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Bollywood : कलाकारों का सारा ध्यान अभिनय के बजाय प्रौपर्टी खरीदनेबेचने पर

Bollywood : पहले कलाकार अभिनय को सिर्फ कला से जोड़ कर देखते थे इसलिए उन्हें प्रौपर्टी जोड़ने या अत्यधिक पैसों का लोभ नहीं था. बदलते समय की फिल्मों में कौर्पोरेट के दखल और कलाकारों की पैसा कूटने की भूख ने कला को दोयम बना दिया.

50, 60 और 70 के दशकों में सब से अमीर अभिनेता कौन था? शायद आप दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन समेत कई अभिनेताओं के नाम गिना देंगे. लेकिन सच यह नहीं है. सच यह है कि इन तीनों दशकों में सर्वाधिक अमीर कलाकार कौमेडियन भगवान दादा थे. उन्होंने यह धन फिल्मों में अभिनय व फिल्म निर्माण से कमाया था. उन के पास बहुत पैसा था. लेकिन, समय ने उन्हें ऐसा धोखा दिया कि जिंदगी के आखिरी दिन उन्हें मुंबई की एक चाल में किराए पर गुजरबसर करने पड़े.

सब से अहम बात यह है कि भगवान दादा पहले मुंबई की एक कपड़ा मिल में मजदूरी करते थे. 8 साल तक नौकरी करने के बाद 1938 में भगवान दादा ने फिल्मों से जुड़ते हुए अपनी पहली फिल्म ‘बहादुर किसान’ का सहनिर्देशन किया.

1940 के दशक में भगवान दादा को कम बजट वाली फिल्मों की सफलताओं से प्रसिद्धि हासिल हुई, जिस ने उन्हें छोटे शहरों में लोकप्रिय बना दिया. 1942 में भगवान दादा जागृति प्रोडक्शंस के साथसाथ निर्माता भी बन गए. 1951 में राज कपूर ने उन के साथ एक सामाजिक फिल्म ‘अलबेला’ बनाई, जो उस साल की सब से बड़ी हिट फिल्मों में से एक थी. इस फिल्म का गाना ‘शोला जो भड़के…’ आज भी लोग सुनना पसंद करते हैं. इस के बाद भगवान दादा ने ‘झमेला’ (1953) और ‘भागमभाग’ (1956) जैसी ब्लौकबस्टर फिल्में बनाईं.

50 के दशक में उन्होंने अपने रहने के लिए जुहू में सागर किनारे 25 कमरों वाला बंगला खरीदा. उन के पास 7 लग्जरी कारों का काफिला भी था. वे हर दिन शूटिंग के लिए अलग कार में जाया करते थे. उस जमाने में भगवान दादा भारत के सब से अमीर और सब से अधिक पारिश्रमिक पाने वाले कलाकारों में से एक थे. वे सिर्फ दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद जैसे सुपरस्टार से पीछे थे पर इस बंगले के बाद उन्होंने कभी कोई संपत्ति नहीं खरीदी.

एक बार राज कपूर ने उन्हें सलाह दी थी कि उन्हें चाहिए कि वे हर फिल्म की सफलता के बाद कोई न कोई प्रौपर्टी खरीद लिया करें, तब भगवान दादा ने मुसकराते हुए कहा था, ‘‘मैं ठहरा संतोषी जीव. मेरा काम अच्छा चल रहा है. मुझे रहने के लिए बंगला चाहिए था, वह मेरे पास है. शौक के लिए कार चाहिए तो 7 कारें हैं. अब इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. फिर बुरे वक्त में मेरे साथ इस इंडस्ट्री का हर शख्स रहेगा.’’

लेकिन कहते हैं कि जो बुलंदी पर है वह कब जमीं पर आ जाए, कहा नहीं जा सकता और यहां लोग सिर्फ चढ़ते सूरज के साथ होते हैं, ढलते सूरज के साथ नहीं पर विनम्र स्वभाव के सीधेसादे भगवान दादा गिरगिट की तरह रंग बदलती इंसानी प्रवृत्ति से शायद वाकिफ नहीं थे. 1960 के बाद भगवान दादा चरित्र भूमिकाएं निभाते हुए शोहरत बटोरते रहे.

1970 के बाद धीरेधीरे उन्हें फिल्में मिलनी कम हो गईं पर उन के शौक कम नहीं हुए. उन को यकीन था कि आज नहीं तो कल, लोग उन्हें बुला कर काम देंगे. इसी आस में उन्होंने अपना बंगला व कारें बेच डालीं.

इधर भगवान दादा का बंगला व कारें बिक रही थीं तो दूसरी तरफ फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग उन से दूरी बढ़ा रहे थे. एक वक्त वह आया जब भगवान दादा मुंबई के दादर इलाके की एक चाल में रहने लगे. तब उन से मिलने संगीतकार सी रामचंद्र, गीतकार राजेंद्र कृष्ण और अभिनेता अशोक कुमार के अलावा कोई नहीं जाता था. उन की आर्थिक हालत दिनोंदिन बदतर होती गई. आखिरकार, 4 फरवरी, 2002 को 89 वर्ष की उम्र में भगवान दादा का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

सिर्फ भगवान दादा ही नहीं, 70 के दशक तक के किसी भी कलाकार ने धन जमा कर के रखने या संपत्ति खरीद कर जखीरा बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया. उस वक्त के कलाकार व फिल्मकार तो कलाप्रेमी थे. उन के अंदर धन की बेहिसाब लालसा नहीं थी. उस वक्त के कलाकार फिल्मों में अच्छा किरदार निभाने या अच्छे कंटैंट पर बेहतरीन फिल्म बनाने से ले कर एकदूसरे के सुखदुख में अपनेपन के भाव के साथ उपस्थित रहने पर ही सारा ध्यान देते थे. लेकिन 1980 के बाद कलाकारों की जो नई जमात आनी शुरू हुई, उस में काफी बदलाव नजर आ रहा था. कला को ले कर इन के दृष्टिकोण में बदलाव नजर आने लगा था. यह पीढ़ी कला के साथ धन कमाने पर भी जोर देने लगी थी पर ये सभी कला की सेवा करना चाहते थे और दाल में नमक या यों कहें कि आटे में नमक की तर्ज पर धन के बारे में सोचने लगे थे. यह सोच गलत नहीं थी क्योंकि हम सभी जानते हैं कि यदि भोजन में नमक न हो तो भोजन में स्वाद नहीं आता.

कौर्पोरेट कल्चर हुआ हावी

2001 में जी स्टूडियो निर्मित फिल्म ‘गदर : एक प्रेम कथा’ के साथ ही फिल्म इंडस्ट्री में अचानक कौर्पोरेट कल्चर इस कदर हावी हुआ कि बौलीवुड की दिशा व दशा बदलने के साथ ही कलाकार व फिल्मकार की सोच में इस कदर परिवर्तन हुआ कि ये सभी ‘कला’ के बजाय ‘धन’ और ‘आटे में नमक’ के बजाय ‘नमक में आटा’ मिलाने लगे.

वास्तव में कौर्पोरेट कंपनियों ने कदम रखते हुए ‘कला’ के बजाय पैसे से पैसा कमाने की सोच के साथ जिस कलाकार की उस की अभिनय क्षमता के बल पर 10 रुपया कीमत थी, उसे इन कौर्पोरेट कंपनियों ने 200 रुपए थमा कर एकसाथ कई फिल्मों का अनुबंध कर लिया. उन दिनों खबरें बहुत तेजी से वायरल हुई थीं कि रिलायंस एंटरटेनमैंट ने अमिताभ बच्चन को 1,500 करोड़ रुपए में साइन किया. एक अन्य कौर्पोरेट कंपनी ने अक्षय कुमार को एक फिल्म के लिए 150 करोड़ रुपए में साइन किया, जबकि उन दिनों अक्षय कुमार को निजी फिल्म निर्माता 2 करोड़ रुपए देने में भी हिचकिचा रहे थे.

इसी तरह एक कंपनी ने सनी देओल को 2 हजार करोड़ रुपए में साइन किया था. सनी देआल ने उस के साथ केवल एक फिल्म की और उस फिल्म को रिलीज करने में उसे नाकों चने चबवा दिए. 2001 से 2010 के बीच में करीबन 30 कौर्पोरेट कंपनियां मैदान में आ गई थीं और इसी तरह से कलाकारों के बीच धन बांट रही थीं. उन्हीं दिनों एक मराठी के सुपरस्टार ने हम से कहा था, ‘‘बौलीवुड में यह जो हो रहा है, इस के चलते सिनेमा बरबाद हो जाएगा.

मराठी सिनेमा से जुड़े कलाकारों को भी पारिश्रमिक राशि अधिक मिलने लगी है, मगर जिन्हें पहले 10 रुपए मिलते थे, उन्हें अब 15 रुपए से 20 रुपए मिल रहे हैं. हिंदी की तरह 10 रुपए की जगह 200 से 300 रुपए नहीं मिल रहे.’’

इतना ही नहीं, 2013 में मशहूर फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि, ‘ये जो हालात हैं उन्हें देखते हुए कह सकता हूं कि बहुत जल्द वह दिन आएगा जब हर कलाकार टिकट ले कर घरघर जाएगा और लोगों को टिकट देते हुए कहेगा कि मेरी फिल्म जा कर देख लीजिए.’

2013 में राजकुमार संतोषी ने यह जो इशारा किया था, उस की तरफ बौलीवुड बढ़ता नजर आने लगा था. 2015 की शुरुआत से हूबहू वही हो रहा है. फिल्म ‘फतेह’ से ले कर ‘स्काई फोर्स’ के कलाकारों व निर्माताओं ने लगभग घरघर जा कर मुफ्त में टिकटें दीं, मगर दर्शक फिर भी फिल्म देखने सिनेमाघर नहीं गए.

संपत्ति बनाने पर ध्यान

एक तरफ कौर्पोरेट या यों कहें कि फिल्म स्टूडियो सिनेमा बनाने के लिए अपने अंदाज में पैसा बांटते हुए अपनी फिल्मों में सुपरस्टार होने का विज्ञापन कर शेयर बाजार में अपने शेयर के दाम बढ़ा कर आम भोलीभाली जनता को लूटते रहे तो वहीं कौर्पोरेट कल्चर में पलबढ़ रहे फिल्म निर्देशक व कलाकारों ने भगवान दादा की हालत से सबक सीखने के नाम पर प्रतिभा की अपेक्षा कहीं ज्यादा अनापशनाप मिल रहे पैसे से मुंबई व मुंबई के बाहर संपत्ति खरीदना शुरू कर दिया. इस का परिणाम यह हुआ कि कलाकार हो या फिल्म निर्देशक, हर किसी की नजर इस बात पर टिक गई कि कहां से कितना पैसा मिलेगा तो कौन सी प्रौपर्टी खरीद सकेंगे. धीरेधीरे इन का ‘कला’ या ‘किरदार’ या ‘कहानी’ से कोई सरोकार ही नहीं रह गया.

2001 के बाद कुकुरमुत्ते की भांति उभरी ये कौर्पोरेट कंपनियां फिल्म बनाने की आड़ में क्याक्या कर रही थीं या कर रही हैं, इस को ले कर कुछ ठोस कहना मुश्किल है. मगर एक उदाहरण बताना सटीक रहेगा. एक कौर्पोरेट कंपनी बहुत तेजी से उभरी थी. उस के 10 रुपए के शेयर के दाम अचानक 90 रुपए पर पहुंच गए थे. इस कौर्पोरेट कंपनी के चमचे लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे थे कि इस कंपनी के शेयर के दाम बहुत जल्द 1,500 रुपए का आंकड़ा पार कर लेंगे.

उस वक्त यह बात लोगों को सही लग रही थी क्योंकि यह कंपनी सुनील शेट्टी, परेश रावल सहित कई दिग्गज कलाकारों को ले कर फिल्में बना रही थी पर कुछ समय बाद पता चला कि यह कंपनी तेल व डीजल की कालाबाजारी में लिप्त थी और इस के सभी डायरैक्टर जेल की सलाखों के पीछे चले गए थे. जिन आम लोगों ने अपनी गाढ़ी कमाई को अच्छा लाभ कमाने के लिए इस कंपनी के शेयर खरीदे थे, वे सब कंगाल हो गए. लेकिन फिल्म निर्देशकों या कलाकारों की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि इन्हें तो पैसे मिल चुके थे और इन्होंने उस धन को संपत्ति खरीदने में लगा दिया था तो ये सभी चैन की नींद सोते रहे. अब तो इन्हें उन फिल्मों की शूटिंग भी नहीं करनी थी जिन के लिए उस कौर्पोरेट ने उन्हें पैसे दे दिए थे.

अब उस कंपनी के डायरैक्टर कब जेल से बाहर आए या अभी तक नहीं आए, पता नहीं चला पर उस के बाद इस कौर्पोरेट कंपनी का कहीं कोई नामोनिशान नजर नहीं आया. अब तक ‘ईरोज’ सहित करीबन 20 से अधिक कौर्पोरेट कंपनियां गायब हो चुकी हैं. उन के गायब होने से किसी कलाकार या फिल्म निर्देशक को अपनी संपत्ति बेच कर धन वापस करने की जरूरत भी नहीं पड़ी, मगर आम इंसान जिस ने शेयर में अपनी गाढ़ी कमाई लगाई थी वह जरूर रो रहा है.

अभिनय का बेड़ा गर्क

इस सारे खेल के बीच हम आएदिन सुनते रहते हैं कि फलां कलाकार ने फलां प्रौपर्टी खरीद ली. मजेदार बात यह है कि एक फिल्म रिलीज होती है, बौक्स औफिस पर फिल्म लागत का 10 प्रतिशत भी वसूल नहीं कर पाती यानी कि पूरा नुकसान हो जाता है मगर कलाकार द्वारा नई संपत्ति खरीदने की खबरें आ जाती हैं.

सब से ताजातरीन उदहारण वरुण धवन का लीजिए. उस की फिल्म ‘बेबी जौन’ रिलीज हुई. फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा पर 3 दिनों बाद ही वरुण धवन ने लगभग 50 करोड़ रुपए में एक नई संपत्ति खरीद ली. आखिर ऐसा कैसे संभव है? फिल्म से जो नुकसान हुआ वह कौन भरता है. यह तो वही जनता भरती है जिस ने फिल्म निर्माण से जुड़ी कौर्पोरेट कंपनी के शेयर में पैसा इन्वैस्ट कर रखा है या कर रही है. यह ऐसा लंबा व जटिल विषय है जिस पर आप जितनी बात करेंगे या सोचेंगे, उतना ही जलेबी की तरह घूमते रह जाएंगे.

बहराहल, आइए अब हम यह जान लें कि इन दिनों किस कलाकार के पास कितनी प्रौपर्टी है या कोविड के बाद किस ने कौन सी प्रौपर्टी बेची या खरीदी. कलाकार की फिल्मों से तो आप सभी खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि आखिर कलाकार क्यों फिल्मों में अपनी अभिनय प्रतिभा का कमाल नहीं दिखा रहे हैं.

धनकुबेर बने कलाकार

इस फेहरिस्त में अमिताभ बच्चन का सब से पहला नाम आता है. अमिताभ बच्चन ने मुंबई के ओशिवाड़ा इलाके के अपने डुपलैक्स फ्लैट को 83 करोड़ रुपए में बेच दिया. इस समय उन के पास देशविदेश में अरबों रुपए की प्रौपर्टी है. उन्होंने अपने बेटे अभिषेक बच्चन के साथ मिल कर भी कई प्रौपर्टी खरीदी हैं. ऐसे में बिग बी इन प्रौपर्टीज को बेच कर और किराए पर दे कर मोटी कमाई कर रहे हैं.

फिलहाल अमिताभ बच्चन अभी मुंबई में जुहू ‘जलसा’ बंगले में रहते हैं. 10,125 वर्गफुट में फैले इस बंगले की कीमत करीब 120 करोड़ रुपए बताई जाती है.

ऐसे ही अक्षय कुमार ने भी रियल एस्टेट में सब से ज्यादा इन्वैस्ट कर रखा है. भारत में मुंबई से ले कर गोवा तक में अक्षय कुमार के कई घर हैं तो वहीं उन की प्रौपर्टी कनाडा, मौरिशस, इंग्लैंड व दुबई में भी है.

बात यदि नवाब की पदवी धारण करने वाले अभिनेता सैफ अली खान की हो तो उन के पास भी तमाम प्रौपर्टीज हैं. 150 मिलियन डौलर (1200 करोड़ रुपए से अधिक) की अनुमानित कुल संपत्ति के साथ सैफ अली खान की संपत्ति उन के फिल्मी कैरियर से कहीं अधिक है, जो उन के रियल एस्टेट संपत्तियों के प्रभावशाली संग्रह से पता चलता है.

नएनए जमे कार्तिक आर्यन भी इस रेस का हिस्सा बन गए हैं. उन के पास मुंबई में करोड़ों के अर्पाटमैंट्स हैं. एक वैबसाइट के अनुसार, मिथुन चक्रवर्ती की नैटवर्थ 101 करोड़ रुपए है. जबकि उन की दर्जनों फिल्में फ्लौप रही हैं. ऐसे ही अभिनेता मनोज बाजपेयी वर्सोवा इलाके में आलीशान अपार्टमैंट में रहते हैं जिस की कीमत 40 करोड़ बताई जाती है. उन के पास बिहार में कई प्रौपर्टीज हैं तो वहीं कुछ जमीन उत्तराखंड में भी है.

बौलीवुड में फ्लौप होने के बावजूद वरुण धवन ने कई प्रौपर्टीज जमा कर ली हैं. वरुण धवन और उन की पत्नी नताशा ने ‘बेबी जौन’ के असफल होने के 2 दिनों बाद ही जुहू में ट्वेंटी बाय डी डेकोर प्रोजैक्ट की 7वीं मंजिल पर साढ़े 44 करोड़ रुपए का फ्लैट खरीदा है. सौदे के पंजीकरण के लिए धवन ने 2.67 करोड़ रुपए की स्टांप ड्यूटी का भुगतान किया है. यह अपार्टमैंट 5,112 वर्गफुट का है और इस में 4 कार पार्किंग स्थान हैं तो वहीं वरुण और उन की मां करुणा ने भी इसी बिल्डिंग के 6ठे फ्लोर पर एक अपार्टमैंट खरीदा है. अपार्टमैंट 4,617 वर्गफुट का है और इस में 4 कार पार्किंग स्थान हैं. वरुण के पास कार्टर रोड पर सागर दर्शन बिल्डिंग में एक अपार्टमैंट है.

अजय देवगन के पास प्राइवेट जेट, कई कारों के अलावा मुंबई व गोवा में प्रौपर्टीज हैं. मुंबई में अजय देवगन के 2 घर हैं. एक जुहू में फ्लैट है और दूसरा मालगाड़ी रोड पर बंगला है. गोवा में अजय देवगन और काजोल के पास एक आलीशान विला है. मुंबई के अंधेरी पश्चिम में अजय देवगन के पास 5 औफिस स्पेस हैं.

सलमान खान ने मुंबई में बांद्रा इलाके के गैलेक्सी अपार्टमैंट से ले कर दुबई में एक शानदार घर तक, कई भव्य संपत्तियों में निवेश किया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन की अपार लोकप्रियता और आकर्षक कैरियर ने उन की कुल संपत्ति 2,900 करोड़ रुपए तक पहुंचा दी है.

मिस्टर परफैक्शनिस्ट के नाम से मशहूर आमिर खान के पास टाइम्स औफ इंडिया के अनुसार, अनुमानित कुल संपत्ति 1,862 करोड़ रुपए है.

सलमान खान या आमिर खान की ही तरह लगभग हर कलाकार ने संपत्तियां खरीद रखी हैं तो वहीं वे अभिनय के अलावा कई तरह के व्यवसायों से भी जुड़े हुए हैं. इसी वजह से वे अभिनय पर कम ध्यान दे रहे हैं.

Online Hindi Story : बलात्कार – लड़कियों ने कैसे उठाया तकनीक का लाभ ?

Online Hindi Story : अखबार के पहले पन्ने पर बड़ेबड़े अक्षरों में छपा था : पुलिस स्टेशन से मात्र 100 मीटर दूर स्थित फ्लैट में चाकू की नोक पर नकाबपोश ने बलात्कार किया. महिला के बयान के आधार पर विस्तृत वर्णन छपा था. महिला संगठनों द्वारा सरकार की लानतमलानत की गई. गृहमंत्री के घर पर प्रदर्शन हुआ. अखबार के तीसरे पन्ने पर खोजी पत्रकार ने बढ़ते बलात्कार की घटनाओं के आंकड़े छापे. विपक्ष के नेता ने प्रदेश में बढ़ते अपराध के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री का इस्तीफा मांगा और सहानुभूति के लिए महिला के घर गए. पासपड़ोस के लोगों के साक्षात्कार लिए गए. किसी एक पड़ोसी ने महिला के संदिग्ध चरित्र पर टिप्पणी कर दी तो महिला पत्रकार उस व्यक्ति के पीछे पड़ गई. किसी का आचरण संदिग्ध हो तो क्या आप को उस से बलात्कार करने का अधिकार मिल गया?

पुलिस आई. विधि विज्ञान विशेषज्ञ आए. महिला का चिकित्सकीय परीक्षण हुआ. महिला के शरीर से वीर्य का नमूना लिया गया. घटनास्थल से उंगलियों के निशान उठाए गए. बिस्तर के कपड़ों पर वीर्य के धब्बों को अंकित कर कपड़े सील किए गए. महिला के शरीर से और कपड़ों पर पड़े वीर्य के नमूनों को डी.एन.ए. जांच के लिए विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजा गया. पुलिस ने प्रदेश के शातिर सभी अपराधियों का डी.एन.ए. परीक्षण कर रखा था. उन के डी.एन.ए. प्रिंट कंप्यूटर में सुरक्षित उपलब्ध थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का अपराधियों के डी.एन.ए. प्रिंट से मिलान किया गया.

परिणाम चौंकाने वाले थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का मिलान जिस अपराधी के डी.एन.ए. से हुआ था वह शातिर अपराधी प्रदेश के एक केंद्रीय कारागार में बलात्कार के अपराध में ही सजा काट रहा था. वारदात के समय वह जेल में ही था, उस के पुख्ता सुबूत थे. डी.एन.ए. के परिणाम गलत नहीं हो सकते. पुलिस और विधि विज्ञान के विशेषज्ञ भौचक थे. दोबारा डी.एन.ए. परीक्षण हुआ और फिर मिलान किया गया. दूसरी प्रयोगशाला में भी परीक्षण किया गया, परिणाम वही थे. डी.एन.ए. परीक्षण के आधार पर ही सजायाफ्ता अपराधी को पहले सजा हुई थी. मुख्य साक्ष्य तब भी डी.एन.ए. परीक्षण और मिलान ही था. तब भी कोई चश्मदीद गवाह नहीं था.

अखबार वालों को फिर उछालने को मसाला मिल गया. विधि विज्ञान की डी.एन.ए. लैब की वीर्य परीक्षण प्रणाली पर सवाल उठाए गए. डी.एन.ए. जांच की सार्थकता पर भी सवाल उठे. डी.एन.ए. प्रिंट जुड़वां बच्चों को छोड़ कर, करोड़ों लोगों में से भी किन्हीं 2 का एक जैसा होना वैज्ञानिक आधार पर संभव नहीं था. यह केस इस आधार को ही चुनौती थी. जेल में बंद अपराधी जेल में कहता फिर रहा था कि वह अपनी पहली सजा को न्यायालय में चुनौती देगा. उस ने अपने वकील को बुलाया था.

जेल का रिकार्ड देखा गया. पिछले दिनों कौनकौन उस से मिलने आया था. यह देखा गया. घटना के पिछले हफ्ते अपराधी से जेल में मिलने एक महिला आई थी जो उस की बहन थी. तहकीकात की गई. अपराधी की बहन अपराधी के घर ठिकाने पर नहीं थी. वह वहां रहती भी नहीं थी. उस की शादी किसी दूसरे शहर में हुई थी. वह वहीं रहती थी.

