Bollywood : पोस्ट कोविड बौलीवुड संकट में है. बड़े बजट वाली स्टारर फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं, ‘हाउसफुल 5’, ‘सिकंदर’ और ‘मैट्रो इन दिनों’ जैसी फिल्में अपनी लागत भी नहीं कमा पा रहीं. कारण? कौर्पोरेटाइजेशन के बाद फिल्में सिर्फ बैलेंसशीट और स्टारपावर पर बन रही हैं, उन में कंटैंट नहीं. एमबीए वाले सीईओ कलाकारों की फीस और शेयर मार्केट को प्राथमिकता देते हैं, दर्शकों की पसंद नहीं. नतीजा, बजट बढ़ा, कहानी गायब. सो, इंडस्ट्री संकट में है.

कोविड के बाद से अब तक बौलीवुड में लगभग सूखा पड़ा हुआ है. सभी ए लिस्टर यानी कि स्टार कलाकारों की बड़ेबड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर धराशायी हो चुकी हैं. हालिया प्रदर्शित साजिद नाडियाडवाला की फिल्म ‘हाउसफुल 5’ की कमाई बौक्स औफिस पर 217 करोड़ रुपए बताया जा रहा है. फिर भी इसे सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस का बजट 375 करोड़ रुपए है. तो वहीं टीसीरीज की मल्टीस्टारर फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ 50 करोड़ ही कमा पाई. ये सभी फिल्में डिजास्टर ही हैं.

नियमतया जब फिल्म ‘हाउसफुल 5’ बौक्स औफिस पर कम से कम 800 करोड़ रुपए कमाए, तब यह फिल्म ‘नो लौस नो प्रौफिट’ में पहुंचेगी जबकि ‘हाउसफुल 5’ में अक्षय कुमार, जैकी श्रौफ, रंजीत, फरदीन खान, रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, बौबी देओल सहित 20 स्टार कलाकार हैं.

इस से पहले 30 मार्च, 2025 को सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ रिलीज हुई थी, निर्माता ने ब्लौक बुकिंग, फेक बुकिंग वगैरह कर अपनी जेब से करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा कर दावा किया कि फिल्म ने 145 करोड़ कमा लिए, जबकि पूरा बौलीवुड ही नहीं दर्शक भी जानते हैं कि फिल्म बिलकुल नहीं चली. निर्माता ने झुठे आंकड़े पेश किए, फिर भी वे अपनी फिल्म को सफल नहीं करा सके क्योंकि फिल्म का बजट 250 करोड़ रुपए है.

गत वर्ष 11 अप्रैल, 2024 को अक्षय कुमार, टाइगर श्रौफ, पृथ्वीराज सुकुमारन, मानुषी छिल्लर व सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस का बजट 350 करोड़ रुपए था पर निर्माता के अनुसार इस ने बौक्स औफिस पर 100 करोड़ रुपए एकत्र किए. इस फिल्म की असफलता के बाद से निर्माता वासु भगनानी लंदन में हैं. फिल्म से जुडे़ कई कलाकारों व तकनीशियनों के पैसे अभी तक नहीं दिए गए. ये चंद उदाहरण हैं.

सच्चाई यह है कि 50 करोड़ रुपए से 130 करोड़ रुपए तक की फीस लेने वाले किसी भी स्टार कलाकार की फिल्में अपने निर्माता को कमा कर नहीं दे रही हैं.

पिछले 4 वर्षों के दौरान अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत वसूल नहीं कर पाईं. इन बड़ी फिल्मों की असफलता के ही चलते केवल पीवीआर आयनौक्स मल्टीप्लैक्स के शेयर के दाम एक साल के अंदर 1,800 रुपए से गिर कर 14 जुलाई को 979 रुपए पर आ गए.

