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Family Story : एक अपठित गद्यांश – पत्नी की दबी भावनाओं से अनजान पति

Family Story : एक स्त्री को पूरी तरह समझना आसान नहीं है. पवन ने समझा था कि वह रूबी की दबी भावनाएं जान गया है लेकिन नहीं, अभी तो वह बहुत चीजों से अनजान था.

‘‘ठंड काफी बढ़ गई है, बेहतर होगा एकएक पैग और ले लिया जाए,’’ पवन ने अनिकेत से कहा और अपनी रजाई फेंक कर बिस्तर से उठ बैठा. अनिकेत की इच्छा तो थी, फिर भी बिन पत्नी इस टाटा मिलिट्री ट्रेनिंग सैंटर में कहीं ज्यादा पी कर तबीयत पर लगाम न रहे, इसलिए वह कुछ कुनमुनाया.

पवन ने खुद ही 2 पैग बना कर एक गिलास अनिकेत की ओर बढ़ा दिया.
‘‘आज कुछ ज्यादा नहीं पी गए? अब, बस, कर न पवन,’’
52 साल के पवन और 49 साल के अनिकेत एक ही कमरा साझा कर रहे थे और दोनों के सिंगल बैड पासपास थे. पवन अनिकेत को देखता हुआ अपने बैड पर पैर लटका कर बैठ गया. अनिकेत पैग पकड़े हुए पलंग पर आसन जमा कर बैठ गया, लेकिन जरा मुंह लटका कर.
‘‘यार, यह बताओ यह क्या बात हुई, पति घर से 1,200 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग में सड़ रहा है और पत्नी उसे बिना बताए किसी भी मर्द को घर में ठहरा ले?’’ अनिकेत बोला तो पवन ने पूछा, ‘‘क्यों क्या हो गया? रूबी भाभी ने किसी को घर में ठहरा लिया क्या?’’
‘‘यार, कल सुबह मुझे ऐक्सरसाइज के लिए मत उठाना, सीधे 9.30 बजे कैंटीन से नाश्ता निबटा कर क्लास जाऊंगा,’’ अनिकेत ने बात को मोड़ते हुए कहा.
‘‘लगता है मूड ज्यादा खराब हो रहा है भाई का. ठीक है जनाब. लेकिन अभी तो उठना होगा रात के डिनर के लिए.’’ पवन ने कहा.
‘‘सुनो न पवन, आज मन नहीं हो रहा बिस्तर छोड़ने का, तुम ही हो आओ,’’ अनिकेत बोला.
‘‘चलो ठीक है, देखता हूं. गुलाब राय से कह दूंगा रोटीसब्जी एक थाली में रख दें तुम्हारे लिए,’’ पवन ने कहा.
‘‘शुक्रिया दोस्त,’’ पास के टेबल पर शराब का खाली गिलास रख अनिकेत रजाई में घुस गया.
टाटा के इस ट्रेनिंग सैंटर में रेलवे कर्मचारियों के लिए 40 दिनों की मिलिटरी ट्रेनिंग रखी जाती है. मिलिटरी अफसर यहां ट्रेनर होते थे और बुरे वक्त या इमरजैंसी में रेलवे कर्मचारियों पर देश की सेवा का भार दिया जा सके, इसलिए उन्हें सामान्य नौकरी से इतर साल में एक बार ट्रेनिंग लेने आना पड़ता था.

पवन और अनिकेत रायपुर रेलवे विभाग में थे, साथ ही, उन की दोस्ती भी कुछ सालों से काफी बढि़या थी. दोनों ने ट्रेनिंग में साथ आने का फैसला किया था ताकि 40 दिनों की लंबी कष्टदायी ट्रेनिंग में मन लगा रहे. अनिकेत का अनसुलझे सवाल अब भी पवन को परेशान किए था.
वापस आ कर अनिकेत को खाने की थाली पकड़ाई और पास बैठ गया उस के.
‘‘भाई, तुम्हें शक कैसे हो रहा है?’’ पवन उत्सुक हो रहा था, लेकिन अनिकेत को जताया जैसे कि वह बहुत चिंतित हो.
‘‘मेरे फोन से रूबी को कौल लग नहीं रही थी, मैं पास की दुकान में चला गया था और वहीं से कौल लगाई रूबी को. उस का फोन शेखर ने उठाया था. रात के 10 बजे घर में गैरमर्द?’’
‘‘शेखर कौन? अच्छा वह भिलाई वाला डीटीआई? उस से तो तेरी पहचान थी न?’’ पवन को याद आया.
‘‘वह पहले कई बार मेरे घर आ चुका था, खैर, मैं ने उस से रूबी को फोन देने को कहा. अचानक फोन पर मुझे पा कर रूबी शेखर की उपस्थिति से इनकार नहीं कर पाई, कहा, डिनर के बाद रवाना कर देगी उसे, मगर मुझे शक है शायद ही उस ने ऐसा किया हो.’’
‘‘अरे, बीवी पर भरोसा रखो. तुम दोनों की तो लवमैरिज है. चल, छोड़ भाई, अपन आओ मजा करते हैं. मुझे देखो, बीवी का ठेका उठाए नहीं घूमता. अपनी जिंदगी जियो, यार.’’
‘‘वही तो है मेरी जिंदगी, कैसे छोड़ दूं?’’
‘‘सच कहूं तो भाभी के पीछे बहुत पड़े रहते हो यार. अभी कुछ महीने पहले तुम अस्पताल में एडमिट हुए, छूटते ही भाभी को शौपिंग कराना, घुमाना. क्या जरूरत थी, यार? पवन लापरवाही से बोला.

‘‘भाई वह दिन नहीं भूलते जब वह मुझे मिली थी. मैं उस के भाई के साथ रेलवे के एक ही स्टेशन में पोस्टेड था. मैं बैचलर और मेरा दोस्त यानी रूबी का भाई भी. उस की मां थी, पिता नहीं थे. उस के घर आनाजाना लगा रहता. मां उस के साथ मुझे भी बिठा कर खिलाती. फिर कुछ दिनों बाद रूबी दिखी.’’

मैं अवाक. अब तक तो नहीं दिखी थी, कौन है. दोस्त कहता है, वह उस की बहन है, मामा के घर गई थी, 2 महीने रह कर लौटी है. फिर क्या था, दोस्त का घर दुनिया का सब से हसीन पर्यटन बन गया मेरे लिए.
‘‘रूबी का और मेरा मन जल्द ही एकदूसरे से बंध गए. बात शादी की हुई और हो गई. मेरा लगाव कभी घटा नहीं उस के लिए, भले ही उन्नीस साल हो गए हमारी शादी को.’’
‘‘इतनी ही शिद्दत रूबी भाभी में है तेरे लिए?’’
पवन के लिए जरा वाहियात सी थी लगाव की बातें.
‘‘मैं ने इतना जांचा नहीं. रोज जिंदगी चल ही रही है. मेरे साथ है वह, मै खुश हूं. मेरे लिए यह काफी है.’’
‘‘तेरे लिए तो काफी है, मगर रूबी भाभी के लिए तू काफी है कि नहीं, यह कभी समझे क्या?’’
‘‘छोड़ यार, मेरे पास अब इतना दिमाग नहीं बचा. एक तो इतनी ठंड मुझे सहन नहीं होती, ऊपर से शेखर की टैंशन अलग.’’
‘‘चल, बाहर से कुछ और्डर कर लेता हूं. मैं गेट से ले लूंगा जा कर. आज कैंटीन की दाल, रोटी, सब्जी छोड़. क्या कहता है? कह दूंगा डिनर का मन नहीं है.’’
‘‘देख ले,’’ पवन के मन बहलाने की कोशिश का अनिकेत पर खास असर तो हुआ नहीं, बस, वह शांत हो कर रजाई में चला गया.

रूबी की जितनी तारीफ की जाए कम होगी, ऐसा अगर अनिकेत की नजर से देखा जाए तो कहने में कोई बुराई नहीं. लेकिन इस समाज के संस्कारी नजरों के पैमाने पर बैठने वाली स्त्री वह नहीं है.

45 साल की रूबी अपने शारीरिक सौष्ठव, लचीली काया और कोमल आकर्षक स्किन के कारण 35 की मुश्किल से लगती थी. वह यह बात बखूबी सम?ाती थी और इस वजह उसे कुछ गरूर भी था.

वह अपने दिन का 80 प्रतिशत हिस्सा खुद पर ही व्यय करती थी. तब भी उसे लगता था कि बेटी के कुछ झमेले सिर पर न आते तो उस के पेट में चरबी की एक टायर जो फिर से दिखने लगी थी, वह न रहती.

रात को जिम, शौपिंग और पार्टी की वजह से घर में मैडिकल एग्जाम की तैयारी कर रही बेटी के लिए लगभग रोज बाहर से पिज्जा, बर्गर, डबल चीज पास्ता आदि मंगवा दिया जाता था.

अनिकेत को हमेशा यह अच्छा नहीं लगता लेकिन रूबी की परेशानी के आगे वह आंखें मूंद लेता. इन्हीं रूटीन के साथ जिंदगी चलती जाती यदि बेटी को किडनी और पैंक्रियाज में तकलीफें न आ जातीं.

सालभर इन की जिंदगी थम गई. लंबे इलाज के बाद बेटी ठीक हुई तो घर में ज्यादा से ज्यादा समय रूबी को बेटी की सेवा में लगाना पड़ा और रूबी अपने रूटीन से कुछ पिछड़ गई. खैर, दिन ये भी बीते और बेटी पढ़ने के लिए कोलकाता मैडिकल कालेज चली गई. रूबी अब कुछ ज्यादा आजाद थी. एक दिन अनिकेत को बड़ी जोर से पेटदर्द की शिकायत हुई.

बेटी के औपरेशन से कुछ ही महीने हुए थे उन्हें शांति मिली थी. अनिकेत रूबी को और परेशान करना नहीं चाहते थे. अनिकेत ने आंखें मूंद लेने में ही अपनी भलाई सम?ा. रूबी का अपने मुताबिक अनिकेत को चलाना चलता रहा.

इधर, टाटा ट्रेनिंग सैंटर में कई बार जबरदस्त व्यायाम के दौरान अनिकेत को जोरों का पेटदर्द हुआ, लेकिन बात आईगई हो कर ही रह गई.

‘‘अभी तो 10 दिन बाकी हैं, यार. अभी से इतनी छटपटाहट हो गई है तुझे रूबी भाभी के लिए?’’ सुबह के 6 बज रहे थे इस समय. ट्रेनिंग कैंपस के विशाल हरी व नरम घास के मैदान में आसपास दौड़ते वक्त पवन ने अनिकेत से कहा.

अनिकेत दौड़ता हुआ चुप रहा और पल में खड़ा हो कर सुस्ताते हुए पूछा,
‘‘कैसे समझे?’’
‘‘समझना क्या है, तू बड़ी गहरी चिंता में है, देख कर ही पता चलता है,’’ पवन ने कहा.
‘‘सो तो हूं.’’ वे दोनों अब पैदल ही वापस अपने कमरे में आने लगे थे.
थोड़ी चुप्पी के बाद अनिकेत ने कहा, ‘‘यार, मैं रूबी को ले कर टैंशन ले रहा हूं. बेटी मैडिकल चली गई है, रूबी कुछ बिंदास किस्म की है, जैसे उस ने शेखर को ठहरा लिया. कुछ ठीक नहीं लग रहा. सोचता हूं, ट्रेनिंग जाए भाड़ में, कल ही लौट जाऊं.’’
‘‘अरे, हद है. 2 दिन पहले भी जाएगा तो यहां इतनी मशक्कत के बाद ठेंगा ही मिलेगा. अभी तो 8 दिन बाकी हैं. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद अपने को इंक्रीमैंट मिलना है, प्रमोशन का रास्ता खुलेगा. जैसेतैसे काट कुछ दिन भाई मेरे. देख, ऐसे भी रूबी भाभी ने शेखर के साथ कुछ कर लिया होगा.’’
‘‘ए, शट अप. कैसे कुछ कर लेगी?’’
‘‘अरे भाई मेरे, खफा न हो. तू जब इसी लाइन पर सोच रहा है तो बात भी यही करूंगा न. तू क्या टैंशन इस बात की ले रहा है कि रूबी शेखर के साथ भजन गा रही है. सोच तो तू भी वही रहा है जो मैं बोल रहा हूं. तो मैं क्या बोल रहा हूं कि कुछ किया नहीं होगा तब भी सब सही मिलेगा और जो उन की नीयत गलत हुई तो भी लौट कर तुझे कुछ मिलेगा नहीं. क्या शेखर रुक कर तेरा इंतजार करता रहेगा कि कब तू पहुंचेगा और उसे एक झापड़ लगाएगा? क्या है मेरे दोस्त, ऐसे भी किसी की देह में कुछ लगा हुआ नहीं है जो है, सो सोच में है. अब मुझे ही देख ले. मैं अपनी बीवी की माला नहीं जपता. अपनी मरजी और खुशी देखता हूं. वह संत बनी बैठी है, उस की मरजी.

‘‘तू रूबी को किनारे कर और खुद की जिंदगी देख. अपना पैसा और कैरियर देख. अच्छा रुतबा रखेगा, लड़कियां आती रहेंगी. शरीर, पैसा और रुतबा फेंको तो ऐसी लड़कियां भी हैं जिन्हें मर्दों के शादीशुदा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

पवन ने अनिकेत को अपनी तरफ करने का भरसक प्रयास किया, जैसा कि अकसर ऐसे लोग करते हैं. लेकिन अनिकेत पर खास फर्क पड़ता नहीं दिखा.

क्या सच में रूबी ने शेखर को रात अपने घर ठहराया था या अनिकेत यों ही ज्यादा दहशत में था? अनिकेत जानना चाहता है लेकिन क्या रूबी उसे सच बताएगी? रूबी का कहा हुआ सच ही होगा, इस की क्या गारंटी है? अंदर धुंए का सैलाब था, अनिकेत रूबी में ही रोशनी की तलाश करता था.

वह रूबी के पास वापस आ गया था. रोज की जिंदगी और औफिस चल रहे थे. अनिकेत की फिर पत्नी सेवा शुरू हो गई थी. बेटी मैडिकल की पढ़ाई के लिए कोलकाता में थी तो औफिस से आने के बाद रूबी की फरमाइश होती कि अनिकेत उसे बाहर घुमाने ले जाए और अलगअलग रैस्तरां में खाने का आनंद उठा कर वे घर लौटें.

रूबी की फरमाइशों को अनिकेत टाल नहीं पाता और कह भी नहीं पाता कि कुछ महीनों से उसे पेट में अकसर दर्द की शिकायत रहती है और कुछ दिनों से उसे ब्लीडिंग की शिकायत भी दिख रही है.
जब वह अपने लिए घर पर कुछ सादा खाना बनाने लगता तो रूबी उसे ताने देती. ‘‘हो गया फुस्स, ताकत जा रही है मर्द की.’’
अनिकेत को बुरा लगता था, वह छिपा कर मैडिकल शौप से ही कुछ दवा ले लेता ताकि रूबी के सामने फिर बेइज्जत न होना पड़े.