एक टीम उस शहर में भेजी गई तो पता चला कि वह हैदराबाद गई हुई थी. सूचना के अनुसार जेल में मिलने की तारीख से पहले से ही. हैदराबाद में पता चला कि जेल में मिलने की तारीख को तो अपराधी की बहन की डिलीवरी वहां के एक अस्पताल में हुई थी. उस रोज वह अस्पताल में थी. अभी भी वहीं थी. फिर वह महिला कौन थी जो अपराधी से मिलने जेल में आई थी? क्या अपराधी का डी.एन.ए जांच का नतीजा गलत था? क्या उस को गलत सजा हुई थी? बलात्कार स्थल से प्राप्त वीर्य के नमूने का डी.एन.ए. का मिलान संदिग्ध अपराधी के रक्त के डी.एन.ए. से किया जाता है. क्या दोनों डी.एन.ए. में फर्क हो सकता है? वैसे तो कहते हैं एक व्यक्ति की हर कोशिका, रक्त, वीर्य, थूक आदि सभी का डी.एन.ए. एक होता है, लेकिन जब दूसरे व्यक्ति का रक्त चढ़ाया जाता है तब क्या रक्त के डी.एन.ए. में परिवर्तन हो सकता है? कहीं ऐसा ही कुछ सजायाफ्ता अपराधी के साथ तो नहीं हुआ था? क्या किसी परिस्थिति विशेष में शरीर के अवयवों का डी.एन.ए. बदल सकता है?

इन सभी सवालों का उत्तर जानना आवश्यक था. कारण, अपराधी अपने वकील द्वारा उच्च न्यायालय में केस करने जा रहा था. अत: केस से संबंधित एस.पी. विधि विज्ञान प्रयोगशाला के विशेषज्ञ के पास गए. विशेषज्ञ ने बताया कि ब्लड बैंक से रक्त लेने वाले के रक्त का डी.एन.ए. नहीं बदलता. कारण चढ़ाए गए रक्त में मुख्यतया लाल रक्त कण ही होते हैं और उन में कोई डी.एन.ए. नहीं होता. डी.एन.ए. केवल श्वेत रक्त कणों में होता है और उन का नंबर इतना कम हो जाता है कि छोटे से रक्त के सैंपल में उन का आना असंभव है. फिर इन सभी रक्त कणों का जीवन चक्र मात्र कुछ महीनों का ही होता है.

‘‘तो क्या किसी भी स्थिति में, जैसे बारबार ब्लड ट्रांसफ्यूजन हो या कई बोतलें रक्त चढ़ें तो रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है?’’ एस.पी. ने पूछा. ‘‘नहीं, संभावना न के बराबर है. हां, एक स्थिति में रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है, जब व्यक्ति का बोन मैरो प्रत्यारोपण किया जाए.

‘‘देखिए, रक्त हड्डियों में स्थित रक्त मज्जा से बनता है. रक्त कणों का जीवन मात्र 120 दिनों का होता है. बोन मैरो ट्रांसप्लांट में हम व्यक्ति की स्वयं की रक्त मज्जा को सर्वथा खत्म कर उस की जगह दूसरे व्यक्ति की रक्त मज्जा की कोशिकाओं को स्थापित करते हैं. तब नई रक्त मज्जा की कोशिकाएं अपनी डी.एन.ए. वाले रक्त कण बनाती हैं. रक्त में वही मिलते हैं. अत: रक्त का डी.एन.ए. बदल जाता है.’’ ‘‘क्या ऐसे में वीर्य का डी.एन.ए. भी बदल जाएगा?’’ एस.पी. ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर, ‘‘हां, अगर उस के जननांग के किसी भाग, प्रोस्टेट आदि का इंफेक्शन हो और उस के फलस्वरूप वीर्य में काफी पस सेल्स, अर्थात रक्त की श्वेत कण कोशिकाएं हों तो जरूर मिक्स डी.एन.ए. पैटर्न मिल सकता है. शुक्राणुओं का एक डी.एन.ए. और श्वेत कणों का दूसरा. इधर जिस महिला का बलात्कार हुआ था उस पर नजर रखी जा रही थी. वह एक ट्रैवल एजेंसी में काम करती थी. शुरू में तो उस की हरकतें सामान्य ही दिखीं. आफिस, घर, थोड़ाबहुत इधरउधर. जानपहचान वालों से पूछताछ पर उस महिला की काफी संग्दिध गतिविधियों का पता लगा. धीरेधीरे परतें खुलती गईं. समय गुजरने के साथसाथ वह अपने वास्तविक आचरण पर आ गई. जिन महिलाओं से वह मिलती थी, जिन पुरुषों के संपर्क में आती थी उन पर नजर रखी गई तो असलियत सामने आ गई. वह एक कालगर्ल रैकेट (देह व्यापार गिरोह) की सदस्य थी. पुलिस ने जाल बिछाया और आखिर में सभी को पकड़ लिया.

जब उन लड़कियों और उस महिला को जेल में लाया गया तो महिला को देख कर एक पुलिस वाला बोला, ‘‘अरे, यह तो वही है जो बलात्कारी कैदी से मिलने आई थी. बड़ा मुंह ढक कर आई थी.’’ तहकीकात की गई तो और सचाई सामने आ गई. साक्ष्य जुड़ते गए और आखिर में महिला और कैदी ने स्वीकार कर लिया कि कैदी का वीर्य, महिला जब बहन के नाम से मिलने आई थी तभी ले गई थी और तयशुदा ढोंग रच कर उस ने बलात्कार होने का शोर मचा कर जेल से लाए गए वीर्य का प्रयोग किया.

विधि विज्ञान का वैज्ञानिक आधार बढ़ा है तो अपराधी भी शातिर हो गए हैं.

Best Hindi Story : सच्चा प्यार – दो चाहने वालों के दिल क्यों जुदा हो गए ?

Best Hindi Story : अनुपम और शिखा दोनों इंगलिश मीडियम के सैंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ते थे. दोनों ही उच्चमध्यवर्गीय परिवार से थे. शिखा मातापिता की इकलौती संतान थी जबकि अनुपम की एक छोटी बहन थी. धनसंपत्ति के मामले में शिखा का परिवार अनुपम के परिवार की तुलना में काफी बेहतर था. शिखा के पिता पुलिस इंस्पैक्टर थे. उन की ऊपरी आमदनी काफी थी. शहर में उन का रुतबा था. अनुपम और शिखा दोनों पहली कक्षा से ही साथ पढ़ते आए थे, इसलिए वे अच्छे दोस्त बन गए थे. दोनों के परिवारों में भी अच्छी दोस्ती थी. शिखा सुंदर थी अनुपम देखने में काफी स्मार्ट था.

उस दिन उन का 10वीं के बोर्ड का रिजल्ट आने वाला था. शिखा भी अनुपम के घर अपना रिजल्ट देखने आई. अनुपम ने अपना लैपटौप खोला और बोर्ड की वैबसाइट पर गया. कुछ ही पलों में दोनों का रिजल्ट भी पता चल गया. अनुपम को 95 प्रतिशत अंक मिले थे और शिखा को 85 प्रतिशत. दोनों अपनेअपने रिजल्ट से संतुष्ट थे. और एकदूसरे को बधाई दे रहे थे. अनुपम की मां ने दोनों का मुंह मीठा कराया.

शिखा बोली, ‘‘अब आगे क्या पढ़ना है, मैथ्स या बायोलौजी? तुम्हारे तो दोनों ही सब्जैक्ट्स में अच्छे मार्क्स हैं?’’

‘‘मैं तो पीसीएम ही लूंगा. और तुम?’’

‘‘मैं तो आर्ट्स लूंगी, मेरा प्रशासनिक सेवा में जाने का मन है.’’

‘‘मेरी प्रशासनिक सेवा में रुचि नहीं है. जिंदगीभर नेताओं और मंत्रियों की जीहुजूरी करनी होगी.’’

‘‘मैं तुम्हें एक सलाह दूं?’’

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘तुम पायलट बनो. तुम पर पायलट वाली ड्रैस बहुत सूट करेगी और तुम दोगुना स्मार्ट लगोगे. मैं भी तुम्हारे साथसाथ हवा में उड़ने लगूंगी.’’

‘‘मेरे साथ?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पायलट अपनी बीवी को साथ नहीं ले जा सकते, क्या.’’

तब शिखा को ध्यान आया कि वह क्या बोल गई और शर्म के मारे वहां से भाग गई. अनुपम पुकारता रहा पर उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा. थोड़ी देर में अनुपम की मां भी वहां आ गईं. वे उन दोनों की बातें सुन चुकी थीं. उन्होंने कहा, ‘‘शिखा ने अनजाने में अपने मन की बात कह डाली है. शिखा तो अच्छी लड़की है. मुझे तो पसंद है. तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो. अगर तुम्हें पसंद है तो मैं उस की मां से बात करती हूं.’’

अनुपम बोला, ‘‘यह तो बाद की बात है मां, अभी तक हम सिर्फ अच्छे दोस्त हैं. पहले मुझे अपना कैरियर देखना है.’’

मां बोलीं, ‘‘शिखा ने अच्छी सलाह दी है तुम्हें. मेरा बेटा पायलट बन कर बहुत अच्छा लगेगा.’’

‘‘मम्मी, उस में बहुत ज्यादा खर्च आएगा.’’

‘‘खर्च की चिंता मत करो, अगर तुम्हारा मन करता है तब तुम जरूर पायलट बनो अन्यथा अगर कोई और पढ़ाई करनी है तो ठीक से सोच लो. तुम्हारी रुचि जिस में हो, वही पढ़ो,’’ अनुपम के पापा ने उन की बात सुन कर कहा.

उन दिनों 21वीं सदी का प्रारंभ था. भारत के आकाशमार्ग में नईनई एयरलाइंस कंपनियां उभर कर आ रही थीं. अनुपम ने मन में सोचा कि पायलट का कैरियर भी अच्छा रहेगा. उधर अनुपम की मां ने भी शिखा की मां से बात कर शिखा के मन की बात बता दी थी. दोनों परिवार भविष्य में इस रिश्ते को अंजाम देने पर सहमत थे.

एक दिन स्कूल में अनुपम ने शिखा से कहा, ‘‘मैं ने सोच लिया है कि मैं पायलट ही बनूंगा. तुम मेरे साथ उड़ने को तैयार रहना.’’

‘‘मैं तो न जाने कब से तैयार बैठी हूं,’’ शरारती अंदाज में शिखा ने कहा.

‘‘ठीक है, मेरा इंतजार करना, पर कमर्शियल पायलट बनने के बाद ही शादी करूंगा.’’

‘‘नो प्रौब्लम.’’

अब अनुपम और शिखा दोनों काफी नजदीक आ चुके थे. दोनों अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगे थे. देखतेदेखते दोनों 12वीं पास कर चुके थे. अनुपम को अच्छे कमर्शियल पायलट बनने के लिए अमेरिका के एक फ्लाइंग स्कूल जाना था.

भारत में मल्टीइंजन वायुयान और एयरबस ए-320 जैसे विमानों पर सिमुलेशन की सुविधा नहीं थी जोकि अच्छे कमर्शियल पायलट के लिए जरूरी था. इसलिए अनुपम के पापा ने गांव की जमीन बेच कर और कुछ प्रोविडैंट फंड से लोन ले कर अमेरिकन फ्लाइंग स्कूल की फीस का प्रबंध कर लिया था. अनुपम ने अमेरिका जा कर एक मान्यताप्राप्त फ्लाइंग स्कूल में ऐडमिशन लिया. शिखा ने स्थानीय कालेज में बीए में ऐडमिशन ले लिया.

अमेरिका जाने के बाद फोन और वीडियो चैट पर दोनों बातें करते. समय का पहिया अपनी गति से घूम रहा था. देखतेदेखते 3 वर्ष से ज्यादा का समय बीत चुका था. अनुपम को कमर्शियल पायलट लाइसैंस मिल गया. शिखा को प्रशासनिक सेवा में सफलता नहीं मिली. उस ने अनुपम से कहा कि प्रशासनिक सेवा के लिए वह एक बार और कंपीट करने का प्रयास करेगी.

अनुपम ने प्राइवेट एयरलाइंस में पायलट की नौकरी जौइन की. लगभग 2 साल वह घरेलू उड़ान पर था. एकदो बार उस ने शिखा को भी अपनी फ्लाइट से सैर कराई. शिखा को कौकपिट दिखाया और कुछ विमान संचालन के बारे में बताया. शिखा को लगा कि उस का सपना पूरा होने जा रहा है. एक साल बाद अनुपम को अंतर्राष्ट्रीय वायुमार्ग पर उड़ान भरने का मौका मिला. कभी सिंगापुर, कभी हौंगकौंग तो कभी लंदन.

शिखा को दूसरे वर्ष भी प्रशासनिक सेवा में सफलता नहीं मिली. इधर शिखा के परिवार वाले उस की शादी जल्दी करना चाहते थे. अनुपम ने उन से 1-2 साल का और समय मांगा. दरअसल, अनुपम के पिता उस की पढ़ाई के लिए काफी कर्ज ले चुके थे. अनुपम चाहता था कि अपनी कमाई से कुछ कर्ज उतार दे और छोटी बहन की शादी हो जाए.

वैसे तो वह प्राइवेट एयरलाइंस घरेलू वायुसेवा में देश में दूसरे स्थान पर थी पर इस कंपनी की आंतरिक स्थिति ठीक नहीं थी. 2007 में कंपनी ने दूसरी घरेलू एयरलाइंस कंपनी को खरीदा था जिस के बाद इस की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी थी. 2010 तक हालत बदतर होने लगे थे. बीचबीच में कर्मचारियों को बिना वेतन 2-2 महीने काम करना पड़ा था.

उधर शिखा के पिता शादी के लिए अनुपम पर दबाव डाल रहे थे. पर बारबार अनुपम कुछ और समय मांगता ताकि पिता का बोझ कुछ हलका हो. जो कुछ अनुपम की कमाई होती, उसे वह पिता को दे देता. इसी वजह से अनुपम की बहन की शादी भी अच्छे से हो गई. उस के पिता रिटायर भी हो गए थे.

रिटायरमैंट के समय जो कुछ रकम मिली और अनुपम की ओर से मिले पैसों को मिला कर उन्होंने शहर में एक फ्लैट ले लिया. पर अभी भी फ्लैट के मालिकाना हक के लिए और रुपयों की जरूरत थी. अनुपम को कभी 2 महीने तो कभी 3 महीने पर वेतन मिलता जो फ्लैट में खर्च हो जाता. अब भी एक बड़ी रकम फ्लैट के लिए देनी थी.

एक दिन शिखा के पापा ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘आज अनुपम से फाइनल बात कर लेता हूं, आखिर कब तक इंतजार करूंगा और दूसरी बात, मुझे पायलट की नौकरी उतनी पसंद भी नहीं. ये लोग देशविदेश घूमते रहते हैं. इस का क्या भरोसा, कहीं किसी के साथ चक्कर न चल रहा हो.’’

अनुपम के मातापिता तो चाहते थे कि अनुपम शादी के लिए तैयार हो जाए, पर वह तैयार नहीं हुआ. उस का कहना था कि कम से कम यह घर तो अपना हो जाए, उस के बाद ही शादी होगी. इधर एयरलाइंस की हालत बद से बदतर होती गई. वर्ष 2012 में जब अनुपम घरेलू उड़ान पर था तो उस ने दर्दभरी आवाज में यात्रियों को संबोधित किया, ‘‘आज की आखिरी उड़ान में आप लोगों की सेवा करने का अवसर मिला. हम ने 2 महीने तक बिना वेतन के अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार आप की सेवा की है.’’

इस के चंद दिनों बाद इस एयरलाइंस की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों का लाइसैंस रद्द कर दिया गया. पायलट हो कर भी अनुपम बेकार हो गया.

शिखा के पिता ने बेटी से कहा, ‘‘बेटे, हम ने तुम्हारे लिए एक आईएएस लड़का देखा है. वे लोग तुम्हें देख चुके हैं और तुम से शादी के लिए तैयार हैं. वे कोई खास दहेज भी नहीं मांग रहे हैं वरना आजकल तो आईएएस को करोड़ डेढ़करोड़ रुपए आसानी से मिल जाता है.’’

‘‘पापा, मैं और अनुपम तो वर्षों से एकदूसरे को जानते हैं और चाहते भी हैं. यह तो उस के साथ विश्वासघात होगा. हम कुछ और इंतजार कर सकते हैं. हर किसी का समय एकसा नहीं होता. कुछ दिनों में उस की स्थिति भी अच्छी हो जाएगी, मुझे पूरा विश्वास है.’’

‘‘हम लोग लगभग 2 साल से उसी के इंतजार में बैठे हैं, अब और समय गंवाना व्यर्थ है.’’

‘‘नहीं, एक बार मुझे अनुपम से बात करने दें.’’

शिखा ने अनुपम से मिल कर यह बात बताई. शिखा तो कोर्ट मैरिज करने को भी तैयार थी पर अनुपम को यह ठीक नहीं लगा. वह तो अनुपम का इंतजार भी करने को तैयार थी.

शिखा ने पिता से कहा, ‘‘मैं अनुपम के लिए इंतजार कर सकती हूं.’’

‘‘मगर, मैं नहीं कर सकता और न ही लड़के वाले. इतना अच्छा लड़का मैं हाथ से नहीं निकलने दूंगा. तुम्हें इस लड़के से शादी करनी होगी.’’

उस के पिता ने शिखा की मां को बुला कर कहा, ‘‘अपनी बेटी को समझाओ वरना मैं अभी के तुम को गोली मार कर खुद को भी गोली मार दूंगा.’’ यह बोल कर उन्होंने पौकेट से पिस्तौल निकाल कर पत्नी पर तान दी.

मां ने कहा, ‘‘बेटे, पापा का कहना मान ले. तुम तो इन का स्वभाव जानती हो. ये कुछ भी कर बैठेंगे.’’

शिखा को आखिरकार पिता का कहना मानना पड़ा ही शिखा अब डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की पत्नी थी. उस के पास सबकुछ था, घर, बंगला, नौकरचाकर. कुछ दिनों तक तो वह थोड़ी उदास रही पर जब वह प्रैग्नैंट हुई तो उस का मन अब अपने गर्भ में पलने वाले जीव की ओर आकृष्ट हुआ.

उधर, अनुपम के लिए लगभग 1 साल का समय ठीक नहीं रहा. एक कंपनी से उसे पायलट का औफर भी मिला तो वह कंपनी उस की लाचारी का फायदा उठा कर इतना कम वेतन दे रही थी कि वह तैयार नहीं हुआ. इस के कुछ ही महीने बाद उसे सिंगापुर के एक मशहूर फ्लाइंग एकेडमी में फ्लाइट इंस्ट्रक्टर की नौकरी मिल गई. वेतन, पायलट की तुलना में कम था पर आराम की नौकरी थी. ज्यादा भागदौड़ नहीं करनी थी  इस नौकरी में. अनुपम सिंगापुर चला गया.

इधर शिखा ने एक बेटे को जन्म दिया. देखतेदेखते एक साल और गुजर गया. अनुपम के मातापिता अब उस की शादी के लिए दबाव बना रहे थे. अनुपम ने सबकुछ अपने मातापिता पर छोड़ दिया था. उस ने बस इतना कहा कि जिस लड़की को वे पसंद करें उस से फाइनल करने से पहले वह एक बार बात करना चाहेगा.

कुछ दिनों बाद अनुपम अपने एक दोस्त की शादी में भारत आया. वह दोस्त का बराती बन कर गया. जयमाला के दौरान स्टेज पर ही लड़की लड़खड़ा कर गिर पड़ी. उस का बाएं पैर का निचला हिस्सा कृत्रिम था, जो निकल पड़ा था. पूरी बरात और लड़की के यहां के मेहमान यह देख कर आश्चर्यचकित थे.

दूल्हे के पिता ने कहा, ‘‘यह शादी नहीं हो सकती. आप लोगों ने धोखा दिया है.’’

लड़की के पिता बोले, ‘‘आप को तो मैं ने बता दिया था कि लड़की का एक पैर खराब है.’’

‘‘आप ने सिर्फ खराब कहा था. नकली पैर की बात नहीं बताई थी. यह शादी नहीं होगी और बरात वापस जाएगी.’’

तब तक लड़की का भाई भी आ कर बोला, ‘‘आप को इसीलिए डेढ़ करोड़ रुपए का दहेज दिया गया है. शादी तो आप को करनी ही होगी वरना…’’

अनुपम का दोस्त, जो दूल्हा था, ने कहा, ‘‘वरना क्या कर लेंगे. मैं जानता हूं आप मजिस्ट्रेट हैं. देखता हूं आप क्या कर लेंगे. अपनी दो नंबर की कमाई के बल पर आप जो चाहें नहीं कर सकते. आप ने नकली पैर की बात क्यों छिपाई थी. लड़की दिखाने के समय तो हम ने इस की चाल देख कर समझा कि शायद पैर में किसी खोट के चलते लंगड़ा कर चल रही है, पर इस का तो पैर ही नहीं है, अब यह शादी नहीं होगी. बरात वापस जाएगी.’’

तब तक अनुपम भी दोस्त के पास पहुंचा. उस के पीछे एक महिला गोद में बच्चे को ले कर आई. वह शिखा थी. उस ने दुलहन बनी लड़की का पैर फिक्स किया. वह शिखा से रोते हुए बोली, ‘‘भाभी, मैं कहती थी न कि मेरी शादी न करें आप लोग. मुझे बोझ समझ कर घर से दूर करना चाहा था न?’’

‘‘नहीं मुन्नी, ऐसी बात नहीं है. हम तो तुम्हारा भला सोच रहे थे.’’ शिखा इतना ही बोल पाई थी और उस की आंखों से आंसू निकलने लगे. इतने में उस की नजर अनुपम पर पड़ी तो बोली, ‘‘अनुपम, तुम यहां?’’

अनुपम ने शिखा की ओर देखा. मुन्नी और विशेष कर शिखा को रोते देख कर वह भी दुखी था. बरात वापस जाने की तैयारी में थी. दूल्हेदोस्त ने शिखा को देख कर कहा, ‘‘अरे शिखा, तुम यहां?’’

‘‘हां, यह मेरी ननद मुन्नी है.’’

‘‘अच्छा, तो यह तुम लोगों का फैमिली बिजनैस है. तुम ने अनुपम को ठगा और अब तुम लोग मुझे उल्लू बना रहे थे. चल, अनुपम चल, अब यहां नहीं रुकना है.’’

अनुपम बोला, ‘‘तुम चलो, मैं शिखा से बात कर के आता हूं.’’

बरात लौट गई. शिखा अनुपम से बोली, ‘‘मुझे उम्मीद है, तुम मुझे गलत नहीं समझोगे और माफ कर दोगे. मैं अपने प्यार की कुर्बानी देने के लिए मजबूर थी. अगर ऐसा नहीं करती तो मैं

अपनी मम्मी और पापा की मौत की जिम्मेदार होती.’’

‘‘मैं ने न तुम्हें गलत समझा है और न ही तुम्हें माफी मांगने की जरूरत है.’’

लड़की के पिता ने बरातियों से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘आप लोग क्षमा करें, मैं बेटी के हाथ तो पीले नहीं कर सका लेकिन आप लोग कृपया भोजन कर के जाएं वरना सारा खाना व्यर्थ बरबाद जाएगा.’’

मेहमानों ने कहा, ‘‘ऐसी स्थिति में हमारे गले के अंदर निवाला नहीं उतरेगा. बिटिया की डोली न उठ सकी इस का हमें भी काफी दुख है. हमें माफ करें.’’

तब अनुपम ने कहा, ‘‘आप की बिटिया की डोली उठेगी और मेरे घर तक जाएगी. अगर आप लोगों को ऐतराज न हो.’’

वहां मौजूद सभी लोगों की निगाहें अनुपम पर गड़ी थीं. लड़की के पिता ने  झुक कर अनुपम के पैर छूने चाहे तो उस ने तुरंत उन्हें मना किया.

