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Family Story : साहिल ने कैसे निभाया अपने भाई होने का फर्ज?

Family Story : साहिल आज काफी मसरूफ था. सुबह से उठ कर वह जयपुर जाने की तैयारी में लगा था. उस की अम्मी उस के काम में हाथ बंटा रही थीं और समझा रही थीं, ‘‘बेटे, दूर का मामला है, अपना खयाल रखना और खाना ठीक समय पर खा लिया करना.’’

साहिल अपनी अम्मी की बातें सुन कर मुसकराता और कहता, ‘‘हां अम्मी, मैं अपना पूरा खयाल रखूंगा और खाना भी ठीक समय पर खा लिया करूंगा. वैसे भी अम्मी अब मैं बड़ा हो गया हूं और मुझे  अपना खयाल रखना आता है.’’

साहिल को इंटरव्यू देने जयपुर जाना था. उस के दिल में जयपुर घूमने की चाहत थी, इसलिए वह 10-15 दिन जयपुर में रहना चाहता था. सारा सामान पैक कर के साहिल अपनी अम्मी से विदा ले कर चल पड़ा.

अम्मी ने साहिल को ले कर बहुत सारे ख्वाब देखे थे. जब साहिल 8 साल का था, तब उस के अब्बा बब्बन मियां का इंतकाल हो गया था. साहिल की अम्मी पर तो जैसे बिजली गिर गई थी. उन के दिल में जीने की कोई तमन्ना ही नहीं थी, लेकिन साहिल को देख कर वे ऐसा न कर सकीं.

अम्मी ने साहिल की अच्छी परवरिश को ही अपना मकसद बना लिया था. इसी वजह से साहिल को कभी अपने अब्बा की कमी महसूस नहीं हुई थी. तभी तो साहिल ने अपनी अम्मी की इच्छाओं को पूरा करने के लिए एमए कर लिया था और अब वह नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने जयपुर जा रहा था.

साहिल को विदा कर के उस की अम्मी घर का दरवाजा बंद कर घर के कामों में मसरूफ हो गईं. उधर साहिल भी अपने शहर के बस स्टैंड पर पहुंच गया.

जयपुर जाने वाली बस आई, तो साहिल ने बस में चढ़ कर टिकट लिया और एक सीट पर बैठ गया. साहिल की आंखों से उस का शहर ओझल हो रहा था, पर उस की आंखोंमें अम्मी का चेहरा रहरह कर सामने आ रहा था.

अम्मी ने साहिल को काफी मेहनत से पढ़ायालिखाया था, इसलिए साहिल ने भी इंटरव्यू के लिए बहुत अच्छी तैयारी की थी. बस के चलतेचलते रात हो गई थी. ज्यादातर सवारियां सो रही थीं. जो मुसाफिर बचे थे, वे ऊंघ रहे थे.

रात के अंधेरे को रोशनी से चीरती हुई बस आगे बढ़ी जा रही थी. एक जगह जंगल में रास्ता बंद था. सड़क पर पत्थर रखे थे. ड्राइवर ने बस रोक दी. तभी 2-3 बार फायरिंग हुई और बस में कुछ लुटेरे घुस आए.

इस अचानक हुए हमले से सभी मुसाफिर घबरा गए और जान बचाते हुए अपना सारा पैसा उन्हें देने लगे. एक लड़की रोरो कर उन से दया की भीख मांगने लगी. वह बारबार कह रही थी, ‘‘मेरे पास थोड़े से रुपयों के अलावा कुछ नहीं है.’’

मगर उन जालिमों पर उस की मासूम आवाज का कुछ असर नहीं हुआ. उन में से एक लुटेरा, जो दूसरे सभी लुटेरों का सरदार लग रहा था, एक लुटेरे से बोला, ‘‘अरे ओ कृष्ण, बहुत बतिया रही है यह लड़की. अरे, इस के पास देने को कुछ नहीं है, तो उठा ले ससुरी को और ले चलो अड्डे पर.’’ इतना सुनते ही एक लुटेरे ने उस लड़की को उठा लिया और जबरदस्ती उसे अपने साथ ले जाने लगा.

वह डरी हुई लड़की ‘बचाओबचाओ’ चिल्ला रही थी, पर किसी मुसाफिर में उसे बचाने की हिम्मत न हुई. साहिल भी चुप बैठा था, पर उस के दिल के अंदर से आवाज आई, ‘साहिल, तुम्हें इस लड़की को उन लुटेरों से छुड़ाना है.’

यही सोच कर साहिल अपनी सीट से उठा और लुटेरों को ललकारते हुए बोला, ‘‘अरे बदमाशो, लड़की को छोड़ दो, वरना अच्छा नहीं होगा.’’ इतना सुनते ही उन में से 2-3 लुटेरे साहिल पर टूट पड़े. वह भी उन से भिड़ गया और लड़की को जैसे ही छुड़ाने लगा, तो दूसरे लुटेरे ने गोली चला दी. गोली साहिल की बाईं टांग में लगी.

साहिल की हिम्मत देख कर दूसरे कई मुसाफिर भी लुटेरों को मारने दौड़े. कई लोगों को एकसाथ आता देख लुटेरे भाग खड़े हुए, पर तब तक साहिल की टांग से काफी खून बह चुका था. लिहाजा, वह बेहोश हो गया.

ड्राइवर ने बस तेजी से चला कर जल्दी से साहिल को एक अस्पताल में पहुंचा दिया. सभी मुसाफिर तो साहिल को भरती करा कर चले गए, पर वह लड़की वहीं रुक गई. डाक्टर ने जल्दी ही साहिल की मरहमपट्टी कर दी.

कुछ देर बाद जब साहिल को होश आया, तो सामने वही लड़की खड़ी थी. साहिल को होश में आता देख कर वह लड़की बहुत खुश हुई. साहिल ने उसे देख राहत की सांस ली कि लड़की बच गई. पर अचानक इंटरव्यू का ध्यान आते ही उस के मुंह से निकला, ‘‘अब मैं जयपुर नहीं पहुंच सकता. मेरे इंटरव्यू का क्या होगा?’’

लड़की उस की बात सुन कर बोली, ‘‘क्या आप जयपुर में इंटरव्यू देने जा रहे थे? मेरी वजह से आप की ये हालत हो गई. मैं आप से माफी चाहती हूं. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘अरे नहीं, यह आप क्या कह रही हैं? आप ने मेरी बात का गलत मतलब निकाल लिया. अगर मैं आप को बचाने न आता, तो पता नहीं मैं अपनेआप को माफ कर भी पाता या नहीं. खैर, छोडि़ए यह सब. अच्छा, यह बताइए कि आप यहां क्यों रुक गईं? मुझे लगता है कि सभी मुसाफिर चले गए हैं.’’

लड़की ने कहा, ‘‘जी हां, सभी मुसाफिर रात को ही चले गए थे. आप के पास भी तो किसी को होना चाहिए था. अपनी जान की परवाह किए बिना आप ने मेरी जान बचाई. ऐसे में मेरा फर्ज बनता था कि मैं आप के पास रुकूं. मैं आप की हमेशा एहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था, जो मैं ने पूरा किया. अच्छा, यह बताइए कि आप कल जयपुर जा रही थीं या कहीं और…?’’

इतना सुनते ही लड़की की आंखों में आंसू आ गए. वह बोली, ‘‘आप ने मेरी जान बचाई है, इसलिए मैं आप से कुछ नहीं छिपाऊंगी. मेरा नाम आरती है. मेरे पैदा होने के कुछ साल बाद ही पिताजी चल बसे थे. मां ने ही मुझे पाला है.

‘‘मेरे ताऊजी मां को तंग करते थे. हमारे हिस्से की जमीन पर उन्होंने कब्जा कर लिया. उन्होंने मेरी मां से धोखे में कोरे कागज पर अंगूठा लगवा लिया और हमारी जमीन उन के नाम हो गई.

‘‘एक महीने पहले मां भी मुझे छोड़ कर चल बसीं. मेरे ताऊजी मुझे बहुत तंग करते थे. उन के इस रवैए से तंग आ कर मैं भाग निकली और उसी बस में आ कर बैठ गई, जो बस जयपुर जा रही थी.

‘‘मैं ने 12वीं तक की पढ़ाई की है. सोचा था कि कहीं जा कर नौकरी कर लूंगी,’’ यह कह कर आरती चुप हो गई.

साहिल को आरती की कहानी सुन कर अफसोस हुआ. कुछ देर बाद आरती बोली, ‘‘अब आप को होश आ गया है, 2-4 दिन में आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे. अच्छा तो अब मैं चलती हूं.’’

साहिल ने कहा, ‘‘पर कहां जाएंगी आप? अभी तो आप ने बताया कि अब आप का न कोई घर है, न ठिकाना. ऐसे में आप अकेली लड़की. बड़े शहर में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं होता.

‘‘वैसे, मेरा नाम साहिल है. मजहब से मैं मुसलमान हूं, पर अगर आप हमारे घर मेरी छोटी बहन बन कर रहें, तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

‘‘लेकिन, आप तो मुसलमान हैं?’’ आरती ने कहा. साहिल ने कहा, ‘‘मुसलमान होने के नाते ही मेरा यह फर्ज बनता है कि मैं किसी बेसहारा लड़की की मदद करूं. मुझे हिंदू बहन बनाने में कोई परहेज नहीं, अगर आप तैयार हों, तो…’’

आरती ने साहिल के पैर पकड़ लिए, ‘‘भैया, आप सचमुच महान हैं.’’

‘‘अरे आरती, यह सब छोड़ो, अब  हम अपने घर चलेंगे. अम्मी तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होंगी.’’ एक हफ्ते बाद साहिल ठीक हो गया.  डाक्टर ने उसे छुट्टी दे दी.

साहिल आरती को ले कर अपने घर पहुंचा. दरवाजा खटखटाते हुए उस ने आवाज लगाई, तो उस की अम्मी ने दरवाजा खोला.

साहिल को देख कर वे चौंकीं, ‘‘अरे साहिल, सब खैरियत तो है न? तू इतनी जल्दी कैसे आ गया? तू तो 15 दिन के लिए जयपुर गया था. क्या बात है?’’

‘‘अरे अम्मी, अंदर तो आने दो.’’

‘‘हांहां, अंदर आ.’’

साहिल जैसे ही लंगड़ाते हुए अंदर आया, तो उस की अम्मी को और धक्का लगा, ‘‘अरे साहिल, तू लंगड़ा क्यों रहा है? जल्दी बता.’’

साहिल ने कहा, ‘‘सब बताता हूं, अम्मी. पहले मैं तुम्हें एक मेहमान से मिलवाता हूं,’’ कह कर साहिल ने आरती को आवाज दी. आरती दबीसहमी सी अंदर आई. खूबसूरत लड़की को देख कर साहिल की अम्मी का दिल खुश हो गया, पर अगले ही पल अपने को संभालते हुए वे बोलीं, ‘‘साहिल, ये कौन है? कहीं तू ने…

‘‘अरे नहीं, अम्मी. आप गलत समझ रही हैं.’’

अपनी अम्मी से साहिल ने जयपुर सफर की सारी बातें बता दीं.

सबकुछ सुन कर साहिल की अम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तू ने यह अच्छा किया. अरे, नौकरी तो फिर कहीं न कहीं मिल ही जाएगी, पर इतनी खूबसूरत बहन तुझे फिर न मिलती. बेटी आरती, आज से यह घर तुम्हारा ही है.’’

इतना सुनते ही आरती साहिल की अम्मी के पैरों में गिर पड़ी.

‘‘अरे बेटी, यह क्या कर रही हो. तुम्हारी जगह मेरे दिल में बन गई. अब तुम मेरी बेटी हो,’’ इतना कह कर अम्मी ने आरती को गले से लगा लिया.

साहिल एक ओर खड़ा मुसकरा रहा था. अब साहिल के घर में बहन की कमी पूरी हो गई थी. आरती को भी अपना घर मिल गया था. उस की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए थे. Family Story

Social Story : सहेली की सीख – प्रज्ञा पल्लवी की मां को देखकर क्या सोच रही थी?

Social Story : पल्लवी और प्रज्ञा की कुछ दिन पहले ही मित्रता हुई थी. एक दिन स्कूल से घर लौटते समय प्रज्ञा ने पल्लवी को अपने घर चलने के लिए कहा तो पल्लवी अपनी असमर्थता जताती हुई बोली, ‘‘नहीं, आज नहीं. मैं फिर किसी दिन आऊंगी.’’

‘‘आज क्यों नहीं? तुम्हें आज ही चलना होगा,’’ प्रज्ञा जिद करती हुई आगे बोली, ‘‘हमारे गराज में आज सुबह ही क्रोकोडायल ने 3 बच्चे दिए हैं.’’ क्रोकोडायल प्रज्ञा की पालतू पामेरियन कुतिया का नाम था.

‘‘2 सुंदरसुंदर सफेद और एक काला चितकबरा है,’’ प्रज्ञा हाथों को नचाते हुए पिल्लों की सुंदरता का वर्णन करने लगी.

‘‘अच्छा, तब तो मैं उन्हें देखने कल जरूर आऊंगी.’’

‘‘जरूर आओगी न?’’

‘‘वादा रहा,’’ कहती हुई पल्लवी अपने घर की ओर जाने वाली गली में मुड़ गई. दूसरे दिन शाम को पल्लवी प्रज्ञा के घर पहुंची. पल्लवी का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए प्रज्ञा उसे अपने गराज की ओर ले गई, ‘‘देखो, हैं न सुंदरसुंदर पिल्ले? बताओ इन का क्या नाम रखें?’’ अपनी सहेली की ओर देखती हुई प्रज्ञा ने अपनी गोलगोल आंखें मटकाते हुए पूछा.

‘‘आहा, इतने सुंदर पिल्ले? नाम भी इन के इतने ही सुंदर होने चाहिए,’’ कुछ सोचती हुई पल्लवी काले चितकबरे  पिल्ले की ओर इशारा करती हुई बोली, ‘‘इस का नाम ‘ब्राउनी’ ठीक रहेगा.’’

‘‘हां, बिलकुल ठीक. इन दोनों का नाम ‘व्हाइटी’ और ‘ब्राउनी’ रख लेते हैं.’’ दोनों सहेलियां पिल्लों को प्यार करने में मग्न थीं. पल्लवी सफेद पिल्ले ‘व्हाइटी’ को गोद में उठा कर पुचकार रही थी कि व्हाइटी झट से अपनी मां की ओर कूद गया और चपरचपर अपनी मां का दूध पीने लगा. यह देख प्रज्ञा पिल्ले की पीठ सहलाती हुई कहने लगी, ‘‘भूख लगी है तुझे व्हाइटी? ठीक है, जा दूध पी ले अपनी मां का.’’ इतने में प्रज्ञा को मां ने आवाज दी पर प्रज्ञा ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. यह देख पल्लवी बोली, ‘‘प्रज्ञा, तुम्हें तुम्हारी मां पुकार रही हैं.’’

‘‘पुकारने दो, मां की तो आदत है,’’ लापरवाही से कंधे उचकाती हुई प्रज्ञा बोली और दोबारा पिल्लों से खेलने लगी. फिर मां की आवाज सुनाई दी तो पल्लवी बोली, ‘‘प्रज्ञा, तुम्हारी मां नाराज हो जाएंगी.’’

‘‘होने दो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मां तो हर बात पर नाराज होती हैं.’’ प्रज्ञा की यह हरकत पल्लवी को बिलकुल अच्छी नहीं लगी.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं,’’ कहती हुई पल्लवी उठ खड़ी हुई.

‘‘रुको न, हम थोड़ी देर और पिल्लों से खेलेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मेरी मां मेरा इंतजार कर रही होंगी,’’ कहती हुई पल्लवी फाटक खोल कर बाहर निकल गई. दूसरे दिन स्कूल में प्रज्ञा का पैन पल्लवी के पास रह गया था. घर आ कर प्रज्ञा जब स्कूल का काम करने लगी तो उसे पैन की याद आई. वह तुरंत पल्लवी के घर पहुंची. उस समय पल्लवी पलंग पर बैठी धुले हुए सूखे कपड़ों की तह बना कर समेट रही थी.

‘‘आओ प्रज्ञा,’’ प्रज्ञा को देख पल्लवी ने कहा और प्रज्ञा का परिचय अपनी मां से कराया. पल्लवी की मां खुश होते हुए बोलीं, ‘‘बैठो बेटी, मैं अभी तुम्हारे लिए आइसक्रीम ले कर आती हूं.’’ प्रज्ञा को आइसक्रीम बहुत पसंद थी. वह मन ही मन खुश होती हुई सोच रही थी कि पल्लवी की मां कितनी अच्छी हैं. वह पल्लवी की मां और अपनी मां की तुलना करने लगी, ‘कभी कोई सहेली आ जाती है, तब भी मेरी मां खयाल नहीं करतीं और ऊपर से किसी न किसी काम के लिए पुकारती रहती हैं.’ प्रज्ञा को पल्लवी के यहां बहुत अच्छा लगा. उस के बाद वह अकसर पल्लवी के यहां जाने लगी. वह देखती पल्लवी कभी रसोई में रखे गीले बरतनों को पोंछ कर रख रही है तो कभी फर्श पर पोंछा लगा रही है. उस के आते ही वह झट से उस के साथ खेलने लग जाती पर पल्लवी की मां कभी पल्लवी को बीच में नहीं पुकारतीं और ऊपर से वे हमेशा कुछ न कुछ खाने को भी देतीं.

एक दिन तो उस के आश्चर्य की हद हो गई. उस दिन टीवी पर एक बढि़या फिल्म आ रही थी और पल्लवी मां के साथ आलू के चिप्स सुखाने में मग्न थी. ‘‘उफ, कितना उबाऊ काम करती हो तुम?’’ प्रज्ञा पल्लवी के कानोें के पास मुंह ले जा कर फुसफुसाती हुई बोली, ‘‘चलो, टीवी देखते हैं.’’ ‘‘नहीं, अभी बहुत चिप्स बाकी हैं, जाओ तुम देखो.’’

‘‘चलो न, छोड़ो. यह काम तो मां कर ही लेंगी.’’

‘‘मां अकेली क्याक्या करें? थक जाती हैं. फिर वे ये सब बनाती भी तो हमारे लिए ही हैं,’’ पल्लवी चिप्स सुखाती हुई बोली. विवश हो कर प्रज्ञा भी पल्लवी के साथ चिप्स सुखाने लगी. दोनों के इकट्ठे काम करने से काम जल्दी खत्म हो गया. पल्लवी की मां दोनों को अंदर बैठक में बैठाती हुई बोलीं, ‘‘क्या खाओगी बेटी?’’ ‘‘मां, बड़ी जोर से भूख लगी है,’’ पल्लवी ने कहा तो उस की मां उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते व पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘मैं अभी तुम्हारे लिए बिस्कुट व नमकीन लाती हूं.’’

