्मद अब्दुल्ला के यहां बड़ा प्रोग्राम है. कई खातूनें मसाज करवाना चाहती हैं. उन की कार अभी थोड़ी देर में आ रही है.’’

मैडम का फरमान सुन कर गुलबदन खामोश रही. शाहिदा बानो सहम गई. एक दरिंदे को 4 दिन पहले सह चुकी थी. अब पता नहीं क्या होगा.

‘‘अगर मैं ना जाऊं तो?’’ शाहिदा बानो के इस सवाल का जवाब गुलबदन क्या देती. इस से पहले इंटरकौम का बजर बजा. मैडम का स्वर गूंजा, ‘‘इनकार करने की सूरत में थाने से लेडी पुलिस के साथ पुलिस इंसपेक्टर आएगा और तुम्हें बदकारी के इलजाम में हवालात में बंद कर देगा. थाने में भी होम सर्विस करनी पड़ेगी.’’

स्टाफरूम में बैठी सब सहम गईं. ब्यूटीपार्लर के बाहर कार लगते ही शाहिदा बानो और गुलबदन चुपचाप पिछली सीट पर बैठ गईं.

अरब शेख अब्दुल्ला बिन मोहम्मद अब्दुल्ला का विला या महल काफी आलीशान था. एक बुरकाधारी खातून उन को लिवा कर जनानखाना में ले गई.

अधेड़ और नौजवान लड़कियों का समूह उन का इंतजार कर रहा था. किसी पुरुष की जगह औरतों को देख कर दोनों आश्वस्त हुईं.

विला में सभी सुविधाओं से युक्त ब्यूटीपार्लर था. सब औरतें बारीबारी से अपनी सर्विस करवाने लगीं. सब निपट गईं तो दोनों ने राहत की सांस ली. मगर क्या उन की ड्यूटी समाप्त हो गई थी?

सब औरतें चली गईं तब उन को अंदर लिवा लाने वाली खातून ने कहा, ‘‘आप दोनों को अंदर जनानखाने में भी सर्विस करनी है.’’

जनानखाना महल के काफी अंदर एक लंबा गलियारा पार कर के था.

पुराने जमाने के मुसलिम शासकों के महलों की साजसज्जा. बड़ा हाल कमरा सजा था. फर्श पर धवल सफेद गद्दा बिछा था. गावतकिए के सहारे एक अधेड़ अरब शेख जिस के चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी थी, बैठा था.

उस के हाथ में सुनहरे रंग की नक्काशीदार धुआं खींचने वाली पाइप थी, जिस का दूसरा सिरा एक नक्काशीदार सुनहरे हुक्के से जुड़ा था.

उस के पास अरबी चुस्त पोशाक पायजामा और चोली पहने एक लड़की बैठी थी, जिस के हाथ में एक सुराही थी और एक प्याला.

जनानखाने के नाम पर एक पुरुष का कमरा और औरत के स्थान पर एक पुरुष.

‘‘तशरीफ रखिए मोहतरमा.’’ महल के शेख मोहम्मद बिन अब्दुल्ला बिन अब्दुल्ला ने कहा.

तभी चुस्त पायजामा और चुस्त चोली पहने एक किशोर उम्र की लड़की एक ट्रे ले कर अंदर आई. उस में शरबत के 2 गिलास और कटे फल रखे थे.

‘‘नोश फरमाइए.’’ अरब शेख ने कहा.

गुलबदन और शाहिदा बानो ने एकदूसरे की तरफ देखा. पहली बार की होम सर्विस का वाकया शाहिदा बानो को याद था. क्या पता इन शरबत के गिलासों में भी नशीला पदार्थ हो.

सकुचातेसकुचाते दोनों ने मेज पर रखी ट्रे से गिलास उठाया और चुस्कियां लेने लगीं.

‘‘शरबते बनफशा  शरीर को ठंडक पहुंचाता है.’’ हुक्के की नली से धुआं खींचते हुए मोहम्मद बिन अब्दुल्ला ने कहा.

सोफे पर बैठी उन दोनों ने शरबत का गिलास खत्म कर के मेज पर रखा ही था कि अरबी वेशभूषा में 4 अधेड़ावस्था के पुरुष कमरे में दाखिल हुए.

इतने पुरुषों को एक साथ देख कर दोनों चौंकीं.

‘‘मोहतरमा, आप के ब्यूटीपार्लर की मैडम कहती हैं कि आप वापस जाना चाहती हैं. बिना पासपोर्ट आप की वापसी संभव नहीं है. आप हमारी एक शर्त पूरी कर दें, आप का पासपोर्ट प्लेन की टिकट सहित वापस हो जाएगा.’’ हुक्के का कश ले कर धुआं छोड़ते हुए अब्दुल्ला बिन अब्दुल्ला ने कहा.

‘‘क्या शर्त है?’’ दोनों ने एक साथ पूछा.

‘‘आप दोनों अपनेअपने जिस्मों का दीदार करवा दें.’’ कुटिल मुसकराहट के साथ अब्दुल्ला ने कहा. उस के साथ बैठे चारों साथी कहकहा लगा कर हंसे.

गुलबदन की अस्मत कई बार लुट चुकी थी. शाहिदा बानो भी खुद को लुटापिटा समझती थी. वापस जा कर अपने शौहर से कैसे नजर मिला सकेगी.

‘‘इस बात की क्या तसल्ली है कि आप अपना कहा पूरा करोगे?’’ गुलबदन ने पूछा.

‘‘मैं अपनी शर्त पूरी हो जाने पर अपना कहा पूरा करता हूं. मैं चाहूं तो अभी थाने से पुलिस दारोगा को बुला कर तुम दोनों को बदकारी के इलजाम में जेल भिजवा सकता हूं.’’  कहते हुए मोहम्मद बिन अब्दुल्ला ने टेलीफोन का चोंगा उठाया.

दोनों सहम कर सोफे पर सिमट गईं. फिर गुदबदन उठी, उस ने अपने कपड़े उतारने शुरू कर दिए. शाहिदा बानो उसका अनुसरण करने लगी. पूर्णतया… दोनों अपना वक्षस्थल दोनों बांहों से ढांप कर खड़ी हो गईं.

‘‘वल्लाह! सुभान अल्लाह! क्या जिस्म है…’’ शराब का जाम पीते हुए अरब शेखों ने सीत्कारी भरते हुए कहा.

‘‘तुम दोनों मेरी इस बांदी के साथ थोड़ी देर के लिए अरबी डांस कर के दिखा दो फिर तुम दोनों आजाद कर दी जाओगी.’’

साकी बन कर शराब के प्याले भरती किशोर बाला उठ खड़ी हुई और लयबद्ध हो ठुमके लगाती हुई अरब शैली का नृत्य करने लगी. विवशता थी, सो वे दोनों भी उस के साथ नाचने लगीं.

थोड़ी देर बाद शराब पीते 2 अरब शेख उठे और उन्होंने उन दोनों को अपने बाहुपाश में दबोच लिया.

शाम तक उन 5 अरब शेखों ने उन को बारबार रौंदा. लुटीपिटी दोनों चुपचाप ब्यूटीपार्लर लौट आईं. मैडम ने उन को करेंसी से भरे लिफाफे दे कर घर रवाना कर दिया. अपनेअपने फ्लैट में बिस्तर पर लेटी दोनों न रो पा रही थीं और बोल सकती थीं.

‘‘पापा, अम्मी फोन काल का कोई जवाब नहीं दे रही.’’ शाहिदा बानो की बेटी ने अपने पापा को फोन काल का जवाब न मिलने पर कहा.

अहमद सिराज चौंका. मिडल ईस्ट के अरब देशों में नौकरानियों या हाउस मेड के साथ दुर्व्यवहार की खबरें आम थीं. उन्हें कहीं संपर्क करने से भी रोका जाता था. मगर सऊदी अरब के ब्यूटीपार्लर में इस तरह यौनशोषण हो सकता है, इस की उसे कल्पना भी नहीं थी.

‘‘तुम दोनों को आज फिर होम सर्विस के लिए जाना है.’’ मैडम ने फरमान सुनाया.

‘‘ना जाएं तो?’’ शाहिदा बानो ने पलट कर कहा.

‘‘अभी पता चल जाएगा.’’ मैडम ने अपना फोन टच किया. कुछ खुसरफुसर की. थोड़ी देर में गहरे हरे रंग की एक बड़ी जीप ब्यूटीपार्लर के बाहर आ कर रुकी.

हरे रंग की वरदी, पी-कैप पहने कमर में पिस्तौल, चुस्त शरीर का पुलिस इंसपेक्टर.

‘‘सर, ये दोनों बदकारी करती हैं. दूसरी औरतों को भी गलत काम के लिए उकसाती हैं.’’

नक्कारखाने में तूती की आवाज? दोनों चुपचाप जीप में पिछवाड़े बैठ गईं.

डेविड आर्थर एक स्वीडिश नागरिक था. वह फ्रीलांस फोटोग्राफर था. दुनिया भर में घूमताफिरता था. अनेक समाचारपत्रों, टीवी चैनल्स के साथ उस का अनुबंध था.

अपनी साथी सोफिया वारेन के साथ इन दिनों वह सऊदी अरब के भ्रमण पर था. मक्कामदीना में हज करने आए मुसलमानों के फोटो खींचने के बाद वापस लौटते समय दम्माम शहर से गुजर रहा था. उस की गाड़ी के सामने से आ रही एक अन्य गाड़ी ने टक्कर मार दी.

गाड़ी एक शेख की थी. मामला थाने तक पहुंच गया. डेविड आर्थर अपनी साथी के साथ थाने बैठा था. तभी पुलिस जीप दोनों को थाने में ले आई.

2 एशियाई स्त्रियों को थाने आया देख डेविड आर्थर चौंका. हर अलग स्थिति की फोटो खींच कर समाचारपत्रों और टीवी चैनल्स को प्रेषित करने में वह नहीं चूकता था.

‘‘सर, ये दोनों बदकारी करती हैं.’’ ब्यूटीपार्लर से पकड़ कर लाए नौजवान पुलिस अधिकारी ने थाना इंचार्ज के सामने दोनों को पेश करते हुए कहा.

अरबी भाषा का थोड़ाथोड़ा ज्ञान रखने वाली पत्रकार सोफिया वारेन चौंकी. उस ने उन दोनों औरतों की तरफ देखा. विवशता और बेबसी के भाव उन दोनों के चेहरों से साफ दिखते थे.

दोनों को हवालात में बंद कर दिया गया. अरब देशों में मेड, होम हैल्पर से यौनशोषण की खबरें आम थीं. घरेलू दिखती अपने देश से आई अधेड़ावस्था को छू रही दोनों औरतें भला इतनी दूर आ कर बदकारी कैसे कर सकती हैं?

डेविड आर्थर ने अपनी साथी सोफिया वारेन की तरफ देखा. सोफिया वारेन ने नजर बचा कर अपने स्मार्टफोन से हवालात में बंद दोनों की फोटो खींच ली.

‘‘मिस्टर आर्थर, आप राजीनामा कर लें. अगर हम केस दर्ज कर चालान काटते हैं तब आप को अदालत में पेशियां भुगतने आना पड़ेगा.’’ थाना इंचार्ज ने कहा.

‘‘मगर गलती हमारी नहीं है.’’

‘‘मिस्टर आर्थर यह सऊदी अरब है. आप बाहर से आए हैं. केस दर्ज हो जाने पर आप के खिलाफ दर्जनों गवाह गवाही देने के लिए हाजिर हो जाएंगे. तब आप पर उलटा मामला बनेगा, आप को सजा भी हो सकती है.’’

इस धक्केशाही पर दोनों तिलमिलाए.

‘‘मिस्टर आर्थर, हम चाहें तो आप की इस साथी को बदकारी करने के लिए उकसाने के इलजाम में अंदर कर सकते हैं. दरजन भर गवाह कह देंगे कि आप की यह साथी अश्लील इशारे कर के आतेजाते राहगीरों को फुसला रही थी.’’ थाना इंचार्ज कुटिलता से मुसकराया.

यह सुन कर मिस्टर डेविड आर्थर ने अपनी साथी की तरफ देखा. सोफिया वारेन ने सहमति से सिर हिलाया.

‘‘ओके सर.’’

सादे कागज पर राजीनामा लिखवाने के बाद दोनों थाने से बाहर की ओर चल दिए. एक नजर हवालात में बंद दोनों बेबस स्त्रियों की तरफ देख कर उन्हें आश्वासन देने का मूक इशारा किया. शहिदा बानो ने अपने दोनों हाथ मिला कर सजदा किया.

कार थाने से बाहर निकाल कर डेविड आर्थर ने थोड़ी दूर खड़ी कर दी और फिर अपने शक्तिशाली कैमरे से थाने की इमारत की कुछ फोटो खींचीं.

‘‘इन एशियाई देशों में सब पुलिस वाले एक जैसे हैं. हवालात में बंद दोनों औरतें यौनशोषण के लिए इनकार करने पर बदकारी के झूठे इलजाम में बंद हैं.’’ सोफिया वारेन ने कहा.

‘‘अब हम क्या करें?’’

‘‘आप अपना दिमाग इस्तेमाल करो, मैं अपना. मैं ने अपने स्मार्टफोन के वायस रिकौर्डर में थाने में हुई सारी बातचीत रिकौर्ड कर ली है, साथ ही काफी फोटो भी हैं.’’

शाम होतेहोते विश्व भर के अनेक टीवी चैनलों पर सऊदी अरब के दम्माम शहर के थाने में बंद 2 औरतों की फोटो दिखाई जाने लगीं. साथ ही दुर्घटनाग्रस्त कार की फोटो.

फोटोग्राफर और पत्रकार जोड़ी की स्टेटमेंट और लाइव बयान भी दिखाया जाने लगा. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अरेबियन संभाग के अधिकारियों ने तुरंत सऊदी सरकार से संपर्क साधा. भारतीय दूतावास भी सक्रिय हुआ.

मात्र 24 घंटे के अंदर गुलबदन और शाहिदा बानो थाने से मुक्त हो गईं. साथ ही ब्यूटीपार्लर में कार्यरत सभी लड़कियों को भी मुक्त कराया गया.

सऊदी अरब से वापस लौटी शाहिदा बानो हवाईअड्डे पर अपने पति के कंधे से लग कर सुबकसुबक रो रही थी. सब कुछ समझने वाला अहमद सिराज खामोश था.

Emotional Story : अब मैं नहीं आऊंगी पापा – पापा ने मेरे साथ क्या किया

Emotional Story : मैं अपने जीवन में जुड़े नए अध्याय की समीक्षा कर रही थी, जिसे प्रत्यक्ष रूप देने के लिए मैं दिल्ली से मुंबई की यात्रा कर रही थी और इस नए अध्याय के बारे में सोच कर अत्यधिक रोमांचित हो रही थी. दूसरी ओर जीवन की दुखद यादें मेरे दिमाग में तांडव करने लगी थीं.

उफ, मुझे अपने पिता का अहंकारी रौद्र रूप याद आने लगा, स्त्री के किसी भी रूप के लिए उन के मन में सम्मान नहीं था. मुझे पढ़ायालिखाया, लेकिन अपने दिमाग का इस्तेमाल कभी नहीं करने दिया. पढ़ाई के अलावा किसी भी ऐक्टिविटी में मुझे हिस्सा लेने की सख्त मनाही थी. घड़ी की सुई की तरह कालेज से घर और घर से कालेज जाने की ही इजाजत थी.