शिखा के पति ने कहा, ‘‘मुझे शिखा ने तुम्हारे बारे में बताया था कि तुम दोनों स्कूल में अच्छे दोस्त थे. पर मैं तुम से अभी तक मिल नहीं सका था. तुम ने मेरे लिए ऐसे हीरे को छोड़ दिया.’’

मुन्नी की शादी उसी मंडप में हुई. विदा होते समय वह अपनी भाभी शिखा से बोली, ‘‘प्यार इस को कहते हैं, भाभी. आप के या आप के परिवार को अनुपम अभी भी दुखी नहीं देखना चाहते हैं.’’

Hindi Story : डायन का कलंक – दलित स्त्री के शोषण की कहानी

Hindi Story : आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी. दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था. दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.

जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था. ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनत मजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.

उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी. दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है. दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.

दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’

उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’

चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे. दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’ बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.

जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी?था.

दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’

अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’

वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’ तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे. उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’

वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’

दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे

बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.  ‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तरह मेहनत मजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी. ‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.

‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.

‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’ ‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’ ‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का किया धरा है.

‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है. ‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारा पीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.

‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’. उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’ दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.

‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?

‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’ वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया. जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है. ‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’ यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’ दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.

Emotional Story : पापा की शादी

Emotional Story : शिवानी जानती थी कि उस के पिता ने सिर्फ उसी की खातिर दूसरी शादी नहीं की. लेकिन इतने बरसों बाद उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर अरुणिमा के साथ उन की घनिष्ठता बढ़ती देख उस के मन में उन के लिए नफरत क्यों पनपने लगी.

आज मैं ने वह सब देखा जिसे देखने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. कालिज से घर लौटते समय मुझे डैडी अपनी कार में एक बेहद खूबसूरत औरत के साथ बैठे दिखाई दिए. जिस अंदाज में वह औरत डैडी से बात कर रही थी, उसे देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि वह डैडी के बेहद करीब थी.

10 साल पहले जब मेरी मां की मृत्यु हुई थी तब सारे रिश्तेदारों ने डैडी को दूसरा विवाह करने की सलाह दी थी लेकिन डैडी ने सख्ती से मना करते हुए कहा था कि मैं अपनी बेटी शिवानी के लिए दूसरी मां किसी भी सूरत में नहीं लाऊंगा और डैडी अपने वादे पर अब तक कायम रहे थे, लेकिन आज अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वह एक औरत के करीब हो कर मेरे वजूद को उपेक्षा की गरम सलाखों से भेद रहे थे.

मुझे अच्छी तरह  से याद है कि मम्मी और डैडी के बीच कभी नहीं बनी थी. मम्मी के खानदान के मुकाबले में डैडी के खानदान की हैसियत कम थी, इसलिए मम्मी बातबात पर अपनी अमीरी के किस्से बयान कर के डैडी को मानसिक पीड़ा पहुंचाया करती थीं. मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि जब डैडी और मम्मी के विचार आपस में मिलते नहीं थे तब डैडी ने उन्हें अपनी जीवनसंगिनी क्यों बनाया था.

कालिज से घर आते ही काकी मां ने मुझ से चाय के लिए पूछा तो मैं उन्हें मना कर अपने कमरे मेें आ गई और अपने आंसुओं से तकिए को भिगोने लगी.

5 बजे के आसपास डैडी का फोन आया तो मैं अपने गुस्से पर जबरन काबू पाते हुए बोली, ‘‘डैडी, इस वक्त आप कहां हैं?’’

‘‘बेटे, इस वक्त मैं अपनी कार ड्राइव कर रहा हूं,’’ डैडी बडे़ प्यार से बोले.

‘‘आप के साथ कोई और भी है?’’ मैं ने शक भरे अंदाज में पूछा.

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि इस समय मेरे साथ कोई और भी है. क्या तुम्हें फोन पर किसी की खुशबू आ गई?’’ डैडी हंसते हुए बोले.

‘‘हां, मैं आप की इकलौती बेटी हूं, इसलिए मुझे आप के बारे में सब पता चल जाता है. बताइए, कौन है आप के साथ?’’

‘‘देखा तुम ने अरुणिमा, मेरी बेटी मेरे बारे मेें हर खबर रखती है.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि डैडी के साथ कार में बैठी औरत का नाम अरुणिमा है.

‘‘जनाब, यहां आप गलत फरमा रहे हैं,’’ डैडी के मोबाइल से मुझे एक औरत की खनकती आवाज सुनाई दी, ‘‘अब वह आप की नहीं, मेरी भी बेटी है.’’

उस औरत का यह जुमला जहरीले तीर की तरह मेरे सीने में लगा. एकाएक मेरे दिमाग की नसें तनने लगीं और मेरा जी चाहा कि मैं सारी दुनिया को आग लगा दूं.

‘‘शिवानी बेटे, तुम लाइन पर तो हो न?’’ मुझे डैडी का बेफिक्री से भरा स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां,’’ मैं बेजान स्वर में बोली, ‘‘डैडी, यह सब क्या हो रहा है? आप के साथ कौन है?’’

‘‘बेटे, मैं तुम्हें घर आ कर सब बताता हूं,’’ इसी के साथ डैडी ने फोन काट दिया और मैं सोचती रह गई कि यह अरुणिमा कौन है? यह डैडी के जीवन में कब और कैसे आ गई?

डैडी और अरुणिमा के बारे में सोचतेसोचते कब मेरी आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

7 बजे शाम को काकी मां ने मुझे उठाया और चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘बेटी शिवानी, क्या बात है? आज तुम ने चाय नहीं पी. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘काकी मां, मेरी तबीयत ठीक है. डैडी आ गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, और वह तुम्हें बुला रहे हैं. उन्होंने कहा है कि तुम अच्छी तरह से तैयार हो कर आना,’’ इतना कह      कर काकी मां कमरे से बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर बाद मैं ड्राइंगरूम में आई तो मुझे सोफे पर वही औरत बैठी दिखाई दी जिसे आज मैं ने डैडी के साथ उन की कार में देखा था.

‘‘अरु, यह है मेरी बेटी, शिवानी,’’ डैडी उस औरत से मेरा परिचय कराते हुए बोले.

न चाहते हुए भी मेरे हाथ नमस्कार करने की मुद्रा में जुड़ गए.

‘‘जीती रहो,’’ वह खुद ही उठ कर मेरे करीब आ गईं और फिर मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर उन्होंने मेरे माथे पर एक प्यारा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘अगर मेरी कोई बेटी होती तो वह बिलकुल तुम्हारे जैसी होती. सच में तुम बहुत प्यारी हो.’’

‘‘अरु, यह भी तो तुम्हारी बेटी है,’’ डैडी हंसते हुए बोले.

डैडी के ये शब्द पिघले सीसे की तरह मेरे कानों में उतरते चले गए. मेरा जी चाहा कि मैं अपने कमरे में जाऊं और खूब फूटफूट कर रोऊं. आखिर डैडी ने मेरे विश्वास का खून जो किया था.

‘‘बेटी, तुम करती क्या हो?’’  अरुणिमाजी ने मुझे अपने साथ बैठाते हुए पूछा.

उस वक्त मेरी हालत बड़ी अजीब सी थी. जिस औरत से मुझे नफरत करनी चाहिए थी वह औरत मेरे वजूद पर अपने आप छाती जा रही थी.

मैं उन्हें अपनी पढ़ाई के बारे में बताने लगी. हम दोनों के बीच बहुत देर तक बातें हुईं.

‘‘काकी मां, देखो तो कौन आया है?’’ डैडी ने काकी मां को आवाज दी.

‘‘मैं जानती हूं, कौन आया है,’’ काकी मां ने वहां चाय की ट्राली के साथ कदम रखा.

‘‘अरे, काकी मां आप,’’  अरुणिमा उन्हें देखते ही खड़ी हो गईं.

चाय की ट्राली मेज पर रख कर काकी मां उन की तरफ बढ़ीं. फिर दोनों प्यार से गले मिलीं तो मैं दोनों को उलझन भरी निगाहों से देखने लगी.

अरुणिमा का इस घर से पूर्व में गहरा संबंध था, यह बात तो मैं समझ गई थी, लेकिन कोई सिरा मेरे हाथों में नहीं आ रहा था.

‘‘काकी मां, आप इन्हें जानती हैं?’’ मैं ने हैरत भरे स्वर में काकी मां से पूछा.

काकी मां के बोलने से पहले ही डैडी बोल पड़े, ‘‘बेटी, अरुणिमाजी का इस घर से गहरा संबंध रहा है. हम दोनों एक ही स्कूल और एक ही कालिज में पढ़े हैं.’’

तभी अरुणिमाजी ने डैडी को इशारा किया तो डैडी ने फौरन अपनी बात पलटी और सब को चाय पीने के लिए कहने लगे.

अब मेरी समझ में कुछकुछ आने लगा था कि मम्मीडैडी के बीच ऐसा क्या था जो वे एकदूसरे से बात करना तो दूर, देखना तक पसंद नहीं करते थे. निसंदेह डैडी शादी से पहले इसी अरुणिमाजी से प्यार करते थे.

चाय पीने के दौरान मैं ने अरुणिमाजी से काफी बातें कीं. वह बहुत जहीन थीं. वह हर विषय पर खुल कर बोल सकती थीं. उन की नालेज को देख कर मेरी उन के प्रति कुछ देर पहले जमी नफरत की बर्फ तेजी से पिघलने लगी.

उन की बातों से मुझे यह भी पता चला कि वह एक प्रोफेसर थीं. कुछ साल पहले उन के पति का देहांत हो गया था. उन का अपना कहने को इकलौता बेटा नितिन था, जो बिजनेस के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए लंदन गया हुआ था.

रात का डिनर करने के बाद जब अरुणिमा गईं तो मैं अपने कमरे में आ गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि कुछ औरतों की भृकुटियों में संसार भर की राजनीति की लिपि होती है, जब उन की पलकें झुक जाती हैं तो न जाने कितने सिंहासन उठ जाते हैं और जब उन की पलकें उठती हैं तो न जाने कितने राजवंश गौरव से गिर जाते हैं.

अरुणिमाजी भी शायद उन्हीं औरतों में एक थीं, तभी डैडी ने दूसरी शादी न करने की जो कसम खाई थी, उसे आज वह तोड़ने के लिए हरगिज तैयार नहीं होते. मैं बिलकुल नहीं चाहती कि इस उम्र में डैडी अरुणिमाजी से शादी कर के दीनदुनिया की नजरों में उपहास का पात्र बनें.

सुबह टेलीफोन की घंटी से मेरी आंख खुली. मैं ने फोन उठाया तो मुझे अरुणिमाजी की मधुर आवाज सुनाई दी. ‘‘स्वीट बेबी, मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया?’’

‘‘नहीं, आंटीजी,’’ मैं जरा संभल कर बोली, ‘‘आज मेरे कालिज की छुट्टी थी, इसलिए मैं देर तक सोने का मजा लेना चाह रही थी.’’

‘‘इस का मतलब मैं ने तुम्हारी नींद में खलल डाला. सौरी, बेटे.’’

‘‘नहीं, आंटीजी, ऐसी कोई बात नहीं है. कहिए, कैसे याद किया?’’

‘‘आज तुम्हारी छुट्टी है. तुम मेरे घर आ जाओ. हम खूब बातें करेंगे. सच कहूं तो बेटे, कल तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा था.’’

‘‘लेकिन आंटी, डैडी की इजाजत के बिना…’’ मैं ने अपना वाक्य जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तुम्हारे डैडी से मैं बात कर लूंगी,’’ वह बडे़ हक से बोली, ‘‘वह मना नहीं करेंगे.’’

उस पल जेहन में एक ही सवाल परेशान कर रहा था कि जिस से मुझे बेहद नफरत होनी चाहिए, मैं धीरेधीरे उस के करीब क्यों होती जा रही हूं?

1 घंटे बाद मैं अरुणिमाजी के सामने थी.

उन्होंने पहले तो मुझे गले लगाया, फिर बड़े प्यार से सोफे पर बैठाया. इस के बाद वह मेरे लिए नाश्ता बना कर लाईं. नाश्ते के दौरान मैं ने उन से पूछा, ‘‘आंटी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप से मिले हुए मुझे अभी सिर्फ 1 दिन हुआ है. सच कहूं तो मैं कल से सिर्फ आप के बारे में ही सोचे जा रही हूं. अगर आप मुझे पहले मिल जातीं तो कितना अच्छा होता,’’ यह कह कर मैं उन के घर को देखने लगी.

उन का सलीका और हुनर ड्राइंग रूम से बैडरूम तक हर जगह दिखाई दे रहा था. हर चीज करीने से रखी हुई थी. उन का घर इतना साफसुथरा और खूबसूरत था कि वह मुझे मुहब्बतों का आईना जान पड़ा.

उन के सलीके और हुनर को देख कर मेरे दिल में एक हूक सी उठ रही थी. मैं सोच रही थी कि काश, उन के जैसी मेरी मां होतीं. तभी मेरी आंखों के सामने मेरी मम्मी का चेहरा घूम गया. मेरी मम्मी एक मगरूर औरत थीं, उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त डैडी से लड़ते हुए बिताया था.

मेरी मम्मी ने बेशक मेरे डैडी के शरीर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वह उन के दिल में जगह नहीं बना पाई थीं, जोकि एक स्त्री अपने पति के दिल में बनाती है.

अब अरुणिमाजी की जिंदगी एक खुली किताब की तरह मेरे सामने आ गई थी. उन के दिल के किसी कोने में मेरे डैडी के लिए जगह जरूर थी. लेकिन उन्होंने डैडी से शादी क्यों नहीं की थी, यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

शाम होते ही डैडी मुझे लेने आ गए. रास्ते में मैं ने उन से पूछा, ‘‘डैडी, अगर आप बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकती हूं?’’

डैडी ने बड़ी हैरानी से मुझे देखा, फिर आहत भाव से बोले, ‘‘बेटे, मैं ने आज तक  तुम्हारी किसी बात का बुरा माना है, जो आज तुम ऐसी बात कह रही हो. तुम जो पूछना चाहती हो पूछ सकती हो. मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘आप अरुणिमाजी से प्यार करते हैं न?’’ मैं ने बिना किसी भूमिका के कहा.

डैडी पहले काफी देर तक चुप रहे फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘यह सच है कि एक वक्त था जब हम दोनों एकदूसरे को हद से ज्यादा चाहते थे और हमेशा के लिए एकदूसरे का होने का फैसला कर चुके थे.’’

‘‘ऐसी बात थी तो आप ने एकदूसरे से शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारे दादा ने मुझे अरुणिमा से शादी करने से मना किया था. तब मैं ने अपने मांबाप की मर्जी के बिना घर से भाग कर अरुणिमा से शादी करने का फैसला किया, लेकिन उस वक्त अरुणिमा ने मेरा साथ नहीं दिया था. तब उस का यही कहना था कि हमारे मांबाप के हम पर बहुत एहसान हैं, हमें उन के एहसानों का सिला उन के अरमानों का खून कर के नहीं देना चाहिए. उन की खुशियों के लिए हमें अपने प्यार का बलिदान करना पडे़गा.

‘‘मैं ने तब अरुणिमा को काफी समझाया, लेकिन वह नहीं मानी. इसलिए हमें एकदूसरे की जिंदगी से दूर जाना पड़ा. कुछ दिन पहले वह मुझे एक पार्टी में नहीं मिलती तो मैं उसे तुम्हारी मम्मी कभी नहीं बना पाता. आज की तारीख में उस का एक ही लड़का है, जिसे अरुणिमा के तुम्हारी मम्मी बनने से कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘लेकिन डैडी, मुझे एतराज है,’’ मैं कड़े स्वर में बोली.

‘‘क्यों?’’ डैडी की भवें तन उठीं.

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप की जगहंसाई हो.’’

‘‘मुझे किसी की परवा नहीं है,’’ डैडी सख्ती से बोले, ‘‘तुम्हें मेरा कहा मानना ही होगा. तुम अपने को दिमागी तौर पर तैयार कर लो. कुछ ही दिनों  में वह तुम्हारी मम्मी बनने जा रही है.’’

उस वक्त मुझे अपने डैडी एक इनसान न लग कर एक हैवान लगे थे, जो दूसरों की इच्छाओं को अपने नुकीले नाखूनों से नोंचनोंच कर तारतार कर देता है.

2 दिन पहले ही अरुणिमाजी का इकलौता बेटा नितिन लंदन से वापस लौटा तो उन्होंने उस से सब से पहले मुझे मिलाया. नितिन के बारे में मैं केवल इतना ही कहूंगी कि वह मेरे सपनों का राजकुमार है. मैं ने अपने जीवन साथी की जो कल्पना की थी वह हूबहू नितिन जैसा ही था.

कितनी अजीब बात है, जिस बाप को शादी की उम्र की दहलीज पर खड़ी अपनी औलाद के हाथ पीले करने के बारे में सोचना चाहिए वह बाप अपने स्वार्थ के लिए अपनी औलाद की खुशियों का खून कर के अपने सिर पर सेहरा बांधने की सोच रहा है.

आज अरुणिमाजी खरीदारी के लिए मुझे अपने साथ ले गई थीं. मैं उन के साथ नहीं जाना चाहती थी, लेकिन डैडी के कहने पर मुझे उन के साथ जाना पड़ा.

शौपिंग के दौरान जब अरुणिमाजी ने एक नई नवेली दुलहन के कपड़े और जेवर खरीदे, तो मुझे उन से भी नफरत होने लगी थी.

मैं ने मन ही मन निश्चय कर अपनी डायरी में लिख दिया कि जिस दिन डैडी अपने माथे पर सेहरा बांधेंगे, उसी दिन इस घर से मेरी अर्थी उठेगी.

आज मुझे अपने नसीब पर रोना आ रहा है और हंसना भी. रोना इस बात पर आ रहा है कि जो मैं ने सोचा था वह हुआ नहीं और जो मैं ने नहीं सोचा था वह हो गया.

यह बात मुझे पता चल गई थी कि डैडी को अरुणिमा आंटी को मेरी मां बनाने का फैसला आगे आने वाले दिन 28 नवंबर को करना था और यह विवाह बहुत सादगी से गिनेचुने लोगों के बीच ही होना था.

28 नवंबर को सुबह होते ही मैं ने खुदकुशी करने की पूरी तैयारी कर ली थी. मैं ने सोच लिया था कि डैडी जैसे ही अरुणिमा आंटी के साथ सात फेरे लेंगे, वैसे ही मैं अपने कमरे में आ कर पंखे से लटक कर फांसी लगा लूंगी.

दोपहर को जब मैं अपने कमरे में मायूस बैठी थी तभी काकी मां ने कुछ सामान के साथ वहां कदम रखा और धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘ये कपड़े तुम्हारे डैडी की पसंद के हैं, जोकि उन्होंने अरुणिमा बेटी से खरीदवाए थे. उन्होंने कहा है कि तुम जल्दी से ये कपड़े पहन कर नीचे आ जाओ.’’

मैं काकी मां से कुछ पूछ पाती उस से पहले वह कमरे से बाहर निकल गईं और कुछ लड़कियां मेरे कमरे में आ कर मुझे संवारने लगीं.

थोड़ी देर बाद मैं ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तो वहां काफी मेहमान बैठे थे. मेहमानों की गहमागहमी देख कर मेरी समझ में कुछ नहीं आया.

मैं सोफे पर बैठी ही थी कि वहां अरुणिमाजी आ गईं. उन के साथ नितिन नहीं आया था.

‘‘शिशिर, हमें इजाजत है?’’ उन्होंने डैडी से पूछा.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं, यह रही तुम्हारी अमानत. इसे संभाल कर रखिएगा,’’  डैडी भावुक स्वर में बोले.

तभी वहां नितिन ने कदम रखा, जो दूल्हा बना हुआ था.

मेरा सिर घूम गया. मैं ने उलझन भरी निगाहों से डैडी की तरफ देखा तो वह मेरे करीब आ कर बोले, ‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं अरुणिमा आंटी को तुम्हारी मम्मी बनाऊंगा. आज से अरुणिमा आंटी तुम्हारी मम्मी हैं. इन्हें हमेशा खुश रखना.’’

एकाएक मेरी रुलाई फूट पड़ी. मैं डैडी के गले लग गई और फूटफूट कर रोने लगी.

इस के बाद पवित्र अग्नि के सात फेरे ले कर मैं नितिन की हमसफर और अरुणिमाजी की बेटी बन गई.

Love Story : अल्‍हड़ उमर का प्‍यार

Love Story : ‘‘मां, आप कितनी अच्छी और प्यारी हो. आप ने मेरे लिए घर में सब से कितना कुछ सुना, ये मैं कभी नहीं भूलूंगा,’’ कहते हुए तन्मय अपनी मां रागिनी के गले लग गया. रागिनी ने भी प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और बोली, ‘‘मां को मक्खन ही लगाते रहोगे या तैयार भी होओगे. उन लोगों के आने का समय हो गया है. नहीं करनी तो कैंसिल कर देते हैं एंगेजमेंट की रस्म,’’ रागिनी ने बेटे तन्मय से चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘अरे, नहींनहीं… मेरी प्यारी मां, ऐसा मत करना प्लीज. बड़ी मुश्किल से तो बात बनी है. बस अभी गया और अभी आया,’’ कहते हुए तन्मय तैयार होने अपने कमरे में चला गया.

रागिनी पास में ही पड़े सोफे पर बैठ गई. आज उस के बेटे की सगाई है. बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता. आज मां से सास बनने का वक्त भी आ गया. पर, उसे ऐसा लग रहा है मानो उस के विवाह की ही पुनरावृत्ति हो रही हो. बस परिस्थितियां कुछ अलग हैं. तभी मेहमान आने प्रारंभ हो गए और रागिनी और उस के पति प्रदीप मेहमानों की आवभगत में व्यस्त हो गए.

जब बहू तनु और बेटे तन्मय ने एकददूसरे को अगूंठी पहना कर सगाई की रस्म पूरी की, तो उस की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. उस ने बहू तनु की बलाएं ली और अपने समधीसमधिन से बोली,
‘‘भाई साहब और भाभीजी, आज से तनु हमारी हुई.’’

‘‘हां भई हां, तनु आज से आप की ही है, हमारे पास तो बस कुछ दिनों के लिए आप की अमानत मात्र है भाभी,’’ समधिन रीना यह कहते हुए उस के गले से लग गई.

खाना प्रारंभ हो चुका था, सभी मेहमान खाने में व्यस्त थे. सारी व्यवस्थाओं से संतुष्ट हो कर रागिनी स्टेज के पास पड़े सोफे पर आ कर बैठ गई. उसे लग रहा था मानो 40 वर्ष पूर्व की घटना की पुनरावृत्ति हो रही हो सोचतेसोचते उस के मन में सुनहरी यादों का पिटारा खुलने लगा.

8वीं की छात्रा थी वह, जब उस के जीवन में प्रदीप ने प्रवेश किया था. वैसे तो वह बहुत मेधावी थी, परंतु गणित में कमजोर थी. एक दिन पापा अपने मित्र शर्माजी के बेटे को ले कर आए और बोले, ‘‘ये प्रदीप भइया हैं, कल से तुम्हें गणित पढाएंगे.’’

पता नहीं क्या जादू था उस की पर्सनेलिटी में कि प्रथम बार में ही मानो वह उन्हें अपना दिल दे बैठी. कुछ दिनों के बाद ही पापा का तबादला दूसरे शहर में हो गया और बात आईगई हो गई. धीरेधीरे पुराने शहर की यादें भी मनमस्तिष्क से धूमिल होने लगी थी. इन 4 वर्षों में वह बालिका से किशोरी हो गई थी और 11वीं कक्षा में आ गई थी. तभी एक दिन पापा ने बताया, ‘‘शर्माजी का बेटा प्रदीप अब अपनी एमए की पढ़ाई यहीं रह कर करेगा.’’

उसे पापा की बातों पर आश्चर्य तो हुआ, पर यकीन नहीं हो पाया. वह पापा से बोली, ‘‘पापा वो… शर्माजी का बेटा…’’

पापा ने कहा, ‘‘हां वही, जो तुम्हें 8वीं में गणित पढ़ाया करते थे.’’

