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दूसरी हार : क्या वे डेढ़ करोड़ की रकम लूट पाए

आ  जम, हैदर और रऊफ एक मिडिल क्लास के कौफी हाउस में बैठे कौफी की चुस्कियां ले रहे थे. तीनों दसवीं क्लास तक साथसाथ पढ़े थे. हैदर और रऊफ पहले से कौफी हाउस में थे, जबकि आजम थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था. तीनों की भेंट कभीकभार ही होती थी.

‘‘तो तुम आजकल टैक्सी चला रहे हो?’’ हैदर ने आजम से पूछा.

‘‘हां, क्या तुम ने यही पूछने के लिए बुलाया था?’’ आजम ने खुश्क स्वर में कहा और हैदर के कीमती सूट की तरफ देखा.

हैदर उस के चेहरे को ताकतेहुए बोला, ‘‘और तुम्हारी टांगें? क्या तुम पहले की तरह अब भी तेज दौड़ सकते हो?’’

‘‘टांगें भी ठीक हैं, लेकिन इस बात का मुझे यहां बुलाने से क्या संबंध है?’’ आजम ने उसे घूरते हुए कहा.

‘‘इस बारे में तुम्हें रऊफ बताएगा.’’ हैदर ने रऊफ की ओर इशारा करते हुए कहा, जो अब तक बिलकुल चुपचाप बैठा था. वह दुबलापतला युवक था, लेकिन उस का सिर एक तरफ झुका हुआ था, जैसे वह कान लगा कर कोई आवाज सुन रहा हो. उस के बारे में यह मशहूर था कि वह पचास गज के फासले से ही पुलिस वालों के कदमों की आहट सुन लेता था. हैदर और रऊफ आपराधिक गतिविधियों में संलग्न रहते थे. वे कभीकभी बड़ा हाथ भी मार लेते थे.

रऊफ बोला, ‘‘तुम्हें स्कूल में सब से तेज दौड़ने वाला छात्र कहा जाता था. मैं ने अपनी जिंदगी में किसी को इतना तेज दौड़ते हुए नहीं देखा. तुम ने एक किलोमीटर दौड़ने का क्या रिकौर्ड बनाया था आजम?’’

‘‘4 मिनट 10 सेकेंड. लेकिन यह स्कूल के जमाने की बात है. बाद में तो मैं 24 सेकेंड में 220 गज का फासला तय कर के स्टेट चैंपियन बन गया था. लेकिन उस के बाद कमबख्त शकील ने 22 सेकेंड में यह फासला तय कर के मेरा रिकार्ड तोड़ दिया. कोई सोच सकता है कि सिर्फ 2 सेकेंड के फर्क से मैं दूसरे नंबर पर आ गया.’’ आजम निराश स्वर में बोला.

हैदर धीरे से हंसा, ‘‘मुझे यकीन था कि तुम उस मनहूस शकील को पराजित करने में कामयाब हो जाओगे? वह बड़ा मगरूर और बददिमाग लड़का था.’’

‘‘शकील कहां है आजकल?’’ रऊफ ने पूछा.

‘‘पता नहीं, किसी बड़ी कंपनी में ऊंची पोस्ट पर नौकरी कर रहा होगा. वह पढ़ने में भी तो काफी तेज था.’’ आजम ने कहा.

‘‘शकील ऊंची पोस्ट पर और तुम टैक्सी ड्राइवर…यहां भी तुम उस से मात खा गए.’’ रऊफ आंखें बंद कर के मुस्कराया.

आजम की मुट्ठियां भिंच गईं, ‘‘अब यह सब बातें छोड़ो. बताओ, मुझे यहां क्यों बुलाया है.’’

‘‘50 लाख रुपए. क्या तुम यह रकम लेना पसंद करोगी.’’

आजम का चेहरा पीला पड़ गया. वह कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, ‘‘क्या तुम लोग कहीं डाका डालना चाहते हो.’’

‘‘तुम्हें हम दोनों के कामों के बारे में तो मालूम ही होगा. इसलिए ताज्जुब करने की कोई जरूरत नहीं है. अगर तुम्हें 50 लाख रुपए कमाने में दिलचस्पी हो तो बोलो. नहीं तो कोई बात नहीं.’’ हैदर ने उस के चेहरे पर निगाहें गड़ाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ही क्यों?’’ आजम बोला.

‘‘हमें एक तेज दौड़ने वाले आदमी की जरूरत है. काम बहुत आसान है, जिस में नाकामी का सवाल ही नहीं पैदा होता और आमदनी… तुम सुन ही चुके हो. तीसरा हिस्सा 50 लाख रुपए बनता है. क्या खयाल है?’’ रऊफ ने कहा.

‘‘पूरी बात सुने बगैर मैं क्या जवाब दे सकता हूं.’’ आजम को अब 50 लाख रुपए लहराते हुए दिखाई देने लगे थे.

रऊफ ने सिर हिलाया और मेज पर आगे की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘‘नाजिमाबाद में एक बहुत बड़ी टूल फैक्ट्री है. हैदर पिछले 2 महीने से वहीं नौकरी कर रहा है. हर माह की 5 तारीख को वहां के कर्मचारियों को तनख्वाह दी जाती है. यह धनराशि लगभग एक सौ पचास लाख होती है.’’ रऊफ ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर मेज पर फैला दिया. आजम ने उस पर खिंची हुई टेढ़ी तिरछी लकीरों को देखा, लेकिन उस की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘ये देखो, यह है फैक्ट्री की चारदीवारी और यह है प्रवेश द्वार. इस के पास ही एक छोटा सा दरवाजा है. बड़े दरवाजे से फैक्ट्री के कर्मचारी आतेजाते हैं. इसलिए यह दिन में 4 बार ही खुलता है. लेकिन छोटा दरवाजा खुला रहता है, जहां से फैक्ट्री के दफ्तर के लोग आतेजाते हैं. दरवाजे के अंदर दाखिल हो तो खुला मैदान आता है जो सीमेंट का बना हुआ है. यह मैदान पार करने के बाद फैक्ट्री का औफिस है.

‘‘फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार और औफिस के बीच करीब 5 सौ फुट की दूरी है. पहले यह मैदान औफिस के कर्मचारियों द्वारा अपनी गाडि़यां खड़ी करने के काम आता था, लेकिन अब फैक्ट्री के मालिकों ने सामने वाला प्लाट भी खरीद लिया है, जहां सभी गाडि़यां खड़ी की जाती हैं. मैदान में सुबहशाम ट्रकों पर माल लादा और उतारा जाता है. बाकी समय यह खाली पड़ा रहता है.’’ हैदर ने विस्तार से आजम को बताते हुए कहा, ‘‘अब तुम समझे कि हमें तुम्हारी मदद की क्यों जरूरत पड़ी.’’

आजम हैरानी से उन दोनों को बारीबारी से देखता रहा.

रऊफ बोला, ‘‘फैक्ट्री के प्रवेश द्वार से गाड़ी अंदर नहीं जा सकती. फैक्ट्री के औफिस में एक सौ पचास लाख की धनराशि होती है. तुम्हें औफिस के अंदर से धनराशि का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-बहुत तेज. बाहर हम लोग गाड़ी में बैठे तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. जैसे ही तुम गाड़ी में बैठोगे, गाड़ी दस सेकेंड में वहां से एक मील दूर पहुंच जाएगी. सारा मामला 500 फुट मैदान पार करने का है.’’

‘‘यानी मैं…’’ आजम ने कुछ कहना चाहा.

‘‘हां, तुम…तुम्हारे जैसा तेज दौड़ने वाला आदमी ही यह काम कर सकता है. 5 तारीख को सुबह ठीक साढ़े 10 बजे एकाउंटेंट तिजोरी में से एक सौ पचास लाख रुपए निकालता है. उस की मदद के लिए 3 औरतें होती हैं. वे कमरा बंद कर के रकम गिनते हैं और हर कर्मचारी की तनख्वाह के अनुसार रकम को लिफाफों में बंद करते जाते हैं.

रकम प्राप्त करना कोई मसला नहीं है. एकाउंटेंट एक बूढा आदमी है. रिवाल्वर देख कर वह कोई विरोध नहीं करेगा. और तीनों औरतें तो डर के मारे कांपने लगेंगी. बस, तुम्हें रुपयों का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-तेज, खूब तेज. तुम्हें सारे रिकौर्ड तोड़ देने हैं.’’ हैदर ने आजम को उत्साहित करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं.’’ आजम ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं यह काम नहीं कर सकता, चाहे तुम मुझे कितने ही रुपए दो. इस काम में बहुत खतरा है. फिर सवाल यह भी है कि मुझे प्रवेश द्वार के अंदर कौन जाने देगा. फैक्ट्री के कर्मचारियों को पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, जिन्हें दिखा कर अंदर जाने की अनुमति मिलती है.’’

रऊफ बोला, ‘‘पहचान पत्र पर फोटो नहीं होती. तुम हैदर का पहचान पत्र दिखा कर अंदर जा सकते हो. तुम्हें कोई नहीं रोकेगा. फैक्ट्री में रोजाना नए कर्मचारी भर्ती किए जाते हैं, क्योंकि 1-2 कर्मचारी नौकरी छोड़ कर चले जाते हैं. फैक्ट्री काफी बड़ी है, इसलिए कोई भी गार्ड या गेटमैन इतने कर्मचारियों या मजदूरों के चेहरे याद नहीं रख सकता. आजम, यह बड़ा आसान काम है और तुम जैसे तेज दौड़ने वाले आदमी के लिए तो यह कोई काम ही नहीं है.’’

‘‘मैं तेज दौड़ सकता हूं लेकिन गोली की रफ्तार से मुकाबला नहीं कर सकता.’’ आजम ने हकबकाते हुए कहा.

‘‘गोली चलने की नौबत नहीं आएगी. बूढे़ एकाउंटेंट को गोली चलानी नहीं आती. वह कमरे का दरवाजा बंद रखने का आदी है.’’ हैदर बोला. लेकिन आजम फिर भी नहीं तैयार हुआ. उस ने कहा कि वह बंद दरवाजा कैसे तोड़ेगा. इस पर हैदर ने कहा, ‘‘मैं रिपेयरिंग विभाग में कार्यरत हूं. मैं घटना से एक दिन पहले उस दरवाजे की कुंडी कुछ ढीली कर दूंगा, जिस से वह एक धक्के में खुल जाएगा.’’

लेकिन तब भी आजम यह काम करने को तैयार नहीं हुआ. इस पर रऊफ बोला, ‘‘आजम अब दौड़ने के काबिल नहीं रहा.’’

‘‘ये बात नहीं है.’’ आजम ने विरोध किया.

‘‘हमें मालूम है, तुम दौड़ सकते हो, लेकिन तुम्हारे अंदर हौसले की कमी है. यही वजह है कि तुम शकील से शिकस्त खा गए.’’ रऊफ जोर से हंसा, ‘‘50 लाख से तो तुम कई टैक्सियों के मालिक बन सकते हो. लेकिन तुम इस के लिए कोशिश करना ही नहीं चाहते.’’ फिर वह हैदर से बोला, ‘‘चलो हैदर, किसी दूसरे की तलाश करें, जो तेज दौड़ने के साथसाथ शानदार भविष्य का इच्छुक हो.’’