एक रात अनिकेत की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी और रूबी के मानसिक सहारे की उसे बहुत जरूरत थी. वह अंदर से शेखर की बात को ले कर बेचैनी महसूस कर रहा था. उस से आखिर रहा नहीं गया और उस ने पूछ लिया, ‘‘रूबी, तुम ने उस रात शेखर को यहां रोका था? मुझ से सच कहना. कभीकभी तुम मिसिंग लगती हो, जैसे कहीं व्यस्त हो.’’
‘‘तुम अपनी चिंता करो, अनु. शेखर को छोड़ो. देखो, तुम्हारी हालत कितनी खराब हो रही है. तुम फालतू बातें क्यों सोचते रहते हो? चलो कल सन्डे है, हम कहीं घूम आते हैं.’’

अनिकेत रूबी के साथ खुश रहना चाहता था, वह जीना चाहता था. समझते हुए भी कि इसी बहाने रूबी बाहर घूमने जाना चाहती है और उसे अनिकेत की नहीं, एक ड्राइवर की जरूरत है फ्री में, वह रूबी की हां में हां मिलाता रहा. अगले दिन शाम के 3 बजे लगभग वे दोनों घूमने निकले.

अनिकेत कार ड्राइव करते हुए खुश होने की कोशिश कर रहा था. अचानक उस के पेट में तेज दर्द उठा, इतना कि उस पर बेहोशी सी छाने लगी. रूबी को कार चलाना आता नहीं था, क्योंकि उसे सीखने में खास रुचि कभी नहीं रही. जैसेतैसे अनिकेत ने अस्पताल तक कार ड्राइव की.

चैकअप होते ही डाक्टर ने अनिकेत को तुरंत अस्पताल में एडमिट कर लिया. कई सारे टैस्ट भी तुरंत ही किए गए. 5 दिनों के अंदर अनिकेत को कैंसर अस्पताल रैफर कर दिया गया.

पवन, रूबी का भाई और रूबी ने मिल कर अनिकेत को कोलकाता के कैंसर अस्पताल में भरती करवाया.

कैंसर अस्पताल में अनिकेत के शिफ्ट होने पर रूबी के सामने अपने पति की तीमारदारी का सवाल खड़ा हो गया. उस की आजादी और खुद के लिए निकलने वाला वक्त अब अगर अनिकेत के पीछे जाया होता रहे तो यह रूबी के लिए कोई कम मुसीबत नहीं थी.

अनिकेत द्वारा खरीदा और बनवाया गया रायपुर का आलीशान फ्लैट रूबी का पसंदीदा था और वह वहीं रहना चाहती थी. वह बेहद परेशान सी होने लगी. बीमारी उसे ऐसे भी अच्छी नहीं लगती थी. उलटी करता, खून बहाता, खांसता, दर्द से कराहता अनिकेत रूबी को डराने लगा था.

कोलकाता और अनिकेत यानी एक और बीमारी से सामना. अनिकेत की मां भी कोलकाता में अपने घर में रहती थी. अनिकेत के बाद उन का एक और बेटा था जो विदेश में रहता था. मां यहां अकेली थी. अब पतिविहीन अनिकेत की मां कोलकाता आई हुई इकलौती बहू से कुछ तो उम्मीद लगाएगी. हुआ न, बीमारी से सामना.

मसलन, रूबी की बदनउघाड़ू ड्रैसें सास को सताएंगी. दिनरात पति की ही सेवा करेगी और सास के कहने पर उठेगीबैठेगी. इन उम्मीदों पर खरा न उतरने पर दिनरात ताने सुनेगी.

रूबी यानी आंखों में मदहोशी, गालों में करंट सी चटक लाली, होंठ कटार और आंखों में धनुष की टंकार. वह बनी ही पुरुषों को चित करने के लिए है. क्यों लोग उसे समाज के बड़ेबड़े धार्मिक कानूनों के पिंजरे में डालने की चाहत रखते हैं.

एक अनिकेत का दोस्त पवन ही उसे खूब पसंद करता है. वह पवन की आंखों में ऐसा कुछ देखती है जो पवन अनिकेत को दिखाना नहीं चाहता. शायद पवन रूबी जैसी स्त्रियों को पसंद करता है जो बिंदास हों. पवन को उन से खुलने में कोई अपराधबोध नहीं होता. वरना कई ऐसी स्त्रियों से भी वह घुलमिल चुका है जो जीना तो अपनी मरजी से चाहती हैं, पराए मर्दों से करीबी भी चाहती हैं लेकिन बड़ा सा तोप नाक पर चढ़ाए घूमती हैं कि कोई मर्द खुद से खुल गया तो वह चला देंगी तोप.

शराब में क्या है मदहोशी, कबाब में क्या है मजा तो शबाब यानी औरत की खूबसूरती तो दोनों का कौकटेल है- मदहोशी और मजा का कौकटेल. और पवन के लिए स्त्री का मतलब बस इतना ही है. रूबी को भी ऐसे ही मर्द दिल से पसंद हैं जो पलपल उस के शरीर और वासनाओं की कद्र करें. अनिकेत क्या है, सिर्फ रूबी की ख्वाहिशों की खाली गगरी लगातार भरने वाला एक लोटा.

उधर, पवन भी अपनी सलीकेदार, सभ्य, सुसंस्कृत पत्नी से आजिज आ चुका है. उसे रूबी में अपनी चाहत दिखती है, इसलिए अनिकेत को कैंसर अस्पताल में भरती करवाने के बाद से वह रूबी के आसपास मक्खी की तरह मंडरा रहा है.
बैड पर पीला सा पड़ा था अनिकेत. बीमारी को रूबी के तानों से डर कर दबाते हुए वह अब चौथे स्टेज इंटेस्टाइन कैंसर में पहुंच चुका है.

अनिकेत में मगर तब भी जीने की ललक इस जानकारी और स्वीकृति से ज्यादा थी कि वह शायद अब मरने वाला है. उम्मीदों का बुझता दीपक जब मद्धम हो आता है, सात सूरज की रोशनी जैसे एकसाथ उस की बुझती लौ में जल उठती है.

पवन आ कर उस के बैड पर बैठा, समझ गया कि अनिकेत ज्यादा दिन का नहीं है. छोटा सा गीत उस के अंदर कहीं से गुनगुना उठा. उस ने रूबी को देखा. पास बैठी रूबी ने भी उस की ओर देखा. यह दृष्टि पति के अभाव की नहीं, किसी नए भाव की थी.
अनिकेत को ढाढ़स बंधा कर पवन ने रूबी से कहा, ‘‘चलो चल कर पूछ आते हैं कि अनिकेत को मुंबई रैफर करेंगे क्या. यहां पता नहीं क्या ट्रीटमैंट हो रहा है.’’

अनिकेत गिड़गिड़ा उठा, ‘‘न मेरे दोस्त. यहां से कहीं नहीं जाना मुझे. मां को देख पाता हूं, बेटी को देख लेता हूं, रूबी भी है. मुंबई जा कर अंत समय किसी को भी नहीं देख पाऊंगा.’’
निर्दयी लोगों के सामने कितना ही मजबूर और सरल इंसान विपत्ति में पड़ा खड़ा हो जाए, वे अपने स्वार्थ से विचलित नहीं होते.

रूबी समझ रही थी पवन की मंशा. चाहे रूबी हो या पवन, दोनों को अनिकेत के लिए पीड़ा उठाने की कोई जल्दी नहीं थी. वे तो दोनों अनिकेत को मूर्ख बना कर यहां से साथ उठना चाह रहे थे.

अनिकेत को ढाढ़स बंधा कर पवन ने रूबी को संग कर लिया, ‘‘चलिए भाभी, डाक्टर से मिल कर आगे क्या करना है, पूछ लेते हैं.’’ दोनों अनिकेत से नजरें मिलाए बिना ही साथ उठ गए.
यहां भी रूबी ने अपनी ड्रैस और सजने का पुराना अंदाज नहीं छोड़ा था. वही स्लीवलैस क्रौप टौप और नी लैंथ की साइड कट टू पीस. कोई भी ड्रैस वैसे बुरी नहीं होती अगर समय और स्थिति के अनुरूप पहनी जाए. खैर.

अस्पताल के कौरिडोर में पवन और अनिकेत साथसाथ चल रहे थे और दोनों ही जानते थे कि वे अनिकेत के लिए डाक्टर से मिलने नहीं जा रहे थे. पवन आतेआते रूबी के इतने करीब आ चुका था कि रूबी के हाथ से उस का हाथ छू जाए. हाथ छूते हुए पवन ने उसे पीछे से जकड़ कर कहा, ‘‘अनिकेत और तुम्हारे लिए मैं बहुत बुरा महसूस कर रहा हूं, लेकिन कर तो मैं बस इतना ही सकता हूं कि तुम्हारे अकेलेपन और मुश्किलों में मैं तुम्हारा साथ दूं.’’

इस अच्छाई की महिमा रूबी खूब समझती थी. रूबी भी खुल कर इस अच्छाई का लाभ लेना जानती थी.
ज्यादा दिन नहीं लगे. अनिकेत चल बसा.
पवन अब शिरोमणि था. दोस्त के काम पूरे होने और अंतिम क्रियाकर्म के बाद बचेखुचे रिश्तेदारों के रवाना हो जाने तक पवन अनिकेत के परिवार के साथ लगा रहा. पहचान वालों ने पवन की भूरिभूरि प्रशंसा की. पवन को मालूम था आम के आम गुठलियों के दाम कैसे वसूलते हैं.

पवन की 48 वर्षीया पत्नी अनीशा एक टीचर थी और स्कूल से फुरसत मिलते ही वह घर और परिवार के लोगों के कामों में जुट जाती. 18 साल का बेटा और 15 साल की बेटी हमेशा मां की रट लगाए रहते. बूढ़े सासससुर भी अनीशा की जिम्मेदारी में थे. घर की साजसज्जा तो थी ही.

पतिव्रता नारियां जरूरी नहीं कि पति की प्यारी हों ही और यह सच अनीशा भी जानती थी कि पति के मनमुताबिक हर काम करने की कोशिश से भी वह पति का मन मोह नहीं रही, तब भी कर्तव्य के खूंटे से बंधी जीवनभर एक ही पतीले में मुंह फेरते रहने की संकल्पना है उस में. इस से पवन का क्या जाता है. कुछ भी नहीं. उलटा, आजकल वह ज्यादा ही अनीशा पर चिल्लाता है, खफा होता है.

रूबी का स्वाद मिल रहा था तो अनीशा को नकारा साबित करना ही था. आनंद चाहिए मगर अपराधभावना का बोझ नहीं चाहिए. जिन का अंतर्मन शक्तिशाली नहीं होता, वे ऐसे बाहरी उपायों से खुद को शांत कर लेते हैं.

अनीशा को इतना बोध तो था ही कि पवन के किस फोन का क्या मतलब था. ऐसे भी उस के पवन को ले कर बीसियों दुखदायी अनुभव थे. फोन बजते ही जब पवन सड़क पर निकल जाए या व्हाट्सऐप पर जल्द टाइप करने लगे या फोन काट दे और संदेश टाइप करने लगे तो अनीशा समझते हुए भी खुद को ढाढ़स देती कि यह सब औफिस का मामला होगा.

लेकिन, बात यह थी कि वह सब जानते हुए भी खुद को चुप करा देती थी तो जाहिर था खुद के लिए उस की अंदरूनी उमंग खत्म ही हो गई थी. बस, खींच रही थी वह जिंदगी की गाड़ी.

सुबह 5 बजे से घड़ी का कांटा उस के ललाट पर चढ़ा बैठा ऐसा तांडव करता है कि जब रात के 11 बजते हैं और रसोई का दरवाजा बंद कर बिस्तर की ओर देखती है, शरीर और मन कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर धराशायी होने को दौड़ते हैं. फिर तो पवन रौंदे या छोड़े, वह नियति की नाव पर खुद को विसर्जित कर एक मशीन के बंद हो जाने की तरह सो जाती है.

पवन की जिंदगी में क्या चलता है, अनीशा को इस की जानकारी की कोई इजाजत कभी नहीं रही. बस, एक ही आजादी है उसे- उस की खुद की नौकरी और उस के अपने कमाए पैसे.

रूबी इस वक्त पति की नौकरी हासिल करने में अपनी एड़ीचोटी का जोर लगाने को तैयार थी. उसे लोगों का यह मशविरा पसंद नहीं आ रहा था कि पति की फैमिली पैंशन ले कर वह मात्र अनिकेत की विधवा बन कर रहे और अपनी सोची हुई जिंदगी से हाथ धो बैठे. निश्चित ही अनिकेत के बाद वह अपनी जिंदगी भजनमालिनी की तरह नहीं बिताने वाली थी.

सरकारी नियम उस ने पता कर लिए थे कि विधवा पैंशन की हकदार वह तभी तक है जब तक वह दूसरे किसी मर्द को अपनी जिंदगी में न लाए या दूसरी शादी न करे. अभी रूबी को एक ऐसे आदमी की तलाश थी जो रेलवे में अनुकंपा नियुक्ति दिलवाने में उस की मदद करे.

पवन रोज ही रूबी से फोन पर बात करता और फ्लैट के लोगों की नजर में अभिभावक की हैसियत का दिखावा करते हुए रूबी से उस के घर मिलने जाया करता. इस की भनक अनीशा को भी थी क्योंकि शुरू में पति के औफिस से घर लौटने में देर होने पर वह चिंतित हो कर फोन करती लेकिन 3-4 घंटे स्विचऔफ आता और रात के 12 बजे लौट कर पवन अनीशा से काफी क्रूर व्यवहार करता. इन लक्षणों के अतिरिक्त पवन के औफिस के कुछ कुलीगों की पत्नियां भी थीं जिन्हें अच्छी तरह खबर थी कि रूबी के साथ पवन के क्या गुलछर्रे चल रहे हैं और उन्होंने प्रमाण के साथ अनीशा को पवन की खबर दे रखी थी.

अनीशा जैसी शांतिप्रिय मृदुभाषी स्त्री ऐसे बददिमाग पति से लड़ कर कुछ भी हासिल नहीं कर सकती थी, सिवा गाली और मार के. उसे घर का माहौल बिगाड़ने में कोई रुचि नहीं थी. अपने बच्चों की शांति उसे प्रिय थी अपने अधिकारों और खुशी से ज्यादा. वह पति से मन ही मन कटती रही, जैसे मिट्टी कट कर बहती रहती है धीरेधीरे, अपनी वाली जमीन से.

रूबी पति के बदले नौकरी हासिल करने के लिए पवन को शारीरिक तौर पर मालामाल कर ही रही थी तो अंदरूनी मदद से दोनों विभागीय परीक्षाएं उस ने पास कर लीं.

पति के जीवित रहते एक घरेलू औरत की तरह उस ने जिंदगी जी थी, अब कमाऊ थी और महीने के 50 हजार रुपए वह खुद कमा रही थी. जिंदगी सैट हो गई थी. उस ने अपने पुर्जेपुर्जे पर पवन को हक दे कर उस का बना हिसाब लगभग चुकता कर दिया था.

आज पवन ने बड़ी देर तक रूबी के फ्लैट की घंटी बजाई मगर दरवाजा न खुला. झल्ला कर उस ने रूबी को फोन लगाया ही था कि दरवाजा खुल गया.
‘‘अरे,’’ दोनों ही एकदूसरे को देख चौंक पड़े.
‘‘आप कैसे?’’
‘‘तुम कैसे यहां?’’
शेखर ने तौहीन से पूछा तो पवन ने भौचक हो कर प्रतिप्रश्न किया.
‘‘मुझे तो रूबी ने बुलाया है. ऐसे भी, मैं तो तब से हूं जब अनिकेत भी थे पर आप का तो हो गया न, फिर आप कैसे?’’
‘‘पूछो रूबी से. जिस नौकरी पर आजकल तुम्हारे जैसे मच्छर भिनभिना रहे हैं वह नौकरी किस ने लगवा दी, पूछो तो जरा? बुलाओ रूबी को,’’ तिलमिलाया पवन जबरदस्ती घर में घुस गया.