आजकल की भांति उस समय टीवी, मोबाइल फोन और सोशल मीडिया जैसी तकनीक तो थी नहीं जो मैसेज कर पाती और न ही वेलेंटाइन डे जैसे कोर्ई दिवस होते थे, जो प्यार का मतलब उम्र से पहले से समझ आ जाए. आजकल तो जराजरा से बच्चे प्रपोज करते, बौयफ्रैंडगर्लफ्रैंड बनाते नजर आते हैं.

12वीं में पढ़ने वाली रागिनी उस समय ‘‘प्यार’’ नामक शब्द के बारे में बहुतकुछ तो नहीं जानती थी, पर हां, शर्माजी के बेटे प्रदीप का आना उसे अच्छा लग रहा था. न जाने क्यों दिल में गुदगुदी और कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं थीं.

प्रदीप की कक्षाएं प्रारंभ हो गई थीं. वे होस्टल में रह कर अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे. जबतब घर भी आ जाया करते थे. अप्रत्यक्ष रूप से प्रदीप ने रागिनी और 10वीं में पढ़ने वाली उस की बहन को पढ़ाने की जिम्मेवारी भी ले ली थी. किशोरवय की रागिनी एवं युवा प्रदीप के मध्य न जाने कब प्यार की बयार बहने लगी थी. उन दोनों को ही इस का आभास नहीं हुआ.
तभी उस की समधिन रीना ने आ कर उसे झकझोर दिया, ‘‘अरे, भाभीजी कहां खो गईं, कोई परेशानी है क्या?’’

‘‘नहींनहीं, मैं तो बस ऐसे ही घर में आने वाली बहू को ले कर रोमांचित हो रही थी,’’ रागिनी ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, चलिए भोजन तो ले लीजिए,’’ हंसते हुए कह कर रीना उसे खाने की टेबल तक ले गई.

‘‘अच्छा बताओ तो भाभी, कहां खो गई थी?’’ रीना ने खाना खातेखाते पुन: पूछा.

‘‘तनु और तन्मय की शादी ने मुझे मेरी युवावस्था में पहुंचा दिया था,’’ रागिनी मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे, वो कैसे…?’’ रीना ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जैसे, आज तनु और तन्मय का प्यार हमारे परिवारों की छांव तले पिछले 15 सालों से पनप रहा था, ठीक वैसी ही तो मेरी और प्रदीप की स्थिति थी,’’ रागिनी ने अपने सुर्ख होते चेहरे के भावों को छिपाते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, ये दोनों तो अभी से ही एक हो गईं,’’ तन्मय की खनखनाती आवाज ने उन दोनों की बातचीत को भंग कर दिया. उस के साथ तनु भी खड़ी हंस रही थी. दोनों बच्चे अपनी मांओं के पास आ कर खड़े हो गए. रागिनी ने दोनों को प्यार से गले से लगा लिया. फिर रीना अपने मेहमानों से मिलने में व्यस्त हो गई और बच्चे अपने दोस्तों के पास चले गए. पर रागिनी का मन था कि रुकने को तैयार ही नहीं था.

उसे याद आया कि जब भी उन दिनों घर में कुछ नया बनता, उस का मन करता कि वह प्रदीप को भी खिलाए, पर संस्कारों की बेड़ियां और मां की नसीहतों के कारण वह अपना मन तो मार लेती, परंतु छोटी बहन को उकसा देती. मां छोटी बहन के प्रति उदार थीं, सो उस का काम हो जाता. वह खुश हो जाती कि उस ने नहीं खिला पाया तो क्या कम से कम प्रदीप ने खा तो लिया. उन का एकदूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था. कभीकभी प्रदीप पढ़ातेपढ़ाते ही मौका देख कर उस का हाथ सहला लेते थे, तो उस का चेहरा लज्जा से लाल हो उठता.

स्नातकोत्तर करने के बाद प्रदीप आगरा में ही रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगे. इस बीच रागिनी की भी पोस्ट ग्रेजुएशन पूरी हो गई. प्रदीप का राजपत्रित अधिकारी के पद पर चयन हो गया, तो वे चले गए. उन के जाने के बाद वह बहुत उदास हो गई थी. पर दोनों के मध्य का प्यार तो परवान चढ़ ही चुका था और अब ये घर वालों से भी छिपा नहीं था.

‘‘चलो भई घर नहीं चलना,’’ प्रदीप ने उस के पास आ कर कहा. तनु और तन्मय दूसरी गाड़ी में पहले ही चले गए थे. वह भी मन ही मन पुरानी यादों में डूबतीइतराती हुई चुपचाप आ कर गाड़ी में बैठ गई.

‘‘अरे, कहां खो गईं मोहतरमा, कहीं अपनी जवानी के दिन तो याद नहीं आ गए,’’ प्रदीप ने गाड़ी ड्राइव करते हुए उसे छेड़ते हुए कहा.

‘‘अरे हां, वही सब तो याद आ रहा है इन दोनों को देख कर.’’

‘‘याद है तुम्हें, कैसे एक बार तुम्हारी आंखों में आंसू और रुकने का आग्रह देख कर मैं ने अपने जाने का टिकट फाड़ दिया था और तबीयत खराब होने का बहाना बना कर रुक गया था,’’ प्रदीप ने उस की ओर देख कर शरारत से मुसकराते हुए कहा.

‘‘और, आप हर दिन एक पत्र मुझे भेजते थे. जिस दिन नहीं आता था, उस दिन मैं उदास हो जाया करती थी,’’ रागिनी ने हंसते हुए हौले से प्रदीप के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा.

‘‘चलो, घर आ गया. एक माह बाद शादी है, तैयारियां भी तो करनी हैं. पुरानी यादों में ही खोए रहेंगे तो हो चुकी बेटे की शादी,’’ प्रदीप ने कहा, तो वह वर्तमान में आ गई.

कपड़े चेंज कर के वह बेड पर लेट गई और एक बार फिर उस का मन अतीत में गोते खाने लगा. उस के पापा और प्रदीप के पापा समझदार थे, वे समझ चुके थे कि बच्चे संस्कारवश कुछ बोल नहीं पा रहे हैं, परंतु मन ही मन एकदूसरे से प्यार करते हैं. दोनों परिवारों ने आपस में बातचीत की.

रागिनी के पापामम्मी को भी घर बैठे अच्छा देखाभाला लड़का मिल रहा था, सो तनिक भी समय गंवाए बिना उन्होंने अपनी बेटी के हाथ पीले कर देने में ही भलाई समझी.

रागिनी और प्रदीप को तो मानो बिन मांगे ही मन की मुराद मिल गई थी. दोनों की प्यार से सींची गई बगिया में शीघ्र ही बेटे तन्मय और बेटी तानी नाम के पुष्प खिल उठे.

समय तेजी से बीतता गया और आज ये दिन भी आ गया कि वह अपने बेटे का विवाह कर के सास बनने जा रही थी.

तनु प्रदीप के कालेज के दोस्त राजीव सिंह की बेटी थी. दोनों परिवारों के पारिवारिक संबंध बहुत गहरे थे. तनु और तन्मय कब एकदूसरे की ओर आकर्षित हो गए, किसी को पता ही नहीं चला.

दोनों परिवारों का आनाजाना और साथसाथ घूमने जाना लगा ही रहता. उस समय दोनों बच्चे किशोरावस्था में थे. जब दोनों परिवार शिमला, कुल्लू मनाली के टूर पर गए थे. किशोरवय में विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण एक स्वाभाविक मनोभाव होता है. सो, दोनों बच्चे इस एक सप्ताह की ट्रिप में काफी नजदीक आ गए थेे और आपस में बातचीत भी करने लगे थे. यद्यपि रागिनी की नजरों से दोनों की बातचीत छिपी नहीं थी, पर आजकल गर्लफ्रैंड, बौयफ्रैंड का जमाना है सो उसे लगा कि यह महज किशोरावस्था का आकर्षण मात्र हैं. और किसी दूसरी लड़की की अपेक्षा उन दोनों का आपस में बातचीत कर के अपनी भावनाओं को निकाल देना उसे अधिक सुरक्षित लगा था. अत: उस ने इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया. समय अपनी निर्बाध गति से बीत रहा था और बच्चे भी अपनीअपनी दिशा पकड़ चुके थे. तन्मय का चयन सिविल सर्विसेज में हो गया और तनु एक बैंक में अधिकारी बन गई थी.

एक दिन मौका देख कर रागिनी ने तन्मय से कहा, ‘‘बेटा, अब तेरी विवाह की उम्र हो गई है और मैं चाहती हूं कि अब हम तेरा विवाह कर दें.’’

‘‘हां, मां, आप की बात तो बिलकुल सही है, पर उस से पहले मुझे आप से एक बात करनी है,’’ कहते हुए तन्मय रागिनी का हाथ अपने हाथ में ले कर उस के पैरों के पास जमीन पर बैठ गया.

‘‘हां, बोलो बेटा, क्या बात है?’’ रागिनी ने प्यार से उस का सिर सहलाते हुए कहा.

‘‘मां, वो तनु है न…’’ तन्मय ने धीरे से कह कर शरमाते हुए बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘क्या हुआ तनु को…? राजीव भाई साहब और भाभी सब ठीक तो हैं न,’’ सुन कर रागिनी एकदम चौंक उठी.

‘‘शांत… मां शात, सब ठीक है, किसी को कुछ नहीं हुआ है,’’ तन्मय ने उसे शांत करते हुए कहा.

‘‘मां, मैं यह कह रहा था कि…’’ तन्मय खड़े हो कर अचकचाते स्वर में बोला.

‘‘क्या हम लोग और राजीव सिंह अंकलआंटी रिश्तेदार नहीं बन सकते?’’

‘‘क्या मतलब…?’’ रागिनी चौंक कर बोली.

‘‘मतलब ये मां कि क्या मैं और तनु शादी नहीं कर सकते?’’ तन्मय हिचकिचाते हुए एक ही सांस में पूरा वाक्य कह गया.

‘‘तनु और तेरी शादी… यह क्या कह रहा है तू?’’ रागिनी ने हैरान होते हुए कहा.

तन्मय बिना कुछ बोले उठ कर कमरे से बाहर चला गया.

रागिनी आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई. वह समझ ही नहीं पा रही थी कि तन्मय क्या, कैसे और क्यों कह गया. भला ब्राह्मïण परिवार के लड़के का ठाकुर परिवार की लड़की से विवाह कैसे संभव होगा. वह भी दो कट्टर जातिवादी परिवारों में बेचैनी से अंदरबाहर टहलते हुए प्रदीप के औफिस से आने की प्रतीक्षा करने लगी.

प्रदीप के आने पर चाय का कप हाथ में थमाते ही उस ने तन्मय के विचार भी उन के सामने जाहिर कर दिए. प्रदीप तो सुनते ही उछल पड़े. बौखलाहट भरे स्वर में वे बोले, ‘‘क्या बेटा है हमारा, दोस्ती को ही रिश्तेदारी में बदलने निकल पड़ा? क्या सोचेंगे वे लोग? तुम्हें और तुम्हारे लाड़ले को पता है न कि हम दोनों परिवारों की जातियां अलगअलग हैं, वे ठाकुर और हम ब्राह्मïण, हमारे परिवार वाले इस के लिए बिलकुल तैयार नहीं होंगे. और राजीव, वो तो खुद कट्टर जातिवादी है, वह खुद इस के लिए कभी राजी नहीं होगा.’’

‘‘भाईसाहब और भाभी तो तैयार होंगे शायद, तभी तो तनु और तन्मय ने विवाह करने का निर्णय लिया है. बिना तनु से पूछे तो तन्मय मुझ से नहीं कहेगा,’’ रागिनी ने कहा.

अचानक कालबेल की आवाज से दोनों की बातचीत भंग हो गई और प्रदीप गुस्से से भनभनाए उठ कर अंदर चले गए. दरवाजा खोला तो सामने कामवाली बाई चंदा खड़ी थी.

‘‘2 दिन से क्यों नहीं आ रही थी?’’ रागिनी ने नाराजगी से पूछा.

‘‘अरे मेडमजी, क्या बताऊं मेरी लड़की एक गैरजाति के लड़के से शादी करना चाहती थी.’’

‘‘तो तू ने क्या किया?’’ रागिनी ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिछले 6 महीनों से समझा रहे थे, पर दोनों अपनी जिद पर अड़े थे. हालांकि लड़का अच्छा है और सरकारी नौकरी में है. बस, अपनी जाति का नहीं था. जब बिटिया नहीं मानी, तो हम पतिपत्नी ने लड़के वालों से बात की और कल मंदिर में ले जा कर शादी करा दी. अब दोनों बड़े खुश हैं,’’ चंदा ने खुश होते हुए कहा.

‘‘गैरजाति के लड़के से शादी करने को तेरे परिवार वाले राजी हो गए… और तेरे समाज वाले,’’ रागिनी ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, उन के एतराज की चिंता कौन करे बीबीजी, हमारे बच्चे खुश तो हम भी खुश. उन की परवाह करें या अपने बच्चों की. कल को हमारी जरूरत पर हमारे बच्चे ही काम आएंगे न कि ये मुएं समाज और परिवार वाले,’’ चंद्रा मुंह बनाती हुई बोली.

रागिनी अपलक सी चंदा को देखती रह गई. कम पढ़ीलिखी चंदा की खरी बातों ने उसे एक नई दिशा दिखा दी थी.

दूसरे दिन प्रात: नाश्ते के समय उस ने पुन: प्रदीप के सामने बात छेड़ी, ‘‘तनु और उस का परिवार हमारा देखाभाला है. लड़की भी संस्कारी है. अच्छी पढ़ीलिखी और सर्विस में है. सब से बड़ी बात हमारे बेटे को पसंद है. उस में वे सब गुण हैं, जो हमें चाहिए. केवल जाति अलग होने से क्या होता है. प्यार जातपांत देख कर नहीं होता प्रदीप. एक बार आप ठंडे दिमाग से सोच कर तो देखिए.’’

‘‘पापामम्मी को देखा है कि वे कितने जातिवादी हैं? तुम तो अच्छी तरह जानती हो. अलग जाति की बात सुन कर वे तो शादी में भी आने से मना कर देंगे. और राजीव के पापा कर्नल सिंह, क्या वे तैयार हो जाएंगे इस विवाह के लिए?” प्रदीप ने तेज स्वर में कहा.

‘‘यह राजीव भाईसाहब की समस्या है, जिसे वे स्वयं हल करेगें. हमें तो अपने बेटे की खुशी देखनी चाहिए. यह हमारे संस्कार हैं कि बेटा हम से पूछ रहा है. कल को यदि बिना पूछे कोर्ट मैरिज कर लेगा तो… क्या हम उसे अपने से अलग कर देंगे? क्या उस के बिना रह पाएंगे हम? अपनी शादी को भूल गए आप? आप ने भी तो अपनी पसंद की उसी लड़की से ही विवाह किया था, जिसे आप प्यार करते थे. सोचिए, यदि आप की और मेरी शादी नहीं हुई होती तो आप क्या करते. क्या खुश रह पाते? प्यार तो दिलों का मेल होता है प्रदीप, वह यह सब सोच कर नहीं किया जाता,’’ रागिनी ने प्रदीप को समझाते हुए कहा.

‘‘पर, हमारी शादी में जाति का कोई मुद्दा नहीं था. सब कुछ ईजी गोइंग था.’’

‘‘देखिए, जाति इतना बड़ा इश्यू नहीं है. क्या केवल जाति के कारण किसी के गुण, और अच्छाइयों को नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या जन्म के समय इनसान की कोई जाति होती है? अस्पताल में पड़े हमारे परिवार के किसी सदस्य को खून की आवश्यकता पड़ने पर क्या हम जाति देखते हैं? ये सब तो हम मनुष्यों के बनाए नियमकायदे हैं, ईश्वर के यहां सब बराबर हैं. आप स्वयं सोच कर देखिए. जाति की लड़की में ऐसा क्या होगा, जो तनु में नहीं है? अपने बच्चों के बारे में हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा. हम यदि मजबूत होंगे तो सब हमारे साथ होंगे. पहले हमें स्वयं आत्मिक रूप से मजबूत बनना होगा कि जाति कोई इश्यू नहीं है. यदि हम कमजोर पड़ेंगे तभी कोई हमारे निर्णय पर सवाल उठाएगा, वरना किसी की हमारे सामने बोलने की हिम्मत नहीं है. रहा आप के पापामम्मी का प्रश्न तो उन्हें मनाने की जिम्मेदारी मेरी है. बस मुझे सिर्फ आप का साथ चाहिए. प्लीज, आप केवल एक बार सिर्फ एक बार खुले दिमाग से सोच कर देखिए कि इस विवाह के होने में बुराई क्या है?’’ रागिनी ने प्रदीप को समझाते हुए कहा. फिर उस ने उन्हें चंदा की लड़की की गैरजाति में विवाह की बात बताते हुए कहा.

‘‘जब एक अशिक्षित कामवाली बार्ई अपने बच्चों की खुशी के बारे में सोच सकती है, तो हम क्यों नहीं प्रदीप?’’

“ठीक है, शाम को औफिस से आ कर बात करता हूं,” कह कर प्रदीप चले गए.

रागिनी को शाम का बेेसब्री से इंतजार था. सो, जैसे ही प्रदीप आए, वह चायनाश्ता ले कर टेबल पर आ कर बैठ गई.

‘‘हां, वैसे बात तो तुम्हारी सही है रागिनी, तनु अच्छी, और जानीपहचानी है. अगर कोर्ई दूसरी आई तो पता नहीं हमारे साथ कैसा व्यवहार करेगी?’’

‘‘हम ऐसे समाज के कारण अपने बेटे की खुशियों का परित्याग क्यों करें, जो सिर्फ बातें बनाना जानता है. जब तुम्हारी कामवाली बाई समाज की चिंता किए बिना अपनी लड़की की शादी दूसरी जाति में कर सकती है, तो हम जैसे शिक्षित लोगों को तो कम से कम चिंता नहीं करनी चाहिए. पर, मम्मीपापा का क्या करें. वे पुरातन विचारधारा के घोर जातिवादी हैं. उन का सहज मानना बहुत मुश्किल है,’’ प्रदीप ने गंभीर स्वर में कहा.

“अब आप सब मेरे ऊपर छोड़ दीजिए. मैं सब कर लूंगी. मुझे आप का साथ चाहिए था. अब मैं बहुत हलका अनुभव कर रही हूं. तन्मय तो सुन कर खुश हो जाएगा,” कह कर रागिनी खुश हो कर प्रदीप के गले लग गई.

‘‘दरअसल, तुम्हारे तर्क इतने ठोस होते हैं कि उन्हें काटना बहुत मुश्किल होता है. चलो तो ठीक है, मैंं आज ही औफिस के बाद राजीव से बात करता हूं. अब तो तुम ने अपने तर्कों से मुझे इतना प्रभावित कर दिया है कि यदि राजीव शादी के लिए तैयार नहीं होगा तो भी मैं उसे मना लूंगा,’’ प्रदीप ने जोश से भर कर कहा. फिर क्या था, एक माह तक दोनों परिवारों के बड़ोंबुजुर्गों के मानमनोव्वल एवं समझानेबुझाने के अथक प्रयासों के बाद सभी शादी के लिए तैयार हो गए. इस बीच समय तो मानो पंख लगा कर उड़ गया.

आज उसी यारी को रिश्तेदारी में बदलने का पहला कदम था तनु और तन्मय की सगाई की रस्म, भविष्य के सुनहरे सपने बुनतेबुनते उस की कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला.

Romantic Story : चलो फिर एक बार

Romantic Story : “हैलो कैसी हो प्रिया ?”

मेरी आवाज में बीते दिनों की कसैली यादों से उपजी नाराजगी के साथसाथ प्रिया के लिए फिक्र भी झलक रही थी. सालों तक खुद को रोकने के बाद आज आखिर मैं ने प्रिया को फोन कर ही लिया था.

दूसरी तरफ से प्रिया ने सिर्फ इतना ही कहा,” ठीक ही हूं प्रकाश.”

हमेशा की तरह हमदोनों के बीच एक अनकही खामोशी पसर गई. मैं ने ही बात आगे बढ़ाई, “सब कैसा चल रहा है ?”

” बस ठीक ही चल रहा है .”

एक बार फिर से खामोशी पसर गई थी.

“तुम मुझ से बात करना नहीं चाहती हो तो बता दो?”

“ऐसा मैं ने कब कहा? तुम ने फोन किया है तो तुम बात करो. मैं जवाब दे रही हूं न .”

“हां जवाब दे कर अहसान तो कर ही रही हो मुझ पर.” मेरा धैर्य जवाब देने लगा था.

“हां प्रकाश, अहसान ही कर रही हूं. वरना जिस तरह तुम ने मुझे बीच रास्ते छोड़ दिया था उस के बाद तो तुम्हारी आवाज से भी चिढ़ हो जाना स्वाभाविक ही है .”

“चिढ़ तो मुझे भी तुम्हारी बहुत सी बातों से है प्रिया, मगर मैं कह नहीं रहा. और हां, यह जो तुम मुझ पर इल्जाम लगा रही हो न कि मैं ने तुम्हें बीच रास्ते छोड़ दिया तो याद रखना, पहले इल्जाम तुमने लगाए थे मुझ पर. तुम ने कहा था कि मैं अपनी ऑफिस कुलीग के साथ…. जब कि तुम जानती हो यह सच नहीं था. ”

“सच क्या है और झूठ क्या इन बातों की चर्चा न ही करो तो अच्छा है. वरना तुम्हारे ऐसेऐसे चिट्ठे खोल सकती हूं जिन्हें मैं ने कभी कोर्ट में भी नहीं कहा.”

“कैसे चिट्ठों की बात कर रही हो? कहना क्या चाहती हो?”

“वही जो शायद तुम्हें याद भी न हो. याद करो वह रात जब मुझे अधूरा छोड़ कर तुम अपनी प्रेयसी के एक फोन पर दौड़े चले गए थे. यह भी परवाह नहीं की कि इस तरह मेरे प्यार का तिरस्कार कर तुम्हारा जाना मुझे कितना तोड़ देगा.”

“मैं गया था यह सच है मगर अपनी प्रेयसी के फोन पर नहीं बल्कि उस की मां की कॉल पर. तुम्हें मालूम भी है कि उस दिन अनु की तबीयत खराब थी. उस का भाई भी शहर में नहीं था. तभी तो उस की मां ने मुझे बुला लिया. जानकारी के लिए बता दूं कि मैं वहां मस्ती करने नहीं गया था. अनु को तुरंत अस्पताल ले कर भागा था.”

“हां पूरी दुनिया में अनु के लिए एक तुम ही तो थे. यदि उस का भाई नहीं था तो मैं पूछती हूं ऑफिस के बाकी लोग मर गए थे क्या ? उस के पड़ोस में कोई नहीं था क्या?

“ये बेकार की बातें जिन पर हजारों बार बहस हो चुकी है इन्हें फिर से क्यों निकाल रही हो? तुम जानती हो न वह मेरी दोस्त है .”

“मिस्टर प्रकाश बात दरअसल प्राथमिकता की होती है. तुम्हारी जिंदगी में अपनी बीवी से ज्यादा अहमियत दोस्त की है. बीवी को तो कभी अहमियत दी ही नहीं तुम ने. कभी तुम्हारी मां तुम्हारी प्राथमिकता बन जाती हैं, कभी दोस्त और कभी तुम्हारी बहन जिस ने खुद तो शादी की नहीं लेकिन मेरी गृहस्थी में आग लगाने जरूर आ जाती है.”

“खबरदार प्रिया जो फिर से मेरी बहन को ताने देने शुरू किए तो. तुम्हें पता है न कि वह एक डॉक्टर है और डॉक्टर का दायित्व बहुत अच्छी तरह निभा रही है. शादी करे न करे तुम्हें कमेंट करने का कोई हक नहीं.”

