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जब पाकिस्तान की पूरी टीम को मिला था मैन औफ द मैच अवार्ड

क्रिकेट एक ऐसा खेल है, जिसमें कभी भी कुछ भी हो सकता है. इसलिए इस खेल को अनिश्चितताओं का खेल कहा जाता है. इस खेल में अंत तक कुछ भी कह पाना नामुमकिन है. आखिरी गेंद में क्या हो जाए, ये कोई भी नहीं जानता. और इसी क्रिकेट के इतिहास में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसे देखने के बाद आप इस बात से पूरी तरह सहमत हो जाएंगे.

क्रिकेट मैच में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए आम तौर पर किसी एक खिलाड़ी को ‘मैन औफ द मैच’ का खिताब दिया जाता है, लेकिन क्रिकेट इतिहास में कुछ मैच ऐसे भी हुए हैं जब किसी एक, दो या तीन खिलाड़ी को नहीं, बल्कि पूरी टीम को ‘मैन औफ द मैच’ दिया गया. जी हां, ऐसा एक नहीं दो मैचों में हो चुका है. पहला पाकिस्तान और इंगलैंड के बीच खेले गए एक दिवसीय मैच में और दूसरा दक्षिण अफ्रीका और वेस्टइंडीज के बीच खेले गए टेस्ट मैच में.

1 सितंबर 1996 को पाकिस्तान और इंग्लैंड के बीच खेले गए मैच में पाकिस्तान की जीत के बाद उसके सभी 11 खिलाड़ियों को ‘मैन औफ द मैच’ का अवार्ड दिया गया और इसी वजह से ये मैच आज तक खास बना हुआ है.

इस मैच में इंग्लैंड की टीम ने 50 ओवर में 246 रन बनाए, जिसका पीछा करते हुए पाकिस्तान ने 49.4 ओवर में 8 विकेट के नुकसान पर जीत हासिल कर ली. 5 पाकिस्तानी बल्लेबाजो ने 29 से 61 के बीच रन बनाए.

इस मैच की एक खासियत यह भी थी कि दोनों ही टीमों के किसी भी एक खिलाड़ी का प्रदर्शन बहुत शानदार नहीं रहा था. इसी वजह से किसी एक खिलाड़ी को ‘मैन औफ द मैच’ के लिए चुनना चयनकर्ताओं के लिए बहुत मुश्किल काम था. इसलिए एक खिलाड़ी की बजाय पूरी टीम को ही ‘मैन औफ द मैच’ दे दिया गया. वैसे इसमें कुछ ऐसे खिलाड़ी भी शामिल थे, जिनका प्रदर्शन बेहद खराब था.

15 जनवरी, 1999 को दक्षिण अफ्रीका और वेस्‍टइंडीज के बीच पांचवां और आखिरी टेस्‍ट मैच खेला गया. इस मैच में दक्षिण अफ्रीका ने वेस्‍टइंडीज को 351 रनों से पराजित कर 5-0 से यह सीरीज अपने नाम किया. इस मैच में सभी दक्षिण अफ्रीकी खिलाडियों को मैन औफ द मैच और मैन औफ द सीरीज कैलिस को चुना गया था. उस समय के दक्षिण अफ्रीकी कप्‍तान हैंसी क्रोनिये ने कहा था कि ये पूरी टीम के योगदान से जीत मिली है. इसलिए सभी को ये अवार्ड मिलना चाहिए.

यामाहा की ये सुपरबाइक दिल जीत लेगी, लौंचिंग से पहले मचाया धमाल

अग्रणी दुपहिया वाहन निर्माता कंपनी यामाहा ने अपनी नई बाइक से पर्दा उठा दिया है. इसे भारतीय बाजार में जल्द ही लौन्च किए जाने की उम्मीद है. कंपनी का मानना है कि इंडियन मार्केट में नई बाइक की लौन्चिंग के साथ ही कंपनी एक बार फिर से बाजार में छा जाएगी.

यामाहा की नई बाइक को यामहा आर3 के नाम से पेश किए जाने की उम्मीद है. कंपनी ने इस सुपरबाइक से पहले ही पर्दा उठा दिया है, उम्मीद की जा रही है कि भारतीय बाजार में आने वाली यामाहा आर3 का मौडल इंडोनेशिया में चल रहे मौडल के जैसे ही होगा. आइए इस धांसू बाइक की लौन्चिंग से पहले हम आपको बता दें इसके फीचर्स के बारे में.

औटो एक्सपो में हो सकती है लौन्च

यामाहा आर3 का उत्पादन फिलहाल कंपनी की इंडोनेशिया स्थित फैक्टरी में किया जा रहा है. इंडियन मार्केट के लिए इसे यहां पर ही असेंबल किया जाएगा. यामाहा की नई बाइक आर3 का वर्जन तीन रंगों यामाहा ब्लू, विविड व्हाइट और रावेन में उपलब्ध होगा. उम्मीद की जा रही कि कंपनी इसे फरवरी 2018 में शुरू होने वाले औटो एक्सपो में लौन्च करें.

इंजन

इस स्पोटर्स बाइक में 321 cc का 4 स्ट्रोक इंजन दिया गया है जो कि 42 PS का पावर और 30 Nm का टौर्क जनरेट करता है. इस इंजन में पैरलल ट्विन है और लिक्विड कूलिंग और फ्येल इंजेक्शन का इस्तेमाल करता है. बाइक में टेलिस्कोपिक फ्रंट सस्पेंशन और मोनोशौक रियर सस्पेंशन है.

डिस्क ब्रेक

बाइक के दोनों पहियों मे डिस्क ब्रेक के साथ ही अलौय व्हील दिए गए हैं. इस कारण यह बाइक रोड पर चलते समय बहुत ही आकर्षक लगती है. पहियों में ट्यूबलेस टायर्स लगे हैं. इसका वजन करीब 170 किलोग्राम है और यह 170 किमी प्रति घंटा की टौप स्पीड से दौड़ सकती है. कंपनी का दावा है कि बाइक को 0 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार पकड़ने में महज 5.5 सेकेंड लगता हैं.

यामाहा ने R3 के पुराने मौडल की भारत में बिक्री बंद कर दी थी. अब इस बाइक को BS-4 मानकों के हिसाब से लौन्च किया जाएगा. भारतीय बाजार में इसका मुकाबला मुख्य रूप से कावासाकी निंजा 300, बेनेली 302 और केटीएम आरसी 390 से होने की उम्मीद है.