रऊफ और हैदर उठ खड़े हुए. रऊफ जाते समय आजम से बोला कि अगर वह अपना फैसला बदले तो हैदर को फोन कर दे. आजम ने कहा, ‘‘मैं अपना फैसला नहीं बदलूंगा.’’ लेकिन अगली रात आजम ने अपना फैसला बदल दिया और उन के साथ काम करने को तैयार हो गया.

फिर दूसरे ही दिन से आजम ने मैदान में दौड़ लगाने का अभ्यास शुरू कर दिया. उसे यह देख कर बहुत तसल्ली हुई कि वह अब भी उतना ही तेज दौड़ सकता है. फर्क सिर्फ यह पड़ा था कि अभ्यास छूटने से उस की सांस अब जल्दी फूलने लगी थी.

लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं थी, उसे फैक्ट्री के औफिस से प्रवेश द्वार तक सिर्फ एक ही बार दौड़ लगानी थी. फिर तो उसे गाड़ी में बैठ कर वहां से निकल भागना था. रविवार के दिन आजम ने जब मैदान में दौड़ लगाई तो वह आश्चर्यचकित रह गया. उस की रफ्तार पहले से काफी ज्यादा बढ़ गई है.

शीघ्र ही 5 तारीख आ गई, जिस दिन टूल फैक्ट्री में तनख्वाह बंटनी थी और आजम को रऊफ एवं हैदर के साथ नाजिमाबाद पहुंचना था. एक घंटे के बाद वे लोग फैक्ट्री के पास पहुंच गए. रऊफ ने फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार से कुछ दूर पहले ही अपनी गाड़ी रोक दी. वहां से आजम पैदल ही फैक्ट्री तक पहुंचा. ठीक 10 बजे फैक्ट्री का दरवाजा खुला और कर्मचारी कतारबद्ध हो कर अंदर जाने लगे.

आजम भी लाइन में लग गया. नंबर आने पर उस ने चौकीदार को हैदर का पहचान पत्र दिखाया, जिस ने सरसरी तौर से उस पर नजर डाली और आगे बढ़ने का इशारा किया. दरवाजे से घुसने पर उस ने अंदर का निरीक्षण किया. रऊफ ने वहां का जो नक्शा बनाया था, वह एकदम ठीक था.

आजम ने फैक्ट्री के औफिस से छोटे दरवाजे तक का फासला नजरों से मापा, वह लगभग, 500 फुट ही था. यानी 150 गज. आजम यह फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था. अब उसे यह इत्मीनान हो गया कि यह काम वाकई ज्यादा मुश्किल नहीं है.

इस से पहले आजम, रऊफ और हैदर इस योजना पर कई बार बात कर चुके थे तथा हर मामले पर अपनी दृष्टि डाल चुके थे. यही नहीं, आजम हैदर से मिलने के बहाने पूरी फैक्ट्री बाहर से देख चुका था.

आजम आगे बढ़ता जा रहा था. लेकिन वह अन्य कर्मचारियों के साथ फैक्ट्री के अंदर नहीं गया, बल्कि कुछ दूरी पर बने शौचालय की ओर बढ़ गया. उसे अपना काम ठीक साढ़े 10 बजे अंजाम देना था. 10:25 पर वह शौचालय से बाहर निकला और फैक्ट्री के औफिस के पास पहुंच कर रुक गया. उस ने जेब में रिवाल्वर टटोला जिसे रऊफ ने दिया था. फिर वह औफिस के अंदर पहुंचा.

आजम ने खिड़की से देखा कि तनख्वाह बांटने वाले कमरे में बूढ़ा एकाउंटेंट और 3 औरतें थीं. एकाउंटेंट तिजोरी से रुपए निकाल कर थैले में डाल चुका था. आजम ने दरवाजे का हैंडल घुमाया और दरवाजे को धक्का दिया. मगर दरवाजा टस से मस न हुआ. एक क्षण के लिए उस के होश उड़ गए.

लेकिन जब उस ने थोड़ा जोर से धक्का दिया तो दरवाजा खुल गया. बूढे़ एकाउंटेंट ने सिर उठा कर उस की ओर देखा, फिर उस के माथे पर बल पड़ गए. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से आजम को देखा, जो अब तक रिवाल्वर निकाल चुका था. रिवाल्वर देख कर तीनों औरतों की चीखें निकल गईं.

‘‘खामोश!’’ आजम ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘चुपचाप रुपयों का थैला मेरे हवाले कर दो, नहीं तो तुम लोग बेमौत मारे जाओगे.’’

‘‘नहीं.’’ बूढ़े एकाउंटेंट की सांसें फूलने लगीं, ‘‘इस में हमारी तनख्वाहें हैं.’’

‘‘जल्दी करो.’’ आजम ने कठोर स्वर में कहा. बूढे एकाउंटेंट ने डर के मारे नोटों से भरा थैला आजम की ओर बढ़ा दिया. आजम ने झपट कर थैला ले लिया. थैला बहुत भारी था. उसे पहली बार महसूस हुआ कि नोटों में भी काफी वजन होता है. वह सोचने लगा कि थैला ले कर दौड़ लगाने में उसे जरूर परेशानी होगी. लेकिन फिर भी वह 500 फुट का फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था.

आजम दरवाजे की ओर कदम बढ़ाते हुए बोला, ‘‘शोर मचाने की जरूरत नहीं है. अगर किसी ने शोर मचाया या मेरा पीछा करने की कोशिश की तो मैं गोली चला दूंगा.’’ फिर शीघ्र ही वह कमरे से बाहर निकला और दरवाजे की कुंडी लगा कर दौड़ना शुरू कर दिया.

7 साल पहले का जमाना लौट आया, जब आजम दर्शकों के सामने दौड़ लगाता था. आज भी वह अपनी योग्यता का भरपूर प्रदर्शन कर रहा था. उस के कानों में तेज हवाओं की सीटियां गूंज रही थीं. आजम को अपने पीछे दौड़ते कदमों का एहसास हो रहा था. ऐसे में उस के पैरों में मानो पंख लग गए थे.

वह जीजान से तेज दौड़ रहा था. उस की नजरों के सामने छोटा दरवाजा तेजी से पास आता जा रहा था. उस दरवाजे के बाहर रऊफ और हैदर गाड़ी में बैठे उस का इंतजार कर रहे थे. तभी उसे एहसास हुआ कि वह जिंदगी में कभी पहले इस से ज्यादा तेज नहीं दौड़ा था.

अचानक उसे किसी ने पीछे से पकड़ने का प्रयास किया. खतरे का एहसास होते ही क्षण भर के लिए उस का बदन टेढ़ा हो गया. आजम का कंधा पूरी ताकत के साथ सीमेंट के पक्के फर्श से टकराया लेकिन रुपयों का थैला उस के हाथ से फिर भी नहीं छूटा. ऐसे में उस के चेहरे के अंग सुरक्षित रहे. अगर वह सीधा गिरता तो शायद काफी समय तक कोई उसे पहचान न पाता.

जमीन से टकराते ही आजम के फेफड़ों में भरी हुई हवा निकल गई. उस ने एक गहरी सांस ले कर जल्दी से उठने की कोशिश की. लेकिन किसी ने उस की टांगें बड़ी मजबूती से पकड़ रखी थीं. उस के गले से एक तेज चीख निकल गई.

यह कैसे संभव हो सकता था. वह तो अपनी जिंदगी में कभी इतना तेज नहीं दौड़ा था. आखिर कोई आदमी उसे किस तरह पकड़ने में सफल हो गया. उस ने सिर घुमा कर पीछे देखा-एक युवक उस के टखने पकडे़ हुए था. वह युवक बोला, ‘‘माफ करना मित्र, इस थैले में मेरी तनख्वाह है. इसलिए मैं तुम्हें यह थैला ले कर भागने की इजाजत नहीं दे सकता.’’

पहले तो आजम को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आया. फिर धीरेधीरे उस ने उस युवक को पहचान लिया. उस ने छोटी सी दाढ़ी बढ़ा रखी थी. उसे पकड़ने वाला युवक शकील था, जिस ने 7 साल पहले कालेज में उसे दौड़ प्रतियोगिता में हराया था.

‘‘शकील!’’ आजम के हलक से एक दर्दभरी कराह निकली, ‘‘तुम…तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

‘‘मैं इस टूल फैक्ट्री का कर्मचारी हूं.’’ शकील ने कठोर स्वर में जवाब दिया, ‘‘एक विभाग का मैनेजर.’’

फिर पलक झपकते ही वहां फैक्ट्री के बहुत से कर्मचारी इकट्ठा हो गए. उन्होंने पहले रुपयों का थैला उठाया, फिर आजम को उस के पैरों पर खड़ा किया. वे आपस में जोरजोर से बातें कर रहे थे. रऊफ और हैदर को भी पकड़ लिया गया था.

आजम को उन दोनों की कोई परवाह नहीं थी. उसे रुपए हाथ से निकल जाने का भी कोई दुख नहीं हुआ. आजम को बस एक ही बात का अफसोस था कि इस बार भी वह दौड़ में शकील के मुकाबले दूसरे नंबर पर रहा.

– प्रस्तुति : कलीम उल्लाह   

जब प्यार में धर्म जाति का लेना देना नहीं तो शादियों में धर्म का दखल क्यों

सुप्रीम कोर्ट ने हाल के एक फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह को वैध बनाने के लिए इसे उचित संस्कारों और समारोहों के साथ किया जाना चाहिए जैसे कि सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर सात कदम) आदि. विवादों के मामले में इन समारोहों का प्रमाण आवश्यक है.

जस्टिस बी वी नागरत्ना और जस्टिस औगस्टीन जौर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि जहां हिंदू विवाह लागू संस्कारों या सप्तपदी जैसे समारोहों के अनुसार नहीं किया जाता है वहां विवाह को हिंदू विवाह नहीं माना जाएगा. दूसरे शब्दों में अधिनियम के तहत वैध विवाह के लिए अपेक्षित समारोहों का पालन किया जाना चाहिए और कोई मुद्दा/विवाद उत्पन्न होने पर उक्त समारोह के प्रदर्शन का प्रमाण होना चाहिए. जब तक कि पक्षकारों ने ऐसा समारोह नहीं किया हो, अधिनियम की धारा 7 के अनुसार कोई हिंदू विवाह नहीं होगा और केवल प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8 के तहत हिंदू विवाह का रजिस्ट्रेशन विवाह के सुबूत की सुविधा प्रदान करता है लेकिन यह वैधता प्रदान नहीं करता. यदि धारा 7 के अनुसार कोई विवाह नहीं हुआ तो रजिस्ट्रेशन विवाह को वैधता प्रदान नहीं करेगा.

कोर्ट ने एक पत्नी द्वारा अपने खिलाफ तलाक की कार्यवाही को स्थानांतरित करने की मांग वाली याचिका पर फैसला सुनाते हुए ये टिप्पणियां कीं. मामले की सुनवाई के दौरान पति और पत्नी यह घोषणा करने के लिए संयुक्त आवेदन दायर करने पर सहमत हुए कि उन की शादी वैध नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार विवाह ‘गीत और नृत्य’ और ‘शराब पीने व खाना खाने’ का आयोजन नहीं है या अनुचित दबाव द्वारा दहेज व उपहारों की मांग करने और आदानप्रदान करने का अवसर नहीं है जिस से आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत हो सकती है. विवाह कोई व्यावसायिक लेनदेन भी नहीं है. विवाह पवित्र है क्योंकि यह 2 व्यक्तियों को आजीवन, गरिमापूर्ण, सम्मान, सहमति पूर्ण और स्वस्थ मिलन प्रदान करता है. इसे ऐसी घटना माना जाता है जो व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करती है खासकर जब अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 7 के तहत पारंपरिक संस्कारों व समारोहों का ईमानदारी से आचरण और भागीदारी सभी विवाहित जोड़ों और समारोह की अध्यक्षता करने वाले पुजारियों द्वारा सुनिश्चित की जानी चाहिए.