“हां हां मुझे कभी कोई हक दिया ही कहां था तुम ने. न कभी पत्नी का हक दिया और न बहू का. बस घर के काम करते रहो और घुटघुट कर जीते रहो. मेरी जिंदगी की कैसी दुर्गति बना दी तुम ने…”

कहतेकहते प्रिया रोने लगी थी. एक बार फिर से दोनों के बीच खामोशी पसर गई थी.

“प्रिया रो कर क्या जताना चाहती हो? तुम्हें दर्द मिले हैं तो क्या मैं खुश हूं? देख लो इतने बड़े घर में अकेला बैठा हुआ हूं. तुम्हारे पास तो हमारी दोनों बच्चियां हैं मगर मेरे पास वे भी नहीं हैं.” मेरी आवाज में दर्द उभर आया था.

“लेकिन मैं ने तुम्हें कभी बच्चों से मिलने से  रोका तो नहीं न.” प्रिया ने सफाई दी.

“हां तुम ने कभी रोका नहीं और दोनों मुझ से मिलने आ भी जाती थीं. मगर अब लॉकडाउन के चक्कर में उन का चेहरा देखे भी कितने दिन बीत गए.”

चाय बनाते हुए मैं ने माहौल को हल्का करने के गरज से प्रिया को सुनाया, “कामवाली भी नहीं आ रही. बर्तनकपड़े धोना, झाड़ूपोछा लगाना यह सब तो आराम से कर लेता हूं. मगर खाना बनाना मुश्किल हो जाता है. तुम जानती हो न खाना बनाना नहीं जानता मैं. एक चाय और मैगी के सिवा कुछ भी बनाना नहीं आता मुझे. तभी तो ख़ाना बनाने वाली रखी हुई थी. अब हालात ये हैं कि एक तरफ पतीले में चावल चढ़ाता हूं और दूसरी तरफ अपनी गुड़िया से फोन पर सीखसीख कर दाल चढ़ा लेता हूं. सुबह मैगी, दोपहर में दालचावल और रात में फिर से मैगी. यही खुराक खा कर गुजारा कर रहा हूं. ऊपर से आलम यह है कि कभी चावल जल जाते हैं तो कभी दाल कच्ची रह जाती है. ऐसे में तीनों वक्त मेगी का ही सहारा रह जाता है.”

मेरी बातें सुन कर अचानक ही प्रिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

“कितनी दफा कहा था तुम्हें कि कुछ किचन का काम भी सीख लो पर नहीं. उस वक्त तो मियां जी के भाव ही अलग थे. अब भोगो. मुझे क्या सुना रहे हो?”

मैं ने अपनी बात जारी रखी,” लॉकडाउन से पहले तो गुड़िया और मिनी को मुझ पर तरस आ जाता था. मेरे पीछे से डुप्लीकेट चाबी से घर में घुस कर हलवा, खीर, कढ़ी जैसी स्वादिष्ट चीजें रख जाया करती थीं. मगर अब केवल व्हाट्सएप पर ही इन चीजों का दर्शन कराती हैं.”

“वैसे तुम्हें बता दूं कि तुम्हारे घर हलवापूरी, खीर वगैरह मैं ही भिजवाती थी. तरस मुझे भी आता है तुम पर.”

“सच प्रिया?”

एक बार फिर हमारे बीच खामोशी की पतली चादर बिछ गई .दोनों की आंखें नम हो रही थीं.

“वैसे सोचने बैठती हूं तो कभीकभी तुम्हारी बहुत सी बातें याद भी आती हैं. तुम्हारा सरप्राइज़ देने का अंदाज, तुम्हारा बच्चों की तरह जिद करना, मचलना, तुम्हारा रात में देर से आना और अपनी बाहों में भर कर सॉरी कहना, तुम्हारा वह मदमस्त सा प्यार, तुम्हारा मुस्कुराना… पर क्या फायदा ? सब खत्म हो गया. तुम ने सब खत्म कर दिया.”

“खत्म मैं ने नहीं तुम ने किया है प्रिया. मैं तो सब कुछ सहेजना चाहता था मगर तुम्हारी शक की कोई दवा नहीं थी. मेरे साथ हर बात पर झगड़ने लगी थी तुम.” मैं ने अपनी बात रखी.

“झगड़े और शक की बात छोड़ो, जिस तरह छोटीछोटी बातों पर तुम मेरे घर वालों तक पहुंच जाते थे, उन की इज्जत की धज्जियां उड़ा देते थे, क्या वह सही था? कोर्ट में भी जिस तरह के आरोप तुम ने मुझ पर लगाए, क्या वे सब सही थे ?”

“सहीगलत सोच कर क्या करना है? बस अपना ख्याल रखो. कहीं न कहीं अभी मैं तुम्हारी खुशियों और सुंदर भविष्य की कामना करता हूं क्यों कि मेरे बच्चों की जिंदगी तुम से जुड़ी हुई है और फिर देखो न तुम से मिले हुए इतने साल हो गए . तलाक के लिए कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने में भी हम ने बहुत समय लगाया. मगर आजकल मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगी है . तलाक के उन सालों का समय इतना बड़ा नहीं लगा था जितने बड़े लॉकडाउन के ये कुछ दिन लग रहे हैं. दिल कर रहा है कि लौकडाउन के बाद सब से पहले तुम्हें देखूं. पता नहीं क्यों सब कुछ खत्म होने के बाद भी दिल में ऐसी इच्छा क्यों हो रही है.” मैं ने कहा तो प्रिया ने भी अपने दिल का हाल सुनाया.

“कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी है प्रकाश. हम दोनों ने कोर्ट में एकदूसरे के खिलाफ कितने जहर उगले. कितने इल्जाम लगाए. मगर कहीं न कहीं मेरा दिल भी तुम से उसी तरह मिलने की आस लगाए बैठा है जैसा झगड़ों के पहले मिला करते थे.”

“मेरा वश चलता तो अपनी जिंदगी की किताब से पुराने झगड़े वाले, तलाक वाले और नोटिस मिलने से ले कर कोर्ट की चक्करबाजी वाले दिन पूरी तरह मिटा देता. केवल वे ही खूबसूरत दिन हमारी जिंदगी में होते जब दोनों बच्चियों के जन्म के बाद हमारे दामन में दुनिया की सारी खुशियां सिमट आई थी.”

“प्रकाश मैं कोशिश करूंगी एक बार फिर से तुम्हारा यह सपना पूरा हो जाए और हम एकदूसरे को देख कर मुंह फेरने के बजाए गले लग जाएं. चलो मैं फोन रखती हूं. तब तक तुम अपनी मैगी बना कर खा लो.”

प्रिया की यह बात सुन कर मैं हंस पड़ा था. दिल में आशा की एक नई किरण चमकी थी. फोन रख कर मैं सुकून से प्रिया की मीठी यादों में खो गया.

Rajesh Khanna : आज के अभिनेताओं से अलग संदेश देने वाला सुपरस्टार

Rajesh Khanna : राजेश खन्ना, जिन्हें भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार माना जाता है, ने अपनी रोमांटिक अदाओं, मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय और यादगार संवादों के जरिए दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी. उन का कैरियर न केवल फिल्मी परदे पर बल्कि भारतीय समाज और संस्कृति पर भी गहरा प्रभाव डालने वाला रहा. उन की फिल्मों ने न केवल बौक्स औफिस पर धमाल मचाया बल्कि उन्होंने अपनी एक ऐसी छवि गढ़ी जो आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है.

सदियों से राजा बड़ी सावधानी से अपने दूतों को चुनते थे जो दूसरे राज्य के संदेश दे सकें. संदेश की तरह संदेशवाहक भी हमेशा महत्त्व का रहा है और उस का व्यक्तित्व, उस की वाक्पटुता, उस की चालढाल संदेश के महत्त्व को घटाती व बढ़ाती रही है. धर्मों ने तो संदेशवाहकों को देवता बना डाला और संदेश को भूल कर संदेशवाहक को पूजने लगे हालांकि धर्मों के मामले में संदेशवाहक असल में खुद संदेश गढ़ते रहे हैं क्योंकि यह सोचना कि किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें संदेश दे कर भेजा है, अपनेआप में बेवकूफी है लेकिन चारपांच हजार वर्षों से मानवता उस की शिकार रही है. संदेशवाहकों की मृत्यु के बाद भी संदेशवाहकों के एजेंट उन के बुत बना कर या संदेशवाहक के बनावटी संदेश को ले कर धर्म का अपना धंधा सफलता से चलाते रहे हैं.

फिल्मों में अभिनेता सिर्फ संदेशवाहक होता है क्योंकि संदेश तो कहानी लेखक, पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक द्वारा सम्मिलित बनाया होता है. अभिनेता राजेश खन्ना ने अपनी फिल्मों में एक नायाब संदेशवाहक का काम किया. आज एक के बाद एक संदेशवाहक तोड़मरोड़ कर, विभाजनकारी, अंधविश्वासी संदेश लगातार अपने व्यक्तित्व के सहारे परोस रहे हैं, ऐसे में राजेश खन्ना की जैसी फिल्मों की जरूरत महसूस की जा रही है. उन की फिल्में समाज में सामाजिकता और पारिवारिकता का जो संदेश पहुंचा रही थीं उस का श्रेय उन फिल्मों की कहानी के लेखकों को जितना जाता है उस से ज्यादा तब के सुपरस्टार राजेश खन्ना को ज्यादा जाता है.

राजेश खन्ना की फिल्मों में मारधाड़ न होना, एंग्रीयंग मैन की छवि का न उकेरना, जेम्स बौंड की नकल न करना, केवल सफलअसफल प्रेम की कहानी दे कर मनोरंजन न करना एक खास विशेषता है जो आज के अभिनेताओं से उन की पहचान को अलग करती है.

राजेश खन्ना ने सौ पर भारी एक होने का रोल कम अपनाया. उन की फिल्मों में सामाजिक, पारिवारिक संदेश हमेशा रहे, जीवन का फलसफा एक के बाद एक सामने आया. 1970 और 1980 के दशकों में उन की फिल्मों को देख कर बड़ी हुई पीढ़ी ने एक सभ्य समाज का निर्माण किया जिस ने 1991 के आर्थिक सुधारों का पूरा फायदा उठा कर देश को गरीबी व मुफलिसी से उबारा और लगातार थोपे जा रहे धार्मिक मारकाट के नारों के बीच आम जनता को शांत रखा.

आज के अभिनेताओं में वह बात नहीं

आज के अभिनेतागण अजय देवगन, अक्षय कुमार और विक्की कौशल व अन्य फिल्मों के सहारे सामाजिक विघटन का संदेश दे रहे हैं. अभिनेत्री व फिल्म निर्मात्री कंगना रनौत लगातार एजेंडे वाली फिल्में कर रही हैं. अनुपम खेर बेहतरीन ऐक्टर होते हुए भी अपने व्यक्तित्व के सहारे जनता पर पोंगापंथी विचार थोप रहे हैं. ऐसा लगता है कि अभिनेता अपनी बात कहने के लिए फिल्मों की कथा लिखवा रहे हैं ताकि उन की छवि में एक खास रंग भरा रहे जिसे भुनाने में सफलता मिलती रहे, सामाजिकता एकता चाहे जाए भाड़ में.

राजेश खन्ना ने फिल्मों की कहानियां लिखवाईं या उन्हें उन फिल्मों के लिए चुना गया जो कोई पौजिटिव संदेश दे रही थीं, इस के बारे में कहना मुश्किल है लेकिन जो भी संदेश था उसे परदे पर राजेश खन्ना ने अति सफल या असफल फिल्मों के जरिए पहुंचाया. राजेश खन्ना लोगों के दिलों में केवल अपने चेहरे या ऐक्टिंग के चलते नहीं बसे बल्कि उन फिल्मों की कहानियों के कारण भी जिन का समाज पर गहरा असर पड़ा. यही वजह थी कि उन्हें उस वक्त का सुपरस्टार माना गया, स्टारों का स्टार.

दर्शक जब सिनेमाहौल में होता है तो वह भूल जाता है कि अभिनेता जो शब्द बोल रहा है वे किसी और ने लिखे हैं. अभिनेता के बोले शब्द अगर उस के मन को गहराई तक छूते हैं तो वह रंगरूप, अभिनय, फोटोग्राफी सब भूल जाता है. राजेश खन्ना की फिल्मों को आज फिर याद करना और उन फिल्मों को उन के व्यक्तिगत जीवन से अलग करना जरूरी है क्योंकि आज ऐसी फिल्मों की बाढ़ आई हुई है जो फालतू के काल्पनिक मुद्दों पर विवाद खड़ा कर रही हैं. राजेश खन्ना की फिल्में आज भी सुकून देती हैं.

सुपरस्टार राजेश खन्ना ने अपने कैरियर में रोमांटिक फिल्मों से हट कर कोई फिल्म नहीं की. दर्शक परदे पर उन की रोमांटिक अदाएं, उन के नृत्य करने की अदा, नृत्य के समय बालों और कमर को हिलाने का अंदाज, हाथों का अंदाज आदि को देखने के लिए पागल रहता था. इतना ही नहीं, राजेश खन्ना हमेशा अभिनय कैरियर की ऊंचाइयों पर रहे. वे कभी भी ऐसी फिल्मों का हिस्सा नहीं बने जिन्हें बौक्स औफिस पर पसंद न किया गया हो और न ही उन्होंने ऐक्शन या किसी अन्य जौनर की फिल्म की.

‘आराधना’ से ‘अवतार’ तक के किरदार

राजेश खन्ना को याद करने की कई वजहें हैं. उन में से पहली है बौलीवुड का आज अपने सब से खराब दौर से गुजरना. दूसरी वजह है मुद्दत से फिल्म इंडस्ट्री का एक और सुपरस्टार के लिए तरसना. तीसरी वजह जो उन की याद दिलाती है वह है उन के निभाए किरदार जिन से आज का दर्शक भी खुद को रिलेट करता है.

बिलाशक एक वक्त में राजेश खन्ना ने धड़ाधड़ फिल्में साइन कीं लेकिन आंख बंद कर नहीं कीं बल्कि कहानी में अपने किरदार को ठोकबजा कर कीं कि वे आम लोगों के कितने नजदीक हैं. अगर धड़ाधड़ फिल्में साइन करना सुपरस्टार होने की निशानी और पहचान होती तो मिथुन चक्रवर्ती के सिर यह ताज होता जिन्होंने राजेश खन्ना से दोगुनी फिल्मों में काम किया लेकिन एकाधदो फिल्मों को छोड़ कर किसी को यह याद नहीं कि उन्होंने कौनकौन सी भूमिकाएं निभाई हैं.

राजेश खन्ना ने इस बात का ध्यान रखा और उन का निभाया लगभग हर चरित्र दर्शकों के दिलोदिमाग में उतरता गया, फिर चाहे वह ‘आराधना’ के अरुण और सूरज हों, ‘बाबर्ची’ का रघु हो, ‘रोटी’ का मंगल सिंह हो, ‘अमर प्रेम’ का आनंद बाबू हो या ‘अवतार’ का अवतार कृष्ण. फिर ‘आनंद’ के आनंद का तो कहना ही क्या.

शुरुआत ‘आराधना’ से की जाए तो राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की लवस्टोरी बेहद नाटकीय ढंग से शुरू होती है जब नायिका वंदना (शर्मिला टैगोर) घर आए अरुण (राजेश खन्ना) के ऊपर बाल्टीभर पानी फेंक देती है. धीरेधीरे दोनों में प्यार हो जाता है और दोनों गुपचुप मंदिर में न केवल शादी कर लेते हैं बल्कि सुहागरात भी मना डालते हैं. अरुण एयरफोर्स में पायलट है जिसे लड़ाई में जाना पड़ जाता है लेकिन फिर वह लौट कर नहीं आता. इस शादी की खबर किसी को नहीं होती और वंदना प्रैग्नैंट हो जाती है.

कुंआरी बेटी के मां बनने की खबर से वंदना के डाक्टर पिता बहुत ही गहरे सदमे में आ जाते हैं और उन की मौत हो जाती है. वंदना बच्चे को जन्म देती है और लोकलाज के डर से उसे अनाथाश्रम में छोड़ जाती है जहां से उसे एक दंपती गोद ले लेते हैं. शक्ति सामंत निर्देशित ‘आराधना’ में वे तमाम सामाजिक पेंचोखम हैं जो 70 के दशक की पहचान थे. नाटकीय तरीके से वंदना उसी घर में नौकरानी बन कर रहने लगती है जहां उस का बेटा सूरज (राजेश खन्ना का डबल रोल) भी पिता की तरह पायलट बन कर आता है और उस की इज्जत बचाने के लिए अपने ही मामा का खून कर देता है, जिस का आरोप वंदना अपने ऊपर ले लेती है और जेल चली जाती है. ‘आराधना’ में दोनों ही किरदारों में राजेश खन्ना ने इतना सशक्त अभिनय किया था कि दर्शक मंत्रमुग्ध से फिल्म से बंधे रहते हैं. फिल्म का गीत ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू…’ आज की युवा पीढ़ी भी शिद्दत से गुनगुनाती है, फिर भले ही उस ने फिल्म देखी या न देखी हो.

राजेश खन्ना का स्टारडम हालांकि 1969 में प्रदर्शित नरेंद्र बेदी की फिल्म ‘बंधन’ से आकार लेने लगा था जो शुद्ध सस्पैंस मूवी थी.

आगे का अंश बौक्स के बाद

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‘‘हर औरत पैसों के पीछे नहीं रहती’’ -अनीता अडवाणी

राजेश खन्ना के अंतिम दिनों में साथ रहीं एक महिला जिन्हें परिवार की सिर्फ दुत्कार मिली

अनीता अडवाणी: शख्स एक, पहचान अनेक. अनीता अडवाणी की पहचान यह है कि वे बौलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ 10 से 12 वर्षों तक लिवइन रिलेशनशिप में रहीं. अनीता खुद को राजेश खन्ना की ‘सरोगेट पत्नी’ बताती हैं. अनीता दावा करती हैं कि वे राजेश खन्ना के घर ‘आशीर्वाद’ का प्रबंधन करती थीं, उन के अंतिम वर्षों के दौरान उन की देखभाल करती थीं. यहां तक कि उन के लिए करवाचौथ का व्रत भी रखती थीं वे.

राजेश खन्ना के देहांत के बाद अनीता को बाहर फेंक दिया गया जिस के लिए वे पिछले 13 वर्षों से अदालती लड़ाई लड़ रही हैं. अनीता अडवाणी की दूसरी पहचान यह है कि वे फिलिपींस के पूर्व राष्ट्रपति फर्डिनैंड मार्कोस की भांजी हैं. मार्कोस परिवार से यह संबंध उन के व्यक्तिगत इतिहास में एक दिलचस्प अंतर्राष्ट्रीय आयाम जोड़ता है. तीसरी पहचान यह कि अनीता अडवाणी ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था. चौथी पहचान यह कि राजेंद्र कुमार, सलमान खान के पिता सलीम खान, श्याम बेनेगल व धर्मेंद्र तक सैकड़ों कलाकारों को मुंबई के मरीना गैस्ट हाउस में शरण देने वाली अनीता की मौसी थीं. अनीता के पिता जयपुर में बहुत बड़े ट्रांसपोर्टर थे. अनीता की मां की सहेलियों में जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी थीं.

अब अनीता अडवाणी ने बौलीवुड के सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ बिताए गए अपने 12 वर्षों के जीवन व यादों के साथ कई सच बताने वाली किताब ‘द एंडियरिंगली विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना’ लिखी है, जिसे बाजार में आने से एक दिन पहले ही कुछ लोगों ने प्रकाशक के साथ साजिश रच कर गायब करा दिया. हाल ही में इन सभी प्रकरणों को ले कर उन से हमारी लंबी बातचीत हुई. पेश हैं अंश:

आप को ले कर कई तरह की चर्चाएं हैं, इन में फिलिपींस, जयपुर व मुंबई तक के संबंध हैं. आप इस पर रोशनी डालेंगी?

मेरा जन्म जयपुर में हुआ. जयपुर में हमारी जिंदगी एकदम फैंटेसी जैसी रही. जिंदगी बहुत खूबसूरत थी. मेरी मां बहुत सुंदर थीं. मेरे डैडी बहुत मेहनती व अच्छे इंसान थे. मेरी मां उच्चशिक्षित आधुनिक महिला थीं. वे हिंदी व सिंधी के साथ इंग्लिश, फ्रैंच भाषाएं भी बोलती थीं. मेरी मां के पिताजी मतलब मेरे नानाजी कराची में जज थे. यानी हमारा परिवार बहुत बड़ा और क्लासी था. मेरी मम्मी जयपुर में सभी बड़े घरानों के क्लबों की सदस्या थीं. ऐसे मातापिता की संतान होने के नाते हम सभी बहुत ही ज्यादा स्टाइलिश बच्चे थे. हम राम बाग पैलेस भी जाया करते थे. महारानी गायत्री देवी व मेरी मां आपस में अच्छी सहेलियां थीं.

मेरे मामा इंग्लिश साहित्य के बहुत अच्छे विद्वान थे. वे अमेरिका में इंग्लिश साहित्य के प्रोफैसर थे. वहां पर एक फिलिपीनी महिला इंग्लिश के साथ फिलिपीनो भी पढ़ती थी जो मेरे मामा की बहुत बड़ी फैन थी. उस के पिता बहुत बड़े राजनेता थे. मार्कोस ओर रैम्पोस मौसेरे भाई थे. उन फिलिपीनो महिला को मेरे मामा मार्कोस से प्यार हो गया. दोनों की शादी हो गई. फिर मेरी वे आंटी सीनेटर बनीं. उन के भाई फिलिपींस के राष्ट्रपति बने. वे हमारे परिवार के बहुत करीब थीं. मुंबई उन का आनाजाना था. उन के 3 बच्चे हैं. हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं. मैं फिलिपींस जा चुकी हूं. वहां सीनेट में भी गई थी. मैं ने इस के बारे में अपनी किताब में भी लिखा है.

मेरी मौसी का मुंबई के बांद्रा पश्चिम में रेलवे स्टेशन के पास ही मरीना गैस्ट हाउस था, जोकि हर फिल्मी स्ट्रगलर के लिए काफी लक्की था. हम जब भी मुंबई आतीं तो अपनी मौसी के पास मरीना गैस्ट हाउस में ही रुकती थीं. मेरे लिए वे बड़ी मां थीं. मुझ से बहुत प्यार करती थीं. मेरे लिए मां व मौसी में कोई फर्क नहीं था. मेरी मौसी अपने साथ रखती थीं. वे मुझे गोद लेना चाहती थीं. मैं तो मौसी के साथ रहना चाहती थी पर मेरे पिताजी मुझे छोड़ने को तैयार नहीं थे. मैं तो बच्ची थी. मरीना गैस्ट हाउस में रुकने वालों को पहचानती नहीं थी पर बाद में पता चला कि मरीना गैस्ट हाउस में राजेंद्र कुमार, लेखक व सलमान खान के पिता सलीम खान, श्याम बेनेगल, कैमरामैन, अशोक मेहता, राज मार्कोस, निर्देशक ब्रज, सुरेंद्र, धर्मेंद्र सहित कई लोग रहे हैं. मुझे तो इस वक्त सभी के नाम भी याद नहीं आ रहे.

इतना ही नहीं, गुलजार सहित कई हस्तियां शाम को वहां पर जमा होती थीं. संजीव कुमार तो कभीकभी आ कर 2 लोगों के बीच सो जाते थे कि यह जगह बहुत लक्की है. जब मेरी पढ़ाई शुरू हो गई तो मैं गरमी की छुट्टियों में मुंबई आया करती थी. मेरी मौसी बहुत अच्छी थीं. मैं ने फिल्मों में अभिनय भी किया. मैं ने 12 साल राजेश खन्ना के साथ गुजारे. उन के लिए करवाचौथ का व्रत रखती थी. राजेश खन्ना के देहांत के बाद मुझे बदनाम किया गया. मैं ने अपनी यादों व सच को सामने लाने के लिए एक किताब ‘द एंडियरिंगली विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना’ लिखी, जिसे साजिशन दबाया जा रहा है.

तो क्या मरीना गैस्ट हाउस की वजह से आप ने फिल्मों में अभिनय किया था?