नीरस जीवन के चलते मेरा मन कई बार कहता कि क्या पैदा करने से बच्चे अपने मातापिता की संपत्ति बन जाते हैं कि जैसे चाहा वैसा उन के साथ व्यवहार करने का उन्हें अधिकार मिल जाता है? लेकिन उन के सामने बोलने की कभी हिम्मत नहीं हुई.

मां भी पति की परंपरा का पालन करते हुए सहमत न होते हुए भी उन की हां में हां मिलाती थीं. ग्रेजुएशन करते ही उन्होंने मेरे विवाह के लिए लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. लेकिन पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद ही मेरा विवाह विवेक से हो पाया. मेरी इच्छा या अनिच्छा का तो सवाल ही नहीं उठता था. गाय की तरह एक खूंटे से खोल कर मुझे दूसरे खूंटे से बांध दिया गया.

मेरे सासससुर आधुनिक विचारधारा के तथा समझदार थे. विवेक उन का इकलौता बेटा था. वह अच्छे व्यक्तित्व का स्वामी तो था ही, पढ़ालिखा, कमाता भी अच्छा था और मिलनसार स्वभाव

का था. इकलौती बहू होने के चलते सासससुर ने मुझे भरपूर प्यार दिया. बहुत जल्दी मैं सब से घुलमिल गई. मेरे मायके में पापा की तानाशाही के कारण दमघोंटू माहौल के उलट यहां हरेक के हक का आदर किया जाता था, जिस से पहली बार मुझे पहचान मिली, तो मुझे अपनेआप पर गर्व होने लगा था.

विवाह के बाद कई बार पापा का, पगफेरे की रस्म के लिए, मेरे ससुर के पास मुझे बुलाने के लिए फोन आया. लेकिन मेरे अंदर मायके जाने की कोई उत्सुकता न देख कर उन्होंने कोई न कोई बहाना बना कर उन को टाल दिया. उन के इस तरह के व्यवहार से पापा के अहं को बहुत ठेस पहुंची. सहसा एक दिन वे खुद ही मुझे लेने पहुंच गए और मेरे ससुर से नाराजगी जताते हुए बोले, ‘मैं ने बेटी का विवाह किया है, उस को बेचा नहीं है, क्या मुझे अपनी बेटी को बुलाने का हक नहीं है?’

‘अरे, नहीं समधी साहब, अभी शादी हुई है, दोनों बच्चे आपस में एकदूसरे को समझ लें, यह भी तो जरूरी है. अब हमारा जमाना तो है नहीं…’

‘परंपराओं के मामले में मैं अभी भी पुराने खयालों का हूं,’ पापा ने उन की बात बीच में ही काट कर बोला तो सभी के चेहरे उतर गए.

मुझे पापा के कारण की तह तक गए बिना इस तरह बोलना बिलकुल अच्छा नहीं लगा, लेकिन मैं मूकदर्शक बनी रहने के लिए मजबूर थी. उन के साथ मायके आने के बाद भी उन से मैं कुछ नहीं कह पाई, लेकिन जितने दिन मैं वहां रही, उन के साथ नाराजगी के कारण मेरा उन से अनबोला ही रहा.

परंपरानुसार विवेक मुझे दिल्ली लेने आए, तो पापा ने उन से उन की कमाई और उन के परिवार के बारे में कई सवालजवाब किए. विवेक को अपने परिवार के मामले में पापा का दखल देना बिलकुल नहीं सुहाया. इस से उन के अहं को बहुत चोट पहुंची. पापा से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे सबकुछ बता दिया. मुझे पापा पर बहुत गुस्सा आया कि वे बात करते समय यह भी नहीं सोचते कि कब, किस से, क्या कहना है.

मैं ने जब पापा से इस बारे में चर्चा की तो वे मुझ पर ही बरस पड़े कि ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा, जिस से विवेक को बुरा लगे. बात बहुत छोटी सी थी, लेकिन इस घटना के बाद दोनों परिवारों के अहं टकराने लगे. उस के बाद, पापा एक बार मुझे मेरी ससुराल से लेने आए, तो विवेक ने उन से बात नहीं की. पापा को बहुत अपमान महसूस हुआ. जब ससुराल लौटने का वक्त आया तो विवेक ने फोन पर मुझ से कहा कि या तो मैं अकेली आ जाऊं वरना पापा ही छोड़ने आएं.

पापा ने साफ मना कर दिया कि वे छोड़ने नहीं जाएंगे. मैं ने हालत की नजाकत को देखते हुए, बात को तूल न देने के लिए पापा से बहुत कहा कि समय बहुत बदल गया है, मैं पढ़ीलिखी हूं, मुझे छोड़ने या लेने आने की किसी को जरूरत ही क्या है? मुझे अकेले जाने दें. मां ने भी उन्हें समझाया कि उन का इस तरह अपनी बात पर अड़ना रिश्ते के लिए नुकसानदेह होगा. लेकिन वे टस से मस नहीं हुए. मेरे ज्यादा जिद करने पर वे अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए बोले, ‘तुम्हें मेरे मानसम्मान की बिलकुल चिंता नहीं है.’

मैं अपने पति को भी जानती थी कि जो वे सोच लेते हैं, कर के छोड़ते हैं. न विवेक लेने आए, न मैं गई. कई बार फोन से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बात नहीं की.

पापा के अहंकार के कारण मेरा जीवन त्रिशंकु बन कर रह गया. इन हालात को न सह सकने के कारण मां अवसाद में चली गईं और अचानक एक दिन उन की हृदयाघात से मृत्यु हो गई. इस दुखद घटना के बारे में भी पापा ने मेरी ससुराल वालों को सूचित नहीं किया तो मेरा मन उन के लिए वितृष्णा से भर उठा. इन सारी परिस्थितियों के जिम्मेदार मेरे पापा ही तो थे.

मां की मृत्यु की खबर सुन कर आए हुए सभी मेहमानों के वापस जाते ही मैं ने गुस्से के साथ पापा से कहा, ‘क्यों हो गई तसल्ली, अभी मन नहीं भरा हो तो मेरा भी गला घोंट दीजिए. आप तो बहुत आदर्श की बातें करते हैं न, तो आप को पता होना चाहिए कि हमारी परंपरानुसार दामाद को और उस के परिजनों को बहुत आदर दिया जाता है और बेटी का कन्यादान करने के बाद उस के मातापिता से ज्यादा उस के पति और ससुराल वालों का हक रहता है. जिस घर में बेटी की डोली जाती है, उसी घर से अर्थी भी उठती है. आप ने अपने ईगो के कारण बेटी का ससुराल से रिश्ता तुड़वा कर कौन सा आदर्श निभाया है. मेरी सोच से तो परे की बात है, लेकिन मैं अब इन बंधनों से मुक्त हो कर दिखाऊंगी. मेरा विवाह हो चुका है, इसलिए मेरी ससुराल ही अब मेरा घर है. मैं जा रही हूं अपने पति के पास. अब आप रहिए अपने अहंकार के साथ इस घर में अकेले. अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगी, पापा.’

इतना कह कर, पापा की प्रतिक्रिया देखे बिना ही, मैं घर से निकल आई और मेरे कदम बढ़ चले उस ओर जहां मेरा ठौर था और वही थी मेरी आखिरी मंजिल.

Love Story : अनजाने पल – सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद

Love Story : औटो चेन्नई के अडयार स्थित पुष्पा शौपिंग कौंप्लैक्स से गुजर रहा था कि तभी नीलिमा पर नजर पड़ी. 3-4 बरस के एक लड़के का हाथ थामे वह दुकान से निकल रही थी. मैं अपनी उत्सुकता रोक न पाई. मातृत्व मानो बांध तोड़ कर छलछलाने को बेताब हो गया था. मैं ने औटो रुकवाया और उसे पैसे दे कर उतर गई. धीरेधीरे उस के पास पहुंची और आवाज दी, ‘‘नीलिमा.’’

वह एकाएक चौंक कर मुड़ी, फिर तेजी से मुझ से लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. भय से सिमट कर वह लड़का भी रोने लगा. मेरे शरीर के निस्तब्ध तार नीलिमा के स्पर्श से झनझना उठे. रोमरोम में एक अजीब सा आनंद समाने लगा. इतने बरसों बाद जिसे पाया था, उसे अपने से अलग करने का मन ही नहीं हो रहा था. काफी देर रोने के बाद जब उस ने आवाज सुनी, ‘दीदी, मुझे डर लग रहा है, पिताजी के पास चलो.’ तभी वह संभली. आंसू पोंछ कर मेरी ओर देखा और मुसकराई. फिर बोली, ‘‘मां, हम यहां मलर अस्पताल में हैं. पिताजी 5वीं मंजिल पर कमरा नंबर 18 में हैं. देर हो रही है, मैं जाती हूं. हो सके तो शाम को आ जाइएगा. यह मेरा भाई अभय है,’’ फिर अपने भैया के कंधे पर हाथ रख वह मेरी नजरों से ओझल हो गई.

नीलिमा का आकर्षण इतना था कि मैं यह भूल ही गई कि मुझे विकास से सवेरा होटल में मिलना है. मैं सोचने लगी कि कहां मुझ से नफरत करने वाली उस दिन की गोरीचिट्टी खूबसूरत नीलू और कहां आज की दुख और वेदना का बोझ ढोए बचपन में ही प्रौढ़ता लिए यह नीलिमा. मैं ने शौपिंग कौंप्लैक्स से विकास को सूचना भिजवाई कि 15 मिनट में मैं आ रही हूं और जल्दी से औटो ले कर चल पड़ी. अनायास मेरी आंखों में आनंद का चेहरा घूम गया. मेरे मांबाप ने उस का लंबा कद, गोरा रंग, मस्तीभरी जवानी और आकर्षक व्यक्तित्व देख कर मेरा विवाह उस से तय किया था. मैं ने हिंदी साहित्य में एमफिल किया था और एक कालेज में पढ़ाती थी. आनंद बैंक में अफसर था. हम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर के शादी की थी. शादी के तुरंत बाद उस का तबादला दिल्ली हो गया, इसलिए हम लोग वहां चले गए. शादी होते ही मैं ने नौकरी छोड़ दी थी, हालांकि आनंद को यह अच्छा नहीं लगा था. परंतु मैं तबादले के झमेलों में पड़ना नहीं चाहती थी.

दिल्ली जैसे महानगर में खर्चे तो बढ़ते ही जाते हैं, एक दिन आनंद ने ही बात छेड़ी, ‘सावित्री, सारा दिन घर में बैठे तुम्हें घुटन महसूस नहीं होती? मेरा दोस्त कह रहा था कि कालेज में हिंदी प्राध्यापक की जगह खाली है. कहो तो बात चलाऊं?’

मैं ने कहा, ‘वैसे मेरी नौकरी करने की अभी इच्छा नहीं है. घर पर भी तो बहुत सारे काम होते हैं. बुनाई, कढ़ाई आदि सीख रही हूं. ढंग से खाना बनाना भी तो अभी ही सीख रही हूं.’ आनंद को मेरी बात अच्छी नहीं लगी. उस ने कहा, ‘अभी तो हमारे बच्चे भी नहीं हैं. इतनी शिक्षा हासिल करने के बाद तुम्हारा इस तरह घर में बैठे रहना मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर महंगाई भी कितनी है…तुम हाथ बंटाओगी तो हम घर के लिए कुछ चीजें खरीद सकेंगे.’ आनंद की बात उस समय मुझे भी अच्छी लगी. उसी ने दौड़धूप कर मुझे श्रीराम कालेज में नौकरी दिलाई.

दिन गुजरते गए. 8-9 वर्षों बाद ही नीलिमा का जन्म हुआ था. उस के जन्म के बाद से सबकुछ बदल गया. आनंद को बेटी से बहुत अधिक लगाव था. जब तक वह 5 साल की हुई, तब तक मेरी सास हमारे साथ रहीं. अकेली विधवा सास का हमें बहुत अधिक सहारा था. मेरी और पति की तनख्वाह से गृहस्थी की गाड़ी मौज से चल रही थी. मैं ने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. कालेज में प्रिंसिपल की जगह खाली होने वाली थी. मेरी पीएचडी के खत्म होने में 6 महीने बाकी थे, इसलिए पूर्व प्रिंसिपल ने मेरी सिफारिश की थी. मैं जीजान से पीएचडी की समाप्ति में लगी थी. अचानक मेरी सास गुजर गईं.

आनंद को मां की मृत्यु से ज्यादा बेटी का अकेलापन खटकने लगा. उस ने मां की तेरहवीं होते ही कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम नौकरी छोड़ दो. जब नीलू बड़ी हो जाए तो फिर नौकरी कर लेना.’ मैं चौंकी. फिर स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, हम ऐशोआराम की जिंदगी के आदी हो चुके हैं. मेरी तनख्वाह नहीं होगी तो दिल्ली जैसे शहर में तुम्हारे अकेले की तनख्वाह से गुजरबसर कैसे होगी?’

‘कम से कम पीएचडी छोड़ दो. देर से घर आओगी तो नीलिमा बहुत दुखी हो जाएगी. वह दिनभर अकेली कैसे रह पाएगी.’ ‘उसे तुम क्यों नहीं संभाल लेते. 4 महीने में मेरी थीसिस पूरी हो जाएगी. फिर जल्दी ही मैं प्रिंसिपल का पद संभाल लूंगी. कालेज की तरफ से वहीं घर भी मिल जाएगा. फिर नीलू की परवरिश में कोई बाधा नहीं आएगी.’

आनंद उस समय खामोश रह गया. परंतु उस के मन में ज्वालामुखी ने धधकना आरंभ कर दिया. मैं ने नीलू को कालेज के पास शिशु सदन में छोड़ना शुरू कर दिया. मैं रोज सवेरे उसे छोड़ आती और शाम को आनंद उसे ले आता. मुझे थीसिस का काम खत्म कर लौटने में रात को देर हो जाती. नीलिमा उदास रहने लगी थी. उस की खामोशी मुझे कभीकभी बहुत अखरती, परंतु मैं अपनी थीसिस अधूरी नहीं छोड़ सकती थी.

हम दोनों के बीच अकसर मनमुटाव होता. वह अकसर कहता, ‘मांबाप के रहते दिनभर बच्ची इस प्रकार अनाथों की तरह रहे, मुझे अच्छा नहीं लगता.’ मैं तपाक से उत्तर देती, ‘तो मैं क्या करूं? यह तो होता नहीं कि कोई उचित सुझाव दो, बस सदा कोसते ही रहते हो.’

बात जब बहुत बढ़ जाती तो वह कहता, ‘तुम अपनी थीसिस को अपनी बेटी की परवरिश से ज्यादा जरूरी समझती हो? कैसी मां हो?’ मैं कहती, ‘तुम मुझ से जलते हो. तुम्हारा अहं इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं तुम से ऊंचे पद पर पहुंचूं. तभी तुम मुझे ताने देते रहते हो. यह मत भूलो कि मुझे नौकरी पर जाने को मजबूर तुम ने ही किया था.’

नीलिमा ही सदा हम दोनों के आपसी झगड़ों में बीचबचाव करती. वह सदा एक ही बात कहती, ‘मैं ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. मुझे ले कर आप लोग क्यों लड़ते रहते हैं.’