प्रज्ञा को उदास देख पल्लवी ने पूछा, ‘‘बुरा मान गई?’’

‘‘नहीं,’’ गरदन हिलाते हुए प्रज्ञा बोली, ‘‘तुम्हारी मां बहुत अच्छी हैं.’’

‘‘मां तो सब की अच्छी होती हैं.’’

प्रज्ञा कुछ नहीं बोली. वह उदास सी चुपचाप बैठी रही. बिस्कुट खाते समय भी वह बहुत गंभीर रही. अपने घर लौटते समय वह मन ही मन सोच रही थी कि मेरी मां तो बहुत चिड़चिड़ी हैं. जराजरा सी बात पर डांटने लगती हैं और पल्लवी की मां उस का कितना खयाल रखती हैं. यह सोच कर प्रज्ञा बहुत दुखी हो गई. ऐसा लग रहा था जैसे अभी उस की रुलाई फूट पड़ेगी. घर पहुंचते ही प्रज्ञा से उस की मां ने कहा, ‘‘देखो प्रज्ञा, कल स्कूल से आ कर तुम ने अपनी स्कूल ड्रैस भी धोने के लिए नहीं रखी. यहां तक कि तुम्हारा बस्ता भी अभी तक डाइनिंग टेबल की कुरसी पर पड़ा है.’’ प्रज्ञा की मां प्रज्ञा से और भी बहुत कुछ कह रही थीं किंतु उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. वह चुपचाप बुझेबुझे कदमों से अपना बस्ता उठा कर अपने कमरे में चली गई. ‘क्या खाओगी बेटी,’ पल्लवी की मां की आवाज उस के कानों में बारबार गूंज रही थी. वह दुखी मन से वहीं पलंग पर भूखी ही लेट गई.

शाम को जब पल्लवी पिल्लों के साथ खेलने के लिए प्रज्ञा के घर पहुंची तो प्रज्ञा को उदास पाया.

‘‘क्या बात है प्रज्ञा? आज तुम सुबह से ही उदास हो?’’

प्रज्ञा कुछ नहीं बोली.

‘‘बताओ न क्या बात हुई? क्या मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘सब की मांएं अपने बच्चों को प्यार करती हैं. एक मेरी मां हैं जो बस हर समय डांटती ही रहती हैं.’’ प्रज्ञा के मुंह से यह बात सुन कर आश्चर्यचकित पल्लवी बोली, ‘‘कैसी बातें करती हो प्रज्ञा? तुम्हारी मां तो इतनी बड़ी लेखिका हैं. तुम्हें तो अपनी मां पर गर्व होना चाहिए?’’ ‘‘होंगी बड़ी लेखिका,’’ मुंह बिचकाती हुई प्रज्ञा बोली, ‘‘बातबात पर डांटना, ऐसा क्यों कर दिया, वहां क्यों रख दिया, यह नहीं किया, वह नहीं किया…’’ कहतेकहते प्रज्ञा की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू छलछला आए.

अपने नन्हेनन्हे हाथों से प्रज्ञा के आंसू पोंछती हुई पल्लवी बोली, ‘‘एक बात कहूं प्रज्ञा, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं,’’ गरदन हिलाती प्रज्ञा आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘कहो, क्या कहना है तुम्हें?’’

पल्लवी बोली, ‘‘एक बात बताओ प्रज्ञा, तुम अपनी मां का कितना ध्यान रखती हो?’’

‘‘मां कोई छोटी बच्ची हैं जो मैं उन का ध्यान रखूं?’’ खीजती हुई प्रज्ञा बोली.

‘‘मेरे कहने का मतलब है कि मां जब तुम्हें कुछ कहती हैं तो तुम अनसुना कर देती हो. मां के काम बताते ही तुम मना कर देती हो. यदि तुम छोटेमोटे कामों में मां का सहयोग कर दो तो उन का काम काफी हलका हो जाएगा. मुझे देखो, मैं मां के बिना बताए ही काम कर देती हूं. मेरे छोटेमोटे काम कर देने से मां को बहुत राहत मिलती है. जब मां अकेली सारे घर का काम देखेंगी व अस्तव्यस्त सामान देखेंगी तो उन्हें समेटतेसमेटते स्वाभाविक रूप से गुस्सा तो आ ही जाएगा.’’ प्रज्ञा को मन ही मन अपनी गलती का एहसास हो रहा था. पल्लवी के जाने के बाद प्रज्ञा ने मन ही मन कुछ निश्चय किया.

सुबह प्रज्ञा मां के बिना उठाए ही उठ गई, यहां तक कि उस ने अपनी चादर भी समेट कर अलमारी में रख दी. प्रज्ञा को उठा देख कर मां ने दूध का गिलास मेज पर रख दिया था. हमेशा दूध के लिए नानुकुर करने वाली प्रज्ञा ने चुपचाप दूध पी लिया. खाली गिलास उठा कर रसोई में रखने चली गई व सिंक में रखे सभी प्यालेगिलासों को धोपोंछ कर ठीक से यथावत रख दिया. ‘‘क्या खाओगी बेटी, आज क्या बनाऊं?’’ प्रज्ञा की मां उस से पूछ रही थीं. प्रज्ञा ने कनखियों से मां का मुसकराता हुआ चेहरा देख लिया था. यह देख उसे बड़ी खुशी हुई. हमेशा शाम को स्कूल से लौट कर प्रज्ञा बस्ता पटक कर जूतेमोजे इधरउधर फेंक, बिना स्कूल ड्रैस बदले ही बाहर खेलने के लिए भाग जाती थी. मां आवाज देती रह जातीं किंतु वह सुनती कहां थी? उस दिन प्रज्ञा ने स्कूल से आ कर अपना सामान यथावत रखा. स्कूल की पोशाक बदली और हाथमुंह धो कर कमरे में झांक कर देखा तो पता चला कि मां कुछ लिखने में तल्लीन थीं. लिखते समय मां को तंग करने वाली प्रज्ञा उस दिन चुपचाप दबेपांव, रसोई की ओर मुड़ गई. देखा, सारी रसोई बिखरी पड़ी थी. ‘दिन में शायद मां से मिलने कुछ मेहमान आए होंगे,’ सोच कर प्रज्ञा ने सारा सामान समेट कर सफाई की व पूरी रसोई सुव्यवस्थित कर दी. बैठक से भी चायनाश्ते के बरतन उस ने बिना आवाज किए समेट दिए. यह सब करने के बाद वह खुद अपने हाथों से डब्बों में से केक व बिस्कुट निकाल कर प्लेट में रख कर चुपचाप खाने लगी. वहीं से वह मां को लिखते हुए देख रही थी. आज उसे पहली बार मां बहुत सुंदर लग रही थीं. पहली बार प्रज्ञा को यह सोच कर गर्व हो रहा था कि उस की मां बड़ी लेखिका हैं.

जब मां का लेखन कार्य पूरा हुआ तो वे कमरे से बाहर निकलीं. जब उन की नजरें पूरे घर में घूमीं तो उन्होंने खुशी के मारे प्रज्ञा को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘ओह, मेरी बेटी अब समझदार हो गई है.’’ दूर बैठी क्रोकोडायल अपने पिल्लों को दूध पिला रही थी और बच्चे उस के ऊपर उछलकूद कर रहे थे. क्रोकोडायल पिल्लों को चाट रही थी. यह देख प्रज्ञा भी मां की बांहों में झूम उठी. Social Story

Family Story In Hindi : तीसरी कौन – दिशा में क्यों हो रहे थे इतने बदलाव ?

Family Story In Hindi : पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

‘‘लाओ, यह कपड़ा मुझे दो. मैं तुम से बेहतर ड्रैसिंग टेबल चमका दूंगा… तुम इस गुलाब को अपने बालों में सजा कर दिखाओ.’’

‘‘यह तो रोहित की आवाज है,’’ दिशा बुदबुदाई. एक क्षण तो उसे लगा कि दोनों मियांबीवी के वार्त्तालाप के बीच कूद पड़े. फिर दूसरे ही क्षण जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, सोच चुपचाप पड़ी रही. उन का वार्त्तालाप उस के कान गूंजने लगा…

‘‘अरे, आप रहने दो मैं कर लूंगी.’’

‘‘फिक्र न करो. मुझे अपने काम की कीमत वसूलनी भी आती है.’’

‘‘आप जाइए न यहां से… कहीं दिन में ही न शुरू हो जाइएगा.’’

‘‘अरे मान भी जाओ… यह रोमांटिक बारिश देख रही हो.’’

दिशा के कान बंद हो चुके थे और आंसू आंखों से निकल कर कनपटियों को जलाने लगे थे. ये रोहित कब से इतने रोमांटिक हो गए? चूडि़यों की खनखन और एक उन्मत्त प्रेमी की सांसें मानो उस के चारों ओर भंवर सी मंडराने लगी थीं. अब उस के अंदर हिलनेडुलने की भी शक्ति शेष न रही थी. कमरे में आया तूफान भले ही थम गया हो, मगर दिशा की गृहस्थी की जड़ों को बुरी तरह हिला गया. किसी तरह अपनेआप को संभाला और दरवाजे की ओर बढ़ गई. जातेजाते एक नजर उस बैड पर डालना न भूली जिस पर अपरा और रोहित कंबल के अंदर एकदूसरे को बांहों में भरे थे. अपने कमरे में आ कर दिशा ने एक नजर चारों तरफ दौड़ाई… क्या अंतर है इस बैडरूम और अपरा दीदी के बैडरूम में? जो रोहित इस कमरे में तो शांत और गंभीर बने रहते हैं वे उस कमरे में इतने रोमांटिक हो जाते हैं? आज भले ही उस के वैवाहिक जीवन के 15 वर्ष गुजर गए हों. मगर उस ने रोहित का यह रूप कभी नहीं देखा. आईने के सम्मुख दिशा एक बार फिर से अपने चेहरे को जांचने को विवश हो गई थी.

रोहित और दिशा के विवाह के 10 वर्ष बीत जाने पर भी जब उन को संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो अपनी शारीरिक कमी को स्वीकारते हुए दिशा ने खुद ही रोहित को पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया और अपने ताऊजी की बेटी, जो 35 वर्ष की दहलीज पर भी कुंआरी थी के साथ करवा दिया. अपरा भले ही दिशा से 6-7 वर्ष बड़ी थी, मगर विवाह के विषय में पीछे रह गई थी. शुरूशुरू के रिश्तों में अपरा मीनमेख ही निकालती रही. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने बंद हो गए. फिर दुहाजू रिश्ते आने लगे, जिन के लिए वह साफ मना कर देती. मगर दिशा का लाया प्रस्ताव उस ने काफी नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया. तीनों जानते थे कि यह दूसरा विवाह गैरकानूनी है. ज्यादातर मामलों में हर जगह पत्नी का नाम दिशा ही लिखा जाता चाहे मौजूद अपरा हो. कुछ जुगाड़ कर के अपरा ने 2-2 आधार कार्ड और पैन कार्ड बनवा लिए थे. एक में उस का फोटो पर नाम दिशा था और दूसरे में फोटो व नाम भी उसी के. तीनों जानते थे कि कभी कुछ गड़बड़ हो सकती है पर उन्हें आज की पड़ी है.

फिर साल भर में गोलू भी गोद में आ गया तो सभी कहने लगे कि देखा अपरा का गठजोड़ तो यहां का था तो पहले कैसे विवाह हो जाता. दिशा तो पहले ही इस स्थिति को कुदरत का लेखा मान कर स्वीकार कर चुकी थी. अब तो गोलू भी 4 वर्ष का हो गया है. तो फिर आज ही उसे क्यों लग रहा है कि वही गलत थी. उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है. उस ने कभी अपने और अपरा दीदी के बीच रोहित के समय को ले कर न कोई विवाद किया, न ही शारीरिक संबंधों को कोई तवज्जो दी. लेकिन आज रोहित का उन्मुक्त व्यवहार उसे कचोट गया. आज लग रहा है वह ठगी गई है अपनों के ही हाथों. वह कभी रोहित से पूछती कि कैसी लग रही हूं तो सुनने को मिलता ठीक. खाना कैसा बना है? ठीक. यह सामान कैसा लगा? ठीक है. इन छोटेछोटे वाक्यों से रोहित की बात समाप्त हो जाती. न कभी कोई उपहार, न कोई सरप्राइज और न ही कोई हंसीमजाक. वह तो रोहित के इसी धीरगंभीर रूप से परिचित थी. फिर आज का उन्मुक्त प्रेमी. यह नया मुखौटा… ये सब क्या है? वह रातदिन अपरा दीदी, अपरा दीदी कहते नहीं थकती. पूरे घर की जिम्मेदारी अपरा को सौंप गोलू की मां बन कर ही खुश थी. अगर कोई नया घर में आता तो उसे ही दूसरे विवाह का समझता, एक तो कम उम्र दूसरा कार्यों को जिस निपुणता से अपरा संभालती उस का मुकाबला तो वह कर ही नहीं सकती थी. लोग कहते दोनों बहनें कितने प्रेम से रहती हैं. रहती भी कैसे नहीं, दिशा ने अपने सारे अधिकार जो खुशीखुशी अपरा को सौंप दिए थे. घर की चाबियों से ले कर रोहित तक. पर आज उसे इतना कष्ट क्यों हो रहा है?

बारबार एक ही खयाल आ रहा है कि वह एक बच्चा गोद भी ले सकती थी. मां ने कितना समझाया था कि एक दिन तू जरूर पछताएगी दिशा, पुनर्विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले अनाथाश्रम से… उसे घर मिल जाएगा और तुझे संतान… जब रोहित को कोई एतराज ही नहीं है तो फिर तू यह जिद क्यों कर रहीहै? सौत तो मिट्टी की भी बुरी लगती है. इस पर दिशा कहती कि नहीं मां रोहित मेरी हर बात मानते हैं, कमी मुझ में है, तो मैं रोहित को उस की संतान से वंचित क्यों रखूं? आजलगता है कि क्या फर्क पड़ जाता यदि गोलू की जगह गोद लिया बच्चा होता तो? घर में सिर्फ 3 प्राणी ही होते और रोहित उस के पहलू में सोया करते. आज उसे अपरा से ज्यादा रोहित अपराधी लग रहे थे. वे हमेशा उस की उपेक्षा करते रहे. लोग ठीक ही कहते हैं कि पहली सेवा करने के लिए और दूसरी मेवा खाने के लिए होती है. वह हमेशा 2 मीठे बोल सुनने को तरसती रही. फिर इसे रोहित की आदत मान कर चुप्पी साध ली, पर आज यह क्या था? ये उच्छृंखल व्यवहार, ये मीठेमीठे बोल, वह गुलाब का फूल.

अपरा दीदी मुझे जो इतना मान देती हैं वह सब नाटक है. मेरे सामने दोनों आपस में ज्यादा बात भी नहीं करते और अपने कमरे में बिछुड़े प्रेमीप्रेमिका या फिर कोई नयानवेला जोड़ा? दिशा की आंखें रोतेरोते सूजने लगी थीं. अपरा दीदी, अपरा दीदी कहतेकहते उस की जबान न थकती थी… वही अपरा आज उस की अपराधी बन सामने है. उस से उम्र में तजरबे में हर लिहाज से बड़ी थीं. उसे समझा सकती थीं कि यह दूसरे विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले. मेरा विवाह तो 19 वर्ष की कच्ची उम्र में ही हो गया था.

रोहित 10 साल बड़े थे. एक परिपक्व पुरुष… उन का मेरा क्या जोड़? न तो एकजैसे विचार न ही आचार… सास भी विवाह के साल भर में साथ छोड़ गईं. अपनी कच्ची गृहस्थी में जैसा उचित लगा वैसा करती गई. शायद ज्यादा भावुकता भी उचित नहीं होती. अपनी बेरंग जिंदगी के लिए किसे दोषी ठहराए? कौन है उस का अपराधी. रोहित, अपरा या वह खुद? Family Story In Hindi

Romantic Story In Hindi : उसी दहलीज पर बारबार – क्या था रोहित का असली चेहरा

Romantic Story In Hindi : रोहित को बरसों बाद देख कर ममता के जेहन में पुरानी स्मृतियां फिर उभरने लगीं. वह एक बार फिर बहकने लगी, लेकिन रोहित के असली चेहरे से रूबरू होने पर ममता को जैसे किसी ने यथार्थ के कठोर धरातल पर ला पटका.

घड़ी की तरफ देख कर ममता ने कहा, ‘‘शकुन, और कोई बैठा हो तो जल्दी से अंदर भेज दो. मुझे अभी जाना है.’’
और जो व्यक्ति अंदर आया उसे देख कर प्रधानाचार्या ममता चौहान अपनी कुरसी से उठ खड़ी हुईं.
‘‘रोहित, तुम और यहां?’’
‘‘अरे, ममता, तुम? मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां इस तरह तुम से मुलाकात होगी. यह मेरी बेटी रिया है. 6 महीने पहले इस की मां की मृत्यु हो गई. तब से बहुत परेशान था कि इसे कैसे पालूंगा. सोचा, किसी आवासीय स्कूल में दाखिला करा दूं. किसी ने इस स्कूल की बहुत तारीफ की थी, सो चला आया.’’
‘‘बेटे, आप का नाम क्या है?’’
‘‘रिया.’’
बच्ची को देख कर ममता का हृदय पिघल गया. वह सोचने लगी कि इतना कुछ खोने के बाद रोहित ने कैसे अपनेआप को संभाला होगा.
‘‘ममता, मैं अपनी बेटी का एडमिशन कराने की बहुत उम्मीद ले कर यहां आया हूं,’’ इतना कह कर रोहित न जाने किस संशय से घिर गया.

‘‘कमाल करते हो, रोहित,’’ ममता बोली, ‘‘अपनी ही बेटी को स्कूल में दाखिला नहीं दूंगी? यह फौर्म भर दो. कल औफिस में फीस जमा कर देना और 7 दिन बाद जब स्कूल खुलेगा तो इसे ले कर आ जाना. तब तक होस्टल में सभी बच्चे आ जाएंगे.’’