जब गरमी की छुट्टियों में मैं मुंबई आती तो मरीना में ही रुकती थी, जहां फिल्म वालों का जमावड़ा लगा रहता था. मुझे वहीं पर फिल्मों में अभिनय करने के औफर मिलने लगे थे. मेरे लिए अपने घर जैसा माहौल था. मेरा एक फिल्म के लिए वहीं पर स्क्रीन टैस्ट हुआ था. मेरी फिल्मों में काम करने की इच्छा नहीं थी. लेकिन राजेश खन्ना की कुछ फिल्मों की शूटिंग देखने के बाद मेरे अंदर फिल्मों के प्रति रुचि पैदा हुई. मैं ने लगभग 13 साल की उम्र में पहली बार राजेश खन्ना की किसी फिल्म की शूटिंग देखी थी. मैं ने बहुत ज्यादा फिल्मों में अभिनय नहीं किया था. मुझे लगता है कि मैं ने ‘चोरनी’ व ‘आओ प्यार करें’ जैसी 4-5 फिल्मों में अभिनय किया था. फिल्म ‘शालीमार’ में मैं ने केवल डांस किया था. यह बहुत खास गाना था. केवल एक माह तक इस की रिहर्सल चली थी. फिल्म ‘साजिश’ में मेरा बहुत अच्छा किरदार था. उस के बाद मैं ने कई बड़ीबड़ी फिल्में साइन की थीं पर मुझे फिल्मी माहौल पसंद नहीं था, इसलिए मैं ने दूरी बना ली थी. आप भी जानते होंगे कि यहां पर कास्टिंग काउच की बड़ी समस्या है.

तो आप ने फिल्में छोड़ दीं?

जी, माहौल की वजह से. लोगों की जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें पूरा करना मेरे वश की बात ही नहीं थी. उन दिनों बौलीवुड में जिस तरह की बातें चलती थीं, वे मैं सुनना भी नहीं चाहती थी.

जब आप फिल्मों में अभिनय कर रही थीं तभी राजेश खन्ना से आप की मुलाकात हुई थी?

नहीं. पहली मुलाकात बचपन में हुई थी. मैं अपने पिता के साथ मुंबई आई हुई थी. उस वक्त मेरी उम्र 12 से 13 साल रही होगी. मेरी काफी नजदीकी सहेली राजेश खन्ना की शूटिंग देखने जा रही थी तो उस के साथ मैं भी चली गई. मेरी सहेली के अंकलजी, राजेश खन्ना से परिचित थे. वहां पहुंचे तो पता चला कि उन की शूटिंग खत्म हो गई और राजेश खन्नाजी वापस जा रहे हैं. मैं ने कहा कि मुझे तो राजेश खन्ना को देखना था तब सहेली के अंकल ने राजेश खन्ना की गाड़ी का पीछा किया और हम लोग आशीर्वाद बंगले पर पहुंच गए.

सहेली के अंकल पहले अकेले ही अंदर गए और बात कर के वापस आए. फिर हमें साथ में ले कर बंगले के अंदर गए. हमें राजेश खन्ना के निजी डाइनिंग हौल में बैठाया गया था. तभी राजेश खन्ना ने दरवाजा खोल कर मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किए. उन्हें देखते ही मुझे लगा कि मेरे दिल की धड़कन बंद हो गई हो. राजेश खन्नाजी बहुत हैंडसम लग रहे थे. हम उन के गले लगे. कुछ देर उन से बातचीत की. उन्होंने हमें नाश्ता कराया, चाय पिलाई. दूसरे दिन शूटिंग देखने के लिए बुलाया.

आप ने राजेश खन्ना के साथ आशीर्वाद बंगला में कब रहना स्वीकार किया?

जब डैस्टिनी 2 लोगों को मिलाना चाहती है तो वे मिल जाते हैं. जब मैं उन से पहली बार मिली थी तभी उन्होंने कुछ अलग अंदाज में मेरी तरफ देखा था और उस वक्त ऐसा लगा था जैसे कि मेरी जान ही चली गई हो. वह ऐसा पल था जो मेरे दिल में रह गया था. उस के बाद तो हम जब भी मुंबई आते, उन से मुलाकातें होती रहीं. बाकी आप मेरी किताब में पढ़ लीजिएगा.

राजेश खन्ना के निधन के 12 साल पूरे होने के बाद उन पर किताब लिखने की कोई खास वजह?

किताब की नींव तो राजेश खन्ना उर्फ काकाजी के जीवित रहते ही पड़ गई थी. उन दिनों कई कलाकारों की आत्मकथारूपी किताबें बाजार में आ रही थीं. मैं ने काका से भी अपनी आत्मकथा लिखने के लिए कहा था. मैं ने उन से कहा था कि वे बोलते जाएं, मैं लिखती रहूंगी पर उन की जिद थी कि वे खुद ही लिखेंगें पर वह दिन नहीं आया और वे बिना किताब लिखे ही इस संसार से चले गए. उन के निधन के बाद लोग मेरे व काका के बारे में अनापशनाप बकने लगे. किसी ने कहा कि काकाजी का घर तो इनकम टैक्स विभाग ने सील कर दिया था. काका के पास बैठने तक की जगह नहीं थी. मतलब लोग पता नहीं कहां से अजीबोगरीब कहानियां ले कर आ गए थे जबकि हकीकत यह है कि काका का घर कभी भी सील नहीं किया गया था. ये सब वाहियात बातें हैं. मेरे बारे में लोग कहने लगे कि यह तो काका के बैडरूम तक कभी नहीं गई. इस ने बैडरूम की शक्ल तक नहीं देखी. कुछ लोगों को मैं ने जवाब दिया कि हम लोग सड़क पर ही बैठे रहते थे. यह सब सुन कर मेरे अंदर से टीस उठी कि मैं दुनिया को हकीकत बता दूं. इसी बात ने मुझ से यह किताब लिखवा दी. यह पहला भाग है, दूसरा भाग आना बाकी है.

राजेश खन्ना को जिस वक्त सहारा चाहिए था, उस वक्त आप ने सहारा दिया?

नहीं. मैं ने जो किया वह अपनी खुशी से किया. मैं ने उन के साथ रह कर उन की आंखों में जो चमक हुआ करती थी, वह वापस लाने की कोशिश की. वह स्पार्क लाने के लिए मैं ने बहुत जद्दोजेहद की. राजेश खन्ना के ढेर सारे नौटी तरीके थे. राजेश खन्ना के फैंस जो यह जानना व सीखना चाहते हैं कि राजेश खन्ना किस तरह के इंसान थे और किस तरह लोगों को अपना बनाते थे तो उन्हें मेरी यह किताब पढ़नी चाहिए.

किताब का नाम अजीब सा?

इस का नाम है ‘द एंडियरिंग विक्ड वेज औफ राजेश खन्ना.’ उन के काम करने के अपने तरीके थे, जिन्हें वे खुद कभीकभी विक्ड बोलते थे. उन सभी तरीकों को मैं ने अपनी इस किताब का हिस्सा बनाया है. एंडियरिंग का अर्थ ‘बहुत प्यारे’ है. किताब लिखने के बाद इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए मैं ने प्रकाशक तलाशा. उस के साथ वकीलों की मदद से एक एग्रीमैंट हुआ, जिस के अनुसार इस किताब से संबंधित कोई भी जानकारी वे किसी को भी नहीं दे सकते. फिर डेढ़ वर्ष तक एडिटिंग का काम चला. कवर पर मैं ने अपनी राय दी. 29 दिसंबर, 2024 को हैदराबाद में 9वें निजाम के हाथों इस किताब को रिलीज किया. अमेजन पर किताब को रिलीज करना था, इसलिए मैं ने पोस्टर बना कर दिए और प्रकाशक ये सारे पोस्टर मेरे पास हैदराबाद में पहुंचाने वाले थे लेकिन उस ने सारा काम बिगाड़ दिया.

28 दिसंबर की शाम मैं निजाम के 300 वर्ष पूरे होने के कार्यक्रम में मौजूद थी, जहां मुझे खबर मिली कि किताब तो रिलीज हो गई. मैं तुरंत कार्यक्रम से बाहर आई तो देखा कि सारे पोस्टर मेरे खिलाफ थे. पोस्टर में लिखा था, ‘अनीता अडवाणी एंड राकेश खन्ना’. इतना ही नहीं, पोस्टर में मुझे बदनाम करने वाली बातें थीं कि यह किताब झूठी है. इस में काल्पनिक कहानियां हैं. सबकुछ झूठ लिखा हुआ है. मैं तो हैरान रह गई कि मेरी किताब में राकेश खन्ना कौन है? मैं ने तो सबकुछ सच लिखा है, फिर यह काल्पनिक क्यों कहा गया?

मैं ने तुरंत प्रकाशक को फोन किया पर किसी ने भी मेरा फोन नहीं उठाया. मैं ने कई जगह फोन किया. अंत में प्रकाशक ने सौरी बोलते हुए कहा कि उन की इंटर्न ने टाइपिंग मिस्टेक कर दी. मैं ने कहा कि यह गलती नहीं बल्कि आप लोगों की चाल है, जो मेरी समझ में आ रही है. मैं ने अदालत में घसीटने की धमकी दी. अब तो मैं ने उन्हें नोटिस भी भेज दिया है. उन्होंने अमेजन में जो किताब बिक्री के लिए पोस्टर दिया, उस में नाम मेरी किताब का है, मगर उस के नीचे फोटो किसी अन्य किताब की है. प्रकाशक ने एग्रीमैंट की सारी शर्तें तोड़ दीं और मेरी बदनामी कर दी. इतना ही नहीं, इस किताब को उन्होंने ‘प्रतिलिपि’ पर फ्री ईबुक के रूप में रिलीज कर दिया. मैं तो बहुत रोई.

प्रकाशक ने ऐसा क्यों किया?

यह मुझे बदनाम व बरबाद करने की कुछ लोगों की साजिश है. मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि एक प्रकाशक अपनी किताब को खराब क्यों करेगा? कोई है जो उन से ऐसा करवा रहा है. लेकिन आज नहीं तो कल, लोग पूछेंगे कि मेरी किताब कहां हैं? मैं तो चाहती हूं कि पूरी दुनिया को पता लगे कि राजेश खन्ना की किताब को गायब करने में किस का हाथ है? मेरा मानना है कि कुछ लोग राजेश खन्ना पर लिखी मेरी इस किताब को हर हाल में दबाने में लगे हुए हैं.

इस किताब की क्या खासीयत है?

इस में बहुत नईनई चीजें मैं ने डाली हैं. एक तो आप इस में राजेश खन्ना की आवाज सुन सकते हैं. इस में मैं ने क्यूआर कोड डाले हैं. अगर आप क्लिक करेंगे, स्कैन करेंगे तो आप को राजेश खन्ना की आवाज सुनाई देगी. कभीकभी वे मुझ से बच्चों की तरह बात करते थे. आज तक किसी ने उन को बच्चों की तरह बात करते हुए नहीं सुना होगा कि वे तोतली सी बच्चों की तरह बात कर रहे हैं तो वे सारी चीजें, लाइफ में वे जिस तरह के इंसान थे, उन का बचपन, उन का कभी लड़ना, कभी दादागीरी से बोलना कि भूख लगी है आदि तरह के संवाद आप सुन सकेंगे. वे कैसे बात करते थे, कभी कहते कि सर्दी लग रही है तो उन के वह एंटीक्स मुझे बहुत पसंद थे और मैं वह सब रिकौर्ड करती थी. फिर जब मैं उन से लड़ाई कर के अपने घर आती थी तो मैं उन चीजों को मिस करती थी. उस वक्त नयानया फोन निकला था. मैं ने रिकौर्डिंग सीखी थी. राजेश खन्ना भी बहुत ज्यादा एक्साइटेड थे. बहुत सी रिकौर्डिंग मेरी खो गईं.

राजेश खन्ना की मौत के बाद कहा गया था कि आप आशीर्वाद पर कब्जा करना चाहती हैं?

यहां लोग सिर्फ औरत को बदनाम करते हैं. सच यह है कि हर औरत पैसों के पीछे नहीं होती है. अरे, मैं क्या कर लेती बंगले का. मैं तो अकेली घर में रहती हूं. मैं तो सिर्फ चाहती थी कि उन की तमन्ना पूरी हो. उन का म्यूजियम बने. मैं हमेशा से ही शुरू से ही म्यूजियम के लिए लड़ती आई हूं क्योंकि हम ने उस के पीछे काफी मेहनत की है.

राजेशजी की तमन्ना थी कि वे रहें न रहें, उन का बंगला म्यूजिम बने, लोग आएं तो उन की मौजूदगी को महसूस करें कि काका यहां रहते थे, यहां सोते थे, यहां खाते थे. उन की इतनी तमन्ना थी. मेरा तो दिल टूट गया कि ऐसा नहीं हो पाया और घर ही टूट गया. लोगों का क्या है, कुछ तो लोग कहेंगे ही, लोगों का काम है कहना और बुरा ही कहना औरत के लिए. अगर वह अपना हक मांगे तो वह बुरी हो जाती है. क्यों भाई? अपने हक के लिए औरत नहीं लड़ सकती? क्यों नहीं लड़ना चाहिए, अगर आप अपने लिए नहीं लड़ सकते तो फिर किस के लिए लड़ेंगे?

जिस दिन आशीर्वाद तोड़ा गया, उस दिन?

उस दिन आशीर्वाद बंगले पर नहीं, मेरे दिल पर हथौड़ा चला था. मुझ से उस का टूटना देखा नहीं गया. मैं ने काफी सारी फोटोज लीं. मैं काफी देर तक वहां खड़ी रही. बहुत बुरा किया. इन लोगों ने घर को तोड़ कर बहुत बुरा किया. वह उन की एक निशानी थी, वहां लोग आ कर उन से मिलते थे. लोग मुझे फोन करते थे कि कार्टर रोड की शान ही खत्म हो गई. एक हार्डहार्टेड आदमी ही ऐसा कर सकता है. काका अपनी जिंदगी के अंतिम वक्त तक बोलते रहे कि म्यूजियम बनाएंगे. अब तो सबकुछ बदल गया. जब वे बीमार हो गए तो खुद को ही भूलने लगे थे. उन को समझ नहीं आता था कि कौन है? मैं पास में होती तो भी पूछा करते थे कि अनीता कहां है? उस वक्त उन की समझ में नहीं आ रहा था. तभी दूसरी वसीयत बना ली गई.

आप के अंदर अभिनय के अलावा भी काफी खूबियां हैं?

जी हां, मैं ड्रैस डिजाइनर भी हूं. लिंकिंग रोड पर ही अपना ड्रैस डिजाइनर का औफिस हुआ करता था. ज्वैलरी भी डिजाइन की. ज्वैलरी के पाउच हजारों में बनाए होंगे. मैं इंटीरियर डिजाइन भी करती हूं. राजेश खन्ना की पत्नी की तरह आशीर्वाद बंगले में रहते हुए मैं ने पूरे बंगले का इंटीरियर डिजाइन करने के साथ ही पूरे बंगले को सजाया था. मेरा अपना कैफे भी रहा है. फिर धीरेधीरे सबकुछ छोड़ दिया.

आप ने राजेश खन्ना के साथ 10 से 12 साल गुजारे पर खबरें छप रही हैं कि राजेश खन्ना अपने अंतिम समय में रोते थे?

जो ऐसा कह या लिख रहा है, वह झूठ बोल रहा है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्हें रोना आया हो. यह बात तो मैं ने भी कभी नहीं कही. राजेश खन्ना बहुत ही ज्यादा स्ट्रौंग इंसान थे. जब उन्हें अपनी बीमारी का पता चला तब भी वे निराश नहीं हुए. जब अस्पताल में पहली बार उन्हें खून चढ़ाया जा रहा था तब उन की आंखों में आंसू आए थे. उन्होंने कहा था कि पता नहीं किस का खून मेरे शरीर के अंदर जा रहा है. अन्यथा अस्पताल में उन्हें बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी, पर आंखों में आंसू नहीं आए.

राजेश खन्ना ने शराब ऐसे छोड़ी जैसे उन्होंने कभी पी ही न हो. हम अकसर देखते हैं कि इंसान शराब छोड़ नहीं पाता. छोड़ने के बाद भी वह कभीकभार पी लेता है. डाक्टर ने भी कभीकभार एक पैग लेने की इजाजत दी थी पर राजेश खन्ना ने शराब का सेवन छोड़ने के बाद कभी एक बूंद भी नहीं पी. उन का विलपावर कमाल का था. यह बात मेरे लिए शौकिंग थी. मैं तो चाहती थी कि वे पिएं जिस से मुझे एहसास हो कि वे आम नौर्मल इंसान हैं जबकि मैं डरती थी कि इन्हें विदड्राअल सिम्पटम्स न हो जाएं पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शराब छोड़ने के बाद कई बार ऐसा हुआ जब राजेश खन्ना ने पार्टी में दूसरों को ड्रिंक बना कर दी पर खुद एक बूंद नहीं ली.

पर राजेश खन्ना को ले कर जो खबरें छप रही हैं?

कुछ भ्रम है या लोग मेरी बात को सही अर्थों में समझ नहीं पाए. मैं ने कहा था कि राजेश खन्ना मैनीफैस्ट किया करते थे कि ‘मैं तो 70 साल तक जिऊंगा.’ जबजब वे यह बात कहते थे तबतब मैं उन से कहती थी कि नैगेटिविटी को निमंत्रण मत दो. आप बारबार जो बात बोलते हैं, उसे प्रकृति सुनती है. मैं ने सिर्फ यही बात कही है. अब लोग इसी का अर्थअनर्थ कर के छाप रहे हैं. हम किसी पर लगाम नहीं लगा सकते.

आप ने खुद फिल्म निर्माण करने की नहीं सोची?

इस दुखद अध्याय की याद दिला कर आप ने मेरे अंदर दबे दुख को जगा दिया. सच यही है कि मैं फिल्म बना रही थी पर इतना बड़ा धोखा मिला कि क्या कहूं. अब मैं इस पर इस से ज्यादा बात नहीं करना चाहती. मेरे जो पार्टनर थे, उन की नीयत खराब हो गई. जब आप की नीयत खराब हो तो वह काम पूरा नहीं होता. मैं अदालत में लड़ सकती हूं पर किसी से जबानी लड़ाई या तूतूमैंमैं नहीं कर सकती.

आगे की क्या योजना है?

फिलहाल अदालत में मुकदमा लड़ रही हूं. किताब लिख रही हूं. इस किताब का दूसरा भाग लिख लिया है. समय चाहेगा तो लिखना जारी रखूंगी पर जिंदगी आप को कहां ले जाती है, पता नहीं. सब समय होता है. जब मैं बचपन में पहली बार अपनी सहेली व उस के अंकल के साथ आशीर्वाद पहुंची थी तो क्या मैं ने सोचा था कि मैं आशीर्वाद बंगले में कभी लंबे समय तक रहूंगी. मैं राजेश खन्ना की पार्टनर रहूंगी. उन की पत्नी बन जाऊंगी. उन के लिए करवाचौथ का व्रत रखूंगी. यह समय ही था. समय ने कहां से घुमाफिरा कर मिलाया.

आशीर्वाद में बिताए गए 10-12 वर्षों की यादें आती होगी तो तकलीफ होती होगी?

बहुत ज्यादा. मुझे आज भी लगता है कि काका वहां बैठे हुए स्मोक कर रहे हैं. उन्हें मैं कैसे भूल सकती हूं. वे लंबे समय तक मेरे सपने में भी आते रहे. मैं तो उन्हीं के म्यूजियम के लिए लड़ रही हूं.

राजेश खन्ना ने कभी आप के लिए कुछ खास बात कही हो या लिखी हो?

उन्होंने तो मुझ से हजारों बातें कही हैं. एक बार भावुक हो कर उन्होंने कहा था, ‘‘अगर तुम न होतीं तो मैं बिखर जाता.’’ एक बार कहा था, ‘‘मुझे तुम पर इतना यकीन है कि अगर मैं तुम से कहूं तो तुम कहीं से भी जा कर ले कर आओगी.’’ उन को मुझ पर विश्वास था, यह बड़े गर्व की बात है. अगर इस कदर का विश्वास आप को अपने पार्टनर पर हो तो क्या कहना. इस बात को स्वीकार करना भी अहम बात है. वे कमजोर नहीं बल्कि ताकतवर इंसान थे. राजेश खन्ना हमेशा कहा करते थे कि, ‘मैं किसी के कंधे पर बंदूक रख कर नहीं चला सकता.’ और ‘मैं किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता.’

पर फिल्मों में काम न करने की वजह?

उन के अंदर का मोटिवेशन खत्म हो गया था. आप मेरी किताब पढ़ कर हैरान रह जाएंगे. लोग कहते हैं कि काका को काम नहीं मिल रहा था, जबकि ऐसा नहीं था. उन्हें काम मिल रहा था पर उन के अंदर मोटिवेशन नहीं था. सभी जानते हैं कि राजेश खन्ना अपने जमाने में इतने ‘फायरी’ इंसान थे कि दुनिया को अपना मुरीद बनाया हुआ था पर जब उन के अंदर काम करने की इच्छा ही नहीं थी, तो वे क्या करते. कभीकभी मुझे लगता था कि किसी ने उन के ऊपर काला जादू कर रखा है. राजेश खन्ना ने कितने लोगों की जिंदगी बनाई थी. जब राजेश खन्ना ने साथ देने का वादा किया था तभी यश चोपड़ा ने अपने भाई का साथ छोड़ कर अपनी कंपनी ‘यशराज फिल्म्स’ शुरू की थी तो काका कभी भी यश चोपड़ा या सलीम अंकल से कह सकते थे कि चलिए, आप के साथ फिल्म करता हूं पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया.

वे काम ही नहीं करना चाहते थे, जिस के पीछे कई वजहें थीं. मैं इस किताब के माध्यम से स्पष्ट करना चाहती हूं कि काका के पास पैसे या स्टाफ सहित किसी चीज की कोई कमी नहीं रही. सिर्फ मोटिवेशन की कमी थी. सच कह रही हूं, जब मैं उन से मिली तब तक उन के अंदर काम करने की आग खत्म हो चुकी थी. उन के दिमाग में अच्छी फिल्म करने की बात थी, मगर आउट औफ वे जा कर कुछ नहीं करना था उन्हें. मेरे आने से पहले वे जिंदगी में अकेले पड़ चुके थे. उन के अंदर ‘अकेलापन’ घर कर चुका था पर वे अपनी हर चीज को रोमांटिसाइज करते थे.

देखिए, एक समय वह आता है जब इंसान चाहता है कि उस के इर्दगिर्द उस के अपने हों. जब उस के इर्दगिर्द उस के अपने न हों तो उस के लिए कोई मोटिवेशन ही नहीं रहता. घर के अंदर प्यार का माहौल खत्म हो चुका था. सब से बड़ी जरूरत प्यार की होती है. आप के पास सैकड़ों रुपए, गाड़ीघोड़ा, बंगला सबकुछ हो पर परिवार न हो तो आप को आप की जिंदगी नीरस लगने लगती है. मैं ने अपनी तरफ से उन को अपना बनने की कोशिश की.

इन दिनों लोग सोशल मीडिया पर बहुतकुछ लिख रहे हैं. आप ने राजेश खन्ना के साथ की अपनी यादों को सोशल मीडिया पर शेयर करने की नहीं सोची?

हाथी अपनी चाल चलता है, फिर कौन उस के पीछे भाग रहा है, वह इस पर ध्यान थोड़े ही देता है. यहां लोग सच बोलने से पता नहीं क्यों डरते हैं. मैं ने तो कइयों के साथ रिश्ता निभाया है. कइयों की नौकरी बचाई है. वे सब भी मेरी बुराई कर रहे हैं. उन्हें चुल्लूभर पानी में शर्म से डूब मरना चाहिए.

अब आप के क्याक्या प्रयास होंगे कि लोगों तक यह किताब पहुंचे?