बढ़ता कौर्पोरेट कल्चर

बड़े बजट और बड़े स्टार की फिल्में लगातार असफल हो रही हैं. इस की मूल वजह यह है कि अब फिल्में कागज पर यानी कि बैलेंसशीट पर बनती हैं. 2001 के बाद जिस तरह से बौलीवुड का कौर्पोरेटाइजेशन हुआ है, उस के तहत हर स्टूडियो और हर बडे़ प्रोडक्शन हाउस में एमबीए पास कर आए लोग बैठे हुए हैं जिन्हें इंग्लिश भाषा में एमबीए की पढ़ाई के दौरान साबुन, तेल, कार, स्टील आदि बेचना सिखाया जाता है. ये ठीक से न हिंदी पढ़ सकते हैं और न ही हिंदी में बातचीत कर सकते हैं. इन एमबीए के नुमाइंदों को हिंदी साहित्य का एबीसीडी भी नहीं पता होता.

एमबीए की शिक्षा में सिनेमा की कोई चर्चा ही नहीं होती, जिस की वजह से न इन्हें सिनेमा बेचना आता है और न ही इन्हें सिनेमा या कहानी आदि की कोई समझ है पर अब ये सभी खुद को सिनेमा के उद्धारकर्ता के रूप में पेश करते हुए फिल्म इंडस्ट्री को डुबाने पर आमादा हैं. इन्हें एमबीए में जो कुछ पढ़ाया गया, उसी के कदमों पर चलते हुए ये सभी अपनी कंपनी की बैलेंसशीट को संभालने के जुगाड़ में लगे रहते हैं. इन की मूल जिम्मेदारी होती है कि कंपनी की बैलेंसशीट ऐसी हो जिस से कंपनी के शेयर के दाम न गिरें और शेयर बाजार से जो कमाई हो रही है, वह लगातार जारी रहे.

अब ऐसा करने के लिए तो शेयरधारकों को धोखे में रखना ही पड़ता है. इसलिए सभी कंपनी के सीईओ और उन के साथ काम कर रहे एमबीए डिग्रीधारी लोग फिल्म की कहानी की गुणवत्ता या निर्देशक की काबिलीयत पर गौर करने के बजाय निर्देशक के सामने एक ही शर्त रखते हैं कि वह किस स्टार कलाकार को ला सकता है.

इस के बाद वे कहते हैं कि, ‘स्टार कलाकारों के सहमतिपत्र के साथ फिल्म की कहानी की सिनौप्सिस इंग्लिश में ईमेल कर दें.’ इन एमबीए डिग्रीधारकों की सोच व समझ सिर्फ यह कहती है कि अगर उन की फिल्म में स्टार कलाकार होगा तो वे इंग्लिश में फिल्म की सिनौप्सिस के साथ पेपरवर्क तैयार करेंगे और उन की कंपनी की बैलेंसशीट गड़बड़ नहीं होगी व शेयर के दाम नहीं गिरेंगे.

कहानी पर कम ध्यान

एक बार हम ने एक बहुत बड़े कौर्पोरेट स्टूडियो के सीईओ से जब पूछा था कि आप फिल्में बना रहे हैं लेकिन आप के स्टूडियो की बड़े बजट की फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं तो उन्होंने जो जवाब दिया था उस के माने मेरी समझ से परे थे. उन्होंने कहा था, ‘हर कौर्पोरेट स्टूडियो के लिए जरूरी है कि उस का कैटलौग मजबूत हो.’

‘हम अपनी फिल्म की कहानी की बात ही नहीं करते. ज्यादा से ज्यादा फिल्म के जौनर की चर्चा करते हैं कि यह कौमेडी या ऐक्शन है या अन्य जौनर की फिल्म है. फिल्म के प्रमोशन के लिए हम उन शहरों में अपनी फिल्म के कलाकारों को ले जा कर डांस वगैरह के इवैंट करते हैं जहां हमारी कंपनी के शेयरधारक ज्यादा हैं.