भुवनेश्वर की गेंद पर हुआ कुछ ऐसा की सब हंस पड़े

कोलकाता के ईडन गार्डन स्टेडियम में भारत-श्रीलंका के बीच खेले जा रहे मैच का चौथा दिन काफी रोमांच भरा रहा. श्रीलंका की बल्लेबाजी के समय फील्ड पर खड़े भारतीय खिलाड़ी कभी परेशान दिखे तो कभी खुद कप्तान विराट कोहली भी अपनी हंसी नहीं रोक पाए. दरअसल मैच का 56वां ओवर भारतीय तेज गेंदबाज भुवनेश्वर कुमार करा रहे थे और क्रीज पर खड़े थे रंगना हेराथ. इस दौरान ओवर की तीसरी गेंद पर हेराथ काफी असहज नजर आए.

इसी ओवर की चौथी गेंद पर कुछ ऐसा हुआ कि कप्तान कोहली के साथ फील्ड अंपायर भी खुद की हंसी नहीं रोक पाए. क्योंकि गेंद इतनी तेज थी बल्लेबाज अपना बल्ला उठाता इससे पहले ही गेंद क्रीज के पीछे जा चुकी थी. तब हेराथ भी काफी आश्चर्यचकित हो गए थे. उनका नियंत्रण बिगड़ गया और किसी तरह से खुद को जमीन पर गिरने से संभाला. इस दौरान भुवनेश्वर की गेंदबाजी देख कप्तान भी खुद को हंसने से नहीं रोक पाए. फील्ड अंपायर भी ऐसी गेंदबाजी देखकर मुस्कुराने लगे.

गौरतलब है कि टेस्ट मैच के चौथे दिन रविवार को श्रीलंकाई टीम 294 रन पर औल आउट हो गई है. भारत की ओर से पहली पारी में बनाए गए 172 के स्कोर के तहत श्रीलंका ने 122 रनों की बढ़त ले ली है. श्रीलंका ने चौथे दिन के पहले सत्र में अपने चार विकेट गंवाए.

टीम की ओर से पहले सत्र में आउट होने वाले बल्लेबाज निरोशन डिकवेला (35), दासुन शनाका, दिलरुवान परेरा (4) और कप्तान दिनेश चंडीमल (28) रहे. श्रीलंका टीम को इस कदर कमजोर करने में मोहम्मद शमी ने अहम भूमिका निभाई. उन्होंने मेहमान टीम के तीन बल्लेबाजों को घर भेजा. अपने पहले दिन के स्कोर पर चार विकेट पर 165 रनों से आगे खेलने उतरी श्रीलंका टीम ने 200 के कुल योग पर डिकवेला के रूप में अपना विकेट गंवाया. उन्हें मोहम्मद शमी ने अपनी गेंद पर कप्तान विराट कोहली के हाथों कैच आउट कर पवेलियन भेजा।

 

डिकवेला के आउट होने के बाद टीम के विकेट लगातार गिरते रहे. चंडीमल का साथ देने आए शनाका को भुवनेश्वर कुमार ने खाता खोलने का मौका भी नहीं दिया और बोल्ड कर मेहमान टीम का छठा विकेट गिराया. शनाका जब आउट हुए तब टीम का स्कोर 201 था. इसी स्कोर पर शमी ने चंडीमल को विकेट के पीछे खड़े रिद्धिमान साहा के हाथों कैच आउट कर पवेलियन भेजा. परेरा के साथ मिलकर हैराथ ने आठवें विकेट के लिए 43 रनों की साझेदारी कर टीम को 244 के स्कोर तक पहुंचाया, लेकिन शमी ने इस साझेदारी को ज्यादा देर तक टिकने नहीं दिया और परेरा को भी साहा के हाथों कैच आउट कर श्रीलंका का आठवां विकेट गिराया.

हैराथ ने इसके बाद लकमाल के साथ मिलकर भोजनकाल की घोषणा तक बिना कोई विकेट गंवाए 19 रनों की साझेदारी कर टीम को 263 के स्कोर तक पहुंचाया. भारत के लिए शमी और भुवनेश्वर ने तीन-तीन विकेट लिए, वहीं उमेश यादव ने दो विकेट चटकाए.

हैराथ ने इसके बाद लकमाल के साथ मिलकर भोजनकाल की घोषणा तक बिना कोई विकेट गंवाए 19 रनों की साझेदारी कर टीम को 263 के स्कोर तक पहुंचाया. भारत के लिए शमी और भुवनेश्वर ने तीन-तीन विकेट लिए, वहीं उमेश यादव ने दो विकेट चटकाए था.

किसने ‘एब्यूज’ जैसी लघु फिल्म बनाने के लिए आरती नागपाल को उकसाया

इंसान की जिंदगी और तकदीर भी अजीब होती है. कई वर्ष पहले आकृति नागपाल और दीपशिखा नागपाल बौलीवुड में बतौर अभिनेत्री काफी अच्छा काम करते हुए अपने नाना व उस वक्त के मशहूर लेखक, निर्माता व निर्देशक विट्ठलदास पंचोटिया का नाम रोशन कर रही थी.

पर वक्त बदला दोनो ने विवाह कर लिया और अपने वैवाहिक जीवन में रम गयी. आकृति नागपाल एक बेटे वेदांत और बेटी प्रियांशी की मां भी बनी. बच्चों के बड़े होने पर एक दिन उनके पति ने उनके स्वाभिमान को ऐसा ललकारा कि वह पति से अलग होकर अपने बेटे व बेटी के साथ रहने लगी.

इसी के साथ उन्होने आकृति की जगह अपने जन्म के वक्त माता पिता द्वारा दिए गए नाम आरती नागपाल को अपनाते हुए नए सिरे से बौलीवुड में काम करना शुरू किया. 2016 में उन्होने एक लघु फिल्म ‘‘आई फौट आई सरवाइव्ड’’ का लेखन,निर्माण व निर्देशन किया था. इस फिल्म को कई अवार्ड मिले थे.

अब वह अपनी नई लघु फिल्म ‘‘एब्यूज’’ को लेकर चर्चा में हैं. आरती नागपाल ने इस फिल्म का निर्माण, लेखन व निर्देशन करने के साथ साथ इसमें मुख्य भूमिका भी निभायी है. ‘यूट्यूब’’ पर काफी पसंद की जा रही यह फिल्म पुरूषों द्वारा नारी को दी जाने वाली गाली के मुद्दे पर है.