‘‘7 दिन बाद? नहीं ममता, मैं दोबारा नहीं आ पाऊंगा, तुम इसे अभी यहां रख लो और जो भी ड्रैस वगैरह खरीदनी हो, आज ही चल कर खरीद लेते हैं.’’
‘‘चल कर, मतलब?’’
‘‘यही कि तुम साथ चलो, मैं इस नई जगह में कहां भटकूंगा.’’
‘‘रोहित, मेरा जाना कठिन है,’’ फिर उस ने बच्ची की ओर देखा जो उसे ही देखे जा रही थी तो वह हंस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा चलेंगे, क्यों रियाजी?’’

शकुन आश्चर्य से अपनी मैडम को देखे जा रही थी. इतने सालों में उस ने ऐसा कभी नहीं देखा कि प्रधानाचार्या स्कूल का जरूरी काम टाल कर किसी के साथ जाने को तैयार हुई हों. उस के लिए तो सचमुच यह आश्चर्य की ही बात थी.
‘‘मैडम, खाना?’’ शकुन ने डरतेडरते पूछा.
‘‘ओह हां,’’ कुछ याद करती हुई ममता चौहान बोलीं, ‘‘देखो शकुन, कोई फोन आए तो कह देना, मैं बाहर गई हूं और खाना भी लौट कर ही खाएंगे. हां, खाना थोड़ा ज्यादा ही बना लेना.’’

मेज पर फैली फाइलों को रख देने का शकुन को इशारा कर ममता चौहान उठ गईं और रोहित व रिया को साथ ले कर गेट से बाहर निकल गईं.
‘‘रुको, रोहित, जीप बुलवा लेते हैं,’’ नर्वस ममता ने कहा, ‘‘पर जीप भी बाजार के अंदर तक नहीं जाएगी. पैदल तो चलना ही पड़ेगा.’’

यद्यपि रिया उन के साथ चल रही थी पर कोई भी बालसुलभ चंचलता उस के चेहरे पर नहीं थी. ममता ने ध्यान दिया कि रोहित का चेहरा ही नहीं बदन भी कुछ भर गया है. पूरे 8 साल के बाद वह रोहित को देख रही थी. अतीत में उस के द्वारा की गई बेवफाई के बाद भी ममता का दिल रोहित के लिए मानो प्रेम से लबालब भरा हुआ था.

ममता को विश्वविद्यालय के वे दिन याद आए जब सुनसान जगह ढूंढ़ कर किसी पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे रहते थे. कभीकभी वह भयभीत सी रोहित के सीने में मुंह छिपा लेती थी कि कहीं उस के प्यार को किसी की नजर न लग जाए.

जीप अपनी गति से चल रही थी. अतीत के खयालों में खोई हुई ममता रोहित को प्यार से देखे जा रही थी. उसे 8 साल बाद भी रोहित उसी तरह प्यारा लग रहा था जैसे वह कालेज के दिनों में लगता था.

ममता ने रोहित को भी अपनी ओर देखते पाया तो वह झेंप गई.
‘‘तुम आज भी वैसी ही हो, ममता जैसी कालेज के दिनों में थीं,’’ रोहित ने बेझिझक कहा, ‘‘उम्र तो मानो तुम्हें छू भी नहीं सकी है.’’
तभी जीप रुक गई और दोनों नीचे उतर कर एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर चल दिए. ममता ने रिया को स्कूल ड्रैस दिलवाई. वह जिस उत्साह से रिया के लिए कपड़ों की नापजोख कर रही थी उसे देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता था कि मानो वह उसी की बेटी हो.
दूसरी जरूरत की चीजें, खानेपीने की चीजें ममता ने स्वयं रिया के लिए खरीदीं. यह देख कर रोहित आश्वस्त हो गया कि रिया यहां सुखपूर्वक, उचित देखरेख में रहेगी.

ममता बाजार से वापस लौटी तो उस का तनमन उत्साह से लबालब भरा था. उस के इस नए अंदाज को शकुन ने पहली बार देखा तो दंग रह गई कि जो मैडमजी मुसकराती भी हैं तो लगता है उन के अंदर एक खामोशी सी है, वे आज कितना चहक रही हैं लेकिन उन का व्यक्तित्व ऐसा है कि कोई भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.

कौन है यह व्यक्ति और उस की छोटी बच्ची, क्यों मैडम इतनी खुश हैं, शकुन समझ नहीं पा रही थी.

ममता ने चाहा था कि कम से कम 2 दिन तो रोहित उस के पास रुके, लेकिन वह रुका नहीं. रोती हुई रिया को गोद में ले कर ममता ने ही संभाला था.
‘‘मैडमजी, इस बच्ची को होस्टल में छोड़ दें क्या?’’
‘‘अरी, पागल हो गई है क्या जो खाली पड़े होस्टल में बच्ची को छोड़ने की बात कह रही है. होस्टल में बच्चों के आने तक रिया मेरे पास ही रहेगी.’’

शकुन सोच रही थी कि सोमी मैडम भी घर गई हैं वरना वे ही कुछ बतातीं. जाने क्यों उस के दिल में उस अजनबी पुरुष और उस के बच्चे को ले कर कुछ खटक रहा था. उसे लग रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है जो मैडमजी के अतीत से जुड़ा है. वह इतना तो जानती थी कि ममता मैडम और सोमी मैडम एकसाथ पढ़ी हैं. दोनों कभी सहेली रही थीं, तभी तो सोमी मैडम बगैर इजाजत लिए ही प्रिंसिपल मैडम के कमरे में चली जाती हैं जबकि दूसरी मैडमों को कितनी ही देर खड़े रहना पड़ता है.

दूसरे दिन सुबह शकुन उठी तो देखा, मैडम हाथ में दूध का गिलास लिए रिया के पास जा रही थीं. प्यार से रिया को दूध पिलाने के बाद उस के बाल संवारने लगीं. तभी शकुन पास आ कर बोली, ‘‘लाओ, मैडम, बिटिया की चोटी मैं गूंथे देती हूं. आप चाय पी लें.’’
‘‘नहीं, तुम जाओ, शकुन, नाश्ता बनाओ. चोटी मैं ही बनाऊंगी.’’
चोटी बनाते समय ममता ने रिया से पूछा, ‘‘क्यों बेटे, तुम्हारी मम्मी को क्या बीमारी थी?’’
‘‘मालूम नहीं, आंटी,’’ रिया बोली, ‘‘मम्मी 4-5 महीने अस्पताल में रही थीं, फिर घर ही नहीं लौटीं.’’
एक हफ्ता ऐसे ही बीत गया. रिया भी ममता से बहुत घुलमिल गई थी. लड़कियां होस्टल में आनी शुरू हो गई थीं. सोमी भी सपरिवार लौट आई थी. शकुन ने ही जा कर सोमी को सारी कहानी सुनाई. सोमी ने शकुन को यह कह कर भेज दिया कि ठीक है, शाम को देखेंगे.

शाम को सोमी ममता से मिलने उस के घर आई तो ममता ने बिना किसी भूमिका के बता दिया कि रिया रोहित की बेटी है और उस की मां का पिछले साल निधन हो गया है. रोहित हमारे स्कूल में अपनी बच्ची का दाखिला करवाने आया था.
‘‘रोहित को कैसे पता चला कि तुम यहां हो?’’ सोमी ने पूछा.
‘‘नहीं, उस को पहले पता नहीं था. वह भी मुझे देख कर हैरान हो गया.’’

थोड़ी देर बैठ कर सोमी अपने घर लौट गई. उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था, यह ममता ने साफ महसूस किया था. वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत के बारे में सोचने लगी. ममता और रोहित एकसाथ पढ़ते थे और वह उन से एक साल जूनियर थी. इन तीनों के ग्रुप में योगेश भी था जो उस की क्लास में था. योगेश की दोस्ती रोहित के साथ भी थी. उधर रोहित और ममता भी एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोस्त थे. फिर चारों मिले और उन की एकदूसरे से दोस्ती हो गई. ममता का रंग गोरा और बाल काले व घुंघराले थे जो उस के खूबसूरत चेहरे पर छाए रहते थे.

रोहित भी बेहद खूबसूरत नौजवान था. जाने कब रोहित और ममता में प्यार पनपा और फिर तो मानो 2-3 साल तक दोनों ने किसी की परवा भी नहीं की. दोनों के प्यार को एक मुकाम हासिल हो, इस प्रयास में सोमी व योगेश ने उन का भरपूर साथ दिया था.

ममता और रोहित ने एमएससी कर लिया था. सोमी बीएड करने चली गई और योगेश सरकारी नौकरी में चला गया. यह वह समय था जब चारों बिछड़ रहे थे.

रोहित ने ममता के घर जा कर उस के मातापिता को आश्वस्त किया था कि बढि़या नौकरी मिलते ही वे विवाह करेंगे और उस के बूढ़े मातापिता अपनी बेटी की ओर से ऐसा दामाद पा कर आश्वस्त हो चुके थे.

ममता की मां तो रोहित को देख कर निहाल हो रही थीं वरना उन के घर की जैसी दशा थी उस में उन्होंने अच्छा दामाद पा लेने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पति रिटायर थे. बेटा इतना स्वार्थी निकला कि शादी करते ही अलग घर बसा लिया. पति के रिटायर होने पर जो पैसा मिला उस में से कुछ उन की बीमारी पर और कुछ बेटे की शादी पर खर्च हो गया.

एक दिन रोहित को उदास देख कर ममता ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस के पापा उस की शादी कहीं और करना चाहते हैं. तब ममता बहुत रोई थी. सोमी और योगेश ने भी रोहित को बहुत समझाया लेकिन वह लगातार मजबूर होता जा रहा था.

आखिर रोहित ने शिखा से शादी कर ली. इस शादी से जितनी ममता टूटी उस से कहीं ज्यादा उस के मातापिता टूटे थे. एक टूटे परिवार को ममता कहां तक संभालती. घोर हताशा और निराशा में उस के दिन बीत रहे थे. वह कहीं चली जाना चाहती थी जहां उस को जानने वाला कोई न हो और फिर ममता का इस स्कूल में आने का कठोर निर्णय रोहित की बेवफाई थी या कोई मजबूरी, यह वह आज तक समझ ही नहीं पाई.

इस अनजाने शहर में ममता का सोमी से मिलना भी महज एक संयोग ही था. सोमी भी अपने पति व दोनों बच्चों के साथ इसी शहर में रह रही थी. दोनों गले मिल कर खूब रोई थीं. सोमी यह जान कर अवाक थी. कोई किसी को कितना चाह सकता है कि बस, उसी की यादों के सहारे पूरी जिंदगी बिताने का फैसला ले ले.

सोमी को भी ममता ने स्कूल में नौकरी दिलवा दी तो एक बार फिर दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई.

स्कूल ट्रस्टियों ने ममता की काबिलीयत और काम के प्रति समर्पण भाव को देखते हुए उसे प्रिंसिपल बना दिया. उस ने भी प्रिंसिपल बनते ही स्कूल की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उस की देखरेख में स्कूल अनुशासित हो प्रगति करने लगा.

अतीत की इन यादों में खोई ममता कब सो गई, उसे पता ही नहीं चला, ‘‘ममता, तुम जानती हो, रिया रोहित की लड़की है. इतना रिस्पौंस देने की क्या जरूरत है?’’ चिढ़ कर सोमी ने कहा.
‘‘जानती हूं, तभी तो रिस्पौंस दे रही हूं. क्या तुम नहीं जानतीं कि अतीत के रिश्ते से रिया मेरी बेटी ही है?’’
अब क्या कहती सोमी? न जाने किस रिश्ते से आज तक ममता रोहित से बंधी हुई है. सोमी जानती है कि उस ने अपनी अलमारी में रोहित की बड़ी सी तसवीर लगा रखी है. तसवीर की उस चौखट में वह रोहित के अलावा किसी और को बैठा ही नहीं पाई थी.

ममता को लगता जैसे बीच के सालों में उस ने कोई लंबा दर्दनाक सपना देखा हो. अब वह रोहित के प्यार में पहले जैसी ही पागल हो उठी थी.

पापा की मौत हो चुकी थी और मां को भाई अपने साथ ले गया था. जब उम्र का वह दौर गुजर जाए तो विवाह में रुपयों की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती जितना जीवनसाथी के रूप में किसी को पाना.

विधुर कर्नल मेहरोत्रा का प्रस्ताव आया था और ममता ने सख्ती से मां को मना कर दिया था. स्कूल के वार्षिकोत्सव में एमपी सुरेश आए थे, उन की उम्र ज्यादा नहीं थी, उन्होंने भी ममता के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा था. इस प्रस्ताव के लिए सोमी और उस के पति ने ममता को बहुत समझाया था. तब उस ने इतना भर कहा था, ‘सोमी, प्यार सिर्फ एक बार किया जाता है. मुझे प्यारहीन रिश्तों में कोई विश्वास नहीं है.’

प्यार और विश्वास ने ममता के भीतर फिर अंगड़ाई ली थी. रोहित आया तो उस ने आग्रह कर के उसे 3-4 दिन रोक लिया. पहले दिन रोहित, ममता और सोमी तीनों मिल कर घूमने गए. बाहर ही खाना खाया.
सोमी कुछ ज्यादा रोहित से बोल नहीं पाई. क्या पता रोहित ही सही हो. वह ममता की कोमल भावनाएं कुचलना नहीं चाहती थी. अगर ममता की जिंदगी संवर जाए तो उसे खुशी ही होगी.
अगले दिन ममता रोहित के साथ घूमने निकली. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी. ठंड बढ़ गई थी.
‘‘कौफी पी ली जाए, क्यों ममता?’’ उसे रोहित का स्वर फिर कालेज के दिनों जैसा लगा.
‘‘हां, जरूर.’’
रैस्तरां में लकड़ी के बने लैंप धीमी रोशनी देते लटक रहे थे. रोहित गहरी नजरों से ममता को देखे जा रहा था और वह शर्म के मारे लाल हुई जा रही थी. उस को कालेज के दिनों का वह रैस्तरां याद आया जहां दोनों एकदूसरे में खोए घंटों बैठे रहते थे.
‘‘कहां खो गईं, ममता?’’ इस आवाज से उस ने हड़बड़ा कर देखा तो रोहित का हाथ उस के हाथ के ऊपर था. सालों बाद पुरुष के हाथ की गरमाई से वह मोम की तरह पिघल गई.
‘‘रोहित, क्या तुम ने कभी मुझे मिस नहीं किया?’’
‘‘ममता, मैं ने तुम्हें मिस किया है. शिखा के साथ रहते हुए भी मैं सदा तुम्हारे साथ ही था.’’ रोहित की बातें सुन कर ममता भीतर तक भीग उठी.

पहाड़ खामोश थे, बस्ती खामोश थी. हर तरफ पसरी खामोशी को देख कर ममता को नहीं लगता कि जिंदगी कहीं है ही नहीं. फिर वह क्यों जिंदगी के लिए इतनी लालायित रहती है. वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब इंसान व्यवस्थित हो चुका होता है. वह क्यों इतनी अव्यवस्थित सी है और उस के मन में क्यों यह इच्छा होती है कि यह जो पुरुष साथ चल रहा है, फिर पुराने दिन वापस लौटा दे?

ममता ने महसूस किया कि वह अंदर से कांप रही है और उस ने शौल को सिर से ओढ़ लिया, फिर भी ठंड गई नहीं. उस पर रोहित ने जब उस का हाथ पकड़ा तो वह और भी थरथरा उठी. गरमाई का एक प्रवाह उस के अंदर तिरोहित होने लगा तो वह रोहित से और भी सट गई. रोहित उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींच कर बोला, ‘‘कांप रही हो तुम तो,’’ और फिर रोहित ने उसे समूचा भींच लिया था.

ममता को लगा कि बस, ये क्षण यहीं ठहर जाएं. आखिर इसी लमहे व रोहित को पाने की चाहत में तो उस ने इतने साल अकेले बिताए हैं.

शकुन इंतजार कर के लौट गई थी. मेज पर खाना रखा था. उस ने ढीलीढाली नाइटी पहन ली और खाना लगाने लगी. फायरप्लेस में बुझती लकड़ियों में उस ने और लकडि़यां डाल दीं.
दोनों चुपचाप खाना खाते रहे. अचानक ममता ने पूछा, ‘‘अब क्या रुचि है तुम्हारी, रोहित? कुछ पढ़ते हो या यों ही बस, गृहस्थी में ही रमे रहते हो?’’

‘‘अरे, अब कुछ भी पढ़ना कहां संभव हो पाता है, अब तो जिंदगी का यथार्थ सामने है. बस, काम और काम, फिर थक कर सो जाना.’’

बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे. फायरप्लेस में लकडि़यां डालने के बाद ममता अलमारी खोल कर वह नोटबुक निकाल लाई जिस में कालेज के दिनों की ढेरों यादें लिखी थीं. रोहित को यह देख कर आश्चर्य हुआ, ममता की अलमारी में उस की तसवीर रखी है.

नोटबुक के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. अनमनी सी बैठी ममता का चेहरा रोहित ने अपने हाथों में ले कर अधरों का एक दीर्घ चुंबन लिया. ममता ने आंखें बंद कर लीं. उस के बदन में हलचल हुई तो उस ने रोहित को खींच कर लिपटा लिया. बरसों का बांध कब टूट गया, पता ही नहीं चला.

‘‘क्या आज ही जाना जरूरी है, रोहित?’’ सुबह सो कर उठने के बाद रात की खामोशी को ममता ने ही तोड़ा था.
‘‘हां, ममता, अब और नहीं रुक सकता. वहां मुझे बहुत जरूरी काम है,’’ अटैची में कपड़े भरते हुए रोहित ने कहा.

ममता ने रिया को बुलवा लिया था. जाने का क्षण निकट था. रिया रो रही थी. ममता की आंखें भी भीगी हुई थीं. उस के मन में विचार कौंधा कि क्या अब भी रोहित से कहना पड़ेगा कि मुझे अपना लो. अकेले अब मुझ से नहीं रहा जाता. तुम्हारी चाहत में कितने साल मैं ने अकेले गुजारे हैं. क्या तुम इस सच को नहीं जानते?

सबकुछ अनकहा ही रह गया. रोहित लगातार खामोश था. उस को गए 5 महीने बीत गए. फोन पर वह रिया का हालचाल पूछ लेता. ममता यह सुनने को तरस गई कि ममता, अब बहुत हुआ. तुम्हें मेरे साथ चलना होगा.

वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई थी. सभी बच्चे घर वापस जा रहे थे. रोहित का फोन उस आखिरी दिन आया था जब होस्टल बंद हो रहा था.