रूबी आराम से सोफे पर बैठी थी. पवन उस के नजदीक आ कर बैठ गया लेकिन तुरंत रूबी सामने वाले सोफे पर चली गई.

‘‘आप का चुकता हो गया, पवनजी. पिछले 6 महीने से शेखर को रोके थी मैं और आप मुझे निचोड़ रहे थे. मैं ने यह होने दिया क्योंकि मुझे भी हिसाब आता है. लेकिन शेखर अलग है, उसे मुझ से भी मतलब है सिर्फ अपने हिसाब देखनेभर से नहीं. मैं ने उसे जब तक रोके रखा, वह रुका रहा. अब आप को अपनी बीवी के पास वापस जाना चाहिए, पवनजी.’’
‘‘क्यों, शेखर को अपनी बीवी और 10 साल की बेटी के पास वापस नहीं जाना चाहिए?’’ पवन के आवेश का ठिकाना न था.
‘‘नहीं, मैं ने 2 साल पहले ही अपनी बीवी से तलाक की घोषणा कर दी है और इस के लिए अपनी बीवी को मोटी रकम भी चुकाई है ताकि रूबी को अपना सकूं. ऐसे भी एकदो महीने में तलाक के आदेश भी फाइनल हो जाएंगे,’’ शेखर ने गर्व से कहा.
‘‘क्या आप देंगे अपनी पत्नी को तलाक? बहुत रुपए लगेंगे पवनजी. फ्री में नहीं मिलती फ्रीडम,’’ रूबी भी आमादा थी पवन पर धुंआधार बरसने को.
‘‘अभी जाओ न पवनजी अपने दरबे में, आप की बीवी इंतजार कर रही होगी,’’ रूबी ने ठसक से कहा तो पवन चिढ़ गया.
छूटते ही उस ने रूबी पर तंज कसा, ‘‘आखिर एक मिला तो वह भी खुद से 4 साल छोटा. अपने से छोटे उम्र के आदमी के साथ तुम्हें शर्म नहीं आती, बेटी का भी लिहाज नहीं?’’
‘‘लिहाज की बात तो आप रहने ही दो, पवनजी. इतने तो गिरे हो कि दोस्त गया नहीं कि उस की बीवी को खा गए वह भी इसलिए कि एक मजबूर औरत को मदद की जरूरत थी. शेखर तो प्यार करता है मुझ से, इसलिए लगा पड़ा है मेरे साथ. ऐसे भी अभी आप की उम्र 52 पार है. शेखर के सामने आप कुछ लगते भी हो? ये 42 साल का और आप बूढ़े हो चले. कितने भी बाल रंगो, एकदो सालों में आप की तो नैया डूबी. औफिस के बैग में जवानी की दवा लिए घूमते हो और खुद की जवानी को ले कर न जाने किस वहम में जी रहे हो. जाओ पवनजी जाओ, हमें अपने अरमानों के सातवें आसमान पर जाने दो.

‘‘परसों हम इंडिया टूर पर जा रहे हैं. पहले साउथ जाएंगे, कुछ दिन बेटी भी हमारे साथ रहेगी. शेखर के साथ उस की भी पहचान हो जानी चाहिए जब वह शेखर के साथ मेरे रिश्ते को खुशी से मान ही गई है.
‘‘आप न, अपनी बीवी के पास ही जाओ जब तक कोई नया शिकार न मिले. आप को जानती नहीं क्या मैं?’’

गजब का शून्य सा रह गया था पवन. वापसी पर उसे एहसास होने लगा कि कितना ही स्त्रियों का मैसूरपाक बना ले वह, कभी भी स्त्रियों को पूरी तरह समझ नहीं पाएगा.

खुद की बीवी अनीशा को ही देखो, मशीन की तरह चलती ही रहती है, ड्यूटी करती रहती है. कितना ही वह चीखेचिल्लाए मगर वह बिलकुल निर्वापित दीये की तरह निर्लिप्त. कितना भी फूंक मारो- जलती रहती, रोशनी देती ही रहती. क्या अनीशा भी समझ से परे नहीं?

पवन और शेखर के बीच झेलती रूबी पति अनिकेत की मौत के बाद अपनी हृदयविदारक दहाड़ों से सभी रिश्तेदारों को विचलित कर गई थी. क्या एक स्त्री पुरुषों के लिए अपठित गद्यांश ही रह जाएगी? नहीं, तो क्यों नहीं?

Family Story In Hindi : सिबलिंग कीमती होते हैं

Family Story In Hindi :  सुबहसुबह उठते ही आकाश के फोन पर मेल फ्लैश हुआ तो वह सकते में आ गया.

“क्या हुआ आकाश, आप इतने परेशान क्यों?”

“कुछ मत पूछो नीला, मेरा भाई मुसीबत में है. उसे मेरी जरूरत है.”

यह कह कर वह आननफानन टिकट बुक कर भारत के लिए रवाना हो गया और अपने पीछे नीला को चिंतित छोड़ गया. इस से पहले आकाश कभी अकेला नहीं जाता था. उस ने मेल खोला तो उस में ब्लडकैंसर की रिपोर्ट थी.

ओह, तभी आकाश कुछ बोल नहीं पा रहा था. वह उसे पिछले 35 वर्षों से जानती है. वह जितना ही ईमानदार है उतना ही भावुक और साथ ही साथ अंतर्मुखी भी. तभी तो उस ने अपने दुख खुद तक ही समेटे रखा, उस से खुल कर कहा तक नहीं. उसे एकएक कर सबकुछ याद आने लगा. पिछले दिनों वे कैसे भावुक हो कर देश पहुंचे और उन के साथ क्याकुछ घटा था.

‘नीला, जानती हो मैं और अमन हमेशा ही मां का पेट पकड़ कर सोते थे,’ एक रविवार जब आकाश उस से अपना बचपन साझा कर रहा था.

‘और वे तुम्हारी ओर अपना चेहरा रखती थीं.’

‘उन्हें बातों में फंसा कर अपनी ओर कर लेता. कितना अच्छा था न जब तक मांपिताजी थे.’

‘सच में, जब तक सिर पर मातापिता का साया रहता है, बचपन ज़िंदा रहता है.’ यह कहती हुई नीला मानो अपने बच्चों के बचपन में खो गई.

‘अब तुम कहां?’

‘मुझे तो रौनित और नैना के बच्चों संग खेलना है. जाने कैसी जनरेशन आ गई है, शादी के 2 साल हो गए मगर ये तो खुद के ही फोटो शूट करते नहीं थक रहे.’

‘कोई बात नहीं, उन्हें उन की जिंदगी जीने दो.’

‘अरे, हम 5 साल बाद ऐसे थोड़े ही रह जाएंगे, फिर कैसे बच्चों की मालिश होगी.’

‘जैसी तुम्हें तेलमालिश की इजाज़त होगी.’

‘अरे हां, इन के विदेशी पार्टनर हैं. यहां छठी-बरही थोड़े ही होती है.’

दोनों बिस्तर के अपने कोनों में सिमट कर सो गए. 60 साल की उम्र ही ऐसी होती है जब काम और परिवार दोनो ही ओर एकरसता आ चुकी होती है और जीवन में खालीपन भरने लगता है.

अगली सुबह जब नीला जागी तो सूर्य के प्रकाश से आकाश का चेहरा चमक रहा था. वह वौक से लौट आया था और भारत जाने का टिकट बुक कर रहा था.

‘मुझे तुम्हारा इरादा पहले ही समझ में आ गया था जब तुम बचपन याद कर रहे थे.’

‘हाहाहा, 35 वर्ष का साथ एकदूसरे को समझने के लिए काफ़ी होता है.’

चाय का कप होंठों पर लगाते ही उसे अपने संघर्ष के दिन याद आए जब वह नईनई शादी के बाद अटलांटा आई थी. तब सस्ता घर किराए पर लिया था जो सिटी से दूर था. बाज़ार से सामान उठा कर लाने में बर्फीली पहाड़ी पर खींचना पड़ता था. फिर घर के सारे काम अपने ही हाथों करना भी तो एक चैलेंज था.

विदेश में रहना जितना सुखद दिखता है उतना होता नहीं. एक तनख्वाह में मुश्किल से गुजारा होता है मगर उस ने भी कमर कस ली थी. छोटे से गांव से आए आकाश के बड़े सपने और उन्हें पूरा करने की लगन में उस ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी.

पहले घर में रह कर बच्चों की देखभाल करती रही मगर जब वे स्कूल जाने लगे, उस ने बच्चों के स्कूल में ही नौकरी कर ली. घर,बाहर,बच्चे,स्कूल सबकुछ स्वयं संभाला तभी तो आकाश नामी डाक्टर बन सका और अपना अस्पताल चला रहा है. और तो और, बच्चे भी डाक्टर बन गए तो अस्पताल की जिम्मेदारी भी उन्होंने बखूबी संभाल ली.

अब अकसर दोनो फुरसत में रहते हैं और कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं. उस ने चाय के खाली प्याले उठाए और रसोई में आ गई. फ्रिज में जो सब्जियां पड़ी थीं, पहले उन्हें ख़त्म करना था. अगले दिन से गांव की हरी सब्जियां खाने के लिए मिलेंगी, यह सोच कर ही मन झूम रहा था. रसोई निबटा कर उसे पैकिंग भी करनी थी.

‘परीक्षाएं शुरू हो गई हैं तो कोई बात नहीं, तुम हमें आखिरी परीक्षा की डेट बताओ, तब आ जाएंगे.’

आकाश फ़ोन पर था. कानों में यह बात पड़ते ही वह ठिठक गई तो आकाश कुछ झेंप गया,

‘अरे. पहले अमन ने ही कहा कि जब चाहो, आ जाओ और अब छोटे बेटे की परीक्षा की बात कह रहा है. लगता है उस की बीवी ने मना कर दिया होगा.’

‘मन छोटा न करो. हम होटल में रुक जाएंगे. घूमतेफिरते पहुंचेंगे, तब तक परीक्षाएं ख़त्म हो गई होंगी.’

‘यह सही रहेगा.’

आकाश के चेहरे पर वही शांत भाव वापस पा कर नीला की जान में जान आई. वे इस बार 4 साल बाद हिंदुस्तान जा रहे थे. पहले कोरोना, फिर देवर के बेटे की परिक्षाएं. अब तो हर तरह से निश्चिंत हो कर ही ससुराल आएगी.

पहले 15 दिन दक्षिण भारत की यात्रा में निकले, फिर मायके वालों से मिलने गई. वहां के बच्चों को देख काफी अचरज में थी. नब्बे के दशक में देश में इतने ब्रैंड्स नहीं थे, जो मिलता था, बच्चे वही पहनते थे. मगर इन दिनों सभी हाईफाई रहना एक स्टाइल स्टेटमैंट बना कर चल रहे थे, साथ ही, एनआरआई बूआ व फूफा पर इंप्रैशन भी जमाना चाह रहे थे.

ख़ैर, समाज में आए बदलाव के लिए वह किसकिस को जिम्मेदार ठहराती. परीक्षाएं ख़त्म होते ही अमन के परिवार से मिलने ससुराल आ गई. घर देख कर आश्चर्य से आंखें फटी की फटी रह गईं. ससुरजी के देहांत पर जब आई थी तो घर खंडहर सा दिख रहा था जो अब नवनिर्मित भवन चमचम चमक रहा था.

अच्छा तो वक्तबेवक्त जो पैसे मांगे जा रहे थे वे मकान में लग रहे थे. घर में काम करने वाली कई नौकरानियां थीं जो देवरानी के आगेपीछे डोल रही थीं. यह सब देख कर उसे चक्कर आने लगा.

वह तो चाहे अपने घर में रहे या बच्चों के पास जाए, सब्जियों को काटने-पकाने से ले कर रसोई का पूरा कार्य स्वयं संभालती थी. मगर देवरानी के पास घर की चाबी का छल्ला घुमाने के सिवा कोई काम न था.

‘ये सब कब बनाया, अमन, मुझे बताया तक नहीं?’ आकाश ने पूछा.

‘भैया, जब आप ने कोचिंग में दाखिले के पैसे दिए तो उसे मैं ने…’

‘कोचिंग के अलावा बड़ी के एनआरआई कोटा में एडमिशन के लिए भी तो तुम ने 15 लाख…’

‘भैया, बच्चे मेहनत कर रहे हैं, तीसरी बार परीक्षा दी है. सरकारी कालेज में एडमिशन दिलाऊंगा.’

‘फिर मुझ से मणिपाल मैडिकल कालेज में एडमिशन के नाम पर पैसे ऐंठना गलत है न. झू बोल कर तुम ने महल बना डाला?’

‘देखिए भैया, आप यहां रहते नहीं. लोग हंसते हैं कि बड़ा भाई अमेरिका में डाक्टर है और घर खंडहर बन गया है. मैं ने इज्ज़त बचाई है.’

‘भाई की कोई लौटरी थोड़े ही निकली है. बहुत मेहनत से कुछ कर पाया हूं. जो संघर्ष मैं ने किया है वह बच्चे न करें, इसलिए उन की शिक्षा के लिए मदद की. मगर तुम तो अलग ही किस्म के इंसान निकले. मैं यहां खुशीखुशी वक्त बिताने आया था मगर तुम ने तो मेरा दिल तोड़ कर रख दिया.’ आकाश की आंखों में आंसू थे, तभी अचानक रेखा कुछ कागज़ के पुलिंदे उठा लाई.

‘भैया, इस में दुखी होने की क्या बात है. आप लोग देशविदेश घूम रहे हैं मगर हम भी वेले नहीं बैठे. केयरटेकर रखते तो तनख्वाह देते न. समझ लीजिए वही दिया. अब आ ही गए हैं तो इन कागजों पर दस्तख़त कर के छुट्टी कीजिए.’

‘कैसा कागज़, कैसे दस्तख़त?’

आकाश की आंखें धुंधलाई थीं. भावुकतावश होंठ कांप रहे थे. जैसा भारत छोड़ कर गया था और जिसे देखनेमिलने वह आया था यहां, वैसा कुछ भी नहीं था. इस से अच्छा भारत तो उस ने अपने घर में बना रखा था जहां सभी मेहनती थे. एकदूसरे का सम्मान करते थे. छुट्टी के दिन एकसाथ बैठ कर फिल्म देखते और मिलजुल कर खाना खाया करते थे. कोई बेईमान या मुफ्तखोर न था.

पति की मनोदशा से वाकिफ नीला आगे बढ़ी. ऐसे भी स्त्रियों को जितना भावुक समझा जाता है वे उतनी होती नहीं हैं. कागजों को ठीक से देखा, तो पाया कि वे पावर औफ अटौर्नी के थे जिस पर हस्ताक्षर होते ही अमन उन का हकदार हो जाता. नीला की यह समझते देर नहीं लगी कि ये सब पतिपत्नी की मिलीजुली साज़िश थी. पहले तो घरनिर्माण की बात न खुल जाए, इस के लिए उन के आने पर रोक लगाना चाह रहे थे और जब आ ही गए तो पावर औफ अटौर्नी ले कर निश्चिंत होना चाहते थे. यही एक काम शेष था. उस के बाद अमन पूरी संपत्ति को बेचने का हकदार हो जाता.