मैं सिर्फ लोगों से रिक्वैस्ट कर सकती हूं कि उन कड्डे जो मंसूबे हैं उन पर पानी फिरे और किताब को खरीदें. मैं कैटल पर भी रिलीज करूंगी थोड़े टाइम के बाद. वहां जा कर पढ़ें और कमैंट दें, रिव्यू दें ताकि पता चले कि किताब कैसी लगी, आप को कैसी लगी क्योंकि मैं ने, जब रिलीज हुई थी उस समय कुछ रिव्यूज पढ़े थे तो मुझे अच्छे रिव्यूज मिले थे. मतलब, उस समय जो रिव्यूज वगैरह आए थे वह मैं देख भी नहीं सकती हूं. अब फिर से जोरोंशोरों से रिलीज करेंगे और फिर आप के सारे पाठको व दर्शकों से कहूंगी कि खरीदिए बुक और हम कोशिश करेंगे इसे हिंदी में भी पब्लिश करें ताकि हिंदी के पाठक भी पढ़ सकें. यदि अभी भी अमेजन पर अवेलेबल है तो आप लोग जरूर खरीदिए और पढि़ए और देखिए व समझिए कि राजेश खन्नाजी की हकीकत क्या है.
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‘आनंद’ मील का पत्थर

वर्ष 1971 में प्रदर्शित हृषिकेष मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ में आनंद के रोल के बारे में कुछ भी कहना बेमानी है क्योंकि आनंद के किरदार में कोई जान फूंक सकता था तो वे राजेश खन्ना ही थे. तब थिएटरों में ‘अमर प्रेम’ भी चल रही थी और ‘आराधना’ भी क्योंकि फिल्मों के बहुत ज्यादा प्रिंट रिलीज नहीं होते थे और छोटे शहरों तक फिल्में सालदोसाल बाद प्रदर्शित हो पाती थीं. ‘आनंद’ के रिलीज के वक्त हालत तो यह थी कि अगर किसी छोटे शहर में 3 टौकीज थे तो तीनों में राजेश खन्ना की फिल्में चल रही होती थीं, वितरक दूसरी फिल्में खरीदते ही नहीं थे.

‘आनंद’ का एक अतिरिक्त आकर्षण हालांकि अमिताभ बच्चन थे लेकिन तब वे उतने पहचाने नहीं जाते थे कि लोग उन्हें देखने थिएटर जाएं. दर्शक पैसे तो खर्च उस ‘आनंद’ को देखने के लिए करते थे जिसे मालूम है कि कैंसर के चलते वह कुछ ही महीने जिएगा लेकिन जीना कैसे है, यह आनंद इतनी जिंदादिली से और हंसतेगाते बताता है कि जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए और लोग उस के कायल हो जाते हैं व नम आंखें लिए हौल से बाहर निकलते हैं. तब कैंसर की पहचान आम नहीं थी यानी एक तरह से यह लोगों के लिए नई बीमारी थी, जिस के मरीज के चेहरे पर बजाय दहशत के मुसकराहट देख लोगों को सुखद एहसास हुआ था और उस के चलते आनंद गलीचौराहों का नायक बन गया था, घरघर उस की जिंदादिली की मिसाल दी जाने लगी थी. कालेजों और काफी हाउसों में सिर्फ राजेश खन्ना के चर्चे होते थे लेकिन दबी जबान से बात अमिताभ बच्चन यानी डाक्टर भास्कर बनर्जी की बेबसी की भी हो जाती थी कि उन्होंने भी हालांकि टक्कर देने वाली ऐक्टिंग तो की है लेकिन राजेश खन्ना के लिए वे कोई चुनौती नहीं हैं.

अकसर कलाकार कहते हैं कि वे जिस किरदार को परदे पर निभाते हैं, उस का कुछ अंश उन के अंदर निहित होता ही है. यह बात राजेश खन्ना के अंतिम 2 माह के दिनों को देखते हुए एकदम सच नजर आती है. हृषिकेष मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ में राजेश खन्ना ने कैंसरपीडि़त आनंद का किरदार और अमिताभ बच्चन ने बाबूमोशाय का किरदार निभाया है. यदि मुमताज की बात सही मानी जाए तो राजेश खन्ना की मौत कैंसर की वजह से हुई. (वैसे, राजेश खन्ना के करीबी दावा करते हैं कि राजेश खन्ना की मौत लिवर में इंफैक्शन की वजह से हुई.)

आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते. जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए. जिंदगी जितनी जियो, दिल खोल कर जियो. हिंदी सिनेमा का यह आनंद आज भले ही हमारे बीच न हो लेकिन उस का यह किरदार कभी नहीं मरेगा.

फिल्म ‘आनंद’ का एक संवाद- ‘हम तो इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं और हम सब की डोर ऊपर वाले के हाथ में है. कौन क्या कब, यह कोई नहीं जानता. इसलिए बाबू मोशाय…अरे बाबू मोशाय, जिंदगी जो है वह बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं. इतना प्यार ज्यादा अच्छा नहीं है’- हर दर्शक/इंसान को सीख देता है.

‘आनंद’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि भावनाओं का एक गहरा समुद्र थी. यह फिल्म आज भी अपने संवादों, कलाकारों के शानदार अभिनय और मार्मिक कहानी के लिए याद की जाती है. लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि राजेश खन्ना इस किरदार के लिए निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की पहली पसंद नहीं थे. हृषिकेश मुखर्जी इस किरदार के लिए अपने करीबी दोस्त और फिल्म इंडस्ट्री के शोमैन राज कपूर को कास्ट करना चाहते थे लेकिन उस दौरान राज कपूर की तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही थी.

जब हृषिकेश मुखर्जी ने देखा कि राज कपूर की तबीयत पहले से खराब चल रही है तो उन के मन में यह वहम बैठ गया कि कहीं फिल्म की कहानी का असर राज कपूर की सेहत पर न पड़ जाए. इसी वजह से उन्होंने राज कपूर की जगह पर दूसरे कलाकार की तलाश शुरू कर दी. यह खबर राजेश खन्ना को मालूम हुई तो सुपरस्टार राजेश खन्ना खुद उन के पास गए और खुद इस फिल्म में काम करने की इच्छा जताई और जब आनंद का किरदार उन्होंने निभाया तो वह मील का पत्थर बन गया जिसे आज तक कोई हिला नहीं पाया.

विविधताभरी फिल्में

‘आराधना’ के बाद ‘बावर्ची’ में निभाया उन का रघु का किरदार दर्शकों के सिर चढ़ कर बोला था. 1972 में प्रदर्शित हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फिल्म एक हैरानपरेशान संयुक्त मध्यवर्गीय शर्मा परिवार की कहानी थी जिस में सभी सदस्य, खासतौर से बहुएं, छोटेछोटे कामों और बातों को ले कर आपस में इस कदर झगड़ा करती हैं कि कोई उन के घर ‘शांति निवास’ में रसोइए का काम करने को तैयार नहीं होता.

ऐसे में रघु नाम का देहाती सा युवा आ कर बावर्ची बनने की पेशकश करता है तो पूरा शर्मा परिवार चहक उठता है और उसे हाथोंहाथ लेता है. बातूनी रघु जायकेदार खाना बनाने में तो माहिर है ही, अपनी प्रतिभा व ज्ञान से शांति निवास के सदस्यों की मदद भी करता है और उन के बीच फैली कटुता को भी दूर करने में मददगार साबित होता है. एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद इस रहस्य से परदा उठता है कि रघु दरअसल बावर्ची नहीं बल्कि पेशे से प्रोफैसर है जो इस घर में शांति स्थापित करने के मकसद से आया था जिस में वह कामयाब भी रहता है.

तब दौर संयुक्त परिवारों का था जिस में छोटीछोटी बातों को ले कर कलह बेहद आम रहती थी. बावर्ची का काम तो बहाना था वरना तो राजेश खन्ना की भूमिका एक फैमिली काउंसलर की बताई गई है जो पूरे परिवार को प्यार, लगाव और सद्भाव का सबक सिखाता है तब फिल्म के पोस्टरों पर राजेश खन्ना के सिर की बावर्ची वाली टोपी ने भी सुर्खियां बटोरी थीं और उन्होंने यह भी साबित कर दिया था कि रोमांटिक भूमिकाओं से इतर भी वे बावर्ची जैसे आम लेकिन चैलेंजिंग किरदार में भी जान डाल सकते हैं.

वर्ष 1971 की सब से कामयाब और चर्चित फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ थी जिस में पशुप्रेमी नायक राजकुमार को भी दर्शकों ने सिर पर बैठाया था. उस वक्त राजेश खन्ना कैरियर के सुनहरे दौर से गुजर रहे थे जिस में ‘हाथी मेरे साथी’ जैसी फिल्म उन के कैरियर के लिए खतरा भी साबित हो सकती थी लेकिन यह जोखिम उन्होंने उठाया और उस में भी सफल रहे.

इस से पहले 1970 में आई ‘सच्चा झुठा’ में भी वे ‘आराधना’ की तरह डबल रोल में थे जो मनमोहन देसाई की मसाला फिल्म थी. उन के दोनों ही किरदार भोला और रंजीत दर्शकों ने पसंद किए थे. अब उन की जोड़ी मुमताज के साथ जमने लगी थी जो मुंबई में उन की पड़ोसिन थीं और अच्छी दोस्त भी बन चुकी थीं.

1972 में ही शक्ति सामंत ने राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर को ले कर एक और हाहाकारी फिल्म ‘अमरप्रेम’ बनाई थी जिस ने वाकई यह साबित कर दिया था कि वक्त और दौर दोनों राजेश खन्ना के ही हैं.

बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनी ‘अमर प्रेम’ में राजेश खन्ना यह जताने व बताने में कामयाब रहे थे कि वे बंगला संस्कृति और फिल्म में भी बंगाली अभिनेताओं जैसे रचबच सकते हैं.

उसी साल अभिनय की विविधता दिखाते और साबित करते राजेश खन्ना ने दुलाल गुहा निर्देशित फिल्म ‘दुश्मन’ में एक ट्रक ड्राइवर सुरजीत सिंह के किरदार को बड़ी शिद्दत से जिया था. यह एक प्रयोगात्मक फिल्म थी जिस की शुरुआत ही सुरजीत की ऐयाशी से होती है. ट्रक चलाते वह बिंदु के कोठे पर रुकता है और शराब पी कर मस्ती में नाचतागाता है. बिंदु और राजेश खन्ना पर फिल्माया यह गाना तब युवाओं की जबान पर चढ़ा ही रहता था- ‘वादे पे तेरे मारा गया, बंदा मैं सीधासादा, वादा तेरा वादा…’ लेकिन कोठे से निकलते ही कुछ दूर नशे में धुत सुरजीत से एक ऐक्सिडैंट हो जाता है जिस में एक गरीब किसान मारा जाता है.

असली फिल्म यहां से शुरू होती है जब अदालत सुरजीत को बतौर सजा यह हुक्म सुनाती है कि वह गांव जा कर सुरजीत की खेतीकिसानी संभाले और उस के परिवार की देखभाल करे. मजबूरी का मारा सुरजीत जब गांव पहुंचता है तो घबरा भी जाता है और चकरा भी, क्योंकि सब उस से नफरत करते हैं खासतौर से मृत किसान रामदीन की पत्नी मालती. इस रोल में तब की दिग्गज ऐक्ट्रैस मीना कुमारी थीं. सुरजीत जैसेतैसे खेती संभालता है.

धीरेधीरे वह गांव का हिस्सा बन जाता है और मीना कुमारी के परिवार की जरूरत भी बनता जाता है. एक वक्त ऐसा भी आता है कि सजा पूरी हो जाने के बाद भी वह गांव छोड़ने के नाम पर जज्बाती हो कर रोने लगता है. कैसे एक आवारा ट्रक ड्राइवर घरगृहस्थी में बंध जाता है इस खूबी को राजेश खन्ना ने अपनी ऐक्टिंग के जरिए साबित किया था. इस किरदार के लिए राजेश खन्ना को फिल्मफेयर अवार्ड मिला था.

‘आनंद’ के बाद भी

अब तक अमिताभ बच्चन की ‘जंजीर’ भी बौक्स औफिस पर छाने लगी थी जिस से राजेश खन्ना का स्टारडम खतरे में पड़ने लगा था. ‘जंजीर’ मई 1973 में रिलीज हुई थी. इस के 6 महीने बाद ‘नमक हराम’ प्रदर्शित हुई थी जिस में ‘आनंद’ के बाद एक बार फिर अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना आमनेसामने थे. हृषिकेष मुखर्जी की इस फिल्म में दोनों के लिए करने को काफीकुछ था. दोनों जिगरी दोस्त हैं लेकिन अमिताभ बच्चन यानी विक्की एक रईस बाप का बेटा है जबकि सोमू यानी राजेश खन्ना गरीब परिवार से है. अमीरीगरीबी इन की दोस्ती में आड़े नहीं आती.

फिल्म की कहानी असरदार थी जिस के तहत विक्की को अपने बीमार पिता का कारोबार संभालने जाना पड़ता है जहां उस का वास्ता ट्रेड यूनियन से पड़ता है. वह सोमू को फैक्ट्री ले आता है और उसे नेता बनवा देता है. मजदूर चंदर बने सोमू पर आंख बंद कर भरोसा करने लगते हैं.

सोमू मजदूरों की बदहाल जिंदगी देखता है तो उस से रहा नहीं जाता और वह विक्की से उन के हितों के लिए भिड़ पड़ता है. फिर फिल्मी मारधाड़ और नाटकीय घटनाक्रम होते हैं जिन में सोमू मारा जाता है. विक्की अपने पिता का आरोप अपने सिर ले कर जेल चला जाता है और पिता से कहता है कि यह सजा आप के लिए है.

अहम यह है कि राजेश खन्ना ने सोमू के रोल में जो जान फूंकी उस से विक्की का किरदार फीका पड़ गया और सारी वाहवाही व इनाम राजेश खन्ना बटोर ले गए जो पूरी फिल्म में वास्तविक मजदूर ही लगे और बतौर यूनियन लीडर, अपने मजदूर साथियों को धोखा नहीं दे पाए. दर्शकों को उन का यह रूप खूब भाया था.

‘नमक हराम’ के रिलीज के बाद यह बात उजागर हुई थी कि अमिताभ बच्चन भी फिल्म के आखिर में मरने वाला रोल चाहते थे लेकिन हृषिकेष मुखर्जी ने आखिर तक यह नहीं बताया था कि मरना किसे है विक्की को या सोमू को और जब यह पता चला कि मरना सोमू को है तो अमिताभ बच्चन परेशान हो गए थे क्योंकि मरने वाले किरदार को ज्यादा हमदर्दी मिलती है.

1973 में ही उन की एक रोमांटिक लेकिन ट्रेजेडिक फिल्म ‘दाग’ रिलीज हुई थी. गुलशन नंदा की कहानी पर यश चोपड़ा ने यह फिल्म बनाई थी जिस में राखी और शर्मिला टैगोर थीं.

इस के बाद उन की फिल्में पहले की तरह सुपरहिट होने की गारंटी नहीं रह गई थीं, फिर भी वे ठीकठाक बिजनैस कर जाती थीं जिस से निर्माता को घाटा नहीं होता था. ऐसी ही एक फिल्म 1974 की ‘रोटी’ थी जिस में राजेश खन्ना ने एक मुजरिम का रोल किया था जो सुधरना चाहता है लेकिन माफिया उसे यह मौका नहीं देते और कई उतारचढ़ाव के बाद आखिर उसे मार ही देते हैं. इस में मंगल सिंह के रोल में उन्होंने अग्रिम पंक्ति के दर्शकों से खूब तालियां और सीटियां बजवाई थीं. मंगल जैसा भी है पर वह भ्रष्ट सिस्टम की पोल खोलता है, उस से लड़ता है और आम शोषितों की आवाज का प्रतिनिधित्व करता है.

मनमोहन देसाई ने अग्रिम पंक्ति के दर्शकों की नब्ज पकड़ते राजेश खन्ना को भुनाने में कामयाबी पा ली थी. फिल्म के सभी गाने हिट थे जिन में से ‘ये जो पब्लिक है सब जानती है…’ आज भी आम चुनाव में बजता सुनाई दे जाता है जो भ्रष्ट राजनीति पर निशाना साधता है.

उसी साल जे ओम प्रकाश की फिल्म ‘आप की कसम’ में राजेश खन्ना फिर एक बार मुमताज के साथ नजर आए थे. एक रोमांटिक लेकिन शक्की पति कमल भटनागर को वहम हो जाता है कि उस की पत्नी सुनीता यानी मुमताज के नाजायज संबंध उस के दोस्त मोहन (संजीव कुमार) से हैं. एक शक्की पति कैसीकैसी हरकतें करता है और इसी शक के चलते अपनी गृहस्थी उजाड़ लेता है, इस किरदार को राजेश खन्ना ने जीवंत कर डाला था.

अब तक घोषिततौर पर राजेश खन्ना का स्टारडम अमिताभ बच्चन में हस्तांतरित हो चुका था लेकिन इस के बाद भी उन के निभाए कुछ किरदार मुद्दत तक लोगों को याद रहेंगे. 1981 में इस्माइल श्रौफ की फिल्म ‘थोड़ी सी बेवफाई’ में वे शबाना आजमी के अपोजिट अरुण कुमार चौधरी के रोल में थे. यह फिल्म भी शक पर आधारित थी. नीमा यानी शबाना आजमी एक रिश्तेदार की बातों में आ कर बिना सच्चाई जानेपरखे बेटे को ले कर मायके चली जाती है. अरुण की बेबसी को राजेश खन्ना ने बेहद सहजता से दर्शाया है. इस के लिए उन्हें एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था.

इस के 2 वर्षों बाद ही मोहन कुमार निर्देशित ‘अवतार’ में उन्होंने एक जीवट भूमिका निभाई थी. एक अधेड़ पिता को उस की स्वार्थी संतानें धोखा दे जाती हैं तो वह रोतागाता नहीं है बल्कि एक हाथ कट जाने के बाद भी अपने गैरेज का कारोबार शुरू कर बेशुमार दौलत कमाता है. पत्नी राधा का झुकाव नालायक और धोखेबाज बेटों की तरफ देख वह तिलमिला उठता है. राजेश खन्ना ने अपने जोरदार अभिनय से फिर से वापसी के संकेत ‘अवतार’ के किरदार के जरिए दिए थे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

राजेश खन्ना के बाद या यों कहें कि राजेश खन्ना के ही दौर में जितेंद्र, शम्मी कपूर, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, राज कुमार, विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, रणधीर कपूर भी अपनेआप को ‘सुपरस्टार’ मानते रहे, मगर हकीकत में इन में से किसी को भी ‘सुपरस्टार’ का खिताब नहीं मिला. जब कि ये सभी बेहतरीन कलाकार रहे हैं.

राजेश खन्ना मरते दम तक एक शहंशाह, एक सुपरस्टार की ही तरह जीते रहे. उन्होंने न तो कभी पीछे मुड़ कर देखना जरूरी समझ और न ही वक्त के साथ अपनेआप को बदलने की कोशिश की. लगभग 2005 के आसपास जब मेरी उन से मुलाकात हुई थी तो उन्होंने कहा था, ‘राजा, राजा ही होता है, चाहे जहां भी रहे.’ उन का अपना एक अलग ‘औरा’ था. तभी तो वे आज भी लोगों के दिलोदिमाग में छाए हुए हैं. हवा के रुख को भांप कर अपनेआप को बदलना उन्होंने उचित नहीं समझ. वे मात्र सुपरस्टार रहे हैं जो संघर्ष के दिनों में भी स्पोर्ट्स कार में घूमते थे. वे हमेशा महंगी गाडि़यों में ही निर्माताओं के पास काम मांगने जाते थे. उन के चेहरे पर सदैव एक स्निग्ध मुसकान नजर आती थी, तभी तो उन की फिल्म ‘अमर प्रेम’ का यह संवाद, ‘आई हेट टियर्स’ (मुझे आंसुओं से नफरत है) उन की निजी जिंदगी की पहचान बन चुका था.

मगर 69 साल की उम्र में 18 जुलाई, 2012 को दोपहर 1 बज कर 40 मिनट पर उन्होंने अपने ‘आशीर्वाद’ बंगले पर आखिरी सांस ली.

1974 के बाद भी राजेश खन्ना फिल्मों में काम करते रहे पर ‘जंजीर’ व ‘दीवार’ जैसी फिल्मों के हिट होने के साथ अमिताभ बच्चन की ‘एंग्री यंगमैन’ की जो छवि उभर कर आई उस के चलते राजेश खन्ना दब गए क्योंकि वह वो दौर था जब बेरोजगार युवाओं के अंदर गुस्सा था और उन का यह गुस्सा उन्हें अमिताभ बच्चन के रूप में फिल्मों में नजर आया.

यहीं से लोग राजेश खन्ना के बजाय अमिताभ बच्चन की तरफ खिसकते चले गए. सच यही है कि अमिताभ बच्चन दूसरे और अंतिम ‘सुपरस्टार’ रहे. अमिताभ बच्चन के बाद अभी कोई भी सुपरस्टार नहीं बना.

जब निर्देशक ने कम बजट की बात की थी, तब राजेश खन्ना ने अपनी फीस बहुत कम कर अपनी कंपनी शक्तिराज फिल्म्स के तहत ‘आनंद’ के वितरण अधिकार हासिल किए थे और यह उन का शानदार निर्णय साबित हुआ क्योंकि उन्होंने अपने सामान्य अभिनय शुल्क से दसगुना ज्यादा कमाया. यह सब आनंद की अविश्वसनीय सफलता की बदौलत हुआ.

उन्होंने फिल्मफेयर का लाइफटाइम एचीवमैंट अवार्ड भी पाया. 15 बार फिल्मफेयर के लिए नामांकित हुए. यही नहीं, राजेश खन्ना जब तक जीवित रहे तब तक अवार्ड हासिल करते चले गए.

उन्हें इस बात का एहसास भी था कि 1969 से 1973 तक ही उन का कैरियर स्टारडम पर रहा. स्टारडम के वक्त सैट पर शूटिंग के दौरान देर से पहुंचना उन की आदत बन चुकी थी. उन की यह आदत अंतिम समय तक बरकरार रही. वे जहां भी देर से पहुंचते थे, उन का एक ही तकियाकलाम होता था, ‘मैं देर से आता नहीं, देर हो जाती है. मुझे माफ कर दो. हमें माफी दे दो सरकार.’

नारी संबंध : औरतों की इज्जत की

इस सच से सभी वाकिफ हैं कि लड़कियां और औरतें राजेश खन्ना के प्यार में किस कदर दीवानी थीं. कहा जाता है कि जब राजेश खन्ना की गाड़ी निकलती थी तो लड़कियां उन की गाड़ी की धूल से अपनी मांग भरती थीं. इस की सब से बड़ी खासीयत यह थी कि राजेश खन्ना हर लड़की व औरत के साथ इज्जत के साथ पेश आते थे, बल्कि वे उसे उस की अहमियत का एहसास कराते थे. जब राजेश खन्ना वर्ष 2000 के बाद अनीता अडवाणी के साथ ‘आशीर्वाद बंगले’ में रह रहे थे तो अनीता अडवाणी खुद को राजेश खन्ना की सरोगेटेड वाइफ मानती रहीं.

तब वे जब कहीं बाहर जाते थे तो वहां से वापसी में वे अनीता की छोटी बहन के लिए भी गिफ्ट ले कर आते थे. यदि हम अनीता अडवाणी की मानें तो एक बार रीना रौय के घर में पार्टी थी. उस पार्टी में राजेश खन्ना, अनीता अडवाणी और अनीता की बहन भी गए हुए थे. पार्टी में कुछ देर बाद अनीता राजेश खन्ना के लिए खाना लेने चली गईं. कुछ देर में प्लेट ले कर वहां पर राजेश खन्ना भी पहुंच गए थे. अनीता ने उन से कहा कि वह उन्हीं के लिए खाना ले कर आ रही है तब राजेश खन्ना ने कहा था कि वे तो उन की बहन के लिए खाना लेने आए हैं और वे ले कर जाएंगे. राजेश खन्ना ने खुद ही प्लेट में खाना परोस कर अनीता की बहन को जा कर दिया था. इस तरह के कई किस्से राजेश खन्ना को ले कर मशहूर हैं.