‘‘रिया की मौसी आ रही हैं. उन के साथ उसे भेज देना.’’
‘‘तुम नहीं आओगे, रोहित?’’
‘‘नहीं, मेरा आना संभव नहीं होगा.’’
‘‘क्यों?’’ और उस के साथ फोन कट गया था. कानों में सीटी बजती रही और ममता रिसीवर पकड़े हतप्रभ रह गई.
दूसरे दिन रिया की मौसी आ गईं. होस्टल से रिया उस के घर ही आ गई थी क्योंकि होस्टल खाली हो चुका था.
‘‘रोहित को ऐसा क्या काम आ पड़ा जो अपनी बेटी को लेने वह नहीं आ सका?’’ ममता ने रिया की मौसी से पूछा.

‘‘सच तो यह है ममताजी कि शिखा दीदी की मौत के बाद रोहित जीजाजी के सामने रिया की ही समस्या है क्योंकि वे अब जिस से शादी करने जा रहे हैं, वह उन की फैक्टरी के मालिक की बेटी है. लेकिन वह रिया को रखना नहीं चाहती और मेरी भी पारिवारिक समस्याएं हैं, क्या करूं. शायद मेरी मां ही अब रिया को रखेंगी. एक बात और बताऊं ममताजी, रोहित जीजाजी हमेशा से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं. शिखा दीदी के सामने ही उन का प्रेम इस युवती से हो गया था. मुझे तो लगता है कि शिखा दीदी की बीमारी का कारण भी यही रहा हो, क्योंकि दीदी ने बीच में एक बार नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

इतना सबकुछ बतातेबताते रिया की मौसी की आवाज तल्ख हो गई थी और उन के चुप हो जाने तक ममता पत्थर सी बनी बिना हिलेडुले अवाक बैठी रह गई. याद नहीं उसे आगे क्या हुआ. हां, आखिरी शब्द वह सुन पाई थी कि रोहित जीजाजी ने जहां कालेज जीवन में प्यार किया था, वहां विवाह न करने का कारण कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि वहां भी उन का कैरियर और भारी दहेज ही कारण था.

तपते तेज बुखार में जब ममता ने आंखें खोलीं तो देखा, रिया की मौसी उस के पास बैठी उस का हाथ सहला रही है और सोमी माथे पर पानी की पट्टियां रख रही है. शकुन रिया को ले कर बैठी थी.
ममता ने सोमी की तरफ हाथ बढ़ा दिए और फिर दोनों लिपट कर रोने लगीं तो शकुन रिया को ले कर बाहर के कमरे में चली गई.

‘‘सोमी, मैं ने अपनी संपूर्ण जिंदगी दांव पर लगा दी और वह राक्षस की भांति मुझे दबोच कर समूचा निगल गया.’’

सोमी ने उस का माथा सहलाया और कहा, ‘‘कुछ मत बोलो, ममता, डाक्टर ने बोलने के लिए मना किया है. हां, इस सदमे से उबरने के लिए तुम्हें खुद अपनी मदद करनी होगी.’’

ममता को लगा कि जिन हाथों की गरमी से वह आज तक उद्दीप्त थी वही स्पर्श अब हजारहजार कांटों की तरह उस के शरीर में चुभ रहे हैं. काश, वह भी सांप के केंचुल की तरह अपने शरीर से उस केंचुल को उतार फेंकती जिसे रोहित ने दूषित किया था, कितना वीभत्स अर्थ था प्यार का रोहित के पास.

‘‘सोमी,’’ वह टूटी हुई आवाज में बोली, ‘‘मैं रिया के बगैर कैसे रहूंगी,’’ और उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. एक भयावह स्वप्न देख घबरा कर ममता ने आंखें खोलीं तो देखा, सोमी फोन पर बात कर रही थी, ‘‘रोहित, तुम ने जो भी किया उस के बारे में मैं तुम से कुछ नहीं कहूंगी, लेकिन क्या तुम रिया को ममता के पास रहने दोगे? शायद ममता से बढ़ कर उसे मां नहीं मिल सकती.’’

रिया की मौसी ने रिया को ला कर ममता की गोद में डाल दिया और बोली, ‘‘मैं सब सुन चुकी हूं. सोमीजी, रिया अब ममता के पास ही रहेगी, इन की बेटी की तरह, इसे स्वीकार कीजिए.’’ Romantic Story In Hindi

लेखिका : यामिनी वर्मा

Family Story : एक अपठित गद्यांश – पत्नी की दबी भावनाओं से अनजान पति

Family Story : एक स्त्री को पूरी तरह समझना आसान नहीं है. पवन ने समझा था कि वह रूबी की दबी भावनाएं जान गया है लेकिन नहीं, अभी तो वह बहुत चीजों से अनजान था.

‘‘ठंड काफी बढ़ गई है, बेहतर होगा एकएक पैग और ले लिया जाए,’’ पवन ने अनिकेत से कहा और अपनी रजाई फेंक कर बिस्तर से उठ बैठा. अनिकेत की इच्छा तो थी, फिर भी बिन पत्नी इस टाटा मिलिट्री ट्रेनिंग सैंटर में कहीं ज्यादा पी कर तबीयत पर लगाम न रहे, इसलिए वह कुछ कुनमुनाया.

पवन ने खुद ही 2 पैग बना कर एक गिलास अनिकेत की ओर बढ़ा दिया.
‘‘आज कुछ ज्यादा नहीं पी गए? अब, बस, कर न पवन,’’
52 साल के पवन और 49 साल के अनिकेत एक ही कमरा साझा कर रहे थे और दोनों के सिंगल बैड पासपास थे. पवन अनिकेत को देखता हुआ अपने बैड पर पैर लटका कर बैठ गया. अनिकेत पैग पकड़े हुए पलंग पर आसन जमा कर बैठ गया, लेकिन जरा मुंह लटका कर.
‘‘यार, यह बताओ यह क्या बात हुई, पति घर से 1,200 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग में सड़ रहा है और पत्नी उसे बिना बताए किसी भी मर्द को घर में ठहरा ले?’’ अनिकेत बोला तो पवन ने पूछा, ‘‘क्यों क्या हो गया? रूबी भाभी ने किसी को घर में ठहरा लिया क्या?’’
‘‘यार, कल सुबह मुझे ऐक्सरसाइज के लिए मत उठाना, सीधे 9.30 बजे कैंटीन से नाश्ता निबटा कर क्लास जाऊंगा,’’ अनिकेत ने बात को मोड़ते हुए कहा.
‘‘लगता है मूड ज्यादा खराब हो रहा है भाई का. ठीक है जनाब. लेकिन अभी तो उठना होगा रात के डिनर के लिए.’’ पवन ने कहा.
‘‘सुनो न पवन, आज मन नहीं हो रहा बिस्तर छोड़ने का, तुम ही हो आओ,’’ अनिकेत बोला.
‘‘चलो ठीक है, देखता हूं. गुलाब राय से कह दूंगा रोटीसब्जी एक थाली में रख दें तुम्हारे लिए,’’ पवन ने कहा.
‘‘शुक्रिया दोस्त,’’ पास के टेबल पर शराब का खाली गिलास रख अनिकेत रजाई में घुस गया.
टाटा के इस ट्रेनिंग सैंटर में रेलवे कर्मचारियों के लिए 40 दिनों की मिलिटरी ट्रेनिंग रखी जाती है. मिलिटरी अफसर यहां ट्रेनर होते थे और बुरे वक्त या इमरजैंसी में रेलवे कर्मचारियों पर देश की सेवा का भार दिया जा सके, इसलिए उन्हें सामान्य नौकरी से इतर साल में एक बार ट्रेनिंग लेने आना पड़ता था.

पवन और अनिकेत रायपुर रेलवे विभाग में थे, साथ ही, उन की दोस्ती भी कुछ सालों से काफी बढि़या थी. दोनों ने ट्रेनिंग में साथ आने का फैसला किया था ताकि 40 दिनों की लंबी कष्टदायी ट्रेनिंग में मन लगा रहे. अनिकेत का अनसुलझे सवाल अब भी पवन को परेशान किए था.
वापस आ कर अनिकेत को खाने की थाली पकड़ाई और पास बैठ गया उस के.
‘‘भाई, तुम्हें शक कैसे हो रहा है?’’ पवन उत्सुक हो रहा था, लेकिन अनिकेत को जताया जैसे कि वह बहुत चिंतित हो.
‘‘मेरे फोन से रूबी को कौल लग नहीं रही थी, मैं पास की दुकान में चला गया था और वहीं से कौल लगाई रूबी को. उस का फोन शेखर ने उठाया था. रात के 10 बजे घर में गैरमर्द?’’
‘‘शेखर कौन? अच्छा वह भिलाई वाला डीटीआई? उस से तो तेरी पहचान थी न?’’ पवन को याद आया.
‘‘वह पहले कई बार मेरे घर आ चुका था, खैर, मैं ने उस से रूबी को फोन देने को कहा. अचानक फोन पर मुझे पा कर रूबी शेखर की उपस्थिति से इनकार नहीं कर पाई, कहा, डिनर के बाद रवाना कर देगी उसे, मगर मुझे शक है शायद ही उस ने ऐसा किया हो.’’
‘‘अरे, बीवी पर भरोसा रखो. तुम दोनों की तो लवमैरिज है. चल, छोड़ भाई, अपन आओ मजा करते हैं. मुझे देखो, बीवी का ठेका उठाए नहीं घूमता. अपनी जिंदगी जियो, यार.’’
‘‘वही तो है मेरी जिंदगी, कैसे छोड़ दूं?’’
‘‘सच कहूं तो भाभी के पीछे बहुत पड़े रहते हो यार. अभी कुछ महीने पहले तुम अस्पताल में एडमिट हुए, छूटते ही भाभी को शौपिंग कराना, घुमाना. क्या जरूरत थी, यार? पवन लापरवाही से बोला.

‘‘भाई वह दिन नहीं भूलते जब वह मुझे मिली थी. मैं उस के भाई के साथ रेलवे के एक ही स्टेशन में पोस्टेड था. मैं बैचलर और मेरा दोस्त यानी रूबी का भाई भी. उस की मां थी, पिता नहीं थे. उस के घर आनाजाना लगा रहता. मां उस के साथ मुझे भी बिठा कर खिलाती. फिर कुछ दिनों बाद रूबी दिखी.’’

मैं अवाक. अब तक तो नहीं दिखी थी, कौन है. दोस्त कहता है, वह उस की बहन है, मामा के घर गई थी, 2 महीने रह कर लौटी है. फिर क्या था, दोस्त का घर दुनिया का सब से हसीन पर्यटन बन गया मेरे लिए.
‘‘रूबी का और मेरा मन जल्द ही एकदूसरे से बंध गए. बात शादी की हुई और हो गई. मेरा लगाव कभी घटा नहीं उस के लिए, भले ही उन्नीस साल हो गए हमारी शादी को.’’
‘‘इतनी ही शिद्दत रूबी भाभी में है तेरे लिए?’’
पवन के लिए जरा वाहियात सी थी लगाव की बातें.
‘‘मैं ने इतना जांचा नहीं. रोज जिंदगी चल ही रही है. मेरे साथ है वह, मै खुश हूं. मेरे लिए यह काफी है.’’
‘‘तेरे लिए तो काफी है, मगर रूबी भाभी के लिए तू काफी है कि नहीं, यह कभी समझे क्या?’’
‘‘छोड़ यार, मेरे पास अब इतना दिमाग नहीं बचा. एक तो इतनी ठंड मुझे सहन नहीं होती, ऊपर से शेखर की टैंशन अलग.’’
‘‘चल, बाहर से कुछ और्डर कर लेता हूं. मैं गेट से ले लूंगा जा कर. आज कैंटीन की दाल, रोटी, सब्जी छोड़. क्या कहता है? कह दूंगा डिनर का मन नहीं है.’’
‘‘देख ले,’’ पवन के मन बहलाने की कोशिश का अनिकेत पर खास असर तो हुआ नहीं, बस, वह शांत हो कर रजाई में चला गया.

रूबी की जितनी तारीफ की जाए कम होगी, ऐसा अगर अनिकेत की नजर से देखा जाए तो कहने में कोई बुराई नहीं. लेकिन इस समाज के संस्कारी नजरों के पैमाने पर बैठने वाली स्त्री वह नहीं है.

45 साल की रूबी अपने शारीरिक सौष्ठव, लचीली काया और कोमल आकर्षक स्किन के कारण 35 की मुश्किल से लगती थी. वह यह बात बखूबी सम?ाती थी और इस वजह उसे कुछ गरूर भी था.

वह अपने दिन का 80 प्रतिशत हिस्सा खुद पर ही व्यय करती थी. तब भी उसे लगता था कि बेटी के कुछ झमेले सिर पर न आते तो उस के पेट में चरबी की एक टायर जो फिर से दिखने लगी थी, वह न रहती.

रात को जिम, शौपिंग और पार्टी की वजह से घर में मैडिकल एग्जाम की तैयारी कर रही बेटी के लिए लगभग रोज बाहर से पिज्जा, बर्गर, डबल चीज पास्ता आदि मंगवा दिया जाता था.

अनिकेत को हमेशा यह अच्छा नहीं लगता लेकिन रूबी की परेशानी के आगे वह आंखें मूंद लेता. इन्हीं रूटीन के साथ जिंदगी चलती जाती यदि बेटी को किडनी और पैंक्रियाज में तकलीफें न आ जातीं.

सालभर इन की जिंदगी थम गई. लंबे इलाज के बाद बेटी ठीक हुई तो घर में ज्यादा से ज्यादा समय रूबी को बेटी की सेवा में लगाना पड़ा और रूबी अपने रूटीन से कुछ पिछड़ गई. खैर, दिन ये भी बीते और बेटी पढ़ने के लिए कोलकाता मैडिकल कालेज चली गई. रूबी अब कुछ ज्यादा आजाद थी. एक दिन अनिकेत को बड़ी जोर से पेटदर्द की शिकायत हुई.

बेटी के औपरेशन से कुछ ही महीने हुए थे उन्हें शांति मिली थी. अनिकेत रूबी को और परेशान करना नहीं चाहते थे. अनिकेत ने आंखें मूंद लेने में ही अपनी भलाई सम?ा. रूबी का अपने मुताबिक अनिकेत को चलाना चलता रहा.

इधर, टाटा ट्रेनिंग सैंटर में कई बार जबरदस्त व्यायाम के दौरान अनिकेत को जोरों का पेटदर्द हुआ, लेकिन बात आईगई हो कर ही रह गई.

‘‘अभी तो 10 दिन बाकी हैं, यार. अभी से इतनी छटपटाहट हो गई है तुझे रूबी भाभी के लिए?’’ सुबह के 6 बज रहे थे इस समय. ट्रेनिंग कैंपस के विशाल हरी व नरम घास के मैदान में आसपास दौड़ते वक्त पवन ने अनिकेत से कहा.

अनिकेत दौड़ता हुआ चुप रहा और पल में खड़ा हो कर सुस्ताते हुए पूछा,
‘‘कैसे समझे?’’
‘‘समझना क्या है, तू बड़ी गहरी चिंता में है, देख कर ही पता चलता है,’’ पवन ने कहा.
‘‘सो तो हूं.’’ वे दोनों अब पैदल ही वापस अपने कमरे में आने लगे थे.
थोड़ी चुप्पी के बाद अनिकेत ने कहा, ‘‘यार, मैं रूबी को ले कर टैंशन ले रहा हूं. बेटी मैडिकल चली गई है, रूबी कुछ बिंदास किस्म की है, जैसे उस ने शेखर को ठहरा लिया. कुछ ठीक नहीं लग रहा. सोचता हूं, ट्रेनिंग जाए भाड़ में, कल ही लौट जाऊं.’’
‘‘अरे, हद है. 2 दिन पहले भी जाएगा तो यहां इतनी मशक्कत के बाद ठेंगा ही मिलेगा. अभी तो 8 दिन बाकी हैं. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद अपने को इंक्रीमैंट मिलना है, प्रमोशन का रास्ता खुलेगा. जैसेतैसे काट कुछ दिन भाई मेरे. देख, ऐसे भी रूबी भाभी ने शेखर के साथ कुछ कर लिया होगा.’’
‘‘ए, शट अप. कैसे कुछ कर लेगी?’’
‘‘अरे भाई मेरे, खफा न हो. तू जब इसी लाइन पर सोच रहा है तो बात भी यही करूंगा न. तू क्या टैंशन इस बात की ले रहा है कि रूबी शेखर के साथ भजन गा रही है. सोच तो तू भी वही रहा है जो मैं बोल रहा हूं. तो मैं क्या बोल रहा हूं कि कुछ किया नहीं होगा तब भी सब सही मिलेगा और जो उन की नीयत गलत हुई तो भी लौट कर तुझे कुछ मिलेगा नहीं. क्या शेखर रुक कर तेरा इंतजार करता रहेगा कि कब तू पहुंचेगा और उसे एक झापड़ लगाएगा? क्या है मेरे दोस्त, ऐसे भी किसी की देह में कुछ लगा हुआ नहीं है जो है, सो सोच में है. अब मुझे ही देख ले. मैं अपनी बीवी की माला नहीं जपता. अपनी मरजी और खुशी देखता हूं. वह संत बनी बैठी है, उस की मरजी.

‘‘तू रूबी को किनारे कर और खुद की जिंदगी देख. अपना पैसा और कैरियर देख. अच्छा रुतबा रखेगा, लड़कियां आती रहेंगी. शरीर, पैसा और रुतबा फेंको तो ऐसी लड़कियां भी हैं जिन्हें मर्दों के शादीशुदा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

पवन ने अनिकेत को अपनी तरफ करने का भरसक प्रयास किया, जैसा कि अकसर ऐसे लोग करते हैं. लेकिन अनिकेत पर खास फर्क पड़ता नहीं दिखा.

क्या सच में रूबी ने शेखर को रात अपने घर ठहराया था या अनिकेत यों ही ज्यादा दहशत में था? अनिकेत जानना चाहता है लेकिन क्या रूबी उसे सच बताएगी? रूबी का कहा हुआ सच ही होगा, इस की क्या गारंटी है? अंदर धुंए का सैलाब था, अनिकेत रूबी में ही रोशनी की तलाश करता था.

वह रूबी के पास वापस आ गया था. रोज की जिंदगी और औफिस चल रहे थे. अनिकेत की फिर पत्नी सेवा शुरू हो गई थी. बेटी मैडिकल की पढ़ाई के लिए कोलकाता में थी तो औफिस से आने के बाद रूबी की फरमाइश होती कि अनिकेत उसे बाहर घुमाने ले जाए और अलगअलग रैस्तरां में खाने का आनंद उठा कर वे घर लौटें.

