Family Story : जब मैं बोलती थी तो घर के सभी लोग कहते, ‘कितना बोलती हो,’ और आज जब मेरे मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा तो सभी चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं.
आज मैं कुछ नहीं कहना चाहती, कुछ भी नहीं.क्यों कहूं? हां, जिस प्यार को, जिस अपनेपन को तरसती रही उम्रभर, आज वह बिन मांगे मिल रहा है. बजाज साहब (पति) अपनी गोद में मेरा सिर रखे हुए हैं, बच्चे (बेटाबहू) सब के सब अपना कामकाज छोड़ मेरे पास हैं. सब की आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं. सब मुझे जबरदस्ती डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहे हैं, लेकिन आज मुझे कहीं नहीं जाना, कहीं नहीं. क्यों जाऊं?
पता उन्हें भी है कि अब मेरा आखिरी समय है. अब डाक्टर के पास जा कर कुछ नहीं होगा. लेकिन फिर भी बारबार ले जाने को कह रहे हैं. आज सब चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं, कुछ कहूं. मगर पहले जबजब भी कुछ कहना चाहा तो मेरे होंठों पर ताला जड़ा जाता रहा तो फिर आज क्यों बोलूं, क्यों अपने जिगर के जख्मों को खोलूं, क्या कोई अब इन पर मरहम लगा पाएगा?
आज मैं आखिरी सांसें ले रही हूं, सब मेरे पास हैं, कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ. बहू कहती है, ‘‘मम्मीजी, कुछ बोलिए न, देखिए समक्ष आप को बुला रहे हैं, आप की लाड़ली पोती को स्कूल के लिए देर हो रही है, आप को पता है न जब तक आप उस को टिफिन नहीं पकड़ातीं, वह स्कूल नहीं जाती. आप बोलती क्यों नहीं मम्मीजी, कुछ तो बोलिए.’’
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