जाहिर है, हमारे देश के सब से बड़े कोर्ट ने भी विवाह में धर्म और पुजारियों की भूमिका सुनिश्चित कर दी, जबकि हम जानते हैं कि इस धर्म ने हजारों सालों में क्याक्या किया है. धर्म ने करोड़ों नरनारियों का गरम रक्त पिया है, हज़ारों कुल बालाओं को जिंदा जलाया है. धर्म के कारण ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने जुआ खेला, राज्य हारा, भाइयों और स्त्री को दांव पर लगा कर गुलाम बनाया. धर्म के ही कारण द्रौपदी को 5 आदमियो की पत्नी बनना पड़ा. धर्म के कारण अर्जुन और भीम के सामने द्रौपदी पर अत्याचार किए गए और वे योद्धा मुर्दे की भांति बैठे देखते रहे. धर्म के कारण भीष्म पितामह और गुरु द्रोण ने पांडवों के साथ कौरवों के पक्ष में युद्ध किया. धर्म के कारण अर्जुन ने भाइयों और संबंधियों के खून से धरती को रंगा. धर्म के कारण भीष्म आजन्म कुंआरे रहे और राम ने राज्य त्याग वनवास लिया.

धर्म के कारण राम ने सीता को त्यागा, शूद्र तपस्वी को मारा और विभीषण को राज्य दिया. धर्म ही के कारण राजा हरिश्चन्द्र राजपाट छोड़ भंगी के नौकर हुए. धर्म के कारण राजपूतों ने सिर कटाए, उन की स्त्रियों ने अपने स्वर्ण, शरीर भस्म किए, रक्त की नदी बही. धर्म के कारण ही सिखों ने मुगलकाल में अंग कटवाए, बच्चों को दीवार में चुनवाया. धर्म ही के कारण रोमन कैथोलिकों के भीषण अत्याचार की भेंट लाखों ईसाई हुए. धर्म ही के कारण मुसलमानों ने पृथ्वी को रौंद डाला और मनुष्य के गरम खून में तलवार रंगी. धर्म ही के लिए ईसाइयों ने प्राणों का विसर्जन किया.

धर्म के लिए घरों में विधवाएं चुपचाप आंसू पी कर जीती रही हैं. अछूत कीड़ेमकौड़े बने हुए हैं, जबकि पाखंडी और घमंडी ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ बने हुए हैं. धर्म के कारण ही पेशेवर पाखंडी, पुजारी भी लाखों स्त्रीपुरुषों से पैरो को पुजाते हैं. धर्म के कारण ही आज हिंदू, मुसलमान और ईसाई एकदूसरे के जानी दुश्मन बने हैं.

सारी दुनिया में हजारों वर्ष से प्रमुख बना यह धर्म मनुष्य को शांति से रहने नहीं देता है. मनुष्य को आजाद नहीं होने देता है. दरअसल, इस ने हमारे दिमाग को गुलाम बना लिया है. जो मनुष्य धर्म के जिस रंग में रंगा गया, फिर उस के विरुद्ध नहीं सोच सकता, तभी तो अछूत को लगता है कि औरों का मैला ढोना ही उस का धर्म है, ब्राह्मण सोचता है सब से श्रेष्ठ होना ही उस का धर्म है , मुसलमान समझता है कि काफिर को कतल करना ही धर्म है, विधवा समझती है मरे हुए पति के नाम पर सब के अत्याचार सहना ही उस का धर्म है. धर्म के नाम पर पापपुण्य, अच्छाबुरा जो कुछ मनुष्य को समझा दिया गया है मनुष्य वैसा ही करने को विवश महसूस करता है.

अब इसी धर्म को शादीविवाह के अनुबंध में घुसाया जा रहा है. धर्म के बिना कानूनी रूप से की गई शादी का कोई मोल नहीं है. यानी, न चाहते हुए भी हर किसी को सारी रस्में निभानी होंगी. पढ़ेलिखे, आधुनिक सोच वाले युवा जातपांत की परवा न करते हुए लव मैरिज की हिम्मत करते हैं और कोर्ट में जा कर शादी कर लेते हैं, हालांकि इसे कानून वैध नहीं मान रहा. यानी, हर किसी को सभी धार्मिक रस्में निभानी होंगी.

धर्म का दखल क्यों

सोचने वाली बात यह है कि जब जिंदगी के छोटेबड़े बदलावों में धर्म नहीं घुसता तो शादी में क्यों घुसाया जाता है. कोई इंसान नए किराए के घर में रहने जाता है, घर के किसी बड़े सामान की शौपिंग करने जाता है, नए कालेज में दाखिला लेता है या नई नौकरी जौइन करता है तो क्या हम पुजारी को बुला कर मंत्रोच्चारण करवाते हैं या धार्मिक रीतिरिवाज शुरू करते हैं? नहीं करते न. इस के बावजूद काम भलीभांति संपन्न होता है. हम नए घर, नए कालेज या नई नौकरी में तरक्की करते हैं और आगे बढ़ते हैं. धर्म की गैरमौजूदगी से हमें कोई घाटा तो नहीं होता न. फिर शादी जो केवल जीवन में 2 लोगों के साहचर्य के लिए एक अनुबंध है, में धर्म क्यों?. इस तरह के अनुबंध में मात्र एक वचन और अगर आवश्यकता हो तो अनुबंध के पंजीकरण के एक प्रमाण की ज़रूरत ही होनी चाहिए. अन्य रस्मोंरिवाजों की कहां आवश्यकता है. इस लिहाज से मानसिक श्रम, समय, पैसे, उत्साह और ऊर्जा की बरबादी क्यों?

औरतों को पुरुषों के अधीन बनाया है धर्म ने

धर्म के नाम पर पुरुषों को मरनेमारने को प्रेरित करने के लिए प्लैटर में रख कर औरतों को पुरुष के अधीन बना कर सौंपा गया. धर्म ने एक तरह से स्त्रियों को भी संपत्ति बना डाला. राजकाल में पुरुष योद्धा जब दूसरे राजाओं का खात्मा करते थे तो उन के राज्य की विधवा औरतों को अपने साथ जीत के उपहार की तरह उठा लाते थे. आज भी औरतें संपत्ति की तरह ट्रीट की जाती हैं. इन सब के पीछे सदियों से धर्म की साजिश रही है. धर्म ने हमेशा से औरतों की शक्तियां छीन कर पुरुषों को सौंपी और फिर उन से मनमाने काम करवाए. पापपुण्य की परिभाषाएं गढ़ी गईं. स्त्रियों को हर जगह नीचे दिखाए जाने की साजिश की गई ताकि वे विरोध में स्वर मुखर न कर सकें. खुद को हमेशा दासी ही मानें. शादी की धार्मिक रस्मों में भी कितनी ही जगह उन्हें उन की औकात दिखाई जाती है.

शादी में होने वाले रीतिरिवाजों के कारण बढ़ता खर्च

अब ज़रा गौर करें कि शादी चाहे अरेंज हो या लव, इन रिवाजों और तैयारियों में बहुत ही रुपए बरबाद होते हैं. शादी पर अधिक खर्च करना क्या एक बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं है?

“लड़के वालों की जो मांग है उसे तो पूरी करनी ही है”, “यह दहेज़ नहीं, गिफ्ट है”, “शादी करनी है तो रीतिरिवाज़ तो करने ही होंगे और इस में खर्चे तो होंगे ही”, “यह धर्म का मामला है”, “लड़की की शादी मतलब कन्यादान, फिर लड़की किसी और की हो जाती है.” शादियों के दौरान बोले जाने वाले इं जैसे कथन क्या बताते हैं?

शादी में होने वाले खर्च और उपहार की आड़ में दिए जाने वाले दहेज के आदानप्रदान को समाज ने खुद धर्म, जाति और पितृसत्तात्मक संरचना के आधार पर बनाया है. यह जिस तरह से बनाया गया है उस का संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है बल्कि दहेज लेना और देना तो कानून की नजर में एक दंडनीय अपराध है. लेकिन हमारे समाज में आज भी कई धर्मों व जातियों के लोग शादी के लिए इतना क़र्ज़ लेते हैं जो उन के लिए ही चुका पाना मुश्किल होता है. लड़की के जन्म लेते ही शादी के लिए संपत्ति, दानपुण्य, दहेज जोड़ना मातापिता अपनी जिम्मेदारी समझते हैं. कई परिवार अपने जीवनभर की कमाई बेटियों की शादी के लिए बचा कर रखते हैं. साथ ही, अधिक दहेज या उपहार न दे पाने की स्थिति में खुद को शर्मिंदा महसूस करते हैं.

शादी में होने वाले खर्च पर विचार करने की ज़रूरत है. शादी में होने वाला खर्च दीवाली के लिए खरीदे जाने वाले पटाखे जैसा ही है जिसे कुछ ही घंटों में जला दिया जाता है. बारबार बाजार जाना, सामान लाना, सब की पसंदनापसंद का ध्यान रखना, खाने की व्यवस्था देखना, बड़ी मात्रा में कागज के कार्ड प्रिंट करवाना, महंगे से महंगे कपड़े खरीदना और उन को बाद में बहुत कम या न के बराबर इस्तेमाल करना. इस के साथ ही शादियों से निकलने वाला कूड़ाकचरा, जैसे प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, थर्मोकोल के बने सामान, बड़ी मात्रा में दूसरे यूज़ एंड थ्रो मैटीरियल, ये सब वेस्टेज औफ़ मनी नहीं है? शादी में होने वाले खर्च को धार्मिक, सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया जाता है. अगर तार्किक रूप से सोचें तो क्या सच में हमें लोगों को यह बताने की ज़रूरत हैं कि किस ने घर की शादी में कितना खर्च किया या लड़के को क्याक्या मिला और लड़की को क्याक्या दिया गया. क्या सभी जोड़े धार्मिक रिवाजों से शादी करने के बाद आपस में खुश हैं?

अब यह भी मुमकिन नहीं है कि सहमति से शादी करने वाले 2 लोग धार्मिक अनुष्ठानों को खारिज कर बिना दहेज और उपहार के शादी के लिए सिर्फ कानूनी रूप से पंजीकरण करें.

यहां पर एक बात पर और ध्यान देने की ज़रूरत है- शादी में दहेज या उपहार दिया लड़की को दिया जाता है पर मिलता लड़के को है. अगर हम पितृसत्तात्मक नज़रिए से देखें तो शादी में लड़की को दिया तो बहुतकुछ जाता है पर अधिकार उस का शायद ही किसी सामान पर होता है. जो कुछ भी है वह उसे अपने घर से मिलता है और बाद में उस पर हक ससुराल वालों का हो जाता है. अधिकतर लोग देनलेन से जुड़े रीतिरिवाजों को धर्म से जोड़ कर सही ठहराते हैं.