वैसे नीलिमा चिड़चिड़ी सी रहती, बातबात पर जिद करती. ऊपर से आनंद उसे मेरे विरुद्ध हमेशा कुछ न कुछ कह कर भड़काता रहता. मुझे घर के माहौल में घुटन सी होने लगती. परंतु थीसिस अधूरी छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार न थी. मेरी बच्ची मेरे जिगर का टुकड़ा थी, उस के रोने की आवाज मुझे परेशान कर देती. एक दिन मैं ने छुट्टी ले ली. घर में उस की पसंद की खीर बनाई और आलू की टिकियां. ये दोनों चीजें उसे बहुत अच्छी लगती थीं. वह स्कूल से घर आई. मैं बड़े प्यार से उसे मेज के पास ले गई. उस ने मेज पर रखी चीजें एकएक कर खोलीं, फिर बंद कर दीं. मैं खुशीखुशी उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी. जब वह कुछ न बोली तो मैं ने ही कहा, ‘चल नीलू, आज मैं तुझे स्वयं हाथ से खिलाती हूं.’

‘क्यों? आज मुझ से इतनी हमदर्दी क्यों?’ उस के शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद गए? ‘बेटी, कैसी बात करती है. मैं ने तेरी पसंद की चीजें बनाई हैं. देख…खीर, आलू की गरमगरम टिकिया.’

‘मुझे भूख नहीं है.’ ‘क्या हुआ, मुझ से नाराज है?’

‘अगर तुम मुझे हर रोज इस प्रकार खाना खिलाओगी तो मैं आज खाने को तैयार हूं.’ मैं चुप हो गई, क्या जवाब देती. आखिर उसी ने चुप्पी तोड़ी, ‘बोलो, जवाब दो. क्या हर रोज घर पर रह सकती हो?’

‘तब तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. और नौकरी छोड़ दूं तो हम तुम्हें वह सुख और आराम नहीं दे पाएंगे, जो तुम्हें आज मिल रहा है. देखो, तुम्हारे पास टीवी है, एसी है, कितने खिलौने हैं, अच्छे स्कूल में पढ़ती हो, क्या ये सब तुम्हें खोना अच्छा लगेगा?’ ‘लेकिन पिताजी तो कहते हैं कि तुम्हें नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’

‘वे तो यों ही कहते हैं. तुम जब बड़ी हो जाओगी, तभी ये बातें समझ पाओगी.’ ‘क्या पता. लेकिन मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता. तुम्हारा हर रोज देर से आना, फिर रात को तुम्हारा और पिताजी का झगड़ा…’ यह कहतेकहते उस की आंखों से आंसू झरने लगे.

मैं ने बच्ची को आलिंगन में भींच लिया. फिर कहा, ‘कहो तो तुम्हें होस्टल भेज दें. वहां तुम्हें खूब सारी सहेलियां मिलेंगी. खूब मजा आएगा.’

उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. उस रात मैं ने आनंद से इस बात का जिक्र किया. मुझे तो आश्चर्य होता था कि उस व्यक्ति से मैं ने शादी कैसे की? वह कितना बदल गया गया था. कठोर हृदयहीन और अहंकारी. उस ने गुस्से से लगभग चीखते हुए कहा, ‘कैसी मां हो. बच्ची को अपने से अलग करना चाहती हो?’ मैं बोली, ‘मैं उसे अलग कहां कर रही हूं. आजकल तो सभी बच्चों को होस्टल भेजते हैं. एक साल में मेरा काम हो जाएगा. फिर पिं्रसिपल बन जाने पर कालेज के कैंपस में ही घर मिल जाएगा. नीलू को फिर घर ले आएंगे.’

आनंद ने तपाक से उत्तर दिया, ‘औरों की बात छोड़ो. सोसाइटी में झूठी शान बघारने के लिए लोग बच्चों को होस्टल भेजते हैं. हमें इस की जरूरत नहीं है. और यह खयाल दिल में फिर कभी मत लाना कि मैं कालेज कैंपस में तुम्हारे साथ रहूंगा.’ मैं दंग रह गई. थोड़ी देर बाद पूछा, ‘आप वहां क्यों नहीं रहेंगे? हमारी बच्ची की देखभाल भी वहां ढंग से हो जाएगी. मैं भी उसे ज्यादा समय दे पाऊंगी.’

‘क्या तुम सोचती हो कि मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पलूंगा. मैं मर्द हूं. याद नहीं है, मैं ने तुम्हारे पिताजी से क्या कहा था?’ ‘भला उसे मैं भूल सकती हूं. तुम ने पिताजी से कितने आक्रोश में कहा था कि मैं चाहे मिट जाऊं, परंतु दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पल सकता. मेरे बाजुओं की ताकत पर भरोसा हो तो अपनी लड़की का हाथ मेरे हाथ में दें. अपनी खुद्दारी पर बहुत गर्व था न तुम्हें?’

‘था नहीं, आज भी है.’ ‘लेकिन हम, तुम अलग तो नहीं हैं न.’

‘स्त्रीपुरुष का अस्तित्व अलग है और अलग ही रहेगा.’ ‘तो तुम ने मुझे नौकरी करने के लिए मजबूर क्यों किया?’

‘अब भी मैं तुम्हें नौकरी करने से नहीं रोकता. बस, यही कहता हूं कि घर और बच्ची का ध्यान रखो. पीएचडी वगैरह की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारी जितनी तनख्वाह है, उतनी ही काफी है. महत्त्वाकांक्षाओं का कभी अंत नहीं होता.’ ‘लेकिन मेरे इतने दिनों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मुझे नहीं लगता कि बच्ची को होस्टल भेजने और तुम्हारी इस लैक्चरबाजी में कोई संबंध है.’

‘है, तभी तो कह रहा हूं. मेरी बेटी होस्टल नहीं जाएगी. तुम पीएचडी छोड़ कर उस की परवरिश करो, नहीं तो मैं उसे अपनी बहन के पास जयपुर भेज दूंगा. फिर अपना तबादला भी वहीं करा लूंगा.’

‘नीलिमा केवल तुम्हारी बेटी नहीं है, उस पर मेरा भी उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हारा. उस के संबंध में मुझे भी निर्णय लेने का पूरा अधिकार है.’ ‘इस निर्णय की हकदार तुम तभी बन सकती हो, जब उस का भला चाहो. मां हो कर अगर अपनी प्रतिष्ठा, यश और पदवी के लिए तुम उसे होस्टल भेजने पर उतारू हो जाओ तो ऐसे में तुम उस हक से वंचित हो जाती हो.’

मेरे क्रोध का पारावार न रहा. मैं भी बहुतकुछ बोल गई. आनंद ने भी बहुतकुछ कहा. बात बढ़ती ही चली गई. इतने में नीलिमा दौड़ती हुई आई और लगभग चीखती हुई बोली, ‘बंद करो यह झगड़ा. नहीं रहना मुझे अब इस घर में. मैं आंटी के पास जयपुर जाऊंगी.’ मेरा कलेजा मुंह को आ गया. ऐसा लगा, जैसे किसी ने छाती पर गोली दाग दी हो. मैं एकदम से पलट कर अपने कमरे में चली गई. मन में विचार उठा, ‘क्या अपनी पहचान बनाना गुनाह है? क्या मैं ने कोई गलती की है? मुझे पीएचडी नहीं करनी चाहिए क्या?’

मन ने झकझोरा, ‘नहीं, गलती मर्दों की है. पति का अहं मेरी पदोन्नति स्वीकार नहीं कर पाता. वह आखिर शाखा अधिकारी है और अगर मैं पिं्रसिपल बन गई तो उस को समाज में वह इज्जत नहीं मिलेगी, जो मुझे मिलेगी. वह मुझ से जलता है. मैं हार मानने से रही. नीलिमा अभी बच्ची है. एक दिन वह मां का प्यार जरूर महसूस करेगी,’ विचारों के सागर में गोते लगातेलगाते कब आंख लग गई, पता ही न चला. सुबह उठी तो कुछ अजीब सी मायूसी ने घेर लिया. आनंद को नजदीक न पा कर जल्दी से उठ कर ड्राइंगरूम में पहुंची. घर की निस्तब्धता भयानक लगने लगी.

‘नीलिमा,’ मैं ने आवाज दी. लेकिन मेरी आवाज गूंजती हुई कानों में टकराने लगी. दिल धड़कने लगा. सहसा मेज पर रखी हुई चिट्ठी ने ध्यान आकर्षित किया. धड़कते दिल से उठा कर उसे पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘मैं नीलिमा को ले कर जयपुर जा रहा हूं, उस की मरजी से ही यह सब हो रहा है. कभी हमारे लिए वक्त निकाल सको तो जयपुर पहुंच जाना. आनंद.’ इस के बाद बहुतकुछ हो गया. नीलिमा ने मुझे समझने या समझाने का मौका ही नहीं दिया. इतने समय बाद उसे देख कर पुराने जख्म हरे हो गए. मैं सोचने लगी, ‘आनंद अस्पताल में क्या कर रहा है? कैसी विचित्र परिस्थिति है, कैसा अजीब संगम. क्या कहूंगी आनंद से, क्या वह मुझे पहचानेगा? क्या मुझे उस से मिलना चाहिए? कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

मैं जब विकास से मिली तो बड़ी परेशानी में थी. उस ने देखते ही कहा, ‘‘क्या हुआ. एक तो देर से आई हो… फिर इतनी घबराहट. सबकुछ ठीक तो है न. कोई बुरी खबर है क्या?’’

मैं ने मुसकराते हुए अपने विचारों को झटकने का प्रयास किया. हम होटल के अंदर गए. मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था, ‘क्या विकास को सबकुछ बता दूं, क्या वह समझ पाएगा? आनंद से मिलने कैसे जाऊं? विकास से क्या कहूं?’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अचानक मेरे कंधे पर हाथ रख कर विकास ने ही कहा, ‘सवि, मैं कुछकुछ समझ रहा हूं. समस्या क्या है, साफसाफ कहो?’

मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैं ने विकास को सबकुछ बता दिया. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो. गोष्ठी खत्म होने के बाद उस से जा कर मिल लो. मैं भी साथ चलूंगा.’ उस ने इतनी आसानी से कह दिया, पर मैं अपने को संभाल नहीं पा रही थी. भोजन के दौरान स्मृतिपटल पर चलचित्र की तरह बीते दिन फिर से उभर आए….

अपनी पीएचडी की समाप्ति पर प्रफुल्लचित, उत्साहित मैं जयपुर चल पड़ी. मन मुझे दोषी ठहराने लगा. मैं ने इन 6 महीनों में उन लोगों की कोई खोजखबर नहीं ली थी. उन लोगों ने भी मुझे कोई पत्र नहीं लिखा था. मैं सोचने लगी कि मेरी बेटी नीलिमा को भी क्या मेरी याद कभी नहीं आई होगी. पर मैं ने ही कौन सा उसे याद किया. पीएचडी की तैयारी इतनी अजीब होती है कि व्यक्ति सबकुछ भूल जाता है. परंतु इस में गलती ही क्या है? आनंद भी जब कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 6 महीने के लिए विदेश गया था तो उस ने भी तो कोई खोजखबर नहीं ली थी. मैं भी तो व्यस्त थी. आनंद मेरी मजबूरी जरूर समझ गया होगा. मैं जब घर जाऊंगी तो वे लोग बहुत खुश होंगे. सहर्ष मेरा स्वागत करेंगे. मन में आशा की किरण जागी, लेकिन तुरंत ही निराशा के बादलों ने उसे ढक दिया, ‘क्या सचमुच वे मेरा स्वागत करेंगे? मुझे अगर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया तो?’ संशय के साथ ही मैं ने जयपुर पहुंच कर ननद के घर में प्रवेश किया.

ननद विधवा हो गई थी. अपना कोई नहीं था. नीलिमा से उसे बहुत प्यार था. बहुत रईस भी थी, इसलिए बड़ी शान से रहती थी. घर में नौकरचाकरों की कमी नहीं थी. मैं ने डरतेडरते भीतर प्रवेश किया. आनंद बाहर बरामदे में खड़ा था. उस ने मुझे देखते ही व्यंग्यभरी मुसकराहट के साथ कहा, ‘मेमसाहब को फुरसत मिल गई.’

मैं ने जबरदस्ती अपने क्रोध को रोका और मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. अंदर से ननद की कठोर व कर्कश आवाज ने मुझे टोका, ‘जिस परिवार से तुम ने 6 महीने पहले रिश्ता तोड़ दिया था, अब वहां क्या लेने आई हो?’ ‘मैं ने…मैं ने कब रिश्ता तोड़ा था?’

ननद बोली, ‘जब बच्ची को मेरे सुपुर्द कर दिया तो क्या संबंध तोड़ना नहीं हुआ?’ मैं ने हैरान हो, बरबस अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए, कहा, ‘दीदी, मैं आप से अपना अधिकार जताने या लड़ने नहीं आई हूं. नीलिमा कानूनन आज भी मेरी ही बेटी है. मैं केवल उसे लेने आई हूं.’

सफर की थकान और मई की लू के थपेड़ों ने मुझे पहले ही पस्त कर दिया था. ऊपर से आनंद के शब्दों ने मुझे और भी व्यथित कर दिया. उस ने बेरुखी से कहा, ‘नीलिमा को ले जाने का खयाल अपने दिल से निकाल दो. वह तुम से कोई संबंध रखना ही नहीं चाहती.’ मैं ने आपा खोते हुए कहा, ‘क्या रिश्ते कच्चे धागों के बने होते हैं, जो इतनी जल्दी टूट जाते हैं?’

इतने में नीलिमा बाहर आई. मैं ने सोचा था कि वह मुझ से गले मिलेगी, रोएगी. अगर वह मुझे कोसती, रूठती, रोती, कुछ भी करती तो मैं खुश हो जाती. परंतु उस की बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया. उसी ने कहा, ‘मां, क्या लेने आई हो यहां?’

‘शुक्र है, तुम मुझे अब भी मां तो मानती हो. मैं तुम्हारे पास आई हूं. मेरी पीएचडी पूरी हो गई है. जून से मुझे प्रिंसिपल का पद मिल जाएगा. कालेज के कैंपस में ही हमारा घर होगा. तुम्हें वहां बहुत अच्छा लगेगा. अब हम साथसाथ रहेंगे.’ ‘पिताजी हमारे साथ नहीं चलेंगे. और मैं उन के बगैर रह नहीं सकती. क्या आप हमारे साथ यहां नहीं रह सकतीं?’

मैं कुछ भी न कह पाई. मेरा वजूद मुझे नौकरी छोड़ने से रोक रहा था. मैं तबादले की कोशिश करने को तैयार थी. प्रिंसिपल का पद छोड़ने को भी तैयार थी, परंतु नौकरी छोड़ कर बैठे रहना मुझे मंजूर नहीं था. अगर मर्द का अहं इतना तन जाए तो नारी ही क्यों झुके? हम दोनों ने अपनेअपने अहं के चलते बच्ची के भविष्य की बात सोची ही नहीं. मैं ने फिर विनम्रता और स्नेह से कहा, ‘बेटी, मैं तबादले की कोशिश करूंगी. तब तक तुम मेरे साथ रहो. एक साल के भीतर हम यहीं आ जाएंगे.’