‘देखो रेखा, अब तक जो भी तुम ने कहा, हम ने किया. हमें लगता था तुम लोग सासससुर की देखभाल कर रहे हो तो तुम्हारी हर मांग पूरी करना और बच्चों की जरूरतों का खयाल रखना हमारा फ़र्ज़ है मगर इस तरह से पुश्तैनी संपत्ति अपने नाम करने की साज़िश ठीक नहीं.’

‘हम आख़िर कब तक आप से मांग कर अपना काम चलाएंगे और पैसों का हिसाब देंगे. अब एक आखिरी काम करिए कि भैया से हस्ताक्षर करा दीजिए. हम जमीन बेच कर बच्चों की पढ़ाई और शादी करा लेंगे. आप भी खुश, हम भी खुश.’

‘इस घर में जो हम ने इतना कुछ लगाया, उस का क्या?’

‘वो हमारा मेहनताना था,’ रेखा चीखी.

नीला ने सुना था कि डौलर से रिश्ते खरीदे जाते हैं. यहां तो डौलर ने सारे रिश्ते छीन लिए थे. आकाश अभी भी हतप्रभ सब का चेहरा देख रहा था. वह अपने बचपन को जीने आया था. जिन संबंधों की मिठास की आस में आज तक जीतोड़ मेहनत करता रहा वह सब के सब अचानक मिथ्या लगने लगे. जब कुछ न सूझा तो मां का चेहरा आंखों में लिए भाई की ओर रुख कर बोला,

‘तू बता, तू क्या चाहता है?’

‘आप के पास बहुतकुछ है. यहां की संपत्ति मेरे लिए छोड़ दो.’

सहसा कानों में मां के वही शब्द गूंजे जो वह भाइयों के झगड़े सुलझाते वक्त अकसर कहा करतीं,

‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’

उस ने आव देखा न ताव, सीधे हस्ताक्षर करने के लिए कलम उठा लिया. सबकुछ दे कर भी संबंध बचाना गवारा लगा.

‘एक मिनट, आकाश, मुझे कुछ कहना है,’ नीला की आवाज़ पर आकाश की उंगलियां थम गईं. उस ने आगे कहा, ‘आज तक के आप के सभी निर्णय शिरोधार्य थे. मगर आज मुझे एतराज है. यह पैतृक संपत्ति सिर्फ़ आप दोनों भाइयों की नहीं बल्कि इस के दावेदार और भी हैं.’

चारो ओर सन्नाटा सा पसर गया. रेखा और अमन तो फुल एंड फाइनल करने पर तुले थे. भाई के स्नेह में आकाश सर्वस्व त्याग करने को तत्पर था मगर नीला के कहने पर सबकुछ थम गया.

‘यहां बराबरी के हकदार होते हुए भी हमें यहां आने के पूर्व इजाज़त लेनी पड़ती है. भविष्य में हमारे बच्चे तो इस जगह को देखने के लिए तरस ही जाएंगे. अब तो सब बराबरी में ही बंटेगा. और हमारे हिस्से में हमारा केयरटेकर रहेगा.’

उस ने धीरे से आकाश से कहा, ‘जहां कमाने से ज्यादा गंवाने को तैयार हैं और सारी संपत्ति बेचने पर आमादा हैं तो कम से कम आधा तो बचा लें.’

नीला के इस व्यावहारिक रूप से अनभिज्ञ आकाश अवाक रह गया. मगर उस वक्त उसे इस विषय में कुछ भी कहनासुनना ठीक नहीं लगा. सो, वापस अटलांटा लौट गया. अब इस बात को 2 महीने बीते कि भतीजी के मेल ने उन को वस्तुस्थिति की जानकारी दी.

‘चाचाजी, पिताजी की मैडिकल रिपोर्ट आई है. उन्हें ब्लडकैंसर है. हर 2 दिन में खून बदलना पड़ता है जिस में डेढ़दो लाख रुपए का खर्चा आता है. उन के इलाज़ में सारी जमापूंजी निकल गई है, अब, आप का ही सहारा है.

‘आप की निधि.’

फास्टेस्ट फ्लाइट ले कर आकाश भाई के पास पहुंचा तो उस के चेहरे को देखते ही आंसुओं में डूब गया.

“इतना कुछ हो गया और तुम ने कहा तक नहीं?”

“किस मुंह से कहता, भैया.”

“मैं आ गया हूं, सब ठीक कर दूंगा.”

वाकई उस ने अमन के इलाज़ में जमीनआसमान एक कर दिया. अपने बैचमेट्स की मदद से एम्स में इलाज़ कराने लगा जहां एक से बढ़ कर एक कैंसर स्पैशलिस्ट थे. जब स्थिति थोड़ी संभल गई तो नीला को भी मदद के लिए बुला लिया. इस बार रेखा नज़रें नहीं मिला पा रही थी.

“दीदी, भैया, आप से बराबरी करने में मैं ने अमन की साझेदारी में न जाने कितने अपराध किए, फिर भी आप ने इस आपातकाल में हमारी सहायता की. आप का यह एहसान आजीवन नहीं भूलूंगी.”

“नहींनहीं, एहसान की क्या बात है. भाई तो भाई है. मेरा भाई ठीक हो जाए तो मुझे सब मिल जाएगा. भाई की अहमियत समझाते हुए मां क्या कहती थीं, याद है- ‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’”

अमन के लब फड़फड़ाए तो आकाश ने उसे सीने से लगा लिया. मांबाप से छिप कर निधि ने जो मेल किया था उस से ही पूरे परिवार का मेल संभव हो सका, जिसे देख कर वह आत्मविभोर थी. Family Story In Hindi

लेखिका : आर्या झा

Family Story : अनकहे शब्द – स्त्री की मनोदशा व्यक्त करती कहानी

Family Story : जब मैं बोलती थी तो घर के सभी लोग कहते, ‘कितना बोलती हो,’ और आज जब मेरे मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा तो सभी चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं.

आज मैं कुछ नहीं कहना चाहती, कुछ भी नहीं.क्यों कहूं? हां, जिस प्यार को, जिस अपनेपन को तरसती रही उम्रभर, आज वह बिन मांगे मिल रहा है. बजाज साहब (पति) अपनी गोद में मेरा सिर रखे हुए हैं, बच्चे (बेटाबहू) सब के सब अपना कामकाज छोड़ मेरे पास हैं. सब की आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं. सब मुझे जबरदस्ती डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहे हैं, लेकिन आज मुझे कहीं नहीं जाना, कहीं नहीं. क्यों जाऊं?

पता उन्हें भी है कि अब मेरा आखिरी समय है. अब डाक्टर के पास जा कर कुछ नहीं होगा. लेकिन फिर भी बारबार ले जाने को कह रहे हैं. आज सब चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं, कुछ कहूं. मगर पहले जबजब भी कुछ कहना चाहा तो मेरे होंठों पर ताला जड़ा जाता रहा तो फिर आज क्यों बोलूं, क्यों अपने जिगर के जख्मों को खोलूं, क्या कोई अब इन पर मरहम लगा पाएगा?

आज मैं आखिरी सांसें ले रही हूं, सब मेरे पास हैं, कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ. बहू कहती है, ‘‘मम्मीजी, कुछ बोलिए न, देखिए समक्ष आप को बुला रहे हैं, आप की लाड़ली पोती को स्कूल के लिए देर हो रही है, आप को पता है न जब तक आप उस को टिफिन नहीं पकड़ातीं, वह स्कूल नहीं जाती. आप बोलती क्यों नहीं मम्मीजी, कुछ तो बोलिए.’’

अरे आज कैसे बोलूं मैं जोर से, आज तक तो हमेशा से यही सुनती आई हूं, ‘क्यों इतना चिल्लाचिल्ला कर बोल रही हो, धीरे बात नहीं कर सकती क्या, हर वक्त शोर मचा रखा है घर में.’

तो आज कैसे मैं जोर से बोलूं. मेरी तो आवाज ही बंद कर दी थी तुम ने. आज वही बहू कह रही है, ‘मम्मीजी, टीवी चला दूं आप के फेवरेट हीरो के गाने आ रहे हैं.’ जब मैं पहले कभी गाने सुनने के लिए टीवी चलाती थी तो ‘बस, इन्हें घरपरिवार की चिंता तो होती नहीं, सारा दिन यही शोरशराबा चलता है. भला इस उम्र में ये चोंचले अच्छे लगते हैं क्या?’ और आज मैं पलदोपल की मेहमान हूं शायद, कितना बोल दूंगी या कितना टीवीरेडियो सुनदेख लूंगी. पता नहीं अगली सांस आए भी या न.

‘बेटा भी तो साथ है, उस के भी मन में न जाने क्याक्या चल रहा है, ‘मम्मा, कुछ बोलो न, कुछ तो कहो, चुप सी क्यों हो, कोई तकलीफ है तो बताओ, कुछ चाहिए तो कहो न, मम्मा. अरे शिवानी, मम्मा के लिए कुछ बना कर लाओ न. तुम भी न, खुद नहीं पता चलता कि सुबह से मम्मा ने कुछ नहीं लिया. कुछ काम भी कर लो. अच्छा ऐसे करो, थोड़ा सा सूप ही बना दो मम्मा के लिए.’’ और यही बेटा हर समय यही कहता था, ‘बस, आप को तो अपने से मतलब है. आप तो समय पर खापी लो, बाकी कोई खाए या न खाए.

‘शिवानी बेचारी ने सुबह से कुछ नहीं खाया. है कोई आप को उस की चिंता? सारा दिन घर में खटते रहो. फिर भी यही सुनने को मिलता था कि करना तो कुछ है ही नहीं न’ आप को बस, सिर्फ अपनी और पापा की चिंता रहती है. कोई खाए या भूखा रहे, आप को इस से कोई मतलब ही नहीं’ और आज मेरी इतनी चिंता और पति महोदय, वे भी तो बेटे संग सब कामकाज छोड़ घर पर हैं आज. ‘‘आशा, आशा, मेरे माथे पर प्यार से हाथ रख कर बोलो न आशा, कोई तकलीफ हो रही है तो बताओ न, ऐसे चुप मत रहो, कुछ तो बोलो.’’ और जब मैं पहले बोलती थी तो तब सुनना ही नहीं.

जैसे ही मैं ने कोई बात शुरू की, उठ कर कमरे से बाहर चले जाते थे और उस पर अगर कभी कहा कि कोई तकलीफ है, किसी डाक्टर के पास ले चलो तो हमेशा पहले तो हंस कर टाल देना कि यह कोई इतनी बड़ी बात है, ठीक हो जाएगा और अगर ज्यादा कहो तो ‘हां, देखता हूं, किस दिन समय मिलता है, ले जाऊंगा.’ बेटे से कहो तो ‘मम्मा, मैं अकेला क्याक्या करूं. पापा से कहो न. अब क्या पापा इतना भी नहीं कर सकते. माना हमारी मदद नहीं कर सकते, कम से कम आप को तो डाक्टर के पास ले जा सकते हैं.’

हां, 6 महीने ही पहले एक दिन अचानक मुझे चक्कर आया था. घर पर कोई नहीं था. पति दुकान पर थे. बेटाबहू बच्चों की छुट्टियां थीं तो सिंगापुर घूमने गए हुए थे. मुझे कुछ नहीं पता कितनी देर तक मैं बेहोश पड़ी रही. जब होश आया तो काफी समय बीत चुका था. घर पर तो कोई था नहीं, सोचा, दुकान पर इन्हें फोन कर के बुला लूं कि किसी डाक्टर के पास ले चलो.

पहले भी कभीकभी ऐसे चक्कर आ जाते थे पर फिर खुद ही संभल जाती थी. कभी किसी से कहा ही नहीं और कहूं तो किस से, कौन है जो सुनेगा. फोन किया दुकान पर तो जैसे ही हैलो कहा, आगे से आवाज आई, ‘क्या हुआ अब, कभी तो शांत रहो, काम है मुझे, बाद में बात करूंगा.’ चुपचाप फोन रख दिया और बेमन से खुद ही उठी, डाक्टर के पास जाने को तैयार हुई. सोचा, अपने लिए खुद ही सोचना पड़ेगा.

अगर बिस्तर पर पड़ गई तो कोई नहीं करने वाला, इसलिए ठीक रहना है तो इलाज तो कराना होगा. चल मना, खुद ही चल कर डाक्टर को दिखा आऊं. अस्पताल गई, परची बनवाई और सीधी अंदर डाक्टर के पास चली गई, बहुत अच्छे से जानपहचान जो थी. बाहर बैठ कर इंतजार नहीं करना पड़ा.
‘गुड मौर्निंग डाक्टर’.
‘गुड मौर्निंग आशा. आज आप कैसे, सब ठीक है न, काफी समय बाद दर्शन दिए,’ और हंस पड़े डाक्टर साहब.
‘अरे डाक्टर साहब, सब ठीक है. बस, आज ऐसे ही चक्कर सा आ गया.’ मैं ने डाक्टर को सारी बात बताई, यह भी बताया कि डाक्टर, मेरी पीठ पर भी कोई गांठ सी है, पहले तो छोटी सी थी पर अब कुछ समय से लगातार बढ़ रही है. जरा वह भी देखिए.’

‘अरे, दिखाइए गांठ कैसी है. वह तो आप को दिखानी चाहिए थी. गांठ देख कर उन्होंने कहा, कब से है यह गांठ, लापरवाही ठीक नहीं. चलिए, पहले तो आप ब्लड टैस्ट करा लें, फिर रिपोर्ट आने पर मैं देखता हूं.’
‘ओहो डाक्टर साहब, अब इतनी सी बात के लिए क्या टैस्टवैस्ट. बस. कोई दवा लिख दो.’
‘यह इतनी सी बात नहीं है. आप बहुत लापरवाही करती हैं. कहां हैं बजाज साहब, जरा उन्हें बुलाओ, उन से बात करते हैं.’
‘डाक्टर साहब, वे तो आज टूर पर गए हैं, शहर से बाहर हैं,’ झुठ बोल दिया, इज्जत जो रखनी थी. झुठ तो बोलना ही पड़ेगा न. इतनी देर में टैस्ट की कुछ रिपोर्ट्स आ गईं, कुछ दोतीन दिनों के बाद आनी थीं. जो रिपोर्ट्स आई थीं उन्हें देख कर लग रहा था कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है जो रिपोर्ट देख कर डाक्टर की आंखें फैल गई थीं. साथी डाक्टर से इंग्लिश में कुछ बात की उन्होंने और मुझे थोड़ी सी दवा लिख दी थी. बाद में 3 दिनों बाद आने को कहा और जोर दे कर कहा कि बजाज साहब (पति) को साथ ले कर आऊं. लेकिन किसी को समय ही कहां है मेरे लिए. तीन दिनों बाद भी मैं अकेली ही गई डाक्टर के पास.
‘कहिए डाक्टर साहब, क्या आया रिपोर्ट में?’ मैं ने हंस कर कहा.
कुछ नहीं कहा डाक्टर ने, बस, इतना कहा, ‘बजाज साहब नहीं आए?’
मैं ने कहा, ‘आ रहे थे, कोई जरूरी काम आ गया अचानक तो जाना पड़ा.’
‘तो बेटे को साथ ले आते.’