लड़कियों के जन्म के साथ ही उन की शादी के बारे में सोचना यह दर्शाता है कि लड़कियों की अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती- न ही शादी के रीतिरिवाज़ों की संरचना में बदलाव को ले कर और न ही शादी करना है या नहीं करना है इस फैसले को ले कर. लड़की के जन्म के बाद 2 चरण ऐसे हैं जो समाज लड़कियों से बिना पूछे ही तय कर लेता है. पहला चरण है, लड़की की शादी होना और दूसरा चरण है उस का मां बनना. जबकि यह लड़की की पसंद और चुनाव है कि वह खुद शादी न करना चाहे या मां न बनना चाहे. यही नहीं, शादी के दौरान और उस के बाद भी लड़कियों के साथ काफी असमानता का व्यवहार किया जाता है.

असमानता के बीज बोतीं रस्में

पैर पूजन की रस्म

हिंदू धर्म में पारंपरिक शादी के रीतिरिवाज में एक रस्म होती है पैर पूजने की, जिस में लड़की के मातापिता दूल्हादुलहन के पैर छूते है. कहते हैं कि विवाहित पतिपत्नी को गौरी-शंकर का रूप माना जाता है, इसलिए लड़की के मातापिता बेटीदामाद के पैर छूते हैं. अब सवाल यह है कि अगर सच में वे ईश्वर का रूप हैं तो लड़की के मातापिता ही क्यों पैर छूते है, हर किसी को उन के पैर छूने चाहिए. लड़के के मातापिता को भी पैर छूने चाहिए. क्या लड़के के घरवालों को भी ईश्वर के आशीर्वाद की ज़रूरत सिर्फ इसलिए नहीं होती क्योंकि वे लड़के के मातापिता हैं?

पितृसत्ता की देन है दहेज प्रथा

दहेज व्यापार तब शुरू होता है जब 2 परिवार शादी के लिए राजी हो जाते हैं. दुलहन का परिवार दूल्हे के परिवार को न सिर्फ पैसे बल्कि उपहार और तोहफे देता है. क्षमता न होने के बावजूद लड़के वालों की डिमांड पूरी करने के लिए उधार ले कर या घर बेच कर भी दहेज़ की रकम इकट्ठी करता है. दहेज़ जैसे रिवाज समाज में चलने वाली पितृसत्तातमक व्यवस्था को दिखाते हैं और पितृसत्तात्मक समाज यकीनन धर्म की देन है. लगन के नाम पर शादी से 2 दिनों पहले दुलहन परिवार दूल्हे के परिवार को भारी मात्रा में धन, आभूषण, फर्नीचर, उपकरण, कपड़े आदि देता है. सामान को उस के घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी और खर्च तक लड़की का परिवार ही देता है. इसे हमारे समाज में असली दहेज माना जाता है क्योंकि इस दिन सब से ज्यादा पैसे और सामान का लेनदेन होता है. साथ ही, यह बहुत ही दिखावटी आदानप्रदान होता है. फिर शादी के दिन लड़की के परिवार वाले लड़के के परिवार के ज्यादातर रिश्तेदारों को पैसे के साथ कपड़े देते हैं. इस रस्म को समाज में लेनदेन कहा जाता है. लेकिन यह लड़की के परिवार के लिए केवल देन ही देन है, न कि लेन.

शादी के दिन भी लड़की का परिवार हर रिश्तेदार के लिए खाने की उत्तम व्यवस्था करता है. भोजन, टैंट, साजसज्जा, रोशनी, लेनदेन (लेनादेना), रस्म, डीजे, ड्रोन, फूल आदि पर बहुत मोटा पैसा खर्च किया जाता है. इन सभी के कारण मुख्य रूप से दुलहन के पिता और भाई पर अत्यधिक आर्थिक दबाव होता है. अधिकतर समय वे अपनी संपत्ति को गिरवी रख या बेच कर शादी के लिए कर्ज लेते हैं. कभीकभी अत्यधिक कर्ज चुकाने में असमर्थ होने के कारण आत्महत्या से मौत के मामले भी सामने आते हैं. एक शादी में ये रीतिरिवाज के नाम पर मोटा खर्चा इस बात की कोई गारंटी नहीं देते हैं कि यह शादी का रिश्ता पूरी तरह से चलेगा. कभीकभी तलाक बहुत जल्दी हो जाता है. भले ही तलाक न हो पर दहेज की मांग कई बार शादी के बाद भी चलती रहती है.

पैर धोना

तमाम जगहों पर आज भी शादी के दौरान दूल्हे और बरातियों के पैर धोने की प्रथा है. यह प्रथा एक पक्ष को बड़ा, एक को छोटा बनाती है. दरअसल पहले के समय में लोग दूर से बरात ले कर पैदल आते थे. तब उन के पैर गंदे हो जाते थे, इसलिए उन के पैर धुलाए जाते थे जिस ने आज एक धार्मिक कुरीति का रूप ले लिया है. आज इसे सम्मान से जोड़ा जाता है. हमारे समाज में दुलहन पक्ष को छोटा समझा जाता है जो कि शादी के दौरान धार्मिक गतिविधियां निभाते समय ज्यादा उजागर होती हैं. वास्तव में शादी दोनों पक्षों के बीच का संबंध होता है और संबंध का अर्थ है बराबरी का बंधन. यानी, किसी भी पक्ष को छोटा या बड़ा मानना गलत है. मगर धर्म हमेशा औरत को छोटा महसूस कराता है.

कन्यादान

हम सामान्य तौर पर वस्तुओं को ही दान करते हैं जिन के लिए हमें भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता. यह वजह है कि जब एक लड़की का कन्यादान किया जाता है तो उस को महसूस होता है जैसे वह कोई इंसान नहीं बल्कि वस्तु है जिसे आज दान किया जा रहा है, मानो उस का कोई वजूद नहीं है. उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं है. मातापिता के लिए उन की बेटी सदैव बेटी ही रहती है, उसे कभी पराया नहीं किया जा सकता. फिर ऐसे रिवाज का क्या औचित्य? लड़के को दान क्यों नहीं किया जाता, केवल लड़की को ही क्यों? दरअसल, इस के पीछे भी धर्म का यही मकसद है कि स्त्री का कोई वजूद न माना जाए. उसे चीज की तरह समझा जाए. शादी में ऐसे धार्मिक रिवाज हमारी संकीर्ण सोच को और पुख्ता करते हैं.

सुहाग की निशानियां

शादी के बाद महिलाओं पर धार्मिक रिवाज के नाम पर एक और प्रथा थोपी जाती है. शादीशुदा की पहचान के रूप में उसे मांग भरना होता है. इसी तरह चूड़ी, पायल, बिछुए, मंगलसूत्र आदि पहनना महिलाओं के लिए तमाम सुहाग की निशानियां हैं जिन्हें महिला न पहने तो ताने सुनने को मिल जाते हैं. जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है. अगर महिला को यह सब पहनना पसंद है तब कोई बात नहीं. लेकिन इसे ले कर धार्मिक और सामाजिक दबाव थोपी हुई प्रथा का रूप देती है.

देश के प्रधानमंत्री ने भी अपने चुनावी भाषण में मंगलसूत्र का जिक्र करते हुए खौफ दिखाया कि विपक्ष कहीं मांबहनों के गले का मंगलसूत्र न छीन ले. मगर यहां सवाल यह उठता है कि महिलाएं मंगलसूत्र पहनें ही क्यों? क्या पुरुष मंगलसूत्र पहनते हैं? अगर नहीं, तो स्त्रियों पर यह पाबंदी क्यों? मंगलसूत्र तो एक तरह से उस पट्टे जैसा हो जाता है जिसे हम अपने पालतुओं के गले में बांधते हैं ताकि उन्हें अपने हिसाब से चला सके. औरतों के गले का दुपट्टा भी एक तरह से उस पट्टे जैसा ही है जिसे खींचते ही महिला का दम घुटने लगे. औरतों को इस तरह जंजीरों में बांध कर रखने का औचित्य क्या है? जैसे पुरुष का अपना वजूद है वैसे ही स्त्री का भी है. वह भी अपनी तरह से अपनी जिंदगी की मालिक है. मगर इसे स्वीकारने में हमें डर क्यों लगता है? कहीं न कहीं धर्म ने हमारी सोच ही कुंठित कर रखी है.

अपने बेटे से ये उम्मीद नहीं रखें कि वे वृद्धावस्था में आप का ख्याल रखेगा

विदेश में बुजुर्गों को इस बात का डर रहता है कि उन्हें अपने बच्चों पर निर्भर न होना पड़े लेकिन भारत में स्थिति विपरीत है. यहां बुजुर्गों को लगता है कि जिस तरह से उनके बच्चे अपनी जवानी के दिनों में उन पर निर्भर थे उसी तरह वृद्धावस्था में उनका अधिकार है कि वे अपने बच्चों से अपनी सेवा करवाएं. लेकिन सच तो यह है कि बच्चों से यह अपेक्षा और उन्हें कर्तव्य याद दिलाने की कवायद ही गलत है. अगर शादी के बाद आप संतान उत्पन्न करते हैं तो उसे अपना खिलौना न समझें. उस से कोई अपेक्षा न रखें.

आधुनिक भारतीय परिवार में वो दिन गए जब मां बाप अपने बेटे के साथ रहना चाहते थे. ढलते सूरज की ओर कदम बढ़ाते हुए कहें कि मज़ा इसमें नहीं कि ज़िंदगी को आपने कैसे जिया. सवाल इसका है कि मौत को आपने कितनी खूबसूरती से गले लगाया. रिटायरमेंट के बाद आप अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीना पसंद करेंगे. हो सकता है आप को और आप की पत्नी को किताबें पढ़ना पसंद हो, प्रकृति का आनंद लेना पसंद हो और अपने ही तरह के लोगों के साथ बातें करना पसंद हो. अगर आप अपने बेटों के साथ रहेंगे तो वो आप की ज़िंदगी पर राज करेंगे मगर आप को यह गवारा नहीं होगा.

दरअसल परिवार का मतलब यह नहीं कि एडल्ट होने के बाद भी आप बच्चों को खुद से बाँध कर रखें. उन्हें आगे बढ़ने के लिए यदि दूसरे शहर या दूसरे देश जाना है तो आप उन्हें रोक नहीं सकते. यह जरुरी नहीं कि एडल्ट बच्चे हमेशा अपने माता पिता के साथ रहे और उन की देखभाल करें. माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि जरूरत पड़ने पर वे उन की देखभाल करें. लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि इन अपेक्षाओं की एक कीमत होती है. यदि आप को बदले में बच्चों की नाराजगी और उपेक्षा मिल रही है तो फिर क्या ही फायदा. इस लिए बच्चों पर कभी इस बात का दवाब न डालें या उन्हें फर्ज न गिनाएं कि बचपन में आप ने उन्हें संभाला और बड़ा किया तो अब उन्हें आप के बुढ़ापे की लाठी बनना होगा. आप को अपने बच्चों और उनके परिवारों के साथ रिश्ते को सहज बनाए रखने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए;

जीते जी अपना धन बच्चों में बांटे नहीं और न ही वसीयत ही करें

फिल्म बागबान का सीन याद कर लें. जब अमिताभ बच्चन ने अपने बच्चों में सारी संपत्ति बाँट दी फिर उन का और उन की पत्नी का क्या हश्र हुआ. प्यार और भावना में बह कर ऐसा कतई न करें. यह सुनिश्चित करें कि आप अपनी सेवानिवृत्ति के बाद आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. यदि आप के पास एक घर है तो उसे अपने पास रखें और जब तक संभव हो उस में रहें. अपने दैनिक खर्चों को मैनेज करने के लिए एक अपने पास रुपए रखें. अपने बच्चों पर फ़ालतू रुपए खर्च करने के बजाय अपने लिए धन जमा रखें. हम में से अधिकांश लोग बुढ़ापे में बच्चों के ऊपर सब कुछ ख़त्म कर देते हैं और बाँट देते हैं यह सही नहीं.