नीलिमा ने पलट कर पिता की ओर देखा, ‘क्यों, मंजूर है?’ आनंद बोला, ‘सोच लो. मैं वहां नहीं रहूंगा. तुम्हें घर में अकेले दीवारों से बातें करते हुए रहना पड़ेगा. फिर तुम्हारी मां के कथन में न जाने कितनी सचाई. बाद में मुकर जाए तो…’

मुझे आनंद पर बहुत क्रोध आया कि न जाने भाईबहन ने नीलिमा से मेरे विरुद्ध क्या कुछ कह दिया था. वह बेचारी अपने नन्हे से मस्तिष्क में विचारों का बवंडर लिए चुप रह गई. मेरी ननद ने कहा, ‘अभी बच्ची को ले जाने की क्या जरूरत है. जब तबादला हो जाए तब देख लेंगे. अभी तो वह यहां बहुत खुश है.’

मुझे यह सलाह ठीक लगी. मैं अगली ट्रेन से ही दिल्ली लौट आई. मेरे मन में भी आगे के कार्यक्रमों के बारे में योजनाएं बनने लगी थीं. मैं ने लौटते ही अपने तबादले के बारे में सैक्रेटरी से अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी प्रिंसिपल की नौकरी के लिए सिफारिश आई है. क्या यह सबकुछ छोड़ कर जयपुर जाना चाहोगी?’

मैं ने कहा, ‘परिवार की खुशी के लिए नारी को थोड़ा सा त्याग करना ही पड़ता है. तभी तो वह नारी होने का दायित्व निभा पाती है.’ मुझे लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं टस से मस न हुई. लेकिन तबादले की अर्जी देते ही तो तबादला नहीं हो जाता. सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों का आदानप्रदान हो सकता है. यूनिवर्सिटी में उत्तरपुस्तिकाओं की जांच के दौरान मेरी रजनी से मुलाकात हुई. उस के पति का दिल्ली तबादला हो गया था और वह भी यहां आना चाहती थी. जयपुर कालेज से दिल्ली आने की उस की उत्सुकता देख मैं भी अत्यंत प्रसन्न हुई. हम दोनों ने ही आदानप्रदान के सारे कागजात जमा करवा दिए.

फिर मैं 4 दिनों की छुट्टी ले जयपुर गई. जयपुर से मेरे पति के पत्र नियमित रूप से नहीं आते थे. ननद तो कभी लिखती ही नहीं थी. मैं अपने खयालों में खोई हुई यह सोच भी नहीं पाई कि शायद वे लोग मुझ से कन्नी काट रहे हैं. जयपुर पहुंचने पर पता चला कि ननद को कैंसर था. जब तक पता चला, काफी देर हो चुकी थी. उन की देखभाल के लिए माया नाम की 20-21 वर्षीय नर्स रख ली गई थी. मैं ने पति से पूछा, ‘मुझे सूचना क्यों नहीं दी, क्या मैं इतनी गैर हो गई थी?’

आनंद ने कहा, ‘पता नहीं, तुम छुट्टी ले कर आतीं या नहीं. और इस बीमारी में इलाज भी काफी दिनों तक चलता रहता है.’ मैं ने उस समय भी यही सोचा कि शायद उस ने मेरे बारे में ठीक ही निर्णय लिया होगा. मैं ने अपने तबादले के बारे में उस से जिक्र किया तो वह बोला, ‘इस समय तुम्हारा तबादला कराना ठीक नहीं होगा. दीदी बहुत बीमार हैं. माया उन की देखभाल अच्छी तरह कर ही लेती है. वह इलाज के बारे में सबकुछ जानती भी है. नीलू भी उस से काफी हिलमिल गई है.’

‘मेरे आने से इस में क्या रुकावट आ सकती है?’ ‘डाक्टरों का कहना है कि दीदी महीने, 2 महीने से ज्यादा रहेंगी नहीं. फिर मैं भी जयपुर में रहना नहीं चाहता. मेरा अगला तबादला जहां होगा, तुम वहीं आ जाना. यही ठीक रहेगा.’

मैं समझ ही नहीं पाई कि वह मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रहा है या मेरी भलाई चाहता है. मैं नीलू से जब भी कुछ बोलना चाहती, वह ‘मां, मुझे परेशान मत करो’, कह कर भाग जाती.

माया दिल की अच्छी लगती थी, देखने में भी सुंदर थी. नीलू से वह बहुत प्यार करती थी. परंतु मैं ने पाया कि वह मेरे पति और बेटी के कुछ ज्यादा ही करीब है. वातावरण कुछ बोझिल सा लगने लगा. ननद मुझ से ठीक तरह से बोलती ही नहीं थी. वह बोलने की स्थिति में थी भी नहीं, क्योंकि काफी कमजोर और बीमार थी. मैं वहां 2 दिनों से ज्यादा रुक न पाई. जाने से पहले मैं ने रजनी को अपनी मजबूरी बताते हुए फोन कर दिया था.

जब दिल्ली लौटी तो मन में दुविधा थी, ‘क्या मुझे जबरदस्ती वहां रुक जाना चाहिए था. पर किस के लिए रुकती? सब तो मुझे अजनबी समझते थे.’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मुश्किल से 10 दिन बीते होंगे कि आनंद का पत्र आया. ‘दीदी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तुम दिल्ली लौटी. मैं ने यहां से तबादले के लिए अर्जी भेजी है. आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं ने संवेदना प्रकट करते हुए जवाब भेज दिया. इस के बाद एक महीना बीत गया. आनंद ने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.

मैं ने चिंतातुर जब बैंक मुख्यालय को फोन किया तो पता चला कि आनंद 15 दिन पहले ही तबादला ले कर मुंबई जा चुका है. उस ने जाने की मुझे कोई खबर नहीं दी थी. मेरा मन आनंद की तरफ से उचट गया. मुझे मर्दों से नफरत सी होने लगी. इस प्रकार मुझ से दूरी बनाए रखने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

मैं ने अभी तक अपनी घर की स्थिति के बारे में पिताजी को कुछ नहीं बताया था. सोचा, उन्हें क्यों परेशानी में डालूं. मां तो थी नहीं. पिताजी वैसे भी व्यापार के सिलसिले में हमेशा ही दौरे पर रहते थे. अभी मैं सोच ही रही थी कि पिताजी से मिल आऊं कि आनंद का पत्र आ गया. पत्र देख कर मेरा मन आनंदित हो गया. बड़े ही उत्साह से मैं ने पत्र खोला. अब तो मैं नौकरी छोड़ कर भी अपनी बच्ची और पति के पास लौटने के लिए बेताब हो रही थी. कितनी अजीब होती है नारी, अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए परिवार से अलग हुई थी. अब उसी प्रकार परिवार से जुड़ने के लिए सबकुछ छोड़ने को उद्यत हो गई. लेकिन पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा फक पड़ गया. ऐसा लगा, मानो हजारों बरछियां शरीर को छलनी कर रही हों. बड़े ही अनुनयविनय से कड़वी दवा पर मीठी टिकिया का लेप चढ़ा कर पत्र भेजा था. सारांश यही था कि वह माया से विवाह करना चाहता है. माया के गर्भ में उस का बच्चा है. वह मुझ से तलाक चाहता है.

मेरी समझ में सारी बातें आ गईं. मुझ से अलगाव रखना, चिट्ठी न लिखना और खिंचेखिंचे रहने के पीछे क्या कारण था. यह मैं समझ गई. उस कायर की दुर्बलता पर मुझे हंसी आई. साफसाफ कह देता तो क्या मैं मुकर जाती. मुझे नीलिमा के लिए डर लगने लगा था. परंतु उस ने लिखा था, नीलिमा माया से बहुत प्यार करती है. इसलिए वह हमारे साथ ही रहेगी. मैं ने अपने दिल को कठोर बना कर तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, कानूनी कार्यवाही के बाद 4 वर्षों में तलाक भी हो गया. मैं पिता के पास चेन्नई लौट आई.

मैं ने व्यापार में पिताजी का हाथ बंटाने का निश्चय कर लिया. दिल्ली की नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. चेन्नई में हमारी कंपनी खूब अच्छी चल रही थी. मैं ने पूरी निष्ठा से अपने को काम में समर्पित कर दिया. पर पिताजी वह सदमा झेल न पाए. तलाक होने के 2 महीने बाद ही हृदयगति रुक जाने से उन की मृत्यु हो गई.

मेरी जिंदगी की गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ने लगी. मैं कई मर्दों से व्यापार के दौरान मिलती. परंतु किसी से भी व्यापारिक चर्चा के अलावा कोई बात न करती. लोग मुझ से कहते भी कि तुम दोबारा विवाह क्यों नहीं कर लेतीं. परंतु मैं ने पुनर्विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था. एक दिन जब मैं फैक्टरी से कार में लौट रही थी तो एक शराबी मेरी गाड़ी से टकरा कर गिर पड़ा. मैं ने गाड़ी रोकी और उसे अस्पताल ले गई. उस का इलाज करवाया. बाद में परिचय पूछने पर उस ने अपना नाम विकास बताया. उस ने बताया कि उस की पत्नी किरण कुछ दिनों पहले मर गई है. शादी हुए 2 साल ही हुए थे कि वह गुजर गई. उस के वियोग को सहन न कर पाने के कारण विकास ने शराब पीना शुरू कर दिया था.

विकास का भी कपड़े का व्यापार था. पर उस ने किरण के गुजर जाने के बाद उस की तरफ ध्यान नहीं दिया था. दुखी ही दुखियारे का दुख समझ सकता है. मैं ने विकास को सहारा दिया, उस के अंदर प्रेरणा जगाई. धीरेधीरे विकास मुझ से प्रेम करने लगा. उस ने शादी का प्रस्ताव रखा तो मैं झिझकी. तब उस ने कहा, ‘मुझे अपने पर विश्वास नहीं है. अगर तुम ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं फिर से कहीं शराबी न बन जाऊं.’ मैं ने सोचा, दिशाहीन चलती अपनी जीवननैया को अगर खेवैया मिल रहा हो तो इनकार नहीं करना चाहिए. हम दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी थी ही.

पर मन ने सचेत किया, ‘आज इसे मेरी जरूरत है, कल जरूरत न पड़े तो आनंद की तरह ही दूध की मक्खी के समान फेंक दे तो…’ मैं ने उस के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

हम दोनों का व्यापार एकजैसा होने के कारण हम अकसर मिलते. परंतु विकास ने दोबारा मुझ से इस बारे में चर्चा नहीं की. हम दोनों होटल में व्यापार के सिलसिले में ही एक गोष्ठी में भाग लेने गए थे. विकास ने मुझे विचारों के घेरे से बाहर निकाला, ‘‘सावित्री, तुम ने कुछ भी नहीं खाया है. सारे लोग खा कर जा चुके हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ओह, मुझे माफ कर दो, विकास. पुरानी यादों में मैं खो गई थी.’’ ‘‘मैं समझ गया था. मैं ने उन लोगों से कह दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. चलो, हम यहां से सीधे आनंद के पास चलते हैं.’’

‘‘अभी वे लोग हमें आनंद से मिलने देंगे?’’ ‘‘कम से कम नीलिमा से तो मिल लोगी.’’

‘‘मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती, स्वयं ही चली जाऊंगी. तुम गोष्ठी में जाओ.’’

उस ने मेरी बात न मानी. अपने सहायक को सारी बातें समझा कर वह मेरे साथ चल पड़ा. उस ने अपने ड्राइवर से गाड़ी घर भेज देने को कह दिया. जब हम अस्पताल पहुंचे तो नीलिमा बाहर ही खड़ी मिली. वह रो पड़ी थी. अश्रुपूरित नेत्रों से उस ने हम से जुदा होने के बाद की कहानी सुनाई. जब माया ने आनंद से विवाह किया तो नीलू बहुत खुश थी. माया उस से बहुत प्यार करती थी. आनंद भी बहुत खुश था.

परंतु नीलू को माया का धीरेधीरे आंनद के करीब आना अच्छा न लगा. वह थी भी जिद्दी. आनंद का प्यार उस के लिए कम होने पर वह सह नहीं पाई. माया को वह कभी आनंद के साथ कहीं न जाने देती और उस के करीब भी न जाने देती. इस बात को ले कर हर रोज झगड़ा होता, तकरार होती, परंतु अंत में जीत नीलू की ही होती. जब माया का बेटा हुआ तो नीलू को बहुत अच्छा लगा, लेकिन माया गुड्डू को सदा नीलू से दूरदूर ही रखती. एक दिन गुड्डू पालने में सो रहा था. माया रसोई में खाना बना रही थी. अचानक वह जाग गया और रोने लगा.

नीलू अपने कमरे से भाग कर आई और गुड्डू को गोद में उठाना चाहा. वह नीचे गिरने को हुआ तो माया ने उसे उठा लिया. माया ने सोचा कि वह गुड्डू को पालने से नीचे गिराना चाह रही थी. नीलू ने कितना समझाने की कोशिश की, परंतु न तो वह समझी, न ही उस ने आनंद को समझाने का मौका दिया. आनंद के ऐसे कान भरे कि रात में उस ने नीलू को मारा भी. इस घटना के बाद उस परिवार में एक दरार उत्पन्न हो गई, जो बढ़ती ही गई. ऐसे ही वातावरण में दुखी, तिरस्कृत, उपेक्षित, प्यार के लिए तरसतीबिलखती नीलू बड़ी होती गई. मुझे सोच कर हैरानी होती है कि आनंद ने अपने ही खून को इस तरह लाचार, विवश और दुखी क्यों बनाया?

इस घटना के बाद जब से आनंद का तबादला चेन्नई हुआ, तब से नीलू हर रोज यही सोचती कि उस की मां उसे दोबारा मिल जाए.

मैं ने अश्रुपूरित नेत्रों से बेटी को देखा. 9 साल की उम्र में उस ने क्याकुछ नहीं देखा और सहा था. आनंद और माया हर जगह गुड्डू को ले जाते और नीलिमा को घर पर छोड़ जाते. इस बार भी डिजनीलैंड से लौटते समय कार दुर्घटना में यह हादसा हो गया था. माया की मौत हो गई थी और आनंद भी बुरी तरह जख्मी हो जीवन व मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था. गुड्डू को तनिक भी चोट नहीं आई थी. नीलिमा जब यह सब बता रही थी, उसी दौरान आनंद भी गुजर गया. उस से कुछ कहनेसुनने का मौका भी न मिला. मैं दोनों बच्चों को घर ले आई. विकास ने आनंद के अंतिम संस्कार में मेरी काफी मदद की. पूछताछ के दौरान पता चला कि माया का कोई रिश्तेदार नहीं था. मैं किस रिश्ते से बच्चे को यहां रखती. स्कूल में उस का क्या नाम देती. सोच में डूबी हुई थी कि नीलू अंदर आई. उस ने पूछा, ‘‘मां, क्या तुम गुड्डू की भी मां बनोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं गुड्डू की मां ही तो हूं.’’ ‘‘मैं ने आप को कितना गलत समझा था मां,’’ नीलू आत्मग्लानि से भर कर बोली.

‘‘मेरी भी तो कुछ गलती थी.’’ ‘‘मैं ने आप से मिलने की बहुत कोशिश की, पर पिताजी और माया आंटी ने मौका ही नहीं दिया.’’