हाल ही में जब आरती नागपाल से हमारी मुलाकात हुई, तो एक्सक्लूसिव बातचीत के दौरान हमने उनसे पूछा कि किस पल ने उन्हे ‘‘एब्यूज’’ जैसी फिल्म बनाने के लिए उत्साहित किया. इस पर आरती नागपाल ने कहा-‘‘जब कोई इंसान किसी को गाली देता है, तो वह उसके स्वाभिमान को आहत करता है.

जब कोई इंसान किसी से कहता है कि वह कुछ नहीं कर सकता. तब दो ही बातें होती हैं, एक या तो वह टूट जाता है या तो वह कर के दिखाने का संकल्प ले लेता है. मुझे जिंदगी ने ऐेसे मोड़ पर लाकर छोड़ दिया कि आरती नागपाल अब तू खत्म हो गयी.

मैंने कहा कि नही, मैं तो वह हूं, जो अपनी राख से भी जिंदा हो सकती हूं. इसलिए मैने ‘एब्यूज’ बनायी है. इस फिल्म के माध्यम से मैं हर इंसान से कहना चाहती हूं कि गाली मत दो.’’

“सबरंग” में विदेश भागती युवा पीढ़ी की मनःस्थिति का रेखांकन

विदेश भाग रही भारतीय प्रतिभाओं को रोकने अथवा विदेश जा चुकी भारतीय प्रतिभाओं के भारत वापसी की बात करने वाली कुछ फिल्में बनायी जा चुकी हैं. मगर निर्देशक निरंजन भारती अपनी पहली फिल्म ‘‘सबरंग’’ में विदेश भाग रही भारतीय प्रतिभाओं की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए अपने वतन भारत की बजाय विदेश को चुनने की वजहों पर रोशनी डाली है.

उनका दावा है कि इस फिल्म को देखकर युवा पीढ़ी सोचने पर मजबूर हो जाएगी कि उन्हें विदेश जाने की बजाय क्यों भारत में रहकर ही काम करना चाहिए.

फिल्म ‘‘सबरंग’’ की चर्चा चलने पर खुद निरंजन भारती कहते हैं- ‘‘यूं तो हमारी फिल्म ‘‘सबरंग’’ एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म है. मगर हमने एक ऐसे ज्वलंत मुद्दे को भी उठाया है, जो कि युवा पीढ़ी से संबंधित है. हम देख रहे हैं कि आज की युवा पीढ़ी इंजीनियरिंग, डाक्टरी या कम्प्यूटर साइंस में उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद वह अपने उज्जवल व अति बेहतर भविष्य की बात सोचकर भारत में काम करने की बजाय विदेश भागते हैं. आखिर वह ऐसा क्यों करते हैं? हमने फिल्म में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने का प्रयास किया है. हमने फिल्म की कहानी इस तरह से गढ़ी है कि फिल्म देखकर युवा पीढ़ी विदेश जाने की बजाय भारत में ही रहकर काम करने पर विचार करेगी.’’

मूलतः रांची निवासी निरंजन भारती पिछले नौ वर्षों से बौलीवुड में सक्रिय है. बतौर सहायक निर्देशक वह कई सफल सीरियल व फिल्मों से जुड़े रहे हैं. वह कई लघु फिल्में व डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बना चुके हैं. स्वतंत्र निर्देशक के रूप में “सबरंग”  उनकी पहली फिल्म है.

15 दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘सबरंग’’ का संगीत पिछले दिनों मुंबई के अंधेरी इलाके में स्थित ‘आफ द ग्रिड’ होटल में किया गया. दो घंटे की अवधि वाली इस फिल्म में छह गाने हैं, जिन्हें संगीत से संवारा है राज वर्मा ने. ‘उत्तम फिल्म्स’, ‘कीर्ति इंटरटेनमेंट’ और ‘राजवर्मा एंड कंपनी’ के बैनर तले बनी फिल्म ‘सबंरग’ के निर्माता ईश्वर गुप्ता, नुपर गुप्ता व रमेश गुप्ता हैं. मनीश के.पी. यादव लिखित इस फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं- एकांश भारद्वाज, सोनिया लीनर्स, जीत राय सिंह, सनाया शर्मा, आरती गुप्ता, खुशी दुबे, पाणिग्रही व अन्य.

उपराष्ट्रपति से अपेक्षा : जनता के हित की सोचें वेंकैया नायडू

उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद को पाने के बाद भी वेंकैया नायडू भारतीय जनता पार्टी का अपना भगवा चोला नहीं उतार पा रहे हैं. वे अब भी उस की कट्टर नीतियों को सही ठहराने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. हाल में उन्होंने कहा कि संवैधानिक अभिव्यक्ति के अधिकार पर अंकुश भी लगे हैं और किसी के पास भी असीमित अधिकार नहीं हैं.

कट्टरपंथी पहले केवल धर्म के बारे में कहते थे कि उन के धर्म के बारे में हर किसी को हर बात कहने का हक नहीं है और अब, चूंकि वे सरकार में आ गए हैं, उन का आशय यह है कि धर्म के आदेश पर बनी सरकार की आलोचना करने का अधिकार किसी को नहीं है.

धर्म हो या सरकार, अभिव्यक्ति में चाटुकारिता हो तो इस अधिकार के उपयोग पर कट्टरपंथियों को कोई आपत्ति नहीं होती. अल्लाह, जीसस, राम, कृष्ण, शिव, गोडसे, वाजपेयी, मोदी की तारीफ करनी हो, तो ही अभिव्यक्ति का अधिकार है. इन के बारे में कोई भी कटु सत्य उन्हें स्वीकार नहीं है. तब तो, वे इस बारे में नाराज हो उठते हैं कि सच क्यों बोला गया. खासतौर पर आपत्ति तब होती है जब अपने ही सच बोलते हैं. विरोधी विधर्मी तो बोलेंगे ही पर जब सरकार के अधीन रहने वाले सरकार की पोलपट्टी खोलते हैं तो अभिव्यक्ति की सीमाएं नजर आने लगती हैं.