‘दरअसल बच्चे बाहर गए हैं घूमने, छुट्टियां हैं न. क्या हुआ, आप मुझे बताएं, बीमार तो मैं हूं. ऐसा क्या हो गया मुझे, मरने वाली तो नहीं न,’ मैं ने हंस कर कहा.
‘आशाजी, दरअसल आप फिर कभी एकदो दिन में किसी को साथ ले कर आना, फिर बात करेंगे.’
‘अरे डाक्टर साहब, किसी को साथ क्या लाना, जो भी है आप मुझे बताइए न. कुछ भी हो, आप बता दो. मैं घबराने वालों में से नहीं हूं. आई एम ए स्ट्रौंग वुमन.’
‘दरअसल यह छोटीमोटी बात नहीं है. न ही इसे ज्यादा देर टाला जा सकता है.’
‘अरे, आप बताओ तो सही, ऐसा क्या हो गया मुझे?’ मैं फिर से हंस पड़ी. मेरे बहुत जोर देने पर जब डाक्टर ने देखा कि न तो ये किसी को साथ लाने वाली है और न ही बिना जाने ये यहां से जाने वाली है तो कहने लगे, ‘‘दरअसल जो आप की पीठ में गांठ है वह कैंसर का गंभीर रूप ले चुकी है और आप के दोनों गुर्दे भी लगभग खत्म हैं. आप को जल्दी ही कहीं किसी बड़े अस्पताल में जा कर इलाज कराना चाहिए. मेरे विचार से तो आप को आज ही जाना चाहिए. आप पहले ही बहुत लापरवाही कर चुकी हैं. अगर अब भी आप ने लापरवाही की तो सही नहीं होगा.’
‘अधिक से अधिक कितना समय है मेरे पास?’ मैं ने हंस कर कहा.
‘ज्यादा से ज्यादा 6 महीने. अगर इलाज सही हो जाए तो कुछ समय और मिल सकता है.’
‘‘जी डाक्टर, मैं आज ही घर में यह बात करती हूं और हम जल्दी कहीं बड़े अस्पताल जाते हैं.’
वहां तो मैं यह कह कर घर आ गई लेकिन रास्तेभर यही सोचती रही, क्या किसी के पास वक्त है मेरे लिए कि मेरी बात सुने या मुझे कहीं इलाज के लिए ले कर जाए. अरे, आज 10 दिन से कह रही हूं सब को कि मुझ से खाना नहीं खाया जा रहा, दांतों में बहुत तकलीफ हो रही है. बेटाबहू बस बोल तो देते हैं कि डाक्टर को क्यों नहीं दिखा आते. पति कहते हैं मेरे पास समय कहां है, जब समय होगा चलेंगे.
अगर खुद पास वाले क्लिनिक पर जाने लगती हूं तो अभी आप जा रहे हो, खाने का समय भी हो गया है, खाना कौन देखेगा; कभी बहू को कहीं जाना है तो घर पर बच्चों को कौन देखेगा. बस, यही हर वक्त, और उस पर फिर कहेंगे, ‘आप जाते क्यों नहीं डाक्टर के पास?’ सोचा, चलो आज बजाज साहब से रात में बात करती हूं, कल तो बच्चे भी आ जाएंगे घूम कर, फिर उन से भी बात करूंगी. लेकिन मन नहीं है कि मैं अपना इलाज कराऊं. किसलिए और क्यों? क्या रखा है अब जिंदगी में, ऊब गई हूं इस जिंदगी से.
रात को खाने के बाद आ कर पास बैठी, बात शुरू करने लगी तो उन्होंने कहा, ‘सोने दो यार, थक गया हूं. तुम्हें तो बोलने के सिवा कोई काम नहीं है. आराम करने दो मुझे.’ यह सुन चुपचाप उठ गई.
अगले दिन बच्चे आ गए. दिनभर कुछ नहीं कहा, कहते तो वे कहते, अभी घर में कदम ही रखा है, आते ही आप की रामकहानियां शुरू. रात को मौका देखा तो बच्चों से बात करने लगी, ‘समक्ष बेटा, मुझे 2 दिन पहले चक्कर आ रहे थे तो…’ अभी इतना ही कह पाई कि बहू बोल उठी, ‘मम्मा, आप भी न, पापा के साथ डाक्टर पास चले जाते न, आप देख रहे हो हम कितना थके हुए हैं सफर से. अब आप को कल डाक्टर के पास ले जाएं लेकिन कल से औफिस भी जाना है हमें, कहां समय मिल पाएगा.’
‘ठीक है बेटा, मैं दिखा दूंगी,’ इतना कह कर उठ गई थी वहां से.
लगभग 6 महीने बीत गए इस बात को. किसी ने मेरी सुनी नहीं और किसी से मैं कह नहीं पाई. बस, अपनेआप को जैसेतैसे संभाले हुए हूं.

आज सुबह भी वही रूटीन है, बच्चे स्कूल चले गए, बजाज साहब को भी दुकान की जल्दी और बेटेबहू को भी औफिस जाने की जल्दी है. लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही पर किसी का ध्यान मेरी तरफ नहीं है. सब को अपनी जल्दी है. साहब आवाज लगा रहे हैं, ‘‘जल्दी नाश्ता दो,’’ बेटा आवाज लगा रहा है, ‘‘मम्मा, जल्दी से नाश्ता दो, लंच पैक हो गया क्या? जल्दी करो न मम्मा, हम दोनों लेट हो रहे हैं.’’

अचानक मुझे कुछ नहीं पता चलता, बहुत संभालने की कोशिश की खुद को, लेकिन नहीं संभाल पाई और किचन में ही बेहोश हो कर गिर गई. सब अपने कमरों में हैं. एसी चल रहा है. गरमी काफी है. बाहर कोई नहीं आता. सबकुछ कमरे में चाहिए सब को. जब लंचबौक्स नहीं पहुंचा कमरे में, बेटा झुंझलाता हुआ बाहर निकला, ‘‘मम्मा, क्या है यार, हम लेट हो रहे हैं और आप ने अभी तक लंच नहीं पैक किया?’’ आवाज लगाता हुआ बाहर आता है तो देखता है मैं किचन में बेहोश पड़ी हूं.

‘‘पापा, पापा, मम्मा बेहोश हो गईं. अरे शिवानी, आना जरा, मदद करो. मम्मा को अंदर लिटाते हैं, शायद गरमी की वजह से बेहोश हो गईं. और देखो, जरा लंच पैक हुआ या नहीं. साहबजी भी उठ कर आ गए. कमरे में मुझे ले जा कर बैड पर लिटाया. पापा आप थोड़ा लेट चले जाना दुकान. हमें देर हो रही है औफिस के लिए, सो हम निकलते हैं. शिवानी, अगर लंच नहीं बना तो रहने दो, बाजार से कुछ ले लेंगे. चलो, अब चलें.’’
10 बज गए. अभी तक मुझे होश नहीं आया. साहब को थोड़ी चिंता हुई. समक्ष को फोन किया, ‘‘समक्ष बेटा, तेरी मम्मी को अभी तक होश नहीं आया. कैसे करूं? मुझे दुकान के लिए देर हो रही है, क्या करें?’’
‘‘अरे, करना क्या है पापा, डाक्टर अंकल को फोन कर लो न.’’
‘‘ठीक है, अभी करता हूं.’’ डाक्टर को फोन किया तो डाक्टर से पता चला कि ये तो पिछले 6 महीने से बीमार हैं, और डाक्टर ने किसी बड़े अस्पताल जा कर इलाज करवाने को कहा था.
‘‘लेकिन डाक्टर साहब, हमें तो इस सिलसिले में कुछ भी पता नहीं.’’
फिर भी डाक्टर घर आते हैं और सबकुछ बताते हैं कि 6 महीने पहले ही इन्हें बता दिया गया था कि इन्हें कहीं बड़े अस्पताल (शहर) में इलाज के लिए जाना चाहिए. तब मेरी कंडीशन देख कर डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता. यह सुन कर साहब भौचक्के रह जाते हैं, फौरन समक्ष को फोन लगाते हैं. जैसे ही समक्ष को पता चलता है कि मां न जाने कितने पल, कितने घंटे या शायद दोचार दिन की ही मेहमान हैं तो फौरन घर के लिए बहूबेटा चलते हैं. ‘‘मम्मा, ये क्या हो गया आप को?’’ एक हकलाहट थी बेटे के लफ्जों में, ‘‘इतनी बड़ी बात, आप ने कभी बताया क्यों नहीं? ओफ्हो मां, यह क्या हो गया.’’ शिवानी मूक खड़ी देख रही है, आंखों में आंसू हैं, कुछ कहा नहीं जा रहा. ‘‘मम्मा, हमें माफ कर दो. हम ने आप की बिलकुल परवा नहीं की आज तक. कभी आप का दुख समझ ही नहीं.’’
‘‘आशा, मेरी प्यारी, यह क्या हो गया, मैं कैसे इतना निष्ठुर हो गया. मैं ने भी तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया. मैं ने तो हर दुखसुख में साथ निभाने का वादा किया था. कैसे हो गया ये सब.’’

मेरी भी आंखों में आंसू हैं लेकिन आज ये दुख के नहीं, खुशी के हैं. जो प्यार, अपनापन, जीवनभर चाहती रही, मांगती रही, वह आज बिन मांगे मुझ पर उड़ेला जा रहा है. जब कहती थी तो मुझे कोई नहीं समझता था. जब मौका था तो अपने में मस्त थे. मां को टेकन फौर ग्रांटेड ले रहे थे. आज मेरे अनकहे शब्द भी समझे जा रहे हैं, मेरे अनकहे शब्द.

Hindi Satire : विवाह करवाने वाले पंडित

Hindi Satire : पंडितजी की जिंदगी में दक्षिणा वो ईंधन है, जो उन के मंत्रों की गाड़ी को चलाता है. अब दक्षिणा का रेट कार्ड भी बड़ा रोचक होता है. इसलिए एक सलाह है-पंडितजी को अगली बार बुलाओ तो पहले दक्षिणा का बजट फिक्स कर लेना वरना जेब हलकी होने में वक्त नहीं लगेगा.

पंडित दो प्रकार के होते हैं. एक पोथी पढ़़े हुए और दूसरे ढाई आखर पढ़े हुए. नाई का काम बाल काटना है और जेबकतरे का काम जेब काटना. वैसे ही पंडित का काम पूजापाठ करना, मंत्रोच्चारण कर विवाह करवाना आदि होता है. इस के लिए उन्हें मजबूरी में दक्षिणा लेनी पड़ती है. घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या. पंडितजी का धंधा मस्त चल रहा है. आगे भी चलता रहेगा. जन्म, विवाह और मृत्यु हमेशा चलते रहेंगे. और ये तीनों संस्कार पंडितजी के कर कमलों से ही संपन्न होंगे. उन्हें दक्षिणा मिलती रहेगी.

‘बिन फेरे हम तेरे’ भारत में नहीं चलता. हां, भारतीय फिल्मों में यह खूब चलता है. हकीकत में पंडित से फेरे पड़वाना अनिवार्य होता है. पिछले दिनों मुझे एक विवाह कार्यक्रम में शिरकत करनी पड़ी. विवाह मंडप में एनआरआई दूल्हादुलहन बैठे थे. बीच में हवनकुंड था.

पंडितजी ने सब से पहले अपना परिचय दिया, बताया कि वे चार विषयों में एमए और पीएचडी हैं. मतलब वे पोंगा पंडित नहीं, असली पोथी पड़े हुए पंडित हैं. अपनी योग्यता बता कर उन्होंने समारोह में अपनी धाक जमा ली थी.

गेरूआ कलर का कुरता पहन रखा था. वे इस पोशाक में बगुले जैसे लग रहे थे. गेरूआ कलर के परिधान का आतंक उपस्थित लोगों पर खूब पड़ रहा था.

धीरेधीरे सभा में उन का प्रभामंडल स्थापित हो गया था. विवाह की कार्रवाई आगे बढ़ती जा रही थी. जैसाजैसा पंडितजी निर्देशित करते जा रहे थे वैसावैसा दूल्हादुलहन और उन के सहायक कठपुतली की तरह करते जा रहे थे.

कभी कहा जाता कि हाथ में फूल लो और अब सिक्का लो, कंकुम लो, चावल लो, उस में थोड़ा पानी छिड़को आदि. इस प्रक्रिया में बारबार सिक्कों की जरूरत पड़ रही थी. अब कैशलैस डिजिटल के इस दौर में सिक्के कहां मिलते. न पहले आगाह किया गया था. फिर भी कहीं से सिक्कों को जुटा कर मांग की आपूर्ति की जा रही थी.

जहां थोड़ीबहुत चूक होती, वे पश्चिमी संस्कृति पर बरसने लगते. माइक उन के हाथ में था ही. तीनचार दफा उन्होंने पश्चिमी संस्कृति को गरियाने में अपना और उपस्थित जनों का अमूल्य समय नष्ट किया. अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने के लिए पश्चिमी संस्कृति को गरियाने का आजकल फैशन भी है. जबकि, विश्वगुरु के बच्चों को उसी संस्कृति की शरण में शिक्षा और रोजगार पाने के लिए जाना पड़ता है.

पंडितजी भी निज संस्कृति की लकीर के फकीर थे. बड़ी लकीर को मिटाए बिना इन तोतों का काम नहीं चलता. बड़ी लकीर खींचना कठिन काम है. सरल काम है बड़ी लकीर को मिटाना. हो यह रहा है कि ये न तो बड़ी लकीर मिटा पा रहे हैं और न अपनी लकीर बड़ी कर पा रहे हैं. कुछ देर बाद यह लो, वह लो, यह करो, वह करो और स्वाहास्वाहा होने लगता था.

दूल्हादुलहन, बकौल कबीर के, ढाई आखर प्रेम के पढ़े हुए पंडित थे. लेकिन उन ढाई आखर पढ़े हुओं को सामाजिक मान्यता पोथी वाला पंडित ही देता है. असली पंडित तो पोथी वाले पंडितजी ही थे. ढाई आखर वाले पंडितों पर पोथी वाले पंडितजी भारी पड़ रह थे. इस या उस क्रियाविधि में बारबार सिक्का निकालने को कहा जा रहा था.

पंडितजी जानते थे कि जब लोहा गरम हो तब ही उस पर चोट करना चाहिए. तभी वांछित फल की प्राप्ति होती है. दूल्हादुलहन जब एनआरआई हों तो पंडितजी अधिक दक्षिणा झटकने का सुअवसर पा ही जाते हैं. ऐसे जजमान कम ही हत्थे चढ़ते हैं.

ऐसे अवसर को कोई मूरख ही होगा जो खोना चाहेगा. विवाह में जब लाखों का खर्च हो रहा हो तो कुछ हजार खींच भी लिए तो कोई गैरवाजिब नहीं. जब गंगा बह रही हो तो पंडितजी उस में हाथ क्यों न धोएं. लगभग अंत में लेकिन फेरों के पहले पंडितजी ने मंडप में विधिपूर्वक वर और वधू दोनों पक्षों से लगभग 6 हजार रुपए रखवा लिए.

वे विवाह के नाम पर तीसेक हजार तो पहले ही झटक चुके थे. उन्हें मालूम था कि रुपए की औकात ही क्या है. रुपए को डौलर के अधीन रहना पड़ता है. डौलर की जेब में आज की तारीख में छियासी रुपए आ जाते हैं और डौलर कमजोर होने वाला नहीं.

इस तरह हंसीखुशी विवाह संपन्न हुआ. घरातीबराती और पंडितजी सभी खुश थे. कार्यक्रम की सराहना की गई. सब ने खापी कर अपनीअपनी राह पकड़ी.