हम कभीकभी अपनी कंपनी के कुछ चुनिंदा बड़े शेयरधारक को फिल्म के प्रीमियर में बुला कर उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध से अचंभित कर देते हैं. इस से हमारी कंपनी का ‘कैटलौग’ और बैलेंसशीट दोनों मजबूत बनी रहती हैं. ‘देखिए अब यह युग डिजिटल मार्केटिंग और सोशल मीडिया का है. लोग यह जान कर खुश होते हैं कि उन का पसंदीदा कलाकार अब कितनी अधिक फीस ले रहा है.’

जी हां, यही कटु सत्य है. इन्हें इस बात का एहसास ही नहीं है कि फिल्म की सफलता के लिए पहली जरूरत कंटैंट यानी कि कहानी होती है. यदि कहानी व पटकथा अच्छी हो तो फिर ऐसे काबिल निर्देशक की जरूरत पड़ती है जो कागज पर लिखी कहानी व पटकथा को कलाकारों के माध्यम से सैल्यूलाइड के परदे पर ज्यों का त्यों उतार सके. उस के बाद उस बेहतरीन कहानी पर बनी बेहतरीन फिल्म को मार्केट करना चाहिए.

80 व 90 के दशकों में ऐसा ही हुआ करता था पर अब इन एमबीएधारी लोगों के पास कहानी के नाम पर एक ही विचार होता है. कहानियां तो सब एक ही होती हैं. पूरे विश्व में 9 कहानियां ही हैं. उन्हीं को घुमाफिरा कर सुनाना है. असली टैलेंट तो यह है कि हम अपनी फिल्म में किस बड़े कलाकार को जोड़ते हैं.

अपने टैलेंट को साबित करने के लिए ये एमबीएधारी अभिनेता को उस की औकात से काफी ज्यादा रकम देते हैं. इस तरह फिल्म का बजट बेहिसाब बढ़ता जाता है. हमें याद है कि 2001 में जब नितिन केणी के नेतृत्व में जी टैली फिल्म्स ने स्टूडियो सिस्टम के तहत फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ का निर्माण महज साढ़े 18 करोड़ रुपए में किया था और इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 133 करोड़ रुपए कमा कर हंगामा बरपा दिया था, उस वक्त पहली बार इस फिल्म के निर्माण से जुड़े हर शख्स को चैक से पेमेंट मिला था.

उस के बाद कुकुरमुत्ते की तरह तमाम कौर्पोरेट कंपनियां उग आई थीं और इन के बीच कलाकार को अपने साथ जोड़ने की होड़ लग गई थी.

वर्ष 2012 तक करीबन 35 कौर्पोरेट कंपनियां सक्रिय थीं और कलाकारों को 10 लाख के बजाय 50 करोड़ रुपए तक फीस दे कर फिल्में बना रहे थे. 2012 से 2015 के बीच तकरीबन 15 कंपनियां धड़ाधड़ बंद हो गईं. यह सिलसिला लगातार चलता रहा. अब गिनती के महज चारपांच स्टूडियो ही बचे हैं. इन स्टूडियो द्वारा बनाई जा रहीं सभी बड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत का आधा हिस्सा भी नहीं जुटा पा रही हैं पर ये कंपनियां अपनी बैलेंसशीट व कैटलौग के मजबूत होने के दावे जरूर कर रही हैं.

अब तो मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अक्षय कुमार को प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए, अल्लू अर्जुन को ‘पुष्पा 2’ के बाद प्रति फिल्म 250 करोड़ रुपए, अजय देवगन 50 करोड़, प्रभास प्रति फिल्म 150 करोड़, शाहरुख खान प्रति फिल्म 90 करोड़ रुपए की फीस ले रहे हैं.

अफसोस की बात यह है कि प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए लेने वाले अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर धूल चाट चुकी हैं. अक्षय कुमार की फिल्में 100 करोड़ रुपए भी नहीं कमा पा रही हैं.