अभिव्यक्ति के अधिकार ने ही दुनिया की शक्ल बदली है. जब से मुद्रण कला का विकास हुआ है और आम आदमी को अपनी बात रखने का अवसर मिला है तभी से नईनई खोजें हुई हैं. जिन समाजों में पहले भी हस्तलिखित सामग्री या श्रुतियों से विरोध का अवसर था, वहां भी प्रगति हुई है क्योंकि सरकार या समाज के ठेकेदार अपनी मनमानी नहीं थोप पाते थे. जहां राजा या धर्म के दुकानदारों ने अपनी चलाई वहां लूटपाट, निरंकुशता, अत्याचार, निर्ममता भरी रही है.

आज भी जिन देशों में अभिव्यक्ति का अधिकार केवल दिखाने मात्र का है वहां सरकारों की सारी शक्ति विरोधियों को कुचलने में लगी रहती है. उत्तरी कोरिया, रूस, चीन, तुर्की की सेनाएं मजबूत हैं पर चीन के अलावा बाकी सारे देशों की जनता कराह रही है क्योंकि वहां न तो सरकार को और न सरकार समर्थित समाज के नियमों को चुनौती दी जा सकती है.

अभिव्यक्ति के अधिकार का उपयोग कर के ही नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है. चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार के सच्चे झूठे आरोप लगाए थे जिन में आज तक कोई साबित नहीं हो पाया है और जनता से लूटे गए अरबों रुपयों में से कुछ भी वापस जनता के खजाने में नहीं आया है. उन आरोपों पर तब की सरकार अंकुश लगाती तो शायद वह हारती ही नहीं.

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत संकीर्णता से निकल कर जनता के हित की सोचें. हो सकता है कि उन के मन में राष्ट्रपति बनने की लालसा जाग चुकी है, जिस के लिए वे सरकार की हां में हां मिलाना आवश्यक समझते हैं. पर, जनता चाहेगी कि उपराष्ट्रपति अपने व्यक्तिगत नहीं, जनता के अधिकारों की रक्षा करें, उस की अभिव्यक्ति के अधिकार का दायरा विस्तृत करें, संकुचित नहीं.

मुझे हर फिल्म में सशक्त किरदार निभाना है : मोहित मदान

बौलीवुड के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है. भारतीयों के साथ साथ विदेशी भी बौलीवुड से जुड़ने के लिए बेताब नजर आते हैं. ऐसे में यदि मूलतः भारतीय मगर विदेश में बसे अप्रवासी भारतीयों की संताने बौलीवुड में करियर बनाने के लिए वापस भारत आ रहे हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है. मसलन सनी लियोनी की पहचान कनाडियन पौर्न स्टार के रूप में होती है, पर मूलतः वह भारतीय ही हैं. इसी तरह हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘‘अक्सर 2’’ में बच्चन सिंह का ग्रे किरदार निभाकर चर्चा बटोर रहे अभिनेता मोहित मदान भी मूलतः भारतीय ही हैं. उनका जन्म दिल्ली में हुआ था. मगर जब वह एक वर्ष के थे, तभी अपने माता पिता के साथ न्यूजीलैंड के औकलैंड शहर में जाकर रहने लगे थे. एमबी और सी ए तक की पढ़ाई कर चुके मोहित मदान की शिक्षा दिक्षा भी न्यूजीलैंड में ही हुई. मगर बौलीवुड अभिनेता बनने की चाह के कारण चार वर्ष पहले वह मुंबई आ गए थे. अब तक उनकी दो फिल्में ‘‘लव एक्सचेंज’’ और ‘‘अक्सर 2’’ प्रदर्शित हो चुकी है.

‘‘अक्सर 2’’ के प्रदर्शन के दूसरे दिन उनसे हुई बातचीत इस प्रकार रही.

तो आप महज अभिनेता बनने के लिए न्यूजीलैंड छोड़ मुंबई पहुंच गए?

हमारे लिए तो अपने वतन में वापस आना है. हम लोग मूलतः दिल्ली के रहने वाले हैं. मेरा जन्म दिल्ली में ही हुआ था, मगर बचपन में ही हम अपने माता पिता के साथ न्यूजीलैंड जाकर बस गए थे. तो मेरी शिक्षा दिक्षा न्यूजीलैंड में हुई. चार वर्ष पहले ही मुंबई वापस आया हूं. बचपन से ही मुझे फिल्म देखने का शौक रहा है. मैं बचपन से ऐसी हरकतें करता आया हूं, जिसे देखकर लोग हंसते थे. लोगों को हंसाना मेरी आदत सी बन गयी थी. तो बचपन से ही दिमाग में अभिनय की बात थी. लेकिन मेरे पिता जी की इच्छा थी कि मैं पहले पढ़ाई पूरी करुं इसलिए मैंने चाटर्ड एकाउंटैंसी की पढ़ाई की. उसके बाद फिल्म मेकिंग की पढ़ाई की. यह कहना गलत होगा कि मैं किसी से प्रेरित होकर अभिनय के क्षेत्र में आया हूं. हकीकत यह है कि मैं बचपन से ही अभिनय करना चाहता था.

मैं निजी जिंदगी में अपने पापा से बहुत प्रभावित हूं. मैंने उनको मेहनत करते और समस्याओं से जूझते हुए आगे बढ़ते देखा है. मेरा जन्म मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. मेरे पापा ने अपने बच्चों के लिए बहुत त्याग किया है. पढ़ाई पूरी होने के बाद मैंने उनको समझाया और उनकी रजामंदी के बाद ही मैं न्यूजीलैंड से मुंबई आया. बचपन से ही मुझे शाहरुख खान की फिल्में देखने का शौक रहा है. इसकी एक वजह यह भी है कि मेरी मम्मी शाहरुख खान और अक्षय कुमार की फिल्मों की शौकीन हैं.

आपके पापा ने भारत छोड़कर न्यूजीलैंड में बसने का निर्णय क्यों लिया था?

अपने बच्चों को बेहतर जिंदगी दे सकने के लिए. मेरे पापा इंजीनियर और मम्मी गृहिणी हैं.

जब आप अपने पापा से प्रभावित हैं, तो फिर आपने इंजीनियर बनने की बजाय अभिनय को क्यों चुना?

मेरे पापा चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं पर उन्होनें मुझ पर दबाव नहीं डाला. पढ़ाई करते समय मैंने फाइनेंस को चुना. पहले मैंने बिजनेस मैनेजमेंट किया. फिर सीए बना. मैंने कुछ समय के लिए न्यूजीलैंड में औडिटर की नौकरी भी की लेकिन किस्मत में जो लिखा होता है, वह बदलता नहीं है. बनना तो मुझे अभिनेता ही था, इसलिए जब पापा ने इजाजत दी, तो मुंबई आकर अपनी एक नयी यात्रा शुरू की.