लेखक : गोविंद सेन

LoP : राहुल गांधी को सुप्रीम फटकार, क्या था राहुल की तरफ से जवाब

LoP : राहुल गांधी फिलहाल बड़े आक्रामक मूड में हैं. बिहार चुनाव हो या उपराष्ट्रपति का मुद्दा या फिर ट्रंप के टैरिफ पर सरकार को घेरना, वे हर जगह सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मुद्दा नहीं छोड़ते हैं.

पर भारतीय सेना पर की गई टिप्पणी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की इसी आक्रामकता पर लगाम लगा दी है. दरअसल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भारतीय सेना के खिलाफ कथित टिप्पणी के मामले में अपने खिलाफ मानहानि को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

याद रहे कि अपनी वर्ष 2023 की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दावा किया था कि एक पूर्व सेना अधिकारी ने उन्हें बताया था कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है. उन के इस बयान को ले कर सियासी घमासान छिड़ गया था और उन के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया गया था.

याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, ‘आप को कैसे पता चला कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है?’ और इस पर जोर देते हुए कहा, ‘अगर आप सच्चे भारतीय हैं, तो आप ऐसा नहीं कहते.’ कोर्ट ने पूछा कि क्या आप के पास कोई विश्वसनीय जानकारी है? जब सीमा पार कोई विवाद होता है, तो क्या आप यह सब कह सकते हैं? आप संसद में सवाल क्यों नहीं पूछते?

सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को फटकार लगाते हुए कहा कि आप विपक्ष के नेता हैं तो आप ये बातें क्यों कहेंगे? आप ये सवाल संसद में क्यों नहीं पूछते?

इस के जवाब में राहुल गांधी की तरफ से पेश हुए अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उन्होंने संसद में बोलने की छूट पाने के लिए चुनाव नहीं लड़ा. अनुच्छेद 19(1)(ए) राहुल गांधी को सवाल पूछने की इजाजत देता है.

वैसे यह बयान गलत है या नहीं, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सफाई देने को नहीं कहा है.

Sadhvi Pragya : मालेगांव में मरे और घायलों का दोषी कोई भी नहीं

Sadhvi Pragya : 17 साल बाद मालेगांव ब्लास्ट केस में साध्वी प्रज्ञा समेत सभी आरोपी बरी हुए. 2008 में हुए धमाके में 6 मरे, 100 से ज्यादा घायल हुए, मगर मगर इतने साल बाद दोषी कोई नहीं साबित हुआ. जांच एजेंसियों के सैकड़ों सबूत, गवाह फेल हो गए. सवाल यह कि पीड़ित परिवारों को इंसाफ कब मिलेगा?

बीते 17 साल से चर्चा में रहे मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में मुंबई की विशेष एनआईए अदालत ने भाजपा की पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया. यानी ब्लास्ट किस ने करवाया, निर्दोष लोगों की जानें किस ने लीं, 17 साल बाद भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. कोई दोषी नहीं.

29 सितम्बर 2008 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव में एक खड़ी मोटरसाइकिल पर बम धमाका हुआ. आसपास खड़े 6 लोगों के परखच्चे उड़ गए और 101 लोग बुरी तरह घायल हुए. मामले की एफआईआर मालेगांव आजाद नगर पुलिस थाने पर हुई. जांच लम्बी चली और स्थानीय पुलिस से ले कर देश की बड़ीबड़ी जांच एजेंसियों ने खूब गवाह और सबूत जुटा कर 14 लोगों को गिरफ्तार किया.

अभी तक देश में होने वाली तमाम आतंकी घटनाओं और बम विस्फोटों के दोषी मुसलमान हुआ करते थे, मगर यह पहली बार था कि मुंबई एंटी टैररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) ने इस भयानक विस्फोट के पीछे दक्षिणपंथी आतंकियों का हाथ पाया. इस कांड में एक भगवाधारी सन्यासिनी और सेना के कर्नल का नाम सामने आने पर लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली.

21 अक्तूबर को जब स्थानीय पुलिस से महाराष्ट्र की एटीएस ने मामले की जांच अपने हाथ में ली, उस समय हेमंत करकरे एटीएस चीफ थे. हेमंत करकरे एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी थे, जिन्होंने मालेगांव बम धमाकों की जांच में सक्रिय भूमिका निभाई थी. बाद में 26/11 मुंबई आतंकी हमले के दौरान वे शहीद हो गए.

23 अक्तूबर को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और 3 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया. मालेगांव में जिस मोटरसाइकिल पर बम रखा गया था, वह प्रज्ञा ठाकुर के नाम पंजीकृत थी. नवंबर 2008 में सेना के लैफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित को गिरफ्तार किया गया. आखिर एटीएस को पुख्ता सबूत मिले तभी उस ने सेना पर हाथ डालने की जुर्रत की. मगर इस के बाद 26/11 का भयावह आतंकी हमला हुआ जिस में एटीएस चीफ हेमंत करकरे कथित तौर पर आतंकी की गोलियों का शिकार हो कर शहीद हो गए.

हेमंत करकरे के निधन के बाद मालेगांव बम धमाके की जांच ढीली पड़ गई. 20 जनवरी को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और लैफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित सहित 11 आरोपियों के खिलाफ विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल किये. आरोपियों पर मकोका, यूएपीए और आईपीसी की कठोर धाराओं में आरोप लगाए गए थे. दो व्यक्तियों – रामजी उर्फ रामचंद्र कलसांगरा और संदीप डांगे को वांछित अभियुक्त बनाया गया था. अदालत में लम्बी जिरह चली. मगर जुलाई 2009 में विशेष अदालत ने कहा कि इस मामले में मकोका के प्रावधान लागू नहीं होते और अभियुक्तों पर नासिक की अदालत में मुकदमा चलाया जाए.

अगस्त में महाराष्ट्र सरकार ने विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ बम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की. बम्बई उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत का आदेश पलट कर मकोका को फिर लागू कर दिया. तब पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का रुख किया.

इस बीच फरवरी 2011 में एटीएस मुंबई ने एक और व्यक्ति प्रवीण मुतालिक को गिरफ्तार किया. इस तरह मामला दक्षिणपंथी चरमवाद की तरफ बढ़ता दिख रहा था और कुछ अन्य की गिरफ्तारियां होने को थीं कि अचानक राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अप्रैल माह में जांच अपने हाथ में ले ली. एनआईए ने पाया कि विस्फोट की योजना ‘अभिनव भारत’ नामक हिंदू चरमपंथी संगठन से जुड़े सदस्यों ने बनाई थी. जिस से धन सिंह और लोकेश जैसे लोगों के अलावा सेना के कई लोग जुड़े थे, जिस में कर्नल पुरोहित पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे. इस तरह कुल गिरफ्तारियां 14 हो गईं.

गौरतलब है कि एटीएस और एनआईए दोनों ही देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियां हैं. एनआईए ने भी इस मामले में खूब सबूत और गवाह जुटाए. एनआईए तो बिना पुख्ता जानकारी के किसी पर हाथ नहीं डालतीं. इस की जांच पर देश की अदालतें भरोसा करती हैं और नागरिकों को न्याय की आस बंधती है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं? कैसे 17 साल की जांच पर पानी फिर गया? और क्यों अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया?

यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को खुद ही इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. जब तमाम सबूत इकट्ठा किए गए थे तो अदालत में सबूतों का अकाल पड़ गया.

गौरतलब है कि जब एनआईए ने विशेष अदालत में अपना आरोप पत्र दाखिल किया तब आरोपियों के ऊपर से मकोका हटा दिया गया था, लिहाजा 7 आरोपियों को तो तुरंत क्लीन चिट मिल गई. 25 अप्रैल 2017 में बम्बई उच्च न्यायालय ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भी जमानत दे दी. 21 सितंबर को कर्नल पुरोहित को उच्चतम न्यायालय से जमानत मिल गई. इन दो मुख्य आरोपियों को जमानत मिलते ही साल का अंत होते होते सभी गिरफ्तार आरोपी जमानत पर बाहर आ गए.

कानूनी दांवपेंच चलते रहे. अक्तूबर 2018 में 7 आरोपियों प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित, रमेश उपाध्याय, समीर कुलकर्णी, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी और सुधाकर चतुर्वेदी के खिलाफ आरोप तय हुए. उन पर आतंकी कृत्य के लिए यूएपीए के तहत और आपराधिक साजिश और हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मुकदमा चला.

दिसंबर में मामला गवाही पर आया और 3 दिसंबर को मामले के पहले गवाह से पूछताछ के साथ सुनवाई शुरू हुई. अभियोजन पक्ष ने इस मामले में 323 गवाहों को जुटाया था, मगर इन में से 39 गवाह अदालत में अपने बयानों से मुकर गए. मुख्य बात यह रही एटीएस ने प्रमुख गवाहों के जो बयान धारा 164 के तहत एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किए थे, उन तमाम बयानों की ओरिजनल कौपियां कोर्ट की फाइलों से गायब हो चुकी थीं. उन की जगह कुछ फोटो स्टेट कौपियां कोर्ट फाइल में थीं, जिन की सत्यता पर कोर्ट भरोसा नहीं कर सकता था. यह बात फैसला देते समय कोर्ट ने भी कही कि अभियोजन पक्ष ने उन मजिस्ट्रेटों से भी पूछताछ नहीं की जिन्होंने उक्त लोगों के बयान दर्ज किए थे.

इन बयानों में दो अहम गवाह भी शामिल थे, जिन्होंने गायब बयानों में कथित तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था कि उन्होंने आरोपियों को मुसलमानों पर बदला लेने की योजना बनाने और एक अलग संविधान व झंडे के साथ एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने की ज़रूरत पर चर्चा करते सुना था. वे भी इस मामले के 39 मुकर गए गवाहों में शामिल थे.

आखिरकार अभियोजन पक्ष ने गवाही बंद करने का फैसला किया. जुलाई 2024 तक बचाव पक्ष के आठ गवाहों से किसी तरह जिरह पूरी हुई. 12 अगस्त 2024 को विशेष अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्तों के अंतिम बयान दर्ज किए. 31 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए न्यायाधीश एके लाहोटी ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित सहित सभी 7 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि दोषसिद्धि के लिए कोई ‘ठोस और विश्वसनीय’ सबूत नहीं हैं. अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है.

यह हास्यास्पद है कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बीलम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं. 17 साल की जांच पर पानी फिर गया. अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. क्या यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. आखिर जब तमाम सबूत इकट्ठा होने के बाद गिरफ्तारियों हुई थीं, तो अदालत में सबूतों का अकाल कैसे पड़ गया?

अदालत के फैसले के बाद दक्षिणपंथी खेमा सीना चौड़ा कर के दहाड़ रहा है कि 17 साल बाद न्याय हुआ. सनातन की जीत हुई. हिंदू कभी आतंकी नहीं हो सकता, आदिआदि. मगर जो बम धमाके में मर गए, जो घायल हुए, जिन के अंगभंग हो गए, उन का क्या होगा? क्या उन्हें न्याय मिला?

Shibu Soren : सही मायनों में ‘अर्बन नक्सली’ थे शिबू सोरेन, झारखंड को दिखाया नया रास्ता

Shibu Soren : अर्बन नक्सली दक्षिणपंथियों द्वारा गढ़ा गया शब्द है जिसे वे शिक्षित अहिंसक बुद्धिजीवियों को बदनाम करने और उन के प्रति अपनी पौराणिक घृणा प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया करते हैं. शिबू सोरेन इस लिहाज से अर्बन नक्सली ही कहे जाएंगे जिन्होंने महाजनी और सामंती चंगुल से आदिवासियों को मुक्त कराने के लिए जिंदगी भर लड़ाई लड़ी और जीते भी. 8 बार दुमका से सांसद रहे गुरुजी के नाम से मशहूर झारखंड के संस्थापक शिबू सोरेन 3 बार झारखंड के मुख्यमंत्री भी रहे थे.

शिबू सोरेन की जिंदगी हिंदी फिल्मों के नायकों सरीखी ही थी जिन के गांधीवादी पिता सोबरन मांझी की हत्या 1957 में सूदखोर महाजनों ने करवा दी थी. तब 13 साला इस किशोर ने बदला लेने की ठान ली लेकिन बदला व्यक्तियों से नहीं बल्कि व्यवस्था से लिया क्योंकि सवाल एक सोबरन की मौत का नहीं बल्कि लाखों शोषित आदिवासियों का था. इस हादसे से उन्हें समझ आ गया था कि हथियार और व्यक्तिगत हिंसा इस रोग का इलाज नहीं, बल्कि इलाज है लोगों को एकजुट कर सिस्टम को बदलना, जिस में अंतत वे सफल भी रहे.

साल 1970 में संगठित धनकटनी आंदोलन इस की शुरुआत था जिस ने सूदखोरों और महाजनों को हिला कर रख दिया था. हिंदी फिल्म मदर इंडिया के सुक्खी लाला की तर्ज पर सूदखोर महाजन आदिवासियों की उपज का बड़ा हिस्सा हड़प लेते थे और उन्हें भारी ब्याज पर कर्ज दे कर लूटते रहते थे. अनपढ़ अशिक्षत आदिवासी जहां महाजन चाहे वहां अंगूठा लगाने मजबूर को रहते थे. शिबू सोरेन का यह आंदोलन एक नहीं कई बिरजू पैदा करने वाला साबित हुआ था.

1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन करने का शिबू सोरेन का मकसद आदिवासियों की ताकत का राजनीतिकरण करना था. उन के लम्बे आंदोलन और लड़ाई के चलते 2000 में झारखंड को पृथक राज्य का दर्जा मिला और वे मार्च 2005 मुख्यमंत्री बने. अब तक झारखंड के आदिवासी अपनी ताकत और अधिकार दोनों से वाकिफ हो चुके थे. खुद शिबू सोरेन एक सधे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह दोनों गठबंधनों का हिस्सा रहे. इस दौरान हालांकि उन पर कई आरोप भी लगे और कुछ दिन जेल की हवा भी उन्होंने खाई.

4 अगस्त को दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में आखिरी सांस लेने वाले इस दिशोम गुरु के मन में कोई मलाल रहा होगा ऐसा लगता नहीं क्योंकि वाकई में वे झारखंड और आदिवासियों को एक नया रास्ता तो दिखा गए हैं जिस पर इन दिनों उन के मुख्यमंत्री पुत्र हेमंत सोरेन चल रहे हैं जिन की भी लड़ाई भगवा गैंग से ही है जो उन के पिता शिबू सोरेन जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों को अर्बन नक्सली के ख़िताब से नवाजा करती है.

Slow Travel : स्पौट घूमने से अधिक उन्हें महसूस करें

Slow Travel : बड़े पर्यटन स्थलों की भीड़भाड़ में ट्रैवल को सही से महसूस नहीं किया जा सकता. इस के लिए स्लो ट्रैवल नया ट्रैंड बन गया है, जिस में जगह घूमने से अधिक महसूस की जाती है.

एक समय जब लोग उत्तराखंड में पहाड़ पर घूमने जाते थे तो मसूरी उन की सब से पसंदीदा जगह होती थी. वहां माल रोड, क्लौक टावर पर बहुत सारे होटल हैं, उन में ही वे रुकते थे. वहां से लाल टिब्बा और लैंडोर जैसी जगहें नजदीक थीं. अब माल रोड और क्लौक टावर जैसी जगहों पर भीड़भाड़ बढ़ गई है. पर्यटक उन जगहों पर रुकना नहीं चाहते. पर्यटकों के बदलते रुझान ने इस तरह की जगहों को विकसित करना शुरू कर दिया है जो शहर से दूर हैं.