2014 में वासु भगनानी निर्मित फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस में अक्षय कुमार व टाइगर श्रौफ की जोड़ी थी. साढ़े 300 करोड़ रुपए के बजट में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर 90 करोड़ रुपए भी एकत्र न कर सकी. ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में कहानी नहीं चूंचूं का मुरब्बा था. अगर वासु भगनानी ने एक अच्छी कहानी व पटकथा चुन कर सीमित बजट में फिल्म का निर्माण किया होता तो फिल्म को नुकसान न होता.

एक बार मशहूर फिल्म निर्देशक राज कुमार संतोषी ने हम से कहा था, ‘देखिए, हर कहानी का अपना एक बजट होता है. हर कहानी की डिमांड के अनुरूप कलाकार चुन कर उन्हें उसी हिसाब से फीस दे कर बनाया जाए और उसे सही तरीके से दर्शकों तक पहुंचाया जाए तो नुकसान नहीं हो सकता पर कौर्पोरेट कंपनी में बैठे एमबीए वालों को कुछ पता ही नहीं होता. वे कहानी पढ़ते नहीं हैं, केवल कागजी खानापूर्ति के लिए कहानी को इंग्लिश में मांग कर उसे कौलम में भर देते हैं.

बदला हुआ कल्चर

वास्तव में फिल्म के बजट बढ़ने और फिल्मों की असफलता की एक वजह इन फिल्म प्रोडक्शन कंपनियों व स्टूडियोज में बदला हुआ वर्क कल्चर भी है. औक्सफोर्ड सहित कई विदेशी यूनिवर्सिटीज से एमबीए या ज्यादा से ज्यादा फिल्ममेकिंग का कोर्स कर वापस लौटने के बाद भारत में स्टूडियो या प्रोडक्शन हाउस में सीईओ के पद पर आसीन ये लोग नई फिल्म की प्लानिंग व कहानी सुनने के नाम पर प्रोड्यूसर या डायरैक्टर या ऐक्टर के साथ मीटिंग किसी न किसी फाइवस्टार होटल में बैठ कर हजार रुपए की कौफी की चुस्कियां लगाते हुए करते हैं तो इन्हें उस दर्शक के स्वाद का एहसास कैसे होगा जोकि सिनेमाघर के बाहर पहले 5 रुपए से ले कर 10 रुपए तक की कीमत की कटिंग चाय पीने के बाद सिनेमाघर के अंदर फिल्म देखने के लिए घुसता है.

ये एमबीएधारी वे लोग हैं जिन्हें हिंदी आती नहीं. आम इंसानों से इन का कभी वास्ता नहीं रहा. इसी के चलते इन्हें दर्शक की नब्ज का अतापता ही नहीं होता. हजार रुपए की कौफी पीने वाला यह शख्स कभी भी किसी गरीब के घर जाने का भी साहस नहीं करता. यह तो गिरी हुई हालत में भी स्टारबक्स में बैठ कर 400 रुपए की चाय की चुस्कियां लेते हुए गांव की पगडंडियों व गांव के मकान की कल्पना करता है तो वह कितना अधिक काल्पनिक होता है, वह हम सब फिल्म में देखते ही रहते हैं.

तभी तो अनुराग बसु की हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ में मुंबई में रह रहे दंपती मोंटी (पंकज त्रिपाठी) और काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) की कहानी देख कर दर्शकों को यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा कुछ हो सकता है. कहानी के अनुसार, मोंटी व काजोल की 2 टीनएजर बेटियां हैं. मोंटी और काजोल दोनों की जिंदगी में सुकून नहीं है. दोनों नाम बदल कर व्हाटसऐप चैट करते हैं. काजोल, माया बन कर अपने पति को रोमांस के लिए होटल बुलाती है, जहां वह अपनी सहेली की मदद से पति मोंटी को नंगा कर पूरे फाइवस्टार होटल व सड़क पर निर्वस्त्र दौड़ाती है.