मुंबई में आपकी नई यात्रा कैसी रही?

जब मैं न्यूजीलैंड में औडिटर की नौकरी कर रहा था, उन्हीं दिनों मैं वहां शाम को न्यूयार्क फिल्म अकादमी में फिल्म मेकिंग व एक्टिंग सीखने जाया करता था. इसके अलावा मैंने काफी थिएटर किया. मगर मुंबई आने के बाद तो सब कुछ बदला हुआ पाया.

यहां संघर्ष काफी है?

जी हां! मुझे भी बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा. पर मैंने सीखा कि हर उभरते हुए कलाकार को ‘ना’ सुनने की आदत डाल लेनी चाहिए क्योंकि यहां ना बहुत सुनना पड़ता है. हर औडिशन से ज्यादा उम्मीदें नहीं लगानी चाहिए, जब जो फिल्म मिलनी होगी, मिल जाएगी, उसे कोई रोक नहीं सकता. धैर्यवाना होना जरूरी है. लोगों ने मुझे झूठे सपने दिखाए. गलत राह बतायी. धीरे धीरे सही गलत की समझ आती गयी. फिल्म पाने के लिए संघर्ष के साथ साथ वर्कशाप करता रहा.

पहली फिल्म ‘‘लव एक्सचेंज’’ कैसे मिली थी?

मेरी पहली फिल्म ‘‘लव एक्सचेंज’’ मेरे एक मित्र की वजह से ही मिली थी, जिसमें मैंने एक मराठी लड़के का किरदार निभाया. इस फिल्म के निर्देशक राज शेट्टी थे, जिनसे मुझे काफी कुछ सीखने को मिला. यह फिल्म अक्टूबर 2015 में रिलीज हुई थी.

अक्टूबर 2015 के बाद अब नवंबर 2017 में आपकी दूसरी फिल्म ‘‘अक्सर 2’’ प्रदर्शित हुई है?

फिल्म ‘‘लव एक्सचेंज’’ के बाद मेरे पास कई आफर आ रहे थे. उस वक्त टीवी के आफर भी आने शुरू हुए पर होता यह था कि जब टीवी करने के लिए मैं हामी भरूं, उससे पहले ही फिल्म का आफर आ जाता था. तो मुझे मना करना पड़ता था. पांच माह तक सिर्फ बातें होती रही. फिर मई 2016 में मुझे फिल्म ‘अक्सर 2’ मिली जो कि इसी सप्ताह रिलीज हुई है.

‘‘अक्सर 2’’ को आपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है. तो आपने क्या सोचकर यह फिल्म स्वीकार की थी?

अभी तो सिर्फ दो दिन हुए हैं. धीरे धीरे दर्शकों तक यह फिल्म पहुंच रही है. जहां तक मेरे इस फिल्म को करने का सवाल है, तो यह एक ऐसी फिल्म है, जिसे कोई भी कलाकार मना न करता क्योंकि यह सफलतम फिल्म ‘‘अक्सर’’ का सिक्वअल है. दूसरी बात इसके निर्माता व निर्देशक भी वही हैं. तीसरी बात मुझे पटकथा और मेरा बच्चन सिंह का किरदार भी पसंद आया. बच्चन सिंह की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किरदार मेरे व्यक्तित्व के ठीक विपरीत हैं. आपने फिल्म देखते हुए पाया होगा कि बच्चन सिंह खुदगर्ज है,सिर्फ अपने बारे में सोचता है. आज की तारीख में हर इंसान खुदगर्ज है. इसलिए भी मेरे किरदार के साथ लोग रिलेट कर रहे हैं.

इस फिल्म में आपके साथ अभिनव शुक्ला व जरीन खान भी हैं, जो कि पहले सीरियल व फिल्में कर चुके हैं. तो इनके बीच खो जाने का डर नहीं था?

बिलकुल नहीं. मुझे अच्छा एक्सपोजर मिला. फिल्म देखकर जिस तरह से लोग रिलेट कर रहे हैं, उससे मुझे खुशी हुई. आपने फिल्म देखी होगी तो पाया होगा कि इस फिल्म का हर किरदार सशक्त है.

कुछ लोग मानते हैं कि करियर की शुरुआत में ग्रे किरदार करना गलत होता है?

पर मैं ऐसा नहीं मानता. मेरी राय में ग्रे किरदारों में अभिनय दिखाने के मौके ज्यादा होते हैं.

आप न्यूजीलैंड में पले बढ़े हैं. इसलिए आपको पटकथा में कमियां नजर आती रहीं. क्योंकि भारत व न्यूजीलैंड के कलचर में फर्क है?

ऐसा ना कहें. मेरी परवरिश पूरी तरह से भारतीय बच्चे के रूप में हुई है. मेरा दिल पूरी तरह से हिंदुस्तानी है. आपको मेरे उच्चारण में कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अप्रवासी भारतीय हूं. मेरे घर में मेरी मम्मी हमेशा शुद्ध हिंदी में बात करती थीं. तो मैंने हर फिल्म की पटकथा को भारतीय संस्कृति के हिसाब से ही पढ़ा. पर कई बार लगा कि वह मेरे लिए उचित नहीं है या किरदार ठीक नही था.

किस तरह के किरदार निभाना चाहते हैं?

मुझे हर फिल्म में सशक्त किरदार निभाना है. मुझे प्रभावशाली और यादगार किरदार निभाने हैं.

कहा जा रहा है कि सिनेमा बदल गया है. क्या उसका फायदा आपको नहीं मिल रहा है?

सिनेमा के बदलाव की वजह से ही नए कलाकारों को काम मिल रहा है, फिर भी अड़चनें आती हैं. मैं खुद को एक नया कलाकार ही मानता हूं क्योंकि यहां स्थापित कलाकार भी हैं, फिल्म सितारों की संताने भी हैं. सिनेमा में आए बदलाव के ही कारण ‘‘न्यूटन’’ जैसी फिल्में सफल हो रही हैं.

इसके अलावा कौन सी फिल्म कर रहे हैं?