इसी तरह की एक जगह झड़ीपानी है. वहां मसूरी कौटेज हैं. ये डुप्लैक्स बने कौटेज जैसे घर हैं जिन में अपना किचन, लौन है. 28 कौटेजों के समूह को कमल कौटेज के नाम से जाना जाता है. कभी यह नेपाल के राजा का महल होता था. इस के बाद अंगरेजों के समय में मिस ए फेयर नामक महिला ने इस को पहले लौन के रूप में विकसित किया. इस क्षेत्र को फेयर लौन के नाम से भी जाना जाता है.

अब यहीं पर खूबसूरत कौटेज बन गए हैं, जहां पर्यटक आराम से रहते हैं. इस के एक तरफ मसूरी है तो दूसरी तरफ देहरादून दिखता है. यहां क्लब हाउस भी है. वहां पर बिलियर्ड्स, स्नूकर, टेबल टैनिस, कैरम और कार्ड खेलने के साथ किचन की भी सुविधा है. जो लोग खाना बनाना नहीं चाहते वे खाना मंगवा कर खा सकते हैं. यहां रह कर मसूरी और आसपास घूमा जा सकता है.

यहां आने वाले ज्यादातर पर्यटक झड़ीपानी झरना देखने जाते हैं. वहां पैदल जाना पड़ता है. जो लोग पहाड़ पर ट्रेकिंग या हाईकिंग करने के शौकीन हैं उन को यह जगह खास पसंद आने वाली है. वहां रह कर उस जगह को महसूस किया जा सकता है. इस से दिल को सुकून मिलता है.

क्या है स्लो ट्रैवल

एक जगह पर ज्यादा समय बिताना, लोकल फूड, मार्केट और कल्चर को ठीक से समझने को स्लो ट्रैवल कहते हैं. आज के दौर में बहुत सारे ऐसे माध्यम हैं जिन के जरिए बिना कहीं जाए पर्यटन और इतिहास को जानासमझा जा सकता है. अगर आप लखनऊ घूमने के लिए आते हैं तो पुराने पर्यटक स्थल- इमामबाड़ा, रैजीडैंसी और घंटाघर आदि जैसे स्थानों को देखने में रुचि कम हो गई होगी. पर्यटक कोई ऐसी जगह जाना चाहता है जहां के बारे में लोगों को कम पता हो. यह जगह कोई खाने की चीज मिलने का केंद्र हो सकता है, कोई बाजार हो सकता है, कोई घूमने की जगह भी हो सकती है.

स्लो ट्रैवल लोकल जगह को गहराई से देखने और यात्रा के अनुभव को अधिक से अधिक तरह से शेयर करने का होता है. यह आज की भागदौड़भरी जिंदगी में से सुकून के पलों को तलाशने जैसा होता है. लोग बड़े होटल और महंगी जगह पर रुकने के बजाय भीड़भाड़ से अलग थोड़ा शांत जगह पर रहना पसंद करते हैं. पहले जब लोग पहाड़ पर रुकने जाते थे तो उन की चाहत होती थी कि मुख्य बाजार जैसे माल रोड के होटल में रुकें. अब माल रोड वाली जगहों पर भीड़भाड़ बढ़ गई है. ऐेसे में पर्यटक बड़े शहर से दूर शांत जगह पर रहना चाहते हैं. ऐसे में बड़े रिजौर्ट कई बार काफी महंगे होते हैं. अब छोटेछोटे घर, जो कौटेज टाइप के बने होते हैं, उपलब्ध रहते हैं. ये सस्ते और सकूनभरे होते हैं.

लोगों ने अपने घरों को तमाम जगहों पर होटल बना दिया है. सरकार के पर्यटन विभाग से इस को अनुमति मिली हुई है. एयर बीएनबी नाम के औनलाइन प्लेटफौर्म के जरिए इस तरह के घरों को किसी भी शहर में तलाश किया जा सकता है. यहां हफ्तों या महीनों तक रुका जा सकता है. इस से उस शहर को पूरी तरह से महसूस कर सकते हैं. इस से भीड़भाड़ वाले पर्यटन स्थलों से हट कर लोकल लोगों के साथ घुलनेमिलने, लोकल भोजन का आनंद लेने और वहां की संस्कृति के बारे में जानने का मौका मिलता है. इस से यात्रा को सिर्फ एक जगह से दूसरी जगह जाने के बजाय उस स्थान को पूरी तरह से अनुभव करने का मौका मिलता है.

स्लो ट्रैवल का एक लाभ यह भी होता है कि जब आप किसी जगह पर ज्यादा समय बिताते हैं तो आप उस जगह को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं और वहां के लोगों से गहरे संबंध बना पाते हैं. भागदौड़ कम होने के कारण यात्रा का तनाव कम होता है. इस में लोकल बाजार के लोगों की आर्थिक मदद हो सकती है. वहां बिना किसी बड़ी योजना को बनाए घूमने का मौका मिलता है, जिस से सुकून महसूस होता है. इस तरह की यात्रा में बजट कम होने से घूमने का ज्यादा से ज्यादा आनंद लिया जा सकता है.

लाइफस्टाइल बनता जा रहा है स्लो ट्रैवल

स्लो ट्रैवल में एकसाथ 10 जगहों को नहीं घूमते, बल्कि कम जगहों को चुनते हैं. वहां ज्यादा समय बिताते हैं. इस में न तो दौड़भाग, न ही सोशल मीडिया के लिए फटाफट रील्स बनाते हैं. स्लो ट्रैवल में सफर को गहराई से महसूस करने पर जोर है. इसी वजह से ही कि यह सिर्फ एक ट्रैंड नहीं बल्कि लाइफस्टाइल बनता जा रहा है. इस में जिस जगह घूमने जाते हैं वहां की सिंपल लाइफ को महसूस करने लगते हैं फिर चाहे किसी गांव के परिवार संग खाना बनाना हो या समुद्र के किनारे किसी लाइब्रेरी में किताब पढ़ना. इस में जीवन को महसूस करने का भरपूर समय मिलता है.

अब लोगों की सोच बदल गई है. छुट्टियों में घूमने का मतलब सुकून पाना हो गया है. पार्टी क्लब में जो महसूस नहीं किया जा सकता वह यहां महसूस होता है. स्लो ट्रैवल मैंटली रिलैक्स रखता है. होटल के बजाय लोकल होमस्टे से लोकल लोगों की इनकम बढ़ती है. लंबे समय तक सफर से लोकल चीजों के प्रति ज्यादा समझ बनती है.

वर्क फ्रौम होम करने वाले प्रोफैशनल्स इस को बहुत पसंद करते हैं. फैमिली या कपल्स, जो भीड़ से दूर सुकून चाहते हैं, वे भी इस को पंसद करते हैं. ऐसे लोग जो सिर्फ टूरिज्म को महसूस करना चाहते हैं.

स्लो ट्रैवल को पसंद करने की खास वजह यह होती है कि कोई बड़ा खर्च या तैयारी करने की जरूरत नहीं होती, सिर्फ थोड़ी सोच बदलनी होती है. एक ही डैस्टिनेशन चुनें और वहां 7 से 10 दिन स्टे करें. रहने के लिए होटल की जगह होमस्टे चुनें. पैदल घूमें या साइकिल की सवारी करें. लोकल लोगों से बात करें. नई चीजें सीखें, खाना बनाना, लोकल भाषा, कोई कला आदि तो बेहतर अनुभव करेंगे. स्लो ट्रैवल घूमने से अधिक महसूस करने की जगह है. इस को सही से तभी समझ पाएंगे, जब इसे महसूस करेंगे.

Bollywood : बजट के बोझ तले दम तोड़ती फिल्में

Bollywood : पोस्ट कोविड बौलीवुड संकट में है. बड़े बजट वाली स्टारर फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं, ‘हाउसफुल 5’, ‘सिकंदर’ और ‘मैट्रो इन दिनों’ जैसी फिल्में अपनी लागत भी नहीं कमा पा रहीं. कारण? कौर्पोरेटाइजेशन के बाद फिल्में सिर्फ बैलेंसशीट और स्टारपावर पर बन रही हैं, उन में कंटैंट नहीं. एमबीए वाले सीईओ कलाकारों की फीस और शेयर मार्केट को प्राथमिकता देते हैं, दर्शकों की पसंद नहीं. नतीजा, बजट बढ़ा, कहानी गायब. सो, इंडस्ट्री संकट में है.

कोविड के बाद से अब तक बौलीवुड में लगभग सूखा पड़ा हुआ है. सभी ए लिस्टर यानी कि स्टार कलाकारों की बड़ेबड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर धराशायी हो चुकी हैं. हालिया प्रदर्शित साजिद नाडियाडवाला की फिल्म ‘हाउसफुल 5’ की कमाई बौक्स औफिस पर 217 करोड़ रुपए बताया जा रहा है. फिर भी इसे सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस का बजट 375 करोड़ रुपए है. तो वहीं टीसीरीज की मल्टीस्टारर फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ 50 करोड़ ही कमा पाई. ये सभी फिल्में डिजास्टर ही हैं.

नियमतया जब फिल्म ‘हाउसफुल 5’ बौक्स औफिस पर कम से कम 800 करोड़ रुपए कमाए, तब यह फिल्म ‘नो लौस नो प्रौफिट’ में पहुंचेगी जबकि ‘हाउसफुल 5’ में अक्षय कुमार, जैकी श्रौफ, रंजीत, फरदीन खान, रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, बौबी देओल सहित 20 स्टार कलाकार हैं.

इस से पहले 30 मार्च, 2025 को सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ रिलीज हुई थी, निर्माता ने ब्लौक बुकिंग, फेक बुकिंग वगैरह कर अपनी जेब से करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा कर दावा किया कि फिल्म ने 145 करोड़ कमा लिए, जबकि पूरा बौलीवुड ही नहीं दर्शक भी जानते हैं कि फिल्म बिलकुल नहीं चली. निर्माता ने झुठे आंकड़े पेश किए, फिर भी वे अपनी फिल्म को सफल नहीं करा सके क्योंकि फिल्म का बजट 250 करोड़ रुपए है.

गत वर्ष 11 अप्रैल, 2024 को अक्षय कुमार, टाइगर श्रौफ, पृथ्वीराज सुकुमारन, मानुषी छिल्लर व सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस का बजट 350 करोड़ रुपए था पर निर्माता के अनुसार इस ने बौक्स औफिस पर 100 करोड़ रुपए एकत्र किए. इस फिल्म की असफलता के बाद से निर्माता वासु भगनानी लंदन में हैं. फिल्म से जुडे़ कई कलाकारों व तकनीशियनों के पैसे अभी तक नहीं दिए गए. ये चंद उदाहरण हैं.

सच्चाई यह है कि 50 करोड़ रुपए से 130 करोड़ रुपए तक की फीस लेने वाले किसी भी स्टार कलाकार की फिल्में अपने निर्माता को कमा कर नहीं दे रही हैं.

पिछले 4 वर्षों के दौरान अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत वसूल नहीं कर पाईं. इन बड़ी फिल्मों की असफलता के ही चलते केवल पीवीआर आयनौक्स मल्टीप्लैक्स के शेयर के दाम एक साल के अंदर 1,800 रुपए से गिर कर 14 जुलाई को 979 रुपए पर आ गए.

बढ़ता कौर्पोरेट कल्चर

बड़े बजट और बड़े स्टार की फिल्में लगातार असफल हो रही हैं. इस की मूल वजह यह है कि अब फिल्में कागज पर यानी कि बैलेंसशीट पर बनती हैं. 2001 के बाद जिस तरह से बौलीवुड का कौर्पोरेटाइजेशन हुआ है, उस के तहत हर स्टूडियो और हर बडे़ प्रोडक्शन हाउस में एमबीए पास कर आए लोग बैठे हुए हैं जिन्हें इंग्लिश भाषा में एमबीए की पढ़ाई के दौरान साबुन, तेल, कार, स्टील आदि बेचना सिखाया जाता है. ये ठीक से न हिंदी पढ़ सकते हैं और न ही हिंदी में बातचीत कर सकते हैं. इन एमबीए के नुमाइंदों को हिंदी साहित्य का एबीसीडी भी नहीं पता होता.

एमबीए की शिक्षा में सिनेमा की कोई चर्चा ही नहीं होती, जिस की वजह से न इन्हें सिनेमा बेचना आता है और न ही इन्हें सिनेमा या कहानी आदि की कोई समझ है पर अब ये सभी खुद को सिनेमा के उद्धारकर्ता के रूप में पेश करते हुए फिल्म इंडस्ट्री को डुबाने पर आमादा हैं. इन्हें एमबीए में जो कुछ पढ़ाया गया, उसी के कदमों पर चलते हुए ये सभी अपनी कंपनी की बैलेंसशीट को संभालने के जुगाड़ में लगे रहते हैं. इन की मूल जिम्मेदारी होती है कि कंपनी की बैलेंसशीट ऐसी हो जिस से कंपनी के शेयर के दाम न गिरें और शेयर बाजार से जो कमाई हो रही है, वह लगातार जारी रहे.

अब ऐसा करने के लिए तो शेयरधारकों को धोखे में रखना ही पड़ता है. इसलिए सभी कंपनी के सीईओ और उन के साथ काम कर रहे एमबीए डिग्रीधारी लोग फिल्म की कहानी की गुणवत्ता या निर्देशक की काबिलीयत पर गौर करने के बजाय निर्देशक के सामने एक ही शर्त रखते हैं कि वह किस स्टार कलाकार को ला सकता है.

इस के बाद वे कहते हैं कि, ‘स्टार कलाकारों के सहमतिपत्र के साथ फिल्म की कहानी की सिनौप्सिस इंग्लिश में ईमेल कर दें.’ इन एमबीए डिग्रीधारकों की सोच व समझ सिर्फ यह कहती है कि अगर उन की फिल्म में स्टार कलाकार होगा तो वे इंग्लिश में फिल्म की सिनौप्सिस के साथ पेपरवर्क तैयार करेंगे और उन की कंपनी की बैलेंसशीट गड़बड़ नहीं होगी व शेयर के दाम नहीं गिरेंगे.

कहानी पर कम ध्यान

एक बार हम ने एक बहुत बड़े कौर्पोरेट स्टूडियो के सीईओ से जब पूछा था कि आप फिल्में बना रहे हैं लेकिन आप के स्टूडियो की बड़े बजट की फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं तो उन्होंने जो जवाब दिया था उस के माने मेरी समझ से परे थे. उन्होंने कहा था, ‘हर कौर्पोरेट स्टूडियो के लिए जरूरी है कि उस का कैटलौग मजबूत हो.’

‘हम अपनी फिल्म की कहानी की बात ही नहीं करते. ज्यादा से ज्यादा फिल्म के जौनर की चर्चा करते हैं कि यह कौमेडी या ऐक्शन है या अन्य जौनर की फिल्म है. फिल्म के प्रमोशन के लिए हम उन शहरों में अपनी फिल्म के कलाकारों को ले जा कर डांस वगैरह के इवैंट करते हैं जहां हमारी कंपनी के शेयरधारक ज्यादा हैं.

हम कभीकभी अपनी कंपनी के कुछ चुनिंदा बड़े शेयरधारक को फिल्म के प्रीमियर में बुला कर उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध से अचंभित कर देते हैं. इस से हमारी कंपनी का ‘कैटलौग’ और बैलेंसशीट दोनों मजबूत बनी रहती हैं. ‘देखिए अब यह युग डिजिटल मार्केटिंग और सोशल मीडिया का है. लोग यह जान कर खुश होते हैं कि उन का पसंदीदा कलाकार अब कितनी अधिक फीस ले रहा है.’