जीवन में एक उद्देश्य खोजें

एक सेवानिवृत्त व्यक्ति के रूप में आप के पास समय है, दूसरों के प्रति आप की जिम्मेदारियां सीमित हैं और आप भविष्य के लिए अपने धन को ले कर सुरक्षित हैं. जबकि आप के बच्चों को अपना करियर देखना है, अपने बच्चों का पालन-पोषण करना है और धन कमाना है. उन के ऊपर इस बात के लिए निर्भर न रहे कि वे आप को समय देंगे, आप का ध्यान रखेंगे या रुपए पैसे खर्च करेंगे. इस के लिए उन पर निर्भर न रहें. इस से बेहतर है कि आप अपने समान विचारधारा वाले दोस्तों पर भरोसा करें और एक ऐसा उद्देश्य खोजें जो आप के बड़े हो चुके बच्चों और उन के परिवारों के साथ घूमने-फिरने से परे हो. ऐसा मकसद जिस से आप को ख़ुशी मिले और समाज का भी कुछ भला हो जाए.

संवाद के माध्यम खुले रहें

कोशिश करें कि आप के और आप के बच्चों के बीच संबंध मधुर रहे और आप के बच्चे कठिन समय में आप का सपोर्ट करने को तैयार हों. अपने लिए उन के समय की मांग करते हुए खीजते रहने से अच्छा है कि अपनी सामान्य रोजमर्रा की दिनचर्या का ध्यान रखें और सेहत बना कर रखें. उन से अपने डर या बीमारी के बारे में बात करें और उन्हें उस स्थिति में मदद करने के लिए जरूर कहें जो वास्तव में आपके लिए अकेले निपटना कठिन हो सकता है. मगर हर समय उन्हें परेशान न करें.

सक्रियता

बुजुर्गों को घर की चारदीवारी तक सीमित रखने के बजाए सक्रिय और फिट बने रहना चाहिए. अपनी दिनचर्या में व्यायाम और वाकिंग शामिल करना चाहिए. इससे न केवल शारीरिक बीमारियां दूर होंगी बल्कि अकेलापन और अवसाद भी कम होगा.

अपना पैसा बर्बाद न करें

रीति रिवाजों, अंधविश्वास , पण्डे पुजारियों और उपहारों में ज्यादा पैसे न फेंकें. घर में फ़ालतू की चीजें इकट्ठी न करें. सामान खरीदने का कोई अंत नहीं है. अक्सर हम दूसरों के लिए बेकार में कपड़े खरीदते हैं जबकि कपड़े, आभूषण, कलाकृतियाँ, घरेलू सामान के मामलों में सभी की व्यक्तिगत पसंद अलग होती है. इसलिए रुपए बचाने की सोचें यही बाद में काम आएगा.

बच्चों पर बोझ न डालें

अपने बच्चों की संपत्ति पर खुद को हकदार न समझें. हम मांग कर सकते हैं कि हम ने उनके लिए जो किया उसके लिए वे आभारी रहें पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त हैं. हमें उन पर किसी भी तरह का बोझ नहीं डालना चाहिए.

सरल जीवन जीएं

अक्सर माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर बड़ा करते हैं और जब वे बाहर सर्विस करने लगते हैं तो माता पिता अपने बच्चों को फोन करते हैं और बताते हैं कि आज मैंने इस महाराज से दीक्षा ली या इतना समय कीर्तन में बिताया. अब मैं इतने नियमों का पालन कर रहा हूँ वगैरह. अब बिचारे उनके बच्चे खुशी व्यक्त करने के बजाए यही कह पाते हैं कि आप ज्यादा नियम, धर्म, कीर्तन और दान दक्षिणा के चक्कर में न पड़ें. आप को ही मुश्किल होगी. साथ ही वे मन में यह भी सोच रहे होते हैं कि माँ बाप को साथ रखना अब आसान नहीं होगा. आखिर युवा वर्ग ऐसे अंधविश्वासों के चक्कर में कहाँ फंसते हैं.

जितनी आप अपेक्षा रखोगे उतनी उपेक्षा होगी

दीनदयाल के दो बेटे हैं, एक बंगलुरु में और एक अमेरिका में. वह जब भी बड़े बेटे को फोन लगाते तो वह कभी कहता कि पापा अभी मैं मीटिंग में बिजी हूँ, बाद में बात करता हूँ. कभी कहता पापा मैं बाहर हूँ बाद में रिंग करता हूँ. पर वह कभी रिंग नहीं करता. वह फोन का इन्तजार करते रहते थे पर कभी फोन नहीं आता था. छोटे बेटे के साथ भी ऐसा ही होता था. एक दिन उन का हृदय बदल गया. एकदम कचोट सी उठी. तब उन्होंने तय किया कि जिन बच्चों के लिए उन से ज़्यादा मीटिंग महत्त्वपूर्ण है उन से क्या मतलब रखना. अब वह अपने लिए जिएंगे. अपने बेटों को कभी फोन नहीं लगाएंगे. उन का फोन आया तो ही बात करेंगे. अपना सम्पर्क अपने साथ जोड़ेंगे. इस के बाद दीनदयाल के जीने का तरीका ही बदल गया. बेटे के बजाए वह दोस्तों को फोन लगाने लगे. सुबह वॉक पर जाने लगे. वहां और भी अपनी उम्र के नए दोस्त बने. उन दोस्तों के साथ समय बेहद खूबसूरती से गुजरने लगा. बेटे की उपेक्षाओं का दर्द धुलने लगा और जीवन में नई खुशियां बिखेरने लगी. इसलिए कहते हैं कि मोह मनुष्य को रुलाता है और उसकी दुर्गति कराता है. ऐसा मोह बच्चों से कभी मत पालिये. अपने जीवन में खुश रहिए.

ओल्ड ऐज होम और कुछ संस्थाएं भी हैं विकल्प

वृद्धावस्था में व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल हो जाता है. अधिकांश बुजुर्गों के समझ आर्थिक संकट भी रहता है. ऐसे में उसकी दूसरों पर निर्भरता बढ़ जाती है. रिटायरमेंट के बाद लोग मायूस हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि जीवन खत्म सा हो गया है. उम्र बढ़ने के साथ वैसे भी तमाम रोग उसे घेर लेते हैं. कई बार उसे घर परिवार में दुरूह स्थिति का सामना करना पड़ता है. उनको बोझ समझा जाने लगता है और अकेले छोड़ दिया जाता है. मगर देश में बहुत सी समितियां और ओल्ड ऐज होम हैं जो यह बुजुर्गों के लिए बुढ़ापे की लाठी की तरह काम कर रही है. ऐसी कई संस्थाएं हैं जहाँ सभी अकेलापन भूलकर जीवन के अंतिम क्षणों में स्वस्थ एवं सुखी रह सकते हैं तथा जीवन को अपने तरीके से जी सकते हैं.कई बुज़ुर्ग संयुक्त परिवार से दूर हट कर अपनी ही शर्तों पर ज़िंदगी बिताना चाहते हैं इसलिए रिटायर होने के बाद किसी ऐसे शानदार रिटायरमेंट होम का रुख कर रहे हैं जिसमें वे अपनी बची ज़िंदगी के बिताना चाहते हैं. बंगलौर, चेन्नई, कोयंबटूर, पुणे, हैदराबाद, हरिद्वार व ऋषिकेश जैसे इलाकों में ऐसे रिटायरमेंट होम बनाए जा रहे हैं.

वही पहनें जो दिल करे

जकल हर दूसरे दिन फैशन में बदलाव हो जाता है यानी लगातार पहनावे के अंदाज बदल रहे हैं. ऐसे में युवा लड़कियों और महिलाओं के लिए ऑप्शन बहुत हैं. हर लड़की/ महिला चाहती है कि वह कुछ लेटेस्ट ट्रेंड का स्टाइलिश आउटफिट पहने. आप को भी ऐसा लगता है तो इंतजार किस बात का? अपने बजट के हिसाब से कुछ ट्रेंडी सा खरीदें और पहनें. यह मत सोचें कि लोग क्या कहेंगे या वह ड्रेस आप के बॉडी शेप के अनुसार सही है या नहीं. आप को जो दिल करे वह पहनें.

आप हर तरह के कपड़े ट्राई करें. खुद को यह सोच कर मत रोकिए कि आप का वजन ज्यादा है तो आप बॉडी हगिंग ड्रेस नहीं पहन सकतीं या आप दुबली पतली हैं तो आप पर स्लीवलेस नहीं जमेगा या रंग सांवला है तो काले कपड़े कैसे पहनें. यह भी न सोचें कि सामने बैठी लड़की आप का मजाक तो नहीं उड़ा रही या पार्टी में आप कहीं अजीब तो नहीं लग रहीं. आप का शरीर है और आप की पसंद. दूसरों का इस में क्या लेना देना? इस बात का भी लोड न लें कि लोग क्या कहेंगे. घर से बाहर जाते समय भी आप का मन है कि घर में पहने जाने वाले कम्फर्टेबल कपड़े पहनने हैं तो पहनिए. आप कपड़े अपनी पसंद और जरूरत के मुताबिक पहन रहे हैं या लोगों को दिखाने के लिए?

अपनी पसंद को दें तवज्जो

समाज द्वारा किसी भी अवसर या माहौल के मुताबिक कपड़े पहनने का सलीका तैयार किया जाता है. हर समाज में शोक के अवसर पर खास रंगों के वस्त्र धारण किए जाते रहे हैं. उत्सवी माहौल के कपड़ों के रंग भी अलग हैं. कई पूजा स्थलों में महिलाओं के सिर पर दुपट्टा और पुरुषों द्वारा सिर पर रूमाल आदि से सिर ढक कर जाने की रिवायत भी जारी है. शादी के समय दुल्हन से अपेक्षा की जाती है कि वह भारी लहंगा चोली और घूंघट पहने. मगर आप इस तरह घुटन महसूस कर रही हैं तो इंकार कीजिए. ईसाई और मुस्लिम समाज में भी अपने तरीके के लिबास तय हैं. मगर ऐसी बंदिशें क्यों?