मैंने एक फिल्म जो जो डिसूजा की ‘‘इश्क तेरा’’ की है, जिसमें मैंने राहुल व कबीर की दोहरी भूमिका निभायी है. इस फिल्म में मेरे साथ हृषिता भट्ट हैं. फिल्म की कहानी के केंद्र में पति पत्नी हैं. पत्नी की स्प्लिट पर्सनालिटी है. इस विषयवस्तु ने मुझे बहुत प्रभावित किया क्योंकि स्प्लिट पर्सनालिटी की बीमारी का दवाई में कोई इलाज नही है. फिल्म में परिवार प्यार और कमिटमेंट की बात की गयी है. यह फिल्म लोगों को बताएगी कि हमें दूसरों के साथ किस तरह से व्यवहार करना चाहिए, जिससे वह इस बीमारी से छुटकारा पा सके. इसके अलावा एक अन्य फिल्म की कुछ दिन शूटिंग की है, जिसके बारे में अभी कुछ बताना ठीक नही है.

कानून लागू करने वाले तंत्र के मुंह पर है कोर्ट का ये तमाचा

श्रीलंका की सुप्रीम कोर्ट ने एक ब्रिटिश महिला के साथ अत्याचार के मामले में ऐतिहासिक फैसला देते हुए सरकार को उसे भारी मुआवजा देने का आदेश दिया है. इस विदेशी महिला को पुलिस ने बुद्ध का अपमान करने के आरोप में महज इसलिए गिरफ्तार कर लिया था कि उसने अपनी दाहिनी बांह के ऊपरी हिस्से पर बुद्ध का टैटू बनवा रखा था. कोर्ट ने इस महिला की गिरफ्तारी को उसकी स्वतंत्रता, समानता, अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही उसके मौलिक अधिकारों का हनन माना और उसकी प्रताड़ना के एवज में आठ लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया है.

मुआवजे के पांच लाख रुपये सरकार, जबकि 50-50 हजार रुपये पुलिस के दो अफसरों को देने होंगे. कोर्ट ने सरकार को दो लाख रुपये हर्जाने के रूप में भी देने का आदेश दिया. कोर्ट ने देश छोड़ने का आदेश जारी करने वाले मजिस्ट्रेट को भी अधिकारों का अतिक्रमण करने के लिए फटकार लगाई. सर्वोच्च अदालत का यह फैसला निश्चित तौर पर देश में कानून लागू करने वाले तंत्र के मुंह पर तमाचा है.

अदालत ने माना कि इस मामले में पुलिस और पूरी व्यवस्था ने किसी पश्चिम एशियाई देश की तरह ‘धार्मिक पुलिसिंग’ का काम किया. कोर्ट ने माना कि महिला कर्म से बौद्ध धर्मावलंबी है और नेपाल, थाईलैंड, कंबोडिया और भारत जैसे देशों के ध्यान शिविरों में शामिल होती रही है. कोर्ट इस बात से संतुष्ट थी कि किसी बौद्ध अनुयायी का अपनी बांह पर बुद्ध का टैटू बनवाना किसी भी तौर पर गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता. महिला का आरोप था कि पुलिस ने टैटू के लिए न सिर्फ उसे गिरफ्तार किया, बल्कि उसके साथ अभद्रता की और उससे घूस मांगी गई. एक विदेशी होने के बावजूद न्यूनतम नियमों का ख्याल नहीं रखा गया.

अदालत ने इन सारी बातों के लिए संबद्ध पक्षों को कड़ी फटकार लगाई व इसे महिला से अवांछित आर्थिक लाभ लेने के लिए प्रताड़ित करने का मामला माना. यह फैसला सिस्टम में बैठे उन लोगों के लिए तमाचा है, जिनकी नाक के नीचे हर दिन महात्मा बुद्ध और उनके उपदेशों का अपमान होता है, पर उस वक्त उनका यह बुद्ध प्रेम नहीं जागता.

पापा कहते थे बेटा नाम करेगा, मगर यह क्या

कोई भी काम करने के लिए व्यक्ति के अंदर दृढ़ इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है. यही शक्ति इंसान को ऊंचाई तक पहुंचाती है. हाल में राजस्थान के कोटा शहर से आत्महत्या का एक ऐसा मामला सामने आया जिसे जान कर लोगों की आंखें नम हो गईं. यह आत्महत्या उस छात्रा ने की जो अत्यंत कठिन मानी जाने वाली परीक्षा जेईई में सफल हो गई थी. मगर अगले 4 वर्ष तक जिन विषयों को उसे पढ़ना पड़ता उन में उस की रुचि नहीं थी. वह मैडिकल की पढ़ाई करना चाहती थी. इस से तो यही लगता है कि वह लड़की कोटा किसी और के दबाव में गई और वहां रह कर उस परीक्षा में बैठी जिस में उस की अपनी इच्छा नहीं थी. इस प्रकार उस पर दोहरा दबाव पड़ा जिस के कारण अवसाद में घिर कर उस ने ऐसा गलत कदम उठा लिया.

इस छात्रा के मामले में जो कुछ हुआ उस से कई प्रश्न फिर एक बार शिक्षा व्यवस्था के सामने उभर कर आ गए हैं. इन पर गहराई से विचार होना चाहिए. ऐसे आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है कि जिन से इस प्रकार की त्रासदी किसी भी परिवार को न झेलनी पड़े. क्या कभी इस बालिका के अध्यापकों और परिवार के लोगों ने उस की रुचि और अरुचि जानने के प्रयास किए थे? इस प्रश्न का जवाब सभी चाहते हैं. इस के लिए ऐसे प्रावधान करने होंगे कि अध्यापक, स्कूल और अभिभावक मिल कर हर बच्चे को उसी दिशा में आगे बढ़ने दें जिस में उस की रुचि हो. विदेशों में ऐसी व्यवस्था कार्य कर रही है. वहां बच्चों की रुचि जानने की कोशिश की जाती है. फिर उन की रुचि के अनुसार मदद दी जाती है. प्रतिभा के विकास के लिए ऐसा करना आवश्यक है. हमारे देश में समस्या यह है कि शिक्षित मातापिता, जो प्रतिस्पर्धा की भयावहता को जानते हैं, वे भी बच्चों पर अपनी रुचि थोपते हैं.