मोंटी माफी मांगता है तो काजोल उसे गोवा ले जाती है जहां वह अपनी उम्र से भी आधी उम्र के युवक के साथ रोमांस करती है और होटल के एक कमरे में अपने प्रेमी संग ऐयाशी करती है. अपनी पत्नी की ये सारी हरकतें बेचारा मोंटी देखता रहता है. इस के बावजूद, मोंटी माफी मांगते हुए पत्नी के पैर की उंगलियों को चूसता है.

अंगरेजीदां लोगों की घुसपैठ

दर्शक पूछ रहे हैं कि क्या भारत में इस तरह की आधुनिक मिडिल क्लास पत्नियां हैं? मोंटी की एक टीनएजर बेटी पूछती है कि उसे सैक्स के लिए लड़के को ‘किस’ करना चाहिए या लड़की को ‘किस’ करना चाहिए? अब इस तरह के दृश्यों व कहानी से भारत का मिडिल क्लास दर्शक रिलेट नहीं कर पाया और फिल्म फ्लौप हो गई. 150 करोड़ रुपए की लागत में बनी यह फिल्म लगभग 50 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी. नो लौस नो प्रौफिट के लिए इस फिल्म को 450 करोड़ रुपए कमाने होंगे, जोकि असंभव है.

सब से बड़ी समस्या यह है कि इतने बड़े बजट की फिल्म बनाने वाले फिल्म के फ्लौप होने पर दशकों की अक्ल पर सवाल उठाते हैं. अक्षय कुमार के अभिनय से सजी फिल्म ‘खेल खेल में’ बौक्स औफिस पर केवल 20 करोड़ रुपए कमा कर डिजास्टर हो गई तब फिल्म के निर्देशक मुदस्सर अजीज ने कहा, ‘इस तरह की बेहतरीन फिल्म के समझने का आईक्यू लैवल हमारे देश के लोगों में नहीं है.’ इसी तरह फिल्म ‘फाइटर’ के डिजास्टर होने पर फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ आनंद ने कहा, ‘हमारे देश में 3 प्रतिशत लोगों ने एयरपोर्ट ही नहीं देखा, तो फिर हमारी फिल्म उन की समझ में कैसे आएगी.’

कहने का अर्थ यह कि इन अंगरेजीदां लोगों ने अपना रहनसहन ही बदल लिया है और इन लोगों ने अब देश में नया कास्ट सिस्टम बना दिया है. अंगरेजीदां लोग हजार रुपए की शर्ट पहन कर खुद को एलीट क्लास बताते हुए गुमान करते हैं और हिंदीभाषी लोगों को ‘पिछड़ा वर्ग’ बताते हैं. इन की नजर में पिछड़ा वर्ग अनपढ़, गंवार है, जिस की समझ में सिनेमा आ ही नहीं सकता. ऐसे में कई सवाल उठते हैं. वे करोड़ों रुपए खर्च कर सिनेमा बनाते ही क्यों हैं?

सवाल यह भी कि वे इस तरह समाज के अंदर ही तोड़फोड़ कर क्या हासिल करना चाहते हैं या देश को कहां ले जाना चाहते हैं? और यदि सिर्फ सिनेमा की असली सम?ा सिर्फ इन्हें है तो फिर इन का सिनेमा बौक्स औफिस पर दम क्यों तोड़ रहा है. क्या ये लोग ‘क्रिमिनल वेस्टेज औफ मनी’ का काम नहीं कर रहे?

पूरे हालात पर गौर करने के बाद यह बात साफतौर पर उभर कर आती है कि भारतीय सिनेमा का विकास तभी संभव है जब हर प्रोडक्शन कंपनी से इन अंगरेजीदां लोगों को हटा कर बाहर किया जाए, हर कलाकार को उस की अभिनय क्षमता और बौक्स औफिस पर एकत्र कर सकने वाली रकम के अनुपात में ही फीस दी जाए और कम से कम बजट में बेहतरीन कहानी वाली फिल्में बनाई जाएं ऐसी कि जिन से आम भारतीय दर्शक रिलेट कर सके.

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