जी हां, यही कटु सत्य है. इन्हें इस बात का एहसास ही नहीं है कि फिल्म की सफलता के लिए पहली जरूरत कंटैंट यानी कि कहानी होती है. यदि कहानी व पटकथा अच्छी हो तो फिर ऐसे काबिल निर्देशक की जरूरत पड़ती है जो कागज पर लिखी कहानी व पटकथा को कलाकारों के माध्यम से सैल्यूलाइड के परदे पर ज्यों का त्यों उतार सके. उस के बाद उस बेहतरीन कहानी पर बनी बेहतरीन फिल्म को मार्केट करना चाहिए.

80 व 90 के दशकों में ऐसा ही हुआ करता था पर अब इन एमबीएधारी लोगों के पास कहानी के नाम पर एक ही विचार होता है. कहानियां तो सब एक ही होती हैं. पूरे विश्व में 9 कहानियां ही हैं. उन्हीं को घुमाफिरा कर सुनाना है. असली टैलेंट तो यह है कि हम अपनी फिल्म में किस बड़े कलाकार को जोड़ते हैं.

अपने टैलेंट को साबित करने के लिए ये एमबीएधारी अभिनेता को उस की औकात से काफी ज्यादा रकम देते हैं. इस तरह फिल्म का बजट बेहिसाब बढ़ता जाता है. हमें याद है कि 2001 में जब नितिन केणी के नेतृत्व में जी टैली फिल्म्स ने स्टूडियो सिस्टम के तहत फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ का निर्माण महज साढ़े 18 करोड़ रुपए में किया था और इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 133 करोड़ रुपए कमा कर हंगामा बरपा दिया था, उस वक्त पहली बार इस फिल्म के निर्माण से जुड़े हर शख्स को चैक से पेमेंट मिला था.

उस के बाद कुकुरमुत्ते की तरह तमाम कौर्पोरेट कंपनियां उग आई थीं और इन के बीच कलाकार को अपने साथ जोड़ने की होड़ लग गई थी.

वर्ष 2012 तक करीबन 35 कौर्पोरेट कंपनियां सक्रिय थीं और कलाकारों को 10 लाख के बजाय 50 करोड़ रुपए तक फीस दे कर फिल्में बना रहे थे. 2012 से 2015 के बीच तकरीबन 15 कंपनियां धड़ाधड़ बंद हो गईं. यह सिलसिला लगातार चलता रहा. अब गिनती के महज चारपांच स्टूडियो ही बचे हैं. इन स्टूडियो द्वारा बनाई जा रहीं सभी बड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत का आधा हिस्सा भी नहीं जुटा पा रही हैं पर ये कंपनियां अपनी बैलेंसशीट व कैटलौग के मजबूत होने के दावे जरूर कर रही हैं.

अब तो मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अक्षय कुमार को प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए, अल्लू अर्जुन को ‘पुष्पा 2’ के बाद प्रति फिल्म 250 करोड़ रुपए, अजय देवगन 50 करोड़, प्रभास प्रति फिल्म 150 करोड़, शाहरुख खान प्रति फिल्म 90 करोड़ रुपए की फीस ले रहे हैं.

अफसोस की बात यह है कि प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए लेने वाले अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर धूल चाट चुकी हैं. अक्षय कुमार की फिल्में 100 करोड़ रुपए भी नहीं कमा पा रही हैं.

2014 में वासु भगनानी निर्मित फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस में अक्षय कुमार व टाइगर श्रौफ की जोड़ी थी. साढ़े 300 करोड़ रुपए के बजट में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर 90 करोड़ रुपए भी एकत्र न कर सकी. ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में कहानी नहीं चूंचूं का मुरब्बा था. अगर वासु भगनानी ने एक अच्छी कहानी व पटकथा चुन कर सीमित बजट में फिल्म का निर्माण किया होता तो फिल्म को नुकसान न होता.

एक बार मशहूर फिल्म निर्देशक राज कुमार संतोषी ने हम से कहा था, ‘देखिए, हर कहानी का अपना एक बजट होता है. हर कहानी की डिमांड के अनुरूप कलाकार चुन कर उन्हें उसी हिसाब से फीस दे कर बनाया जाए और उसे सही तरीके से दर्शकों तक पहुंचाया जाए तो नुकसान नहीं हो सकता पर कौर्पोरेट कंपनी में बैठे एमबीए वालों को कुछ पता ही नहीं होता. वे कहानी पढ़ते नहीं हैं, केवल कागजी खानापूर्ति के लिए कहानी को इंग्लिश में मांग कर उसे कौलम में भर देते हैं.

बदला हुआ कल्चर

वास्तव में फिल्म के बजट बढ़ने और फिल्मों की असफलता की एक वजह इन फिल्म प्रोडक्शन कंपनियों व स्टूडियोज में बदला हुआ वर्क कल्चर भी है. औक्सफोर्ड सहित कई विदेशी यूनिवर्सिटीज से एमबीए या ज्यादा से ज्यादा फिल्ममेकिंग का कोर्स कर वापस लौटने के बाद भारत में स्टूडियो या प्रोडक्शन हाउस में सीईओ के पद पर आसीन ये लोग नई फिल्म की प्लानिंग व कहानी सुनने के नाम पर प्रोड्यूसर या डायरैक्टर या ऐक्टर के साथ मीटिंग किसी न किसी फाइवस्टार होटल में बैठ कर हजार रुपए की कौफी की चुस्कियां लगाते हुए करते हैं तो इन्हें उस दर्शक के स्वाद का एहसास कैसे होगा जोकि सिनेमाघर के बाहर पहले 5 रुपए से ले कर 10 रुपए तक की कीमत की कटिंग चाय पीने के बाद सिनेमाघर के अंदर फिल्म देखने के लिए घुसता है.

ये एमबीएधारी वे लोग हैं जिन्हें हिंदी आती नहीं. आम इंसानों से इन का कभी वास्ता नहीं रहा. इसी के चलते इन्हें दर्शक की नब्ज का अतापता ही नहीं होता. हजार रुपए की कौफी पीने वाला यह शख्स कभी भी किसी गरीब के घर जाने का भी साहस नहीं करता. यह तो गिरी हुई हालत में भी स्टारबक्स में बैठ कर 400 रुपए की चाय की चुस्कियां लेते हुए गांव की पगडंडियों व गांव के मकान की कल्पना करता है तो वह कितना अधिक काल्पनिक होता है, वह हम सब फिल्म में देखते ही रहते हैं.

तभी तो अनुराग बसु की हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ में मुंबई में रह रहे दंपती मोंटी (पंकज त्रिपाठी) और काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) की कहानी देख कर दर्शकों को यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा कुछ हो सकता है. कहानी के अनुसार, मोंटी व काजोल की 2 टीनएजर बेटियां हैं. मोंटी और काजोल दोनों की जिंदगी में सुकून नहीं है. दोनों नाम बदल कर व्हाटसऐप चैट करते हैं. काजोल, माया बन कर अपने पति को रोमांस के लिए होटल बुलाती है, जहां वह अपनी सहेली की मदद से पति मोंटी को नंगा कर पूरे फाइवस्टार होटल व सड़क पर निर्वस्त्र दौड़ाती है.

मोंटी माफी मांगता है तो काजोल उसे गोवा ले जाती है जहां वह अपनी उम्र से भी आधी उम्र के युवक के साथ रोमांस करती है और होटल के एक कमरे में अपने प्रेमी संग ऐयाशी करती है. अपनी पत्नी की ये सारी हरकतें बेचारा मोंटी देखता रहता है. इस के बावजूद, मोंटी माफी मांगते हुए पत्नी के पैर की उंगलियों को चूसता है.

अंगरेजीदां लोगों की घुसपैठ

दर्शक पूछ रहे हैं कि क्या भारत में इस तरह की आधुनिक मिडिल क्लास पत्नियां हैं? मोंटी की एक टीनएजर बेटी पूछती है कि उसे सैक्स के लिए लड़के को ‘किस’ करना चाहिए या लड़की को ‘किस’ करना चाहिए? अब इस तरह के दृश्यों व कहानी से भारत का मिडिल क्लास दर्शक रिलेट नहीं कर पाया और फिल्म फ्लौप हो गई. 150 करोड़ रुपए की लागत में बनी यह फिल्म लगभग 50 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी. नो लौस नो प्रौफिट के लिए इस फिल्म को 450 करोड़ रुपए कमाने होंगे, जोकि असंभव है.

सब से बड़ी समस्या यह है कि इतने बड़े बजट की फिल्म बनाने वाले फिल्म के फ्लौप होने पर दशकों की अक्ल पर सवाल उठाते हैं. अक्षय कुमार के अभिनय से सजी फिल्म ‘खेल खेल में’ बौक्स औफिस पर केवल 20 करोड़ रुपए कमा कर डिजास्टर हो गई तब फिल्म के निर्देशक मुदस्सर अजीज ने कहा, ‘इस तरह की बेहतरीन फिल्म के समझने का आईक्यू लैवल हमारे देश के लोगों में नहीं है.’ इसी तरह फिल्म ‘फाइटर’ के डिजास्टर होने पर फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ आनंद ने कहा, ‘हमारे देश में 3 प्रतिशत लोगों ने एयरपोर्ट ही नहीं देखा, तो फिर हमारी फिल्म उन की समझ में कैसे आएगी.’

कहने का अर्थ यह कि इन अंगरेजीदां लोगों ने अपना रहनसहन ही बदल लिया है और इन लोगों ने अब देश में नया कास्ट सिस्टम बना दिया है. अंगरेजीदां लोग हजार रुपए की शर्ट पहन कर खुद को एलीट क्लास बताते हुए गुमान करते हैं और हिंदीभाषी लोगों को ‘पिछड़ा वर्ग’ बताते हैं. इन की नजर में पिछड़ा वर्ग अनपढ़, गंवार है, जिस की समझ में सिनेमा आ ही नहीं सकता. ऐसे में कई सवाल उठते हैं. वे करोड़ों रुपए खर्च कर सिनेमा बनाते ही क्यों हैं?

सवाल यह भी कि वे इस तरह समाज के अंदर ही तोड़फोड़ कर क्या हासिल करना चाहते हैं या देश को कहां ले जाना चाहते हैं? और यदि सिर्फ सिनेमा की असली सम?ा सिर्फ इन्हें है तो फिर इन का सिनेमा बौक्स औफिस पर दम क्यों तोड़ रहा है. क्या ये लोग ‘क्रिमिनल वेस्टेज औफ मनी’ का काम नहीं कर रहे?

पूरे हालात पर गौर करने के बाद यह बात साफतौर पर उभर कर आती है कि भारतीय सिनेमा का विकास तभी संभव है जब हर प्रोडक्शन कंपनी से इन अंगरेजीदां लोगों को हटा कर बाहर किया जाए, हर कलाकार को उस की अभिनय क्षमता और बौक्स औफिस पर एकत्र कर सकने वाली रकम के अनुपात में ही फीस दी जाए और कम से कम बजट में बेहतरीन कहानी वाली फिल्में बनाई जाएं ऐसी कि जिन से आम भारतीय दर्शक रिलेट कर सके.

Bihar Assembly Election : क्या है तेजस्वी की राजनीति खत्म करने की साजिश ?

Bihar Assembly Election : बिहार विधानसभा की चुनावी लड़ाई मतदान से पहले ही शुरू हो गई है. बिहार में विपक्ष का चेहरा राजद नेता तेजस्वी यादव हैं. वह बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं. जनाधार वाले नेता हैं. उन के कारण भाजपा बिहार में अपने बल पर खड़ी नहीं हो पा रही है. बिहार में तेजस्वी यादव के चुनाव लड़ने में बाधा खड़ी हो गई है. सवाल उठ रहा है कि क्या तेजस्वी यादव को दो वोटर आईडी रखने के आरोप में चुनाव लड़ने से रोकने की साजिश हो रही है.

तेजस्वी यादव कहते है उन्होंने पिछले साल के लोकसभा चुनाव में इपिक नंबर आरएबी 2916120 वोटर आई कार्ड से मतदान किया था, जो अब ड्राफ्ट रोल से गायब है. इस के बजाय चुनाव आयोग की नई वोटर लिस्ट में तेजस्वी का नाम इपिक नंबर आरएबी 0456228 दर्ज है. अब इसे ले कर ही तेजस्वी की मुश्किलें बढ़ गई हैं, क्योंकि उन के पास दोदो वोटर आई कार्ड हैं. चुनाव आयोग ने चिट्ठी लिख कर तेजस्वी यादव से मतदाता पहचान पत्र नंबर का ब्यौरा देने को कहा है.

तेजस्वी यादव बिहार की दीघा विधानसभा सीट के वोटर हैं, लेकिन राज्य विधानसभा में विधायक के तौर पर वह राघोपुर विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. दीघा निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी (ईआरओ) ने आरजेडी नेता को चिट्ठी लिख कर कहा कि जांच में पता चला कि आप का नाम मतदान केंद्र संख्या 204 के सीरियल नंबर 416 पर दर्ज है, जिस का इपिक नंबर आरएबी 0456228 है.

तेजस्वी ने चुनाव आयोग पर बीजेपी के लिए काम करने का आरोप लगाया है. दूसरी तरफ विपक्षी दलों के नेताओं ने चुनाव आयोग से तेजस्वी यादव के दो वोटर कार्ड का संज्ञान लेने और उन के खिलाफ मामला दर्ज करने का अपील की है. बीजेपी और बिहार में उस के सभी सहयोगी दलों के नेताओं का साफ कहना है कि तेजस्वी के पास दो वोटर कार्ड कहां से आए, किसी भी व्यक्ति के पास दो मतदाता पहचान पत्र होना अपराध है.

भारत में एक व्यक्ति के पास दो वोटर कार्ड होना कानूनन अपराध है. यह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत एक गंभीर उल्लंघन माना जाता है. दो वोटर आईडी कार्ड रखने पर किसी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है, जिस में जुर्माना, जेल या दोनों शामिल हो सकते हैं. इस के अलावा यह तेजस्वी यादव जैसे किसी नेता के चुनाव लड़ने की योग्यता को भी प्रभावित कर सकता है. दो वोटर आईडी कार्ड रखना वोटर लिस्ट में डुप्लीकेट एंट्री माना जाता है, जो गैरकानूनी है.

धारा 31 के तहत, अगर कोई व्यक्ति वोटर लिस्ट में गलत जानकारी देता है या फर्जी दस्तावेज पेश करता है, तो यह अपराध माना जाता है. अगर दूसरा वोटर आईडी कार्ड फर्जी दस्तावेज दे कर बनवाया गया है, तो कानूनी तौर पर जेल या जुर्माना लगाया जा सकता है.

जिस तरह से राहुल गांधी के खिलाफ साजिश कर के उन की सदस्यता खत्म कराने का काम किया गया, उसी तरह से बिहार के प्रमुख नेता तेजस्वी यादव को भी वोटर लिस्ट विवाद में खींच कर चुनाव के पहले ही विपक्ष को खत्म करने की साजिश रची जा रही है. वोटर लिस्ट विवाद में अगर तेजस्वी का दोष साबित होता है तो वह गहरे संकट में फंस सकते हैं. इस तरह से विपक्ष को खत्म करने की साजिश रची जा रही है.

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