अगर आप को सलवार कुर्ते में या जींस टॉप में शादी करनी है तो वैसा ही कीजिए. दुनिया से आप को क्या लेना. अगर दूल्हा आप को समझ रहा है और उसे कोई ऐतराज नहीं तो बहुत अच्छा है. मगर यदि वह ऐतराज करता है तो आप उस से भी किनारा करने से हिचकें नहीं. क्योंकि अगर आप की इच्छा और पसंद को तवज्जो नहीं मिल रही तो ऐसे जीवनसाथी या उस के परिवार वालों से आप कितना निभा पाएंगी? इसी तरह यदि आप लहंगा पहन कर ही शादी करने में कंफर्टेबल हैं और आप को शादी की पारम्परिक वेशभूषा ही पसंद है तो फिर वैसा ही कीजिए. बात यहाँ केवल अपनी इच्छा और पसंद की है जिसे किसी और के लिए मत बदलिए और कपड़ों के मामले में अपनी चॉइस को ही सब से ऊपर रखिए.

मानसिक सेहत पर असर

क्या आप ने भी कभी सामाजिक मानदंडों में फिट होने के लिए कपड़े पहनने का फैसला किया है? क्या आप के साथ ऐसा कभी हुआ है कि आपने कुछ पहना था और इसे बदलने का फैसला किया क्योंकि यह आप के बॉडी शेप के अनुरूप नहीं है? सच कहा जाए तो हम सब ने कभी न कभी ये किया होगा. कभी कभी आप अपनी पसंदीदा टी-शर्ट या मिडी को अलमारी के पीछे फेंक देती हैं क्योंकि आप इसे पहन कर शर्मिंदगी महसूस नहीं करना चाहती हैं. मगर क्या आप जानती हैं कि आप जो पहनती हैं उस का आप के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है ? जाने अनजाने हम ने लोगों की पसंद के हिसाब से कपड़े पहना शुरू कर दिया और यह हमें शायद पता भी नहीं होगा. मगर हमारी यही आदतें हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं.

सीधे शब्दों में कहें तो बॉडी इमेज का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर को कैसे देखता है. इस में उस का अपने बारे में धारणा शामिल है. हर बार जब आप आईने के सामने खड़ी होती हैं और खुद को बताती हैं कि यह कपड़ा मेरे लिए सही नहीं है या मैं इस में भद्दी दिखती हूं तो समझ लेजिए आप की मेंटल हेल्थ खतरे में है.

सुंदरता के सामाजिक मानकों के अनुरूप खुद को ढालने की कोशिश का यह प्रभाव न केवल हमारे मानसिक स्वास्थ्य बल्कि हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकता है. दूसरों के आगे हमारा इंप्रेशन कैसा पड़ेगा यानी हम कैसे दिखेंगे यह हमारे लिए बहुत मायने रखता है. हम सभी चाहते हैं कि हमें सकारात्मक रूप से देखा जाए. सौंदर्य के साथ रुढ़िवाद हमेशा से ही जुड़ा रहा है और यही कारण है कि हम आज भी सोचते हैं कि हमारे अंदर कुछ गलत है. आप के आस पास के बुजुर्गों ने आपके वजन के बारे में मजाक किया होगा या आप को वज़न कम करने या कम खाने के लिए कहा होगा. इस तरह की टिप्पणियों और सलाह ने आप को यह विश्वास दिलाया होगा कि निश्चित ही आप के शरीर में कुछ कमी है. इसलिए आप अपने मन का कपड़ा पहनना छोड़ देते हैं.

हम मॉडल, इन्फ़्लुएन्सर और मशहूर हस्तियों को देखते हैं. ये लोग एक निश्चित तरीके से कपड़े पहनते हैं और एक निश्चित तरीके से दिखते हैं. हम उनके जैसा बनने की ख्वाहिश रखते हैं. इसलिए जो दिखाया जाता है उस से जब हम अलग दिखते हैं तो निराश महसूस करने लगते हैं.हम ऐसे आउटफिट चुनना शुरू करते हैं जो हमें शरीर के उन हिस्सों को छिपाने में मदद करें जो लोगों के ब्यूटी स्टैंडर्ड के अनुरूप नहीं हैं.

मानसिक स्वास्थ्य पर इस सोच का प्रभाव

यदि आप हर बार कपड़े चुनने से पहले समाज के स्टैंडर्ड चैक करती हैं और उनके हिसाब से कपड़े पहनती हैं तो आप के आत्मसम्मान को चोट लग सकती है. अपने शरीर की खराब छवि के बारे में सोच कर आप के मन में नकारात्मक विचार पैदा हो सकते हैं.

अगर आप को लगता है कि आपको वह नहीं पहनना चाहिए जो आप वास्तव में पहनना चाहती हैं क्योंकि आप के शरीर का प्रकार ‘उपयुक्त नहीं’ है या लोग आप को नकारात्मक रूप से देखेंगे तो इस से आप के आत्मविश्वास का स्तर भी कम होने लगेगा. इसलिए आप को क्या पहनना है यह आपकी चॉइस होनी चाहिए न कि समाज की.

देखा जाए तो सभी के लिए आजादी के मायने अलग है. अपनी पसंद के कपड़े पहनना आप का अधिकार है. जो मन करे वो पहनें. ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं जो सब तरह के कपड़े पहनना पसंद करती हैं लेकिन पहनती वही हैं जो घर वाले कहते हैं. जैसे सूट-सलवार और दुपट्टा जो टाइट न हो और बदन न दिखे या हिजाब और घूँघट. मगर याद रखिए बिकिनी, शॉर्ट्स, सूट, घूंघट या हिजाब आप क्या कपड़े पहनेंगी यह आप का अपना निर्णय है और यह अधिकार संविधान द्वारा संरक्षित है. वैसे भी गन्दी नजरें तो घूँघट और हिजाब के अंदर भी पहुँच जाती हैं. इस लिए यह बात महिला या लड़की को खुद तय करना चाहिए कि उसे कब क्या पहनना है.

आप को अपने पसंद के कपड़े पहनने के लिए लोगों से लड़ना पड़ेगा. सब से पहली लड़ाई शुरू करें घर से और फिर खुद से. अपनी पसंद के कपड़े पहन कर जब आप बाहर निकलें और मर्दों से ज्यादा औरतें घूर-घूर के देखती हैं तो परेशान मत होइए. अपने मन का कीजिए.

क्या बच्चे की खातिर एक्स हसबैंड से आर्थिक मदद लूं, ठीक रहेगा?

सवाल

एक्स हसबैंड से मदद लेने में ईगो बीच में आ जाता है.मेरा पति से तलाक हो चुका है. हमारा 12 साल का बेटा मेरे साथ रहता है. मेरे एक्स हसबैंड अपने बिजनैस में बिजी रहते हैं. बेटे से बहुत प्यार करते हैं इसलिए उस से मिलने आते रहते हैं. मैं नौकरी करती हूं. बेटे की हर मांग पूरी करने की कोशिश करती हूं पर कई बार हाथ तंग हो जाता है. बेटा मेरी स्थिति समझ मायूस हो जाता है. क्या बच्चे की खातिर एक्स हसबैंड से आर्थिक मदद लूं, ठीक रहेगा?

जवाब

एक पति और पत्नी में अलगाव/ तलाक हो सकता है पर बच्चे का मातापिता से रिश्ता नहीं टूट सकता. भले ही बच्चा आप के पास रहता है और उस की परवरिश के लिए आप को पैसों की आवश्यकता हो तो बच्चे के पिता से मदद मांगने में हिचकिचाएं नहीं. बच्चा पिता का भी है और अगर उन के पास पैसे हैं तो वे अपने बच्चे की बेहतरी के लिए अवश्य देंगे. ऐसा करने से आप भी थोड़ा हलका महसूस करेंगी और साथ ही साथ, बच्चे को भी यह लगेगा कि भले ही मातापिता अलग रहते हैं पर उस के भविष्य के लिए वे दोनों एकल यूनिट की तरह काम करते हैं. यह बात बच्चे के आत्मविश्वास को कई गुना बढ़ा देगी.अपनी आय के अनुसार अपने शौक को जीवित रखें. अगर आप हर समय जिम्मेदारियों का टोकरा सिर पर रख कर चलेंगी तो बच्चा भी दब्बू सा या डराडरा महसूस करेगा. महीने में एक बार मूवी देखें. बाहर होटल में डिनर भी एंजौय कर सकते हैं.

आप भी अपनी समस्या भेजेंपता : कंचन, सरिता ई-8, झंडेवाला एस्टेट, नई दिल्ली-55. समस्या हमें एसएमएस या व्हाट्सऐप के जरिए मैसेज/औडियो भी कर सकते
हैं. 08588843415

धार्मिक लपेटे में मन के रोगी

आज जहां सबकुछ वैज्ञानिक और हाईटैक है वहां गरीबों और पिछड़ों से कहा जाता है कि मानसिक रोग कुछ नहीं, यह देवीदेवताओं का प्रकोप है जो जादूटोने से दूर होता है. यह तो बीमारों को और बीमार कर देता है. मानसिक रोगों से जुड़ी भ्रांतियों का समाधान यहां पेश है.

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार को बचाने के लिए न केवल सेना से सहायता मांगी गई, विपक्षी दलों को तोड़ने की कोशिश हुई, बल्कि टोनेटोटके भी अपनाए गए. इमरान खान की तीसरी बीवी बुशरा खान के लिए कहा जाता है कि उन्होंने काले जादू का इस्तेमाल किया. मुरगे लड़ाए गए, जिन्न बुलाए गए. इमरान खान अकसर पाकिस्तान के पंजाब स्टेट के पाकपट्टन गांव में फरीद की दरगाह पर काले बुरके में ढकी बुशरा और खुद सफेद चादर ओढ़ कर जाया करते थे. अफसोस कुछ काम न आया और सरकार चली गई. विपक्षी दल

2 वोट ज्यादा ले गए और कौन्फिडैंस मोशन पास हो गया. जब इमरान खान जैसे इंटरनैशनल प्लेबौय टोनेटोटके के मरीज बन सकते हैं तो आम लोगों का क्या कहना.

उस दिन रामगोपाल वर्मा के घर के बाहर रौनक थी. लगभग 2 लाख रुपए खर्च कर के उन्होंने अपने घर में एक विशाल अनुष्ठान करवाया था. उन के प्रधान पारिवारिक तांत्रिक ओझा ने उन्हें इस की सलाह दी थी. बात ही कुछ ऐसी थी. उन का बड़ा पुत्र कई महीनों से विचित्र सी हरकतें जो कर रहा था. कभी वह बहुत उत्तेजित हो कर घरवालों को अनापशनाप बकने लगता, कभी राजनीति व साहित्य पर बेकार की बहस करता तो कभीकभी घंटों सिर झुकाए कमरे में शांत और अनमना सा बैठा रहता.

इस कर्मकांड को समाप्त हुए अभी सप्ताह भी नहीं बीता था कि बाबू रामगोपालजी के घर से फिर चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं. रामगोपाल वर्मा हैरान और अवाक थे कि इतनी पूजापाठ, अनुष्ठान किए पर फिर भी यह हादसा? एक पड़ोसी ने उन्हें सलाह दी कि एक बार डाक्टर को दिखाओ.

तुरंत डाक्टर से संपर्क किया गया, जहां पता चला कि वह मानसिक रोग की चपेट में है. लगभग एक माह तक चले मनोचिकित्सक के इलाज से रामगोपाल वर्मा के घर में खुशियां लौट रही थीं.