रूबी की फरमाइशों को अनिकेत टाल नहीं पाता और कह भी नहीं पाता कि कुछ महीनों से उसे पेट में अकसर दर्द की शिकायत रहती है और कुछ दिनों से उसे ब्लीडिंग की शिकायत भी दिख रही है.
जब वह अपने लिए घर पर कुछ सादा खाना बनाने लगता तो रूबी उसे ताने देती. ‘‘हो गया फुस्स, ताकत जा रही है मर्द की.’’
अनिकेत को बुरा लगता था, वह छिपा कर मैडिकल शौप से ही कुछ दवा ले लेता ताकि रूबी के सामने फिर बेइज्जत न होना पड़े.

एक रात अनिकेत की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी और रूबी के मानसिक सहारे की उसे बहुत जरूरत थी. वह अंदर से शेखर की बात को ले कर बेचैनी महसूस कर रहा था. उस से आखिर रहा नहीं गया और उस ने पूछ लिया, ‘‘रूबी, तुम ने उस रात शेखर को यहां रोका था? मुझ से सच कहना. कभीकभी तुम मिसिंग लगती हो, जैसे कहीं व्यस्त हो.’’
‘‘तुम अपनी चिंता करो, अनु. शेखर को छोड़ो. देखो, तुम्हारी हालत कितनी खराब हो रही है. तुम फालतू बातें क्यों सोचते रहते हो? चलो कल सन्डे है, हम कहीं घूम आते हैं.’’

अनिकेत रूबी के साथ खुश रहना चाहता था, वह जीना चाहता था. समझते हुए भी कि इसी बहाने रूबी बाहर घूमने जाना चाहती है और उसे अनिकेत की नहीं, एक ड्राइवर की जरूरत है फ्री में, वह रूबी की हां में हां मिलाता रहा. अगले दिन शाम के 3 बजे लगभग वे दोनों घूमने निकले.

अनिकेत कार ड्राइव करते हुए खुश होने की कोशिश कर रहा था. अचानक उस के पेट में तेज दर्द उठा, इतना कि उस पर बेहोशी सी छाने लगी. रूबी को कार चलाना आता नहीं था, क्योंकि उसे सीखने में खास रुचि कभी नहीं रही. जैसेतैसे अनिकेत ने अस्पताल तक कार ड्राइव की.

चैकअप होते ही डाक्टर ने अनिकेत को तुरंत अस्पताल में एडमिट कर लिया. कई सारे टैस्ट भी तुरंत ही किए गए. 5 दिनों के अंदर अनिकेत को कैंसर अस्पताल रैफर कर दिया गया.

पवन, रूबी का भाई और रूबी ने मिल कर अनिकेत को कोलकाता के कैंसर अस्पताल में भरती करवाया.

कैंसर अस्पताल में अनिकेत के शिफ्ट होने पर रूबी के सामने अपने पति की तीमारदारी का सवाल खड़ा हो गया. उस की आजादी और खुद के लिए निकलने वाला वक्त अब अगर अनिकेत के पीछे जाया होता रहे तो यह रूबी के लिए कोई कम मुसीबत नहीं थी.

अनिकेत द्वारा खरीदा और बनवाया गया रायपुर का आलीशान फ्लैट रूबी का पसंदीदा था और वह वहीं रहना चाहती थी. वह बेहद परेशान सी होने लगी. बीमारी उसे ऐसे भी अच्छी नहीं लगती थी. उलटी करता, खून बहाता, खांसता, दर्द से कराहता अनिकेत रूबी को डराने लगा था.

कोलकाता और अनिकेत यानी एक और बीमारी से सामना. अनिकेत की मां भी कोलकाता में अपने घर में रहती थी. अनिकेत के बाद उन का एक और बेटा था जो विदेश में रहता था. मां यहां अकेली थी. अब पतिविहीन अनिकेत की मां कोलकाता आई हुई इकलौती बहू से कुछ तो उम्मीद लगाएगी. हुआ न, बीमारी से सामना.

मसलन, रूबी की बदनउघाड़ू ड्रैसें सास को सताएंगी. दिनरात पति की ही सेवा करेगी और सास के कहने पर उठेगीबैठेगी. इन उम्मीदों पर खरा न उतरने पर दिनरात ताने सुनेगी.

रूबी यानी आंखों में मदहोशी, गालों में करंट सी चटक लाली, होंठ कटार और आंखों में धनुष की टंकार. वह बनी ही पुरुषों को चित करने के लिए है. क्यों लोग उसे समाज के बड़ेबड़े धार्मिक कानूनों के पिंजरे में डालने की चाहत रखते हैं.

एक अनिकेत का दोस्त पवन ही उसे खूब पसंद करता है. वह पवन की आंखों में ऐसा कुछ देखती है जो पवन अनिकेत को दिखाना नहीं चाहता. शायद पवन रूबी जैसी स्त्रियों को पसंद करता है जो बिंदास हों. पवन को उन से खुलने में कोई अपराधबोध नहीं होता. वरना कई ऐसी स्त्रियों से भी वह घुलमिल चुका है जो जीना तो अपनी मरजी से चाहती हैं, पराए मर्दों से करीबी भी चाहती हैं लेकिन बड़ा सा तोप नाक पर चढ़ाए घूमती हैं कि कोई मर्द खुद से खुल गया तो वह चला देंगी तोप.

शराब में क्या है मदहोशी, कबाब में क्या है मजा तो शबाब यानी औरत की खूबसूरती तो दोनों का कौकटेल है- मदहोशी और मजा का कौकटेल. और पवन के लिए स्त्री का मतलब बस इतना ही है. रूबी को भी ऐसे ही मर्द दिल से पसंद हैं जो पलपल उस के शरीर और वासनाओं की कद्र करें. अनिकेत क्या है, सिर्फ रूबी की ख्वाहिशों की खाली गगरी लगातार भरने वाला एक लोटा.

उधर, पवन भी अपनी सलीकेदार, सभ्य, सुसंस्कृत पत्नी से आजिज आ चुका है. उसे रूबी में अपनी चाहत दिखती है, इसलिए अनिकेत को कैंसर अस्पताल में भरती करवाने के बाद से वह रूबी के आसपास मक्खी की तरह मंडरा रहा है.
बैड पर पीला सा पड़ा था अनिकेत. बीमारी को रूबी के तानों से डर कर दबाते हुए वह अब चौथे स्टेज इंटेस्टाइन कैंसर में पहुंच चुका है.

अनिकेत में मगर तब भी जीने की ललक इस जानकारी और स्वीकृति से ज्यादा थी कि वह शायद अब मरने वाला है. उम्मीदों का बुझता दीपक जब मद्धम हो आता है, सात सूरज की रोशनी जैसे एकसाथ उस की बुझती लौ में जल उठती है.

पवन आ कर उस के बैड पर बैठा, समझ गया कि अनिकेत ज्यादा दिन का नहीं है. छोटा सा गीत उस के अंदर कहीं से गुनगुना उठा. उस ने रूबी को देखा. पास बैठी रूबी ने भी उस की ओर देखा. यह दृष्टि पति के अभाव की नहीं, किसी नए भाव की थी.
अनिकेत को ढाढ़स बंधा कर पवन ने रूबी से कहा, ‘‘चलो चल कर पूछ आते हैं कि अनिकेत को मुंबई रैफर करेंगे क्या. यहां पता नहीं क्या ट्रीटमैंट हो रहा है.’’

अनिकेत गिड़गिड़ा उठा, ‘‘न मेरे दोस्त. यहां से कहीं नहीं जाना मुझे. मां को देख पाता हूं, बेटी को देख लेता हूं, रूबी भी है. मुंबई जा कर अंत समय किसी को भी नहीं देख पाऊंगा.’’
निर्दयी लोगों के सामने कितना ही मजबूर और सरल इंसान विपत्ति में पड़ा खड़ा हो जाए, वे अपने स्वार्थ से विचलित नहीं होते.

रूबी समझ रही थी पवन की मंशा. चाहे रूबी हो या पवन, दोनों को अनिकेत के लिए पीड़ा उठाने की कोई जल्दी नहीं थी. वे तो दोनों अनिकेत को मूर्ख बना कर यहां से साथ उठना चाह रहे थे.

अनिकेत को ढाढ़स बंधा कर पवन ने रूबी को संग कर लिया, ‘‘चलिए भाभी, डाक्टर से मिल कर आगे क्या करना है, पूछ लेते हैं.’’ दोनों अनिकेत से नजरें मिलाए बिना ही साथ उठ गए.
यहां भी रूबी ने अपनी ड्रैस और सजने का पुराना अंदाज नहीं छोड़ा था. वही स्लीवलैस क्रौप टौप और नी लैंथ की साइड कट टू पीस. कोई भी ड्रैस वैसे बुरी नहीं होती अगर समय और स्थिति के अनुरूप पहनी जाए. खैर.

अस्पताल के कौरिडोर में पवन और अनिकेत साथसाथ चल रहे थे और दोनों ही जानते थे कि वे अनिकेत के लिए डाक्टर से मिलने नहीं जा रहे थे. पवन आतेआते रूबी के इतने करीब आ चुका था कि रूबी के हाथ से उस का हाथ छू जाए. हाथ छूते हुए पवन ने उसे पीछे से जकड़ कर कहा, ‘‘अनिकेत और तुम्हारे लिए मैं बहुत बुरा महसूस कर रहा हूं, लेकिन कर तो मैं बस इतना ही सकता हूं कि तुम्हारे अकेलेपन और मुश्किलों में मैं तुम्हारा साथ दूं.’’

इस अच्छाई की महिमा रूबी खूब समझती थी. रूबी भी खुल कर इस अच्छाई का लाभ लेना जानती थी.
ज्यादा दिन नहीं लगे. अनिकेत चल बसा.
पवन अब शिरोमणि था. दोस्त के काम पूरे होने और अंतिम क्रियाकर्म के बाद बचेखुचे रिश्तेदारों के रवाना हो जाने तक पवन अनिकेत के परिवार के साथ लगा रहा. पहचान वालों ने पवन की भूरिभूरि प्रशंसा की. पवन को मालूम था आम के आम गुठलियों के दाम कैसे वसूलते हैं.

पवन की 48 वर्षीया पत्नी अनीशा एक टीचर थी और स्कूल से फुरसत मिलते ही वह घर और परिवार के लोगों के कामों में जुट जाती. 18 साल का बेटा और 15 साल की बेटी हमेशा मां की रट लगाए रहते. बूढ़े सासससुर भी अनीशा की जिम्मेदारी में थे. घर की साजसज्जा तो थी ही.

पतिव्रता नारियां जरूरी नहीं कि पति की प्यारी हों ही और यह सच अनीशा भी जानती थी कि पति के मनमुताबिक हर काम करने की कोशिश से भी वह पति का मन मोह नहीं रही, तब भी कर्तव्य के खूंटे से बंधी जीवनभर एक ही पतीले में मुंह फेरते रहने की संकल्पना है उस में. इस से पवन का क्या जाता है. कुछ भी नहीं. उलटा, आजकल वह ज्यादा ही अनीशा पर चिल्लाता है, खफा होता है.

रूबी का स्वाद मिल रहा था तो अनीशा को नकारा साबित करना ही था. आनंद चाहिए मगर अपराधभावना का बोझ नहीं चाहिए. जिन का अंतर्मन शक्तिशाली नहीं होता, वे ऐसे बाहरी उपायों से खुद को शांत कर लेते हैं.

अनीशा को इतना बोध तो था ही कि पवन के किस फोन का क्या मतलब था. ऐसे भी उस के पवन को ले कर बीसियों दुखदायी अनुभव थे. फोन बजते ही जब पवन सड़क पर निकल जाए या व्हाट्सऐप पर जल्द टाइप करने लगे या फोन काट दे और संदेश टाइप करने लगे तो अनीशा समझते हुए भी खुद को ढाढ़स देती कि यह सब औफिस का मामला होगा.

लेकिन, बात यह थी कि वह सब जानते हुए भी खुद को चुप करा देती थी तो जाहिर था खुद के लिए उस की अंदरूनी उमंग खत्म ही हो गई थी. बस, खींच रही थी वह जिंदगी की गाड़ी.

सुबह 5 बजे से घड़ी का कांटा उस के ललाट पर चढ़ा बैठा ऐसा तांडव करता है कि जब रात के 11 बजते हैं और रसोई का दरवाजा बंद कर बिस्तर की ओर देखती है, शरीर और मन कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर धराशायी होने को दौड़ते हैं. फिर तो पवन रौंदे या छोड़े, वह नियति की नाव पर खुद को विसर्जित कर एक मशीन के बंद हो जाने की तरह सो जाती है.

पवन की जिंदगी में क्या चलता है, अनीशा को इस की जानकारी की कोई इजाजत कभी नहीं रही. बस, एक ही आजादी है उसे- उस की खुद की नौकरी और उस के अपने कमाए पैसे.

रूबी इस वक्त पति की नौकरी हासिल करने में अपनी एड़ीचोटी का जोर लगाने को तैयार थी. उसे लोगों का यह मशविरा पसंद नहीं आ रहा था कि पति की फैमिली पैंशन ले कर वह मात्र अनिकेत की विधवा बन कर रहे और अपनी सोची हुई जिंदगी से हाथ धो बैठे. निश्चित ही अनिकेत के बाद वह अपनी जिंदगी भजनमालिनी की तरह नहीं बिताने वाली थी.

सरकारी नियम उस ने पता कर लिए थे कि विधवा पैंशन की हकदार वह तभी तक है जब तक वह दूसरे किसी मर्द को अपनी जिंदगी में न लाए या दूसरी शादी न करे. अभी रूबी को एक ऐसे आदमी की तलाश थी जो रेलवे में अनुकंपा नियुक्ति दिलवाने में उस की मदद करे.

पवन रोज ही रूबी से फोन पर बात करता और फ्लैट के लोगों की नजर में अभिभावक की हैसियत का दिखावा करते हुए रूबी से उस के घर मिलने जाया करता. इस की भनक अनीशा को भी थी क्योंकि शुरू में पति के औफिस से घर लौटने में देर होने पर वह चिंतित हो कर फोन करती लेकिन 3-4 घंटे स्विचऔफ आता और रात के 12 बजे लौट कर पवन अनीशा से काफी क्रूर व्यवहार करता. इन लक्षणों के अतिरिक्त पवन के औफिस के कुछ कुलीगों की पत्नियां भी थीं जिन्हें अच्छी तरह खबर थी कि रूबी के साथ पवन के क्या गुलछर्रे चल रहे हैं और उन्होंने प्रमाण के साथ अनीशा को पवन की खबर दे रखी थी.

अनीशा जैसी शांतिप्रिय मृदुभाषी स्त्री ऐसे बददिमाग पति से लड़ कर कुछ भी हासिल नहीं कर सकती थी, सिवा गाली और मार के. उसे घर का माहौल बिगाड़ने में कोई रुचि नहीं थी. अपने बच्चों की शांति उसे प्रिय थी अपने अधिकारों और खुशी से ज्यादा. वह पति से मन ही मन कटती रही, जैसे मिट्टी कट कर बहती रहती है धीरेधीरे, अपनी वाली जमीन से.

रूबी पति के बदले नौकरी हासिल करने के लिए पवन को शारीरिक तौर पर मालामाल कर ही रही थी तो अंदरूनी मदद से दोनों विभागीय परीक्षाएं उस ने पास कर लीं.

पति के जीवित रहते एक घरेलू औरत की तरह उस ने जिंदगी जी थी, अब कमाऊ थी और महीने के 50 हजार रुपए वह खुद कमा रही थी. जिंदगी सैट हो गई थी. उस ने अपने पुर्जेपुर्जे पर पवन को हक दे कर उस का बना हिसाब लगभग चुकता कर दिया था.

आज पवन ने बड़ी देर तक रूबी के फ्लैट की घंटी बजाई मगर दरवाजा न खुला. झल्ला कर उस ने रूबी को फोन लगाया ही था कि दरवाजा खुल गया.
‘‘अरे,’’ दोनों ही एकदूसरे को देख चौंक पड़े.
‘‘आप कैसे?’’
‘‘तुम कैसे यहां?’’
शेखर ने तौहीन से पूछा तो पवन ने भौचक हो कर प्रतिप्रश्न किया.
‘‘मुझे तो रूबी ने बुलाया है. ऐसे भी, मैं तो तब से हूं जब अनिकेत भी थे पर आप का तो हो गया न, फिर आप कैसे?’’
‘‘पूछो रूबी से. जिस नौकरी पर आजकल तुम्हारे जैसे मच्छर भिनभिना रहे हैं वह नौकरी किस ने लगवा दी, पूछो तो जरा? बुलाओ रूबी को,’’ तिलमिलाया पवन जबरदस्ती घर में घुस गया.

रूबी आराम से सोफे पर बैठी थी. पवन उस के नजदीक आ कर बैठ गया लेकिन तुरंत रूबी सामने वाले सोफे पर चली गई.

‘‘आप का चुकता हो गया, पवनजी. पिछले 6 महीने से शेखर को रोके थी मैं और आप मुझे निचोड़ रहे थे. मैं ने यह होने दिया क्योंकि मुझे भी हिसाब आता है. लेकिन शेखर अलग है, उसे मुझ से भी मतलब है सिर्फ अपने हिसाब देखनेभर से नहीं. मैं ने उसे जब तक रोके रखा, वह रुका रहा. अब आप को अपनी बीवी के पास वापस जाना चाहिए, पवनजी.’’
‘‘क्यों, शेखर को अपनी बीवी और 10 साल की बेटी के पास वापस नहीं जाना चाहिए?’’ पवन के आवेश का ठिकाना न था.
‘‘नहीं, मैं ने 2 साल पहले ही अपनी बीवी से तलाक की घोषणा कर दी है और इस के लिए अपनी बीवी को मोटी रकम भी चुकाई है ताकि रूबी को अपना सकूं. ऐसे भी एकदो महीने में तलाक के आदेश भी फाइनल हो जाएंगे,’’ शेखर ने गर्व से कहा.
‘‘क्या आप देंगे अपनी पत्नी को तलाक? बहुत रुपए लगेंगे पवनजी. फ्री में नहीं मिलती फ्रीडम,’’ रूबी भी आमादा थी पवन पर धुंआधार बरसने को.
‘‘अभी जाओ न पवनजी अपने दरबे में, आप की बीवी इंतजार कर रही होगी,’’ रूबी ने ठसक से कहा तो पवन चिढ़ गया.
छूटते ही उस ने रूबी पर तंज कसा, ‘‘आखिर एक मिला तो वह भी खुद से 4 साल छोटा. अपने से छोटे उम्र के आदमी के साथ तुम्हें शर्म नहीं आती, बेटी का भी लिहाज नहीं?’’
‘‘लिहाज की बात तो आप रहने ही दो, पवनजी. इतने तो गिरे हो कि दोस्त गया नहीं कि उस की बीवी को खा गए वह भी इसलिए कि एक मजबूर औरत को मदद की जरूरत थी. शेखर तो प्यार करता है मुझ से, इसलिए लगा पड़ा है मेरे साथ. ऐसे भी अभी आप की उम्र 52 पार है. शेखर के सामने आप कुछ लगते भी हो? ये 42 साल का और आप बूढ़े हो चले. कितने भी बाल रंगो, एकदो सालों में आप की तो नैया डूबी. औफिस के बैग में जवानी की दवा लिए घूमते हो और खुद की जवानी को ले कर न जाने किस वहम में जी रहे हो. जाओ पवनजी जाओ, हमें अपने अरमानों के सातवें आसमान पर जाने दो.