‘‘बेटी, जो गुजर गए, उन के बारे में अपशब्द नहीं कहते.’’ गुड्डू रोता हुआ वहां आया. 3 बरस का गोलमटोल गुड्डू बहुत प्यारा लगता था. तोतली जबान में जब उस ने पुकारा ‘दीदी’, तो नीलू ने उसे अपनी बांहों में समेटते हुए कहा, ‘‘गुड्डू, ये हमारी मां हैं.’’

मैं ने उसे गोद में ले कर पुचकारा. वह बहुत देर तक ‘मम्मीमम्मी’ कह कर रोता रहा. मैं सोचने लगी, जिस पति ने मुझे मेरी बेटी से इसलिए अलग किया था, क्योंकि उस के अनुसार, मुझ में ममता नहीं थी, स्नेह नहीं था, और अब समय का खेल देखिए उस के बच्चे मेरी गोद में आ गए. इतने में विकास भीतर आया और बोला, ‘‘आज इन बच्चों की परवरिश के लिए पिता का स्थान मुझे दे सकोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे होंगे तो क्या होगा?’’ ‘‘सरकार के परिवार नियोजन का बोर्ड नहीं देखा. 2 बच्चे बस, 2 से अधिक नहीं. मैं ने औपरेशन करवा लिया है,’’ वह बोला.

‘‘अगर मैं विवाह से इनकार कर देती तो…तुम ने ऐसा क्यों किया?’’ ‘‘तुम इनकार कर दो, तब भी ये बच्चे हमारे ही रहेंगे. इन बच्चों को हम ने साथसाथ ही पाया है. इसलिए मैं ने इन का संरक्षक बन कर जीवन गुजारने का निश्चिय कर लिया है.’’

इस से आगे मुझ में इनकार करने की शक्ति नहीं थी. परंतु मैं ने नीलिमा को बुला कर पूछा, ‘‘विकास अंकल को पापा कह सकोगी?’’ ‘‘अगर गुड्डू के लिए तुम मां हो तो अंकल हम दोनों के पापा हुए न…’’

हम उस अनजाने पल में एकदूसरे से पूरी तरह बंध चुके थे. मैं ने कृतज्ञताभरी दृष्टि से विकास की ओर देखा. मेरी नजरों में छिपी सहमति विकास की नजरों से छिप न सकी.

Romantic Story : नारियल – जूही और नरेंद्र की जिंदगी में जहर घोल रही थी नंदा

Romantic Story : नरेंद्र के जाते ही जूही सोच में मग्न पलंग पर ढेर हो गई. उसे न आकर्षक ढंग से सजाए 2 कमरों के इस मकान में रखे फूलदार कवर वाले सोफों में आकर्षण महसूस हो रहा था, न जतन से संवारे परदों में. दीवारों पर लगे सुंदर फोटो और एक कोने में सजे खिलौने जैसे मुंह चिढ़ा रहे थे. उसे लग रहा था जैसे कि नंदा की शरीर की महक अभी कमरे की आबोहवा में फैली हुई है और कभी प्रिय लगने वाली यह महक अब उसे पागल बनाए बिना न रहेगी. दिमाग की नसें जैसे फटना चाहती थीं. हवादार कमरे की खिड़कियों से आती सर्दी की हवाएं जैसे जेठ की लू बन कर रह गई थीं. जो कुछ हुआ था, उस की उम्मीद कम से कम जूही के भोले मन को कतई न थी. हुआ यह कि कठोर अनुशासन वाली सास के घर में बाहर की हवा को तरस गईर् जूही में, नरेंद्र की नौकरी लगते ही अपना अधिकारबोध जाग गया कि अब वह इस घर के एकमात्र कमाऊ बेटे की पत्नी है. सास, ससुर, देवर, ननदें सभी उस के पति की कमाई पर गुलछर्रें उड़ाने को तैयार हैं. लेकिन वह उन्हें गुलछर्रे नहीं उड़ाने देगी और उड़ाने भी क्यों दे, आखिर इन लोगों ने उस के साथ कौन सी नेकी कर दी है. ननदें एकएक चीज ठुनकठुनक कर ले लेंगी, देवर गले पड़ कर अपनी जरूरतें पूरी करा लेंगे, पर यह नहीं सोचेंगे कि भाभी भी जीतीजागती इंसान है, उस का भी अपना सुखदुख है, उस की भी बाहर घूमनेफिरने की इच्छा होती होगी.

सारा काम उस ने अपने जिम्मे ले लिया तो सब आजाद हो गए. मरो, खपो, किसी को हाथ बंटाने की जरूरत ही नहीं महसूस होती. लता ने एक बार कह दिया था, ‘हमारी भाभी बहुत काम करती हैं. घर में किसी दूसरे को कोई काम छूने ही नहीं देतीं.’ ‘तो कौन सा एहसान कर रही है किसी पर, मैं ने इसे घर दे दिया, पालपोस कर जवान बेटा दे दिया,’ सास तुनक कर बोली थीं.

जूही के मन में आया था कि वह भी उन्हीं की तरह हाथ नचा कर कह दे, ‘क्यों दिया था जवान बेटा, बैठाए रहतीं उसे अपनी गोद में, आंचल में छिपाए.’ पर कुछ सोच कर वह मन मसोस कर रह गई. ऐसे मौके पर सास की आंखों में उभरे लाललाल डोरे और फिर एक ठंडेपन से मार्मिक बात कह देने से उन के आतंक से पूरा घर खौफ खाता था, तो जूही ही इस का अपवाद कैसे होती? हां, उस ने काम करने की रफ्तार बढ़ा दी थी. औफिस से लौटे नरेंद्र की चाय के बाद उस से भेंट तभी हो पाती जब रात के 10 बजे वह ऊंघने लगता. अपने पांवों पर जूही के शीतल हाथों का स्पर्श पा कर वह चौंक उठता. जाड़े में यह स्पर्श एकाएक अटपटा सा लगता और वह उस के देर से आने पर और घर के काम को उस की तुलना में वरीयता देने पर झुंझलाता.

एक दिन जूही ने नरेंद्र से कहा, ‘घर में कलह न हो, इसलिए इतना काम करती हूं, पर मांजी रातदिन भुनभुनाया करती हैं कि यह तो दिनभर नरेंद्र की कमर से कमर जोड़े रहती है, कामधाम में मन ही नहीं लगता.’ नरेंद्र को मां की यह बात, पत्नी पर अत्याचार लगी. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘अच्छा ऐसा कहती हैं?’

जूही ने अपने चेहरे पर जो भाव बना रखे थे, उन में आंखों का छलक आना कुछ कठिन नहीं था. उस ने कहा, ‘कहा तो बहुतकुछ जाता है, लेकिन सारी बातें सुना कर तुम्हारा दिल दुखी कर के क्या फायदा?’ फिर तो नरेंद्र की बढ़ती उत्सुकता जूही से कुछ मनगढ़ंत बातें उगलवा लेने में सफल रही. इन बातों में सर्वप्रमुख यह थी कि मांजी कह रही थीं, ‘अच्छा रहेगा, नरेंद्र के 10 साल तक कोई बालबच्चा ही न हो, नहीं तो उस की तनख्वाह उन्हीं पर खर्च होने लगेगी. तब जूही भी दिनभर घर का काम नहीं कर पाएगी.’

इस बात ने ऐसा रंग दिखाया कि नरेंद्र जूही की हर बात मानने को तत्पर हो गया. जूही ने भी उसे अपनेपन के ऐसे लटकेझटके दिखाए कि नरेंद्र को लगा, जैसे जूही के साथ अलग मकान ले कर रहने और दूसरी जगह तबादला करवा लेने में ही उस का हर तरह से कल्याण है. घर के लोग उसे नोच कर खा जाने वाले भेडि़ए लगे, जिन का उस से लगावमात्र उतना ही है, जितना हिंसक पशु का शिकार से होता है. जो मां पुत्र की कमाई के लिए उस का वंश चलते नहीं देखना चाहती, उसे मां कैसे कहा जाए? ऐसे लोगों का साथ जितनी जल्दी हो सके, छोड़ देना चाहिए.

फिर वे तबादले के बाद इस घर में आ गए. नरेंद्र और जूही 2 ही तो प्राणी थे. जूही में काम करने और व्यवस्था की आदत तो शुरू से ही थी. उस ने घर को फुलवारी की तरह सजा दिया. सीमित साधनों में जैसा रखरखाव और व्यवस्था जूही ने बना रखी थी उस से नरेंद्र के साथियों को सोचना पड़ता था कि घर तो नारी से ही आबाद होता है, किंतु वैसी गुणी नारी होनी चाहिए. वह नरेंद्र का ऐसा खयाल रखती कि उसे लगता, जैसे सच्चे अर्थों में जिंदगी तो अब शुरू की है. नरेंद्र भी हर तरह से जूही का खयाल रखता, उस के जन्मदिन पर बढि़या पार्टी और यादगार उपहार देता. औफिस के बाद यदि समय होता तो जूही के साथ घूमने भी निकल जाता. वास्तव में इसी आजादी के लिए तो जूही ने अपने घर में अपने झूठ से कलह का माहौल बना दिया था.

कुछ दिनों बाद ही महल्ले की महिलाओं के साथ उस का दोस्ताना बढ़ सा गया था. किसी को वह स्वेटर का नया डिजाइन बताती तो किसी की साड़ी की फौल ठीक कर देती. रमाबाबू की विधवा बहन नंदा को उस के पास बैठ कर बात करने में विशेष शांति मिलती थी, क्योंकि और जगहों पर उसे पसंद नहीं किया जाता. जूही नंदा को समझाती, ‘जिंदगी रोने से नहीं कटती है. कुछ काम करो और अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने पर भी गंभीरता से सोचो.’

एक दिन उस ने यह बात नरेंद्र की उपस्थिति में भी कही थी, ‘देखो, अभी क्या उम्र है, मुश्किल से 25 वर्ष की होगी और क्या गत बना रखी है अपनी? कुदरत ने गोरा संगमरमरी बदन, अच्छी कदकाठी और बोलती आंखें क्या इसलिए दी हैं कि इन्हें रोरो कर गला दिया जाए? खबरदार, जो आइंदा चेहरे पर मनहूसी छाई.’ फिर जब उस ने अपनी गुलाबी रंग की एक सुंदर साड़ी उसे पहनाई तो नरेंद्र को भी लगा, जैसे नंदा वाकई सुंदर कही जा सकती है, उस की आंखें वास्तव में आकर्षक हैं.

धीरेधीरे नंदा की रुचि, जूही भाभी के बजाय नरेंद्र में बढ़ती गई और नरेंद्र की नंदा में. कई बार जब दोनों की आंखें बोलती होतीं तो जूही की दृष्टि भी उन पर पड़ जाती. परंतु वह उसे अपने मन का वहम समझ लेती या सोचती कि यदि उस की शंका निर्मूल हुई तो नंदा के दुखी हृदय को ठेस पहुंचेगी और नरेंद्र भी उस के बचपने वाले सवाल से उस की अक्ल के विषय में क्या सोचेगा? पर एक दिन वह सन्न रह गई थी जब उस ने देखा था कि बत्ती चली जाने पर अंधेरे में नरेंद्र ने नंदा को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था और तभी बिजली आ गई थी.

जूही को लगा था जैसे उस के पैरों के नीचे काला सांप आ गया हो, जिसे उस ने दूध पिलाया, वही सर्पिणी बन कर उस की सुखी गृहस्थी में दंश मार चुकी थी. जिस नरेंद्र को पूर्णरूप से पाने के लिए उस ने संयुक्त परिवार की जड़ों में मट्ठा डाला, वही पराया हो गया. वह जज्ब न कर सकी, ‘तुम लोग इतने नीचे गिर जाओगे, मैं सोच भी नहीं सकती थी.’

फिर उस ने नंदा की ओर देख कर कहा, ‘निकल जा मेरे घर से, और फिर कभी यहां कदम रखने की कोशिश मत करना.’’ नरेंद्र ने बजाय लज्जित होने के त्योरियां चढ़ा लीं और कड़े स्वर में कहा था, ‘घर आए मेहमान से तमीज से बात करना सीखो. रही बात इस के यहां आने की, तो तुम कौन होती हो इसे निकालने वाली? यह घर मेरा है और यहां किसी का आनाजाना मेरी इच्छा से होगा. जिसे यह मंजूर हो, वही यहां रह सकता है, नहीं तो अपना रास्ता देखे.’

जूही समझ गईर् कि रास्ता देखने का संकेत उसी की ओर है. वह सोचने लगी, ‘तो ये इतने आगे निकल चुके हैं. इस घर के स्वप्न को संजोने वाली जूही घर के लिए इतनी महत्त्वहीन हो चुकी है कि एक बेहया औरत के लिए उस की कुरबानी बेधड़क दी जा सकती है?’ फिर तो नरेंद्र के आने के बाद नंदा का उन के घर आना आम बात हो गई. नरेंद्र पर जूही के अनुनयविनय का प्रभाव न होना था, न हुआ. उस ने साफ कह दिया, ‘तुम्हें घर में रहना हो, तो रहो, नहीं तो मैं नंदा के साथ बाकायदा अदालती शादी कर के उसे घर ले आऊंगा और तुम्हें दूसरा रास्ता चुनना होगा.’

इस दूसरे रास्ते के खयाल से ही जूही विकल हो जाती थी. मायके वाले कितने दिन रखेंगे? भाभियों के ताने सुन कर बेशर्मी की रोटियां वह कितने दिन खा सकेगी? भाइयों के अपने परिवार हैं, भाभियों की अपनी इच्छाएं हैं. किसी के लिए कोई क्यों अपनी इच्छाओं का गला घोंटेगा? जूही का मन डूब रहा था. उसे पार लगाने वाला कोई हाथ दिखाई नहीं पड़ता था. इस दुर्दिन में उस का ध्यान अपनी सास पर गया. एकदम कड़े मिजाज की सास के सामने नरेंद्र भी तो भीगी बिल्ली जैसा बना रहता था. यहां आने के समय भी तो वह उन से मुंह खोल कर कुछ कह नहीं पाया था. अगर वे यहां होतीं, तो क्या नरेंद्र की ऐसी हिम्मत पड़ती या नंदा दिन में 10 बार घर के चक्कर लगा पाती? वह अपराधभाव से ग्रस्त हो गई. यह स्थिति तो वास्तव में उस के न्यारे रहने के काल्पनिक सुख के लिए बोले गए झूठ से ही बनी है. अगर वे आ जाएं तो अब भी बात बन सकती है. मगर वे आएं तो कैसे? वह उन से कहे भी तो किस मुंह से?

अगर वह सास को यहां लाना भी चाहे, तो क्या वे मान जाएंगी? उस के हृदय के दूसरे पक्ष ने उसे आश्वस्त किया कि तू ने अपने स्वार्थ के आगे सास की ममता देखी ही कहां? जब एक बार उसे डायरिया हो गया था, तो हालत खराब हो जाने पर सास ही तो पूरी रात उस के सिरहाने बैठ कर जागती रही थीं.