राजेश खन्ना के कैरियर पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि वे हर हीरोइन के लिए ‘पारस पत्थर’ थे. जिस हीरोइन ने राजेश खन्ना के साथ काम किया, उस का कैरियर बन जाता था. राजेश खन्ना ने मुमताज के साथ 8 फिल्में कीं और आठों फिल्में सुपरहिट रहीं. दोनों के बीच प्यार का भी संबंध था लेकिन 1966 में राजेश खन्ना अंजू महेंद्रू को अपना दिल दे बैठे थे. मुमताज ने न सिर्फ राजेश खन्ना बल्कि बौलीवुड को भी हमेशा के लिए अलविदा कह अलग राह पकड़ ली थी.

इस बीच पूरे 7 साल तक राजेश खन्ना और अंजू महेंद्रू के बीच रोमांस चलता रहा पर कुछ ऐसा हुआ कि राजेश खन्ना ने 28 मई, 1973 को डिंपल कपाडि़या से विवाह कर लिया. उस वक्त राजेश खन्ना 31 साल और डिंपल महज 16 साल की थीं.

फिल्म ‘बौबी’ की शूटिंग रुकी हुई थी तो वहीं मीडिया में कई तरह की खबरें छप रही थीं. उन दिनों मीडिया में यह खबर भी छपी थी कि किस तरह डिंपल ने ऋषि कपूर द्वारा दी गई अंगूठी को समुद्र में फेंक दिया. मगर इन सारी खबरों का अपनी हर फिल्म की हीरोइन के प्यार में डूबने वाले राज कपूर पर नहीं पड़ रहा था जबकि राजेश खन्ना अंदर ही अंदर आगबबूला हो रहे थे. पूरी तरह से विवश राज कपूर ने हार नहीं मानी और फिल्म ‘बौबी’ को पूरी कर 28 सितंबर, 1973 को रिलीज किया. फिल्म को बौक्स औफिस पर अच्छी सफलता मिली.

महज 9 साल में ही डिंपल कपाडि़या अपनी गलती स्वीकार करते हुए राजेश खन्ना से 1982 में अलग हो गई थीं पर कानूनी रूप से तलाक नहीं लिया. वास्तव में डिंपल ने राजेश खन्ना से जब शादी की थी तो उन्होंने सपनों जैसी लवस्टोरी की कल्पना की थी. मगर हकीकत कल्पना से अलग साबित हुई.

फिल्म ‘बौबी’ की सफलता के बाद लोग डिंपल को अच्छे औफर दे रहे थे, लेकिन पति राजेश खन्ना की इच्छा का सम्मान करते हुए डिंपल ने फिल्में छोड़ घर पर रहना शुरू किया. यह उन की दूसरी सब से बड़ी गलती थी. डिंपल को कुछ वक्त बाद रिश्ते में घुटन महसूस होने लगी. उन्हें यह बराबरी का रिश्ता नहीं लगा. अब वे आर्थिक रूप से उन पर निर्भर भी थीं. डिंपल को अपनी शादीशुदा जिंदगी नरक लगने लगी थी. उन्होंने 3 बार अपनी बेटियों के साथ घर छोड़ने की कोशिश की थी.

उधर राजेश खन्ना के दिलोदिमाग में उन की व डिंपल की जोड़ी इस तरह छाई रही कि आखिरकार राजेश खन्ना ने स्वयं डिंपल से अलगाव के बावजूद 1990 में फिल्म ‘जय शिवशंकर’ बनाई.

इस फिल्म में राजेश खन्ना व डिंपल के साथ ही जितेंद्र भी थे. वैसे पहले इस में डिंपल कपाडि़या, विनोद खन्ना, मिथुन चक्रवर्ती व जैकी श्रौफ थे पर बाद में विनोद खन्ना की जगह खुद राजेश खन्ना आ गए और मिथुन चक्रवर्ती की जगह जितेंद्र व जैकी श्रौफ की जगह पर चंकी पांडे आ गए थे लेकिन एक पुरानी कहावत है कि जैसी नीयत वैसी बरकत. इसी कहावत के अनुसार फिल्म ‘जय शिवशंकर’ बनी, मगर आज तक यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई.

राजेश खन्ना की शख्सियत यह रही कि किसी भी नारी से उन की कभी दुश्मनी नहीं हुई. हाल ही में गुलशन ग्रोवर ने स्वीकार किया है कि 1980 से 1987 तक राजेश खन्ना और टीना मुनीम के बीच संबंध थे. 1988 में राजेश खन्ना की जिंदगी में अंजू महेंद्रू की वापसी हुई थी.

राजेश खन्ना की मौत की खबर सुन कर लंदन से मुमताज ने कहा था, ‘‘राजेश खन्ना की मौत कैंसर से हुई. पिछली बार जब हम मिले थे, हम दोनों ने कैंसर से अपनीअपनी लड़ाई को ले कर चर्चा की थी. दूसरों के साथ बहुत कम घुलनेमिलने वाले काका मेरे काफी करीब थे. मैं ने तो ब्रैस्ट कैंसर से लड़ाई जीत ली पर मैं पूरी रात रोती रही.’’ (यह एक अलग बात है कि उसी वक्त राजेश खन्ना के पारिवारिक सूत्रों ने राजेश खन्ना की मौत लिवर में इन्फैक्शन की वजह से होने का दावा किया था).

मुमताज की बातों से राजेश खन्ना के स्वभाव की यह बात उभर कर आती है कि वे जल्दी लोगों से घुलतेमिलते नहीं थे. इसी कारण शायद कुछ लोग कहते हैं कि राजेश खन्ना घमंडी थे. मगर यह बात किसी के गले नहीं उतरती. इतना ही नहीं, राजेश खन्ना ने एक बार खुद के घमंडी होने से इनकार करते हुए कहा था, ‘‘अगर ऐसा होता तो हम सुपरस्टार न बन पाते.’’

राजेश खन्ना की शख्सियत को इस बात से भी समझ जा सकता है कि लगभग 30 वर्षों तक राजेश खन्ना से अलग रहते हुए भी डिंपल के मन में उन के प्रति कभी कटुता नहीं आई. पूरे 30 वर्षों के दौरान ऐसा कभी नहीं हुआ जब दोनों में से किसी ने भी एकदूसरे के खिलाफ कोई टिप्पणी की हो. इतना ही नहीं, जब राजेश खन्ना बीमार पड़े तो अस्पताल में लोगों ने डिंपल कपाडि़या को उन के साथ उन की इस तकलीफ में एक हमदम, एक हमसफर, एक फिक्रमंद के रूप में खड़ी देखा, जहां अनीता अडवाणी को घुसने तक नहीं दिया गया था.

गौसिप पत्रिका के रूप में मशहूर रही नारी हीरा की मासिक पत्रिका ‘स्टारडस्ट’ के मई 1973 के अंक में अंजू महेंद्रू ने राजेश खन्ना के खिलाफ लंबाचौड़ा इंटरव्यू दिया था, लेकिन उस के बाद अंजू महेंद्रू ने भी राजेश खन्ना के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया, बल्कि हमेशा अच्छा दोस्त ही मानती रही. अंजू महेंद्रू भी उस वक्त आशीर्वाद बंगले में थी जब राजेश खन्ना ने अंतिम सांसें लीं और वह उन की अंतिम यात्रा में भी साथ थी. तभी तो एक बार जब राजेश खन्ना से मेरी बात हो रही थी तब राजेश खन्ना ने बहुत बड़ी बात कही थी, ‘मैं ने कभी किसी नारी को धोखा नहीं दिया. मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो औरतों का पल्लू पकड़ कर सफलता की सीढ़ी चढ़ते हैं.’

यदि राजेश खन्ना के पूरे कैरियर पर गौर किया जाए तो शर्मिला टैगोर हों या मुमताज, दोनों के साथ उन की जोड़ी हिट रही. फिल्मी परदे पर इन दोनों के साथ उन की कैमिस्ट्री हमेशा पसंद की गई. जबकि उन्होंने हेमा मालिनी के साथ एकदो नहीं बल्कि 15 फिल्में कीं. लोग उन्हें संवादों का बादशाह मानते हैं. तभी तो ‘दुश्मन’, ‘बंधन’, ‘रोटी’, ‘दुश्मन चाचा’, ‘बावर्ची’ या ‘आनंद’ फिल्मों के संवाद कभी भुलाए नहीं जा सकते.

फैंस ने बरसाया अटूट प्यार

29 दिसंबर, 1942 में अमृतसर में जन्मे जतिन खन्ना को उन के गोद लिए हुए मातापिता ने पाला था और उन्होंने उन का नाम बदल कर राजेश खन्ना कर दिया था. स्कूल के दिनों में राजेश खन्ना की दोस्ती रवि कपूर (अभिनेता जितेंद्र) से हुई. बाद में राजेश खन्ना और रवि कपूर दोनों ने कालेज में भी एकसाथ पढ़ाई की. राजेश खन्ना को बचपन से ही अभिनय करने का शौक था. उन्हें अच्छे मौके की तलाश थी.

1965 की बात है. फिल्मफेयर पत्रिका और यूनाइटेड प्रोड्यूसर एसोसिएशन की तरफ से सिनेमा में काम करने के लिए प्रतिभाशाली कलाकार की खोज शुरू की गई थी, जिस में पूरे देश से 10 हजार युवकों के साथ ही राजेश खन्ना ने आवेदन किया था. इन 10 हजार में से जिन 8 लोगों को चुना गया था, उन में से एक राजेश खन्ना थे. उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि उन्होंने देश के पहले सुपरस्टार को चुना है.

बहरहाल, सब से पहले जीपी सिप्पी ने राजेश खन्ना को फिल्म ‘राज’ के लिए साइन किया. उस के कुछ समय बाद चेतन आनंद ने राजेश खन्ना को अपनी फिल्म ‘आखिरी खत’ के लिए चुना पर राजेश खन्ना की पहली प्रदर्शित फिल्म ‘आखिरी खत’ थी, जोकि 1967 में रिलीज हुई. इस फिल्म से ही यह साबित हो गया कि वे आने वाले कल के सफलतम कलाकार होंगे.

जब राजेश खन्ना ने ‘आखिरी खत’ से बौलीवुड में डैब्यू किया तो उन्हें नोटिस तक नहीं किया गया. यह लो बजट की फिल्म थी. हालांकि फिल्म को 1967 में औस्कर के लिए बैस्ट फौरेन लैंग्वेज कैटेगरी में भेजा गया था.

राजेश खन्ना ने बौलीवुड में उस वक्त कदम रखा था जब दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों का कैरियर ढलान पर था. इस के अलावा राजेश खन्ना ने अपनी शोख अदाओं, अभिनय के नएनए अंदाज से परदे पर रोमांस का एक ऐसा नया रूप पेश किया कि हरकोई उन का दीवाना हो गया. उन की यह दीवानगी अंत तक लोगों के बीच मौजूद रही.

शायद 2012 की शुरुआत हुई थी, तभी मशहूर फिल्मकार आर बाल्की ने राजेश खन्ना को ले कर पंखा यानी कि फैन बनाने वाली एक कंपनी के लिए विज्ञापन फिल्माया था. इस विज्ञापन फिल्म में राजेश खन्ना ने अपने दिल की ही बात कही थी. इस विज्ञापन फिल्म में उन का संवाद है, ‘मेरे फैंस मुझ से कोई नहीं छीन सकता.’ इस बात का सुबूत उस वक्त नजर आया जब मुंबई के बांद्रा स्थित आशीर्वाद बंगले से विलेपार्ले के पवन हंस श्मशान भूमि तक जब उन की शवयात्रा निकाली गई तो जिस तरह उन के प्रशंसक उन्हें एक नजर देखने को व्याकुल थे, ऐसा हम ने अपनी याद में अब तक किसी भी कलाकार की मौत पर नहीं देखा.

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अभिनेता राजेश खन्ना और पौलिटिकल लीडर जौर्ज फर्नांडिस में समानता

अभिनेता राजेश खन्ना और उन की अभिनेत्री पत्नी डिंपल कपाड़िया तलाक दिए बिना अलगअलग रहे. अनीता अडवाणी वर्ष 2000 से 2012 तक राजेश खन्ना के साथ पत्नी की तरह रहीं और सेवा की. राजेश खन्ना जब गंभीर रूप से बीमार हुए तब मृत्यु से कुछ दिनों पहले डिंपल कपाडि़या अपनी बेटी ट्विंकल खन्ना और दामाद अक्षय कुमार के साथ आशीर्वाद बंगले में पहुंचे, उस पर कब्जा कर के अनीता अडवाणी को वहां से भगाया. अनीता ने डोमैस्टिक वौयलैंस का मुकदमा दर्ज करा दिया. मामले की कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले ही राजेश खन्ना की मौत हो गई.

उधर राजनेता जौर्ज फर्नांडिस का विवाह समाज सेविका लैला कबीर से हुआ था. जौर्ज और लैला बिना तलाक लिए अलगअलग रहने लगे. समता पार्टी की राजनेत्री जया जेटली जौर्ज फर्नांडिस के साथ रहने लगीं. जब जौर्ज फर्नांडिस गंभीर रूप से बीमार हुए तो बेटे सीन फर्नांडिस के साथ लैला कबीर ने जा कर जौर्ज फर्नांडिस के घर पर कब्जा कर जया जेटली को भगाया. जया जेटली भी अदालत पहुंचीं.
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Hindi Poetry : जब घनघोर अंधेरा छाया था

Hindi Poetry : घनघोर अंधेरा छाया था.
मन मेरा अत्यधिक घबराया था.

जब कहने सुनने को,
मेरे हिस्से अनगिनत चुनौतियाँ आयी थीं.

जब मेरे अंदर ही अंधकार व्याप्त था,
तो खुद से ही रोशनी की किरण ढूंढने का वक्त आया था.

जब खुद के अलावा किसी और का साया ना दिख पाया था,
तो समझ का ताला तभी तो मिल पाया था.

पंख खोलने का तभी वक्त आया था, जब मेरा ही प्रतिबिम्ब मुझे दिख पाया था,
तभी तो समय का प्रवाह, कर्म के पथ से मिल पाया था.

सूरज की रोशनी का प्रतिबिंब तभी मिल पाया था,
हार और जीत में जीत का होना संभव हो पाया था.

सही मायनों में मेरे जीवन का अर्थ,
उद्देश्य मिल पाया था.

लेखिका : अनुपमा आर्या

Hindi Story : चक्रव्यूह – सायरा और मंसूर किस चक्रव्यूह में फंस गए

Hindi Story : सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

श्रीमती साहनी मोबाइल बंद कर के सायरा की ओर मुड़ीं, ‘‘रंजीत सरवर को बता देगा कि वह मेरे मोबाइल पर तुम से बात करे. वीडियो कानफें्रस कर तुम दोनों बहनभाइयों की मुलाकात करवा देंगे.’’

‘‘शुक्रिया, आंटीजी…’’

‘‘यह तो हमारा फर्ज है बेटाजी,’’ श्रीमती साहनी उठ खड़ी हुईं.

उन के जाने के बाद सायरा ने राहत की सांस ली. हालांकि सरवर के जरिए अम्मी को उस की खैरखबर भिजवाने की जिम्मेदारी और सरवर के साथ वीडियो कानफें्रसिंग करवाने की बात कर के आंटी ने उसे बहुत राहत दी थी मगर उन का यह कहना ‘हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे’ या ‘यह तो हमारा फर्ज है’ उसे खुद और अपने मुल्क पर कटाक्ष लगा. वह कहना चाहती थी कि आप लोगों की अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने और एहसान चढ़ाने की आदत से चिढ़ कर ही तो लोग आप को मजा चखाने की सोचते हैं.

सायरा को लंदन स्कूल औफ इकनोमिक्स के वे दिन याद आ गए जब पढ़ाई के दबाव के बावजूद वह और मंसूर एकदूसरे के साथ वहां के धुंधले सर्द दिनों में इश्क की गरमाहट में रंगीन सपने देखते थे. सुनने वालों को तो यकीन नहीं होता था लेकिन पहली नजर में ही एकदूसरे पर मर मिटने वाले मंसूर और सायरा को एकदूसरे के बारे में सिवा नाम के और कुछ मालूम नहीं था.

अंतिम वर्ष में एक रोज जिक्र छिड़ने पर कि नौकरी की तलाश के लिए कौन क्या कर रहा है, सायरा ने मुंह बिचका कर कहा था, ‘नौकरी की तलाश और वह भी यहां? यहां रह कर पढ़ाई कर ली वही बहुत है.’

‘तुम ने तो मेरे खयालात को जबान दे दी, सायरा,’ मंसूर फड़क कर बोला, ‘मैं भी डिगरी मिलते ही अपने वतन लौट जाऊंगा.’

‘वहां जा कर करोगे क्या?’

‘सब से पहले तो सायरा से शादी, फिर हनीमून और उस के बाद रोजीरोटी का जुगाड़,’ मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘क्यों सायरा, ठीक है न?’

‘ठीक कैसे हो सकता है यार?’ हरभजन ने बात काटी, ‘वतन लौट कर सायरा से शादी कैसे करेगा?’

‘क्यों नहीं कर सकता? मेरे घर वाले शियासुन्नी मजहब में यकीन नहीं करते और वैसे भी हम दोनों पठान यानी खान हैं.’

‘लेकिन हो तो हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी. दोनों मुल्कों के बाशिंदों को नागरिकता या लंबा वीसा आसानी से नहीं मिलता,’ हरभजन ने कहा.

सायरा और मंसूर ने चौंक कर एकदूसरे को देखा.

‘क्या कह रहा है हरभजन? सायरा भी पंजाब से है…’

‘बंटवारे के बाद पंजाब के 2 हिस्से हो गए जिन में से एक में तुम रहते हो और एक में सायरा यानी अलगअलग मुल्कों में.’

‘क्या यह ठीक कह रहा है सायरा?’ मंसूर की आवाज कांप गई.

‘हां, मैं पंजाब यानी लाहौर से हूं.’

‘और मैं लुधियाना से,’ मंसूर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘माना कि हम से गलती हुई है, हम ने एकदूसरे को अपने शहर या मुल्क के बारे में नहीं बताया लेकिन अगर बता भी देते तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिदा तो हम एकदूसरे पर नाम जानने से पहले ही हो चुके थे.’

‘जो हो गया सो हो गया लेकिन अब क्या करोगे?’ दिव्या ने पूछा.

‘मरेंगे और क्या?’ मंसूर बोला.

‘मरना तो हर हाल ही में है क्योंकि अलग हो कर तो जी नहीं सकते सो बेहतर है इकट्ठे मर जाएं,’ सायरा बोली.

‘बुजदिली और जज्बातों की बातें करने के बजाय अक्ल से काम लो,’ अब तक चुप बैठा राजीव बोला, ‘तुम यहां रहते हुए आसानी से शादी कर सकते हो.’

‘शादी के बाद मैं इसे लुधियाना ले कर जा सकता हूं?’ मंसूर ने उतावली से पूछा.

‘शायद.’

‘तब तो बात नहीं बनी. मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता.’

‘मैं भी नहीं,’ सायरा बोली.

‘न मुल्क छोड़ सकते हो न एकदूसरे को और मरना भी एकसाथ चाहते हो तो वह तो यहीं मुमकिन होगा इसलिए जब यहीं मरना है तो क्यों नहीं शादी कर के एकसाथ जीने के बाद मरते,’ हरभजन ने सलाह दी.

‘हालात को देखते हुए यह सही सुझाव है,’ राजीव बोला.

‘घर वालों को बता देते हैं कि परीक्षा के बाद यहां आ कर हमारी शादी करवा दें,’ मंसूर ने कहा.

‘मेरी अम्मी तो आजकल यहीं हैं, अब्बू भी अगले महीने आ जाएंगे,’ सायरा बोली, ‘तब मैं उन से बात करूंगी. तुम्हें अगर अपने घर वालों को बुलाना है तो अभी बात करनी होगी.’

‘ठीक है, आज ही तफसील से सब लिख कर ईमेल कर देता हूं.’

‘तुम भी सायरा आज ही अपनी अम्मी से बात करो, उन लोगों की रजामंदी मिलनी इतनी आसान नहीं है,’ राजीव ने कहा.

राजीव का कहना ठीक था. दोनों के घर वालों ने सुनते ही कहा कि यह शादी नहीं सियासी खुदकुशी है. खतरा रिश्तेदारों से नहीं मुल्क के आम लोगों से था, दोनों मुल्कों में तनातनी तो चलती रहती थी और दोनों मुल्कों के अवाम खुनस में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे.

सायरा की अम्मी ने तो साफ कहा कि शादी के बाद हरेक लड़की को दूसरे घर का रहनसहन और तौरतरीके अपनाने पड़ते हैं लेकिन सायरा को तो दूसरे मुल्क और पूरी कौम की तहजीब अपनानी पड़ेगी.

‘तुम्हारी इस हरकत से हमारी शहर में जो इज्जत और साख है वह मिट्टी में मिल जाएगी. लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगेंगे और इस का असर कारोबार पर भी पड़ेगा,’ मंसूर के अब्बा बशीर खान का कहना था.

घर वालों ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था लेकिन एकदूसरे से अलग होना भी मंजूर नहीं था इसलिए दोनों ने घर वालों को यह कह कर मना लिया कि वे शादी के बाद लंदन में ही रहेंगे और उन लोगों को सिवा उन के नाम के किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है. उन की जिद के आगे घर वाले भी बेदिली से मान गए. वैसे दोनों ही पंजाबी बोलते थे और तौरतरीके भी एक से थे. शादी हंसीखुशी से हो गई.

कुछ रोज मजे में गुजरे लेकिन दोनों को ही लंदन पसंद नहीं था. दोस्तों का कहना था कि दुबई या सिंगापुर चले जाओ लेकिन मंसूर लुधियाना में अपने पुश्तैनी कारोबार को बढ़ाना चाहता था. भारतीय उच्चायोग से संपर्क करने पर पता चला कि उस की ब्याहता की हैसियत से सायरा अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उस के साथ भारत जा सकती थी. सायरा को भी एतराज नहीं था, वह खुश थी कि समझौता एक्सप्रेस से लाहौर जा सकती थी, अपने घर वालों को भी बुला सकती थी लेकिन बशीर खान को एतराज था. उन का कहना था कि सायरा की असलियत छिपाना आसान नहीं था और पंजाब में उस की जान को खतरा हो सकता था.

उन्होंने मंसूर को सलाह दी कि वह पंजाब के बजाय पहले किसी और शहर में नौकरी कर के तजरबा हासिल करे और फिर वहीं अपना व्यापार जमा ले. बशीर खान ने एक दोस्त के रसूक से मंसूर को पुणे में एक अच्छी नौकरी दिलवा दी. काम और जगह दोनों ही मंसूर को पसंद थे, दोस्त भी बन गए थे लेकिन उसे हमेशा अपने घर का सुख और बचपन के दोस्त याद आते थे और वह बड़ी हसरत से सोचता था कि कब दोनों मुल्कों के बीच हालात सुधरेंगे और वह सायरा को ले कर अपनों के बीच जा सकेगा.

सब की सलाह पर सायरा ने नौकरी नहीं की थी. हालांकि पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन घर बैठ कर तालीम को जाया करना उसे अच्छा नहीं लगता था और वैसे भी घर में उस का दम घुटता था. अच्छी सहेलियां जरूर बनी थीं पर कब तक आप किसी से फोन पर बात कर सकती थीं या उन के घर जा सकती थीं.

मंसूर के प्यार में कोई कमी नहीं थी, फिर भी पुणे आने के बाद सायरा को एक अजीब से अजनबीपन का एहसास होने लगा था लेकिन उसे इस बात का कतई गिला नहीं था कि उस ने क्यों मंसूर से प्यार किया या क्यों सब को छोड़ कर उस के साथ चली आई, लेकिन आज के हादसे के बाद उसे लगने लगा था कि जैसे वह अनजान लोगों के चक्रव्यूह में फंस गई है.

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