‘‘परसों हम इंडिया टूर पर जा रहे हैं. पहले साउथ जाएंगे, कुछ दिन बेटी भी हमारे साथ रहेगी. शेखर के साथ उस की भी पहचान हो जानी चाहिए जब वह शेखर के साथ मेरे रिश्ते को खुशी से मान ही गई है.
‘‘आप न, अपनी बीवी के पास ही जाओ जब तक कोई नया शिकार न मिले. आप को जानती नहीं क्या मैं?’’

गजब का शून्य सा रह गया था पवन. वापसी पर उसे एहसास होने लगा कि कितना ही स्त्रियों का मैसूरपाक बना ले वह, कभी भी स्त्रियों को पूरी तरह समझ नहीं पाएगा.

खुद की बीवी अनीशा को ही देखो, मशीन की तरह चलती ही रहती है, ड्यूटी करती रहती है. कितना ही वह चीखेचिल्लाए मगर वह बिलकुल निर्वापित दीये की तरह निर्लिप्त. कितना भी फूंक मारो- जलती रहती, रोशनी देती ही रहती. क्या अनीशा भी समझ से परे नहीं?

पवन और शेखर के बीच झेलती रूबी पति अनिकेत की मौत के बाद अपनी हृदयविदारक दहाड़ों से सभी रिश्तेदारों को विचलित कर गई थी. क्या एक स्त्री पुरुषों के लिए अपठित गद्यांश ही रह जाएगी? नहीं, तो क्यों नहीं?

Family Story In Hindi : सिबलिंग कीमती होते हैं

Family Story In Hindi :  सुबहसुबह उठते ही आकाश के फोन पर मेल फ्लैश हुआ तो वह सकते में आ गया.

“क्या हुआ आकाश, आप इतने परेशान क्यों?”

“कुछ मत पूछो नीला, मेरा भाई मुसीबत में है. उसे मेरी जरूरत है.”

यह कह कर वह आननफानन टिकट बुक कर भारत के लिए रवाना हो गया और अपने पीछे नीला को चिंतित छोड़ गया. इस से पहले आकाश कभी अकेला नहीं जाता था. उस ने मेल खोला तो उस में ब्लडकैंसर की रिपोर्ट थी.

ओह, तभी आकाश कुछ बोल नहीं पा रहा था. वह उसे पिछले 35 वर्षों से जानती है. वह जितना ही ईमानदार है उतना ही भावुक और साथ ही साथ अंतर्मुखी भी. तभी तो उस ने अपने दुख खुद तक ही समेटे रखा, उस से खुल कर कहा तक नहीं. उसे एकएक कर सबकुछ याद आने लगा. पिछले दिनों वे कैसे भावुक हो कर देश पहुंचे और उन के साथ क्याकुछ घटा था.

‘नीला, जानती हो मैं और अमन हमेशा ही मां का पेट पकड़ कर सोते थे,’ एक रविवार जब आकाश उस से अपना बचपन साझा कर रहा था.

‘और वे तुम्हारी ओर अपना चेहरा रखती थीं.’

‘उन्हें बातों में फंसा कर अपनी ओर कर लेता. कितना अच्छा था न जब तक मांपिताजी थे.’

‘सच में, जब तक सिर पर मातापिता का साया रहता है, बचपन ज़िंदा रहता है.’ यह कहती हुई नीला मानो अपने बच्चों के बचपन में खो गई.

‘अब तुम कहां?’

‘मुझे तो रौनित और नैना के बच्चों संग खेलना है. जाने कैसी जनरेशन आ गई है, शादी के 2 साल हो गए मगर ये तो खुद के ही फोटो शूट करते नहीं थक रहे.’

‘कोई बात नहीं, उन्हें उन की जिंदगी जीने दो.’

‘अरे, हम 5 साल बाद ऐसे थोड़े ही रह जाएंगे, फिर कैसे बच्चों की मालिश होगी.’

‘जैसी तुम्हें तेलमालिश की इजाज़त होगी.’

‘अरे हां, इन के विदेशी पार्टनर हैं. यहां छठी-बरही थोड़े ही होती है.’

दोनों बिस्तर के अपने कोनों में सिमट कर सो गए. 60 साल की उम्र ही ऐसी होती है जब काम और परिवार दोनो ही ओर एकरसता आ चुकी होती है और जीवन में खालीपन भरने लगता है.

अगली सुबह जब नीला जागी तो सूर्य के प्रकाश से आकाश का चेहरा चमक रहा था. वह वौक से लौट आया था और भारत जाने का टिकट बुक कर रहा था.

‘मुझे तुम्हारा इरादा पहले ही समझ में आ गया था जब तुम बचपन याद कर रहे थे.’

‘हाहाहा, 35 वर्ष का साथ एकदूसरे को समझने के लिए काफ़ी होता है.’

चाय का कप होंठों पर लगाते ही उसे अपने संघर्ष के दिन याद आए जब वह नईनई शादी के बाद अटलांटा आई थी. तब सस्ता घर किराए पर लिया था जो सिटी से दूर था. बाज़ार से सामान उठा कर लाने में बर्फीली पहाड़ी पर खींचना पड़ता था. फिर घर के सारे काम अपने ही हाथों करना भी तो एक चैलेंज था.

विदेश में रहना जितना सुखद दिखता है उतना होता नहीं. एक तनख्वाह में मुश्किल से गुजारा होता है मगर उस ने भी कमर कस ली थी. छोटे से गांव से आए आकाश के बड़े सपने और उन्हें पूरा करने की लगन में उस ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी.

पहले घर में रह कर बच्चों की देखभाल करती रही मगर जब वे स्कूल जाने लगे, उस ने बच्चों के स्कूल में ही नौकरी कर ली. घर,बाहर,बच्चे,स्कूल सबकुछ स्वयं संभाला तभी तो आकाश नामी डाक्टर बन सका और अपना अस्पताल चला रहा है. और तो और, बच्चे भी डाक्टर बन गए तो अस्पताल की जिम्मेदारी भी उन्होंने बखूबी संभाल ली.

अब अकसर दोनो फुरसत में रहते हैं और कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं. उस ने चाय के खाली प्याले उठाए और रसोई में आ गई. फ्रिज में जो सब्जियां पड़ी थीं, पहले उन्हें ख़त्म करना था. अगले दिन से गांव की हरी सब्जियां खाने के लिए मिलेंगी, यह सोच कर ही मन झूम रहा था. रसोई निबटा कर उसे पैकिंग भी करनी थी.

‘परीक्षाएं शुरू हो गई हैं तो कोई बात नहीं, तुम हमें आखिरी परीक्षा की डेट बताओ, तब आ जाएंगे.’

आकाश फ़ोन पर था. कानों में यह बात पड़ते ही वह ठिठक गई तो आकाश कुछ झेंप गया,

‘अरे. पहले अमन ने ही कहा कि जब चाहो, आ जाओ और अब छोटे बेटे की परीक्षा की बात कह रहा है. लगता है उस की बीवी ने मना कर दिया होगा.’

‘मन छोटा न करो. हम होटल में रुक जाएंगे. घूमतेफिरते पहुंचेंगे, तब तक परीक्षाएं ख़त्म हो गई होंगी.’

‘यह सही रहेगा.’

आकाश के चेहरे पर वही शांत भाव वापस पा कर नीला की जान में जान आई. वे इस बार 4 साल बाद हिंदुस्तान जा रहे थे. पहले कोरोना, फिर देवर के बेटे की परिक्षाएं. अब तो हर तरह से निश्चिंत हो कर ही ससुराल आएगी.

पहले 15 दिन दक्षिण भारत की यात्रा में निकले, फिर मायके वालों से मिलने गई. वहां के बच्चों को देख काफी अचरज में थी. नब्बे के दशक में देश में इतने ब्रैंड्स नहीं थे, जो मिलता था, बच्चे वही पहनते थे. मगर इन दिनों सभी हाईफाई रहना एक स्टाइल स्टेटमैंट बना कर चल रहे थे, साथ ही, एनआरआई बूआ व फूफा पर इंप्रैशन भी जमाना चाह रहे थे.

ख़ैर, समाज में आए बदलाव के लिए वह किसकिस को जिम्मेदार ठहराती. परीक्षाएं ख़त्म होते ही अमन के परिवार से मिलने ससुराल आ गई. घर देख कर आश्चर्य से आंखें फटी की फटी रह गईं. ससुरजी के देहांत पर जब आई थी तो घर खंडहर सा दिख रहा था जो अब नवनिर्मित भवन चमचम चमक रहा था.

अच्छा तो वक्तबेवक्त जो पैसे मांगे जा रहे थे वे मकान में लग रहे थे. घर में काम करने वाली कई नौकरानियां थीं जो देवरानी के आगेपीछे डोल रही थीं. यह सब देख कर उसे चक्कर आने लगा.

वह तो चाहे अपने घर में रहे या बच्चों के पास जाए, सब्जियों को काटने-पकाने से ले कर रसोई का पूरा कार्य स्वयं संभालती थी. मगर देवरानी के पास घर की चाबी का छल्ला घुमाने के सिवा कोई काम न था.

‘ये सब कब बनाया, अमन, मुझे बताया तक नहीं?’ आकाश ने पूछा.

‘भैया, जब आप ने कोचिंग में दाखिले के पैसे दिए तो उसे मैं ने…’

‘कोचिंग के अलावा बड़ी के एनआरआई कोटा में एडमिशन के लिए भी तो तुम ने 15 लाख…’

‘भैया, बच्चे मेहनत कर रहे हैं, तीसरी बार परीक्षा दी है. सरकारी कालेज में एडमिशन दिलाऊंगा.’

‘फिर मुझ से मणिपाल मैडिकल कालेज में एडमिशन के नाम पर पैसे ऐंठना गलत है न. झू बोल कर तुम ने महल बना डाला?’

‘देखिए भैया, आप यहां रहते नहीं. लोग हंसते हैं कि बड़ा भाई अमेरिका में डाक्टर है और घर खंडहर बन गया है. मैं ने इज्ज़त बचाई है.’

‘भाई की कोई लौटरी थोड़े ही निकली है. बहुत मेहनत से कुछ कर पाया हूं. जो संघर्ष मैं ने किया है वह बच्चे न करें, इसलिए उन की शिक्षा के लिए मदद की. मगर तुम तो अलग ही किस्म के इंसान निकले. मैं यहां खुशीखुशी वक्त बिताने आया था मगर तुम ने तो मेरा दिल तोड़ कर रख दिया.’ आकाश की आंखों में आंसू थे, तभी अचानक रेखा कुछ कागज़ के पुलिंदे उठा लाई.

‘भैया, इस में दुखी होने की क्या बात है. आप लोग देशविदेश घूम रहे हैं मगर हम भी वेले नहीं बैठे. केयरटेकर रखते तो तनख्वाह देते न. समझ लीजिए वही दिया. अब आ ही गए हैं तो इन कागजों पर दस्तख़त कर के छुट्टी कीजिए.’

‘कैसा कागज़, कैसे दस्तख़त?’

आकाश की आंखें धुंधलाई थीं. भावुकतावश होंठ कांप रहे थे. जैसा भारत छोड़ कर गया था और जिसे देखनेमिलने वह आया था यहां, वैसा कुछ भी नहीं था. इस से अच्छा भारत तो उस ने अपने घर में बना रखा था जहां सभी मेहनती थे. एकदूसरे का सम्मान करते थे. छुट्टी के दिन एकसाथ बैठ कर फिल्म देखते और मिलजुल कर खाना खाया करते थे. कोई बेईमान या मुफ्तखोर न था.

पति की मनोदशा से वाकिफ नीला आगे बढ़ी. ऐसे भी स्त्रियों को जितना भावुक समझा जाता है वे उतनी होती नहीं हैं. कागजों को ठीक से देखा, तो पाया कि वे पावर औफ अटौर्नी के थे जिस पर हस्ताक्षर होते ही अमन उन का हकदार हो जाता. नीला की यह समझते देर नहीं लगी कि ये सब पतिपत्नी की मिलीजुली साज़िश थी. पहले तो घरनिर्माण की बात न खुल जाए, इस के लिए उन के आने पर रोक लगाना चाह रहे थे और जब आ ही गए तो पावर औफ अटौर्नी ले कर निश्चिंत होना चाहते थे. यही एक काम शेष था. उस के बाद अमन पूरी संपत्ति को बेचने का हकदार हो जाता.

‘देखो रेखा, अब तक जो भी तुम ने कहा, हम ने किया. हमें लगता था तुम लोग सासससुर की देखभाल कर रहे हो तो तुम्हारी हर मांग पूरी करना और बच्चों की जरूरतों का खयाल रखना हमारा फ़र्ज़ है मगर इस तरह से पुश्तैनी संपत्ति अपने नाम करने की साज़िश ठीक नहीं.’

‘हम आख़िर कब तक आप से मांग कर अपना काम चलाएंगे और पैसों का हिसाब देंगे. अब एक आखिरी काम करिए कि भैया से हस्ताक्षर करा दीजिए. हम जमीन बेच कर बच्चों की पढ़ाई और शादी करा लेंगे. आप भी खुश, हम भी खुश.’

‘इस घर में जो हम ने इतना कुछ लगाया, उस का क्या?’

‘वो हमारा मेहनताना था,’ रेखा चीखी.

नीला ने सुना था कि डौलर से रिश्ते खरीदे जाते हैं. यहां तो डौलर ने सारे रिश्ते छीन लिए थे. आकाश अभी भी हतप्रभ सब का चेहरा देख रहा था. वह अपने बचपन को जीने आया था. जिन संबंधों की मिठास की आस में आज तक जीतोड़ मेहनत करता रहा वह सब के सब अचानक मिथ्या लगने लगे. जब कुछ न सूझा तो मां का चेहरा आंखों में लिए भाई की ओर रुख कर बोला,

‘तू बता, तू क्या चाहता है?’

‘आप के पास बहुतकुछ है. यहां की संपत्ति मेरे लिए छोड़ दो.’

सहसा कानों में मां के वही शब्द गूंजे जो वह भाइयों के झगड़े सुलझाते वक्त अकसर कहा करतीं,

‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’

उस ने आव देखा न ताव, सीधे हस्ताक्षर करने के लिए कलम उठा लिया. सबकुछ दे कर भी संबंध बचाना गवारा लगा.

‘एक मिनट, आकाश, मुझे कुछ कहना है,’ नीला की आवाज़ पर आकाश की उंगलियां थम गईं. उस ने आगे कहा, ‘आज तक के आप के सभी निर्णय शिरोधार्य थे. मगर आज मुझे एतराज है. यह पैतृक संपत्ति सिर्फ़ आप दोनों भाइयों की नहीं बल्कि इस के दावेदार और भी हैं.’

चारो ओर सन्नाटा सा पसर गया. रेखा और अमन तो फुल एंड फाइनल करने पर तुले थे. भाई के स्नेह में आकाश सर्वस्व त्याग करने को तत्पर था मगर नीला के कहने पर सबकुछ थम गया.

‘यहां बराबरी के हकदार होते हुए भी हमें यहां आने के पूर्व इजाज़त लेनी पड़ती है. भविष्य में हमारे बच्चे तो इस जगह को देखने के लिए तरस ही जाएंगे. अब तो सब बराबरी में ही बंटेगा. और हमारे हिस्से में हमारा केयरटेकर रहेगा.’

उस ने धीरे से आकाश से कहा, ‘जहां कमाने से ज्यादा गंवाने को तैयार हैं और सारी संपत्ति बेचने पर आमादा हैं तो कम से कम आधा तो बचा लें.’

नीला के इस व्यावहारिक रूप से अनभिज्ञ आकाश अवाक रह गया. मगर उस वक्त उसे इस विषय में कुछ भी कहनासुनना ठीक नहीं लगा. सो, वापस अटलांटा लौट गया. अब इस बात को 2 महीने बीते कि भतीजी के मेल ने उन को वस्तुस्थिति की जानकारी दी.

‘चाचाजी, पिताजी की मैडिकल रिपोर्ट आई है. उन्हें ब्लडकैंसर है. हर 2 दिन में खून बदलना पड़ता है जिस में डेढ़दो लाख रुपए का खर्चा आता है. उन के इलाज़ में सारी जमापूंजी निकल गई है, अब, आप का ही सहारा है.

‘आप की निधि.’

फास्टेस्ट फ्लाइट ले कर आकाश भाई के पास पहुंचा तो उस के चेहरे को देखते ही आंसुओं में डूब गया.

“इतना कुछ हो गया और तुम ने कहा तक नहीं?”

“किस मुंह से कहता, भैया.”

“मैं आ गया हूं, सब ठीक कर दूंगा.”

वाकई उस ने अमन के इलाज़ में जमीनआसमान एक कर दिया. अपने बैचमेट्स की मदद से एम्स में इलाज़ कराने लगा जहां एक से बढ़ कर एक कैंसर स्पैशलिस्ट थे. जब स्थिति थोड़ी संभल गई तो नीला को भी मदद के लिए बुला लिया. इस बार रेखा नज़रें नहीं मिला पा रही थी.

“दीदी, भैया, आप से बराबरी करने में मैं ने अमन की साझेदारी में न जाने कितने अपराध किए, फिर भी आप ने इस आपातकाल में हमारी सहायता की. आप का यह एहसान आजीवन नहीं भूलूंगी.”