तनावपूर्ण व भागदौड़भरी जीवनशैली के चलते न केवल लोगों का शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है बल्कि वेबकूफी के चलते लोगों में मानसिक रोगों के लक्षण नजर आने लगते हैं, पर वे इस बारे में खुल कर बात नहीं करते और डाक्टर के पास जाने से कतराते हैं. वे रामगोपाल की तरह तांत्रिकओझाओं के फेर में पड़ जाते हैं जिस से रोग बढ़ जाता है व गंभीर परिणाम झेलने पड़ते हैं.

जबकि विज्ञान ने लगभग हर दरवाजे पर दस्तक दे दी है. मानसिक रोगों को अंधविश्वास के घेरे में ही देखा जाता है. हमारे देश में तो लोग मानसिक रोगों को देवीदेवाओं का प्रकोप, जादूटोने का असर या शरीर में किसी आत्मा के प्रवेश को मानते हैं और इस रोग को भगवा राजनीति ने और बल दिया है. इसी कारण रोगी के रिश्तेदार उसे योग्य डाक्टर के पास ले जाने के बजाय झाड़फूंक, तांत्रिक या टोनेटोटके वालों के पास ले जाते हैं, जहां वास्तव में तन, मन और धन की बरबादी होती है. ये मिथ्या धारणाएं लोगों के मानसपटल से उतरनी जरूरी हैं.

मानसिक रोग भी शारीरिक रोगों की ही भांति होते हैं. इन का इलाज भी डाक्टरों द्वारा भी संभव है, पर जब पूरा समाज यह मानने लगे कि मंत्रों में बड़ा दम है और हवनयज्ञ से चुनाव जीते जा सकते हैं तो मानसिक रोगों से बचने के लिए टोनेटोटके क्यों न बिकें. गूगल पर टोनेटोटके के उपायों की जानकारी भी भरी है और विज्ञापन भी भरे हैं. इमरान खान जैसे बेवकूफ हर गली में भरे हैं.

व्रतकथा नाम से चलाए जा रहे एक बयान में अभी दिसंबर 2021 में लिखा गया कि मानसिक तनाव दूर करने के लिए अचूक मंत्र है, ‘ओम अतिक्रूर महाकाय कल्पान्त दहनोपम् भैरव नमस्तुभ्यं अनुज्ञा दातुमर्हसि.’ सलाह दी गई कि इस मंत्र का जाप करने से काफी लाभ होगा. इसी साइट पर कपूर से दुश्मन को बीमार करने के टोटके भी बनाए गए हैं. यह भी सलाह दी गई है कि टोटके करने से पहले तांत्रिक को साथ रखें. अब तांत्रिक मुफ्त में तो नहीं आएगा. इस सारे प्रचार का उद्देश्य होता है कि आप मानसिक रोगी को डाक्टर के पास नहीं किसी ओझा के पास ले जाएं जो आप के या रिश्तेदारों के संकट दूर करे.

इस फरेब में कम पड़ें, कम पैसे वाले लोग ज्यादा फंसते हैं जिन्हें डाक्टरों के पास जाने में डर लगता है कि कहीं वे लूट न लें.

समाधान

यह सरासर गलत है. किन्हीं कारणों (आनुवांशिक, पारिवारिक कलह, असफलता, निराशा या अन्य) से मस्तिष्क में भौतिक या रासायनिक परिवर्तन होते हैं जो कालांतर में मस्तिष्क की सामान्य कार्यप्रणाली में व्यवधान डाल कर उसे रोगग्रस्त बना देते हैं.

बिलकुल निराधार. मानसिक रोगों को एक चिकित्सक (मनोचिकित्सक) ही समझ सकता है, कोई अन्य नहीं. झाड़फूंक, मंत्र, टोनेटोटके वाले, ओझा आदि हमारी धार्मिक भावनाओं तथा सामाजिक मान्यताओं का गलत लाभ उठाते हुए हमें गुमराह करते हैं.

बिलकुल गलत. एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलने वाले रोग को ‘संक्रामक रोग’ कहते हैं और कोई भी मानसिक रोग संक्रामक रोग नहीं होता.

यह सोचना गलत है. यह चिकित्सा विधि कुछ ही रोगियों को दी जाती है, जैसे उन्माद या फिर अवसाद के रोगी या फिर आत्महत्या का विचार रखने वाले रोगी आदि. यह बहुत ही प्रभावी व सुरक्षित उपचार विधि है. इस से याद्दाश्त पर कुप्रभाव नहीं पड़ता.

मधुमेह, उच्च रक्तचाप आदि रोगों में भी तो रोगी को उम्रभर दवाइयां लेनी पड़ती हैं. फिर भी सारी उम्र दवा लेने का सिलसिला कुछ प्रतिशत रोगियों में ही होता है, प्रत्येक में नहीं.

अधिकतर ओषधियां ‘सुस्ती’ का एहसास करवाती हैं जो अवसाद, उन्माद, चिंता से घिरे रोगी के लिए अनिवार्य भी होती हैं. इसलिए यह सही नहीं है कि ये दवाइयां आप को हमेशा के लिए नींद की आगोश में ले लेंगी.

कुछ मानसिक रोग आनुवंशिक जरूर होते हैं मगर उन्हें भी उचित पारिवारिक वातावरण प्रदान कर के टाला जा सकता है. इसलिए यह शंका भी शतप्रतिशत ठीक नहीं है.

बिलकुल नहीं. मनोरोगी की सोच व विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन आता है जिन की वजह से वह अजीब बातें या हरकतें करता है. इस बात में कोई संशय नहीं कि उस की बुद्धि का स्तर वही रहता है जो रोग से पूर्व था.

नहीं, यह उचित नहीं है. शादी के बाद व्यक्ति पर अतिरिक्त जिम्मेदारियां बढ़ती हैं. ऐसे में यदि व्यक्ति मानसिक रोगी हो तो वीभत्स परिणाम सामने आते हैं.

जिस प्रकार संतुलित आहार स्वास्थ्य के लिए श्रेष्ठ है उसी तरह संतुलित व्यवहार इन रोगियों में उचित व श्रेष्ठ है.

खामोश जिद: क्या पूरी हो पाई रुकमा की जिद

‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

हिंदी सिनेमा में मधुर संगीत की अहमियत कम होने की वजह क्या है, जानें यहां

क्या कभी आपने सोचा है कि हिंदी फिल्मों में गानों का होना इतना जरूरी क्यों होता है, जिस में हीरोहीरोइन एक खूबसूरत लोकेशन्स पर रोमांस और डांस करते हुए नजर आते हैं जबकि हौलिवुड की फिल्मों में शायद ही कोई गाना होता हो. असल में हिंदी सिनेमा में हमेशा से विविध प्रकार के गीत होते हैं, जिस में जीवन के विविध पक्षों को दिखाया जाता है, जो हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग होता है. उन सभी पक्षों को इन गीतोंसंगीतों के माध्यम से उभारने का प्रयास गीतकारों एवं संगीतकारों ने सालोंसाल से किया है.

इस के अलावा बौलीवुड में गानों का अर्थ देश की संस्कृति को दिखाने के अलावा कमर्शियल वैल्यू को दिखाना होता है. फोक सोन्ग से ले कर पारंपरिक गाने सभी का महत्व अलग होता है. ये गाने फिल्म को एक म्यूज़िकल टच के साथसाथ पब्लिसिटी देने का भी काम करते हैं.

भावनाओं को व्यक्त करने का जरिया

ये भी सही है कि हमारे देश में भावना संगीत के माध्यम से उजागर होती है. फिर चाहे वो सुख हो या दुख, गाने ही उस से बयां करते हैं. यही वजह है कि बौलीवुड की फिल्म में एक नहीं, बल्कि कई गाने दर्शाए जाते हैं. जिन के बोल लोगों के जुबान पर हमेशा सुनने को मिलते हैं.

बौलीवुड में गानों के बगैर मूवी बनाना संभव नहीं. दोनों ही एकदूसरे के पूरक होते हैं. कई बार ऐसा भी देखा गया है कि फिल्म अच्छी न होने पर भी लोग गानों की वजह से हौल तक खीचे चले आते हैं. फिल्म की कहानी को दर्शक एक बार देखते हैं, लेकिन उन के गाने उन्हे सालोंसाल याद रहते हैं. यही वजह है कि पहले के निर्माता, निर्देशक, संगीतकार और गीतकार को अधिक महत्व देते रहे, क्योंकि तब कहानी के हिसाब से गाने लिखे और बनाए जाते थे, जो आज की फिल्मों में बहुत कम मिल रहे हैं और ये सोचने वाली बात हो चुकी है.

अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने एक इंटरव्यू में कहा है कि हिंदी फिल्मों में गाने कहानी को आगे ले जाने का काम करते हैं, जिस में प्यार, शादी और बच्चे सभी को संगीत के माध्यम से दिखाया जाता रहा है, लेकिन आजकल गानों का कहानी से कोई संबंध नहीं होता.

बन रही हैं अलग तरह की फिल्में

ये सही है कि आज भी कई फिल्में ऐसी हैं, जिसे सभी वर्ग के दर्शकों ने पसंद किया, मसलन संजय लीला भंसाली, राकेश रोशन या फिर महेश भट्ट की फिल्मों के गाने आज भी पोपुलर होते हैं. पिछले 30 सालों से भी अधिक समय तक हिंदी फिल्मों के लिए गाने लिख रहे, 4000 से अधिक गाने लिख चुके और गिनीज बुक में सब से अधिक गाने लिखने का रिकौर्ड बना चुके गीतकार समीर कहते हैं कि “पहले की फिल्मों में गानों की अधिकता थी और कहानी के हिसाब से गाने लिखे जाते थे. अब वैसी फिल्में नहीं बन रही हैं, आज की फिल्मों में मांबहन की गाली, नग्नता, सैक्स, वायलेंस आदि दिखाए जाते हैं. किरदार वही हैं पर कहानी अलग है. अर्थ कहीं नजर नहीं आ रहा है. न कहानी, न किरदार न ही समाज में. ऐसे में फिल्मों में अच्छे गानों तलाश भी बेकार है. साजन, दीवाना, आशिकी 2 जैसी फिल्में आज बनानी पड़ेंगी.”

गानों का है मार्केट

समीर आगे कहते है कि “देखा जाए तो आज के दौर में गानों के साथ आशिकी 2 जब बनी तो वह सुपर हिट फिल्म बनी. ऐसा नहीं है कि गानों का मार्केट नहीं है, जो डिजिटल राइट्स पहले 25, 50 लाख या एक करोड़ में बिकते थे वे आज 15 से 20 करोड़ में बिक रहे हैं. अगर ये बिक और खरीदा जा रहा है, तो ये कहां जा रहा है? कोई तो खरीद ही रहा है और ये नई पीढ़ी ही खरीद रही है.
“कुछ लोग ऐसे है, जिन्हे अर्थहीन गाने पसंद हैं क्योंकि उन्हें जंक फूड चाहिए. खाया, फेंक दिया और आगे बढ़ जाते हैं. फिल्मी गीतकार कहानी के हिसाब से गीत लिखता है. अब न उसे कहानी मिल रही है, न उस तरह के किरदार, तो वह शायरी लिखे कैसे? इस के अलावा पहले जो शिद्दत निर्माता, निर्देशक का कहानी को ले कर रहती थी, जिस में वे सही तरीके से बैठ कर चर्चा करते थे, वो अब नहीं है. अभी उन्होंने गाने को रिक्त स्थान की पूर्ति के हिसाब से रखा है, जहां उन्हें कुछ नहीं मिल रहा होता है, तो वहां वे गाने को डाल देते हैं. गाने के लेखक को कहानी और किरदार का कुछ पता नहीं होता, पहले से तैयार गानों को व्हाट्सऐप पर भेज दिए जाते हैं और निर्देशक अपनी मर्जी से उसे डाल देते हैं.”