बहुत सोचसमझ कर उस ने सारी स्थिति पत्र में लिख कर अंत में लिख दिया, ‘वैसे तो मैं स्वयं आप को लेने आती, मगर किस मुंह से आऊं? यह जान लीजिए कि मेरे वहां से हटते ही घर में मेरा रहना भी दूभर हो जाएगा. मैं छोटी हूं. मुझ से गलती हो सकती है, लेकिन उसे क्षमा तो बड़े ही करते हैं. यदि आप नहीं आईं तो मैं समझूंगी, मां की ममता अब दुनिया में नहीं रही, क्योंकि मेरी मां तो है नहीं, मैं आप को ही मां समझती हूं.’ 5वें दिन ही हरीश और नवल के साथ मांजी का भारीभरकम स्वर दरवाजे पर सुनाई पड़ा, ‘‘अब दरवाजा खोलोगी भी या नहीं, बस में बैठेबैठे पांव ही टूट गए.’’

उस समय नरेंद्र और नंदा भी घर पर ही थे. मांजी की गंभीर वाणी सुन कर नरेंद्र के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उस ने नंदा को जल्दी से जाने का इशारा कर दिया. पर नंदा जाती तो तब, जब निकलने का दूसरा दरवाजा होता. वह हकबकाई सी खड़ी थी. जूही को तो जैसे मरुस्थल में प्यास से बिलखते व्यक्ति की तरह किसी जलधारा का कलकल स्वर सुनाई दे गया था. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला और सास के पैरों पर मत्था रख दिया. वे जोर से बोलीं, ‘‘अरे, अब यह सब नौटंकी बाद में करना. पहले मेरा झोला थाम. मेरे हाथ दुखने लगे हैं,’’ फिर उन्होंने आवाज दी, ‘‘नरेंद्र, नवल के सिर से टोकरी उतार. और हरीश, तू भी अपना मरतबान रख. उजबक की तरह मुंह फाड़े क्या देख रहा है,’’ इस के साथ ही वे आंगन में पड़े पलंग पर बैठ गईं. उन की भीमकाय काया से पलंग चरमरा उठा. उन की तनी आंखों, कड़कदार आवाज और पलंग की चरमराहट ने मिल कर जैसे एक आतंक की सृष्टि कर दी. नंदा को लगा, शेरनी के आने पर तो परिंदे चीख कर भाग जाते हैं, लेकिन इन के सामने तो चीखने की भी हिम्मत नहीं पड़ेगी. उसे लगा, मांजी की दृष्टि उस को तोल रही है, जैसे कोई बच्चा किसी ढेले को फेंकने से पहले उसे तोलता है. उस का यह असमंजस भांप कर नरेंद्र ने नंदा को जाने का हाथ से इशारा किया. नंदा को जैसे जान मिल गई. उस ने एक कदम ही उठाया होगा कि मांजी अपनी बुलंद आवाज में बोलीं, ‘‘ठहरो, अभी कहां जाओगी. जरा इस को भी मेरी लाई मिठाइयां और फल खाने को दो. यह किस की लड़की है? इतनी बड़ी हो गई, अभी इस की शादीवादी नहीं हुई क्या, देखने से तो ऐसा ही लगता है.’’

जूही ने सब के साथ ही नंदा को भी मांजी की लाई मिठाई और फल वगैरह दिए. मगर इतने सवालों के साथ मिठाई और फलों की मिठास जैसे गायब हो गई थी. वह साफ देख रही थी कि नरेंद्र मां के सामने आंख उठा कर उस की ओर देख भी नहीं पा रहा है. वह बिलकुल मेमने जैसा लग रहा है. जिस नरेंद्र ने उस से प्रेम किया था, उस के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, वह एक जिंदादिल इंसान था. उस का यह रूप तो रीढ़हीन केंचुए जैसा है. यह रूप ले कर क्या वह समाज से टक्कर ले सकेगा? उसे लगा, कम से कम मांजी के यहां रहते तो नहीं? वह चुपचाप वहां से खिसकना चाहती थी कि मांजी ने कहा, ‘‘अभी इतनी जल्दी भी क्या है जाने की, बैठो.’’

फिर उन्होंने नरेंद्र से कहा, ‘‘बनियाइन, कमीज उतार…’’ कपड़े उतारने पर नरेंद्र पर ऐक्सरे जैसी नजर डाल कर बोलीं, ‘‘इसी सुख के लिए यहां रह रहा है, एकएक पसली गिन लो. बहू, तूने इसे यही खिलायापिलाया है? अब जब तक तू अपने जिले में तबादला नहीं करा लेता, मैं यहीं रहूंगी. अपना घर अपना ही होता है. इस बड़े शहर की फिजा में जहरीले मच्छर घूमते हैं. यहां से लाख दर्जा अच्छा अपना कसबा है, जहां हर चीज सस्ती है.’’

नरेंद्र और नंदा इस प्रवचन के बंद होने के इंतजार में जैसे जमीन में आंखें गड़ाए बैठे थे. मां फिर नरेंद्र से बोलीं, ‘‘देख, ये हरीश और नवल तुझ से कितने छोटे हैं और कैसे खिले पट्ठे हो गए हैं. तेरे बापू की पैंशन और गांव की खेती के सहारे हम ने मकान को दोमंजिला कर दिया है और 2 भैंसें भी पाल रखी हैं.’’ नंदा का मन पूरी तरह से बुझ गया था. वह मांजी और उन के साथ आए हट्टेकट्टे बेटों को देख कर घबरा उठी कि यह औरत उस की कामनाओं की कृषि पर मानो पाला बन कर पड़ गई है. निराशा से लंबी सांस ले कर वहां से चल दी.

बाहर निकल कर वह इस आशा से घूम कर पीछे देखने लगी कि शायद नरेंद्र उसे इशारों में ही कुछ दिलासा दे. मगर उस की आंखें उठ नहीं रही थीं. अगले दोचार दिन नरेंद्र बड़ा व्याकुल रहा. रमाबाबू के घर चाय के बहाने नंदा से थोड़ी देर के लिए मुलाकात हो जाती थी, लेकिन इतने भर से प्यासे हृदयों को तसल्ली कैसे मिलती? रमाबाबू के सामने वे एकदूसरे को अधिक से अधिक देख ही सकते थे. दोनों के शरीर एकदूसरे से मिलने को तड़प रहे थे.

एक दिन रमाबाबू के न होने पर नंदा ने कहा था, ‘‘इसी बूते पर प्यार की कसमें खाते थे, संसार से टकराने की बात करते थे. अब मां के सामने भीगी बिल्ली बन गए.’’ नंदा के उत्तेजित करने से नरेंद्र का अहं जागृत हुआ, ‘‘मैं अब दूधपीता बच्चा नहीं हूं जो हर काम के लिए मां की मरजी का मुंह ताकूं…खुद कमाता हूं, खाता हूं, किसी से मांगने नहीं जाता हूं. अपनी जिंदगी अपनी मरजी से जीऊंगा,’’ उस ने नंदा को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम घबराओ मत. मैं मां से साफसाफ बात कर लूंगा. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता.’’

नंदा को हालांकि भरोसा नहीं था, फिर भी वह उसे उत्साहित करती हुई बोली, ‘‘तुम हिम्मत से काम लो, सब काम बन जाएगा.’’

‘‘हां, जानेमन, मेरी हिम्मत देखनी हो तो शाम को घर चली आना,’’ नरेंद्र ने नंदा के हाथ पर हाथ मार कर कहा. उस दिन शाम को औफिस से लौटने पर नरेंद्र, नंदा के साथ आया था. लाल साड़ी में नंदा बड़ी फब रही थी और नरेंद्र भी अकड़ाअकड़ा दिखाई दे रहा था. उन दोनोें को देख कर जूही के उन अरमानों पर पानी जैसा पड़ गया था जिन के साथ उस ने गोभी और प्याज की पकौडि़यां चाय के साथ तैयार की थीं, रसोई में जा कर वह आंसू बहाने लगी.

बहू के आंसू देख कर सास ने पूछा, ‘‘यह क्या, फिर टेसुए बहाने लगीं.’’ जूही सुबकती हुई बोली, ‘‘वह फिर आ गई है.’’

‘‘तो क्या हुआ? तू चुप बैठ, बाकी जिम्मा मेरा,’’ वे जूही की पीठ ठोंकने लगीं. नंदा नरेंद्र के पास ही कुरसी पर बैठी थी. मांजी ने उन दोनों को घूरते हुए हरीश और नवल को भी वहीं बुला लिया. जूही ने प्यालों में चाय डाली, तो पहला घूंट ले कर ही मांजी नरेंद्र से बोलीं, ‘‘आज तुम कुछ भरेभरे लग रहे हो. मुझे आए इतने दिन हो गए. मगर तुम्हारे साथ कोई बात ही नहीं हो सकी. आज कुछ बातें करेंगे.’’

‘‘हांहां, यही मैं भी चाहता था. पहली बात तो यह कि आप कल घर को रवाना हो जाएं. खेतीबाड़ी और भैंसें देखना अकेले बापू के बस की बात नहीं है,’’ नरेंद्र बोला. ‘‘ठीक है, आई हूं तो चली भी जाऊंगी. आखिर यह भी मेरा घर है. मगर यह लड़की कौन है? अकेली तुम्हारे साथ इस के आने का कौन सा तुक है? जवान लड़कियां इस तरह घूमें, यह अच्छा नहीं है,’’ मांजी बोलीं.

‘‘मैं तो सोचता था, आप का अदब कायम रहे. पर जब आप ही नहीं चाहती हैं, तो सुनिए, यह नंदा है और मैं इस के बिना रह नहीं सकता. इस से शादी करूंगा. अब यही इस घर की मालकिन बनेगी,’’ जी कड़ा कर के नरेंद्र कह गया. नंदा गर्वभरी दृष्टि से उसे देख रही थी.

‘‘लेकिन बहू का क्या होगा? जिस के साथ सात भांवरें ले कर तुम ने अग्नि के सामने जीवनभर साथ निभाने की प्रतिज्ञा की थी?’’ मांजी ने ठंडेपन से उसे तोला. नरेंद्र की हिम्मत बढ़ गई, वह बोला, ‘‘वह ब्याह तुम लोगों की मरजी से हुआ था, तुम्हीं जानो. प्रतिज्ञा जैसे शब्द आज की दुनिया में बेमानी हो गए हैं.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. फिर भी यह शादी न हो, तो अच्छा है. यही जूही के साथसाथ तुम्हारे और नंदा के लिए भी भला होगा,’’ मांजी ने उसी तरह कहा. ‘‘हम अपना भलाबुरा सब समझते हैं. मैं आप की यह राय मानने को मजबूर नहीं हूं,’’ नरेंद्र ने दृढ़ता से कहा.

‘‘हां, हम किसी के लिए अपनी तमन्नाओं का गला तो घोंट नहीं सकते,’’ नंदा ने पहली बार हिम्मत की. ‘‘तू चुप रह. तेरी दवा तो मैं यों कर दूंगी,’’ मांजी ने चुटकी बजाई.

उन के चुटकी बजाने से स्वयं को अपमानित अनुभव कर नंदा ने नरेंद्र की ओर देखा और कहा, ‘‘यदि मैं शादी कर ही लूं तो आप क्या कर लेंगी? अब तो शादी हो कर रहेगी.’’ ‘‘मैं क्या कर लूंगी? सुन,’’ इस के साथ ही उन की त्योरियां बदलीं और वे नरेंद्र से बोलीं, ‘‘पहले तो तुझे घर की जायदाद से वंचित कर दूंगी. दूसरे रमाबाबू से कह कर इस लौंडिया की लगाम कसूंगी. तब भी न मानी, तो इस की चोटी का एकएक बाल उखाड़ लूंगी और धक्के दे कर इसे घर से बाहर कर दूंगी. मेरी राय में इतने में सही हो जाएगी,’’ तीखी आवाज में बोलती मांजी ने नंदा के उतरे चहरे की ओर देखा.

नंदा सोच रही थी, जायदाद के लिए नरेंद्र शायद दब जाए, लेकिन उस पर इस का असर आंशिक ही पड़ा. नंदा के साथ वह नौकरी में भी गुजर कर सकता था. सो, बोला, ‘‘आप अपनी जायदाद ले जाइए, मुझे नहीं चाहिए. मगर शादी होगी.’’ ‘‘शादी तो किसी कीमत पर नहीं होगी. जायदाद जाने से भी तुझ पर असर नहीं होगा तो थानाकचहरी बना है. एक रिपोर्ट में लैलामजनूं दोनों जेल में नजर आओगे. फिर नौकरी भी नहीं बचेगी. पहली बीवी के रहते दूसरी शादी करने पर 7 साल की सजा होती है,’’ मांजी का गंभीर स्वर गूंजा.

अब नंदा का हौसला भी पस्त हो चुका था. मां ने उसे जाने को कहा तो नरेंद्र बोला, ‘‘अब जो भी हो, यह जाएगी नहीं.’’

मांजी ने नंदा का झोंटा पकड़ कर उसे ऊंचे उठा दिया. वह चीख कर गालियां बक रही थी और उसे छुड़ाने को आगे बढ़े नरेंद्र को हरीश और नवल ने पकड़ लिया था. अब नंदा मांजी से रहम की भीख मांग रही थी. उन्होंने उसे धक्के दे कर दरवाजे से निकाल कर कहा, ‘‘देह दर्द करे, तो फिर आ जाना, मरम्मत कर दूंगी.’’ छूटने पर नरेंद्र ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘रुको तो, नंदा.’’

पर वह कह रही थी, ‘‘नौकरी जाने के बाद तुम्हारे पास रह क्या जाएगा? मेरी इज्जत तक तो उतरवा दी. ऐसे कायर पर मैं थूकती हूं.’’ नरेंद्र को लग रहा था, वह वास्तव में नौकरी जाने के बाद कुछ भी नहीं रह जाएगा. जेल की कठोर यातनाएं सह कर वहां से छूटने के बाद दुनिया बदल चुकी होगी. वह धम्म से चारपाई पर बैठ गया.

मांजी जूही से कह रही थीं, ‘‘देखना, जो यह कलमुंही दोबारा घर की दहलीज पर पैर तक रखे. साहबजादे भी कुछ दिनों में ठीक हो जाएंगे. तुम मियांबीवी एक हो जाओगे, मैं ही कड़वी दवा रहूंगी.’’ मांजी का हाथ बहू की पीठ सहला रहा था और बहू को लग रहा था, जैसे उस की बिछुड़ी सगी मां एक हाथ में छड़ी और दूसरे में दूध का गिलास लिए हो, नारियल के फल की तरह ऊपर से कठोर, भीतर से नर्म.

Education Policy : मोदी सरकार की शिक्षा नीति केंद्रीयकरण, व्यवसायीकरण और सांप्रदायीकरण पर कर रही है काम

Education Policy : सरकार भारत के बच्चों और युवाओं की शिक्षा के प्रति बेहद उदासीन है. देश के कई राज्यों में स्कूल तो खुल गए मगर बच्चों को किताबें नहीं मिलीं. क्योंकि इन कक्षाओं की किताबें नई छप कर आनी हैं, जिन में सरकार ने अपनी मर्जी से कुछ चैप्टर हटा दिए हैं और कुछ नए जोड़ दिए हैं. सरकार कभी मुगलों को हटाएगी कभी गांधी को हटाएगी. इन के हटाने से इतिहास बदल जाएगा क्या?