“नहींनहीं, एहसान की क्या बात है. भाई तो भाई है. मेरा भाई ठीक हो जाए तो मुझे सब मिल जाएगा. भाई की अहमियत समझाते हुए मां क्या कहती थीं, याद है- ‘जगहुं न मिलिहें सहोदर भाई.’”

अमन के लब फड़फड़ाए तो आकाश ने उसे सीने से लगा लिया. मांबाप से छिप कर निधि ने जो मेल किया था उस से ही पूरे परिवार का मेल संभव हो सका, जिसे देख कर वह आत्मविभोर थी. Family Story In Hindi

लेखिका : आर्या झा

Family Story : अनकहे शब्द – स्त्री की मनोदशा व्यक्त करती कहानी

Family Story : जब मैं बोलती थी तो घर के सभी लोग कहते, ‘कितना बोलती हो,’ और आज जब मेरे मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा तो सभी चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं.

आज मैं कुछ नहीं कहना चाहती, कुछ भी नहीं.क्यों कहूं? हां, जिस प्यार को, जिस अपनेपन को तरसती रही उम्रभर, आज वह बिन मांगे मिल रहा है. बजाज साहब (पति) अपनी गोद में मेरा सिर रखे हुए हैं, बच्चे (बेटाबहू) सब के सब अपना कामकाज छोड़ मेरे पास हैं. सब की आंखों से झरझर आंसू बह रहे हैं. सब मुझे जबरदस्ती डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहे हैं, लेकिन आज मुझे कहीं नहीं जाना, कहीं नहीं. क्यों जाऊं?

पता उन्हें भी है कि अब मेरा आखिरी समय है. अब डाक्टर के पास जा कर कुछ नहीं होगा. लेकिन फिर भी बारबार ले जाने को कह रहे हैं. आज सब चाहते हैं कि मैं कुछ बोलूं, कुछ कहूं. मगर पहले जबजब भी कुछ कहना चाहा तो मेरे होंठों पर ताला जड़ा जाता रहा तो फिर आज क्यों बोलूं, क्यों अपने जिगर के जख्मों को खोलूं, क्या कोई अब इन पर मरहम लगा पाएगा?

आज मैं आखिरी सांसें ले रही हूं, सब मेरे पास हैं, कोई कुछ कह रहा है तो कोई कुछ. बहू कहती है, ‘‘मम्मीजी, कुछ बोलिए न, देखिए समक्ष आप को बुला रहे हैं, आप की लाड़ली पोती को स्कूल के लिए देर हो रही है, आप को पता है न जब तक आप उस को टिफिन नहीं पकड़ातीं, वह स्कूल नहीं जाती. आप बोलती क्यों नहीं मम्मीजी, कुछ तो बोलिए.’’

अरे आज कैसे बोलूं मैं जोर से, आज तक तो हमेशा से यही सुनती आई हूं, ‘क्यों इतना चिल्लाचिल्ला कर बोल रही हो, धीरे बात नहीं कर सकती क्या, हर वक्त शोर मचा रखा है घर में.’

तो आज कैसे मैं जोर से बोलूं. मेरी तो आवाज ही बंद कर दी थी तुम ने. आज वही बहू कह रही है, ‘मम्मीजी, टीवी चला दूं आप के फेवरेट हीरो के गाने आ रहे हैं.’ जब मैं पहले कभी गाने सुनने के लिए टीवी चलाती थी तो ‘बस, इन्हें घरपरिवार की चिंता तो होती नहीं, सारा दिन यही शोरशराबा चलता है. भला इस उम्र में ये चोंचले अच्छे लगते हैं क्या?’ और आज मैं पलदोपल की मेहमान हूं शायद, कितना बोल दूंगी या कितना टीवीरेडियो सुनदेख लूंगी. पता नहीं अगली सांस आए भी या न.

‘बेटा भी तो साथ है, उस के भी मन में न जाने क्याक्या चल रहा है, ‘मम्मा, कुछ बोलो न, कुछ तो कहो, चुप सी क्यों हो, कोई तकलीफ है तो बताओ, कुछ चाहिए तो कहो न, मम्मा. अरे शिवानी, मम्मा के लिए कुछ बना कर लाओ न. तुम भी न, खुद नहीं पता चलता कि सुबह से मम्मा ने कुछ नहीं लिया. कुछ काम भी कर लो. अच्छा ऐसे करो, थोड़ा सा सूप ही बना दो मम्मा के लिए.’’ और यही बेटा हर समय यही कहता था, ‘बस, आप को तो अपने से मतलब है. आप तो समय पर खापी लो, बाकी कोई खाए या न खाए.

‘शिवानी बेचारी ने सुबह से कुछ नहीं खाया. है कोई आप को उस की चिंता? सारा दिन घर में खटते रहो. फिर भी यही सुनने को मिलता था कि करना तो कुछ है ही नहीं न’ आप को बस, सिर्फ अपनी और पापा की चिंता रहती है. कोई खाए या भूखा रहे, आप को इस से कोई मतलब ही नहीं’ और आज मेरी इतनी चिंता और पति महोदय, वे भी तो बेटे संग सब कामकाज छोड़ घर पर हैं आज. ‘‘आशा, आशा, मेरे माथे पर प्यार से हाथ रख कर बोलो न आशा, कोई तकलीफ हो रही है तो बताओ न, ऐसे चुप मत रहो, कुछ तो बोलो.’’ और जब मैं पहले बोलती थी तो तब सुनना ही नहीं.

जैसे ही मैं ने कोई बात शुरू की, उठ कर कमरे से बाहर चले जाते थे और उस पर अगर कभी कहा कि कोई तकलीफ है, किसी डाक्टर के पास ले चलो तो हमेशा पहले तो हंस कर टाल देना कि यह कोई इतनी बड़ी बात है, ठीक हो जाएगा और अगर ज्यादा कहो तो ‘हां, देखता हूं, किस दिन समय मिलता है, ले जाऊंगा.’ बेटे से कहो तो ‘मम्मा, मैं अकेला क्याक्या करूं. पापा से कहो न. अब क्या पापा इतना भी नहीं कर सकते. माना हमारी मदद नहीं कर सकते, कम से कम आप को तो डाक्टर के पास ले जा सकते हैं.’

हां, 6 महीने ही पहले एक दिन अचानक मुझे चक्कर आया था. घर पर कोई नहीं था. पति दुकान पर थे. बेटाबहू बच्चों की छुट्टियां थीं तो सिंगापुर घूमने गए हुए थे. मुझे कुछ नहीं पता कितनी देर तक मैं बेहोश पड़ी रही. जब होश आया तो काफी समय बीत चुका था. घर पर तो कोई था नहीं, सोचा, दुकान पर इन्हें फोन कर के बुला लूं कि किसी डाक्टर के पास ले चलो.

पहले भी कभीकभी ऐसे चक्कर आ जाते थे पर फिर खुद ही संभल जाती थी. कभी किसी से कहा ही नहीं और कहूं तो किस से, कौन है जो सुनेगा. फोन किया दुकान पर तो जैसे ही हैलो कहा, आगे से आवाज आई, ‘क्या हुआ अब, कभी तो शांत रहो, काम है मुझे, बाद में बात करूंगा.’ चुपचाप फोन रख दिया और बेमन से खुद ही उठी, डाक्टर के पास जाने को तैयार हुई. सोचा, अपने लिए खुद ही सोचना पड़ेगा.

अगर बिस्तर पर पड़ गई तो कोई नहीं करने वाला, इसलिए ठीक रहना है तो इलाज तो कराना होगा. चल मना, खुद ही चल कर डाक्टर को दिखा आऊं. अस्पताल गई, परची बनवाई और सीधी अंदर डाक्टर के पास चली गई, बहुत अच्छे से जानपहचान जो थी. बाहर बैठ कर इंतजार नहीं करना पड़ा.
‘गुड मौर्निंग डाक्टर’.
‘गुड मौर्निंग आशा. आज आप कैसे, सब ठीक है न, काफी समय बाद दर्शन दिए,’ और हंस पड़े डाक्टर साहब.
‘अरे डाक्टर साहब, सब ठीक है. बस, आज ऐसे ही चक्कर सा आ गया.’ मैं ने डाक्टर को सारी बात बताई, यह भी बताया कि डाक्टर, मेरी पीठ पर भी कोई गांठ सी है, पहले तो छोटी सी थी पर अब कुछ समय से लगातार बढ़ रही है. जरा वह भी देखिए.’

‘अरे, दिखाइए गांठ कैसी है. वह तो आप को दिखानी चाहिए थी. गांठ देख कर उन्होंने कहा, कब से है यह गांठ, लापरवाही ठीक नहीं. चलिए, पहले तो आप ब्लड टैस्ट करा लें, फिर रिपोर्ट आने पर मैं देखता हूं.’
‘ओहो डाक्टर साहब, अब इतनी सी बात के लिए क्या टैस्टवैस्ट. बस. कोई दवा लिख दो.’
‘यह इतनी सी बात नहीं है. आप बहुत लापरवाही करती हैं. कहां हैं बजाज साहब, जरा उन्हें बुलाओ, उन से बात करते हैं.’
‘डाक्टर साहब, वे तो आज टूर पर गए हैं, शहर से बाहर हैं,’ झुठ बोल दिया, इज्जत जो रखनी थी. झुठ तो बोलना ही पड़ेगा न. इतनी देर में टैस्ट की कुछ रिपोर्ट्स आ गईं, कुछ दोतीन दिनों के बाद आनी थीं. जो रिपोर्ट्स आई थीं उन्हें देख कर लग रहा था कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है जो रिपोर्ट देख कर डाक्टर की आंखें फैल गई थीं. साथी डाक्टर से इंग्लिश में कुछ बात की उन्होंने और मुझे थोड़ी सी दवा लिख दी थी. बाद में 3 दिनों बाद आने को कहा और जोर दे कर कहा कि बजाज साहब (पति) को साथ ले कर आऊं. लेकिन किसी को समय ही कहां है मेरे लिए. तीन दिनों बाद भी मैं अकेली ही गई डाक्टर के पास.
‘कहिए डाक्टर साहब, क्या आया रिपोर्ट में?’ मैं ने हंस कर कहा.
कुछ नहीं कहा डाक्टर ने, बस, इतना कहा, ‘बजाज साहब नहीं आए?’
मैं ने कहा, ‘आ रहे थे, कोई जरूरी काम आ गया अचानक तो जाना पड़ा.’
‘तो बेटे को साथ ले आते.’

‘दरअसल बच्चे बाहर गए हैं घूमने, छुट्टियां हैं न. क्या हुआ, आप मुझे बताएं, बीमार तो मैं हूं. ऐसा क्या हो गया मुझे, मरने वाली तो नहीं न,’ मैं ने हंस कर कहा.
‘आशाजी, दरअसल आप फिर कभी एकदो दिन में किसी को साथ ले कर आना, फिर बात करेंगे.’
‘अरे डाक्टर साहब, किसी को साथ क्या लाना, जो भी है आप मुझे बताइए न. कुछ भी हो, आप बता दो. मैं घबराने वालों में से नहीं हूं. आई एम ए स्ट्रौंग वुमन.’
‘दरअसल यह छोटीमोटी बात नहीं है. न ही इसे ज्यादा देर टाला जा सकता है.’
‘अरे, आप बताओ तो सही, ऐसा क्या हो गया मुझे?’ मैं फिर से हंस पड़ी. मेरे बहुत जोर देने पर जब डाक्टर ने देखा कि न तो ये किसी को साथ लाने वाली है और न ही बिना जाने ये यहां से जाने वाली है तो कहने लगे, ‘‘दरअसल जो आप की पीठ में गांठ है वह कैंसर का गंभीर रूप ले चुकी है और आप के दोनों गुर्दे भी लगभग खत्म हैं. आप को जल्दी ही कहीं किसी बड़े अस्पताल में जा कर इलाज कराना चाहिए. मेरे विचार से तो आप को आज ही जाना चाहिए. आप पहले ही बहुत लापरवाही कर चुकी हैं. अगर अब भी आप ने लापरवाही की तो सही नहीं होगा.’
‘अधिक से अधिक कितना समय है मेरे पास?’ मैं ने हंस कर कहा.
‘ज्यादा से ज्यादा 6 महीने. अगर इलाज सही हो जाए तो कुछ समय और मिल सकता है.’
‘‘जी डाक्टर, मैं आज ही घर में यह बात करती हूं और हम जल्दी कहीं बड़े अस्पताल जाते हैं.’
वहां तो मैं यह कह कर घर आ गई लेकिन रास्तेभर यही सोचती रही, क्या किसी के पास वक्त है मेरे लिए कि मेरी बात सुने या मुझे कहीं इलाज के लिए ले कर जाए. अरे, आज 10 दिन से कह रही हूं सब को कि मुझ से खाना नहीं खाया जा रहा, दांतों में बहुत तकलीफ हो रही है. बेटाबहू बस बोल तो देते हैं कि डाक्टर को क्यों नहीं दिखा आते. पति कहते हैं मेरे पास समय कहां है, जब समय होगा चलेंगे.
अगर खुद पास वाले क्लिनिक पर जाने लगती हूं तो अभी आप जा रहे हो, खाने का समय भी हो गया है, खाना कौन देखेगा; कभी बहू को कहीं जाना है तो घर पर बच्चों को कौन देखेगा. बस, यही हर वक्त, और उस पर फिर कहेंगे, ‘आप जाते क्यों नहीं डाक्टर के पास?’ सोचा, चलो आज बजाज साहब से रात में बात करती हूं, कल तो बच्चे भी आ जाएंगे घूम कर, फिर उन से भी बात करूंगी. लेकिन मन नहीं है कि मैं अपना इलाज कराऊं. किसलिए और क्यों? क्या रखा है अब जिंदगी में, ऊब गई हूं इस जिंदगी से.
रात को खाने के बाद आ कर पास बैठी, बात शुरू करने लगी तो उन्होंने कहा, ‘सोने दो यार, थक गया हूं. तुम्हें तो बोलने के सिवा कोई काम नहीं है. आराम करने दो मुझे.’ यह सुन चुपचाप उठ गई.
अगले दिन बच्चे आ गए. दिनभर कुछ नहीं कहा, कहते तो वे कहते, अभी घर में कदम ही रखा है, आते ही आप की रामकहानियां शुरू. रात को मौका देखा तो बच्चों से बात करने लगी, ‘समक्ष बेटा, मुझे 2 दिन पहले चक्कर आ रहे थे तो…’ अभी इतना ही कह पाई कि बहू बोल उठी, ‘मम्मा, आप भी न, पापा के साथ डाक्टर पास चले जाते न, आप देख रहे हो हम कितना थके हुए हैं सफर से. अब आप को कल डाक्टर के पास ले जाएं लेकिन कल से औफिस भी जाना है हमें, कहां समय मिल पाएगा.’
‘ठीक है बेटा, मैं दिखा दूंगी,’ इतना कह कर उठ गई थी वहां से.
लगभग 6 महीने बीत गए इस बात को. किसी ने मेरी सुनी नहीं और किसी से मैं कह नहीं पाई. बस, अपनेआप को जैसेतैसे संभाले हुए हूं.

आज सुबह भी वही रूटीन है, बच्चे स्कूल चले गए, बजाज साहब को भी दुकान की जल्दी और बेटेबहू को भी औफिस जाने की जल्दी है. लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही पर किसी का ध्यान मेरी तरफ नहीं है. सब को अपनी जल्दी है. साहब आवाज लगा रहे हैं, ‘‘जल्दी नाश्ता दो,’’ बेटा आवाज लगा रहा है, ‘‘मम्मा, जल्दी से नाश्ता दो, लंच पैक हो गया क्या? जल्दी करो न मम्मा, हम दोनों लेट हो रहे हैं.’’

अचानक मुझे कुछ नहीं पता चलता, बहुत संभालने की कोशिश की खुद को, लेकिन नहीं संभाल पाई और किचन में ही बेहोश हो कर गिर गई. सब अपने कमरों में हैं. एसी चल रहा है. गरमी काफी है. बाहर कोई नहीं आता. सबकुछ कमरे में चाहिए सब को. जब लंचबौक्स नहीं पहुंचा कमरे में, बेटा झुंझलाता हुआ बाहर निकला, ‘‘मम्मा, क्या है यार, हम लेट हो रहे हैं और आप ने अभी तक लंच नहीं पैक किया?’’ आवाज लगाता हुआ बाहर आता है तो देखता है मैं किचन में बेहोश पड़ी हूं.

‘‘पापा, पापा, मम्मा बेहोश हो गईं. अरे शिवानी, आना जरा, मदद करो. मम्मा को अंदर लिटाते हैं, शायद गरमी की वजह से बेहोश हो गईं. और देखो, जरा लंच पैक हुआ या नहीं. साहबजी भी उठ कर आ गए. कमरे में मुझे ले जा कर बैड पर लिटाया. पापा आप थोड़ा लेट चले जाना दुकान. हमें देर हो रही है औफिस के लिए, सो हम निकलते हैं. शिवानी, अगर लंच नहीं बना तो रहने दो, बाजार से कुछ ले लेंगे. चलो, अब चलें.’’
10 बज गए. अभी तक मुझे होश नहीं आया. साहब को थोड़ी चिंता हुई. समक्ष को फोन किया, ‘‘समक्ष बेटा, तेरी मम्मी को अभी तक होश नहीं आया. कैसे करूं? मुझे दुकान के लिए देर हो रही है, क्या करें?’’
‘‘अरे, करना क्या है पापा, डाक्टर अंकल को फोन कर लो न.’’
‘‘ठीक है, अभी करता हूं.’’ डाक्टर को फोन किया तो डाक्टर से पता चला कि ये तो पिछले 6 महीने से बीमार हैं, और डाक्टर ने किसी बड़े अस्पताल जा कर इलाज करवाने को कहा था.
‘‘लेकिन डाक्टर साहब, हमें तो इस सिलसिले में कुछ भी पता नहीं.’’
फिर भी डाक्टर घर आते हैं और सबकुछ बताते हैं कि 6 महीने पहले ही इन्हें बता दिया गया था कि इन्हें कहीं बड़े अस्पताल (शहर) में इलाज के लिए जाना चाहिए. तब मेरी कंडीशन देख कर डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता. यह सुन कर साहब भौचक्के रह जाते हैं, फौरन समक्ष को फोन लगाते हैं. जैसे ही समक्ष को पता चलता है कि मां न जाने कितने पल, कितने घंटे या शायद दोचार दिन की ही मेहमान हैं तो फौरन घर के लिए बहूबेटा चलते हैं. ‘‘मम्मा, ये क्या हो गया आप को?’’ एक हकलाहट थी बेटे के लफ्जों में, ‘‘इतनी बड़ी बात, आप ने कभी बताया क्यों नहीं? ओफ्हो मां, यह क्या हो गया.’’ शिवानी मूक खड़ी देख रही है, आंखों में आंसू हैं, कुछ कहा नहीं जा रहा. ‘‘मम्मा, हमें माफ कर दो. हम ने आप की बिलकुल परवा नहीं की आज तक. कभी आप का दुख समझ ही नहीं.’’
‘‘आशा, मेरी प्यारी, यह क्या हो गया, मैं कैसे इतना निष्ठुर हो गया. मैं ने भी तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ दिया. मैं ने तो हर दुखसुख में साथ निभाने का वादा किया था. कैसे हो गया ये सब.’’