नई पीढ़ी की नई सोच

समीर बताते हैं कि “मुश्किल ये हो रही है कि जब तक बदलाव ऊपर से नीचे तक नहीं होगा, तब तक अच्छे संगीत की उम्मीद नहीं की जा सकती. मैँ यह भी मानता हूं कि हर 20 साल बाद जब पीढ़ी जवान होती है, तो वह अपनी सोच और संगीत ले कर आती है. अब जो बच्चे स्कूल से ले कर कालेज तक जस्टिन बीबर और शकिरा को सुनती है, वैसे बच्चे जब कम्पोजर बनते हैं तो उन चीजों से अधिक प्रभावित होते हैं. इस के अलावा ओटीटी में जहां सेन्सर भी नहीं है, इस में संगीत की कोई गुंजाइश नहीं होती. कभी एक जमाना था जब हौरर मिस्ट्री में भी संगीत होता था. इस से इंडस्ट्री को नुकसान भी हो रहा है और ये बात सब को पता है, क्योंकि निर्माता, निर्देशक जानते हैं कि फिल्म की रिपीट वैल्यू केवल संगीत ही होता है. फिल्म लोग एक बार देखने जाते हैं जबकि गाने सालोंसाल चलते हैं.”

फिल्मों का व्यवसाय हो रहे हैं खत्म

ये बदलाव है, जिसे सभी को समझना पड़ेगा और समीर मानते हैं कि वह दौर फिर से आएगा, लेकिन तब तक सभी को इंतजार करना पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि लेखक नहीं हैं या कम हैं. असल में उन्हें लिखने की आजादी नहीं मिल रही है. साथ ही आज के निर्देशक इतना समय बैठ कर चर्चा करने में लगाना नहीं चाहते. वे इसे झंझट मानते हैं. ऐसे में जो गाने तैयार हैं या पुराने गानों को रीमिक्स कर डाल देते हैं. उन्हें दुख इस बात का है कि बड़े बैनर जैसे यशराज फिल्म्स भी संगीत पर ध्यान नहीं देते. सब पैसा बनाने के चक्कर में लगे हैं और धीरेधीरे इस का असर हिंदी फिल्मों पर हो रहा है. फिल्मों का व्यवसाय खराब हो रहा है, थिएटर बंद हो रहे हैं, कंटेंट नहीं है. इस का असर समझ में अवश्य आएगा लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होगी.

कुछ खास फिल्में जो गानों की वजह से चर्चित रहीं

इंद्रसभा

आजादी से पहले 1932 में रिलीज हुई फिल्म ‘इंद्रसभा’ को अब तक की सब से ज्यादा गानों वाली फिल्म माना जाता है. इस में 69 गाने थे. इसी तरह और भी कई फिल्में हैं, जो गानों की वजह से ही जानी जाती हैं.

सिलसिला (1981)

सिलसिला 1981 की एक रोमांटिक हिट ड्रामा फिल्म है, जो यश चोपड़ा द्वारा सहलिखित, निर्देशित और निर्मित है. इस में हरिवंश राय बच्चन के गीत थे. फिल्म में कुल 12 गाने हैं.

हम आप के हैं कौन (1994)

वर्ष 1994 में सूरज बड़जात्या की फिल्म ‘हम आप के है कौन’ में सलमान खान और इस फिल्म में माधुरी दीक्षित मुख्य भूमिका में हैं. फिल्म में 14 गाने हैं और सभी गाने हिट हैं.

हम साथसाथ हैं (1999)

हम साथसाथ हैं पारिवारिक ड्रामा फिल्म है, जिसे सूरज बड़जात्या ने लिखा और निर्देशित किया है. इस फैमिली ड्रामा फिल्म में 10 गाने हैं, जो काफी पोपुलर रहे.

ताल (1999)

ताल
ताल

ताल एक संगीतमय रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसे सुभाष घई द्वारा सहलिखित, संपादित, निर्मित और निर्देशित किया गया है. फिल्म में ऐश्वर्या राय, अक्षय खन्ना और अनिल कपूर मुख्य भूमिकाओं में है. इस में 12 गाने हैं.

हम दिल दे चुके सनम (1999)

निर्माता, निर्देशक संजय लीला भंसाली ड्रामा फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ है. इस फिल्म में 11 गाने हैं.

मोहब्बतें (2000)

मोहब्बतें
मोहब्बतें

यह एक हिंदी भाषा की संगीतमय रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसे आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया था और यशराज फिल्म्स के यश चोपड़ा द्वारा निर्मित किया गया था. फिल्म में कुल मिला कर 8 गाने हैं.

देवदास (2002)

देवदास रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिस का निर्देशन संजय लीला भंसाली ने किया है. इस में 10 गाने हैं, सभी क्लासिक हिट हैं.

तेरे नाम (2003)

तेरे नाम त्रासदीपूर्ण रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जो सतीश कौशिक द्वारा निर्देशित और जैनेंद्र जैन द्वारा लिखित हैं. इस फिल्म में सलमान खान और भूमिका चावला साथ आए. फिल्म में 12 गाने हैं.

रौकस्टार (2011)

रौकस्टार संगीतमय रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जो इम्तियाज अली द्वारा लिखित और निर्देशित है. इस में 14 गाने हैं और इन्हें काफी पसंद किया गया.

बाजीराव मस्तानी (2015)

यह संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित 2015 की महाकाव्य ऐतिहासिक रोमांस फिल्म है. फिल्म में 10 गाने हैं, सभी आइकोनिक बन गए हैं.

अप्रैल का चौथा सप्ताह कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार, कई स्क्रीन्स में लगा ताला

2023 में कुछ स्टार कलाकारों और प्रोडक्शन हाउस ने कौरपोरेट के साथ मिल कर कुछ फिल्मों की टिकटें खुद ही खरीद कर यह प्रचारित करने का असफल प्रयास किया था कि बौलीवुड में बहार आ गई है और अब दर्शक हर हिंदी फिल्म को देखना चाहता है, मगर अफसोस 2024 के शुरूआती 4 माह बीत जाने के बाद बौक्स औफिस पर बौलीवुड 2 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान उठा चुका है.

इस की मूल वजह यह है कि किसी भी स्टार कलाकार या स्टार निर्देशक या निर्माता ने अच्छी फिल्म बनाने पर ध्यान नहीं दिया. हालात इतने बदतर हो गए हैं कि 19 अप्रैल से देश भर के कुछ सिनेमाघर बंद चल रहे हैं. अप्रैल माह के चौथे सप्ताह यानी कि 26 अप्रैल को प्रदर्शित निर्देशक करण ललित बुटानी की फिल्म ‘‘रूसलान’’ और गौरव राणा निर्देशित फिल्म ‘‘मैं लड़ेगा’’ प्रदर्शित हुई. यह फिल्में भी बौक्स औफिस पर बुरी तरह से डूबीं और अब एक मई से 50 प्रतिशत स्क्रीन्स पर ताला लग चुका है.

सिनेमाघर मालिकों ने पूरे डेढ़ माह तक 50 प्रतिशत सिनेमाघर बंद रखने का ऐलान कर दिया है. सभी को अब 13 जून 2024 का इंतजार है, जब कमल हासन की फिल्म ‘‘इंडियन 2’’ रिलीज होगी. या 27 जून का जब प्रभास की बहुभाषी फिल्म ‘‘कलकी 2898’’ रिलीज होगी. कटु सत्य यह है कि सभी एक्जीबिटरों और सिनेमाघर मालिकों के बीच हिंदी फिल्मों के सफल होने पर यकीन ही नहीं रहा. सभी को लगता है कि अब उन्हें दक्षिण की फिल्मों पर ही भरोसा करना चाहिए.

26 अप्रैल को करण ललित बुटानी निर्देशित फिल्म ‘‘रूसलान’’ प्रदर्शित हुई. इस फिल्म में सलमान खान के बहनोई आयुष शर्मा के अलावा सुशनी श्रेया मिश्रा, जगपति बाबू व बीना बनर्जी जैसे कलाकारों ने अभिनय किया है. फिल्म ‘रूसलान’ के नायक आयुष शर्मा हिमाचल प्रदेश के राजनेता पंडित सुखराम के पोते हैं जिन्होने 2014 में अभिनेता सलमान खान की बहन अर्पिता से विवाह रचाया था.
2018 में वह पहली बार अभिनेता के तौर पर सलमान खान निर्मित फिल्म ‘‘लवयात्री’’ में हीरो बन कर आए थे. इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा था. 2021 में वह असफल फिल्म ‘अंतिम’ में नजर आए. अब ‘रूसलान’ उन की तीसरी फिल्म है.

फिल्म ‘रूसलान’ के प्रदर्शन से पहले इस फिल्म को देखने का आव्हान सलमान खान ने अपने सोशल मीडिया पर किया था. इस के अलावा फिल्म का प्रचार बहुत ही ज्यादा घटिया रहा. घिसीपिटी देशभक्ति व रौ औफिसर की कहानी वाली इस फिल्म की लागत 25 करोड़ रूपए है जबकि यह फिल्म पूरे सप्ताह भर में सिर्फ 3 करोड़ रूपए ही इकट्ठा कर सकी.
इस में से निर्माता के हाथ में बामुश्किल सवा करोड़ ही आएंगे. ऐसे में निर्माता क्या करेगा? यह तो वही जाने. पर उसे सीधे 24 करोड़ की चपट लग चुकी है और यदि उस ने ब्याज पर पैसा ले कर फिल्म बनाई होगी, तो फिर भगवान ही उस का भला करेगा.

‘रूसलान’ के साथ ही 26 अप्रैल को आकाश प्रताप सिंह, वल्लारी विराज, अश्वथ भट्ट, सौरभ पचोर जैसे नए कलाकारों के अभिनय से सजी फिल्म ‘मैं लड़ेगा’ प्रदर्शित हुई. गौरव राणा निर्देशित इस फिल्म की कहानी, संवाद व पटकथा खुद अभिनेता आकाश प्रताप सिंह ने लिखी है.

फिल्म की कहानी में नयापन है. फिल्म की कहानी अपनी मां को अपने पिता के चंगुल से छुड़ाने के लिए लड़ते एक स्कूली छात्र की है. कहानी अच्छी है. फिल्म में घरेलू हिंसा का बालमन पर पड़ने वाले प्रभाव और एक सिंगल पसली स्कूली छात्र के बाक्सिंग रिंग में उतरने की कहानी भी है. अफसोस फिल्म की पीआर कंपनी ने अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाई. जिस के चलते इस फिल्म के बारे में दर्शकों को पता ही नहीं चला. 20 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘में लड़ेगा’ पूर सप्ताह भर में महज 16 लाख रूपए ही कमा सकी, जिस में से निर्माता के हाथ में महज चारपांच लाख रूपए ही आएंगे. इतना ही नहीं इस फिल्म के असफल होने से लेखक व अभिनेता आकाश प्रताप सिंह का कैरियर शुरू होने से पहले ही डूब गया.

 

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