कोटा बनी कब्रगाह

कभी टौपरों के लिए मशहूर कोटा शहर अब छात्रों की कब्रगाह सा बन गया है. वहां मातापिता के सपने चकनाचूर हो रहे हैं. समाज का दबाव छात्र सह नहीं पा रहे. लालची संस्थानों के जबड़े उन्हें मार रहे हैं. कोटा का कोचिंग उद्योग कभी आईआईटी और एम्स समेत देश के शीर्ष इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले की गारंटी वाला हुआ करता था. लेकिन अब यह मुखौटा उतरने लगा है. बीते कुछ दिनों से यह अपनी कामयाबी के लिए नहीं, बल्कि हताशा में जान देते बच्चों के कारण सुर्खियां बटोर रहा है. इस उद्योग का चरित्र अब बदल गया है. कोटा कोचिंग क्लासेस की राजधानी के तौर पर मशहूर है. देश के हर राज्य से आईआईटी या शीर्ष मैडिकल कालेजों में दाखिला पाने का सपना ले कर यहां छात्र आते हैं. लेकिन अब यह शहर उन के लिए कब्रगाह बनता जा रहा है. उम्मीदों के भारी बोझ यहां छात्रों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहे हैं. आत्महत्या करने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन सरकार ने इसे रोकने की दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है.

हताश क्यों हैं छात्र

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते 5 वर्षों में ऐसे मामलों की तादाद 82 पहुंच गई है. लेकिन सवाल यह है कि आखिर यहां छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इस के जवाब की तलाश के लिए इस उद्योग के विभिन्न पहलुओं पर गौर करना जरूरी है. वरना निराश छात्र इसी तरह जान देते रहेंगे. इस के लिए कोचिंग छात्रों की जीवनशैली की पड़ताल की जानी जरूरी है. आत्महत्या की 4 वजहें हैं. भारी प्रतिद्वंद्विता, क्षेत्रवाद, उम्मीदों का भारी बोझ और घर से दूर रहने का दर्द. यहां के कोचिंग संस्थान लाखों रुपए फीस लेते हैं. इन कोचिंग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन और नंबरों के आधार पर भारी भेदभव होता है. कमजोर छात्रों को ओछी निगाह से देखा जाता है. उन के साथ सौतेला व्यवहार होता है. इस कारण उन में धीरेधीरे हीनभावना घर करने लगती है.

यहां के छात्रों को शुरुआत में ही ए, बी, सी, डी ग्रुपों में बांट दिया जाता है. उस में शीर्ष 10-15 छात्रों के लिए बेहतरीन शिक्षक मुहैया कराए जाते हैं. लेकिन बाकी छात्रों को उस स्तर का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. हर छात्र से समान फीस लेने के बावजूद कमजोर छात्रों से सौतेला व्यवहार होता है. तेज छात्र भी उन की मदद नहीं करते जिस के कारण वे हताश हो कर अपनी जान ही दे देते हैं. हालांकि कोचिंग संस्थान यह कहते हैं कि हर छात्र की जरूरत अलगअलग होती है. इसी वजह से उन का वर्गीकरण किया जाता है. लेकिन सचाई कुछ और ही है.

पेइंगगैस्ट का कारोबार

कोटा में पेइंगगैस्ट का कारोबार भी तेजी से पनपा है. मोटी रकम ले कर लोग बच्चों को पेइंगगैस्ट के रूप में रखते हैं. पेइंगगैस्ट के रूप में छोटे से कमरे में 4-4 छात्रों को रखा जाता है और उन से घटिया खाने के एवज में भी काफी पैसे वसूले जाते हैं. इस के साथ ही, कोचिंग संस्थानों में हफ्ते के सातों दिन 12 से 14 घंटे पढ़ने और ऊपर से होमवर्क का दबाव. यह चौतरफा दबाव उन को आत्महत्या करने के लिए उकसा रहा है. उन का जीवन निराशा में डूब रहा है. परिवार, कैरियर और पढ़ाई का दबाव युवाओं को अवसाद में डाल रहा है. ऐसे में छात्रों के सपने 1-2 महीनों में ही बिखरने लगते हैं. कुछ छात्र इस दबाव को नहीं झेल पाने की वजह से घर लौट जाते हैं तो कुछ नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं. आखिर में नाकाम होने पर वे आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं.

दर्द किस से बांटें

यहां हर कोचिंग सैंटरों पर सुबह से ही साइकिलों की लाइन लग जाती है. छात्रों पर पढ़ाई का दबाव इतना ज्यादा होता है कि वे मनोरंजन के बारे में सोच ही नहीं सकते. सुबह से शाम तक बस पढ़ाई ही पढ़ाई. उन के लिए मनोरंजन तो सपने के समान है. ज्यादातर छात्र मध्यवर्गीय परिवार के होते हैं. जिन के मांबाप सपनों को साकार करने के लिए लाखों की फीस भर कर यहां भेजते हैं. कई छात्रों के घर वालों को जमीन व मकान तक बेचना पड़ता है. ऐसे में छात्र सोचते हैं कि वे आखिर किस मुंह से खाली हाथ घर लौटें. यही सोच उन को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करती है लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि अवसाद के हर मामले आत्महत्या तक नहीं पहुंचते. दरअसल, छात्र अपना दर्द किसी से बांट नहीं पाते, इसलिए उन का अवसाद बढ़ता जाता है. उन को हर वक्त यही सवाल सताता है कि अगर खाली हाथ घर लौटे तो लोग क्या कहेंगे? उन पर सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है. कोचिंग के लिए आने वाले छात्र पहली बार अपने घर से दूर रहते हैं. ऐसे में हालात से सामंजस्य बिठाना सब के लिए संभव नहीं होता.

आखिर जिम्मेदार कौन?

अभिभावक अपने अधूरे सपनों को अपने बेटेबेटियों के जरिए पूरा करना चाहते हैं जिन्हें वे खुद पूरा नहीं कर पाए हैं. उन को यह समझना चाहिए कि हर आदमी डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही नहीं जी सकता. रोजगार के कई और क्षेत्र भी हैं. यहां पहुंचने वाला हर छात्र आईआईटी या एम्स जैसे नामी संस्थानों में दाखिला लेने का इच्छुक होता है. लेकिन सब के लिए ऐसा करना संभव नहीं होता. करोड़ों का टर्नओवर वाला कोटा शहर अपने कोचिंग उद्योग के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है. हर वर्ष सतरंगी सपनों के साथ सवा लाख छात्र यहां विभिन्न कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते हैं. इन में से उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और हरियाणा के छात्रों की संख्या सब से ज्यादा होती है. ऐसे छात्र करीब 85 फीसदी हैं. यहां के किसी भी संस्थान की सालाना 2 लाख रुपए से कम फीस नहीं है. ऊपर से रहनेखाने का खर्च 15 से 20 हजार रुपए महीना.

अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में कोचिंग का सालाना कारोबार 40 हजार करोड़ रुपए का है. इस उद्योग से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, अब यह 50 हजार करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है. इस के साथ पेइंगगैस्ट, होटल और दूसरे सहायक उद्योगों को जोड़ लें तो यह आंकड़ा 75 हजार करोड़ रुपए के आसपास पहुंच जाएगा.

दृष्टिकोण बदलना होगा

अपने देश में शिक्षा देने की एक विधा हजारों वर्षों में प्रस्फुटित हुई थी जिस में अध्ययन के बाद भी 3 अन्य आयाम थे–मनन, चिंतन और उपयोग. विदेशी शासन के दौरान इसे समाप्त करने के कई प्रयास किए गए. जिस के कारण देश में ही इस की सार्थकता से लोग अनभिज्ञ होते गए. अब हम अन्य को दोष देने की स्थिति में नहीं हैं. स्वतंत्रता के बाद से हमें सुधार करने के लिए काफी समय मिल चुका है. अध्ययन व अध्यापन में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है. यदि हमारे अध्यापक यह समझ लें कि ज्ञान का खजाना तो हर विद्यार्थी में है. बस, इसे निखारने की जरूरत है. यदि स्कूल के किसी छात्र को कोचिंग जाना पड़ता है तो यह उन की कमी और उन के अध्यापकों की अक्षमता मानी जाएगी. इस में सुधार आ सकता है.

स्कूल, अध्यापक और अभिभावक तीनों एकसाथ निर्णय करें कि बच्चों को स्कूल में ही आदर्श वातावरण देना है तो कोचिंग संस्थान भी बंद होंगे और बच्चों की आत्महत्याएं भी. दरअसल, हमारे सरकारी स्कूल स्तरहीन होते गए. अध्यापकों ने विद्यालयों में नियमित जाना और पढ़ाना कम कर दिया. वे स्वयं ट्यूशन के लिए बच्चों पर दबाव बनाने लगे. वे अब स्कूल को कम और कोचिंग को ज्यादा महत्त्व देने लगे. इस का भरपूर फायदा कोचिंग संस्थान उठाने लगे. इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकार के साथ समाज के संगठित प्रयास की जरूरत है.

वैसे, कोटा में आत्महत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए केंद्र सरकार ने भारतीय तकनीकी संस्थानों के साथ मिल कर बीते 50 वर्षों के दौरान आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं के प्रश्नपत्र और उन के जवाब जारी करने का फैसला किया है. इस का मकसद छात्रों की सहायता करना और कोचिंग संस्थानों का असर कम करना है. ये प्रश्नपत्र एक मोबाइल ऐप और एक पोर्टल के जरिए हासिल किए जा सकते हैं. यह कैसी विडंबना है कि हमारे युवा जिन के हाथों में इस देश का भविष्य है, वे ही अपने भविष्य को समाप्त करने पर तुले हैं. कारण कुछ भी हो, इस मानसिकता को रोकना होगा. यह चिंता का विषय है, बहस का नहीं. बंद करना होगा यह सिलसिला. इस के लिए एकजुट हो कर प्रयास करने की जरूरत है.

सब से पहले पेरैंट्स को आगे आना होगा, उन्हें जाननी होगी बच्चों की ख्वाहिश, तोड़नी होगी उन की खामोशी. उन के संस्करों में यह घोल देना होगा कि तुम सिर्फ तुम हो. पूरी तरह से संपूर्ण, पूरी तरह से सुरक्षित. तुम किसी के जैसे नहीं, कोई तुम्हारे जैसा नहीं. रही बात संघर्ष की, असफलता तो जीवनका एक हिस्सा है. साथ ही टीचर्स को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी. पेरैंट्स के बाद अगर कोई बच्चों को इतने करीब से देखता है तो वो है टीचर. उन्हें बच्चों की आपस में तुलना न कर के उन के सामूहिक विकास पर बल देना चाहिए.

इन पांच तरीकों से अपने पार्टनर को आप भी कर सकते हैं खुश

शारीरिक संबंध बनाने के दौरान ऑर्गैजम यानी संतुष्टि की चरम सीमा पर पहुंचना अहम होता है. कुछ लोगों का ऑर्गैजम बहुत जल्दी हो जाता है और वे पार्टनर को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं.

यहां आपको ऐसे ही पांच तरीके के बारे में बता रहे हैं.

1. मूड सही होता है तो हर चीज की शुरुआत अच्छी होती है. आप अपने कमरे में कोई रोमांटिक संगीत और कैंडल जलाकर माहौल बना सकते हैं. इससे आपका सेंट्रल नर्वस सिस्टम शांत होगा. या तो आप अपने पार्टनर के पीठ का मसाज करें या उनसे मसाज करवाएं, इससे बेहतर मूड बनाने में मदद मिलेगी. जितना अच्छा मूड होगा, उतना लम्बा और जोरदार क्लाइमेक्स होगा.

2. एक-दूसरे की तारीफ करने से आपकी करीबी बढ़ेगी. अपने पार्टनर को बताएं कि आप उनकी किन अदाओं को बिस्तर पर पसंद करते हैं. इससे आपको अच्छा ऑर्गैजम पाने में मदद मिलेगी.

3. घर पहुंचते ही पार्टनर के साथ बात करें और डर्टी तरीके से उनकी मसाजिंग करें. इससे आपका और आपके पार्टनर का मूड बनेगा. डर्टी टॉक से संबंध बनाने के लिए उत्तेजित होने में मदद मिलेगी.

4. आर्गैजम में फोरप्ले का अहम योगदान होता है. इसे कम करके नहीं आकंना चाहिए. जब आपको लगे कि आप क्लाइमैक्स तक पहुंचने वाले हैं, थोड़ी देर के लिए ठहर जाएं और फिर शुरुआत करें. ऐसा चार-पांच बार करें, इससे लंबे समय बाद क्लाइमैक्स होगा.

5. पार्टनर के शरीर के संवेदनशील हिस्सों पर ऑरल करने से उत्तेजना लम्बे समय तक बनी रहेगी. कुछ देर सब्र के साथ इस चीज को ट्राई करें. इससे सुख की चरम सीमा तक पहुंचने में मदद मिलेगी.

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