मेरी भी आंखों में आंसू हैं लेकिन आज ये दुख के नहीं, खुशी के हैं. जो प्यार, अपनापन, जीवनभर चाहती रही, मांगती रही, वह आज बिन मांगे मुझ पर उड़ेला जा रहा है. जब कहती थी तो मुझे कोई नहीं समझता था. जब मौका था तो अपने में मस्त थे. मां को टेकन फौर ग्रांटेड ले रहे थे. आज मेरे अनकहे शब्द भी समझे जा रहे हैं, मेरे अनकहे शब्द.

Hindi Satire : विवाह करवाने वाले पंडित

Hindi Satire : पंडितजी की जिंदगी में दक्षिणा वो ईंधन है, जो उन के मंत्रों की गाड़ी को चलाता है. अब दक्षिणा का रेट कार्ड भी बड़ा रोचक होता है. इसलिए एक सलाह है-पंडितजी को अगली बार बुलाओ तो पहले दक्षिणा का बजट फिक्स कर लेना वरना जेब हलकी होने में वक्त नहीं लगेगा.

पंडित दो प्रकार के होते हैं. एक पोथी पढ़़े हुए और दूसरे ढाई आखर पढ़े हुए. नाई का काम बाल काटना है और जेबकतरे का काम जेब काटना. वैसे ही पंडित का काम पूजापाठ करना, मंत्रोच्चारण कर विवाह करवाना आदि होता है. इस के लिए उन्हें मजबूरी में दक्षिणा लेनी पड़ती है. घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या. पंडितजी का धंधा मस्त चल रहा है. आगे भी चलता रहेगा. जन्म, विवाह और मृत्यु हमेशा चलते रहेंगे. और ये तीनों संस्कार पंडितजी के कर कमलों से ही संपन्न होंगे. उन्हें दक्षिणा मिलती रहेगी.

‘बिन फेरे हम तेरे’ भारत में नहीं चलता. हां, भारतीय फिल्मों में यह खूब चलता है. हकीकत में पंडित से फेरे पड़वाना अनिवार्य होता है. पिछले दिनों मुझे एक विवाह कार्यक्रम में शिरकत करनी पड़ी. विवाह मंडप में एनआरआई दूल्हादुलहन बैठे थे. बीच में हवनकुंड था.

पंडितजी ने सब से पहले अपना परिचय दिया, बताया कि वे चार विषयों में एमए और पीएचडी हैं. मतलब वे पोंगा पंडित नहीं, असली पोथी पड़े हुए पंडित हैं. अपनी योग्यता बता कर उन्होंने समारोह में अपनी धाक जमा ली थी.

गेरूआ कलर का कुरता पहन रखा था. वे इस पोशाक में बगुले जैसे लग रहे थे. गेरूआ कलर के परिधान का आतंक उपस्थित लोगों पर खूब पड़ रहा था.

धीरेधीरे सभा में उन का प्रभामंडल स्थापित हो गया था. विवाह की कार्रवाई आगे बढ़ती जा रही थी. जैसाजैसा पंडितजी निर्देशित करते जा रहे थे वैसावैसा दूल्हादुलहन और उन के सहायक कठपुतली की तरह करते जा रहे थे.

कभी कहा जाता कि हाथ में फूल लो और अब सिक्का लो, कंकुम लो, चावल लो, उस में थोड़ा पानी छिड़को आदि. इस प्रक्रिया में बारबार सिक्कों की जरूरत पड़ रही थी. अब कैशलैस डिजिटल के इस दौर में सिक्के कहां मिलते. न पहले आगाह किया गया था. फिर भी कहीं से सिक्कों को जुटा कर मांग की आपूर्ति की जा रही थी.

जहां थोड़ीबहुत चूक होती, वे पश्चिमी संस्कृति पर बरसने लगते. माइक उन के हाथ में था ही. तीनचार दफा उन्होंने पश्चिमी संस्कृति को गरियाने में अपना और उपस्थित जनों का अमूल्य समय नष्ट किया. अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने के लिए पश्चिमी संस्कृति को गरियाने का आजकल फैशन भी है. जबकि, विश्वगुरु के बच्चों को उसी संस्कृति की शरण में शिक्षा और रोजगार पाने के लिए जाना पड़ता है.

पंडितजी भी निज संस्कृति की लकीर के फकीर थे. बड़ी लकीर को मिटाए बिना इन तोतों का काम नहीं चलता. बड़ी लकीर खींचना कठिन काम है. सरल काम है बड़ी लकीर को मिटाना. हो यह रहा है कि ये न तो बड़ी लकीर मिटा पा रहे हैं और न अपनी लकीर बड़ी कर पा रहे हैं. कुछ देर बाद यह लो, वह लो, यह करो, वह करो और स्वाहास्वाहा होने लगता था.

दूल्हादुलहन, बकौल कबीर के, ढाई आखर प्रेम के पढ़े हुए पंडित थे. लेकिन उन ढाई आखर पढ़े हुओं को सामाजिक मान्यता पोथी वाला पंडित ही देता है. असली पंडित तो पोथी वाले पंडितजी ही थे. ढाई आखर वाले पंडितों पर पोथी वाले पंडितजी भारी पड़ रह थे. इस या उस क्रियाविधि में बारबार सिक्का निकालने को कहा जा रहा था.

पंडितजी जानते थे कि जब लोहा गरम हो तब ही उस पर चोट करना चाहिए. तभी वांछित फल की प्राप्ति होती है. दूल्हादुलहन जब एनआरआई हों तो पंडितजी अधिक दक्षिणा झटकने का सुअवसर पा ही जाते हैं. ऐसे जजमान कम ही हत्थे चढ़ते हैं.

ऐसे अवसर को कोई मूरख ही होगा जो खोना चाहेगा. विवाह में जब लाखों का खर्च हो रहा हो तो कुछ हजार खींच भी लिए तो कोई गैरवाजिब नहीं. जब गंगा बह रही हो तो पंडितजी उस में हाथ क्यों न धोएं. लगभग अंत में लेकिन फेरों के पहले पंडितजी ने मंडप में विधिपूर्वक वर और वधू दोनों पक्षों से लगभग 6 हजार रुपए रखवा लिए.

वे विवाह के नाम पर तीसेक हजार तो पहले ही झटक चुके थे. उन्हें मालूम था कि रुपए की औकात ही क्या है. रुपए को डौलर के अधीन रहना पड़ता है. डौलर की जेब में आज की तारीख में छियासी रुपए आ जाते हैं और डौलर कमजोर होने वाला नहीं.

इस तरह हंसीखुशी विवाह संपन्न हुआ. घरातीबराती और पंडितजी सभी खुश थे. कार्यक्रम की सराहना की गई. सब ने खापी कर अपनीअपनी राह पकड़ी.

लेखक : गोविंद सेन

LoP : राहुल गांधी को सुप्रीम फटकार, क्या था राहुल की तरफ से जवाब

LoP : राहुल गांधी फिलहाल बड़े आक्रामक मूड में हैं. बिहार चुनाव हो या उपराष्ट्रपति का मुद्दा या फिर ट्रंप के टैरिफ पर सरकार को घेरना, वे हर जगह सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मुद्दा नहीं छोड़ते हैं.

पर भारतीय सेना पर की गई टिप्पणी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की इसी आक्रामकता पर लगाम लगा दी है. दरअसल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भारतीय सेना के खिलाफ कथित टिप्पणी के मामले में अपने खिलाफ मानहानि को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

याद रहे कि अपनी वर्ष 2023 की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दावा किया था कि एक पूर्व सेना अधिकारी ने उन्हें बताया था कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है. उन के इस बयान को ले कर सियासी घमासान छिड़ गया था और उन के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया गया था.

याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, ‘आप को कैसे पता चला कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है?’ और इस पर जोर देते हुए कहा, ‘अगर आप सच्चे भारतीय हैं, तो आप ऐसा नहीं कहते.’ कोर्ट ने पूछा कि क्या आप के पास कोई विश्वसनीय जानकारी है? जब सीमा पार कोई विवाद होता है, तो क्या आप यह सब कह सकते हैं? आप संसद में सवाल क्यों नहीं पूछते?

सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को फटकार लगाते हुए कहा कि आप विपक्ष के नेता हैं तो आप ये बातें क्यों कहेंगे? आप ये सवाल संसद में क्यों नहीं पूछते?

इस के जवाब में राहुल गांधी की तरफ से पेश हुए अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उन्होंने संसद में बोलने की छूट पाने के लिए चुनाव नहीं लड़ा. अनुच्छेद 19(1)(ए) राहुल गांधी को सवाल पूछने की इजाजत देता है.

वैसे यह बयान गलत है या नहीं, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सफाई देने को नहीं कहा है.

Sadhvi Pragya : मालेगांव में मरे और घायलों का दोषी कोई भी नहीं

Sadhvi Pragya : 17 साल बाद मालेगांव ब्लास्ट केस में साध्वी प्रज्ञा समेत सभी आरोपी बरी हुए. 2008 में हुए धमाके में 6 मरे, 100 से ज्यादा घायल हुए, मगर मगर इतने साल बाद दोषी कोई नहीं साबित हुआ. जांच एजेंसियों के सैकड़ों सबूत, गवाह फेल हो गए. सवाल यह कि पीड़ित परिवारों को इंसाफ कब मिलेगा?

बीते 17 साल से चर्चा में रहे मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में मुंबई की विशेष एनआईए अदालत ने भाजपा की पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया. यानी ब्लास्ट किस ने करवाया, निर्दोष लोगों की जानें किस ने लीं, 17 साल बाद भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. कोई दोषी नहीं.

29 सितम्बर 2008 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव में एक खड़ी मोटरसाइकिल पर बम धमाका हुआ. आसपास खड़े 6 लोगों के परखच्चे उड़ गए और 101 लोग बुरी तरह घायल हुए. मामले की एफआईआर मालेगांव आजाद नगर पुलिस थाने पर हुई. जांच लम्बी चली और स्थानीय पुलिस से ले कर देश की बड़ीबड़ी जांच एजेंसियों ने खूब गवाह और सबूत जुटा कर 14 लोगों को गिरफ्तार किया.

अभी तक देश में होने वाली तमाम आतंकी घटनाओं और बम विस्फोटों के दोषी मुसलमान हुआ करते थे, मगर यह पहली बार था कि मुंबई एंटी टैररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) ने इस भयानक विस्फोट के पीछे दक्षिणपंथी आतंकियों का हाथ पाया. इस कांड में एक भगवाधारी सन्यासिनी और सेना के कर्नल का नाम सामने आने पर लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली.

21 अक्तूबर को जब स्थानीय पुलिस से महाराष्ट्र की एटीएस ने मामले की जांच अपने हाथ में ली, उस समय हेमंत करकरे एटीएस चीफ थे. हेमंत करकरे एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी थे, जिन्होंने मालेगांव बम धमाकों की जांच में सक्रिय भूमिका निभाई थी. बाद में 26/11 मुंबई आतंकी हमले के दौरान वे शहीद हो गए.

23 अक्तूबर को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और 3 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया. मालेगांव में जिस मोटरसाइकिल पर बम रखा गया था, वह प्रज्ञा ठाकुर के नाम पंजीकृत थी. नवंबर 2008 में सेना के लैफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित को गिरफ्तार किया गया. आखिर एटीएस को पुख्ता सबूत मिले तभी उस ने सेना पर हाथ डालने की जुर्रत की. मगर इस के बाद 26/11 का भयावह आतंकी हमला हुआ जिस में एटीएस चीफ हेमंत करकरे कथित तौर पर आतंकी की गोलियों का शिकार हो कर शहीद हो गए.

हेमंत करकरे के निधन के बाद मालेगांव बम धमाके की जांच ढीली पड़ गई. 20 जनवरी को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और लैफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित सहित 11 आरोपियों के खिलाफ विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल किये. आरोपियों पर मकोका, यूएपीए और आईपीसी की कठोर धाराओं में आरोप लगाए गए थे. दो व्यक्तियों – रामजी उर्फ रामचंद्र कलसांगरा और संदीप डांगे को वांछित अभियुक्त बनाया गया था. अदालत में लम्बी जिरह चली. मगर जुलाई 2009 में विशेष अदालत ने कहा कि इस मामले में मकोका के प्रावधान लागू नहीं होते और अभियुक्तों पर नासिक की अदालत में मुकदमा चलाया जाए.

अगस्त में महाराष्ट्र सरकार ने विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ बम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की. बम्बई उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत का आदेश पलट कर मकोका को फिर लागू कर दिया. तब पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का रुख किया.

इस बीच फरवरी 2011 में एटीएस मुंबई ने एक और व्यक्ति प्रवीण मुतालिक को गिरफ्तार किया. इस तरह मामला दक्षिणपंथी चरमवाद की तरफ बढ़ता दिख रहा था और कुछ अन्य की गिरफ्तारियां होने को थीं कि अचानक राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अप्रैल माह में जांच अपने हाथ में ले ली. एनआईए ने पाया कि विस्फोट की योजना ‘अभिनव भारत’ नामक हिंदू चरमपंथी संगठन से जुड़े सदस्यों ने बनाई थी. जिस से धन सिंह और लोकेश जैसे लोगों के अलावा सेना के कई लोग जुड़े थे, जिस में कर्नल पुरोहित पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे. इस तरह कुल गिरफ्तारियां 14 हो गईं.

गौरतलब है कि एटीएस और एनआईए दोनों ही देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियां हैं. एनआईए ने भी इस मामले में खूब सबूत और गवाह जुटाए. एनआईए तो बिना पुख्ता जानकारी के किसी पर हाथ नहीं डालतीं. इस की जांच पर देश की अदालतें भरोसा करती हैं और नागरिकों को न्याय की आस बंधती है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं? कैसे 17 साल की जांच पर पानी फिर गया? और क्यों अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया?

यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को खुद ही इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. जब तमाम सबूत इकट्ठा किए गए थे तो अदालत में सबूतों का अकाल पड़ गया.

गौरतलब है कि जब एनआईए ने विशेष अदालत में अपना आरोप पत्र दाखिल किया तब आरोपियों के ऊपर से मकोका हटा दिया गया था, लिहाजा 7 आरोपियों को तो तुरंत क्लीन चिट मिल गई. 25 अप्रैल 2017 में बम्बई उच्च न्यायालय ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भी जमानत दे दी. 21 सितंबर को कर्नल पुरोहित को उच्चतम न्यायालय से जमानत मिल गई. इन दो मुख्य आरोपियों को जमानत मिलते ही साल का अंत होते होते सभी गिरफ्तार आरोपी जमानत पर बाहर आ गए.

कानूनी दांवपेंच चलते रहे. अक्तूबर 2018 में 7 आरोपियों प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित, रमेश उपाध्याय, समीर कुलकर्णी, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी और सुधाकर चतुर्वेदी के खिलाफ आरोप तय हुए. उन पर आतंकी कृत्य के लिए यूएपीए के तहत और आपराधिक साजिश और हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मुकदमा चला.

दिसंबर में मामला गवाही पर आया और 3 दिसंबर को मामले के पहले गवाह से पूछताछ के साथ सुनवाई शुरू हुई. अभियोजन पक्ष ने इस मामले में 323 गवाहों को जुटाया था, मगर इन में से 39 गवाह अदालत में अपने बयानों से मुकर गए. मुख्य बात यह रही एटीएस ने प्रमुख गवाहों के जो बयान धारा 164 के तहत एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किए थे, उन तमाम बयानों की ओरिजनल कौपियां कोर्ट की फाइलों से गायब हो चुकी थीं. उन की जगह कुछ फोटो स्टेट कौपियां कोर्ट फाइल में थीं, जिन की सत्यता पर कोर्ट भरोसा नहीं कर सकता था. यह बात फैसला देते समय कोर्ट ने भी कही कि अभियोजन पक्ष ने उन मजिस्ट्रेटों से भी पूछताछ नहीं की जिन्होंने उक्त लोगों के बयान दर्ज किए थे.

इन बयानों में दो अहम गवाह भी शामिल थे, जिन्होंने गायब बयानों में कथित तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था कि उन्होंने आरोपियों को मुसलमानों पर बदला लेने की योजना बनाने और एक अलग संविधान व झंडे के साथ एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने की ज़रूरत पर चर्चा करते सुना था. वे भी इस मामले के 39 मुकर गए गवाहों में शामिल थे.

आखिरकार अभियोजन पक्ष ने गवाही बंद करने का फैसला किया. जुलाई 2024 तक बचाव पक्ष के आठ गवाहों से किसी तरह जिरह पूरी हुई. 12 अगस्त 2024 को विशेष अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्तों के अंतिम बयान दर्ज किए. 31 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए न्यायाधीश एके लाहोटी ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित सहित सभी 7 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि दोषसिद्धि के लिए कोई ‘ठोस और विश्वसनीय’ सबूत नहीं हैं. अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है.

यह हास्यास्पद है कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बीलम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं. 17 साल की जांच पर पानी फिर गया. अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. क्या यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. आखिर जब तमाम सबूत इकट्ठा होने के बाद गिरफ्तारियों हुई थीं, तो अदालत में सबूतों का अकाल कैसे पड़ गया?

अदालत के फैसले के बाद दक्षिणपंथी खेमा सीना चौड़ा कर के दहाड़ रहा है कि 17 साल बाद न्याय हुआ. सनातन की जीत हुई. हिंदू कभी आतंकी नहीं हो सकता, आदिआदि. मगर जो बम धमाके में मर गए, जो घायल हुए, जिन के अंगभंग हो गए, उन का क्या होगा? क्या उन्हें न्याय मिला?

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