मार्च में नया सेशन शुरू हुआ. सुबह छोटेछोटे बच्चे अपनी यूनिफार्म पहने चहकते हुए स्कूल की ओर जा रहे थे. कोई पैदल, कोई पापा की साइकिल पर तो कोई अन्य बच्चों के साथ रिक्शे पर लदा हुआ. सब की पीठ पर बस्ते लटके थे, मगर बस्ते खाली थे. जी हां, उत्तर प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में स्कूल तो खुल गए मगर बच्चों को किताबें नहीं मिलीं. अप्रैल का पहला हफ्ता खत्म हो गया मगर परिषदीय स्कूलों में पहली से तीसरी कक्षा के बच्चों को एक भी किताब नहीं मिली है.

वहीं सीबीएसई से संचालित स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी परेशान हैं. उन्हें भी एनसीईआरटी के किताबें नहीं मिल पा रही हैं. एनसीईआरटी में सातवीं और आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के सामने सब से बड़ी चुनौती है क्योंकि इन कक्षाओं की किताबें नई छप कर आनी हैं, जिन में सरकार ने अपनी मर्जी से कुछ चैप्टर हटा दिए हैं और कुछ नए जोड़ दिए हैं.

एनसीईआरटी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार पहली से आठवीं तक के सिलेबस में काफी बदलाव किया गया है. यानी इतिहास में फेरबदल कर, इतिहास को तोड़मरोड़ कर कुछ नया बच्चों के सामने परोसना है. लिहाजा किताबें अभी तक बाजार में नहीं हैं. अभिभावक और बच्चे दुकानों के चक्कर लगा रहे हैं.

केंद्रीय विद्यालय की आठवीं की एक छात्रा सृष्टि माथुर कहती हैं कि हम तो स्कूल जाते हैं मगर बिना किताबों के क्या पढ़ें? टीचर क्लास में आती है, बच्चों से कुछ बातचीत करती है और फिर अपनी गैंग में चली जाती है. बच्चे क्लास में ऊधम मचाते हैं. कुछ बच्चों के पास पुरानी किताबें हैं मगर कौन सा चैप्टर बदल गया है और कौन सा वही है, इस को ले कर कन्फ्यूजन है.

टीचर कहती है पुरानी किताब से कोई न पढ़ें. दुकानदार कहता है नई किताबें मई में छप कर आएंगी. तो स्कूल खोलने की क्या जरूरत थी? सीधे मई में ही खोलते.

कंचन की मां सरकार पर खीज निकालती है. हर साल किताबें बदल देते हैं. हम लोग अपनी बड़ी बहनों और भाइयों की किताबों से पढ़ कर आज नौकरी कर रहे हैं, मगर हमारे बच्चों को पढ़लिख कर भी नौकरी मिलेगी इस की कोई गारंटी नहीं है. आधाआधा साल तो पढ़ाई ही नहीं होती है.

ये सरकार हर साल सिलेबस में कोई न कोई बदलाव करती रहती है. कभी मुगलों को हटाएगी कभी गांधी को हटाएगी. इन के हटाने से इतिहास बदल जाएगा क्या? दोदो महीने बच्चे बिना पढ़ाई के बैठे हैं, खाली बैग ले कर स्कूल जा रहे हैं. फीस तो पूरी लेंगे मगर पढ़ाई अधूरी करवाएंगे.

सरकार ढोल पीटती है कि बेसिक शिक्षा विभाग कक्षा चार से आठ तक बच्चों को निशुल्क किताबें वितरित करता है मगर सच्चाई यह है कि आधाआधा साल खत्म हो जाता है और बच्चों तक किताबें नहीं पहुंचती हैं.

हाल ही में कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी ने ‘द हिंदू’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में 3सी के जरिए सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) पर सवाल खड़े किए हैं. सोनिया ने आरोप लगाया है कि सरकार का ध्यान सिर्फ तीन चीजों- सेंट्रलाइजेशन, कमर्शलाइजेशन और कम्युनिलाइजेशन यानी 3सी पर है.

सोनिया गांधी ने अपने लेख – ‘द 3सी दैट होंट इंडियन एजुकेशन टुडे’ (3सी जो भारतीय शिक्षा के लिए आज चिंता का विषय है) में लिखा है कि केंद्र सरकार का मुख्य एजेंडा सत्ता का केंद्रीयकरण, शिक्षा का व्यवसायीकरण और पाठ्य पुस्तकों का सांप्रदायीकरण है.

उन्होंने लिखा कि पिछले एक दशक के दौरान केंद्र सरकार के ट्रैक रिकार्ड ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है कि शिक्षा के क्षेत्र में, वह केवल तीन एजेंडों पर काम कर रही है. सत्ता का केंद्रीकरण; शिक्षा में निजी क्षेत्र का निवेश और आउटसोर्सिंग के जरिए उस का व्यवसायीकरण और पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और संस्थानों का सांप्रदायिकरण.

गौरतलब है कि स्कूली पाठ्यक्रम की रीढ़ माने जाने वाले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पाठ्यपुस्तकों में भारतीय इतिहास को साफसुथरा बनाने के इरादे से संशोधन किया गया है. महात्मा गांधी की हत्या और मुगल भारत से जुड़े खंडों को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है. इस के अलावा, भारतीय संविधान की प्रस्तावना को भी पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया था, मगर जनता के विरोध के कारण सरकार को एकबार फिर उसे अनिवार्य रूप से शामिल करने के लिए बाध्य होना पड़ा. सरकार द्वारा इस तरह के प्रयास करना बेहद निंदनीय हैं.

पिछले 11 वर्षों में अनियंत्रित केंद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यप्रणाली की पहचान रही है, लेकिन इस के सब से हानिकारक परिणाम शिक्षा के क्षेत्र में हुए हैं. सोनिया गांधी इस तथ्य को उजागर करती हैं कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, जिस में केंद्र और राज्य सरकारों के शिक्षा मंत्री शामिल होते हैं, की बैठक सितंबर 2019 से नहीं हुई है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के माध्यम से शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन को अपनाने और लागू करने के दौरान भी, केंद्र सरकार ने इन नीतियों के कार्यान्वयन पर एक बार भी राज्य सरकारों से परामर्श करना उचित नहीं समझा. वह अपनी आवाज के अलावा किसी और की आवाज नहीं सुनना चाहती है. सरकार भारत के बच्चों और युवाओं की शिक्षा के प्रति बेहद उदासीन है.

कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने लिखा है कि हमारे विश्वविद्यालयों में हम ने देखा है कि शासन अनुकूल विचारधारा वाले पृष्ठभूमि के प्रोफेसरों को बड़े पैमाने पर नियुक्त किया गया है, भले ही उन के शिक्षण और विद्वता की गुणवत्ता हास्यास्पद रूप से खराब क्यों न हो. उच्च शिक्षा में राज्य सरकारों को उन के द्वारा स्थापित, वित्तपोषित और संचालित विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से पूरी तरह बाहर कर दिया गया है.

केंद्र सरकार ने यूजीसी गाइडलाइन को दरकिनार कर अपने राज्यपालों के माध्यम से, जिन्हें आमतौर पर विश्वविद्यालय का कुलाधिपति नियुक्त किया जाता है, राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन में लगभग एकाधिकार शक्ति अपने हाथ में ले ली है. यह देश के संघीय ढांचे पर खतरा है. मोदी सरकार ने ‘पीएम स्कूल फौर राइजिंग इंडिया’ स्कीम को लागू कराने के लिए समग्र शिक्षा अभियान के जरिए मिलने वाले धन को भी रोक दिया है.

सरकार बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों पर ताला लगा रही है और निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है. 2014 से अब तक देश भर में 89,441 सरकारी स्कूलों को बंद और विलय होते देखा है. जबकि इस समय 42,944 अतिरिक्त निजी स्कूलों की स्थापना हुई है. देश के गरीबों को सरकारी शिक्षा से बाहर कर दिया गया है और उन्हें बेहद महंगी और बिना कंट्रोल वाले निजी स्कूल प्रणाली के हाथों में डाल दिया गया है.

शिक्षा प्रणाली में बढ़ता भ्रष्टाचार व्यवसायीकरण का ही नतीजा है. इसी ने नकल माफिया को भी मजबूत किया है. राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (NAAC) में रिश्वत कांड से ले कर दुखद रूप से अक्षम राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (NTA) तक, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली और एजेंसियां वित्तीय भ्रष्टाचार के लिए लगातार सुर्खियों में हैं.

सोनिया गांधी लिखती हैं कि केंद्र सरकार का तीसरा जोर सांप्रदायिकरण पर है. इस का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की दीर्घकालिक वैचारिक परियोजना को पूरा करना है, जिस में शिक्षा प्रणाली के माध्यम से नफरत की खेती की जा रही है.

भारत में शिक्षा की वर्तमान स्थिति के बारे में इसी साल जनवरी में जारी एक सरकारी रिपोर्ट में भी काफी परेशान करने वाले तथ्य सामने आए हैं जिस में भारतीय स्कूलों में बुनियादी ढांचे की भारी कमी का पता चलता है.

शिक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित ‘यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फौर एजुकेशन’ (यू.डी.आई.एस.ई.प्लस) द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत के 14.71 लाख स्कूलों में से 10.17 लाख स्कूल सरकारी हैं. इन में से केवल 9.12 लाख स्कूलों में ही बिजली की सुविधा है, शेष 1.52 लाख स्कूलों में बिजली ही नहीं है. इन के अलावा 4.54 लाख सरकारी सहायता प्राप्त, निजी और गैर सहायता प्राप्त तथा अन्य स्कूल हैं जिन में से 4.07 लाख स्कूलों में ही बिजली उपलब्ध है.

देश के कुल स्कूलों में से 14.47 लाख स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था बताई गई है लेकिन केवल 14.11 लाख स्कूलों में ही यह व्यवस्था काम कर रही है. 10.17 लाख सरकारी स्कूलों में से 9.78 लाख स्कूलों में ही पीने के पानी की व्यवस्था लागू है. इसी प्रकार सरकारी सहायता प्राप्त, निजी एवं अन्य स्कूलों में 4.33 लाख स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था काम कर रही है.

देश के 14.71 लाख स्कूलों में से 14.50 लाख स्कूलों में शौचालयों की सुविधा है लेकिन केवल 14.04 लाख शौचालय ही काम कर रहे हैं. 67000 स्कूल नाकारा शौचालयों के चल रहे हैं और इन में से अधिकांश (46000) स्कूल सरकारी हैं.

दिव्यांगों के मामले में तो स्थिति और भी खराब है तथा 10.17 लाख सरकारी स्कूलों में से केवल 3.37 लाख स्कूलों में ही दिव्यांगों के अनुकूल शौचालय हैं और उन में से भी केवल 30.6 प्रतिशत ही चालू हालत में हैं. देश के केवल 57.2 प्रतिशत स्कूलों में ही कंप्यूटर चालू हालत में हैं. इसी तरह इंटरनेट की सुविधा भी देश के केवल 53.9 प्रतिशत स्कूलों में ही उपलब्ध है.

वहीं देश के स्कूलों में होने वाले दाखिलों में भारी गिरावट आई है. प्रीनर्सरी और नर्सरी की कक्षाओं में वर्ष 2022-23 की तुलना में वर्ष 2023-24 में 37 लाख दाखिले कम हुए हैं. 2022-23 में स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या 25.17 करोड़ थी जो 2023-24 में घट कर 24.80 करोड़ रह गयी. पिछले वर्ष की तुलना में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में 16 लाख और छात्राओं की संख्या में 21 लाख की गिरावट आई है. अनेक बच्चे प्राथमिक कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ रहे हैं.

Drugs : नशे का कारोबार देश को बना रहा नपुंसक

Drugs : युवा पीढ़ी में शराब, गुटखा, स्मोकिंग, अफीम, चरस, हेरोइन, स्मैक तथा कई अन्य नशीले पदार्थों का बढ़ता प्रचलन समाज को एक खतरनाक दिशा की ओर ले जा रहा है. पूरे विश्व में इतने लोग युद्धों में नहीं मरते जितने नशे के कारण मर जाते हैं.

वर्तमान समय में युवा पीढ़ी का नशे में चूर रहना एक फैशन सा बनता जा रहा है. न केवल किशोर और युवक अपितु लड़कियां भी इस की आदी हो रही हैं. कुछ फैशन और आधुनिक दिखने के लिए नशे में डूब रही हैं तो कुछ लत लग जाने के कारण इस की गिरफ्त में हैं. नशे की लत और नशे का कारोबार दूसरे गंभीर अपराधों को भी बढ़ा रहा है. नशे के लिए धन चाहिए. धन की लालसा में नशेड़ी चोरी-छिनैती ही नहीं बल्कि हत्या तक कर देते हैं.

दूसरी तरफ नाश स्टेटस सिंबल भी बनता जा रहा है. कनाट प्लेस, बाराखंभा, मंडी हाउस, कालकाजी जैसी जगहों पर बड़ेबड़े दफ्तरों के बाहर लंच टाइम में अनेक लड़के और लड़कियां सिगरेट का धुआं उड़ाते नज़र आते हैं. ई-सिगरेट जो पतली और लम्बी सी दिखती है, लड़कियों को काफी आकर्षित करती है. वे इसे स्टेटस सिम्बल के रूप में होंठों से चिपकाए रखती हैं. गहरे गहरे काश खींचती हैं और धुंए के छल्ले उड़ाती हैं.

युवा वर्ग नशा करने में अपनी शान समझता है और वह अन्य साथियों को भी इस तरह प्रेरित करता है कि उन्हें भी नशा करना प्रतिष्ठा का विषय लगने लगता है. दफ्तरों की पार्टियों, शादी-मंगनी की पार्टियों में शराब खुलेआम परोसी जाती है. साथी पी रहे हों और आप ना पिएं तो लगता है जैसे आप बहुत बैकवर्ड हैं.

दिल्ली-एनसीआर के नाईट क्लब और हुक्का बारों में लड़केलड़कियां हुक्के के कश लगाते उस के धुंए में अपना भविष्य खोजते नज़र आ जाएंगे. आधीआधी रात तक खुलने वाले डिस्को क्लब में ड्रग्स की खपत धड़ल्ले से हो रही है. स्कूल कालेज के पास जूस की दुकानों पर छापा पड़े तो बोदका विस्की रम की बोतलें भी मिल जाएंगी. कालेज के युवा जूस के साथ शराब का सेवन खूब कर रहे हैं. जूसवाले को भी पता है कि किस की क्या डिमांड है, लिहाजा कस्टमर के पहुंचते ही वह मुसकरा कर इशारे में ही बता देता है कि इंतजाम पक्का है. देखने वाले सोचें कि लड़के जूस पी रहे हैं, मगर उनको क्या पता कि वे नशा कर रहे हैं. नशा फैशन बन चुका है. सब से शर्मनाक पहलू यह है सरकार अपने राजस्व की आड़ मे शराब के सेवन को बढ़ावा दे कर युवा पीढ़ी को खुद बरबादी के रास्ते पर धकेल रही है. इस के साथ ही नशा माफियाओं के बढ़ते प्रभाव और नेटवर्क से नशीले पदार्थ आसानी से उपलब्ध भी हैं.

लखनऊ में चारबाग और आलमबाग में रेलवे लाइन के किनारे घनी बसी झुग्गियों में 50 रुपए, 75 रुपए, 100 रुपए तक कोकीन की पुड़िया आसानी से उपलब्ध है. पान की दुकानों पर पुड़िया मिलना आम बात हो गई है. पान वाले अपने कस्टमर्स को अच्छी तरह पहचानते हैं. नया आदमी पुराने ग्राहक का रेफ़्रेन्स ले कर जाता है. तसल्ली होने पर ही उसको पुड़िया मिलती है. इन जगहों से तमाम स्मैकिये पुड़ियों को खरीदते और पार्कों में झाड़ियों की आड़ में, गोमती के पुल के नीचे कश लगा कर पड़े रहते हैं. लोग जानते हैं और पुलिस भी जानती है. मगर लगाम कोई नहीं लगाता. दिल्ली-एनसीआर में आएदिन नारकोटिक्स विभाग ड्रग्स की बड़ीबड़ी खेप पकड़ता है. माना जाता है कि जितना ड्रग्स राज्यों में आ रहा है उस का मात्र 10 फीसदी ही पकड़ में आता है बाकी सारा ग्राहकों में खप जाता है. ड्रग्स की मांग है और खपत है इसीलिए इतनी बड़ीबड़ी खेपें आती हैं.

पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली पुलिस की स्पैशल सेल ने 13 दिनों में 13,000 करोड़ रुपए कीमत की कोकीन और 40 किलो हाइड्रोपोनिक थाईलैंड मारिजुआना जब्त की थी. इस के एक दिन पहले ही गुजरात पुलिस द्वारा 5,000 करोड़ रुपए की कोकीन पकड़ी गई थी.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो सहित भारत में सभी कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने 2024 में लगभग 25,330 करोड़ रुपए के नशीले पदार्थ जब्त किए, जो 2023 में जब्त किए गए 16,100 करोड़ रुपए के नशीले पदार्थों की तुलना में 55 प्रतिशत से अधिक है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024 में, मेथमफेटामाइन जैसे एटीएस (एम्फ़ैटेमिन-टाइप स्टिमुलेंट्स) की मात्रा 2023 में 34 क्विंटल से दोगुनी से अधिक हो कर 2024 में 80 क्विंटल हो गई है. इसी तरह, जब्त कोकीन की मात्रा भी 2023 में 292 किलोग्राम से बढ़ कर 2024 में 1426 किलोग्राम हो गई है.

जब्त किए गए मेफेड्रोन की मात्रा भी 2023 में 688 किलोग्राम से बढ़ कर 2024 में 3391 किलोग्राम हो गई है. इसी तरह, हशीश की मात्रा भी 2023 में 3391 किलोग्राम से बढ़ कर 2024 में 688 किलोग्राम हो गई है. जब्त की गई दवाओं की मात्रा 2023 में 34 क्विंटल से बढ़ कर 2024 में 61 क्विंटल हो गई है. नशीली दवाओं के रूप में दुरुपयोग की जा रही दवाओं की मात्रा 1.84 करोड़ से बढ़ कर 4.69 करोड़ (टैबलेट) हो गई है.

नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की मानें तो 2022 से 2024 के बीच भारत में 21 लाख किलोग्राम से ज्यादा ड्रग्स जब्त की गई है. इस में 89 फ़ीसदी गांजा है और एलएसडी दूसरे नंबर पर है.

अकसर कहा जाता है कि पंजाब नशे की लत के कारण विनाश की ओर बढ़ रहा है. हालांकि, गोवा, मिजोरम, मेघालय और मणिपुर भी इस से काफी प्रभावित हैं. कई लोगों का मानना है कि मणिपुर की समस्याओं की जड़ नशे के कारोबार में है. कई दशकों से ड्रग माफिया और उन के नेटवर्क ने मणिपुर और म्यांमार के बीच ड्रग तस्करी के लिए एक ‘गोल्डन ट्रायंगल’ बना रखा है.

केरल में भी ड्रग्स की सप्लाई बहुत ज्यादा है. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार वहां 7.4 लाख व्यस्क और करीब 75000 बच्चे ड्रग्स की चपेट में हैं. केरल में नशीली दवाओं का दुरुपयोग खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. छात्रों में नशीली दवाओं की तस्करी में शामिल गुंडों के साथ संबंध बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. यह उन की वीरता का महिमामंडन है जो इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है. ये अपराधी फिर बच्चों को नशीली दवाओं के तस्कर के रूप में इस्तेमाल कर उन का शोषण करते हैं.

भारत में ड्रग्स तस्करी का कारोबार दिन दूना बढ़ रहा है. भारत आने वाली ड्रग्स के लगभग 40% हिस्से की खपत लोकल मार्केट में होती है, लेकिन बाकी 60% ड्रग्स भारत से अरब और अफ्रीका जा रही हैं इंटरनैशनल नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो के अनुसार भारत ड्रग्स सप्लाई का बड़ा रूट बन कर उभरा है.

अब तक यूरोप-अमेरिका को खपत का सब से बड़ा मार्केट माना जाता था, लेकिन अरब के देश इमर्जिंग मार्केट के रूप में उभरे हैं. यहां लगभग 2 लाख करोड़ रुपए की ड्रग्स की सप्लाई होती है, जो भारत से होकर गुजरती है. हालांकि, भारत में एनसीबी से ले कर अन्य केंद्रीय एजेंसियां लगातार कार्रवाई में जुटी हैं. अरब देशों में सक्रिय भारतीय और पाकिस्तानी क्राइम सिंडिकेट इस ड्रग्स को वहां खपाने के साथ आगे अफ्रीकी देशों में सप्लाई कर रहे हैं. इस कारोबार से अफ्रीका में नार्को टेरर भी संचालित हो रहा है. राजनीतिक रूप से अशांत कई अफ्रीकी देशों में ड्रग्स मनी से हथियारबंद विद्रोह चलाए जा रहे हैं.

नशे का यह कारोबार देश को नपुंसक बना रहा है. नशे की लत का शिकार युवा न केवल अपने परिवार के लिए अभिशाप बन जाता है, अपितु समाज व राष्ट्र के लिए भी कलंक साबित होता है. फिल्म एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की पड़ताल परत दर परत नशे की विभीषिका को उजागर करती है. सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच में नशे और मानसिक तनाव का खुलासा हुआ है. नशा दिमागी तौर पर इंसान को न सिर्फ अवसाद में डुबो देता है बल्कि उस की सोचनेसमझने और जीवन जीने की इच्छाशक्ति को भी ख़त्म कर देता है. नशा इंसान से संघर्ष की ताकत को छीन लेता है.

समाज के सभी तबके चाहे वे अमीर हों या गरीब, नशे के दुखद नतीजों से जूझ रहे हैं. एक बार किसी घर के युवा को इस की लत लग गई तो उसे छुड़ा पाना मांबाप के लिए बहुत मुश्किल होता है. पहले तो मांबाप को इस बात का पता ही बहुत देर में चलता है कि उन का बच्चा किसी नशे का शिकार हो चुका है. जब तक पता चलता है स्थितियां इतनी विकट हो चुकी होती हैं कि उन्हें संभालना मुश्किल होता है.

आर्थिक रूप से संपन्न परिवार समाज में अपनी इज्जत बचाए रखने की कोशिश में यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि उन का बेटा या बेटी नशे के आदि हैं. लिहाजा नशा मुक्ति केंद्र में उन को इलाज के लिए लेजाया नहीं जाता है. वे अपने जवान होते बच्चों की सारी जरूरतों को पूरा करते हैं. इस उम्मीद में कि ऐसा करने से वे उन की बात मान लेंगें और नशा करना छोड़ देंगे. वे नहीं समझते कि यह इतना आसान नहीं है. नशा एक बीमारी है. जिस का यदि समय से इलाज न किया जाए तो समय के साथ यह बढ़ती ही जाती है.

कक्षा 12 का छात्र देवराज को दो साल पहले गुटका खाने की आदत एक दोस्त से लगी. फिर खैनी, सिगरेट, शराब तक उसने ट्राई किया. एक दिन एक दोस्त ने कोकीन की पुड़िया ला कर दी. उस का नशा पा कर तो वह झूम उठा. फिर उस को आएदिन पुड़िया की जरूरत महसूस होने लगी. न मिलने पर बदन ऐंठने लगा. हलक सूखने लगा. दोस्त ने पहले दो सौ रुपये रेट बताए, धीरेधीरे बढ़ कर 5 हजार रुपये पुड़िया तक पहुंच गया. देवराज को पौकेटमनी पिता से मिलती वह सारी नशा खरीदने में खर्च हो जाती थी. फिर पौकेटमनी कम पड़ने लगी.

एक दिन उस ने मां की सोने की चेन चुरा कर बेच दी. काफी पैसे आ गए. कई दिन का जुगाड़ हो गया. चेन चुराने का इल्जाम नौकरानी पर लगा और उसको पुलिस के हवाले कर दिया गया. देवराज स्टडी के बहाने नशेबाज दोस्तों के साथ उनके हौस्टल में पड़ा रहता था. जब वह 12वीं में फेल हो गया तब पहली बार क्लास के एक होनहार स्टूडेंट के जरिये मांबाप को पता चला कि देवराज नशा करता है और क्लास अटेंड करने की बजाए हौस्टल में घुसा रहता है. मांपापा को गहरा झटका लगा. उन्होंने बेटे का घर से बाहर निकलना रोक दिया. अब नशे की तलब लगने पर देवराज की हालत बिगड़ जाती. मांबाप सोचते कि नहीं मिलेगा तो छूट जाएगी. मगर ऐसा नहीं हुआ. नशे की पुड़िया न मिलने पर देवराज घर में मौजूद उन चीजों की ओर आकर्षित होने लगा जिन से अल्कोहोल या नशे की बू आती थी.

एक दिन उस ने तलब लगने पर सेवलोन की पूरी शीशी गटक ली. हालत बिगड़ने पर उसे अस्पताल ले जाया गया. उस की जान तो डाक्टर ने बचा ली मगर नशे के आदि हो चुके देवराज को अवसाद से नहीं निकाल पाए. अब एक नशा मुक्ति केंद्र से उस का इलाज चल रहा है. वह सारा दिन अपने घर में एक कमरे में कैद रहता है. कमरे के फर्श पर बैठा छत निहारता रहता है. जीवन जीने की कोई इच्छा नजर नहीं आती. कमरे में कोई आता है तो वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाता है कि बस एक बार पुड़िया ला दो, बस एक बार. सोचियए क्या हालत होगी उस के मांबाप की जिन्होंने लाखों रुपए उस की पढ़ाई पर लगाए यह सोच कर कि एक दिन उन का बेटा बड़ा अधिकारी बनेगा. परिवार का नाम रोशन करेगा.

नशे के कारण जवान बच्चे के जाने का दर्द क्या होता है यह तो पिता ही समझ सकता है? अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए पंजाब स्माल स्केल इंडस्ट्रीज कार्पोरेशन के चेयरमैन रहे शक्ति शर्मा बताते हैं कि उन का बेटा नशे का शिकार हो गया था. इस का पता बहुत समय निकल जाने के बाद लगा. बेटा अवसाद की गर्त में जा चुका था. उस के गुजर जाने के 4 साल बाद उन्हें पता चला कि उन का बेटा बिजली के बोर्ड के अंदर नशे के कैप्सूल छिपा कर रखता था.

वे कहते हैं, “एक जवान बेटे के जाने के दर्द की कोई सीमा नहीं होती. वे देश के दूसरे हिस्सों में भी जाते हैं और वहां लोगों को खुलेआम नशा करते देखते हैं तो हर किसी में उन्हें अपना बेटा नजर आता है.”

जो परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन के घर के लड़कों को जब नशे की लत लगती है तो अकसर इन घरों में लड़ाई झगड़े, मारपीट होती है. अखबारों में आयेदिन यह समाचार आते हैं कि नशे की हालत में लड़के ने अपने मातापिता को मार डाला या किसी ने अपनी पत्नी को ख़त्म कर दिया क्योंकि वह उस से नशा छोड़ने को कहती थी, या उसे नशे के लिए घर से पैसे नहीं मिलते थे. तीन चार दिन के अखबार उठा कर देख लें चार से पांच ख़बरें ऐसी मिली जाएंगी जिनमें अपराध का कारण नशा होगा.

युवा पीढ़ी में शराब, गुटखा, स्मोकिंग, अफीम, चरस, हेरोइन, स्मैक तथा कई अन्य नशीले पदार्थों का बढ़ता प्रचलन समाज को एक खतरनाक दिशा की ओर ले जा रहा है. पूरे विश्व में इतने लोग युद्धों में नहीं मरते, जितने नशे के कारण मर जाते हैं. नशे के कारण ही देश में सड़क दुर्घनाओं में भी बहुत तेजी से इजाफा हुआ है. जब नशेड़ियों को नशा नहीं मिलता तो वे चोरी-डकैती, हत्या जैसे संगीन अपराधों की ओर बढ़ते हैं. इस से समाज में असामाजिक तत्वों की संख्या बढऩे लगती है और समाज में तनाव तथा अशांति का माहौल बनने लगता है.

Hindi Poem : तू ‘गर’ सच में इतनी हंसी हो जिन्दगी

Hindi Poem : तू अगर इतनी ही हंसी हो जिन्दगी तो
तुझे मौत के दरख्त से वापस ले आऊंगा.

कपोल–कल्पना ही सही, इस सच को झूठ साबित कर दिखाऊंगा
मैं अपनी त्याग–तपस्या से ‘मर’ मनुष्य को अमर बनना सिखाऊँगा.

कहते हैं भगवान देते हैं हमें मन और प्राण
मैं अपनी मिहनत व त्याग से मनुष्य को अमर बनना सिखाऊँगा

क्यों करूँ उस देव के समक्ष समर्पण जो इसे हमारी कायरता समझ लेते हैं
और सदा अमर बने रहने का वरदान देने की जगह हर लेते हैं हमारे प्राण

क्या अन्तिम चिता ही है हमारी नियति या इससे बढ़कर कुछ और
त्याग व समर्पण तो है ही हमारे पास तो फिर प्राण की क्यों मांगू मैं आपसे भीख

क्या जिन्दगी हमें देती रहेगी हमें यह सीख कि मरना पड़ेगा एक दिन तुम्हें क्योंकि
जन्म लिये हो तुम मानव कोख और मांगनी ही होगी उनसे जीने की भीख.

लेखक : अंजनी कुमार

Hindi Poem : मौत आने से पहले जिन्दगी जी लेने दो

Hindi Poem : मौत आने से पहले मुझे अपनी जिन्दगी पूरी तरह जी लेने दो
हवा का रुख मोड़कर आसमाँ को छू लेने दो

अपनी जिद से नियति का विधान बदलने दो
इसे मेरी बौखलाहट ही भले समझो, पर पूरी करने दो

मानव जीवन की सार्थकता को साबित करने दो,
हर पल मौत की तरफ बढ़ते कदमों को रोकने दो,

भूत को वर्तमान में और भविष्य को सच में बदलने दो
जीवन की लौ बुझने का इन्तजार न करने दो

अवसान से पहले आरम्भ का आह्वान करने दो.
मौत आये इससे पहले जिन्दगी जी लेने दो.

लेखक : अंजनी कुमार

Hindi Poetry : कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

Hindi Poetry : स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

नींद भी खुली न थी कि हाए धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई

पात-पात झड़ गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी, न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफ़न गए

साथ के सभी दिए धुआँ पहन-पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा

इस तरफ़ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली

और हम लुटे-लुटे वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे

कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ

होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ

और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर

वो उठी लहर कि दह गए क़िले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धमक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज एक वो गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी

और हम अंजान से दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
लेखक : अंजनी कुमार

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